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पूरा ।
विश्वप्रेम भी ओतप्रोत था, जिन के जीवन में अद्वितीय हो सहनशील घन, दूषणगण जिन ने चूरा ॥
[३]
अहो अहो समता थी कैसी ? सहे कष्ट मरणान्त अनेक । अगर और कोई होता तो, निश्चय खो देता सुविवेक । पर जिन को था ज्ञान गर्भसे, देहादिक अरु आम का । विचलित वे कैसे होवें जो, पद धरते परमातम का ? ॥ [ ४ ]
यज्ञो में पशुहिंसा होती थी मानों उन में नहीं प्राण | किया निवारण बता वीरने, जीव सभी हैं एक समान । माना था बस क्रिया काण्ड में, लोगों ने सर्वस्व तभी । कहा वीर ने ज्ञान विना की, क्रिया अफल है सदा सभी ॥
[4]
जाति पर ही
पूर्ण रूप से
उच्च-नीचता तब लोगों में, स्त्रीजाति की दशा देश में, प्रकट किया तब महावीर ने, उच्च-नीचतम स्त्री- जाति आदर्श बने ज्यों, वैसे प्रभु ने किए प्रबन्ध ||
निर्भर थी ।
बदतर थी । गुण-संबन्ध |
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वस्तु स्वभावे धर्म सुलक्षण, अतः साध्य सबको निज भाव । साधन बहुविध हैं मत झगड़ो, पा करके यह उत्तम दाव | कर्मविकार निजातम गुण से, वीर प्रभु का भव्य बोध यह,
पूर्ण रूप से प्रगटाता है
कर दो दूर । अद्भुत नूर ॥