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*जय जय ज्ञान जिनेन्द्र नों रे लाल (ध्र पदं) ३. ए रत्नप्रभा पृथ्वीतले रे, छै प्रभुजो ! घर जेह रे,
जिनेन्द्र देव ! घर आकारे हाट छ रे लाल, अर्थ समर्थ नहि एह रे,
सुजाण सीस ! ४. ए रत्नप्रभा पृथ्वी तले, छै भगवंतजी ! ग्राम ?
जाव तिहां सन्निवेश छै ? अर्थ समर्थ न आम ।।
५. छै प्रभ ! रत्नप्रभा तले, बादल जे महामेह ।
पुदगल में स्नेह ऊपज, मिलि वर्षा वर्षेह ?
६. जिन भाखै हंता अत्थि, तीनई पकरंत ।
देव वैमानिक विण करै, असुर नाग थी हुंत ॥
७. छै प्रभु ! रत्नप्रभा तले, बादर घन गर्जार ?
जिन भाखै हंता अत्थि, तीनइ करै तिवार ।।
३. अत्थि णं भंते ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे गेहा इ वा? गेहावणा इ वा?
गोयमा ! णो इणठे समझें। (श० ६।१३८) ४. अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए अहे गामा इ
वा? जाव सण्णिवेसा इ वा? णो इणठे समठे।
(श० ६।१३६) ५. अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे
ओराला बलाह्या संसेयंति ? संमुच्छंति ? वासं वासंति ? ६. हंता अत्थि । तिणि वि पकरेंति--देवो विपकरेति, असुरो वि पकरेति, नागो वि पकरेति ।
(श० ६।१४०) ७. अस्थि णं भते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बादरे
थणियसद्दे ? हंता अत्थि । तिण्णि वि पकरेंति । (श० ६।१४१) ८. अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे
बादरे अगणिकाए? गोयमा ! णो इणढे समठे, नन्नत्थ विग्गहगतिसमावन्नएणं ।
(श०६।१४२) ६. ननु यथा बादराग्नेर्मनुष्यक्षेत्र एव सद्भावान्निषेध इहोच्यते।
(वृ० प० २७६) १०. एवं बादरपृथिवीकायस्यापि निषेधो वाच्यः स्यात् पृथिव्यादिष्वेव स्वस्थानेषु तस्य भावादिति ।
(वृ०प० २७९) ११-१२. सत्यं, किन्तु नेह यद्यत्र नास्ति तत्तत्र सर्व निषिध्यते मनुष्यादिवद्
(वृ० ५० २७६)
८, छै प्रभ ! रत्नप्रभा तले, बादर अग्नीकाय ?
जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं, णण्णत्थ विग्रहगति पाय ।।
सोरठा ६. बादर अग्नी जान, मनष्यक्षेत्र माहेज ह।
ते माट पहिछान, निषेध कीधो एहनों। १०. तो बादर-पृथ्वी काय, पृथ्व्यादिक स्वस्थान अछै ।
पिण रत्नप्रभा-तल नांय, तेहनों निषेध किम नहि ?
११. सत्य, किंतु इह स्थान, अभाव जिण-जिण वस्तु नों।
तिण-तिण नो पहिछान, निषेध सह नों नहि कियो।। १२. रत्नप्रभा-तल वेद, मनष्य मात्र अभाव छ ।
न कियो इहां निषेध, तिम बादर-पृथ्वी तणों। १३. जेहनी पूछा कोध, तेहनों इहां निषेध छै।
विचित्र सूत्रगति सीध, तिणस निषेध नवि कियो। १४. उदक वनस्पतिकाय, घनोदध्यादिक भाव कर ।
तेहनों संभव थाय, तिण सू तास निषेध नहि ॥ १५. *छ प्रभ ! रत्नप्रभा-तले, चंदिम यावत तार ।
जिन कहै अर्थ तुम्हे कह्यो, समर्थ नहिं छै लिगार ।।
१३. विचित्रत्वात् सुत्रगतेरतोऽसतोऽपीह पृथिवीकायस्थ ने निषेध उक्तः ।
(वृ० प० २७६) १४. अप्कायवायुवनस्पतीनां त्विह घनोदध्यादिभावेन
भावान्निषेधाभावः सुगम एवेति । (वृ० प० २७६) १५. अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे
चंदिम जाव तारारूवा (सं० पा०) । णो इणठे समठे।
(श० ६।१४३)
*लय : धीज कर सीता सती रे लाल
श० ६, उ० ८, ढा० १०८ १८३
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