SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 533
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६, ६७. जइ मणुस्सेहिंतो उववज्जति ? मणुरसाणं जहेव सक्करप्पभाए उववज्जमाणाणं तहेव नव वि गमा भाणियव्वा, नवरं सणंकुमारद्विति संवेहं च जाणेज्जा'। (भ० श० २४१३५१) ६६. चउवीसम शतकेह, चउवीसम उद्देशके । मनुष्य थकी उपजेह, सनतकुमारादिक विषे। ६७. जघन्य थकी तो जोय, पृथक-वायु मन थकी। उत्कृष्टो अवलोय, पूर्व-कोड़ आय थकी। १८. ते कारण थी जेह, जीव-समास विषे कही। नव दिन नव मासेह, एह सूत्र थी नहिं मिलै'। (ज० स०) . ६६. *अनुत्तर विमान नीं पूछा सुजन्न, सर्व बंधांतर जघन्न । इकतीस उदधि पृथक-वर्ष थात, उत्कृष्ट सागर संख्यात ॥ १००. देश-बंध नों अंतर तास, जघन्य थी पृथक वास । उत्कृष्ट सागरोपम संख्यातं, विमल न्याय अवदातं ।। ६६. जीवस्स णं भंते ! अणुत्तरोववाइयपुच्छा । गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णणं एक्कतीसं सागरोवमाइं वासपुहत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं संखेज्जाइं सागरोवमाई। १००. देसबंधतरं जहण्णेणं वासपुहत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाई सागरोवमाई। (श० ८।४०३) सोरठा १०१. अनुत्तर विमान नों जोय, सर्व-बंध देश-बंध नों। उत्कृष्ट अंतरो सोय, संख्याता सागर कह्यो। १०२. अनुत्तर विमान थीज, चवी अनंतो काल जे। निश्चै रुल नहींज, तिण सू संख्याता उदधि ।। १०३. हिवै वैक्रिय जेह, देश बंधगादिक तणो। अल्पबहुत्व कहेह, चित्त लगाई सांभलो॥ १०४. *ए प्रभु ! जीव वैक्रिय तनु केरा, * देश सर्व-बंध घणेरा। अबंधगा कुण कुण थी पेख, यावत अधिक विशेख ? १०५. सर्व थी थोड़ा वैक्रियवंत, सर्व-बंधगा जंत। एक समय नों काल छै ताय, तिण सू सर्व थी थोड़ा कहाय ।। १०१. अनुत्तरविमानसूत्रे तु 'उक्कोसेण' मित्यादि, उत्कृष्टं सर्वबन्धान्तरं देशबन्धान्तरं च संख्यातानि सागरोपमाणि, (वृ० प० ४०९) १०२. यतो नानन्तकालमनुत्तरविमानच्युतः संसरति । (वृ०प०४०६) १०३. अथ वैक्रियशरीरदेशबन्धकादीनामल्पत्वादिनिरूपणायाह (वृ० प० ४०६) १०४. एएसि णं भंते ! जीवाणं वेउब्वियसरीरस्स देसबंध गाणं, सव्वबंधगाणं, अबंधगाण य कयरे कयरेहितो जाव (सं० पा०) विसेसाहिया वा? १०६. देश बंधगा असंखगुण पाय, काल असंखगुणा रै न्याय। अबंधगा अनंतगुणा कहाय, सिद्ध वनस्पत्यादि पेक्षाय ।। १०७. अंक निव्यासी नो देश निहाल, एक सौ इकसठमीं ढाल। भिक्ष भारीमाल ऋषिराय प्रसाद, 'जय-जश' हरष अह्लाद ॥ १०५. गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा बेउव्वियसरीरस्स सब्व बंधगा, तत्र सर्वस्तोका वैक्रियसर्वबन्धकास्तत् कालस्याल्पत्वात् (वृ० प० ४०६) १०६. देसबंधगा असंखेज्जगुणा, अबंधगा अणंतगुणा । (श०८।४०४) देशबन्धका असंख्यातगुणास्तत्कालस्य तदपेक्षयाऽसंख्येय गुणत्वात, अबन्धकास्त्वनन्तगुणा सिद्धानां वनस्पत्यादीनां च तदपेक्षयाऽनन्तगुणत्वादिति । (वृ०प०४०६) १. इस ढाल की ६६ एवं ६७ वी गाथा के सामने उद्धृत भगवती के पाठ में स्थिति के बारे में सनतकुमार देवों की भोलावण दी गई है, किन्तु सनतकुमार देवों के प्रसंग में शक्रप्रभा नारकी की भोलावण दे दी गई है। इसलिए इस सन्दर्भ में चौवीसवें शतक का १०८ वा सूत्र द्रष्टव्य है। *लय : समझ नर विरला श० ८, उ०६, ढा० १६१ ५१३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy