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________________ ब्रहा १. पंचमुदेशक में विषे धावक नो अधिकार । " आख्यो छ तेहिज हिवै, छठे उदेशै सार ॥ ढाल : १४४ * रुड़े विविध प्रकारे रे, प्रश्न गोयम पूछंता ॥ ( ध्रुपदं ) २. हे प्रभुजी ! श्रमणोपासक ते तथारूप भ्रमण प्रति धारो । माहण मूल गुणे करि कहिये, बिहुं नामे अणगारो ॥ ३. एहवा मुनि ने श्रमणोपासक, फासु—- जीव-रहीतो । 2 एषणीक निर्दोष आहार चिउं, प्रतिलाभ धर प्रीतो ॥ ४. स्यूं फल होवै ते श्रावक नैं ? तब भाखे जिनरायो । एकंत तेहने दुवै निर्जरा, पाप कर्म नहि थायो ॥ ५. हे प्रभु! श्रमणोपासक ते तथारूप भ्रमण प्रति धारो । माहण मूल गुणे करि कहिये विहं नामें अणगारो ॥ ६. आहार अफासु सचित्त कह्यो इहां, वलि ते अनैषणीको । असण पाण खादिम ने स्वादिम, व्यारू' आहार सधीको ॥ ७. प्रतिलाभ्यां फल स्यूं श्रावक नें ? तब भाखे जिनरायो । तास निर्जरा हुवे बहुतर पाप अल्पतर यायो । ८. पाठ मांहे ए बात परूपी समचं श्री जिनरायो । जाण अजाण भेद नहि खोल्यो, भिक्षु न्याय बतायो । सोरठा २. कोवृति में ताय, कारण पड़ियां ए अच्छे अन्य आचार्य वाय, अकारणे पिण ते कहे ॥ आख्यो इहां । तिकोज से ।। १०. विरुद्ध बिहु ए अर्थ, छैहड़े वलि केवलिगम्य तदर्थ, जे फुन तत्व ११. भिक्षू गुणभंडार, अर्थ कियो छे एहनो । सांभज्यो सुखकार, ढाल कहूं हिव तास कृत ' ॥ * गरम न कीजे रे सतगुरु सीमाड़ली १. भगवती सूत्र श० ८ सूत्र २४६ के पाठ की व्याख्या कई आचार्यों ने अपने-अपने ढंग से की है। इससे वह पाठ विवादास्पद बन गया। कुछ आचार्यों ने साधु को अप्राक और अनेषणीय आहार देने में अल्प पाप, बहुत निर्जरा का सिद्धान्त स्वीकृत किया है, पर उनमें भी कुछ आचार्य इसे आपयादिक मानते हैं और कुछ भगवती-जोड़ ४०२ Jain Education International १. पञ्चमे श्रमणोपासकाधिकार उक्तः षष्ठेऽप्यसावेवोच्यते । ( वृ० प० ३७३) २. समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा । ३. फामु-एमभिन्नेषं असण-पान-खाइम- साइमे पछिलाभमाणस्स । ४. कि कज्जइ ? गोमा ! एगंतसो से निज्जरा कज्जइ, नत्थि य से पावे कम्मे कज्जइ । (TO NIR४५) ५. समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा । ६. अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असण-पाण- खाइम-साइमेणं । पडिला माणस्स कि कज्जइ ? ७. गोयमा ! बहुतरिया से निज्जरा कज्जइ, अप्पतराए से पावे कम्मे कज्जइ । (२० २४६) ९. इह च विवेचका मन्यन्ते – असंस्तरणादिकारणत एवाप्रासुकादिदाने बहुतरां निर्जरा भवति नाकारणे.... अन्ये त्वाहुः - अकारणेऽपि गुणवत्पात्रायाप्रासुकादिदाने परिणामवशाद्बहुतरा निर्जरा भवत्यल्पतरं च पापं कर्मेति । (१० १०३७३) १०. यत्पुनरिह तत्त्वं तत्केवलिगम्यमिति । For Private & Personal Use Only ( वृ० प० ३७४ ) www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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