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________________ सोरठा २६. जाव शब्द थी जाण, संक्षिप्त ऊर्द्ध विशाल है। तल पल्यंक संठाण, मध्य प्रवर वज्र विग्रहिक ।। २७. आख्यो लोक-स्वरूप, लोक विषे जे केवली । करै तिको तद्प, हिव देखाई तेहने ।। २८. *तेह सास्वता लोक में, तल विस्तीरण मांय । मध्य विषे संक्षिप्त छै, जावत वलि कहिवाय ।। २६. ऊपर ऊर्द्ध मृदंग ने, आकारे संठाण । तेह विषे जे जीव नैं, बले अजीव पिछाण ।। ३०. उत्पन्न ज्ञान दर्शन तणां, धरणहार अरहंत । केवली जिन जाणे अछ, वलि देखै चित शंत ।। ३१. पछै सीझ बूझै सही, जाव करै दुख अंत । सिद्ध तणां सुख सास्वता, पामै तेह अनंत ।। २६. मज्झे संखित्ते, उप्पि विसाले, अहे पलियंकसंठिए, मझे वरवइरविग्गहिए, उप्पि उद्धमुइंगाकारसंठिए । २७. अनन्तरं लोकस्वरूपमुक्तं, तत्र च यत्केवली करोति तद्दर्शयन्नाह (वृ० प० २८८) २८. तंसि च णं सासयंसि लोगंसि हेट्ठा विच्छिण्णंसि जाव २६, ३०. उप्पि उद्धमुइंगाकारसंठियंसि उप्पण्णनाण-दसण धरे अरहा जिणे केवली जीवे वि जाणइ-पास इ, अजीवे वि जाणइ-पासइ। ३१. तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाइ सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ । (श० ७।३) दूहा ३२. सिद्ध क्रिया नों अंतकृत, विशेष थी ते आम । श्रावक नैं किरिया हिवै, देखाउँ छै ताम ।। ३३. *श्रमणोपासक छै तिको, करी सामायक जान । बैठो साध रै स्थानके, तेहने हे भगवान ! ३४. स्य इरियावहि क्रिया हुवै, के ह छै संपराय ? जिन कहै इरियावहि नहीं, संपरायकी थाय ॥ ३५. किण अर्थे ? तब जिन कहै, श्रमणोपासक जान । सामायक करिनै रह्यो, साधु रहै ते स्थान ॥ ३२. 'अंतं करेइ' त्ति, अत्र क्रियोक्ता, अथ तद्विशेषमेव श्रमणोपासकस्य दर्शयन्नाह- (वृ० ५०२८८) ३३. समणोवासगस्स णं भंते ! सामाइयकडस्स समणो वस्सए अच्छमाणस्स ३४. तस्स णं भंते ! कि रियावहिया किरिया कज्जइ ? संपराइया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! नो रियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ। (श० ७४) ३५. से केणट्ठणं भंते ! एवं वुच्चइ-नो रियावहिया किरिया कज्जइ ? संपराइया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! समणोवासयस्स णं सामाइयकडस्स समणो वस्सए अच्छमाणस्स ३६. आया अहिंगरणी भवइ, आत्मा--जीव: अधिकरणानि-हल शकटादीनि कषायाश्रयभूतानि यस्य सन्ति सोऽधिकरणी । (वृ० प० २८६) ३७. आयाहिगरणवत्तियं च गं तस्स नो रियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ । ३८. से तेणठेणं । (श०.७५) श्रमणोपासकाधिकारादेव (वृ०प० २८६) ३६. तेहनं जीवज आतमा, हल सकटादि कषाय नै, अधिकरण कहिवाय । आश्रयभूतज थाय । ३७. आतम तसु अधिकरण छै, ते कारण करि ताय । इरियावहि क्रिया नहीं, संपरायकी थाय ॥ ३८. तिण अर्थे करि गोयमा ! आख्यं एहवं ताय । श्रावक नां अधिकार थी, बलि तेहिज कहिवाय ।। * लय : किण किण नारी सिर घड़ो रे श० ७, उ० १, ढा०१११ २०७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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