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________________ १३. ते भोगी कहिवाय, तेह भोग तजतो छतो। महानिर्जरा ताय, सुरलोके' ते जावतो।। १४. मनष्य अहो भगवान ! अल्प अवधि ज्ञानी थयं । नियत खेत्र सुज्ञान, सुर गति जोग तिको कह्य ।। १३. तम्हा भोगी, भोगे परिच्चयमाणे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ। (श० ७१४६) १४. आहोहिए णं भंते ! मणूसे जे भविए अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववज्जित्तए. 'आहोहिए णं' ति 'आधोऽवधिकः' नियतक्षे. विषयावधिज्ञानी। (वृ० ५० ३११) १५. एवं चेव जहा छउमत्थे जाव (सं० पा०) महापज्ज वसाणे भवइ। १५. कह्यो छद्मस्थ आलाव, ए पिण इम हिज जाणवो । जाव पर्यवसान भाव, एह लग सह आणवो' ।। सोरठा १६. अवधिवंत मन साधि, रोगादिक तनु क्षीण तसु । उहाण प्रमुखे वादि, भोग भोगविवा नहिं प्रभ ? १७. सुर गति योग्यज एह, एम अर्थ कहो छो तुम्हे ? तब भाखै जिन तेह, एह अर्थ समर्थ नहीं ।। १८. उद्राण प्रमुख करेह, भोग भोगविवा छै प्रभु । ते भोगी भोग तजेह, महानिर्जरा ह तसु॥ १६. से नूणं भंते ! से खीणभोगी नो पभू उट्टाणणं, ........ भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए ? १७. से नूणं भंते ! एवमट्ठ एवं वयह ? गोयमा ! णो तिणठे समठे । १८. पभू णं से उट्ठाणेण वि......."भोगभोगाई भुजमाणे विहरित्तए, तम्हा भोगी, भोगे परिच्चयमाणे महानिज्जरे। (श० ७।१४७) १६. परमाहोहिए णं भंते ! मणूसे जे भविए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झित्तए जाव अंतं करेत्तए, १६.*परम अवधिज्ञानी पेख, ते प्रभ ! तिणहिज भव मही । मक्ति जावा योग्य देख, चरमशरीरी ते सही। २०. परम अवधिज्ञानी प्रवर, चरमशरीरी होय । तिण सं तिण भव शिव-गमन योग्य कह्या छ सोय ।। २१. *ते नर हे भगवान! दुर्बल देह रोगादि करी । छद्मस्थ नर जिम जाण, सर्व पाठ कहिवो फिरी ॥ २२. केवली मन भगवान, मक्ति जोग तिण भव मही। परम अवधि जिम जाण, जाव पर्यवसान ते हुई । २० परमाधोऽवधिकज्ञानी, अयं च चरमशरीर एव भवतीत्यत आह-'तेणेव भवग्गहणणं सिज्झित्तए' इत्यादि । (वृ० प० ३११) २१. से नूणं भंते ! से खीणभोगी सेसं जहा छउमत्थस्स । (सं० पा०) (श० ७.१४८) २२. केवली णं भंते ! मणूसे जे भविए तेणेव भवग्गहणेणं एवं चेव जहा परमाहोहिए जाव (सं० पा०) महापज्जवसाणे भवति। (श० ७.१४६) * लय : जी हो धनो नै सालभद्र दोय १. यहां महापज्जवसाण का अनुवाद सुरलोक किया गया है। २. यह जोड़ संक्षिप्त पाठ के आधार पर की गई है । इसके बाद की तीन गाथाओं में उस संक्षिप्त पाठ को पूरा कर दिया गया है। संभव है जयाचार्य को उपलब्ध प्रति में यह पाठ दोनों प्रकार से था। अंगसुत्ताणि भाग २ में भी यही क्रम रखा गया है। २६८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational cation International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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