SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १ दोष का नाम आचारांग में (१) परियट्ट ४ दोषों के नाम भगवती में (१) सइंगाल (२) सधूम (३) संजोयणा (७।२२) (४) पाहुडेभोइ [नोट-'पाहुडेभोइ' दोष भगवती की उपलब्ध प्रति में नहीं मिला ।] १ दोष का नाम प्रश्नव्याकरण में (१) मूलकम्म (२।१२) १३ दोषों के नाम दशवकालिक में (१) उभिन्न (५।११४५,४६) (२) मालोहड (५२११६६) (३) अज्झोयर (५।११५५) (४) संकिय (५।१।४४,७७) (५) मक्खिय (५।१।३३,३४) (६) निक्खित्त (१३५६,६१) (७) पिहिय (५।१।४५) (८) साहरिय (२१।३०) (६) दायग (५।२।१२) (१०) मिस्स (५।११५५) (११) असत्थपरिणय (५।२।२३) (१२) लित्त (२१।२१) (१३) छद्दिय (५।१।२८) [नोट-जयाचार्य ने छद्दिय दोष का उल्लेख किया है । दशवकालिक की मुद्रित प्रतियों में ऐसा कोई दोष उल्लिखित नहीं है। इसके स्थान पर परिसाडिय दोष का उल्लेख है । जयाचार्य ने 'छद्दिय' शब्द किस प्रति के आधार पर दिया ? यह अन्वेषणीय है। २ दोषों के नाम उत्तराध्ययन में (१) कारण (२६।३१) (२) अप्रमाण (१६।८) एवं सर्व मिली ४७ दोष थया । ५७. *सुर-सुर चव-चव शब्द करै नहिं, अति शीघ्र, अति धीरै न करै आहार । शाक शीतादिक नु अणछोडवू, इण विध आहार करै अणगार ॥ ५७. असुरसुरं, अचवचवं, अदुयं, अविलंबियं, अपरिसाडि, 'अदुयं' ति अशीघ्रम् 'अविलंबियं' ति नातिमन्थरं 'अपरिसार्डि' ति अनवयवोज्झनम् (वृ० प० २६४) * लय : श्री जिनवर गणधर श०७, उ०१, ढा० ११४ २२५ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy