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________________ ६५. पर्याप्ति केतली जाण, बांधी छै तिण कारणे । पर्याप्तो पहिछाण, एहवं न्याय जणाय छै । ६६ पूरी पर्याप्ति तास, बांधी नहिं तिण कारणें । अपर्याप्तो विमास, न्याय इसो दीसै अछ । ६७. अथवा वाट वहंत, पर्याप्ति तिण बांधी नथी । अपर्याप्तो कहंत, ए आश्री पिण जाणिय ॥ ६८. किणहिक परत मझार, संमच्छिम जे मनष्य ते । एक हि विध अवधार, अपर्याप्तोज पेखियो । ६६. संमूच्छिम मन' बोल, जूनी परतज जेह छ । तालपत्र नी तोल, तेह मध्ये नथी दीसतु ॥ ७०. किणहिक टबा मझार, एहवं म्है देख्यं अछ । आख्यो तिण अनसार, सर्वज्ञ वदै तिकोज सत्य' ।। (ज० स०) ७१. *गर्भेज-मनष्य-पंचेंद्री पूछा, दोय भेद तसु देख । पज्जत्त अपज्जत्त मनुष्य-पंचेंद्री, प्रयोग-परिणत पेख ॥ ७२. असुरकुमार भवनपति पूछा, जिन कहै दोय प्रकार । पज्जत्त अपज्जत्त इम बे भणवा, जावत थणियकुमार ॥ ७१. गब्भवक्कंतियमणुस्सपंचिदिय-पुच्छा । गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्तगगम्भवक्कंतिया वि, अपज्जत्तगगम्भवक्कंतिया वि । (श० ८।२३) ७२. असुरकुमारभवणवासिदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्तगअसुरकुमार अपज्जत्तगअसुरकुमार। एवं जाव थणिय कुमारा पज्जत्तगा अपज्जत्तगा य । (श० ८।२४) ७३. एवं एतेणं अभिलावेणं दुयएणं भेदेणं पिसाया जाव गंधव्वा । चंदा जाव ताराविमाणा। ७४. सोहम्मकप्पोवगा जावच्चुतो । हेट्ठिमहेट्ठिम-गेवेज्ज कप्पातीत जाव उवरिमउवरिमगेवेज्ज । विजयअणुत्त रोववाइय ७५. जाव अपराजिय। (श० ८।२५) सव्वट्ठसिद्धकप्पातीत-पुच्छा । ७३. इण आलावे करि इम भणवा, बे बे भेद विचार । पिसाच व्यंतर जाव गंधर्वा, चंदा यावत तार ॥ ७४. सोधर्म यावत अच्युत सूधी, हेठिम-हेठिम एम । यावत उवरिम-उवरिम नवमों, विजय अणत्तर तेम ॥ ७५. यावत अपराजित पिण इमहिज, सर्वारथसिद्ध जाण । कल्पातीत पंचमो तेहनों, प्रश्न किये जिन वाण || १. मनुष्य २. जयाचार्य ने जिस पाठ के आधार पर जोड़ की, उस प्राचीन प्रति में संमूच्छिम मनुष्य के दो भेद किए हुए हैं । पर उस पाठ की संगति नहीं बैठती इसलिए जयाचार्य को गाथा ६४ से ७० तक सात सोरठों में इस विषय की समीक्षा कर न्याय मिलाना पड़ा । उन्हें एक आदर्श ऐसा भी मिला था जिसमें संमूच्छिम मनुष्य का एक ही भेद था, किन्तु वह प्रति प्राचीन नहीं थी । किसी टबा की प्रति में उनको उक्त पाठ उपलब्ध हुआ था, जिसका उन्होंने संकेत भी किया है। अंगसुत्ताणि भाग २ में एक भेद वाला पाठ ही रखा गया है। वहां किसी पाठान्तर की सूचना भी नहीं है। संगति भी इसी पाठ से बैठती है। इसलिए ६३ वीं माथा में दो भेदों का उल्लेख होने पर भी उसके सामने अंगसुत्ताणि का एक भेद वाला पाठ उद्धत किया गया है। *लय : कनकमंजरी चतुर विचक्षण ३०८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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