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जो व्यक्ति परदोषदर्शी होता है वह अपनी भाव धारा ( लेश्या) को कभी पवित्र नहीं बना सकता । परदोष दर्शन की वृत्ति छूटे, आत्म दर्शन की वृत्ति विकसित हो और दूसरों के गुण देखने की मनोवृत्ति जागृत हो तो व्यक्ति का स्थान भाव विशुद्धि-लेश्या विशुद्धि की दिशा में हो जाता है ।
सज्जन व्यक्तियों का स्मरण भी शुभ लेश्या की प्रवृत्ति का हेतु है ।
लेश्या
निमित्त बनते हैं।
हमारे कार्य विचारों के अनुरूप और विचार चारित्र को विकृत बनाने वाले पुद्गलों के प्रभाव और अप्रभाव के अनुरूप बनते हैं । कर्म पुद्गल हमारे कार्यों और विचारों को भीतर से प्रभावित करते हैं, तब बाहरी पुद्गल उनके सहयोगी बनते हैं । ये विविध रंग वाले होते हैं । कृष्ण, नील और कापोत- इन तीन रंगों वाले पुद्गल विचारों की अशुद्धि के श्वेत- ये तीन पुद्गल विचारों की शुद्धि विचारों की अशुद्धि के कारण बनते हैं, मोह - प्रभावित विचारों के सहयोगी जो बनते हैं, वे कृष्ण, नील और कापोत रंग के ही पुद्गल होते हैं—प्रधान बात यह है यही बात दूसरे वर्ग के रंगों के लिए हैं । अर्थात् विचारों की शुद्धि में कारण बनते हैं ।
तेजस्, पद्म और पहले वर्ग के रंग
में
सहयोग देते हैं । यह प्रधान बात नहीं
किन्तु चारित्र
झीणी चरचा में श्री मज्जयाचार्य ने एक स्थल पर कहा है
मन, वचन काया रा जोग त्रिहुं सह लेस्या कही जिनराय । —भीणी चरचा ढाल १ । गा ८
है
अर्थात् मन, वचन तथा काय- ये तीनों योग सलेशी कहे हैं । जहाँ योग है वहाँ लेश्या है । अयोगी होने पर वह अलेशी हो जाता है । संस्कृत भाषा का शब्द है । प्राकृत भाषा में इसका रूप बनता है—आसव |
'अश्रव'
आचार्य मलयगिरि ने लेश्या को योगनिमित्तज बतलाया है, यह कथन द्रव्य योग और द्रव्य लेश्या की दृष्टि से घटित होता है । क्योंकि द्रव्य लेश्या की वर्गणा का सम्बन्ध तेजस शरीर की वर्गणा के साथ है । अतः द्रव्य लेपया और तेजस शरीर की वर्गणा का एक अपेक्षा से अन्वयव्यतिरेकी सम्बन्ध माना जा सकता है । किन्तु भाव लेश्या और योग में अन्वयव्यतिरेकी सम्बन्ध नहीं है ।
भाव योग के साथ भाव लेश्या का अन्वयव्यतिरेकी सम्बन्ध घटित नहीं होता । केवली के काय योग और वचन योग दोनों भावात्मक होते हैं ( भाव
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