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________________ शुभपणें । भणें ॥। कही । भिक्खु भारीमाल ऋषराय 'जय जय' सुख संपति लही ॥ ४२. यावत परिणमैं जाण, वस्त्र तिकोहिज तिण अर्थे पहिछाण, प्रथम द्वार इह विध ४३. देश त्रेसठ अंक आय ढाल अठाणमी , ढाल : ६६ दूहा १. पट ने प्रभु! गुद्गल तणो उपचय वृद्धि कहाय । प्रयोग पुरुष व्यापार करि तथा स्वभावे धाय ॥ J २. जिन कहै पुरुष व्यापार करि, पट-पुद्गल वृद्धि पाय । स्वभाव करि पिछे वलि हिव गोतम पूछाय ॥ ३. जिह विध प्रभुजी पट वर्ष पुगल-उपचय जोय । ! पुरुष व्यापार प्रयोग करि स्वभाव करि पिण होय ।। ४. तिह विध प्रभुजी ! जीव रै, कर्मोपचय वृद्धि कहाय । निहं प्रयोग त्रिहुं प्रयोग करके हुवै, के स्वभाव कर थाय ? ५. जिन कहे जीव व्यापार करि कर्मबंध अवलोय | स्वभाव करि कर्मां तणो, बंध नहीं है कोय ।। ६. स्वभाव थी जो बंध हुवै, तो सिद्ध चउदम ठाण | तेन पिण कमी तणो, कर्मा बंध प्रसंग पिछाण ॥ ७. किण अर्थे ? तब जिन कहै, जीव त सुविचार | त्रिविध प्रयोग परूपिया, मन वच काय व्यापार ॥ एहिं व्यापारे करी, बहु जीवां रे जोय । कर्म वृद्धि प्रयोग करि स्वभाव थी नहि होय ॥ ९. इम सहु पंचेंद्री तणें, त्रिहुं प्रयोग कर्म-बंध । पंचेंद्रिय दंडक मभै, सन्नी आश्री संध || १०. इक प्रयोग करि कर्म वृद्धि एकेंद्रिय न वच दोय प्रयोग करि, विकलेंद्रिय में Jain Education International होय । जोय ॥ ११. तिण अर्थ यावत कह्यो, स्वभाव थी नहि होय । इम ज प्रयोग जेहनें, जाव वैमानिक जोय ॥ १२. "जोग अपेक्षा हां कह्या, मन वच काय संवादि । हेतु बलि, न कला मिध्यात्वादि ॥ कर्म बंध ४२. जाव परिणमति । से तेणट्ठेणं । १. वत्थस्स णं भंते ! पोग्गलोवचए कि पयोगसा ? वीससा ? 'प्रयोगेण' पुरुषव्यापारेण विस्रसया स्वभावेनेति । (बु० प० २५४) २. गोयमा ! पयोगसा वि, वीससा वि । (श० ६/२०) (०६/२४) ३. जहां णं भंते ! वत्थस्स णं पोग्गलोवचए पयोगसा वि, वीससा वि, ४. तहा णं जीवाणं कम्मोचए कि पयोगसा ? वीससा ? ५. गोयमा ! प्रयोगसा, नो वीससा । ७. गम! जीवा तिविहे योगे ते तं जहा योगे योगे, कावण्य योगे । ८. एवं तिविहे योग जीवा कम्मो ए पयोगसा नो वीससा । ६. एवं सदेखि पाँचदिमागं तिविहे पयोगे भाणि। ( श० ६ / २५) For Private & Personal Use Only १०. पुढवीकाइयाणं एगविहेणं पयोगेणं एवं जाव वणस्सइकायाणं विगलिदियाणं दुविहे योगे पण, यं जहा - वइपयोगे, कायपयोगे य । ११. से तेणट्ठेणं जाव नो (सं० पा० ) जस्स जो पयोगो जाव वैमाणियाणं । वीससा । एवं ( श० ६ / २६) श० ६, उ० ३, ढाल ६८,६६ १२१ www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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