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'३३. काइया नै अधिकरणिया, एम पन्नवणा मझारो।
क्रिया पद बावीसमों, भणवो सर्व विस्तारो॥
३३. काइया, अहिगरणिया, पाओसिया, पारियावणिया
पाणाइवायकिरिया-एवं किरियापदं निरवसेसं
भाणियव्वं । ३४. जाव मायावत्तियाओ किरियाओ विसेसाहियाओ।
(श० ८।२२८) सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। (श०८/२२६)
३४. जाव क्रिया मायावत्तिया, विसेसाहियाओ अंतो। सेवं भंते ! सेवं भंते त्ति, अंक चोरासी शोभंतो॥ अष्टमशते चतुर्थोद्देशकार्थः ।।८।४॥
सोरठा ३५. पाउसिया फुन जाण, पारितावणिया चतुर्थी।
प्राणातिपातकी माण, इत्यादि पन्नवणा मझे॥ ३६. अल्पबहुत्व है अंत, सर्व थकी थोड़ा अछ।
मिथ्यातकी धुर हुँत, प्रथम तृतीय गुणठाण ए॥ ३७. अपच्चखाणिया जाण, तेह थकी विसेसाहिया।
धुर च्यारू गुणठाण, सर्व अविरति आश्रयो ।
३५. (पण्णवणा पद २२/१)
३६. सव्वत्थोवा मिच्छादसणवत्तियाओ किरियाओ'
मिथ्यादृशामेव तद्भावात्। (वृ०प० ३६७) ३७. 'अप्पच्चक्खाणकिरियाओ विसेसाहियाओ' मिथ्यादृशामविरतिसम्यग्दृशां च तासां भावात् ।
(वृ० ५० ३६७) ३८. परिग्गहियाओ विसेसाहियाओ पूर्वोक्तानां देशविर
तानां च तासां भावात् । (वृ० ५० ३६७) ३६. 'आरंभियाओ किरियाओ विसेसाहियाओ' पूर्वोक्तानां
प्रमत्तसंयतानां च तासां भावात्। (वृ०प० ३६७) ४०. 'मायावत्तियाओ विसेसाहियाओ' पूर्वोक्तानामप्रमत्त
संयतानां च तद्भावादिति । (वृ० प० ३६७)
३८. परिग्रहिया पहिछाण, तेह थकी विसेसाहिया।
देशविरति गुणठाण, तेह विषे संभव थकी ।। ३६. आरंभिया पहिछाण, तेह थकी विसेसाहिया।
पूर्व पंच गुणठाण, प्रमत्त-संजति में बली ।। ४०. मायावत्तिया माण, तेह थकी विसेसाहिया।
पूर्वोक्त गुणठाण, फुन अप्रमत्त दसवां लगै॥ वा०--सर्व-अविरत तथा देश-अविरत सहित रै मूर्छा ते परिग्रह की क्रिया कहिय । अनै अविरत बिना मूर्छा छठे गुणठाणे, ते अशुभ-योग रूप आरंभकी क्रिया कहिय, पिण परिग्रहकी क्रिया न कहिये । आरंभकी क्रिया में जीव हणवा रो नियम नथी। छठे गुणठाणे जीव हण, झूठ बोल, चोरी करै, मिथुन रा परिणाम–अतिचारादिक लगावै, वस्त्र पात्रादिक विष ममत्व भाव कर, ते सर्व अशुभजोग छ । तेहन आरंभकी क्रिया कहीजे । अन सातमा थी दसमां तांई मायावत्तिया कहिये । मायावत्तिया में माया रो नियम नहीं। क्रोधादिक माहिला एक कषाय नो उदय सूक्ष्म हुवै, तेहनै पिण मायावत्तिया क्रिया कहिये ।
४१. *एक सौ नै चालीसमी, ढाल रसाल विशालो।
भिक्ख भारीमाल ऋषिराय थी, जय-जश' मंगल मालो।
*लय : सल कोई मत राखजो
३८४ भगवती-जोड़
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