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२३. अथ प्रभ! आल मलो नैं आदो, हिरिलि सिरिलि ताह्यो ।
सिस्सिरिलि किट्रिका नै छिरिया, अनंतकाय कहिवायो ? २४. क्षीरविरालिया कृष्णकंद वलि, वज्रकंद सूरणकंदो।
खेलूड में अद्दमत्था' पिंडहलिद्दा लोहि णीहू मंदो। २५. थीहू विभगा' बे भाग सरीखा, अश्वकर्णी सींहकर्णी ।
सिउंढी मसंढी सहु लोकरूढ़ि गम्य अनंतकाय ए वर्णी ।
२६. अन्य वलि जे एह सरीखी, अनंत जीव सहु मांह्यो ।
विविह सत्व वर्णादि भेद थी, बहु प्रकार कहिवायो॥
२३. अह भंते ! आलुए, मूलए, सिंगबेरे, हिरिलि,
सिरिलि, सिस्सिरिलि, किट्ठिया, छिरिया, २४. छीरविरालिया, कण्हकंदे, वज्जकंदे, सूरणकंदे,
खेलूडे, भद्दमोत्था, पिंडहलिद्दा, लोही, णीहू, २५. थीहू, थिभगा, अस्सकण्णी, सीहकण्णी, सिउंढी,
मुसंढी, एते चानन्तकायभेदा लोकरूढ़िगम्याः,
(वृ० प० ३००) २६. जेयावणे तहप्पगारा सवे ते अणंतजीवा
विविहसत्ता? विविधा-बहुप्रकारा वर्णादिभेदात्
. (वृ० प० ३००) २७. 'विविहसत्त (चित्ताविहि)' त्ति क्वचिद् दृश्यते तत्र
विचित्रा विघयो-भेदा येषां ते तथा ते सत्त्वा येषु ते तथा।
(वृ० प० ३००) २८. हंता गोयमा ! आलुए मूलए, जाव अणंतजीवा विविहसत्ता।
(श० ७।६६)
२७. विविह सत्ता किहांइक दीस, वि कहितां विचित्र कहीजै ।
विध कहितां भेद छै जेहनां, ते सत्ता जीवा लहीजै।
२८. हे प्रभ! ए सह अनंतकाय छै? प्रश्न गोयम इम मत्ता । जिन कहै हंता आलू मूल ए, जाव अनंत जीव विविध सत्ता ।।
दोहा २६. जीव तणां अधिकार थी, जीव नारकी आद ।
लेस्या करि तसु प्रश्न हिव, पूछ धर अहलाद ।। ३०. *कृष्णलेस्यावंत नारक हे प्रभु ! अल्पकर्मी किणवारै ?
नील लेश्यावंत महाकर्मी छै? जिन कहै हंता जिवारै।।
२६. जीवाधिकारादेवेदमाह
(वृ० प० ३००)
३१. किण अर्थे तब श्री जिन भाखै, स्थिति पडुच्च कहीजै । तिण अर्थे जाव महा-कर्मवंत, न्याय हिवै इम लीजै ।।
सोरठा ३२. नरक सातमी मांय, कृष्णलेस्यावंत नेरइयो ।
निज स्थिति घणी खपाय, अल्प रही वर्तं तहां ॥ ३३. नरक पंचमी मांहि, नीललेसी जे नेरइयो ।
सतर सागर स्थिति ताहि, ते तत्काल समप्पनो ॥ *लय : शान्तिनाथ मेरे मन वसिया १. इसके स्थान पर अंगसुत्ताणि भाग २ में 'भद्दमोत्था' पाठ है। 'अद्दमोत्था' को - वहां पाठान्तर माना गया है । २. इसके स्थान पर अंगसुत्ताणि भाग २ में 'थिभगा' पाठ है। 'विभगा' को वहां
पाठान्तर माना गया है। ३. प्रस्तुत आगम की वृत्ति में नील लेश्या वाले नैरयिक की उत्कृष्ट स्थिति सतरह सागर की उल्लिखित है। जयाचार्य ने उसका अनुवाद मात्र किया है,
३०. सिय भंते ! कण्हलेसे नेरइए अप्पकम्मतराए ? नीललेसे नेरइए महाकम्मतराए ? हंता सिय ।
(श० ७१६७) ३१. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-कण्हलेसे नेरइए
अप्पकम्मतराए ? नीललेसे नेरइए महाकम्मतराए ? गोयमा ! ठिति पडुच्च । से तेणठेणं गोयमा ! जाव महाकम्मतराए।
(श० ७।६८) ३२. सप्तमपृथिवीनारक: कृष्णलेश्यस्तस्य च स्वस्थिती ___ बहुक्षपितायां तच्छेषे वर्तमाने। (वृ० ५० ३०१) ३३. पञ्चमपृथिव्यां सप्तदशसागरोपमस्थिति रको नीललेश्यः समुत्पन्नः,
(वृ० प० ३०१)
श०७, उ० ३, ढा०११७ २४३
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