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३-इसकी अनंतवर्गणा होती है । ( .१७ ) ४-इसके द्रव्याथिक स्थान असंख्यात है । ( २१ ) ५-इसके प्रदेशार्थिक स्थान अनन्त हैं । ( २६ ) ६-छः लेश्या में ( निश्चयनय से ) पांच ही वर्ण होते हैं । ( २७ ) ७-यह असंख्यात प्रदेश अवगाह करती है। (१६ ) ८-यह परस्पर में परिणामी भी है, अपरिणामी भी है । ( १६ व २०) ह-यह आत्मा के सिवाय अन्यत्र परिणत नहीं होती है। ( २०७ ) १०-यह अजीवोदय निष्पन्न भाव हैं । ( "५१.१४ ) ११-यह गुल्लघु है । ( १८) १२-यह भावितात्मा अणगार के द्वारा अगोचर-अज्ञ य है । ( ५१.१३ ) १३-यह जीवनाही है। (५१.१०) १४-प्रथम की तीन द्रव्यलेश्या दुर्गधि वाली है तथा पश्चात् तीन द्रव्यलेश्या
सुगन्ध वाली है। (पृ० १५) १५-प्रथम की तीन द्रव्यलेश्या अमनोज्ञ रव वाली है । ( पृ० १६ ) १६-प्रथम की तीन द्रव्यलेश्या शीतरूक्ष स्पर्श वाली है तथा पश्चात् की तीन
द्रव्यलेश्या ऊष्णस्निग्ध स्पर्श वाली है। (पृ० १६ ) १७-यह कर्मपुद्गल से स्थूल है। १५-यह द्रव्य कषाय से स्थूल है। १६-यह द्रव्य मन के पुद्गलों से स्थूल है । २०-यह द्रव्य भाषा के पुद्गलों से स्थल है। २१--यह औदारिक शरीर पुद्गलों से सूक्ष्म है । २२-यह शब्द पुदगलों से सूक्ष्म है। __ नोट-कहीं-कहीं शब्द को चतुःस्पर्शी तथा कहीं-कहीं अष्टस्पर्शी माना है । २३-यह तेजस शरीर पुद्गलों से सूक्ष्म होनी चाहिए। २४–यह वैक्रिय शरीर पुद्गलों से सूक्ष्म होनी चाहिए। २५-यह इन्द्रियों द्वारा अनाह्य है। २६-यह योगात्मा के साथ समकालीन है। २७-यह बिना योग के ग्रहण नहीं हो सकती है। २८-यह नो कर्म पुद्गल है, कर्म पुद्गल नहीं है। २६-यह पुण्य नहीं है, पाप नहीं है, बंध नहीं है। ३०-यह आत्मप्रयोग से परिणत है, अतः प्रायोगिक पुद्गल है। ३१-यह कषाय के अंतर्गत पुद गल नहीं है; क्योंकि अकषायी के भी लेश्या होती
है लेकिन सकषायी जीव के कषाय से सम्भवतः अनुरंजित होती है।
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