________________
प्रकाशकीय
'भगवती-जोड़' का प्रथम खंड जयाचार्य निर्वाण शताब्दी के अवसर पर 'जय वाङ्मय' के चतुर्दश ग्रन्थ के रूप में सन् १९८१ में प्रकाशित हुआ था । अब उसी ग्रन्थ का द्वितीय खंड पाठकों के हाथों में सौंपते हुए अति हर्ष का अनुभव हो रहा है।
प्रथम खण्ड में उक्त ग्रंथ के चार शतक समाहित थे । प्रस्तुत खण्ड में पांचवें से लेकर आठवें शतक की सामग्री समाहित है।
साहित्य की बहुविध दिशाओं में आगम ग्रंथों पर श्रीमज्जयाचार्य ने जो कार्य किया है वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। प्राकृत आगमों को राजस्थानी जनता के लिए सुबोध करने की दृष्टि से उन्होंने उनका राजस्थानी पद्यानुवाद किया जो सुमधुर रागिनियों में ग्रथित है।
प्रथम आचारांग की जोड़, उत्तराध्ययन की जोड़, अनुयोगद्वार की जोड़, पम्नवणा की जोड़, संजया की जोड़, नियंठा की जोड़-ये कृतियां उक्त दिशा में जयाचार्य के विस्तृत कार्य की परिचायक हैं।
"भगवई" अंग ग्रंथों में सबसे विशाल है। विषयों की दृष्टि से यह एक महान् उदधि है। जयाचार्य ने इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आगम-ग्रंथ का भी राजस्थानी भाषा में गीतिकाबद्ध पद्यानुवाद किया। यह राजस्थानी भाषा का सबसे बड़ा ग्रंथ माना गया है । इसमें मूल के साथ टीका ग्रंथों का भी अनुवाद है और वार्तिक के रूप में अपने मंतव्यों को बड़ी स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है। इसमें विभिन्न लय ग्रथित ५०१ ढालें तथा कुछ अन्तर ढालें हैं । ४१ ढालें केवल दोहों में हैं। ग्रन्थ में ३६२ रागिनियां प्रयुक्त हैं।
इसमें ४६६३ दोहे, २२२५४ गाथाएं, ६५५२ सोरठे, ४३१ विभिन्न छंद, १८८४ प्राकृत, संस्कृत पद्य तथा ७४४६ पद्यपरिमाण ११६० गीतिकाएं, ९३२६ पद्य-परिमाण ४०४ यंत्रचित्र आदि हैं । इसका अनुष्टुप् पद्य-परिमाण ग्रंथान ६०६०६ है ।
प्रस्तुत खंड में मूल राजस्थानी कृति के साथ सम्बन्धित आगम पाठ और टीका की व्याख्या गाथाओं के समकक्ष में दे दी गई हैं । इससे पाठकों को समझने की सहूलियत के साथ-साथ मूल कृति के विशेष मंतव्य की जानकारी भी हो सकेगी।
इस ग्रंथ का कार्य युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के तत्त्वावधान में हुआ है और साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी ने उनका पूरा-पूरा हाथ बंटाया है । उनका श्रम पग-पग पर अनुभूत होता-सा दृग्गोचर होता है ।
तेरापंथ संघ के युगप्रधान आचार्य तुलसी के अमृत महोत्सव के सातवें चरण के अवसर पर ऐसे ग्रंथ-रत्न के द्वितीय खंड का पाठकों के हाथों में प्रदान करते हुए जैन विश्व भारती अपने आपको अत्यन्त गौरवान्वित अनुभव करती है।
इस अवसर पर हम श्री भगवत प्रसाद रणछोड़दास परिवार को हार्दिक धन्यवाद देते हैं जिन्होंने जैन विश्व भारती में साहित्य प्रकाशन स्थायी कोष के निर्माण हेतु स्वर्गीय समाजभूषण सेठ भगवतप्रसाद रणछोड़दास (१९२१-१९८०) की पुण्य स्मृति में पचास हजार रुपये की राशि भगवतप्रसाद रणछोड़दास चेरिटेबल ट्रस्ट, १४ पटेल सोसाइटी, शाहीबाग, अहमदाबाद, ६४, से प्रदान किया । उक्त ट्रस्ट को हम इस उदार अनुदान हेतु अनेक धन्यवाद ज्ञापन करते हैं।
इस ग्रंथ का मुद्रण कार्य जैन विश्व भारती के निजी मुद्रणालय में संपन्न हुआ है, जिसकी स्थापना जयाचार्य निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष में मित्र परिषद् कलकत्ता के आर्थिक सौजन्य से हुई थी।
२-१२-८६ सुजानगढ़
श्रीचन्द रामपुरिया
कुलपति जैन विश्व भारती
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org