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५६. पर्याप्ता नारकी हे भगवंत ! स्य ज्ञानी कै अज्ञानी?
तीन ज्ञान नै तीन अज्ञान तणी नियमा निश्चै ठानी।
वा.--अपर्याप्तक असंज्ञी नारक नै विभंग नहीं, इण हेतु थकी पर्याप्तक अवस्था नै विषे ते असन्नी नारकी नै अज्ञान तीनहीज हुई।
तक
६०. पर्याप्ता दस भवनपति ते, जेम नारकी तिम जानी।
पज्जत पृथ्वी ते जिम एगिदिया, जाव चरिंदिया इम ठानी॥ ६१. पर्याप्ता तिर्यंच पंचेंद्री, स्य ज्ञानी कै अज्ञानी?
तीन ज्ञान ने तीन अज्ञान तणी भजना हे मनि ! जानी॥
५६. पज्जत्ता णं भंते ! नेरइया किं नाणी ?
तिण्णि नाणा, तिण्णि अण्णाणा नियमा ।
वा. ----अपर्याप्तकानामेवासज्ञिनारकाणां विभङ्गा. भाव इति, पर्याप्तकावस्थायां तेषामज्ञानत्रयमेवेति ।
(वृ० प० ३४७) ६०. जहा नेरइया एवं थणियकुमारा । पुढ़विकाइया जहा
एगिदिया । एवं जाव चउरिदिया। (श० ८।१२४) ६१. पज्जत्ता णं भंते ! पंचिदियतिरिक्खजोणिया कि
नाणी? अण्णाणी? तिण्णि नाणा, तिण्णि अण्णाणा भयणाए। वा० -पर्याप्तकपञ्चेन्द्रियतिरश्चामवधिविभङ्गो वा केषाञ्चित्स्यात् केषाञ्चित् पुनर्नेति त्रीणि ज्ञानान्य
ज्ञानानि वा। ६२. मणुस्सा जहा सकाइया।
वा०—पर्याप्ता पंचेंद्री तिर्यच नै अवधि ज्ञान अथवा विभंग अज्ञान किणहिक में हुवै, किणहिक में न हुवै । तिण सू तीन ज्ञान, तीन अज्ञान नी भजना कही।
६२. पज्जत्त मणुस्सा सकाइया जिम, पंच ज्ञान भजना जानी ।
तीन अज्ञान तणी छै भजना, अदल न्याय हृदये आनी ।। ६३. पर्याप्त व्यंतर नैं जोतिषी, वैमानिक सुर सुखदानी ।
नरक पज्जता जिम त्रिण ज्ञान, अज्ञान तणी नियमा ठानी। ६४. अपर्याप्त जीवा हे भगवंत ! स्य ज्ञानी कै अन्नाणी ?
तीन ज्ञान में तीन अज्ञान तणी भजना कहियै छाणी।।
६५. अपर्याप्ता नारक प्रभजी! स्य ज्ञानी कै अज्ञानी ?
तीन ज्ञान नी नियमा कहिये, भजना तीन अज्ञानानी॥ ६६. एवं जावत थणियकुमारा, अपज्जत्त पंच स्थावर जाणी।
जेम एकेंद्री तिम नहिं ज्ञानी, नियमा मति श्रत अन्नाणी॥ .६७. अपज्जत्त विकलेंद्री फुन तिर्यंच पंचेंद्री अपज्जत्त जानी ।
दोय ज्ञान नैं दोय अज्ञान तणी नियमा निश्चै ठानी।
६३. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया ।
(श० ८।१२५) ६४. अपज्जत्ता णं भंते ! जीवा कि नाणी? अण्णाणी? तिण्णि नाणा, तिण्णि अण्णाणा-भयणाए।
(श० ८।१२६) ६५. अपज्जत्ता णं भंते ! नेरइया कि नाणी ? अण्णाणी ?
तिणि नाणा नियमा, तिणि अण्णाणा भयणाए। ६६. एवं जाव थगियकुमारा । पुढविक्काइया जाव वणस्सइ
काइया जहा एगिदिया। (श० ८।१२७) ६७. बेइंदियाणं पुच्छा।
दो नाणा, दो अण्णाणा-नियमा। एवं जाव पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं । (श० ८।१२८) वा०-अपर्याप्तकद्वीन्द्रियादीनां केषाञ्चित् सासादनसम्यग्दर्शनस्य सद्भावाद् द्वे ज्ञाने केषाञ्चित्पुनस्तस्या
सद्भावाद् द्वे एवाज्ञाने। (वृ० प० ३४७) ६८. अपज्जत्तगा णं भंते ! मणुस्सा कि नाणी ? अण्णाणी ?
तिण्णि नाणाई भयणाए, दो अण्णागाई नियमा। वा०-अपर्याप्तकमनुष्याणां पुनः सम्यग्दृशामवधिभावे त्रीणि ज्ञानानि यथा तीर्थकराणां, तदभावे तु द्वे ज्ञाने, मिथ्यादृशां तु द्वे एवाज्ञाने, विभङ्गस्या
पर्याप्तकत्वे तेषामभावात् (वृ० प० ३४७) ६६. वाणमंतरा जहा नेरइया ।
वा०-विकलेन्द्री तिर्यच पंचेन्द्री नां अपर्याप्तक में कोइक में सास्वाद हवे तिण में वे ज्ञान नी नियमा, कोइक में सास्वादन नहीं हवै, तेह में दोय अज्ञान नीं नियमा। ६८. अपर्याप्ता मनुष्य हे भगवंत ! स्य ज्ञानी के अज्ञानी ?
तीन ज्ञान नी भजना कहिये, नियमा दोय अज्ञानानी ।।
वा......अपर्याप्तक मनुष्य सम्यग्दृष्टि नै अवधि हुवै तिवारे तीन ज्ञान जिम तीर्थंकर में । जिण में अवधि न हुवै तिग में बे ज्ञान । मियादृष्टि में वे अज्ञान हीज, मनुष्य अपर्याप्तक विष विभंग न हुवे, ते माटे बे अज्ञान नी नियमा।
६६. अपर्याप्ता जे वाणव्यंतरा, अपज्जत्त नारका जिम जानी ।।
तीन ज्ञान नी नियमा कहिय, भजना तीन अनाणानी ॥ ७०. अपज्जत्त जोतिषि नैं वैमानिक, तत्र सन्नी ऊपजे आनी ।
तीन ज्ञान नैं तीन अज्ञान तणी नियमा निश्चै जानी ।।
७०. अपज्जत्तगाणं जोइसिय- वेमाणियाणं तिणि नाणा,
तिण्णि अण्णाणा-नियमा (श० ८।१२६)
३४८ भगवती-जोड़
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