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________________ २२. णिज्झर नीज्झरणो ते जल श्रवै, चिल्लल चिक्खल समीलो । मिश्रोदक स्थान आख्यो वृत्ति में, पल्लल प्रह्लादनशीलो॥ २३. केदारवान आकार क्याऱ्या तणे, तटवान वा देशो । अन्य आचार्य क्यारयां इज कहै, ए वप्पिणा अर्थ विशेषो ।। २४. अगड पाठ नों अर्थ कूओ कह्य, वलि तलाब द्रह जाणी । नदी अनै चउखूणी बावड़ी, ए उदक सहित पिछाणी ।। २५. वृत्त वाटली पुष्करणी कही, अथवा कमल सहीतो। दीहिया पाठ नों अर्थ खंडोखलो', परिग्रहवंत प्रतीतो ।। २२. निझर-चिल्लल-पल्लल 'निज्झर' त्ति निझर-उदकस्य श्रवणं, "चिल्लल' त्ति चिक्खल मिधोदको जलस्थान विशेषः 'पल्लल' त्ति प्रह्लादनशीलः । (वृ० प० २३८) २३. वप्पिणा परिग्गहिया भवंति, 'वप्पिण' त्ति केदारवान् तटवान् वा देशः केदार एवेत्यन्ये। (वृ०५० २३८) २४. अगड-तडाग-दह-नईओ वावी 'अगड' त्ति कुप: 'वावि' त्ति वापी चतुरस्रो जलाशय विशेषः । (वृ० प० २३८) २५. पुक्खरिणी-दीहिया 'पुक्ख रिणि' त्ति पुष्करिणी वृत्तः स एव पुष्करवान् वा, 'दीहिय' त्ति सारिण्यः । (वृ०प० २३८) २६. गुंजालिया सरा सरपंतियाओ, 'गुंजालिय' त्ति वक्रसारिण्यः, 'सर' त्ति सरांसि स्वयंसंभूतजलाशयविशेषाः। (वृ०५० २३८) २७. सरसरपंतियाओ यासु सर:पंक्तिषु एकस्मात्सरसोऽन्यस्मिन्नन्यस्मादन्यत्र एवं संचारकपाटकेनोदकं संचरति ताः सरःसर:पंक्तयः । (वृ०५० २३८) २८. बिलपंतियाओ परिग्गहियाओ भवंति। २६. वक्र नालि नी वावी गुंजालिका, जल वक्र नालि निसरंतो । अणखणियो सर आश्रय जल तणु, वलि ते सर नी पंतो।। २७. इक सर सेती अन्य सर दूसरो, तेहथी अन्य सर तीजो। माहोमांहि पाणी आवतो, ए सर-सर-पंक्ति कहोजो ।। २८. बिल नी पक्ति श्रेण तेणे करी, सर्व प्रकारे सोयो । तिर्यंच पंचेन्द्री तेहनै ग्रह्या, ते परिग्रह में होयो। २६. द्राखादिक नां मंडप में विषे, स्त्री नर रमत आरामो । पुष्पादि तरु सहित उद्यान ते, परिग्रहवंत तमामो॥ ३०. कानन तरु-सामान्य सहीत ते, नगर नजीक आख्यातो । वन ते नगर थकी अलगो कह्यो, वन-खंड तरु इक जातो।। ३१. तरु नी पंक्ति वनराई कही, देवल सभा पो थभो । ऊपर चोड़ी हेठे सांकड़ी, खाई परिग्रह लुभो ।। २६. आरामुज्जाण आरमन्ति येषु माधवीलतादिषु दम्पत्यादीनि ते आरामाः, 'उद्यानानि' पुष्पादिमवृक्षसंकुलानि उत्स वादौ बहुजनभोग्यानि । (वृ०प० २३८) ३०. काणणा वणा वणसंडा काननानि सामान्यवृक्षसंयुक्तानि नगरासन्नानि, वनानि नगरविप्रकृष्टानि, वनषण्डाः -एकजातीयवृक्षसमूहात्मकाः। (वृ० प० २३८) ३१. वणराईओ परिग्गहियाओ भवंति, देवउल-सभ-पव थूभ-खाइय 'वनराजयो'-वृक्षपंक्तयः 'खातिकाः' उपरिविस्ती धः सङ्कटखातरूपाः, (वृ० प० २३८) ३२. परिखाओ परिग्गहियाओ भवंति, पागार-अट्टालग परिखाः अधः उपरि च समखातरूपाः, 'अट्टालग' त्ति प्राकारोपर्याश्रयविशेषाः, (वृ० प० २३८) ३३. चरिय-दार-गोपुरा परिग्गहिया भवंति, 'चरिका' गृहप्राकारान्तरो हस्त्यादिप्रचारमार्गः, द्वार खडक्किका, 'गोपुरं' नगरप्रतोली, (वृ० प० २३८) ३२. हेठे ऊपर सम परिखा कही, ते पिण परिग्रहवंतो। वलि प्रागार कह्यो छै गढ भणी, बुरज अटालग हुतो ।। ३३. गढ घर बिच जे गजादि गमन नों, मारग चरिय कहतो । दार कहीजै जे खिड़की भणी, गोपुर दरवज्जा हंतो।। १. बावड़ी विशेष । ८० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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