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१०२,१०३. षष्ठः पुनः क्षीणमोहत्वादि न लब्धवानिति न
पूर्व बद्धवान् अधुना तु क्षीणमोहत्वं लब्धमिति बध्नाति शैलेश्यवस्थायां पुनर्न भन्त्स्यतीति षष्ठः ।
(वृ० प० ३८६) १०४,१०५. सप्तमः पुनर्भव्यस्य, स ह्यनादौ काले न बद्ध
वान् अधुनाऽपि कश्चिन्न बध्नाति कालान्तरे तु भन्त्स्यतीति ।
(वृ० प० ३८६)
गीतक-छंद १०२. गण क्षीणमोहपणादि न लह्य, पूर्व भव बांध्यो नहीं ।
भव वर्तमाने क्षीण मोहे, बंध छै इरियावही ।। १०३. वलि अनागत नहिं बांधस्यै, जे चवदमां गुण में रही ।
नहिं बंध्यो बांध बांधस्यै नहि, भंग षष्टम ए सही। १०४. जे भव्य अनादि अद्धा विषे, नहिं बांधियो पूर्वे सही ।
. भव वर्तमाने जीव कोइक, न बांधै इरियावही ।। १०५. फुन अनागत कालांतरे, ए बांधस्य आगामिही । नहिं बंध्यो न बंधै बांधस्यै, भव्य रास सप्तम धाम ही ।।
सोरठा १०६. न बंध्यो न बंध तेण, सप्तम भांगे बांधस्य । उपशम क्षायक श्रेण, होणहार शिव 'धर्मसी'।
गीतक-छंद १०७. वलि अष्टमज अभव्य पूर्वे, न बांध्यो इरियावही ।
फून वर्तमान भव में न बांधे, सदा धर ठाणे रही। १०८. जे अनागत नहिं बांधस्यै, शिव गमन योग्य जिको नहीं । नहिं बांधियो अरु नाहिं बांधे, बांधस्यै नहिं इम कही ॥
___सोरठा १०६. भवाकर्ष रै मांय, काल त्रिहं नै पद विषे ।
विचलै पद जे पाय, कहियै छै भंग अष्ट ही ।। ११०. विचलै पद धुर भंग, उपशम श्रेणिज ग्यारमें ।
द्वितीय भंग सुचंग, क्षीणमोह बांधे अछ।
१०७,१०८. अष्टमस्त्वभव्यस्य
(वृ० प० ३८६)
१११. न बंधै तो भंग, दशमें गुणठाणे का।
उपशम श्रेणि सुचंग, पूर्व भव पड़तो छतो॥ ११२. न बंधै चउथै भंग, ए चवदमें गुणठाण में ।
पंचम भंग प्रसंग, बंध उपशांत ग्यारमें।
१०६. इह च भवाकर्षापेक्षेष्वष्टसु भङ्गकेषु
(वृ० ५० ३८७) ११०. 'बन्धी बन्धइ बन्धिस्सइ' इत्यत्र प्रथमे भने
उपशान्तमोहः 'बन्धी बन्धइन बन्धिस्सई' इत्यत्र _ द्वितीये क्षीणमोहः : (वृ० ५० ३८७) १११. 'बन्धी न बन्धइ बन्धिस्सई' इत्यत्र तृतीये उपशान्तमोहः ।
(वृ० प० ३८७) ११२. 'बन्धी न बन्धइ न बन्धिस्सई' इत्यत्र चतुर्थे शैलेशी
गतः, 'न बन्धी बन्धइ बन्धिस्सई' इत्यत्र पञ्चमे उपशान्तमोहः
(वृ० प० ३८७) ११३. न बन्धी बन्धइ न बन्धिस्सइ इत्यत्र षष्ठे क्षीणमोहः
'न बन्धी न बन्धइ बन्धिस्सइ' इत्यत्र सप्तमे भव्यः, 'न बन्धी न बन्धइ नबन्धिस्सइ' इत्यत्राष्टमेऽभव्यः ।
(वृ० प० ३८७) १. प्रस्तुत ढाल की गाथा ११० से ११३ तक की जोड़ का
आधार मूल पाठ है। उसके साथ थोड़ा अंश वृत्ति का है। वत्ति में मूल पाठ ज्यों का त्यों है। इसलिए यहां जोड़ का आधार वृत्ति को मान उसे ही उद्धृत किया गया है।
११३. बंधै षष्टम भंग, क्षीणमोह तेरम गणे।
सप्तम भव्य शिव अंग, शिव अयोग्य अष्टम अभव्य ।
४४८ भगवती-जोड़
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