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________________ ३२. तसु क्षय उपशम होय, अवधि विभंग दोनुं लहै । क्षय उपशम जे थाय, मति ए दोनुं नो जोय, अवधि दर्शन पिग एक है। २२. विभंग ज्ञानावरणीह, क्षय उपचम यी विभंग हो । पिण ए भेद सुलीह, अवधि ज्ञानावरणी तनुं ॥ ३४. जाती-समरण पाय, समदृष्टि नें मिच्छदिट्टी । ज्ञानावरणी तणुं ॥ ३५. ज्ञाता गज भव जाती- समरण कपनों मति ज्ञानावरणीह, क्षयोपशम थी वृत्ति में ॥ ३६. समदृष्टी सोय, ₹ वर मतिज्ञान को उस मिच्छदिट्टि १ जोव, ₹ मति अज्ञान कहीजिये ॥ ३७. विण सुं धूर त्रिज्ञान, बलि तीनू अज्ञान से । ईह. 1 क्षयोपशम ए जान, लद्धी उज्जल जीव ए' ॥ ( ज० स० ) ३५. *दर्शन-लद्धि प्रभु ! कि प्रकार? जिन कहे तीन प्रकार विचार | समदर्शण ने मिथ्यादर्शन, समामिथ्या दर्शन संस्पर्शन || सोरठा ३२. दर्शन मोह उपाधि, उपशम क्षायक क्षयोपशम । सम्यक्त उपशम आदि, समदर्शण लद्धीतिको ॥ ४०. दर्शण मोह पिछाण, क्षयोपशम थी नीपजै । मिथ्यादृष्टि सुजाण, दृष्टि समामिच्या वली ॥ ४१. मिध्याती है ताम, ऊंधी श्रद्धा जेतली । मिथ्यादृष्टिज नाम, एह उदय भावे कही ॥ ४२. मिय्याती १ इष्ट, सूधी थढा ए पिण मिथ्यादृष्ट, पिण ४३. अनुयोगद्वार मकार, उदय जेवली | क्षयोपशम भाव ए ॥ निष्पन्न रा बोल में मिध्यादृष्टि विचार, ए उदय भाव अंधी श्रद्वा ॥ ४४. ए आश्रव मिथ्यात, दर्शण मोह उदय पकी । लद्धि में न कहात, उदय भाव ४५. अनुयोगद्वार मकार, क्षय उपशम तीन दृष्टि सुविचार, भाव क्षयोपशम शुद्ध ४६. तिण सू मिथ्यादृष्ट, क्षय उपशम भावे उज्जल जीव सुइष्ट, जीव सुइष्ट, लडी में आली ४७. समामिथ्यादृष्ट, भाव क्षयोपशम जिन कही । मिश्र गुणठाणे इष्ट, तसु शुद्ध श्रद्धा जेतली' ॥ ( ज० स० ) ४८. रिद्धि प्रभु! किते प्रकार? जिन कहै पंच प्रकार विचार। सामायक चारित्र प्रसिद्धी, वली छेदोपस्थापनिक लद्धी || *लय : सो ही सयाणा अवसर साधे ३५२ भगवती-जोड़ Jain Education International मिथ्यादृष्टि ॥ निप्पन्न विषे । श्रद्धा ॥ तिका । इहां ॥ ३५. जातिस्मरणावरणीयानि णीयभेदाः । क्षयोपशम उदितानां तोदयत्वम् । ३८. दंसणलद्धी णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा सम्मदंसणलद्धी, मिच्छादंसणलद्धी, समामिच्छादंसणलद्वी । (श० ८।१४२) २६. ह च सम्यग्दर्शनमिय्यात्वमोहनीयकर्मावेनोपशमक्षक्षयोपशमसमुत्थ आत्मपरिणामः । ( १०० ३५०) कर्माणि मतिज्ञानावर क्षयोऽनुदितानां वि (ज्ञाता वृ० प०७४) ४१. मिध्यादर्शनमशुमध्यात्वदनोदयसमुत्यो परिणामः । ४३. अणुओगदारा सू० २७५ ४५. अणुओगदाराई सू० २८५ -- For Private & Personal Use Only जीव ( वृ० प० ३५० ) ४८. चरितलद्धी णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा- सामाइयपरिसबी, छेदोषद्वावचिती । www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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