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________________ २, ३. दुःखनिमित्तत्वात् दुःखं----कर्म तद्वान् जीवो दुःखी। (वृ० प० २६०) दुक्खी भंते ! दुक्खेणं फुडे ? अदुक्खी दुक्खेणं फुडे ? ४. गोयमा ! दुक्खी दुक्खेणं फुडे, नो अदुक्खी दुक्खेणं फुडे । (श०७।१६) ५. अदुःखी-अकर्मा दुःखेन स्पृष्टः, सिद्धस्यापि तत्प्रसङ्गादिति । (वृ० प० २६१) ६. दुक्खी भंते ! नेरइए दुक्खेणं फुडे ? अदुक्खी नेरइए दुक्खेणं फुडे ? ७. गोयमा ! दुक्खी नेरइए दुक्खेणं फुडे । २. दुःख निमित्तज कर्म है, कर्मवंत जे जीव । तेह दुखी कर्मे करी फयों बद्ध अतीव ? ३. कै अदुखी कर्मे करी फर्यो बंध्यो स्वाम? उभय प्रश्न ए पूछिया, हिव जिन भाखै ताम ।। ४. दुखी कर्मवंत कर्म करि फर्यो कर्म बंधाय । अदुखी कर्म रहीत जे, कर्मे फयों नांय । ५. अदुखी कर्म रहीत नैं, कर्म फर्श जो थाय । तो अदुखी जे सिद्ध ने, कर्म प्रसंग कहाय ॥ ६. दुखी कर्मवंत नारकी, कर्मे फॉ जेह । अदुखी नारक अकर्मी, कर्म करी फर्शह ? ७. जिन भाखै जे नारकी, दुखी कर्मवंत जोय । दुख · निमित्त कर्मे करी, फयों ते अवलोय । ८. अदुखी अकर्म नारकी, कर्मे फर्यो नाय । अदुखी नारक छै नहीं, प्रश्न रूप कहिवाय ।। ६. पूर्व भोगव्यो नरक पद, तेह जीव ने जाण । नारक कहिय एहवं, किण ही टबै पिछाण ।। १०. नेगम नय मानै अछ, त्रिहं काल अवदात । तिण वच करि केई कहै, जाणे केवली बात ।। ११. इम दंडक यावत कह्यो, वैमानिक पर्यंत । कहिवा दंडक पंच इम, आगल नाम उदंत ।। १२. दुखी कर्मवंत जीव ते, दुख कर्मे करि ताय । फयों बांध्यो कर्म नैं, प्रथम आलाव कहाय ।। १३. दुखी कर्मवंत जीव जे, कर्म प्रतैज ग्रहंत । निधत्त नै निकाच फुनि, समस्तपणे करत ॥ ८. नो अदुक्खी नेरइए दुक्खेणं फुडे। (श० ७.१७) (श० ७।१८) ११. एवं दंडओ जाव वेमाणियाणं। एवं पंच दंडगा नेयव्वा१२. दुक्खी दुक्खेणं फुडे, १३. दुक्खी दुक्खं परियायइ, 'दुःखी' कर्मवान् 'दुःखं' कर्म 'पर्याददाति' सामस्त्ये नोपादत्ते, निधत्तादि करोतीत्यर्थः । (वृ० प० २६१) १४. दुक्खी दुक्खं उदीरेइ, दुक्खी दुक्खं वेदेति, १५. दुक्खी दुक्खं निज्जरेति । (श० ७।१६) १४. दुखी कर्मवंत जीव जे, कर्म उदीरै जेह । दुखी कर्मवंत कर्म नै, वेदै चउथो एह ।। १५. दुखी कर्मवंत जीव जे, कर्म निरजरै जान । आलावो ए पंचमो, आख्यो श्री भगवान ॥ १६. कर्म बंध अधिकार थी, अघ बंध चित सहीत । ते अणगार तणो हिवै, कहियै सूत्र वदीत ॥ १७. *अणगार अहो भगवंत ! उपयोग रहित चालत हो । जिनवर जयकारी। उपयोग रहित पहिछाण, ऊभो रहितो जिह स्थान हो । जिनवर जयकारी॥ १८. उपयोग रहित वेसंतो, उपयोग रहित सूवंतो । वस्त्र पात्र कंबल रजुहरण, उपयोग रहित करै ग्रहण ॥ *लय : हिवै कहै के रूप श्री नार २१४ भगवती-जोड़ १६. कर्मबन्धाधिकारात्कर्मबन्धचिन्तान्वितमनगारसूत्रम् (वृ०प० २६१) १७. अणगारस्स णं भंते ! अणाउत्तं गच्छमाणस्स वा, चिट्ठमाणस्स वा, १८. निसीयमाणस्स वा, तुयट्टमाणस्स वा, अणाउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं गेहमाणस्स वा, Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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