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________________ ४६. सर्व मूलगुण देश मूलगुण ५०. * उत्तरगुण पचखाण नां, हे प्रभु! जिन भाखे सुण गोयमा द्विविध ! ५१. सर्व उत्तरगुण शोभता, देश सर्व उत्तरगुण नां प्रभु ! द्विविध ५२. जिन भाखै कोटीस हियं ५२. परिमाणकृत सोरठा सोय कह्या सर्वविरती जोय, देववती नां दशविध तणां । दाखिया || कितला प्रकार ? आख्या सार ॥ उत्तरगुण देख | कितला भेद विशेष ? नियंटियं निविशेष सर्व उत्तरगुण ए दशू मुनिवर नां Jain Education International कह्या, अनागत अतिक्रांत 1 सागार अणागार शांत ॥ ही, संकेत अद्धाकाल | ए न्हाल ॥ यतनी ताहि । पचखाण || ५४. 'अनागत' आगमिये काल, तप पर्युसणादि न्हाल घोर व्यावच नीं अंतराय, तसु भय थकी प्रथम कराय ॥ ५५. तप पहिला करि सकै नांहि, पछै ते तप करिबू ते 'अतिक्रांत' पहिचान, ए को बीजो ५६. आदि अंत से कोटि सरीस आदि में चउथ भक्त जगीस अंत में पिण चउथ भक्त, 'कोडीसहियं' तीजो ए व्यक्त ॥ ५७. रोगादिक कारणे पण जेह, तप में नहि छांडे तेह | नियमा तप जे कराव ते 'नियंत्रित' कहिवाय ॥ ५८. पंचमो ते 'आगार सहीत' तप छठो 'आगार रहीत' | " परिमाण ते दातो नं जाण, कवल पर भिक्षा द्रव्य परिमाण || वा० - केवल आगार रहित नैं पिण अजाणपणां नों आगार अनं सहसात्कारे मुखे खांडादिक नीं रज आफेइ आवी पड़े, ते पिण आगार । ५६ सव्वं असणं पाणं पचखाण, सव्वं खज्जं सव्वं पेज्जविहं जाण । सर्वे शब्द करिनें उच्चरि 'निरवशेष' आठम् धरि ॥ ६०. गांठ प्रमुख चाड नांय, त्यां लग असणादिक पचखाय । संकेत चिन्ह नुं करि ते 'संकेत' नवमो उच्चरितुं ॥ ६१. पोहरसी दोढ़ पोहरसी तास, इम मास यावत षट मास । काल नुं मान करि पचखेह, 'अढायचलाण' से एह ॥ १. प्रस्तुत ढाल की गाथा ५४ से ६१ तक टीका के आधार पर लिखी हुई है, इस दृष्टि से यहां जोड़ के सामने टीका का पाठ उद्धृत करना जरूरी था । किन्तु इन गाथाओं से आगे वार्तिका में यही बात पुनः स्पष्ट रूप से लिखी गई है । उस टीका का पाठ वार्तिका के सामने रखना अधिक उपयुक्त प्रतीत हुआ, इसलिए उक्त पद्यों के सामने टीका का उल्लेख नहीं किया गया है । *लय : मामा ठग लागो ४३. तत्र सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानं सर्वविरतानां, देश मूलगुणप्रत्याख्यानं तु देशविरतानाम् । ( ० प० २४६ ) २०. उत्तरगुणपच्यक्वा पं भंते! कतिविहे पते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा११. सबुत्तरगुणपञ्चवाणे व देसुत्तरगुणवच (०७२३३) सत्तरगुणपचक्या भंते! कतिविहे पण्णत्ते ? ५२, ५३. गोयमा ! दसविहे पण्णत्ते, तं जहाअगागयमदक्कत कोडसह नियंटियं देव सागारमणागारं परिमाणकडं निरवसेसं । संकेयं चेव अद्धाए पच्चक्खाणं भवे दसहा || (०७२३४ गाहा ) For Private & Personal Use Only श० ७ ०२, ० ११५ २३१ www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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