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धन थी पांचां में किती पाय जी ? तब भाखं श्री जिनराय जी । गाथापति वर्णं कहिवाय जी, धन थी घुर चिह्न अधिकाय जी । भजना मिथ्यादर्शन मांय जी, गाहक — कइया नैं पतली थाय जो । धन सूप दियो इण न्याय जी ए चोथो आला पाय जी श्री वीर कहे सुण गोयमा ॥
सोरठा
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कही ॥
नथी ।
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धन आधी वे आलाय, तीने पन सूप्यो नयो । चोबे आलावे भाव घन सूप्यो गाथापति भणी । एवं च्यार आलाव, सूत्रे बे विस्तारिया | बे संक्षेपे भाव, इहां विस्तार टीका थकी ॥ " तृतीय आलावे धन्न, गाथापति ने सूप्यो नथी । जिम भंड संख्यो जन्न, इम कहिं सूत्रे का ॥ भंड सूप्यो द्वितीय आलाव, ए बीजो तास भलादियो । तेहनों के इम न्याय, बीजो तोजो इक गमो ॥ बीजे आलावे जाण, भंड सूप्यो ग्राहक भणी । जवर किया पहिचान, मंड थी गाहक ने तृतीय आलावे पेख, गाहक धन सूप्यो तिग कारण सुविशेस जबर त्रिया ग्राहक भणी || जबरी किरियां जाण, ग्राहक में ति कारणं । द्वितीय तृतीय पहिछाण, एक गमो इम आखियो । चोथो आलावो एम, धन तेहनें सूंप्यो हुई । प्रथम आलावो जेम, भंड नहि सूप्यो तेम ए ॥ भंड नहि सूप्यो प्रथम आलाव, ए पहिलो तास भलादियो । तेहनों छै इम न्याव, पहिलो चोथो इक गमो ॥ भंड थी जबरी वाय गाथापति ने चिह्न किया। तिण भंड सूप्यो नांय, प्रथम आलावे में कह्यो । भंड थी जबरी मंड, ग्राहक नैं इण विध हुवै । गाहावर सूप्यो भंड, दूजा अलावा में कहा ॥ धन थी जबरी जास, ग्राहक ने इन कारणं । धन ही सूप्यो तास, तृतीय आलावे में कहा ॥ पन थी जबर उपन्न गाथापति में इह विधे गाहक सूप्यो धन्न, चोथे आलावा में कह्यं ॥
।
१. जयाचार्य ने इस गीत की २० वीं और २१ वीं गाथा की रचना टीका के आधार पर की है, यह तथ्य इस गाथा से स्पष्ट हो रहा है । अंगसुत्ताणि भाग २ में यह पाठ मूल में है। संभव है जयाचार्य को उपलब्ध आदर्श में पाठ पूरा नहीं था, इसीलिए उन्हें शेष दो विकल्पों की रचना टीका के आधार पर करनी पड़ी।
५६ भगवती जोड़
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गोयमा ! गाहावइस्स ताओ धणाओ आरंभियाकिरिया कज्जइ जाव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ । मिच्छादंसण किरिया सिय कज्जइ, सिय नो कज्जइ । कइयस्स णं ताओ सव्वाओ पयणईभवंति ।
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