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________________ ढाल : १३६ १. हे प्रभ ! लद्धी कतिविहा? दाखै श्री जिनदेव । दस प्रकार लद्धी कही, इहां वृत्तिकार कहेव ।। २. कर्म-क्षयादिक थी हुवै, ज्ञानादिक गण जाण । ___ तास लाभ लद्धी तिका, तसु दस भेद पिछाण ।। ३. ज्ञान-लद्धी दर्शन-लद्धी, चारित्र-लद्धी चाय । लद्धी चरित्ताचरित्त फुन, दान-लद्धि कहिवाय ।। ४. लाभ-लद्धी नै भोग-लद्धी, वलि लद्धी उपभोग । वीर्य नैं इंद्रिय-लद्धी, ए दस लद्धी अमोघ ॥ ५. ज्ञानावरणी कर्म क्षय, तथा क्षयोपशम होय । तिण करिने जे लाभ ते, ज्ञान-लद्धि अवलोय ॥ ६. दर्शण मोहनी कर्म ते, उपशम क्षायक होय । तथा क्षयोपशम थी हुवै, दर्शन-लद्धी सोय ।। वा०—इहां दर्शन-लद्धी में जे उदय भाव-ऊंधी श्रद्धा ते लब्धि में किम न लेखवी ? उत्तर---ए लब्धि उज्जल जीव छ, निरवद्य छ । अनैं ऊंधी श्रद्धा मिथ्यात आश्रव बिगडयो जीव छ, सावद्य छै ते माटे । मिथ्यादष्टि रे वा मिथदष्टि रै जेतली शुद्ध श्रद्धा क्षयोपशम भावे छै अनै सम्यग्दृष्टि रै सर्व शुद्ध श्रद्धा छै, ते दर्शण लद्धी में लेखवी। ७. चारित्र मोहनी कर्म ते, उपशम क्षायक होय । तथा क्षयोपशम थी हुवै, चारित्र-लद्धी जोय । ८. चारित्र मोहनी कर्म ते, क्षयोपशम थी होय । लद्धी चरित्ताचरित्त ते, श्रावकपणो सुजोय ॥ १. कति विहा णं भंते ! लद्धी पण्णत्ता ? गोयमा ! दसविहा लद्धी पण्णत्ता, तं जहा२. तत्र लब्धि :—आत्मनो ज्ञानादिगुणानां तत्तत्कर्मक्षयादितो लाभः । (वृ० प० ३५०) ३. नाणलद्धी दंसणलद्धी चरित्तलद्धी चरित्ताचरित्तलद्धी दाणलद्धी। ४. लाभलद्धी भोगलद्धी उवभोगलद्धी वीरियलद्धी इंदियलद्धी। (श० ८।१३६) ५. तत्र ज्ञानस्य-विशेषबोधस्य पञ्चप्रकारस्य तथाविधज्ञानावरणक्षयक्षयोपशमाभ्यां लब्धिनिलब्धिः । (वृ० प० ३५०) माय॥ ७. चारित्रं-चारित्रमोहनीयक्षयक्षयोपशमोपशमजो जीवपरिणामः (वृ० प० ३५०) ८. चरित्रं च तदचरित्रं चेति चरित्राचरित्रं-संयमा संयमः, तच्चाप्रत्याख्यानकषायक्षयोपशमजो जीवपरिणाम: । (वृ० प० ३५०) ६-१३. दानादिलब्धयस्तु पञ्चप्रकारान्तरायक्षयक्षयोपशमसम्भवाः । (वृ० ५० ३५०) ६. दान अंतराय कर्म नां, क्षायक थी जे होय । अथवा क्षयोपशम थकी, दान-लद्धि अवलोय ।। १०. लाभ अंतराय कर्म नां, क्षायक थी जे होय । अथवा क्षयोपशम थकी, लाभ-लद्धि अवलोय ।। ११. भोग अंतराय कर्म नां, क्षायक थी जे होय। अथवा क्षयोपशम थकी, भोग-लद्धि अवलोय ॥ १२. उपभोग अंतराय कर्म नां, क्षायक थी जे होय। अथवा क्षयोपशम थकी, उपभोग-लद्धि अवलोय ॥ १३. वीर्य अंतराय कर्म नां, क्षायक थी जे होय । अथवा क्षयोपशम थकी, वीर्य-लद्धी जोय ॥ १४. दर्शणावरणी कर्म नां, क्षय उपशम थी जेह । इंद्रिय-लद्धी ऊपज, भावे इंद्रिय एह ॥ १५. 'दानादिक पांच लब्धि, उज्जल जीव पिछाण । देव ते तो जोग छै, सावद्य निरवद्य जाण ॥ ३५० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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