________________
१२४. * जे पूर्व काले इक भवे, उपशांत-मोहादिक मही । ए बांधियो इरियावहि, वलि वर्तमान बांधे सही ॥ १२५. फुन अनागत जे समय में, बलि बांधस्य ते भव रही। बांध्यो रु बांध बांधस्यै, ए प्रथम भांगे वृत्ति ही ॥ सोरठा
१२६. बांध्यो व्यारम ठाण, फुन बंधे गुण व्यारमें। आगल बंधस्पे जाण, उपशांतमोहो 'धर्मसी' | १२७ तथा बारम गुणठाण, फुन गुणठाणे तेरमें। बांध्यो बांधे जाण, वलि बांधस्यै 'धर्मसी' | गीतक-नांद
१२५. द्वितीवेज भांगे केवली, बांध्योज काल अतीत हो । बलि वर्तमान बांधेज तिण भव, तेरमो गुण में रही ।। १२. फुन अनागत नहि बांधस्यै, जे चवदमें गुणठाण ही । वायोरु बांध बांधस्यै नहि, द्वितीय भंगे वृत्ति ही ॥ सोरठा
१३०. बंध्यो बारम ताहि, बंधे छे गुण तेरमें । चवदम बंधस्यै नाहि, क्षीणमोह ए 'धर्मसी' ॥ गोतक - छंद
१३१. उपशांत मोहपणैज बांध्यो, पड़ी फुन बांधे नहीं । तिणहीज भव वलि बांधस्यै, जे श्रेणि-उपशम फुन लही ॥ १३२. इक भवे उपशम श्रेणि इम, बे वार प्राप्त व सही । बांध्यो न बांध बांधस्यै, इम भंग तृतीयो वृत्ति ही ॥ सोरठा १३३. ग्यारम बंध्यो कहेस पड़ी नहि बांध दशम गुण । फुन ग्यारम बांधेस, इक भव उपशम वार द्वय ॥
J
1
गीतक-छंद १३४. भंग तुर्य बांध्यो तेरमें, ते चवदमें बांधे नहीं । फुन चवदमें नहि बांधस्य जे एम आस्यो वृत्ति ही ॥ सोरठा १३५. बांध्यो तेरम मांहि, नहि बांधै गुण चवदमें | सिद्ध बांधस्यै नांहि, क्षीणमोह ए 'धर्मसी' ॥
*लय : पूज मोटा भांजे तोटा
४५० भगवती -जोड़
Jain Education International
१२४,१२५. एक कश्विज्जीवः प्रथमकल्पिकः तथाहिउपशान्तमोहादिदा ऐवधिक कर्म बहना बनात ऐर्यापथिकं 'बद्ध्वा तदाऽतीतमयापेक्षया बद्धवान् वर्तमानसमयाबध्नाति अनागतसमयापेक्षया तु ( वृ० प० २०६)
पेक्षया च भन्त्स्यतीति
१२८१२८ द्वितीयस्तु केवली, सतीतकाले बढवान् वर्त्तमाने च बध्नाति शैलेश्यवस्थायां पुनर्न भन्त्स्यतीति । ( वृ० प० ३८६ )
For Private & Personal Use Only
१३१,१३२.] तृतीयस्तूपशान्तमोहत्व बढवान् सत्प्रतिप तितस्तु न बध्नाति पुनस्तत्रैव भवे उपशमश्रेणी प्रतिपन्नो मन्त्स्यतीति, एकभये चीपशमश्रेणी द्विवरं प्राप्यत एवेति ( वृ० प० ३८६ )
१३४. चतुर्थः पुनः सयोगित्वे बद्धवान् शैलेश्यवस्थायां न बध्नाति न च भन्त्स्यतीति । (१० १०३८६)
www.jainelibrary.org