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( 65 ) योगप्रवृत्तिलेश्या कषायोदयानुरज्जिता भवति ।
-गोजी० गा ४८८ संस्कृत छाया अर्थात् कषायोदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। सनतकुमार चक्रवृत्ति के शरीर का सौदर्य अद्भुत था। अहंकार के कारण उनके शरीर में सोलह रोग उत्पन्न हो गये ।
जैनागमों का उद्भव ही जगत के जीवों के लिए हुआ है ।'
सव्वजगजीवरक्खणदयट्ठाए, भगवया पावयणं कहियं-प्रश्नव्याकरण ।
निगोद जैन सिद्धान्त का पारिभाषिक शब्द है। जिसका अर्थ है अनंत जीवों का आधार अथवा आश्रय वैसे सामान्यतया निगोद सूक्ष्म और साधारण वनस्पति रूप है, तथापि इसकी अलग भी पहचान है। अतः इसके दो प्रकार कहे गये है-निगोद और निगोद जीव। निगोद अनंत जीवों का आधारभूत शरीर है और निगोद जीव एक ही औदारिक शरीर में रहे हुए भिन्न-भिन्न तेजस कार्मण शरीर वाले अनंत जीवात्मक है। आगम में कहा है-यह सदा लोक सूक्ष्म निगोदों से अंजनचूर्ण से परिपूर्ण समुद्गक की तरह ठसाठस भरा हुआ है। निगोदों से परिपूर्ण इस लोक में असंख्येय निगोद वृत्ताकार और बृहत्प्रमाण होने से गोलक' कहे जाते हैं। ऐसे असंख्येय गोले हैं और एक-एक गोले में असंख्येय निगोद हैं और एक-एक निगोद में अनंत जीव हैं। निगोद असंख्यात है व निगोद जीव अनंत है। अंगुलासंख्येय भाग अवगाहना वाले निगोद सारे लोक में व्याप्त हैं। वे असंख्येय लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं। प्रति निगोद में अनंत जीव है । इन जीवों में कृष्णादि तीन अप्रशस्त लेश्या होती है।
देवों और नारकों की जो भव स्थिति है, वही उनकी काय स्थिति ( संचिट्ठणा ) है। कहा है-. ..
. प्रथमं पूर्व तस्य सर्वप्रवचनात् पूर्वक्रियमाणत्वात्-समवायांग वृत्ति ।
सर्वश्रुतात् पूर्व क्रियते इति पूर्वाणि, उत्पादपूर्वादीनि चतुर्दशस्थानांग वृत्ति ।
१. बृहत्कल्प भाष्य गा १३२
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