________________
१७. अट्ठ उस्सण्हसण्हियाओ सा एगा राण्हसहिया ।
१८. अट्ठ सहसण्हियाओ सा एगा उड्डरेणू, अट्ठ उड्दुरेणूओ
सा एगा तसरेणू । १६. अट्ठ तसरेणूओ सा एगा रहरेणू, अट्ट रहरेणूओ से एगे
देवकुरु-उत्तरकुरुगाणं मणुस्साणं वालग्गे २०-२३. 'एवं हरिवास-रम्मग-हेमवय-एरन्नवयाणं, पुव्य
विदेहाणं मणुस्साणं अट्ठ वालग्गा सा एगा लिक्खा, अट्ठ लिक्खाओ सा एगा जूया
२१.
१७. एतो नाम मात्र दस देख, आगल अठगणां कहिये विशेख ।
अठ उत्श्लक्ष्णश्लक्षिणका नीं, इक इलक्षणश्लक्ष्णा जानी।। १८. आठ इलक्ष्णश्लक्षिणका नीं, एक ऊर्ध्वरेण जिन वानी ।
आठ ऊर्ध्वरेण नी जोय, एक त्रसरेण अवलोय ।। १६. आठ त्रसरेण नी ताम, एक रथरेणू हुवै आम ।
आठ रथरेणू नी उदग्ग, एक देव-उत्तरकुरु वालग्ग । २०. देव-उत्तरकुरु नर देख, त्यारां वालाग्र आठ नुं पेख ।
हरिवर्ष रम्यक नां विशेख, नर नों हुवो वालाग्र एक ।। हरिवर्ष रम्यक नर जान, त्यांरा वालाग्र आठ नुं मान ।
हेमवंत एरण्य नां लहिय, नर नों इक वालाग्र कहिये ।। २२. हेमवंत एरण्य नर जोय, त्यांरा वालाग्र आठ न होय ।
पूर्व अपर विदेह नां ताय, नर नों इक वालाग्र थाय ।। २३. पूर्व अपर विदेह नर जेह, त्यांरा वालाग्र आठ नुं तेह ।
एक लीख हुवै छै सोय, आठ लीख नी जं इक होय ॥ अठ जू जवमध्य इक पेख, अठ जवमध्य अंगल एक ।
इण अंगुल प्रमाणे जाण, षट अंगल पाओ पिछाण ॥ २५. बारै अंगल बैंहत आख्यात, अंगल चउवीस नों एक हाथ ।
अंगुल अड़ताली कुक्षि संपेख, ए धनष्य तणुं अर्ध देख ।
२४.
२६. छन् अंगल नों दंड एक, वलि धनुष यूप संपेख ।
वलि नालिका यष्टि विशेख, अक्ष गाडा नों अवयव देख ॥
२७. वलि मूसल पिण अवलोय, छहुँ छन अंगुल नां जोय ।
एणे धनुष प्रमाण पेख, दोय सहस्र धनुष गाऊ एक ॥ २८. च्यार गाऊ नों जोजन जाण, एहवै जोजन तणे प्रमाण ।
एक पालो वाटलो होय, जोजन लांबो चोड़ो अवलोय ।। २६. एक जोजन ऊंचो ताय, त्रिगणी जाझी परिधि कहाय ।
एक दिवस तणां बध्या वाल, दोय तीन दिवस नां न्हाल । ३०. उत्कृष्टपणे निशि सात, तेहनां बाध्या वाल विख्यात ।
तेह वालाग्र नी बहु कोड़, काना लग चांपी भरचो जोड़।
२४. अट्ठ जूयाओ से एगे जवमझे, अट्ठ जवमज्झा से एगे
अंगुले । एएणं अंगुलपमाणेणं छ अंगुलाणि पादो, २५. बारस अंगुलाई विहत्थी, चउबीसं अंगुलाई रवणी,
अडयालीसं अंगुलाई कुच्छी 'रयणि' त्ति हस्तः ।
(वृ० प० २७७) २६. छन्नउति अंगुलाणि से एगे दंडे इ वा, धणू इ वा;
जूए इ वा नालिया इवा, अक्खे इ वा 'नालिय' ति यष्टिविशेष: 'अक्खे' त्ति शकटावयवविशेषः ।
(वृ०प० २७७) २७. मुसले इ वा । एएणं धणुप्पमाणेणं दो घणुसहस्साई
गाउयं, २८. चत्तारि गाउयाइं जोयणं । एएणं जोयणप्पमाणेणं
जे पल्ले जोयणं आयामविक्खंभेणं, २९. जोयणं उड्ढं उच्चत्तेणं, तं तिउणं, सविसेसं परिर
एणं-से णं एगाहिय-बेहिय-तेहिय, ३०. उक्कोसं सत्तरत्तप्परूढाणं संमठे संनिचिए भरिए
वालग्गकोडीणं । 'संसृष्टः' आकर्णभृतः। (वृ० प० २७७)
___ सोरठा ३१. वालाग्र कोड़ विख्यात, पाठ माहे इहां आखिया ।
बृहत टबे असंख्यात, न्याय कहूं छ. तेहनों ॥ ३२. अनुयोगद्वार मझार, एक एक वालाग्र नां ।
खंड असंख विचार, सूक्ष्म पल्य कही तसु॥
३२. से कि तं सुहुमे उद्धारपलिओवमे ?..."तत्थ णं एगमेगे वालग्गं असंखेज्जाइं खंडाई कज्जइ।....
(अणुओग० सू० ४२४)
श० ६, उ०७, ढा० १०७ १७६
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org