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________________ १५३. यथोपशमश्रेणीत प्रच्यवमाना: सकषायित्वं प्रतिपत्तार इति । (वृ०प०२६४) १५५. देवेहि छन्भंगा। देवपदेषु त्रयोदशस्वपि षड्भङ्गाः । (वृ० प० २६४) १५६, १५७. तेषु क्रोधोदयवतामल्पत्वेनैकत्वे बहुत्वे च सप्रदेशाप्रदेशत्वयोः सम्भवादिति ।(वृ० प० २६४) १५२. समचै सकषाई जीवां मांय, तीन भांगा कह्या तसुं न्याय । सकषाईपणे सदा ताहि, बहु जीव रह्या जग मांहि ॥ १५३. पछै उपशमश्रेणि थी पड़तो, सकषायपणों पड़िवजतो । एक जीव तथा बहु जीवा, प्रथम समय लाधै ते अतीवा ॥ १५४. तिण सं सकषाई जीव मांहि, तीन भांगा पूर्व क ह्या ताहि । क्रोधकषाई सदा विशेषा, तिणसूं सप्रदेशा अप्रदेशा ।। १५५. *बह बच क्रोध कषाय में, देव पदे कहिवाय । तेर दंडक सुर ने विषे, षट भंगा तसं न्याय ॥ यतनी १५६. देव वर्त्तता क्रोध रै भावै, अल्पपणे एकादिक थावै। तिण सूं कहिये इक वचनेह, वलि वहु वचने पिण तेह ।। १५७. सप्रदेशपणु अवलोय, वलि अप्रदेशपणुं जोय । बिहं ना संभव थीज प्रसंग, तिण कारण है षट भंग ॥ १५८. *मानकषाई नै विषे, वलि मायकषाई । जीव एकेंद्रिय वर्ज नैं, त्रिण भंगा थाई। १५६. बहु वच नारक सुर विषे, मान माया कषाई । भांगा षट लहिय अछ, तास न्याय कहिवाई । यतनी १६०. नारकी देवता में जेह, मान माय भावे वत्तै तेह । तिके अल्पहिज कहिवाय, षट भांगा पूर्वले न्याय ।। १६१. *बहु वच लोभ कषाई में, वर्जी जीव एगिदिया । तोन भांगा पावै अछ, षट भंग नेरइया ॥ १५८, माणकसाई-मायाकसाईहि जीवेगिदियवज्जो तिय भंगो। १५६. नेरइय-देवेहि छम्भंगा। मानकषायमायाकषायिद्वितीयदण्डके 'नेरध्यदेवेहि छब्भंग' त्ति (वृ० प० २६४) १६०, नारकाणां देवानां च मध्येऽल्पा एव मानमायोदय वन्तो भवन्तीति पूर्वोक्तन्यायात् षड् भङ्गा भवन्तीति । (वृ० प० २६४) १६१. लोभकसाईहिं जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। नेरइ एसु छब्भंगा यतनी १६२ एतस्य क्रोधसूत्रबद्भावना 'नेरइएहि छन्भंग' त्ति (वृ०प० २६४) १६३. नारकाणां लोभोदयवतामल्पत्वात् पूर्वोक्ताः षड्भंगा भवन्तीति । (वृ० प० २६४) १६२. वृत्ति मांहि कही इम वाय, एह सूत्र क्रोधवत पाय । नारकी नै विषे षट भंग, तेहनों इम न्याय प्रसंग ।। १६३. नारकी ने लोभोदयवंत, अल्पपणां थकीज उदंत । पूर्वोक्त भांगा षट होय, नारक लोभकषाई जोय ॥ १६४. सुर नारक में अल्प जोय, मान माय वर्तत्ता होय । पूर्वोक्त न्याय थी पेख, षट भांगा हुवै इण लेख ।। १६५. क्रोध मान माया सुर मांय, तसु षट भांगा कहिवाय । मान माया लोभ नारकेह, तसं पिण षट भंग कहेह ।। १६६. देवतां में लोभ बहु होय, तिण सं लोभ भाव बह जोय । नरक में बहु क्रोधज पावै, तिण सूं वर्ते बहु क्रोध भावै ॥ *लय : प्रभवो मन मांहे चितव १६५. कोहे माणे माया बोद्धव्वा सुरगणेहिं छब्भंगा। माणे माया लोभे नेरइएहि पि छन्भंगा ।। (वृ०प०२६४) १६६. देवा लोभप्रचुरा, नारकाः क्रोधप्रचुरा इति । (वृ० प० २६४) १४६ भगवती-जीड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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