________________
८. श्रमण ज्ञातसुत इह विध संच, अस्तिकाय परूपै पंच ।
प्रथम कहै धर्मास्तिकाय, जाव आगासत्थिकाय' कहाय ।।
८. एवं खलु समणे नायपुत्ते पंच अत्थिकाए पण्णवेति, तं जहा-धम्मस्थिकायं जाव पोग्गलत्थिकार्य।
६. 'अत्थिकाए' त्ति प्रदेशराशीन् ।
(वृ० ५० ३२४)
सोरठा ६. अस्ति तेह प्रदेश, तास राशि जे काय प्रति ।
अस्तिकाय कहेस, शब्द तणू ए अर्थ है। *ज्ञातपुत्र वली कहै वाय, च्यार अजीव हुवै ते मांय । धर्मास्ति अधर्मास्तिकाय, आगासत्थि पुद्गलास्ति ताय ।
सोरठा ११. एह अजीव विमास, तेह अचेतन जाणवा ।
काय कही तसु राश, अजीवकाय अहीजिये।
१०. तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अस्थिकाए अजीव
काए पण्णवेति, तं जहा-धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, आगासस्थिकायं, पोग्गलत्थिकायं ।
१२. *श्रमण ज्ञातसुत वलि कहै वाय, पांचा में एक जीवास्तिकाय।
अरूपीकाय परूप जोग, छै ज्ञानादिक तसु उपयोग ।। वा०-जीव ते जीव, ज्ञानादि उपयोगवंत । ते प्रधान काय ते जीवकाय ।'
कोइक जीवास्तिकाय नै जड़पण करी अंगीकार करै । तेहनों मत दूर करवा नै अर्थे ए जीव नै ज्ञानादि उपयोगवंत कह्यो।
१३. श्रमण ज्ञातसुत वलि कहै वाय, अस्तिकाय पंच रै माय ।
च्यार अरूपी अस्तिकाय, करै परूपण परिषद मांय ।। १४. धर धर्मास्तिकाय पिछाण, अधर्मास्ति दूजी जाण ।
आकाशास्ति जीवास्तिकाय, तास अरूपी आखै वाय ॥ १५. ज्ञातपुत्र वलि इम कहै वाय, अस्तिकाय पंच रै माय ।
पोग्गलत्थिकाय एक अजीव, रूपीकाय परूप अतीव ।। १६. से अथ किम ए अस्तिकाय, मन्ये वितर्क अर्थे वाय ।
आख्या एह अचेतन आद, विभाग करि किम हवै संवाद।
११. 'अजीवकाए' त्ति अजीवाश्च ते अचेतना: कायाश्च-राशयोऽजीवकायास्तान् ।।
(वृ०प०३२४) १२. एगं च णं समणे नायपुत्ते जीवत्थिकायं अरूविकायं
जीवकायं पण्णवेति । वा०-जीवनं जीवो-ज्ञानाद्युपयोगस्तत्प्रधानः कायो जीवकायोऽतस्तं, कैश्चिज्जीवास्तिकायो जडतयाऽभ्युपगम्यतेऽतस्तन्मतव्युदासायेदमुक्तमिति ।
(वृ०प० ३२५) १३. तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अत्थिकाए अरूविकाए
पण्णवेति, तं जहा१४. धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं आगासत्थिकायं,
जीवत्थिकायं । १५. एगं च णं समणे नायपुत्ते पोग्गलत्थिकार्य रूविकायं
अजीवकायं पण्णवेति । १६. से कहमेयं मण्णे एवं? (श० ७।२१३)
अथ कथमेतदस्तिकायवस्तु मन्य इति वितर्कार्थः 'एवम्' अमुना चेतनादिविभागेन भवतीति ।
(प० ३२५)
* लय : इण पुर बल कंकोय न लेसी
भगवती के सातवें शतक (सू० २१३) में पांच अस्तिकाय का निरूपण है। वहां 'धम्मत्थिकाए जाव पोग्गलत्थिकाए' पाठ है । और उसके पाठांतर में पोग्गलत्थिकाए के स्थान पर छह प्रतियों में आगासत्थिकायं पाठ है। जयाचार्य को प्राप्त प्रति में पाठान्तर वाला पाठ रहा होगा, इसलिए उन्होंने इस गीत की आठवीं गाथा में 'जोड़' की रचना उसी क्रम से की है। इससे आगे उनतीसवीं गाथा में भी जोड़ का यही क्रम है । इन दोनों ही गाथाओं के सामने अंगसुत्ताणि (भाग-२) का पाठ उद्धृत किया गया है। इसलिए आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय के क्रम का व्यत्यय है।
श०७, उ० १०, ढा० १२७ २६१
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org