SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४. अनेरे कोइक अनुत्तर विमाने, देवपण उपजंत । ते प्रभु! तिहां रह्यो आहार लेवे ? जाव पूर्ववत हुंत ॥ ४५. को धर्मसी ताहि, तिरि पंचेंद्री मांहि, ४६. वैमानिक पहिछाण, भवनपती विगलिदिया । मनुष्य व्यंतर जोतिषि ॥ जाव अणुत्तर लग कह्या । नरक तणी पर जाण, उपजै त्यां आहारादि लै ॥ ४७. छद्मस्थ समणी संत, संख्याता चारित्र सहित । अणुत्तर विमाण पर्यंत, देवपण ते ऊपजै ॥ ४८. इण न्याय करी अवधार, तिर्यंच श्रावक श्राविका । असंखेज्ज सुविचार, सहस्रार उपज ॥ ४९. अच्युत लग अवलोय, मनुष्य श्राविका । श्रावक | इह विध कहियो जोय, पूर्व न्याय करि सर्व ए ॥ ५०. मारणांतिक समुद्घात करि पाछो एह तनु मुझे अंतर्मुहूर्त ख्यात, चारित्र सहित रहै ५१. अनुत्तर विमान मांय, चारित्रवंत अछै ॥ तिहां जई । मरे ॥ लगे । फिर पाठो तन आय, अंतर्मुहूर्त रही ५२. समुद्घात धुर कीध, रुचक न ऊठ्या ज्यां प्रदेश अनुत्तर सीध, कहिये नर गति संजमी। ५३. इणहिज रीत विचार, तिरि पंचेंद्री आदि जे । कहिवो न्याय उदार, यथाजोग जाणी करी ॥ ५४. केइक जीव आरूपात, रत्नप्रभा महि नीं दोय वार विख्यात, मारणांतिक मारणांतिक समद्यात ए अवदात, ऊपजं मारणांतिक समुद्घात, प्रथम करी ५६. पाछो बलि विख्यात, बीजी मारणांतिक समुद्घात, एकेक ५७. एकेंद्री रै मांहि, परं । वै ॥ जिहां | ५५. इत जेहनें ते स्थान वार करें जइ ॥ अछै । जीव इसा ऊपजवो जेहनें अंत जइ नें स्व स्थानक आवे समुद्घात मरणांत थी अवलोय, जे पूरव दिशि नें ते उत्कृष्टो ताहि, लोक ५८. पाछो बलि को एक बीजी वारे देख ५६. मेरू सोरठा ६०. जाव मूकी ६१. सर्व लोकांतिक १०२ भगवती जीड अंगल तणोंज जोय, भाग मात्र असंख्यातमो || लोकांत पर्वत, एक प्रदेश नीं श्रेणि नें। नैं उपजंत, में पछै आहारादिक त्रिहुं लोक रै मांय, एकेंद्रिय छै ते उपजाय, यंत्र धर्मसी कृत Jain Education International लग अछे ।। अर्छ । वली ॥ तिको । करि ॥ विषे । करें ॥ भणी । मझे' ।। ( ज० स० ) ४४. अण्णवरंसि अणुत्तरविमाणंसि अणुत्तरोववाइयदेवताए उयवित्त से गं भंते! तत्यगए चैव जाहारेज्ज वा ? परिणामेज्ज वा ? सरीरं वा बंधेज्जा ? तं चैव जाव आहारेज्ज वा, परिणामेज्ज वा, सरीरं वा बंधेज्जा । (०६।१२७) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy