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________________ ७६. सेसा जीवा चउहिं वि पदेहि भाणियव्वा । (श० ५१२२५) यतनी ७५. "प्रथम पद सोवचया कहाय, ऊपजै पिण निकलै नाय । ते एकेन्द्री में नहि पाय, निरन्तर नीकले तिण न्याय ।। ७६. दूजो पद सावचया कहाय, नीकलै पिण ऊपजै नाय । ए पिण एकेन्द्री में नहिं पाय, निरन्तर ऊपजे तिण न्याय ।। ७७. चउथै पद ऊपजवो न होय, वलि नीकलै पिण नहिं कोय । ए पिण एकेन्द्री में न पावंत, निरन्तर ऊपजे निकलंत ।। ७८. ए तीनूइ पद नहि होय, पद एक तीजो अवलोय । ऊपजै नीकलै समकाल, सोवचय-सावचया न्हाल' ।। (ज० स०) ७९. शेष उगणोस दंडक देख, पद च्यारूंइ छै सूविशेख । ऊपजवा नीकलवा नुं जगीस, विरह का दंडक उगणीस ।। ८०. "कदै नीकलवा - विरह होय, तिण वेला ऊपजियो कोय । जब सोवचया पद पाय, ऊपनो पिण नीकल्यो नांय ॥ ८१. कदै ऊपजवा नुं विरह होय, तिण वेला नीकलियो कोय । जब सावचया पद पाय, नीकल्यो पिण ऊपनो नांय ॥ ८२. ऊपजवा नीकलवा नुं जोय, कदे विरह दोनूं नहिं होय । सोवचय-सावचया न्हाल, ऊपनो नीकल्यो समकाल ।। ५३. ऊपजवा नीकलवा नुं जोय, कदै विरह दोनइ होय । निरुवचय-निरवचया ताहि, उत्पत्ति नीकल बिहुं नांहि ।। ८४. इहां उगणीस दंडक मांय, पद च्यारूइ इणविध पाय । यां में विरहकाल कह्यो ताय, तिण अनुसारे आख्यो ए न्याय" ॥ (ज० स०) ८५. *हे प्रभु ! सिद्ध सोवचया पूछा ? तब भाखै जिनराय । सिद्ध सोवचया वृद्धि-सहित छ, उपजै पिण निकल नाय ।। ८६. सावचया दूजो पद नहि छ, चवन अभाव निहाल । सोवचय-सावचया पिण नहि, उत्पत्ति चवन नहीं समकाल ।। ८७. निरुवचय-निरवचया पिण छै, नहीं वृद्धि नहि हानि । मुक्ति नुं विरह हुवै तिण वेला, चउथो पद ए जानि ।। ८८. प्रथम चरम पद पावै सिद्धां में, दूजो तीजो नहिं होय । पहिलो तो मुक्ति जावै जिण वेला, छेहलो विरह में जोय ॥ ८९. जीवा प्रभु ! निरुवचय-निरवचया, केतलो काल रहंत ? जिन भाखै सदाकाल रहै ए, वृद्धि हानि नहिं हंत ॥ ८५. सिद्धा णं भंते ! पुच्छा । गोयमा ! सिद्धा सोवचया, ८६. नो सावचया, नो सोवचय-सावचया, ८७. निरुवचय-निरवचया । (श० ५१२२६) १०. नेरइया प्रभ! काल किता रहै, सोवचया वृद्धि माग ? जघन्य समय इक नैं उत्कृष्टो, आवलिका नों असंख भाग ।। ८६. जीवा णं भंते ! केवतियं कालं निरुवचय-निरव चया ? गोयमा ! सम्बद्धं । (श०५।२२७) १०. नेरइया णं भंते । केवतियं कालं सोवचया ? गोयमा ! जहणणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं । (श० ५२२२८) * लय : धिन प्रभु रामजी । १०० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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