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८८. रायगिहं नगरं संपाविउकामे संपत्ते
८८. नगर राजगृह पामवा नीं, इच्छा मारग बीच ।
पुर संप्राप्त थया कहां म्है, वारू वचन समीच ।। ८९ हे आर्यो ! थे पोते कहो, जावा मांड्यो गयो नाय ।
व्यतिक्रमवा मांड्यो तिण नैं, अव्यतिक्रम्यो कहाय ।। ६०. नगर राजगृह पामवा नीं, इच्छा मारग मांहि ।
असंप्राप्त थया तुम्ह कहो, विन आलोच्यां ताहि ।। ६१. ते थेरा भगवंत तदा, अणयुथिया नैं भणी एम ।
गति-प्रवाद नामे भलो, अज्झयण परूपता तेम ।।
८६. तुब्भण्णं अप्पणा चेव गम्ममाणे अगते, वीतिकम्मिज्ज
माणे अवीतिक्कते ९०. रायगिहं नगरं संपाविउकामे असंपत्ते
११. तए णं ते थेरा भगवंतो अण्णउत्थिए एवं पडिभणंति । पडिभणित्ता गइप्पवायं नाम अज्झयणं पण्णव इंसु ।।
(श० ८।२६२)
सोरठा ६२. अन्ययुथियां नैं आम, प्रतिहणि जीती पाठान्तरे।
गतिप्रवादज नाम, अज्झयण परूपता हुवा ।। ६३. परूपिये गति यत्र, ते गति-प्रवाद नाम है।
गति विस्तारज तत्र, ते अध्येन कहिता हुवा ॥ १४. *हे प्रभुजी ! कतिविध कह्यो, गति-प्रवाद विचार ?
श्री जिन भाखै सांभलो, तेहनां पांच प्रकार ॥ १५. प्रयोग-गति पिछाणिय, जोग पनर तसु जान ।
तत-गति ग्रामादिक विषे, पंथ गमन वर्तमान ।
६६. आरंभो ए सूत्र थी, सूत्र पन्नवणा मांय ।
षट दशमां पद में कह्यो, जादत से तं विहाय ।।
६३. गतिः प्रोद्यते----प्ररूप्यते यत्र तद् गतिप्रवादं
(वृ०प०३८१) ६४. कतिविहे णं भंते ! गइप्पवाए पण्णत्ते?
गोयमा ! पंचविहे गइप्पवाए पण्णत्ते, तं जहा६५. पयोगगई, ततगई
तत्र प्रयोगस्य सत्यमनःप्रभृतिकस्य पञ्चदशविधस्य गति:---प्रवृतिः प्रयोगगतिः, 'ततगई' ति ततस्य
ग्रामनगरादिकं गन्तुं प्रवृत्तत्वेन। (वृ० प० ३८१) ६६. एत्तो आरब्भ पयोगपयं निरवसेसं भाणियव्वं जाव सेत्तं विहायगई।
(श० ८।२९३) इतः सूत्रादारभ्य प्रज्ञापनायां षोडशं प्रयोगपदं
(वृ० ५० ३८१) ६७,६८. बंधणछेयणगई,
तत्र बंधनच्छेदनगति:--बन्धनस्य कर्मणः संबंधस्य वा छेदने-अभावे गतिर्जीवस्य शरीरात शरीरस्य वा
जीवाद् बन्धनच्छेदनगतिः । (वृ० प० ३८१) ६६. उववायगई उपपातगतिस्तु त्रिविधा-क्षेत्रभवनोभवभेदात्
(वृ०प० ३८१) १००. तत्र नारकतिर्यग्नरदेवसिद्धानां यत् क्षेत्रे उपपातायउत्पादाय गमनं सा क्षेत्रोपपातगतिः ।
(वृ० प० ३८१, ३८२)
६७. बंधन-छेदन तीसरी, कर्म-बंधण जे छेद ।
शरीर थी जे जीव नी, गति इक समय संवेद ॥ १८. अथवा गति शरीर नीं, जीव थकी हुवो न्यार।
बंधण छेदण तोसरी, ए बिहुं भेद विचार ।। ६६. चोथी गति उपपात छ, तेहनां तीन प्रकार ।
क्षेत्र-गती भव-गति कही, नो-भव-गति सुविचार ।।
१००. नारक तिरि नर अमर नों, वलि सिद्ध-क्षेत्र आख्यात ।
ऊपजवा अर्थे करै, गमन क्षेत्र उपपात ॥
*लय : शिवगतिगामी जीवड़ा
१. टीकाकार ने पाठान्तर का कोई उल्लेख नहीं किया है। अंगसुत्ताणि भाग २ में पडिभणंति का पाठान्तर दिया है 'पडिहणइ' । उक्त पद्य की जोड़ का आधार यही पाठ होना चाहिए।
४३२ भगवती-जोड़
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