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योग ) तथा द्रव्य मनो योग होता है, भावात्मक मनोयोग नहीं होता है। केवली के शुक्ल लेश्या होती है वह भी द्रव्य लेश्या है। भाव लेश्या उनके नहीं हो सकती है।
असंज्ञी जीवों में लेश्या होती है, पर मनोयोग नहीं होता। इससे भी यह बात स्पष्ट होती है कि लेश्या और मनोयोग एक नहीं है। लेश्या आन्तरिक अध्यवसाय है। वह कर्म शरीर से परिस्पन्दित और तेजस शरीर से अनुप्राणित होकर चित्त के साथ काम करता है । लेश्या हमारी भाव धारा है जो मानसिक चिन्तन या विचार को प्रभावित करती है। मनका सम्बन्ध केवल औदारिक शरीर या स्थूल शरीर के साथ है। लेश्या का सम्बन्ध कर्म शरीर, तेजस शरीर और औदारिक शरीर तीनों के साथ है।
कपिल मुनि को गृहस्थाश्रम में प्रशस्त लेश्या, शुभ अध्यवसाय व शुभ परिणाम से जाति-स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के छः मास बाद ध्यानान्तरिका में प्रशस्त लेश्यादि से केवल ज्ञान व केवल दर्शन समुत्पन्न हुआ।
धर्म ध्यान के समय मिथ्यात्वी के तथा सम्यक्त्वी के पीत, पद्म व शुक्ल-ये तीन लेश्याएं क्रमशः विशुद्ध होती है। परिणामों के आधार पर वे तीव्र या मन्द होती है।' कहा है
. नभिऊण असुर सुर गरुल भुयंग परिवं दिए गय किलेसे अरिहं सिद्धायरिय उवज्झायसव्वसाहूणं ।
-चंद्र० गा २ अर्थात् अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु इन्हें-असुर, सुर, गरुड़, नागकुमार तथा व्यंतरदेव नमस्कार करते हैं ।
श्रावक प्रतिक्रमण की चतुविंशति की 'इच्छामि पडिक्क मिउ' की पाटी में कहा है
इच्छामि पडिक्कमिx x x वत्तिया लेसिया संघाइया x xx।
-आव० अ४
१. ध्याश० गा ६६
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