________________
(
67
)
शास्त्रकारों ने लेश्या के छ: भेद बताये हैं-कृष्णलेश्या; नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या ।
प्रमाणनयतवलोक में कहा है
आप्तवचनादाविभूतमर्थसंवेदनमागमः । अर्थात् आप्त-वचन होने से आगम है। जिन्होंने रागद्वेष को जीत लिया है, वह जिन, तीर्थकर, सर्वज्ञ भगवान आप्त है और उनका उपदेश एवं वाणी ही जैनागम है। अर्हन्त अर्थ रूप से उपदेश देते हैं और गणधर निपुणता पूर्वक उसको सूत्र के रूप में गृथते हैं। इस प्रकार धर्मशासन के हितार्थ सूत्र प्रवर्तित होते हैं। कहा है
अत्थ भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । सासणस्स हियहाए तओ सुत्तं पवत्तइ ।।
-विशेभा० गा ११२६ आचार्य संघदास गणि का अभिमत है कि जो बात तीर्थकर कह सकते हैं, उसको श्रुत केवली भी उसी रूप में कह सकते हैं। दोनों में इतना ही अन्तर है कि केवल ज्ञानी सम्पूर्ण तत्व को प्रत्यक्ष रूप में जानते हैं तो श्रत केवली श्रत के द्वारा परोक्ष रूप से जानते हैं।'
पूर्वो की रचना के विषय में विद्वानों के विचित्र मत हैं, आचार्य अभयदेवसूरि आदि के अभिमतानुसार द्वादशांगी के पहले पूर्व साहित्य रचा गया था। इसीसे उसका नाम पूर्व रखा गया है ।२ कुछ चिन्तकों का मत है कि पूर्व भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा की श्रुत राशि है। कहा है
किसी के मन में कृष्ण लेशी या अप्रशस्त लेशी बनने की भावना है तो उसे अपने भावों को विकृत करना होगा इसी प्रकार प्रशस्त लेशी बनने के लिए भावों की उज्वलता पर ध्यान देना होगा। भावों के पीछे रंग बदलते हैं। कभीकभी उलटा भी हो जाता है। रंगों के पीछे भावों का बदलाव होता है। इस बदलाव में रंग निमित्त कारण के रूप में काम करते हैं। मूल तत्त्व भाव है। इसलिए भावों की विशुद्धि को केन्द्र में रखना आवश्यक है।
१. बृहत्कल्पभाष्य गा १३८ २. नंदी चूर्णि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org