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२६. स हि पूर्व बद्धवान् वर्तमानकाले तु बध्नाति अनागत
कालापेक्षया तु भेन्त्स्यति । (वृ० प० ३८८) २७. अत्थेगतिए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ ।
२८,२६. द्वितीयस्तु मोहक्षयात्पूर्वमतीतकालापेक्षया बद्धवान्
वत्तमानकाले तु बध्नाति भाविमोहक्षयापेक्षया तु न भन्त्स्यति।
(वृ० प० ३८८) अत्थेगतिए बंधी न बंधइ बंधिस्सइ।
३१,३२. तृतीयः पुनरुपशान्तमोहत्वात् पूर्व बेद्धवान्
उपशान्तमोहत्वे न बध्नाति तस्माच्च्युतः पुनर्भन्स्यतीति।
(वृ० प० ३८८)
२६. गये काल बांध्यो, वर्तमाने बांधे छै ते कारणे ।
वलि बांधस्यै जे जथाख्यात, पाम्यां विना ए धारणे ॥ २७. *बांध्यो बांध नै नहिं बांधस्य, संपराय कर्म जेह । दुजो भांगो ए जिनवर कह्यो, जीव किताइक एह ।।
गीतक छन्द २८. जे मोह-क्षय थी पूर्व काले, बांधियोज अतीत हो।
वलि वर्तमान कालेज बांधे, एह कषाय सहीत ही।। २६. फुन मोह कर्म क्षय पेक्षया, नहिं बांधस्य संपराय ही ।
बांध्यो रु बांध बांधस्यै नहि, द्वितीय भंग कहाय ही॥ ३०. बांध्यो नहिं बांधे में बांधस्य, संपराय कर्म जाण ।
जीव किताइक एहवा जिन कह्या, तेहनं न्याय पिछाण ॥ ३१. उपशंत मोह थकीज पुरव, संपराय बांध्यो सही।
वर्तमान काले न बांधे, ग्यारमा गण में रही। ३२. ग्यारमा गण थी पड़ीने, बांधस्यै वलि ते सही ।
बांध्यो न बांध बांधस्य वलि, भंग तीजो इम लहो । ३३. *बांध्यो नहिं बांधै नहिं बांधस्यै, जीव किताइक देख ।
चोथो भांगो ए जिनवर कह्यो, तेहनों न्याय संपेख । ३४. जे मोह-क्षय थी पूर्व काले, संपराय बांध्यो सही।
अथ मोह-कर्म नां क्षय विषे, जे वर्तमान बांधे नहीं। ३५. वलि अनागत नहिं बांधस्य ते, श्रेणि पाय पड़े नहीं । बांध्यो न बांध बांधस्यै नहि, तुर्य भांगो ए सही।
__ सोरठा ३६. संपराय कर्म जाण, बंध आश्री कहिये हिवै ।
आद अंत करि माण, चिउं भंगे करि प्रश्न ते॥ ३७. *संपराय कर्म हे भगवंत ! स्य, तास बंध पहिछाण ।
आदि-सहित छै के अंत-सहित छ ? प्रथम भंग ए जाण ॥ ३८. आदि-सहित छै के अंत-रहित छ ? तथा अनादि सह अंत ।
आदि-रहित छै के अंत-रहित छ, ए चिहं भंग पूछंत ।। ३६. श्री जिन भादं आदि-सहित छै, अंत-सहित पिण हुंत ।
उपशम-णि थकी पड़ने वलि, उपशम क्षपक लहंत ॥ ४०. ग्यारमा गुण थी पड़ोने, संपराय बांधे सही ।
पामियै वलि ग्यारमों, अथवाज द्वादशमों लही ।। *लय : सुमति जिनेश्वर लिय : पूज मोटा भांजै तोटा ४५६ भगवती-जोड़
३३. अत्थेगतिए बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ।
(श० ८।३१२) ३४,३५. चतुर्थस्तु मोहक्षयात्पूर्वं साम्परायिकं कर्म बद्धवान् मोहक्षये न बध्नाति न च भन्त्स्यतीति ।
(वृ० प० ३८८)
३६. साम्परायिककमबन्धमेवाश्रित्याह- (वृ०प०३८८)
- ३७,३८. तं भते ! कि सादीयं सपज्जवसियं बंधइ ?
पुच्छा तहेव।
३६. गोयमा ! सादीयं वा सपज्जवसिय बंधइ
उपशान्तमोहतायाश्च्युतः पुनरुपशान्तमोहतां क्षीणमोहतां वा प्रतिपत्स्यमानः ।
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