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४९. तिने चोराची लाल गुणां कियां एक प्रयुत' नों अंगो । इणने चोरासी लक्ख गुण्यां प्रयुत एक सुचंगो ॥ ५०. तिनें चोरासी लाख गुणां कियां, एक नयुत नो अंगो । इणनें चोरासी लक्ख गुण्यां, नयुत एक सुचंगो ॥ ५१. तिने चोरासी लाख गुणां कियां, एक चूलिका-अंगो । तिने बोरासी लक्ख गुण्यां चूलिका एक सुचंगो ॥ ५२. तिने चोरासी लाख गुणो कियों, सीसप हेलिका- अंगो । तिणनें चोरासी लक्ख गुण्यां, सीसपहेलिका' चंगो ॥ ५३. गणित संख्या एता लगे, गणित विषय पिण एती । उत्कृष्ट संख्या दूर छै, एतो गिणत नी बात कहेती ॥ ५४. ते उपरांत ओपन कही, कतिविध ते भगवानो ? जिन कहे ते द्विविध अर्थ पत्य सागर उपमानो' ॥ ५५. देश अंक सतसठ तणुं, एकसौ घडी ढालो । भिक्खु भारीमाल ऋषराय थी 'जय जश' हरष विशालो । ( जय-जय ज्ञान जिनेन्द्र नों)
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ढाल १०७
हा
१. से अब कि स्वं तं तिको, अथ स्यूं ते सागरोपम ? तास
पस्योपम पहिचान ? उत्तर हिव जाण ॥
१. प्रस्तुत ढाल की ४६वीं और ५०वीं गाथा जिस पाठ के आधार पर बनाई गई है, अंगसुत्ताणि भाग २ श० ६।१३२ में उसका क्रम उलटा है। वहां पहले नउयंगे, नउए और उसके बाद पउयंगे, पउए पाठ है। अनुयोगद्वार में भी यह क्रम इसी प्रकार रखा गया है। यही क्रम उचित प्रतीत होता है, पर कुछ आदर्शों में 'पउयंगे, पउए' पाठ पहले है। इस क्रम को हमने पाठान्तर में रखा है । जयाचार्य को प्राप्त आदर्श में यही क्रम रहा होगा। इसीलिए जोड़ की रचना इस क्रम से की गई है। जोड़ के सामने अंगसुत्ताणि के पाठ को जोड़ के अनुसार ही उलटकर उद्धृत किया गया है ।
२. देखें प० सं० ५ ।
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३. इस ढाल की गाथा ३७ से ५४ तक कालमान का जो विवरण है, वही ढाल ७५ गाथा ८ से ३७ तक है । ७५वीं ढाल पांचवें शतक की जोड़ है और यह एक आगम में यह प्रसंग द्विरुक्त-सा
(१०६) ढाल छठे शतक की जोड़ है। प्रतीत होता है, पर संदर्भों की भिन्नता के कारण द्विरुक्त होने पर भी यह दोष नहीं है । क्योंकि पांचवें शतक में अयन आदि की चर्चा है और प्रस्तुत ढाल में गणना-काल-पद के अन्तर्गत इसका उल्लेख हुआ है। यही प्रसंग अणुओगदाराई ( सू० ४१७) में भी उल्लिखित है ।
४६. पउयंगे, पउए ।
५०. नउयंगे, नउए ।
२१. जूतियंगे, भूतिया ।
५२. सीसपहेलियंगे, सीसपहेलिया ।
५३. एताव ताव गणिए, एताव ताव गणियस्स विसए ।
५४. तेण परं भवमिए ।
(०६।१२२)
से कि ओभिए ?
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ओमिए डुविहे पण, तं जहापलिओवमे य, सागरोवमे य ।
( ० ६१२३)
१. से कि तं पलिओवमे ? से किं तं सागरोवमे ?
श० ६० उ० ७, डा० १०६ १७७
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