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( 64 ) १४-निर्जरा में बारह ही प्रकार की निर्जरा होनी चाहिए । १५-शुभयोग के समय में शुभलेश्या होनी चाहिए-विशुद्धमान लेश्या होनी
चाहिए। १६---अशुभयोग के समय में अशुभलेश्या होनी चाहिए-संक्लिष्टमान लेश्या
होनी चाहिए। १७-जो जीव सयोगी है वह निययतः सलेशी है तथा जो जीव सलेशी है वह
नियमतः सयोगी है।
जब योग वीर्यान्तराय कर्म का क्षय, क्षयोपशम से तथा शरीर नामकर्म के उदय से होता है तब लेश्या में भी वीर्यान्तराय कर्म का क्षय, क्षयोपशम व शरीर नामकर्म का उदय होना चाहिए। शुभलेश्या से पुण्य का आस्रव व अशुभलेश्या में पाप का आस्रव होता है । चूकि लेश्या का ग्रहण योग आस्रव में होता हैं।
मिथ्यात्वी के अशुभलेश्या होते हए भी अध्ययवसाय प्रशस्त-अप्रशस्त दोनों प्रकार के हो सकते हैं। चूकि लेश्या से अध्यवसाय सूक्ष्म होते हैं ।
लोश प्रकाश में कहा है- अन्वय तथा व्यतिरेक से लेश्या के सयोगत्व की अपेक्षा ( लेश्या ) के द्रव्यों से योग के अन्तर्गत समझना चाहिए।" कहा है
द्रव्याण्येतानि योगान्तर्गतानीति विचिन्त्यताम् । सयोगत्वेन लेश्यानामन्वयव्यतिरेकतः॥
-लोकप्रकाश श्लो २८५ जिससे आत्मा कर्म के साथ लिप्त होती है वह लेश्या है । ( लिश्यते आत्मा कर्मणा सह अनया ( सा लेश्या )-प्रज्ञापना लेश्या पद टीका )।
अस्तु लेश्या योग के अन्तर्गत द्रव्य रुप है। योग द्रव्य कषाय उदय का कारण भी है। लेश्या से स्थिति पाक विशेष होता है । कषायोदय के अन्तर्गत कृष्णादिलेश्या के परिणाम है। किसी आचार्य की यह मान्यता रही है.-लेश्या कषाय उदय रूप भी है। जिसके द्वारा जीव अपने को पुण्य-पाप से लिप्त करें उसको लेश्या कहते हैं। कहा है
१. लिंपत्यात्मीकरोति एतया निजापुण्यपापंच । जीव इति भवति लेश्या लेश्या गुणज्ञायकान्याता॥
-गोजी० गा ४८८ संस्कृत छाया
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