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दूहा
१. द्वितीय उदेशक अंत में, सत्य तृतीय आदि अन्ययुथिक नीं, असत्य
ढाल : ७८
२ अन्यतीर्थी
प्रभु इह !
विषे
सामान्ये
भाखै तेह विशेष थी, हेतु करि कहै करि, भेद जालगंठिया जे हुई, निगुणो
३. परूपण
यथानाम ह
* हो प्रभुजी ! देव जिनेन्द्र दासी भिन्न भिन्न भेद भाखीजै, हो जिनजी ! कृपा अनुग्रह कीजे (ध्रुपदं ) ४. मच्छनं बंधन जाल तेहनी परि गंठि अछे जिह मांही। जाल हुवै जे, आगल के हवे स्वरूपे कहिवाई | २. आणुपुब्बिगडिया ते ते -
अनुक्रम परिपाटिये गूंची गेह । पहिला देवा योग्य गांठ पहिला दीधी, छेहडे देवा योग्य दीधी छेह ॥
७. परंपरगडिया ते परंपराए
अनंतर गांठ गांठ अनेरी दीधी छे बलि, एतले स्यूं
परूपण
६. एहिज कहै है विस्तार करने, अनंतरगडिया त्यांही । पहिली गांठ में अन्तर रहित गांठ दोषी ज्याही ॥ छै
१०. अण्णमण्णभारियत्ताए कहितां, गुरुभार ए जुदा का है,
परूपण
*लय आधाकर्मी थानक में
:
१८ भगवती जोड
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ख्यात ।
आथ ||
८. अण्णमण्णगडिया एक गांठ सूं गांड एक गांठ सूं, गांठ अनेरी दीधी । तेह गांठ सूं वलि अन्य दीधी, गूंथी अन्योऽन्य सीधी ॥
आखंत |
पनवंत ॥
दृष्टंत ।
उदंत ॥
६. अण्णमण्णगरुयत्ताए कहितां, गूंथवा थी मांहोमांय । विस्तीर्ण भाव कीधा तेहनें, अग्णमण्ण गुरुपणो थाय ॥
साधु
थी ताह्यो । कहिवायो ॥
कीधा भारपणे मांहोमाय । हिवे एक पद हि कहिवाय ॥
१. अनन्तरोक्तं लवणसमुद्रादिकं सत्यं सम्यग्ज्ञानिप्रतिपादितत्वात् मिथ्याज्ञानप्रतिपादितं त्वसस्यमपि स्थादिति दर्शयंस्तृतीयोदेशकस्यादिसूत्रमिदमाह - (० ० २१४ ) २. अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खति भासंति पण्णवेंति ।
३. परूवेंति-से जहानामए जालगंठिया सिया
४. जालं - मत्स्यबन्धनं तस्येव ग्रन्थयो यस्यां सा जालविका जालिका, किस्वरूपा सा ?
( वृ० १० २१४)
५. पुि
अनुपूर्व्या परिपाठ्या प्रथिता गुम्फिता बायुक्तिग्रन्थीनामादौ विधानाद् अन्तोचितानां क्रमेणान्त एव करणात्, ६. अनंतर गढिया
( वृ० प० २१४) एतदेव प्रपञ्चयन्नाह - 'अनंतरगढिय' त्ति प्रथमग्रन्थीनामनन्तरं व्यवस्थापितैर्ग्रन्थिभिः सह ग्रथिता अनन्तरप्रथिता, ( वृ० प० २१४,२१५ )
७. परंपरगढिया
परम्पर: व्यवहितः सह प्रथिता परम्परा ( वृ० प० २१५ )
८. अण्णमण्णगढिया,
अम्पोज्यं परस्परेग एकेन प्रथिना सहान्यो ग्रन्थि रम्येन च महात्य इत्येवं प्रथिता अन्योन्यथिता ( वृ० १० २१५)
६. अण्ण मण्णग रुयत्ताए
अन्योऽन्येन ग्रन्थनाद् गुरुकता - विस्तीर्णता अन्योऽन्यगुरुकता, ( वृ० प० २१५)
१०. अण्णमण्णभारियताए
अन्योऽन्यस्य यो भारः स विद्यते यत्र तदन्योऽन्यभारिकं तद्भावस्तत्ता, ( वृ० प० २१५ )
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