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________________ २३. आराधक प्रभु ! तेह विराधक ? जिन भाखे सद्भाव । तेह आराधक नहीं विराधक, ए दूजो आलाव ॥ २४. बलि आलोयणादिक में चाल्पो पुगो नहि स्वविरां पास | मार्ग मांहि सुण्यो काल कीधो, स्थविर बड़ा गुण-रास ॥ २५. आराधक प्रभु ! तेह विराधक ? तब भाले भगवान | से आराधक नहीं विराधक, तृतीय आलावो जान ॥ २६. वलि आलोयणादिक नैं चाल्यो, पूगो नहिं स्थविरां पास | विच में पोते काल कियो प्रभु ते मुनिवर गुणरास ॥ २७. आराधक प्रभु ! तेह विराधक ? तब भासे भगवान । छै आराधक नहीं विराधक, तुर्य आलावो जान ॥ सोरठा च्यार २५. चाल्यो पहुंती नांव, आलावा तसु कह्या । पहुंतो स्थविरा पाय तसु चिहुं आलावा कहूं ॥ २६. * आलोयणादिक लेवा चाल्यो, पहुंतो स्थविरां पास स्थविर निर्वाच थया वायादिक थी, बोलणी नांवे तास ॥ ३०. हे प्रभु! ते मूनि स्यू आराधक तथा विराधक जेह ? जिन कहै कहिये तास आराधक नहीं विराधक तेह || ३१. आलोयणादिक लेवा चाल्यो, पहुंतो स्ववि पाय | आप निर्वाच थयां आराधक नहीं विराधक ताव || ३२. आलोयणादिक लेवा चाल्यो, पहुंतो स्थविर काल कीधां आराधक, मुनी स्थविरां पाय विराधक नांय ॥ पाय । ३३. आलोयणादिक लेवा चाल्यो, पहुंतो स्थविरां पोते काल कियां आराधक, तेह विराधक नांय ॥ ३४. स्थविर कनें अणपूगां नां धुर, चिहुं तिमज स्थविर पासे पहुंता नां ए सह ३५. निर्व्रय स्थानक बाहिरे कांइ, स्थंडिल आलावे भाव । अठ आलाव । भूमी जाय । तथा सञ्झाव करण नौकलियो, त्यां कोई दोष लगाय || ३६. दोष निवर्ती इम मन चितं पोते हूँ आलोय । एम इहां पिण तिमहिज भणवा, आठ आलावा जोय ॥ । ३७. मुनि ग्रामानुग्राम विचरतां विहार करता जोव करिया जोग नहीं ते स्थानक, दोषण सेव्यो कोय ॥ ३८. ते मन चिंत प्रथम आलोइस, पछे स्थविर पाय । इहां पिण तिमहिज आठ आलावा जाव विराधक नांय ॥ 1 *लय : कांइ न मांगा जी ४१८ भगवती - जोड़ Jain Education International २३. से णं भंते ! कि आराहए ? विराहए ? गोमा ! आराहए, नो विराहए। २४. से य संपट्टिए असंपत्ते, थेरा य कालं करेज्जा । २५. से णं भंते! कि आराहए ? विराहए ? गोयमा ! आराहए, नो विराहए। २६. से य संपट्टिए असंपत्ते, अप्पणा य पुव्वामेव कालं करेज्जा । २७. से णं भंते! कि आराहए ? विराहए ? गोयमा ! आराहए, नो विराहए। २६. से य संपट्टिए संपत्ते, थेरा य अमुहा सिया । ३०. से णं भंते ! कि आराहए ? विराहए ? गोयमा आहए, नो विराहए। 1 ३१. से य संपट्टिए संपत्ते, अप्पणा य अमुहे सिया से णं भंते कि आराहए ? बिराहए ? गोयमा ! आराहए, नो विराहए। ३२. से य संपट्ठिए संपत्ते, थेरा य कालं करेज्जा । सेणं भंते! कि आराहए ? विराहए ? गोयमा ! आराहए, नो विराहए। ३३. से य संपट्टिए संपत्ते, अप्पणा य कालं करेज्जा । से जं भंते! कि आराहए ? विराहए ? गोयमा ! आराहए नो विराहए। (श०८।२५१ ) ३४. इत्येवं चत्वारि संप्राप्तसूत्राणि संप्राप्तसूत्राप्यप्येवं वायें एवमेतान्यष्टौ । ( वृ० प० ३७६ ) ३५. निरयेण य बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खतेणं अण्णयरे अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए ३६. तस्स णं एवं भवति इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स आलोएमि एवं एत्थ वि ते चेव अट्ठ आलावगा भाणियव्वा जाव नो विराहए। (०२५२) २७. निर्माण व नामानुगामं दृश्यमाणेणं अणवरे अचिट्ठाणे डिसेविए ३८. तस्स णं एवं भवइ इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स आलोएमि - एवं एत्थ वि ते चेव अट्ठ आलावगा भाणियव्वा जाव नो विराहए। (श० ८१२५३) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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