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१८. का धर्मसी हो, मदिरा प्रथम उपन्न वनस्पति नुं तन्न । रस थयां अप नो शरीर छै । १६. अग्नि चढाव्यो हो, अग्नि शरीर पिछाण, यंत्र धर्मसी नुं जाण । तिण में ए अर्थ कियो अर्थ ॥ २०. अथ प्रभु! लोहटो हो, तांबो तरुवो जान सीखो दग्ध पाषान । कसवी कट्ट धातु कही ॥
२१. किसी काय ना हो, एह शरीर कहाय ? जिन कहे ए सहू ताय । पूर्व भाव पृथ्वी ना सही ॥
२२. सत्थातीता हो, प्रमुख पाठ कहिवाय, अग्नि शस्त्र परिणमाय । अग्नि जीव तनुं ते पर्छ । २३. अथ प्रभु! अस्थि हो, बल्यो हाड बलि तेह, चरम बस्यो चरम ह रोम में रोम-दहीजिया || २४. सींग दग्ध-सींग हो, खुर ने बलि खुर-झाम, नख दग्ध-नख ताम । केहना शरीर कहीजिया ? रोम जाण, नख खुर सींग' पिछाण । त्रस प्राण जीव ना शरीर छै ॥ पर्याय, अग्नि शस्त्रे परिणमाय । अग्नि शरीर कहाा पर्छ ।
२५. श्री जिन भाते हो, हाड चरम २६. ए छ बाल्या हो, त्रस तनु
पूर्व
२७. प्रभु ! अंगारा हो, एह कोयला कहाय, छार भस्म कहिवाय । भूसते जब गोई ना पोषो छगण ही ॥ कॉलनी पर्याय, ते आधी कह्या ताय । पिण दग्ध अवस्था विहं कही ।। कहिवाय ? हिव भाखै जिनराय पूर्व भाव कहाविया ||
२८. इहां भुस गोवर हो गया २६. ए च्यांरूइ हो, केहना शरीर
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३०. जीव एकेंद्री हो, जाव पंचेंद्री ३१. आख्यो वृत्ति में हो, बेंद्रि आदि
विचार, तास शरीर व्यापार । तेणे करीनें परिणामिया ॥ प्रयोग, यथासंभव कहिवूं योग । पिण सर्व ही पद ने विषे नहीं ॥ ३२. पूर्व अंगारा हो, भस्म एकेंद्रियादि जाण, तास शरीर पिछाण । एकेंद्रियादि तनु सही ॥
१. अंग सुत्ताणि भाग २ में नख के स्थान पर सींग और सींग के स्थान पर नख पाठ है । सम्भव है जयाचार्य को उपलब्ध प्रति में वैसा पाठ रहा हो । बंगसुतानि में पाठान्तर का कोई उल्लेख नहीं है।
१६ भगवती बो
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२०. अह णं भंते! अये, तंबे, तउए, सीसए, उवले, कसट्टिया
उवलेत्ति इह दग्धपाषाण: कसट्टिय त्ति कट्टः ( वृ० प० २१३ )
२१. एए णं किंसरीरा ति वत्तव्वं सिया ? गोयमा ! अये, तंबे, तउए, सीसए, उवले कसट्टिया - एए णं पुग्वभावपण्णवणं पडुच्च पुढवीसरीरा ।
२२. तओ पच्छा सत्थातीया जाव अगणिजीवसरीरा ति वत्तव्वं सिया । ( श० ५।५२ ) २३. अह णं भंते ! अट्ठी, अट्टिज्झामे, चम्मे, चम्मज्झामे, रोमे रोमक्झामे,
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२४. सिये, सिगाने, खुरे, सुरक्षामे नये नखाने एए णं किंसरीरा ति वत्तब्वं सिया ?
२५. गोयमा ! अट्ठी, चम्मे, रोमे, सिंगे, खुरे, नखे एए तस पाणजीवसरीरा ।
२९. अकामे, मामे, रोगरामे, सिमामे
रामे नवमामेएए णं पुण्यभावणं पडुच्च तसपाणजीवसरीरा तओ पच्छा सत्थातीया जाव अगणिजीवसरीरा ति वत्तव्वं सिया । (श० ५१५३) २०. अहां भंते! इंगाले छारिए मुझे गोमए–
२८. इह च सगोमयी ग्राह्यो ।
तवानुवृत्या दग्धावस्थ ( वृ० प० २१३)
२६. एए णं किंसरीरा ति वत्तव्वं सिया ?
गोपमा इंगाले छारिए, मुझे गोमएएएवं पुष्यभावपण्णवणं पडुच्च
३०. एगिदियजीसरी योगपरिणामिया विजाय पंचि दिवजीवसरण्ययोगपरिणामिया वि
३१. द्वीन्द्रियादिजीवशरीरपरिणतत्वं च यथासंभवमेव न तु सर्वपदेविति । (४० २१२) ३२. तत्र पुर्वमङ्गारो भस्म चैकेन्द्रियादिशरीररूपं भवति, एकेन्द्रियादिशरीराणामिन्धनत्वात् । ( वृ० प० २१३)
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