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________________ ४५. जे शं नो पभू पासओ रूवाई अणवलोएत्ता णं पासि त्तए, ४६. जे शं नो पभू उड्ढं रूवाई अणालोएत्ता णं पासित्तए, ४५. रूप रह्या बिहुं पास, दृष्टि फेरचा बिण त्यां भणी । देखण समर्थ न तास, पिण इच्छा देखण तणी ।। ४६. ऊर्ध्व रूप छै सोय, अवलोकन कीधां बिना । जोवा समर्थ न कोय, देखण मन छै जेहनां ।। ४७. हेठे रूप छै जेह, अवलोकन कीधां बिना। देखण समर्थ न तेह, पेखण मन छै जेहनां ।। ४८. सन्नी छतो जे ताहि, समर्थ रूप देखण घणां । जोयां विण समर्थ नांहि, अध्यवसाय देखण तणां ।। ४७. जे णं नो पभू अहे रूवाई अणालोएत्ता णं पासित्तए। (श० ७।१५२) सोरठा ४६. अकाम-निकरण देख, वेदन वेदै इम कह्य । तास विपर्जय पेख, प्रकाम-निकरण हिव कहै । ५०. *समर्थ पिण छै स्वाम ! प्रकाम-निकरण वेदना । वेदै छ ते ताम ? जिन कहै हंता छै घना ॥ ५१. हिव समर्थ पिण जे प्रकाम-निकरण, वेदनाज कहीजिये । समर्थ पिण जे रूप देखण, सन्नीपणे करि लीजिये ।। ५२. प्रकाम वांछित अर्थ नै, अणपामिवै करि जेहन । प्रवर्द्धमान भावे करी, प्रकृष्ट वांछा तेहनें ॥ ५३. तेहीज निकरण अछ कारण, तेह वेदना नै विषे । समर्थ पिण जे प्रकाम-निकरण, वेदना वेदै इसे ॥ ५४. अन्य आचार्य इम कहै छै, प्रकाम कहितां जाणियै । तीव्र अभिलाषा छते वा, अतिहि अर्थ पिछाणियै ।। ५५. निकरणं इष्टार्थ साधक, क्रिया नहीं जेहनै विषे । समर्थ पिण जे प्रकाम-निकरण वेदना वेदै तिसे ॥ ५६. *हे प्रभ ! किणविध ताम, समर्थ पिण सन्नी छता । __ प्रकाम-निकरण नाम, वेदन प्रति किम वेदता ? ५७. जिन कहै सन्नी जीव, समुद्र पार जावू वही । एहवी वांछा अतीव, पिण पार जावा समर्थ नहीं । [जिन कहै गोयम ! एह, प्रकाम-निकरण वेदना] । ५८. समद्र – जे पार, रूप देखण समरथ नहीं । पिण ते रूप उदार, देखण वांछा तीव्र ही॥ ५९. वलि देवलोक मझार, जावा मैं समरथ नहीं । त्यां जावा नी अपार, अभिलाषा तसु तीव्र ही॥ ६०. देवलोक नां रूप, देखण नैं समरथ नहीं । पिण तसं देखण चूप, मनसा छै तसु तीव्र ही ।। * : लय : जी हो धनो ने सालभद्र दोय :लय : पूज मोटा भांज तोटा ४६. अकामनिकरणं वेदनां वेदयतीत्युक्तम्, अथ तद्विपर्ययमाह (वृ० ५० ३१२) ५०. अत्थि णं भंते ! पभू वि पकामनिकरणं वेदणं वेदेति? हंता अस्थि । (श० ७.१५३) ५१. प्रभुरपि संज्ञित्वेन रूपदर्शनसमथौंऽपि । (वृ० ५० ३१२) ५२. प्रकामः-ईप्सितार्थाप्राप्तित: प्रवर्द्धमानतया प्रकृष्टोऽभिलाषः (वृ०प० ३१२) ५३. स एव निकरणं-कारणं यत्र वेदने तत्तथा । (वृ० ५० ३१२) ५४,५५. अन्ये त्वाहु:-प्रकामे-तीवाभिलाषे सति प्रकामं वा अत्यर्थ निकरणं-इष्टार्थसाधकक्रियाणामभावो यत्र तत् प्रकामनिकरणं तद्यथा भवतीत्येवं वेदना वेदयति । (वृ० प० ३१२) ५६. कहाण भते ! भू वि पकामनिकरणं वेदणं वेदेति ? ५७. गोयमा ! जे णं नो पभू समुद्दस्स पारं गमित्तए, ५८. जे णं नो पभू समुदस्स पारगयाई रूवाई पासित्तए, ५६. जे णं नो पभू देवलोगं गमित्तए, ६०. जे णं नो पभू देवलोगगयाई रूवाई पासित्तए, १०७,०७, ढा० १२२ २७१ Jain Education Intemational cation Intermational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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