SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 393
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६,३०. मइअण्णाणिस्स सुयअण्णाणिस्स य पुच्छा। ३१. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, २६. मति श्रुत अज्ञान नां त्रिण भेद छ, आदि-रहित अवलोय । अंत-रहित ते अभव्य आसरी, तसू अंतर नहिं होय ।। ३०. आदि-रहित ने अंत-सहित ते, भव्य आश्री पहिछाण । शिव गति जावा जोग तिके कह्या, अंतर तास म जाण ॥ ३१. आदि-सहित - अंत-सहित ते, ए पडिवाई पेख । जघन्य अंतर्महतं नों आंतरो, विमल नेत्र करि देख ।। ३२. उत्कृष्टो छासठ सागर तणो, जाझेरो कहिवाय। सम्यक्त नी स्थिति इतरी भोगवी, फेर अनाणी थाय ।। ३३. विभंग अनाण रो अंतर जघन्य थी, अंतर्मुहर्त न्हाल । उत्कृष्टो तसु अंतर एतलो, बनस्पति नो काल ॥ वा०—असंख्याता पुद्गलपरावर्त वनस्पति में रहै-आवलिका रै असंख्यातमें भाग जेतला समा, तेतला पुद्गलपरावर्तन रहै । ३४. अल्पबहत्व त्रिण तीजा पद विषे, धर पंच ज्ञान नी जाण। दूजी अल्पबहुत्व तीन अज्ञान नीं, तीजी उभय नी माण। ३५. आभिनिबोधिक ज्ञानी हे प्रभु ! जाव केवली देख । अल्पबहु कुण-कुण थी ते अछ, तुल्य अधिक सुविशेख ? ३६. सर्व थी थोड़ा मनपज्जवधरा, मुनिवर में ए होय । अवधिज्ञानी ए असंखगणा अछ, गति च्यारू में जोय ॥ ३२. उक्कोसेणं छावद्धि सागरोवमाई साइरेगाई। (श० ८।२०३) ३३. विभंगनाणिस्स पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुहत्त उक्कोसेणं वणस्सइकालो। (श० ८।२०४) ३७. मति थ त ज्ञानी माहोमां तुल्ला, विसेसाहिया अवलोय। केवलज्ञानी अनंतगुणा अछ, अल्पबहुत्व धुर जोय ।। ३४. अल्पबहुत्वानि त्रीणि ज्ञानिनां परस्परेणाजानिनां च ज्ञान्यज्ञानिनां च (वृ० प० ३६२) ३५. एतेसि णं भंते ! जीवाणं आभिणिबोहियनाणीणं ..."केवलनाणीण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा ? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा ? ३६. गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा मणपज्जवनाणी, ओहि नाणी असंखेज्जगुणा तत्र ज्ञानिसूत्रे स्तोका मनःपर्यायज्ञानिनो, यस्माद् ऋद्धिप्राप्तादिसंयतस्यैव तद्भवति, अवधिज्ञानिनस्तु चतसृष्वपि गतिषु सन्तीति तेभ्योऽसंख्येयगुणाः (वृ० प० ३६२) ३७. आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी दो वि तुल्ला विसेसा हिया, केवलनाणी अणंतगुणा। (श ८।२०५) ३८. एतेसि णं भंते ! जीवाणं.... गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा विभंगनाणी, अज्ञानिसूत्रे तु विभङ्गज्ञानिन: स्तोकाः, यस्मात् पंचे न्द्रिया एव ते भवति। (वृ० प० २६२) ३६. मइअण्णाणी सुयअण्णाणी दो वि तुल्ला अणंतगुणा। (श० ८।२०६) यतो मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनश्चैकेन्द्रिया अपीति तेन तेभ्यस्तेऽनन्तगुणाः । (वृ० प० ३६२) ४०. एतेसि णं भंते ! जीवाणं आभिणिबोहियनाणीण.... गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा मणपज्जवनाणी ओहिनाणी असंखेज्जगुणा ३८. तीन अनाणी में सर्व थोड़ा अछ, विभंग-अनाणी जोय । __एह सन्नी पंचेंद्री में अछ, ते भणी थोड़ा होय ।। ३६. मति श्रु त अनाणी ए बिहुँ कह्या, तुल्ला माहोमांय । विभंग थकी ए अनंतगणा अछ, अनंतकाय रे न्याय ।। ४०. हिवै आठां में सर्व थोड़ा अछ, मनपज्जव मुनिराय। अवधिज्ञानी ते असंखगणा अछ, तेहनों छै इम न्याय ।। श० ८, उ०२, ढा० १३६ ३७३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003618
Book TitleBhagavati Jod 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages582
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy