Book Title: Sachoornik Aagam Suttaani 01 Aachaar Churni Aagam 1
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Param Anand Shwe Mu Pu Jain Sangh Paldi Ahmedabad
Catalog link: https://jainqq.org/explore/035051/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ME नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नम: भाग सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि । आगम - ०१ 'आचार' चूर्णि: आजमा आजम मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी म० की प्रेरणा से श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ, पालडी, अमदावाद [1] Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता सच्चारित्र चूडामणि स्वर्गस्थ पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागर सूरीश्वरजी महाराज साहेब श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ वीतराग सोसायटी, प्रभूदास ठक्कर कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद करीब पचास साल पहेले परम पूज्य स्वर्गस्थ गच्छाधिपति आचार्य देव श्रीमद् देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब द्वारा संस्थापित इस संघ में श्री शीतलनाथ भगवंत का जिनालय भी है, जिन के प्रतिष्ठाचार्य भी पूज्य देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी म० ही है । इस संघ में पूज्य साधू -भगवंत एवं साध्वी - महाराज के लिए उपाश्रय भी है, जहां हर साल चातुर्मास करवा के श्रावक-श्राविकाओ को धर्म-आराधन से लाभान्वित करवाया जाता है । इस संघ में आयंबिलभवन, उबाला हुआ पानी, ज्ञान भण्डार एवं पाठशाला की भी बहोत अच्छी सुविधा प्रदान हो रही है । ऐसे सम्यग् मार्गी संघ की सद्भावना और प्रभावक आचार्य पूज्य श्री हर्षसागरसूरिजी म० की प्रेरणा से इस शास्त्र के लिए अनुदान प्राप्त हुआ है । [2] Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAVAN नमो नमो निम्मलदसणस्स सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता wintelwaayuniaVANEARE Tolerances पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] Hayee प्रत-प्राप्ति और पेज-सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855/98253062751 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिया बाजाराणम भाषण मामा राणमयमा मायाला आगम S दा Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11०१ श्री आचाराम-चर्णि: नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम: “आचार" चूर्णि: [बहुश्रुतकिंवदन्त्या: जिनदासगणिवर्य विहिता) [आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com.,M.Ed.,Ph.D.,श्रुतमहर्षि) 01/02/2017, बुधवार, २०७३ महा शुक्ल ५ 'सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-१ श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी-वर्ष-निमित्त 'आगम-चूर्णि-मुद्रण-प्रोजेक्ट' [5] Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [-] दीप अनुक्रम H भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [-], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [-] [मूल सूत्रा:] श्रीआचारांगचूर्णिः भार बहुधुन किंवदन्त्या श्रीजिनदासगणिवर्यविहिता मुद्रणप्रयोजिका — मालव देशान्तर्गतरत्न पुरीय (रतलामगत) श्री ऋषभदेव जी केशरीमलजी श्वेतांबर संस्था. मुद्रणकर्त्ता - सूर्यपुरीय श्री जैनानंद मुद्रणालय व्यापारयिता शा० मोहनलाल मगनलाल बदामी. श्री वीरस्य २४६८ संधिका मुद्रणस्य मुद्रण कारकाधीनाः विक्रमस्य संवत् १९९८ पण्यं रूप्यकपंचकं क्राइटस्य १९४१ प्रतय: ५०० पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : ••• आचाराङ्गसूत्रस्य चूर्णे: मूल "टाइटल पेज" [6] Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब .जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक्-श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के दवारा कायोत्सर्ग नामक अभ्यंतरतप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी गुरुभक्ति बुद्धि से । श्रद्धांजली स्वरुप एक मामुली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है। . चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, प्राचीन लिपिओ का, व्याकरणन्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए। .एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े देवर्द्धिगणी: क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और नियुक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया | फिर पालीताणामें आगम । मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और “आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हआ | .सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अव चूरी, संस्कृत-छाया आदि का भी | संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो की प्रस्तावना । भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की | .ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं को प्रतिबोध | कर के और वाचनाओ दवारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था | .सागरानंदजी के नाम से मशहर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ७०० साध-साध्वीजी भी शासन को भेट किये। ....ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"... ........मुनि दीपरत्नसागर... | .. -. -.. -.. -.. -.. -.. -.. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब ... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फ़िर क्या । शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हुए पुन्य के साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्यपरिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे | ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेलु दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवन में देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के महमें एक ही रटण बारबार चाल हो गया"अरिहंतनं शरण, सिद्धनं शरण, साधनं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनं शरण " इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना | ... मुनि दीपरत्नसागर... अनुदान दाता संस्था:- "श्री परम-आनंद श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ" __ वीतराग सोसायटी, प्रभूदास ठककर कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद करीब ५० साल पहेले परम पूज्य स्व. गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब द्वारा संस्थापित इस संघमें श्री शीतलनाथ भगवंत का जिनालय भी है, जिन के प्रतिष्ठाचार्य भी पूज्य देवेंद्रसागरसूरीजी म.सा. ही है | इस संघमें पूज्य साधू भगवंत एवं साध्वीजीओ का उपाश्रय भी है जहा हर-साल चातुर्मास करवाके श्रावक-श्राविकाओ को धर्म-आराधन से लाभान्वित करवाया जाता है | इस संघमें आयंबिलभवन, उबाला हुआ पानी, ज्ञान भण्डार एवं पाठशाला की भी बहोत अच्छी सुविधा प्रदान हो रही है | ऐसे सम्यग् मार्गी संघ की सद्भावना और प्रभावक आचार्य पूज्य श्री हर्षसागरसूरिजी म० की प्रेरणा से इस किताब का अनुदान प्राप्त हुआ है | Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -.. .. -.. -.. -..'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस "सचर्णिक-आगम-सत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ८ के संपूर्ण अनदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब ००००००००००००००००००००००००० पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक | पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "स चर्णिक-आगम-सत्ताणि" के मद्रण के लिए संपूर्ण दव्यराशि प्राप्त हुई , उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे । समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त । लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई। | ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है | ... मुनि दीपरत्नसागर “कात्रेज]पूना, शंखेश्वर, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब (एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ ......मुनि दीपरत्नसागर [१] Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलांक: | मुलांक: २२४ ०१३ १५६ ०३६ | १६६ ०४० १८३ २६५ २०० मूलाका: ५५२ मलांक विषयः | पृष्ठांक - तस्कंध-१ ०१३ *-* । अध्ययनं १ शस्त्रपरिज्ञा | ०१३ ००१ । --उद्देशक: १ जीवअस्तित्वं । -उद्देशक: २ पृथ्विकाय । ०२९ ०१९ । ___--उद्देशक: ३ अप्काय: ०३२ --उद्देशक: ४ अग्निकाय: । ०४१ --उद्देशक: ५ वनस्पतिकाय: । ०४३ ___--उद्देशक: ६ त्रसकाय: । ०४७ ०५६ ____ --उद्देशक: ७ वायकाय: । ०४९ अध्ययनं २ लोकविजय: ०५४ ०६३ --उद्देशक: १ स्वजन: ०७३ --उद्देशक: २ अदृढत्वम् --उद्देशक: ३ मदनिषेध: ०७४ ०८४ --उद्देशक: ४ भोगासक्ति: ૦૮૮ ___ --उद्देशक: ५ लोकनिश्रा ०८७ --उद्देशक: ६ अममत्वं *-* अध्ययनं ३ शीतोष्णीयं ।। ___--उद्देशक: १ भावस्प्त : ___ --उद्देशक: २ दःखानभव: १२२ १२५ ___--उद्देशक: ३ अक्रिया १३४ । ___-उद्देशक: ४ कषायवमनं १३७ *-* अध्ययनं । सम्यक्त्वं १३९ । -उद्देशक: १ सम्यकवादः । | १४१ आचाराङ्ग चूर्णेः विषयानुक्रम | पृष्ठांक १४३ -उद्देशक: २ धर्मप्रवादीपरीक्षणं | १४७ --उद्देशक: ३ निरवदयतपः । । १५२ १५० --उद्देशक: ४ संयमप्रतिपादनं __ -वचनं अध्ययनं ५ लोकसार: । १५४ --उद्देशक: १ एकचर्या | १६७ १५९ । --उद्देशक: २ विरतमनि १७७ । १६४ । ___--उद्देशक: ३ अपरिग्रह --उद्देशक: ४ अव्यक्तः १९२ । १७३ --उद्देशक: ५ हृदोपमः । १७९ --उद्देशक: ६ कमार्गत्यागः | २०८ ____ अध्ययनं ६ दयुतं २१२ १८६ । --उद्देशक: १ स्वजनविधननं | २१२ १९४ --उद्देशक: २ कर्मविधननं १९८ --उद्देशक: ३ उपकरण एवं ૨૨૮ ____ शरीर-विधननं २०१ --उद्देशक: ४ गौरवत्रिकविधननं। २३९ २०७ --उद्देशक: ५ उपसर्ग-सन्मान . | २४३ विधननं "अध्ययनं व्यच्छिनम्" । ___ अध्ययनं ८ विमोक्षं २५६ । २१० --उद्देशक: १ कशीलपरित्याग: २५७ | २१५ -उद्देशक: रअकल्प्यपरित्याग: २७२ नियुक्ति गाथा: ३५६ विषय: _ पृष्ठांक: | २२० --उद्देशक: ३ अंगचेष्टाभाषित: २७८ | -उद्देशक: ४ वेहासनादिमरणं २८५ ૨૨૬ --उद्देशक: ५ ग्लानभक्तपरिज्ञा | ____२८८ २३१ | --उद्देशक: ६ इंगितमरणं २३६ --उद्देशक:७ पादपोपगमनमरणं २९६ | २४० --उद्देशक: ८ उत्तममरणविधि: २९९ *-* अध्ययनं ९ उपधानश्रुतं ३०८ | --उद्देशक: १ चर्या: ३०९ ૨૮૮ --उद्देशक: २ शय्या: ३२३ --उद्देशक: ३ परिषह: __३२९ ३१८ --उद्देशक: ४ रोगातंक: ३३३ श्रुतस्कंध-२ ३३७ ३ चडा-१ ३३८ अध्ययनं १ पिण्डैषणा ३३८ ___-- (उद्देशका: १...११) ३३९ आहारग्रहण विधि: एवं निषेध: आहारार्थे गमनविधिः,सङ्खडीदोष:,पानकग्रहण विधि:,भोजन __गा निशि. ग्याति अध्ययन २ शय्यैषणा ३५७ -- (उद्देशका: १...) ३५८ शय्या-वसति ग्रहणे निषेध: व _ विधि:. संस्तारक प्रतिमा .. اه २२१ १३० ३९८ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि [10] Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *-* -- मूलाङ्का: ५५२ मूलांक विषय: पृष्ठांक | श्रुतस्कंध- २ चूडा-१ | *- अध्ययनं ३ इा ३६६ -- (उद्देशका: १...३) विहार निषेध: व विधि: वर्षावास:, गमनागमन विधि: व निषेध:,पथिना सह । अध्ययनं ४ भाषाजातं । ३७२। ४६६ |--उद्देशक: १ वचनविभक्तिः | ३७२ । ४७०-उद्देशक: २ क्रोधोत्पतिवर्जनं ३०४ *-* । अध्ययनं ५ वस्त्रैषणा । ३७४ ४७५ --उद्देशक: १ वस्त्रग्रहणविधिः ३७४ | ४८३ | --उद्देशक: २ वस्त्रधारणविधि: ३७६ । आचाराङ्ग चूर्णेः विषयानुक्रम नियुक्ति गाथा: ३५६ मूलांकः विषय: पृष्ठांक मूलांक: विषय: | पृष्ठांक: अध्ययनं ६ पात्रैषणा ३७० । ४९९ । सप्तैकक ३ उच्चार-प्रश्रवणं | ३८१ | ४८६ -- (उद्देशका: १, २) देशका ३७७ । ५०२ सप्तैकक ४ शब्दः ३८२ पात्रस्वरूपं, पात्रग्रहण विधि: ५०५ सप्तैकक ५ रूप: ૩૮ર निषेधश्च, पात्र पडिमा, पात्र । ५०६ सप्तैकक ६ परक्रिया ३८३ प्रमार्जना, पात्र परिग्रहणम् । yols सप्तकक ७ अन्योन्यक्रिया ३८४ अध्ययनं ७ अवग्रह प्रतिमा ३७८ चूडा-३ - ३८५ | ४९५ --(उद्देशका: १, २) | ।५०९ भगवन् महावीरस्य च्यवन,जन्म, अवग्रह आदि याचनाविधि: दीक्षादि वर्णनम्, पंच महाव्रतस्य एवं अवग्रह पडिमा(७) प्ररूपणा, तस्य पंच-पंच भावना चूडा-२ . चूडा-४ | ४९७ सप्तैकक १ स्थानं ३७९ ५४१- अनित्यभावना, मुने:हस्ति आदि | ४९८ । सप्तैकक २ निषिधिका: ।। ३८१ | उपमा,अन्त्कृत मोक्षगामी मनि० आचाराङ्ग चूर्णेः संक्षिप्त विषयानुक्रम: परिसमाप्त: ३७८ ३४९ ३९१ [11] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आचार-चूर्णि] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले "आचारागसूत्र" के नामसे सन १९४१ (विक्रम संवत १९९८) में रुषभदेवजी केशरमलजी श्वेताम्बर संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | वृत्ति की तरह चूर्णी के भी दुसरे प्रकाशनों की बात सुनी है, जिसमे ऑफसेट-प्रिंट और स्वतंत्र प्रकाशन दोनों की बात सामने आयी है, मगर मैंने अभी तक कोई प्रत देखी नहीं है | सिर्फ एक 'आचार-चूर्णि' का नया प्रकाशन तैयार होता हुआ देखा था | - हमारा ये प्रयास क्यों? + आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने उन सभी प्रतो को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसके बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर श्रुतस्कंध-अध्ययन-उद्देशक-मूलसूत्र-नियुक्ति आदि के नंबर लिख दिए, तार्किं पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, उद्देशक आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके| हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है। इस आगम चूर्णि के प्रकाशनोमें भी हमने उपरोक्त प्रकाशनवाली पद्धत्ति ही स्वीकार करने का विचार किया था, परंतु जब मैंने 'आचार-चूर्णि' के ९० से ज्यादा पृष्ठों का काम किया तब पता चला की चूर्णि और वृत्ति की संकलन पद्धत्ति सर्वथा भिन्न है, चूर्णिमें प्रत्येक सूत्र स्पष्टरूप से अलग दिखाई नहीं देते, नाही चूर्णिमें सूत्रो या गाथा का कोई स्पष्ट अलग क्रम संकलित हुआ है और बहोत स्थानोमें तो सूत्रों के अपूर्ण अंश लिखकर ही पूरी चर्णि तैयार हुई है, इसीलिए हमें यहाँ सम्पादन पद्धत्ति बदलनी पड़ी है | हम यहाँ प्रत्येक पृष्ठ पर अलग सूत्रक्रम दे नहीं पाये अगर लिख भी देते तो भी आप चूर्णिमें से उसे ढुंढ नहीं पाते क्योंकि चूर्णिमें सभी स्थानोमे अलग क्रमांकन है प्राप्त नहीं है | हमने यहाँ उद्देशक आदि के सूत्रों का क्रम, वृत्ति के क्रमानुसार [१-१४, १५-२४] इस तरह साथमे दिया है ताकि वृत्ति के आधार पर चूर्णिमें से सूत्र ढुंढ शके और बायीं तरफ़ इस वृत्ति के सूत्रक्रम और नीचे दीप-अनुक्रम दिए है, जिससे आप हमारे सभी आगम प्रकाशनोंमे प्रवेश कर शकते है। शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैनसंघ, पालडी, अमदावाद की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-१ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है। .......मुनि दीपरत्नसागर. [12] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१-१२] दीप अनुक्रम [१-१२] भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [१-६७], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १-१२] अर्हम् ॥ श्री आचारांगसूत्रचूर्णिः । ---- ॐ नमो वीतरागाय नमः सर्वज्ञाय || मंगलादीणि सत्याणि मंगलमज्झाणि मंगलावसाणाणि मंगल परिग्गहा य सिस्सा सत्थाणं अवग्गहेपायधारणासमत्था भवंति, एएण कारणेणं आदी मंगलं मज्झे मंगलं अवसाणे मंगलमिति, तत्थ अज्झयणकृतं आदीये जीवगहणं तदस्थित्तप्पसाहणं च, मज्झे मंगलं सम्मत्ता लोगसारग्गहणा, अंते मंगलं भगवतो गुणुकित्चणा, एयं अक्षयणकर्य, इदाणि सुत्तकयं भण्णति-आदीये सुयग्गहणा भगवतोरगहणा य, मज्छे से बेमि जे य अतीता अरहंता भगवंता' तहा 'से बेमि से जहावि हरे,' अंतेवि 'अमिणिबुडे अमाई य' एयस्त गहणा, तं पुण मंगलं चडविहं णाममंगलं ठवणामंगलं दवमंगल भावमंगलं, णामठवणाओ गयाओ, दव्वे सुत्थियादि भावे गंदी, सा चउविहा- नाम०ठवणा० द००, भाव० णामठवणाओ गयाओ, दब्वे संखबारसगाणि तूराणि, भावणंदी पंचविहं णाणं, सब्देसिपि परूवणं काऊणं सुयनाणेणं अहिग्गारो, कम्दा १, जम्हा सुयनाणे पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: ...सूत्रस्य आदि-मध्य-अंत्य 'मंगल' कथनं [13] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] (०१) अनुयोगअगादिदिगंतनिक्षेपाः द्वाराणि चूर्णिः प्रत वृत्यंक [१-१२] श्रीआचा-|| उद्देसो समदमो अणुण्णा अणुयोगो य पवनति, तत्थ उद्देससमुद्देसअणुण्याओ गयाओ, इह तु अणुओगेण अहिगारो, सो चउविहो, गंग सूत्र नंजहा-चरणकरणानुयोगो धम्मामुयोगो गणियाणुयोगो दवियाणुयोगो, सो पुण दुविहो-पृहुत्ताणुयोगो अपुडुत्ताणुयोगो, अपुत्ते एकके अणुयोगद्वारे चत्तारिवि समोयारिअंति, अपुतं जाव अजवइरोत्ति, एत्थ अञ्जबहरजरक्खित पुस्समित्ततिगं च | ॥२॥ घेनूर्ण जय पुहुना कया तह माणिया, इह चरणकरणाणुयोगेणं अहिगारो, सो य इमेहिं दारेहिं अणुगंतबो, तंजहा-णिक्खेवेगट्ठ णिरुत्त विही पवनी अ केण वा कस्म । तदारभेदलवणतदरिहपरिसा य सुनत्थो॥१॥ एयाए गाहाए अत्थी जहा कप्पपेढियाए, पवरं कस्सति द्वारं इमं भण्णइ-कप्पे वणियगुणेण आयरिएणं, कस्म कहेयद्यो?, सबस्सेव सुतनाणस्स, बिसेसेण पुण आयारस्स, जेण इह चरणकरणजातामाताव सीओ धम्मो आधविजद, आयारस्म अणुयोगो, 'आयारेण भंते ! किं अंग अंगाई सुतखंधो मुतखंधा अज्झयणं अक्षयणा उद्देसो उरेसा ?, आयारेणं अंगं नो अंगाई नो मुयखंधो सुपखंधा नो अज्ायणं अज्झयणा नो उद्दसो उद्देसा, तम्हा आयारं निक्विविम्मामि अंग निक्खिबिस्सामि सुयं निक्खिविस्मामि खंध निक्खिविस्साभि में निक्खिविस्सामि चरपां निश्विविस्मामि सत्थं निक्विाधिस्मामि परिण निक्विविस्सामि स निक्विविस्सामि दिसं णिक्सिविम्सामि, एरथ पुषण चरणदिसावजाणं दाराणं मम्बेमि चउको निकवेत्रो, चरणम्स दिसाणं तु छको, नन्य गाथा 'चरणदिमाव जाणं'(३-४)वितियगाहा 'जस्थ तु जं जाणेजा(४-४) एम निकादेवलक्षण गाहा,आयारो चउविहो जहा बुडियायारे नहा दबायारो भावायागे य भाणियबा, नत्थ पंचविहेण भावायारेण अहिगागे, नस्म य इमे सत्त दारा भवंति, जहा-तसगट्ट पवत्तण'माहा(५-६) एगट्टियाइओ जहा 'आपारी आचाले' गाहा (७५) नस्थ आयारो पुखमणि ओ, दाणि आचाली, मो चउबिहो, नन्थ दश्वे जहा बातो वृक्षं | Hel॥२॥ दीप अनुक्रम [१-१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] “आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: ...चतुर अनुयोगद्वाराणाम् कथनं, निक्षेपा गाथा: [14] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] (०१) Prammam 'आयार' ऐकार्थाः तनिक्षेपाः प्रत वृत्यंक [१-१२] श्रीआचा-10 कुंजरो स्तम्भं आरोहगं वा एवमादि, अहवा किरियाजोगो आचालो, आचलितो खंधावारो आचलितं आसणमिति, भावे सो चेव रांग सूत्र-IAL | पंचविहो, कोहादि सव्वं अप्पसत्थं भावं चालेति कम्मबंधं आचारो, इयाणिं आगालो, जंवा उदगस्स णिष्णया व तलागं वा आगालो भवति, अहवा आगलिता मेहा, भावे तु अयमेव नाणादि भावागालो, इयाणि आगारोन्दवेसु दवागारादि, अहवा रतणागरो समुद्रो, ॥३॥ भावे अयमेव नाणादियागागे, इदाणिं आसासो, तत्थ दवे गदिमादिएसु वट्टमाणस्स तरणं दीवोबा,अहवाऽऽसासो दरिसणतो फासओ य, दरिसणे संजत्तया वाणियगा समृद्दमझे कूलं दटुं आससंति, अहवा धातु(वाउ)पिसाया विलं पविट्ठा दिसामूढा बिलद्वारं, करिसगा| मेहं, पकणाणि वा ससाणि, माता गट्ठ पुत्तं, गम्भिणी पमूया पुत्तमुहं वा,स्यणत्थियां रयणागरं एवमादी, फासओऽवि मुच्छिओ तिसितो वा तोयं धम्मत्तो चंदणं मारुतं वा एवमादि, भावासासो आयारो संसाराओ उत्तरण, इदाणिं आदरिसो, तत्थ दो दप्पणादि, भावे U आयारो, एस्थ करणिशं अकरणिजं च दरिसिजति । अंग चउविहं, तं चाउगिज्जे वष्णितं इहंपितं चेव । इदाणिं आचिणं, तत्थ दवे || गोणादीणं तणा सीहादीण पोग्गलं खित्नाचिण्णं वाहिएसु सत्तुगा कोंकणासु पेजा, काले जहा "सरसो चंदणको अग्पति उल्ला य गंधकासाई । पाडलसिरीस मल्लियपियंगु काले निदाहमि" ॥१॥ भावाइणं सबसाहूहि अयमेव नाणादियायारो मोक्खनिमित्तं | आइण्णो। इयाणि आयातो, तत्थ दवे जहा आयातो देवदत्तो, अहवा जातिस्सरकहासु सुवति अमुगभवाओ इम भवं आयातो, भावे गुरुपरंपरएण । इयाणि आमक्खो, तत्थ दवे निग्गंथादीणि मोइति भावे पच्छा विवदिओ मुबह सकम्माओ। इयाणि पबत्तणं, 'सधेसि आयारों' गाहा (८-६) सबतित्थगरावि आयारस्स अत्थं पढम बाइक्खंति, ततो सेसगाणं एकारसण्डं अंगाणं, ताए व परिचाडीए गणहरावि सुत्तं गुंथंति । इयाणि पदमंगति, किंनिमित्त आयारो पदम ठविओ?, एत्थ गाहा 'भायारो अंगाणं दीप अनुक्रम [१-१२] ॥ ३ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: । ...आचार शब्दस्य एकार्थका शब्दा: [15] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] (०१) प्रत वृत्यक [१-१२] श्रीआचा AU(९-६) जैण कारणेण एस्थ आयारी बनिनइ चरण चेव मोक्खस्स मारी, तत्थ ठितो सेसाणि अंगाणि अहिजइ तेण सो पदम कतो, आदिस्थात्र- इयाणि गणित्ति 'आयारंमि अहीए' गाहा (१०-६) गणीति गणं बाबारेति तम्हा आयारो भबिस्सइ पढमं गणिठाणं । इयाणि चूणिः पदमानं, परिमाणं, तत्थ 'णवर्षभचेरमहओ अट्ठारसपदसहस्सिओ वेओ'गाहा (११-६) तत्थ णव भवेरा आयारो, तस्स पंच ॥४ ॥ ब्रह्मनिक्षेपम चूलाओ, ताओ पुण आपारेहितो अज्झयणसंखाए बहु पदग्गेण बहुत्तरियाओ दुगुणा तिगुणा बा, ताओ पुण इमाओ भवंति-एकारस पिंटेसणाओ जाव उग्गहडिमा पढमा चूला, मनमत्तिक्या वितिया, भावणा ततिया, विमोति चउत्था, णिसीह पंचमा चूला। इदाणि समोयारो, नत्थ दवे जहा आमंतणे बहुया, खलगादिसु कवीयादी, पहाणाणुयाणादिसु अरुईतयादिसुसाहुणो, भावे अयमेव | नाणादीण भावाणं समोयारो, तत्थ गाहाभो तिणिण पढियवाओ। (१२, १३, १४-७) इयाणि सारो, तत्थ दवे जहा कोडीसारो देवदतो अहबा समारो बंभो ससारो दधि एवमादि, भावे अयमेव नाणादी भाचो चेव, मुत्ते आयारो सारो, अहवा सबस्सेव सुपना- | णस्य एम आयारो सारो, तत्थ गाहायो 'अंगाणं किंमारो' गाहाओ (१६, १७) दोनि पढियवाओ। इयाणि अंगं, तं चउबिहनामंगं ठवर्णगं दवंग भावंगति, णामठवणाओ गयाओ. दवंगं जहा चउरंगिओ, भावंगं आगमओ जाणओ उबउत्तो, नोआगमओ इमं चैव आयारभाबगं. नेण अहीगागे. इदाणि सुदचे पत्तयपोन्थयलिहियं, भावे इमं चेव, खंधेचउबिहे दवे सचित्तादी || भावे एतसिं चेव नवहं अज्झयणाणं समुदाओ, को य पूण एम भावसुधक्रबंधो?, भष्णइ, बंभचेरा, तेण बंभ णिक्खिचियई 'बंभंमि(मी उ)चउक्क' गाहा ( ) तन्थ ठवगावभं अक्वणिक्वेवादिसु, अहवा भणुप्पत्ती भाणियबा, 'एगा मणुस्सजाई। HAL ||४॥ गाहा ( १९-८) एन्थ उमभमामिस्म पृत्वभवजम्मणअहिसेयचकबहिरायामिसंगाति, तत्थ जे रायअस्मिता ते य वत्तिया | दीप अनुक्रम [१-१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: ...'ब्रह्म' शब्दस्य निक्षेप: [16] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] (०१) प्रत वृत्यंक [१-१२] श्रीआचा-144 जाया अणस्सिता गिहवाणो जाया, जया अग्गी उप्पण्णो ततो य भगवऽस्मिता सिप्पिया वाणियगा जाया, तेहिं तेहि क्षत्रियासंग सत्र- सिप्पवाणिजेहिं विर्ति विसंतीति वइस्सा उप्पना, भगवए पाइए मरहे अमिसित्ते सावमधम्मे उप्पण्णे बंभणा जाया, | चूर्णिः अगस्सिता बंभणा जाया माहणत्ति, उज्जुगसभावा धम्मपिया जं च किंचि हणतं पिच्छति तं निवारंति मा हण भो मा हण, एवं ते || जणेणं सुकम्मनिवत्तितसम्मा भणा(माहणा)जाया, जे पुण अणस्सिया असिप्पिणो ते वयख(क)लासुइबहिका तेसु तेसु पोयणेसु सोयमाणा हिंसाचोरियादिसु सजमाणा मोगद्रोहणसीला सुद्दा संवुत्ता, एवं तावं चत्तारिवि वण्णा ठाविता, सेसाओ संजोएणं, तत्थ 'संजोए सोलसयं' गाहा (२०-८) एतेसिं चेव च उण्डं वण्णाणं पुराणुपुवीए अणंतरसंजोएणं अण्णे तिणि वण्णा भवंति, तत्थ 'पपती चउकयाणंतरे' गाहा (२१-८) पगती णाम भवत्तियवाससुद्दा चउरो वण्णा । इदाणि अंतरेण-बंभोणं । खत्तियाणीए जाओ मो उत्तमवनियो वा सुद्धखनिओ वा अहया संकरखतिओ पंचमो वण्णो, जो पृण खनिएणं वइस्सीए जाओ एसो उत्तमयस्सो वा सुदवहस्सो वा संकरवहस्सो वा छट्ठो वण्णो, जो वइस्सेण मुद्दीए जातो सो उत्तमसुदो वा (सुद्धसुद्दो) वा संकरसुद्दो वा सत्तमो वण्णो । इदाणि वण्णणं वण्णेहिं वा अंतरितो अणुलोमओ पडिलोमतो य अंतरा सत्त वण्णंतरया भवंति, जे अंतरिया ते एगंतरिया दुअंतरिया भवति । चत्वारि गाहाओ पढियवाओ (२२,२३, २४, २५-१) तत्थ ताव भणेणं वइस्सीए H जाओ अंबट्ठोत्ति बुचड़ एसो अट्ठमो वण्णो, खत्तिएणं सुद्दीए जातो उग्गोत्ति वुचइ एसो नवमो वण्णो, बंभणेण सुद्दीए निसातोति | वुचर, किनिपारासबोत्ति, तिण्णि गया, दसमो वण्णो । इदाणिं पडिलोमा भण्णंति-सुदेण वइस्सीए जाओ अउगवुत्ति भण्णइ, 0 एक्कारसमो वणो, बहस्सेण खत्तियाणीए जाओ मागहोनि भण्णइ, दुवालसमो, स्वत्तिएणं बंभणीए जाओ खओत्ति भण्णति, तेरसो दीप अनुक्रम [१-१२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: ...मनुष्यजाती/वर्ण एवं वर्णान्तरम् [17] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [3], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] (०१) B प्रत वृत्यंक [१-१२] श्रीआचा- वणो, सुदेण खनियाणीए जाओ खत्तिओचि भण्णइ, चोदसमो, वइस्सेण बंभणीए जाओ चैदेहोति भणति, पन्नरसमो वष्णो, ब्रह्माचरण 0 मुद्देण बंभणीए जाओ चंडालोत्ति पवुच्चइ, सोलसमो वण्णो, एतयतिरित्ता जे ते विजाते ते बुचंति-उग्गेण खत्तियाणीए सोवागोति चूर्णिः । बुच्चा, वैदेहेणं खत्तीए जाओ वेणवृत्ति चुच्चद, निसाएणं अंबट्ठीए जाओ बोकसोत्ति वुच्चइ, निसाएण सुद्दीए जातो सोवि वोक्सो, ॥ ६ ॥ HAसुदेण निसादीप कुकुडओ, एवं समंदमतिविगपितं ठवणाभं गतं । इदाणि दव्वयंभ भण्णाइ 'दचं सरीरभविओ' गाथा | (२८-९) दुविहं आगमओ नोआगमओ य जहा अणुयोगदारे, णवरं जाणइ बाबारेहिति वा बभ, जाणवहरितं अनाणियवस्थिसंजमो, जाओ य रंडकरंडाओ बंभं धरेंति, भावे तु विदुवस्थिसंजमो, विदुति आगमओ भावभं गहितं, नोआगमतो तस्सेब जो बस्थिसंजमो मेहुणओवरति, अहवा संजमो बभं भाणति । दारं । चरणं छविहं, वहरिनं दखचरणं तिविहं, तंजहा-गहचरणं | भक्षणाचरणं आचरणाचरणं, तत्थ गइपरणं रहेण चरति घोडेहिं चरति पादेहिं चरति एवं गइचरण भण्णइ, भक्खणाचरणं मोदए | चरति देवदत्तो तणाणि गावो चरंति, आयारणाचरणं णाम चरगादीणं, अहवा तेसिपि जो आहारादिपूयानिमित्तं तवं चरति तं | दब्धाचरणं, लोगुत्तरेऽवि उदायिमारगप्रभृतीर्ण, जं वाऽणुवउत्नाणं, खेत्तचरणं जइयं सित्तं चरति-गच्छति, जहवा सालिखित्तं । गोणादि चरति, कालेवि जो जावतिकालेण गच्छति जति बा, भावे तिविहं-गतिचरणं भक्खणचरणं गुणचरणं, 'भावे गति || आहारे'गाहा-(३०-८) तत्थ गतिभावचरणं जं ईरियासमितो चरति गच्छति, भक्खणा जो बायालीसादोसपरिमुद्धं वीतिगालं विगतधूमं कारणे आहारेइ, एतं आहारभावचरणं पसत्थमपसत्थं च, अप्पसत्थं मिच्छत्तऽण्णाणुवहतमतिया अनउत्थिया धम्म उबचरंति मोक्खस्सस्थं, किं पुण णिदाणोवया?, लोउत्तरेवि निदाणोवहतं अप्पसत्थं, पसत्थं तु णिजराहेउं जंबंभचरणं, एत्थ ॥६ ॥ दीप अनुक्रम [१-१२] RAmale पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: ...चरण-निक्षेपा:, [18] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१-१२] दीप अनुक्रम [१-१२] श्रीआचा रांग सूत्रचूर्णि: || 19 || भाग-1 "आचार" अंगसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) स्कंध [१] अध्ययन [१] उद्देशक [१], निर्युक्तिः [१-६७ ], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १-१२] - पसत्थगुणचरणाणं अहीगारो, एयाणि णवविद्दवं मचेराणि निअरत्थं पढिअंति, जहत्थ भणियं तह आयरिअंति, तस्स पुण णवबं मचेरसुखंध हमे अक्षयणा भवति, तंजहा- 'सत्यपरिण्णा लोगविजओ' गाहा 'अट्टमए य विमोक्खो गाहा (३१, ३२-९) एतेसिं णवण्डं अज्झयणाणं हमे अत्थाहिगारा भवति, तंजहा - 'जियसंजमो य' माहा (३३) 'णिस्संगया य छठ्ठे' गाहा, ( ३४ - १० ) तत्थ परिण्णाए जीवसन्भावोवलंभो कीरति, जीवअभावे यदि बंभचरणं नवि तप्पयोजणं अतो अत्तोवलंभो पदमं काय हो, एवं सो अप्पाणं उवलमित्ता उत्तरकाले सत्तरसंजमे अप्पाणं ठावेद संजमं वा अप्पाणे, लोग चिजए उददओ भावो लोगो कसाया जाणिवा, जहा य खवेयच्या, एवं महव्ययावहियस्स विसयकसायलोयं जिणंतस्स जइ अणुलोमपडिलो मा उवसग्गा उप्पजे ते सहियब्वा ततितो अहिगारो, पंचमद्दव्यय अवहितमस्स जियकसायलोयस्स मुडदुक्खं तितिक्खमाणस्स पंचग्गतावगोमय मुकसेलामाइ आहारजंतणतवोविसेसं दण विजातिरिडीओ य मा दिडिमोहो भविस्सह तेण चउत्थे संमतं, पंचमे तत्र अहिगारं उच्चारिता लोगं सारमसारं जाणिता बिस्सारं हड्डित्ता सारगहणं कायन्त्रं, छड्डे उ तहेब अहिगारे उच्चारित्ता संमतादिसारं गहेऊणं भावतो निस्संगो बिहरेजा, सचमे तु मोहसमुत्था परीसहोवसग्गा सहिता परिजाणियन्वा, अट्टमे तु वियाणिचा णिजाणं कायन्वं, जं भणितं भक्तप्रत्याख्यानं, नवमे केण इमं दरिसितमाइणं वा १, वीरसामिणा, 'एसो उ बंभवेरे पिंडस्थो वणिओ समासेणं । एताहे एकेकं अज्झयणं वण्णइस्सामि ॥ १ ॥ तत्थ पदमं अज्झयणं सत्यपरिण्णा, तस्स चचारि अणुओगदारे वणेऊनं पुव्वाणुवीए पढमं पच्छाणुपृथ्वी नवमं अणाणुपुच्चीए नवगच्छगयाए०, णामे खयोव समिए समो वतरति भावप्यमाणे लोउत्तरे आगमे विभासा, णो णयप्यमाणे, कालियसुयपरिमाणसंखाए, उसणेणं सव्त्रयं ससमयवचण्या, अर्थाधि काराः [19] 119 11 पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१-१२] दीप अनुक्रम [१-१२] श्री आचा गंग सूत्र चूर्णिः ॥ ८ ॥ WINDON भाग-1 "आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [१-६७ ], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १-१२] अत्थाहिगारो सो इमाए गाहाए अणुगंतव्बो, 'जीवो छक्कायपरूवणा य' गाहा - ( ३५ - १०) जत्थ जत्थ समोयरति तत्थ तत्थ समोतारितं णामणिप्फण्णो सत्यपरिष्णा, सत्थं परिण्णा व दो पढ़ाई, तत्थ सत्थं निक्खेवियध्वं 'दव्वं सत्यग्गविसं गाहा(३६ - १०) तत्थ सत्थं असिमादि अग्गिसत्थं एवं विमसत्थं गेहं अविलं खारो नाम क्षारो रूक्षाणि च पीलुकरीरादी करीसणगरणिद्धमणादी दव्वसत्थं, भावसत्थं कायो वाया मणो य दुष्पणिहियाई । परिष्णा चउन्त्रिहा, 'दव्वं जाणण पञ्चकखाण' गाड़ा (३७-१०) दव्यपरिण्णा दुविहा- जाणणापरिण्णा पच्चक्खाणपरिष्णा य, तत्थ जा सा दब्वजाणणापरिष्णा सा दुबिहाआगमओ नोआगमओ य, आगमओ जस्स णं परिणतिपदं० णोआगमतो दुविहा- जाणगसरीर० भवियसरीरा०, इदाणि पञ्चक्वाणदव्वपरिष्णा - जो जेण रजोहरणादिदव्वेणं पञ्चक्खाह एसा पच्चक्खाणदव्यपरिण्णा, भावपरिण्णा दुविहा- जाणणा पचक्वाणे य, जाणणा आगमतो णोआगमतो य, आगमतो जाणतो उवडतो, नोआगमतो इमं चैव सत्यपरिण्णाअज्झयणं, भावपञ्चकखाण परिष्णावि सव्वपाचाणं अकरणं, जहां सव्वं पाणाइवायं तिविहं तिविहेण पञ्चकखाइ । गतो नामनिष्फण्णो निक्खेवो, सुत्तागमे सुतमुच्चारयवं अक्खलिये अमिलितं, तत्थ संघिता-सुतं सुयं मे आउसं! तेण भगवया एवमक्वार्य' (१-११) एयस्स अज्झयणस्स इमो उग्घातो- 'अत्थं भासह अरहा सुतं गंथति गणहरा निउणा सासणस्स हियड्डाए ततो सुत्तं पवनइ ॥ १ ॥ तं सुणितु गणहरा तमेव अत्थं सुत्तीकरिता पत्तेयं ससिस्सेहिं पज्जुवासिजमाणे एवं भणति सूर्य मे आउ ! तेणं भगवया एवमक्खायं, सुहम्मो वा जंबुनामं सुयं मे आउ ! तेण भगवया, सुणेइ सुतं मे इति अहमेवासौ येन श्रुतं तदा, ण खणविणासी, आउसो ! त्ति. सिस्मामंतणं, सिस्सगुणा अण्णेऽवि पमत्थदेसकुलादि परिग्गहिता भवंति, दिग्घाउयतं तेसुं गरुयतरं शखपरिज्ञयोनिक्षेपाः [20] || 2 11 पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [3], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] (०१) श्रीआचा- रांग सूत्र चूर्णिः ॥९॥ प्रत वृत्यक [१-१२] तेण तम्महणं, चिरजीवी अण्णेसिपि दाहिति, तेषंति णेणं भगवया, अहवा आउसंतेण-जीक्ता कहितं, अहवा आवसंतेण गुरु| कुलवासं, अहवा आउसंतेण सामिपादा, विणयपुग्यो सिस्सायरियकमो दरिसिओ होइ आवसंतउसंतग्गहणेण, भग इति जो||" सो भण्णइ सो से अस्थि तेण भगवं 'माहात्म्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, पण्णां भग इती-|YA | गणा ||१|| भगवद्गहणं तु सत्थगोवत्थं धम्मायरियत्ति सिस्सायरियकमे मंगलत्थं च 'इह' इति प्रवचने आयारे वा सत्थपरिण| ज्झयणे वा 'एगेसिं'ति ण सम्बेसि, अमानोना पडिसेहे, एत्थ जगारमागारनगारा सनपडिसेहगया, णोगारो तु देशे सब्वे यDI A अधिगारं असम, तंजहा-नोगाम इति भण्णंते सुण्णगामो घेप्पड़, णवनिवासो वा, ण ताव आंबासेति, अग्गामोतिण भण्णति, जो वा ग्रामस्य देशो एसो नोगामो, सब्बपडिसेहे अरण्णा मेव, इह तु देशपडिसेहे ददृष्बो, जेण न कोऽपि संसारत्थो जीवो सबारहितो, भणियं च "संसारत्थाणं दस सण्णाओ पण्णताओ, तंजहा-आहारसण्णा भय० मेहुण. परिग्गहरू कोह० माण० माया० लोभ लोग० ओघसण्णा, जेण पुढविकाइयाणवि अक्खरस्स अणतभागो णिच्चुग्घाडो तेण ण कोइ जीवो सण्णारहिओ, अतो नोकारेण पडिसेहो, 'एगेसिं'ति मणुस्साणं, जेण मणुस्सेसु चरिचपडिपत्ती, सण्णा चउबिहा 'दवे सञ्चित्तादी गाहा (३८-१२) संजागणं संज्ञा, जो हि जेण सचिनेण ३ दब्वेग दव्यं संजाणइ सा दबसण्णा जहा बलागादीहिं सलिलं, जहा वा भमुगाअंगुलिय नयणबयणमादिएहिं आगारेहिं सण्णं करे जहा गच्छ चिट्ट पढ भुंज एवमादि चेयणा जहा अक्वेहि दाएति, लडीए व सि॥ स्सस्स, जहा उजोतणियाए पदीवेण दरिसेइ, भावसना अणुभवणा जाणणे व 'मइ होति जाणणाए' मई सण्णा णाणं एगत्था, सा सण्या पंचविहा, तंजहा-आमिणिबोहियनाणसमा सुयनाणसन्ना ओहिनाण. मणपजमाणसना केवलणाणसण्णा, सा पुण| दीप अनुक्रम [१-१२] ॥९॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [21] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] (०१) प्रत वृत्यक [१-१२] श्रीआचा- खइया वा होजा खोबसमिया या, अणुभवणसण्णा कम्मोदयनिष्फण्णा पार्य सोलसविहा भवति, तंजहा-'आहारभयपरि- दिशः रांग यत्रचूर्णिः ID गाहा' गाहा (३९-१२) वितिगिच्छा तेहि तेहिं नाणंतरादीहि सम्मदिहिस्सवि भवति, किनु सेसस्स?, कोहसण्णा कोहज्शव॥१०॥ साओ, एवं माण० माया० लोभ० सोगो य, ओहसण्णा सेससण्णाविरहिया केवलं उबओगो, लोगसण्णा सच्चंदवियप्पिया अणेगरूवा, अणवस्स लोगो णस्थि, सोयसुत्न(दोस्थो रणमूह एवमादि, धम्मसण्णा णाम धम्मपियया तस्सीलसेवणा य, जाणणासण्णाए अहिगारो, तं च पडुच भण्णइ-इहमेगेसिं नो सन्ना भवति, संजहा-पुरच्छिमाओ बा दिमाओ आगतो अहमंसि जाव अणुदिसातो आगओ अहमसि' (२-१३) दिस्सते जा सा दिसा ताओ पुण्यमादि, सा सत्तविहा 'णामं ठवणा' गाहा ।। (४०-१३)॥ णामदिसा जहा दिसाकुमारी, ठवणादिसा अक्खणिक्वेवादिसु दिसाविभागो ठाविओ, स पुण सुनPA परूवणादिमुवि विञ्जति, दबदिसा 'तेरसपदेसियं खलुगाहा ।। (४१-१३)। खेतदिसा 'अट्टपदेसो भयओ गाहा VI (४२-१३)। ईदग्गेयी जमा य गाहा ।। (४३-१३) ।। अंतो सादीआओ'गाहा।। (४५-१४) 'सगढुद्धिसंठियाओं' | गाहाओ (४६-१४) कंठाओ । 'जस्स जओ आइयो उदेह'माहा 'दाहिणपासंमि य' गाहा ।। (४७,४८-१४) ।। भाणियचा, सब्बेमि मेरुगिरी उत्तरतो 'सवेसिं उत्तरेणं' 'जत्थ य जो पण्णवओ णव गाहा कंठ्या (५०,५८-१५)। इदाणि भावदिसा अट्ठारसविहा 'मणुया इंदियकाया' गाहा ।। (६०-१५)। तिरिया काया कम्मभूमगा अकम्मभूमगा य अन्तरदीवगा समुच्छिममणुस्सा येईदिय तेइंदिय चउरिदिय पंचेंदियतिरिक्खजोणिया, पुढविकाइया तेउकाइया वाउकाइया आउकाइया वणस्सहकाइयाअग्गषीया मूलवीया बंधषीया पोरखीया देवा नेरदया, एसा भावदिसा, दिस्सति तेण दिसा, तेण प्रकारेण दिस्सति जहा पुढषि-10 ॥॥१०॥ दीप अनुक्रम [१-१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अध्ययन-१ 'शस्त्रपरिज्ञा" आरब्धं प्रथम अध्ययने प्रथम-उद्देशक 'जीव अस्तित्व' आरब्धः [22] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [3], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] (०१) प्रत वृत्यक [१-१२] श्रीआचा-10 काइयो आउआइत्रो जाव देवो, तत्थ खेचदिसं पडुब चउसु महादिसासु जीवाणं गति आगति अस्थि, सेसासु णत्थि, जेण जीवो दिक्संयोरांग सूत्र- असंखेजेसु पदेसेसु ओगाहति, पण्णवगदिसा उण पडुच्च अट्ठारमुवि दिसासु अस्थि गइरागमणं वा जीवाणं, एत्थ पुण एकेकीएगाः आत्मचूर्णिः प्रत्ययः IMI पण्णवगदिसाए अट्ठारसविहाएवि भावदिसाए गमणं आगमणं वा भवति, स पुण संजोगो 'अण्णतरीओ दिसाओ वा अणुदिसाओ ॥११॥ वा आगो अहमसि' एतेण गहिओ भवति, नत्थ दिसाग्रहणात् पण्णवगदिसाओ चत्तारि य तिरियदिसा उड्डे अ अहे य अट्ठारस |य भावदिसाओ गहियाओ भवंति, अणुदिसाग्रहणात् पुण चचारि अणुदिसाओ गहियाओ, तत्थ असभिदिसाओ आगयाणं णस्थि । एतं विनाणं, अनतरीओ दिसाओ आगयाण एवमेगेसि णो णातं भवति, एवमवधारणे इति उपदेसे वा, णातमुवधारित, अहवा उपसंधारवयणमेतं, संजहा-कोइ मत्तवालो पुरिसो अइमनो कलालाऽऽवणातो अन्नाओ वा वमतो मञ्ज गंधेण साणेण पदणे संपिहिअमाणो सहीहि ओखेविओ सगिहमाणीओ मदावसाणे पडियुद्धोऽपि सोण याणति कओ वा केण वा आणिओ, कओ मदकाले ?, एस दिटुंतो, उपसंहारो इमो एवमेगेसि, अहवा इदं च एगेसिंणो णातं भवति तंजहा-'अस्थि मे आया ओववातिए, णत्थि | मे आया ओववातिए, के वाऽहं आसी!, के वा इओ चुए पेचा भविस्सामि'(३-१६) अस्थित्ति विजमाणए वित्ति, | मे इति अत्तनिदेसे, अततीति अप्पा हेउपच्चयसामग्गिपिहल्भावसु, अहवाऽऽयपश्चइओ पाणियं भूमी आगासं कालो एवमादि, | एतेहिं हेऊहिं अस्थि अप्पा, एवं एगेसिं णो परिणातं भवति, तजीवतस्सरीवातियाणं तु अस्थि अप्पा, किंतु उववातिओ एतण्णो | परिणातं भवति, सरीरं चेव तेसि अप्पा, संसारी न भवति, जइ अण्णाओ सरीराओ निष्फिडंतो दिसिअ, ण पदिस्सति तेण न संसरति, आतग्रहणेण तिणि सट्टाणि पावादियसनाणि गहियाणि भवंति, आसीतं किरियावादिसतं, तत्थ किरियावादीणं ॥११॥ दीप अनुक्रम [१-१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [23] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] (०१) सम्यक्त्व ग्रहः प्रत वृत्यंक [१-१२] श्रीआचा- PP. अस्थि केसिंचि सन्वगतो असध्वगतो बा, तथा कत्ता अकर्ता मुत्तो अमुत्तो वा, अत्थित्तेऽपि सामाकतंदुलमित्ते अनेसि अंगुट्ठ-II रांग सूत्र | पब्वमित्तो अन्नेसि पईबसिहोबसोहियाहिडितो, एतेसिं सब्वेसि अस्थि उववादिओ य, अकिरियावादीणं णस्थि चेव, कओ उव-10 चूणिः । वादिओ?, अण्णाणिया अप्पाणं पहुच ण विपडिवअंति, वेगइया य, अहवा इममि अत्तसम्भावोवलंसदेसए सम्मत्तगहणुदेसए वा | ॥ १२ ॥ PA अवस्सं सम्मईसणायारो वण्णेयब्बो तप्पडिवक्खं च मिच्छति, तं जइविय चउत्थे सम्मत्तझयणे वित्थरेण वणिजिहिति तहावि | | इह संखेवुद्देसेणं उल्लाविञ्जइ, सम्मईसणपरिच्छाएवि आदिपदत्थो जीवो, तहिं सिद्धे सेसपदत्थसिद्धी, तं व उपरि इच्छेच उद्देमए | भणिहिति, तंजहा 'से आतावादी लोगावादी', कहं सम्मत्तं न लब्भति ?, भण्णति, अट्ठण्डं पगडीणं पदमिल्लगाण उदए णो। सण्णा भवति, पगडीणं अम्भितरे, सणनि वा बुद्धिति वा नाणंति वा विणाणंति वा एगट्ठा, आदिरंतेण सहिता, सण्णाग्रहणेणं || N/ आभिणियोहियनाणं सूपितं भवति, एवं आभिणिचोहियनाणं अस्सनिदिसाए एगतेण णस्थि, सन्नीवि तिरीय अभिनिवेसेणं णस्थि, HI'केसिंचि अस्थि सन्ना'गाहा (६३-१६) जेसिपि अस्थि अप्पा उबवाइओ य तेसिपि एतं णो णातं भवति-के अहं आसी रहो वा तिरिओ वा इत्थी वो पूरिसो वा पुंसओ वा ? के व इओ-इमाओ माणुस्साओ चुओ पेचति परलोगे, तो एसो ताव | अयाणतो, तश्विवरीओ जाणो, सो कह जाणइ १, भण्णइ-'सहसंमृतियाए परवागरणेणं अन्नेसिंवा सोचा'(४-१९) PA सोभणा मति संमति सहसंमुतियाएनि 'इस्य य सहसम्मइया जं एदं' गाहा (६५-२०) पढियव्या, एसा चउबिहावि सहसंमुइया आतपचक्खा भवति, परवागरणं णाम सन्चनाणीणं तित्थगरो परो-अणुत्तरो, वागरिज्जतीति वागरणं परस्स बागरणं परं वा यागरणं परवागरणं, परस्स वा वागरणं परोवदेसो जहा गोयमसामी तित्थगरवयणेणं इंदनागं संबोधति-भो अणेगपिंडिया! दीप अनुक्रम [१-१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [24] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] (०१) श्रीआचा- चूर्णि प्रत वृत्यंक [१-१२] MARImastim madhe RandiNNNNNN PurnimaHAIRCRAITANDARI एगपिंडिओ ते पुछद, जहा वा सुलसं समणोवासियं अंबडो परिवायओ, अन्नेसि वा अंतिए सोचति तित्थगरवइरितो । जो अण्णो केवली वा ओहिणाणी वा मणपजवनाणी वा चोदसपुव्वी वा दसपुष्वी वा णबपुन्नी वा एवं जाघ आयारधरो वा सामा| इयधरो वा सावओ वा अण्णतरो वा सम्मद्दिडी, तिण्हं उपलद्विकारणाणं अण्णतरेणं जाणइ, तंजहा-पुरस्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, पण्णावगदिसाओ य भावदिसाओ य सबाओ गहियाओ भवंति, अहवा अप्पवयणं नातं भवति, अहवा जम्म मच्चु जाग(ज)रादिया संसारिभावा णाआ भवंति, एवमेतं जहोद्दिट्टकमेणं एगेसिं गातं भवति, अहवा एवं मण्णे जहेब दिसाविदिसाओ ताएगेसिं गतिरागई णा भवति तहेव इमपि णातं,'तंजहा-अस्थि मे आया उववातिए,' आया अदृविहे तंजहा-दवियाता। कसायाता. 'दविए कसाय जोगे उवजोगे नाण दंसणे चरणे। विरिये आता(य) तथा अट्ठविहो होइ नायब्बो।।१।। एवमादी,उबबादी | संसारी, अण्णो सरीरानो अमुत्तो णिचो य अब्भुवगतं भवति, जेण संसरंतोन विणस्सइ ण य अकम्मस्स संसारो तेण कस्सा(म्मा)वि हि सम्बगतस्स संसारो तेण ण सव्वगतो, णहि णिग्गुणस्स कयत्तणं तेण गुणीवि, जो इमाओ जहा परूवियाओ दिसाओ अणुदिसाओ य अणुसंचरइ धापति गच्छति वा एगट्ठा, अणुगयो कम्मेहि कम्माई वा अणुगतो संसरति अणुसंसरति, पुचि तप्पाउम्गाई कम्माई करेइ पच्छा संसरति, अणुसंभरति वा बत्तन्वं, जहा भट्टारएणं असंखेजाई जम्माई संभरिता गोयमसामी भणितो-चिरसंसिट्ठोऽसि मे गोयमा! अहवा जो एग भवं सम्पपजवाहे अणुसंभरति सो सबभवग्गहणाणि सबपजवेहि अणुसंभरति, ओहिणाणी कोई संखेजाइ उबलभित्ता मन्नइ-जो एयाओ दिसाओ वा अणुदिसाओ वा अस्सिओ धावति सोऽहं, एवं चेव अण्णस्स अक्खाइ, जहा मल्टिसामी छाई रायाणं 'किंथ तयं पम्हुई ? जत्थ गयाओ विमाणपबरेसु । बुज्छा समयणिबद्धं दीप अनुक्रम [१-१२] ॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [25] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] (०१) श्रीआचा- रांग सूत्र- चूर्णि ॥१४॥ प्रत वृत्यक [१-१२] देवा ! तं संभरह जाति ॥१॥ जह एवं कोई सहसंमइयाए जाणइ जहा सोऽहं तहेव अनो परतो अण्णाओ वा सोचा अणेगहा लोकादिजाणाविओ अप्पाणं पचमिष्णाइ जाव सोऽहमिति, जइबा कोई भणेजा भणितं मट्टारएणं-अप्पा अस्थि, न तस्स लक्वर्ण उवदिहुँ, ।। वादिता भण्णा-भणितं सोऽहमिति, इह निरहंकारे सरीरे जस्स इमोऽहंकारी, तंजहा-अई करेमि मया कयं अहं करिस्सामि, एयं तस्स | लक्वर्ण जो अहंकारो, भणितं अप्पलक्खणं । इदाणी पगतं भण्याइ-से आआवादी लोगावादी कम्मावादी किरिया-1 वादी' (५-२२) जेण एवं अप्पा जहुद्दिट्टउवलद्विकारणाणं अनतरेणं उवलद्धो से आयावादी-आयाअस्थित्तवादी, णो गाहिवादी, DD लोगवादी गाम जहचेच अहं अस्थि एवं अनेवि देहिणो संति, लोगअन्भतरे एव जीवा, जीवाजीवा लोगसमुदओ इति, भणितो | लोगवादी, अकम्मस्स संसारो पत्थि तेण कम्मवादीनि, तस्स बंधो चउन्धिहो पगतिठितिअणुभागपदेसबंधो य, सो यण | विणा आसवेण तेण आसनो भाणियन्चो, आसवो किरिपाए भवति, मणियं च-"जाव वगं एसजीवे सपासमियं एपति वेयति || चलति ताव ण तस्स अंतकिरिया भवति, किरिया य जीवस्स अत्यंतरभूताण भवति तेण भण्णति 'अकरिसु' वऽहं करेमि वऽहं' अहवा णिचत्त अन्नत्तकचित्ते सिद्धे एतं सिद्धं भवति-'अकरेंसु वऽहं करिस्सामि चऽ' अहवा तिकालकजववएसा आया अप्पचक्खो, तत्थ काइयं वाइयं माणसिय तिविहं करणं, एक्केक्कं कियं कारियं अणुमोदियमिति, तेण भणा-'अरिंसु बह करेमि बऽहं करिस्सामि वऽहं' तत्थ करेसुं बह-सय कियं वा एवं कारावियं वा अणुमोदितं वा, एवं बमाणेऽवि करेमि कारवेमि अणुमोयामि, | अणागतेऽवि करिस्सामि कारबिस्सामि अणुमनिस्सामि, एएसिं पुण नवण्हं पदार्ण दो आदिपदा गहिया अंतिम च, अवसेसा । पुण अणुचावि अस्थतो सहअंति, एवं जोगत्तियकरणत्तिएणं गवओ मेदो जोए नायबो, अतीतग्रहणा अतीताणि येव भवग्गह दीप अनुक्रम [१-१२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [26] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] (०१) प्रत वृत्यक [१-१२] श्रीपाचा-हाणाणि सविताणि, अणागतग्गहणा एस्साणि, एतावंति सव्वावंति' एत्तिओ पंधविसओ, अद्दवा उदुमहतिरिय सम्वावंति, योनि रांग सूत्र- आहवा एतिय पंध, एतेति तिस्थगरवयणं, तंजहा अकरेंसु वऽहं करेमि वऽहं करिस्सामि वऽहं 'लोयंसि कम्मसमारंभा' चूर्णिः पच्चक्षतरंमि लोए-जीवलोए दुबिहाए परिणाए परिजाणियव्या, अपरिणायकम्मस्स के दोसा, भकति 'परिषणायकम्मे ॥१५॥ खलु अयं पुरिसे' (८-२३) पुनो सुहदुक्खाणं पुरिसो पुरि सयणा वा पुरिसो, सर्व सपाणुस्स प्रत्यक्षमितिकाउं तेण भण्णति-अयं पुरिसो. अहवा जो विवक्षितो असंतपुरिसो तं पडुच्च भण्णति-अपरिणाय०, अयं पुरिसो दिसाओ भावदिसाओ य अट्ठारस, पावगं पहप छदिसानो सेसा सन्चाओ अणुदिमाओ, पूणरुचारणं ण हि काति दिसा अणुदिसा वा वियते जत्थ सो णो संसरति, 'साहेति' सह कम्मणा, म किं तेणेच अपरिण्णायदोसेणं 'अणेगरूवाओ जोणीओ संभवंति' अणे-IN गरूबा णाम चउरासीइजोणिप्पमुहमयसहस्सा, अहवा सुभासुभाओ अणेगळंबाओ, तत्थ सुभा देवगतिअसंखेजवासाउयमणुस्स-1 राईसरमाईभाओ गोनेवि जातीसंपण्णाति, सेसाओ अणिड्डाभो, अहवा देवेमुवि अभियोगकिचिसियाति, असुभा तिरिएसुधि । | गंधहस्थी अस्सरतणाणि सुभाओ, पगिदिएसुऽवि जत्थ वष्णगंधफामा इट्ठा कंता, स सम्मं सुभानुभकम्मेहिं धावति संधावति, सम्बओ एगो वा धावति संधापति, संधेति वा पटिअति, तत्थ संधणा दग्ये भावे य, दव्वे छिन्नसंधणा य अच्छिन्नसंधणा य, तत्थ छिन्न| संधणा दसियाहिं वागा वागेहि या रज्जू, अच्छिणा बलूतो मुतं वहिजति, भावेवि दुविहा, छिण्णा जो उवसामगसेढीपडिवडतो | पुणरवि उदइयं भावं संधति सा छिष्णसंधणा, अच्छिष्णा मो व उपरि दंतादिविसुज्झमाणपरिमाणो अपुब्बाई संजमट्ठाणाई m संघेति, एवं खाएवि, नस्स पृण पडिवातो णस्थि, अहवा संदधाति अहवा संधारयति, एता जोणी संधावतस्स को दोसो ?, भण्णति- ॥१५॥ दीप अनुक्रम [१-१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [27] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] (०१) श्रीआचाराग सूत्र कर्माश्रवाः ॥१६॥ प्रत वृत्यक [१-१२] D. 'अणेगरूवे फासे पडिवेदेति' अणेगाणि रूवाणि जेसि ते अणेगरूवा, आदिरंतेण सहिता, एगग्गहेण गहणं, तेण गंधरस रूवसद्देवि विविधे वेदेति, पच्छाणुपुची एसा, जेण फरिसवेदगा सब्वेसि संसारीणं पजत्ताण अस्थि एगिदिएसुवि अतो गहणं पजतोऽवि पढम फरिसं वेदेति तेण तम्गहणं, किंनिमित्त से संसारिय कम्म वञ्चति ?, भण्णइ-तत्व खलु भगवया जाव |दुक्रवपडिघातहेउं' (१०,११-२५) तत्थेति तत्थ बंधपगते, खलु विसेसणे, किं विसेसयति?, जाणणापरिण विसेसयति, ता एएणं बच्चद, किं निमित्तं सो तेसु कम्मासवेसु बट्टमाणो अणेगरूवाओ जोणीओ संसरति ?, भण्णइ,'इमस्स चेव जीवियस्स' इमस्स चेव माणुस्सगस्स, जीविजइ तेण णेहपाणवमणविरेयणअब्भंगणण्हाणसिरावेहादीणि करेइ, रसायणाणि य उव जिजइ, परबलभयाओ बलं पोसेइ, तनिमित्तं च दंडकुडंडेहिं जाणवतं पीडेति, परिवंदणं नाम छत्ती अविलिओ होहामि, वण्णोवा मे भवि| स्सइ, तेण णेहमाईणि करोति, मल्लजुद्धे वा संगामे वा संसारादि चलकरं भोत्तूर्ण णित्थरिस्सामि तेण सत्ते-हणति, इदाणिं माणणा| निमित्त, जो णं अब्भुट्ठाणादी ण करोति तस्स बंधवहरोहसनस्सहरणादीणि करति, तेण दिट्ठपरकम्मरस अन्भुट्ठाणादीणि करेंति, | अहवा घणं अजिणति बलसंग्रहं करेति विजं वा सिक्खइ वरं परो सम्माणेतो बत्थादीहि, जो बाण सम्माणेह तस्स पंधणादीणि | करेइ, वर भयं विणीय होइ। इयाणिं जाइनिमित्तं घिजातियाण जीवंतदाणपाई देंति, जं वा सजातिउत्ति तन्निमित्त आरंभं | | करेइ, मरणेत्ति करदुयादीणि कारवेइ वा, जहा कत्तविरियावराहे, भोयणाएनि करिसणादिकम्मेहिं पवचमाणो तसथावरे विरा। हेति, मंसनिमिनं छगलसगरतित्तिरादि, दुक्खपडियायहेउत्ति आतंकाभिभूता रसगादिहेउं बगतिचिरादीहि य एकुडियाउ पकरेंति निष्हवणादीणि, सहस्सपागओसहसंभारहेउं मूलकंदावि विराहेति, जं वा दुक्खं अस्स जेण विणयइ जहा सीतवासपरिचाणणिमित्वं दीप अनुक्रम [१-१२] १६॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [28] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] (०१) श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥१७॥ प्रत वृत्यक [१-१२] - इट्टापागादिएसु तसथावरेसु बिराहिता गिहादीणि, परिस्संतो जाणं या अमिलसइ, 'एतावतो सब्वावंती एनिमिर्च पंचि- कर्मपरिणा दिया संता सत्तबहेसु पवर्तते, तं जहा केवलनाणेण जाणित्ता एव इहमेगेसि णो सण्णा भवतित्ति आदि जाब दुक्खपडिधातहे । पवेदितं, जं वा संसरति जहा यज्झति जं च उवरि भण्णिहिति तं च एतावंति सव्वावंतिगहणेणं दरसियं भवति, लोगस्स कम्मस्स | परि०, असंजतलोगस्स लोयंमि वा कम्माईति-कम्मता तेसु मणोवाचकाइया किपकारितअणुमोदिता दुबिहाए परिणाए परि याणिता मवंति जस्सेते जेसि वा एते इयाणि दुविहाए परिणाए परिणाया 'से हु मुणी' मुणेइ जग तिकालावथं तेण भुणी, परिष्णायकम्मो णाम जाणिऊण विरतो, इति परिसमत्तीए, बेमित्ति गोयमसामिप्रभृतीर्ण सिस्साणं, एयं पढमुद्देस तत्थऽस्थत्तो अधित्ता भगवं आह-संयं जाणामि, णो परपचएण, अअसुहम्मो वा अञ्जजंबुणाम भणति, सयं अहं एयरस मुयस्स कचा अतो |बेमि इति, सत्थपरिणाअज्झयणचुण्णीए प्रथमेऽध्याये प्रथम उरेशः समाप्तः ॥ स एव वयणपगरणगताधिगारो अणुसञ्जति, दीसो तं वा, सत्थपरिणति अज्झयणति, तत्थ पढमउद्देसी देसणनाणाधिगारेणं गतो. लोगंसि फम्मा परिण्णाया भवति, चरिताधिगारादि अस्थि, सेसेस सो चेव नाणदसणाधिगारो, अहवा स मुणी परिण्णायकंमिति / अंतिमसुतं, तस्स पडिवक्खत्तओ अपरिष्णायकम्मा इमेसु जीवनिकापसु उपवञ्जा, तंजहा-पुढविकाइएसु आउकाइएस तेउकाइ-IN एसु बाउकाइएसु वणस्सकाइएसु तसकाइएसु, तत्थ पढम पुदविकाइयं भवति, आदिसुचेणाभिसंबंधो-सुयं मे आउर्स ! तेण भग-2 वया एवमक्खाय ?, इमपि सुतं चैव-'अड्ढे लोए परिज्जूणे', अहवा गो सण्णनि, सा कई न भवति ?, आह-ण णाया भवंति, तंजहा-पुढचीए निक्खेबो परूयणा' गाहा (६८-२८) 'णामं ठवणादविए पुढवि' गाहा (६९-२८) ॥१७॥ दीप अनुक्रम [१-१२] ( पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम अध्ययने द्वितीय: उद्देशक: 'पृथ्विकाय' आरब्धः, [29] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], नियुक्ति: [६८-१०५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३-१७] (०१) रांग पत्र चणिः ॥१८॥ प्रत वृत्यंक [१३-१७] दव्वं सरीरभविओ गाहा (७०-२९) आगमओ नोआगमओ य, आगमओ जसणं पुढवि०, गोमागमओ तिविहा- पृथ्वी जाणगसरीर० भवियसरीर० बहरिना, तत्थ बहरिचा एगमविय बद्धाउया अमिमुहणामगोयाई, भाव. पुढवीणामगोयाई HEL निक्षेपाद २ उद्देशः कम्माण वेदेमाणो जीवो भावपुढवी, गवो णामनिफण्णो निक्खेबो। परूवणा 'दुविहा थापरपुढवि' (७२-२८) गाहा ।।। 'पुढवी य सकरा चालुगा य एवं चत्वारि गाहाओ (७१,७४,७५,७६-२९) जान जलकतो सूरकतो 'वण्णरसगंधफासे| PM गाहा (७७-२९) वण्णादेसेण गंधक रस० फासादेसेण सहसम्गसो संखेजाई जोणीप०, तंजहा-किण्हो किण्हतरो किण्हतमो एवं एकेके वणगंधरसफासे संजोगनिष्फण्णेसु वण्णादिसु संखेजाई जोणीप० 'जे बादरे विधाणा पजत्ता' गाहा ((७९-१९)" 'रुक्खाणं' गाहा (८०-३०)'ओसहीतण' गाहा (८१-३०) 'एकस्स' गाहा (८२-३०) 'एएहिं सरीरेहिं' गाहा (८३-३०) इदाणि लक्खण 'उबजोगों' गाहा (८४.३०) एयाण्ण उवजोगादीण सुत्तस्स मुच्छिपस्स या जहा अवत्ताणि 'अहिं जहा सरीरंमि अणुगतं' गाहा (८५-२१) इदाणि परिमाणं 'जे पादरपज्जत्ता' गाहा (८६-३१) 'पत्येण व कुलएण व' गाहा (८७-३२) लोगागासपए गाद्दा (८८-३२) 'निउणो य होइ' गाहा (८९-३२) 'अणुसमयं च' गाहा (८९-३२)। एगसमएण केवइया उववअंति?, असंखिजा लोगा, एवं उबवतावि, सम्बो चेव काओ असंखिजा लोगा, संचिडणावि असंखिजा लोगा। इदाणि उवओगो-'चंकमणा य' गाहा 'आलेवणा य' गाहा 'एएहिं गाहा (९२, ९३, ९४-३२) इयाणि'सत्थं हलकुलिय' गाहा (९५-३३) 'किंची सकायसत्यं गाहा (९६-३३) इयाणि वेयणचि 'पायच्छेयण' गाहा (९७-३३) 'णस्थिय सिपंगभंगा' गाहा (९८-३३) इदाणि चवणत्ति, जस्थ ण लजमाणो तत्थ 'पचदंति च अणगारा' IDIT१८॥ दीप अनुक्रम [१३-१८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [30] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत नृत्यक [१३-१७] दीप अनुक्रम [२३-१८) श्री आनारोग सूत्रभूणिः ।। १९ ।। भाग-1 "आचार" अंगसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१] उद्देशक [२] निर्बुक्तिः [६८-१०५] [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १३-१७] - गाहा (९९३३) अणगारवाणी' गाहा (२००-३२) कई सयं वह' गाडा (१०१-३४) अण्णेय गरूपाति 'जो पुढवि समारभते गाहा (१९२-३४) पुत्रविं समारमंत्रा' गाहा (१०३-३४) इदाणि णिनिति एवं विया गिऊ गाहा (१-४-३४) से मुणी परिणायकम्मेति मिति गुत्ता गुत्तीहि गाढ़ा (१०५३४) अड्डे लोट परिजुणे (१०६-३४) पदच्छेदेकते र बट्टी नगडादिचकाणं एकती दूरतो वा वरिताओं आचालिअंति सो बट्ट मण्णति, कंबले पत्ताधमादि वा सरहा (हाइ), भावदोषही तेहिं संपीडित जीवचक संसारचक्के अणुपरीति, अडवा पंचहिं इंदियविसपदि अवा कसायदही, या दंसणमोहं चरितमो यमिच्छनमोदो अभिगहियअणभिरंगहि तेहिं चरिमोदो कसायणीकसा मोहविजेण, अवा अडविण कम्मेण लोगस्य अद्भुविदो विक्खेवी, अप्पसत्येण जीवोदय भाव लोगेण अहिगारी, तत्थवि सचीपंचेदिय लोएवं जी सम्मनं चरिचं या चरिताचरितं वा पडिवजेजा, अवा सब्वणं लोगेणं अहिगारो, जओ अट्टो निच्चयं नियतं वा ऊ परोसतो वा ऊ सोरगी दरिदो, जो बाद म लगोडविन लमइ, तिसिओ पाणियं बुद्धिन असणं आउरो मेस एवमादि परिज्जूणो नागादीहिं जुण्णी परिजुनोचि वाइ, जहा जिणं सरीर बेरीओ रुखो, अभिणी पडो जिणं गिहं सग पा एवमादि, मावजुष्णो उदश्य भाव उकडो य सरथनाणादिभावपरिक्षीणो अनंतगुणपरिहाण, जहा व विकास अक्खरस्य अनंतभागी उम्पाटो, बोहणं बोही, दुक्खेण स दुक्खवोही, सी एवं अज्झाणेण दुलोधी व लोगो भवति, जह मे अजो, असंबोदी वा अदा मदत्तो, को देऊ ?, अयाणचं, जति अण्णाणतणेण परिजुमो परिणने मंदचिमणी मंदविण्यातणेण दुस्वीही, एवं परोपकारणं परेसिं पृथ्वी निक्षेपाद २ उद्देशः [31] ।। १९ ।। पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१३-१७] दीप अनुक्रम [१३-१८] श्री अचा रंग सूत्रचूर्णि ॥ २० ॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [ ६८-१०५ ], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १३-१७] पदार्थ, एवं अड्डातिदोसजुवस्स किं भवति, भण्यति अस्सि लोगे पहितं' अस्मि जीवलोए वा सयमेव हि संबंधिते | पव्वहिते सम्मेहिं अत्तावि णं बंधेति, अहवा अड्डों परिजुष्णो अयाणतो अमिलोए पथ्यहिते 'तत्थ तत्थे ति तेसु तेसु कारणेसु पुढविसमारंभेणं विना ण सिज्यंति, तागि समारभति, अहवा पतेयं पलेयं तेहिं तेहि करणेहिं हलकुलियकुद्दालमा दिएहिं देवउलसभाघरतलागसेतु अगडधातुनिमित्तादी पिधपिई, 'पस्से 'ति सीसामंतण 'आतुरा परितावेति'ति अट्टत्तणेण आतुरा, जह वा एगस्स रणो किंचि सचितं वा अवि महरिहं द्रव्यं अवधितं, ते जगरगुत्तिया भणिता-जह एवतिएण कालेणं ण उद्वावे चोर तो मे सीमं छिदामि तेदिं मच्चुभयातुरेहिं कहाँचे गवेसंतेहिं चोरा उबलद्वा, गहिया य, तेण पडिवअंति, ततो ते मरणमवाउरा नाणाविहाहिं जायगाहिं परितावंति, एस दितो. एवं अट्टकम्माउरा मणुस्सावि जीविगा मरणमया विसयाभिलावणां य पृढविकाए णिचिणा णिरणुकंपा य परिवाविन्ति हलकुलियकोदालादीहिं, 'संती'ति विनंति पाणा-आउपाणाति जं भणितं, ण जीवा अजीवा, आजीविगपडिसेहत्थं चकम्महणं, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखिजा, 'पुटोमिति' चि पुढविसिता, अहवा पिपि अस्मिता, जे भणितं पत्तेयसरीश एवं पत्थवमखो ?, भण्यति पुणो- 'पुढो सिय'ति अत्थ परिणते दोस, सत्यपरिणत अचित्ता भवति मन्थपरूवणा जहा पिंडनिज्जुतीय, सचिताय अन्नपरूवणा जहा पण्णवणाए, लक्खणं तु आई जं वा सरी अविवरणमा कुतित्थिगाणवि आगमसिद्धाणि जहा आरोप्पादि, किमंग पुण सब्बणं १, भाग च- "जिनेन्द्रवचनं हेतुभियद गृह्यते । आज्ञया तद्धहीतव्यं नान्यथावादिनी जिनाः ॥ १ ॥ जे पुण पचया नाटकाइए जीव म उ सह निमाणा त्रुटी पास लजा दुविहा- लोगिगी प लोउचरा य, लोइया पृथ्वी कायः २ उद्देशः [32] ।। २० ।। पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१३-१७] दीप अनुक्रम [२३-१८) भाग-1 "आचार" अंगसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१] उद्देशक [२] निर्बुक्तिः [६८-१०५] [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १३-१७] श्रीजात्रा गंग मूत्र वृर्णिः ।। २१ ।। - मसुरादणं पडूमा लमाणी णहमति वा मुंजति एवमादी वाणयओ वा अललाम घरं पवितो लजति, लोउचरे संजम एव लजा, भणियं च "लना दवा संजम भने" असं कार्ड लज्जति, पुडी णाम पतेये २, पास पचकखाणाचा ढवि समारभतो लज्जति अवाने लजमा पासादि, कृतिस्थिर पुणे लज्जणिज्जेवि विषयामा अडिए परिजुष्णे दुस्संबोधे अवियाण परिणाहारादीका रोटि कुलियकोदालादीहि सत्येहि समारभंति, 'अणगार'नि अगा रुकवा तेहि क अगार अगार से पत्थ ते अणगारा, दवे चस्यादि, मावे अणगारा माह. ते सीलिंगमहस्रकखण्ड पृढचं पण समारभंति, इतरे पुण निणि निसट्टा पाया पति अणमारा गाहा (१९३३) लोपण अणगारा भण्णमाणा भण्णंती पूयासक्कारहेड पुर्ण पाति 'अणगारादिणो विहिं नाहा ( १००० ३३) मलिशवर अप्पार्ण करेंति, पुढविसमारंभविरण दुगुद्रमाणा, जाम धन्थं कदमोदरण पुन्यमाणं एवं ते जे नेव दूमेति तं चैव करत शेवा, जटा एककमि गांमे सुइबीडी, तस्स ग्रामस्य एगस्य हि केणता चिपनि तो उसकी महियादि से हाति अदा यस्त गिहे बलद्दी मतो. कम्माशिवडते भणिय-संधि (सोनीष, वं च ठाणं पाणिणं यावद, निप्फेडिए चंडाला उडता विचियं कुज्ज, हिं कम्बोपुकिओ चंडाला दिग्ज, तम वृर्णमा किंतु किंतु किंतु किम्बुति भणति, विक्रिचतु मयं एवमेव सं दामयगाणं देव चम्मेण वयाउ वह सिंगाणि उच्छुवा कीरहित मिस्सि डिडिवि धूमो कज्जहिति उनीण, पहारुणा मत्थकंडा मविस्व एवं पवि जहा परिवर्त एवं अण्णतित्थियानि तं चैव दूति चेत्र करेंति, दामाद करे हिंसे नोयया च यासोक तणावगमादिपरिग्गडो, हलकु ला शुविबोधः २ उद्देशः [33] ॥ २१ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], नियुक्ति: [६८-१०५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३-१७] (०१) प्रत वृत्यक [१३-१७] श्रीश्राचा- Wलिएहि हिसंति, कहं अणगारा ण भवंति ?, भण्णति-'जमिणं विरूवरूवेहि जमिति अणुद्दिढ इदमिति पञ्चक्खवयणं, अविकितो पृथ्वीशस रांग सूत्र पुढविकाओ, स एव चुतो भवति विण्णाणामाबे, स हिंसिञ्जति जेणं तं सत्थं, विविधाणि रूवाणि जेसिंतेसिं उवभोगेहि हेउहिं विरूव- २ चूर्णिः वेहि सत्येहि वहेहिति हलकुलियादीदि, किंचि सकायसत्थं पुदविकम्म समारभंति, जं करेइ तं कम्म, पुढवीए कर्म २,तं तु खणणं | ॥२२॥ बिलेहणं वा, पुढविसत्थंति पुढविमेव सत्थं० अप्पणो परेसिं च, हलादीणि या पुढत्रिसत्थाणि ताणि समारभति, अणेगरूवेण एग-1 स्वे सण्हबादरपुढविमेदो, सुहुमाणं बादरं सत्थं ण होति, सुहुमाणं परोप्परतो होइ, किमत्थं पुढवी विभज्जति , भण्णति-'तस्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया इमस्स चेव जीवितस्स' 'तत्थेति तर्हि पुढविकायीए खलु विसेसणे जाणणापरिणाए पञ्चक्खाणपरिणाए, अहवा पञ्चकखाणेवि एवमादि उवभोग न कुजा, इमस्स चेव जीवियस्स-जीवियकारणा धातुं धर्मति करिसNणाणि य पगारादीए प, एवं अाणवि जावि दुक्खपरिघायहेउंति, सप्पो खदो कदमं खाया, पिसायरस कूर्व खणंति, सयमेव | पुढविसत्थं करिसगादि अण्योहिं विहिज्ज कारवेडिंति अणुमोयंति उवजीवंति पसंसति य, एत्थ जोगत्तियकरणत्तिएण य तं पुण Hi अदाए या तं सहिताएत्ति, अहियाए संसारे भवति, चिरेणावि चोहि ण लभइ, लद्धाएविण करेति, अपायोटेजणो पालइति, अहवा-101 वायो दंसितो 'से तं संबुज्झमाणे स इति णिदेसे, तंति जो भणितो तदारंभो तं संधुज्झमाणो, सिक्खागो वा भण्णति-से तं संबुज्झमाणो आदाणिओ-संजमो तं सम्म उहाए समृट्ठाए, अहवा आदाणिो-विणओ तं सम्मं उट्ठाए, ण मिच्याविणएणं उदायिमारगो व, पुच्वं समुट्ठाए जहा भट्टारगं गोयमो, सोच्चा भगवतो सगासे, अणगारेणं वा तप्पुरिसो अणगाराणं चरगादीणं पत्तेयबुद्धाणं वा, एवं एगेसिं रागदोसरहियाणं कयसामाइयाणं सिस्साणं गणहरेहिं पवेइयं जहा पुदपि जीवे, तदारंभो य अहितो, ॥ २२॥ दीप अनुक्रम [१३-१८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [34] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], नियुक्ति: [६८-१०५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३-१७] (०१) प्रत वृत्यक [१३-१७] G! समारभमाणस्म एस खलु गंधे एवं (स) भोहे एस खलु मारे' एस अवधारणे खलु विसेमणे गंधो पदविकाइयवहेणं | प्रथादित्वं रांग सूत्र-0 अट्टविहो कम्मगंथो भवति, कारणे कज्जस्स उवयारा भण्णति एस खलु गंथे, 'मोहिनि अप्पाणं अवसो मोहणिज्ज, 'मारिति२ उद्देशः चूर्णिः आयुगं सूयितं, दुक्खगहपोण वेदणिज्जं, एवं सेसियाओवि पगडीओ एकाओ पुढविवधातो बझंति, एवं मोहेणवि के०, अहवा | एसो पुढविवधो गंथे मोहो संतो विग्धो मोकस्स मोक्खमम्गस्स बा, 'इचत्थं गदिए लोएति इति एत्थं पुढविकाए आहारोवगरणविभूसाहेऊ मुच्छिओ गडिओ गिद्धोति वा एगई, एत्थ गडिओ किं करेति ? 'जमिदं विरूवरूबेहि सत्थेहिं' पुर्व भणितानि, जं करेति तं कम्म, सत्थंपि सकायमत्थं परकायसत्थं च कुद्दालालिचादीहि अण्णे व गाणारूवेहि पुढविधायं छकाया, मणियं च-'पुढविजीवे विहिंसंतो हिंसति तु तदस्सिते, जे ण पस्संति ण सुणंति सि कहं वेदणा उप्पज्जद', 'से बेमि' सोऽई अवीमि, अप्पेगे अन्धमज्झे अप्पेगेधमच्छे ण गच्छंतीति अगा अंधो अपि एगे अपि अंधे अमेदिति भिंदे अच्छेदिति छिंदे, तत्थ थावरसंघे अगा अंधो य जहा पुरिसो कोइ अंधोवि पंगुलोवि केवलं रुंडमेव जातो मितापुत्तो जहा जाव ते उववातो बेईदिय तेइंदिय अपंगुत्तेवि य च समासेणं भयणा, तत्थ दवंधे अंधलश्रो, भावांघो मिच्छादिट्ठी, जहा तं अगं अंध वा सिरकबाले अबत्य वा खरपदेसे कोइ भिंदति छिदइ वा किं तस्स अपस्सतोचि वितणा ण भवति १, एवं पुढविकाइयाणवि अगछंताणं सुरमयाए अप्प संघयणाणं फरिसमिणवि मारणे अतुला वेदणा भवति, जहा पंचिंदियाण पदे सूपीइ कंटपण या विजामाणाणं अणुत्तरेण सत्येण | 0 मिज्जमाणाणं चेदणा भवति तहा पुढविककाइयाणवि अस्थि ते पदेसा तित्थगरदिट्ठा आणागिझा पादत्थाणीया, एवं खलुअग जाव | ID सीस, अप्पेगे संपमारए अप्पेगे उद्दवए संपमारणा मुच्छा मुमुच्छा वेति, 'णत्थिय स अंगमंगा गाहा(९८-३३) पाणाणं ||1|| दीप अनुक्रम [१३-१८] INDIA पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [35] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], नियुक्ति: [६८-१०५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३-१७] (०१) REPRENESH प्रत वृत्यक [१३-१७] श्री आचा- गामण उरवण, महा पा मुच्छितो रिमी छिनी मिना या खारेण या खाग छितो वेदेति एवं वीणगिदिकम्मदएणं णिसपृथ्वीवेदना मुच्छिता स वेदणं बेटेनि, 'm' पृहविककाम मन्थनि किंची मकायसन्थे, सब्वेवित्ति आरंभा, जे ने हलकुलियादि, अहवा अप्कायः चूर्णिः Aपादभेदादि एतेण अवक्खिता जे अयं तदम्बिता नमादि, जहा दवग्गिदायगो तणम्म, तेण अहिकखद, कुई वा पाडेतो ३ उद्देशः ॥ २४ ॥ चिनकम्म, जो वा गभिर्माण मारनि यो तं गम न अविकरखइ, एम दिटुंतो, एवं पुढविलादीहि समारभमाणो नदस्सितजीवे ण | अविकरवति, दृविहाए परिण्याप पाल्य भन्यं असमारभमाणम्स' कंट, ने परिणाया मेहावी, नमिति तं जहा उद्दिष्टुं पुढवि यसमारंभ गरिष्णाय विहार मेरावाहिण अहिमागे, गहणधार मजुनोति इच्छिज्जा, व मयं पुढविसत्यं सत्यहलादीहि जोग-1) तियकरण नियएम, जस्म ने बहुट्टिा पुरविक मममारमा खणणविलेरणा जनिनिनं च पुढवीं ममारंभनि तंनिमित्तो य कम्म पंधी, अविहो गई परिणानि य, मन्ब रथ जदिटुं दुविहाए परिणाए परिणतं भवतीति, म मुणी परिष्णायकम्मा 1 मयंतीति, जैमिनि नदेच, पर्व मन्थपरिणाअायणपणी विनिओ उदमो समामः ॥ णिज्जुतिगादानी परितसिवानी (१६.१५५ ३५) उदयाभिसंबंधी-मुणी परिणायकम्मेनि, इदवि सो चेव मृणी से बेमि, उनिया कणगारे अणमानिया मिनि का एगहा, पाय मतपरिहारेण यम्मन भुणीलकखणं भवति, अन्बेहिवि काएदि परिण! कम्णा भावनम्बं. तन्य आउकायमधिकिश्च भवनि-से मि से इन णि मो, जेण प्रकारेण जहा, अणगागे मागतो, जहा पुर्व परिहारला अणगारी भवनि एवं उदकषि, अचि समावणे, अवि भवति अविण भवति, मी जहा भवति जहा नयम नाइप मि-'उसको ति रिज-गंजमो रिर्जु करातीनि उज्जु कडे, अहवा पगाण अजय-अबंकमहाची ॥२४॥ दीप अनुक्रम [१३-१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: | प्रथम अध्ययने तृतीय: उद्देशक: 'अप्काय' आरब्धः, [36] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], नियुक्ति: [१०६-११५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८-३०] (०१) प्रत वृत्यक [१८-३०] | श्रीआचा-IN अप्काया भणित होति, अवामसीली, णिकाओ णाम देसम्पदेसबहु णिकार्य पडिवाति, जहा आऊ जीवा, अहवा णिकार्य-णिञ्च मोरांग सूत्र खं मग्गं पडिवण्यो अमार्य कुबमाणो णे पडिलिपिस्सिचिवकादीणि अमायमेव सेवति, एवं अलोभमवि, वियाहितो अक्खाए,) चूर्णिः पच्छतो गरूयं सामन्नतिकाउंमा तहाइओ उदगं पिबिहिति वा, हाहिति वा, तेण भणति-'जाए सद्धाए णिवंतो' ॥२५॥ | (२०-४३) पायं पच्चयंतो बडूमाणपरिणामो भवति, तमेव बद्माणपरिणाम फासए, जं भणितं आसेवए, संजमसेढीपडिबष्णो बर्माणपरिणामो वा हीयमाण अवहितबुड़ी वा, हाणी वा जहण्योण समओ उक्कोसेणं अंतमुहुन, अबडितकालो दोसु जहण्णम-10 | ज्झासु अट्ठसमया, सेसेसु णत्थि, तं छउमत्थो णिच्छएण ण याणति-कि मम परिहीणं परिवति वा?, केसु वा वदामि ?, अहवा कोइ एक्कगाहाए 'जह सउणगणा बहवे समागया एगपादवे रचिं। बसिऊण जंति विविहा दिसा नहा सव्वणाइजणो ॥१॥ | गाहा, एगबागरणेण वा जहा अइिंसालक्खणो धम्मो, सद्धासंवेगजुत्तो रखादिविभवं छडित्ता पब्बइओ, ण यावलियाए सद्धाए रजादीणि छडिज्जंति, चिरपव्ययस्स सुयामिगमेणं सग्वा बुद्धी भवति, भणियं च-"जह जह मुतमोगाहति अइसयरसपसर-100 संजुयमपुवं । तह तह पहाइ मुणी नवनवसंवेगसद्धाए ॥१॥ तेण जाए सद्धाए णिक्खंतो तमेव अणुपालिया, अहया जइ ण सक्केइ तच्चसद्धापरिणामो होउं तहावि जाए सद्धाए णिक्खंतो तमेव अणुपालिया, जति लामो गस्थि मूलंपि ता होउ, मा सव्वं णस्सतु, एवं जाए सद्धाए णिक्खंतो तंपि ताव अणुपालेहि जावज्जीचाएत्ति, सेहस्स तिहामिभूषस्स अनुसासणं 'तिण्णो हुऽसि । विसोत्तियं तरतीति तिण्णो, सवतीति सोसिया, विसोचिया दब्वे गदी निकादिसु वा अणुलोमवाहिणी सोतिया, इतरी विसोतिया, भावतो असोतं, नाणदंसणचरित्ततवविणयसमाहाणं अणुसोत्तं, तब्बिवरीयं कोहादि, अइरोइज्झाणिया भावविसोचिया, al दीप अनुक्रम [१९-३१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [37] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१८-३०] दीप अनुक्रम [१९-३१] श्रीमाचा रोग सूत्रचूर्णिः ।। २६ ।। भाग-1 "आचार" अंगसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन] [१] उद्देशक [३] निर्बुक्तिः [ १०६-११५] [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १८-३०] - 4 अहवा संका विसोतिया, किं आउकाओ जीवो ण जीवोचि १, एवं तिष्णो कई बद्धमाणपरिणामो ण भणिपब्बो १, भण्णइ'पणता वीरा महाविहिं (२१-४३) मिसं गता पणता अमिमुहीहुया मोक्खस्स बीथी -रत्था वा मग्गो वा एगट्ठा, दब्बे अंतरात्रणविद्दी गोविही संकविही, भावविही महती पवणा वा वीथी महावीथी, मोक्खमग्गस्स, जतिवि कचि पमायखलिवेण ण वदुमाणपरिणामो भवति तहावि लहु पडिबुज्झिता पुणरवि तिव्त्रतरपरिणामो भवति, किंच 'लोयं वा आणाए अमिसमिचा' (२२-४४) लोयंति जीवलोयं आउलोयं वा, आणाए भगवतो उपदेसो, जेऽवि पञ्चकखनाणिणो तेहिंबि पु आणाए अधिगता, अभिमु पच्छा अभिसमेजा, अवा दिडूंतेहिं कहिजमाणमवि आउक्काय लोगं एगिंदियलोगं वा कोह मंदबुद्धी ण सद्दहति तं पडुच इमं भष्णइ 'लोयं वा आणाए अमिसमेचा अकृतोमयं' तिण कुतोऽवि जस्स भयं तं अकुअभयं, अहवा ण कयाइवि भयं करेइ आउकायस्स, तस्य भयं दुक्खं असतं मरणं असंति अणत्थानमिति एगड्डा, जओ एवं तेण भण्णइ 'से बेमि णेव सयं लोयं' अम्माइक्खिज, व इति प्रतिवेषे सर्व अम्भाइक्खड़ जहा एगिंदिया अजीवा, असाणं जो अन्नं वा संत अन्नदा भणति जहा साहुं असाहुति एवमादि, एवं जो ऐगिं दिए जीवे उबगरणदु (पड़) पाये भगति तेज अन्भक्खा भवति, अहवाऽऽउलोगो अविकितो ''ति विजद्दाए ण अम्माइक्खति, नेव सयं अचाणं अम्भारक बेजा, अलातचक्कदितादीहिं अध्यानं अम्माइक्खड़ जहा अहमवि नत्थि तेण छञ्जीवकायलोगो अप्पा य ण अत्थीति वच, इमं अनं गहरागइलक्खणं 'जो एर्गिदियकायलोयं अम्भक्खाइ सो अप्पाणं अन्भाइक्खर, जस्स एमेदिय लोगो णत्थि तस्स अप्पानि गरिव, जो वा अधिक आउलोगं अम्भाइक्ख सो अध्पाणं अम्भकखाइ, कई ?, तस्स अप्पा अनंतसो तत्थ उत्रत्रपृथ्वी, यदि सो णत्थि अप्पाचि णत्थि के पुण अप्कायः [38] ।। २६ ।। पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], नियुक्ति: [१०६-११५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८-३०] (०१) अका प्रत वृत्यक [१८-३०] श्रीआचा-D लोग अम्माइखंति !,जे अहपरिजुण्णो दुस्संधो वा आउरा परिताविता, सीसो भणइ-भगवं! आउकाओ अश्वत्थं दुग्गेझो रांग सूत्र-IAण सुणेति ण पासति णग्याति ण रसं वेदेति ग सुहृदुक्खं दीसंति देता ण चलणंण फंदणं णावि उस्सासो णिस्सासो वा दिस्सइ,। | स कई जीयो, एत्थ दिढुंतो 'जह हथिस्स सरीरं' गाहा (११०-४०) जं च णिज्जुत्तीए आउक्कायजीपलक्खणं जं च | ॥२७॥ अजगोबिंदेहि भणियं गाहा, आयरिएहिं सीसो परियच्छावेयनो, आणाए य सदहणा, आउक्काइए जीवे जो ण सदहन | सो मिच्छादिट्ठी अणगारत्तणं तस्स कतो?,'लज्जमाणा पुढो पास' एस आदत्तं पुढविक्काइयउद्देसयगमेणं धुपगंडिया सुचत्यतो माणियथ्या, अप्पेगे अंधमझे जाव संपमारे य पच्या 'से बेमि संति पाणा उदगणिस्सिता(२४-४५) से इति णिदेसे सोऽहं बेमि 'संति' विजंति पायसो उदए सबलोए पतीता पूतरगादि तसा विअंति तदस्सिता, ण उदगं जीवा जदा सक्काणं, अण्णेसि णवि उदगं जीवा णवि अस्सिता जीवा जे पूतरगादि, ते खिसंभवा ण आउक्कायसंभषा, 'इह च खलु भो अणगाराणं' 'इहे'ति इमंमि पवयणे च समुच्चये, खलु विसेसणे, किं विसेसयति ?-णायपुत्तसिस्साणं अणगाराणं,ण अण्णेसि, उदयजीवे वियाहिते, घसदो उदगणिस्सिता य पूतरगादि, ते ण खेत्तसंभवा, एत्थ भंगा-कत्थइ उदगं तसावि, कत्थर उदगंनो | | तसा, कत्था उदगं निज्जीचं तसा, कत्थइ उदगंपि निज्जीवं तसावि णस्थि, सो पुण आउक्काओ तिविहो, तंजहा-सचिनो अपितो| मीसओ, कई अचिचो भवति ?-'सत्थं चेत्थ अणुवीइ पास' तंजहा 'उस्सिचणा य पाणे'गाहा (११३-४१) किंची सकायसत्थं' (११४-४२) अहवा वण्णरसगंधफासा सस्थ, वण्ण भो उण्दोदगं अग्गिपुग्गलागतं इसित्ति कविलं भवति गंधतो धूम-10 |गंधि य, जत्थ गंधो तत्थ रसोवि विरस चा रसएणं, फरिसओ उण्इं, किंचि उपभूपंपिन अचेयणं जद्दा अणुबनो दंडो, सभावेण | दीप अनुक्रम [१९-३१]] ॥२७॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [39] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [3], नियुक्ति: [१०६-११५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८-३०] (०१) श्रीआचा- गन- 1२८॥ धूणिः । प्रत वृत्यंक महानवोतीरोदगं सचेयणं, जया सीतलीभूतं तदा समावपरिच्चारण अचेयण, लवणमहुरअंबउदगाणं अण्णोष्णं सत्यं, दुम्भि अकायः गं च पापणं अधिन भवति, सकायसत्थे परकायसन्थे भंगा चत्तारि, तंजहा-थो अधोवेण०, एतं सत्थं 'अणुवीय पास'ति सयमतीए चिंतेना परती वा सोतम्ब, न महमा फासुयंतिकार घेत्तब्वं, 'पुढो समथं पवेदितंति बहणि आउक्कायसत्याणि भगवता पवेदिताणि उसिनणे य पाणे, जे कुतित्थिया उदगं पिबंति ते णियमा हिंसगा उदगम्म तदस्सिताणं च, अहिंसं धोसिना तत्कारी नहोसी पभिलंगमउणी वा, अदुवा अदिण्णादाणं ते लोगअगडादिपसु जइवि पुष्पाणुण्णायत्तणेणं ण अदनं नहावि णदीए वा वासोदकं वा उपजीनाणं अदत्तं भवति, जेमि वा ते सरीग तेहिं अगणुण्णार्य, अह सामिअणुणातं मिदोसं नो सामिप्रणाय महिसं छगलं या धानतो णिहोसो भविजा, ग य सो णिहे मो, कुतिस्थिया तेहिं तेहि कारणेहि उदगममारंभ करेंनि नेवि अविरता, तजहा-कप्पड २' द्विमिहिता वीसा केसिंचि पातुं कप्पति, ण ण्डातुं, आजीविमसर वागं च, नाणियाण व्हातुं पातुं च, केमिचि हाणपियणहेतुं मंडोवगरणचरूवमसादीणं पक्वालणहेऊ, केसिवि परिपूर्त, केमिचि अपरिपूर्त, केसिनि परिमिय, कमिचि अपरिमियमिति, अदुवा विभूमापनि विभूमा नाम हाणहत्यपाद मुहबत्यादिघोवणं च 'पुढो नि पत्तेयं महागादिगु बहुसु कारणेमु, अथवा 'पुढो सत्येहिनि पिपिहेहिं मधेहिं उस्सिचणा य पाणे गाहा, 'विउति नि जीविया बबरोवेनि, अहबा डाणादिसु बिउध्वति, पत्धवि तेसि णो णितरणा' जइविण्हाणपियणधोवणादिमु परिमियारंभ करेंनि नहावि ने अविग्या, पाहणं उदगारंभविरयाणं जहाकरणं भवति सर्वप्रकारेण विरता भवंति । एत्य । सर्थ समारभमाणम्य जाच परिममत्तं" ति ।। इति सत्यपरिणाअज्झयणचुण्णी नाओ उसो परिसमत्तो॥ [१८-३०] दीप अनुक्रम [१९-३१]] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [40] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], नियुक्ति: [११६-१२५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ३१-३८] (०१) ॥२९॥ प्रत वृत्यक [३१३८] श्रीआचा तेउकायस्सविणव पदाई वन्नेऊणं स एव जीवणिकायाहिगारो नदीसोतय अणुवचते जहा पस्थिवाणं पवाललवणंकुर- तेजस्कायः रांग पत्र-1 फालियपहाणगजितगसमिफोडगादि तप्पसिद्धीए हेतू भणिता जहा वा कणुया णिचेट्टावि जीवा तहा पत्विवावि जीवा, आउ. ४ उद्देश चूर्णिः कारवि जल(कलल)दगदिद्रुतो वुत्तो, इह तु जीवलक्षणचिदारे वण्णिाजंते जरितस्थ सरीरं उसिणं जहचा खोतओ रनि दिप्पति | या देवसरीरं च सदा दीप्यमाणं ण अजीवो भवति तदा ते उक्काइया दिपमाणा जीवा भवंति, इंधनसं जोगेण विद्धिविगारोवलंभाओ य जीवा तेउक्काइया, सुत्ताणुगमे सुर्च उच्चारेयचं, दुस्सद्धेयं तेउकायस्स जीवत्तं अतो आदिसु भण्णइ-से बेमिण पडिसेहे| 0 लोगो-अम्गिलोगो जहा आउक्काइउद्देसए किंच-'जो दीहलोए सस्थस्स खेत्तण्णों' जे इति अणुद्दिदुस्स दीहलोगो पण्डिइ । PA लोगो, संचिट्ठणाए वणस्सदकालो दवपरिमाणेण व वणस्सइकाइया अणंता, अहवा दिग्धसरीरचा दिग्घलोगो, जोयणसहस्सं| | साइरेग, अहवा सम्बत्थोत्रा यादरा तेउक्काइया पञ्जत्तया, ततो अण्णे जीवनिकाया अर्णतगुणा, ठितीवि अडाइजा राइंदिया, इतरसिं दिग्धतरिया, तेण दीहलोगो, तस्स दीदलोगस्स किं?सत्थं अग्गी, जो एवं जाणाति, एमो आयावगनामस्स उजओ-100 वगनामस्स य उदएणं सेसकाएहितो विसिस्सति, 'असत्यरस'ति ण सत्थं असत्थं सो संजमो न तं कस्सइ य सत्थं भवति, अगणिकायसंजमो बा, जे असत्थस्स० से दीहलोगसत्थस्स०,गतिपञ्चागतिलक्षणं एयं, केण भणितं एतं ?, भण्णति-'वीरेहिं एतं | अमिभूत दिह' णिचं आत्मनि गुरुषु च बहुवचनं, तेण वीरेहिं एतं अभिभूत, सन्चतित्थगरग्रहणं वा बहुवयणेनं, अहवा केव लिग्रहणं गणहरग्रहणं च, 'एतंति छञ्जीवनिकायचक्कं अगणिजीव वा, अभिभूय चि तत्थ दवे जहा साहस्समल्लेण सतुसेणा | ID सरवहनेण अमिभूता, जहा बा आदिच्चेण तमो, भावाभिभवे तु चत्वारि घाइकम्माणि अभिभूत परीसदा उनसम्गे य अभिभूय, अहवा|| ॥२९॥ दीप अनुक्रम [३२ ३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम अध्ययने चतुर्थ: उद्देशकः 'अग्निकायः' आरब्धः, [41] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], नियुक्ति: [११६-१२५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ३१-३८] (०१) तेजस्कायः प्रत श्रीयाचा- जहा आइची गद्दणक्खत्तताराण प्रभ अमिभूय भाति तदा छउसत्थियनाणाणं अभिभूय संदेवमणुयामुराए परिसाए मझयारे| पत्र- परितिथिए अभिभूय 'दिलु दह्र अक्खातं, संजयत्ति पावउवरतेहि, 'जतेहि'नि जयणा दुविहा-पमनजयणा य अप्पमत्ता चूर्णिः जयणा य, पमनस्स का जयणा,मण्णद-पमनम्सवि कसायादिनिग्रहपरस्स इरियादिउवओगो पमत्तजयणा, अपमानजयणा तु अक॥३०॥ N सायवयणसशत्ति, तत्थ जयणग्रहणा दिग्घकालिया जयणा घेप्पति, अपमनग्रहणा इंदियादिग्मादे बजे, सप्पडिपक्खभूतो पमत्तो |तं पद्य भणति-'जे पमले गुणद्विप' जे इति अणुविस पमत्तो ईदियादिणा असंजती पमनसंजतो पा 'गुणहिपनि तंजहारंधणपयणपगासणादि जम्स तेहिं अट्ठी सो गुणडिओ, अहवा नाणादितो जे णवि आतापणादीणि करेति, एवं सेसेवि काए आर भनि 'से सटे पवुचती'ने कार्य दंडओ अपागं दंडेइ संसार, अभिबति पन्चु वइ, जतो एवं तेण 'तं परिणाय | मेहावी' 'त' ति छजीवनिकाया अग्गि वा अभिनवपवइओ पब्बइउकामो वा अपाणं अणुमासेद, गुरुमादी वा अणुमासंतिजो काए हण सो तेसिं दंडो भवति, तस्स घायस्म पच्छा दंडो भविस्वह, अतो तं जागगापरिग्गार पचखाणपरिणाए य मेहावी भणितो । इदाणि तिसंजतो जातो 'गो' इति न कुजा य समारंभ जं अई पुर्व असंजतो, कि?, तहा पमाएणं अट्ट परिYA जुन्णा दुसंबोध अयाणग आतुरपरिताविता जाय थातुरा परिताप्रति संति पाणा तेउकाइए 'लयमाणा पुढो 'धुगंडिय मणिऊणं जाब से चेमि, 'संति' विजेत, जमिणं विरुवरूवेहि सत्थेहि अण्यो कणेगरूपा अगणिसत्धेग वहति तं इमेण सुनेण विमावित विवरितं च भवति, संजहा-पुत विनिस्सिता तसथावरा य कुंथुपिपीलिया अद्दिमदमादि तसा रुक्षगुम्मलतातणानि थावरा, तणपतेहि कुंथुमादि कडे घुणादि योमये थुपणमादि कयबरेवि कुंधुमादि 'संति संपातिमा' संति-विजंति संपातिमा RSAAR REn वृत्यक [३१३८] दीप | ॥ ३. अनुक्रम HA [३२ ३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [42] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], नियुक्ति: [११६-१२५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ३१-३८] (०१) JAVI प्रत वृत्यक [३१३८] श्रीआचा-मा ID भमरकीडपतंगादि 'आहच' णाम कयाइ पतंति, तंजहा-णिर्सि सलभाण दिवसतो सुहुमेदि लोगो कुलयो उपमिती, णिचं गिसूत्र वाती वातो ससु लोगागास जाव णिक्खुडेसु अहवा आदच आगत्य सच तो पतंति संपतंति, चसहेण काउजीवा तप्पेरिता चा|AL कायौ चूणिः | मसगादि 'अगणिं च खलु पुरति अग्गिणा पुट्ठो अग्गि बा फुसित्ता चप्पदा जालं फसिनावि खलु पूरणे समतो अण्णोण-| ४ उद्देश: ॥३१॥ गातसमागमतो संकुचंति तप्पमाणा, जहा मजारभएण मूमओ, तस्थ परियावअंतित्ति सञ्चओ आवर्जति, धूमेण जालादि वा | पनावेण वा मुच्छिता णिसण्णीभूया अग्गि परियावअंति, जं भणितं अग्गीभवंति, जे परियावनंति ते उदायंति, जतो एवं तेण | | ण एक अग्गी चेव भारभंति, तदारंभे अण्णेवि सचा विणस्संति, भणियं च-"दो भंते ! पुरिसा अण्णमण्णेण सद्धिं अगणिकाय" | तहा "जीवाणं एसमाघातो." तं परिणाय मेहाची जाव बेमि । प्रथमाध्ययनस्य अनिकायाख्यश्चतुर्थ उद्देशकः समाप्त ४|| ANI इदाणिं बाउस्स अबसरो,सो य अचक्खुसोति दुस्सद्वेयो, माय सिक्खगोतं असद्दहमाणो विप्पडिवज्जेजा तेण उकमो, जं वणस्सई | Dमण्णइ,एसेवकमो जेण सिक्खगो पडिबजइ, तेण चउहि एगिदियकाएहिं परूवितेहिं सब्बलोगप्पतीते यतसकाए सुठु सद्दहिहिति | | वायुजीवन, (वणस्सई)पुण पाएण लोगो सदहति,तेण पुर्व सो भण्णति, ण वाऊ, वणस्सती नहिं दारेहिं भाणियब्बो,निज्जुत्ती पठितसिद्धा, तण्णो करिस्सामि' तं दंसितं वणसती, इति परिसमत्तीए, एवं परिसम समणलक्खणं भवति,जं पुवकत समारंभ तं पवज अन्भुवगतो ण करेति,सम्म उत्थाय, भणितं छज्जीवकायसंजमे अद्वितो, अहिकयकायस्स वा,मंता-जाणित्ता, मति से अस्थि मतिमं-आमिणिधोहियनाणं घेपति, सुर्च तत्थेव, अहवा मइग्गहणा सधनाणाई गहियाई, कायाण अधिकयस्स वा अभयविदित्ता, अभयं सत्तरसविहो संजमो, अहका सातंति वा सुई वा परिणिवाणंति वा अभयंति वा एगट्ठा, तन्निवस्वो असातंति वा दुखंति | IMM॥३१॥ दीप अनुक्रम [३२ ३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम अध्ययने पंचम उद्देशक: 'वनस्पतिकाय:' आरब्धः, [43] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [३९ ४७] 77 दीप अनुक्रम [४० ४८] भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [ ५ ], निर्युक्तिः [१२६-१५१], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ३९-४७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१] अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : श्रीआचारोग सूत्र चूर्णिः ॥ ३२ ॥ वा अपरिणिव्वाति वा भयंति वा एगट्ठा, ते सावासाते अप्पोनमेणं जाणित्ता जं अप्पणो अणि न तं परस्स कुआ 'जह मम पियं दुक्खं जाणिय एमेव सव्वजीवाणं' गाहा, 'तदि'ति तं मयं जे जीवा 'णो' पडिसेहे 'कर' कुआ, किं तं ?, छज्जीवनिकायआरंभ अधिकथं वा 'एत्थोवरते' चि वणस्सइकायसमारंभी 'एसोवरए'ति गुरुसमीत्रं धम्मं वा उबेच विरतो स एव अणगारो भवति, सेसा दव्यअणगारा, 'जे' गुणे'ति सदादिविसया ते पायं सव्वे वणस्पसमारंभाओ निष्कज्जंति, तत्थ सदा वंसवेणुलयत्तिवीणविहंचिपडहादि वणस्सईओ, तसा तंतिचम्मादि, स्वाणि कट्टपोत्थकम्म गिहावण लेणवेड्या खं भपुप्फफलवत्थादीणि गंधा कोडादी गंधचीओ परमा मूलकंदपुप्फफलादीणं तित्तादओ य विभासा, मासकखमणादीणि काऊणं सेवालकंदमूलादि आहारिन्ति फासो तूलिमादीहिं, अनेसुवि काएं सद्दादिगुणा विभासियच्या, पुढविए सदे सुरवासलिप्पादीणि गंधो सखो बुद्धीए महीए रसे लवणादी फासे दहिकुट्टिमादि, उदये सदा जलमदुयादि रूवे नदीतूरादि धाराणि वातानि वा गंधे गंधोदगादि रसे धारोदगादि फासे सीतं ताबोदए वा उण्हगुणो, तेउकाए तत्रणविसावणपतावणादि, वातेवि गत्रक्खादीहि, तसेऽवि सद्दो संखादीर्ण गीयसदा य इरिथमादीणं, एवं रूवावि गंधा कत्थूरियातीणं रसा मंसगोरसाईणं फासा हंसपक्वादीणं, सब्बोवि गुणो पुणो चउब्विहो नामटवणाओ गयाओ, दव्वगुणो सामितकरण अधिकरणेहिं एगत पुडुचेहिं भाणियध्वं दव्यस्स गुणा अग्गीए उन्हा एवमादि, दव्याणं बहूणं समेयाणं जो रसविवाए गुणो, दब्वेण जहा अण्णेणं छुद्दा फिटति एवमादि, दब्वे जहा ओसहिं रोगो नासह, सनिहाणे, द्रव्ये गुणो तिचादि, अणेगेसु दध्येसु पिंडितेसु जे गुणा जोगीपाहुडादिसु भात्रगुणो पत्थो य अपसत्थो य, अपसत्थो जो जहिं रागंधो, जहा रागेणं ण याणंति रागा लोभा जूषकरादि खुद्धं पिवास वा, पसत्थो नाणोओगेणं [44] वनस्पतिः ॥ ३२ ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [३९ ४७] 57 दीप अनुक्रम [४० ४८ ] श्रीजाचारोग सूत्रचूर्णिः ॥ ३३ ॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [ ५ ], निर्युक्तिः [१२६-१५१], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ३९-४७] तिसादी ण विवेदेति, दरिसणगुणों कुतित्थियसुण मुज्झति सुलसा वा जहां, चरितगुणो ण विसएसु रागं करें, दोसं वा, धूलमद्दो जहा, आवट्टो चबो णामादी, दब्बे सामितकरण अधिगरणएगततेमु जहासंभवं भानीयवं, दव्यस्स आवट्टणादिसु कचि उदगस्स आवट्टो भवति, दव्वाणं आगासे कोंचपंतीमादीनं पुणो पुणो आवट्टो भवति, दब्वेण तेणेव उदगेण तणादि आवट्टिता, दव्वेहिं संदामगकत्तियादीहि लोहादि, सणिहाणेवि एगत्तपुहुते विभासा, भावात्रट्टो णाम अण्णाणभाव संकंती उदइयभावोदयो वा णरगादिषु भावेसु आवहति, आह-जे गुणे से आत्रट्टे ?, आमं, जे आवट्टे से गुणे १, आमं, गतिपञ्चागतिलक्खर्ण, कोऽमिप्पायो १, काय पुग्गलुत्था (कोइलमुरत्थ) सदादिणा रागो तप्पडिपक्खे दोसो, ततो संसारियं कम्मं भवतीतिकार्ड कारणे कार्योपचारा भण्गति जो एव गुणो सो आवट्टो, आवडो कहं गुणो भवति ?, गुणतो अण्णऽष्णो आवडो तेण आवट्टो अ गुणो, जद्द नाणनाणीणं एगतं, अडवा जो गुणेसु बट्टति सो आवट्टे बट्टद्द ?, आमं, गतिपञ्चागतिलक्खणं, कोऽभिपायो ?, गुणेसु वट्टमाणो ण संसारा उच्चटुति एते गुणा कत्थ?, भण्णति-पण्णत्रगदिसं पडुच्च उई पासातातिइम्मियेस, अर्ध अहे, उच्चस्थानरित्थले वा आरूडो, तिरियं आवासगं अहवा उडलोए वैमाणियादि अहे भवणवासीणं तिरियं दीवसमुद्रव्यन्तरजोइसियाण य मणुयस्स तिरिक्खाणं सभाप्रपादिसु, पाईणग्रहणेण तिरियं चत्तारि दिसाओ अणुदिसाओ य गहियाओ, पासिस्सामित्ति दरिसणिजाई, ताणिमणुवत्तणेण सयमित्र अध्यागं दरिसेति, असोभणेहिं तु आसणेहिवि दिट्ठी णिवनेति, अहवा पासियाई ताहि |चक्खुफासियाई जहणेण अंगुलस्स संखेजइभागे उक्को सेणं सातिरेगाओ जोयणसयसहस्साओ, पढिजइ य-पस्समाणो रुवाई पास' जं भणितं स चक्खुओओ उवउत्तो पासइ, भणितं साहियं तं सुणाति, एवं 'सद्दावि सुणिमाणि सुणेति' सुणिमाइति वनस्पतिः [45] ।। ३३ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [३९ ४७] दीप अनुक्रम [४० ४८] 1 भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [ ५ ], निर्युक्तिः [१२६-१५१], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ३९-४७] चूर्णिः ॥ ३४ ॥ श्री आचा-सोइंद्रियग्रहणपाडगाई, जहणेणं अंगुलस्स असंखेजड़भागं उकोसेणं बारसहिं जोयणेहिं अहवा सुणिमाईति मगदितेणं जा रांग सूत्रतं वंजणं पूरियं भवति ततो सुणे, पढिजर य-'सुणमाणो सदाई सुणेति निरुवहयईदियो तदुवडतो, एवं गंधरसफासेहिवि भाणियां, अग्घाइमाई गंधे अस्सातणिआई रसे फासिमाई फासे, तिसुवि हिने पोगले उक्कोसेणं वहिं जोयणेहिं, तिब्वेवि विसर उपलभमाणो उर्दू अहं तिरियं पाईणं मुच्छमाणो रूवेसु सद्देसु यावि, दूरालोगं हारिं च तेण रूवं आदीए, तत्थ रूवे मुच्यमाणे मुछिए दुस्समाणे दुट्ठो, जं मणितं सरागोण वीतरागो, एवं सदेसुवि रागी रागं जाति दोसी दोसं, रूपग्रहणे सेसविसएहिवि, अपिग्रहणा अपि जाति अवि ण जाति रागं दोसं वा अपि जानावि ण जाति अआइचानि जाति, कहिंचि रञ्जति कर्हिचि ण रञ्जति, एवं दुस्सतीवि, एस असंजतलोए विद्याद्दिते, 'एत्थ अगुत्ते अणाणाए ति एत्थ वणस्सतिकायपरे लोए छक्कायपरिभोयगुणे वा कामगुणेसु वा अगुतो नाम रागदोसंबसओ पंचसु विससु कर्हिपि विसए अगुतो जो वणस्सहसभारंभे अगुत्तो सो सेसकाएहित्रि अगुतो भवति, अहवा हिंसाए अगुत्तो सेवासुबि अगुत्तो, एवं सो अगुतो तित्थंगराण अणाणागारी भावा चट्टे चउनि नरगमादिसु छबिहे वा पुढविमादिसु इंदियपमायभावात्रट्टे वरमाणो आवहह 'पुणो २ गुणासाए वकसमापारे पुणो पुणो अभिक्खणं अणिवारिततप्यारो ते सद्दादविसए गुणे आसादेन्तो कसमायारो को अजमो तं समायरति कसमायारो, अडवा नाणागइकुढिलो को संसारो तं समायरति गुणामतो हिंसादिसु कम्मेसु वद्यमाणो समायरति णिध्वनेति अडति वा, सो एवं कसमायारो पमत्तो अट्टो आकंपितो आतुरो परितापितो ततो अगारवा व निग्गंथो वा काए पडिसेवाड पच्छा आतुरीभूतो छज्जीवनिकायसमारंभ करेमाणो सद्दादिगुणबुद्धिए वजप्फकाए 'लज्ज माणो- 'धुत्रं गंडिया, लक्खणा व सिद्धस्थं वनस्पतिः [46] ॥ ३४ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [३९ इनमें ४७] दीप अनुक्रम [४० ४८] श्रीआधारोग सूत्र चूर्णि ।। ३५ ।। भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [ ५ ], निर्युक्तिः [१२६-१५१], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ३९-४७] भण्गति- 'इमपि जाइधम्मं' इमेति भणुस्सरीरं 'जाइधम्मं 'ति जाइस्सभावं, अहवा अध्याणगं सरीरं सिस्सं वा, एस दितो, एवं वणस्सइसरीरंपि, जहा जातो रुक्खो जातो साखी एवमादि, कोई भोज दहिं जाति सोऽवि जीवो १, भष्णति ण सं मरन्ि 'इपि बुद्धिधम्मं ति जहा परिवड़ितो दारओ, अडवा थेरीभूतो एवं वणस्सतीचि, अहवा आहारेण उवचिजति तदभावे अब चिजति एवं यणस्सईवि, जहा वा हत्यो छिम्रो मिलाति तदा वणस्सईवि, साहा पुष्पं पतं वा छि मिलायति, अधुत्रं हार्ण. ए बुडीए एवं वणसईवि, अणितियं अणिचं जं भणितं जनिकालावस्थिने असामतं चचत्ताओ, चओवचइयं चिजति अबचिजतीवि, 'परिणामधम्मं 'ति भावंतरसंकमणं सो णिसेगादिवालमज्झिमवीरियाणि एवं वणस्सईवि वीर्यकुरादि कमेण भवति, तहा मूलकंदसंधतया एवं अण्णेवि सुयणदोहलरोगादिलक्खणा पज्जाया भाषियन्वा एत्थ सत्यं समारभमाणस्स तेसिं' तब इति सत्थपरिण्णाज्झपणे वणष्फइ उद्देसो पंचमः । ददाणिं तसकायनिज्जुसीए नव दाराई वण्ोऊणं पठितसिद्धाई णत्रंरं 'तिविहा तिविहा गाड़ा ( १५५ - ६७ ) - च्छिमा गन्भवतिया उवबादिया एसा तिविहा पुणो तिविधा इति, एकेका तिविहा- सचिता अनिता मीसा, अडवा सीता उसिणा सीतोसिणा, अहवा संवृता विवृता संवृतविवृता, अहना बितिओ तिविदो सदो गन्भत्रकंतियाण ण चेत्र भण्णइ, तंजहा गाहाये चैत्र भण्णति अंडयादि, लक्खणति दारं, बेदियादीण तसाणं वइसेसियाई लक्खणाई भवंति । 'दंसण' गाहा (१५७, १५८-६८) पढियन्त्रा, गोसण्णावियारे अणुयत्तमाणे अपरिण्णायकम्मा सुकाएस उववज्र्ज्जति, इह तु तसाहिगारो 'से बेमि संति-विज्जंति सब्बलोगप्पईया बालादिपञ्चवखा, बालावि भणती एस पिपीलिया जह ण मारेदि, अवा संति, पण तेहि संसारो विरहितो भवती ॥ ३५ ॥ प्रसकायः ६ उद्देश पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम अध्ययने षष्ठम् उद्देशकः 'त्रसकायः' आरब्धः [47] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [६], नियुक्ति: [१५२-१६३], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ४८-५४] (०१) प्रत वृत्यक [४८५४] श्रीआचा-D मेदेण अंडया पोयया जराउया रसया, अंडया जाता अंडया मयूरकुकुड एवमादी, पोतया सणकता पक्खीवग्गुलियादि, जरायुजा जहा Vवसकायः गोमहिसादि, रसया रसगादि, संसेदया यूगादि, समुच्छिमा सलभमक्खिगादि, उब्भिया मुचिमा(खजरीडा)दि, उबवाइया देवनारगा, चूर्णिः । IN एस संसारेति पयुचइ, एस अट्ठविदो जोणिसंगहो संसारेति पवुच्चइ, मंदो दब्बे भावे य, द्रव्ये मंदो उवचए अकए य, भावेवि ॥३६॥ Pउवचये जो बुद्धिमतो अवचए बुद्धिहीणो, भावे मंदेण अहिगारो, एस पुण अपडपण्णबुद्धि बालओ गहिओ,तस्स मंदस्स अवि याणओ एसो अट्ठविहो जोणिसंगहो जायइति निश्चितं, किमु बियाणगस्सी, एव तसकार्य णिज्माएत्ता पडिलिहिता निच्छित | नियतं वा जनाइत्ता, पडिलिहिता णाम दटुं, अहवा अदिट्ठोऽवि कंधुसुहुमादिकखणट्ठा रयोहरणेणं पडिलेहिता य ठाणाति चेतेजा, अहवा णिज्झाइत्ता गाउं पडिलेहिचात्ति संपेरुखिता, प्रडिलेदिताएकेकं पहुच पत्तेयं परिणिबुइ परिणिब्याण जं भणितं सुई, एर्ग | परिणिन्वाणं पत्नेयं 'सवेसिं पाणाणं सधेसि भूयाणं सजेसि जीवाणं सबेसिं सत्ताणं"सवेसिं' ति अविसेसेणं इटुं गिब्वाणं सातति वा सुहंति वा अभयन्ति वा परिणिधाणंति वा एगट्ठा, एतविपरीतं अभिडं सब्वेसिं पाणाणं सम्वेसि एवं जाव | सत्ताणं दुरुखं सारीरमाणसं असतंति वा अपरिणिबाणति वा महन्मयंति वा एगट्ठा, इच्चेतेण अपरिणिब्बार्ण अभिभूता 'तसंति पाणा पदिसादिसासु' तसंतित्ति वा उब्बियंतिवा संकुयंति वा वीभिति वा एगट्ठा, एवं वा तसियाणं मल्चुभएण दुक्खं भवति,N IIIकिं पुण तालियाण वा संमदियाण वा पीसियाण बा, तसंति पाणा पदिसो दिसासुत्ति, पगारेहिं भिसं वा दिसाहि य अणुदिसा-IA हि य तसंति तं कार्य मा दिसा जत्थ तसा ण तसंति जहा कोसिपारा य सवाहि दिसाहि वीभेन्ति तेण कोसगं करेंति, एवं ता पण्णवगदिसं पहुच, भावदिसाएबि, ण सा भावदिसा अस्थि जहिं वदनाये जातो वाण लमिज्जा जो जाई, जाईए जीवो आजाति ॥३६ ।। दीप अनुक्रम [४९ ५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [48] Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [४८ ५४] दीप अनुक्रम [ ४९ ५५] श्री आचारांग सूत्रचूर्णि ॥ ३७ ॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [६], निर्युक्तिः [१५२-१६३ ], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ४८-५४] स तेहिं मरति, इच्छइ य जीवेहिं जो ते अयोर्हि संपसंसंति, किंणिमितं १, ते तसंति समारभंता तं चैत्र नो सुष्णाति, अहा ते जाव परिताविन्ति' धुवगंडिया, जहिं अण्णे णेगरूवे ण णिविहिंसंति, तदस्सिते किमियउदयादि सत्ते मारॅति, तत्थ छकाये। विराहइ तसपाणेवि हिंसंदोति, अप्पेगे अञ्च्चाए वहंति 'अर्थ'ति सरीरं तंनिमित्तं आहारअलंकारनिमित्तं वा वधति, अहवा विस खतितो हत्थि मारेऊण छुम्मा, अहवा वेयालनिमित्तं सलक्खणं सरीरं खतं करतेहिं मारिजति, अहवा अचाए अज्झिय (जिणा) ए वा, लोहियाय बलिणिमित्तं छगलाति, अजिणं-चम्मं तं निमित्तं सीहवग्यमिगमादी, बसाए सूगरादि, सोणीताए कमिरागादीणं हितयाए हितयउड्डियाणं, अट्ठीए आहिदुणिया, पित्ताए मयूरादी, बसाए वग्धमगरवराहादि, पिंछाए मयूरगेद्धादि, पुच्छाएं मिगपुंच्ळगा, वालाए चमरी, संगाए रुरुखग्गिमादि, विसाणाए हत्थिगादि, दंताए सियालदंतेहिं तिमिरं नासयति, दाढाए बराहमादी, णखाए वग्घमादि, ण्डारुए जीवाए कंडाण वग्धादयो, अडीए संखनादि, अडिमिंजाए ओ सहहेडं मंसासिणो वा अप्येगे, अड्डाए एते चैव अच्चादि, अइवा अप्पणो परस्स वा उभयस्स वा अट्ठाए, अणट्ठाए चेडरुत्राणं खेलंताणं घरकोइलादि मारेंति, राया रायपुसो वा गर्दभादि, अहवा अट्ठाए वर्षेति जं किंचि लएना सेस छड्डेति, जीवंतस्स वा अच्छिदंता घिष्पति एसो अड्डो, सेसं अणहो, 'हिंसिस्सु मे 'ति एतेण मम पिता माया वा मारियओ अन्नभवे, हिंसंतित्ति अभिमुहं एवं सीहादि मारेति, हिंसिस्संतिचि सप्पमादि मारेड मा खहिहिति, अरिं वा णो मारेहित्ति, गन्भे वा मारेति मम एस अरी भविस्सति जहा कणगज्झओ राया, 'एस्थ | सत्थं समारभमाणस्स' सेसं तहेव । एवं सत्यपरिण्णा अज्झयणचुण्णीए छट्टो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १-६ ।। संबंधो स एव, | दुस्मद्धेयचा दुष्परिहारिता अपरिभोगता य उक्कमकरणं, जो एते चत्तारि तसवजे ते काए तसे य बालादिव्यमिति ते सद्दहति, तस्स सकायः [49] 11 310 11 पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : प्रथम अध्ययने सप्तमं उद्देशक: 'वायुकाय:' आरब्धः, Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [५५ ६१] दीप अनुक्रम ५६ ६२] श्रीआचारांग सूत्र चूर्णि ॥ ३८ ॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], निर्युक्तिः [१६४-१७१], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ५५-६१] वा उद्देसो भण्णति, णव द्वारा तहेव, सुचाणुगमे सुत्तमुच्चारयन्नं 'पभू य एगस्स दुगुंणाए' पद्धति समत्यो जो एयेति जो एते जहुर्दिट्ठे काए सहहह सो एस भवति, कस्स १-एयतीति एओ, भणियं च "एयती वैयति चलति फंदति" अहवा एगस्स वाउकायस्स, कहं एगो १, सेसा चक्खुसा अयमचकखुसो तेण एगो अहवा एगो देसपञ्चकखोवग्गहणे पभू, सद्दहणाए य भवति दुर्गुछगाए, दुगुणा णाम संजमणा अकरणा बजणा विउणा निपचित्ति वा एगट्ठा, कई एवं दुपरिहरं परिहरति १, केण वा आलंबणेण १, भण्णति- 'आतंकदंसी अहियंति णच्चा' तेहिं सारीरमाणसेहिं दुकखेहिं अप्पाणं अंकेति आतंको, बाही वा आतंको, वक्खमाणं वा अधणं फुर्सति आतंका, छज्जीवकायसमारंभेण अधिकयसमारंभेग वा जं दुकूखं आतंकसण्णिवं उपज्जा तं परसह आतंकदंसी, तत्थ दबायँके इदमुदाहरणं - जिवसतुराया सावओ, धम्मधोसथेरे पज्जुवासमाणो वेट्ठीभूतं सेहं पासति, अभिकखणं अभिकलणं पडिओतिज्जमाणं पुणरवि तदेवावराधं करेमाणं, तस्म हियडाए से उच्छाहणत्थं च आयरियं अणुष्णवित्ता स्वारविज्जलोहीए खारो सज्जावितो जहिं पखितमिते पुरिसो अडिसेसो भवती, आयरियस्स पुथ्वं कहिया, रायपुरिसेहिं आयरिया वाहिता मणंति को मम सहाओ गच्छिञ्जा १, सज्झायवाउला सेससि सेहो णीतो, तत्थ आयरिया रण्गो धम्मं कहेंति, पुत्रसलागएहि य रायपुरिसेहिं दो मतया पुरिसा आणीता, एगो गित्थनेत्यो एगो पासंडिणेवत्थो, गुरूहिं पुच्छियं एतेहिं को अवराहो कतो ?, राया मणइ एस गिद्दी मम आणालोवं करेह, एस लिंगी तु मिन्नचितो जद भणिए णाए अध्याणं ण बेति मारिचा मम उबणीता, ते दोऽवि खारातं पक्खिता गोदोहमितेणं कालेणं अहिसंकलिया सेसा, सो य राया सरोपित सेहं निज्झायंतो आयरियं मणइ अत्थि तुम्झवि कोह छतो चरणालसो जा णं तं जीवंतगमेव आतंके छुभामिति, आपरिया मांति वायुकायः ७ उद्देशः [50] ॥ ३८ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], नियुक्ति: [१६४-१७१], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ५५-६१] (०१) प्रत वृत्यक [५५ श्रीआचा-||ण अम्हं कोई वि पमादिजइ, जब कोई पमादहिति तमि कहते तुम जाणिहिसि, बंदिए गतो, ताहे सेहो आतंकभया अप्पमत्तो|D वायुकायः रांग सूत्र-IAL जातो, साह पमणइ-किंचि पमादखलिते मा मम एयरस सावगरकखसस्स अक्खाहि वा जहेस पमादेति, एस दिलुतो अयं घृणिः INउवणयो-एवं भवार्तकमीतो छकायअवराहे ण करेइ, मा गरगादिसु अगसो छुभीहामि, पुढविक्कापंमि गतो उकोस, अदवासं॥३९॥ | जमो-आतंको जेण कम्महेऊ, भणियं च-'आतंकदुक्खाणं' सोय आतंको इह परत्थ य अहितो, जतिचि छकायसमारंभो वाउसमारंभो वा सुई मणिजइ, जहा कच्छुकडूइययं कंडुजातं सुहाइ कंहदयस्स अंते उज्झति विसप्पिति वा कच्छ, एवं छकायसमारंभेणं अधि|कियकायसमारंभेण वा तालियंटादिणा सुई अंते अणंतसो अहियं भवति, अहबा अहियंति णचा एताणि कायघातीणि कम्माणि, | इहलोगदुचिण्णा कम्मा परलोकदुद्दा भवंति (चउ) भंगो, गुत्तिमादीहिं पुण जीवाणं अणुवरोहेणं असाव आणि कम्मागि, इहलोगसुचिण्णा कम्मा परलोगसुदृषिवागा भवंति, एवं चतुभंगो, एवं सो आतंकठाणदरिसी आयहितं जाणतो अहितमिममवि जाणंति, सो एवं प्रायाहितं जाणतो पभू भवति एगस्स दुगुंछणाए, सेसाणवि कायाणं, तत्थ इमो तस्स अणारं आलंबणविसेसो 'जे अज्झत्थं जाणई' अत्ताण अधिकिश्च वट्टति तं अज्झत्थं, किं च तं ?, सुई, सुहं सुहिणो अत्यंतरभूतं तेण आता चेव अजमत्थं, तस्स पज्जाओ सुई, तेण जे भणितं- अप्पाणं जाणति, अहिया णाम अपाणं मोत्तूर्ण सेसपाणगंतु, गतपडियागतलक्खणेण जो य बहिया जाणति, एवं दुक्खंपि जोएयवं, एवं सो उभयस्स जो जाणओ पभू भवति एगस्स दुगुंछणाए, आह आयसरीरे सुई पेप्पर, सुहदुकलइच्छादीणि आयप्रत्यक्षाणि, बेइंदियादीगिवि परसरीरे इवाणिपवित्तिगिवित्तीओ दटुं सुह अप्पा IN/ अस्थित्ति पडिवज्जिज्जति, पुढविमादीणं चउण्ड य एगिदियाशं चकखुसत्ता जीवसत्तं, अहिकललखज्जोदगाहारातिदिद्वैतेहि, ६१] दीप अनुक्रम [५६ ६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [51] Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], नियुक्ति: [१६४-१७१], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ५५-६१] (०१) प्रत वृत्यक [५५ ६१] श्रीआचा- वाउस्स पुण अचखुसस्स कई जीवन्तं घेत्तव्यं ?, भण्णति, गणु अनिलसदेण वायुस्स जीव उववादितं, जम्हा य सपरकमो व 2. वायुकायः पुरिसो तिव्यमंदमझगतिविसेसेणं सर्य पहाएति धेगेण य रुक्खादियं उम्मूलेति मतिमत्ता, सरीराणुगतयणसरीरो य जहिया चूर्णिः प णिहा, अरूबी उ सो वेति, प्रत्यक्षणाणिणो तु तं चेयणं पेक्वंति, सेसाणं आयपचक्खा, एवं वायुवि छउमत्थाणं फासपञ्चक्खो, ॥४०॥ VAIसो एवं पक्षक्खनाणी वा पभू भवति 'एगस्स इमं तुल्लमण्णेसिति जाव समधरिता तुला अग्गतो वा मग्गतो वाण पडति एवं जह मे इवाणिद्वे सुहासुहे तह सबजीवाणं, भणितं च-"कडेण कंटएग व पाए विद्धस्स वेयणहस्स । जा होति अणिबाणी णायन्ना सबजीवाणं ॥१॥ जह मम ण पिय दुक्खं जाणिय एमेव सबजीवाणं "। गाहा, सो एवं अप्पोवमेण परधम्मो जाणित्ता पभू य एगस्स दुगुंछणाए अण्णेसि च, 'इह-संतिगता दविय'ति इह माणुस्से परयणे वा, समर्ण संति परिहरणा दुगुंछा वा एगट्ठा, ते संतिं उवगता, दविया रागदोसविरहिता, अहवा दविया दोबि रागदोपा पिएंति दविया, पत्तावि तालिVI यंटमादिएहिं गातं वाहिरं वावि पुग्गलं णावखं ते वीयितुं, पडिअद य 'इति संतिगता दविया' इति उवपदरिसणे, संति | पचा दविया तव, साहू, ण सकादी, णावखंति असंजमजीवितं छक्कायसमारंभजीवितं वा, एगे पुण संजमजीवितेण जीवितावि | पुणरवि तदेव छकायजीवितं अधिकतकायजीवितं वा ते पुण हायमाणपरिणामा अहा परिजुपणा आकं पिता जाव आतुरा | परिताविता ध्रुवगंडिया णवरं 'अण्णे वऽणेगरूवेति पुढवीए रयं उद्धृतं उदये वा ओलामहियाहिमादि अग्गिमि दीवसिहादि वण01 स्सईए कंदमलादि तसे मच्छिपमसगादि, सेसं तहेव । जाव से बेमि संति संपातिमा पाणा' जह अगणिकाय उद्देसए णवर परिसं च खलु विसेसो जाणियच्चो । इदाणिं छहं जीवनिकायाणं समासेणं भण्णइ-'एस्थवि जाण उवातीयमाणा' एवं दीप अनुक्रम [५६ ६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [52] Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [44 ६१] दीप अनुक्रम [५६ ६२] श्री श्राचा रोग सूत्र चूर्णिः ॥ ४१ ॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], निर्युक्ति: [१६४-१७१], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ५५-६१] वाउकाए अपि पदत्थे एस्थवि ता वाउकायसमारंभे उपातीयमाणा-उवेच वायुमुहं तदारमति, आतपमाणा जं भणितं गेव्हेंता पुढ विमादी उबरोहे बट्टंति, एवं पृढविकाए उवाइयमाणा सेसेविकाए वधिन्ति, एवं एकेकेकाए उत्रतीयमाणा सेवघाताय भवति, | अहवा वायुं समारभंता वायणामगोयातिं कम्माई करेंता तत्थेव उववअंति, एवं सेसेसुवि, अहवा एत्थ पाणातिवाद उब तियमाणा | जं भणितं तंमि वर्द्धता मुसावाएव जाय राइभसे, एवं परसंजोएगं एकेके उवाइयमाणा सेसेवि ओतरियति, के ते १, जे नाणायारादिसु ण रमंति, थले मच्छा वा आरंभमाणा - असंजममाणा, पीती गयो विविधो गयो विणओ सो नाणादि, आयारम्भद्वावि पासत्थादयो कुलिंगिणो वा मणंति-वयमवि धम्मत्रिणीया, भणियं च- 'दुगुणं करे सो पावं, पत्थवि जाण उवाश्यमाण'ति नाणादिविणए जं भणितं रमंति ते आरंभमाणा विणयं वदंति-जहा वयमवि अहिंसा सुबता देता, ते पुण 'छंदोवणीया' छंदो गेही अभिलासो एगई, छंद्रेण उम्मम्गं उवणया, दाणादिदेहसकारेहिं आहारादिसु य कुलिंगलिंगस्था ये विस एस अहियं उबवण्णा अज्झोचवणा तचित्ता तम्मणा तल्लेसा, छंदो-अभिसंगमित्तं तिब्वअभिनिवेसो अज्झोवातो, ते तिष्णि तिसहृपाचातियसया स्वच्छंद विगप्पियं ससत्यपरिग्गहे नाणाविहाई लिंगाई अस्सिया, तत्थ दगसोयरिया चउसडीए मट्टियाहिं सोएमाणा जमणियमे घोसंति, पत्ताणं उपभोगो एवमादि, सक्का पारस धुत्रगुणे घोसेंता विहारारंभमादि कारेंति ।। अतो अज्झोनवणो 'आरंभसत्त'त्ति, दव्वारंभो उच्चालितंमि पाए कायद्यातो, भावरंभो हिंसातिसमुत्था कोहादि सज्जणं संगो दब्वे पुत्तकल साहिरष्णसुत्रष्णादि भावे रागदोसा कम्मा वा संगो, विग्धो वक्खोडो बंधणंति वा एगट्ठा, मिसं पगारेहिं वा करेंति, के ते १, जे आयारे या रमंति, अप्पसत्थ गया, तप्पडिपकखभूता 'एत्थवि जाण अणुवाइयमाणा जे आयारे रमंति, आरंभमाणा त्रिणयं वदंति, पसत्थ लोकविजययोनि क्षेपाः [53] ॥ ४१ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], नियुक्ति: [१६४-१७१], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ५५-६१] (०१) श्रीआचारांग सूत्र-lal चूर्णिः २ अध्य० ॥४२॥ प्रत वृत्यक [५५६१] छंदोषणीता तत्थेव अशोचवण्णा आरंभे असत्ता णो पगरेंति संग, अणेगेसु एगदेसा भणति 'से वसुम' अहया सो एवंविह- उद्देशार्थासाहुगुणजुत्तोसे वसुमं 'यस णियासे' वसंति तहिं गुणा इति वमुमं, तत्थ दब्धवमणि हिरण्णादीणि, भाववणि नाणादीणि जस्स। षिकार: अस्थि सो भाववसुमं, अहवा बसे जस्स बहंति इंदियकसाया सो य वसुमं, पण्णायते जेण तं पण्णाणं, समततो गतं कर्त भण्णइ नार्य, न करणीयं अकरणीयं, पार्व-पागाइबाताति रागदोसाइ वा 'णो अण्णेसिं'ति तं पावं कम्म णो अण्णं कुज्जा वा कारबिज्जा वा, तं परिणाय मेहावी व सयं छज्जीपनिकायसत्थं समारमिज्जा, एवं ताव प्रथममहावतरक्षणार्थ सत्थपरिण्णा य पढिज्जा कहिज्जह य, ताहे सदहतो परिहरंतो य उपहाविज्जइ, पढ वट्टाहि इति । प्रथमायारसुयखंधस्स सत्थपरिणाअज्झयणं, | सस्स चुण्णी परिसमाप्ता । उसगा सत्त, समाप्नं च सत्थपरिणामामअजपणं ।। अज्झयणामिसंबंधो, तस्स एवं छकायसंजमउवद्वितमतिस्स महच्चयावद्वितस्स तदविराहणाहेउं कोहादिए ण संजमे थिरा मती भवति, एतेण अभिसंबंघेण लोगविजयो, अणुयोगदारकमो, अस्थाहिगारो दुविहो-अज्झयणात्वाधिगारो उद्देसगत्याधिगारो य, अज्झयणात्वाहिगारोजह यज्झइ जह य तं पयहियचं, कसायलोगविजयो कायब्यो, उद्देसत्याहिगारो पुण सयणे अदबत्तं पढमे सयणधणादिमिसंगो अभिनवपन्चाइएण नेव कायब्बो, वितिए दृढधितिस्स गुणा भति, तंजहा-खणंसि जुत्ते एचमादि, अधितिस्स दोसो, तंजहा-अणाणाए पुट्ठा नियति मंदा मोहेण पाउया, ततिए जातिमदातिविरहितेण सिक्खएणं सपक्क्षण वा परपक्खेण वा कहिचि पमादखलिते चोदितेण अकुस्समाणेण या मदो न कायव्यो, जाइमदादीहिंहीणेण वा सोगो न काय| वो, बक्खति य 'के गोतावादी' अत्थसारस्स य असार बभिज्जइ, जहा-तिविहेण जावि 'से अस्थमत्ता भवति अप्पा D ४२॥ दीप अनुक्रम [५६ ६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अध्ययन-२ 'लोकविजय" आरब्धं दवितीयअध्ययने प्रथम-उद्देशक 'स्वजन' आरब्ध: [54] Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], नियुक्ति: [१६४-१७१], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ५५-६१] (०१) प्रत वृत्यक [५५६१] श्रीआचा- वा, चउत्थे लोगअस्सितेण विरहियवं, भोगीणं अवाया दरिसिज्जति, तंजहा तुमामेव सल्लमाटु' तथा 'थीहि लोगे पच- लोकविजरांग सूत्र थितो' पंचमे तु लोए पहचा लोगणिरिसतेण धर्म सरीरं बोदव्य एवमादि, वक्सति 'समुट्टिते च अणगारे आरीए एतेसा योनि चूर्णिः व जाणिजा' एवमादि, छढे जंणिस्सितो विहरति ण तत्व अमिसंगो काययो, वक्खति 'ममाइतमति जहाति'नामनिफष्णो २ अध्य० ॥४३॥ लोगविजओ 'लोगस्सय विजयस्स' गाहा (१७३-८३) कंठ्या 'लोगोत्तिय विजयोत्ति य' गाहा (१७३.८३) 'लोगस्सा । य निक्खेची अट्ठविहों (१७५-८३)लोयणिकसेवा, अट्टविहो लोयणिक्खेवो नहा लोउज्जोयगरणिज्जुत्तीए, अप्पसत्थभाव लोए कसायलोपविजएणं अहिगारो, विजयो विचारणा मम्गणा एगट्ठा, सो विजओ छविहो, जहाणामविजओ ठरणविजयो दा. विजओ खेचविजो कालविजओ भावविजओ, णामठवणाओ गयाओ, दम्वे सश्चित्तादि तिविहो, सचित्तदवबिजओ दुपदादि तिविहो, दुपदाणं पुरे रगो वा पुतं गई मग्गति, चउप्पदे गादी अस्समादि गहुँ विचिणेति, अपदेसु सालिमादीणि किणमाणो V. DIबीहि रूवियादि विचिणाति गोधूमेहि जबे, एवं अचित्तमीसेमुचि जोएयचं, खेतविजओ कपरं सालिखित्तं बहुसाहियं, जत्थ दव्यादीणं चयं करेति, कालविजयो णाम जो समयातिकालं विचिणाति, जहा समपस्स परूवणं करिस्मामि, जत्थ वा काले ) W जत्तिएण कालेण, भावविजए तचेव भावारूत्रणा कायया, सामितं वा प्रति कसायाति भाषा भवंति, सणिगासो काययो, भाव- Ye | विजएण अहिगारो, तत्थवि कसायातिविजएण, तेसिं आवाए विचिणाति इहलोयपारलोइए, तंजहा-कोहो पीति पणासेति कहं च निम्गहो कायय्वो, खमाईदि, विसयाणं अवाओ 'सदेण मओ' विचयो 'सद्देसु य भयपावएम' अहला विजयो भण्णा तिविहो, विसिद्धो चा जओ विजयी, दश्वो जो जं दबं विजयति जहा मल्हो मलं, अहह्मा जितं ओसह विसं वा, खेनविजओ भर- ॥४३॥ दीप अनुक्रम [५६ ६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [55] Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१७२-१८६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६२-७१] (०१) श्रीआचा चूर्णिः ॥४४॥ प्रत वृत्यक [६२७१] हातिविजओ, काले जहिं काले, जत्तिएण वा कालेणं, जहा भरहेण सडीए वरिससइस्सेहि जितं, मतएण वा मासो जितो, भाषे गुणस्थाने पसत्थो अप्पसत्थो य विजयो परूवेयम्बो, अप्पसत्थभावविजएण अहिगारो, तत्र भावविजये 'सेतं कारक.' गाहा, 'लोगो भणिओ (१७६-८३) विजिओ कसायलोगो सेयं (१७७-८४) सुत्नाणुगमे सुन उचारेयर्थ जाव चालणा य पसिद्धी या पंचहा(छविह)विद्धि लक्षणं-'सुयं मे आयुसं तेणं भगवया एवमक्खाय' एस उबग्घातो, किं सुत्तं ?, भण्णइ-'जे गुणा से AV मूलढाणा' जो इति अणुदिहस्स ग्रहणं, गुणणं गुणो जं भणियं पभावो 'से' इति उद्दिटुस्स निदेसे, मूलं प्रतिष्ठा आधारो य एगट्ठा तिद्वंति तहिं तेण ठाणं, अहवा सुत्तकरण विहाणेणं गतिपञ्चागति 'जे गुणे से मूलढाणे' अस्थतो भंगविकल्पा भवति, जे गुणे | से मूले, जे मूले से गुणे, आम, एवं 'जे गुणे से ठाणे, जे ठाणे से गुणे', आम, अहवा जे मूले से ठाणे, जे ठाणे से मुले, आमं, अहवा 'जे गुणेसु बढद से मूले पट्टति, ते चेत्र विकल्पा, एवं एतेसिं गुणादीणं बंजणओ नाण अत्थो अनाण तं, तम्हा।। गुण णिविखविस्सामि, तत्थ गुणो तेरसविहो-'दब्वे खेत्ते काले' गाहा (१७८-८४) णामठवणाओ गयाओ, दयगुणा गाम | | दवमेव स गुणो घेप्पति, ण हि गुणा गुणवतो अत्यंतरभूया इतिकाउं 'दव्वगुणो दब्वं चेव गुणा' गाहा (१७९-८५) सो तिविहो 'संकुचित विगसितत्तं' गाहा (१८०-८५) सवीरियसजोगीसदबयाए पदेससंदरणविसरणेगं पदीवोत्र जावर लोयतो, अहवा जीवदब्बगुणो अग्गिस्स उण्हवं बाउस्स चंचलतं, वायामो विकमो वीरत पुरिसगुणा, चलचं मीरुतं विक्वित्तं इथिगुणा, अहवा नाणादिगुणा, अचेयणा दव्यगुणा ओसहाणं रसपीरियविधागगुणा, मीसदमगुगोवि खीरोदगं ति पावहरणं, 1 अहवा सावरणस्स आमस्स हस्थिणो वा गुणेण परवल पविसइ जोहेति नित्थरइ य, खेचगुणो देवकुरुसुसमसुसुम' गाहा ॥४॥ दीप अनुक्रम [६३ ७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: | दवितीयं अध्ययनं "लोकविजय"आरब्धः, [56] Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [६२ ७१] दीप अनुक्रम [६३ ७२] श्रीअ चागंग सूत्रचूर्णिः २ अध्य० ।। ४५ ।। भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [१७२-१८६], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ६२-७१] (१८०-८६) देवकुरादी अकम्मभूमीसु सता जोखणे वर्वृति, निरुपकमाउया विहरियं, सुभाणुभावा पगतिभद्दातिगुणेण देवलोएस उववज्र्ज्जति खेत्तगुणेण, कालगुणो एगंतसुसमादिसु तिसु समासु एसच्चैव अणुभागो, फलगुणो णाम तत्रसंजमादिसु सव्वकिरिया सव्वकिरियाओ इहलोइयाओ फलनिमित्तं आरभंति, ताओ सम्मत्तादिविरहियाओ अणेगंतियाओ अगुण एव द्रष्टव्यो, सम्मततत्रसंजम किरियाओ एगतियाओ अचंतियाओ य सिद्धिसुहअव्वाबाहफला इति, पज्जवगुणो कालगादीऽणंता भेदा, गणणा गुणो | णाम महंताएवि रासीए गणणागुणेण परिमाणं घेप्पति, करणगुगो णाम कलाकोसलं, पत्रगादि, करणजएण य वर्तिति, गाया कारगादी य करणजएण करेंति, अब्भासगुणो अंधग्गरिवि भुंजमाणो अव्यासंगेण कवलं मुखे प्रक्षिप्पति, गुणोवि अगुणो | भवतित्ति जो समभावमद्दवादिगुणजुत्तो सो दुट्ठेहि परिभविज्जति तस्य गुणो अगुणो इहलोगं प्रति भवति, सो चैव परलोगं प्रति गुणो भवति, कूरो साहसिओ अमरिसणो दुआधरिसो भवति तस्स अगुणो गुणो भवति इहलोगं प्रति परलोगे अगुण एव, अहवा संसारो, वृक्षो छिद्यति सो तस्स गुणो अगुणो भवति, अगुणो वंको णिस्सारो पत्तादि अणुवभोगो जो य णच्छिज्जति, भवगुणो नेग्इयादीणं भवाणं जो गुणो नेरइया अंगुल०, वेयणं सहंति, छिष्णा पुणो साहण्णंति, ओहिष्णाणं, तिरियाणं आगासगमणलद्वी, गोणादीणं च आहारियं सुभचेण परिणमति, मणुस्सभवे कम्मकूखयादि, देवेसु सब्वे सुहाणुभावा, सीलगुणो णाम | अक्क्स्समाणोऽवि ण खुन्मति, अहवा सहादिएस भद्दयपावएस ण रज्जति दुस्सति वा, भावगुणो उदइयादीगं भावाणं जो जस्स गुणो, उदयगुणो तित्थगरसरीरं आहारगसरीरादि, उवसमियगुणो सतिवि णिमिचेण विसयकसाया उदिज्जंति, खइयस्स खीणता ण उदिज्जंति, णाणसामग्गंति णाणसमिद्धी य. एवं सेसाणवि भाणियवं, अहया भावगुणो दुविदो - जीवभावगुणो य गुणनिक्षेपाः [57] ।। ४५ ।। पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : द्वितीय-अध्ययने प्रथमं उद्देशक: 'स्वजन आरब्धः, Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१७२-१८६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६२-७१] (०१) प्रत वृत्यक [६२७१] श्रीभाचा- अजीवभावगुणो य, जीवभावगुणो पसत्थो अपसत्थो य, अपसस्था सद्दादिविसयगणो, पसत्थो नाणादिगुणो, अजीवभावगुणो मूलनिक्षेषाः रोग सूत्र- उदइयो पारिणामिओ य, तत्थ उदइओ ओरालियं वा सरीरं ओरालियपरिणामियं वा दव्वं, पारिणामिओ दुविहो-अणादि सादि, चूर्णिः अणादिपारिणामिओ धम्मस्थिकायादीण तिण्ई दवाणं गतिठिइअवगाहणा, सातियपारिणामित्रो अभइन्दधणुमादीणं परमा२.अध्य. | णुमादीण य वष्णादिगुणा । भणिओ गुणो, इदाणिं मूलं 'मूले छकं' गाहा (१८२-८७) द्रव्यमूल त्रिविधं-उदइय उबदेसो PA ॥४६॥ आदिमूलं 'ओवइयं उवदिहा' गाहा (१८३-८८) तत्थ ओदइयं द्रव्यमूलं जाणि द्रव्याणि रुक्खादीण मूलत्तेण उदिण्णाणि, उबएसमूल णाम जं विज्जा मूल उबदिसंति जहा पिपलिमूलं पंचमूलादी वा, आदिमूलं कम्मगसरीरं, जो रुकवा ओ मूलाओ उप्पज्जंति, खेतमूलं जहिं खित्ते मूलं जातं कहिज्जइ वा, एवं कालेवि, जावइयं वा कालं, भावमूलं तिविहं-उदइयं उबदेस आदिVI मूलं, तस्थ उदइयभावमूलं जीवो मूलणामगोयवेदओ घेप्पइ, उवदेसभावमूलं आयरिओ, विविहेहि कम्मेहिं रुक्खमूलत्ताए उबव- | " अई, अतो तवयुसो आगमतो भावमूलं भवति, आदिमूलं पसत्थं अपसत्थं च, तत्थ अप्पसत्थं विसयकसायादि संसारमूलं भवति, पसत्थं विणो मूलं, मूलित्ति गतं । इवाणिं ठाणं 'णाम ठवणा' गाहा (१८४-८८) वइरित्तं दवठाणं सचित्तादी ३, सचित्तं दुपयादी ३, द्रुपदहाणं दिणे २ जत्थ मणूसो उबविसई तत्थ ठाणं जायति, चतुप्पयठाणपि एवं चेव, अपदाणं गरुयं फलं जत्थ | णिक्खिप्पति तत्थ ठाणं संजायति, अचित्तं जत्थ फलग णिसदर्जतादीणि णिक्खिपति तत्व ठाणं जायति, मिस्सवाणं उब्वसि| ताणवि ठाणं दीसति, 'अद्धा' काल इत्यर्थः दुविह-भवद्विती कायठीती, भवठिती नेरहयदेवाण संचिट्ठणा कायठिई, तिरिक्खजोणियमणुस्साणं संचिट्ठणा, उड्डे तजातीयग्रहणात् णीसिपणतुपणठाणा, एतेसिं उठाणं आदी पूण तं, कायोत्सर्ग इत्यर्थः, ॥ ४६॥ दीप अनुक्रम [६३ ७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [58] Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१७२-१८६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६२-७१] (०१) स्थाननिक्षेपाः प्रत वृत्यक HA [६२७१] श्रीआचा-10 णिसियणा-उबविसणणा संपिहणा, उपरवठाणं देसे सब्चे य, देसे अणुवताणि पंच, सब्वे महन्वयाणि पंच, वसधिठाणं उपस्सओ, रांग सब- संजमहाणं असंसिज्जा संजमठाणा, पग्गहठाणं दुविहं-लोइयं लोउत्तरियं च, ता लोइयं पचविहं-राजा जुबराया सेणाबई महत्तर चूर्णिः अमञ्चकुमारा, लोउत्तरिय पंचविह-आयरिया उवज्झाया पवत्ति धेरे गणावच्छेदका, जोधट्ठाणं आलीदादि पंचविहं, आलीढं दाहिणं | २ अध्य० पादं अग्गतोहु काउं वामपादं पच्छतोहुतं ओसारेइ, अंतरं दोण्ई पादाणं पंच पादा, तयं चेव विवरीतं पच्चालीदं, बेसाई | ॥४७॥ पण्डियो अभंतराहुचा अग्गिमतला बाहिराहुत्ता, मंडलं दोबि पादे समे दाहिणवामहुत्ता ओसारित्ता उरूणोवि आउंटावेति जह | मंडलं भवती, अंतरं चत्तारि पादा, समपादं दोवि पाए समं निरंतरं ठवेइ, अचलं ठाणं 'परमाणुपोग्गले गं भंते ! णिरेके फालतो केवच्चिर होति ?, जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं असंखेज कालं' गणणड्डाणं एवं दस सत सहस्समित्यादि, इदाणि संधणा, 'भावेति भावद्वारस्य संधनायाः व्याख्या करणीया, संधना दुविधा-दब्वे भावे य, दवसंघणा दुविहा-छिन्त्रसंधणा अच्छिन्नसं-1 धणा य, रज्जु चालतो अच्छिन्नं वालेइ कंनुयादीणं छिन्नसंधणा, अच्छिमसंधणा य सेडिदुयं, उवसामगसेढिपविट्ठो जाव सब्योवि लोभो उबसामितो, एसा अच्छिन्नसंधणा, खबगसेढीएवि अच्छिन्नसंधणा, 'अप्पुब्बगहणं तु भावंमिचि पसत्थेसु भावेसु वड़माणो| जं अपुव्वं भावं संधेड़ एसावि अच्छिम्मसंधणा, भावे इमा छिअसंघणा-खओवसमियाओ उदइयं संकमंतस्स छिन्नसंधणा, एवं | अप्पसत्थाओ पसत्यं संकर्मतस्स छिन्ना, पसत्थाओवि अप्पसत्यं संकमंतस्स छिण्णा, एवं भावसंधणा, अप्पसत्थाए अहिगारो, FO ठाणति गतं । इयाणि संसारो, सो य कसायमूलं, कसाया य कम्ममूला, तत्थ गाहा-'पंचसु कामगुणेसुत' (१८५-८७) | कामगुणा इट्ठा अणिट्ठा य, हड्ढेसु रागो अणिढेसु दोसो, माया लोभो य रागो, कोहो माणो य दोसो, एवं विसएसु कसाया वदति || RANULL दीप अनुक्रम [६३ ७२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [59] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१७२-१८६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६२-७१] (०१) संसार प्रत वृत्यक श्रीआचा- कमाएहि य मूलट्ठाणं संसारो भवति, तस्थ अप्पसत्यमूलढाणेणं अहिगारो, उपसमियादी पसत्थभावा मोक्खडाणं, अहबा नवरांग सूत्र | संजमा जिव्वाणमूलट्ठाणं भवति, तत्थ संसारमूलहाणे इमा गाहा 'जह सबपायवाणं' (१८६-९०) अट्टविहकम्मरुक्खा चूर्णिः २ अध्य गाहा (१८७-९०) केवलणाणुप्पत्तीएरि पढमं मोहणिजं खविर, सो य पुण मोहो दुविहो 'दुविहो य होइ मोहो ॥४८॥ गाहा (१८८-९०) अट्ठावीसइविहंपि मोहं परूवित्ता चरितमोहणिजलोभस्स ई इस्थिपुरिसनपुंसगवेदेसु य कामा समोयरंति | तेण 'संसारम्स य मूलं' गाहा (१८९-९१) कम्मरस कसाया मूलं, जेण कसाया संपराइयं कम्म बंधति 'ते सयणपेसणअह' गाहा, माता मे पिता मे एवमादि, 'अण्णत्यो य ठिय'ति पिंटोलगस्स सपतणचंदस्स य एवेंगिदियाणं च अप्पेहितो सो संमारो, मो य पंचविहो-'दच्चे खेत्ते' गाहा (१९१-९२) दब्यसंसारो चउब्धिहो, तंजहा नेरइयदवसंसारो एवं तिरियदवPA समारो एवं मणुय देव०, एवं खित्ते ४, काले चउभंगो, भवे चत्तारि, भावे चउसुवि गईसु अणुभावो वष्णेयव्यो जहा जंबु. Aणामे, अहया दब्बाइ चउचिहो संसारो, तत्थ दब्धे अस्सा हस्थिणं संकमइ, खेने गामा नगरं, काले वसंता गिम्ह, भावे उदइया | उपसमितं कोधातो वा मागंति, संमारणिक्खेवो गतो। नस्ल मूलं कम्म नेण 'नामं ठवणा दविए' गाहाइय, | (१९२, १९३-९२) दब्धकम्म दुविह-दव्यकर्म मोदधम्म च, नन्थ दबकम्म जे अट्ठविहकम्मपायोग्गा पोग्गला बद्धा Nण तात्र उदिअंति, गोकम्मदब्बकम्भ करिमणातिकम्मं । इद्वाणि पयोगकम्म, जंमि पओए वट्टमाणो कम्मपोग्गले गिण्हइ तं | पयोगकम्म, समुदाणकम्मति ने जहा अवतरजोगगहिया पोग्गला बद्ध णिधन णिकाइया तं समुदायकम्म भवति अट्टविहं, Hईरियारहियं दुममट्टितियं वीयरागरूप भवति, आहाकम्मं जं आहाय कीरइ, तबोकम्म बारसविहं, किइकम्भ बंदणं, भावकम्म adkiimaanAMANA SUPRINCIPES [६२७१] दीप अनुक्रम [६३ ॥४८॥ ७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [60] Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१७२-१८६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६२-७१] (०१) परिता प्रत वृत्यक [६२७१] श्रीआचा- | तदेव अट्ठविहं उदयपत, सविखए भावगुणो मूलट्ठाणे बट्टर, सो सद्दादिसु गुणेसु वट्टइ, सो तेसिं गुणाणं अप्पत्ताणं पत्ताण व रांग सूत्र-I | विणासे सारीरमाणसेण दुक्खेण अभिभूतो, 'इति सो महता परितावेण' इति-उबप्रदरिसणे अप्पसत्थेसु गुणेसु चिट्ठित्ता 10 चूर्णिः संसारमूलट्ठाणं अबोलतो अट्टविहं कम्मबंधणहेउं वा रागादि तेहिं उवेसिअप्पा इति से 'महता' महता इति अपरिमितेण भोगा२ अध्य मिलासेण सव्वतो तावेणं परितावेणं काइयवाइयमाणसिएण परितप्पमाणो पुणो २ तं करेति जेण तहिं मूलट्ठाणे वग्गति, | 'पमत्ते' पंचविहेण पमादेण, इमे से हेऊ 'माता मे पिता में माता मम दुक्खिया दिगिंछणादिणा, अहवा केणइ से अप्पितं कतं तनिमितं कसावा, ततो वेरप्पमई, जहा रेणुया अणंतविरिएणं परिभुत्ता तनिमित्तं रामेण मारिता, कत्तविरिएण रामपिया पितिनिमित्त, रामेण निक्खनिया पुहवी सन बारा कया, सुभोमेण तं सुणित्ता निबंभणा पुहवी एकवीसं वारा कया, IN तथा प्रातिणिमि भइणी भजा व मे ण जीवह चोरियादी करेइ, अणलंकिया इसियति चाणक्केण णंदवंसो उच्छादितो,D एवं सेसाणवि 'सहिसयणसंगंथिसंधुतो' चि सहि-सहजातगा मिना सयणा पुब्ब पच्छा संथुता संगंथो-छिन्नयुद्धो संधुता-1 PA सहवासा दिवाभट्ठा य 'विवित्तं' प्रभृतं अणेगपगारं विचितं च उबकरेति, उबकरणं-सयणआसणहएप्फाडिसरावत्यालिपिहुडा- | कसभायणादि परियणं-दुगुणं तिगुणं एवमादी, भुजतीति भोयणं-गोहमतदुलसंभारगोरसादि अच्छादणयं वत्थविहाणाणि, इति एत्थं इश्वत्थं, मम स मातापितानि अतोऽन्थं संतेसु मुच्छिते गिद्धे णढिते अज्झोपवण्यो, अस्संजतमणुस्सलोगो कुपासंडलोगो वा संमि चेव असंजते वसति संसारे वा, ण ततो उत्तरह, कसायइंदियपमादातिपमत्तो मातापितिमाइणिमिर्च अत्थोवजणपरो । तस्स रकखणे य अहो य रातो य परितप्पमाणो-हियएण ससरीरेण य परितप्पमामो "कइया वच्चइ सत्थो०" कालो णाम जो दीप अनुक्रम [६३ ग४९ ७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [61] Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१७२-१८६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६२-७१] (०१) रांग सूत्र प्रत वृत्यक [६२७१] श्रीआचा- जस्स कालो अहो राती बा, मज्झदेसे जाव मज्झण्हो ताव इलाइ वहति, सो तेसि कालो, अवरण्हो अकालो, एवं अनेसुवि चित्त- कालाकाली | तकम्पादिसु दिवसो कालो, राई अकालो, जाव जस्स कम्मस्स कालो, स तु जहा काले वहा अकाले वि पवत्तइ, सम्म उत्थाय |D स्थानादिः चूर्णिः समुत्थाय अस्थसंग्रहं प्रति, जहा चारुदत्तो सोलसहिरण्णकोडिविणासणं तस्स अजिणणहेडं मातुलएण समग्गो परिहिंडितो अत्थ२अध्यक लोभेण, मम्मणवणिओ वा एत्थ दिढतो, सो अकालेवि कम्मं करेइ, वासे पड़ते णदीए पुण्णाए, 'संजोगट्ठी ति भजत्थी । रजातिविभवसंयोगट्टी वा, सहादिविसयसंयोगा, तंजहा-गंधव्यवीणाविहंचिसद्दे इस्थिवत्थाभरणादिरूवे मणुण्णा गंधा घाणे इट्ठा रसा रसे इथिसिजाइ फासे 'अत्थालोभी' उकखणइ, अश्वत्थं वा अस्थालोभी 'आलुपति' अग्गे संजमादि सयं करेचा | पच्छा भीआणं बत्थादि आलुपति पडच्छोडणं वा करेति, जत्तियाई चोरविहाणाई ताई करेइ, उस्सोवणाइ चोरविआदि य 'सहसक्कारे'त्ति साहसं करेइ, पुब्वावरं अगणेतो तंजहा-दब्यग्गाहितं रायभंडागारे, अह डज्नति रायादिवंधं वा करेइ अत्थलोभेणं, IYA विण्णाणत्थे णातादिसु वा सदादिसु वा विसणसु विणिबिटुं चित्तं विणिविट्ठचिने, पदिइ य 'विणिविदृचिट्ठ' मातादिआयणिID मित्तं च विसएसु तदज्जणे य विणिविट्ठा जस्स कातियातिचिट्ठा स भवति विणिविट्ठचिट्ठोएत्थ सत्ये पुणो, उवअणे इंदियादिसु वा सत्तो रत्तो मुच्छितो गिद्धो गदितो अन्झोववण्णो, तहिं कालाकालसमुट्ठाणादिएसु पयत्तमाणो 'पुणो पुणोति अणेगसो IN तेसु कम्मेसु पबत्तमाणो छकाइयवहं करेइ, पढिाइ य एत्थ सत्थे पुणो पुणो', इह रायचोरादि सासिजति परलोए नरगादिसु, ID अहा सो एवं चिट्ठमाणो कायाणं सत्थं भवति, जं भणितं घातारो, जंपि सो चिरं जीविस्सामि अत्थोवजणं करेइ तंपि अणे गतो, 'अप्पं च बलु आउं' अप्पमिति सोवकमाण, ण दिग्ध, चसदो अविगियजीविणो दिग्धंति, केसिंचि उकोसेणं तिणि ५०॥ दीप अनुक्रम [६३ ७२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [62] Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१७२-१८६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६२-७१] (०१) श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः २ अध्य० ॥५१॥ प्रत वृत्यक [६२७१] पलिओबमाई, धम्मचरणं पटुश्च जहणणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं पुन्चकोडी देखणा, धम्मचरणेणं अहिगारो, असंजयाणं अधम्म श्रीतादिचरमाणाणं मोहा जति राईओ, ण य विसयसुहामिलासिणोऽवि सम्बे इच्छिते अत्थे साधेति, अकतत्था थेय उवरमति, ण य|| हातिः अकुसलसमजियस्स पावस्स विवागं वुअंति, जेवि दिग्घाउया भवति तेऽपि जराभिभूया मतकतुल्ला भवंति तंजह 'सोनप्प-11 एणाणेहि' अहवा सो भोगविणिविट्ठचिनो लोगो इंदियपरिहाणि न बुज्झइ, तंजहा 'सोनप्पण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं' सुब्बति जेण पन्नाणेण सोयपण्णाणं तं, सोतम्गहणा दबिदियं पण्णाणग्रहणा भाबिंदियं, तत्थ अभिघातेण रोगेण वा दबिंदियं हीयति वा ण वा चक्खुसोवि तिमिरे अक्खिरोगअभिवातेहि धाणस्स पूयाणासद्धेयणउवधातादिहि जिम्भाण पंतपुद्गलादिणा उवग्यावेण, एवं फासेवि, परिहाणी देसे सव्वे य, देसे उच्चेण सुणेइ, सब्बपरिहाणीए ण किंचि मुणेति, एवं सेसेहिवि, एत्थ संयोगा कायब्वा | तंजहा-कायसो ते ण सुणेइ णेत्तेहि य, केइ सोतेण घाणेहि य, एत्थ दस. दुगसंजोगा दस तियसंजोगा पंच चउक्कसंजोगा एगो पंचगसंजोगो, असंखिजवासाउया अपरिहीणेहि कालं करेंति, संपति तित्थं पुण वासमयाउगेसु पवेदितं, वाससयाउआवि जहा तारुण्णए सोएहि पयोयणं करेंति ण तहा बेरतणे, एवं परिहायमाणे 'अभिकंतं च वयं सहाए' जरं मृत्यु वा पटुच्च अभिमुहं कंत-कम्मं पेहाए, बयो तिविधो, तंजहा-पढमो मज्झिमो पच्छिमो, परिससयायुगस्स पुरिसस्स आयुगं तिधा करेति, ताओ पुण दस दसाओ, एकेको वओ साहिया तिथि दसा, खणे खणे बट्टमाणस्स छायावलपमाणातिविसेसा भवंति जाब चउत्थी दसा, तेण परं परिहाणी, भणियं च-"पंचामगस्स चक्खं, हायती मज्झिम वयं । अमिकतं सपेहाए, ततो से एति मूढतं ॥१॥" तओ पढमश्याओ अतीतो मज्झिमस्स एगदेसे पंचमीदसाए बदमाणस्स ईदियाणि परिहायति, एगया, न सम्बया, मोहो-अण्णाणं मूढ-ID५१ ॥ दीप अनुक्रम [६३ ७२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [63] Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१७२-१८६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६२-७१] (०१) प्रत वृत्यक [६२७१] श्रीआचा- सभावे से ईदियाणि अणुवलद्धि जणंति, तंजहा-यो सुणेति, उच्चेहि सुणेति वा, एवं सेसेहिवि इंदिएहि, अहवा मूढभावो जह जह रांग सूत्र इंदिएहिं परिहीयति तह तह तदत्थेहिं सजद, सो एवं वुड्ने मूढसभावो पार्य लोगस्स अवगीओ भवति, किंच-'जेहिं वा सदि वगतिः चूर्णिः । संवसई' (६५-१०५) ते हि मिचादिविभासा, जेहिवि सद्धिं संवसह भआदिएहिं तेहिपि अवमीतो भवति, किं पुण परेसिति, २ अध्य० ॥५२॥ अप्पावि अप्पणो अवगीतो भवति, 'बलिसंततमस्थिशेषितं, शिथिलनायुतं कडेवरम् । खयमेव पुमान् जुगुप्सते, किमु कान्ता | | कमनीयविग्रहा? ॥१॥"एगता, ण सब्बया, णियगा भादि 'पुव्य'मिति ते पदमं पच्छा अण्णो जणवओ जेसिं पुर्व अट्ठाए सयतं | अजिणणपरो आसी ते पढ़मं परिवडति, अहवा जे पुव्वं देवमिव मण्णिताइया ते संपदं तं णिरुबगारिति सन्तुमिव मन्नति, भणियं च-"होइ जणसण्णिो बाहिरो य०" परिवादो णाम परिभवो, दिलुतो-एगंमि गामे एक्को को९विओ धणमंतो बहुपुत्तो य, सो Pबुड्ढीभूतो पुत्तेसु भर संणसति, तेहि य पजायपुत्तभंडेहि पुत्तेहिं भजाश्रो भणियाओ एवं उचलणण्हाणोदगभत्तसेजमादीहि पडि यारिज्जइ, ताओ य कंचि कालं पडियरिऊण पच्छा पुत्तमंडेहिं बड्हमाणेहिं पच्छा सणियं सणियं उपयारं परिहावेउमारद्धाओ, कदायि देति कदायिण देति, सो झूरदि, पुना व णं पुच्छंति, सो भणइ-पुष्पपुवुत्तं अंगसुस्वसं परिहायंति, ताहे ते ताओ। बहुगाओ खिज्जति, पुणो पुणो निम्मत्थमाणीओ, पुणो अम्हे णिक्कज्जोवगस्स रस्स एयस्स तणएणं खलियारिज्जामो ताहे। IN/ताओ रुट्टाओ सुट्ट्यरं न करेंति, पच्छा ताहिं संपहारेऊणं अपरोप्परं भणति पतिणो-अम्हे एयस्स करेमो विणयपवत्ति, एसो | निण्हवति, कतिवि दिवसे पडियरिओ पुछि ओ किंचि, ते इदाणि करति ?, ताहे तेण पुबिल्लगरोसेणं भण्णइ-हा ण मे किंचिवि । करेंति, कइतवेण वा, ताहे तेहिं बुचद-विवरीतीभूतो एस थेरो, जइवि कुब्बति तहवि परिवदति, एस कयग्घो, कीरमाणेवि ॥५२॥ दीप अनुक्रम [६३ ७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [64] Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१७२-१८६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६२-७१] (०१) श्रीआचारांग सूत्र चूणिः २ अध्य० प्रत वृत्यक [६२७१] | हिण्डवति, अनेसिपि णीयल्लगाणं साहति, एवं ता पायं जराजिण्णं परिवदंति-समंता वदंति परिवदंति, जत्तियं तदा चिट्ठति । | भासंति वा, जेवि ण य परिवदंति देवतमित्र मण्णति तेवि 'णालं तब ताणाए वा सरणाए वा,' पर्याप्तमादिषु, पजसीए | अलं वीतरागो मोक्खस्म, भूमणे अलंकृता कण्णा अलंकृतं कुलं बद्धमाणेणं एवमादी, वारणे अलं भुत्तेणं गतेण वा एवमादि, | इह पजनीए, सो सिक्खगो पुब्वबंधुणेहेण विसीयमाणं सयमेव अप्पाणं अणुसासति, जेसिकरण बिसीतई णालं ते मम ताणाए वा सरणाए वा, परेण वा भण्पाति-णालं ते तब ताणाए वा सरणाए वा, जरारोगात केहिं अमिभूतस्स ताणं जहा णदिमादिएसु वुममाणस्म जाणवर्ग, जेण आवति तरति जं अस्सिता णि भयं वसंति नं सरणं, तं पुण दुग्गं पुरं पचतो वा पुरिसे वा, तुम-|| | पि नासि जालं ताणाए वा मरणाए वा, कोइ बुड़ादि वुडसरीरेण वा जराए अमिभूतो सो पुत्तादीणं दारिदाति अभिभूताणं वा ताणाए चा, जो पुण जराए अभिभूयति सोण हस्साए, तेण मज्झत्थं भविदव्यं, जति हसति हस्सो भवति, किं किर एयस्स। हसितेणं तित्थाणपलितस्स ?, असमत्थो य ण सकेति हसितुं, तेण ण हस्साए, 'ण किडाएति लंधणपहावणअफोडणघावणाति| अयोग्गो भवति, जुन्नरस वा 'ण रतीए'ति विसयरती गहिता, हसितललितउवगृहणचुंबणादीणि तेसिं अयोग्गो ‘ण विभूसाएजति जति विभृसेति आभरणादीहि तो हसिजति, भणियं च-"ण तु भूपणमस्य युज्यते, नच हास्यं कुत एव विभ्रमः | अध | तेषु प्रवर्त्तते जतो, धुवमायाति परां प्रपश्चनाम् ।। १॥ अत्यो धम्मो कामो तिण्णि य एयाई तरुणजोग्गाई। गनजुब्बणस्म पुरि सस्स हाँति कंतारभृताई ॥ २॥ गतं अप्पसत्वगुणमूलट्ठाणं । इदाणिं पसत्थगुणमूलट्ठा, गाते 'इवेवं समुट्टिते अहो विहारापा इति एवं इच्चवं, जाणिना वकसेसं, किमिति ?, पत्तेयं सुभासुभा कम्मा, फलविवाग, अहवा जतो एवं ते मुहि० ण अलं जरमरण-IN दीप अनुक्रम [६३७२] A पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [65] Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१७२-१८६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६२-७१] (०१) HOME प्रत वृत्यक [६२७१] रोगपरित्ताणाए तेण एतेण पसत्यमूलगुणड्डाणे ठाइत्ता से ण हस्साए ण रईए ण विभूसाए य अम्भुद्धिज, ववगयहासकोऊडल्लो रांग सूत्र- चनसरीरो इच्चेवं समुट्ठितो मूलगुणेहिं पुन्वभणितेहिं संचिजइ, ण केवलं मूलगुणेहिं परिणायकम्मो जो ण इसति, उत्तरगुणचूर्णिः IM उवघातविरहितोस मुणी परिण्णायकम्मोत्ति अमिसमिच्चा सोच्चा वा तिविहकरणसावअजोगविरहितो इथे समुद्विते अहो विहाराए, २ अध्या Wअहो दहण्णे विम्हए य, बिम्हये द्रष्टव्यः अहोसद्दो, विहारो दवे भावे य, दन्बविहरणं लोहमयं जेण उडिमाईणि दवाई ॥ ५४॥ फालिअंति, भावविहरणं पसस्थगुणमूलडाणं जेण अडचिहकम्मखंधा विप्पदालि अंति, 'अंतरं था खलु'ति अंतर विरहो छिई, जहा कोइ सधणो पुरिसो पंथं वच्चंतो चोरेहिं चारियं अप्पाणं जाणित्ता तेसि सुत्तमत्तपमत्ताणं अंतर लधुं हिस्सरति, इहरहा तेसि मुहे पडइ, एवं माणुसस्स खेत्तकालाईणि लधु अहवा नाणावरणीअंतरं लधु जइ ण पचमति तो पुणरबि संसारे पडइ, V खलु विसेमणे, किं विसेसेइ १, मणुस्सेसु तं अंतरं भवति, ण अण्णस्थ, 'इमति तवसंजमवर्स सपेहाए धी-बुद्धी पेहा मतीति, मुहते-मुहुत्तमवि णो पमायए, किमु चिरं कालं?, अंतोमुहुत्तियो उवओगो, तेण समतो, इहरहा समयमवि ण पमातए, सो Dतहा अतीव अतीति अञ्चेति, जं भणित-वोलेति, सव्वयाणं जोवणं पियं तपि वोलेति, भणिय च-"नइवेगसमं चंचलं च जीवितं | च" ग्रहणं जहा जोव्वणं तहा बालातियावि, एवं णाऊणं अहो विहारेणं उडिओ पुणरवि अप्पसत्थं गुणडाणं जं उबयंति अतिANI कमंति, ण बुझं 'इह पमत्ता' इपिचि अल्पसस्थगुणमूलट्ठाणे बिसयकसापसु अहो य राओ य परितप्पमाणा कालाकाल. 'से हंता' से इति सो अप्पसस्थगुणमूलट्ठाणी हंता थावरे जंगमे, छेना हत्थपायाइ, अवराहे अणवराहे वा, रुक्खाति वा, भेत्ता | | सिरउदराति फलाणि वा, लुपिना कसादिहि मारणे पहारे य, लुंपणासदो पहारे बद्दति, विलोपो गामातिपातो उदवणं तासो या, ID५४॥ दीप अनुक्रम [६३ HAPA ७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [66] Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१७२-१८६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६२-७१] (०१) गंग सूत्र २अध्य प्रत वृत्यक [६२७१] श्रीआचा-1 एयाणि जोगतियकरणतिएणं करेंतो अकडं करिस्सामिति मण्णमाणो अण्ण केणति अक्तपुव्वं जहा सुमोमेव घिजाइयाण अपूर्वकर | उच्छायण कतं, अकयपृथ्वं अण्णोण खत्तिएणं , अहवा जं कयं ते कयमेव, अकयं करिस्सामि, सो एवं आयपरोभयपोसणथं NI पादिः चूर्णिः | |हणछिदभिंदआलुपाविलुपउद्दवणाइएहि अकयं करिस्सामीति मण्णमाणे अत्थं समञ्जिगइ, सो एवं अत्थपरो 'जेहिं बा सद्धिं संवसति' जेहिंति मातातिहिं सरहिं एगतो सम्म बसति, ते च णं नियगा ते एव मातापिताति, मातापितरो जातमित्नं पृवं ॥५५॥ पोसंति, पीवगमिनपोत्तादीहि, वा वियप्पे, कदायी ण पोसिञ्ज जहा जारगम्भी उज्झितो अण्णेहि पोसिजति, अट्ठगम्भो विप्पजुत्तो वा, स एव पुचो संवड़ितो मातापितरो पोसंति, केयि अणारिया देसेहि थोवितरोवितेहिं पुत्तेहिं अकम्मसहोत्ति पिता गद्दभपालो कीरति, अण्णेसि मारित्ता खित्ते खयं खणित्ता णिक्वमंति, पमत्थर्वतरो भवित्ता त खेत रक्खइ, ण कस्मवि अन्नस्म | तत्थ उत्तार देति, ते एवं अदुस्समाणावि जरादिदुक्खपत्तीए णालं तय ताणाए या सरणाए वा, तुमपि तेसिंणालं ताणाए वा सरणाए। वा, एवं ता सयणो ण ताणाए, सयणाउवि धणं प्रियतरं, उक्तं च-"प्राणैः प्रियतराः पुत्राः, पुत्रैः प्रियतरं धनम् । स तस्य हरते | YA प्राणान् , यो यस्स हरते धनम् ॥१|| तंपि ण ताणाए,तं कहं उप्पजह ?,भण्णइ-'उववातीतसेसेण वासे जंतेण अहण्णहण्णि | कम्मत्तेण धणं उववजितं ततो उबातीतसेसं, जं भणितं-उवभुत्तिसेस, णिधाणं सण्णिही, ओदणदोश्चंगादीणि विणासिदवाणि,संनिहि| संणिचयो घृतगुडपढवण्णकप्पासादीएहि, इह असंजते मणुस्से एगेसिं, न सव्वेसिं, असंजता वा केयि खाइकचकला तेसिं कयो A संचयो ?, तं च दुक्खं परिभुत्तुं भवति, कहं ?, ततो से एगता रोगसमुप्पातासमुप्पजति' तंमि उवज्जिते धणे एगस्स, ण सबस्स, रोगा कासाति, रोगाणं समुप्पाता रोगसमुप्पाया, सन्नरोगाणं च कुट्ठरोगी अवगीतोत्तिकाउं तेण भण्णति 'जेहिं वा| दीप अनुक्रम [६३ ७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [67] Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१७२-१८६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६२-७१] (०१) श्रीआचा- चूर्णिः २ अध्य० ॥५६॥ प्रत वृत्यक [६२७१] जाव परिहरंति' ब्रामणं सेडगमिव पुत्ता, 'सो वा ते पच्छा परिहरिजा' सो थेव सेडयओ ते पञ्या णियए परिहरति, जेवि अनिनेहेण न रोगामिभूतपि परिहरंति, तेवि नालं ते तब ताणाए वा सरणाए बा, तुमपि तेर्सि, इच्चेवं जाणिय परिवारे दिक्षण: पोसणो, परिहारे य अपडिपक्रवदुक्खं 'पत्तेयसात' एक्कं प्रति पत्तेयं दुक्खं सात बा, नेण जाव ण परियप्ती जाव य| V सचिट्ठा ण य रोगित्ता जिष्णता वा परिहरंति ताव 'अणभिक्कतं वयं सपेहाए' न अभिक्कतो अणभिक्कतो वितिए पढमे वा | वए संजमो, अमिक्कते वए जाव तिणि दोसा परिवात पोसणा परिहीणसद्धा, अणमिकतेवि संबुज्झ, तेसिं परिवातादीणं दोसाणं एगतरेणावि अपुट्ठो अभिकतवयोवि कोयि दढसरीरो प्रवारिहोजह भगवया पुर्व मातापितरोपवाविता, किंच-अणमि-11 कंतवओ 'वणं जाणाहि पंडिते' खीयत इति खणो, स तु सम्मनपामायियमादि, एक्केकस्स सामायियस्स चउब्विहो खणो भवति, तजहा-खेत्तखणो कालखणो कम्मखणो रिकखणो, खितं उडमहतिरियं च, उद्दलोए ततियचउत्थाण सामाइयाण खणो गस्थिति जं भणितं, लंभो, सम्मत्तमुत्ताणं पुण होज खणो, अहेलोएवि अहेलोइगामवझं एवं चेव, अहेलोइएसु तु गामेमु चउ| हवि खणो अस्थि. जंभणितं-लंभो, तिरिक्खलोए माणुस्सखेतस्स घहि अचरित्ताणं तिहं खणो होजा, अंतो पधारससु कम्मभूमिसु चउण्हवि लंभो, भरई पडुच्च अदछब्बीसाए विसएम होजा, तंजहानायगिहरू, विजाहरसेढीसुवि होजा, अकम्मभूमीसु पडि-IN बजमाणयं पडुच्च सम्मत्तसुया होजा, साहारणे पुवपडिवण्णगं पड़च चनारिवि होआ, एवं अंतरदीवेसु, कालक्खणेवि ओसप्पिणीए उस्सप्पिणीप गोउस्सपिणीओसप्पिणीए, तिगचउत्थसामाइय जम्मणेण दोहिं संतिभावेण तीहि, ओसप्पिणि जम्मणेण तीहि संतिभावेण दोहि, गोउस्सप्पिणि चउत्थे पलियभागे होजा, साहारणं पहच्च अन्नतरे समाकाले होज्जा, सम्मत्तमुयाणं सव्वामु समासु || ॥५६॥ दीप अनुक्रम [६३ ७२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [68] Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१७२-१८६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६२-७१] (०१) श्रीआचागंग सूत्र चूर्णिः २ अध्य १ उद्देशः ७ A प्रत वृत्यक [६२७१] | खणो पलिभागेसु य, कम्मक्वणो नदावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेण चउण्डंपि सामाइयणिज्जुत्तीए, रिक्कखणे इमाणविचारः गाहा 'आलस्स मोहवण्णा.' अहवा इमो खणो भण्णति 'जाव सोतपण्णाणा अपरिहीणा' सोतस्स पण्णाणं | सोयपण्णाणं, परिहाणी देसे सम्बे य, सा पुण जराए वाहिणा उपक्कमेण वा परिहाणी भवति इंदियाण, 'इतेहिं' विरूवंविविध रूचं, विरूवं रूवं जेसिं ताणि विरूवरूवाणि, जं भणितं-नानासंठाणाणि, तंजडा-कलंबुयापुप्फसंठिए एवमादी, भावेवि सदग्रहणसमत्थं सोतं स्वोबलद्धिखमं चक्षु एवं सेमाणिवि. विसिट्ठ वा स्वं विरूचं, जंभणितं णिरुवहतं, अहवा नोइंदियच्छट्ठाणि || विरूवरूवाई पण्णाणाई भवंति, जं भणितं पत्तढविसयाहिं, तेहिं अपरिहीणेहिं आयटमेव-अपणो अट्ठी आयट्ठो, को य सो, | संजमो पंचविहो वा आयारो विसयकसायनिग्गहो वा, अहवा आयतपण्णाणं घेत्तुं, अहबा दिग्घदरिसिया आयतट्ठी, अहबा साति| अपञ्जवसितो मोक्खो आयतो, आयतस्स अट्ठो आयतडो-पंचविहो आयारो तमायतटुं सम्म, ण मिच्छा, र्ज भणितं अवहितं, कई सम्म १, भण्णा-णो इहलोगट्टयाए तवमहिवेति पो परलोगट्टयाए तबमहिडेति नो अपाणं मणुस्सकामभोगाण हेउं, मंसबडिस-10 | गिद्धा इव मच्छा, जहा या कागिणीए हेतुं, रायिस्सरादयो अप्पकालिए मोहे मजा नरएसु उवषअंति कसायविसयलोयअपरिण्णायदोसेणं, तम्हा एवं अपरिहीणविष्णाणो आयत९ सम्म अणुवसिञ्जा-अणुसिय अणुकूल वा बसिज्जाहि बंभचेरे अणुवासेज्जासितिमि । इति लोगविजयसारस्य द्वितीयाध्ययनस्य प्रथमोदेशकः ॥ संबंधो दुविहो- अर्णतरसूत्रेण तदणंतरेण य, अनंतरेण आयय₹ सम्म अणुवासेज्जासिचि, सम्म संजमे रति कुज्जा उबदेसो, तं उबदेसे अविरत्तभावा अथायुगं वालंति, केयि पृण विसयकसायवसं गता अष्पं वा बहुं वा कालं अहाविहारेण विदरिचा दीप अनुक्रम [६३७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: द्वितीय-अध्ययने द्वितीय-उद्देशकः 'अदृढता' आरब्धः, [69] Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [१८७-१९७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७२-७६] (०१) IAN अरतिवजेन घृणि: HI २ उद्देशः प्रत वृत्यक [७२ श्रीआचा- पुणो पढ़ति, परंपरसुत्तसंबंधो जाव ते पण्णाणेहि अपरिहाणी ताव तं संजमे ठिचा रति कुज्जा इति, अददत्तं विसयकसाएहि रांग पत्र-I| कुरु तस्विवक्खे य ददत्तंति, एस संबंधो 'अरति आउट्टे' संजमे अरति रतिं विसयकसारहि कलत्तादिसुतं आउठे, जं भणितं होइ | २ अध्यक | णिण्णेहि, आरंभे वा आउट्टणासहो, संजमे रति कुज्जा, मणिभावे वेरग्गे पसत्यमूलगुणहाणेसु य आउट्टाहि, सा पुण पंचविहे आयारे रती विसयकसायनिग्गहे रतिं धम्मे रति अधम्मे अरई, तस्स एवं संजमरयस्य इह चेव अब्बावाहसुई माति, भणियं । |च 'तणसंधारणिविट्ठोवि मुणिवरो० गाहा, अप्पसत्थरईए कंडरीओ उदाहरणं गरएसु उबवण्णो, पसत्थरईए पोहरीओ, एवं अप्पसन्धरईयो पसत्थरति आउमाणो मेरामेहावी, मेहा ता 'वणंसि मुके' खीयतीति खणो खणमिचेण मुचति, भरहो जहा | सब्बकामेहिं बंधणेहि य, जे पुण अणुवदेसचारिणो कंडरियादि ते 'अणाणाए पुट्ठा णियति' अणाणा जहा अमिलसिता| अहितपवित्नी, पुट्ठा परीसहेहि, तत्थ इत्थीपरीसहो गरुयतरो तेण पुट्ठा मंदा बुद्धिश्रवचए मंदा, मोहो-कम्मं तेण पाउडा-छादिता इहपरलोइए अपाए ण बुझंति, विसयतिसिया इहलोगगवेसया कंडरियादी भणिया लिंगपच्छागडा, अण्णे पुण 'अपरिग्गहा भविम्सामों' अंतग्रहणा अहिंसगादि जाव अपरिग्गहा, संमं उत्थाय लद्धा पट्टपण्णा कंडरीओ जहा, 'अभिमुदं गाइति, जहा तण्हाइतो हत्थी सरंतो अप्पत्तो चेव कोई पंके खुप्पति, एवं सोऽवि भंजिहामि भोगे अंतरा चेव मरति, कोई पुण लज्जाए वा गारवेण वा पराणुयत्तीए वा णो लिंग मुपति संकिलिट्ठपरिणामो जहा खुडओ, अणाणाए पडिलेहेति, आणा भणिता, पडिलेडणा कामभोगणिविडचित्तत्तं, नाणाविहेहि उवाएहिं सवियप्पेहि य विसए पुणो २ पढिलेहिइ 'एस्थ मोहे पुणो पुणों' दबमोहे मज्जाति भावमोहो अण्णाणं संसारोबा, एत्थ भावमोहे संसारे पुणो पुणो भवंति, अहवा एत्थंति-पत्थं असले संसितो पुणो पूणो । ७६] ॥५८ दीप अनुक्रम [७३७७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [70] Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [१८७-१९७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७२-७६] (०१) प्रत वृत्यक [७२ श्रीभाचा-1 कामभोगेसु सज्जमायो पुणो मोहो भवति, जंभणितं कम्मबंधो होति, एवं विसयामिलासिणो सण्णामूडा, दवे गीतरणादिसु मज्जंति, संज्ञामंदादि गंग सत्र-0सो तिविहो संनो-इसिनि मज्झिमो णिसंनो, तत्थ इसित्तिसंनो णातिदूरं बुज्झति, मझिमो दूरतर, निसंनो मुदूर बुज्नति, अहवा चूर्णिः । तत्थ नेव विणस्सति, एवं भावसण्णोवि तिविहो-जहष्णो उत्तरे गुणे पमादि, मज्झिमो लिंगधारणो, उकोसो पुणो चउत्थं सेवति, २ अध्य २ उद्देशः IA Vते एवं 'नो हवाए णो पाराप' हवं- गारहत्थं पगामकामभोगिनं तं तेर्सि अदचित्ताणं ण भवति, पार-संजमो, तत्थविVI ते ण भयंति, ते उ ततो मुका व गिहत्था ण पब्बइया भवति, जे पुण अपसत्थरतिविणियट्टा पसत्थरतिप्राउट्टा विमुत्ता ते जणा पारगामिणो, दव्यविमुत्ती सयणघणाति भावे विसयकसायाति, सम्यतो वा पमाता ते विमुक्का, तहा कजमाणे कडे, एवं समए) २ विमुचमाणो, अहवा सिझमाणसमए विमुचमाणा विमुका, जायंतीति जणा, अहवा सम्बत्व जणभूया जणा, जं भणितं णिण्णेहा, | KA के तेवि विमुत्ता , भण्णति-पारगामिणो, पंचविहयारगुन पसस्थगुणं मूल पारं वा गच्छति, पारगामिणो वा एते, जगारेण उद्दिद्रुम्स तगारेण निदेसो भवति, भण्णति-अणेगंतो एसो, जेण भणितम्-"तमै धर्ममृते देयं, यस्य नास्ति परिग्रहः । परिआहे तु ये मक्ता, न ते तारयितुं धमाः ॥१॥" ते कई पारगामिणो ?, भण्णति-'लोभं अलोभेण दुगुंछमाणा' "यथाऽऽहारपरित्यागो, ज्वरितखौषधं तथा । लोभ(स्यैवं)परित्यागः, असंतोषस्य भेषजम् ।।१।। असंतेसऽप्पसंतोसो, दुगुंछा नाम पडिगारो, अहवा असंतोसं दुगुंछति, असंतुद्वाणं इह परस्थ य भयं भवति, इह लोए अजिणणे रक्खणे य, परलोगे परगादिसु भयं, एवं | कोवं खंतीए जिणत्ति, माणं मदवेणं, मार्य अजवेणं, बहुदोसा दुलंघता य तेण पाणुपुबीए, ते पुण संजलणा, इतरे संतस्स पत्थि, सो लोभो अलोभेण दुगुंछितो सन्चतित्वगरेहिं रायीसरतलवरपब्वइएहि य, अहवा सञ्चसाहहिं दुगुंछिओ, कह १, पव्ययं ७६] दीप अनुक्रम [७३७७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [71] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [१८७-१९७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७२-७६] (०१) श्रीआचा- गंग सूत्र चूर्णिः । २ अध्य २ उद्देशः प्रत वृत्यक [७२७६] तेण जतो तिणि कोडीओ पक्खित्ताओ भवति, तंजहा-अग्गी उदगं इथिओ, कह', जब कोइ बुच्चेञ्जा-तिष्णि कोडीओ गिहलोभजूगुउदगादीणि मुय, सो इबिजा, एवं लोभ दुगुंछमाणो लद्धे कामे नाभिगाहति, अमिमुहं गाइति अभिग्गाहति जहा चित्तोखुङ-10 प्सादि ओवा, 'सुट्ठ गाहतं मुट्ठ वाइयं सुठु नच्चियं सामसुंदरी। दिजंपिरजंन इच्छति एस, एवं दढचाहिगारे अणुतरे, एवं ता सलोभो णिक्खंतो कोयितं लोमं अलोमेण दगुंछइ जाव सब्वथा खीगो, कोयि पुण विणावि लोभेण निक्खमइ जहा भरहोराया चाउरतचकवट्टी, एवं कोहो माणो माया, अहवा अणताणुबंधी अप्पचक्खाण पचकखाणावरणा तित्रिवि लोभा गहिता, तेहि विणा | णिक्वतो, एवं कोहमाणमायाचि तिणि तिष्णि, कोयि महावि लोभेणं णिक्खंतो सरागसंजमो घेप्पड़, णवि सो तेसिं खवणाए। उद्वितो अणिक्खतो भवति, अहवा सह जहा गोविंदो णिक्खतो, तपि सेयं भवति, अहवा ओदणमुंडो जावि सावि पन्चा होति अहगं पुण णरस्स सुहबइणिज्जो, अहगं पुण ओदणमुंडो अच्छरामज्झगतो विलसामि, एअंसकम्मे जाणइ पासइ भरहो जहेह राया,, अण्यो देसक्खएणं पडिलेहाए णावखंति विसयादि, सम्म उडिते आयतट्ठीए, एस अणगारेति पञ्चति-मिसं वुश्चति, भणिता दहधितिणो, तन्धिवक्खा अप्पसत्थगुणट्ठाणवत्तिणी विसयकसायवसगा, अलोभं लोभेण दुगुंछमाणा लद्धे कामे निगूहमाणा, अविणयितुं लोभ निकखंता मिच्छुगमादी, अणिक्खंता वा सकम्मणो णो अणगारा पन्नुचंति, 'इच्चत्थं गदिए लोए वसति' पमत्तो गिहिलोगो पासंडिलोगो वसति भोगेसु विसयकसायातिपमत्तो अददधितित्वा अप्पसत्यरतिश्राउो आयपरउभयोउं अत्थोवज्जणपरो कालाकालसमुट्ठायी जाच एत्थ सत्थे पुणो २ पावाइवायमादिएमु जोगतियकरणतिएणं से यातयले' अप्पा मे बलितो भविस्सति अपरिभूतो वा, चलितो भोगे अंजीहामी जुझिहामि वा सालंकारो वा में भविस्पति, तेण मंसमजपाणण्हाणादीहिं सरीरडी-1 दीप अनुक्रम [७३७७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [72] Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [९८७-१९७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७२-७६] (०१) प्रत वृत्यक [७२ श्रीधाचा खमेहि अप्पाणं पोसति, तित्तिरवगलावगमादी सत्ते उच्छादयति, जातिवले' सपणसंबंधी ते मम बरे वलिया भवंतु, तेहिं बलि-10 ज्ञातिवगंग सत्र-1 एहिं अई बलिओ अपरिभृतो य मविस्सामि, एवं मित्तं सहबासाति, सो पेचतलोगणिमित्तं धिज्जाइये पोग्गलेणं झुंजावेंति, जण्णा || लादि चाण: Mय जयंति, एवमादि, देवयले पसत्यदेवबले य अपसत्थदेववले य, पसत्यदेवबले दुव्बलियममित्तप्पमुहेण संघेण देवयाए २ अध्य. २ उद्देशः 2. बलनिमित्तं काउस्सग्गो कओ, अप्पसत्थदेवबले छगलगमहिसपुरिसमादीहिं चंडियाईदेवयाणं जागा कीरंति, 'राजबले'त्ति वृत्यर्थ ॥६ ॥ | सेवते 'राजा त्राणमनर्थे मे, ततस्थिवर्गमेव च' त्रिवर्ग साधयिष्ये वा विजयिष्यामि वा परं 'चोरयले'त्ति चोरा मम भार्ग देहिति |दरिसिस्संति वा छिद्दे सत्तूणं मम रुयिता, अतिधीनो धूलीजंघा 'किविणा' विगलसरीरा 'समणा' चरगाति, एतेसिं अत्थत्थी जसन्थी | धर्मार्थाय दयेति 'इचेतेहिं' इति एतेहि विरूवरूवाणि णाम अणेगरूवाणि अण्णाणिवि जीवंतगदाणाणि मतकिञ्चपुत्रदाणभर-IH जाणादाणि, एवमादिविरूवरूवेहि कोहिं दंड समारभति, पढिज्जइ य-'इतेहिं विरूवरूवेहिं कज्जेहिं दंडसमादाणं सपेहाए । दंडयति जेण सो दंडो. दंडो घातो मारणति एगट्ठा, समत्तं आताणं समादाणं, सब पेहाए सपेहाए, भया कजति, पावमोक्खा, Aण केवल आतवलातिणिमिन, कायदंडा कीरति रायचोरादीणं, अहवा सव्वाई एयाई भया कअंति, मा मे सरीरं दुबलं भवि स्सइ, नाततो वा रुस्सिहिंति, देवयावि पुवाचारखंडणेगं रुस्सेज्जा, अतिहिमादीगवि देती, बलं लोगस्स गणमतो भविस्सति, IN संमोक्खो पमोक्खो तं मोक्खं मन्नमाणो चरगादीणं देति, आसंसणा णाम पत्थणा, सा इह परत्थ य, तत्थ इहलोगासंसाराया| दी विनिणिमित्वं सेविजंति, परलोइयाणि रचातीण करेंति, णिदाणोवहता वा, एगपुप्फुपादाणेणं एवमादी आसानैति,'तं परि"पणाय मेहावी' तदिनि नं आयबलादि, अहवा सव्वं एतं जहुद्दिढ जं सत्थपरिणाए जं च इह अज्झयणे पदमुद्देसए वुत्तं दुविहं 0 ७६] दीप अनुक्रम [७३७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [73] Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [१८७-१९७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७२-७६] (०१) प्रत वृत्यक [७२७६] श्रीआचा- गुणवाणं विसयकसायामाणादि तहा कालाकालसमुढाणि जराए य अभिभूतस्स परिवारपोसणपरिहारा णो हस्साते य० खणं च उचनीचरोग सूत्र | इंदियपरिहाणी मूढभावं च जंजस्थ जुञ्जति तं दुविहाए परिणाए परिणाय रति अरति आउंटणं च जाव आसंसति, एवमादि) गात्रादि चूर्णि: २ अध्य० दुविहाए परिणाए मेरामेहावी णो पडिसेवे 'एतेहिं कज्जेहिं ति जाई एताई आतबलादीणि उदिहाई 'णेब' ण इति पडिसेहे एक३ उद्देशःN सदो अभिधारणे, सयं-अप्पणा दंडं समारमिज्जा छसु जीवनिकाएसु, णोवि अण्णेणं, अन्नपि न समणुजाणेज्जा जोगतिगकरण तिगेणं, एवं मुसावाये जाव परिग्गह, किं कारणं १, जे सत्थे तेहिं हिंसादिएहिं पगारेहिं दंडेति, वक्खमाणं च, तुमंसि णाम, केण एतं पवेदितं ?, भण्णति-'एस मग्गे आयरिएहिं पवेदिते' एस इति नाणादिजुत्तो भावमग्गो नाणादि आयरिएहिं पगरिसेण साधु वा वेदीतो प्रवेदिती, तंमि भगवंपवेदिते मग्गे भगवतो गौरवा सव्वतित्थगरमती संसारभीरुता 'जहित्य कुसले णोवलिंपेजासिनि दवे कुसले कुसे लुणाति दबकुसलो एवं भावकुसलोवि गोवलिंपेज्जासित्ति, लेवो अप्पसत्थगुणमूलट्ठाण विसयकसाया मातापितादि अण्यातरजोगलेको दकणिवातलेवोजो य उवरिगो ताणाति, तेण पोचलिंपेजासित्ति अप्पाहणिया॥ एवं लोगविजयस्स द्वितीयोदेशकः।। ____ कसायविसया भणिओ भावलेवो, एथवि कसाया वणिज्जंति इति अणंतरसूत्रसंबंधो, आतबलादीण माणणत्वं कजंति कायदंडाइ य अतो परंपरसूत्रसंबंधो, सो माणो अणेगसो संसारे पत्तपुब्योतिकाउं भण्णति से असई उचागोते से इति संसारी | असइ-अणेगसो अणन्तसो वा उच्चं दाणमाणसकारारिहं गोच, नीयं विपरीतं, तैपि असई आसी भदंत!, नागार्जुणीयास्तु Kापदंति 'एगमेगे खलु जीवे अतीतद्वाए असई उच्चागोए, असई णीयागोए, कंडगवयाए णो हीणो णो अतिरित्तो' तत्थ कंडगं दीप अनुक्रम [७३७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: द्वितीय-अध्ययने तृतीय-उद्देशक: 'मदनिषेध आरब्धः, [74] Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७७-८१] (०१) ३ उद्देशः ॥६३॥ प्रत वृत्यक श्रीआचा- परिमाणं छेदोत्ति बा, जत्तियं कालं जाइमादीहिं विसिट्ठो भवति तं उच्चागोयकंटगं, विवरीतं इतरं, जातिविसिट्ठयाकंडगस्स D| उच्चनीचगंग सूत्र- जातिविहीणताकंडग पडिपक्खो, एवं कुलवलादीहिवि भाणियध्वं, अप्यावहुयं कंडगट्टयाए पो हीणे णो अतिरिते, उच्चागोय- गीत्रादि चूणिः IN २ अध्य IM कंडएहिं एगभविएहि वा अणेगमविएहि वा णियागोयकंडगा णो हीणा णो अतिरिचा, तत्थ उच्चगोयकंडगं जहणं अंतोमुहु । Vउकोसेणं असंखेज्जं कालं, णीयगोयं जहण्णणं अंतोमुहुन उकोसेणं अणंतं कालं, अंतोमूहुत्तेणावि एगतरं अंतर कंडगंण भवति, जतो य अर्गतसो सव्वजीवेहि उच्चत्वं णीयत्तं च पत्तपुत्वं अतो णो हीणो णो अतिरित्तो, पीहणं णाम मदनमिलासकयं पेम, जो जातिहीणो सो जातिमंताणं पीहेति रायमातिणिक्खंताणं, परेण वा वुत्तो जहा तुम कट्ठहारगादि निर्खतो, ण तेसि कुष्पज्जा, | इति चुत्ते णवि अरतिं कुज्जा इति, एवं संखाए ति एवं जाणित्ता, किमिति परिगणिता? 'से असई उच्चागोए परिन्ति, जेण Wएवं परिगणितं-जहा मया अन्नेहि य जीवेहि अविसेसेण सबढाणाई अणेगसो पत्तपुबाई, अतो तस्स विदितप्पणो के गोतावा | ते के माणावातो?, जातिमादीणं अन्नतरेणं उपवेतस्स गोतावातो भवति, सगुणपरिकप्पणाणिमित्तो माणो भवति, एवं के | जातिवाते जाव इस्सरियवाते, कसि वा एगे गिजोति, या हि केणइ किंचि उवट्ठाणं ण पत्नपुर्व, अतो को रागी? कतरेहि वा सदाइहि | सुहगेहिं करिस्सति ? जे तुमए णाणुभूतंति, भणितं च-"सर्वसुखाण्यपि बहुशः प्राप्तान्यटता मया तु संसारे । उच्चस्थानानि तथा तेन | PAIन मे विस्मयस्तेषु ||१|| कतरं वा णीयस्था सदादीदुक्खं ण अणुहूयंति मया जो उब्वेविजामि, किंच-अहिंतो हीणं होऊण ण 2 दोति पुणो उत्तमो, उत्तमो वा हीणो 'होऊण चकवट्टी पुहविपती विमलमंडलग्छनो। सोचेव णाम तुच्छो अणाहसालोबगो होति ।।शा' तम्हा पंडिते णो हरिसे-जातिमादीसंपण्णेण हरिमोण कायचो, नदणुववेतेण हीलिज्जमाणेण ण कुप्पेयर्च, कई ?, अयवाडगदि8-0 ६३ ।। [७७८१] दीप अनुक्रम [७८ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [75] Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७७-८१] (०१) गोत्रादि प्रत वृत्यंक भीआचा-|| तेण, किंच-इममि व भवे कोयि राषा भविता दासो भवति, कहिं ?, जो हि कंडणिज्जितो गहितो य स दास इव भवती, स| रांग पत्र 10 एच पुणो मुको तक्खणादेव राया, जहा उद्दायणेण पजोतो, णंदो वा खणेण राया जातो, रूवसंपण्णोवि खणेण विरुवी भवति ।" ITAL काणितो कुंठितो बा, छायातो वा भ्रस्थति, जहा सणकुमारदेवोदाहरणं, कालंतरेण वा जराए वा विणा वा रूबविवज्जिओ भवति, ३ उद्देशः जहा सणकुमारस्स, एवं सेसावि मदवाणा सपज्जाया भाणियन्या, सो एवं उच्चादि निपेहि य गोताहें निवियप्पमाणो भूतेहिं | ॥६॥ जाण पडिलेह सात, अहवा णामं च गोयं च पाएण सहमयाणि चेव भवंति, कह', अंगपच्चंगभेदे सरीरिंदियविणासे | | वट्टमाणो मरणा असुभणाम बंधति, जातिकुलादिट्ठाणववरोरणे बढमाणो नीयं गोपमिति, ताणि य तम्भया चेष परेसिंण कायब्याणि, अतो भूतेहिं जाण पडिलेह सात', जम्हा भूतेहिं जाणतिचि जाणतो, किं जाणति :-कर्म जीवाजीवादि बंधहेउं तब्धि वागं च जाणति, पडिलेहेहि-गवेसाहि सात-मुई, तधिवक्खो असातं, तं पडिलेहेहि, कस्स कं पियं? किं अणिहूँ; जं जस्स | AU अप्पितं तं ण कायब, नागज्जुणिया पदंति-पुरिसेण खलु दुक्खविवागगवेसएणं पुचि ताव जीवामिगमे कायवे, जाई च ॥ इच्छिताणिच्छे, तं सातासातं वियाणिया हिंसोबरती कायचा, एवं अहिंसतो, सो भूतसातगवेसओ अलियादिआसत्रदारविरतो | | जाव परिग्गहाओ, क्याणुपालणस्थं च उत्तरगुणा इच्छिज्जंति, तप्पसिद्धीए इम भण्णति-समिते एता अणुपस्सी' ईरियास| मिती पढमवयअणुपालणत्थं, एवं सेसब्बतेहिवि जा जत्थ समीती जुञ्जति सा वत्तव्यया, एयाए एतं उच्चनीयगोयगतिगहणं | संसार अणुपस्समाणो, अहवा एतं इच्छिताणिच्छितं सातासातं अणुपस्संतो भूतेहिं जाण पडिलेहि सातमिति वर्त्तते, उचानीयगोतप्पसिद्धिए अणेगरूवासु जोणीसु जहा पहिओ गच्छंतो (कहिंचि) सुई वसति कहिंचि दुक्खं वसति कहिचि गामे कहिंचि रण्ये [७७ ८१] दीप अनुक्रम [७८८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [76] Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७७-८१] (०१) प्रत वृत्यक [७७ श्रीआचा-D| कहिचि वणसंडे सीतलं मलिलं कहिंचि तविधीय एवं संसारेवि कहिचि उच्चागोयं कहिंचि णीयंति, अहवा 'एयाणुपस्सिति अंधत्वादिः राग सूत्र-14 अणेगरूवाओ जोणीए विरूवरूवे फासत्ति इटाणिहा फासिजंतिन्ति फासा, जहा अंधत्तं, अंधो दुविहो-दवे भावे य, दबंधो चूर्णिः २ अध्य | उबहतणेतो अंधतणतो य, भावंधो मिच्छादिट्ठी, दयभावे चउभंगो, पुढविमादि जाव तेइंदिया दोदिवि अंधा, सेसाण विभासा, IYA मा बहिरंत ण मुणेति, मूतो तिविहो-जलमूतओ एलमूतओ मम्मणोत्ति, खुजो वामणो 'बडभेति जस्स वडभं पिट्टीए जिग्गतं, सामो-कुट्ठी सबल-सिति, सह पमादेणंति कारणे कज्जुक्यारा भणितं सकम्मेहि, एस उद्देसओ पायं पमाएणं गतो, से असई) | उच्चागोयत्ति माणो गहितो, सह कोहेण सह मायाए अणेगरूवाओ जोपीओ पुषभणियाओ विरूवरूवे फासे संघाति, अहवा रोगातका फासा तेसिं मागादिकसायाणं भूयाणं असायपवत्तीए य दोसे अबुज्झमाणो, तेण भण्णति 'बुज्झमाणे हतोवहते'N अहवा जती सो नत्थ अवाए बुझिजण मातातिकसाए करंज, अतो भवुज्झमाणे-णाणातितिविहगोहि अबुझमाणे हिंसादिपबत्ने गरगादि उववातं उबढ़स्स अंधनादि ण बुज्झति, जहवा अप्पसत्वगुणमूलढाणाणि य अरतिदोसे आतबलादिदोसे य|| एवमादि अचुज्झते, हतोवइतो हतो डंडकमादिपहारहि उवहतो असुहबाहारण, जहा बागियगस्स साहस्सो णउलओ पुरोहि-1 तेण अवहिओ, मग्गिअंतोत्रि ण दति, रणो णिवेदितं, ववहारे पराजितो, किं कससतं महसि उदाहु गृहं भक्षयसि ?, भगति-17 कससतं सहामित्ति, कतिहि पहारहिं दिग्णेहि भणति-अलं मे पहारेहि, परिहारं खायामि, पच्छा थोर खाइतं, णेच्छति, एवं पुणो Lilपहारी, पुणो थोत्रं खादयति, एवं ते पहारा तं च गृह खाती, एवं सो सबस्सहरणो कतो, हतो य, परिहारमलक्खणेण य अपंतेओ कतो, अहवा वकिमिगादिसु उबवण्णो हतो य उवहतो य, अहवा सणा समुदिसंता सेस अंतस्था ण विरहिता, किंतु सेसाण ?, I n६५॥ ८१] दीप अनुक्रम [७८८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [77] Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७७-८१] (०१) गंग सूत्र प्रत वृत्यक [७७ श्रीआचा-|| अहवा दारिद्रं च रोगा य एवमादि, कह:, हतोवहतो भवति !, भण्णति-'विणिविद्दचित्ते पस्थ सत्थे पुणो पुणों' जो य| जातिमरD| अहिए अप्पसत्वगुणमूलट्ठाणेसु विसयकसाएसु पसत्तो पुणो २ पवत्ता 'जाइमरणं'ति जणणं जातिमेवं मरणं, जे भणितं || णादि चूर्णिः २ अध्य. माणो मरणमाणो य, आवीचिमरणेण खणे खणे जायमाणे मरणमाणे श, 'अणुपरियमाणों' संसारे परिभमंतो अयवाडग॥६६॥ IN दिट्ठतेण वा 'वालग्गकोडिमिनोवि पदेसो गस्थि कोयि लोगंमि । संसार संसरंतो जत्थ ण जातं मतं वावि ॥१॥ एगे अण्णे वा देसा 'जीवियं पुढो पियं' जीविआइ जेणं तं जीवितं, पुढो-पत्तेयं, अहवा विहु-वित्थारे विच्छिन्नं जीवितं विमवेण, अहवा | पिहप्पिहं जणस्म अण्णारिस जीवितं पियं २ जवादीपाणाणं बीयार प्रियं अण्णेसि पा, एत्य मञ्जति पिञ्जति तेण अप्पियं, एगे| सिणंति, न सम्बेसि, केयि दुक्खेहिं पीलिता तं दुक्खं जीवितं णेच्छंति उम्बंधणाईणि करेंति, अहवा एगेसिं असंजयाणं, संजता| जीविते मरणे य अपडिबद्धा, वस्थिसु भोगणिमित्तं अबुज्झमाणा 'खेत्तवत्थु ममायति' खित्त्वत्थूणि पूर्वमणिताणि ममाइत| मिति ममाययमाणा, ममीकारातो य परिग्गहो भवति तेण 'आरत्तं'इसित्ति रतं आरतं, अहवा अञ्चत्य र ते कुसुंभातिणा | "विरत्नं जं विरंगीहतं विचित्तरंग वा जाव पंचवर्ण अजिणाति सम्बा बत्थविही कोयि ण मुंअति काणिपियाणि पडितेतरो,I) IA मणीकुंडलग्रहणा सव्वाभरणजाति गहिना, सह हिरण्योण घडितापडितरूवं घेप्पति, हिरणं सुवणं था, अहवा सव्वं कृवियं घेप्पति, इन्थीण य परिग्गई सब्बओ गिज्य परिगिझ 'तत्थेवारत्ता' तमि खिचातिपरिग्गहे, अहवा खिचादिपरिग्गहे वट्टमाणो | परिग्गह एव भवति ण एत्थ तबो वा दमो बत्ति, 'एत्थं'ति एयमि परिग्गहे सपरिग्गहे वा माणुस्से णिरुबआसवस्स अणुबंध | सरीरं मणसंतावो, ण तबो, कोहादि इंदियआरंभपरिग्गहा अणियचिचेसु, ण एत्थ तवे वा दमे वा दीसति, अहवा मिळादिट्ठी || ॥६६॥ ८१] दीप अनुक्रम [७८८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [78] Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [७७ ८१] दीप अनुक्रम [७८ ८३] श्रीश्राचा गंग सूत्रचूर्णिः २ अध्य० 1180 11 भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) - श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], निर्युक्तिः [१९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ७७-८१] य चोदितव, साहुं अमाणं दद् मण्णंति-'ण एत्थ तवे वा दमे वा' निरत्थयं एते किलिस्संति, स किल 'संपुण्णो वाले | जीवितुकामो' संपुष्णं निव्वाघातं सयणभिश्च विसअविगलो सुयभोगे व अडवा संपुर्ण चकवद्धिजीवियं तं महलं इच्छतो दोहि य गलितो बालो रमणो वा वाकाहिं, अञ्चत्थं पुणो पुणो लप्पमायो लालप्पमाणो, अबुज्झमाणो इति, किमिति ? - धम्मं अधम्मं वा अतिदोसेणं छकाय वदेणं अपसत्थगुणड्डाणेणं दुखभं च पसत्यगुणड्डाणं अनुज्झमाणा हियाहितकत्तव्यविवरीतनिवेसाण मूढा दुरपण विसयगेडीए कागिणिअंबदितेण सुहस्थी तन्विवजयं करे, अत्थउवअणपरो वट्टति, परलोगे नरगादिसु दुक्खं सुहस्स दुक्खं विपरिआसो तं उवेति 'इदमेव णाइ कंवंति' इदमिति जति तं संपुष्णकामभोगी जीवितं पुब्व्वभ्रुचाति य बालजीवितं णाइकरवति, जणभूता जना जं मणितं प्रयणे य जणेय समा०, जेण कम्मा वर्चति य तं ध्रुवं, कारणे कज्जुवयारा, किं च तं १, तवो नाणादि वा, तं जा चरति ध्रुवचारिणो 'जाईमरणपरिण्णाए' जायतीति जाती मरतीति मरणंति, मरणं संसारो, एतेहिं कस्मेहिं नरगादिगतिं जाति एचिरं च जीविता मरति, एवं जाणणापरिण्णाए पचकवाणपरिण्णाए प 'चरे' इति अणुमतस्थे, असंकितो मणो जस्स भवति असंकितमणो, तस्थ भण्णति कुदिट्टिसु जो एवं असंकमणो स एव दढो स एव अविसंक्रमणो, दढचरितो वा दढो, अहवा जेण संकमिति तं संकमणं-नाणादितिएण मोक्खं संकमिति तस्थ चर, संकमणे दढेण य, एवं चिंतेयन्त्रं-काहामो परूपरधम्मं, बहुविधाई सेयाई, अतो भण्णति - णत्थि कालस्स णागमो' कलासमूहो कालो, को य सो ?, मृत्युकालो, ण सो खणो लबो मुद्दत्तो वा जाव संच्छरो विजह जत्थ कालस्म णागमो, अतो अहिंसादिसु अप्पम तेणं खणलवमुडुतादिसु अप्पडिबज्झमाणेण भवितथ्यं क ?, जेण अध्पोवमेण सव्वे पाणा पियाउगा' पिओ अप्पा जेसिं ते पियगा, जो जाए जाईए जीवो आयाति सो हिं जीवितकामिकादि [79] । ।। ६७ ।। पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [७७ ८१] दीप अनुक्रम [७८ ८३] श्रीआचा रंग सूत्र चूणिः २ अध्य० ॥ ६८ ॥ भाग-1 "आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], निर्युक्ति: [१९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ७७-८१] | रमति, इच्छइ य जीविउं जो तेण अहिंसं पसंसंति, सुहं अस्सावेतिन्ति सुहसाता, कुलं पति जमणं कूलं गोतघातजातिघातेद्दिवि | अणिट्ठेहि, सावयाणं सा सुई पडिकूला भवति, किमु सारीरेहिं दुक्खेहिं ?, अतो दुक्खपडिकूला, वहो दुविहो-तालणं मारणं वा, सो दुविहोवि अप्पियो, 'पियजीविणोति तं कामभोगजीवितं जसोकित्तिजीवियं च निरुवकर्म पिपजीवितुकामति, दुक्खयाचि जीवितं कार्मेति किमु सुहिता ?, अतो जीवितुकामा 'सव्वेसिं'ति विरयतसेऽवि य जीवा कामभोगजीविताति, पसिद्धं, एवं | 'परिगिज्झ दुपयं चप्पयं समंता गहो परिग्गहो, दुपदं जहा दासीदासकम्मकरादि, चउप्पदंति जहा वत्युं इत्थि अस्सगोमहिसादि अमिमुदं जुंजिय, जं भणितं अभिभूय, तंजहा-पंधरंधतो सणाकमप्पहारादिएहि वाहिता तेहिं तेहिं कम्मेहिं निर्जुजइ 'संसिंचिगाण'चि परिग्गह इति वति तं दुपदादिपरिग्गहं हिरण्णसुत्रष्णघणधत्राणि वा संसिंचिय, जं भणितं संवडिय, 'तिविहेणं'ति जोगतियकरणतिएण अप्पणा परेहिं उभरणं, अहवा चेयणं अचेयणं मी, मीयत इति मत्ता, अप्पा णाम दीहकालभोगखमा, विपरीया बहुया, अहदा पमाणतो सारमतो वा अप्पा वा बहुया वा, 'से तत्थ गढिते चिट्ठति' स इति असंजतो 'तत्थे 'ति तत्थ अप्पा वा बहुबाए वा मुच्छिते गिद्धे गढिए अज्झोववण्णो, अवा कय अकपल अलद्धा दिएहिं आसापासेहिं गट्ठितो, तत्थेव चिट्ठति, ण ततो मणसावि उवरमति, 'भोयणा'ति भोयणत्थं ते पणिजितु पालेति 'ततो से एगता विप्परिसिद्धं ततो इति ततो घणाओ ततो वा उाणकाला, एगया, ण सव्वता, कदाइ दिवा रातो वा विविधेहिं प्रकारेहिं परिसिद्धं विष्परिसिहं, जं भणितं वेइयं, उत्तसेसं सम्मं भवति संभूतं संमितं वा संभूतं 'महदि'ति पहाणं बहुयं वा उवगरणं महंतं उनगरणं महोबगरणं तंपि आगतमिति तं विष्परिसिद्धं एगया कयाह ण संख्या, दाइयां विभयंति, णेव सव्वस्य अवहिजति, प्रियजीवि तादिः [80] ।। ६८ ।। पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [७७ ८१] दीप अनुक्रम [७८ ८३] श्रीआचा रांग सूत्र चूर्णिः २ अध्य० ३ उद्देशः ।। ६९ ।। भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [३], निर्युक्ति: [१९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ७७-८१] पितिपिंडादि देति तेण दातारो, जहा केणह रायपुचेण भट्ठरखेणं सविकमेणं आणामितं, ततो तस्स रण्णो अण्णे दायियादि तं छिद्देण विकमेण वा मारिता अवहरति, अहवा विद्धणवर्णियपुत्रेण दव्वे उवजिते दाइया खुम्भंति अविभत्तसंपयुक्ता वयं अदत्तहारी छिदेण अकमित्ता वा रायाणो वा अवहरतिति, स राया परचकेण वा वस्सति चउप्पयादि सयमेव, अपयं देवताजोगेण, जहा तस्स पंडुमहुरदारगस्स विणस्सति, जं विणा परिभोगेण कालेण विणस्सर जहा वत्थं सोचिथावणं एवमादि, अदना पावार मिष्णाए सब्धं विणस्सर, अगारं-गिहं तं डाहेण उज्झति, तस्थ कंससुवण्णय मादीणं छष्टं पदाणं दुगसंजोगमादिया जाव छ संजोगति भंगा कायव्या इति । 'से परस्स अट्ठाए' इति सो परस्सत्थो णाम दाइयादीणं अत्था, एवं च वहघातादि कारेमाणी कारो, अहवा तत्थ बंधे सोगरियचारगपालादीणि क्रूरकम्माई करेंति वालो मूढो, जं भणितं अण्णाणीति, स कुजमाणो 'तेण दुक्खेण संमूढों जं तेणत्ति तेण कूरजतणितेण दुक्खमिति कम्मं मूढों बालो रागदोपअभिभूततया कजाकजे अयाणंतो एस मूढो विवरीयभावो, विपरिआसो सुहत्थी दुक्खे बट्टति परगादिस केणेयं पवेदितंति ?, भण्णति 'मुणिणा हु एतं पवेदित' कतरेण मुणिणा ?, वद्धमाणसामिणा, गोतमप्रभृतीणं मुणीणं पवेदितं आदितो वेदितं, ततो मुणीपरंपरण जात्र अहं धम्मायरिया, सो एवं कूरेसु कम्मेसु वट्टमाणो मुढो विष्परियासभूतो मुणिणा पवेदिओ गिहत्थलोगो पासंडिलोगो वा 'अणोहंतराई 'ति, अहवा सो विपजासभूतो अणोहंतरो अहवा जस्स णो सण्णा अहितो वा सो अणोहंतरो, दम्बोघो णदी समुदोवा, संसारसमुद्दो कम्मं च भावोघो, तं कुतित्थियाण ण तरेति तेण अगोहंतरो 'एते' इति जे उद्दिट्ठा कूरकम्मणो 'णो य ओहं तरित 'ति नय सयमचि कम्मगुरुगत्ता अजुवायउ ओहं तरितए, तिष्ठति तरति वा तमिति तीरं, तस्सवि तहेव, पारं णाम परकूलं अपहारादि [81] ।। ६९ ।। पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७७-८१] (०१) NEE आदानादि श्रीआचा- रोग सूत्र चूर्णि : २ अध्य० ३ उद्देश ॥ ७० ॥ AIMER प्रत वृत्यक [७७ अहया सन्ति सणिगिढविप्पगिढकतो तीरपाराणं विसेसो, कई अगोईतराते भवंति , भण्णति ?-संसारमीतेहिं गिण्डियन्त्र आदा-|| णियं, किंचतं !, पंचविहो आयारो, तंमि आदिणिये उ, अहया सविवादसंठाणेण ण चिट्ठति ण करेति तं उवदेसं, एवं सो णो| अप्पाणं तारयति, ण परं, तं तेसि दरिसणं उपदेसो चिहितं वा 'वितहं पप्प खेयपणे तेण प्रकारेण तहा वितथा कुतित्थिया करेंति, | खेतप्णो पंडितो, तंमि इति तहिं अदोसी उबदेसड्डाणे चिढतीति आयरति, जं भणितं-ण अतियरति, तस्स एवंविहस्स नाणिस्स उद्देसो पासगस्स णस्थि, अहवा आदाणियस्स आणाए 'तंमि ठाणे,कतरे ठाणे', भण्णति-उहाणे, जं भणित-संसारहाणे ण चिट्ठा, जो पुण तं आणं वितहं पप्प अखेतण्णे वितहं करिता अखेतण्णो अपंडितो सो तहि चेव संसारहाणे चिट्ठति, जो पुण एतं जहाउद्दिटुं लोगं एवं पस्सति, अहवा नो सण्यां आदि काऊणं जहा विइस्सति तस्स, 'उद्देसो पासगस्स णत्यि' उहिस्सति अणेण उद्देसो, सो य नेरइयादितेण उद्दिस्सइ, अहवा समरीरत्तेण, एवमादि णामकम्मविभागा सब्वे भाणियब्बा, अहबा चकम्बुद| रिसणत्तेण साताई मुहदुक्खत्तेण कोहिनेण चउभंगो उच्चागोयत्तेण एवं जावतिया उत्तरपगडीओ ताहिं उदिस्सति, पासगो-तित्थD गरी गणहरादि वा, तप्पडिपक्खभूतो अपासगो, जं भणितं-बालो, सो एवंविहो 'बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे' पुण विसेसणे, किं विसेसेति ?, ण केवलं वयबालो, पुट्ठोऽवि सो कर्ज अयाणओ बालो घेव, परीसहेहि णिहतो णिहो, अहवा चतुरंग लद्धा जो अपाणं संजमतवेसु णिहेति सो णिहो, आयाणियस्स आणाए अबहमाणो संपुण्णं बालजीवितं जीवितुकामो कामे समणुमण्णमाणो| पत्थेमाणो भाविजमाणो असमियदुक्खी, जं भणितं तं अणिजरितं, गरगादि उद्देसमाणेहिं उहिस्समाणो दुक्खी दुक्खाणमेव आवहं| । अणुपरियति, श्रावट्टो भणितो, अणुगतो कम्मेहिं परियति । लोकविजयाख्यद्वितीयाध्ययनस्य तृतीय उद्देशकः ।। NEPASSES ८१] ॥७० ॥ दीप अनुक्रम [७८८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [82] Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [४], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८२-८५] (०१) रोगोत्या दादि श्रीआचागंग पत्र- चूर्णिः २ अध्या ४ उद्देशः ॥७१॥ प्रत वृत्यक [८२ भोगेहि संगो ण कायग्यो पुष्वमणितो उद्देसगसंबंधो, सुनेण सह संबंधो अर्णतरे परंपरे य, तत्थ अणंतरो दुक्खी दक्खे | अणुपरियति, रोगावि दुक्खमेव भवति, 'ततो से एगता रोगसमुप्पाता' परंपरं तु 'बाले पुण णिहे कामसमणुण्णो' ते य कामा || दुक्खमेव, अहवा अतिकामासत्तस्स इहेच भगंदरो अंतविहिमाति रोगा उप्पजंतिनिकाउं तेण 'ततो से एगया रोगा समुप्पअंति, 'ततो' इति कामसमणुष्णायाओ, कामा चेव कम्मा उ, कम्मा चेव य मरणं, मरणा नरओ, नरगा गम्भो जम्मं च, जातस्स रोगा, ततो से एगता, ततो परंपरएणं णिसेगकललअम्बुयपेसिघणगब्भपसवातिकमो दंरिसितो, अहवा अस्थमारोअधिकतो, अस्थवती कामे सेवति, कामेंतस्स 'ततो से एगया रोगसमुप्पाया' ततो इति जहभणितहेऊतो, एगता, ण समता, कदायि ण उप्प|ज्जेज्ज काएवि यावत्थाए, 'सम्' इति एकीभावे असमत्तं वा वाताति उप्पज्जति 'जेहिं वा सद्धिं संवसई'नि इति-अणू| मते सद्धि-सह एगतो वसति, तंजहा-बंधूहि भिश्चेहि सहबासेहिं वा, गियया गाम अप्पणो बंधवाति, एगता, ण सव्वता, 'पुव' मिति पढमं जया सो अरोगतो आसी सबकम्मसहो त तता तं सब्बे बंधवाति रायकुलं सभं उजाणं वा गळतं अणुवयित्था, तं रोगावहतं पुण ण अणुब्बयंति, तत्य उदाहरणं-गंदिणी गणिया, सा चउसट्ठिमहिलागुणोवयेया सहस्सलक्खा सिंगारागारचारुवेसा संगतहसित. विदिबछत्तचामरवालवीणिया, तं च रायकुलमतियच्छंती निझायतिं वा केइ हडफहत्थगया एवं वीणाति जाव परिव्ययंति, तीसे य अण्णता मञ्जमंसासिणीए भोगप्पसंगेण इति जागरिता, ताहे देहे रोगातका समुप्पण्णा, |णिकजाविया जाता, तीसे से णीयल्लगा अन्नं जोव्वगत्थं गणिय ठावेऊणं तं परिचयंति, सावि रायकुलमयिति पच्छा परिचयति अग्गो गच्छड़, एवं गोज्झातिणोवि जोवणं गुणरूवसंपण्णं एवष्णं परिवयंति, सोवि पच्छा रोगिओ समाणको अन्नं| ८५] दीप ॥७१॥ अनुक्रम [८४८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: द्वितीय-अध्ययने चतुर्थ-उद्देशक: 'भोगासक्ति' आरब्धः, [83] Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [४], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८२-८५] (०१) सातादि चूर्णिः प्रत वृत्यक श्रीआचा- जोवणगुणरूनसंपण्णं परिन्वयति, अहवा णञ्चाणो णडो वा कुवितो उदरितो वा जुंगितो वा लट्ठीवालो कीरति, सुखासणादि | प्रत्येक रांग सूत्र बावहाविजंति, तं च अण्णं णवण्णं परिव्ययंति,'णालं ते तब ताणाए वा सरणाग वा ताणसरणा पुव्वभणिता, अहवा|| | इह रोगा अधिकता तत्थ सम्म रोगिस्स किरियं ताणं, वाहिउबसमो सरणं, जहा ते तव णालं ताणाए वा सरणाए वा 'जाणितु। २ अध्य० ४ उद्देशः दुक्खं पत्तेय सात ति, एवं जाव एगेगं प्रति पचेयं, दुक्खं णाम कम्म, तं च कामभोगामिणिविट्ठचितेण रागदोसगुणजुतेण हिंसा।। ७२॥ AU इयासबदारेहिं वढमाणेणं पुषदारादीणं अपणो वा अत्थे पावं दुक्खं फलं अज्जिणितं तं कत्तुरेव पनेगसो भवति, ण जेसि कए कर्य | तेमु संकमति, सात ति एवं सातपि पत्तेयं भवति, एवं जागरमाणावि केयि भोगे एव अणुवयंति, अहवा एवं जाणिय दुक्रवं पत्तेयसातं च तम्हा भुत्तपुब्वे कामे गाणुस्सरेआ, पडुप्पणोषि न सेवेजा, अणागतेविण पत्थिज, अहवा एवं णचावि पत्तेयं साता-10 साते कम्मविवाए तहावि 'भोगामेव अणुसोयंति' अप्पइट्टाणे नरए उववण्णो तत्थवि नरगवेयणामिमृतो कुरुमती कुरु-IV | मति कुरुमतित्ति विलवमाणो, पिंडोलगतंदुलमच्छाण य उवलद्धो, तत्थ वेयणा उबलभति 'इह' माणुस्से एगेण सव्वे, माणतित्ति | माणवा, धणं च तेसि मूलकारणांतिकाउं तेण 'तिविहेण करणेणं उपजिणंति-अप्पं वा बहुयं वा, मीयतीति मचा, से तत्थ गहिते जाव विष्परियासुवेति' एतं पुब्वभणितं, एवं कामभोगे खेलासवे वंतासवे पित्तासवे जाब विप्पजहणिजे जाणित्ता तेसु 'आसं च उंदंच' आससति समिति आसा-भोगामिलासो आमा, छंदोणाम पराणुवनी, अणासंसंतोचि कोपि पराणुवत्तीए अकुसलं आर-IN । भति, तपि अ साह 'विकिंचित्ति उज्झाहि 'धीरो' बुद्धिमां, भोगासाए पराणुवत्तीए य किं भवति ?, अतो भण्णाति-'तुमं चेव |तं सल्लमाहर्ट्स' अहवा अप्पमायं, अणंतरपमाओ तदशायदरिमणथं भष्णति-'तुमं चेव तं सल्लं, अहवा परीसहोदये अप्पाण- ॥७२॥ [८२ ८५] दीप अनुक्रम [८४ ८७ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [84] Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [४], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८२-८५] (०१) |NI प्रत वृत्यक [८२ श्रीआचा-10 मेव माहू उबालभति-'तुमं चेव तं सल्लं' तुम चेव सो जो एयफलाई कम्माई कितयां, पविणवखणिो आहट्टु आणिओ, तदंते || आशादिगंग सूत्र- दुक्ख अणुभवसि, अहवा जो एतं कामभोगेहिं आसं छंदं च न छिदिहिति पच्छा सो घेव दक्ख अणुभविदिते, तत्थ दवसल्ले चूर्णिः उदाहरणं, विञ्जस्म पुत्तो ण संधितं पढितो, णिविट्ठो य, से मृहगम्भा, ससुरेण अच्छीणि बंधित्ता गम्भं तो परामुसिचा मतोचि काउं| २ अध्य० ४ उद्देश: IPA ताहे अंगुलिमन्थएणं छिदिय छिदिय चंगोउए नाव अंगमंगाई संघातिताई जाव णीहरितो, एवं तीणि वारा, अचत्थं लज्जतेण | सत्थगं मुकं, पच्छा सो मतो, केइ पुणाई भगति-जहा नेण तं सस्थगनीयगम्भे तत्थेव मुकं, नेम घटुं, तेण मा मारिता, भावसल्लो अट्ठविहं कम्मं तस्स नरगादि विवागो, जो पुण सो कामभोगासच्छंदं छेता धीरो कामभोगे अबउज्या तस्स भण्णति-'जेण सिया| तेन सिपा' 'जेणं'ति जेणप्पगारेण कर्म बंधति जेहिं हेऊहि ते ण करणीया तुमे हेतू, भोगपमत्ता पुण इणमेव णावबुज्झति-जंY AWएवं सल्लमाटु दुक्खं भवति, जेण य ण भवति के', 'जे जणा मोहपाउडा' जर्णतीति जणा मोहोरागो विग्घो-वक्खोडो । III अहवा दसणमोह चरितमोहेण पाउडा, जंभणित छादिता, इह परत्व य मलभाएग वुमति, समत्थवि पुरिसपण्ण प्रणनि| काउं मोहणिअम्म य इत्थीओ गरुयाओनिकाउं भण्णति-जो से आपच्छंदामिभूतो कूगणि कम्माणि करतो गरगफलविवागसल्लं आहटु नष्फलं अचुज्झमाणे मोहपाउडो लोगो सो थीनि मिस बहुपगारेहि वा घहिनो पनहितो, जं भणितं-वसीकनो,'ने भो वदंति' ते धीहि बहिना तप्परायणा लोइया भी इति सिस्सामंतणं वदंतिनि विसत्था भणंती भो 'एताइ जाई आयतणाई' आइअंति अस्मसंति वा आयतणं तं अप्पसत्वं पसत्थं च, पसत्थं नागाई अप्पसत्थं बिसया इत्थीश्री अण्णाणादि, स तु पसत्थभावायनणवाहिरो अणायतणाई आयतणाई करेति, ताणि य अस्मियंतो से दुकावाए' स इति मो थीवमगो बालो दुक्रवाएनि- ॥७३॥ ८५] दीप अनुक्रम [८४ ८७ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [85] Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [४], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८२-८५] (०१) चूर्णिः । प्रत वृत्यक [८२ श्रीआचा- संसारदुक्खस्स आयतणं भवति दुक्खाए 'मोहाए'ति मोहणि अकम्मं बड़ेइ, अहवा मोहोऽत्र विसयासतो कजं अकजं वाण याणति. रांग सूत्र-10 जहा सो पिंडारो जोण्हत्तिका मजमपणे पासुत्तउडिओ कुरत्थाए छापामु लिकमाणो गच्छंतो, कहिलो पुच्छिो य हम्ममाणो दुःखादि २ अध्या | भण्ाति--परदारणिमित्तं वचामि, रमा मारिओ,'माराए ति मारिजा, अहवा अतिप्पसंगा अलहमाणो मरति, मुणिजंति य बहवे ४ उदंश IN | इच्चियइत्थीओ अलभमाणा अग्गिमाइपविट्ठा, अहबा 'पदमे सोयति वेगे वितिए जाव दसमे मरति' अतो माराए, 'गरपाए'चिमतो | ।। ७४॥ नरएम उववज्जइ, ततो उच्चट्टित्ता तिरिणमु, नरगतिरिक्ख जोणिएहि अणेगाई भवग्गहणाई अशुपरियदति, सो एवं वाम गतीसु अड माणो 'सततं मूढो' सततं-निरंतरं दंसणचरित्तमोहणेणं कम्मेणं मूढो, इमं जिणदेसियं धम्म नामिजाणतिचि, जओ एवं ते 'उदाहु वीरे' उच्चं उन्नतं वा आहु उदाहु, धीरोजाणतो, ण पमाओ अप्पमादो, कहिं अपमाओ ? 'महामोहें' महामोहो णाम स्त्रीनपुंसगवेदा, इत्थी इस्थिवेदेण उदिण्ोण पुरिसं पत्थयति, एवं इतरेवि, बंभवत्तपुरोहियआहरणं, अहवा जा सा सा सा दिढतो, जहा सा पंचण्ड चोरसयाणं मरुयदारिया भजा जाता, जतो एवं तेण विसयकसायमोहपरिक्खणहा मुहुत्तमविणप्पमाओ 'अलं कुसलस्स पमारणं' अलंसदो निवारणे अढविहभावकसे लुणातीति भावकुसलो, पमादो पंचविहो, किं आलंबणं करेंचा पमाओ ण कायग्बो ?, भण्णति--'संतिमरणं सपेहाए' समणं संति, जमणित-निब्याण, मरणं संसार एव, संती य भरणं च संतिमरणं तं, पेहाए णाम पेक्खणा तं संतिमरणं च पेक्खिता, अलं कुसलस्स पमाएकति वदति, अहवा संती-अव्वाचाहं भवति, मरणो उ संसारो, | अतो संतिमरणं पेहाए, किं च 'भेउरधम्म सपेहाए' मिजाणधम्म सरीरं अणि पेहाए, अलं कुसलस्स पमादेणंति परति,DI अहया वाहीए विवागणं वा मिजतीति भेउरं 'णालं पस्स तव एते कामभोगा भुजमाणावि पञ्जत्ता न भवंति, एवं पस्स तं, ८५] HD दीप अनुक्रम [८४ ८७ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [86] Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [४], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८२-८५] (०१) वर्जन प्रत वृत्यक [८२ भणितं च-"नापिस्तृप्यति काष्ठाना, नापगाना महोदधिः । नान्तकृत्सर्वभूतानां, न पुंसां वामलोचना ॥१।" अयं ताव अपजता अतिपातसंग सूत्र विसयसुहनि पास, विसयसमुत्थं दुक्खं ण कोयि वारेति ततो तेण अलं तब कामभोगेहिति वकसेसं, अहवा अव्वाबाहसुई अलं तव चूर्णिः IN IN मुहाएनि, अचिन्तवमरणम्स कतो सुई , तेणं अव्वाबाहमेव तवालं मुहाए, दुक्खं च इत्तरमिति, 'एय पस्स मुणी' एतमिति | २ अध्य ४ उद्देश: पञ्चक्खीकरणं कामभोगीणं दुक्खं महम्भयकर, भणियं च-"एतो व उण्हतरीया अण्णा का वेषणा गणिजंती । कामवाहि-IVE ॥७५॥ गहिती उज्झति किर चंदकिरणेहिं ॥१॥" हिंसादिसु य आसवदारेहि कामभोगसनो पवत्तति, तेसिं च इहेब महम्भयं पास, जहा-पुरिमवहगअलियचोरियपरदारियाण मारडंडणजिम्भछेदवंधवहघातातिणि इह लोगे परलोगे परमादिसु उववातं पास, अतो विसएहि उवरमा, तेण य दिहूं जो उवरमति, सा य अहिंसादी उबरति तासि पसिद्धीए भण्णति–णातिवातिन य कंचणं' ण इति प्रतिवेधे अतिवातणं अतिवातो 'कंचण'ति किंचिदपि तसं थावरं वा, एवं मुसावायाताति आसवा भाणियच्या, जो य हिंसातिआसवहारविरतो 'एस बीरे पसंसिते' एस एवेगो वीरो-विरायति विदालयति संजमवीरिएणं वीरो पसंसणिओ पसमिती, पटिजइ य-'णमंसिते' णमंसणिजो णमंसितो-पंदणिजो, कतरो वीरो ,जो मणितो-आसं च छंदं च विगिच जे पसस्था आलावगा ते सम्बे भाणियब्बा, अप्पसत्यविवजियो य जाच णातिवातिज कंचणं, एस वीरे पसंसिते, इमो य वीगे पसंसितो जे ण णिविज्जति अदाणाए' णिब्बेदो णाम अप्पणिंदा, अलग्भमाणा णिबिदति अप्पाणं-किं मम एताए दुख भलाभाए पबजाए गहियाए ?, अहवा अण्णे लभंति अहंण लभामि वराओ, अणिब्वेदे ढंढो अणगारो उदाहरणं, ण से देति Mण कुप्पेजा, तत्थ आलंवर्ण "बई परघरे अस्थि, विविई खाइमसाइमं । ण तस्थ पंडितो कुप्पे. इच्छा दिज परोव णो॥१।। अहवा ॥५॥ ८५] दीप अनुक्रम [८४ ८७ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [871 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [८२ ८५] दीप अनुक्रम [८४ ८७] श्री आचागंग सूत्रनृर्णिः २ अध्य० ५ उद्देश ॥ ७६ ॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [४], निर्युक्तिः [१९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ८२-८५] मे अंतराइयं कम्मं उदिष्णं, एवं लाभालाभसमचित्तो धो लधुं ण खिसए घोषं- अपज्जतं अहवा कतीइ सित्थाई णीणिताई। परिमुसिऊणं भणति सिद्धो ओदणो आणेहि भिकखं, अथवा ते घेतुं हत्येणं अचणियं काउं भगड-कया अश्चणिया, आणेहि भिक्खं, अहया भणह-लद्धं लोणं, मिकूखं आणेहि, अहवा भणति - घिरत्थु एरिसाए मिलाए, एरिस एगया खाणं एवमादी खिसा, लद्धे अलद्वे वा पडिसेहिओ परिणमिजा, पडिसेहिओ-अतित्थावितो, तत्थ ण द्वाणं का इच्छ, ण वा दीणविभाणो भवति, ण वा रुडंतो परिणमति, न वा 'दिट्ठा हि कसेरुमती अणुभूयासि कसेरुमती पीतं च ते पाणियतं वरि तप णाम न दंसणयं ॥ १ ॥ पढिजड़ य-' पडिलामितो परीणमे, णवोवासं देव कुजा' तंजहा- दिष्णं अहो कस्थं मुलद्धं चैव माणुस्सर्ग जम्म जीवितफलं एवमादी ण कुञ्जा 'एतं मोणं समणुवासे' एवंति जं चुद्दि मुणिमात्रो मोणं, सम्मति, ण पूयासकारगारबडाए, ण वा शिडाणोत्रहतं, गणधरादीहि उसितं वसति अणुवसति अणुवासिआसित्तिवेमि ॥ एवमायारे द्वितीयस्य चतुर्थः ॥ संबंधो म एव, लोगणिस्सिनेणं संजमो कायन्त्रो, अनंतरसुतं तु 'एतं मोणं समणुवासेखा संमंति, ण पूयाहेउं, इहवि सम्म आहारउम्गमो चिंतिजह, परंपरसुते मिक्वायरियाधिगारो वहति - पडिलामितो परिणमेड, इहंपि सो चैव मिखायरियाहिगारो, तं पूण जेसु रंधणाहिगारो वहति तेसु पडिलाभिजति, वाणि य अस्मितो विहरति, अणस्मियरूप कतो धम्मसाहगाई ?, साहणअभावे कतो धम्मो १, भणियं च " धम्मं चरमाणस्स पंच णिस्सद्वाणा पण्णत्ता०" (स्थानांग ) ताणि तु साहणाणि वत्यपचाहार आमणसणाणाति, तत्थवि सच्चेसिं आहारो गरुयतरोत्तिकाउं 'जमिणं विवेहिं सत्येहिं'जं इति अणुदिस्स उदेसे, विरूपरूत्राणि, जं भणितं - अणेगख्वाणि, तं तु छण्हवि कायाणं किंचि सकायमत्थं एते काया परोपरसत्याणि पायं भवति, ण य अग्गि अल्पेऽपि अनिन्दा [88] ॥ ७६ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: द्वितीय-अध्ययने पंचम उद्देशकः 'लोकनिश्रा आरब्ध:, Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [५], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८६-९५] (०१) चूर्णिः २ अध्य प्रत वृत्यक [८६ श्रीआचा-0 अंतरेण जागो कीरति, अग्गिसमारंभे य णियमा छकापघातो, लोकतीति लोगो, असंजयलोगस्स पागकम्मसमारंभा, ते किमत्थं D यागादि गंग सूत्र-IA | कीरति ?, अप्पणो से पुत्ताणं, पढिाइ य-'जमिग विरूवरूवेहिं सस्थेहिं विरूवरूवाणं अट्ठाए तंजहा-अप्पणो से' अप्पनिमित्रं | अप्पणो चेत्र कोइ यागं करेंति, जहा अभणिजिओ अणाहा वरंडा एवमादि, अहवा अप्पणो पुनाणं च साहारणं, एवं धूयाणवि ५ उद्देशः 'णातीणं'ति पुवावरसंबंधाणं णीयल्लगाणं, धीयंति धीयते वा धाइ, रायीणंति सामी चारभडाण वा दासाणं दासीणं कम्मगराणं । कम्मगरीणंति एतेसि कंठणं, आदिसति आएसं वा करेति, जं भणित-पाहुणओ 'पुढो पहेणाए'त्ति पिहु वित्यारे, अरोगप्पगारप-10 ।। ७७॥ स्थयणत्ये जहा-जामातुगाणं मित्ताणं, ते य एते जहुट्ठिा पुत्तादि अण्णे सिं च सहजगसहवासादीणं पहेणयाई दिअंति, पहेणंति ।। AII वा उक्खित्तमनति वा एगट्ठा, सामा-रत्ती सामाए असणं सामासणं सामामणत्थं मामासाए, पादे आसणं गातरासणं पाती। असणथं पातरासाय, एतेसि सव्येसि पुत्तादीणं, सायं पादो य भन दिन्नइ से, किंच एककालिय?, अतो सामासाए पातरासाए, एतेसिं चेव अप्पातीणं अट्ठा सणिधिसंचयो कीरति, सन्निहाणं सबिही, तत्थ खीरदधियोदणवंजणादीणि विणासिदवाई समिहि तेलगुणाईणि अविणासियदब्बाणि संचयो, धणधण्णवत्थाईणि य, संजयणं संजमो, 'इहंति मणुस्सलोगे 'एगेसि बत्तिण सब्वेसि, केयि तदिवसनिबद्धमित्तसंतुट्ठा भवंति, 'समुहिते अणगारे'नि समं संगतं वा संजम उत्थाणेण उहितो समुहितो, अणगारो भणिनी, आयरंति आयरिजने वा आयरिए-खिचायरियादि, इह तु विरतेण चरिनारिएण अहीगारो, आयरिया पष्णा जस्म स भवति आयरियपण्णो, आयरिया दिट्टी जस्म स भवति आयरियदिड्डी, अयं संधिनि अयमिति प्रत्यक्षीकरणे संधाणं संधि, जं भणित-मिक्खाकालो, अकालचारिस्स दोसा भाणियब्वा, उस्मग्गेण ततियपोरुसीए, अबबातेण जाव सूरो | ॥ ७७॥ ९५] दीप अनुक्रम [८८ ९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [89] Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [५], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८६-९५] (०१) प्रत वृत्यक [८६ || घरति, अहवा नाणदंसणचरिचाई भावसंधी ताई लमित्ता से ण आतिए ण आतियावए' अणेसणिज णातिए णातियावए | आमगधिगंग सत्र णण्यं-ण अण्णमणुमोदए, अहवा णातिए णातियावइत्ति परकडपरणिद्वितंसि सईगालं सधूमं च विलमिव पण्णगभूतेणं सई (सयं) चूर्णिः | न आतिए आझ्यावए, सो एवं पिंडसंधिवियाणओ अणेसणिजविवजओ'सब्वामगंधं परिणाय' अहवा कयरो सो संधी जो २ अध्य० ५ उद्देश अणेसणिों णाइयति णातियावयतेत्ति, तं पुण अणेसणिझं 'सयामगंध परिण्णाय' सभात्रा ण अधिवरीतं आम, दम्वे भावे ॥७८॥ य चउमंगो, दग्वामं आमं दचं, भावामं उग्गमदोसो, अहवा आमग्गहणा उग्गाकोडी गंधग्रहणा विसोधिकोडी गहिता, एवं दुविहपरिणाए परिणाय 'निरामगंधो परिव्वए' ण तस्स आमं गंधो वा विजती निरागमगंधो, सनतो वए परिवए, सो एवं निरामगंधो परिव्ययंतो 'अदिस्समाणो न दिस्समाणो अदिस्समाणो 'कयविक्कयहिं किणणं को विकीणणं विक्कयो नकिणाति विकिणाति वा सो, कयविकये न दिस्सति, कीतकडग्गहणा सेसावि उग्गमदोसा गहिता, उग्गमदोसग्गहणा उप्पायणादोसा एसणादोसा य मुयिया, अहवा ण किणे ण किणावए किणतं गाणुमोदए, तिमि विसोहीकोडीओ गहियाओ,ण हणेइ ण हणावए हणंतं पाणुमोदए तिष्णि आमकोडीओ गहियाओ, ण पये ण पयावए पयंत नाणुमोदए तिणि गंधकोडीओ गहियाओ, D अविसोधिकोडीओबि बुचंति, एवं गवकोडीपरिसुद्धं विगईगालं विगतधूम, एवमादि पिंडदोसे परिहरतो पिंडणिमिचं वा अडतो 'से कालण्णे बलण्णे' कालं जाणइ सुभिक्खदुभिक्ख दिवसपमाणं रत्तिपमाणं, कालं वा जं वा जत्थ काले कापथ्यं, जो वा जत्थ | मिक्खाकालो, काले चरंतस्स उअमो सफलो भवति, अकाले विफल, 'बलण्णोति अपपरकतं चलं जाणति, ताव अडति जाव | सक्केति पडिनियत्तो भोत्तुं, अतिपरिस्संतो तं न तरति भो, जो पूण सति बले काले लामे य णियचति सो कि अण्णेसिं दाहिति ?, Lal॥ ७८॥ ९५] दीप अनुक्रम [८८९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [90] Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [५], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८६-९५] (०१) ॥७९ प्रत श्रीआचा-10 मतं जाणाति मातण्णो अपणो जस्स वा दायब्वं उभयस्त या 'अद्धमसणस्स' एतं साधारणे काले जाव जदि काल मत्ता, अहवा. मात्रज्ञादि रांग पत्र- पत्थु वर\ आसज्ज मत्ता भवति, विसं जाणति सित्तष्णो, मिक्खायरियाकुसलो, जेसु वा खेनेसु पडिमाए कप्पेण वा हिंडिजति चूर्णिः दूरं वा पविसज्जति ण दूर, एवमादी खितं जाणति खिनष्णो, खणण्णो णाम नियावारत्ता ण रुचति वीमति कहेति वाजेण अणे२ अध्य ५ उद्देश: सणा भवति, अण्णेण वा कोउएण आगमणेण वा वाउला, विणयण्णो णाम देवतगुरुसमीवे वा जहा तहा परगिहंण पविसइ, भणियं च-'दवदवस ण चरेज्जा, ण य अतिभूमि गच्छेज्जा, ण दीणो णा गवितो; ण इंदियाणि आलोएज्जा, ण गुज्झथाणाई आभर-|| णादीणि य चिरं निरिक्खए, ण मिहुकहासु उवधारणं देज्जा', एवमादि विणवणे, आतपरउभयसमए जो मुणइ स समयष्णो, अणेसणादोसा, पुच्छिओ, को एत्थ दोसो?, सुई उत्तरं देहिति, किं च 'समणुण्णा परिसंकी' अविय परिसगं गिहीण बारेता गिण्हंति असढभावा सुविसुदं एसियं समणा, भावण्णे ति देतस्स पियमप्पिय भावं जागइ भावष्णो, अहवा अभोज्जे गमणातिया 'परिग्गहं अमामीणे ति परिग्गहो णाम अतिरित संजमोधकरणातो जे भंडयं, भणितं च-जं जुज्जति उगारे उबगरणं | तंसि होति उबगरण' इह तु आहाराधिकारे वट्टमाणे जत्तिय अणेसणिज्जं किंचि दब्वं तं संजमस्स उपघातोत्तिकाउं जिणेहिं पडिकुटुं भवतित्ति, एसणिज्जपि अतिमचाए ण पित्तव्यं, मत्ताजुत्तपि ण एतं मम गुरुमाईणं ण एतं, 'कालेऽणुहाए' सति य| उहाणकम्मबलवीरियपुरिसगारपरकमे, आह-जति उहाणवलाण एगट्ठा तं तेण बलग्रहणा उढाणग्रहणा य पुणरु एसणिज्जंति, भण्णति-अविपरीयकारणा ण पुणरुतं, तस्थ नाणं इई करणं, कालोबलं खिन अबिवरीय आयरियन्वं तेण ण पुणरु, 'अपडिपणो' णाम अहं एगो उवभुजेहामि अण्णेवि एतं गुरुमादी भोकरवंति पाइंति वा, एयाए परिष्णाए मिण्डइ, ण आयवडियाए, ॥७९ ।। वृत्यक [८६९५] दीप अनुक्रम [८८ ९७] [91] Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [५], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८६-९५] (०१) श्रीआचा रांग सूत्र चूर्णिः २ अध्य ५ उद्देश ॥८॥ प्रत वृत्यक [८६९५] तेण अपडिण्णो, अहया अपडिण्णायेसु कुलेसु गिण्इ, ग य एतं परिणं करिता गच्छति जहा अमुगकुलाणि गन्छीहामि सो एपणाध्ययअपडिण्णो, जो विकरणो एगागी सोऽवि नाणादीणं अट्ठाए गेहति, 'अयं पिंडसंघी'ति आढवित्ता जाव 'कालेऽणुहाए अपडिष्यो। नोद्धारादि एतेसि एगाहियारिएहिं सुत्तेहिं एकारस पिंडेसणाओ णिज्जूदाओ। 'दुहओ चित्ता' रागं दोसं च अणेसणिजं रागद्दोसेहिं पिप्पड़ अँजति या नेण ते दोऽवि छिच्चा-बोडिता छित्तुं, णियतं जाति णियाति, अहवा दुहतो छेत्ता भोयणे सइंगालं सधूमं उग्गमकोडि-IN विसोधिकोडिदोसे० य, वत्थरगहणेणं खोमिया गहिया, पडिग्गहग्गहणेण सवाई पाताई मूयिताई, कंचलग्गहणेणं उणियाणि | मूयिताई, पाउरणअत्थुरणपत्नणिजोगो पादेसु, पायपोंछणग्गहणेणं रयहरणं, एवमोहिओ अवगहिओ य सब्बो मूयितो भवति, एत्तो । वत्थेमणपाणेसणाओ निज्जूदाओ, अवगिज्झतीति उम्गहो पंचविहो, तंजहा-देविंदोग्गहो राउग्गहो गाहावइ० सागारिय० साहम्मिय एत्य सम्बाओ उग्गहपडिमाओ गहियाओ, एतो चेव निज्जूढाओ, उग्गहकप्पओ एत्थ चेव सुत्ते कीरति, कडासणं सहायि आसणाणि, जं भणितं भत्तट्ठाए, अहवा कडग्गहणा संथारगा गहिता, ते ततिए सिजाउद्देसए वणिजंति, आसणगाइणा सेजा सूयिता, एत्तो सुत्ता सेक्षा णिज्जदा, एतेसि सम्बेसि बत्थपादाणं सवामगंधं परिणाय अदिस्समाणो कयविक्कएहिं से ण किणे ण किणावए किर्णतं नाणुजाणए तिविहेण जोगतिय से कालण्णे एवं सम्बोगरणाणवि जं जत्थ संभवति तं तहा भाणियब्वं, एयाणि पुण आहारादीणि केसु जाएजा?, भण्णति-'एतेसु चेव जाएजा' 'एते' इति जे ते पुचं भणिता जमिणं विरूवरूवेहि तंजहा अप्पणो से पुत्ताण एवमादि, एतेसु सिजाआहाराति आयट्ठाए णिट्ठियाणि जाएजा-मग्गिा , जाएना लद्धा णिरामगं-| धाणि उवजीविजा, सो एवं जायमाणो जता लभे तदा लद्धे अणगारो पुषभणितो मात्रा-परिमाणं जहा ण पच्छाकम्मं करेति RECENTER दीप अनुक्रम [८८९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [92] Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [८६ ५] दीप अनुक्रम [८८ ७] श्रीभाचागंग सूत्र चूर्णिः २ अध्य ५ उद्देशः ॥ ८१ ॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [५], निर्युक्तिः [१९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ८६-९५] जहा वाण परिद्वावाणिया भवति तं च मायं जणिज्जा 'से जहेतं भगवया' 'से'ति निद्देसे जहेव एवं आहारे मत्तापमाणं भणियं भगवया वद्धमाणेणं तहेव इमपि जाणित्ता आयरियव्वं अहवा से जहेतं आहारमत्तापरिमाणं एवं वत्थे पत्ते उग्गहे सेज्जासंथारगेसु य सव्वत्थ आणियब्वं, शेव अतिरिक्तउवहिणा भवियन्त्रं, ण वा अतिरित्त सिज्जामणिएणं, अहवा जं भणितं जं च भणिहिति तं तत्र आयरियव्वं, एवं भगवया पवेदितं, लाभोति ण मज्जेजेति लाभे सति मदो न कायम्बो, जहा अहं लभामि, सेसा ण लभंति, 'अलाभे व ण सोपजा' अहं मंदमग्गो न लभामि, भणियं च "लभ्यते लभ्यते साधु साधु एव न लभ्यते । अलब्धे तपसो वृद्धिर्लब्धे देहस्य धारणा || १ || 'बहुं लधुं ण णिहे' अपिपदस्ये बहुपि द्धिं पणीतं वातसेसंग सिंह, किं पुण अप्पं ?, णिहेत्ति रतिं परित्रसावेतीति, पगासं अप्पमासं वा, एयाणि आहारादीणि उप्पायतो परिग्गहा ओसकेज, अवसकणं अपवसणं, अहं एवं आहारं वत्थं सयं परिभ्रंजीहामि, ण अण्णस्स दाहामि एताओ सरांगाहपरिग्गाओ अप्पाणं ओसके, आयरियसंतियं एतं, अणेसणिजं च वज्जेति, मुखं वा ण करेति, एवं ओसकियं भवति, अतिपसचं लक्खणं बहुपि लधुं ण णिहे, परिग्गहतो अप्पाणं ओमकेज्जा, जं वत्थपत्तादणिचि तव भणिहिति, तेण भण्ज-'अण्णा': अष्ण| पगारेणं अष्णहा, वत्थपत्तादीणि अप्पाणि दव्वाणि ण णिहेयव्वाई, किंनु बहूणि ग णिहेयव्याई ?, अहवा 'अण्णहा पासेति एयं धम्मोवगरणं, ण तेण विणा सकेति धम्मो णिष्फादयितुं, तेण ण ताई परिहारयति, अहवा जहा घरत्था परिग्गहबुद्धिए ण तहा मरवि, किंतु ?, मम एतं आयरियसंतगं धम्मोवगरणं, जहा अस्सस्स अण्णं भंड, अहवा समुदे ण विणा तरणेण तरिअति, पढिज‍ य-'अण्णतरेण पासारण परिहरिजा' इमं अष्णं इमं च अन्नं अन्नतरं, पासागं णाम णीसरणोवातो, तंजहा-ण मम एतं, एषणाध्ययनोद्वारादि [93] ॥ ८१ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता...... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [८६ ९५] दीप अनुक्रम [ce ७] श्रीआचा रोग सूत्रचूणिः २ अध्य० ५ उद्देशः ।। ८२ ।। भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [५], निर्युक्तिः [१९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ८६-९५] आयरियसंवर्ग, गिण्हामि परिभुंजामि वा, कोषि परिता अद्वाणणिगता वा एहिंति तेसिं दाहामि, नाणादिअड्डाए वा परिभुंजति, ण दप्पट्टा, जिणकपियादीवि नाणादिनिमित्तं परिमुंजंति, परिहारो दुबिहो-धारणापरिहारो य उपभोगपरिहारो य, दुविहेणवि जहाकालं जहादेसं च परिहरिजा 'एस मग्गे' एस पञ्चक्खीकरणे, नाणादिमग्गो तस्संघणहेडं पिंडउवगरण से उबाहिसंघाया नाणादी य 'आयरिएहिं पवेदितं' णि अप्पणिज्जे गुरुसु य बहुवयणं, बद्धमाणसामिणा सम्यतित्थगरेहिं वा पवेदितो, साधु आदितो या वेदितो प्रवेदितो, पण सेच्छया आसतिमता वा, जहा बोडिएण धम्मकुचगकडसागरादि सेच्छया गहिता तहा णवि, जह वा सातिमोग्गलेहि बुद्धवयीकरिता पगासितं तदा णवि, अतो सत्यगोरवकारणा आयरियम्गहणं अतो तंमि आयरियपवेदिते मग्गे 'जहित्य कुसलो' जेणप्पगारेण जह, कुमलो मणितो, तं कुरु तं वा चिटु जहित्य कुमले आमलेवेण वा गंधलेवेण वा आहार वगरण सिआसंथारगादि उत्पायतो अतिरित्तोवहिलेवेण वा परिकम्मण अविहिपरिहरणमुच्छालेवेण वा 'ण लिंपिनासि'त्ति, एयं अहं बेमि, ण वा सयं उलूगादिव जह परोपदेमातो, परिग्गहातो अप्पाणं (पि) कजति पुतं परिग्गहस्य य मूलं पंच कामगुणा, तेण 'पुतं कामा दुरतिक्रमा' दुविधा कामा इच्छाकामा मयणकामा य, इच्छा अपसत्था हिरण्णाति, मदणकामा सद्दादि, दुक्खं अतिकमिअंति दुरतिकमा, अडवा कामगुणमुच्छितो लोए, लोयं चेव णिस्साए धम्मं चरमाणेणं कामा दुरतिकमा, भणियं च - "अणुसोतपट्टि ते ०" बहुजणंमि बहुपावए इंदियाई अणुसोतवाहीण, तेसि पडिसोतं दुक्खं गंतुं, अतो कामा दुरतिकमा, ण पढिसककरणा, दुक्खं पडिवूहितं जीवितं अतो अप्पडिवूदगं तं तु भवग्गहणजीवितं तं छिष्णं छिण्णं ण सकड़ वत्थं व लिप्पगं व जइ संधेतुं भणितं च- "असंखयं जीविय मा पमायए०" किं च- "जहीहि विषयान् सौम्य ! त्वरितं यान्ति मर्गादि [94] ॥ ८२ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [५], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८६-९५] (०१) दुष्प्रति व्यूहता चूर्णिः IA ५ उद्देश: प्रत वृत्यक [८६ श्रीआचा- HU रात्रयः । गताश्चो()न निवते, वहिज्वाला इवाम्बरम् ॥१॥" अथवा संजमजीवितं दुप्पडिवूहगं कामगुणमझमणस्सितेण, कामरांग सूत्र-IN गुणमुच्छितो लोए बंभवतमणुचरितुं कामगुणरसण्णुणा दुक्ख, बालुयाकवलो वा णिरस्याओ हु संजमो एवमादि, अतो दुप्पडि-IN A चूहगं, जं भणितं दुकर, सो उ कामेहिं अमिणि विद्वचित्तो पुरिसो तस्स अवाया-'कामकामी बलु अयं पुरिसे' कामा पुग्न२ अध्य Vा भणिता, कामे कामयति कामकामी, सवं सवण्णुस्स पद्यखंति, अतो अयं पुरिसों से सोयतीति ओहतमणसंकप्पत्ति 'जूरति ति ॥८३॥ | इच्छितअत्थअलामेण, तब्धियोगेण वा, सरीरेण जूति 'तप्पति'नि कायवायमणोहिं तिहिवि तप्पति, बहिं अंतो य तप्पति परि-1 तप्पति, जता य तेसि कामाणं इहमेव दोसा तेण कामे चहना उभपलोगवायदंसी आयतं-दिग्धं पश्यती, दिग्घेण नाणचक्खुणा || जं भणितं बहुयावाए कामे ण आसेवति, दिट्ठतो खुडओ 'सुठु गाइतं०' सो आययचक्खू नियाणसुहं देवलोगं वा पाविहिति, M'लोगस्सविप्पस्सि'त्ति लोगं विसयास विविधेहि आगारेदि आयतचखु किस्ममाणं पासति, अस्थोववजणे कामाणं च अलमे | किस्समाणं, अहबा लोयविपस्सी लोयस्स जाणति अहेभावं, जेहिं कम्मेहिं अहे गम्मइ, जाणि य अहे दुक्रवाई एवमादि, लोयस्स अहंभावं तिरियं उ९ च 'गढिते अणुपरियट्टमाणे ति गढिते कामलोगेसु मुच्छिते गिद्धे अज्झोपवण्णे कामसमुत्थेहि वा कम्मेहि गडिते, जं भणित-तेहिं अणुगतो सबओ परियट्टमाणे अणुपरियडमाणे जीवे पस्साहि 'संवि विदित्ताह मच्चिएहिंति संधार्ण संधी, दव्वे वतिकवादीणं, भावे कम्मछिद्र, नागादीण वा, विदमाणे 'इहे'ति इह मणुस्से नागादि संधि भवति, ण अण्णत्थ, मरतीति मचिया, एतेसिं संधि णचा यो विसयकपाये वजंतो पंचविहे आयारे परकमति 'एस धीरे पसंसिते' संजमवीरिएण वीरो, पसंसणिजो भवति, मूरेति वा वीरेति वा सत्तिएत्ति वा एगट्टा, किं करेति जेण चीरो , भण्णती-जे 'बद्धे पलिमोयए' ९५] दीप अनुक्रम [८८ ९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [95] Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [८६ ९५] दीप अनुक्रम [ce ७] श्रीआचा रंग सूत्र चूणिः २ अध्य० ५ उद्देशः ॥ ८४ ॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [५], निर्युक्तिः [१९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ८६-९५] दव्यबंधो पुत्रकलत्रमित्रहिरण्णादीणि भावे विसयकसायादी, जो एएणं बंधेण अप्पानं मोएना परा मोएति, एस वीरे पसंसिते जे बद्धे पडीमोयए, गवि जे असंजमवीरियमंते, कहं अप्पाणं परं कामेहिं मोयति १, भण्णति — सरीरे बेरग्गदरिसणेणं, तत्थ इमं निव्वेदसुतं 'जहा अंतो तहा वाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो' अंतो सुसोभितमयं चापि तहेव, अहवा अभितरं से कुप्पमं जो उब्वसितुं बाहिरं कुआ, जावि य से बाहिरा च्छाया सुयी दीपति सावि असुयीभवति, सोवणघडो वा अमिज्झपुण्णो, अबि सो णिपरिसचचा सुयी घडो, ण तु सव्वस्सोयपरिस्सर्वतं सरीरमिति, महियघडेण अमिज्झभरिएण अवि णो तुल्यं शरीरगं, अहवा जहा कुट्टिम्स अंतो मुत्तपुरिसखेलसिंघाण गपित्त सोणिय किमि अंतउदरवासित्ता असुयिं भवति, बाहिंपि पगलंतकुडावेदितसरीरगस्म पुरिसस्स वपु रसियगमोणितादिएहिं असुतरं तं गंधेण अणुमरिन्तेहि मक्खिया सहस्सेहिं अणुगत मग्गस्स अप्पावि उव्जियति किमु परो जणो ?, मतगसरीरं वा कुधितं, जहा अंतो तहा चाहिं जहा बाहिं तहा अंतो, जीवंतस्स पूतिसभावं सरीरं गृहाणगंधआदीहिं वण्णभावणेहिं अच्चत्थं सुयी भवति, अंतो अंतो पूतिदेहंतराई, अंतो अंतोचि वीप्सा, जहा जहा अंतो तहा तहा, बाहिं पूतितरं, जहां तयसोणितमेद अड्डि मिंजसुकमिति, तं जहा अंतो तहा असुरतरं सव्वमन्तरं सुकं असुइतरं, तं च सरीरस्स उत्पत्ति, अतो को सुविवादो कामिणं ? का व कामासा ? अहवा तयमंसमोणितजठर अंतमुत्तपुरिसाणि अंतो अंतो, पुतिदेतराणि पासिय त्रिरतो, कई ?, अदिमवि द्रव्यं, जहां अंतो तहा चाहिं, भण्णति 'पुढो बीसवंताई' पिहू बित्थारे, दो सोता दो ना दोघाणा जीहा आमए पाउए, सम्परोमकृबेहि य, सच्चाई एयाई मिस विविहेदि वा पगारेहिं, पत्तेयं पत्तेयं कण्णमलसिंघाणमलखेलवंतपिचसुक उच्चार किमिसोयादि अनंतु, आगंतुतेहि वा वातस्तपमुहिं पूयरसियसोणित० किमिए य पुणो २ परिमोचनादि [96] ॥ ८४ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [८६ ९५] दीप अनुक्रम [ce ७] श्रीजाचा गंग सूत्र चूर्णिः २ अध्य० ५ उद्देशः ।। ८५ ।। - भाग-1 "आचार" · अंगसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [५], निर्युक्तिः [१९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ८६-९५] श्रवन्ति, पुढो बीसवंताई, एत्थ मलत्थविजदितो-एत्थ किर अणाहमयगं दम्मेहिं वेदिता पाणिए सत्तदिवसे कुथिएण सनियं मणियं मणियं कुथितमंसं फोडेऊण दरिसिअर, सो य तं पेक्खए जहा अंतो तहा बाहिं, एवं गाउं सरीरे जोव्यणरुवसंपण्येण रागं कुआ ण वा इत्यिसरीराई असुयाई कामए, सो एवं 'पंडित पडिलेहाए' पावा पंका वा डीणो पंडितो, 'पडिलेहाए' ति सरीरं असारं असुहं कामभोगे विवागं च से 'मतिमं परिण्णा'ति मती से अत्थी जेण तेण महम, दुविहाए परिष्णाए परिष्णाय किं कायव्यं ?, भण्णति- 'मा य हु लाल पञ्चासी' अमाणो पडिसेहेच पूरणे, ललतीति लाला, दव्याला तिस्स भवति, भावलाला भोगभिलासो, पुणो आसती पञ्चासीण कामभोगे वमित्ता पुणो आतिए, दव्वलालावि तात्र गरहिता पुगो पिमाणा, किं पुण भावलाला ?, किंच-'मा तिरिन्छ मध्याणमाबात' णिव्वाणसोचाणि नाणादीणि तेसिंण तिरिच्छमप्पाणं आवापर, पञ्चस्थं पातये आवायए, जं भणितं नागादीणं अणुसोतं अप्पानं आवायए, संसारसोयाणि अण्णा मिच्छतं अविरई य ताई पडिकूलेणं तिरिच्छेण वा उत्तरियन्वाई, एवमध्यम तेण जहवं, पमतो इहेब ण संतिं लभति, संजहा- 'कामं कामे व अयं पुरिसे' इमं अज करेमि इमं हिजो काहामि, अया इमं पुण्यं इमं पच्छा, भणियं च "इमं तावत्करोम्यय, श्वः करिष्यामि वा परम् । चिंतयन कार्यकार्याणि प्रेत्यार्थं नावयुज्यते ॥ १ ॥ एत्थ दधिषडियाबोददितो भाणियच्चो को सो - बहुमादी' तत्थ कसायादिपमसो, तत्थ माया गहिता, सावि लोभनिमित्त क्रियते अतो लोभोवि गहितो भवति, बहुगी माया जस्स | स भवति बहुमायी, कजमाणं कर्ड तेण कडेन मूढो आउलीभूतो, भर्चषि ण जति भणियं च "सोउं सोवणकाले ० ""कया वच्चति सत्थो: " गाहा, लोभाभिभूतो न जाणाती- "किं मे कियं किं च मे किञ्चसेस, किं मे विण व हरं व दव्वं । दातव्वलद्धं च पंडितप्र लिखेनादि [97] ॥ ८५ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [५], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८६-९५] (०१) श्रीआचारांग सूत्र चूर्णि २ अध्य० ५ उद्देश: ॥८६॥ प्रत वृत्यक [८६ | विचितणेण, तेसि ण संदेहमवेति मंदे ॥१॥" अहवा पुत्रकरण कम्मेण मूढोकतंकित-किचकिचं ण याणती बहुकनवपा, ता ||हताकवादि मम्मवणिओ दिढतो, एवं बहुमाणी बहुकोही, से एवं कामकामीभूते बहुमायी कथाकयमूढो 'पुणो तं करेति' पुणो विसेसणे, 1001 किं विसेसेति !, एवं ताव स पुच्चकयेण कम्मेण मृढो कम्मफलं वेदेतो पुणो आसंसयाए मायावी 'लोभं करेति नगरादिभवा | लोमं करेंति-णिवत्तेइ, 'वेरं बड़तीति' अमिमाण पुनगो अमरिसो धेरै तधिसयकसायवसगो हिंसादिपवचो अगंतसंसारियम बढेति, भणियं च-“दुःखातः सेवते कामान् , सेवितास्ते च दुःखदाः । यदि ते न प्रियं दुःखं, प्रसङ्गस्तेषु न क्षमः ॥१॥" 'जमिणं गरिहिजति' जदीति अशुद्दिवस्स गहणं, भण्णति-कतरस्म अणुदिडस्स !, कार्मकमस्स बहुमायिणो मूहस्स 'इमस्स || चेव पडिवूहणाए ति इमस्स अस्सेव सरीरगस्म पडिहणताए हिंसादिसु पबचति किस्सते य, भणियं च लोगेऽषि-"शिश्नोदरकते पार्थ!, पृथिवीं जेतुमिच्छसि । जय शिश्नोरं पार्थ , ततस्ते पृथिवी जिना ॥१॥" अइवा इमस्स चेव परिवहणताए, कामकमे बहुमायी पुणो तं करेति एतपि एपस्स चेच पडिवूहणयाए, अहवाजे इमे मायाइ या पमाया पुणो पुगो अहिजते एतेवि एयस्स चेव जीवियस्स, इमस्सत्ति-इमस पंचविहायारस्स बंभचेरस वा समंता दूधणा परिवूधणा, कह णाम एयरस पुणो पुणो कहिज्जमाणेमु पमायदोसेसु अप्पमाया गुणेसु य पवासियपुतअप्पाइणियादिद्रुतेण संजमे परिविंधणा भविजा, इमं अन्नं संजमपरिविंधणामेव पमायदोसकहणं-'अमराइ महासड़ी' ण मरति अमरो अणमरो भवित्ता अमर इव अप्पाणं मण्णत भोगासया अत्यउवज्जणपरो, तत्थ उदाहरणं कई भगंति-ायगिहे गगरे मगरसेगा, कस्सइ सस्थवाहस्स अभिगवागतस्स अमिसारिया णिग्गया, सा य तेणऽलेबगहत्वगएणं आयचा, सोतेण तेण सर्व रति अगाढाइता समाणी पभाते निग्गया, अद्धीतीए ९५] दीप अनुक्रम [८८९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [98] Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [५], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८६-९५] (०१) माणः ॥ ८७॥ प्रत वृत्यक [८६ | अतिजागरितेण य दुम्मणा, अंजलिकारिगा गता समाणी जरासंधेण पुच्छिया-काए अद्धिती दुक्ख वा ? केणय वऽसि अन्ज प सदि रांग सूत्र-IN पामुत्तत्ति ?, तीए भण्णति-अमरेण सद्धि, कहि सो ?, सत्थनिवेसे, पुरिसेहिं गवेसाविओ, तहेव आयब्वयं करेइ, पच्छा ताएं चूर्णिः सम्भावो कहितो, अहवा पज्जोयकालसंदीव उत्तरकुरुगमणं महिलापेच्छणं महिलाय पायपडितजगं अंगारवती देवी पुब्बपडि-N २अध्य ५ उद्देशः यरिख आगंतुं पसस्थाहगमणं, आयच्चयसोहणं, वितियदिवसे तुमंतुमी, पजोतपुच्छणं, कोहेण वणियवादणं पुच्छगं च स्यणचोरियउनि सुकभंजणावायचिंतणं ऊरणियागलगांधणं पवेसगं विसजगं सोउं इत्वी वा कामगोतं विविता विसं भसुहोवगतं रोयएति, चिरं तओषि ण इच्छितो, महती सद्धा जस्स अथका मेसु स भवति महासड़ी 'अहमेतं उपेहाए अट्टो णाम अझन्झाणोवगतो रागदोसट्टितो वा तमेवं उहाए, पेच्छाहि ताव इहेब दुक्खी, किंनु परलोगे?, अहया एवं णचा महासड़ी इहेब दुक्खं तं | | अट्ठज्झाणं, पुवावरे उवेहा, सो एवं अट्टो 'अपरिपणाए कंपति' दुषिहाएवि परिणाए अपरिग्यायपरिग्गहे अप्पचे कंखार गढे सोएणाकंदति सोयति तिप्पति से एकमायाणह से इति णिद्देसे जं इमं कहितं अञ्चत्वं जागह आयाणह णचा सदहिता। Nय पमाय बहुद्दिढ बजेतुं अप्पमाय आयरतो, अहवा इमं आयाणह 'ज बेमि तेइ पंडितो पवत्तमाणों' चिगिच्छापंडितो विओ, मिसं वतमाणो पवयमाणो, ते वा जाइए तिगिच्छिए पंडिए पवत्तमाणे बहुजीचे 'हंना' हता, भूतसंहितं गाहते वा, गहित्ता Wणंति, मिचा पुढविकार्य चालाणि वा छित्ता वगस्सतिं मियपुछमाइ वा लुपिता अणेगविई, उद्दवइत्ता मारेत्ता तिचिराति रस गणिमित्त हि ते जहुद्दिडा वा गेण्डित्ता हुणंति, अकडं करिस्सामित्ति मण्णमाणे' अकतं आरोग्गं अस्सणिहिअस्स तिगिछपहि वा, अहवा अकत पुब्बो एस जोगो अण्णोद्धि य पयोगो वा जेण लट्ठीकरेमिहि, अहया कयम्स कागं गत्यि अण्णेग, सो संयोगो, STANICINESS ९५] ८७॥ दीप अनुक्रम [८८९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [99] Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [८६ ९५] दीप अनुक्रम [ce ७] श्रीआचा रोग सूत्र चूर्णिः २ अध्य० ६ उद्देशः ॥ ८८ ॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [५], निर्युक्तिः [१९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ८६-९५ ] जं भणितं कम्मबंधो, किं पुण जो सो हंता छिता पिता उदवयित्ता तिगिच्छं करेति सो जहा तिमिच्छो, आतुरो वा हंता छिता परमंसेण अप्पाणं पोसेति 'ण हु एवं अणगारस्स जायति' ण पडिसेहे हु पादपूरणे, पंचविहआयारजुत्तस्स तत्थ| द्वितस्स निप्पडिकम्मशरीरस्स जायति मे कप्पति, साविक्खस्स तु विसुअलचणस्स फायरडोयारेण जयणाए जाए तिमिच्छा या सीसा करेउ वा कारवेड वा कीरंतं वा समणुमणितुं गच्छणिस्थितस्य जायति, अहवा सद्धम्ममायाणह जमहं च बेमि ते, तिगि च्छे पंडिते तिमिच्छापंडितो, तिमिच्छापंडिओ णाम कम्मवाहितिमिच्छाकुसलो, ण अरिसादिवाहिकुमलो घेप्पति, सो फासूयएण | पडोयारं करेति गच्छवासी, इतरो ण करेति चैव साहू, आदितो वा वट्टमाणो पत्रतमाणो. अण्णे पुण कृतिस्थिया सकाति वयमवि कम्मवाहितिगिच्छापंडिता इति पवयमाणा, तंजहा अणगारवादिणी पुढविमादीहिंसगा ते गिलाणकुट्टिमाईओ उद्दिसिता बहुजीवे हंता छेत्ता भित्ता, सेसं तहेब आचारे प्रथमाने लोगविजयणामायणे उद्देसओ पंचमो समत्तो ॥ णमो सुयदेबयाए, उद्देसत्याधिगारो लोए असजनादी पंचमे भणितं परिग्गहाओ अप्पाणं ओसकर, इह वा अममीकारए विसयकसायएसु असंजमे वा पमाए वा सुत्तस्म सुतेण सह भणितं पंचमस्स अवसाणसुचेण 'ण हु एवं अणगारस्प जायति जहा अण्णेऽत्थ पंडिता तिगिच्छतुरा बहुजीवे हंता छित्ता तिगिच्छं करेंति कारयति ताण एवं अणगारे' इवेतं जहा भणितं 'से तं संयुजनमाणो' 'से'ति णिसे सम्मं बुज्झमाणो, किमिति १, जं भणितं तिमिच्छापगतं लोगविजयअज्झयणे वा चेयणाचेणयओसहेण, दबे वा सम्मं जहा मच्छस्स उदए फलिते अंबे कोतिलाए आसणे सयणे वा भावसम्म पत्थं उदहयादीणं भावाणं अविरोधो, जहा सुभगसुरूवासुजुति अहवा सुभगणामस्स य उच्चगोयस्स य, पसत्यनाणादीणं जतिया खाइया भावा तेसिं सव्वेसिं अमराय माणः [100] ॥ ८८ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : द्वितीय अध्ययने षष्ठ उद्देशक: 'अममत्व आरब्धः, Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [६], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] (०१) बोधादि चूर्णिः 11८९॥ प्रत वृत्यक श्रीशाचा-1|| सम्मं, एवं उपसमियाणं जाव सम्म मोहणिअं उत्सम, एवं खओवसमियाणपि, जहा नाणचउकस्म य, खओवसमियस्स चरि-ID रांग सूत्र- तस्स, एवमादि सम्म चुज्झमाणो, बोहो चउबिहो, णामबोहो ठवणबोहो दब्धयोहो भावबोहो, णामठवणाओ गयाओ, दब-11 | बोहो जं चेयणातिदव्वे बोहो सो दव्वबोहो, जहाविसयं धारिओ, अगतेण नासाए पक्खितेण, भावे अप्पसस्थे तिमि तिसट्ठाई | २ अध्या ६ उद्देशः पवातिसयाई अप्पसत्थभावबुज्झमाणाई, अपरिग्गाहिता ण किंचिदवि, बुझंति तहावि मिच्छादिट्ठी, पसत्थे नाणादि बुज्झमाणे 'आताणीतं समुट्ठाता' दवायाणीयं जो जं दवं सचिचादि गिम्हति सो दब्याताणीउ, जंभणितं-दब्धपयोयणा, अप्पसत्थA भावाताणट्ठीया गिहत्था विसयकसायपयोयणा, अन्नउत्थियाण विस्सुता ते अट्ठिया, पमत्थभावादाणडीओ अट्ठविहकम्मनिअरट्ठीओ, संमं उस्थाणं समुत्थाणं, दवो जं दव्वं उचिट्ठति तं दब्बसमुट्ठाणं, तंजहा-विसमविजलासु पडिओ पडणभएण वा वल्लिं लता वा अवलंब उत्तिट्ठति तं दध्वसमुत्थाणं, भावे अप्पमत्थो तिण्डं तिसट्ठाणं पाबाउपसयाणं अप्पणप्पएण उट्ठाणं, अहवा विसयकमा योट्ठाण, पसत्यभावोहाणं णाणादी, पसत्थेण अद्दीगारो, तेण उत्थाय 'तम्हा पावं कम्म' तम्हा इति तम्हा कारणा संबुझमाणो आताणीयं समुट्ठाए पा-हिंसादि जाव मिच्छादसणसल्लं तं सतंण कुआ णो अण्णेहि कारखे करतऽपण्णं णाणुमोदए, अणुमोदणा अकरणाकारणेण गहिता, णवए णवदेण, तंच पावं-हिंसादि छसु काएसु, सुने संबंधो भाणियब्यो, नाणादितियं च उतारेयचं, ते य अवाया नाणादिसहितस्स ण भवंति, रागादिसहितस्स हिंसादिपवत्तस्स भवंति, अवाया किं, एगकार्य आरममाणस्स तदारंभे सेसारंभोऽवि, एगतरं आसवपचस्स किं एगो भवति सम्वेऽवि !, भण्णति-'सिया से एगतरं विप्परामुसति' सिया-कयाई से इति असंजतस्म निदेसो पमतसंजमो वा, एगमवि पदविकायं किमु मनकाए, विविध परामुमति हत्थ [९६ १०४] 1८९।। दीप अनुक्रम [९८१०८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [101] Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [६], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] (०१) श्रीआचारांग सूत्र चूणिः २ अध्य० ६ उद्देशः ॥९ ॥ प्रत वृत्यक पादकट्ठकलिंचगुलिसलागादीहिं समस्तं घट्टणं, जं भणितं-चालणं, किच्छपायकरणं परितावणं, पाणचवरोवणं उद्दवणे, एवं सो| सरिभादि एगमवि समारभमाणो 'छसु अण्णतरं' छदिति संखा, छण्हवि काया समारंभे कप्पति, जंभणितं-वति, दवओ कुम्भगार-103 सालाउदगघडपलोडणदिद्वैतेणं, भावतो अविरतत्ता, पाणातिवातासबदारविधाता एगजीवप्रतिवाती एगकायघाती वा, सम्ध-IA जीवातिपाती भवति, पेरितो लोएणं अलियं, ण य तस्स समारंभो तित्थगरेहिं अणुण्णाओ जेसि वा जीवाणं ते सरीरा तेहिं तं | अदत्त, सावजग्गहणेण य परिग्गहो भवति, अहवा ते सहातीणं विसयाणं अत्थे समारभति, तप्परिग्गहो य ण रागदोसेहिं विणा | भवति, मेहुणरातिभत्ताणिधि विसय एव, अतो छसु अण्णतरंसि, अहवा चउहि आसवदारहिं अबगतेहिं कह च उत्थछदुवयाण | अवट्ठाण , अतो छसु अण्णतरंसि, किंच-सब्बसाधजजोगविरतस्स एगतरवतभंगे कह ण सबभंगो, भणियं वा-"खंडे चके - सगले चके" एवं छसु अण्णतरंति, अहवा सिया एगतरं जो एवं पुढविकार्य समारभति अनतरं वा सस्स छसु अण्णवरेसु अबवातं प्रति ण पडिसिज्झति, तस्स समारंभणे वा तप्पाउम्गाई कम्माई बंधित्ता तेसु चेव काएसु सई असई च उप्पञ्जइ, तत्थ सरीरादिहिं दुक्खेहिं कप्पति, जं मणितं-पट्टति, किमत्थं एरिसविवागं कम्मं आरभति ?, भण्णति-'से महत्थी' सुहेण जस्स अट्ठो, जं भणितं-मुहप्पओयणी, तत्थ करिसणादिकम्मेहिं सुहस्थी पुढवीं समारभति हाणाहिनिमित्वं उदगं, एवं सेसकायाणवि माणि| यब, तं पुण अप्पणो परस्स का सुहत्थी आरभति, रागादिसहितो असंजतो, पमत्तसंजओवि कोई सुहत्थी काये आरमति, तंजहा रससुहत्थी सचित्तं लवणं गिहति, मट्टियातिकातेण वाऽच्छेण एवमादि, आउंमि अविद्वत्थं आउकार्य, उदउल्लेण वा हत्थेण, एवं | सेसएमुचि भाणियन्वं, अच्चत्थं-पुणो पुणो लप्पमाणो लालप्पमाणो, जं भणितं सुई पत्थेमाणो, स एवं लालप्पमाणो 'सरण | [९६ १०४] दीप अनुक्रम [९८१०८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [102] Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [६], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] (०१) रांग सूत्र चूर्णिः २अध्य० ६ उद्देशः ॥९१॥ प्रत वृत्यक | दुक्खेणं' सएणति अप्पणएणं दुक्वं-कम्मोदओ तेण वाहिजमाणो परितप्पमाणो तप्पडिसेवाए सुट्ठी निवदृति, मोहो णाम || । तपाडसवाए सुहट्ठा निबट्टात, माहा णाम सुखार्थि हिताहिते निविसेसता, अहवा एरिसे पुरिसे हिते अहितबुद्धी, अहिते हितमारभति, एव कजाकजे वजाबजे, सो मूढत्ता णामि-IA स्वादि याणति जहा अप्पस्स सुहस्स कारणा पुढविकायातिसमारंभेण अणंतकालं संसारे अणुभवति दुक्खं, जहा अत्तट्ठा तहा परट्ठावि, मातापितिमादीणं कारणा पुढविमादी समारभति ततो विपरियासं एति, सो एवं हितपरिण्णाणमूहो 'सएण विप्पमाएणं' अप्पणएणं विविधो विरुद्धो वा पमादो विप्पमादो, कारणे कज्जुबयारा, सएण विष्पमादेण अंजसं-अत्यर्थ, अंजसा विप्पमायकरणे कम्मुणा 'पुढो वर्य'ति विच्छिण्णो बयो असुभदीहाउयं अणेगविहं वा वयं पत्तेयं पचेयं छसु जीवनिकाएसु आउयं, पुणो पुणो वा वयं पुढोवयं-मिसं कुबति, कह तत्थ य सारीरातीएहिं दुक्खेहिं पञ्चति १, भण्णति-'अस्सिमे पाणा पव्वहिता' जंमि एतेएगिदियादिपाणा पयहिता, तेहि तेहि पयोयणे य बाधिता, केण ?, असंजतेहिं कुप्पाखंडीहि य, परोप्परओ य पुढोवयं कुब्बति, इति-एवं पडिलेहमाणो, पडिलेहाए पडिलेहिता, अं भणियं-जाणिवा, णो पडिसेहे, अकरणा, केसि अकरणं, पाणाहवायमादीणं कम्माणं, जा एतेसि अकरणा सा किं भण्णति ?-'एस पडण्णा पयुवति' एसा णाम जा एसा बुत्ता पाणाइवायाईणं अकरणा सा जया दुबिहाए परिणाए परिणाया भत्रति एसा परिण्णा कम्मोवसतिति वा एगट्ठा, केसिंचि अकंमाणं चोरादिगहियाण कुलिगीणं च अणुवाएणं उवसंती भवति, ण परिणा, कम्मोवसंती पचति, जं भणितं णवस्स कम्मरस अकरणं पोराणस्स खवणं उबसंती बुञ्चति, एस एव अचंतनिरावरणो महव्वयअणुपालगअहिगारो अणुयत्तति, एव य उपसंती भवति, तत्थ उबसंतलक्खणंसचं पाणाइवाय तिषिहं तिविहेण ण करेइ, एवं जाव परिग्गई, तस्थ अहिंसादीणं परवेऊणं चचारि जहा वेरमणा परिग्गहे न भवति | ९१॥ [९६ १०४] दीप अनुक्रम [९८ १०८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [103] Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [६], नियुक्तिः [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] (०१) श्रीआचागंग सूत्र चूर्णिः २ अध्य० ६ उद्देशः ॥ ९२॥ प्रत वृत्यक तहा भण्णति, जहा भण्णाति-'जे ममाइतमती पन्छाणुपुब्बी वा एसा, जे इति अणुद्दिदुस्स, कस्स !, ममीकितं ममाइतं, तंजहा- ममस्वादि मम माता मम पिता मम भयिणी मम भाता मम धण्णाति, ममायिते मती ममाइयमती, कहं मम एवं विहा विसया भविञ्जा', पत्तेहिवि तस्स रक्षणमती, अस्थि सुहं च, विणढे सोगो, परिग्गहे इच्छा ममीकारमिति, भरहसामिणा आसघरे पवितुणं ममीकारमती जहा, जो य एतं ममायिए मर्ति जहाति सो जहाति ममाइयं, जहा-तत्थ हिरण्णसुवण्णधणधण्णाइ ममाइ तं रजं अण्णतरं वा इस्सरियं सरीरं च, अहवा सचित्तचित्तमीसाई दबाई ममाइ, तं संखेवत्थो जो तहं वोच्छिदति सो परिग्गई जहति, जो वा ममत्त छिदति सो ममाजितवं जहति, अण्णउस्थिएहि जइवि किंचिवि जद सचित्ताति तहवि सरीरादिसकारआहार-1 | मुच्छामत्ता उद्देसियभोइला रागदोसाणुगत चा य सममत लन्मंति, दथ्योवसंती य सा, ण परिण्णा कम्मोवसंती य, एवं अण्णेसवि IN वयेसु आयोजं, जो य एवं वतेमु अवट्टितो भवति 'से हु दिढप्पहे मुणी' दिस्सति दिटुं, गम्मति जेण सो पंथो, जेण णाणादीणि मोक्खपहो, विवरीतो अपहो, स जेण दिट्टो सो दिदुपयो, पडिजइ य-दिनुभए मुणी भयं सत्तविहं. कतगे सो नणु मणी ?. IN तं-'जस्स णत्थि ममाइत' उवदेसियसुत्न, तं परिण्णाय, ऋमिति !, पुष्वपगतावेक्खी ममाइयं दुविहाए परिण्णाए णचा पञ्चक्खाय मेधावी. सो एवं परिजाणए 'विदित्ता लोय' विदिचा णाम णच्या, लोयं-छकायलोयं विदित्ता, जो जीवे ण याणति, कसा-I11 | यलोयं वा विदिचा, तंजहा-'अहे वयति कोवेणं.' विमयलोगं च, तंजहा-किपाकफलसमाना विषया हि निसेव्यमाणरमणीयाः । पश्चाद् भवन्ति कटुका अपुषिफलनिवन्धनेस्तुल्याः ॥ १॥ पाणवधासबलोयरस य इव परत्थ प अवाए विदित्ता बंता लोगसपण' वमित्ता-विहाय अबकिरिता, असंजयलोयस्म मण्णा-हिंसादिक्रियापबित्ती मिच्छामणश्रमिग्गहा वा, सा य दुवं [९६ १०४] दीप अनुक्रम [९८१०८] र पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [104] Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [६], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] (०१) IAT श्रीआचा रोग- चूर्णिः २ अध्य ६ उद्देश: ॥ ९३॥ प्रत वृत्यक बमिअति एवं णचा 'से मतिमं परकमिज्जा' सेत्ति णिसे, मती से अस्थि तेण मतिमं, बंता लोअसणं लोउत्तरे धम्मे ठितो लोकसंज्ञाअहिंसादिवतलोगे च परक्कमिआसि, एवं तित्थगरआपाए बेमि, णो स्वेच्छया, अहिगारसमचीए एवं बेमि, ण अज्झयणसमत्तीए, चोतिः एवं परकममाणो घडमाणो 'णारति' ममाइतमति 'सहती वीरेंण इति पडिसेधे, सधणं मरिसणं, जति गाम कदापि तस्स AV | परकमतो तवणियमसंजमेसु अरती भवेजा ततो तं खणमित्तमविण सहति, खिप्पमेव ज्झाणेण मणतो निच्छुभति-णिव्विसयं करेति, वीर इति 'विदारयति तत्कर्म, तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तव, वीरो वीरेण दर्शितः ॥१॥'जहेब संजमे अरति । ण सद्दति तहेब विसयकसायादिलक्खणे असं जमे जति कहंचि तस्स रती उप्पजति तंपि खणमित्तमवि ण सहति-ण खमति, धम्मज्झाणसहगतो उप्पण्णमित्तं णिकासति, 'जम्हा अविमणे' जम्हा सो इटाणिद्वेसु पत्तेसु विसएसु घितिबलअस्सितो अविमणो भवति, अहवा जम्हा सो संजमे अरति ण सहति असंजमे अ रतिं तेण मज्झत्थो णिश्चमेव अविमणो धीरो 'तम्हादेव विरञ्जते' विसएसु, ते य सद्दादि फासपजंता, जतो इमं सुत्-'सहे फासे य०' आदिअन्तरगहणा मझग्गहणं, अहियासणं णाम इटाणिडेसु रागदोसअकरणं, भणियं च-"सद्देसु य भयपावएमु०"अहियासणोबायो 'णिविंद गंदी गंदी पमोदे रमणे समिदीए य इस्सरियविभवकया मणसो तुट्ठी, ततो णिबिंद, जति अतिकतकाले कस्सबि आसि तत्थ होऊण ण होति पुणो, अहवा |जा कुमारजीवणादिसु नंदी तं निविदेजा, सर्णकुमारचक्कवहिदिट्टतो, 'इह' मणुस्सजीविते असंजतजीविते वा विसथ-101 कसायजीविते वा पंचपदवि अवयाणं अतीतं जिंदति पहप्पणं संबरेति अणागतं पञ्चक्खाति, केण आलंबणेण णिचिदति तत्य, 'मुणी मोणं समायाए' समणेसि वा माहणेत्ति वा मुणिचि या एगट्ठा, मणिभावो मोणं, सम्मं मंगतं वा ममत्थं वा आदाय, IN९३ ॥ [९६ १०४] दीप अनुक्रम [९८१०८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [105] Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [६], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] (०१) SA प्रत वृत्यक Vएतं मोनं आदाय कि काययं ताव ? 'धुण कम्मसरीरं धूण, जं भणितं परिसाडेहि, एगे अणेगादेसो, 'पतंल सेवंतिवीरा' रांग सूत्र- तं णाम जं समावियरसपरिहीणं जहा दोसीणं, लूह दब्बे णेहविरहितं भावे वीर्तिगाल सेवंति-भुजंति वीरा पुब्बभणिता, सम्मचं चूर्णिः | पसंति सम्मईसिणो, जत्थ सम्म तत्थ नाणंपि, कारगसम्मने चरित्तपि, तस्स सुतेणेव फलं भष्णति-'एस ओहंतरे' एसेति | २ अध्य TV जे भणिता पंतलूहसेवी, दब्बोधो समुदो भावोघो संसारो, स भावोघं तरति तारेति वा, अण्णे तरमाणे तिण्ये मुके, अहवा चारस॥९ ॥ विहे कसाए खोवसमिए खविए वा तेण ताव मुको विरतेति एगट्ठा, विविहं अक्खाते वियस्खाते विवाहितेत्ति बेमि। तहेब जो तमि जहोबढेि मग्गे ण बट्टति सो किं वत्तम्बो', भण्णति-'दम्बवसू मुणी' चसतीति वस्ता, कत्य:, संजमे नाणादितिये वा, दुवै वसु दुव्वसु, जं भणितं कुस्समणो, ण आणाकरो, दुव्वसु जो भगवतो अणाणाए बढ़तीति वक्सेसं, एत्य किं दुकरं !, भष्णति-IN से तं संघुज्झमाणो मिच्छत्तमोहिए लोए. दुक्कर संबोधु, अपडितेण समुत्थाणेण व तेसु अप्पा थावेउं दुकरं एवं मम छेउं अरतिपरतीओ निग्गहेउं सहादिविसएम ममत्थं मावेतुं इटाणिद्वेसु पतलूहाणि फासेउं, एवं जद्दोवदिट्ठस्स आणाए दुकर वसिउं फासेउ। |संखेबदुकर परीसहा सोढुं, तत्थ मूलहेऊ कम्मोदओ अतीतकालभावितो दुक्खभीरू अणिरोहसुहण्णिओ पच्चुप्पण्यमारिया । दुक्खं मुणिस्स आणाए वसति, सो एवं अणाणाकारी 'तुच्छए दचतुच्छो विभवहीणो तुच्छघडो वा पुलागं धष्णं वा हस्थिखVइयं वा सगलं बिल्लं इदिचयं एवमादि दब्बतुच्छगं, भावतुच्छगं भावतुच्छो नाणादितियहीणो बहुसुतो वा चरित्तहीणो, सो एवं Dचरितहीणो 'गिलायति वत्तए' पूयासकारपरियारहेउं सुद्धं मग्गं परूवे गिलाति, जति मूलगुणतुच्छो तेण मूलगुणे परूपे] ग्लायति, को दोसो सण्णिधिमादिसु, जह आहारो धम्मसरीरधारणथं कीरति तहा सनीधीवित्ति, कारणे सन्निहि करेंतो केणवि [९६१०४] ॥९४ ।। दीप अनुक्रम [९८१०८] | पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [106] Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [६], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] (०१) देशन्मयां ग्लानिः प्रत वृत्यक भीत्राचा Dचोतितो तुज्यं सबिही वङ्कति ?, ताहे ग्लायति कहेतुं जहा, ण वकृति, एवं कोडलादिसुबि, आउकार्य या गेण्हंतो केणयि चोदितो, ID रांग सूत्र- तस्थ ग्लायति, एवं सेसकाएसुवि, एवं सब्वमूलगुणेहि, उत्तरगुणेहिं वा उदउल्लाति गिण्हमाणो केणयि गीतत्थेण चोइओ ग्लायति, चूर्णि: Nको वा एनिल्लए दोसो, जति वा एतिल्लयं ण सकेति खवेळ तो बहुयं कर्य कहं खवेहिति जं अमभवे बद्धं , तत्थ कोयि सा २ अध्य० विक्लो कोयि णिधसो, जहा दट्टण य अणगारं णि«धसो भणति-किं चरगादयो समणा न भवंति आउकायादि गिर्हता, ६ उद्देश: साविक्लो पुण 'ओसण्णोवि विहारे' गाहा, तबिवरीओ तु सम्वेसु आणाए वट्टमाणो अतुच्छो नाणादीहि, ण ग्लायति वत्तम्बर ॥९५॥ पुट्ठो अपुट्ठो वा सुद्धं मग्गं परवेमाणो, सो एवं परूवेंतो 'अञ्चेति लोपसंजोय' अञ्चेतित्ति अतिकामयति, लोयसंजोगं बज्यो हिरण्यसुवष्णमातापिताति भावे रागदोसाति तं अतिकमति, 'एस णाए' एस इति जो भणितो अप्पाणं परं च मोस्खं, णाति णाया, जं भणितं उभयत्रातो, एवं सहस्म कधी णायद्वितो कि कहेति ?, भण्णति-जं दुकावं पवेदितं' जं इति अणुदिढ दुक्खं कर्म से जद्द पति जो य बंधति जत्थ य तस्स विवागो भवति जह य विवागो भवति जह य न भवति विवागो, पवेतितं तित्थगरगणहरेहि 'इहेति इह मणुस्से परपणे वा मणुया माणवा 'तस्स दुक्खस्स' तस्स इति तस्स पाणाइवायादिउवचितस्स कम्मबंधस्स 'कुसला जाणगा जुगे जुगे धम्मकहालद्धिसंपण्णा ससमयपरसमयविऊ उज्जुतविहारा जहाबादी नहाकारो जितनिदा जितइंदिया जितपरिस्सहा देसकालकममाणमा गणहरादि जाव संपन सुत्नेण वा धम्मकहाहि वा सुचाणुसडिमादीहि काति, दचकुसला भावकुसला पुधभणिता, परिण्णा दुविहा 'उदाहरंति' उबदिसंति, तंजहा बंधो बंधहेतु मुको मोक्खो मोक्खहेतुश्व इति कम्मं परिणाय' इति उपपदरिसणे, एवं परिणाय जहेर्न भणिनं तं दुक्वं पवेदितं इह माणवाणं तस्स [९६ १०४] दीप अनुक्रम [९८१०८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [107] Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [६], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] (०१) जहा बजार २ अध्य/ उद्देश: प्रत वृत्यक श्रीआचा कम्मस्स कुसला परिणाउं, एवं अट्ठविहकम्म जाणणापरिणा बत्तव्या, तस्स अस्सवे य, तंजहा- नाणपडिणीययाए दसणपडि- सर्वकथन रांग सूत्र- Nणीययाए० एवमादि णचा पञ्चक्खाणपरिणाए पडिसेहेति, भणितं आसवदारेहिं ण बर्दति.'सव्यसो'त्ति सबप्पगारेहि, जोग। | जहा बज्झति जचिरकालठितियं वा पंधति अहवा केवली सम्बं परिणाय कहयति चोदसपुब्बी सम्वे पण्णवणिजे भावे जाणति, | गणहरपरंपरएणं जाव संपण्णं, कहा चउचिहा, तंजहा-अक्खेवणी विक्खेवणी संवेयणी णिव्वेयणी, ताहे कहेइ सो केरिसओ', ॥१६॥ | मण्णति-'जो अणण्णदंसी' अण्ण इति परिवञ्जणे तिष्णि तिसट्ठा पावातियसया अण्णदिट्ठी, अणण्णदरिसी बताई तत्वबु| दीए पेक्खति, इमं एक जइणं तत्तबुद्धीए पासति, जो अणण्णदिट्ठी सो नियमा 'अणण्णारामों' ण अण्णत्थारमतीति अणण्णा | रामो, गतिपच्चागतिलक्खषणं भण्णति-'जे अणण्णारामों से णियमा अण्णदिट्ठी, जं भणितं सम्मदिट्ठी, ण य अण्णदिट्ठीए । B. रमति, सहा विसपकसायादिलक्खणे अचरिचे अतवे ण य रमति, सो एवंविहो अन्नपि ठावयति केवलीपणचे धम्मे चउबिहाए| || कहाए अरचो अट्ठी आघवेमाणो पण्णचेमाणो, पीयरागे सुणिउणं संपचयो भविस्मति, तं कह १, भण्णति-'जहा पुण्णस्स। | कत्थति तहा तुच्छस्स' पुण्णो णाम सब्वमणुस्सेसु रिद्धिमा चक्कचट्ठी तदगंतरं वासुदेववलदेवमहामंडलियईसर जाव सत्यवा| हादि, तुच्छा तणहारगादि, अहवा पुण्णो जाइसंपण्णाति तन्निवरीओ तुच्छो, अहवा बुद्धिमंतो पुण्णो मंदबुद्धी तुच्छो, जेण आय रेण जेण आलंबणेण पुण्णस्स कहिअति तहा तुच्छस्स, गतिपञ्चागतिलक्खयोण जहा तुस्स कहि अति तहा पुण्णस्स, जं भणित| जहा तुच्छस्स ण अण्णहेउं० च कति तहा पुण्णस्सचि, सोयारं वा प्रति विष्णाणकहाए वायसंपन्ने विवजओ, विण्णाणमंतस्स | निउणं कहिञ्जति धृलबुद्धिस्स जहा परियच्छति तहा कहिजति, भणियं च-"निउणं अत्यं." "तत्थ आलंबणं तुल्लं." उस्सग्गेणं HELI|९६ ॥ [९६ १०४] दीप अनुक्रम [९८१०८] | पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [108] Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [६], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] (०१) अविधि Hama प्रत वृत्यक श्रीआचा-16 अहवा कोपि आयारकहणेण तुस्सति, कोई ण, अतीवादरेण तस्स तहेव कहेयब, अहवा रायादि उपसंते बहवो उनसमंति. मुह-DDI संग सूत्र- विहारं भवति, तेण तस्स जाव इच्छति ताव कहिजति सरीरउबरोह मोतुं, सेसेमु आवस्सगस्स परिहाणीए ण कहेयब्ध, अतिसेचूर्णिः | सिओ वा कहेति जो जहा उबसमीहिति, भावं नाउं कडेति, किं एयरस पियं अपियं वा, वेग्गं सिंगारं वा, तहा के अयं पुरिसे || ९७॥ | कं वा दरिसणं अभिष्पसते , जहा य इहलोइयपरलोइयअवायो ण होति कहतस्स तहा कहेयव्यं, परलोइओ अण्णहेउं पाणहेउं वा | उम्मम्ग वा उवदिसति एवमादि, इहलोइओ जम्मं मम्म कर्म परिहरियचं, ण य तप्पटमयाए जं सो दरिसणं अभिष्पसण्णो| | तस्सेवेगस्म भूयो भूयो दोसे देइ, सामण्योग वा दोसे देइ, पुच्छतस्प वा दोर्स दंसेति, जई राया भगति, लोयसिद्धेण वातेण । |शया णरगगामी, दशमूना सम चक्र, दशचकसमो ध्वजः । दशध्वजसमा वेश्या, दशवेश्यासमो नृपः ॥ १॥ नन्थ इमे दोसा | 'अविय हणे' अपि पदार्थसंभावने, अणिट्ठकहाओ एवं मण्णेज-एते सन्चधर्मबाहिरा, जहा रायधम्मंण याणंति तहा मोक्खधम्मपि | | पत्र, गेण्हेजा अतिकोहेण, अविय हणे अद्विणा मूट्टिणा एवमादि, अवियऽकोसेज वा हसिज वाणिस्साहिज वा कैमेज वा छवि| छेयं वा करिज, उदविजा अपि, वत्थादिच्छेदं वा, जहाति, छेदिज वा भिंदिन वा अवहरिज वा, भगिर्य च-"तत्थेव य निवर्ण बंधण णिच्छुमण कडगमदो य । णिचिसय व नरिंदो करिज संघपि सो रुट्टो ॥१॥ भइमाओपा कोइ वचु(द)इणीए कड़ियाए उदुरुढो तं चेव करेति, तच्चणिो उवासओ वा गंदवलाए बुद्धप्पत्तीए वा, भागातो भल्लीधरक्खाणेणं, छकिरियभत्तो वा पेढालउमाधरणेण, तुच्छाणवि दासभयगादीणं कहेमाणो जति भणति, अहम्मेण एरिसा भवंति, कट्ठासणा कुसिना कुभोयणावा, बण्णतो आयामंडितिया, दरिदवण्णगं वा, तं च उवहमति, ताहे सोण गिण्हेइ, पण वा पृणो पति, साहसिओ वा कोई अकोसेज वा जा | [९६ १०४] दीप |९७॥ अनुक्रम [९८१०८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [109] Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [९६ १०४] दीप अनुक्रम [९८ १०८] श्रीआचा रांग सूत्रचूर्णिः ॥ ९८ ॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [६], निर्युक्तिः [१९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] वत्थातितं छिंदि वा एवं अविहिकहणाए दोसा भवंति के दोसा ?, भण्णति- 'तत्थवि जाण सेयंति णत्थि जो सदहेउ वघा कोति धम्महालद्धिसंपण्णो तेण कहेयब्वं चउच्चिहाए कहाए, जो पुण ण सदहेतु तेण संवेयणिणिवेपणीए कहेयच्या, किं निमित्तं विक्खेवणी ण कहिजति १, भण्णति मा सो अमिणवसट्टो परेहिं बुग्गाहिजे तश्चणियगेरुपससरकखमादीहि, अम्हवि अहिंसा इंदियदमो य बेरग्गं मोक्खो य, पच्छा सो पुत्र अविकोवितोषि परिणमति, अण्णद रिसीवि होऊण एवं 'एत्थवि जाण सेयंति णत्थिति, किंच-जति सहहेतु अविकोवितो भगड परिसामज्यो-इणमेव निग्गंथं पवयणं सधं, सेसाणि कुदरिसणाणि मुमा, एस्थवि जाण सेयंति णत्थि, कई ?, पच्छा तत्थ तचभिओषासगो चोदितो, सो य तं न नित्थरह, पच्छा ओभावणा पवयणस्स, भांगवता गरुयसो वा अवियदृणे अणातियमाणे एत्थवि जाण णत्थि सेयंति, केणइ पुच्छिओ भगइ अस्थि अप्पा, ततो परेण चोइओ अस्थि अप्पा, एगते अन ते उभयदोसा, एत्थ जाण गरिथ सेयंति, भणिया अविहिकहणा, इदाणिं खितं विचार्यते तत्थ खे तं जाणियन्त्रं, केण भावितं धीयारभावितं तच्चण्णियभावितं वा भाविते तेसिं अविरुद्धं कहेयां, सामण्णग्गणेण वा कालं मिक्खावेलादि अपरिहवनेणं सदा सुभिक्खदुभिक्खं गाउं कहेय, तहा भावं गाउँ कयच्वं तत्थ इमं सुतं- 'के अयं पुरिसो' के इति पुण्णो तुच्छो वा ?, अडवा किं दारुणमभावो इतरो वा ? जति रायी ततो तस्स दोसे असूयंते कहेपब्वं, एवं जाब चंडालो, 'कंच णत'त्ति कयरं पचवणं णतो णाम पडिवण्णो, संखं बुद्धं एवमादि, जं पणओ ण तस्स आतीए दोसे कहे, मा ते दोसा भविस्संति, अवियट्टणे अणातियमाणे जदा दरिसणे उम्पाडो भवति तदा तदोसा कहिअंति, एवं जहोवदिट्ठा सुसंबुज्झमाणा गुणादीहि उबवेता कहणा, दोसविसुद्धधम्मकहागुणोववेओ 'एस वीरे पसंसिते' 'एम' इति जो भणितो वीरो पुव्त्रभणितो पसंस अविधिकथनदोषाः [110] ।। ९८ ।। पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [९६ १०४] दीप अनुक्रम [९८ १०८] श्री आचा रांग सूत्र चूणिः ॥ ९९ ॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [६], निर्युक्तिः [१९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] पिओ पसंसिते, अण्णेऽवि अपसत्थसंगामवीरा ण ते पसंसिता, भाववीरों पसंसितो, जो किं करेति ?, भण्णति- "जे बने पडिमोयए' जे इति अणुदिट्ठस्स गद्दणं, अडप्रकारेण कम्मेण मद्धे संते पडिमोए आयप्पओगेण बद्धे सम्मं उपदेसंतो, कारणे कज्जुबयारे संपयं पडिमोएति, जं भणितं पडिमोयावेति, तित्थगरी जो य कयत्थो उत्तमो, गगहराति वा थेरा उभयतारा इति, एवं से जहामणितकहणाविधिजुत्ता 'उड़े अहे तिरियं' पण्णवगदिसा पहुच उई या अहे वा तिरियं वा चउसुचि दिसासु 'से सनो' स इति पुत्रभणितो कहगो, सब्बओ उई अहे तिरियं दिसासु, ण तस्स कम्मासची कठोयिवि भवति, 'सवपरिण्णाचारि'ति सव्वकालं सभासद आतपदेसेहिं परिण्णा दुविधा जागगापरिष्णा पञ्चकखाण परिण्णा य, जाणणापरिण्णा दुविधा-केवलिया छाउमस्थिया य, छाउमत्थिगी चउब्विा, केवलिंगी एगविद्या, पथक्खाणपरिण्णा दुविधा - मूलगुणपञ्चकखाणपरिण्णा उत्तरगुणपञ्चक्वाणपरिष्णा य इति एवं सध्यपरिष्णं सध्यओ परिजाणित्ता चरति सच्चतो सन्त्रपरिण्णचारी, जं भणितं जाणित्ता असंजमजोगे ण करेति, अथवा अविहिकहणादोसे चिह्निकहणागुणे य सन्चओ सव्त्रपरिष्णचारी, णचा अविहिकडणं पञ्चकखाइत्ता चरतीति सथ्यपरिष्णचारी, सो एवं 'ण लिप्यति' ण पडिसेहे, लिप्पतित्ति जुञ्जति, छणणं हिंसा छणणस्स पदं छणणपदं, जं भणितं - हिंसापदं, बिहीए कहतो व छणेण लिप्पति तं णो अकुस्सेज वा उसेजेअ वा उपहसेज वा नो बत्थादि अवहरि वा सो एवं विहीए कहतो नागदंसणचरितवविणयेहिं ण छलिजति, तथा तारिसं धम्मं न कहेति जेण पाणभूयाणं छगणा होजा, जहा अन्नउत्थिया एगंतेण उद्देसियामिहाणं पसंसंति विहाराति कारेंति एवमादी, वीरो पुत्रभणितो, किं एत्तियं वीरलक्खणं जो ण लिप्पति छणणपण, उदाहू अपि ?, भष्णति 'से मेहावी' मेहया धावतीति मेधावी, सो बुद्धिमां, जो 'अणुग्धामणस्स' अगति जेणं बद्धमोचनादि [111] ।। ९९ ।। पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [६], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] (०१) प्रत वृत्यक [९६१०४] श्रीआचा तं अणं, जं मणितं कर्म, उग्घायणंति वा उपायणंति वा एगट्ठा, 'खेतण्णे जाणओ, जंभणितं कम्मखवणओ, सो मेहावी किच्चं बंधमोक्षरांग सूत्र'जेय बंधपमोक्खमण्णेसी' जे इति अणुद्दिदुस्स, बंधो अट्टविहं कर्म, मिसं मोक्खो पमोक्खो, अप्पा आसवबंधस्स मोक्खं । पितादि चूर्णिः | अण्योसति बंधपमोक्खअण्णेसी, जं भणितं मग्गति, तस्सेसी तहि जंएतं भणितं कसलेग बंधमोक्खविहाणं, सो किंबंधो मोक्खो, ॥१०॥ | भण्णति 'कुसले पुण णो बद्धे णो मुक्के दबकुसला भावकुसला तहेव भाणियब्वा, पुण बिसेसणे, किं विसेसेइ ?, अन्नेवि | कुसला साहू, अयं तु तित्थगरकेवली अधिगतो, सो चउहिं घाइकम्मेहिं मुक्कत्ता व पद्धो भवोवग्गहेहि य बद्धताण मुक्को, अहवा बज्झम्भतरसावञ्जगंधस्स मुक्कचा मुक्को, भवोवग्गहकम्मेहि अमुकचा ण मुको, अहवा अण्योवि साहू अप्पसत्थेहिं भावेहि अण्णा|णविरतमिच्छत्तेहि मुक्का, पसत्थेहिं तु चरिचतबविणयादीहिं अमुक्का, से जंच आरंभेज तेण वा बद्धेण वा उवदिटुं तं किं । अप्पणावि आयिष्ण, जइ वा साहु सिस्सोबदेसो चेव मण्णति, 'से जंच आरंभे 'से' इति तित्थगरो आरभति आयरति घडति | जतति परकमति सम्बकम्मक्खयत्थं संजमतबविणये, विहीकरणं च आरभति, तविवच्चासं न आरभति, अहवा पाणाइवायमादि | अट्ठारसट्ठाणा णारभति, तबिवश्चासं आरभति, जण्ण कदाइवि आरद्धव्वं तं णारभति हिंसाति, जंवा सो भगवं न आरभति तं णारदुब्वं, तं भण्णाति 'छणं छणं परिणाएं छणि हिंसाए जस्स जेगप्पगारेण छणणं भवति जहा सत्थपरिष्णाए एकेकस्स कायस्स सन्थप्पगारा भणिता तं छणं दुविहाए परिणाए, अहवा छगं छणं परियाणादि पाणवहाति अट्ठारमविहपि एक छणपदं, वितियं । || जहण छलिजसि अविहिकहणाए, एतं परिणाय 'लोगसण्णं च लोयस्स मण्णा लोयमण्णा, जं भणितं लोयसुई, चसो आय | सणं च, तं छणणं ण कुज्जा, अप्पोक्मेण-'जह मम ण पियं दुक्खं जाणिय एमेव सब जीवाणं ।' ण हणति, तस्स एवं संबुज्झ दीप अनुक्रम [९८१०८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [112] Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [६], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] (०१) प्रत वृत्यंक [९६१०४] -10 माणाति जहाभणितगुणोवडियस्स सव्वायणगुणावट्ठियस्स वा विजियकसायलोयस्स 'उद्देसो पासगस्स णस्थि' उदिस्सति || रांग सूत्र जेण सो उसो, तंजहा-नेरइओ तिरिक्खजोणिओ मणुस्सो देवो, तहा सुदी दुक्खी एवमादि, पस्सतीति पस्सगो, किमिति । धम्म, ग अस्थीति ण विअति, तविवरिओ अयाणओ अपस्सगो य बालो, स चालो पुण दोहि आगलितो कालो, पुण विसेसणे, IN २ लोक. | विसयकसायमिभूतो अण्णाणी बुढ़ो जुवा कुमारो वा बालो, णिहतो रागादीहिं णिहो, 'कामसमणुपणे कामा सदादि ते इंदि॥१.१॥ यगोयरपचे समणुष्णति, जं भणितं रागहोसेहिं गच्छति अपचे मुच्छेति अतिकते अणुस्सरति 'असमियदुक्खें समिति वा सेवितंति वा एगट्ठा, ण समितं असमितं दुक्खं-कर्म तन्निवागो वा, असमितदुक्खत्ता से 'दुक्खी दुक्खावटमेव अणुपरि-11 यतित्तिबेमि' दुक्खाणं आवट्टो दुक्खावट्ठो दब्बावट्टो, णदीए समुद्दे वा भावावट्टो संसारकंतारतो, अणेगसो अणुपरियट्टति, अणु पच्छाभावे परि समंता सब्बओ परियति अणुपरियति इति । एवं तित्थगरोवएसा बेमिति । इति आचारस्म परमसुपखंधस्स वितियं अजायणं लोगविजयओ नाम परिसमाप्तं ।। उदेसा॥ ___णमो सुयदेवयाए । अझयणामिसंबंधो छज्जीवकायाधिगततत्तस्स विसयकमायलोयं चहत्ता सीयाणि उल्हाणि य सम्म | | अहियारि अति पसस्थाणि, अपसत्याणि य सीयउण्डाणि परिहरेजा, एवमादि अज्झयणसंबंधो, दारकतो अस्थहिगारो दुविहो| अज्झयणत्याधिगारो उद्देसत्याधिगारो य, अज्झयणत्याधिगारो सुहृदुक्रवतितिकखा, उद्देसत्थाहिगारो चउम्विहो-'पढमे सुत्ता | असंजति'त्ति गाहा(१९७-१४९)पढमे सुत्नदोसा तंजहा-जरामचुवसोवणीते नरे सततं मूढे, तह य 'माती पमाता पुणरेति गम्भ' जागरगुणा य 'जस्सिमे सहा य रूवा य एवमादि, बितिउद्देसे भावसुया जहा दुक्खं अणुभवंति, जहा कामेसु गिद्धा | दीप अनुक्रम [९८१०८] १०२॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: तृतीय-अध्ययनं "शीतोष्णिय" आरब्धः, [113] Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१०५ ११०] दीप अनुक्रम [१९०७ ११४] भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ३ ] उद्देशक [१], निर्युक्तिः [१९८-२१४], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १०५-११०] श्री आचा गंग सूत्रचूर्णि शीतोष्णीये १ उद्देशः. ॥१०२॥ णिचयं करती' एवमादि, सेहेण सहदुक्स्वसहेण होयन्वं दुकरं तवचरणं करेयव्वं । इदाणिं मा सासिस्सं एगंतेण दुक्खेण धम्मो, | तेण तम्मत पडिसेहणत्थं भण्णति ततिए ण य दुक्खेण, अकरणयाप व समणोचि, कई ?, भष्णति-'संतिं विदित्ता असत्तोवहिता पसत्थे, सो भावओ संजतो भवति ण एगंतेण दुक्खेण, अकरणयाए पति सहिते दुक्खमाताए तेणेव य पुट्ठो णो संझाए उद्देसंमि चउत्थे' (१९९-१४९) वक्खति' से वंता कोहं च' तच माणणिमित्तं० पावविरती, वक्खति य 'उबरतसद्दस्स पलियंतकडस्स' एवमादि विदुणो संजमो भवइ, एवं तस्स ववगस्त्रेणि अणुपविट्ठस्स मोक्खो भवतीति । इदाणिं अज्झयणत्थाधिगारो पुण्यभधितो स एव पुणो कहिञ्जति सुद्दे असंगता अणुलोमे उवसग्गे तितिक्खिअ ण य दुक्खाओ उन्त्रितन्त्रमिति, अज्झयणाहिगारो णामनिष्कण्णे सीतं च उण्हें च दो पदा 'णामं ठवणा'. गादा (१९९-१४९ ) णामठपणाओ गयाओ, बतिरिचं दव्त्रसीतं 'दब्बे सीतल' गाहा (२००- १४९) जं उप्पत्तीए सीतलं दव्वं तं दव्वसीतलं, तत्थ सचेयणं हिमतुसारकरगादि अवेयणं हारादि मिस्सं सचिचोदगकता जलदा, भणियं च " दन्त्रसीतं भावसीतं० पोग्गलाणं सीतगुणो बुद्धीए विधीकतो, ण सोय दव्बो, एवं ताव अजीवेसु, जीवभावगुणो णाम अणेगविहो छन्हिं परूवित्ता उवस मियखइयस्त्रयोक्समिया भावा सीया, उन्हें चउन्विहं वतिरित्तो अग्गी दव्व उण्हो सचिचो, अचित्तो आदिश्वरस्सी उ, मीसे उन्होदकं अणुव्वततिदंडं, भावउण्डं जो उन्हदय्वगुणो, अहवा पसत्यभाण्डं खाइयो भावो जैण अट्ठविहं कम्मं उज्झति, अहया तबो, अप्पसत्यभावुण्डो उदइयभावो, तंजदा — कोहो उन्हो माणो य, अहवा भावसीते इमा विभाना'-'सीतं परीसह पमात' उबसमो विरई सुद्धं च उण्ई, एतेसिं पच्छिमद्धविभासा परीसहतवृञ्जमकसायसोगवेदारती दृक्खं ( २०१-१४९ ) तस्म परीसहे पहुचं सीतं च उण्डं च भवति, तंजहा-' इत्थी सकार शांतिज्ञानादि [114] ॥१०२॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: तृतीय-अध्ययने प्रथमं उद्देशक: 'भावसुप्त' आरब्धः, Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१९८-२१४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १०५-११०] (०१) श्रीबाचा NEW रांग सूत्र चूर्णिः ॥१०३॥ प्रत वृत्यक [१०५११०] परिसहो य दो भावसीत' गाहा(२०२-१५०)ज भणितं सुइचा सीता भवति, संसा वीसं उल्हा. अहवा 'तिब्बपरिणाम'D शीतोष्णगाहा (२०३-१५०) अहवा अपसत्थसीतो सीतलचरणो पसत्थसीतो उवसंतमोहो खीणमोहो वा, अपसत्यभावुण्डो कोहोदयादित विभाग पसत्थभावुण्हो न धावति, उदिण्णे वा परिसहे अणहियासेमाणो उण्हो, अहियासेमाणो सीतो, पमतो उण्हो, अप्पमचो सीतो, धम्मे अणुजुनो सीयलो, उज्जुत्तो उण्हो, तस्सेगड्ढे इमे भवंति, तंजहा-'सीतीभूतो' गाहा (२०५-१५०)विरतित्ति दारं, विरतो सीतो अविरतो उण्हो, तत्थ माहा 'अभयकरो जीवाणं' (२०७-१५०) सुखं प्रति पसत्यं भावसीतं भवति, तंजहा-| 'निष्याणसुहं' गाहा (२०७-१५१) पुण निव्वाणं सबदुस्खखयो मुत्तिमुहं च, भवत्थकेवलीणं कामा णियचमाणाणं च) छउमस्थसंजयाणं 'तणसंथारणिवण्णोऽवि मुणिवरो' इह सचित्तविसयविरत्तस्स संसारियं सहातिसुई सीतं, अणुरत्तस्स उण्हंति, दार सम्मत् । एगतेण विसयकसाया उन्हा, मोहणिज वा सन्चकम्म, जेण भणितं-'जाति तिब्वकसाओ'(२०८-१५१)। कोदग्गिणा उति. चत्वारि सीयग्गिगा वा वेदग्गिणा वा, ततोवि उण्डतरोय तवो जो तं उन्हं पणिजं मोहणि डहति, सो) पुण अहिगयछजीवनिकायो सद्धो विसयकसायलोगवाहिरो 'सीउण्हफाससुह' गाहा (२०९-१५१) सीतस्स य उसिणस्स | | फासो, अहवा फासो दंसमसगफासो गहितो, सरीरपीडागरं दुक्खं, विचरीतं सुह, परीसहे सहति, कसायसहो कोहस्स उदयनिरोदो उदयपत्तस्स वा विफलं करणं, सेसं कंठयं, 'सीयाणि य उपहाणि य' गाहा (२१०-१५१) कंठ्या, सुत्ताणुगमे सुत्तं | उच्चारेयमे, सुत्तं अर्णतरेण परंपरेण य०, अणंतरेण 'दुक्खी दुक्खाणमेव इहवि सुत्ना अमुणी भावसुलो अभाणी अाणं च । महादुक्खें, भणियं च-"न ते कष्टतरं मन्ये, जगतो दुःखकारणम् । यथाज्ञानं महारोग, दुरन्तमतिदुर्जयम् ॥ १॥ परंपरमुने ) १०३॥ दीप अनुक्रम [१०७११४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [115] Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१९८-२१४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १०५-११०] (०१) सुजागरी रांग सूत्र प्रत वृत्यक [१०५११० भीआचा- 'असमियसुक्खे सम्मत्तदंसी' सम्वे य देसे य, दसे नरगतिरियगतियो बोच्छिमायो, अहवा चरिमभवमणुस्सस्स गरगतिस्यिदेव गईओ वोच्छिनायो, एवमादि देससमिता जाव भवत्थकेवली, जहा जालाधूमहीणो अग्गी उपसंतो भण्णइ एवं देसोवसंता, सब- चूर्णिः | उवसंता सिद्धा, सुत्ताणुगमे सुतं उबारेयवं अखलिय अमिलितं जहा अणुओगवारे जाव सुर्य मे आउसं! तेणं भगवया एव॥१०४॥ VI मक्वायं, स एव अहिगारो, 'सुत्ता अमुणी अ' जहा सुत्तो चउबिहो, पतिरित्तो दरमुत्तो निदासुनो, भावसुनो जो सावज| आसवपवित्तो विसयकसाएहि वा सो धमं प्रति सुत्तो, अहव, अण्णाणी मिच्छट्ठिी अविरतो य भावमुत्तो, विवरीतो जागरो, दष्वमुक्त जाब 'जह सुत्तमुच्छिय' गाहा (२१२-१५२) असहीणो- अप्पवसो खित्तचिचादि सुत्तो, पडितो चेव पावति, | मुछितो पडतो पडिनो वा, मतो पडतो पडीओ वा, कंटकादि कूवादिसु तिवं अपडिगारं, सुत्तस्स गस्थि पडियारो, तहा II हत्थे छिने पादे वा भग्गे चा, मेहावी से ण वा खइओ 'मुणिणो सया जागरंति'त्ति मुणेति जगं तिकालावत्थं मुणी, सया । णिचं 'आगरंतीति जागरतीति जागरो, सो चउविहो-दवे जो णिहाजागरो भावे सम्मदिवी संविग्मो जयमाणो, भावनिमित्तं | 'दबजागर' ताओ गाहाओ भाणियवाओ। 'जागरह गरा णिच्च दरिसणावरणकम्मोदए जो संविग्गो जयणाजुनो सो भाव.IYA जागरो एव, दबओ णाम एगे जागरे ण भावतो चउभंगो, भावजागरी 'एसेव य उवदेसे गादा (२१३-१५३) ते चेव दिटुंता विवरीता जहा त एव असुनश्रमत्तअनुच्छियादि सत्थावस्था सहीणचित्ता, पलिते वा विगादिभए वा पयलाते, जणे णस्सति | चा सारभंडाणि वा नीति 'पंथा दिसुनि पंथं वा जाणाति, उज्जुओ अणुज्जुओ सावाओ निरवाओ वा, अणुभवति णाम पलित्तमादिएस दुक्खाणि अपावमाणो सुई अणुभवति, पंचविहे विसए, एस दिट्टतो, एवं पिच्चं भावजागरो विसयकसाएहि अप्प ॥१ दीप अनुक्रम [१०७११४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [116] Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१९८-२१४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १०५-११०] (०१) श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥१०५|| प्रत वृत्यक [१०५११० | मनो नाणादिघि जागरिता णरगादिसु दुक्खगम्भसिजासु सो ण अणंतसो वसति, इहेब आमोसहिमादी लद्धीओ पाविहिति, ओहि-0 | मणकेवलाणि य, परे य मोक्खो, 'इहमेगेसिं णो नातं' आदिसुतं, तत्थ नाणं सम्मं च भण्णति, इह भावजागरग्गहणा | तिष्णिवि धिप्पंति 'जाणति सहसंमुइयाए'त्ति, इहवि मुणीतेत्ति मुणी नाणदंसणा धिप्पंति, जागरगहणा संमत्तचरितं एव, जग्गंता NI भगवतो अणेगे, एगाएसा भण्णइ 'लोगंसि जाण अहियाए दुवं' लोगो छकायलोगो, जाण, ण हिता य अहिताय, दुक्ख- [मिति कम्मं सारीराति वा, दव्वसुत्ताणं इहेब दुक्खं भवति पलित्तवलायादिसु, भावसुत्ताणमवि पाणइवायाइपवित्ताणं इहेव बंध| वहयाताति, परलोगे णरमादिदुक्खाणि, सो एवं भावजागरो 'समत्तं लोगस्स जाणित्ता' दबसमे माणारोहिता तुला, भाव-IN समे आतोचमेण सब्वजीवेसु अहिंसओ, अहवा जं इच्छसि अत्तणए तं इच्छ परेवि जणे, एतिल्लयं जिणमासणए, तहा अण्णास्थविYA | भणित-"श्रूयतां धम्मसर्वस्वं, श्रुत्वा चैवोपधार्यताम् ।" भण्णति -अवत्थुवादित्वाभिमतगुणो वा पुवावरवाहतचा वा उवालभंतमन्तवयर्ण वा अप्पमाणं, इहं पुण जहत्ववादित्वात् अविरुद्धं, अहवा समभावो समता-मित्तादिणिधिसेसया 'तो समणो जदि सुमणो भावेण य जइ न होइ पावमणो' एवं समयं णचा 'एस्थ सत्थोवरए' एत्थंति एत्थं छजीवनिकायलोए द्रव्यसत्थं वुत्त-किंची सकायसत्य, भावसत्थंपि भणितं, सत्थाओ उवरओ सस्थोबरओ, ज भणितं-निवितो, धम्मजागरियाए जागराहित्ति वसेस, जस्स जओ जेसि वा एतं जह भणितं पाणाइबायवेरमणं अस्थि से मुणी भवति, धम्मजागरियाए जागरति, | एवं सेसाणिवि बयाणि, अहवा 'एत्थ सत्थोवरए'चि जं जं संजमसत्थं ततो ततो उबरतो, तत्थ पाणाइवायादीणि अस्सव-IG | दाराणि, तत्थ पाणाइवाए भणितं, एवं सेसाणिवि वत्तव्वाणि समावणगाणि, एत्थं पंचमस्स इमाओ पंच भावणाओ 'सहो जाव ॥१०५॥ दीप अनुक्रम [१०७११४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [117] Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१९८-२१४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १०५-११०] (०१) प्रत वृत्यक [१०५११० फासोति ततो भण्णति-'जस्सिमे सदा य रूवा य' जस्स जतो जेसिं वा 'इमेचि सयलोगप्पतीता सदा निजा(सज्जा)ति || रांग सूत्रचूर्णिः रूवा कालादि, एवं सेसावि भाणियव्वा, अहवा सन्चावि एते इट्ठा य अणिट्ठा य, अभिमुहं सम्म अणु आगता अमिसमण्णागया, ।।१०६|| | जे भणितं-सम्मं उबलद्धा, इहलोगेऽवि अहिता सदाइविसया, किमु परलोए ?, "सरेण मओ रूवेण पतंगो महुयरो य गंधेण।" | अहवा पुष्फसालिओ सदे अज्जुणयचोरो रूवे गंधो गंधप्पिओ रसे सोदासो फासे सचई, परलोए नरगादिभयं, जो एते इहलोइए परलोइए य विसयाण विवागे सम्म उवलमित्ता तेहिंतो णियत्तति 'से आतवि' वेतति, लोगेवि वत्तारो-अहो अणेण चिरस्स अप्पा णातो, पडिपक्पेण ण एसो अप्पयं वेयति, पढिअति य-'सो आत' अप्पा से अस्थि आतर्व, पत्तारोऽवि भवंतिअहो अप्परक्खओ, विवरीय अणातवं, वेतिजइ जेण स वेदोतं वेदयतीति वेदवि 'धम्मवि' धम्म वेययइ धम्मवी, बंभ वेदयति बमवी 'पण्णाणेण परियाणति' पण्णायति जेण तं पण्णाणं, परि समंता जाण अवबोहणे, लोगो छकायलोगो, सो एवं पष्णा| पेहिं छकायलोगं च दुविहाए परिणाए परियाणमाणो 'मुणीति वच्चे' स वयणिजो मुणित्तिवा, समणोत्ति वा माहणोति बा, | 'धम्मविदुति उज्जू धम्मो सभावो सम्बदग्वभाने विदति धम्मविद्, जहवा सुयधम्म अस्थिकायधम्मं च विदतीति, अंजुत्ति उज्जु, जंभणितं निरुवयं, तं च करेति, केण आलंबणेण वएसु अप्पमत्तो जागरति ?, भण्णाइ-'आवसोते संगमिणंति जाणाति' PAदव्याचट्टो णदिमादिसु, भावाबडो संसार एव, 'रागद्वेषवशाविद्धं, मिथ्यादर्शनदुस्तरम् । जन्मावर्षे जगत् सर्व, प्रमादात् भ्राम्यते | भृशम् ॥१॥' सञ्जति जेण स संगो-रागद्दोसा आबट्टस्संगभूता, तेहि कम्मसंगो भवति, तेण कम्मसंगेण पुणो २ सजति, HD D| आवसोते संग अभिमुहं जाणाति अभिजाणति, जं भणितं-ण करेति, अहवा संगोनि बा बिग्घोत्ति वा वक्खोडित्ति वा एगट्ठा, १०६॥ दीप अनुक्रम [१०७११४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [118] Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१९८-२१४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १०५-११०] (०१) | शीतोष्णसहनादि प्रत वृत्यक [१०५११० श्रीआचा- तं मावसोतं संगो, तं अभिजाणति, जाणित्ता न करेति, अहवा अमुणिचं अरिजुतं आपट्टसोतसंगति बट्टति, तं अमिमुदं जाणति, रोग सूत्र- | जाणित्ता गायरति, सो एवं मुत्तजागराणं गुणदोसे जाणओ 'सीओसिणचापी' सीतउण्हा पुलमणिता, चाएति साहति सके। चूर्णिः VA वासेहि तुहाएति वा धाडेति वा एगट्ठा, णिग्गंथों' बजाम्भतरेण गंथेण निग्गंथो, अरतिरतिसहे' रति असंजमे अरति संजमे | ॥१०७|| | ते दोवि सहेति 'फरुसयं न वेदेति' फरुसं नाम मेहविरहितं जं तस्स बंधवहयातादि परिस्सहा उप्पअंति तेहिं न सुन्भइ इति पृढविव्व सध्वसहो, अहवा फरुसिय-संजमो, ण हि फरुसत्ता संजमे तवसि वा कम्माणि लग्गति अतो संजमं तवं वा फारुसयं | ण वेदेति, जहा भारवाहो अभिक्खणं भारवहणेण जितकरणतेण य गुरुयमवि भारं ण वेदयति, ण वा तस्स भारस्स उध्विययति, सो एवं फारसय अवेदंतो 'जागर वेरोवरते' जागराहि धम्मजागरियाए निदाजागरेण प, अभिमाणसमुत्थो अमरिसो वेरं, सबजीवेहि बेराओ उवरओ वेरोबरओ, अहवा वेर कम्म, तं हिंसातितो भवति, कारणे कज्जुयारात्रो, हिंसातीतो उबरतो, 'वीरे भणितो, वेरउवरमा किं भवति ?, भण्णति-'एवं दुक्खा पमोक्ग्वसि' एवमवधारण बेराओ इह परत्थ य दुक्खं भवति, उवरतो तु स कम्माओ संसाराओ य मिसं विविहप्रकारेहिं वा मुञ्चति सुत्तदोसाओ, 'जरामच्चुवसोवणीए' णरो जिजति जेण सा जरा, मरणं मच्चू, जराए मच्चुणा य सम्बओ गतो परिगतो, ण तं किंचिट्ठाणं जत्थ ण जिजति ण मरति वा, अतो जरा-| | मच्चुवसोवणीए, देवलोगे ण होजा?, तत्थवि अंतकाले ण तहा धितिमादीणि भवंति, चवणकाले सम्बस्स जायति 'माल्यग्लानिः | कल्पवृक्षप्रकम्पो' जतो एवं ततो एवं, तेण सव्वं जरामरणपरिगतं जग, 'सततं निचं नाणावरणदरिसणावरणोदयेण भावसुत्तो मृदो, कम्मक्खयकारणं धर्म नाभिजाणति, एतेण भावमुत्तदोसेणं 'पासिय आतुरे मो पाणे' सो भावजागरो तेहिं भावसुत्त दीप अनुक्रम [१०७११४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [119] Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१९८-२१४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १०५-११०] (०१) श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥१०८॥ प्रत वृत्यक [१०५११० जणितेहिं सारीरमाणसेहिं दुक्खेईि आतुरीभूतो अश्वत्थं तुरति आतुरो, मो इति पदं वकारणे, पायोति वा, ते तब्भया अप्पमत्तो | णिच्चजागरो परिव्रजति, सव्वतो संसाराओ वयति परिव्रजति 'मंता एतं मतिमं' मतिमं पासयंतो णचा एतं जं दुक्खं पासिय | आतुरमो, अहवा सुत्तदोसा जागरगुणा एतं मंता, मती अस्त अत्थीति मतिमं 'पासहि'चि पेक्खाहि, पासित्ता मा सुपाहि, अहवा | जो एवं मंता भवति तं मंतिमंति पेच्छाहि-जाणाहि य, 'मंता एवं सहितंति पास' सहितो नाणादीहिं आयहितो व सहितो, मतिमा | | किं पश्यति ?, भण्णति 'आरंभयं दुक्खमिणंति' आरंभो णाम असंजमो आरंभयं 'दुक्ख मिति कम्मं 'इद'मिति ज एतं पच्च| खमिव दीसति हीणमज्झिम उत्तमविसेसेहिं 'णचा' जाणित्ता, तेण निगरंभो धम्मजागरियं जागराहि, जो पुण विसयकसायावा-II दितचेता भावकसायी सो 'मायीपमादी पुगरेति' मायी पमायी य मातीप्पमाति, अहवा मायी णियमा पमादी, एवं कोहीवि | माणीवि मायीवि लोभीवि, जेण एगंतेण 'उवेहमाणो सहरूवेसु' उहणा अगाउरो, ण इट्ठाणिद्वेहिं विसरहिं रागदोसे करेति, अव्वाचारउवेहाए उवेहति सच्चविसए 'अज्जू' उज्जू जिइंदिओ संजतो भवति, अण्णहा असंजतो, कसायाविद्धस्स किं संजतत्तं ?, | किं णिमित्तं अजवं भाविअति ?, भण्णति-जम्ममरणभया, अत एव भण्णति 'माराभिसंकी' मरणं मच्चू, खणे खणि माश्यतीति । | मारो आवीचियमारणेण, ततो मारणा मिसं मुञ्चति, जं भणितं-ण पुणो जायति मरति चा, पढिजति य-मारावसकी' सो मुणी धम्मजागरियाए जागरमाणो मारावसकी-मरणं मच्चू वा मारो, जं भणितं पाणाइवातो, ततो अवसङ्गति, कम्मसमारंभाओ वा | अवसकति, कहं मारावसकी भवति ?, भण्णति–'अप्पमत्तो कामेहि पा प्रमत्तो अपमत्तो, जं भणितं अवहितो, इच्छाकामा मयणकामा वा मा मे छलेहित्ति 'उवरतो पावेहि कम्मेहिति दिट्ठवायरस अकुपलाओ उवरमणं उत्ररमो, तहा पावकम्माणि ॥१०८॥ दीप अनुक्रम [१०७ RAN ११४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [120] Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१०५ ११०] दीप अनुक्रम [१०७ ११४] भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [१९८-२१४], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १०५-११०] श्री आचा रांग सूत्र चूर्णि: ।। १०९ ।। हिंसादीणि तेहि उवरतो 'वीरो आयगुते' संजमवीरिएग वीरो भवति, मगोत्रायकाहिं आतोवयारं काउं भण्णति अप्पए अप्पणा वा गुझे आतगुले, के आतगुते ?, भण्णति- 'जे पावजातस्स खेयण्णे' अहवा विसयाधिगारो अनुयतति, तंजहाउवेहमाणो मदरूवेसु अप्पमचे कामेसु ते य विसया पत्राएहिं जायंते, तेण भण्णति- 'जो पजबजातमत्थस्म' तत्थ पजवा दवाणि चैव भणितं च 'कतिविहा णं भंते! पत्रा पण्णत्ता १' तत्थ सदविसय पाउग्गेहिं सदा उप्पजंति, तंजहा-वेणुवाय अंगुलिसंयोगपजनयाओ वेणुसदो तहा भेरिदंडसंयोगाओ मेरिसहो तालुउडसंयोगाओ भासासदो एवं सेसेहिवि आयोज्यन्ते, तेसिं च विसयाणं अरागदोसा सत्थं, जो तस्स विसयपञ्जवत्थस्स खेयण्णो, असत्यं णाम संजमो, ण कस्सर संजमो सत्थं भवति, अणघातित्ता, अहवा रागदोममोहातिपञ्जवेहिं जातं अद्भुविहं कम्मं तस्स य सत्यं तवो, जेण तबला णिजरिजति 'से असस्थस्स खेतपणे नि असत्थं संजमो, जो असत्थस्स खेअ स पञ्जवजातसत्यस्स खेत्तण्णे, जं भणितं जो तत्रस्स खेतष्णो सो संजमस्स खेतष्णो, जो संजमस्स खेतष्णो सो तवरस खेतष्णो, तस्स एवं संजमखेतंण्णस्स कम्मबंधों नो भवति पुराणं च तवमा खबेड, खीणे य अकम्मो भवति, तस्स 'अकम्मरस वबहारो ण विजति' वदहरणं वबहागे, जं भणितं होति ववदेसो, तंजा-नेरइओति वातिरिक्खजोणिओत्ति वा मणुओत्ति वा देवोत्ति वा अहवा वालो कुमारो जुवाणु एवमादि, जया वा गामगोल मेदा अकम्मस्स एवमादि पदसा ण विनंति तेण अकम्मस्स ववहारोण विजति, सकम्मस्स तु विजति, कहं ?, 'कम्मुणो उबहि' उबही तिविहोआतोवही सरीरोबहि कम्मोबहि, तत्थ अप्पा दुप्पउसो आयउवधी, ततो कम्मुवही भवति, सरीरोवहीओ ववइरिजति, तंजहा-नेरइयसरीरो बबहारेण उ नेव्हओ एवमादि, तहा बालकुमाराति, भणियं च- 'कर्म्मणो जायते कर्म्म, ततः संजायते भवः। भवा |पर्ययजातखेदज्ञादि [121] ॥ १०९ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१९८-२१४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १०५-११०] (०१) थी आचा-1 कर्मप्रति लेखादि चूर्णिः ॥११॥ प्रत वृत्यक [१०५११०] छरीदःख च, तथान्यतरो भवः ॥१॥ जतो एवं कम्मोपाही जायति तेण 'कम्मं च पडिलेहाए"कम्ममल व जंगणं' कम्मं अट्ठवि च पूरणे, पडिलेहा णाम कम्मसंभवो बंधो य मूलुत्तरपगडि, अहबा पगडिबंधो ठिइबंधो पदेशबंधो अणुभागबंधो, एतं पडिलेहाए, कम्ममूलं च जं छणं, मूलंति वा प्रतिष्ठानंति वा हेतुत्ति वा एगढ्ढा, छणणं हिंसा, एवं मुसापायायीवि, रागदोसमोहो चा कम्ममूलं भवति, तप्पदोसणिण्हवादी य कम्मे हेऊ, परिजइ य 'कम्ममाहूय जं छणं' कम्म आवहतीति कम्मावह, कम्म चाणुकरिसणेहिं अणुकरिसयति, कम्मं च पडिलेहे इह य बज्झति, सो एवं पडिलेहिय सब्वं 'समायाए' नाणयुद्धीए पडिलेहिता सम्म आताय, जं भणितं-सम्म उवदेस गिण्डित्ता, 'दोहिं अंतेहिं अदिस्समाणे' दो इति संख्या रागदोसेहिं अदिस्समाणो रागी रागेण दिस्सति एवं दोसीवि, वीतगगो दोहिंवि अंतेहिं न दिस्सति, परिष्णा मेहावी य पुब्बभणिया, विदित्ता लोगं वंता लोगसपणं' विदिचा सम्म उवलमित्ता जीवलोयं कसायलोयं वा तस्विवागे य, भणिया विसयकसायसण्णा, जावइया चा लोयसन्ना एताउ वंता एगाए धम्मसण्णाए मइमं परकमिजासित्ति बेमि 'स' इति स सीतोसिणच्चाई सेहो परकमिजा, परिकमिजासि घडिआसि जोजासि, सीहो वा, ण पळताब अवलंविञ्जा, सो ण सीहत्ताए निक्खंतो सियाललाए विहरति, सिपालताए निलंतो सीहत्तार विहरति, भङ्गा चत्वारि, बेमि, एवं सीओसणीयतृतीयाध्ययनस्य प्रथमः।। उसस्थामिसंबंधो स एव, वितिए भावसुत्तफलं दुई अणुभवति, अणंतरसुचे 'मतिमं परकमिजासि'ति, इहवि 'जातिं च | बुडिं च इहज पासे (४-१५८) पासंति बुद्धीए, परंपरसुने 'विदिता लोयं वंता लोयसणं' विदित्ताण पच्छा उदाय, इहवि | जाति च बुद्धिं च इहऽय्य जाया संजाणाहि य, तत्थ जणणं जायते वा जाति, जं भणित-पयि, वणं बड़ते वा चुडी, जं भणितं SAPP ALI ॥११॥ दीप अनुक्रम [१०७११४] P पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: तृतीय-अध्ययने द्वितीय-उद्देशक: 'दुःखानुभव' आरब्ध:, [122] Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१११ ११४] दीप अनुक्रम [११५ १२४] भाग-1 "आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [२१४ ...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १११-११४/ गाथा-२] श्री आचा रंग सूत्रचूर्णिः ॥ १११ ॥ जरा, तत्थ य जं वृत्तं चितिए दुक्खं अणुभवंति, तंजहा- जातिं च बुद्धिं च भणितं च- "जातमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स जंतुणो। तेण दुक्खेण संमूढो, जाति ण सरति अप्यणो ॥१॥ एवमादि, 'इथेति इह माणुस्से 'अजे'ति णाणुप्पतीए आदितो भगवं गोतमं आह, जातिं च बुद्धिं च अत्र पस्सामो, थेरा दहूण य संबुज्झे बहुविग्धाणि सेयाणि, अहवा 'अज्ज' इति आमंत्रणं | हे अत्यरिय ! खेत्तओ जाइओ कुलाओ, पासाहि णाम पेक्खाहि, जातित्ति गन्भसंपीलणा, एस चैव दुक्खं, बुद्धिचे चंक्रमणातिपयोगेहिं सव्वया तातिं दुक्खं पास, भणितं च- "दसमं च दसं पत्तो० " एवं परिसता तब्भया भूतेहिं जाण पडिलेह मातं, साता भणिता, जेण णामं जाणमागो अप्पोवमेण सव्वभूयाणि सुहप्पियाणि, एवं नचा तेसिं पंडिलेह सात-सुई, सातविवरीतमसावं, जह तुज्झ | सातं पितं अस्सादं अप्पितं एवं अण्णस्सवि एवं णचा अण्णस्स अस्सातं न कुआ, अतो जम्मातिदुःखं ण पाविहिसि, भणियं च" यथेष्टविषयात्सातम निष्टादितरत् तव अन्यतरो (अपरे ऽपि विदित्वैवं न कुर्यादप्रियं परे ॥ १ ॥ " जम्हा एवं 'तम्हा तिविजे परमंति णच्चा' विजचि हे विद्वन् ! अडवा अतिविज्जू, पर माणं जस्स तं परमं तं च सम्मदंसणादि, सम्मदंसणनाणाओवि चरिचं भणियं च - "सुयनाणम्मिवि जीवो वट्टंतो सो ण पाउणइ मुक्खं । जह छेतलद्धणिआमओ वि० ॥ १ ॥" चरितस्य परं निव्वाणं, अहवा सम्मईमणं परं भणितं च- "मद्वेष चरिचाओ सुट्टयरं दंसणं गर्हयन्वं । सिज्यंति चरणरहिया दंसणरहिया ण सिज्यंति ॥ १ ॥ ।” सो एवं 'सम्मदेसी ण करेति पावं' पंसेति पतिंति वा पावं, तं च हिंसादि, तस्स तु मूलहेऊ रागदोसमोहा, तेहिवि गरुयतरा णेहपासा इतिकार्ड भण्णति - 'उम्मुंच पासं इह तु तं उमयं वा मंच उम्म्रुच, दव्यपासा रज्जुमादि विमयकसाया भावपासा, 'इहेति' इह माणुसे, तत्थ नरदेवेसु अनंताणुबंधिणो कमाया कोइ मुंचति, तिरिक्खजोगिएसु जाव वितियकसाया, जातिदर्शनादि [123] ॥ १११ ॥ । पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१११ ११४] दीप अनुक्रम [११५ १२४] भाग-1 "आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [२१४ ...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १११-११४/ गाथा-२] श्रीचा गंग सूत्रचूर्णिः ॥ ११२ ॥ मणुस्सेहिं सच्चे मुंचतित्तिकाउं भणति - उम्मुंच पास इह मच्चिएहिं अहवा पुत्रकलत्रमित्रादिपासे विसयकसाए य उम्म्रुच इह मच्चियेसु, किमत्थं कामातिपासा मुंचति १, भण्णति सो कामभोगलालसो तेसिं आदाणहेऊ हिंसादीणि पावाणि आरंभति, अतो | सो 'आरंभजीवामुभयाणुपस्सी' आरंभेण जीवतीति, तंजहा हमें छिंदह इमं मिंदद्द इमं मारेघ सो एवं आरंभजीवी, महारंभपरिग्गहो रहे बंधवहरोधमरणावाणाई भयाई अणुपस्सति, अणुगतो कम्मेहिं परसति अणुपस्पति, जं भणितं - अणुभवति, | जहा चोरादि, परलोगे परगादिभयाणि, किं एवं आरंभपरिग्गहेण परे अणेगदोसा ?, भण्णति- 'कामेसु गिद्धा णिचयं करेंति' इच्छाकामा मयणकामा य, गिद्धा मुछिया अहिओ चओ णिचयो, दब्बे हिरण्णादि तन्निमित्तं एव भावकम्मणिचयं | दिग्घसंसारियं तचिंता तम्मणो करेति पाउसे उष्णया महामेहा सस्माणि णिष्फाईति सम्मं समत्थं वा सिंचमाणो, समणपंडिया हिंसादीहिं आसवदारेहिं अणिवारितप्पाणी तं कम्मणिचयं पुणो २ पासंति तेण गुरुसंभारकडेण आग रिसिजमाणा पुणो २ एंति गब्भगतदुक्खाणि, चकसेसेणं, सो एवं अविरतो 'अवि से हासमासेना' अवि सो इमिणावि हंता इंता, मंदि पमोदो हरिसो | एगडा, किं पुण सातिउवभोगत्थं जो मारिता गंदी मध्णति ?, तत्थ कालासवेसिकपुत्तो जंबुपं हंता मंदि मण्णयंतो, एवं मुसावायं भासिता, तहा अदत्तादाणं, मेहुणपरिग्गहेवि मंदि मण्णति, किं पुण उपभोगत्थं १, तच्च तस्स सहासेणावि कतं पार्श्व अलं बालस्स संगाय, जं भणितं पचं, संगोति नरगातिगमणं संगाय, जं मणियं कम्मबंधाय, एत्थ लोइयं उदाहरणं-दसता किल संवेन, दुर्वासाः कोपितो ऋषिः । तेन विष्णुकुलं दग्धं, इतं पितृघातकम् ॥१॥ किमु अलं संगेण १, भण्णति- 'बेरं वड्डेइ अपण भावकम्मंपि बद्धासओविव वेरी सुचिरभावित पात्रफलं निज्झाएति अतो वेरं, जओ य एवं 'तम्हाऽतिविज्जं परमंति पाशोन्मोचनादि [124] ॥ ११२ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १११-११४/गाथा-२] (०१) प्रत वृत्यक [१११ श्रीआचा-10 गया' तम्हा धेरउवरमा विद्वन् परमस्थीवकरणं वेरउबरमो णच्चा-जाणित्ता, आतंको दवातका भावातंका य पुश्वभणिता, त अग्रमूलादि आतंकं पासति आतंकदंसि ण करेति पा-हिंसाति, कहं पुण पाकरेति ?, 'अग्गं च मूलं च अग्गे भवं अग्गंदवगं रुक्खचूर्णिः पवतादीणं, दवमूलमवि रुक्खातिमूल, अस्थि पुण कोयि रुक्खो मूलच्छिण्णो ण विणस्सति जहा खंधनीया सल्लइमादि, कोयि । ॥११३।। | अच्छिणेऽपि णम्सद जहा तालो, भावग्गं भाव मूलं च उदयभावनिष्फण्णं, तंजहा--चत्तारि घाइफम्माई मूल केवलिकम्माई अग्ग, एवं अग्गं च मूलं च विगिच वीरे, अहया अट्ठ मूलपगडीओ अम्गं. मिच्छत्तपंचगंवा मूल सेसा अंसा अग्गं, अहवा मिच्छत्तं बारस| कसायायमूल सेसा अंमा अग्गं, मोहणिजंवा मूलं सेसप्पगडीओ अम्गं, विगिचणा णाम उज्झित्ता पिहीकरिना, पढिजइ य-मूलं च | अग्गं च वियत्तु वीरों' तत्थ मूलो असंजमो कम्मं बा, अम्ग संजमो तबो वा, अहवाबंधो मूलं मोक्खो अग्गो, भदंतणागज्जुणिया तु पढ़ति-मूलं च वियेत्तु वीरे, कम्मासवा वेति विमोक्खणं च' अविरता अस्सवे जीवा विरता णिज्जरंतिनि, इश्वेवं | नवसा विगिच कम्माणि 'पलिछिदिया णाणि कम्मदंसी' संजमेण नरगादीणि कम्मबंधणाणि समंता छिदिय पलिछिदिय, सो) | एवं पलिच्छित्ता सो तवसा वीगिचति कम्माणि णिकमदंसी, ण तस्स कर्म विजतीति णिकम्मा, को सो?, मोक्खो, णिकम्माणं पस्सतीति णिकम्मदंसी, तदर्थ घडति उजमह वा, णिकम्माणं वा दरिसेति निकम्मदरिसी-सिद्धदरिसि मोक्खदरिसी वा, एस मरणा पमुञ्चति' एसोचि भणितो णिकम्मदरिसी भविचा पच्छाऽऽविजिगमरणा सन्चो वा संसारो मरणं ततो मिसं मुञ्चति | पमुञ्चति, जो एवं मरणातो पमुञ्चति मोएति वा अण्णेसि ते 'सेहु दिट्ठपहे मुणी' सो इति से मूलजाणो छिचा वा मरणा | | मोयमाणो मुचमाणो वा गम्मति जेण सो पंथो नाणादि स एवेगो मोक्खदिट्ठपहो भवति, अहवा दिट्ठवहे दिडो बहो जेणेव अहवा| ११४] दीप अनुक्रम [११५१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [125] Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १११-११४/गाथा-२] (०१) गंग सूत्र प्रत वृत्यक [१११ भीमाचा विवागो य सो दिट्ठवहो तं दहण ण करति, अहवा से हु दिट्ठभए मुणी, दिढ जैण संसारियं जरामस्चुवावि भयं सारीरं । माणसं च अप्पियसंवासाति परआतउभयसमुत्थं स एवेगो लोगसि परमदंसी, लोगो तिविहो-उड़ादि, छजीवकायलोगो चा, परोचूर्णिः | संजमो मोक्खोया पर पस्सतीति परमदंसी, सीतोसिणचाइ साधुचि वनति, जम्मातिदुक्खमीरू 'विवित्तजीवी उवसंते' अणे || ॥१४॥ सणाति दोसेहिं विवि आहारति, दवविवित्तजीवी इस्थिपसुपंडगसंसत्चिविरहियासु बसहीसु वसमाणो, भावविवित्तजीवी राग-| | दोसा भाविता जीवी असंकिलितवसंजमजीवी वा उपसंतो इंदियनोइंदिरहिं 'समितेइरियातिसमिते 'सहिते' नाणादि सहितो, अहवा विवित्तजीविण उचसमेण समितीहि य समयागतत्था सहितो 'सता' णिश्च स तेहिं चेव समितिमाइयेसु 'जते'ति जाति, केचिरकालं जते ?, भण्णति-जाब मच्चूकालो ताव 'कालकरखी पडिव्वए' य पंडियमरणकालं फंखमाणो समंता गामनमरादीणि वये परिव्यये, जं भणितं-जावजीवाए सीतंउसिणचाई अहियासंतो परिचए, किमत्थं एसो पयत्नो जावजीचाए अणुपालि अइ, न तु अप्पेण कालेण तवसा कम्माणि खविअंति, भण्णति-'यहूं च बलु पावं कम्म' बहुमिति मूलुत्तरपगतिविहाणं दिग्पकालद्वितीयं तं च भगवं जाणइ, जहा. ण एतं अप्पेण कालेण अवेति, तेण तक्खवण्णत्थं भष्णति कालरुखी परिधएति 'सचंसि धितिं कुब्वहति सम्भो हितं सर्व संजमो वा सचं तत्थ करेह, अणलियं वा सच, जावजीनाए संजमं अणुपालिVस्सामि परिण्णा य जहापरिणं अणुपालंतेण सच्चं, अण्णहा अलियं, तेग सचंसि घिति कुन्चमेव, अहवा 'वीतरागा हि सर्वज्ञा, मिथ्या न बुवते कचित् । आगमो याप्तवचनं, आप्तं दोपक्षयाद्विदुः ॥१॥ वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न ब्रुयाद् हेत्वसंभवात् ।" अतो सचं तिन्थगरवचन, सच्चं तमि घिति कुबह मिस्सामंतणं, किंच 'एत्थोवरते'ति मञ्चपडिपक्खे अलिए सचाधिहितबताण या ११४] दीप अनुक्रम [११५१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [126] Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १११-११४/गाथा-२] (०१) श्रीआचा- उपरतादि चूर्णिः ॥११५॥ प्रत वृत्यक [१११ पडिपक्खे, उबरतो णिन्वित्तो मेहावी भणितो, सब-अपरिसेसं पात्र-अट्ठविहं कर्म भ वा झोसेइ, जं भणितं सोसति, भणितो अप्पमादो, तेण कसायादिपमादण पमतो 'अणेगचित्ते वल्लु अयं पुरिसे' अणेगाणि चित्ताणि जस्स स भवति अणेगचिचे अत्थोवञ्जणे ताव 'कइया वचति सत्यो' दघिपडियादरिदेण कविलेण य दिलुतो, 'अयंति जो पमत्तो, पूरिसजणो पुरिसो, दम्वकियणं चालणि परिपूणो वा एवमादि दबकेयणं, अरिहतित्ति इति, भावकेयण इच्छा, सा ण सका बहुएण विहाणेण पूरेउं, भणितं च-"जहा लाभो तहा लोभो०" गाहा, न शयानो जयेभिद्रा, न भुंजानो जयेत् क्षुधाम् । न काममानः कामानां, लाभेनेह प्रशाम्यति ॥१॥" एवं से अणेगचित्ते इमेहिं उवाएहि अत्यं उपमिणति, तंजहा-'अण्णवहाग' अण्णो णाम परो अबंधु अणुस्सितो वा, जहा चोरा धणियं मारेत्ता तं धणं गिण्डंति, रायाणो संगामाइएसु परे मारेंति, परितावणं च कप्पणपकप्पणकसप्पहाराईहिं दासीदासमिच्चञ्चलादीणं परिग्गहो, जं भणितं सच्छंदनिरोहो, कोयि जावयवहाए, जह मिच्छादी करेंति, पररमणे वा रायाणो जय जणक्यं परितावयंति, बंधधातादीहिं परिताउँति जणवयं अवराहे वा, 'जणवयपरिग्गहाए'त्ति ममेतं रजंर8 वा, एवं पररजंपि । परिगिहंति विकमेण, एरिसाणिवि कोइ कम्माई करिता पचाति ?, आम, तंजहा आसेवित्ता पयमटुं'ति जो एसो जणवयव-1 हाति भणितो इच्चेयं आसेवित्ता एगे समुट्ठिता भरहाति संजमसमुट्ठाणेणं सम्म उडिता तेण भवग्गबणेणं सिद्धि पत्ता, एवं चेव अज्जुणपभवगादाणं च पृथ्वखरकम्माणं सिक्खगाणं समासासो आलंबणं च 'तम्हा तं वितिय' संजमममुट्ठाणेण उत्थाय कामभोगहिंसादीणि वा आसबदाराणि अहवा वितियं णाम पुणो २ 'त'मिति विसयमुह असंजमं वा आसेवर्ण-करणं, सहस्ससोचि आसेविञ्जमाणाणं विसयाणं तितिभाये 'णिस्सारं पासिय नाणी' गाणी णाम जो विसए जहावहिते पामति, "किंपाकफल ११४] ११५॥ दीप अनुक्रम [११५१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [127] Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १११-११४/गाथा-२] (०१) वीआचारांग सूत्रचूर्णिः वादि प्रत वृत्यक [१११ समाना विषया हि निषेव्यमानरमणीयाः। पश्चाद्भवन्ति कटुकाबपुषिफलनिवन्धनैस्तुल्याः ॥१॥ चुडलिविव मुंचमाणगरुया, अहया 'णिस्सारं माणुस्सं जलबुब्बुदसमाणं तं पासिय, ननु संसाराणि विसयसुहाणि मणुयाणं देवाणं च, मणुस्सेसु चकवहिवल-101 | देववासुदेवादीणं, सुराणं इंदसामाणियादीणं, भण्णति अणिवत्ता जिस्सारा, अतो य 'उववातं चयणं च णचा' उपपतनं उव-11 वातो, जं भणितं-जम्मं, चयणं णाम मरणं, ण य तेल्लोकेवि तं ठाणं अस्थि जत्थ उवधातो चयणं वा ण भवति, तेणं चयणोव-IN | चातजुत्तत्ता संसारो निस्सारो, अचंतसुद्दो ण भवति, जतो एवं तेण जम्ममरणभीरू णिचं अप्पमत्तो 'अणणं चरति परममा. |हणे' अण इति परिवञ्जणे ण अण्णं अणण्णं अतुल्लं वा नागाइ मोक्खमग्गं चरति समणोत्ति वा माहणोति वा एगट्ठा, एवं अणण्णं । | चरमाणो माहणो ण हणे ण हणावए हणतं नाणुजाणए, अहवा अत एव सो अणण्णं संजमं चरति जेण न हणे ण हणावए, समं | अतुल्ल अणण्णचरित्तपालणत्थमेव पंच महात्रताणि, तत्थ आदि अहिंसा, तप्पसिद्धीए भण्णति-'से ण छणे' ण किंचिवि सत्थं जोगतियकरणत्तिएणं ण हणे ण हणावए हणतं पाणुमोदए, चउत्थव्रतपसिद्धीए भष्णति-"णिविंदधा गंदी' अविमणे णंदि | पमोदो, पिच्छितं विंद णिविद, सयहि असंजमे जो गंदी विसएसु आतसरीरे वा पुत्रकलत्रादिसु वा णिबिंद-गरहह, एवं | णियितं चिंद जह एते सद्दादि किंपाकफलसमाना, तेसिं च विसयाणं फरिसो गरुउत्ति अतो तप्पडिवजणत्थं आरभ्यते, 'अरते पयास' पांति पजणेति वा पया, जं भणितं इत्थाओ, तासु तिविहेण अरजमाणो णिविजणंदी, अदचादाणपरिग्गहावि इस्थिराणिमित्तमेव सेविअंति, एगग्गहणे गहणं, उत्तमधम्माणुपालणत्थं च 'अणोमदसी ओम णाम ऊणं ण ओमं अपोमं दरिसणं, |चं भणितं-उत्तमसम्मदिट्ठी, अणोमाणि वा नाणादीणि पासति अणोमदंसी, ताणि य उत्तमाणि आरभति, अहवा तहा तहा अप्पाणं ११४] ॥११६॥ दीप अनुक्रम [११५१२४] MAHA पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [128] Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १११-११४/गाथा-२] (०१) RNOMITRA प्रत वृत्यक श्रीआचा D| दंसेति जहा अण्यहि ऊणो ण भवति, सप्णो' अणुण्णओ, अहियं सष्णो णिमणो, पाव हिंसादिसु पावकम्मेसु कायव्वेसु य णियत गंग सूत्र | णिच्छित वा मण्णो णिमण्यो, जं भणित-तेसु अणायरो, निसण्णाणि या जस पाबाई कम्माई स भवति णिसण्णो, अहबा अपुचूर्णिः | व्याणं अणुवचये पुब्बकम्मेहि णिमण्णेहि, जं भणितं खवणाविक्वेहिं, पढिाइ य 'तेसु कम्मे पावं कोहादि कसाया, अत एव | ॥११७॥ | भण्णनि-'कोहादि माणं हणियाद वीरे' कोहादिग्गहणा कम्मदरिमणं, एवं कोहादिकमाया, कोहपुधगो य माणो तेण कोहादि, कहं ?, जातिमंतो हीणजाती भणितो पुवं ता कुज्झति, पच्छा मजति, मम एसो जातिं कुलं वा णिंदति अतो कोहादि, अणं| ताणुवं धादि एकेको चउबिहो, सम्बे हणाहि, अणिमण्णकम्मस्म कोहातिपावकम्मपवत्तस्स किं भवति ?, भण्णति-'लोभस्स' पावलोभे वट्टमाणस्त महंतो गरगो भवति, ठितिपरिणामेहि महतो, इह तु ठिती विवक्खिया, वेयणा वा, अप्पइट्ठाणो खित्ततो सब्बखुट्टो, टितिवेयणाहिं महतो, जहा लोभो तहा सेसेहिवि, पायसो लोभेण महतो परगो णिव्यत्तिजति, जेण उरगा पंचमि । जंति लोभुकडत्ता य मच्छा मणुगा य समि, अहवा एगग्गहणं, अणेगविचाति एगबहाती य महंतगरगभीतो णिस्सारं माणुसं rel पस्समाणो अणण्णधम्मं चरमाणो छणणउबरतो णिबिदमाणेण अणोमदंसिणा णिसण्णपात्रेण गरगादिभयभीतो 'तम्हा ही वीरे' । ही पादपूरणे, तम्हा इति जं एतं भणितं, धीरो पुख्यमणितो, विरतो नाविरत्ता, जं भणितं विरतिं कुरु, वधो हिंसादिग्रहणा सेसेहिवि, IN सो एवं पिहितस्स योच्छिा , सो तं दम्वेण दिसादि भावे रागादि हिंसाति वा, लहुभूत अप्पाणं कामइत्ति इच्छाकामा गहिता, 12 लहु संजमो अनुद्धतो वा, अहवा उडगतिसाभब्वेवि जीवो कम्मगुरुत्ता मट्टियालित्तअलाउदिट्ठनसामत्थेग उई जाति अमुके, लहुभूतो जाति खीणकम्मा अतो तं लहुभृतं, पटिजइ य 'छिदिना मोतं न हु भूतगामं भूतग्गामो चोद्दसबिहोतं ईरियाइजुत्तो || ११७॥ [१११ ११४] INDIA दीप अनुक्रम [११५१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [129] Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १११-११४/गाथा-२] (०१) प्रत वृत्यक [१११ श्रीआचा- छिदिक्षा सोपयोगो वक्खमाणो, तंजहा-अमिक्खमे व पडिक मे. सोएवं पावजागरो लभृतगामी जतो भावसुत्ता दुवं अणुभवति । गंग सूत्र-0 अतो 'गंध' गंधणं गंथो, सो य दब्वे भावे य, तं जाणणापरिणाए ममततो णचा, जं भणितं सबप्पगारेसु, 'इह' पत्रयणे, चूर्णिः ॥११॥ IA अजेब ण चिरा, वीरो मणितो, सोतं' तस्सेव अट्टप्पगारस्स कम्मस्स हिंसादि पगड़िता, ते पञ्चक्खाणपरिणाए परिण्णाय, चरे IN इति धर्म, दंतो इंदियनोइंदिरहि, उम्मग्गणं उम्मग्गो, जं भणितं उत्तरणं, चम्मच्छादितदहकलभदिलुतो दब्बुम्मग्गे, भावुम्मग्गे | 'माणुसत्तं सुती सद्धा, संजमंमि य विरिय' । णाणाइतियं वा, अहया नाणं दरिसणं च अण्णत्यवि भवती, चरित्नं अमाणुस्सेसु ण | भवति, अतो चरितं भावुम्मग्गो, 'इहे'ति इह मणुस्सेसु 'णो पाणिणं पाणे' छविहो पाणो अस्स संतीति पाणी, तेहि |वा विअंति, तेसि पाणिणं पाणसमारंभो धातणा, सो य जोगत्तियकरणत्तिएणं ण कायनो इति, एवं बेमि । एवं सीतोस-| VAणिजस्स द्वितीय उद्देशकः ।। उद्देशसम्बन्धो जातिबुद्धिीओ दुक्खं, तम्भया सीतउण्डसहेण भवितब्ब, इह तु अतिपसत्थलक्खणमितिकाउं भण्णसि संधि कालोयस्स जाणित्ता' सुनस्स सुत्तेण 'जो पाणिणं परणे' चरित्तं गहितं, हह हि तदेव चरितं संचित्ति, दन्नसंधी कुड़मेदो बतिभेदो वा, भावसंधी कर्मविषरो, जं भणितं संजमावरणोवसमो, जहा बडो णियलसंधि चारगसंधि वा कडगवतीसंधी बा लद्धृग णस्सं-| तस्म सेयं भवति, एवं कम्मनियलबद्धस्स भवचारगाओ खयोवसम सेविचा अप्षमाओ सेओ, अहबा साहणं संधी, जं भणितं कारणं, | नाणादीणि निवाणमाहणाणि, लोकतीति लोगो, नच्चा उबलद्धाय नाणादितिय, 'आततो यहिता' जह अपणो अप्पियं दुक्खं | 01 एवं बहिद्धावि अपपतिरित्ताणं 'जद मम ण पियं दुक्खं.' जतो एवं 'तम्हा ण हंता णो घाता' ण मयं हंता णो अण्णेहिं ||||११८।। ११४] दीप अनुक्रम [११५१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: तृतीय-अध्ययने तृतीय-उद्देशकः 'अक्रिया' आरब्धः, [130] Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत [119 १२०] दीप अनुक्रम [१२५ १३३] बीआचा गंग सूत्र चूर्णि: ।।११९ ।। भाग-1 "आचार" अंगसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन] [३] उद्देशक [३]. निर्बुक्तिः [ २१४ ...] [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ११५-१२०] - घातावण, उद्दिस्मभोरणो कुतित्थिया जतिवि केवि धूले सत्ते सर्वपागातीहिं ण हणंति तहावि अमेहिं घाताविंति एवं जाव राहणो भोयणं, एवं सम्मं आमवनिरोहेणं समणो भवति, णिव्वाणं च वश, जतो भण्णति- 'जमिणं अण्णमण्णं' 'जं' इति अणुद्दिट्ठस्स इदमिती पञ्चकखं, अष्णो य अण्णो अष्णमण्णो, वितिमिच्छा णाम संका भयं लजावा, एता पेहाए पार्क - हिंसाति पयणपयावणापरिम्हातिलक्खणं, किमिति परिषण्हे खेदं य, एत्थ खेदं, तंमि तत्थ, मुणिस्स कारणं अड्डो हणातीति मुणिकारणाणि ताणि, तत्थ ण संति सुण्ण वा तिष्णो परमत्थसचओ णिस्मभावं जगं गच्चावि काणिवि अतराणि कम्माणि ण सर्व करेंति सर्वपागरुक्खछेयादि, संखाणं तु पचाणं उपभोगो, एवं इच्छंतोऽवि लोगसंकयाण सहमापदारम सलक्खणाई (१) करेंति, ण तत्थ मुणिकारणं सिया, सिस्सो वा पुच्छति-जमिणं अण्णमण्णंपि तं जहा लजाए वा भएण वा गारवेण वा आहाक्रम्मातिणि परिहरति पडिलेहणातिथि ण करेति मासखवणाति वा करेति आतावेति वा अणतरं वा किंचि तवोकम्मं णातं करेति तत्थवि ताव मुणिकारणं ण अत्थि, किमंग पुण जो नागदंसणसहितो हिंसादि जाब मिच्छादंसणस एगतो परिमागतो वा परिहरति, जतो एवं अष्णमण्णं अकुव्वतोऽचि पात्रं भवति, सम्मद्दिट्ठीणं ण भवति, तेण 'समयं तत्थ उवेहाए' समभावं जहेब दिस्समाणो परेहिं हिंसादीणि आसवादीणि परिहरति तहा अदिस्समाणोऽवि अतो समता, अडवा समता 'णत्थिय सि कोयि वेसो' अहवा तवेण नाणाधिवो वा पुर्व वा जातिसंपण्णो आसी सेसमाहिं समतं 'तत्यें' ति तहि धम्मे उबेच्च इक्खा उत्रिक्खा एताए सम्म नउविक्खाए 'अपर्ण विप्पसातए' पगतं साहू वा मातए विविधं पसायए विप्पमातए, समभावे इंदियपणिहाणे अ धम्माते य पपायये, अवा अप्पमा परमं एत्थ विप्पयातए, णत्थि एतस्म अणष्णपरमं किं तं १, चरिचं नाणे मणिते सम्मदिडी भणिता, एवं तेण आणण्णपरमं अवातादि [131] ॥११९ ।। पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [3], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ११५-१२०] (०१) श्रीआचारांग सूत्रचूर्णिः ॥१२॥ प्रत वृत्यक [११५१२०] |चारितं अणण्णपरमं नाणं 'पोपमायए कयायिवित्ति दियावि राओऽवि, अहबा अणण्यपरमे णाणी ण पमाषए सव्वावस्स-|| अप्रमाद एम, अप्पमायविही 'आतगुत्ते सता' इदिएहि आयोश्यारं काउं भण्णइ-आतगुत्ते सया-णिचं, वीरो भणितो 'जातामाताएहि जेण संजमजत्ता भवति तम्मचेण सरीरं जावए, अतिणि द्वेण अतिप्पमाणेण वा आहारेणं नो इंदियगुती भवति, भणियंच"अतिणि ण चलिअंति" 'जावए' इति ण एगंतेण दुक्खेण धम्मो भवति, ण वा तस्स अकरणेणंति, तं तु णियतमणियतं वा, | सरीरधारणथं तं कुञा आहारं जेण जप्पं भवति, "आहाराद्यर्थ कर्म कुर्यादनिन्य, कुर्यादाहारं तु प्राणसंधारणार्थम् । प्राणाः संधा। र्यास्तच जिज्ञासनाथ, तचं जिज्ञासां येन दुःखाद्विमुच्चे ॥१॥" कहं आतगुत्ते? 'विरागं रूवेहिं गच्छेज्जा' विरम(ज)णं विरागो, रूवं अतीव अक्खिवति तो नग्गहां, अहवा विरुवस्स सदातिविसएसु रूपं विणिंदति, जहा पुप्फसालसुयस्स, महा पाधण्णे, इह |पाधण्णे घेप्पड़, जागि रूवाणि तागि महंताणि दिव्याणि मज्झिमाणि मणुलाणं खुड्डाणि तिरिक्खजोणियाणं, अहवा आदिअंतग्गहणेण मज्झम्गहणं, एकेकं तिविहं, तत्थ मणुस्माणि जाणि उक्कोसाणि ताणि मतागि, काणखुजाकोढियादि खुट्टाणि, सेमाणि मज्झाणि, एवं दिनाणि तिरियाणिवि, ति विहाणिवि बुद्धिअविक्खाई, एवं से सविसरहिआयोअं, भदंतनागज्जुण्णिया बिसयपंचगंमिवि नियंतिय भावतोमुच जाणित्ता से ण लिप्पति दोसुवि'किं आलंबण?'आगसिंगति' तेसिं चउहिवि गईहिं| पंचविड़ा गई गई, एमु एकेकीए गईए चनारि त दुक्खाणि य भाणियवाणि चउगइसमासेण, पंचमगइमुहं च, सो एवं संसार गतिदुक्खभीतो मोक्खगतिसुहगवेसी रूवातिमु विमयसु 'दोहिवि अंतेहिं अदिस्समागे' दुण्णि रागो दोसो य, तासु यो वट्ठति || | सो दिस्पति, तंजा-रत्नो दुट्ठो वा, सो एवं रागदोसेहिं अबट्टमाणो चउग्गइए संमारे 'से ण छिति' तत्थ हन्थपादकन्ननामा दीप अनुक्रम [१२५ १३३] र पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [132] Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [3], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ११५-१२०] (०१) भाव: S प्रत वृत्यक [११५१२०] श्रीश्राचा || सिरातिच्छेदो भेदो कंटगसूयीसलग्गातिएहिं गिहाविएहिं ण डझति कडगअग्गिणा वा एवमादि, ण हम्मति कसादिएईि, भणियं |D छिदायरोग सूत्रच-"यस्य हस्तौ च पादौ च, जिह्वाग्रं च सुसंयतम् । इंद्रियाणि च गुप्तानि, राजा तस्स करोति किम् ॥१॥"'कंचणं'ति केणड चूर्णिः Hकयाइबि,'सव्वलोगो'त्ति खेचं भणित, भणियं च-"सणो यहूणि इत्थछेयणाणि जाव पिपविप्पयोगे पाविस्सइ, निब्याणे या ॥१२१॥ | असरीरत्तं लभित्ता से ण छिअति" इति, एवं पड्डप्पण्णेसु सदातिसु विसएसु दोहिंवि अंतेहिं अदिस्समाणे, पडुप्पण्णेसु विसएसु | गुणो भणितो, अतिकतेमु स्वादिसु विसएसु निरोहो कायव्योति भण्णइ 'अवरेण पुर्व ण सरंति एगे' णस्थि एयस्म परति || KA अपरो, को सो ?, संजमो तयो वा, तेण अपरेण संजमेण तवसा वा गच्छिना ण पुन्यविसथसरणं करेति, भणियं च-"जो पुत्र | रतपुथ्वकीलियाई सरेञ्जा" जहा सुहसंजोगो तवासी, तं अणिटुं विसयसंपयोगपि ण सरति, जं भणितं-उधिजति णो णाम, राग| होसविरहिए, एवं अमागएसुपि दिव्यमाणुस्सविसयसंपओगे नामिलमति, जहा पुब्वभवे वासुदेववंभदत्ता, दुक्खाणि विसनचव| णगम्भवासादि तेसि हेतुं न सरति, जं भणित-तेसु न विरजति, अहवावि सो पुच्छति अवरेण पुर्व' अबराओ जम्माओ पृथ्वज-1) |म्मणं ण सरति, परे कुतिस्थिया किमस्सऽतीत ? केवतिओ से कालो अतीतो ? केवइओ अगागतो? केवइयाणि मरीराणि वा अतीताणि? केवइयाई वा अणागताई?, भण्णति-किं एत्थ चि अति असवण्णू ण याणति, लोगुत्तरा भासंति-'एगे इह माणवातु' एगे। णाम ण सव्वे, केवलिणो, जे एगे केवलनाणे ठिता रागदोसमुक्का वा एगे, किं भासंति ?,'जमस्सऽतीतं' अणातिनिहणत्ता जीवस्स | 10 | जावइओ कालो अतीतो तावतियो आगमेस्सोवि, तहा सरीराणि जम्माणि दुक्खं संपयोगो अभब्वाणं, भवाण केसिंचि, केह | पति-'किह से अतीतं किह आगमिस्सं' ण सरंति-ण याणंति अपणोऽबि, किन्नु अण्णेसिं ?, एगे कुतिस्थिया किमिति || ॥१२॥ दीप अनुक्रम [१२५१३३] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [133] Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [3], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ११५-१२०] (०१) प्रत वृत्यक [११५१२०] परिपण्डे, केणप्पगारेण जं अतिकंत-अतीतं कह या आगमिस्स !, भण्णति-'भासंति एगे जह से अतीतंतहा आगमिस्स' गंग सूत्र चूर्णिः | 'जहे'ति जेणप्पगारेण जहेब तस्स रागमोहसमुत्थेसु कम्मेसु बाहिस्सतस्स जं अतिकंत-संसारस्य अतीतं तहा अणागतमवि अब-1 ॥१२२॥ सस्सपमादेण कम्माणि उवचिणित्ता इट्टाणिदुबिसये अणुभवंतस्स संसारो अतीतो तहा अणागतोवि, तत्थ अणेगसोऽवि इलेहिं विस-| PAएहि आसेविएहि ण तित्तो, एतेण अणुमाणेणं अणागतेवि तित्र्तिण जाहिति, अतो भण्णति-ततो तत्थ अतीतो अट्ठो-सदातिविस यसंपयोगो तं अतीतं अट्ठ ण अणुसरति, अवि दिव्वे चकबट्टिभोगेवा, तहेव अणागतेवि, तं एवं विसयसंपयोगेणं अधिगं गच्छति | अधिगच्छति-णियच्छति, जं भणितं-ण पत्थेति, तत्थ आगमिस्सो अथो दिव्यो माणुस्सो बा, तहागता णाम वीणरागदोसमोहा केवलजीवसभावत्था, जेण प्रकारेण तेसिं चउकम्मचिणिमुकं केवलं जीवदव्वं भवति तेण प्रकारेण ते गता तधागता, तेसिं ताव Vवीतरागता णातीतमट्ठा ण य आगमिस्सं, जे अण्णे रागादि णिग्गहेति तेवि तधागता एवं लम्भंतीति, णातीतमहूँ, तु विसेसणे, किं विसेसेइ ? जहेब उसभादितिस्थगरा गता तहा चिट्ठमाणोवि गतो तधागतो, तस्सिस्सावि तहा गच्छति तु, तहा अणेगे एगादेसा भण्णाति 'विधूतकप्पे विविहं धूतं विधूतं, कप्पइत्ति कप्पो, जं भणितं आयारो, विधुणिजिजति जेण अढविहो कम्मरयो स विधूतकप्पो, जं भणितं विधुतायारो, सो विधूतकप्पो एतं अशुपविसति, अहवा विधूतं जेसिं तवसा कर्म ते विधूतकप्पा, | विधूतपदो बा, कप्पोत्ति अणुमाने विधृततुल्लो विधूतकप्पो बट्टए उवमाए, 'एयाणुपस्सि' एतं पस्सतीति, भणित-अवरेण | पुव्वं सत्र वा जं भणितं वक्खमाणं च सो एयं अणुपरसमाणो णियमा 'णिझोसइत्ता'णिझोसेति, जं भणितं खवेद खवेहित्ति वा, सो एवं अणुपस्समाणो झोसिना जं भणितं खवेति, कारतो? के आणंदे' इह इमेण जीवेण अतिकंतकाले सम्बे अणिट्ठा ॥१२२|| दीप अनुक्रम [१२५१३३] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [134] Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [3], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ११५-१२०] (०१) प्रत वृत्यक [११५१२०] भीत्राचा- | चिसया अणंतसो पत्ता, एवं अणुपस्सतो संजमे अवडियम्स अणिदुबिसएहि पृट्टो परिम्सहे सहति, का अरती?, जं जीवेणं सब-0 अरत्याधरांग सूत्र | दुक्खाई अणंतसो पत्ताई, तहा इट्ठविसएहिं पत्तेहिं के आणंदे, भणितं च-"न तृप्तोऽसि यदा कामैः, सेवितैरप्यनेकशः। स नाम भावः चूर्णिः | तेषु वृत्तेऽन्तो, यतो वैगग्यमाप्नुहि ।। १॥" 'णंदि' रमणं गंदि, पमोदणं वा णंदि, पुखरते सरित्ता पमोदो माणस एव, अहवा| ॥१२३।। अतिकतेसु बहुमो अणुसरिजंतेसु किं पम्मति !, अतो तेसु का रती के आणंद, एवं अणागएसुवि, पटुप्पने पडुच्च भण्णति, 'एत्यपि अगरहे चर' रागदोसेहिं अगरहो सनिमित्तं जहण गरहिजति दुस्मिति वा, चर गतिइ भक्खणे य, गति इरियाइसमिओ भरवणे उग्गमाइसुद्धं आहाराति, तवं वा चरति, रागद्दोसगहितलक्षणं हासो, अतो 'सब्वहासं परिचज' हसणं हासो सच्ची तिसुवि कालेसु विसयप्पमादो तं परिचा 'अल्लीणों' तिबिहाए गुत्तीए 'परिब्बए' धम्म आयरियं बा, अल्लीणो तिविहाए। गुत्तीए गुत्तो सम्ममंचये, अहवा मोक्स्व अणियतचरत्थं वा समंता मोहंच, ये सुहदुक्खति तिक्खाए चिरागे य चट्टति, एवं तस्य | नायोचट्ठितस्स जइ अणुलोमपडिलोमा उबसग्गा उप्पओजा ततो ग तेण मित्तनातगादीणं सरितव्ब, ते मम पूयेत्ता, ते च मे परित्ताणं | करेजा, अमिनेहि वा हिजमाणस्स तत्धेवं भावयन्ध-ण मे धम्मबजं मिर्च, अमित्तं वा अत्थि, जतो भण्णति-पुरिसा! तुममेव तुम' पुण्णो मुहदुक्खाणं पुरिसो पुरि सयणा वा पुरिसो 'तुम मिति साधुरेव अप्पाणं आमंति, अण्णतरे च परिस्सहोवसम्मोदये बंधवे कंदमाणो परेण चोइजति---'पुरिसा! तुममेव बहिता अप्पाणं मोत्तुं जे अध्यो मित्ता पुबसंथुता पच्छासंधुता वा अप्पेण अपमत्तो अप्पा मित्तो, अमिनो वा पमने, मित्त अमितेहि य अहियत्ता मिचा, जंपुब्बउबचियं सुहं उप्पञ्जई जीवस्स तत्थ अप्पाचेच मित्तभूतो आसी, दुक्खे अमित्तभृतो, जो इमो बाहिरो मित्तामित्तविसेसो एसो ववहारणयस्स, णिच्छयणयस्स अप्पेण अप्पा मित्तो ।। ॥१२३॥ दीप अनुक्रम [१२५१३३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [135] Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [3], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ११५-१२०] (०१) उचालयि तादि ब प्रत वृत्यक [११५१२०] श्रीआचा- अमित्तो वा, अण्णतरो एगभवग्गहणाओ मारेति अप्पा दुप्पस्थिो अणेगाई भवाई मारेति, जेवि माहिरा मित्ता तेऽवि धम्ममावसं-| रांग सूत्रचूर्णिः 10 तस्स विग्धकरा इतिकाउँ अमित्ता एव णायव्वा, जो णिचाणनिमित्तं अप्पमत्ते सो अप्पेण अप्पाणं मित्तं, तहावि ण याणसि, तो ॥१२४॥ IN भण्णाति-'जं जाणेजा उच्चालइत' गतिपच्चागतिलक्खणेणं, 'ज'मिति अणुहिवस्स, जाणिजासि-युज्झेजासि विसए उच्चालिते, | जं भणितं-णासेवति, कम्माणि या अप्पपदेसेहिं सह अणातिसंतानसंबद्धाणि उच्चालेति, एवं जं जाणिज उच्चालइयं तं जाणेज दूरा- | | लइतं, दरे आलयो जस्स लोगग्गे, जं जाणिज दूरालइयं तं जाणिज उच्चालइयं, पढम उच्चालइया पच्छा दूगलइता भवति, जं | भणितं-अविणासी जीवो, कहं उच्चालेइ ?-पुरिसो आत्मानमेव अभिणिगिज्झ अप्पाणं मोक्ख अभिमुहं अधियगिजा अधिणिगिज्या, | एवमवधारणे, दुवखं-कर्म साधु मिसं च मोक्खेसि पमोक्खेसि, एवं कम्माणि उच्चालिअंति, कहं अपणिग्गहं करेति ?, ततो | भण्णति-'पुरिसा संचमेव' सनो णाम संजमो सत्तरेस बिहो तं समभियाणहि, जं भणितं तं समायर, अहवा सण सेसाणिवि. | क्याणि पालिज्जंति, कहं !, जो आयरिससगासे पंच महव्वयाई आरुमित्ता नाणुपालेइ सो परिण्णालीवेण असञ्चो भवति, दुवाल| संगं वा प्रवचनं सच्चं, तस्स सच्चस्स आणाए उबडितो धम्म, मेहाए धावती त मेघावी, मारणं मारयति मारो, जं भणितं संसारो तं तरति, सो एवं सहिते धम्मसमायाए, तेण तित्थगरभासितेण अ सच्चेण सहितो तप्पुव्वगं चरितं धम्म आदाय 'सेयं समणुVAI पस्सति' सेयं इति पससे अत्थे, सयंति त मेति सेओ, जं भणितं मोक्खं, तं अणुपस्सति, अणु पच्छा तित्थयरेहिं दि8 पस्सइ तदुवदेसेण तं पुण, सेसं पुब्बुत्तं, तंजहा-सब्बहासं परिचज्ज अल्लीणगुतो आतमित्तेण उवहितो एवं अणुपस्पति, अप्पमत्तो भणिओ तग्गुणा य, इदाणि पमादो, जो पुण सीउण्हाई ण अहियासेति भावसुतो 'दुहओ जीवित ' दुइतोति रागेण दोसेण, अहवा दीप ॥१२॥ अनुक्रम [१२५ १३३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [136] Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [3], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ११५-१२०] (०१) प्रत वृत्यक [११५१२०] पोशाचा-10 अप्पणो परस्स य, जीवितपरिवंदणमाणणा पुन्वणिता, जसि एगे पमादेति' एवं रागहोसाभिभूता अत्तट्ठा परवा वा परिवंद- प्रमादादिः गंग पत्र- णातिणिमित्तं, जंमि एगे असंजता पमातं करेंति अप्पणो परेसिं च, जो लोगुतरावा पासस्थाति जे दुहतो परिवंदण० धम्मे पमादेति || चूर्णिः ण ते दुक्खक्खयं करेंति, पडिपक्वभूता अप्पमायिणो, ते तु 'सहित धम्ममादायि' पाणदरिसणसहितो चरित्तधम्म आदाय, | ॥१५॥ | जं भणितं घेत्तुं 'पुट्ठो णो झंझाए' सीतोसिणेहिं परिसहेहिं, झंझा णाम वाउलो, सीतेहिं रागझंझा उण्हेहिं पत्तेहिं दोसझंझा, एवं | अण्णेसुवि इवाणिद्वेसु झंझणा कायचा, पढिज्जइ य-'सहिते दुक्खमत्ताए' मीयत इति मचा, जंभणितं परिमाणं, ताए दुक्ख| मायाए अप्पाए वा महतीए वा अवि जीवितभेदकारिणीए पुट्ठो को झंझाए-कोर्ष माणं वा ण कुजा, ण व सुहझंझं पत्थेति, पासिमं| | दविए' परसतीति पासिमं, कि एतं , जं भणित--संधि लोगस्स जाव णो झंझाएत्ति एतं पस्सति, दवियो रागदोसषिमको.TV लोकतांति लोगो, आलोकतीति आलोको, लोगालोगो, जो जेहिं गाए बद्दति सो तेणप्पगारेण आलोकति, जं भणित-दिस्मति |तंजहा-नारइयत्तेण, एवं सेसेसुवि पिहिप्पिहेहि सरीरवियप्पेहिं आलोकति सरीरे, पगतो वंचो पर्वचो सुहुमपजत्तासुरूवसुहाति MAIसेतरा एवमादि० पवंचो तओ लोगालोगपर्वचाउ साधु आदितो मिसं मुञ्चति, सदेवमणुयामुराए परिसाए मझगारे वीतरागत्ता सन्चगणुत्ता य णिविसंकं । सीतोसणिजस्स तृतीयोदेशकः ३-३।। णिज्जुत्तीए भणितो संबंधो, परंपरेण जागर वेरोबरते जातिं च बुडि वा विदित्ता णिकम्मदंसी जो लोगालोगा पमुच्चति, स ul प्रण एवं मुचति-से बंता कोहंच' से इति णिसे सीतोसिणचाई निग्गंथे चंता कोई माणं माय लोभ च, कोहमाणमायालोमा || IN इति वत्तब्वे पिहसुत्तकरणं दरिसति अणंताणुबंधाइ एकेको चउन्धिहो, जया तेसिं उबसमं करेति तदा एककं चेव उवसामेति, ] ॥१२॥ दीप अनुक्रम [१२५१३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: तृतीय-अध्ययने चतुर्थ-उद्देशक: 'कषायवमन' आरब्धः, [137] Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १२१-१२५] (०१) नादि रांग सूत्र चूर्णिः ॥१२६॥ प्रत वृत्यक [१२११२५] जुगर्व, वमणंति वा विरेयणति वा विगिंचगंति वा विसोहणंति वा एगट्ठा, दव्ये मदणफलादि जंवा वमिजति, भावे कसायवमणं, एतं पासगस्स दंसणं' एतमिति जं भणितं तंजहा-से बंता०, पस्सतीति पामगो, जं भणितं तित्थगरो, ण. तु अण्णे पस्सगे, दिस्सति जेण पस्सति वा तं दरिसणं, जं भणितं उवदेसो, सो पासंतो जाणइवि, कई जाणइ ?, किं एग अत्थं जाणति अहऽणेगे?, | भण्पति-'जे एगं जाणइ से सर्व जाणइ' जो एग जीवद्रव्यं अजीबदबं वा अतीतानागतवट्टमाणे हैं सबपञ्जएहिं जाणइN सिस्सो वा पुच्छति-भगवं! जो एगं जाणइ सो सवं जाणइ, आम, एत्थ जीवजया अजीवपञ्जवाय भाणियच्या, एवं जाणमाणो सवण्णू सिस्साणं पमाददोसे अप्पमादगुणे य परिकहेइ, तं जहा-'सघतो पमत्तस्स भयं' दव्यादिसबप्पगारेहि, दबओ सपओ आतप्पदेसेहिं गिण्हति, खिलतो छद्दिसिं, कालतो अणुममय, भावतो अट्ठारसहिं ठाणेहि पंचविहेण वा पमादेण, भयं-कम्म, तदेव | सब्बओ बज्झति, चोरदृष्टान्तेण वा इह परत्थ य सबओ एमत्तस्स भयं, सचतो अपमत्तस्स णस्थिति चउकाओ-अप्पमत्तत्तादेव दब्वाइच उक्काओ अप्पमत्तस्स णस्थि भयं, गच्छतो चिट्ठतो भुंजमाणस्स वा, जे तंगळे जे तं चिद्वे जे तं भुजेण तस्स किंचि भयं भवति, भणितं च-"यस्य हस्तौ च पादौ च, जिह्वाग्रे च सुसंयतम् ।" कसायाधिमारो बकृति, तं दुविहं वमणं, तंजहा-उवसामणावमणं | खवणावमणं च, तत्थ उवमामिण पढमं भष्णति, उपसमणंति ना णामण वा एगट्ठा, जओ भण्णा-'जे एगं नामे से पहुं नाम दबनामणा रुक्खादीणं, नामेति, ण उ भजती, जहा नदीपूरेण गुम्मलताओ नामियाओऽपि पुणो उनमंति, भावगामगासु जो एग अणताणुवंधि कोहं णामेति सो पहुं णामिति, बहुनि सेसा सत्पीस कम्मंसा मोहणिजस्स, अहबा पदेसओ ठितिओवा पहुं णामेति, तंजहा-अणदंसनपुंसग उक्सामगसेढी रतेयवा । इदाणि खवणा, सा य जाणपुग्वियं किरियं आयरंतस्स भवति, अतो दीप । ॥१२६॥ अनुक्रम [१३४१३८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [138] Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १२१-१२५] (०१) प्रत वृत्यक [१२११२५] श्रीआचा-1 | 'दुवं लोगस्स जाणित्ता' दुक्ख-कम्म छक्कायलोगस जाणित्ता जह वा उबलमिना एवं गचा त दुक्खोउ 'बंता लोग-ID| लोकसयोगंग सूत्र- |स्स संजोग' बंता नाम खविचा कम्मलोगस्स संयोग जेण कम्मलोगेण भवलोगेण वा संजुञ्जति तं वता लोगसंजोगं 'जति वीरा गवमनादि चूर्णिः | महाजाणं' जंति गच्छंति वीग भणिता पुर्व महाजाणं-पहाणं चरितं, महतो वा कम्मरस जायस्स खत्रणेण जाणं महाजाणं,IN ॥१२७111 जं भणितं-अपुणरावचगं, परेण परं'ति खवगसेढिगमो दरिसितो, अहवा 'परेण परं'ति 'जे इमे अञ्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरंति, एते णं कस्स तेयलेस्सं बीतीवतंति ?, मासपरियाए जाव तेण परं सुक्के मुकामिजाते' एवं परेण परं जंति, कतरे ते?, जे विसयकमायासंजयजीविते'णावग्वति' जीवद जीविनइ वा जेण तं, तण्ण अवखंति, मरणं वा, अणेगे एगादेवा भण्णति, एवं(ग)। विगिंचमाणे पुढो बिगिचति' एगं अर्णताणुपंधि कोई सवायप्पदेसेहिं विगिचितो, विगिचिणंति वा पिवेगोत्ति वा स्वब-IM |णत्ति वा एगट्ठा, पिधु-बित्थारे, पुढोति मिच्छत्तसत्तगं णियमा विगिचक्ति, जो चराउयो सोविण अतिक्कमिति तिमि भवे, अबद्धाउओ पुण सचावीसं मोहणिजम्स कम्मंसे नियमा खवेति, चत्तारि वा घातिकम्माणि, सिज्झमाणसमए वा चत्तारि केवलिकम्माणि विगिचति, खवगसेढी परूवेयब्या, एन्थ 'अण मिच्छ मीस सम्म०,' सो य सद्धासंवेगजुत्तो खवेति तेण भण्णाइ-'सडी आणाए। तम्स वा खीणावरणस्स सगासे धर्म सोचा संजम पडिवाइ सट्टी आणाए, सद्धा णाम मोक्खामिलासो, तदद्वं च तवनियमसंजमा, IN आणा णाम सुयनाणं, आणापूव्वगं से मेड्या धावतीति मेधावी,'लोयं बाऽऽणाए'त्ति छजीवकायलोपं वा आणाए 'अभिसमिच्चा' जं भणितं णचा, छकायलोगस्स जागणा सहहणा देसणा 'अकुतोभय'ति छकायलोयस्स ण कुतोऽवि भयं करेति, तस्सवि य | कम्मलोग खतस्स कुतोऽवि पत्थि भयं, खवित कम्मंसे मोक्खं गयस्स अकुतो भयं भवति, अभिसमिच्चावि वहति कुतो मयं । | ॥१२७|| CHANNEL MARREAmASA दीप अनुक्रम [१३४१३८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [139] Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१२१ १२५] दीप अनुक्रम [१३४ १३८] श्री आचा गंग सूत्र चूर्णि ।। १२८ ।। भाग-1 "आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [४], निर्युक्तिः [२१४... ], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १२१-१२५] भवति, सत्थाओ, तेण तं सत्यं णचा परिहरियन्धं, सत्थं अधिकृत्य भण्णति, 'अस्थि सत्यं परेण परं परेणावि परं परंपरं | तिन्हा तिण्दतरं, लोयविसेसा करेंति, विरिथविसेसाय तब्बिसेसो, विसंपि किंचि संजोतिमं छहिं मासेहिं मारेति परं पुण ताल| पुडमित्त्रेण मारेति, लवणंपि किंचि चिरेण किंचि आसु, होऽवि घृततैलवसा परा एवं खारअंबिलादिदव्त्रसत्यविभासा, भाव| सत्यपि परिणामविसेसा तिव्वं तिब्बतरं च भवति, सब्वं च एवं जहा जहा परं तहा तहा दुक्खमावइति, परोप्परं वा दुक्खमाब इति, किंची सकायसत्थं किंची तद्विधं मणा, असत्थं परेण परं सत्तरसविहो संजमो, सो परेण परं ण भवति, पुढविकायसंजमेण ण कोयि पुढविकायिओ सनो जस्म मंदा दया कीरति जस्स वा उक्कोसा जहा भणिता, जहा तालपुडादीणं दव्वसत्थाणं वीरियविसेसो दिट्ठोण एवं पुढविकाइयाइयाणं अष्णस्स अप्पा दया कीरति अण्णस्स महती, सब्बाविसेसेण तेसु संजए, से सुदुमं वा बायरं वा, एवं सेसेसुवि जाण, मणसंजमे वयसंजमे कायसंजमे निविदुस्सवि योगस्स विसेसेण णिग्गहो कायन्त्रो, भावसत्थं कहं परं परं दुहावहं भवति १, युवइ 'जे कोहदंसी' कोई पस्पति कोहदंसी, जं भणितं कुज्झति, कोहा दरिसयतीति, जहा 'रुट्ठस्स खरा दिडी उप्पलधवला पसन्तचित्तस्म' एवं सम्वत्थ 'जाब दुक्खं' अहवा जे कोहं जाणति स माणं जाणति जाब दुक्खं, अहवा खमणाधिगारे अणुअत्तमाणे भणति - 'जे कोहदंसी से माणंदसी' जं भणितं परिपाडेति, जो कोहं खवेति सो सेसेवि, जतो एवं परेण परं सत्थं दुक्खेण वहति असत्थं परेण परं सुहं आवहति तेण 'अभिनिवहेज तं कोहं च माणं च निव्वट्टनंति वा छिष्णणति वा एगट्टा, लोगेवि जहा एगेणप्पहारेण हत्थो निव्यट्टितो पादो वा, जं भणितं छिण्णा, एवं जाब दुक्खं च 'एतं पासगस्स दंसणं' जं भणितं उपदेसो 'उचरयसत्थस्स' कसायसत्थाउ, जं वा जस्स सत्यं ततो उवरतस्स 'पलियंत कडस्स' परियंतकरस्सति परशखादि [140] ||१२८ ।। पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १२१-१२५] (०१) T श्रीराचा- गंग सूत्र चूर्णिः ४ अध्य १ उद्देशः ।।१२९॥ Mos प्रत वृत्यक [१२११२५] बनब्बे रलयो एगत्ता पलियतकाडिति वुति, सम्यो कम्माण परियत करति, पलियते वा जेण तासु गईमु मुहदुःखेसु वा परशस्खादि | पलियं-कम्मं तस्स अंनकरी, आदाणं सयं आदते, आदीयते वा कम्म, सयं कतं सकतं, जेण पुरे संसारो', भण्णति-स्थिति बेमि, कई १, ण चिय अणिघणो अग्गी दिप्पति, ण वा दड़े बीये अंकुरुप्पत्ती भवति, दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाकुरः।। कर्मवीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्करः ।। १ ।। इति श्रीआचारांगे सीतोसणिज्जं णाम नइयमज्झयणं सम्मत्तं ३ अत्याधिगारो म एव, जीवाजीवाभिगमा सम्मदसणं, नवि सोतं च अणुयत्तइ, वितिए अज्झयणे परिणाए थिरीकर्त, |ततिए भावमुत्तदोसा भावजागरणा सीतोसिणजस्स गुणा ण य एगंतेण दुक्खेण धम्मो सुहेण वा कसायवमर्ण च, एवं च सह-10 | माणस्स सम्मत्तं भवाति सम्मत्त अवसरो, किं ?, जं एतं मणितं एनं सम्मं बुच्चति, एतपि सम्म, इह तु तिणि तिसट्ठाणि पावातियसयाणि परुबित्ता ससमए ठाविज्ञति, जहा वा चातुस्सालमझगतो दीवो तं सव्वं उज्जोवेति एवं एतं अज्झयणाणं ममगतं सव्वं आयारं अवभासति, अह पुण पन्चाइयमेत्तस्स परउत्थिया णिदिजंति तो कदायि अपुट्ठधम्मो सेहो इमे अतुक्कोसपरपरिवायरतित्तिका विष्परिणामिज, एसो अज्झयणसंबंधो, सुत्तम्स सुत्तेणं-किमस्थि कम्मोवहि ? पस्थिति, तं च दुवं सदहिजति, तं च सद्दहमाणस्स सम्मत्तं भवति, एस सुत्तेण संबंधो, एतेण संबंधेण आगतस्स अज्झयणस्स चत्तारि अणुओगद्दाग परूवित्ता अस्थाहिगारी विहो-उदेसस्थाहिगारो अज्झयणस्थाहिगारी य, तत्थ उद्देसत्याहिगारो 'पढमें' त्यादि (२१२, २१३-१७५) पढमे मम्मावातो, वितिए अण्णउत्थिया परिलिजंति, ततिए अणवञ्जतको वणिजइ, चउत्थे सुत्तेण तवेण य आचीलेयव्वं सरीरं || | अढविहं च कर्म, अजमयणस्थाहिगारो सम्मती, णिक्खेको तिविहो-णामणिष्कण्यो 'णामं ठवणा सम्म' (२१६-१७५)|1||१२९॥ ACTINORCE दीप अनुक्रम [१३४१३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: चतुर्थ-अध्ययनं 'सम्यक्त्व' आरब्धः, [141] Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत [ree १२९] दीप अनुक्रम [१३९ १४२] श्रीआचा रांग सूत्र चूर्णि ॥१३०॥ भाग-1 "आचार" अंगसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन] [४] उद्देशक [१] निर्बुक्तिः [ २२७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १२६- १२९] - नामसम्मतं रावणसम्मतं दव्यसम्मतं भावसम्मचं, णामठवणाओ गयाओ, दव्यसंमे इमा गाहा 'अह दव्त्रसम्म ' ( २१७ - १७५ ) आणुलोमियं जं जस्स द्रव्यं इच्छानुलोमं वइति तं दव्वसम्मं, जह इच्छति तहेव भवति, 'कत संवतसंजुतं' अद्वगाहा । कतं जहा रघो सलक्खणनिवत्तणाविसेसा सम्मं भवति, जस्स वा सो कतो तस्स अहीन कालकतत्ता सुकतत्ता य सम्मं भवति, 'संम्बतं'ति कारियं पडाति पुणष्णवं भवतिति दव्वं सम्मं, 'जुत्तं' ति खीरसकराणं संगमं जहा तहा अण्णं अविरोधितं दब्बसम्मं विवरीतं असम्म जहा तिलहीणं, पयुत्तंति जस्स जेण दब्वेण पयुभेण संमं भवति जहा रोगियस्स ओसहेण तिसितस्स पाणेण क्वियस्स ओदणेण अण्णहा असम्मं, जं वा दब्बं लाभरण पयुक्तं लाभकरं भवति तं सम्मं, सेसमसम्मं, विजडपि किंचि सम्मं भवति, विवरीतमसम्मं, मिनं कागादीणं सम्मं भवति, बहुतस्स. असम्मं, गंडिणो वा गंडे मिले सम्मं इहरहा असम्मं, भावसम्मं तिविहं 'तिविद्धं तु भावसम्म गाडा (२१८-१७६) नाणसम्मं दुबिहं खइयं च खओवसमियं च दंसणसम्मं तिविहं वेइयं च खइयं च खओवसमियं च एवं चारिचंपि, जति तिण्डवि एतेसिं भावसम्मं तो अविसेसो, कम्हा दरिसणस्सेव सम्मतसो ?, रूढो, तं च इह अज्झयणे निति, णेतरांणि ?, भण्णति, तप्पुव्वाणि इतराणि, णवि मिच्छद्दिस्सि सम्मं नाणचरिताणि, एथ दितो दोहिं शयकुमारएहिं अंधेण अधेण य, 'कुणमाणोऽविय किरिय' गाहा (२१९-१७६) दोबि लेहकलं गाहिता, जाओ अंधपाउगाउ गंधव्वाइओ कलाओ, अणंधो ईसर्थ सिकखति, सो य अंधो सए पुरिसे पुच्छर-सो किं करेति १, ईसत्थं सिक्खतीति, पितरं तनिमितं विष्णवे अपि सिक्खामि तेण बुच्चति- -तब जातिअंधस्स किं ईसस्थेणं ?, पडिसिज्झमाणोऽचि ण ट्ठाइति, तेण ईसत्थायरिया उबणीता, संघामुट्टिए खिविति, सो य सचओ जाहे विज्झगातिं विधति ताहे आयरिएहिं अहिं य पास द्रव्यादिसम्यक् [142] ॥१३०॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: चतुर्थ अध्ययने प्रथम उद्देशकः 'सम्यग्वाद' आरब्धः, Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२२७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १२६-१२९] (०१) प्रत वृत्यक [१२६१२९] श्रीआचा-M | द्विहिं पसंसिञ्जइ, किं पसंसिज्जइत्ति अंधो सए पुरिसे पुच्छ, सो किं एसो साहुकारिजइत्ति, कहिते भण्णइ-तुझेऽवि मम लक्ख-0 अनंजयः देसे सई करेह, पच्छा सहवेधी जातो, जोधणत्यो य जातो, तं रायाणं परवलेण अमिभूतं जुद्धाय णिफिडतं भणइ-मम बलं चूर्णिः INदेह, अह णं परातिणामिति, दिण्णे चले गम्मियकबइतो लग्गो, तं च से बलं भग्गं, ताहे सो परबलेण वेटितो, तहावि जस्थ सदं ॥१३१॥ सुणेड़ तं तं विधति, रमा पुसितं-को एस जुज्झति !, जातिअंधो सद्देण विधइत्ति, मा सिडिसहं करेह, तुण्डिका अल्लिपह, तेहिंवि |तहेब कयं, गहिओ य, सो एवं बराओ 'कुणमाणोऽवि य किरिय'गाहा, ताहे सो सञ्चक्खू वत्तं सोतुं पितरं आपुच्छित्ता तं परवलं पराजिणति, पच्छा रणो से तु?ण पट्टो बद्धो, एस दिढतो, इमो अस्थोवणो-'कुणमाणोऽवि णिपत्ति' गाहा (२२०-१७८)। जो जेसि भणितो तंजहा पंच णियमा धुवगुणा वा, केसिंचि पंचग्गिताबायावणादि, दुक्खस्स दिन्तावि उर मिच्छादिट्ठी ण| | सिझति, 'तम्हा कम्माणीयं जेतु' गाहा (२२१-१७८) सिद्ध, कई संमने नाणचरित्नाई सफलाई ?, भष्णंति-'सम्मत्तु-IV Dपत्ती' गाहा (२२३-२२३) जहा दोनि मिच्छादिट्ठी पुरिसा आरामगते विहारगते वा साह पासंति, के एतेत्ति एगो पुच्छइD तेण वा अप्रेण या धम्म कहेंति, साहणोति सिट्ठा, पुच्छिमामि गं धम्म, ण ताव पुच्छति, सो इतरो असंखेजगुणनिजरतो, ततिओ| | इदाणि चेव पुच्छामि तस्स ममीवं उवगच्छति, सो वितियाओ असंखेजगुणणिजस्तो, चउत्थो पुच्छति, सो ततियातो असं| खिजगुणनिजरओ, पंचमओ कहिए धम्मे संमत्तं पडिवाइ, चउत्थाओ असंखिज,छट्ठो सम्म पडिवञ्जमाणो पंचमाओ असंखिजगुण, सम्मतुप्पत्ती गता । इदाणिं मम्मदिट्ठीणो-तत्थ एगस्स चिंता विस्ताविरति पडिवआमि सो इतराओ असंखिगुण-10 णिजरओ, एवं दोनिवि संजता संता तस्थेगो संजमाभिमुद्दो अण्णो पडिवाइ, अनो पुथ्वपडिवाओ, दोमि पुब्बपवित्रा १३१।। दीप अनुक्रम [१३९१४२] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [143] Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२२७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १२६-१२९] (०१) श्रेणि प्रत वृत्यक [१२६१२९] श्रीआचा- संजता, तत्थ एगो मिच्छत्तपंचगस्स खवणमुहो, एगो खवेति, एसो अर्णतकम्मंसो बुञ्चति, अबो देसणमोहणिजखवणामिमुहो, | निर्जरागंग सूत्र-IA । अम्रो खबेति, अण्णस्स खीणो, अनो उवसामगसेढीए अमिमुहो, अण्णो उक्सामेति, अण्णस्स अट्ठावीसतिविहंपि उबसंत, एवं चूर्णिः खवणाएवि तिनि गमा, अवरो सजोगिकेवली, ततोऽवि सेलेसिं पडिवण्णो असंखिजगुणनिजराए पद्दति, तधिवरीतो कालो | ॥१३२॥ | संखिजगुणाए सेढीए जावतियं कम्मं जचिरेण वा कालेण सेलेसि पडिवण्णो खवेति ततियं कम्मं सजोगिकेवली संखिजगुणेण | कालेण खवेति, एवं जाब पुच्छिउंकामो अपुच्छिउंकामो य, एवं दसणवतो तवनाणचरणाणि सफलाणि भवंति, जो पुण आहारो| बधिवसहिणिमित्तं तवनाणचरणाणि करेति बाहिरन्भतरो तवोऽवि भासियथ्यो सव्वो, सम्मदिद्विस्सवि आहारादिनिमित्त कीर| माणो नि'फलो भवति, किमंग पुण अण्णाउस्थिया गिहित्था य विसयकसायातिसत्ता हिंसातिसत्ता य संसारमोक्ख ण काहिति', तत्थ उदाहरण-सुत्तफासियगाहाओ पढमुद्देसए इमाओ दोभि'जे जिणवरा अतीता' गाहा (२२५-१७९) छज्जीवनिकाय' | गाहा (२२६-१७९) 'खुड्गपायसमासा' गाहा (२२७-१८७) वितियस्स चरिमसुत्ने 'जह खलु ऋसिरं कहूँ तहा णिज्जु- त्तीए चेव सर्व भासिअति, पाडलिपुतं नयर, तत्थ जियसत्तू राया, रोहगुचो अमच्चो सावत्रओ, राया अत्थाणितवरगतो कयाइ धम्मवीमंसं करेइ-कस्स धम्मो सोमणो , जो जस्स कत्थि (कुला) गतो सो तं पसंसइ, रोहगुचो तुण्डिको अच्छमाणो रण्णा भणिओ-तुमं पुण तुहिको अच्छसे, पुणो पुच्छियं तो भणइ-जो जस्स रोयति सो तं धम्म पसंसइ, वीमंसिजतु, तुमं चेव परिTEL वाहित्ति, तेण पातओ कतो 'सकंडलं वा वयणं णवति, पासंडिणो सम्वे सरावेउं वुचा, जो एतं भिंदति तस्स राया जहिच्छियं ॥ दाणं दति, भत्तिगतो य भवति, ने पातयं घेत्तुं सत्तमे दिवसे अत्याणीयवरगयस्मरणो उवदिता, पदम परिवायो उवद्वितो, पच्छा ॥१३२।। दीप अनुक्रम [१३९ १४२ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [144] Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२२७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १२६-१२९] (०१) आद्रशुष्क प्रत वृत्यक [१२६१२९] श्रीआचा-ताला ताचसो, पच्छा रसपडिओ, मालाविहारो जत्थ णिचं मल्लं कीरति, आरहती पुण णागतीति, रण्णा पुच्छितो अमची भणइ-गविसि-II रांग सूत्र IMA सामि, ण पुरिसा संदिवा, तेहि य चेल्लओ मिक्खायरिये दोसीणस्स हिंडमाणो दटुं गहितो, पायो य से अक्खाओ, सो भणइचूर्णिः 'खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्म' गाहा (२३१-१५८) भिण्णो पातउनि, धूललक्खेणं वालेण एतं रण्याऽभिसद्दहितो, पच्छा PA ॥१३॥ | रण्णा युञ्चति-देहिहितं मम खुड्या धर्म कहेह, तेण य चेडरूवत्तणेण दोनि चिक्खल्लगोलया पुच्चगहिता, सो ते को आवडे (0 ऊग पुणो संठितो, पण्णा पुच्छितो भणातु, एसेव धम्मो कहिओ। 'उल्लो सुको य' गाहा (२३२-१८८) 'एवं लग्गति गाहा (२३३-१८८) गया सावओ जाओ, अहवा खुडओ गतो चेव, रोहगुतो भणइ-सब्बे एते भगन्ति-ण अहं न मृति पुलोएउं, किंतु वक्खेपदोसा ण णिदिदुनि, एगो मणइ-मिक्खालोमेण, एगो भणति चेडरूववक्खेवेणं, अण्णो भण्णति-विहारपूयावखे-H वेणं, तेण ते सम्बे अवीयरागा, जो पुण भणति-खंतस्स दंतस्स जिइदियस्स एसो बीयरागमम्गे ठितो, एयस्स मोक्खो अस्थि, दिद्रुतो दोहिं गोलरहि, सुक्खेण उल्लेण 'सुक्खो उल्ले य' गाहा ।। सुत्ताणुगमे सुत्तमुचारेयचं, से बेमि जे अईया' से णिद्देसे सगारस्स आएसा तं चेमि, तमिति सम्मत्तं, अहवा एकेको गणहरो सीसेहिं उबासिजमाणो ते वेमि सम्मत्तं, जं णिक्खेवणिज्जुतीए चुत्तं तं बेमि, 'जे य अतीता' 'जे' इति अणुट्ठिस्स गहणं, अतीतद्धाए अर्णता अतीता, जे इति पटुप्पण्या पंचसु भरहेसु | | पंचसु एरवएमु पंचम महाविद हेसु, जहिं काले भवा वा तहि काले पन्नरससु कम्मभूमीसु, अस्थि तित्थगरा अणागता, अणागतद्वाए अर्णता, सब्चे अपरिसेसा एवमाइक्खंति, बङ्कमाणग्गहणेण अतीताणागतावि सूयिता काला, अतीते एबमाइक्वंसु अणागए एवमाइक्खिस्संति जाब पण्णवेस्संति, मब्वे य जाव सव्ये अपरिसेसिता जम्हा आणयंति वा, जाब जम्हा सुभासुभेसु कम्मेसुण इंत ॥१३३॥ दीप अनुक्रम [१३९१४२] र पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [145] Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१२६ १२९] दीप अनुक्रम [१३९ १४२] श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥१३४॥ भाग-1 "आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२२७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १२६-१२९] ब्वा, कप्पदप्पादीहिं सज्झ अभियोगो, आणापरिग्गहो ममीकारो, तंजहा-मम दासो मम मिथो एवमादि, आणापरिग्गहाणं विसेसो, अपरिग्गहितोवि आणप्पति, परिग्गहो सामिकरणमेव, ण परितावेयव्योति अहणंतोऽवि अंगुलिमूयिमादीहिं परितावेति, मणपरितायणावा, उद्दवणा मारणं, एवं सतं न करेति अभ्येो ण कारवेति कीरंतं न समणुजाणति जाब रायिभोयणंति, 'एस घम्मे सुद्धे' सुद्धो णाम णिम्मलो भवति, जे अण्णे तु के सिंचि सत्ताणं दयं करेंति वहा धीयारवद् (बं) धुए गोणीपोयं परिहरति छगलादि मारेंति, एवं असुद्धे, अतं तु रागादिरहितत्ता सव्वं अविसेसं अहिंसाओ य सुद्धो, णितिया पंचसु महाविदेहेसु णिश्चावत्थितत्ता णितियो सम्मत्तो भवति सासतो, णितिउत्ति वा सासतोति वा एगट्ठा, अहवा णिचं सासतो, णिचं भवित्ता अणुभवति, भवियत्ता वा अभवियत्तावि | णिचं भवति जहा घडअभावो, अतं तु निश्चकालवत्थायित्ता विचो सासयो य 'समिध छज्जीवनिकायलोगं' समिचत्ति वा जाणितु बा एगट्ठा, खितं - आगास खितं जाणतीति खेचष्णो, तं तु आहारभूतं दव्वकालभावाणं, अम्रुतं च पबुच्चति, अनुत्ताणि खित्तं च जाणतो पाएण दव्बादीणि जाणड़, जो वा संसारियाणि दुक्खाणि जाणति सो खेत्तण्णो, पंडितो वा, मिसं साधु आदितो वेदितो पवेदितो, उड़ितो उडिया संजता, उडियाणं कहं पवेदिजति ?, नणु मज्झिमयाणं पाससामितित्थगरसंतगाणं, अहवा उट्ठिएस अणिसण्णेसु, अणुट्टिएसु पिसण्ोसु, एकारसण्डं गणहराणं अणुत्थियाणं चैव पवेदितं, उबट्टिता णाम जे धम्मसुस्सा, केति मुट्ठाण उद्विताविण उबर्हति जहा पत्तेयबुद्धा, अणुवट्ठिए कहिजति जहा इंदणागस्स, उवश्यदंडेसु वा न रतो उबरतो सन्दंडे अणुवरता असंजता, तेसिंपि पवेदिजति, फिह दंडेहिं उपरति करिअ १, पंचधा दंडगा, दव्यभवसंयोगरएस वा असंजोगरएसुवा, संजोगरतो गिद्दत्थो, असंजोगो संजमो तहिं रता 'तथं चेत' तद् द्रव्यं सद्भूतं एतं, जं भणितं सव्वे पाणा ण इंतव्या, एतं वा हननामियोगादि [146] ।। १३४।। पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२२७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १२६-१२९] (०१) श्रीआचा रांग सूत्र चूर्णिः ११३५॥ प्रत वृत्यक [१२६१२९] | सम्मइंसणं, कयरं ?, कारगं, 'अस्सि चेतं पवुचति' अस्मिन् आरुहते पश्यणे साधु आदितो वा युवती पश्चति, त इयं तसे । अस्थेसु सद्धाणलक्खणं रोयगसम्मईसणं, तरपुवगं च कारगमम्मईसणं 'तं आतिइतु ण णिहे' ण छातए, जहारोपितपडण्णा.INसम्पत्यादि | न णिक्खिवे, णिक्खेवणं छट्टणं जहा तच्चनियाणं आयरियसमीवे सिक्खावयाणि खिवित्ता उप्पबजेति पुणो आगतो गिण्हह, तहा| ण णिक्खीवे, जावजी अणुपालए, 'जाणिनु धम्म' जबाबत्थितं तहेव सुतधम्म चरित्तधम्मं च ण णिक्खिवेइति वद्धृति, 'दिठेहि | णिबेदं गच्छि जा' इट्ठाणिहरूवविसया, सद्देहिं सुचेहि गंधेहिं अग्घातेहिं रसेहिं अस्सातितेहिं फासेहिं पुढेहिं णिव्वेदो सो घेव, सुम्भिसदा पोग्गला दुम्भिसदाए परिणमंति, अतो तेसु को रागो दोसो वा १, एवं सेसविसएहिवि, जं लोगो एसति सालोगेसणा, PAI भणितं च लोगेवि-'शिश्नोदरकृते पार्थ!, पृथिवि जेतुमिच्छति' 'जस्स णत्थि इमा णाति' जस्स साहुस्स गाणं णाती, जं भणितं तं अन्नतरइंदियरागदोसोवयोगो जस्सिमा णत्थि अन्ना केणप्पगारेण रागदोसणाती भविस्सति ?, अहवा सब्वे पाणा | ण हतब्वा जाव ण उद्दवेयव्या, जस्म वा जाती पत्थि तस्सण्या आरंभपरिग्गहपविचेसु पार्सडेसु णाती कतो सिता ?, जीवाजीवाति | पदत्थे ण याणति सो कि अण्णं जाणिस्सतीति, कतरा सा पाती ?-'ज दिह सुतं' केवलदरिसणेण दिट्ठ, सुतं दुवालसंगं गणि- 1 पिडगं तं, आयरियाओ सुतमेतं णाम जह मम दुक्खमसातं तहा अण्णेसि मतं, विविहं विसिट्ठ या गाणं विण्णाणं, परतो सुणित्ता | सयं वा चिन्तिता एवं विष्णाणं 'जह मम ण पियं दुकवं जाणिय एमेव' अहवा जसणस्थि इमा णाती अण्णा तस्स कुतो सिया, लोए परिकहिइ सदिति पथक्वं सदेवमणुयासुराए परिसाए मझयारे तं चेव गणहरातिपहिं परिकहिाइ, तंजहा-सब्वे पाणा शण हतब्बा, जे पुण हणंति जाव उद्दवंति ते 'समेमाणा पलेमाणा' समेमाणा माणुस्सेण, पलेमाणा तेणेव, अहवा सद्दाइएहिं ॥१३॥ दीप अनुक्रम [१३९१४२] Ka पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [147] Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२२७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १२६-१२९] (०१) श्रीआचा- समेमाणा पलेमाणा, जं भणितं नस्समाणा, पुणो जाई तंजहा-एगिदियजाई बेइदियजाई तेईदियजाई चउरिदियजाई पंचिंदिय- जात्यादि गंग सूत्र जाति, अहवा जणणं जाती तधा कितं कर्म तं पुणो पुणो पगप्पंति-पगरिति, अयमपरो विकल्प:-सम्मत्चे वणिजमाणे तस्थिरी-10 चूर्णि: करणथं भण्णति-'दिडेहि णिवेगं गच्छिज्जा' दिट्ठा णाम पुर्व कुसत्थाणं मताई दिट्ठाई, तेसु कह गिब्वेदंगचिज, एते अस॥१३६॥ वण्णुपणीतत्ता पुन्यावरविरुद्धभासी मायिणो णिचाणं न गच्छंति, एवं तेसु णिब्वेदं गच्चिजा, न य अमिणवपन्नइयं विपरिणा | मेज, तत्थ णो य लोएसणं चरे, मिच्छत्तलोएसणा ण तेसिं सद्दहे, तत्थ आलंवणं 'जस्स गस्थि इमा णाती' इमा केवलणाणसुयणाणप्रत | णाती तस्स पुवाररबाहत्ता कुणाणाण गाती कुतो सिया?, दिढ सुतं सुतं दिटुं, वचसा संमें आयारकिरियाकरणं सुतं परोवदेसेणं NI सुतं सामिप्पाएणं जहा ममेत मतं, एतेसिमेव तिण्डं प्रकाराणं अण्णतरेग विसिह विविहं वा णाणं, लोगो छज्जीवनिकायलोगो, वृत्यक किं , कहिजइ, समेमाणा पलेमाणा, नेणेव कुदरिमणेणं अण्णोण्योग वा पलेमाणा, ततो अभिग्गहितकुदरिसणाओ पुणो पुणो [१२६ जाति, जाई संसारो, कम्मं वा पगप्पेंति-पकुवंति, मोक्खत्थमुत्थिता वा ण मुचंति, अहवा 'दिद्वेहिं पिन्वेगं गच्छिा ' दिट्ठा णाम १२९] पुवावरसंधुता बंधवा जहेते इहपि णो जणवयातिदुक्खपरिचाणाए किं पुण परलोए, एवं तेसु णिब्वेगं गच्छे, 'णो य लोगेसणं लोगो णाम सयणो, अहवा लोग हब लोगो ण णिच्छयतो कोयि सयणो, भगियं च-'पुत्तोऽपि अभिप्पायं पिउणोएस मग्गए वातु। Wसो सयणलोगो जइ इच्छति उप्पञ्चावेतुं तं तस्स एसणं ण चरे, तत्थ आलंबणं जस्स णस्थि इमाणाति' जस्स इहलोगे बंधवा दीप ण भवंति दुक्खपरित्ताणाए अस्स अण्णेसु जातिसु कई दुक्खं अवणेस्सति ?, तत्थ उदाहरण-कालसोयरियपुत्तो, जं दिलु तु । अनुक्रम तं तहेब ‘समेमाणा पलेमाणा' समेमाणा-समागच्छंता, तंजहा-पुत्तण भातिचेण भइणि तेण, एवं ते समागर्म काउं किंचिकालं || [१३९१४२] । Ka पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [148] Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१२६ १२९] दीप अनुक्रम [१३९ १४२] श्रीआचा रोग सूत्र चूर्णि ॥१३७॥ भाग-1 "आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२२७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १२६-१२९] A वसित्ता 'पलेमाणा' विमुचमाणा पुढो पुढो जाई पगप्पति-पिहप्पि अगाओ गतिओ गच्छंति, सकम्मेण पिहपिहा जातीयो कप्पेंति - पकुब्वंति, जह सउणगणा बहवे समागता पादवे रति वसिऊण किंचि कालं पगि जाव पुणो पत्रअंति, 'पुणो पुणो पुणो वा जाति जहा- एगिंदियजाई जाब पंचिदियजाई, अनंतसंसारं, पमचदोसा भणिता, तम्भया 'अहो य रातो य' अविस्सामं जताहिघडाहि, एवं अवधारणे, जम्हा एते पमत्तदोसा तम्हा जत, वीरो भणितो आयपरउवदेसओ 'सता आगतं' णिचं आगतं पण्णाणं | जस्स खणलचपडिवुज्झयणा णिचं अप्पमारण उडतो 'पमत्ते बहिता पास' जे विसयकमायपमत्ता असंजया गिहत्था अन उत्थिया बहिया धर्ममते । एवं पस्स, 'अध्यम से सता परक मेआसि' चि बेमि कहं णाम रागादिदोसेसु लंडणाण होजा?, पराणं परक्कमे, एत्थ तेलथालपुरिसेण दितो, जहा सो अप्पमायगुणा मरणं ण पत्तो एवं साहूबि सिज्झिस्सर, चउत्थज्मयणस्त पदमो उद्देसओ सम्मत्तो ४-१ ॥ उद्देमत्थाधिगारो निज्जुतीए वृत्तो, सुचस्स सुतेण सम्म अहिंसाइलक्खणे वतिरिचे सचरिचे अप्पमादो कायच्यो, अहवा 'अप्पमते परक मिआ सित्ति बेमि' पमत्तो य आसवति, अण्णहा णिस्सबतीति, अतो पुच्छा 'जे आसवगा ते परिसवगा ?' अडवा सम्मत्तं अधिकितं तं तु भृतस्थेण अमिगतो जीवपदस्थो पदमे अज्झयणे वष्णिओ, इह आसवो बनिअर निजरा य, आसवग्गहणा य पुण्णं पात्रं बंधो य सइओ भवति, निजरगहणा य मोक्खो य, जओ भण्णति- 'जे आसवा ते परिसवा' गतिपञ्चागतिलक्खणं, दव्यासको नदीसरादी भावासवो कम्मं, दव्यपरिसवो चालणी झरणाणि, भावपरिसवो कम्मरखवणा, एत्थ दुबिहा पुच्छा-अनुयोगपुच्छा अणणुओगपृच्छा य, अणणुयोगपृच्छा ताव जे चैत्र आसवा ते चैव परिस्सवा १, का भावणा ?, जे चैत्र आसवा हिंसाति पलायनादि आश्रवपरिअवता [149] ॥१३७॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: चतुर्थ-अध्ययने द्वितीय-उद्देशक: 'धर्मप्रवादी-परीक्षा' आरब्ध:, Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२२७-२३३], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३०-१३३] (०१) श्रीआचा- TEIT IS NOT चूर्णिः । ॥१३॥ प्रत वृत्यक [१३०१३३] त एव परिस्सवा अहिंसाति, भण्णति-यो, अणुयोगपुच्छाओ, जे आसवगा ते परिस्सवगा, जे आमवगा ते अस्सवा, अणासवा पलायनादि परिस्सवा, अणासवा अपरिस्सवा, अहवा सासवा परिस्सवा १ सभासबा अपरिस्सवा २, अणासवा परिस्सवा ३ अणासवा अप-10 आअवपार श्रवता | रिस्सवा ४, अहवा सआसवा अपरिम्सवा वितिया चउभंगी उच्चारेयच्या, तमेव एक वञ्जिता सेसगा भवंति । तत्थ 'जे अस्स वा ते परिस्सवा' परिमाणतो क्रियाविसेसती उवचयओ अवचयाओ भवंति, तत्थ परिमाणतो जावइया असंबुद्धस्स आसबहेऊ | ताबइया तबिवरीता संवुद्धस्स णिराहेऊ भवंति, जं भणितं-जत्तियाई असं जमढाणाई वत्तियाई संजमट्ठाणाई, भणियं चन्यथा | | प्रकारा यावन्तः, संसारावेशहेतवः। तावंतस्तद्विपर्यासा, निर्वाणमुखहेतवः।।१॥ क्रियाविसेसतोवि, जच्चेच असंजयस्स चिट्ठातिकिरिया अस्सवाय भवति सा व संजयस्स णिजराये, भणितं च-"तह य णिकुंटितपादो मारा मूसगं" साहू पुण हरिपासमितो णिज-| रतो, उवचय अवचयओवि संपराइयं अहिकिच जे चेच अस्सबंति ते चेव परिस्सर्वति पढमो भंगो, वितिओ प अपरिस्सवो इति अबत्थु, ततिओ अणासतो सेलेसि पडिवण्यो, चउत्थो अणासवा अपरिस्सवा सिद्धा, एते य पदे य संयुमकरे य घुत्ता, अस्सर्व निजरं च अधिकृत्य तिष्णि भंगा, चेवसदा अण्णे य, जीवजीवबंधमोक्खा, अहवा अण्यो अत्थ जे बंधमोकलस्प य गति ण यागंति. सम्म संगत पसत्थं वा बुझमाणा लोयं वा लोगोछजीवनिकायलोगो मणुस्सलोगो वातं आणाए अभिममिच, जं मणितं | णचा, पुढो वित्थरेणं पवेदितं, तंजहा अस्सवे तार णाणपडिणियत्ताए देसणपडिणिययत्ताए, एवं जधा अंतराइयस्स हेतू , निज-| रावि नबो चारसविहो, अहवा 'पुढोति सामिण को किचियं बंधति णिजरिति वा?, एवं जीव वियप्पो जाव मोक्खति, अर्ण0 तरसिद्धपरंपरसिद्धतित्थसिद्धअतित्थसिद्ध एवमादि, अहवा 'पुढोति अतीताणागयवट्टमाणेहिं मनतित्थगरेहिं जीवाजीवादिपपत्था दीप अनुक्रम [१४३ १४६] र पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [150] Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२२७-२३३], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३०-१३३] (०१) प्रत श्रीआचा परूविता, परूवितं पण वितंति एगट्ठा, एवं एयाणि पदाणि संबुज्झमाणो अण्णेसिपि अक्खाति, अबुज्झमाणो कि आघाहिति?,D प्रतिपन्नसंग सूत्र-णाणं से अस्थीति नाणी 'इहे'ति इई प्रवचने मणुस्सलोए था, केसिंचि माणवाण, जं भणितं-मणुस्साणं, अहवा माणवा जीवत्ति | संसारादि चूर्णिः | जीवाणं अक्वाति, किं अक्खाति १,'जे आसवगा ते परिस्सवगा','संसारपडिवण्णाणं' उमस्थाणं केवलीणं, तत्थ नेरदयाण | ॥१३९॥ ण केवल चरित्ताचरितं चरितं च, देवेहिवि णस्थि, चरिचं तिरिएसु णत्थि अतो मणुस्साणं अक्खातं, तेसुवि उद्वितेसु वा जाव सोवधिएसु वा, इह तु विसेसणे 'संबुज्नमाणाणं' सम्मं वोधिः संबोधिः, साय तिविदा-नाणाति, उबडितादी जति संबुझंति ततो तेसि कहेति, मुणिसुव्रतसामितित्थगरदिट्ठतो, विसिट्ठनाणपत्ताणं जं भणितं मेहावीणं, अहवा विनायति जेण तं विण्णार्ण, | कित, मणो, जं भणित-समणाण पत्ताणं, बोहिनाणियोः को विसेसो १, बोही तिविहा, विभाणं नाणविसेसो, भदन्तणागज्जुण्णिया पढ़ति-'आधाति धम्म खलु से जीवाणं संसारपडिवण्णाणं मणुस्मभवत्थाणं आरंभठियार्ण दुक्खुब्वेषसुहेसगाणं धम्मसवणगवेसगाणं निक्वित्तसस्थाणं सुस्सूसमाणाणं पडिपुच्छमाणाणं विष्णाणपत्ताणं' तं एवं धम्म कहिजमाणं सप्पभावजुतं,अविय 'अष्टावि संता अदुवा पमत्ता' पडिवअंतित्ति बकसेसं, दवभावअट्टो पुब्बभणितो, भावअट्टोऽवि पडिवाइ जहा चिलातपुत्तो, पमत्ता विसयमजातिपमातेण पमनावि पडिवअंति,जहा सालभदसिवभूतिमादि, किं पुण जे अणहा ?, जं भणित-विश्यनिरासा, जह इंदणागसिवातिया, अहवा अट्टाक्खिता तेऽवि पडियञ्जति वेयणामिभूतादि पमत्ता सुहिता, पचिया मणुस्सा सुहिता वा | दुहिता वा, अहवा तं एवं अक्खातं धम्मं अपडियजमाणा अट्ठा रागदोसेहिं पमना विसएहि अण्णा उत्थियनिहत्था पासत्थादओ वा| संसारमेय विसंति 'अहासबमिणति बेमि' अहामञ्चं इदमिति-सुयधम्म चरित्तधम्मं च, से बेमिनि कि ? भणितं वक्खमाणं १३९॥ वृत्यक [१३०१३३] दीप अनुक्रम [१४३१४६] र पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [151] Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२२७-२३३], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३०-१३३] (०१) उपक्रमादि प्रत वृत्यक श्रीआचा- च, एवं दुल्लभ सम्मत्तं लद्धा चरिचंचण पमाो कायव्यो, 'नाणागमो मच्चुमुहस्स उवत्थि' अहवा ते अदृ पमचे य एवं HD परिगणिता सहसेव संबुज्झति 'नाणागमो मरुचुमुहस्स' अहवा अट्टावि संता अदुवा पमत्ता अहासचमिणं धम्मं आयरतीति बकचूर्णिः सेसं, किं कारणं ? 'नाणागमो मच्चुमुहस्स' उवक्कमेणं णिरुवक्रमेण वा, तत्थ उवकमो इंडकससत्थरज्जू०, जाव पालणं णिरु॥१४०॥ Nवकमो, उभयहावि नाणागमो मच्चुमुहस्स, जे तु अट्टा पमचा अहा सर्च धम्म ण बुझंति ते 'इच्छापणीता' विषयकसायादि अप्पसस्थिच्छा जेसिं सावजकम्मेसु इच्छा फुरति ते इच्छापणीता, अहवा इच्छाए पेरिता 'वंका णिएता' को असंमो णिकेतोगेई माता गिहभूता, भंडआरंमर्थभकुंभेहिं वकमा णिकेतभूना, वको वा तेसिं णि केतो, अहासर्च धम्म ण पडिबजतीति वकृति, | काले गहिता कालगहिता, कतरेण ?, मच्चुकालेणं, अहवा अमुगे काले धम्मं चरिस्मामि मज्झिमे अन्तिमे वा वये, दवणिचयो | हिरण्णाति भावणिचयो कम्मं तहिं णिविट्ठा, जं भणितं तत्थ द्विता, ततो कम्मणिचयायो 'पुढो पुढो जाई कप्पंति' पिहु वित्थारे बहुबिई जाई एगिदियजाति बेईदियजाइ जाव पंचिंदियजाई, अहवा पुढो-पुणो २ जाति पगरेंति, पटिअति य-'एत्थ मोहे। पुणो २' एथंति कम्ममोहे संमारमोहे वा पुणो पुणो मिच्छत्तविरतिपमादयोगेहि मोई समजिगति, पढिाइ य 'पुढो पुढो । |जाई कप्पेति' जे अण्णउस्थिया वंकाणिकेता मिच्छत्तनिकेता ते पुढो पुढो ससिद्धृतजातियो पगप्पति-पंति, 'इहमेगेसिं तस्थ | तत्थ संथयो भवति' 'इहे ति इह मानुष्ये मिच्छत्तलोगे वा एगेसि 'तत्थ तत्थे ति तहिं तहिं मिच्छत्तकसायविसयाभिभूते दरिDसणे संथुति संथयो, किं पुण विसेसाणं पत्ताणं उपभोगो ?, सत्थागमातिपरिग्महि उद्देसिए ण दोसं इच्छंति, उद्देमयं प्रति पायसो | तिथियाणं संथयो, एवं पहाणादिदेहि सकारेम, लोगायतिया णं भणंति-'पिच मो(खा) व साधु सोभणे' एवमादि, सावजजोगेसु । [१३०१३३] ॥१४॥ दीप अनुक्रम [१४३१४६] र पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [152] Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२२७-२३३], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३०-१३३] (०१) स्पशप्रतिवेदनादि श्रीश्राचा संग सूत्र चूर्णिः ॥१४॥ प्रत | संथर्वति, जं भणित-संजुअंति, ते एवं मिच्छादिही जहा जहा भाविणी तहा तहा गतिसु उववर्जति, अहोववाइए कास पडिसंवे-100 दयंति' अहवा पुढो पुढो जाई पम्गप्पेंति, जं बु जारिसं जाई पगप्रेति तारिसं तारिसं जाई पप्प इहमेगेसि संथवो भवति, | इह संसारे संथुति संथवो, अप्पसत्थो नेरइओ नेरइयत्तेण, संथुवति णाम निद्दिसिजति एवमादि, पसत्थं तु देवो देवण, अहवा | समागमो संथवो, पुणरवि ते संसार संसरंति, अण्णमण्णस्स माइचाए पतिचाए संथुविहिंति, ते एवं संसारिणो जत्थ जत्थ उव|वअंति तत्थ तत्थ 'अधोववाइए' अध इति अणंतरे, अह ते सकम्मनिद्दिटुं अण्णतरं गतिं गया, उवयाते जाता उववाइया फुसंति, | जं भणित-वेदेति, अहबा फरिसो नियमेण सम्वेसि अस्थि, रसातिविसया केसिंचि अस्थि केसिंचि नत्थि, तत्थ नेरइएहिं फासा | सीता उसिणा य, असिपत्तकरकयकुंभीपागादि, एवं तिरियमाणुएहिंवि जहा सकम्माविहिते इटाणिवे, अहवा बहुणि हत्थछेयणाणि | | जाव तालणाईणि पाविहिति, सीसो पुच्छति-ते भगवं ! ता कनिकेयणिचयणिविट्ठा पुढो पुढो जाययो पगप्पंता तत्थ तत्थ संथवे । | करेमाणा अधोववातिए फासे वेदेमाणा सब्वे समवेयणा भवंति !, णो तिगडे समवे, कही, 'चिटुं कृरेहिं कम्मेह' चिदंति वा गादति वा एगट्ठा, जेत्तिया अज्झवसाया चिट्ठ हिंसातिकूरकम्मेसु पवअंति, विविहं परिचिट्ठति, णरगेसु जहनेगं दसवासस-17 | हस्साई तेण परं समयाहिया जाव तेचीसं सागरोवमाई चिट्ठति, 'चिटुं चिट्ठतरंति एत्थ इमाओ दो कारगगाहाओ 'अस्सण्णी | खलु पदम०' जहा ठिती तहा वेपणा, विणा चिटुं कूरेहिं जहा जहा तस्स हिंसादीणि ण अतिकूराई कम्माई भवन्ति, तंजहा-असण्णी | खलु पदम, एवं समिणोवि जहा जहा मंदझवमागा भवंति तहा तहा नेरइयाउहेऊसु वट्टमाणाविण चिट्ठति, न दिग्घकालट्ठिईएसु । | नरएसु उववअंति, ण वा अतिचिट्ठ वेदणावेदणं, एवं तिरियमणुय०, एवं सुभकम्मे सुवि चिट्ठ अकरहिं चिट्ठ परिचिट्ठति, 'एगे | वृत्यक [१३०१३३] ॥१४॥ दीप अनुक्रम [१४३१४६] र पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [153] Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२२७-२३३], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३०-१३३] (०१) जान्यादि श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥१४॥ ANITAMANNADANE प्रत वृत्यक D वदंति अदुवाधि नाणी' के एवं वकृति चिट्ठ कूरेहि कम्मेहि !, जं भणितं-सेवेति, जे अतीता ते भण्णं ति, एगे वदंति अदु वावि' एगे सम्मदिड्डी अदुवा-अहबा गाणी-सो चेव सम्मदिडी नाणी वदंति अदुवावि एगे, गतिप्रत्यागति०, सम्मट्ठिी एवं वदंति | त एव नाणी, अहवा एगेत्ति एगनाणी अदुवा विनाणी-अणेगनाणिणो तस्सिस्सा, को अभिप्पाओ, जहा केवली पण्णवेह नहा चोद्दसपुचीवि, आवा एगे रायविषमुको सो चेव नाणी, अहवा एगे एकिया मिच्छादिट्ठी, किंबटुंति ?-'आवंति केआवंति' आवंति यावतेत्ति वुत्तं भवति, केयाति-जावंतिया केई, लोए मणुस्पलोए पासंडलोए वा समणा परतिस्थिया अभत्ता वा माहणा धीयारा पुढो वा तं पिहप्पिह परोप्परविरुद्धं विकापसो वा 'से विद्वं च णे'जे तेसिं तित्थगरा ते भणंति-दिहूं, अम्ह सुतं, तस्सि स्सेहि मतं अमिप्पेतं, किंचि दिई सुतंपि नामिप्रेतं भवति, एतेहिं तिहिषि पगारेहिं णाते विष्णातं, अहवा दिट्ठति वा सुतंति वा Vविण्णायति वा एगट्ठा, उई अहं तिरियदिसासु पाणवगदिसाए 'से सबओं' दिसिविदिसासु सुपडिलेहिनं-सुदिष्टुं 'सच्चे पाणा' सन्चे इति अपरिसेसा, परेसिं प्रायसो किमिगमादी जीचा, तेऽवि किर पंचिंदिया, केसिंचि वणसतिमादि, तेवि पंचिंदिया एप, ते सम्वे सन्यहा सम्बकाल हतब्बा जाच उदवेपन्या, कई ते धम्मट्टिता पाणा इतना इति भणति ?, भण्णति-जे उदेसिय ण पडिसिद्धति, तफलं च पण्णेति, अतो जे पाणा हगंति ते अणुणायंति, जति उदेसियं पडिसिद्ध होतं तो तम्बही पडिसिद्धो होतो, माहणा पुण धम्म उदिम्स जणनिमित्तं एवमाइक्खंति एवं भासंति इतव्या जाब उपवेषना, एतं पुनभणितं, चोदिता वा परेहिं एवं भण्ांति-'एथवि जाण णस्थित्थ दोसो' अपि पदत्थे जहा अणुदेसिए नहा उद्देसिएपि तिकरणमुद्धना गस्थि अणुण्णादोसो, अणारियवयणमेनं, एवं मुणित्ता तत्थ जे ते आयरिया समणा य माहणा य ते एवमाइक्रवंति एवं भासंति, कतरेति ?, नाणदसणच- I [१३०१३३] ॥१४२॥ दीप अनुक्रम [१४३१४६] र पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [154] Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२२७-२३३], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३०-१३३] (०१) श्रीआचा गंग मूत्र चूणिः 11१४३1 प्रत वृत्यक रितआयरिया 'सिनि णिदेशे तं एवंविहं दरिमणदुदिलु च भे दुम्सुतं च मे दुष्णाय च मे दुनिष्णायं च मे जो तुज्झे एवं || आइक्सह एवं पण्णवेह एवं परूवेह जाव उद्दवेयना, एथघि जाणेह अस्थित्थ दोसो, अहवा एत्थंपित्ति जह एत्थं पाणातिवाए तहा जाव परिग्गहे, वयं पुण एवमाइक्खामो एवं पण्णवेमो एवं परूवेमो मब्बे पाणा सब्वे भूता ण इतम्या ण उद्दवेयम्बा ण अआवेयव्वा ण परितावेयष्या ण परिचेत्तव्बा, एन्थवि जाणं नस्थित्थ दोसो, आयरियवयणमेय, एते बुचमाणा ण पडिवोजा तस्थ उविकता कायब्वा, ण असंखडेयध्वं, ते य उडाटा जीवितातो ववरोविजा, जया तु विदुपरिस.ए तता 'पुवं णिकाय समयं' पुर्व णिकायेऊण समयपुच्चगमेव सबई कारवित्ता जहा तुज्झेहि सम्भावो अक्खातब्बो, पासणिये वा पुग्वं णिकायेतन्या, अहवा पुर्व छंति णियागं जंतेसिं अप्पणगंजो तेसिं समयो एकेकं प्रतिपन्ने पत्तेय 'हमो समणो माहणो' हे हरे हंभो आमन्तणे समणा | पासंडी माहणा-धियारा, कि सात दुक्खं उदाधु अस्सातं ? सातं पियं अस्सात अपियं ?, जति ते भणेजा-अम्ह दुक्खं सातं, तो बत्तव्वा | जो णाम तुझं आहास्वसहिसयणासणादीणि सुहकारणाणि देति सो णाम तुझं सुक्खं उप्पातेति, भत्तो ण दातम्ब, दुक्खं च उप्पायंतो सुई उप्पाएति, अध एवं चूया ण णो सातं दुक्खं, सुहं अम्हं सातं, जे भणितं-पियं, ते एवं चाइणो 'समित्ता पडिचपणे बूया' सम्म पडिवण्णो समियापडिवण्णो, को सो ?, साह, ते एवं बूया-जहा तुझं दुक्खं अस्सातं एवमेव सब्बेसि पागाणं | भूयाणं जीवाणं सत्ताणं, अहवा ते चेव सम्म पडिवण्णा भवंति. किमिती ?, जहा अम्हं सुहं सातं दुक्खं अस्सातं, ते कुतो तुझं अट्ठाए पचंति तेसिं पाणाणं, अहवा मन्चलोए सव्वेसि पाणाणं भूयाणं तं मरणदुक्खं अस्सातं, तेण णिबुई ण भवति, तं अपरिणिचाणं | महम्मति, मरणतुल्ण मयं णस्थीति अतो महम्मयं दुक्खंति, तदेव मरणं परितावणाति वा, एवं एते संदिट्टीएण हेउणा निग्गहिता [१३०१३३] ( ॥१४॥ दीप अनुक्रम [१४३१४६] र पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [155] Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१३० १३३] दीप अनुक्रम [१४३ १४६] भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [ २२७-२३३], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १३०-१३३] श्री आचा गंग सूत्र चूर्णि ४ अध्य० ३ उद्देशः ॥१४४॥ परिसाए परिगता ण किंचि उत्तरं, ण सकेति वा हेउं, मिच्छत्तपडिघाते य सम्मत्तं थिरं भवति, अतो परं उबालंभो, एवं बेमि ॥ चतुर्थ्याध्ययनस्य द्वितीयोदेशकः ॥ उद्देशामिसंबंधी एवं सम्म थिरीभूते अणवञ्जतवे पराकमितव्वं, तेण य सम्म सहगतेणं तव सक्खियं सुच्चति, तेण ततिए अणवञ्जतवो, एस उद्देस मिसंबंधो, सुत्तस्स सुत्तेण सन्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं च महन्भयं दुक्खति, एत पस्स व अनउत्थियाणं उपदेसो दिण्णो, इहबि सो चेव उवएसो बिसिस्स दिजति, 'उवेय वेतं बहिता य लोगं' पाणा भूता वा जीवलोगो तं इहावि उबेह, उब सामिप्पे इक्ख दरिसणे, इहेव इक्खाहि, अहवा उवेहादि एतंति जं उबकमो, बहिता सम्म नाणचरिचाणं लोगो मिच्छत्तलोगो तिनि तिसट्टाणि पादातियसयाई तदुवासिणो य, अहवा उवेहा अव्वाचारउवेहा, एतेसिं अभिगमणपज्जुवासणादिसु, जं भणितं अणादरणं, तम्मतेसु बुद्धि ण कुञ्जा ण वा तप्पूयं अभिलसे, जो एते उवेद्दति 'से सबलोपसि' | से इति णिसे, लोगो मणुस्सा वा पासंडा वा 'विष्णु'त्ति जाणगो, सव्यलोए जे केवि भूया तेसि अग्गाणीए 'अणुवीथि पास' अणुविचित्य २ अणुवीयि, एवं अणुचिंतिऊणं पेक्खमाणों, णिक्खितो दंडो जेहिं ते णिक्खिदंडो, दंडो घातो भणितं, तत्थ दन्नदंडो सत्यग्गिविसमादि, भावे दुप्पउत्ते मणो, 'ये केथि सत्ता पलियं जहंति' णिक्खितदंडो होऊण पलियं जहिता मोक्खं गच्छति, कतरे ते सत्ता?, णरा ण अण्णे, तेवि 'सुयचे' जे परा म्रुतच्चा ते परा पलियं वयंति, अच्चीयते तमिति अच्चा तं च शरीरं, व्हायंति सक्कारं प्रति मुता इव जस्स अच्छा स भवति मुतचा अहवा अच्ची लेस्सा सामता, जं भणितं अप्पसस्था मुता, अणत्रओ तवे कीरमाणे वा पमुदितलेस्सा ते ण संकिस्संति, अतो नरे तच्चे 'धम्मविउत्ति' अह सुयधम्मं अस्थिकायधम्मं च बंधमोक्खधम्मं वा धम्मं ॥१४४॥ लोकविज्ञस्वादि पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : चतुर्थ अध्ययने तृतीय- उद्देशक: 'अनवद्यतप' आरब्ध [156] Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१३४ १३६] दीप अनुक्रम [१४७ १४९] श्रीआचा रोग सूत्र चूर्णि ॥१४५॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [३], निर्युक्तिः [२३४], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १३४-१३६] विदतीति धम्मविदः, इति उप्पदरिसणा 'अंजु'चि उज्जू, किं ?, आरंभणिक्सितदंडा म्रुतच्चा धम्ममारचयति, नणु आरंभजं दुक्खं, आरंभाजात आरंभजं, असंजमातो जं भणितं परिग्गहा, तच्चैव दुक्खं-कम्मं, एगग्गहणे गद्दणं तञ्जातियाणंति आरंभग्गहणा अण्व आसवा, एवं गच्चा णिक्खितदंडो भवति 'एवमाहु' जं आदीये भणितं आहु एवं भणितु सम्मतं परमतीति सम्मदेसी, ते सब्बे पावातिया धम्मकुसला परिष्णमुदाहरति सबै अतीतानागतवट्टमाणा तित्थगरा, पत्रदंतीति पावातिया, जं भणितं वंभकम्मं, कुसला जाणगा, कुमा दब्बे य भावे य, दब्बकुसे लुणाति दव्बकुसलो, भावकुसला कम्मं तं दुक्खक्ख्यड्डाए गुणाति, जाणगपरिष्णाय जाणिय कुसला पञ्चकवाणपरिणमुदादरंति, अहचा सच्चे ते पावाइया तिनि तिसट्टा जे मोक्खवायिणो ते अप्पणप्पए दरिमणे बंधकसला, कुसलसि जाणणापरिण्या महिता, जहा संसारो भवति, इत्थी पुरिसा नपुंसगगरगादि, परिष्णागरणा पञ्चकखाण परिणा गहिता, गहि बंधे अपरिण्णाए मोक्खो परिण्णाओं भवंति, जेग सव्वकम्मक्खया मोक्खो, 'इह आणाकंम्बो पंडिते' इह पासंडेसु आणा उबदेसो तं सए सए दरिमण करवति, अश्या कुदिडीउ अवत्थमेव, कहं ?, इह अप्पाणं अण्णाणं चैत्र, तेण कुदिडिओ आणं प्रति अवत्थमेव, जे कुसला परिणमुदाहरति ते इह आणाखी पंडिते प्रतिवचने मोक्खकंखी, तदहं च अणवञ्जतवं उट्टिता, आणाकंखी आयरियडवदेसे, पावा डीणा पंडिता, ण कुदरिमणाण आणं कखंति, णिस्संकिताति, अणिहो रागदोसमोहे, अणिता विसयकसायमल्लेहिं वा अहवा पडिलोमअणुलोमेहिं परीसह उवसग्गेहिं रंगमलच्छसंगासा, मल्लावि केयि अपंडिया भवंति, केवि पडिहयावि पुणो पच्चुदारं करेंति, निरुञ्जमाओ अवत्थमेव भावमल्लायि केयि णिचं अध्पमचा, अणहितावि पुणो उअमंति, सेसा अवत्थमेव, कई रामादीहि ण णिति, एगमध्यानं एको अचितयो अप्पाणं समं पेहाए उबेहाए, किं सम्मं पेक्खति एकः प्रकुरुते कर्म के एक ॥१४५ ।। कुशलादि पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : [157] Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२३४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३४-१३६] (०१) श्रीआचारांगसूत्र चूर्णिः ॥१४६॥ प्रत वृत्यक [१३४१३६] तत्फलम् । जायत्येको म्रियत्येको, एको याति भवान्तरम् ॥१।। अहवा सरीरातोऽपि अण्णो अई, एवं जचा सरीरसंगोन कायब्बो, | कुशलादि जतो भण्णाति 'धुणे सरीरं दवेणं वण्णाति, भावे कम्मावकरिसणं, सीर्यत इति शरीरं, कतरं ?, कर्म शरीरं, तणणनिमित्तमेव सरीरे उवयार काउं भण्णति 'किसेहि अप्पाण' किसं कुरु सरीरं अप्पाणं बाहिरमंतरेण तवसा पतलूहअमिग्गहितेण अणवओण तवसा, जहा जहा सम्म उदनेण नवसा सरीरंगपि किसीभवति, तं च ण सहसादेव किसी काय जेण अकाले प्राणेहि विमुञ्चति, अतो भण्णति 'जरेहि अप्पाणं' अणुपुब्वेणं शरीरं किसीकरेंतो जरं पोहि अप्पाणं, अहवा ओरालियसरीरधुणणा कम्मशरीरे किस कुरु, जं भणितं-तणुप करेहि 'अप्पाणं' सम्बकम्मसरीरअप्पाणं जरेहि, जं भणित-खायाहि, अहवा धुणणंति या करीसणंति | वा एगट्ठा, दग्यकिसो सरीरेण वण्णेण वा, अप्पसत्यभाव किसो जस्स नाणादीणि किसाणि, पसत्यभावकिसो जस्स अण्णाणातिणि । किमाणि, भणियं च-"किसे णाम एगे किसे, किसे णाम एगे पलिए, बलिए णाम एगे किसे चउभंगो, दबकिसेणं भावकिसेण | य अहिगारो, जरहि सरीरमपाणं जरहि तवसा, निझरणा कम्मनिजरा भवति, तत्थ द्रव्यजरा जिष्ण कई जिष्णा सुरा जिण्णं | शरीरं सम्म आहारो जिष्णो अजिष्णो खुलातिरुपाकरोति-भवति, भावजरा कम्मक्खओ, ततो निवाण, कम्मअजिष्णोदया तु| | परगादिरोगो उप्पञ्जइ, एत्थ धृणणकसीकरणजरणेहिं दिईतो, 'जहा जुण्णाई कट्ठाई' जेणप्पगारेण जहा जिण्णाणं वार्दिक्येणं, A || तु तरुणमुकाणि, ताणि समारना ण लहुं डझंति, अतो जिष्णो रुक्खो जरासुको दबग्गिना शीघ्रं दाते, हन्वं बहतीति | इन्चबाहो, मिस मंधेति, एस दिद्रुती-सुत्तेणेव, एयस्स उत्रणयो एवं अत्तसमाहितो, एवं अवधारणे, एवं कम्मं दि8 अण्णाणाति| सारातो णिस्सारीभूतं तपरिगणा अमुं उमति, सो केरिसो जेण उज्झति ?-एवं अत्तसमाहिते' अपा समाहिती जस नाणा- १४६॥ दीप अनुक्रम [१४७१४९] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [158] Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२३४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३४-१३६] (०१) कुशलादि बीआचासंग खत्र चूर्णिः ॥१४७ प्रत वृत्यक [१३४१३६] |दिसु अपए वा जस्म समाहिताणि गाणातीणि सो भवति २ सुविसुद्धासु वा लिस्मासु आता जस्स आहितो, जं भणितं आरो- वितो, एवं वा अत्तममाहितो, अणिहो पुन्बभणितो, सो एवं अत्तसमाहितो अणिहो कम्मवरणथमुत्थितो संपरितासको 'विकिंच कोहति छ?हि, एवं एगग्गहे ग्रहणं माणमायालोभाण, जा सव्वं चरित्तमोहणिजं दंसगमोहणिशं च, मोहणिजे विसुद्धे अत्थतो सेसा कम्मप्पगडीओ विसोहियाओ भवंति, अविकंपमाण' मंदर इव बातवेगेण तहा, मिच्छादरिसणवातयेगेण सम्मदरिसणाओ अविकंपमाणो, बिसयकसायपातेहि चरिनाओ, दक्वं चिरं अप्पमाओ काउं, तं च ण चिरं, कहं , इमं निरुद्धाइयं' ''ति | माणुस्सगं, णिरुद्धं णाम परिसमयाओ उद्धं न जीविजति, 'सम्म पेहाप' सपेहाए, किं सम्म पेक्वति ?, जइ ताव नेरइयस्स जंतुणो, अहवा चरिमसरीरस्स ण पृणो आउगं भवतीति, तंपि समए समए णिअरमाणेहिं निरुद्धमितिकाउं केचिरं एतं तवचरणदुवं भविस्सति ?, अहवा सबभासवनिरोहो निरुद्धं काउं २, अहबा संजयाणं इमेण निरुद्रेण आउएण, जं भणियं परिमितेण, उपचित एतं 'छक्वं च जाण' दुक्समिति कम्म एतं जाणीहि, अथवा 'आगमिस्सं'ति इमाश्री भवाओ गरगादिसु उववभस्म आगमिस्सं. अहवा इह परत्थ य आगमिस्स, तं पंचविहं दुक्खं सोइंदियस्स० ते, तस्स फासो सम्वत्थतिकाउं भण्णति 'पुढो फासाई च फासे' पृथु बित्थारे अणेगप्पगाराई फासाई फुसंति तंजहा इत्थच्छिआदि, अहवा सीया उसिणा य फासा रोगफासा वा, अहवा पिहप्पिह इट्ठा अणिट्ठा य च सद्दा, इंदियाणुबातेण सदातिविसए अणिरुद्धअस्सया फासेंति, जं भणितं वेदेति, अहवा दुक्खं जाणिना, अहवाऽऽगमेस्सं पुढो फासाई फासेंति पिहप्पिहं बावीसं परीसहे फासेहि-अधियासेहि, एवं ते दुक्खं आगमिस्सं ण भविस्मति, काओ बालंबणाओ पुढो फासाई फासे ?-'लोयं च पास विफंदमाण' लोगो सम्यो जीवलोगो मणु ॥१४७॥ दीप अनुक्रम [१४७१४९] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [159] Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [३], नियुक्ति: २३४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३४-१३६] (०१) प्रत वृत्यक [१३४१३६] श्रीआचा-|| स्साई चिचिहं अणेगप्पगार फंदमाणं विफंदमाणं विसयणिमित्र किसिपसुवाणिजसेवाभारवहणादिपसु, एवं कामभोगतिसितगिदम्- IPA निवृतादि |यित्न उम्मत्ती वा फासे फंदमाणो, 'जे णिव्युडा पाहिजे इति अणुहिदुस्स णिबुडा णाम विसयकसाए विरागादि मिग-1 चूर्णिः ४ उद्देश: दसणपाचावगमातो य सीतीभूना, तत्थ पा रागादी य तिनि, मिच्छत्तातियावि तिष्णि, पण गंधा, विसयकसायहिंसातिषा य ॥१४८॥ | आसवा पावं, तेसु णिचुडा, जं भणितं-ण बट्टति, 'अणियाणा' नियाणं बंधणो, दब्बणियाणं कलत्तसपणासणधनादीणि णिग-IVA मडाणि वा, भावणिदाणं रागादि बंधहेऊ, दुविहेणावि णिदाणेण अणिदाणा, ते विविहं आहिता वियाहिता, जेण एवं सम्म पउ रोण तवसा अणिदाणनं भवति तेण भण्णति 'तम्हा' इति कारणा इति आमंतणे एवं जाणंतो सहहतो य विजं भवति हे विद्वन् 1,0 ण पडिसेहे, जहा 'असंजलंतत्ति संजलिंततो, जं भणितं रुस्सियतो, एवं माणमायलोभेसुवि, ण पडिसंजले, जहा गंतूण कोति पुणो एति सो वुश्चति पडियागतो, एवं संजलिऊण पुचि पडिसंजलिज, बहिता लोगविसयाणं वट्टमाणो संजमतवणियमसंवरेसु || ठितिमा भविजासिनिवेमि ।। चतुर्थाध्ययनस्य तृतीय उदेशकः ॥ | उद्देसत्याधिगारो णिज्जुनीए वृत्ती, जहा ततिए अणवजतबो, चउत्थे तेण च तवमा आवीलेयचं कर्म 'उसंमि चउत्थे। कम्मं आवीलए सुयतवेणं', सुतग्गहणा सुयमेव गहितं, तवग्गहणा सेसतवभेदोदर्शितो, तत्पुरुषसमासोवा, सुत्तसंबंधो परंपरसुत्तसंबंधो य अणंतरसुतसंबंधो य, 'ण पडिसंजलणे केहि ण पडिसनले जहा असंजतने सरीरसंबंधघडामिन रसायणव्यायामादीहिं संजलितं वा ण एवं तहा पडिसंजले, इहेवि सरीरं आत्रीलए, जिइंदियस्स तु मणो त जाव झीणं, विसेसेणं अन्भुञ्जयमरणे, | अहना पुच्वं मुरण सुतअणुपरोधाइतवेण, अम्मुञ्जयमरणकाले तु संलेखणापुब्बएण तवसा, तदणुपरोधाश्च सुतेण साणेण, परंपर- ॥१४८॥ दीप अनुक्रम [१४७१४९] १ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: चतुर्थ-अध्ययने चतुर्थ-उद्देशक: 'संक्षेप वचन' आरब्धः, [160] Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२३४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३७-१३९] (०१) आपील नादि प्रत वृत्यक [१३७१३९] श्रीआचा सुत्तसंबंधो 'जे णिबुडा' णिचुडो भविता संबरितासबो आपीलए पपीलए, दयावीलगा जहा अल्लकासायि आवीलित्ता मुञ्चति, रांग सूत्र- भावे सुततवेणं आवीलए सरीर कम्मं च, मिस पीलणे पीलणे पोलणा, जहा वयो ताव णिपीलिअति जाब हिस्सेसो पुन्यो । चूर्णिः णिचुडो भवति, अण्णहा ण रज्झति, भावे सुततवेहिं गिपीलए, जहा अहिगं दाहो निदाहो तध अधिगं पीलणा णिप्पीलणा, दब्बे ।।१४९।। वत्वइक्षुमादि भावे असेसं कम्मं जीवाओ गिप्पीलए, अहवा ईसी पीलणं आवीलणा जाव सेहे, तेण परंपरवीलणं, संलेहणाकाले णिप्पीलणं दुविहस्सवि सरीरस्प, अहवा आवीलणं जाव वीतरागो, उवसामेंतो य पीलेति 'जहित्ता पुब्वसंयोग एवं चेव पुवं भणियब्वं जहिता पुब्बसंजोगं पच्छा आलिए, भण्णति लोगे दिढतो, जहा आहारपत्तं आहारेति, स एव अत्थो, एवं जहिता पुन्च| मायतणं आवीलेयचं, आपीलेपन वा जहिला पुबमायतणं, अतो दोसो, तत्थ पुनमायतणं सयणगिहाति अतंजमोवा, तम्सवि "अप्पा रागादीया गाहा, तदेव पुब्धमायणं छड्डिचा आवीलए ण केवलं लिंगमत्तधारी 'हेचा उवसमा' 'इहेति इहं प्रत्रचने हेचा-आगंतुं उनसमो इदियदमो णोइंदियदमो वा, आवीले इति चट्टति, उपसंतस्स य अचिरा कम्मक्खओ भवति, 'तम्हा अविमणे वीरे' तम्हा कारणा विगतो मणो जस्स स भवति विगतमणो, जं भणितं-अरतितोगभयं समावणो, ण विमणो अविमणो, वीरो पुब्बभणितो, अचिमणत्तातो य सारते सहिते समिते, अच्चत्वं रतो मुआरतो, सारतो तये धम्मे वेरग्गे अप्पमाए य नाणा तितिए समितिगुत्तीसु य, अत्थि पुण कोयि दवाययणं अजहित्ता आवीलेति जहा भरहो, तबणियमसीलभावणा वीसं जिणणाम ॥ हेतू य, एतेसु रतो, णीलवणगतो व मातंगोल पमुदितो तवे सदा आवोलए, ण अवसट्टो भबिज परामियोगेण वा, सहितो नाणा| तितिएणं, समितो समीतीहिं 'सदा' इति जावजीवं, जते इति आतोबदेसो, एवं पुणो २ आवीलए हेचा उत्सम अविमणे सारते, दीप अनुक्रम [१५०१५ Ka पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [161] Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१३७ १३९] दीप अनुक्रम [१५० १५२] बीजाचा रांग सूत्रचूर्णि ॥ १५०॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [४], निर्युक्तिः [२३४...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १३७-१३९] स एव अत्थो अगसो अघिजमाणो पिट्टपेसणो निरत्थगो ?, भण्णति, 'दुरणुचरो मग्गो वीराणं' पच्छा चरति अणुचरतीति | दुक्खं अणुचरतीति दुरणुचरो, मग्गो पंथो, णिचं, अप्पणिज्जे य गुरुसु य बहुवयणं तेग वीराणं, सामिस्स मग्गो, सव्यतित्थगरागं वा, केण दुरणुचरो ?- जेण अणियगामी, ते जहा रोचिते बिसए छड्डित्ता पुणो न आकंखंति, वीरा तवणियमसंजमेसु ण विसीतंति अणिय कामी, तमिस्सावि वीरा एव, जतो य एसो दुरणुचरो वीरपुरिम अतो मग्गो तेण पुणो २ सिस्सोच्छाहणं कीरति'आवीलए', एवमादि, 'विगिंग मंससोणितं' विगिंच-उज्झ, किं आयुधेणं छिंदिय विगिंचियन्वं १, मंसं सोणितं उदाहु सिरादीणि, ण सोणितमेव केवलं, ण तु मंसं तं च ण, एवं सरीराधिडागा धम्मस्य, सुततवेण पुण्योवश्चिनं विगिंच, शिब्बलं आहारए जेण सोणित उपचयमेव न भवति, सोणिते य अवचिते तप्पुवगता प्रायेण मंसं अवचितमेव भवति, तस्स अवचरण मेतो अव चिजति जाव सुकं, अंतो य आहारो भवति, जो एवं आवीलेति नागातिजुत्ताणं वीराणं मग्गं पडिवो 'एस पुरिसो दविए बीरो' एमो जो भणितो पुरि सयणा पुरिसो दत्रियो - रागदोसविमुको वीरो पुष्वभणितो, एस चेव आदाणिओ, आदेयो आदाणिओ, जं भणितं गेलो, अढ़वा जो हितो, आयहितो आताणियो, अहवा आदाणाणि नाणादीणि, आदाणप्पयोजणी आदाणडिओ बा, विविधं अक्खाओ विवाहितो, सो पुरिसो सो दवितो सो बीरो सो आदाणिओ, कतरो १, 'जे धुणाति समुस्स दव्वसस्सओ सरीरं भावे कोमाणमायालोभा, सव्यो वा मोहो, भणिता अप्पमत्ता, विवरीता पमत्ता, केयि आतानियावि भविता वसिता बंभचेरेणं आधार एव तत्थ केयि आचारमंतो भविता 'णेत्तेहिं पलिडिण्णेहिं' जयंतीति णेताणि चक्खूमादीणि, कई चक्खुजाणि ताणि १, णणु मदेणाविधति गंधेण पित्रीलिया गुलमभिसंसप्पति रसो तत्थेव फरिसी अंधो रज्जु गच्छति, पातकरि दुरदुरत्वादि [162] ॥ १५०॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२३४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३७-१३९] (०१) गंग सूत्रपूर्णिः प्रत वृत्यक [१३७१३९] सेण वा पहे गच्छति, भावे नाणादीणि मोक्स पयंतीति, जेसि संजतने दो ताणि ताणि छिष्णाति आसी, मणितं जिताणि,DI आदान LAश्रोतआदि त एवं केयि परीसहोदया भावणि नेहि छिपणेहि किम सो तेहि मच्छिता जाच अज्झोपवण्णा'आताणसोयगदिता' आताणकम्मं संसारचीयभृयं तम्स सोताणि गगातीणि तिण्णि, दोहि आगलितो बालो, 'अघोच्छिन्नबंधणों' दवबंधणं सयणधणादि, भाये 'रागातीया तिमि गाहा, अणभिकंतसंजोए' अमिमुई कतो अमिकतोण अमिकतो अणमिकतो जंजोगो दन्ये, पणधअमित्तपंधरा खितं दुपयानि कवियदुस्साति अह दब्बे संजोगो, रागदोसादीयो भावे, सो य मन्झिमे पच्छिमेवा वये अमिकमिजत्ति, णाभिकतो अणमिकतो 'अंधतमस्सऽवियाणतो' अंधस्स तमस्स, तदिति जंति वसित्ता भनेरसि आताणसोपगढिते अणमिकतसंजोए पुणरवि गिहे आवसति, एतं तस्स अवियाणणा, तत्थ अवाया भवति, पढिाइ यतसि अवियाणतो' तमंसि नमपडलमोहपलिन्छ नस्स असंजमाए अयाणगस्स, एवं तस्स उत्पथप्रतिषभस्स तित्थगरआगाए अबकमाणस्स बहुम्मुषस्सावि | संतस्स 'आणाए लंभो णस्थित्ति बेमि' आणा सुतं तस्स लंभो णिजस ततो मोक्खो, से तस्स आणालभो नस्थि, अदवा 0 'सवणे नाणे विभायो'उत्तरुत्तरलमो, सो तस्स बंभचरणे अपमिकंतसंजोगस्स पत्थि, भणिता प्रमादिनी, तब्धिवरीआ अप्रमादिनो, | तिसुवि कालेसु विसयणिगसा, जतो सुन्ने जस्स णस्थि पुरे पच्छा मझे वा' जस्स जओ जेसि वा पुरा णाम पुज्छ सुत्नेसु विमएसु | पुब्बतरपुण्यकीलिताणुस्मरणं, पच्छा णाम एस्सकाले सुए परुं परारिं वा भोक्खामि, परलोइए दिव्यमाणुस्सेहिं णिदाएं करेति, | जम्म अतिकते अणागते वा काले विमयासंमा गस्थि तस्स परमणिरुदत्ता वट्टमाणकाले मजझे कृतो सिपा, न सिया विसयासेति। बकसेसो 'से हु पगणाणमंते बुद्धे' म इति विसयनिरासो हु पादपूरणे पणा अस्स अन्थीति णिल्छयणयस लोगो पण्णाण- ॥१५॥ दीप अनुक्रम [१५०१५२] Ka पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [163] Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१३७ १३९] दीप अनुक्रम [१५० १५२] श्री आचारांग सूत्र चूर्णिः ॥१५२॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [४], निर्युक्तिः [२३४...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १३७-१३९] मंतो सो सम्मद्दिड्डी, पुढो य जो 'आरंभोवरतो' आरंभो णाम असंजभो ततो उबरतो, अहवा विसयकसायनिमित्तं आरंभे पवतति, तं जस्म णत्थि पुरे पुच्छा वा सो पाय आरंभाओ उवरमति, एतदेव य तस्स सम्मतं 'एतं च सम्मं पासह' उमेवि पेक्खधउबलभधा, जं वृतं वृत्तमाणं वा, तंजहा 'जेण बंधं वधं घोरं परितावं च दारुणं' बंधा णिगलादीहिं, बधो कसातिएहिं घोरंदारुणं, जं भणितं निरविक्खं, समता तावो परितावो, बंधवहाणं एगदेसेऽवि तावो भवति, परिताबो तु सव्व सरीरदाहातिसु, जतो मरणंपि भविजा, अहवा बधो तालणे मालणे य, तालणे ताब दंडेहि तालितो बहितो वा, परिताको तु माणस एव, वयंति य'किं एवं परितप्पसि' तं आरंभ असंबुडो सो ताई करेंति जेण बंधं वहं घोरं तं च सोतं बज् अन्तरं च, बाहिरं मातापिताति अमितरं 'रागादियाण' गाहा, बज्झसोयणिमितमेव अंतो सोताणि अयं कुणति, तं 'पलिछिंदियाणं' जं भणितं तोडित्ता, 'णिकम्मदसि'त्ति णत्थि अस्स कम्मं तहिं वा कम्म णिकम्मा, को सो ?, मोक्खो, तं णिकम्माणं पश्यतीति, ण मोक्खं अंतरेण अन्नं किंचि पस्सर, तचित्ते तम्मणे तसे तम्मेतं तस्स हेऊ य परमति, जं भणितं साधिति, लोगे विस्तारो भवति, ण एसो किंचि अण्णं पस्सति, कोऽभिप्यायो ?- दिट्ठेऽवि अणात, एवं सो निकम्मं चैव एकं पेक्खति तस्साहणाणि य, सेसं पेक्खतोऽविण पेक्खति, णिकम्मंसो वा जया भवति तता पेक्खति, जं भणितं खीणावरणो, तं कत्थ पासति ? कत्थ वा निकम्मादरिसी भवति ?'इह मeिry' मरतीति मच्चुया, मणुस्सेतु चेव एगे सुणिकम्मदरिसी भवति इह वा प्रवचने, सो एवं णिकम्मदरिसी कम्मुणा सफलं दट्ठे, जं भणितं अवंझ, 'पायाणं च खलु कम्माणं पुच्चि दुचिन्नाणं०' अहवा सुहाणि सुहमेव फलंति, असुभाणि असुभमेव 'ततो' इति कम्मअस्स वा 'णिज्ञाति' विरमति, वेदे जेण सो वेदो-मुत्तं वेदं विदंति वेदवी, भणितं सम्मतं इदाणि सम्यक पश्यता [164] ||| १५२|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२३४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३७-१३९] (०१) प्रत वृत्यक [१३७१३९] | तफलं-'जे खलु भो! धीरा' 'जत्ति णिइसे खलु विसेसणे, किं विसेसयति ?, जुद्धवीरा तबोवीरा 'भो!' इति आमतेण, | युद्धवीरादि श्रीआचारांग सूत्र- TA समिता ईरियातिहिं सहिता नाणादीहिं 'सब्बता' सम्बकालं जया समितिगुत्तीसु, संथदं गाम संथर्ड, जं भणित-निरंतरं, नित्य चूर्णिः कालोवउत्ता, पुथ्वावरवित्थरदसणा वा संथडदंसिणो, अप्पणा उवरता पावकम्मेहिं आतोपरता, जं भणितं न पराभियोगेणं ण वा ॥१५३॥ | इस्सरपुरिसवसा 'अहा तहा लोग उवेहमाणो' जहावहितं कम्मलोगं भवलोग उविक्खमाणा, जं भणितं अहातचं पेक्वन्ताणं सम्मत्तपभावणत्थमेव 'पाईणं जाव उडीणं' रीयंतामिति वाक्यशेषः, अहवा सव्वासु इति सव्वंमि विपरिचिटुंसु, इति पदरिसणत्थं, । एवं अणिययवयणं सच्चं, अहबा सच्चोत्ति संजमो वुत्तो, तित्थगरभासियं वा सम्म वा भवे सचं, विसेसेणं अतिसएण वा चिदिसु | विपरिचिटुंसु, अतीतकालग्गबणा तिकाला मयिता, अतीतकाले अर्णता विपरिचिद्विंसु बट्टमाणे संखिजा पंचसु भरहेसु पंचसु IM | एवरएसु पंचमु महाविदेहेस, अणागतेऽवि काले परिचिहिस्संति, मा तुम चिंतेहि अहं एको दुकर तबसंजमं करेमित्ति, एवं तेसिं भगवंताणं गुणजाइयाणं साहिस्सामो, जं भणितं अक्खाइस्सामो, अहवा साहिस्सामि पसंसिस्सामि परूविस्सामि, किंच-न सम्मईसणं मुइत्ता अन्नं लोगेऽवि कजं निचं अस्थि, सम्म नाणं च तवसंजमे विरायति पावकम्माई, संजमवीरियजुत्तो वा वीरो बिरतो वा पावातो, तेण वीरा समिता सहिता जता पुब्वभणिता संथडं णाम निरंतरं, दब्बादि दवओ णं केवली सव्वदब्वाई जाव सब्वभावे | सेसं तहेव, जाव अधा तहा, तेसि एवंगुणजातीयाण, अणेगे एगादेसेणं पुच्छा 'किमधि उवाही पासगस्स! किमिति परि| पण्डे, जहमणितेसु समचातिगुणेसु बमाणस्स उबही द्रव्यभावे पासगो-जाणगो, 'अह णस्थि' पुच्छावागरणं ण विमति जेण| पुणो संसरेआ इति, गतो अणुगमो, इदाणि णया, 'णायम्मि गिहियच्चे अगिहियचम्मि चेव अत्थम्मि,' गाहा 'सव्वेसिपि ॥१५३|| दीप अनुक्रम [१५०१५२ Ka पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [165] Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१४० १४५] दीप अनुक्रम [१५३ १५८] श्रीआचा रोग सूत्र चूर्णि: ॥१५४॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [ २३४- २४९], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १४०-१४५] गयाणं' गाहा। एयाओ गाहाओ पढितसिद्धाओ चैव ॥ समाप्तं चतुर्थमध्ययनं सम्यत्वाख्यं समाप्तम् ॥ अज्झयणसंबंध-सम्मतं वणितं तं चैव सव्वलोगसारं तप्पुथ्वयाणि य नाणचरित्चाई, तत्थ णाणं तदंतरगतमेव इदाणि चरितं वणिजति, अहवा जेण सम्मत्तचरिता वण्णिअंति तदेव नाणं, सुतसंबंधो 'अग्घाति नाणं वीराणं सहिताणं' चरितं गहितं, चरित पालणत्थमेव अचरित्तीणं इद दोसा वणिअंति, तंजहा- 'आवंती के आवंती', भणितो संबंधो, दारकमं दरिसित्ता अत्थाघिगारो दुविहो - उद्देसत्था हिगारो अश्यणत्थाहिगारो य, तत्थ अज्झयणत्थाहिगारो लोयसारता विचितियव्या, उद्देसत्थाहिगारो अोगविहो, पढमे हिंसारंभं वष्णति, यमत्थं च हिंसादीणि कम्माणि करेति ते विसए वण्णेति, इडाणि रागदोसे हेऊ, विसयणि| मित्तमेव एगेसिं एगचरियं वण्णेति तिनि अहिगारा, बितिए 'विरओ सुणी भवति'त्ति, कुतो विरतो १, हिंसाविसयादिएहिं अप्पसत्थेगचरिताओ य, तंजहा- एत्थोवरए तज्झोममाणे अविरतवादी परिग्गहितो य, एतदेव एतेसिं महकभयं ततिए एसो अपरिग्गहोति, तंजहा-आवंती एतेसु चैव अपरिग्गहावंती णिच्छिन्न कामभोगति मुणी से भवे अकामे अझंझे, चउत्थे अव्वत्तस्सेगचरस्स पचवाया दरिसिया, तंजहा दुजातं दुप्परवतं, पंचमे हरतोबमा 'से नेमि निसअतावि हरतो तवसंजमगुचे' ति ते पास सव्वतो गुत्ते, 'णिस्संगत 'त्ति 'सहिस्स णं समणुष्णस्स संपव्ययमाणस्स' एवमादि, छड्डे उम्मग्गो वजेयथ्यो, तंजहा आणाए अणुत्रडिता, 'रागदोसे 'ति उसोता अघसोता तिरियंसोता विवाहिता, णामनिष्फण्णे दुविहो णिक्खेबो- आदाणपदणामणिक्खेवो य गुणणिष्फण्णणामणिक्खेवो य, आदाणपदेणं आवंती युद्धति, तेण ण अत्थाधिगारो, गुणणिष्फण्णे लोगमारविजयत्ति णामं तेण लोगसारविजएहिं अहिगारो, लोगस्स चउत्रिहो णिक्खेवो पृथ्यं भणितो, सारो चउन्विद्दो णामादि, तन्थ दव्वसारो सामित्तकरण अधियरणेमु उद्देशा [166] र्थाधि ॥१५४॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : पंचम अध्ययनं 'लोक्सार' आरब्ध:, Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२३४-२४९], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४०-१४५] (०१) स प्रत वृत्यक [१४०१४५] श्रीबाचा- एगत्तपुहुनेण, सामिचे एगने घतस्म मंडो सारो, पहुचे रुक्खाणं सारो, करणे मणिसारेणाभरणेण सोभती राया, बहुते मणि-D| सारादि रांग सत्र-10 | सारेहिं सोभति, अहिगरणे एगते संथडदहिमि कुसुमं उद्वितं, बहुत्वे संसारेसु कुलेसु दिव्यं पडति, अहवा दबसारे इमा गाहा | चूर्णिः सत्तहिं पदेहि अणुगतना 'सबस्मथूलभारिय' (२३९-१९७) पुनद्धस्स पच्छिमद्धेणं विभासा, तंजहा-सब्बस्सं जहा कोडि-| सारं कुलं, धुल्लसारं भेंडें एरंडकट्ठ वा, जस्म वा जे सरीरं धुल्लंण किंचि विष्णाणं अस्थि सो थुल्लसार एच, केवल भारसारो पत्थरो बहराति, मज्झसारो खइरो, देससारो वंझो(अंयो) जं भणितं-तयासारो, पहाणसारो जत्थ पहाणो सचिनाचिचमीसाणं दव्याणं, | सचित्ते पहाणो दुपयाणं भगवं तित्थगरो तदणंतर चक्की तस्याप्यनन्तरं वासुदेवबलदेवा, चतुष्पदाणं सीहो, अपदाणं चंदणरुक्खो, M| अचिचाणं वेरुलिओ, मीसयाण स एव आभरणभूसितो गिहवासे तित्थगरो, सरीराणं ओरालियं सारभूतं, जेण सिज्झति, कसिणं वा सुहं अहिंगच्छिजइ, भावे 'फलसाहणता'गाहा (२४०-१९७) भावे फलसाहणता सारभृता, तत्थ फले कम्मक्खयो, कम्म वयस्म फलं सिद्धी अब्बाबाइसुहं, तस्स 'साहणता नाणदसण अद्धगाहा, चउमुवि एगतं, कम्हा भावसारेण अहियारो?, भण्णति'लोयम्मि कुसमएसु य' गाहा (२४१-१९७) लोगो ताव अवीति-तिण्हं आश्रमाणां गिहाश्रम एवं प्रधानो, सो सेसअस्समेहि उवजीविजइ, ततो य तेसि उप्पत्ती, कुसमया तिणि तिसट्ठा कागपरिग्गहकलंकलग्गा, संखा ताव पचाण उपभोगो, ताव सावि कामे सेवंति, भिक्खुगा विहाराहारसरीरसकारकलंकलम्गा. तहावि कालदोसेण ते पुजंति, दोहिं ठापेहिं दुस्सम ओगाई जाप्राणिजा, तंजहा-अधम्मे धम्मसण्णा० असाह पुजंति' अतो ते निस्मारत्ता ण आश्रयितव्याः, सारो तु आश्रयितव्य, सो इह परत्य य हितो, सो य नाणदसणतवचरणगुणा हितहाए, जतो. एवं तेण 'जहिऊण संक' गाहा (२४२-१९७) संकंति वा खंति वा, दीप अनुक्रम [१५३१५८] JAmir पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: पंचम-अध्ययने प्रथम-उद्देशक: 'एकचर' आरब्धः, [167] Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२३४-२४९], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४०-१४५] (०१) प्रत वृत्यक [१४०१४५] श्रीआचा- अहवा संगपदं तं जहिऊण इमं सारपदं गहेयव्यं, किंत, सम्मत्तं चरितंच, तत्ताणं अत्थाणं सद्दहणं, तसं जीवादि, जेण भण्णति- तचार्यजीवत्थिय परमपदं, अजीवावि अत्थ परमपयं, एवं नव पयत्था, चरिपि संवरपदत्ये पविसति, तत्थ जयणाए संबरो भवति, श्रद्धादि ॥१५६।। रागदोसवजणे जतंति, जहा 'सद्देसु य भद्दयपावएमु जाव फासेसु' आह-भणितं भगवया भावसारो चउब्धिहो, तं किं एयाणि PA तुल्याणि अह एतेसिपि किंपि सारभूतं अस्थि , अतो पुच्छा-'लोगस्स य को सारों' गाहा (२४३-१९८) बागरणगाहा | । (२४४-१९८) सुत्तेणेव-लोगस्स धम्मो सारो, कतरो ?, जहणो, तस्स विण्णाणं सारो, जेण णअति सेसं कंठथं तत्थ उत्तरुत्तर सारतो 'कम्मविवेगो असरीरया य' गाहा, भणितो सारो, इदाणि विजतो वयेते, जं भणितं-मम्गणा, सो जहा लोगविजये, गतो Aणामनिष्फण्णो । इदाणिं सुत्तफासियनिज्जुनीए, सावि जत्थ 'इहमेगेसि एगचरिया भवति'चारो चरियावयण' गाहा, चारोचि IN AN| वा चरियत्ति वा एगट्ठा, बंजणणाणतं, तेण चारे णिक्खित्ते चरिया णिक्खिता एव भवति, चारो छब्बिहो-णामाति, दग्वे पति-IV. | रिनो चारो अणेगविही, तस्थ जले थले वा दारुसंकमो कीरति, थले णगरदुवारविसमेसु सगडरथमादिया दबचारा, जले संकमो | कीरति, फलरण वा रज्जए वा णावाए वा चरति, खेते जावइयं खेनं चरंति, काले जावतिएण वा कालेणं, भावचारो पसत्थो||| अप्पसत्थो य, भावम्मि नाणदसण'अद्भगाहा (२१६-२०२) अप्पसत्थो अन्नउत्थियनिहत्थाणं, पसत्थो साहूणं 'लोगे चउ| बिहम्मि गाहा (२४७-२०३) चउबिहो कसायलोगो, तत्थ कह चरियवं साहुणा ?, होतितित्ति(घिई)अहिगारों' अकुस्समाणेण वा आहणिजमाशेण वा ण रुस्सियन, ण माणो कर्तव्यो, अलाभपरीसहेण या वाहिजमाणेण ण माइवाणेण ओभासियवं, अनउस्थियपूयाओ वा ददलु ण तासु मुच्छियवं, एवं सम्वत्थ धिती भावितव्या, नाणचरणेसु उअमियब्वं, तबोकिलंतेण धिती | ॥१५६॥ दीप अनुक्रम [१५३१५८] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [168] Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२३४-२४९], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४०-१४५] (०१) लोगविपरामर्शादि प्रत वृत्यक [१४०१४५] धीबाचा कायब्वा, हिंसातिसु पाचकम्मेसु उवरती कायच्चा, अणियतवासिणा भवितब्ध, हरतम्भूतेण परतिस्थिरहिं चोइजमाणेण अस्खोरांग सूत्र भेण नाणंतरादिसु णिकंखितातिणा भवितव्यं, सारपद जुत्तेण भवित्ता उम्मग्गा बञ्जयव्या, पिंडत्थो रागदोसविमुक्केण भवितव्वं, चूर्णिः 'आवंती केयावती' अमिझत्ताए जावति, असंजता इति बुत्तं भवति, केावंते'त्ति जावतिया तीतानागतवट्टमाणा केयि असं१५७॥ | जता मणुस्सा सब्बजीचा बा 'लोगंसि विप्परामुसंति' लोए सव्वलोए वा परामुसिजंति, लोगे वा छकायलोए परामुसंति, लोए | वा गिहस्थअनउस्थियलोए विविहं परामुसंति, जं भणित-घातंति, अहवा परामुमणं आरंभो, जं भणियं-एतेसु चेव आरभति,एत्थ सक्खी भदंतनागार्जुनाः, पढंति-'जावंति केयि लोए छक्कायं समारभंति' अतो परामुमणं आरंभो, तत्थ आरंभमाणा | केयि केयि संघातं जुजंति, केयि परिताविति, केइ उद्दविजंति, जोगतिगकरणतिगेण, ते पृण समासओ 'अट्ठाए वा' अर्थधर्मकामनिमिर्च पुढवि समारभति, करिसगादि, धम्मणिमित्तं सोयि मट्टियाति कामनिमिर्त मुरवादि, एवं छसु काएमु जोएयचं, सरणिपाणियं दगतोगरियादि 'पहाणं मददप्पगर०२, इट्टियागार लोहागार अग्गिहोओ वा नेऊ ३, एवं वाउवणफतितसेसु, एवं | | मुसावातादि ४, आतपरउभयहेतुं अट्ठा, सेसं अणट्ठाए, केवलं वेराभागी भवति, ते एवं अट्ठाए अणट्ठाए य आरंभप्रवृत्या जोगत्रिककरणत्रिकेण 'एतेसु चेच विपरामुसंति' एतेसुति एतेसु छसु जीवनिकाएमु विपरामुसंति, जं भणितं आरभंति, अहवा एतेसु चेव उववञ्जित्तु अप्पाणं विविधेहिं विपरामुसाति, जं या छक्कायवहोचितं कम्म, तेसु चेव काएसु उववाजिता तेहिं पगारेहिं । LI उद्दविजमाणा परामसंति य, दक्खं भवति, सो किं एवंविहाणि कम्माणि करेंति जाई काएहिं विपति ?. ततो बुञ्चति-'गुरू से |कामा गुरु इब दुचया दुक्खं अप्पसत्धेहिं लंपिजंति, जो जस्स अणतिकमणिजोसो तस्स गुरू, भारियाउत्ति वा सुज्वति, कामा |१५७|| दीप अनुक्रम [१५३१५८] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [169] Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२३४-२४९], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४०-१४५] (०१) श्रीआचा- saco ॥१५८ प्रत वृत्यक [१४०१४५] सहादि ते तस्स दुछया भवंति जेण तदत्थं कायसु पबत्तति, जतो य सो गुरुकामो भवति तम्हा सो तनिमित्तं पावं उवचिणाति, पाचोदया 'ततो से माइस्स अंतो' तत इति तम्हा 'मां मारयते यस्मान्ममारिभूतथ मारयति थाऽन्तो अनुसमयं मरणादपि कर्म भवो वा भवेन्मारः ॥१॥ अंतो इति अभ्यन्तरे, जतो य सो मारस्स अंतो वति, ततो इति तम्हा 'से'त्ति निदेसे, कस्स, तस्स कामगुरुस्स, दूरे णिबाणस्स, अहवा जो छक्कायसमारंभे वट्टति तप्पडिपक्खो जस्स अगुरू कामा, सो किं संसारस्स अंतो?, पेहिता पुच्छा, 'णेव से अंतो' अभिसरतो, दूरे, णिच्याणे जेण परि लद्धं होति ण सो कम्मसंसारस्स अंतो परति, जम्हा बार-II सविहे कसाए दूरेति, दूरेवि ण भवति, जेण उकोसेण सत्तद् भवग्गहणाइ नाइ कमति, जंबुस्वामी वा पुच्छति-जेण एतं अज्झ-100 यणं आयारो वा पणीतं सो तहिं काले संसारस्स किं अंतो चाहिं वा आसी ?, ततो भण्णति-'णेव सो अंतो,णेव सो बाहिं। अंतो ण भवति जेण लद्विघातीणि चत्वारि खीणाणि, जेण केवलिकम्माई चचारि चरिमसमयावेक्खीणि भवंति तेण दूरेण भवति । एवं संसारस्स व अंतो व रेण वठ्ठमाणो 'सो पासति फुसियमिव' स इति भगवं फुसितंति उदयविन्दु कुसग्गे लंबति अण्णस्त अणागमे किंचि तस्थेव सुक्खति, किंचि पदुप्पट णिवतति वातेरितं, मिसं नुणं पनुष्णं, पततीति पनुष्णं, णिवतं अधिगं वा पतति णिपतति, तवणियमतवा णिवतति, वायतीति वातो, ईरितं-कंपितं, वातेण ईरितं वातेरितं, तथा गोणाति पुरिसेण वा | एवमादि, णपि तस्स ताए अवस्थाए चिरं अवत्थाणं भवति, तस्स सुगुरुयत्ताए उवक्कमेण वा अवस्सं निवतितवं 'एवं बालस्स' | "एवमवधारणे, दोहि आगलितो बालो, जीविजइ जेण तं जीवितं, सोधकर्म इतरं च, तत्थ निरुवकम भगवतो तित्थगराईणं, सोचकर्म | | सेसाणं, तत्थ वा सततं परमायु, वाघातिमं तु गम्भम्मि मरति कोयी, कोयी पुण जातमित्तओ मरति, मरन्तो मारेति मातरं कोयि, HAI दीप अनुक्रम [१५३१५८] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [170] Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२३४-२४९], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४०-१४५] (०१) मंदत्वादि प्रत वृत्यक [१४०१४५] श्रीआचा-14 |कोति मरतीए समं तीए 'मंदस्स अवियाणतो मंदो सरीरे बुद्धीए य, एकको उयचये अवचये य, इह तु भावमंदोऽवचये द्रष्ट- रांग सूत्र- व्या, जतो बुच्चति-'अवियाणतो' किंति', कूरकम्मफलविवागं, पंडियाणवि एवं सोयकमाणि आउगाणि, तेऽवि कुसग्गजल-1 चूर्णिः बिंदुउवमाए बहुयातो रातीओ गाउं सता जतंति, भणियं च-'धम्म आयरमाणस्स, सफला जंति राइओ लोगोवि एवं जाणति॥१५९॥ 'जह जीवितं अणिचं०' तं च ण सम्मं जातं भवति, कई ?, जतो-'कूराणि कम्माणि बालो' णियाणि णिरणुकोसाणि कूराणि हिंसाति अट्ठारसठाणाई मिर्स कुव्वमाणे, अहवा कायमाणमाणि, वालो पुच्चभणितो, तत्थं कूरकम्मनिवत्तितेण 'तेण दुक्खेण मूढे विपरियासमेति' दुक्खं-कम्म, मृदो तमि हु(तम्मि हुओ)सो तासु तासु गतीसु उववञ्ज विष्परियासमेति, तंजहा-जम्मातो मरणं, मणुस्सा णरगं, परगावि तिरियतं, सुहा दुक्खं एवमादिविवञ्जासं, मुहत्थीवि कूराणि कम्माणि काउं दुक्खं अणुभवति, अहवा मूढोति वा बालोत्ति वा एगट्ठा, तेण दुक्खेण बाले बिप्परियासो सो 'मोहेण गम्भ मरणाति एति' आदिरंतेण सहेतो मोह-| म्गहणा रागहोसग्गहणं, तेहितो कम्म, ततो गर्भ मरणाति एति. पदंति य 'मरणादुबेति' पुवं मरणं पच्छा गम्भो ततो पाव| वृद्धी ततो भूयो हिंसादिकूरकम्मपत्ति ततो कम्मस्स भरो भरणा परगदुक्खागि, जतो वुचति एत्य मोहे पुणो २ एत्थ मोहे'ति एन्थ कम्मसंभारे मोहे पुणो जाती पुणो मच्चू पुणो दुक्खं जाव अणादियं अणवयग्गं, अहवा 'एत्य मोहे ति एत्थ संसारे | | हिंडमाणस्स तासु तासु गई पुणो पुणो कम्मबंधो भवति, एयं संसारियं दुक्ख पेच्छि ऊण एत्थ मोहे पुणो पुणो ण भविआमो | इति 'संसयं परियाणतो' संसेतीति संसयो, सो य अण्णाणे मरणे य, तत्थ अण्णाणे दो अस्थि अस्तित्ता बुद्धि संसयति, मरणसंसये मरणमेव, लोगेवि वत्तारो भवंति-मरणसंसये वट्टति, संदेहे वा, परिण्णा दुविहा-जाणणापरिष्णा पञ्चक्खाणपरिण्णा य, तं | ॥१५९॥ दीप अनुक्रम [१५३१५८] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [171] Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२३४-२४९], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४०-१४५] (०१) भीआचारांग सूत्र प्रत वृत्यक [१४०१४५] एयं अण्णाणसंसर्य जाणगापरिष्णया परिणाय, कह परियाणति है, जहताणि मिच्छाणाणाणि पुवावरविरुद्धत्ता संदेहजणयाणि 2. संसारकाउं संसयभूयाणि चेव भवंति, जस्स य एगमवि पदं पा सम्म उवलद्धं तस जहत्थमवि घुणक्खरं वा अणुवलद्धमेव भवति,0 परिज्ञादि ॥१६॥ तं एवं सम्म नाणेण अण्णाणसंसयं अतत्तमिति परिणाय पचक्खाणपरिणाय परियाणिजा-तत्तयुद्धिं ततो पडिसेवए, मरणसंसINI यपि अप्पणो वा परस्स वा तदुभयस्स चा दुविहाए परिणाए परियाणिआ, जं भणितं-जाणित्ता ण करिआ, तं एवं दुविहमवि संसयं दुविहाए परिणाए परियाणिचा संसारे परिणाते भवति, 'दब्वे खित्ते काले भावे य भवे य होति संसारो। तस्स पुण हेतुभूतं संसारे कम्ममढविहं ॥१॥' तं जाणणापरिणाए असंदिद्धं णचा पञ्चक्वाणपरिणाए सव्यं पाणावार्य परियाणासिचि, | भणियं च-'ममत् परियाणामि' परिणाओ णाम गमपचक्खायओ, संसयं परियाणतो जाणणापरिणाए अवियाणतो पञ्चक्खा णपरिणाए अपडिसिद्धस्स संसारे अपरिणाए, जाणणापरिणागण संसारो दुक्खाणि य परिष्णाताणि भवंति, पचक्खाणअपरिण्णाएवि 'ण सा गती अस्थि जत्थ असौ ण उबवअति०' अप्पचक्खाय अस्सबदारो, एवं मुसाबात अपरिजाणतो, अदिन्न, परिम्गहंति, मेहुणंति जेण दुरणुचरं तेणं पिहं सुतं आरद्धं-'जे छेए से सागारियं ण सेवे' या य एवं दुकर जंचउवयाणि अणुपालिअंति, बक्खति य-तदेवेगेसि महब्भयं एवं दुकरं तं बंभचरियं जं अणुपालि जति, अतो भणति-'जे छेए सागारियं ण से सेवे' जे| | इति अणुद्दिवस्स निदेसे छओ अणुत्रहओ, णथि से किंचि चयणिजं, भमं हणित्ताविपमातिएवि, अगारेहिं सह भवतीति सागारियं मेहुणं, ससमयवण्णो वा जो उत्तमो साहवादी वा सागारियं ण सेवति जोगत्तियकरणतिएणं, पाएणं तबिमित्तं सेसअस्सवेहिवि पवचिति, भणियं च-'मूलमेनमहम्मस्स, महादोसमुस्सयंक' ते च मिहीणं कृच्छितं अतिप्पियं च, पासंडीण कुच्छितं अतिपियं च, एगेसिं- ॥१०॥ दीप अनुक्रम [१५३१५८] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [172] Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२३४-२४९], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४०-१४५] (०१) बताय मालता प्रत वृत्यक [१४०१४५] श्रीआचा|| हिट्ठादीणं जेण बुञ्चति 'कट्टुमेव' करित्ता, एवमवधारणे, किमबधारयितव्यं ?, एवं करिता रहिते मेहुणसंसग्गा, अब परिवजने, 01 रांग मूत्र- IN अवयाणति, जं भणितं-हवति, तं कहं तुमं एवं करेसिति चोदितो परेणं ण अहं एवं करोमि अवयाणति अबयाणंति वा बुच्चति, चूर्णिः | लोयसिद्धत्ता चोदितो रुस्सति, तं वा अप्पाणगं दोसं तस्स उपरि हुन्मति, पढिजह य-'तमेवावियाणतो' ण अहं एतं कहंपि ॥१६१।। जाणामि, णागार्जुनीयास्तु पति-'जे खलु विसएम बतिसेवित्ता नालोएति, परेणं वा पुढे णिहवति, अहवा तं परं सएणेच दोसेण पाविद्वतरएण वा उवलिंपिला, एवं हिमादीणिवि कटु मंटुकलियाखमओ व तस्स अविजाणतो 'बितिया मंदस्स यालया', अप्पमिति अवचयमि थुल्लमिति उपचयमि, मंदो तु दोसुवि, पगत, भणितो तु देहमंदो, उभये वा विबलता चालया, एगा ताव तम्स बालना किचं सागारियंति, चितिया जं णालोएति, ण वा अकरणाए अम्भुट्टिता पायच्छिच पडिबज्जति, पिण्ड-VA वतो वा अलियवेरमणभंगा वितिया, जो पुण सम्म आलोएति जाव अकस्माए अन्भुटेति तस्स एमा बालया भवति, अहवेतं । विसयणिमित्तं आसेविज्जति, तेवि ण ते विसए 'लद्धो हरस्थाएलद्धो णाम पडुप्पन्नो हुरत्था णाम देसीभासातो बहिद्धा, लदेखि | ताव किं पुण अलद्धेवि ? जहा चित्तो खुड्डए वा, कस्स बहिदा ?, धम्मस्स, णवि तं आसेवंतस्स धम्मो भवति, तेण एते धम्मोMIवरोधगत्तिकाउं साहु चरित्तातो चित्तातो वा बाहिं कुज्जा, 'पडिलेहा' एते एवंविधा पपइत्ति विक्खाए आगमित्ता 'आण| विज' तित्थगरणाए आणविज्जा 'अणासेवयाएत्ति बेमि' अणासेवणं, जे भणिय-तं अकरणं, को दोसो विसयासेवणा-12 एत्ति !, अतो दुञ्चति-'पासह पगे रुवेसु गिद्धे' ओहाणुप्पेहिणो इतरे वा बुचंति पासध, एगेत्ति ण सम्वे, स्वग्गहणा सेसिदि | यगाण गहण, रूव तत्थ पहाणं हारितं च नेण नग्गहणं, अहवा रूब इति सव्वविसयाणं मुत्तिमनं अक्खातं भवति, गिद्धा-मुच्छिता, दीप ॥१६॥ अनुक्रम [१५३१५८] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [173] Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१४० १४५] दीप अनुक्रम [१५३ १५८] श्रीआचा रांग सूत्रचूर्णिः ॥ १६२॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२३४-२४९], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १४०-१४५] समता णिज्जमाणा परिणिज्जमाणा, इह लोगेवि महामोदा पारदारिया अकोसवहबंधपहणणाईहि य दुक्खेहिं पाहिज्जेते, पासाहि बज्झरतियेसु बज्झे परिणिज्जमाणे, अहवा विसयसोतेहिं बुज्झमाणे रामदोसबद्धे तस्थेव तत्थेव परिणिज्जमाणे, कोयि रज्जिता दुस्पति, पुणो रजति, एवं जहेणं बाहेति मोहे, जेण वा कम्मेण संसारसमुद्दे परिणिअंति, तंजहा- पुणो मच्चू पुणो मोहो 'एत्थ मोहे पुणो पुणो एत्थ संसारमोहे पुणो २, जायंति, एत्थ वा संसारे भमंताणं मोहो पुणो पुणो भवति, जं भणितं कम्मबंधो, अहवा दंसणनाणमोहे भवति, जेण तस्स तप्पचणीयत्तणतो लोयसारलंभो ण भवति, पडिज य- 'तस्थ फासे पुणो पुणो दुक्खा फासे एवं जाव सद्दे तं एवंविहाणि विसयनिमित्तं दुक्खं पार्वति आरंभे य पवशंति, जतो पढिअति- 'आवंती के आवंती' अहवा कतरे तेसु तेसु गिद्धा आवंति जावंति केयि वृत्तं भवति, आरंभेण जीवतीति आरंभजीवी असंजया-'आदाणं जिक्खेबो-भासुरसग्गो' 'अद्धाणगमणाति, सब्वे पमत जोगा समणस्स होति आरंभो' 'एतेसु'त्ति एतेसु सु जीवनिकायेसु आरंभेण जीवंति तदुवरोहेण, जं भणितं असंजमेणं, जेसु अण्णे मुसावाताति अस्सवा, तेचि एस चैव प्रायसो काएम विपतंति 'पत्थवि बाल'ति एत्यंति एत्थं संजमे आरंमे वा परि समता विसए लभित्ता तच्त्रिप्पयोमे वा परितम्यति, पढिअइ य-' परिपञ्चमाणे गरगउववाते परियायं एति परिपञ्चति, जं भणितं अवरज्झति, रमति हिंसातिएस पात्रकम्मेसु सञ्जति रजति, तंजहा मियख्वाए कोपि रमति, अघातावि केयि रमंति, तंजहा सुद्ध हतो सुटु मारिउत्ति, एवमादि परवयणणंदिगो एवं अलिएवि वृद्धार्वेति चोरियंषि सति चिचे करेंति, एवं अनत्थ विभासा, 'असरणं सरणं'ति मन्नति, जहा सो कोंकणगदार ओ, विसयणिमितं च केपि पव्वर्ज अम्भुर्वेतादि ताओ ताओ मायाओ करेंति, जन्थ सुतं 'इहमेगेसि एगचरिया' इहेति इह पासंडिएसु, चरणं चरिया सा य भणिता, एगस्स बहूणं मोहावृचिः [174] ॥ १६२॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२३४-२४९], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४०-१४५] (०१) श्रीआचा- रांग मूत्र चूर्णिः ॥१६॥ प्रत वृत्यक [१४०१४५] वा एगणिच्छयाणं चरिया, जहा चोराण, सा दुविहा-पसस्था अप्पसत्था य, तत्थ पसत्था दबओ एगस्स अणेगेसि वा राग-10 अप्रशस्त| दोसरहियत्ता एगचरिया भवति, थेरकप्पिओ कारणिओ एगो होजा अहव्वाणो, इहरा अणेगा, भावतो पुण तेर्सि रागदोसरहि-II याणं, णियमा पडिमापडियनो दयओवि भावओवि एको, गच्छणिग्गता भणिता, अप्पसत्थदम्वेगवरियाए आहरणं, एकम्मि |गामे एको कुट्ठी उड़सरीरो छदछडेण अनिक्खिनेण तपोकम्मेणं तस्स गामस्स णिग्गमपहे आतवेति, वितियोवि तस्स एगचरो|2. तस्स गामस्स अदूरसामंते गिरिगहणे आयावेति अदुमदुमेण, तस्स गामदुवारातावगस्स गामो आउट्टो वंदति आहारातीहिं णिमं| तेति दुकारकारओति, भणितं तेण-ण अहं दुकरकारओ, गिरिणिज्झरवासी दुकरकारओ. ततो ते गामिल्लमा तं गंतु पूएंति आहा-| रादीहिं, दुकरं च परगुणा भणितुंति तंपि पूइंति, एवं तेसि एगचरिता, अण्णे भण्णंति-एको दगसोयरियो अण्णेण सह समं मंतेचा | पुब्बदेसाओ पासंडिगभं महुरं आगम्म तीसे दाहिणपासे नारायणकोट्टे म्तिो, छट्ठातिपारणए गोमयं मायिट्ठाणेणं भक्खयति, | इस्थिसई च णावलति, जति णाम कंचि वेदपारगं आलवति तपि चिर उचासितो रहस्से, सेसं तु णममाणं हत्थभमुहाकपातिपदि एवं कुकुडेण आगंपितो लोगो वत्थअण्णपाणातिएहिं पूएति, अण्णो य से वितिजओ आगम्म उत्तरिल्ले पारायाणकोट्टे ठितो, ते हिंडता अण्णोष्णं पणमंति, अण्णोष्णस्स य एगओ एगमेगं पसंसंति, एवं ने एगचरिया, ते लोगं भक्खेत्ता, 'से बहुकोहे'N अवंदिता पमादेण परेसिं दा दिजमाणे पसंसिज्जमाणेसु वा परेसु बहुकोई गन्धंति, यदुक्तं भवति-पुणो पुणो कुझंति, एवं अब |दितो अपूर्यतो वा माणं करति, कुरुक्यादीहिं कहिं बहुमायितं, सब्बं एतं आहारातिलोभेण करेंति, कोहादिएहि व 'बहरतो' उवचिणन्ति कम्ममयं, वोडियमादीवी रजेण दिइसरीरा लोयरंजणढे पंसुच्छारेसु य सुयंति, यहुणहे' णडेव बहुवेसे करेति, ॥१६॥ दीप अनुक्रम [१५३१५८] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [175] Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२३४-२४९], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४०-१४५] (०१) प्रत वृत्यक [१४०१४५] श्रीआचा | कुची जी शिखी मुंडी 'बहुसंकप्पत्ति पूया आहार सग्गे य मोक्खे य पत्थंति, अहवा गिहीणं एगेसि एगचरिया, जहा गंठि- बहुक्रोधादि रांग सूत्र भेदाणं, तेसिपि भाणियध्वं 'बहुकोहे जाव बहुसंकप्पेति, बहुं वा कुज्झति कतगकोहेणं इतरेण वा, ककं च करित्ता माणमाया जुत्ती ॥१६॥ सुवण्णगादीण पंथे पाडेति, सव्वं एतं लोभा, बहुरओ-बहुकम्मबंधो, बहुणडे वत्थाभरणमादिएहि, बहुसंकप्पे पुतदारादिभएण || बहु तावेस पाणातिसंकप्पा, एवं अनेसिपि चोरचारियसथिल्लगादीर्ण एगचरिया विभासियग्या, ते पुण सरिसति परूविता, इह | तु कुलिंगेगचरियाए अहिगारो, सो एवं एगचारी 'आसवक्की वसत्ति' आसवेसु बीसत्थो आसवकी (वसनी) अहवा आसवे |2. अणुसंचरति आसव० पलिच्छपणे 'प्रलीयते भयं येन, यच भूत्वा प्रलीयते । प्रलीनमुच्यते कर्म, भृशं लीनं यदात्मनि ॥१॥ | 'उहितवादं पवमाणे कत्थ उद्विता ?, धम्मे, वयमवि पवयिता, एवं मिसं वयंति पवदमाणा, उद्वित्तावि मोक्खगमणाए । | परिण्णाओ पडंति-पवतंति, लिंगत्थावि केयि नाणादीहितो पडंति, उहितवादं वदंति, एवं ते हिंसगविसयारंभा एते संधि अयुज्झमाणा, जहा मणुस्सेसु चेव कम्मक्खयो भवति ण अण्णत्थ, केवलं लोगपडिवायसंकाए सए सासणे पडिसिद्धाणिवि आयरंति, जत्थ इमं सुत्तं 'मा मे केइह दक्ख' मा मे कोयि पेक्विहिति, अतो छण्णं आसेवति, छण्णेची उबिम्ग एव भवति, मा मे | कोवि पेक्खिहिति णिचुबिग्गो 'अण्णाणपमायदोसेणं' अण्णाणाणि-कुसासणाणि सकमन्नादीणि, तेहिं गावरूढतत्तभावितPAI मतं, अहवा 'पत्थि ण णिच्चो ण कुणति०' अन्नाणमिति सणमोहणिजं गहितं, पमातग्गहणा चरित्तमोहणिजं, पंचविहो वा पमादो, .सो एवं अण्णाणदोसा पमायदोसातो वा 'सततं मूढे सततमिति णिचं, मोहो अण्णाणं दंसणमोहोवा, धम्म' सुयधम्म चरितधम्मं च जेण कसिणं कम्मं स्वपिअति, एवं ते हिंसगविमयारंभगा एगचरियावि होतगा धम्म णाभियाणंति, अहापया' विसय- ॥१६॥ दीप अनुक्रम [१५३१५८] पर पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [176] Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१४० १४५] दीप अनुक्रम [१५३ १५८] भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२३४-२४९], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १४०-१४५] श्रीआचा गंग सूत्र चूर्णिः ॥१६५॥ कसाएहिं अड्डा, पजायंतत्ति पया, कतरे ते ?, मणुस्सा, अहवा मणुअवच्चा माणचा तेर्सि आमंत्रणं, सेसा चरिचलंभं प्रति अवस्थमेव, 'कम्मअकोविता' कहे कम्मं बज्झति मुञ्चति वा?, 'अणुवरत' ति अपडिविरता अस्सवातो 'विज्जा पलिमोक्खमाहु' परि समता लयो एकत्ता पलिमोक्खो भवति, आहु-भणंति, भंतेहिं विसणिग्धातदिता विजाये पलिमोक्खं इच्छंति, जहा संखाति, तं किं सचं ?, ण सर्थ, बुच्चति 'आवई अणुपरियईतिषेमि' भावाबट्टो संसारो तं अणुपरियईति जाव अनंताई, इति पंच मज्झ| यणस्स प्रथमोदेशकः ।। संबंधी संसाराधिगारो अणुवदृति, स एव संसाराधिगारी अणुअहति, तत्थ पायसी पढने उद्देसए गिहिणी आतीए बुत्ता, जतो एगचरियाओ आरंभकुलिंगिणो भणिता, ते सव्वेवि एते अविरतत्ता बाला, तप्पडिपक्खभूता विरता, भणितं विरतो मुणिति, वितिए सुतं- 'आयंती के आवंती' जावंति केवि वृच्चंति एवं ब्रुवंति लोगंमि मणुस्मलोए अणारंभजीवि 'आआणा णिखेवे' 'मासुरसग्गे य' गाहा, अणारंभी नाम संजमो, अणारंभजीवणसीला, एतेसु चैव छकाएस आरंभेण ण जीवंति, अडवा इंदियवि सयकसामु आरंभजीवी, तव्विवरीयजीवणसीला अणारंभजीबी, जं भणितं संजता, 'एत्थोवरए' एत्थंति एत्थं हिंसादि आरंभा, एत्थ आरुहते धम्मे तं 'जोसमाणे' जं भणितं पीतीए आसेवमाणे 'अयं संधी'ति संघ संधी, भावसंधी कम्मविवरं णाणाईणि य 'अदक्खुति, एवं संधि द झोयसतीति वहति जं भणितं सारपद मासेवमाणस्स 'जे' इति अणुदिट्ठस्स, नाणादीणि व दक्खुति, एवं संधि दठ्ठे झोमयतीति जं भणितं, सारपदमासेवमाणस्स जे इति, 'इमस्स' ओरालियम्स विग्गहो सरीरं, ता तेयाकम्माणि तदंतरगताणि, ण वेउन्त्रिय आहारस्स कलदाति, वृग्गहस्स वा अयं खगेति, तत्थ खेतकालरिजुकम्मखाणा चचारि विद्यामोक्षादि [177] ।। १६५।। पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१] अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : पंचम अध्ययने द्वितीय उद्देशक: 'विरत मुनि' आरब्धः, Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४६-१५०] (०१) गानि SANS प्रत वृत्यक [१४६१५०] खणा इति णिब्वेसकालो, अम्बिसणसीलो अण्णेसी, भणितं-गवेसति, एतं खर्ण अण्णिसित्ता किं काय, अतो पुचतिरांग -IYA 'एस मग्गे आयरिए' एस इति एस णाणादितिगसारमग्गो गाणदंसणारिएहि साहु आदितो वा वेदितो पवेदितो, एत्थ नाणादि-| पूर्णिः आरियपवेड्यमग्गे उद्वितो गिहादीणि परिचइता सारपदं आदाय मोक्खणिमि उडितो ण पमायए, पमातो पंचविहो, तत्व ॥१६६॥ चरित्तसक्खियाणि अहिंसाईणि, तत्थ अप्पोवमेण अण्णेसिपि अहिंसा कायब्वा, तत्थ इमं मुत्तं-'जाणितु दुक्खं पत्तेयसायं णचा दुक्खं सारीरादि, एगेगं प्रति पचेयं, सच्चपि एतं सारीरातिदुक्खं पत्तेयं भवति, जं भणितं-असाधारणं, सातं णाम सुई,2 | अत्थोवणअओ उ दहन्बो सातमवि पत्तेगमेव भवति, कई पत्तेगे सुहदुक्खे', जहा तब पियअप्पिये सुहृदुक्खे एवं अण्णस्सावि, अतो दुक्खं अण्णस्स ण कायम्ब, तं च सातासाताणं णेगलक्खणं सत्ताणं भवति, अतो सुतं-पुढोछंदा' छंदो णाम इच्छा, जहा | कस्सयि मजं सुहं तदेव चऽण्णस्स असुह, तहा खीरभोयणं कंजियपियर्ण वा, एवमादि, एगस्स पिया च्यासी मासी अण्णस्स बेसरी' णाणाति भावसंधी भवति, छेदपि सुई मण्णति जहा गण्डगंडभेदं, अम्गिपवेसादीणि य, तत्थ अण्णे सुई दुक्खं मण्णंति, जहा बद्धा सुस्वममाणा, वहा अणिट्ठदारओ राया बज्झमाणाईणि, एवमादि दुक्खे सुहामिसंधी, सुहे य दुक्खामिपाओ पुढोछंदाणं माणवाणं, अहवा पुढोछंदाणं-पुढोसंकप्पाणं, अणिवारितछंदाणं, जं भणित-बहुइच्छाणं, पुढो चैव दुक्खं भवति, किं तं', सम्म | अपंतसंसारियं, विरतो पुण पत्तेयं पचेयं सातासातं णचा अणारंभजीवी 'से अविहिंसमाणे' से विरते ण हिंसमाणो जहा अविहिंसमागो तहा अबदमाणो मुसाबादं जाव अपरिग्गहेमाणे इच्छेवं विरतण आणरंभजीविणा तबो अधिट्टायन्यो, तत्थ उपदेसो |'पुढो फासे' अहवा जति तं विरतं परीसहा फुसिमा तत्थ सुत्तं 'पुढो कासे विप्प० पुट्ठो पत्तो, केण?-सीतउण्हदसमसगव- ॥१६६॥ दीप अनुक्रम [१५९१६३] IHAR र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [178] Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४६-१५०] (०१) ममता भीत्राचा पयायादि रांग मूत्र चूर्णिः ॥१६७। प्रत वृत्यक दातिणा परीसहातियेदि, फासग्गहणा सेसग्गहो कतो, सेसावि परीसहा उपसग्गा परीग्गहिता भवंति, विविधपगारे िणोल्लए विप्प-100 णोल्लए, 'एस समिताए परियाए वियाहिते' समगमणं समिया, पारगमर्ण परियाए, विविहं आदिते वियाहिते, आह-भणितं | भगवया सम्बपरीसद्दोवसग्गाणं फरिसं समणुण्णातं, तं किं जुलाहारविहारस्स रोगपरीसहा फुसंति ?, जतो पुच्छा-'जे असत्ता | | पावेहि कम्मेहि जे इति अणुद्दिदुस्सग्गहणं, ण सत्ता असता, पावं चरित्तमोहणिजं, तं जेसि खओवसमं न गतं ते असता, हिंसा| दिसु वा पावकम्मेसु असता, उदाहु'चि उदीरितवान् रोगा बक्खमाणा गडि०, अदुवा आतंका आसुधादिणो मलाति 'फुसंति' पावंति वागरणं 'इति उदाहु' इति परिदरिसणे, उज्जतं आहु उदाहरितवां वीरो तिस्थगरो अण्णतरो वा आयरियविसेसो, किं उदाहु, चरिचमोहस्स कम्मखओवसमेणं चरितं लम्भति, वेयणिजस्स उदयेणं रोगा भवंति, ते य केवलिणोऽवि भवंति, अतो अमग्गणा एसा, ते एवं जति उडिजिज अतो ते फासे पुट्ठो विप्पणोल्लेजा, सणंकुमारराया दिहतो, 'ते' इति ते रोगातके अण्णे | वा परीसहोबसग्गे, विविहं पणोल्लए विष्पणोल्लए, कही, ते तु उप्पण्णा संता सरीरलयं करिना तहाचि ते सोढब्बा, इमेण आलंब-10 गण-'से पुर्व एतं पच्छाऽवेत' से इति णिसे, पुवंणाम वट्टमाणपरिग्गहाओ, जहिं सिस्सो पण्ण विअति ततो कालतो जं पढमं । | तं पुव्वतो, जं अग्गतो तं पच्छा, तवचरण आरंभकालाओ वा, तहा रोगातकादयः कायावा, अहवा पुग्वं असंजतत्तं पच्छा संजतन, IN |तहा पुग्वे पच्छिमे वा बये 'एतंति ओरालियं, मिदुरस्स भावो भेउरधम्म, ण मिजमाणं-कतोयिवि भेदंण देति, विविहं धंसति | विद्धंसति, विद्धंसणधम्म अभिन्जमाणं जिण्णसगडं विद्धंसति, रुक्खं पतं, साडो वा सडवणम्मि, ऊसाणुगतं कुई वा, पडणधर्म अवस्सं एतेण मरण अमतेण वा पडियन्वं, आदिवंतत्ता अधु-अणियतं, ण सासतं भवतीति असासर्त, इट्ठाहाराओ चिञ्जति [१४६१५०] DANCINE ॥१६७।। दीप अनुक्रम [१५९१६३] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [179] Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४६-१५०] (०१) श्रीआचा- रांग सूत्र चूर्णिः ॥१६८ प्रत वृत्यक [१४६१५०] तदभावा अवचिजति अतो चयावचयियं, अहवा जाव चचालीसगो ताव चिजति, ततो परेण अवचिजति, अतो चयावचयियं, चयापच यादि | अहवा गम्भकोमारजोवणातीएहि विविधेहिं परिणामविसेसेहिं परिणामसभा विपरिणामधम्म पस्सध एतं पस्सह, जं मणित| पुग्वपि एतं पच्छाऽवेतं जाब विप्परिणामधम्मी, एवं दहण मिजमाणे वा जाव विष्परिणममाणे वाण संगो भवति, अहवा सुच-11 विभागो कीरति-'पस्सध एतं रूवसंधि' पस्सहेति बुझह एतं जं उबक्कमे 'स्व'मिति सब्वें दियावट्ठाणं सरीरं, रूवेण संधिं २, | कारणे कज्जुबयारो, तेण अणिचण रूपेण नागाति भावसंधी भवति, घेरग्गपुब्धगो वा चरित्तसंधी भवति, संगतं सम्मेवा उपेक्व-IAN | माणस्स, किमिति ?, अणिञ्च खलु जाणिज्जा एगस्सायतणरतस्स' आयरंति तमिति आययणं, दवे समादि भावे नाणा- | | तीणि, रागदोसरहियत्ता एगो, एगस्स आययणं चरितं.वेरग्मं वा, तत्थ दबतो एगस्स अणेगाणं चा, भावतो एगस्सेव, एगा यतणरतो, 'इह विष्पमुकस्स' इह सरीरातिममीकारविप्पमुक्कस, इह च प्रवचने एवं विषमुक्तस्य, 'णधि मग्गो' णस्थि-न|N | चिजति, णरगातिगति जो जेण पावेण गच्छति सो तस्स मग्गो भवति, सो तु असरीरत्ता अकम्मत्ता प ण संसारगतीमु गच्छति | अतो णस्थि मग्गो 'विरतस्सत्तिबेमि' बिरतो मुणित्ति जंभणितं तं दरिसितं । इदाणि अविरतो विरतवादी पारिम्गहिओ बुञ्चति, तंजहा-'आवंती केयावती' जावंती केयी 'लोगे परिग्गहावंती' ते एवंविहेण परिग्गहेण परिग्गहवंता बुचंति, तंजहा-'से| अप्पं वा बहुं वा तस्थ अपं पहुं वा भावो गहितो, अणु वा धूलं वा दबं गहितं, एत्थ भंगा-दखाओ णाम एग अप्पं णो | भावतो, भावतो णाम०, एवं चनारि भंगा, तत्थ दबतो अप्पं ण भावतो वहरे, अग्धं प्रति महंतं भवति, वितियभंगो तिणभारो एरंडकट्ठभारो बा, दवाओ भावओ य अप्पं कपड़गादि, उभयतो अणप्पं महग्य थलं च जहा गोसीसर्चदणक्खोडी हरिचंदण-D॥१६८॥ दीप अनुक्रम [१५९१६३] र पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [180] Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४६-१५०] (०१) श्रीआचागंग सूत्रचूर्णिः १६९॥ प्रत वृत्यक [१४६१५०] | क्खोडी वा, सेयचंदणं हरिचन्दणं भण्णति, सब्वं चेतं समासतो चेतर्ण अचेतणं च, अहवा परिम्गहो चउबिहो, तंजहा-दब्बओ । क्षेत्रओ कालओ भावओ, एतेसु चेव छसु जीवनिकाएसु, अहवा अप्पबहुमुल्लचित्तर्मतमचित्तेसु मुच्छणा परिग्गहवंतो भवंति, जद्द || चेव अविस्तो विस्तो वा दबायाणादी परिगेडंतो परिग्गहवां भवति तहा सेसेसुवि वतेसु एगदेसावराधा सब्यावराधी भवति, अणिवारितअस्सवातो, आह-जह अप्पबहुअणुधूलचेयणाचेयणदव्यादाणातो परिग्गहो भवति तेण जे इमे सरीरमनपरीग्गहा पाणिपुडभोइणो ते णाम अपरिग्गहा, तंजहा-उडंडगबोडियासरखमादि, तेसि अप्पादिपरिग्गहवियप्पा णस्थि, तं च अपरिग्गहं दटुं सेसाणिवि वयाणि तेसि भविसति, वयित्ते य संजमो, ततो मोक्खो, तं च ण भवति, जम्हा 'एतदेवेगेसिं' महन्मयं भवति जे चोडिया आउकाइयरसगाति चहेंति तेसिं तदेव सरीरं महम्मयं भवति, जेविय आउकायउद्देसियादि परिगिहंति जाव निझाइयो | तेऽवि अपडिलेहियं भुजंति, अपडिलेहिए य ठाणादीणि करेंति, अहवा जाणणा पञ्चक्खाणपरिग्णा य णस्थि, तेसिं दुबिहाए परि| ण्णाए अपरिणयाणं मिच्छादसणा अचरित्ताओ य 'एतदेव एगेसिं' एतदेव शरीरं केसिंचि अविरतागं पिरतबादीणं मुल्छा| परिग्गहो महंतो कम्मबंधो य दुर्गतिगमणाय भवति, किंच-जति ताव सरीरमित्तपरिग्गहाओ मम हत्थो मम पादो मम शरीरंति महराभयं भवति, किं पुण जे पासंडिणो गामखित्तविहारावसहे य परिगिण्हंति ?,'लोगवित्तं च णं उवेहाए' तत्थ लोगो-गिहीणो, तेसिं वित्त-धणधनाइ चणमिति पूरणे तं उधिक्ख, किमिति ?, जहा लोगस्स मुच्छापरिग्गहाइ वित्तं महन्मयं, तहा उडुंडगादीणं संगिता सरीरमेव महब्भय, केसिंचि करगकुचातिउवगरणंपि, अहवा लोगे वि चणं लोगचरितं, जहा लोगो धणआहारसरीरातिमुच्छितो तहा उदंडगातीवि सरीरमुच्छातो तच्चित्ता अतो असंजता, किं पुण जे गामादिपरिग्गहा गिहिवित्त विसिट्ठा, एगे पुण णिदाणो-11 दीप अनुक्रम [१५९१६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [181] Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१४६ १५० ] दीप अनुक्रम [१५९ १६३] श्रीमाचा रांग सूत्रचूर्णिः ॥ १७० ॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [ २४९...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १४६ १५०] वहतत्ता, जम्हा चेतं सरीरमेगं केसिंचि महन्मयं ते 'एते संगे अविषाणतो' एते इति एतं सरीरमेव मुच्छापरिग्गो लोगं वा, जहा संगोत्ति वा विग्घोधि वा वक्खोडिति या एगड्डा, रागादयो कम्मबंधो वा, कस्स सो संगो ? - अभियाणतो धम्मोत्रायं च आह- एतदेव महम्भयं सरीरं लोगे वित्तं च, एगेसिं भण्डगमित्तंपि तेण सरीरधारणा आयारभंडग मे चधारणा य, भवताणचि समाणो दोसो, तं च ण भवति, जम्दा 'एतंपि संग पासह' एतं सरीरं भंडगं च संगित्ता मद्दन्भयं भवति अयाणगस्स ण तु याणगस्स, चइरितसरीरस्स संजमस्साहणा उबहिहारणाओ य, भणियं च- आसस्सास्समंड०, भणिया अविरता तहोसा य, संपयं विरता भण्णंति, से सुपडिबुद्धं जं वृत्तं एतदेवेगेसिं लोयवित्तं च 'एतं सम्मति पासहा' एवमेयं, ण अष्णहा, जं च वक्खति 'एतेसु चेत्र बंभचेरंति', सन् 'सुडबुद्ध' सुद्ध पडिबुद्धं च पूरणे, मम-मे 'सूत्रणीतं' उवणीतं उवदरिसियं सुट्टु साहू चैत्र उवणीतं सूत्रणीतं पच्चक्खनाणीहिं सुदिट्टिएहिं हेऊहिं सिस्साणं उबणीतं, पढिअइ य-'सुतं अणुविचितेति णचा 'सुतेग २ अणु| विचितित्ता गणधरेहिं णचा विग्तगुणे अविरतदोसे य 'पुरिसा परकम चक्खू' पुरि सयणा पुरिसो, पस्मति जेण तं चक्खु, जं भणितं परमं नाणं, तवे संजमे य विविहं परकम्म विपरकम्मा, जे य एवं तवे संजमे परकमंति, 'एतेषु चैव बंभचेरंति बेमि', अहवा परं केवलनाणं तं जस्स चक्खुं परमचक्खु ते पुरिसा परचक्खुसी तंबे संजमे य परकर्म एवं बुयिता, तंजा - एतदेवेगेसिं | लोगविधं च, इमं च अन्नं बुयितं ता 'एतेसु चैव बंभचेरं 'ति, एतेत्ति छक्काया, तं एतेसु संजमतवो बंभचेरं भवतीति वेमित्ति, आयरिय-उवत्थसंज्ञमो गुरुकुलवासं वा बंभचेरं, अहबा एतेसु चैव आरंभपरिग्गहेसु भात्रओ विप्यमुकं बंभचेरंति, अहवा जो एवं परमचक्खू तवे संजमे व परकमति एतेसु चैव बंभचेरंति, सिरं उग्घाडिता जागहितत्थं बेमि, ण सिच्छया, जेण भणितं 'से सुतं संगादि [182] ॥ १७० ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४६-१५०] (०१) आत्मनो बन्धत्वादि प्रत वृत्यक श्रीआचाच में गणधरो सिस्साणं अक्खाति-से सुतं च मे, तित्थगराओ अ अत्थतो, चसहा प्रथितं मे सुत्ततो, अहवा सुयं सुयमेव, 'अज्झरांग सूत्र- त्थितं' ऊहितं गुणितं चिंतितंति एगढ़ा, मुणिचा मए चिंतितं, किमिति ?-बंधमोक्यो तुझ अम्भत्थेव' बज्झति जेण सो चूर्णिः YAबंधो, 'एत्य'ति अप्पए चेव, तत्थ बंधहेऊ 'रागाईया तिपिण तु' गाहा, ते अप्पाणं ण बतिरित्ता वढुति, अतो बंधो, तओ अप्पए | ॥१७१॥ | थेव, ते चैव विवरीया मोक्खडेऊ भवंति, तेऽवि अप्पए चेव, मम ताव परतो सोचा चितंतस्स एवं अम्भत्थितं-जहा बंध पमोक्खो। | अप्पए चेव, तुमपि एत्तो सोच्चा एवं अणुचितेहि, अहवा जे चेव आरंभपरिग्गहा एतेसु चेव णियतं तस्स बंधपमोक्खो अज्झत्थे वा, जतो एवं तेण 'एस्थ विरते अणगारे' एत्थंति एयाओ आरंभपरिग्गहाओ एयाओ वा अप्पसत्थाज्झत्थाओ, णत्थि अगारं | अणगारो, दिग्धकालं जावजीवाए, तितिक्खतिचि या सहतित्ति वा एगट्ठा, परीसहे उबसग्गे य, 'पमत्ते चहिता' पमत्ता-असं-17 जता आरंभपरिग्गहिता कुलिंगिणो य 'बहिया' इति तिविहस्स लोगसारस्स, एवं दहण अप्पमतो तु सिज्जा , अप्पमाओ संजमअणुपालणत्थं पयत्तो, अहवा पंचविहपमायवइरित्तो अप्पमत्तो, अहवा जतण अप्पमतो य कसायअप्पमचो य, जयणप्पमचो संजमअणुपालणडाए ईरियाति उवउचो, कसायअप्पमत्तो जस्स कसाया खीणा उपसंता वा, तं एतं अप्पमायं दुविहाए सिक्खाए सुट्ट 'एतं मोणं' एतंति दुविहसिक्खासिक्खणं अहवा निरारंभपरिग्गहत्त, एतं मोणं सम्म अणुपालिज्जासित्ति वेमि । पंचमस्याध्ययनस्य द्वितीयोद्देशकः॥ उद्देसत्याधिगारो भणितो, वितिए अविरयवादी परिग्गहिओ, इह तु तचित्ररीतो अपरिग्गहो, सुत्तस्स सुतेण-अप्पमते परिवएजासित्ति बेमि, अपरिग्गदो आरंभवञ्जणं लोगमाराणुचारी, इह तु सो क्षेत्र परिग्गदो पडिसिज्झति, जतो सुतं 'आवंती [१४६१५०] ॥१७॥ दीप अनुक्रम [१५९ १६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: पंचम-अध्ययने तृतीय-उद्देशक: 'अपरिग्रह' आरब्धः, [183] Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१५१ १५५] दीप अनुक्रम [१६४ १६८ ] श्रीआचा रंग सूत्र चूर्णि ५ लोक० ३ उद्देशः ।।१७२ || भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [३], निर्युक्तिः [ २४९...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १५१-१५५] | केआवंती अणारंभजीवी केयि लोगे अपरिग्गहवंतों' जं भणितं संजता, सध्ये ते एतेसु चैव काएसु अपरिग्गहावंति, अहवा जे भणिता परिग्गहप्पगारा 'से अप्पं वा जाव चितमंतं वा एएस चैव निम्ममत्ता अपरिम्गहावंति, दव्यातिपरिग्गहणिम्ममा वा कथ्यते अपरिग्गहजुता 'सोबा वई मेहावी' सोचा-सुणित्ता बई- वयणं मेहावी सिस्सामंतणं, मेहावीण वा वयणं, | मेहावी तित्थगरगणधरा 'पंडिताण णिसामिया' पापाडीना पंडिता तेसिमेव तित्थगराणं पंडिताणं, मेहाविपंडितार्ण को पतिविसेसो १, भण्णति पदमं अपरिग्गह मेहावी भणितो, पापाड्डीणी पंडितो, मेरामेहावी परिग्गहितो, अहवा कोयि केवलमेव गंधमेहावी भवति, ण तु जहात पंडितो, इमो पुण उभयमेहाची तेण ण पुणरुतं, णिसामिया णाम सुणित्ता, सोश्चाणिसामणाणं को विसेसो है, सोचा किंचि केवलं सुतमेव, ण पुव्वावरेण ऊहित्ता हितपडुवियं, इमं पुण सोचा हितपट्टचितं, अहवा सोचा मेहावी वयणंति तित्थगरवयणं तं पंडितेहिं भण्णमाणं गणहरादीहिं णिसामिया, एवं ताव सोचा एगेसिं लोग वारलंभो भवति, अण्णेसिं | अभिसमिचा जहा पचेयबुद्धाणं, किं सोचा ?- धम्मं, सो कहं पवेदितो केण वा इति १, भण्णति-'समियाए घम्मे' समं केवलनाणेण दर्द्ध, 'अहवा जहा पुण्णस्सं कत्थति तहा तुच्छस्स कत्थति एवं समियाण नागदंसणचरितारियेहिं साधु आदितो वा वेदितो पवेदितो, अण्णेहिवि सामिप्यायसिद्धा धम्मा पवेदिता अतो भगवं आह-'जह एत्थ मए' अहवा लोगसाराहिगारो अणुयत्तति, सो अन्नत्थवि किं अस्थि गरिथत्ति पुच्छिते सदेवमणुयासुराए परिसाए मन्झयारे एवं वदासी-अनेऽवि लोगसारा अयागंगा कुधम्मे उवदिसंति, इमो पुण विसेसो 'जहेत्थ एए संधी' जेणप्पगारेण जहा, एत्थंति एत्थ मदीए सासणे मोक्खमग्गवि| डीए मणुस्सलोए पासंडलोए वा, संघणं संधी, नाणादीणं कमिणकम्मक्खयसंधिभूयाणि भवति, तर्हि तस्स संघणं भवति, जं भणितं अनारंभजीवितादि [184] ॥ १७२ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५१-१५५] (०१) प्रत वृत्यक श्रीआचा | तं लंभो, जुषी प्रीतिसेवणयोः, जुसिता पालिता जाव आणाए अणुपालिता, 'एवमन्नस्य एवमवधारणे अण्णस्थति-सकाजी-|| दोषितरांग सूत्र- वगचरगपरिब्बायगपभीतीसु, तेसु सारंभपरिग्गहा सुहपसुत्ता जतिचि बत्थिगिम्यहं करेंति तहावि उद्देसियभोयणा जिभिदियं अदन्तं त्वादि KA तेसिं, सचिचाहारमा य, जहा एत्थ मए गुत्तिसमितिभावणाहि विसय कसायातिणिग्गहो य सातिरेयाणि दुवालसवासाई दुकरच-IPA ।।१७३॥ | रिओवगतेण फुसिते एवं अन्नत्य न, फुसिते दुझोसएत्ति वा एगहुँ, भणितं च-'गालस्सेण समं सोक्खं, ण विना सबणिया । ण वेरग्गं ममत्तेणं, णालमेसु दयालुया ॥१॥' अतो ममीकाराओ मारंभतो य आयत्थे दुज्झोसए, अहवा ते मोक्खोवायं चेव। तण याणंति, तेण कह झोसेस्संति ?, किंच 'जं अण्णाणी कम्म खवेति', अहवा जहा मए एत्थ संधी झोसेध, एवं नणु गब्बो भवति जहा बद्धमाणेणं सीहणातो कओ, तं च ण, एवं सिक्खगउच्छाहणा, भणियं च-"आविः परिषदि धर्म काञ्चनसिंहासने | बाणस्य (मुनेः) योजननिर्झरिरबो योऽभूत्रोच्चैः कथं स सिंहनिनादः ॥१॥" अतो तुच्चति 'तम्हा बेमि णो णिहिज्ज' जम्हा | | अहं अण्णायचरियाए घोरं तवं अकासी तम्हा बेमि णो णिहेजा, णिहणंति वा गृहणंति वा छायणंति वा एगट्ठा, कयरं?-'पीरियं' | संजमवीरियं, तं च वीरियं च 'अणिगूहियबलवीरियो गाहा, कयरो सो जे ण गृहति बीरियं?, वुचति, 'जे पुखुट्टाती नो IVA पच्छाणिवाती' जे इति अणुहिदुस्स, उहाणं सट्ठाणं संवेगो संपवजा अब्भुवगमो, णो इति पडिसेहे, पच्छा णाम पवञ्जपवित्तस्स ANज सेसं तं पच्छा जाव आयुमेए, जधेव उद्विता तहेब विसेसेण वट्टमाणपरिणामा जाव आतुसेर्स विहरंति, जहा गणहरा सीहत्ताए। |णिक्खंता सीहनाए विहरंति, सो पुच्चुट्ठाती णो पच्छाणिवाती पढमभंगो, आह-कोयि सीहत्ता णिक्खम्म सियालत्ताए विहरति ?, आम, इह केइ कलत्तपुत्तमित्ताति तणं व छडित्ता पुणो विहाराको पडंति, जहा सेलतो, कोयि लिंगाओवि पडति, नन्दिसेणकुमारो । ॥१७३। [१५११५५] दीप अनुक्रम [१६४ १६८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [185] Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५१-१५५] (०१) उत्थान प्रत वृत्यक [१५११५५] श्रीआचा. ब, केई दरिसणाओवि पडंति जमालीव, केई दुहओवि पति, अतो पुन्बुढाती पाणिवाती वितियभंगो, जो न पुबुडाई | रांग सूत्र णो पच्छाणिवाती सो घरत्थी, आह-जे इमे सफाजीवगापभिति गिहदाराई छहेत्ता जहा व सधम्मचेद्विता एते एत्थं मंगत्तिये॥ निपातादि चूर्णिः कत्व ?, वुद्धति ततिए, कहं १, ते जेण 'सेत्ति तारिसए सेचि से अण्णउत्थिए अनउत्थियगणो वा तेसु भगवतो अणाणाए रजंपि ॥१७४|| PA चहत्ता(पब्बइए)ण य अणुट्ठियस्स णिवातो भवति, गामातिपरिग्गहाओ य, तारिसए चेय जारिसए व पुवं आसी उदिक्खिता, अहवा सुविसुद्धदिढतेणं जारिसगा चेव गिहत्था सचिचाहारासेवि तारिसए चेच, उदायिमारगप्रभृतयोवि एत्थं चेव भंगे, जेवि आणिण्हगविसेसं अजाणता तेसिंतिए णिक्खमंति तेऽपि तारिसए चेव, जेण ताण मिच्छन, मिच्छत्ते व कतो उवरि ?,'जे परिणाय लोगसण्णेसयंति' अकारस्स लोवा जे अपरिणाय लोग-छजीवकायलोग अणु एसति अण्णेसति, काए वित्तिणिमित्तं आरभंति, N/ पटिजह य-'लोगमणुस्सिते' परिण्याय-पच्चक्खाय पयणपयावणाति विसेसेण पुणरवि तदत्थं लोग अस्सिता, अहवा पयणप2. यावणाति आरंभलोगो तसि आसिया, अहवा वितियभंगोवि तइयभंगतुल्लनिकाउं तेचि तारिसए चेव, कहं ,जे दुविहाए परि गाए परिणाय गिहत्थलोग संथक्तीति छकायलोयं वा अण्णेसति 'एतं निदाय मुणिणा पवेदिता' किं तं ?, णणु भणितं जो सो लोग परिणाय पुणो अण्णेसति एतं कारणं-णिदाणं णचा, भणियं च-"तत्थ जे ते सन्निभूया ते णिदाणवेपर्ण वेदिन्ति" IN मुषिणा पवेइयं तित्थगरेणं, साहु आदितो वा वेदितं, जहा एवं पवझ्यावि संता गिहत्यतुल्ला एव भवंति, तेण 'इह आणा| कंखी पंडिए अणिहे' एत्थं पबयणे सरीरविसएमु अरत्तो आणं कंखति, सा य का?-सुतं, जं का आयरिया आणविसंति, पाबाड़ीणो पंडितो, अणिहितो रागातिएहि, केवलं सरीरधारत्थं आहारयति सगइअक्खअभंगदिटुंतो, कसिणं कम्मसंलेहणं कुजा ॥१७॥ दीप अनुक्रम [१६४१६८] Ka पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [186] Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत [rut149) दीप अनुक्रम [ १६४ १६८] श्री आचा रांग सूत्रचूर्णिः ।।१७५ ।। भाग-1 "आचार" अंगसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन] [५] उद्देशक [३] निर्बुक्तिः [ २४९...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १५१-१५५] - 'पुत्रावरराते' पुण्वरायं अवरतं जयमाणो तत्थ आदिमे दो जामे पुथ्वरायं पच्छिमे अवररायं तत्थ थेरकप्पं पति पृथ्वराय एगजामं जग्मति पछि रवि एगं, मज्झे दो यामे सुयति, तत्थवि सवितो जागरति सुतोऽवि जणयाए सुयति, णिक्खमपवेसेसु य जयणं करेति जो एवं अचक्खु बिसएवि अतणं करेति सो दिवसओ पुचण्ड अवरमज्झनु परे व जयति, जिणकपिया ततियजामे सोतुं सत्तसु जामेसु जयंति एवमवधारणे, अवहितमेव जयंति जं भणितं सुताविजया जतेंति, सोबा वई मेधावी पंडिता, णिसामियति अहिगारो अनुयन्तति एवं पुण्यरत अवरतसमएस लोगसारं जोसिञ्जासि, तंज-'सता सीले सहाए' तया सव्वं कालं तत्थ सी सभावो, अडारस वा सीलंगसहस्माणि सीलं, सो साहुमहावो, अहया 'महाव्रतसमाधानं तथैवेंद्रियसंवर त्रिदंडविरतित्वं च पापानां च निग्रहः॥१॥ सीलं इति बुवे सीलंण हायए जावजीवं, पुव्वरतावर नेसु जागरिता पच्छा सुपति एवमणेसुचि इरियादिएस सीलेसु जहारोचितवाही हो आहि सम्मं पेक्ख, जं भणियं-सता सीलो, अहवा सुते सीलं भन्नति-सुनिता भवे अकामे अझंझे' जेण सम्मं पेहा भवति तं अवियत्ता सुमियति तस्सेव अत्थे सुणत्ता अकामसीलो असलो, अहवा इह आगाऊंखिति भणियं तं आणं पुन्परतावर ते जागरिता सदा सीले, मुणितभावे सुणियत्ति अत्थं सुणित्ता, अध्यकामे प भवे अकामे, जं भणितं अजुद्वे, असे, जं भणितं अकोहे, आदिअंतरगहणा मदत्यो कोऽभिये, पिंडत्थ तु सुणिसा घम्मे भावं य अकामे अति उत्तरगुणा गहिता, एवं मूलगुणेहिवि सुणिय भवे अहिंसगो सथावादी जाय य अपरिग्गहोचि आह-तुज्झेहि संदि-तन्हा बेमि ण गिहेज पीरियं अणिगृहियवलवीरिएण परकमियत व परकममाणो तहापि कम्मरयं निरवसेसं न सकामो उम्मूलेतुं, अन्नंपि ता किंचि कहेद्दि सास्पद लंभट्टाए, अवि पूर्वापर त्रयजना [187] 1180411 पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [9], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५१-१५५] (०१) त्वादि प्रत वृत्यक [१५११५५] श्रीआचा- सीहेणावि समं जुज्झेजामो सरीरपरिश्चागं वा करिआमो, भण्णति, गणु कञ्जमाणे कडे सविञ्जमाणे सविते, जं च भणसे सार-2 रांग सूत्र III पदभत्थं अवि सीहेणावि समं जुज्झेजामो, अतो भण्णति-'इमेण चेव जजमाहि' इमेणंति इमेण इतिवातिणा ओरालियसरीरेण । चूर्णिः अट्ठहिं कम्मरिउहि सह, आराहणपडागहरणत्थं, जं च भणिसि णिव्वाणत्थं अहं पाणे परिचयामीति तत्थ 'जुज्झारिहं स्वली ॥१७६॥ दुल्लभं एतं ओरालियसरीरं भावजुद्धारिहं दुल्लभं, तं कहं ?-'माणुस्सखित्त जाई 'गाहा 'जात्र जरा ण पीलेति वाही जाव' अतो परिपालेयव्यं, तत्थ संगामजुद्धं अणारियं, परीसहरिउजुद्धं तु आयरियं, एतं च दुल्लभं तेण जुझाहि, तज्जुद्धमेव उ कई ?, उच्चति'जहिस्थ कुसले, दबकुसला पुनमणिता, भावकुसलो साहू, परिणा विहा, विवेजणं विवेगो, सो दब्बे भावे य, दब्वे विवेगो | कलतमित्ताणं, अंते य सरीरस्स, भावविवेगो णिम्ममचं, ततो तवसा कम्मनिअरविवेगो भवति, जं भणित-लोगसारफललंभो, जो |तु एवं दुल्लभं लोगसारं लद्धा पमाएति से 'चुते हि बालो गम्भाति रजति' जो सो पुष्बुट्ठाती पच्छाणिवाती से चुते घाले, | कुतो चुते !, धम्माओ माणुस्साओ बा, गम्भातिसु दुक्खविसेसेसु, ते य गम्भाति पसवकोमारजोवणमजिझममरणणरगदुक्खा| बसाणो संसारपवंचो, अहवा गम्भजम्ममरणगरगदक्खे सुत्ति एनेसु गर्भादिसु देहविगप्पेसु संसारविगप्पे वा, रजति वा पचति । | वा उज्झति वा एगट्ठा, पडिजइ 'गम्भादि रजति' जं भणितं-गम्भातिसु गच्छति, गन्भादिसंसारणिवनेसु वा कामेसु रजति, | एतं कत्थ उवदिटुं इतो चुए बाले?, जंवा हिट्ठा भणितं ?, णणु 'अस्सि चेत' अस्मिन्नारुहते प्रवचने भिसं बुचति प्रवुचति, W'रूवंसि वा स्वप्रधानविपयाः तेण तम्गहणं, उक्तं च-"चाक्षुषा चक्षुषा येन, विषया रूपिणिस्सिता। रूपत्रेष्ठाश्च सर्वेऽपि, रूपस्य || ग्रहणं ततः ।।१।।" "छणंसिति हिंसातिआसवा छणा तेसु छणेसु, छणु हिंसाए, तेण अलीयातीणं गहणं णत्थि, णणु भणितं- ॥१७६॥ दीप अनुक्रम [१६४१६८] Ka पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [188] Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५१-१५५] (०१) प्रत वृत्यक [१५११५५] श्रीआचा-AVI | सोलसरिसो, वितितो सुतेण अश्वत्तो वएण वत्तो, सो जतिवि साहस्समाल्लो तहावि तस्स ण कप्पति, तस्सेगचारिस्स तिविहा || रूपक्षणाविरांग पत्र- |सिता तत्थेगतरपि परामुसति छ सो बालो, रूवेसु सञ्जमाणो अविरतो कम्मं उवचिणिचा चुते चाले गम्भादि, तेण साहु मणितं रतिप्रभृतिः चूर्णिः अस्सि येतं पश्चति रूवंसि य, जो एवं स्वछणविरतो 'से हु संविद्धभए मुणी' स इति सो सोईदियहिंसादिविरतो य स्खलु | ॥१७७॥ (हु)विसेसणे स एवेगे ण अण्णे 'व्यथ भयचलणयोः' जेण अट्ठविहकम्मगंठिभयं जम्ममरणभयं वा सम्म विद्धं स भवति संविD भए मुणी, वहितंति वा चालियंति वा (खोनियंति वा) एगट्ठा, सत्तविहं वा जेण भयं संविद्धं, अहवा संविद्धपहे, तत्थ संविद्ध मिति सणात, पधो नाणादि, सो जस्स संविद्धो स भवति संविद्धपहे, जं भणितं-सम्म उवलद्वो, मुणी भणितो, अण्णहा लोगं |उवेहमाणे' अण्णणप्पगारेण अन्नहा, विसयकसायाभिभूतो लोगो हिंसादिसु कम्मेसु पवनति, पासंडिणोवि पयणपयावणउद्देसियसचिचाहारापो वा अनियनो, लोग उविक्खमाणो 'इयं कम्मपरिणाया' इति एवं कम्मर्वधं जाणणापरिणाए परिणाय पञ्चक्वाणपरिणाए तस्स हेऊ पचक्खाय सव्वेहि पगारेहि सबसो सम्बस एव से या हिंसति' सम्वेहिं चेटुपगारेहि कायवायम|णेण वा तिविहंतिविहेण जाव राइमत्त 'संजमति'त्ति सनरसविहेणं संजमेणं 'नो पगम्भति' असं जमकम्मेसु णो गन्भं आयाति, | रहस्सेव अप्पपंचमाणं सक्खीणं लजमाणेणं ण आयरति, ण य जाइमयादीहि माणं करोति, एवं ण कुमति ण लुम्भति, णवा अपम्मत्तमप्पाणं मनमाणो पगम्भति, तत्थ इमो आलंबणविसेसो, तंजहा-'उवेहमाणो पत्तेयं मायं' जीवाणं जीवाणं जीवा | | नेरदयादि पते तं प्रति पत्तेयं, पत्नेयमिति वीप्सा, जत्थ जं एगस्स मुहं तं अण्णस्स मुह, अहपुनसोक्खाओ जणगसोक्वं भवति, [नतो भण्णति-तस्थेगस्म सारीरं मोक्वं एगम्म माणसं, अहवाममाणाभिहाणेवि सुहस्सामिसंबंधो तो जं अण्णस्स मुदं तं अण्णस ||1||१७७।। दीप अनुक्रम [१६४१६८] Ka पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [189] Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [3], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५१-१५५] (०१) अनारंभादि श्रीआचारोग सूत्र चूर्णिः ॥१७८॥ प्रत वृत्यक [१५११५५] ण भवति, अतो पत्तेयं सुई, एवं दुक्खमवि, मिसं इक्खमाणो उजतं वा पेक्खमाणो उपेक्खमाणो, उवदेसो चेव, सो एवं उबेह- माणो 'वण्णादेसि णारमें' वणिज्जति जेण वष्णो, जं भणितं-तक्सोयसंजमों एव, आयजसा, आतं जसं उवजीवंति, तत्थ जे सम्म उपजीवति ते आतजसं उबजीवंति, तस्स वण्णस्स हेऊ णारमे किंचिदपि सब्बलोए, आरंभो णाम घातो, जंचारंभमाणस्स घातो भवति सत्तायं तं ण आरभे, लोगो तिविहो-उड़ाइ, कायलोगो बा, अहवा ण किंचित्ति सहसिलोगट्टयाए किंचि आतावणं वा वेदावच्चं वा अन्नतरं वा अतिसेसं आरमिज्जा, तंजहा-प्रावचनी धर्मकधी वादी नैमित्तिकस्तपखी च। विजा सिद्धः ख्यातः कविरपि चोद्भावकास्त्वष्टौ ॥१॥' अहवा 'वण्णोति रूवं बुचति, तस्स अड्डाए ण किंचि वमणविरयेणसिणेहोसवणण-| अभंगुब्बलणअंगारणादीया हत्धपादधोवणं वा आरमे, 'सबलोगे'त्ति जहा अप्पणो तहा अनेसिपिणारभे, णारंभावेति आरंभंतपि । अन्न न समणुजाणति, 'एगप्पमुहे' एर्ग अस्स मुहं एगचित्तो एगमणो सारपदाभिमुहो 'विदिसम्पतिपणो' दिस्सति जेण सा |दिसा तं विदिसं भिसं तिष्णो विदिसप्पतिण्णो, तन्ध सम्मत्तनाणचरित्ताणि दिसा, तब्बतिरित्ता विदिसा, सम्मने तानि तिण्णि तिसवाणि पावातियसताणि विदिसा, नाणस्सवि भारहरामायणाईणि विदिसा, चरिने विसयकसाया रागादीया तिण्णि. गाहा, एवमादि विदिमाओ वाओ पतिण्णो, उबएससरवि' णिविण्णचारी अरए पदासु' णिविष्णो चरति णिन्विष्णचारी, सो | य बाहिरम्भंतरेसु वत्थूसं णिव्वेदो भवति, बाहिरेसु सयणातिसु णिविज्जति, तंजहा-'पुत्तोऽवि अभिप्पायं. माता भवित्ता धूता भवति, एवमादि, चिरभवेवि णिविज्जति, होऊण पुणो 'सरीराओवि सुसंधिता संधी भवति, जहा सणकुमारथकवहिस्स, | अहवा सबलोगेऽवि रागस्स मूलस्थाणं इन्थीओ ताहितो णिबिदति, जत्थ इमं सुन 'अरए पदासु' अहवा णिग्विष्णचारिस्स एतं | ॥१७८॥ दीप अनुक्रम [१६४१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] “आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [190] Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [9], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५१-१५५] (०१) प्रजाति प्रत वृत्यक [१५११५५] | लक्खणं 'अरते पयासु'ण रतो अस्तो पयणणधम्मी पसबधम्मी पजायति वा पया-इस्थिो णिब्वेदपुष्चगमेव तासि अरतो, रांग भूत्र-IVतंजहा-एता हसति च रुदंति च अर्थहे तोविश्वासपंति च नरं च न विश्वसंति । तमामरेण कुलशीलसमन्वितेन, नार्यः स्मशान चूर्णिः सुमना इव पर्जनीयाः ।।१।' तथा 'मूलमेतमधम्मस्स.' 'महाजाताहिं वरितो "स वसुम' स इति णिविष्णचारी अरए पदासुIN ॥१७९|| वसंति तंमि गुणा इति वसु तं च वसु धणं भावे संजमो जस्स अस्थि सो वसुम, सव्वं सम्म अणुागतं पण्णाणं जस्स स भवति सव्व समण्णागतपण्णाणे, आयरियपरंपरएणं आगतं साहु वादिओ वा आगतं समण्णागतं, पगयं नाणं पण्णाणं, वसुमा चेव एगो सम-16 ण्णागतपण्णाणो 'ण करणिज्जं पावं कम्म' हिंसादि, तण्णो अण्णेसि सयाणं करिज्जा, सो एवं वसुमं सबसमण्णागतपण्णाणोतेण पण्णाणेणं 'जं मोणंति पासह तं सम्मति पासह' संजमभावो मोणं, णिच्छयणवस्स जो चरिनी सो सम्मट्ठिी, अतो नुञ्चति-जं सम्मतं, तत्थ णियमा गाणं, जत्थ नाणं तत्थ णियमा सम्मनं, अतो तदुभयमवि सम्मन, अपरिग्गाहिता इति णिविष्णकामया ब वट्टति, तं एतं जहा भणितं-'ण इमं सकं सिढिलेहिं अदिजमाणेहिं' अहवा जं एतं सबलोगसारभूतं णिरारंभनं अपरिग्गहनं च तं कम्हा अण्णोषि एवं न पडिवज्जति !, तेण बुचंति-ण इमं सक०, सिढिला गाम तबसंजमे य ण जावजीवंत | परीसहजय ददधिति, अद्दिज्जमाणा, जं भणित-सिणेहमाणेणं, दवे उदगउल्लो, भावे मे माया मे पिता मे जाव चियत्तोवगरणपरवज्जणा, एत्थ अभिसंगता सड़ी भवंति, जहा प्रसन्नचन्द्रो रायरिसी, अहया अद्दि अभिभवपरीसहेहिं अभिभूयमाणेणं | 'गुणासातेणं'ति गुणा-सदाति ते गुणे सादयति गुणासाता, जं भणितं-सुहा, बंको णाम असंजमो माया का बंकं समायरतीति, अण्ण यरं अकिनट्ठाणं प्रासेवित्ता णालोवेति, गिलाणकुडंगं बा पविमितुं ओभासति, ण वा तवे उज्जमति, पमते हि कसायादि पमचे हि कमायादि- १७९॥ दीप अनुक्रम [१६४१६८] TAL पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [191] Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५१-१५५] (०१) शिथिलादि प्रत वृत्यक [१५११५५] पमाएणं, पब्वइएवि भवित्ता एरिसेहिं ण आसेविजति, किं पुण ‘गारमावसंतेहिं ?" अगारंति वा गिहंति वा एगट्ठा, आदिअक्ख-| रांग सूत्र 10 रलोवतो गारं भवति, गारमावसंतेहिं गिहत्थअनउस्थिरहि, लोगिताणं गिहस्स तुल्लो अण्णो अस्समो णस्थि, इधण तहा गारमावसंचूर्णिः हिं, कर्तुमिति वकसेस, जो पुण ण सिढिलो णो अदितो णो गुणासातो बंको अपमत्तो णागारं वसति, जं भणितं अणगारो, सो ॥१८॥ एवं 'मुणी मोणं समानाए' मुणातीति मुणी, मुणिभावो मोणं, सम्म सम्मन वा आदाय, जं मणितं -गहिया, तप्पुब्बएण वा तवसा 'हुणे सरीरगं' कतरं १, ओरालियं कम्मर्ग, सरीरधुवणत्थं, तधुणणणिमिन वा 'पंतं लूह सेवंति' पंत दोसीणीभूत तंपिलूह, एवं उबहिपि पंतं ददुबलं उजियधम्मित सेज्जा सुण्णगारादि फलगाति संथारगा, अहवा पंतमिति सेलाउवही गहितो,। लूह दव्यभाये, दम्ये लुक्खाहार सेवति, भावलूह वीतिंगालं, विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजति । तपोवीर्येण युक्तव, बीरो वीरेण कीर्त्यते ॥ १॥ सम्मनदंसिणो, अणेगे हि एगादेसाओ भण्णति-एस ओहंतरे मुणी तिण्णे' एस इति जो एतं जह-11 मणितं धारयति, अहवा जो असिटिलो जाव लूह सेवति वीरो सम्मत्तदंसी, दवओषो समुदो भावे कम्मा उदइओ वा भावो, तरमाणो तित्तिकाउं, तं ओई जो तरति तरिस्सति वा सो ओहंतरो, मुत्तेति मुनो, तेण णाहिगारो, भावे तु सावसेसकम्मा मुंचमाणो मुत्त एव. विरतो संजतो. विसेसेण आहितो वियाहिनो इति-एवं बेमि सारपदं इच्छता सह आयरह इति पंचमाध्ययनस्य तृतीयोद्देशकः॥ उसस्थाहिगारो अवत्तस्स एगचरस्म पचवाया चउत्थंमि, तत्थ सुत्तेण वयेण य वत्तावते चत्तारि भंगा, सुते ण जेण आयारो अधीतो, अहवा जेण पदिएण एगल्लविहारपडिमाजोग्गा भवति तं ताव अहिज्जति, वयेण अट्ट वरिसाणी आरम्भ जाव ॥१८॥ दीप अनुक्रम [१६४१६८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: पंचम-अध्ययने चतुर्थ-उद्देशक: 'अव्यक्त' आरब्धः, [192] Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५६-१५९] (०१) एकचरदोपाः श्रीआचा प्रत वृत्यक [१५६१५९] पञ्चवाया-आयाए पबयणे चरिने य, ततिए सुनेण बत्तो वतेण अवतो, तस्स तिविहा विराहणा, वालोतिकाउं परिभविञ्जति तेण । संग सूत्र NIकुलिंगादीहि, दोहिवि यत्तस्स सेच्छा पडिम वा पडिबजतु अन्भुजततवं धारेउ वा अन्भुञ्ज भरणं वा, सेसस्स णिकारणे ण बट्टति, | चूर्णि: भणियं च-'साहम्मिएहि संबद्धतेहि एगाणियो तु जो विहरे। आयकपउरताए छकायवहो तु भइयनो ॥१॥ एसो अत्थतो ॥१८॥ || संबंधो, मुत्तस्स सुनेणं-'तिण्णे मुने विवाहितो तहा णदि तरमाणो समत्यो अपगं तारेउं अपि तस्य कट्ठण वा घेत्तुं तारेति, एवं तित्थगरा सयं तरंता अबंपि तारेति, अहवा गोजूधे उत्तरमाणे तस्स अंतरंतरेसु जेविण लग्गति तेवि मंदवेगीकतेण उत्तरंति, एवं साहसमुदाएवि केयि पुरिसा सारणवीयीहिं चोतिया, सो एवं तरमामो तिष्णो मुगमाणो मुको सब्बगंथविरतो इहवि अ संव| णिजति, जेण चुञ्चति 'गामाणुगाम दुइजमाणस्स' जतो चलति सो गामो, तेण परं जो अण्यो गामो सो अणुगामो, अहवा गच्छतो जो अणुलोमो सो अणुगामो, जं भणितं-अणुपहे अन्नहगं वा पडुच गामाणुगामि, हेमंतगिहासु दोसु रिजति, जति दोहिं। वा पादेहि रिजति दृइज्जति दूइज, दुटुं जातं दुजातं सारपदणिस्सारजातातो दुजातं, जहा एगो साहू कारणिओ, पउत्थभोइयघरे | अणुण्णचित्तु भोयणायोडितो, ताओ चत्वारि जीओ सामत्थेतुं एकमिकं जाम उबसग्गति, सो पिच्छति, एया अण्णोण्याए साहेंति, | विसयवियक्खणोति च साहेति, कत्तिया एवं अहियासेस्संतित्ति, एवमादि दुजातं, आहारे गतीये य' आहारे एगागी वइयादिसु | 10 ताव अणिवारितेण भुत्तं जाब तस्स छद्दी वा वियिगा या जाता एवमादि आहारे दुप्परकंत, गतीयेवि अण्णेण अपडिचोइजमाणो 0 अप्पादीणि आलोएमाणो गच्छतो आतविराहणं वा संजमविराहणं वा पाविज, आतविराहणाए अहरदत्तो साह दिदुतो, जहा ॥ | सो तए चाणमंतरीए वियरओदगं अतिदुरं उल्लंघमाणो उरुच्छिन्नो ता एवमादि गतिदुप्परकंतं, तं गंतु 'अवियत्तस्स भिक्खुणों १८१॥ दीप अनुक्रम [१६९१७२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [193] Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१५६ १५९] दीप अनुक्रम [१६९ १७२] श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥ १८२ ॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [४], निर्युक्तिः [ २४९...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १५६-१५९] वयसा सुरण यवत्तावते चउरो भंगा, सुएणं अध्वत्तो जस्स आयारपगप्पो अत्थतो पण गतो गच्छवासीणं, गच्छनिग्गयाणं तीसवरिसहिडो, एते अवचा, बत्ता सुयवयेहिं चत्तारि गंगा जोएयव्वा वयसुए य अवत्ताणं बहुगाणंपि वत्तरहियाणं दोसो - आता पवयणं संजमं, अण्णो पुण सुतेण अब्बत्तो वयेण सोलसबरिसेहिं उचिष्णो जतिवि साहस्समो तस्सवि दोसो, अवरो सुतेण बत्तो आयारपगप्पो पढितो सुत्ततोऽचि अत्थतो, पण वरण बचे, तस्सवि एगचरस्स दोसो, सुतेण बतेणचि बत्तो, जिणकप्पे यो परिहारियो अहालंदियों, जो वा तेसिं परिकम्मं करेंति, एतवतिरित्ता जतिवि उभयविता 'साहम्मिएहि संयुज्झते हिंति' गाहा, तस्स परं कारणियस्स अणुष्णा जाव कारणं, एवं तेसिं गगा गच्छमाणाणं इमेहिं दिता दिअंति 'जह सायरंमि मीणा संखोभं सायरस्स असता ' गाहा, 'जहा दियापोतम पंत जातं ० ' गाहा, गच्छंमि केइ पुरिसा सारणीयी हि चोदिता संता । णितिं ततो सुहका भी णिग्गयमेत्ता विणस्संति॥ १ ॥ एवं तस्स अवियचस्स दुआतं दुष्परकंर्त वयसावि एगे बुचिता कुप्पंति माणवा' वयसा वायाए एते अब्बत्ता एगचरा अणेगचरा वा बुयिता- भणिता कुप्पंति कुज्यंति व कंति लुब्भंति, केरिसाए वायाए कुष्पंति ? जहा के इमे ? अम्हं एए चैव दट्टब्बा तिवग्गे बंभणाति तिवरंगपरिचार सुद्दा पच्चयंति १, एवं थंभे मायाएचि लोभेऽवि जीएवं अविसदा कायेणावि पृट्ठा कुप्पंति, बत्ता पुण वयसा कार्यगवि पुंडा ण कुप्पंति, जहा खंभो णिकंपो, इमेण चदोसा 'उण्णयमाणे य णरे महता मोहेण मुज्झति' एगचरो अबतो उन्नमिअमाणे य कहिंचि कविवया सिलोगा कट्टिचा, गिहत्थत्तणे या कलावगा सुत्ता, फुडवको वा संभावणे, केयि उप्पासणबुद्धीये भणति तं अहो पव्वइओ धम्मकही, ण एरिसो अस्थि अण्णो णजति जहा बंभणस्स वाया सकतअभिधारणजुत्ता, पायते वा महाकव्बाई जानमाणो, उनामियाति अंगुलिं उक्खिवित्ता अव्व व्यक्ताव्यक्तादि [194] ॥१८२॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५६-१५९] (०१) प्रत वृत्यक [१५६१५९] श्रीजाचाAWN वेति-को अनो मम तहो ?--निहत्थत्ते मम किनी आसी, अहवा सम्भावितो बंभणो खत्तियो कलायरितो चाणारायणसरिसो वा वामानादयो रांग मूत्र- | बलरूवेण इब्भपुनो वा आसी, एवमादीएहि उण्णामितो सो महंतेणं दसणचरित्नमोहेण मुज्झति, अहवा बुज्झति असंजमेण ण संसर-1 दोषा: चूणिः | तेगं 'संथाहा बहवे भुजो२ दुरतिकमा 'बाध लोडने' सबतो समनं समूहेण वा चाहंति संवाहंति, के य ते ?, परीसहो॥१८३।। वसग्गा, तस्स अवत्स्स एगचरस्स, दुप्पभिति बहुलत्त, भुजोर पुण २ दुरतिकमा-दुरधियासया, अहया संवाहा अणुलोमा बाहिति इन्थि पुरिसगादि, ते दुरहियासा अयाणतो ण याणति एवमेते अहियासिव्वा, दोसे य ण याणति, परीसहउवसम्गेहिं णिहयस्स, अहियासियफलं च ण पासति, जतो एवं आह-'एयं ते मा होउ, एतं कुसलस्स देसणं' एतं ते मा होउ मणसावि जहा अई एगागी विहरामि, एतं कुसलस्स दंसणं, सृहम्मो जंधु आह, इमं जं उदिटुं एवं कुसलस्स-बद्धमाणसामिस्स दंसणं, जहा एते अवतस्स एगचस्गस्स दोसा, अविय 'नाणस्म होति भागी० गाहा, अमुयंक्स तस्स आयरिय उवार हरएण उवमा कीरिहिति, कहं | णञ्जति जं कुसलस्म एतं दसणं ?, जतो-'अत्यं भासति अरहा०'गाहा, अहवा कुसलस्स एतं दरिसणं जहा अवत्तेण ण चरियच्च जो यत्नो सो जणो रीयति, थेरकप्पिया वत्तसहिया रीयंति, तम्हा 'तदिट्टीए तम्मुत्तीये' आयरियाधिगारो अणुयत्तति, दग्वे | लठ्ठिीए पंथं मोतुं अन्नत्थ दिढि ण पाडेति जुयंतरपलोयणाए, अतद्दिहिस्स दोसा कूवादिएसु पडिल अरिफडिज वा, भावतद्दिडीए | आयरियस्स उबदेसदरिसणेण विहरति, मुत्तत्थगहणं कायन, जति मन्वायरितो तो देसदरिसणं, ताहे पवावेत्तुं आयरिओ भणइ-2 एस तद्दिट्ठीए तम्मुत्तीए, मुत्ती णाम सरीरं, दब्धमुत्ती सरीरं चेव, भावमुची जं उवदेसं देति अणुपालिति वा, सरीरप्पमाणप्पित| दिट्ठी वा तद्दिडी तम्मुत्ती 'तप्पुरकारित्ति तदेव सुत्ति दिवि पहं वा पुरकरेति आयरियप्यं च 'तस्सपणी लपणाणोवयुत्तो A UNTALI दीप अनुक्रम [१६९१७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [195] Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५६-१५९] (०१) श्रीशाचारांग सूत्र चूर्णिः ॥१८४|| प्रत वृत्यक [१५६१५९] तण्णिवेसी' तचित्तो वा आयरियअहिगारो अणुयत्ता, दवणिवेसणे घरे वासो देवदत्तस्स, भावे आयरियकुले णिवासो, आयरिय-IV जीवरक्षादि समीवे बा, चोयओ भणति-आयरियसमीवे वसंताणं दुजातं दुप्परिकंतं पण भवति इरियावहिगमादी चा?, आयरिओ आह-जहा ग भवति तदा भणामि, तत्थ सुतं 'जयं विहारी चित्तणिवाई पंथाणिहाई' कह ?, तदुभयमुत्तं 'पडिलेह गाहा, गच्छंतस्स। गच्छस्स जो तिहिं उवउत्तो सो पुरतो गच्छति, इरियासु उवउत्तो खेत्तपडिलेहया सव्वं च विधिं दरिसिति, अहवा जतं-अतुरियं | अविलंबिताए गईए गच्छति, तुरितो ण पेक्खति रियादि, विलंबिए सेसजोगहाणी, वत्ता चक्खंमि णिहाय पंथ णिरिक्खति, अहवा | |जविहारी चित्तणिधायी पंमि घेव, सो एवं चमतो जीवे दट्टण 'पलीवाहरे' प्रतीपं आहरे जंतं दृष्ट्वा संकोचए देसीभासाए, |एताओ सुत्ताओ तिनि इरियाउग्गमेसणा णिग्गता, 'पासिय पाणे गच्छिज्जा' पाणे पच्चुविक्ख गच्छति, जुयंतरदिट्ठीदिढे य | पाणे साहुणा एवं करेयवं-'से अभिक्कममाणे' अभिरामुख्ये क्रमु पादविक्षेपे, बोलेऊण पाणे ठवेति पार्द, 'पडिक्कममाणे' पतीवं | गच्छेत एवं दटुं पाणे, सर्वप्रकारेण जहा सत्ताणं आवाहा ण भवति तहा कुर्या, 'संकुचेमाणे पसारेमाणे' कुच फंदणे, सम्मत्तं | कुंचेमाणे संकुचेमाणे, प्रमृग पसारणे णिसण्णोतुयट्टी चा पमजित्ता जतो कुकुडिबियंमितेणं संकुचे पसारए वा, गमणागमणवजं विणियण जाव ते सत्ता गता ताव विणियमाणो गल्छति,'संपलिजमाणे' सरीरे जे सत्ता लग्गा ते संजतामेव पलिमजति, एगताण सव्यता, कार्य-सरीरं कायजोगं गुणा-नाणादि ३ 'समियस्स रीयतों' जं भणितं समितिसहितस्स 'संफासा समणुचिपणा' संफरिसा अणुचिण्णा, जं भणितं-संघट्टणं, एगतिया पाणा उद्दायंति, कदायि इहलोयचेतणविजापडितं, सेलेसिपडिवण्णास्स जे PA॥१८४॥ सत्ता संफरिसं पप्प उद्दायति मपगाति तत्थ कम्मबंधो पत्थि, सजोगिस्स कम्मबंधो दो समया, जो अप्पमचो उपवेति तस्स दीप अनुक्रम [१६९१७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [196] Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५६-१५९] (०१) प्रत श्रीआचा जहन्नणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं अट्ठ मुहुत्ता, जो पुण पमचो ण य आउट्टियाए तस्स जहन्नेणं अंतोमुहुर्च उकोसेणं अट्ठ संवच्छगंग मत्र- राई, जो पुण आउट्टियाए पाणे उद्दवेति तवो वा छेदे वा, वियावडं वा करेति, वेयावडियं कर्म खबणीयं विदारणीयं, वेयाव-14 चूणिः मडियं इह भवे खिज्जति, अणाउट्टीकत इहलोयवेयणाए चेतेति, आउट्टिकतं 'परिणाय विवेग'मिति परिष्णा णाम मिच्छत्तं, एवं ॥१८५॥ से अप्पमत्तेण' एवमवधारणे 'सेति भगवं तित्थमराणं पमाएणं उवचितस्स कम्मस्स विवेगकत्तेति वेदवी, तित्थगर एव कित्त-2 | यति विवेगं, दुवालसंग वा प्रवचनं वेदो, तं जे वेदयति स वेदवी । इदाणिं वचो से पभूतदंसी सेत्ति वेदवी, पभूतं दरिसणं A जस्स स भवति पभृतदंसी, पभूतं परिणाणं जस्स स भवति पभूतपरिणाणे, पभूतं-बहुगं दरिसणं पभूतपन्नाणं, अहवा पभृतं | खाइतं दरिसणं, पभूतं पण्णाणं खाइयं गाणं, उपसंता कसायादीहि, चरिते वा उवसंते, समितो इरियादीहि, सहिते नाणादीहिं, सदा | Bाणिचं 'जते' चकवालसामायारी एसा विभासियवा, सो एवंगुणजाइओ टुं अण्णउत्थिए विष्पडिवेदेति जाणेति-अहं सम्म हिट्ठी, एते मिच्छाद्दिडी, अहवा विविहं अप्पाणं पवेदेति, जं भणितं-जाणति, कहं , सष्णागतमादि दड़े अप्पाणं अबसस्स बंधु| मज्झे बलामह, मच्नुणोवणीतस्स सो सुबहुयोपि अत्थो किं कुवियवावडो कुणति ? अहवा किमेस जणो करिस्सति ?, रोगामिभूयस्स या ताणाए सरणाए वा भविस्सति, इह परलोगे बा, अहबा तेहिं उप्पयाविज्जति उ चिंतिजा-किं पुण मं एते उप्पण्वाविति ?, मम करिज्जा ण वा, संसाराओ वा कि उत्तारेति !, णिचोलिंति, अहवा मिक्खायरियाए सण्णाभूमीए वा गच्छंतं आयाक्तिं वा | राया वा रायामचो वा धणेण भोगेहि वा उपणिमंतेज्जा 'विप्पडिवेदेति' किमेस जणो धणं वा करिस्सति ?, 'एस परमारामें एसेव तस्स, एसे स परमारामो, परम इति उकिट्ठ आमज्जाया परमकिडाए, एता-एता इई लोए खाताओ इत्थीओ, एया। वृत्यक [१५६१५९] ॥१८॥ दीप अनुक्रम [१६९१७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [197] Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५६-१५९] (०१) ॥१८६॥ प्रत वृत्यक [१५६१५९] श्रीआचाय परमकरणीया एया परमसुहा 'गवामतिरसः खर्गः, स्वर्गस्यातिरसः खियः' अहवा मणुस्सा कामा अणिच्चा बंतासवा पित्तासवत्तिउद्धाधनारांग सूत्र सोचा पर अणुत्तरं कुरु इत्थीसु-ण एता मम सासता, 'एता हसंति च०' एवमासां संदरिसणाओ मोहो भवति तम्हा अमिसंगो दिट्ठो, चूर्णिः | केण एतं कहितं जं बुच्चमाण ? 'मुणिणा हु एतं पवेदितं' किमिति ?-'उब्बाहिज्जमाणो गामधम्मेहि अश्वत्थं वाहिज्जमाणो गामो-इंदियगामो माउगामो य, किं कुज्जा उब्याहिजमाणे ? 'अवि निब्बलासए' निब्बलाणि दव्वाणि असती णिब्बलासए.IN ताणि पुण णिप्फावकोदवकूरतकाईणि, अहवा जाणि सरीरं निवलंति ताणि जो असति स भवति णिब्बलासतो, सरीरे य निब्ब-D. लिज्जमाणे मोहोवि णिबलिज्जति, आयंबिल वा आहारेइ, अवि ओपोदरिय, तंपिणिब्बलं आयंबिलं वा ओमं करेइ जाब एगूणतीसाओ आरद्ध लंबमाणोत्ति, जति तहावि ण उवसंमति ताहे चउत्थं काउं जाव छम्मासे अवि आहार वोचिदिज्जा, तहवि ण हाति पच्छा 'अवि उट्ठाणं' रनिं एकं दोनि तिनि चत्तारि बा जामे ठाति दिवसं वा, 'अवि गामाणुगामं दूतिजउ'm दिअति उवहिं उप्पायंताण वा, सथ्वस्थ णिब्बलासमा ओमोदरियाओ करेति, सब्बहा अट्ठायंते संलेहणं काउं भत्तं पचक्खाइ, एवं | ता अबहुसुयस्स मोहतिगिच्छा, बहुमुत्तो पुण वावणं दवाविजइ, सेट्टिकप्पट्टदिद्वैतो, सम्वत्थवि य अह विजहे इत्थीसु मणं, संकप्पप्पभवो किल कामो भवति, भणियं च-'काम! जानामि ते मूलं, संकल्पास्किल जायसे । संकल्पं न फरिष्यामि, तेन मे न | भविष्यसि ॥१॥ इमाओ य आलंबणाओ इत्थीओ वञ्जणिजा भवंति, तंजहा 'पुवं दंडा पच्छा फासा' सत्था दंडा, दम्मन्ति | जेण सो दंडो, तेण पुण इह परत्थ य, इद ताव पुवं पहारा कस्साति लंभंति पच्छा फासा संवाएणावतासणालिंगणचुंबणादि, तस्थ दिद्रुतो-एगस्स रनो महादेवीए धूया संपत्तजोधणा ओलोयणवरगया अच्छति, तीए तंबोलगं निच्छूद, इंददत्तो य इम्भ दीप अनुक्रम [१६९१७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [198] Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१५६ १५९] दीप अनुक्रम [१६९ १७२] श्री आचा रांग सूत्रचूर्णिः 1122011 भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [४], निर्युक्तिः [ २४९...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १५६-१५९] सुओ तेण डाणेणं वोलेइ, सो य ताए ण दिट्ठो, तेण एतं पडतं तं रायकण्णं पलोएउं हत्थेण पडिच्छित्तुं मुहे च्छूढं, तीएवि दिडो ओरालियसरीरोति, रायपुरिसेहि य धेनुं पिट्टित्ता रण्णो य णीओ पासं, सिडे रण्णा विज्झडावेउं बज्झो आणतो, पच्छा सा दारिया तं चेडिसगासाओ सोउं मुच्छिता, आसत्था संती माताए पुच्छिया-एस ते रोयति ?, रोयतित्ति वृत्ते रण्णो णिवेदिते तस्स चेत्र सा दिण्णा, तेण फरिसिता, एवं पुध्वं दंडा पच्च्छा फासा, परलोएचि अभिगवण्णाओ इत्थीओ अवतासाविअंति, एवं पुब्वं दंडा पच्छा फासा, फासा पच्छा दंडा, पारदारिया गहिता संता संसट्टा वा कण्णणासोसीह पुच्छिता कीरंति मारिअंति य, परलोए तहेब निरयपालेहि य णरगवेदणाहि य दंडिजइ, इमाओ य आलंबणाओ इत्थीओ बनाओ, 'इथेते कलहसंगकरा भवति' इति एते कामा इस्थिसंथवा वा कलहकरा जहा सीयाए दोवईए य, एवमादी कलहकरा, कलह एवं संगो, अथवा कलहो-दोसो संगोरागो, अहवा संगति सिंगं वृधति, सिंगभूतं च मोहणिअं कम्मं, तस्सवि इत्थीओ सिंगभूता 'पडिलेहाए आगमित्ता' पवितस्स निवित्तस्स य गुणदोसे पडिलेहाए सुयनाणपडिलेद्दाए आगमित्ता जं भणितं णना, तित्थगराणाए 'आणविज अणासेवणतापत्ति बेमि' इमो अण्णो परिहरणोवातो, दुक्खं ताओ परिहरिअंतित्तिकाउं, तेण एसो गतोवि अहिगारो पुणो आरम्भति, पियपुत्तअप्पाहणिया वा, तंजहा-'से णो काहीए' जातिकहं कुलक वत्थकहं सिंगारकहं, धम्मोवि तासि रहसेण कयन्बो, जेसु दोसो उप्पज्जह, पुरिसाणं च सिंगारकहा ण कहेयच्या, कलिया कहेयच्या, कलियाकहा णरवाहणादि, पासणितपिण करेति कयरा अम्ह सा भवति सुमंडिता वा कलाकुसला वा आहृद्देसु पासणितत्तं करेइ, सुमिणे वा पुच्छिओ वागरे, अण्णतरं वा अड्डावतं, जहा एकाए गणियाए दीवारिकेण चंपारण चंपगमाला बज्झति, रायपूत्ता देति, पच्छा सा एगेण इन्भेण वाहिता, दंडस्प शेयोः पूर्वापरीभावः [199] ।।१८७।। पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१५६ १५९] दीप अनुक्रम [१९६९ १७२] श्रीआचा रांग सूत्र चूर्णिः ॥१८८॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [४], निर्युक्तिः [ २४९...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १५६-१५९] गया, चिंतेइ सो मए सद्धिं अच्छितुकामो, पच्छा तस्स घरे चंपगपुष्फेहिं पुंजपुंजेहि अबणिया कया, आसणे दिष्णे वीणं सो भजाए समं वाएइ, को अम्हं कुसलोति पसिणं पुच्छिता, विलक्खीभूया गया, संपसारता णामा उपसमतिया, काति कस्सति | साहुस्स अद्धिति करेज, पुच्छिया भणइ-भत्तारो मे अनं परिणेह, घूया वा न, कुमारी बेस्सा वा, अह पच्छा सो तीसे वसीकर| णादि देति, सावि तं अणुयत्तड, तेहिं दोसो होज्जा, तेण णो संपसारए, एरिसा मम भाउज्जा भइणी भज्जा वा हवइ, इतरहेव गम| नागमणसंबंधसंथवेहिं ममीकारं करेह, कतकिरियो णाम कते कते किरियं करेड, मंडितुं पुच्छितो- किमहं सोभामि ?, अपुच्छिओ वा भणति - अहो सोभसि, न वा सोमसि, एवं करेह तो सोभिस्ससि, द वा ता भावओ रोसितो, सुद्ध सा ते धृता तस्स दिण्णा, ण दिण्णा वा, एवं संजमदोसो, एवं पुट्टेण अपुद्वेण वा पासणियातिएसु वइगुत्तेण पडिसेहेयव्त्रं-ण एरिसं सोतुंपि वद्धति, कओ पुण | उचदिसितुं ?, आयरिओ वा अज्झष्यं णाम सुतं अत्थो वा तत्थ उवउत्तो णिचं तदप्पितमणा अज्झप्पेण संवुडो परिवज्जते तमेव मेहुणं तदणुपसंगेण य अण्णे हिंसातिए, ता 'मोणं' मुणिभावो मोणं, सम्मं नाम ण आससप्पयोगादीहि उवहतं, अणुवासिञ्जासि, अहवा तित्थगरादीहिं वासियं अणुवंसिज्जासित्ति बेमि । पञ्चमाध्ययनस्य चतुर्थः उद्देशकः ॥ उद्देत्याहिगारो गुरुकुले वसंतो आयरिओ हरयतुल्लो पंचविहायारजुत्तों नाणादीहिं कारणेहिं साहूहिं सावएहि य सम्म उवा| सिज्जति, आयारो पूर्वमधिकृत एव, स एव च सारो, गहियसारो य णाणाति णिव्वाणपज्जवसाणसारस्थिए हिं उबासिज्जति, अयं - ता अज्झयण संबंधो, सुत्तस्स सुत्तेण संबंधो- एतं जहा भणितं-मोणं अणुवसमाणो आयरिओ भवति, भणियं च 'नाणस्स होड़ भागी ०" सो य बहुस्सुओ एवंविधो भवति, तंजहा-'से बेमि' (सू. १६९) 'से'ति शिंदेसे, अहवा सोऽहं एवंविह आयरियविसेसं उब प्राश्निकादि निषेधः [200] ||१८८|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता... आगमसूत्र - [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : पंचम अध्ययने पंचम उद्देशक: 'हद-उपमा' आरब्धः, Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १६०-१६५] (०१) प्रत वृत्यक [१६०१६५] ANदसाम्य श्रीआचा IG लभ्य वेमि, तत्थ यतिरित्तो दव्वहरतो, परिगलणसोतो णाम एगो णो परियागलणसोतो पउमद्दहाति, परियागळणसोतो णाम |DI संग सूत्र- | एगो गो परिगलणसोतो जहा लवणसमुद्दो, एगो परिगलणसोतोऽवि परियागलणसोतोऽवि अहा णीलवंतद्रहातिगंगाकुड एत्र चूर्णिः मादि, एगो गो परिगलणसोतो णो परियागलणसोतो जहा बाहिरया समुदया सासयपुक्खरिणीओ वा, एवं सोतापवहे णाम एगे II ॥१८९॥ | नोसोयपडियच्छए, सोतप्पडियच्छे णामेगे णो सोतप्पवहे, एवं सेसावि भंगा, पडिपुण्णो णाम आईयाराइपुण्णो, जे वा हरयगुगा I तेहिं पडिपुण्णो, पसण्णतो यो जलएहिं उनसोमितो चिट्ठति 'समंसि भोमे चिट्ठतीति णिचकालं सगुणेहि य पडि पुष्णो | चिट्ठति, ण कयाइ सुण्णो जलजेहिं, उवसोमितो अणुतीरतरूहि य पत्तपुष्फफलच्छायोवएहिं 'समभोमे' समे भूमीभागे, ण गिरि-11 | सिहरे ण वा विसमे, सुबउयारउत्तारो य, ण साबएहि सीहाइएहि अनभिगम्मो, उवसंतरए अणेगपुरिसउवेहे, पसण्णपंको णिप्पंको | | वा सैवालरहितो, एगे भणंति-पउमातिरहितोबि, तत्थ सुहं दिस्संति पंककंटाइणो जालाणिगला वा, पति आगासेण पक्खी || गच्छति तस्सवि च्छाया दिस्सति, उवसंतरयत्ताओ य मच्छकच्छभे सारक्खति, ते ढकादि जालगलातिए य दक्षंण मअंति, तले | वा लग्गति, सारक्खमाणो इत्र सारक्खमाणो, से चिट्ठति, ण सन्चो णिग्गलते, 'सोयमज्झि'त्ति ततियो हरतो जत्थ सोताणि आग-110 PA लंति परिआगलंति य तम्हा ण खिाइ पेजमाणो य दुपयचउप्पदापदेहि विगेहि य, एस दिव॑तो, अयं अत्थोवणओ-एवं सो गुरुकुलबासी आयरिओ जुत्तो पडिपुष्णो अट्ठविहाए गणिसंपयाए, तत्थ पढमो सोतप्पवहो ण तु सोयपडिच्छतो तित्थमरो, | वितियो जिणकप्पियो, ततिओ गणहराई, चउत्थो पत्तेयबुद्धो य, ततिएण अहिगारो, पडिपुण्यो सो य आयरियगुणेहिं चिति, माणा अवट्टिनायारो जर्ग जगं समासज पडिपुण्णो, समभोमेत्ति आयरियभूमीए माहुभाषिते खित्ते पउरप्णपाणसुहविहारे सुह- ॥१८९॥ दीप अनुक्रम [१७३ १७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [201] Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १६०-१६५] (०१) प्रतिपूर्णतादि श्रीआचा- रांग सूत्र चूर्णिः ॥१९॥ प्रत वृत्यक [१६०१६५] णिक्खमणपवेसे, इहरहा च ण सकति चोरादीहिं तस्य गंतुं, जे तु पट्ठिउकामा, अहया मुत्तस्स तेणेव उवसंथारो पडिपुण्णो से |पास सबओ गुत्तों' सेत्ति णिसे, पस्सत्ति-युज्झत्ति, सचओ गुचेति-सब्वेहि पहिपुण्णादीहिं हरदगुणेहिं उपसंथायरेयव्यो) सव्वेहि इंदिएहिं गुत्ते य, से जाण लोए०, तत्थ महेसिणो गणहरा सोयमज्झट्ठिया, 'जे य पण्णाणमंता पयुद्धा' मिसं नाणमंता चोदसपुव्वधरा जे अण्णे गणहरवजा परंपरएण आगया आयरिया जाव अञ्जकालं, बुद्धा ओहिमणपज्जवनाणिणो सुयधम्मे वा बुद्धा जे जहि काले, ण पुण अब्बचा एगचरा वा बत्ता, जेऽवि ण जिणमादिट्ठा णाणाई पावंति गुरुकुले वसंता ते सामाधारीफुसला | भवंति 'आरंभोवरय'चि अण्णाण कसायणोकसाय असंजमो वा आरंभो, उवरया णाम विरता, जे आरंभउपरता 'एतं संमति पासह, 'कालखी परिचए' कालो णाम समाहिमरणकालो तस्स कालस्स कंखाए एवंविहसारजुत्ता गुरुकुलवासिणो सम्बओ वयंतीति, बेमित्ति करणं अशायअझयणमुयखंघअंगपरिसमत्तीए भवति, इह उ पगरणसमत्तीए दहब, गतं आयरियपगरणं, इदाणि सिस्सपगरणं आरम्भति, तस्थ अत्था तिबिहा-मुरहिगमा दुरहिगमा अणहिगमा य श्रोतारं प्रति, तत्थ सुरहिगमेण अहिगारो, अणहिगमावि अवत्थू , दुरहिगमेसु तु 'वितिगिच्छासमावणेणं' (स. १६२) तत्थ तार दरिसणे संका भवति, जइ धम्मस्थिकायो गतिलक्खणो तेण णिचमेव गई भवतु, अधम्मस्थिकायो द्विति तो य निघठाणं किं न भवति, आयरिओ भणइ-धम्मस्थिकायो न रज्जू जहा तहा कट्टति, किंतु गतिपरिणतस्स उवग्गहे बट्टति मन्छजलवत् , एवं आगासस्थिकाएवि, जीवाइसु वा गवसु पदत्थेसु परियतस्स वा पडिपुच्छ अणुप्पेहं धम्म वा कहेंतस्स एगपदे अणेगेसु वा वितिगिच्छा उप्पजेजा, किं अयं अत्थो एवं अनहिति, एवं संकिते ण लभते समाहि, समाही णाम एगगगं, तिविहा या समाही, तत्थ सम्मईसणसमाहीए अहिगारो, ते ॥१९॥ दीप अनुक्रम [१७३१७८] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [202] Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १६०-१६५] (०१) प्रत वृत्यक [१६०१६५] पुण सिरसा दुबिहा सिता य असिता, तत्थ सिता बद्धा, जं भणितं गृहस्था, असिया साह, अबद्धा कलत्तातिपासेहि, तेण हरतोव-10 सितारांग सूत्र-1 मेण आयरिएण कहिजंतं सियावि अणुगच्छंति असितात्रि, अणुलोमं गच्छति अणुगच्छंति, एगदा कदा किंचि ण अणुगच्छंति Mall सितादि एवं सेहतरावि केपि परियच्छति, ते परियच्छया पायपडिया भणंति-अहो सुभासियं पेसलं च भणिय, तत्थ गाद च अणणु-IN गच्छमाणोवि चिंतेति-कि मण्णे आपरिया अणुयत्तीए भकति ?, उदाहु परियच्छतो भणति, सो य पुण कदायि खमओ होज पयणु| कसाओ वा आयडिओ चिरपन्चइओ साहू किं मन्ने अहं भवसिद्धीओ अभवसिद्धी भो ?, संजमभावोनि मे णस्थि जं अहं एतं फुडवियडकहिजंतं नाणुगच्छामि, तस्स सम्मत्तधिरीकरणथं आयरिओ भणइ-णियमा तुमं भवसिद्धीए, अभवियस्स एवं संकादि | Nण भवति-कि अहं भविओ अभविओ वा ?, किंच-'बारसविहे कसाए खबिए उत्सामिए य जोगेहि' संजमो लब्भति, सो य ते लद्धो, तहेच दरिसणचरित्रमोहणीये तव खयोवसमं गते जेण सि सम्मत्तचरिचाई पडिवण्णो, जं पुण सम्मऽपि वट्टमाणो कहिज- | | माणं ण पडियुज्झसि तं गाणावरणिज ते कम्म ण सुट्ट खओवसमं गतं, जस्स उदएणं णिउणे पत्थे ण बुज्झसि तत्थ इमं आलंवर्ष-'तमेव सचं निस्संकं जं जिणेहिं पवेदित' (सू. १६३) अहवा सो तेसु अणुगच्छमाणेसु अणणुगच्छमाणो कहण णिबिजे? दरिसणातो ततो वा अधीतयातो, तत्थ इमं आलंबणं-'तमेव सर्व णिस्संक' अत्थिणं भंते ! समणावि णिग्गंथा संकामोहणिजं कम्मं वेदेंता०' आलावो विभासितब्बो, तथा 'वीतरागा हि सर्वजा, मिथ्या न बुवते वचः' (यस्मात् तस्माद चस्तेषां, सत्यं भूतार्थदर्शनम् ॥१॥) एवमादीहि आलंबणेहि ण णिधिजति, सा पुण तस्स वितिगिच्छा पब्वइयस्स भवति पव्ययंतस्स वा तेण बुचति'सटिस्स णं समणुग्णस्स संपवयमाणस्स'(. १६४) सट्टा अस्स अथिनि, समणुण्णो णाम पवारुहो, समावयंतस्स ॥१९॥ दीप अनुक्रम [१७३१७८] र पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [203] Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १६०-१६५] (०१) समि प्रत वृत्यक [१६०१६५] श्रीआचा- | संगतं वा जं तस्स, समियंति मण्णमाणस्स, संविग्गभावितो संविग्गाणं चे सगासे पव्वइओ, एगदा कयाह, अहवा एगभावो | रांग सूत्र | एगता पब्बा , एगता गिहत्थेहि कसाएहि वा असंकप्पो, वितियस्स समियंति मण्णमाणस्स एगया असमिया भवति, सो संविग्ग-100 चूर्णिः | सावओ णिण्हगसगासे पब्बइओ, महुराकुंडइलाण वा, पच्छा गेण णातं, अविकोविओ वा उस्सबसगासे, पच्छा सो समोसरणा॥१९२॥ | दिसु पंथे वा मेलीणो पुच्छिओ दुटु ते कतंति, जइ लकखणा चेव पडिकमति तो से सो चेव परिताओ, अह पुण सयं ठाणं | गंतुं परेहि वा चोदितो अच्छइ थो वा बहुयं वा कालं तो पुण उवट्ठाविआइ, ततिओ संविम्गभाविओ चेव असंविग्गाणं चेर्वतेण पथ्वयति, संकितो पुण मा हु एते णिण्हगा भवेजा, पव्ययामि ताव पच्छा जं भविस्मति, संविग्गेहिं संमिलीहामि, एवं पब्वइओ | पच्छा यऽणेण णात जहा एया जिव्हगा समोसरणादि सेसेसु संजएसु संमिजमाणे, पण्णवणाए वा आयारेण वा पन्छा आलोयए, | पुणो उवट्ठाविजद, चउत्थो मिन्नदसणोऽमिसंकितचित्ताण चेव सगासे पचाओ, तं चेव से रुचितं, एवं दुहतोवि असमिता जाता ओसण्णाण वा, एते चेव चत्तारि भंगा दोसु ठाणेसु समोयारिअंति, तंजहा-समियाए य असमियाए य, आदिल्ला दोष्णि समि| याए इतरे असमियाए, तत्थ सुत्तं 'समितंति मण्णमाणस्स समिया वा असमिया वा होइ उवेहाए' इक्ख दरिसणे, उविच्च इक्खा | उविक्खा, पढमस्स उवेहमाणस्स, वितिए पुण ते णिहए णाऊणं जं तब्बावारे उवेह करेति, जं भर्णतु तं भर्णतु जं करेंतु तं करेंतु IPI वा, जाब विसुद्धदसणे साहू पासामि ताय आभोगं करेइ, मा मे एते णिन्छुमिस्संति, अहं च अव्वनो अअवि, ताहे सो पण्ण-IN विजंतो वा असमाणेसु उबेहं करेति, तस्स एवं सा असमिया एवं भवति उवेहाए, वितियविगप्पे तु असमियंति मण्णमाणस्स समिया वा असमिया वा समिया होइ उवेहाए, असमिया चेव भवति विकोविजमाणस्सवि सम्मदिदिएहिं तेसिं पश्यणे उविक्ख ।।१९२॥ दीप अनुक्रम [१७३१७८] र पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [204] Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १६०-१६५] (०१) श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥१९३॥ प्रत वृत्यक [१६०१६५] FASE माणस्स, जं भणितं असद्दहमाणस्स, वतियस्सवि संविग्गा एतेत्ति णचावि जया तस्स पडिमियब्वे उवेहं करेंति तदा असमिया | उपेक्षादि भवति, चउत्थो असमिओ चेव, तत्थ जो सो हरतो धम्मो आयरिओ तस्सिमो वा अत्तपारो (पण्णो) उवेहमाणो अणुवेहमाणो, जी | भणितं-अपरिखुज्झमाणो, एवं उबेह, एवं एयस्स, एवं बुज्झ समियाएति, अरूसंतो-अफस भणतं टंकणदिलुतेण ताव माहेति जाव परिचाति, तदा तस्स ठाणस्स तं भवति णयणं, भणंति 'जट्ट चल्ल'त्ति, अगिलाए काले काले य पढमबितियादिपरीसहेहि अगि-11 लायमाणस्स स एव अत्थो पुणो पुणो उब्बेहतस्स (तत्थ तत्थ) संधी झोसितो भवति तत्थ तत्थेति वीप्सा, तत्थ तत्थ नाणं| तरे दंसण० चरित्तरे लिंगंतरे वा संधाणं संधी दरिसणसंधिव, अयं 'जुपी प्रीतिसेवनयोः' अहंबा, अहवा पदपादसिलोगगाहा वृत्तउद्देसअज्झयणसुयखंघअंगसंधिरिति, जुसितं जे भणितं आसेवितं, सदहिता पत्तीता भवंति, अथवा पत्रमिति संधितास्व, एवं | सद्दहमाणस्स 'से उडियस्स ठियस्स गति समणुण्ण' सम्म उड्डाणेणं उद्वितरस गुरुकुले वसंतोगति समणुपस्सह, किं गतिं गतो, जहा कोयि रायसेवगो रायाणं आराहित्ता पट्टबंध पत्तो, तत्थ लोए बत्तारो भवंति-पेह अमुगो के गनि गओ?, एवं अमितरइस्सरियत्तणेण महाविजाए वा, इह हि आयरियकुलावासे वसंतो 'णीयं सेजं गतिं ठाणं णियमा(णीयं च आसपाणि या' एवं वट्टमाणो 'पूजा य से पसीयंति, संबुद्धा पुब्वसंधुता ।' सो अचिरयकालेण आयरियपदं पावति पदबंधठाणीयं, अतो बुच्चति-उद्दितस्स द्वितस्स, अनाओवि रिद्धिो पावंति, सिद्धिगतिं देवलोग वा, एवं पावित्चा पंचविहे आयारे परिकमियब्वं, एत्थवि बाल| भावे' बाला, जं भणितं मूढा संकिया, यश्च संकियभावे य अप्पाणं णो दरिसिजा, जोवि अण्णो बालभावो, तंजहा-भारहरामायणादि तेहिं पुवं भाषियपुब्यो कुप्पारयणेसु वा वइसेसियवुद्धबयणमादिकविलादिएमु अविरतअवतअसंजयाण वतादिसु दीप अनुक्रम [१७३१७८] र पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [205] Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १६०-१६५] (०१) श्रीआचा- रांग सूत्र चूर्णिः ॥१९४॥ प्रत वृत्यक [१६०१६५] वा अगुत्तिअसमितिसु वा अहवा अत्ततो एगचरियाते पिण्डगते एवमादि वालियभावो, निच्चना अपणो णस्थि पाणाइयायो अ- बाल| पुण्णता य, आगासदेसे वा णवि रुक्खोत्ति छेदो डाहे वा, अवतद्वितस्स आगासस्स डाहच्छेदा ण भवंति, जहा णिच्चत्ता अप्पणो | भावादि णत्थि पाणाइवाओ, तस्स अभावे न पुरिसस्स सीसपि छिदिता, चालियभावे अपाणं ण दंसेति, भणियं च-"न जायते न म्रियते" एवमादि, तम्हा हतन्वं परियावेयवं उद्दवेयम्ब, ततो बुच्चति 'तुमंसि णामतं चेव(स.१६५)तुमंसिनि जो तुम पवादी तहिं । चेव अविरतिनि, अहवा तुमंसि तमि चेव काए अतिगतो असई अदुवा अणंतखुनो हमिहिसि, अमेहि वा जाव उद्दवेयवंति, अहवा छसु अण्णतरंसि कप्पति तेहि चेव, एवं मुसापाए अलिय भासियति मण्णसि, एवं जाव परिग्गहे, अहवा तुमंसि णाम तमि चेव अण्णुष्णमित्तविसयकसायभावे, तेण 'अंजुषेयं अंगुरिति ऋजु-साधु, च पूरणे, एतं पदं तम्बादि पडिबुज्झतीए साहु, अहवा अजवभावेण, ण सढयाए भएण वा, तम्हा 'ण हता णवि घातए' ण हंतव्वा सतं, घातएति कारावणं च अणुमो दणा य दोऽवि गहियाई भवंति, एवं 'अणुवेयणं अप्पाणेणं' अणु पच्छाभावे, अणुवेदणं अणुसंवेदणं, को अत्थो?-जहा तुमो | वेदावितो तहेव वेतितब्ब, अहवा समंता वेदिइ अणुवेदिजइ, अप्पाणंति अप्पणा ते अणुसंवेदिजंति, ण तु अण्णेसिं वेतेसंति 'जति |G तव्यं णाभिपत्थए' जंति जम्हा कारणा, इंतव्वं-मारेयबमिति, ण पडिसेहे, अभिमुहं पत्थए । वितिगिच्छाहिगारो अणुयत्तइ,7 | इमा वितिगिच्छा चेव सिस्सस्स-किं दबा गुणा अणण्णे अहवातो अण्णे, अहवा अणुसंवेदणीयं, भणियं च-अप्पाणेणं, वेद गाए णाणमेव, तं किं णाणं णाउं एगत्ते अण्णने संतो संदेहो, लोगेवि केइ अणं दव्वं गुणेहि इति केपि अणणं, अतो | | संसयाओ पुच्छा, जे आता से विष्णाता (. १६६) पुच्छाणुलोममेव वागरणं, जे आता से विण्णाता, णवि अप्पा नाणविना-18|१९४॥ दीप अनुक्रम [१७३१७८] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [206] Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १६०-१६५] (०१) आत्म श्रीआचारांग सूत्र चूर्णि : ॥१९५॥ A प्रत वृत्यक [१६०१६५] णविरहितो कोइ, जहा अणुदो अंग्गी णस्थि, ग य उण्ई अग्गीओ अत्यंतर, तेण अग्गी बुने उन्हें बुत्तमेव भवति, तहा आता | इति वुत्ते विष्णाणं भणितमेव भवति, विष्णाणे भणिते अप्पा भणितमेव भवति, एवं एनं गतिपञ्चागतिलक्षणेणं, तंजहा-जीवे | भंते ! जीवे ? जीवे २१, अण्यो भणंति-कि जे आता से विण्णाया? जे विष्णाया से आता? पुच्छा, वागरणं तु जेण बियाणति | से आता, केण बियाणति !, नाणेणं पंचबिहेणं बियाणति, तं च नाणं अप्पा चेव, ण ततो अत्यंतरं अप्पा, आइ-जइ एवं तेण णाणपहुचे अप्पबहुसं एकेके अप्पाए, एवं दरिसणबहुसेवि अप्पबहुतं, जावतिया वा आमिणियोहियनाणभेदा, एवं सुयनाण-| ओहिनाणमणपअवनाणभेदा तत्तिया जीवा, तत्थ इमं अस्पबहुत्तसंकाए पडिसेधत्थं सिस्स! सुत्तं भग्णति-'तं पडव पडिसंखाए' पञ्चत्ति जं जं नाणं परिणमति अयं अप्पा तं तं पप्प तप्पक्खो भवति, अहवा घडपडादिणो य बहवो अपवत्तं पवत्तं, अणिद्वं च। एतं, जेण बुश्चति पहुच संखाए, जता घडणाणेण उबउत्तो भवति अप्पा तता व घडणेयं प्रति घडणाणमेव भवति अप्पा, एवं पडरहअस्सनाणमिति, सोतातिउवओगो वा जहा सोओवउत्तो अप्पा सोइंदियं भवति, एवं जाव फरिसिदियमिति, भणियं च"जं जं जे जे भावे परिणमइ" अतो य उप्पायवयवत्तं भवति जीवस्स, एतं पहुच पडिसंखाए, सब्बवावगं मुत्तं एवं, जं जं भवं | नेरइयाइ भावं च उदइयादि धावगलावगादिकिरियाो पहुच तदक्खो भवति, पडनाणं च परिणतो पडनाणते, ण उ घडाइउवओगा य पडनाणकाले, अघडनाणकाले य अपडियमेव, एवं सम्बदबाणं पडुच्च पडिसंखा उप्पातादयो आयोजा, नंजहासुवणं कुंडलत्तेण उप्पण्णं, गंधत्तेण विगत, सुवण्णण अवद्वितं, नहा परमाणू कालगनेण उत्पष्णो नीलगतेण विगतो, द्रष्यतया अवद्वितो, एवं पपोगवीमसापरिणामा योजा, 'एस आतावानो' अपणो अपणो बातो आतावातो, दवे नाणे वा आतोबयारं ॥१९॥ दीप अनुक्रम [१७३१७८] र पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [207] Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१६६ १७१] दीप अनुक्रम [१७९ १८५] श्रीआचारांग सूत्रचूर्णिः ५ अध्य० ६ उद्देशः ॥ १९६ ॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [६], निर्युक्तिः [ २४९...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १६६-१७१] काउं बुच्चति- एस आतावाते, सम्मं परियाए, परियाए णाम पजाओ, विविधं विसिद्धं वा आहितो विहितो, एवं उडियस्स द्वियस्स गई समणुपस्सह सिद्धान्तगतिं वा । पंचमस्याध्ययनस्य पंचमोदेशकः ॥ आज्ञाना ज्ञादि एस एवाधिगारो - तिणि तिसट्टा कुप्पावणियसया वज्जेयव्वा, गिहत्था अन्नउत्थिया वजेयन्वा, रागदोसा वजेयच्या, अणंतरसुचसंबंधो तु सम्मं परियाओ बक्खाओ, इमपि सम्मं वक्खति-अणाणा अणुवदेसो (सू. १६७) जं भणितं - अणुवयारो, तन्त्रिवरीया आणा, अतो ताए अपाणाए सोवत्थाणं, सुवट्ठाणं आणाए, अणुवडाणं अणुञ्जमो, एतं ते मा होतु, एतेण दोग्गई गम्म तेण णिवारिजसि तब्बिवजयं कुरु को य सो तत्रिवञ्जओ १, अणाणाए निरुपद्वाणं, 'एतं कुसलस्स दंसणं' एतमिति जं भणितं, तद्द्डिीते- कुसलदरिसणदिडीए, मुत्ती- सरीरं, तप्पुरकारो तस्वष्णि तंणिवेसणा पुण्त्रभणिता, 'अभिभूय अदक्खू परीसहे | (सू. १६८) अभिभूय चचारि घाइकम्माई अभिभूता, अदक्खु एवं दिडं भगवया, अणमिभूते तेहिं चैव परीसहोवसग्गेहिं अन्नतित्थिएहि य, पशु णिरालंबणं निरालंबणभावो, पभू निरालंबणयाएति, आलंबणं मोक्खो तस्स च आलंबणस्स पभू, अष्णं च निरालंबणं काउं पभू, 'से अहं अवहिमणो' जे इति णिद्देसो, अहमेव सो जो अबहिमणो ण णिग्गयमणो संजमाओ सासणाओ वा पंचविहायारपयाओ वा अबहिल्लेसो, जति अण्णउत्थियाणं वेउन्यियाइरिद्धिओ पासति तहावि न बहीमणो भवति, छलवाते वाणिग्गहीतो ण पहिलेसी भवति, 'पवारण पवाययं जाणिजा' पगतो वादो पवादो, अप्पएर्ण पत्राएणं तिष्णि तिसङ्काणि पावादियसयाणि जाणिआ-परिक्खिज, परोप्परविरुद्वाणि एयाणि, तंजहा-ईमरेण कडे, अंडाओ, अग्गिसोमीयं, लोगमादीकतं, एवं परोप्परविरुद्वे पावादिए णचा सएण पचाएण णिगिन्दर, गणु एवं परसिद्धं तदोस कहाए रागदोसा, भण्णति, जहा उप्पहमग्गं दरिसें ॥ १९६ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : पंचम अध्ययने षष्ठ- उद्देशकः 'उन्मार्गवर्जन' आरब्ध:, [208] Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१६६ १७१] दीप अनुक्रम [१७९ १८५] श्री आचा रंग सूत्र चूर्णिः ॥। १९७।। भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [६], निर्युक्ति: [ २४९...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १६६-१७१] तस्म ण दोसो भवति, जहा अपत्थमोयणातो आतुरं शिवारंतस्स ण दोसो, एवं सएवं पत्रादेणं परवादे दुडे दरिसेंतस्स ण रागदोसो भवति, ते पुण सो कुवादे कहं जाणइ ?, पुच्छति, सहसमुहाते परवागरणेणं अण्ेसिं वा अंतिए सोचा, एतेहिं तिहिं कारणेहिं णच्चा 'णिद्देसं णादिवसिआदि (सू. १६९) दिसणं देसो विदेसो, पातिवत्तए णातिचरति, मेहावी पुथ्वभणितो, सयं भगवया सुट्ट पडिलेहितं विष्णायं तमेव सिद्धतं भागवतं तिहिं उवलद्विकारणाणं अण्णयरेणं उबलद्धिकारणेणं अभिसमागम्म, 'सबतो सताए' सव्वतो इति दव्वखित्तकालभावा, सव्वचाए सच्चभावेणं, बाहिएणवि अमितरएणवि कारणेणं, सम्मं एतं समभिगच्चा-समभिजाणिय, 'इह आरामं परिण्णाय' इहेति इह सासणे, आ माताएं, जावजीवं, ओरामो तवणियमसं जमे वेरग्गे य परीमहोबसम्गे जओ रमति, दुविहाए परिष्णाए परिजाणणाए जाणित्ता पंचक्खाण जाणणाए अनारामं पडिसेहित्ता तप्पडिपक्खभूते रमति, अच्चत्थं नाणादिसु लीणो अल्लीणगुनो सोईदिएहिं, सय्यतो बते परिवए, 'गिट्टियट्टी वीरे आगमेणं' ण एतीति विद्दितो, वीरो भणितो, आगमो अन्थो, तेणं पंचविहं सारं आगममाणे - उबलभमाणे आयरियमाणे, सुट्ट परकमिजासि सोभणं वा पर: कमिजासित्तिबेमि, एवं आणाए णच्चा कम्मसुत्ताई णिरुंधियव्वाई, ताणि पुण सोयाणि कुतो भयंतिति ?, बुच्चति - उड़ ( गा० १३) | सोइदियविसयकसाया व सोयाणि, उई कति विसए दिव्वे णियाणं वा करेति, एवं अहे भवणवासी, तिरियं वाणमंतरा मणुस्सए कामे पत्थे णियाणं वा करेइ जहा बंभवतेणं, पण्णवगं वा पहुंच उडसोता चंदादच्च गहतारा विज्जुगजियादि तहा य गिरिसिहरपरभार णितंवादिसु, अहो नदिपरिक्खिवगुहालेणादिसु, एते सोता वियक्खाता, जम्हा संगति पासहा तम्हा तिविहप्पगारो सोयगणो, अभिहितो संगो, कम्मसंगं परम-बुज्झह, भणियं च "सब्बओ पमत्तस्स भयं", सो य संगो रागद्दोसविसय कसाय अस्स कुवायादि [209] ॥१९७॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [६], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १६६-१७१] (०१) विवेकादि श्रीआचारांग सूत्रचूर्णिः ॥१९॥ प्रत वृत्यक [१६६१७१] | भवति अतो भण्णति-"अट्टमेयं उवेहाए (म.. १७०)रागदोसवसर्ल्ड कम्मबंधगंठिं उवेहित्ता तेहिं अस्सवेहिं विवेगं कडेति, विवेगो| णाम अस्सबदारपरिचाओ, पुब्बोदचियस्स कम्मस्स जहा विवेगो भवति तं पगारं करेति, वेदं वेदति वेदवी, तित्थगर एच, एगे आहु-'एस्थ विरमिज वेवी' 'एताओ आसवदारगणाउ गाहोवदिट्ठाओ विरमज वेदवी, विणएत्तु सोतं णिक्खम्म सद्दादीणि ताणि, ण सका सवहा उच्छिदेउं जे तेसु रागदोसोवाते ण कुजा, एगे आहु-'विणएत्ता सोयं णिक्वम्म एस महं' एस इति, जो य णिक्खंतो, महा पाहण्णे, मतीए वा, सासणे जं भणितं, णस्थि से कम्मआसवो, घाइकम्मक्खयाओय अकम्मा भविता | | जाणति पासइ कसिणं लोय, जो जहा उडं सोयादीहि सो तहिं बज्झइ, कम्मबंधकडुयं च फलविवागं जाणइ पासइ, पडिलेहाए, स चेव नाणपडिलेहा, आणत्ति वा नाणत्ति वा पडिलेहित्ति वा एगट्ठा, णावकखंति अतीते पुब्बरयकीलिगादि, अणागतेवि णिदाणकरणाइ, वट्टमाणे सद्दावसाए, णावकरसंति-न गगदीसेसु वदंति, आगतिं गतिं परिषणाप' आगति चउबिहा, गई पंचविहा, जाणणापरिण्णाए पञ्चवखाणपरिणाए तप्पायोग्गाई परिहरति, एयाए चे दुविहाए परिणाए 'अचेति जाइमरणस्स वहमग्गं' (सू. १७१) अतीव अतीति अञ्चेतीति, जाई मरणं च जाईमरणं संसार एव जाइमरणं तस्स वट्टमम्मो पंथो, तत्थ वियप्पितसंमारपियविप्पयोगदारिद्ददोभग्गादिसारीरादिदुक्खवट्टमग्गो संसारसोतं उत्तरह, तं कहं अञ्चेति ? कयरे च ते ?-'सवे सरा णियइंति ?, बक्खायरतो मुत्ते अत्थे य, भणियं च-'जह जह सुयमोगाहइ०' अपुब्बगहणं सूतियं भवति, सव्वे सरा, सयं इंदियविसर्य पप्प सरति-धावंति, अतो ते तहिं वक्खायरए साहुँमि णियति, तचिवागवियाणएहिं 'सदेण मतो 'कुस्थियपत्राता वा सरा, यारपंच अस्थि ते वक्खायरते साहुँमि णियरंति-पडिहणंति, ण सकेंति तं विपरिणामेउँ, किं पुण तं?, वखति-धम्मत्थियकायाइ पंच अस्थि ॥१९८॥ दीप अनुक्रम [१७९१८५] | पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [210] Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [६], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १६६-१७१] (०१) | काया, जीवंता अहि किच बुचति-सचे सरा नियति, सब्वे पवाया तस्थ णिपति, फिमिति ?-'तका जत्थ ण विजई' तका श्रीआचाAणाम मीमांसा, हेऊ मग्गो, ग य हेऊहिं परिक्खमाणो अप्पा सक्खं उपलब्भति घडो वा, जम्हा य एसो तकागेझोण भवति वेणी यादि चूर्णिः अथ चउब्धिहावि मती ण माहिता, उप्पति उग्गहादि वा मती, केवलपचक्खो, 'ओओ अपतिढाणस्स खेयण्णो' ओयेत्ति-एग ।।१९९॥ स एव जीवो अण्णं सरीरादि, अहया केवलणाणं ओयं, अपइट्ठाणस्स खेयण्णेति सो प अप्पइट्ठाणो-सिद्धो, से ण दीहे ण हस्से | ण बढे ण तसे ण चउरसे ण पडिमंडले' एतं संठाणं,'ण किण्हे जाव मुकिल्ले एतं रूवं गहितं, 'ण सुन्भिगंधे ण प्रत दुन्भिगंधे' गंधो गहितो, 'ण तित्ते ण कटुए ण अंबिले ण महुरे' रसो गहितो, 'ण कक्खडे जाव ण लुक्खे'फासो गहितो, काउगहणेणं लेसाओ गहिताओ, अहवा ण काऊत्ति ण कायव्य, जहा वेदिगाणं एगो पुरिसो खीणकिलेसो अणुपविसति, वृत्यक आइञ्चरस्सीओ वा अंसुमंति, एवं 'णवि रुहि"ति रूह बीजजम्मणि, ण पुण जणेइ अग्गीदड़बीयं चा, ण संगे इति जहा आजीवणगे, [१६६ "पुणो किडापदोसेणं से तत्थ अवरज्झति"ण इत्यिवेदगो"ण अण्णहति ण णपुंसवेदगो, किंतु केवलं 'परिणो सबओं' | समंता जाणइ परिण्या सब्बतो सभालकखणो, (उपमा) ण विजति, जहा इदिएहिं एगदेसेणं णचति, गाणदरिसणमतो, उवमा ण १७१] बिञ्जति, जहा कंतीए चंदेण मुहस्स उबमा कीरति एवं ण संसारिएणं केणइ भावणं सिद्धस्स मकति उपमं काउं तस्मुक्खस्स बा, भणियं च-"इय सिद्धाणं सोक्ख अणोवम" केवलं तु अरूबी, सतो भावो सचा, ण एवं अभावो पावति, अपदस्स पदंणस्थिति बुञ्चति, अपदो हि दीहजाइओ, तस्स गच्छओ दीई वढू परिमंडलं वा पदं पत्थि, एवं णिबाणस्स उवमा णत्थि, से ण सद्दे ण रूवे दीप ण.' (सू. १७२) पुनमणि तु, मुत्तदवाणं सदाइमंतं भवति, सो य तबिहम्मिते, तस्स सदाहमण विजति, इति परिस- ||१९९।। अनुक्रम [१७९१८५] | Ka पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [211] Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५०-२५२], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७२-१८ + गाथा: ] (०१) धूनना प्रत वृत्यक [१७२१८०] श्रीआचा 12. मत्तीए, एतातित्ति तस्स परियाता एतावति य परियायसेसा इति ॥ लोगसारविजओ णाम पंचमं अझयण सम्मत्तं ॥ रांग सूत्र- 1 ____ संबंधो लोगसारे हितो कम्मं धुणति (२४९-२५०) पढमे णियगविहुणणा, जहा अतारिसे मुणी, वितिते कम्माण विहुणणा चूर्णिः | 'सुब्भि अहवा दुभि अहवा तत्थ भेरवा', वतिए उबगरणसरीराणं,धु णाति भिक्खू अचेलो परिवसितो तस्स णं भिक्खुस्स णो एवं ॥२०॥ | भवति-सुत्तं जाइस्सामि, सरीरे किसावाहा, चउत्थे गारवतिगस्स विहुणणा, नियमाणावि एगे आयारगोयर० उबसम्गासंमाणो य पंचमे, संतेगतिया जेण लूसगा भवंति, अणुओगदारा चत्तारि, णामणिफण्णे धुर्व, दयधुवं जं धुवति जहा चरंडी पसम| गादि धुवति, हत्थीयो रुक्खं धुणति वाओ वा, फाली वा तत्थेव मले, भावधुगणा कम्मं तवसा धूयइत्ति, णामणिप्फण्णो गतो। सुत्तालावए सुत्तं ओषज्झमाणो (स. १७३) संबुज्झमाणो णिबुज्झमाणो पयुज्झमाणो सत्थपरिण्णाओ आरम्भ जं भणितं जंच | वक्खमाणं अणुत्तरं लोगसारं, तिविहं या बोहिं,'इह माणवेमु' इहेति इह सासणे, इह वा चरिने, माणवेसु आघाई अक्खाति, गरे, गराणं चेब, तिरिया ण सकेंति अक्खाइउं, केरिसो अक्खाति ?, जस्स इमाओ जोणीओ, जाइओति पगारा, ते य जीवादी | णवपयथा अन्नतिस्थियजाईओ वा, अहवा एगिदियजाईमाईओ, सब्बग्गहणा दबखेनकालभावेसु अग्घाति, सेमाणि य संतपदपरूवणादीणि जहासम्भवंति, पडिलेहियाओ ताओ मुटु पडिलेहियाओ सुपडिलेहियाओ, अग्धाति-अक्खाति, सेति णिद्देसे गाणंति जहत्थोवलं, त केरिसं ?, रलतोरेकत्वे ( उबलं कायवे ) असरिसं, तं च पंचविह, अहवा असरिसं केवलणाणं तेण असरिसमेव सुयनाणं कधेति, देसणं चरितं तवं विणयं च कहेइ आयरिओ, किटतेत्ति वा कहेतेत्ति वा एगट्ठा, अहवा आइक्चविभागेहि, किडतेत्ति पवेदेति, कीर्तिग्रहणा आइक्खति, व्रतसमितिकपायाणां धारण रक्षण, आयरिया विभागेहिं तेसिं चेर भेदं amamam ॥२०॥ दीप अनुक्रम [१८६१९३] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: षष्ठ-अध्ययनं 'दयुत' आरब्धः, षष्ठं-अध्ययने प्रथम-उद्देशक: 'स्वजन विधुनन' आरब्धः, [212] Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [4], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५०-२५२], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७२-१८०] (०१) उत्थितादि प्रत वृत्यक [१७२१८०] श्रीआचा | किटति वाणं धारणं पवेयणं तवफलं नाणादिसु पजोएआ, कस्स पुण सोवाते वा कहयंति ?, तेसिं चेव णराणं समुट्टियाणं, समु-10 रांग सूत्र-1 ट्ठाणं दवे भावे य, दवे पुरिसा अणुट्टिता, इत्थियाओ उट्टियाओ, भावे दोवि उडियाई उडेउकामाणि वा, णिक्खित्तमचूर्णिः INY Vधेसु, सत्थं छुरियादिवावारो, छिंदणा भिंदणा, अहवा णिक्खित्तदंडाणं पंच राय कुहा आरोहिता, जे य णिक्यमिउकामा तेसिं ॥२०॥ विसेसेण कहयंति, नाणादि ३ समाहियाणं, तिविहाय पज्जुवासणाए, कोति निक्खिनदंडोण य समाहितो जहा ओहाणुप्पेही | अणुवयुक्तो चा, पण्णाणमंताण-बुद्धिसंपण्णाणं, इतरे सुत्तत्थहाणी, ण य गिर्हति, सति सणिते आयरियाणं इह गहणो, इह प्रवचने, मोनिमग्गो मुत्तिए मग्गो २ मुत्तेहिं चा अणुचिण्णो मग्गो सो, इणमेव जिग्गंथं पात्र पणं नागादि वा मुत्तिमग्गो, मुत्तिनाम मणिब्याण, जं भणितं सिद्धी, एवं एगे महावीरा, एवं एगे सुणित्ता, अविसदा असुणित्तावि पत्तेयबुद्धजाइस्सरणादि, अक्यि "दोहि ठाणेहि आता धम्म लमिजा-सोचा य अभिसमिचाय"वीरा भणिता, 'विपरकमंति' विविधेहिं पगारेहि जयंति-परकमंति, | विधुणंति, अहवा परो-संजमो मोक्खो वा तत्थ परकमंति, परीसहा वा परकमंति, पासह एगे विसीदमाणे'पापहत्ति पस्सह, एगे PA पासत्यादि, सेलगवत् सीयंति, अहवा विविहं सीयंति नाणादि ३, जेहिं इह अप्पीकता पण्णा ते अत्तपन्ना ण अत्तषण्णा अणतINI पण्णा अपत्तपण्णा वा, अहवा अत्ता-इट्ठा अम्हण अपणो हितकरी पणा, किह पुण ते विसीदति ?, जहा चा उत्सग्गपरिणाए पडिलोमउवसम्गेहि य, कीवा बसगता केति सलिंगेसु चेव बहता पागाइवायाइसु वति, ते णो पुणो अमिलति माणुसादि, |एतत्थं 'सोहं वेमि' सेत्ति णिसे जहत्ति ओवम्मे 'कुम्मोनि कच्चभो, हरतीति हरतो, किं हरति ?, बाहिरमल, विविहं णिवेसिय |चित्तं कसभस्स सयणादिसु हरते य, केरिसो पृण सो हरतो ?, घणसेवालेण वा पउमपत्तेहि वा पच्छन्नपलासो, जतिवि तस्थ दुपद-1 २०१॥ दीप अनुक्रम [१८६ १९३] Ka पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [213] Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [4], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५०-२५२], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७२-१८०] (०१) कर्म प्रत वृत्यक [१७२१८०] चउम्पदा चरंति तोपि ण मिजद, तस्स य कहिंचि देसे छिद्रं अस्थि, तेण सो कुम्मो जहिच्छाए एवं उम्मग्गं लघु, उम्मग्गंणाम | रांग सूत्र दृष्टान्तादि उमग्गणा छिदं, तस्स य चित्तं जाय--कह णाम सव्वं सयणपरियाई इह आणेमिनि एवेति, ण य तं उम्मग्गं लभति, एस दिटुंतो,DI चूर्णिः ||२०२॥ अयं अत्थोवणतो-जीवो कुम्मत्थाणीतो, संसारत्थाणीओ इतो, पलासस्थाणीया कम्मा, उम्मग्गं माणुस्सादि ४ समतादि ३ साहू वा, ततो असंजमहरयाओ उत्तियो विधुणणं काउमारद्वो, पुणो कीबो बसगतो गिहिगतो, णिविष्णोविण सकेति संजमरथं उम्मग्गं AVलमिउं, इमं अण्णं विसीदतार्ण अणत्तपचाणं उदाहरणं-'भंजगा इव सम्णिवेसं जे भुचि भूमीई ते जाता भंजगा, जहेति सण्णि विसं | सत्यागं छिअंतावि ण जहंति, एवं गिहवासःखेणं दारिदादिणा अभिभूतावि संता ण सकंति पन्वइउँ, किमंग पुण रायादी?, अहवा | ka दोहवि इमो उवसंधारोत्ति-एवं एगे अणेगगोसेसु कुलेमु एवमत्रधारणे, एगे ण सब्वे, अणेगगोचसु मरुमादिसु, अहवा उच्चणीयेसु, उपवतिया समाणा रूवेसु गिद्धा सएसु पराएं य, अद्धा(ट्ठा)। गहिए चिंतेइ-अहो अहं रुवस्सी, सद्दादिसु वा सचा रागदोमगता मातापिचि एवमादिसु बा, तस्स असुहकम्मोदयस्स दोसेण णरगादिसु उववष्णा, ते वेयणाभिदुता कलुणं थणति वा कंदति वा सोयंति वा एगट्ठा, णिताणातो वा ते पा लभंति मोक्वं' णिदा बंधणे, णिदाणं कम्म, अहवा कसाया णेहफासा, तेहि णो लभंति मोक्वं, मोक्खो संजमो, एवं ते भोगणिमित्तं उष्णिक्खंता समाणा इमेहिं रोगायकेहि ण लभंति भोगा मोतुं, | "अह पास तेहिं तेहिं कुलेहिं जाता' अहरि अणंतर, पास तेसु तेमु कुलेम उमणीएसु, जाता संभृता, तंमि भवे अन्नंमि वा गंडी गलगंडीमादि, कोढी, कोढ अट्ठारसविहं, रायसि खयवाही, अवमारितं अबफेरि, काणो देशकाणो, अण्णेसिं अंधलओ, झिमितो अलसयवाही, कणि इत्येण पापण घा, कुन्जिता बामणो, उदरी जलोदरं, मूती म्पत्त, सुतिया गुणसरीरा, गिलासिणी अग्गीउ वाही, २०२।। दीप अनुक्रम [१८६१९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [214] Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१७२ १८०] दीप अनुक्रम [१८६ १९३] भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२५० - २५२], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १७२-१८०] श्री आषा गंग सूत्र चूर्णि: ॥२०३॥ चेवर वलगत्तया, पीडसप्पी हत्थेहिं कड़े घेतुं चङ्कमंती, सिलवती पादा सिलीभवति, मधुमेहणी बस्थिरोगो, 'सोलस एते रोगा- रोगातंकादि यंका' सोलमति संख्या, एतेत्ति प्रत्येकं जे भणिता लभते रोगा, एते चेत्र सोलस अक्खाया-कहिता अणुपुन्यसो-कमेणं, अणुपुसो वा कस्स गन्भे कस्सड़ जायस, कम्मुदओ वा अणुपुच्ची, अवा रोगा बाइयादि ४, संयोगे सोलसभंगा, अहवा णं फुसंतिपार्वति आगता अंगं संकामेन्ति आयंका, ते य सासकासादि, फासा दंसमसगादी सीयादयो वा असमिते य णाम अप्पत्तपुब्बा, | अडवा असममिता असमिता, असमिता णाम विसमा-तिब्बमंदमज्झा, अहवा फासा य असमंजसा उल्लत्थ पलत्था, अणिट्ठा य गाणापगारा, जया सीतं मग्गिञ्जति तता उन्हं भवति, एवं सेमयाचि आयोजं, 'मरणं तत्थ सपेहाए' मरणं तत्थ समिक्खि वसा जं मरणं च रोगायंका, अविघातं उवहारादीहिं मारिजति, अस्थि केति सुत्ता चेत्र मरंति, गर्भमि मरंति केइ, कोयि पुण जायमित्तओ मरति, मारेति मायरं कोयि, मरंतीए समं तीए जातस्स धुवं मरणं, तम्दा उम्मग्गं लभिऊण पुणो तहिं चैव रोगार्थकेहिं सुखं परियट्टियध्वं अहवा सव्वस्स अंते मरणं भवति, कोइ भणिजा-देवाणं णत्थि मरणं, तत्थ निदरिसणं पुरिल्लसुत्तं भविस्पति, जंमणमरणग्गहणेण तिरियमणुया गहिया, सव्वा देवा नागा य, मरणंताण य अंचलतिरियमादीणं दुक्खं उप्पजति, किमंग पुण देवाणं ?, तत्थ सुतं- 'उववायं चयणं च पणञ्चा' उवायायाओ चयणं, दोण्डं मरणं तिरियमणुयाणं, उब्बट्टणा नेरइयभवणवासिवाणमंतराणं, उवाओ सय्यदेवाणं, चयणं जोइसियवेमाणियाणं, जति ता अंघलगमादीणं अद्धिती दुक्खं च मरणाओ उप्पजति कथं देवचकवट्टीमादीणं चवणमरणकाले दुक्खं ण भविस्सइ ?, जम्हा एते पजाया सपेहाए, रोगार्थं कमरणोवचायचयजादी, राया भविता दासो भवति, 'पलिपागं च' पलियं कम्मं पलिपागो कम्मस्स जाव न भवति तं सपेहाए 'तं सुणेह जहा' ॥२०३॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : [215] Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१७२ १८०] दीप अनुक्रम [१८६ १९३] भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२५० २५२ ], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १७२-१८०] श्रीआचा रांग सूत्र चूर्णि ॥२०४॥ तमिति कम्मस्स णिसे, सुमेध जहा तत्थ णं जहा तहा, अहंवा जहा कम्माणि तहा विवागो, 'संति पाणा अंधा' अगमा नरसु चिंधतार तिमिसेसु अपेच्छता, एगिंदियविगलिंदिया वा, जेसिपि चक्खुईदिये अत्थि तेवि बुद्धीविहीणा एवं चैव दट्ठव्या, भावे वा मिच्छदिट्ठी, अंधा तमं पचिट्ठा० आलावतो, समपि दुविहं दन्यतमं अंधगारो, भावतमं मिच्छत्तादिओ, 'तमेव सई असई' कम्मं सई किया से असई - अणेगसो 'अतियच्च' पविसित्ता असुभस्थाणाई उच्चावते फासे अणे गप्पगारे सीतउसिणे सुभासुभादओ अहवा दीहकालडिओ उच्चावया सातासाता, महती द्विती कार्यद्विती भवद्विती वा दीहकालिया पडिवेदेति, 'बुद्धेहिं एयं पवेदियं' णिचं आत्मनि गुरुषु बहुवचनं, नाणादिबुदेहिं तिम्थगरादी एडिं, गाणमणेलिस, साधु आदितो वा वेदियं पवेदियं, जहा उद्दिट्ठ| कमेणं जं च वक्खति 'संति पाणा वासगा रसगा' वासंतीति वासगा -भासालद्धी संपण्णा बेइंदियादि वासमा, रसगा णाम जे जिम्मिदियलद्धिसंपन्ना, तिचा तित्तादिरसे उबलमंति, किमिगजलोगराजगादी, केयि रसगा चैव ण तु वासा, एगिंदिया ण वासगा णरसगा, पैदियतेऽवि सति के व्धितियाण वासना भवंति, रस आसादलद्वी पुण सव्वेसिं, सावि कस्सर उपहम्मति, एवं जस्स जति इदिया ते भावेयच्या जाब पंचिदियतिरिया, तेसिपि केसिंचि उवहताणि इंदियाणि, बुद्धि सरीरं वा, अहवा 'बुहेहिं एवं पवेदितं| संति पाणा वासगा रसगा' संति तिसुवि कालेसु छकाया, ण तुच्छिअंति, पाणिणो इति बत्तव्वे सरीरे आओवतारं काउं पाणा बुचंति, वासंतीति वासगा, कोइलमदासलागनूयादि, तत्थ तु जे जस्स गुणो सो तस्स विणासओ कार्ड, वासितदोसेणं पंजरत्था सइरपतारवियोगाओ गिरोधादीणि दुक्खाणि अणुभांति, रसिता रसगा महिवराहमितगतितिर बद्धाति, उदते उद्गचरा, मच्छगकच्छभमगर गाहा ( ) सुभगा ते दुविदा-संमुच्छिमा गम्भवंतिया य, उदगचरचि जे थले वि जाता उदगे चरंति ते उद्गचरगा, पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : [216] अंधादि ॥२०४॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत वृत्यंक [१७२ १८०] दीप अनुक्रम [१८६ १९३] भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ६ ] उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२५० २५२], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १७२ - १८०] श्री आचा रांग सूत्र चूर्णि: ॥२०५॥ जहा महोरगा, एतेसिमं थले चरा बुतिया, केह जले जाता थले विचरंति जहा मंदुकादि, वेइंदियादि संखगगादि, चिकखल्लजले वि जाता उभयचरा भवंति, जाखिणो चिक्खल्लजलयरा भवंति के उभयचरा, आकासगामी आगासेज गच्छ पक्खिणो, 'पाणा पाणे किलेसंति' ते सव्वेऽवि पाणा पाणे तुल्लजातिए अतुलजातिते वा चाहिँ अंतो य किलेस्संति, तंजहा-केह उवहणंति के संघति जाव जीवियाओ ववरोविन्ति, देवनारगाणं केवलं सारीरं माणसं च वेयणं उप्पाईति, णो उद्दवेंति, ओरालियस रीरे परोप्परं संघ| ती जाव उवेंति, तं एतं 'पास लोए महम्भय' लोगो छज्जीवनिकायलोगो जहुद्दिद्रुकमेणं, जहुत्तरोगादि जाब वासगा य णो पाणे किलेसेन्ति, महंतं भयं महम्भयं जं भणितं मरणं, तं एवं पचा मा हु तुमं कच्छभसरिसं काहिसि किं भयं ? - बहुदुक्खा हु जंतवो' चणि जेसिं दुक्खाणि, जं भणितं बहुकम्मा, जो भणितो रागादिकमो पच्छा संसारकमो, तंजहा - वासगा रसगा, एतेणं बहुकिलेसा बहुदुक्खा, जायंतीति जंतवो, कम्मोदयाओ वा जहा कच्छुल्लो कच्छु, एवं 'सत्ता का मेहिं माणवा' सत्ता मुच्छिता, | अप्पसत्थिच्छाकामेसु मदनकामेसु, मणो अवचाणि माणवा, लोगसिद्धं, अबलेण वधं गच्छति तस्स बलं विजतीति खुधतिसासीत उण्डदंस मसग रोगवादिपरीसहहता अत्रलेणं छेवसंघयणेणं, केण छुहादिपभंगुरेण करणभूतेण तप्पगारेण वह एगेंदिया| दीणं सत्ताणं जाव पंचिदियाण तितिरादिणं, कंवंति पत्थंति गच्छंति एगट्ठा, एवं मुसावायं जाब परिग्गहं, सरतीति सरीरं, भिस भंगसीलं पभंगुरं, तेण छुहादिपभंगुरेण सरीरेण वह कंखतीति बढ्छ, अहवा अबलेण वहं गच्छंति, सरीरेण पभंगुरेण, जुद्धादि असह अबलं, तब्बलणिमित्तं अहंमं काउं वधो-संसारो तं गच्छति, केण ? - सरीरेण पभंगुरेण, अहवा अध्येणावि दुक्खेण भजति अप्पभंगगुणं, एवं 'अट्टे से बहुदुक्खे' अड्डो पुत्रवणिओ रोगायंको वा सो एवं अट्टो दुक्ख उवसमणिमितं काय व हे पसञ्जति, जतो प्राण क्लेशादि [217] | ॥२०५॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [4], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५०-२५२], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७२-१८०] (०१) श्रीआचा-18 रोग सूत्र SHARE प्रत वृत्यक [१७२१८०] चुच्चति 'इति वाले पकुवई' इति-एवं, जेण अड्डो रोगायंकेहिं रागदोसेहिं वा तेण दोहि आगलितो बालो मिसं कुबइ, जं वुतं | प्रगल्भादि | पाणा पाणे किलेसंति जोगत्रिककरणत्रिकेण, पढिाइ य 'इति बाले पगन्भंति' पाणाणं किलेसादि करेंतो पगभं गच्छति, चूर्णिः IN जं भणितं धारिलु, तंजहा-को जाणइ परलोगे, परलोगरूवस्स ण विभेति, जातो एवं आतुरो रोगपडिगाराय पाणा पाणे किलेसंति | ।।२०६॥ 'एए एते रोगा वहुं मचा' जहुदिट्टकम्मेणं 'गंडी अहवा कोढी मलसीसरोगा य आयंका, बहु इति वातादिसमुत्थाणं रोगायं-IAN | काणं अद्वैत्तरसयं, तेसिं उदयेण आतुरो भवति, अहवा खुधतिसासीतउण्हाइएहिं बिसेसेणं णिचं आतुरे सत्ते, वातातिसमुत्था रोगा| सविसयलद्धअवगासा परियावंति, ण य ते उप्पण्णे कोई णियचेउं समन्थो, तेण चुचति 'णालं पासं' णो इति पडिसेहे, अलं णिवारणे, णो तेसिं उत्पन्नाणं सयणो अलं निवारणाय, भणियं च-"सयणस्सवि मज्झगओ०" नाणादिभेदसमं सव्वं कम्म, रागाण उवसमणं तत्थ जइयवं, ण तु वातादिरोगउवसमे कर्ज, परमं णिब्वाणं, तं कखतेणं एवं परस' दट्टण य तहा करेहि, अहवा जं युतं पाणी-पाणा किलेसंतित्ति, भट्टारओ भणइ-मा हु तुम एवं तं दुक्खं निवारणपञ्जतं उस्सेजासि वहकखणेणं-बह-| पत्थणेणं, ण य रोगेसु पडिगारपवित्तस्स कम्मासबस्स अलं भवति, अट्ठविहं कम्म एगपाणिवहे बज्मति तं जहा भणितं एतं पास, अत एव 'अलं तवेतेहिं' अलं निवारणे, अलं च कंखापसत्ताणं, अहवा अलं च तव, संजमे व सब्बदुक्खविमोक्खाय, अहवा | विसया रोगा, एते बहुविसयरोगे सफरिसादि, अहवा बहुचि इट्टाणिढे णचा-जाणिचा, आतुरा अप्पत्ता विप्पयोगे वा समंता । | उवेह, इह परस्थ य ताव परितावए, किंच-एतेहि णालं तस्स, णवि विसरहिं सेविजमाणेहिं अलं भवति, भणियं वा-तणकट्टेण व अग्गी लवणजलो वा णदीसहस्सेसुं । ण तिसा जीवस्स (सक्का, तिप्पे कामभोगेहिं ॥१॥) जतो य विसएहिं तित्ती पत्थि नेण ॥२०६॥ दीप अनुक्रम [१८६१९३] र पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [218] Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [4], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५०-२५२], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७२-१८०] (०१) श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥२०७॥ प्रत वृत्यक [१७२१८०] | अलं विसयासेवणयाए, उबदेस-एतं पासह 'तं पास मुभी' एतदिति जं भणितं रोगादि कम्मेणं दुक्खं भवतीति तप्पडिगारणि-1 धुतवादः | मित्तं च बासगारसगादिषाणा पाणे मुसावायाइसु त पसज्जए, तं एतं पस्स, जं च अण्णं, भणितं च-गतुं गंतुं सीहो पुणो पुणो मग्गओ पलोएड । सुत्तत्थीवि हु एवं गतंपि सुन पलोएति ॥१।। मुणेति मुणी, हे मुणी, महंतं भयं महन्भय, विचित्तकम्मफलविवागं संसार, तम्भया पाणादिवायातिउज्झी, ण इति प्रतिषेधे, पतिवयणं प्रतिवातो, किंचिदवि तसं थावरं वा जोगत्रिकेण करणत्रिकेण वा जाव परिग्गडं जहुदिढकमेण य 'आजाण भो' अश्वत्थं जाण, भो आमंतणे, जं करणीयं ण वा, अहवा जं भणितं वक्ख माणं च एतं अत्थं जाणह-पासह सहद, सोतुं इच्छा सुस्सा धूणणोबायजाणथं गुरुकुलणिवासी जं इमं णियगधुणणाहिगारे || N वट्टमाणे 'धुयवायं पवेदहस्सामि' धुयं भणितं, धुपस्स वादो धुव्वति जेण कम्मं तवसा, भणियं च-"जं अण्णाणी कम्म खवेइ | बहुयाहि पासकोडीहिं" णागज्जुणीया 'धुतोवायं पवेदइस्सामि' जेण कलत्रमित्तादि अहवा पसंगं, पण उवेज कम्म al धुणति तं उपाय साहु आदितो वा वेदितं पवेदितं, पुण केइ पढमेण पन्चजसत्चेण धुणंति कर्म, केह वितिएणं जाव अट्ठमेणं,M एतेसिं च सम्बेसि इमो चरित्तलाभोवातो, इह खलु अत्तत्ता तेसुतेमु'दहेति इह मणुस्सलामे, अत्तभावेण अत्तत्ताए उववअंति, | ण तु अबो उबवायंतो कोइ इस्सरो पयावई वा, सो उबवञ्जमाणो अत्तत्तेण उववाद, णस्थि भूतधातुपचयासंघातमित्तमेव, 'तेसु | तेसुत्ति उत्तमहममज्झिमेसु, जेहिं पुष्वं सामनं कयं सायगत्तं वा, मिच्छादिदिडी वा पयणुकम्मा, (अमिसएण) अभिसंभृता| तत्थ अमिसेगो सुक्कसोणितबातो तया उववण्णमित्ता तत्तुल्ला भवंति, ततो अमिसेए भृता 'सत्ताई कललं भवति०' अनुपातो आरद्ध । जाव पेसि ताव अमिसेयभूता, अभिसंजाया च पिलगादिकमसो अंगं उवंगं गारुच्छिरासीसरोमाइकमेणं अक्खता, अमिणिविट्ठा ॥२०७|| दीप अनुक्रम [१८६१९३] Ka पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [219] Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [4], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५०-२५२], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७२-१८०] (०१) प्रत वृत्यक [१७२१८०] श्रीआचा- पभूता, अमिसंबुद्धा जाव अट्ठयरिसाओ आरम्भ सतिवरिसेणं देरणा वा पुरुषकोडी, अभिसंबुद्धा तित्थगरा, सम्वे अभिसेगकाल | पराक्रमादि रांग सूत्र- एव संबुद्धा, सेसावि केई अपडिबडितेणं सम्मत्तेणं गम्भं वकमंति, केसिंचि गम्भट्ठाणं जाइसरणेणं उप्पाइ, पसूयाण वा बालते ) चूर्णिः | जाव वुडत्ते अभिणिवता, कम्माभिमुद्दा णिक्खंता अभिणिक्खंता, अणुपुथ्वेणं जो एसो आदि उवकमो उवदिट्ठो, महंत जेण मुणितं | ||२०८॥ जीवादि वा सो महामुणी,'तं परकमंतं परिदेवमाणा' तं तेच साहुं आदिओ वा कम्मति अन्भुजय विहाराय मोक्खं वा मातापितामादि णातिगा देवणं-कंदणं, मा णे जहाहि इति ते वदंति, छंदोवणीता' छंदो-दच्छा, छंदा उवणीया छंदेण वा उवणीतं, ID | भणितं-अण्णोण्णवसाणुयत्तं, अज्झोववण्णा तेहिं तेहिं संबंधिविसेसेहिं कारोवकारविसेसेहि य मुच्छिता-गिद्धा गढिता अज्झो| बवण्णा, अश्वत्थं कंदो अकंदो, तेहिं उबसग्गविसेसेहिं अकंद कुब्वंति अदकारी, जणंतीति जणगा, मम पिया बंधवा रोयंति, | रुदंता य एवं भणंति-'अतारिसे मुणी' उर्दू णवि ओहं-संसारसागरतारी मुणी भवति जेण जणगा पगतं जढा विविहं जढा || विजदा भावितं अणुरत्ता कुयमाणा दीणदुम्मणमाणसा 'णाह ! पित कंत सामिय.' एवमादि, अहवा अतारिसोण तारिसो, मणी | गस्थि, जेण किं कर्य ?-जेण जणगा विप्पजदा, अहवा अतारिसो पोतवहणं णावाभूतो अपणो परेमि च संसारसमुदतरणाय जणया चता जेण विष्पजढा 'सरणं तत्थ से णो समेति' सरंति तमिति सरणं, तत्थ बंधुगणे, ण णवि, सो त अणुरचपि बंधवगणं सरणAMI मिति समत्थं समं वा, ते इति समेति, जह ते मम परलोगभया सरणं भविस्संति एवं ण समेति, अहवा सरीरादिपरिचाणाए जह Mव तेहिं ण सो संसारं तरति, जणगा जेण विष्पजदा, एतप्पगारं अणुलोम उबसगं ण सरणं समेति, जहा मम मातापितिमादि, | एवं दुक्खपरित्ताणाए भविस्मति, किं?, न रमणीयो गिहवासो जेण सो ण रमति, गिहवासे किं धम्मो णस्थि, भणियं च-110 ॥२०८॥ दीप अनुक्रम [१८६ १९३] र पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [220] Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५०-२५२], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७२-१८०] (०१) आत श्रीआचा रांग सूत्र चूणिः ३ उद्देशः ।।२०९।। प्रत वृत्यक [१७२१८०] 'या गतिः केशदग्धानां 'ततो बुचति-विसयतिसियाणं अयाणगाणं एतं आलंबणं, जाणओ पुण 'किह णाम से तस्थ रमति'। | किहमिति परिपण्हे, कहं णाम सो णिविणकामभोगो पब्बइओ व संतो पुण गिहवासे रमति घिति वा करेति ?,"पुत्रदारकुटुंबेषु, सक्ता मोदंति जन्तवः। सरपङ्कार्णवे मना, जीर्णा वनगजा इव ॥ १॥" एवमादि, एतं से जं भणितं एयं धुणयाविहाणं, एतं | नाणं नाम अवितह उवलंभो, अणुगतं अणुकूलं आय रियसमीवेऽणुवसाहिऽणुवासिञ्जासित्ति वेमि । षष्ठस्याध्ययनस्य प्रथमोदेशकः समाप्तः । उद्देसामिसंबंधो स एव धुगणाहिगारो अणुयनति, तत्थ पढमे जियगा विधुया, वितिते कम्मबिहणणं भण्णति, ताणि दुक्खं धुणिजंति, तदत्यमेव नियगा विहुणिजंति, सुत्तस्म-किं णाम सया सरणं समेति अपरे चत्तदोसे जाणतो पस्संतो, इमं च अनं | जाणति पस्सति, तंजहा-आउरं लोगमादाय, किंच-एतं जं भणितं, एतं णियगविहुणणं, एतेण य संमं अणुवासिञ्जासि, इमं च । अण्णं, तंजहा-आउरं लोगं, अचत्थं तरतीति आतुरो, मातापितिमादि मयणलोगं, केण आउर?, ओहेण आउर तबियोगे, तेहिं । । तेहिं कजेहि परिहायमाणेहि आतुरं, तमादाय-तं पप्प, जहिच्छाया संबोहणत्थेवि, अहवा तमादाय-तं घेत्तुं, बुद्धीए आतुरं लोगं | णाणेण आदाय, जहित्ता पुबमायतणं-आयतणढाणं-आसयो "गिहाणि धनधान्यं च, कपाया विषयास्तथा । कत्थो वाऽसंयमो सोते, सर्वमायतनं नृणां ॥१॥"हिचा उवसमं इह पवाहि वा' आदिअक्वरलोवा अहिचा, इहत्ति अमिन प्रवचने, इहेति मणुस्सD लोए, इह वा इई अज्झयणे, उवसमणं उबसमो-संजमो, जो वा जत्थ पिई करेंति से तस्स उबसमति, वसित्ता बंभचेरंसितं संजमो सत्तरसत्रिहो, वसित्तु वा पालित्तु वा एगट्ठा, तं च बंभचेरै वितितं से णाम चारित्रं, अवा संजमो दुहा भवति-से बसुमं । ॥२०९॥ दीप अनुक्रम [१८६१९३] HASTRI पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] “आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: षष्ठं-अध्ययने द्वितीय-उद्देशक: 'कर्मविधुनन' आरब्धः, [221] Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८१-१८४] (०१) | वसुत्वादि VIA प्रत वृत्यक [१८११८४] श्रीआचा-1 वसति जेहिं गुणो सो वसु, अणु पच्छाभावे थोवे वा, "वीतरागो वसुज्ञेयो, जिनो वा संयतोऽथवा । सरागोऽनुवसुः प्रोक्तः,स्थविरः श्रावरांग पत्र-14 कोऽयया ॥१॥"'जाणितु धम्म अहातहा' सुणेत्तु धम्मं सुयधम्म चरितधम्मच, दसविहोवा, तंणचा, अहातहत्ति तदा तहत्तिचूणि काउं चिरं अप्पं वा कालं 'अहेगे तमच्चाई कुसीला' अधेति अणंतरिए, एगे, पण सव्वे, तमिति तं वसुं संजममियरं बा, अचाई णाम ॥२१॥ अचाएमाणा, जं भणितं असत्तिमंता, कुच्छितं सीलं तमिति कुसीला, परिणालोबातो कुसीला, किं पुण जे अन्नं करिस्संति ? केह वा वण्णलिंगत्तणेणं अच्छंती, केइ लिंगं छड़ेंति, ये लिंग मुयंति तं पटुच चुचति, तत्थ-'पडिग्गहं कंबलं पादपुंछनं विउसज्ज' वत्थं सुत्तियकप्पा पडिग्गहो-पादं कंबलगहणेणं उष्णितकप्पासिता गहिता, पादणिजोगोवा, पादपुंछणं रयहरणं, एवमादि, विविहं| | उसजा कोयि सावओ भवति, कोवि दंसणओवि, भविस्सति चा गिही कुलिंगी वा, कह ?-तो दुल्लभं लमित्ता चरित् ण अच्चतं अणुपालितं, ते तु परीसहेहि पराइया, ते य 'अणुपुवेणं अणाहियासेत्ता' अणुपुब्बी णाम कमो, (परिसहणंति वा) अहियासणंति वा एगट्ठा, परीसहा ते य एवं अणुपुष्येणं ण अहियासिअंति, सई मुणेना तत्थ मुख्छति, तं वा प्रति अमिसप्पति, ण य से अच्वावारं करेइ, तदुवरमे य तदैव अणुस्सरति, एवं दुरधियासा भवंति, जाव फासा, एवं अणिद्वेसु दोसं करेति, जहा सो खुडओ सुगओ जातो, एवं दुरघियासेञ्जा, अणुपुब्वेणं अणहियासेमाणे णचाधि यातुरं लोयं हिचा हि पुथ्वमायतणं वसु अणुवसुनं वा पाविचा पडिभजंति 'कामे ममायमाणस्स' अप्पसस्थिच्छामदणकामा, माणुसए तिविहे अधिकं कामेमाणस्स, तस्म हि पत्तकामस्सवि सतो अणेगे पच्चवाया भवंति, किं पुण जस्स ते ण व संति ?, अदवा अहिकामे चकचट्टिपलदेववासुदेवकामे एक|मादि, जो पुण धुणिजति-उप्पाविजइ मो णियाणपि करेमागोण उचिमे पुरिसो भोगे तंमि भवे पावति, तस्स कामभोगकारणस्स ॥२१॥ दीप अनुक्रम [१९४१९७] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [222] Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८१-१८४] (०१) उत्पबाज नादि श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥२१॥ प्रत वृत्यक [१८११८४] जीवियस्स अंतराइयं भवति, किं पुण कामा ण सेवियन्या ?-'इदाणिं वा मुहुत्ते' इमंमि काले इदाणिं, पञ्चतंतो कोई उप्पब्ब- अइय, मित्तो वा जीवियाओ विहण्णति, वातादि अण्णतरे वा, रोगेण आसुक्कारिणा तं मुहत्तस्स, कोयि तदिवसं कंडरीओ वा, अहोरत्तसत्तरचस्स अद्धमास जाव कोडी एवं अपरिमाणाए, एतेणं तस्स परिमाणं ण विञ्जति, मेदो जीवसरीरप्पा, अहवा अपरिमाणाए उवक्कमेणं अणुवकमेणं वा ण णजति कई गमणमिति, उचकमेवि सति ण सो उवकमविसेसो णजति जेणं मंतव्वमिति, तंजहा'अज्झवसाणणिमित्तं जीवा बंधंति दारुणं कम्म०' गाहा । डंडकससत्थरज्जु एवं से अंतराइएहिं एवमधारणे, अवधारणादेव हि सअंतराया कामा, जति से केति पुग्वुज्जुचा अह तहा रागादि वा कम्म काउं उवजेता कोदवकूरासिणा साणियापउत्तेणं पलालसाइणा का, सो एवं तेसिं गिफलो दिक्खापरिचागो, ण य गृहं ग य परलोगो, साहूणं पुण जति णाम अण्डाणाइ दुक्खं तहावि तप्फलं, धम्म णं परमाणस्स, सफला जति राइओ। अकेवलिए हिं' केवलं-संपुष्ण ण केवलिया-असंपुष्णा, मणुस्सेसु ताव पेहजणे परोप्परेण कामभोगा छट्ठाणपडिया, ततो मंडलियस्स अणंतगुणा, बलदेव वासुदेव चकचट्टि अणंतगुणा, कमसो चकवहिस्स, माणुसस्स वा केवलाण य पडिभग्गो समाणो मंडलियाईणं चउण्हं ठाणाणं एगतरपि आरापति, रजं णाम कोइ आरातिजा, जहा कंडरीओ, ते तु अकेवला, ते सव्वकामभोगे तु पहुच से जहाणामए केड पुरिसे पढमजोवणुट्ठाणवलत्थे तस्स पुरिसस्स कामभोगेहितो एनो अर्णतगुणं मंडिलयबलदेववासुदेवचकवटियाणमंतरजोइसिय जाव अणुत्तरोववाइयाणं, तेसिं केवलं 'अवितिपणा चेव' विविहं तिण्णा वितिन्ना ण वितिण्णा अवितिण्णा, वेग्गेण एते कोइ निष्णपुब्यो तरति वा तरिस्सइ वा, जहा अलं मम तेहिं, च पूरणे, एते मणुस्सकामा, एवं दिव्यादि, आतुरं लोगमादाएति जाव तहत्ति अहेगे तमचाई, पमादो उपदिडो जाव इमं मुसं| ॥२११॥ दीप अनुक्रम [१९४ १९७] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [223] Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८१-१८४] (०१) प्रत वृत्यक [१८११८४] श्रीधाचा अवितिष्णा चेते । इदाणिं पुण अप्पमादो सहिते-धम्ममादाय जाणि प्पमादमुत्ताणि भणिताणि तंजहा अहेगे तमच्चायी एताणि । अप्रमादादि रांग सूत्रचूर्णिः | विवञ्जतेण पढिअंति, अस्थआसवातो तंजहा-अहेगे तं चाई सुसीले वत्थं पडिग्गहं अविउसञ्ज अणुपुटवेणं अहियासमाणो परीसहे दुरहियासओ कामे अममायमाणस्स, इदाणि वा मुहुने वा अपरिमाणाए भेदे, एवं ता अंतराइएहि कम्मेहिं वितिष्णा चेते, एयाओ ॥२१२॥ आलंबणाओ कामे अणासेवमाणे 'अह एगे धम्ममादाय एवं अप्पमादेणं पमादो अंतरिओ उपदिट्ठो, भणियं च-“यस्त्वप्रमादेन | तिरो प्रमादः, स्याद्वापि यत्तेन पुनः प्रमादः। विपर्ययेणापि पठंति तत्र, सत्राण्यधीगारवशाद् विधिनाः ॥१॥ एतं अण्णोण्णमणु|गता अहिगारवसेणं, अधिगे, अधेति अणंतरं कामो उपदिट्ठो, एगे, ण सम्वे, रागदोसमुक्का एव एगे जइणं धम्म आदाय, जं भणितं | गिहिता, अहवा सुयधम्म चरित्तधम्म च, केरिसो सो धम्मो ?, चुच्चति-अणेलिस, केञ्चिर कालं ?, तेण वृञ्चति-आदाणपभती IN आदीयत इति आदाणं-नाणादि, अणुवसुप्पभिति वसुप्पमितिं वा, अण्णहावि पटिअति-सहिते धर्ममादाय, आदाणपभितं, सुपणिहिते-सुलट् पणिहितं सुपणिहितं, जं भणितं-सुप्पणिहितेंदियो, उवदेसमेव चर अपलीयमाणे ददे, चर इति उपदेसो, धम्मं चर, अप परिवर्जने, लीणो बिसयकसायादि, तेण सत्तुहवल्लीणो, जो जहारोवियभारवाही, अददं जस्स खइयं कुटुंबा उद्दे हिया खइयं वा कटुं दुबलं, बलियं खइरसारादि, भावो दुबलो धीईए संघतोण वा दढो, तेहिं चेव सर्व गंधं परिण्णाय, VAI सम्बं निरवसेसं गंधो गेही कखनि इति वा एगहूँ, विहाए परिणाए सरण महामुणी, एस इति जेण गेही परिण्णाता, मिस तो पणतो, धर्म वेरग्गं इंदियं या भावधुगणं, पणतो महतं मुणेति संसार, पहाणो वा मुणी, सो एवं महामुणी आसएण ते महामुणी अतियच्च सबओ संगं अतियञ्च अतिकम्मं, सर्व सम्वत्थ सच्चहा सबकाल, संगीणाम रागो, अहवा कम्मस्स संगो, ण महं| | ॥२१२॥ दीप अनुक्रम [१९४१९७] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [224] Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८१-१८४] (०१) प्रत वृत्यक [१८११८४] अस्थिति ण पडिसेहे ण मे कोइ अस्थि जो इहं जरामरणरोगपरित्ताणाए, किं परलोए, जहा धणे उपजिते अनेऽवि भोत्तबश्रीआचारागमत्र-0 सहाया लम्भंति, ण एवं कम्मउवञ्जियस्स अण्णे चेयंणसहाया लब्भंति, इति एगो अहमंसि जयमाणे इति एवं णचा एको अहं, चूर्णिः मे ण कोयि, पिहं कम्मं विवागाणं, तेण एव जा परिवदत्त, सयणसाहुमहाओ य, रागदोसवजितो एगल्लविहारी वा, कम्म॥२१३/ विधुणणाधिगारो अणुयत्तइ, अतो लोगमादाय आरम्भ जे एत्थ कुसीलादिदोसा भणिता तत्थ द्विता एस्थ विरए अणगारे एत्थंति एत्थ कम्मविधुणणे विसयकसायविरागलक्खणे, णस्थि से अगारं अणगारे, सबओ मुंडे रीयंते, दन्नमुंडे सिरसा भावI] मुंडे इंदियमुंडो, तंजहा 'सद्देसु य भद्दयपावएसु एवं कसायमुंडोऽवि कोहस्स उदयनिरोहो विफलीकरणं वा, रीयमाणा अणियतविहा| रेणं, कोयि सो जे अचेले चिणंति तं चिजं, एवं चेल दचे भावे य, दवे तित्वगर असंतचेलो, भावे रागदोसविजओ, सेहावि चेलेहि अचेला संविक्खमाणा ओमोदरियाए संमं विक्खमाणे संविक्खमाणे, दमभाव उमोदरियाए, भावे अप्पकोहे अकोहे वा, से अकोहे व, हते व लूसिते वा अकुद्धो वा, एवं हते च हतो वा अट्ठिमुट्ठितलकोप्परादीहि, लूसितेति उम्मुसितेत्ति, उम्मुएण जो अंकिओ, अणुवसुतेणं भंगो वा लूसितो चा हत्थे पादे वा, तत्थ अकोसा धुते व भवंति, तंजहा-पलियगंथे, पलियं णाम कम्म, VAIसो य कम्ममुंगितो पच्चइओ, ण तहा, कट्टहारो बा, देसं वा पप्प पिल्लेवगादि णिक्खमंति, सो य केणइ सयक्षेण परीक्षेण वा IN/ असूयाए पगडं वा पगंथति, असूयाए ताव गाविअणिल्लेबगो तणहारगो, पगडं तुम तणहारओ तहाविण लजसि मर्म सह विरुज्झDमाणो, सरीरसुंगिते वा सूपाएवि अहं काणो कुंडो वा पागडं कोडिंग कुञ्जोवा, एवं ओरालाहि भासाहि पर्गचंति. अहवा पगंधक अदुवेती अञह चेव जगारसगारेहि भिसं कंथमाणो पगंथमाणो, अहवा अदुवेति, एगे एकसि दो वारे, एवं ताव के णिक्वता दीप अनुक्रम [१९४१९७] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [225] Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८१-१८४] (०१) श्रीआचागंग सत्र चूर्णिः ॥२१५।। प्रत वृत्यक [१८११८४] उविच्च धम्म आयरियसमीत्र उवसमस्स वा समीवं, कामादितिसछेदाओ उपसंते, तज्मोसमाणेति 'जुषी प्रीतिसेवणयो' || उपरतजहोद्दिढ झोसमाणे-फासेमाणे, एवं झोसंतस्स के गुणा भवंति ?-आदाणीयं परिणाय आदिजति आयत्ते वा आदाणीयं, | जोषितादि भणित-संसारबीजं पलियं भणिय, तंजहा-प्रलीयते भवं येन, आदानमेव पलितं, परियाओ णाम सामण्णपरियाओ, नाण-IN दसणपरियाओ, दीहेण वा अप्पेण वा परियाएणं, विगिंचइ विसोहेति अवकिरति छडेति, पिहीकीरमाणं णिजरा, णिजरति वा D|| तवोति वा एगट्ठा, तत्थ बाहिरन् तरतवो अधिकृत्य बुच्चति, तत्व इतरा इतरेहिं तत्थति तत्थ साहुविहारपायोग्गे गामे णगरे | णिवेसे, इतरा इतर इतरेतर, कम्मो गहितो, ण उद्धयाहि देसीभासतो वा जे अभंतरं बुचति, इतरा इतर जंतवो विणिकटुतरं | जाव दमगकुलं, एवमितरा इतर इतरेतरं भवति, कुच्छिते सलतीति कुशलं, सो य एवं चरति, सकेसणाये सब्वेसणायो सुद्धेसणाए अलेबकडाए, चत्तारि उबरिला, एताओ गच्छणिग्गया, तत्थ पंचंसु अग्गहो अभिग्गहो अण्णतरियाए, सव्वेसणाएत्ति गच्छवासी सब्वाहिंवि गिण्हंति, से मेहावी परिव्वए स इति जो सो आदिआदिसुत्तेहि उपदिट्ठो तंजहा, उद्धप्रमाणो णियते धुणिचा, कम्मधुणणाए उबडितो, मेहाए मेहया धावति, परि समंता सबओ ते गामादीणि, अहवा जावंति सगच्छो नाणिएहितो परिब्बए सुद्धसणा परिब्वयमाणो, समणुण वा लड़ इतरं वा अतो सुमि अहवा दुब्मि, सुरमिगहणा गंधादिहीणं, अहवा सुद्धेसणाए सव्वेसणाए से परिचागो गहितो, सुभि अहवा दुम्भि, गंधकामपरिचागो भणितो, एतं इंदियाहिगारे, अहवा तत्थ भेरवा अहवा तत्थ विहरतस्स भयाणगा भेरखा सदा गहिता अकोसा, तद्यथा-णिम्भवणादि, एवं रूवाणिवि मेरवाई भवति, जहा 'तस्स पिसायस्स अयमेयारूवे वण्णावासे पाणचे, तंजहा-सीसं से मोकिलजसंठाणसंठिती', गंधावि अहिमडादि उब्वेयणया, ॥२१५॥ DO दीप अनुक्रम [१९४ १९७] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [226] Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८१-१८४] (०१) प्रत वृत्यक [१८११८४] श्रीआचाउविच धर्म आयरियसमी उवसमस्स वा समीचं, कामादितिसच्छेदाओ उपसंते, तज्मोसमाणेति 'जुपी प्रीतिसेवणयोः || उपरत |जहोरिडं मोसमाणे-फासेमाणे, एवं झोसंतस्स के गुणा भवंति ?-आदाणीयं परिणाय आदिअति आयते वा आदाणीय, KA चूर्णिः IYA भणित-संसारबीजं पलिय भणिय, तंजहा-प्रलीयते भवं येन, आदानमेव पलितं, परियाओ णाम सामष्णपरियाओ, नाण-II ॥२१५॥ | दसणपरियाओ, दीहेण वा अप्पेण वा परियाएणं, विगिचइ विसोहेति अवकिरति छडेति, पिहीकीरमाणं णिजरा, जिरति वाI' D|| तवोत्ति वा एगट्ठा, तत्थ बाहिरभंतस्तवो अधिकृत्य बुच्चति, तत्व इतरा इतरेहिं तत्थति तत्थ साहुविहारपायोग्गे गामे णगरे || "णिवेसे, इतरा इतरं इतरेतर, कम्मो गहितो, ण उद्धझ्याहिं देसीभासतो वाजं अभंतरं बुञ्चति, इतरा इतरं जंतको विणिकद्रुतरं । जाव दमगकुलं, एवमितरा इतरं इतरेतरं भवति, कुच्छिते सलतीति कुशलं, सो य एवं चरति, सकेसणाये सब्वेसणायो सुद्धेसणाए अलेवकडाए, चत्तारि उवरिल्ला, एताओ गच्छणिग्गयाणं, तत्थ पंचंसु अग्गहो अभिग्गहो अण्णतरियाए, सव्वेसणाएत्ति गच्छवासी सव्वाहिपि गिण्डंति, से मेहावी परिब्वए स इति जो सो आदिआदिसुत्तेहिं उवदिवो तंजहा, उधुप्रमाणों णियते धुणिला, कम्मधुणणाए उनहितो, मेहाए मेहया धावति, परि समंता सबओ ते गामादीणि, अहवा जावंति सगच्छो नाणिएहितो VA परिष्वए सुद्धेसणा परिब्बयमाणो, समणुण्णं वा लळू इतरं वा अतो सुब्भि अहवा दुम्भि, सुरभिगहणा गंधादिहीणं, अहवा सुद्धे|सणाए सव्वेसणाए से परिश्चागो गहितो, सुभि अहवा दुभि, गंधकामपरिवागो भणितो, एतं इंदियाहिगारे, अहवा तत्थ भेरवा अहवा तत्थ विहरतस्स भयाणगा भेखा सदा गहिता अकोसा, तद्यथा-णिम्भवणादि, एवं रूवाणिवि मेरवाई भवति, | जहा 'तस्स पिसायस्स अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णते, तंजहा-सीस से गोकिलजसंठाणसंठिती', गंधावि अहिमडादि उब्वेयणया, ॥२१५॥ दीप अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [227] Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८१-१८४] (०१) उपरतजोषितादि श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥२१६॥ प्रत वृत्यक [१८११८४] 2. मयं करेंतित्ति मेरखा, रसा तत्थेव, फरिसाबि छेदभेददाहादि, जहा 'ततो मंससोल्लए विउवित्ता तेण उसिणेण मंसेण सोणितेण || | तव गायाई आयंचामी', जहा संगमएणं भगवतो ते मेरखा उवसग्गा कया, कामदेव एवमादि, पाणा पाणा किलेसंति | पाणा सीहा बम्घा पिसायादि, पुणरवि पाणाओ पाणादि, जं भणितं भैरवा प्राणा, साहुस्स आउप्पाणादि, किलेसंति-परिताति वा किलेसंति वा उद्दवेंति वा इति किलेसो, ते फासे पुट्टो धीरो त इति ते मेरखा इटाणिट्ठा, फुसंतीति फासा, धीमां धीरो, | समं अणाइले अणुब्बिग्गो वासीचंदणकप्पो, अहिवासिज्जासेत्ति, अहवा सुद्धेसणाए सम्बेसणाए मेहावी परिचए भिक्खायरियाए, | तस्थ वण्णिाइ मिक्खाणिमित्तं सुभि अहवा दुभि जं लभते, तत्थ सुम्भी सुगंध, आधाय अहो गंधो णाम अग्घाइजा, दुब्भि| गंधे वावि ण दोसीणादिणा दोसं गच्छिा , चमारस्त्याए व वोलेंतो णासियं आवरिण तुरियं गचिा , अहवा तत्थ भेरवत्ति | जति णं कोई अडतं तासिजा अकोसिज वा सदा मेरवा स्वावी पडिणीता आयुधउग्गिरणादि, पंजरसंकलाओ वा फिडिता सीह| वग्धवारणादि अमिभविजा, गंधा भणिता, रसावि तत्थेव, फासावि तालणउच्छोलणादि २, एवं पाणा तस्स साहुस्स पाणे किले| संति, ते फासा पुढत्ति तेहिं फासेंहिं पुट्ठा, ते वो फासे फुसित्ता अहियासिञ्जासित्ति बेमि, अहवा सुभि एतं सम्म अणहियासमाणो मेरवेहिं पुट्ठो सम्म अणहियासमाणो पाणा पाणे किलेसंति, रुस्समाणो रागदोसेहिं अप्पाणं संकिलेसति, इह च परलोए य | अणाराहगा भवंति, जतो एवं तेणं ते फासे पुट्ठो सम्म अहियासिज्जा पुरिसुति धुताध्यपने द्वितीय उद्देशः॥ N संबंधो पढमे णियगविधुणणं, वितिए कम्मविधुगणं, तसिए उबगरणसरीराणं धुणणं, ताणि कहं विधुणाति ?, तेसु ममत्तं छिंदति, | णियगविधुणणाओ कम्मविधुण अभितरतरं,ताओ मम अभितरतरं, ततिए विधुणति, एसो अत्थसंबंधो, सुत्तस्स सुण-ते २१६॥ दीप अनुक्रम [१९४१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: षष्ठं-अध्ययने तृतीय-उद्देशक: 'उपकरण-शरीर विधुनन' आरब्धः, [228] Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८५-१८५] (०१) श्रीआचारांग सूत्र- चूर्णिः ॥२१७॥ प्रत वृत्यक | फासे पुट्ठो अहियासे, इयं च एवं अहियासिञ्जति-एस मुणी आदाणं, एवमिति जं भणितं वक्खमाणं वा, मुणी तित्थगरो, एसा |Dआदानादि ताव तित्थयराउ आणा आगता, नवि गयाभिओगो नवि बलामिओगो, अहंपि तित्थयराणं आणाए तह उपदिसामि नियगविधुणणं कम्मविधुणर्ण च, इमंपि तस्स आणाए भषामो उबगरणसरीरविहुगणं वत्थविसेसगरुयआए, एसा ते जा भणिता वक्खमाणा या मुणी भगवं, सीस्सामंतणं वा, आणप्पत इति आणा, जं भणितं उबदेसो, अहं वा एतं मुणी ! आदाणं, इमं इति जं भणितं वक्खमाणं वा, मुणी तित्थगरो वा आमंतणं वा, आमंतिजति, आताण-आयाणं नाणादि तेयं, जं भणितं भावविहणणं, कत्थ एतं ?, सया | सुयक्खायधम्मे, सया सव्वकालं, तित्थगरमत्तीए संसारभीरुत्तेण य जहारोवियभारविस्सामवाहिणा मुठ्ठ अक्खातं सवासुयक्खायं, आणाइ बट्टति, सब्वण्णत्ता वीयरायनाय मया सुअक्खायं, धम्मो पुब्बभणितो, धुणणाधम्मो बा, केरिसो मो?, विधूतकप्पणिजो, IP | सति ता विधुतो कप्पोति का मग्गोत्ति वा आयारोत्ति वा धम्मोत्ति वा एगट्ठा, रागादिकिब्बिसधुणणाकम्मविहंगणा वा विधूय कप्पो, विधूतं वा जेण कम्म तेण तुल्यो विधूतकप्पो, गगहराओ पण्णवाणिजे भावे मतिकवलिणो अक्खरलद्धीए तुल्ला, णियनं | |णिच्छितं वा झोसइता, अहवा 'जुसी पीतिसेवणयो' णियतं णिच्छियं वा झोसइत्ता जं भणितं णिसेवति, तो फासइत्ति पालइ, | तीसे पुण गच्छवासी गच्छणिग्गतो वा, इमं पुण मुलं गच्छनिग्गयाणं, तंजहा-अचेले परिसिते चिजतीति चेलं, अचेल-IN | मावो जग्गयभावो. पुर्व ता सो संतअचेलभावो परिखुसितो, अचेलत्ते को गुणो जेण ते दुरज्झबसेयपि अझरसिजति ?, तस्स णं भिक्खुस्स णो एवं भवति तस्स अचेलस्स 'परिजुण्यो मे वत्थे सुत्तं जाइस्लामि, सव्यओ जूगों अंतो मज्झे य परिजुष्णं वत्थं, । इमं सीतं उघट्टितं, तं कह करेस्सामि ?, एवमादि णिमम्मस्स अज्झत्रसाणं ण भवति, एवमादि विसोतिया ण भवति, सुत्तं जाइ. [१८५१८७] CES दीप अनुक्रम [१९८२००] HRAMINECRA ||२१७॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [229] Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८५-१८७] (०१) संधानादि श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥२१८॥ प्रत वृत्यक [१८५१८७] | स्सामि ततो संघिस्सामि, संधणा दोण्हालीणं, अहवा छिण्णस्स वा फालियरस वा, उकसणं गाम हीणपमाणं गाउं पासेहिं दिग्धत्तेण वा वति, तस्सेवनकरिसणं वा, मसिणं णियसणं णियसिस्सामि, उरि पाउरण, पडिग्गहधारिस्सवि अचेलस्स जो पादणिजोगो | सोतं अहागडं घेव मग्गति, तस्स जब जुण्णेहि जुष्णेहि अइमांगतो, तहावि से अपरिकमोवहिताण एवं भवति-मुत्तं जाइस्सामि, जोवि अचेलो तस्सवि एवं ण भवती-परिजुणे मे बत्थे, कि कारणं, सो याणि हेमंते समतिकते परिदृविउकामो चेव उवगरणं, पडिग्गहधारिस्स पादणिजोगो सो तं अहागडं चेव मग्गति, तस्स बइ जुण्णेहि मग्मति तहवि तस्स अपरिकम्मोवधिविहारित्ता एवंण भवति-मुचं जाइस्सामि सति जाइस्सामि संघिस्सामि उकसिमसामि चोक सिस्सामि, पाउरणसहियस्सवि अन्नत्थ अपाउरणो भवति, हेमंते सिया पाउरणे, अहवा तत्थ परकमंत-अस्थितिमामादिसु परकर्मतं अचेलना अणच्छुरणसेआसाइणं तणफासा फुसंति, दम्भ- | कुसादि तणादि विधति वा फालेति या, अबाउडं च सिसिरे अवायसीतफासे फुसंति, बत्तव्ययं बहुपयणं तं जाणवेद, तिब्वमंदमझि माणि, सहा रुक्खसीयं सतुसारं चेव, तेउफासावि फुसंति, तेजो आदिचो, तेजो मंतो, तेजो तेजस्स संफासा तेउफासा, जं भणियंउन्हफासा, गिम्हे सरते य, पुणो अबाउटे डंसमसगफासा फुसंति, तआतीया य मंकृणपिसुगादि, एगतरे-अण्णतरे, अत एव जे उदिट्ठा एगतरा अविसिट्ठा परीसहा, खुहा तिसा अचेल अरतिमादि, अहवा एएसि एगवरो, एगतरो इतर एव, विरूवरूवफासे अहियासेइत्ति विविधं रू विरूवं २ रूर्व जेसि ते विरूवरुवा, फासंतीति कासा-परीसहा, गहिता कसिणा तजातीया य, उवसग्गे अहियासेमाणे-सहमाणे, अचेले-णिच्चले, कयरेण बलेण ? भाववल अहिकिच तुचति-लाघवियं आगमेमाणे-लघुत्तं लघुभावो या लाघवंति, दब्वे सरीरे उवगरणे य, भावे अलु द्वता, भावलापवियत्वं उबगरणलाघवेणं अहिगारो, तं आगमेमाणे २१८॥ दीप अनुक्रम [१९८ २०० पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [230] Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [3], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८५-१८७] (०१) प्रत वृत्यक [१८५१८७] श्रीआचा आसेवमाणे, तं अपाणं परिसयमाणे, भदंतणागज्जुणा तु एवं खलु से उवधारणलाघवियं तवं कम्मम्बयकरणं 10 लाघवादि गंग पत्र-IM करेति', उबगरणलाघवाओ भावलाप, भावलाघवाओ य उवगरणलाघवं, अतो अण्णोणं, अविविखत्ता अचिरोहो, एवं भाव चूर्णिः लापवाओ कम्मलापन कम्मलाघवाओ पसत्थं भावलाघवं अतो अविरोहो, ततो सिट्ठ लापवितं आगम जो तवे सो, अतोताहे १२१९ से अभिसमण्णागते भवति, ताहेत्ति, तप्पति वा जेण सो तवो, अमिमुहं सं अणु आगते अमिसमण्णागते, जं भणितं-सम्म उवलद्धे, दग्नोमोदरिया तवे से अमिसमण्णागते भवति, कई अभिसमण्णागते भवति १, से जहेयं भगवया पवेदितं से इति |णिद्देसे उच्चारणस्थं वा, जहेति जेण पगारेण, जंच भणितं-पंचहि ठाणेहिं अवेलगे पसत्थे भगवया तिस्थगरेणं साहु आदितो वा वेइयं पवेदियं सिस्साणं, किमिति:-अचेलतं पिहुणणं, तमेव अभिसमिया तमिति जहा वृतं उपगरणलाघवं आहारेऽवितं एतं | जहा जस्थ य पडिवजातं अमिमदं पुण्य अभिसमेजा, ते आयरए य, कत्थ अभिसमेति ? कया कहं वा इति ?-भण्णति-सबओ | सव्वत्ताए सबओ इति सम्बं उपदेशं सबहिं खिने सबहिं काले सब्वे भावे इति, णागज्जुपिणया उ'सव्वं चेव सब्यकालंपि सब्वेहि एवं विसेसेति, दवे सम्बं उबगरणं आहारं वा, सम्वत्थ गामे अगामे वा, सब्बता दिता राई वा, तहा सुमिक्खे दुम्भिक्के वा, सम्वभावेण सचभावेणं, णवि कइयवेणं परपरचगा वा भयाओ मायाए वा, इह तु सम्बो सिर्त गहितं, सब| ताए सच्चअनुयायी भावो महितो, जं भणित--ण कल्लेण, वजाइयाणं एगग्गहणा दबकाला महिता, सम्मतमेव सममिजाणित्ता | | पसत्थो-सोभणो एगो संगतो वा भावो संमत्तं, प्रशस्तः शोभनश्चैव, एक: संगत एव वा । इत्येतैरुपसृष्टस्तु, भावः सम्यक्त्वमुच्यते ॥१॥ सम्म अभिजाणित्ता समभिजाणिचा, अहबा समभावो सम्म तमिति, जेवि एने अचेलगत्तं प भावेंति तेवि अचेलगनं फासंति, ॥२१९॥ GANGA दीप अनुक्रम [१९८ २०० पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [231] Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [3], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८५-१८७] (०१) प्रत वृत्यक [१८५१८७] श्रीआचा- भणित-ण अवमन्नंति, भणियं वा 'जोवि दुवत्थ तिवस्थो गाथा | जिनकप्पिओ पुण जति एकेणं संघरति एक चेव धारेंति, रांग सूत्र त्वादि परेण वा तिण्डं गच्छवासी, गच्छणिग्गया पुण तिणि वा दुण्णिा वा एक वा धारेति अचेलभावा, सव्वेऽवि ते भगवतो आणाए । चूर्णिः उबट्ठिता-आणाए आराधगा भवंति, एवं सेसाणं वत्थाणं वा, तहा सचेलाणं अचेलाणं च आराहणं प्रति सम्मत्तं समभिजाणमाणे - ॥२२०॥ PM आराधओ भवतीति वक्सेसं, एवं तेसिं महावीराणं एवं एतेणं पगारेणं, ण अण्णहा, तेसिमिति वपूर्ण अणुवरण य, सोभणि | वीराणं, विदारयति यत्कर्म० अरहताणं, महावीरस्स अवच्चाणि महावीरा, जं भणितं-तस्सिस्सपसिस्सा, चिरं बहुयं, चिरा राईओ | जेसिं पुय्वाणं बरिसाणं च ताणि चिररायाणि पुढवाई वासाई पुब्बाई पुब्बाउएहि, मणुस्सेसु आसि पुल्याउया मणुस्सा, जाव "सीतलो ताव आसी, भणियं च-“एगं च सयसहरसं पुवाणं आसि सीयलजिणस्स" तेणारेण वाससयसहस्साउया, भणियं च| 'एगं च सयसहस्सं संतिस्सवि आउयं जिणवरस्सा तेणारेण सहस्साउगा जाब अरिडवरनेमी, दोमु जिणेसु वाससयाउया, एवं चिरपक्खाति चिरमासाई, चिरमासाई चिरउद्रेणी चिरया यतणाई, अहवा चिरराई, जं भणितं जावजीवाए, रीयमाणा-विहरमागाणं, दवरिया कुंभारचकुरीयति, 'आइट्ठ भमर गाहा, तेसि भगवंताणं महावीराणं अप्पसत्थेसु दव्वादिसु भमंतकुलालचकं वाण भावो चिट्ठति, कालेण कहंचिवि पडिबुज्झति, कहं णाम रत्ती भवे दिवसो वा तहा सुभिक्खे खेमादि, एरिसो वा कई Aण होजा?, भावतो सद्दादिसु ण रागं दोसं वा करेति, एवं दयादिसु अपसत्थ रीयमाणाणं जं भणित--ण तेसु अवस्थाणं करेति, पसत्थेमु उत्तरोत्तरं पगरिसेणं रीयमाणदथ्वभूयाणं पास अहियासिय जहा दिग्धकालं पुत्राणि वासाणि तेण फासादिदुक्खं अहिD] यासियं फासिय पालियं तीरियं किट्टियं आणाए अणुपालियं तं एवं प्रकार तेसि अहियासिय पासह वसुषेण अणुवसुत्तेण चा, सद्दहाहि " ॥२२०॥ दीप अनुक्रम [१९८२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [232] Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१८५ १८७] दीप अनुक्रम [१९८ २००] श्रीआचा रांग सूत्रचूर्णिः ॥२२१ ॥ भाग-1 "आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [३], निर्युक्तिः [२५२...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १८५-१८७] पत्तिवाहि रोएहि, आगतपणाणं आगतं उचलद्धं मिसं गाणं पण्णाणं, परोवदेसाओ सुयं तेणं आगतं, आगमितं गुणियं च एगट्टा, आभिणिबोहियं तम्गयमेव, पच्चक्खाणाणि आयसमुत्थाणि पसस्थेहिं अज्झत्रसाणेहिं लेस्साहिं विसुज्झमाणाहिं उप्पअंति, तं एवं तेसि तं आगमं आगमेंताणं पुब्बगहियं वा गुणंताणं णिञ्चसज्झाओवओगाओ अत्रेण य अभितरेण बाहिरेण वा तवेण अप्पाणं भावेंताणं किसा वाहा भवति 'एगग्गहणे तजाइयग्रहण' मितिकाउं अपि सरीरं किसीभवति, अतो युच्चति येन कतेण ते मंससोणिए मिसं तणुते, येन णयंतस्स रुक्षाहारस्य अप्पाहारस्स पायसो खलतेणेव आहारो परिणमति, किंचि रसीभवति, रसाओ सोणियं, तंपि कारण अपत्ता एते तणुयमेव भवति, सोणिते पतणुए य तत्पुच्वगं मंसंपि तणुईभवति, एवमेयं अहिं मंसं सुकमिति सव्वाणि एयाणि तजुईभवंति प्रायसो, दुःखं चायतं भवति, बाते य सति णसंतस तत्तायपागो व सोवियादीणं तणुतं भवति, धन्नो दिहंतो गंडओ वा, 'से णं तेणं तेणं उरालएणं विउलेणं पयत्तेणं सुक्खे निम्मंसे' एवं सरीरे विधुणणा भवति, उदयो भवति तेसिं, तणुयसीहवेलाइएणं जोवि उबगरणलाघव अत्थो भणितो सोवि जहासंभवं जोएयन्त्रो, तत्थ अतिकंतं सुतं अचेल - इए लाघवियागमे, पेहा नापादिपरिहाणी ण भवति, तहा कम्मविधुणणत्थं सरीरलाघवंपि आगमेमाणे, न केवलं उचगरणलाघवं, एवं आगमतो वा स अभिसमण्णागतो, दुविहेणवि तवेण सरीरलाघवं भवति, जह्वेयं भगवया पवेइयं, भगवया तित्थगराणं तिरथगरेहिं वा, साधु आदितो वा वेदितं सरीरघुणणं, केसि च तवसमाही चउच्चिहा-णो इहलोगत्थयाए तवं अहिडिज एवं पवेइयं, तहेव य सद्दहति आयरति य, तमेवं अभिसमिच्चा, तमिति तं तित्थगरभणियं सरीरघुणणं संमं अभिसमिच, जं भणितं णचा, सबओ सत्तादिकमेणं सरीरं घुणाइ, दव्बओ किसा वाहा भवति, पतणुते मंससोणिते भवंति, वाणि दध्यओ आहारे जेहिं आगतप्रज्ञानादि [233] ॥२२२॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८५-१८७] (०१) श्रीआचा- बाहादिकृशता चूर्णिः ॥२२२॥ प्रत वृत्यक [१८५१८७] तस्स सरीरं किसीभवति, खेतओ तारिसे तारिसे खेते विहरति जस्थ से सरीरं किसं भवति, कालओ णिचं जयति, तंजहा- 'आयावयंति गिम्हामुक भावओवि ण सरीरेण किसेणावस्सतेहिं अवसीयति, एवं सम्बओ सन्बत्ताए, सम्मत्तमेव समभिजाA णित्ता, सम्म कह , जो चाउम्मासियखमओ सो ण मासियखमयं हीलेति, अवष्णं वा तत्थ करेइ, एवं जाब एगंतरखमगं, ण | वा वियट्टभोति हीलेइ, जहा एस ओणयमूढो णिच्चभोइनि, जिणकप्पिओ पडिमापडिवाओ वा कदायि छप्पि मासे अप्पणो कप्पेणं मिक्खं ण लभति तहावि सो समदरिसित्ता णवि अण्णे हीलेइ, तं एतं सीहालोइओ अत्थे भणितो, एवं तेसिं महावी-| राणं आगतपण्णाणं किसा पाहा भवति, पतणुते मंससोणिते, अणेगेसु एगादेसा चुचंति, विस्सेणी कटु परिणाय |दव्वणिस्सेणी पासायाईणं आरोहणी, ओहरणी वा भूमिगिहादीण, भावे पसत्था अपसत्वा य, पसत्था संजमट्ठाणसेणी, जाइ मोक्ख ||" आहरति, अप्पसत्था जा ओसंजमट्ठाणा सेणी जाए णरगं परति, संसारएगट्ठाए वा अपसत्थाए वा अहिगारो, सा पुण अण्णाणमिछत्तअबिरइकसायबिसयमयि, असंसारस्स णिविस्सेणि कटु परिणाएनि एताअ णातुं वितियाए पच्चक्खाएति, जेहिं वञ्जति वा, एएहिं रागादीहिं सो एवं कम्मधुणणत्थं, धुतो वा गणो सरीरघुणणावडिओ संसारस्स बीविस्सेणी कटु तिपणे मुत्ते विरए | वियाहिएत्ति बेमि, तरमाणे तिण्णे संसारसमुई, मुबमाणे मुके अडविहेणं कम्मेणं, विरए असंजमाओ, विविध विसेसेण चा अक्खाओ विक्खाओ, तेण भगवया तित्थगरेहिं वा एवं बेमि, तं च जेण भणितं सद्दहंतो रोयंतो, आह-मणितं भगवया-तरमाणो | तिण्णो मुचमाणो मुको, तं एवं विरतं भिक्खू रीयंत अणवहितं दबादीएहिं णिस्मरंतं पसत्थेसु गुणप्रकर्षेण उपरि वट्टमाणं । अतो रीयमाणं, चिररायोसितंति जाव देखणपुग्यकोडी अणेगाणि वा बासाणि, जं भणितं चिरराओसितं, तं एवंगुणजुनं अरती ॥२२२॥ दीप अनुक्रम [१९८ २०० पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [234] Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८५-१८७] (०१) अरति धारणादि Smart प्रत वृत्यक [१८५१८७] श्रीआचा-VA तत्थ किं वा होइ ?, कत्थ अरति ?, असंजमे, रति संजमे, अरतिं जं भणितं अरतिपरीसहो, किमिति परिपण्हे, एगझत्थं वेरगं || संग सूत्र- मोक्खं वा अभिपत्थितं, विविहं वा धारए विधारए, इह हि दुबलाणि चलाणि अविणयति वा इंदियाई तेण किंचिवि दुबलं चूर्णिः | विहारए, भणियं च-कम्माणि अणण्णगरुयाणि अपुट्ठवाकरणं वा विरयं रीयंतं चिररातोसितं संधारणाए समुट्टिते विहारण, माण ॥२२३॥ [D उसणं आसेवियबहुलीकृततवोकम्माणं अरतीति किं विहारए ?, किमिति अक्खेवे, कहं अति धरेहिति ?, किं वा सा तस्स?, (सोविखणे खणे विचुमति, संजमे व रमति संजमति, भणियं च-'अमरोवमं जाणिय सोक्यमुत्तमं०'अहवा अरती किन्न धारए | जो संधारणाए समुट्टिते?,दवसंधाणं छिन्नसंधाणं अजिन्नसंधणं च, दब्बे अन्छिन्नसुनं कत्तति, रज्जू वा पट्टिअति, छिन्नसंधणं | कंचुगादीणं, भावे पसथ अपसत्य, छिमसंधणा य जहा कोयि असंजए किंचि कालं कोहस्स उबसम काउं पुणो रुस्मति, अच्छिन-IN संधणाई णिरुम्बद्धो चेव अर्णताणुवंधिकोहकसाओ, एवं माण माया लोभे य, पसस्थ भावच्छिन्नसंधणाजे खोवसमियाओ भावाओ | उदइयभावं गतो आसी पुणो खोबसमियं चेव जाव, अच्छिन्नसंधणाओ समुट्ठिय उयसामगसेढी खवयसेटी वा, तमेवं पसत्यभाव| संधणअच्छिन्नसंधणा य समुट्ठियं अहक्खायचरित्ताभिमुहं वा. अहवा तित्थगरगणधरा दुवालसंगगणिपिडगसंधगाय समुहिता, तंजहा-'अत्भासह अरहा' तं एवं संघणाए उवहितं संजमे अरती कहं धारए, धीर चिरराओसिगात्रोण भवति, भणियं च 'णारती सहती वीरे' से एवं संधणाए समुट्ठिते, पढिाइ य-संधिमाणे समुट्टिते, दवभावसंधणं परवेऊणं नाणादिपसत्थभावसंघर्ष संधिमाणे, सम्म उद्विते समुट्टिते, इह नाणाहिमागे जेणंति, जहा से दीवे असादीणे (आमासदीवे) दीवयति दिप्प-| यति वा दीवो, दवे दुविहो-आसासदीवो पगासदीचो, समुदे जहा काणणादीवाति, वसंतो सुण्णओ वा, तं पप्प मिष्णयो- ॥२२३॥ दीप अनुक्रम [१९८ २०० पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [235] Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [3], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८५-१८७] (०१) प्रत वृत्यक [१८५१८७] श्रीआचा तसंजत्तगा अभिण्णपोतसंजनगा वा समाससंति, एवं नदीसासदीपि उत्तरिउकामा समाससित्ता सेसं उत्तरंति, महातलागादिदीवं आवासहीरांग सूत्रDवा, स तु संदीणो असंदीणो य, संदति संदि पोते वा, संदीणो कदायि लायिजति मासियषाणतेण वा संवच्छरियपाणिवाएहिं वा, 10 पादि चूर्णिः असंदीणो तु ण कयाइ गिलाविञ्जति, तंजहा-अ(सु)वण्णभूमी सिंहलदीओ एवमादि, पगासदीवो संघातिमो असंघातिमो || ॥२२४|| वा, तत्थ संघातिमो घोलपट्टितेल्लकारंतगसंजोगा उजोवगे, णामपञ्चया उप्पजंति, असंघातिमो चंदआइचमणी एवमादि, सोवि संदीणो असंदीणो य, तत्थ असंघातिमो णियमा असंदीणो, संघातिमोवि कोइ असंदीणो भवति, कह !, पभृतइंधणो अब्भपडण-10 पाओ उत्तरंति, न विज्झायतेऽपि, केइ पगासे य अस्सासे य इच्छंति, तत्थ पगासयति गिहेसु उन्बरएम दीवा पन्जलिजंति, आसासे । तु वहणे पट्टणेसु उवट्ठाणेमु खलेसु वाणमंतर उपरि चारेति, दीयो पजालियति, तमासासदीय वाणियगा पासिउं ततो जुत्ता वचंति । YA समासंतिया आसण्णं पट्टणंतिकाऊणं, भावदीवे दुविहे आसासदीवो पगासदीयो य, आसासदीवो संमत्तं, तं पावित्ता आसासो मवति, । L/ भो(णि)व्वाणं अवस्सं सिझीहामि, सुकपक्खिो सो भवति उकोसेणं अबट्टपोग्गलपरियट्रेणं सिज्झीहामि, तंपि संदीणमसंदीणं, | खयोवसमयं संदीणं, अहवा पडिवाति संदीणं, अपडिवाई असंदीणं, पगासे दीवो, इदाणि सोयणा-सोयणाणं संघातिम इतरं च, | MO| तत्थ संघातिमो सुत्तणाणदीवो, तंजहा अक्खरसंघातणा पदसंघातणा कालिए जाव अंगसंघातणा, दिट्ठीवादेवि, एवं जाव पाहुडे, पाहुडपाहुडे पाहुडियापाहुडिया वन्थुसंघातणा, असंघातणा केवलनागं, दुविहो संदीणो असंदीणो य, जस्स पडिबाइ यस्स संदीणो, अपडिवाई असंदीणो, अहवा संघातिमो इतरो वा, जस्स अपडिवाते केवलनाणं उप्पञ्जइ तस्स असंदीणो, परिवडति संदीणो, एगीमयं तु भावे आसासदीयो जो धम्मेऽवि बहूर्ण जीवाणं आसासो दीवो ताणं, संदीणो असंदीणो य जो पाउं भुंजेउं पुवुद्वितो || ॥२२४॥ दीप अनुक्रम [१९८ २००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [236] Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८५-१८७] (०१) नदीपादि प्रत वृत्यक [१८५१८७] श्रीआचा IG समाणो पुणो पण्णवेति सो संदीणो, अण्णया असंदीणो, तित्थगरगणधरा पगासेंति असामित्तेण य णिच्चमेव असंदीणो, एवं से रांग सूत्र आयरियदेसितो एवमवधारणे, स इति सो भिक्खू चिरराओसियं संघणाए समुट्ठितो आसासपगासअसंदीणदीवभूतो अरति । चूर्णिः धारेति तं अहिकिच्चा बुच्चति-एवं से धम्मे आयरियदेशिए, धम्मे दुविहे वट्टमाणे, दसविह नाणाइ, आयरिय पदरिसिते, अहवा । ||२२५॥ AU अत्तपरादेसेणं उभयादेसेणं वा कहेयर, एस धम्मे आयरिए, कयरे ?, अयमेव जतिणो, धम्मे य संजमरती असंदीणा भवति, एवमेव | धम्मो आयरियदरिसितो, एवं से असंदीणो अभयवट्टि, तहा धम्मे रति करेति, कतरस्थ ?, आयरियदेसिते, एगे अणेगादेसा वुञ्चति || ते अवयमाणा भावसोया, किं अवयमाणा ?, मुसावात सव्वं वा वयणदोस, जाय गिरा सोवा, पटिअइय-ते अणवर्क खेमाणा, मित्तणादिणियगा सयणकामभोगा वा पुन्चरतपुब्धकीलियाणि वा आजम्मं वा एवमादि, अणतिवादेमाणा कंठयं । .जाव अपरिगिण्हेमाणा, एगग्गहणे चियत्तोवगरणसरीरादिया बा, अहवा-धम्मपीईए संविग्गत्तिकाउं जयमाणा साहुवम्गस्स | संनिवम्गस्स वा चियचा, जं भणित-सम्मता, मेरा धाविचा मेहावीणो, पावा डीणा पंडिता, एवं तेसिं भगवओ एवमधारणे, | तेसिमिति देसि परयणपदवीदीयभूताणं जगपईवभूयाणं वा भगवंताणं, आणाए उठाणं अणुट्ठाणं वा, तत्थ आणाउट्ठाणे ठिचा इति | बक्सेस, तित्थगरगणहर मुलं तहिं ठिता, अहवा अणुढाणं आयरणं, लोगेवि वत्तारो भांति-अणुट्टिते हिते, पुण तेसिं भगवंताणं | तित्थगरगणहराणं तं आणं अणुढेति–णवि संपाडेति जहा सो उज्जेणओ रायपुत्तो, उजेणीए जियसत्तुस्स रण्णो दो पुत्ता, |जिट्ठो जुपराया कणि?ओ अणुजुग्गराया, थेरागमो, रायपुत्तो णिग्गतो, धम्म सुणेत्ता जुगराया पथ्वदओ, सेहणिप्फेडीयाए| णीतो, कालेणं बहुस्सुओ जाओ, जिणकप्पपरिकम्मं करमाणे पभावेति, सा पंचविहा, पढमा उवस्सयंमि वितिया बहिं जाव पंचमा | ॥२२५॥ दीप अनुक्रम [१९८२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [237] Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१८५ १८७] दीप अनुक्रम [१९८ २००] श्रीआचा रोग सूत्र चूर्णिः ॥२२६॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [३], निर्युक्तिः [२५२...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १८५-१८७] मसामि, सोय से कणिड्डो भाउओ अणुरागेणं धम्मसद्धाए वा दंसणपुरं गंतु आयरिए आपृच्छह-अहं पव्वयामि महलभाउगो मे दरिसेहि, पन्ययाहि ताव, तं ते दरिसेमि, पञ्चइओ, अवरण्डे पुणो भगति-दाएह अवेलियं, उकंठिओमि भाउयस्स, तेहिं भणितंसोण कस्सद उल्ला देति, जिणकप्पं पडिवजिउकामो, णिव्बंधे कते दरिसितो, वंदितो तुसिणीओ, वांछति अणुरागेणं, अहो ते तवसिरी, आउट्टो य तस्स, वारिअंतोवि तूरते, न ते कालो, पवजा सिक्खा वय एवं कालो भवतित्ति, भणति - अहंपि तेणं चेव पितरि जाओचिकाउं, बलामोंडीए तहा चडिओ तस्स पासे, इतरेवि दरिसेउं परियागता, सोबि उडतो वियाले हियतेणं आवा सयं काउं करेति, इतरे सेहो किं काहिति १, देवता वंदति अणुट्टितं, अणुट्टियं ण बंदति, रुट्ठो सेहित्ति, परिस्समाओ चलियगस्स एगेणं तलप्पहारेणं वेवि अक्खिडोलए पाडेति, आलोए उडिओ, हियएणं देवतं भणइ किं ते एस अयाणतो दुक्खाविओ ?, देहि से अच्छीणि, तीए युच्चति - जीवप्पदेसपरिचत्ताणि, ण सक्का लाएतुं तत्थ य वच्छकातीरे नगरे सागारिएणं वालओ मारितो, तस्स य सपदेसाणि अच्छी ताणि तस्स लाइताणि, एवं एलगच्छणिव्यत्ति, कहं पुण अणुद्विता १, 'पवजा सिक्खा वय' तत्थ इमं सुतं 'जहा से दियापोते' जेण प्पमारेण जहा अहवा जहा इति उबंमे, दो जम्माणि जस्स सो दिओ, वितिय अंडगभेदो, | पततीति पोदो, दियस्स पोदो २ सो अंडरथो पक्खवाएणं पुस्पति उम्मिनोवि किंचिकालं पक्खवाएणं, आहारसमत्थो सजातिपाउम्गेहिं आहारेहि य पुस्तति, ण य तरति उडणाए, लभति चरंतीति से देति ताब जाव सयं आरद्धो चरिउं, तहेव मातापितरो | विहाय पत्तेगमेव चरंति, एस दिईतो । एवं ते सिस्सा दिया य सयो य अणुपृव्बेज ता इति पन्जा सिक्खा वय०, के वाईति ?, गणहराई, एवं भणामि आपत्ति बेमि ।। धुपज्झयणस्स तृतीय उद्देशकः ॥ अनुष्ठानोत्थानादि [238] ॥२२६॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८८-१९३] (०१) प्रत वृत्यक 0 भीमाचा-JAN वाचनाउद्देसादिसंबंधो-पढमे णियगविधुणणा बुत्ता, पितिए कम्माण, ततिए उवगरणसरीराणं, इह तु गारवतिययस्स, इह निव्वलेता गंग सत्र-0 सरीरकिसत्ता तेयतवेण अहितो अहमितिकाउं इड्डीगावं मन्छे, ततो आहारादियेहि पूयिअमाणो रससातागारवेहिवि विभूसिज्जा, I0 क्रमादि चूर्णि अतो चउत्थे मारवतियस्स धुणणं वण्णिअति, सुत्तस्स सुचे-ततियस्स अंतिमसुत्ने वायणा, अधिच्छिता वायेतित्ति बेमि, इहवि । ॥२२७॥ वुचति, एवं ते सिस्सा एवमवधारणे, सो विसयस्स दुविहो-दिया य राओ य, दिया-उकालियं पहुश्च कदायि दिवसतो चत्ता रिवि पोरिसीओ वाइजेज, रतिपि पढभपोरिसिं बाइजति, सेसासुबि पादपुच्छगं, अणुपुब्वेण-प्रयारातिकमेण अणुपुचीए, तहा। |य भणियं-जहा से दिया राओ, अहवा परियागमणतो तेणं, जहा 'तिवासपरियागस्स कप्पति आयारपकप्पे उद्दिसितए' एवं जाव | | दिद्विवाए, तं च जस्स जोग, एवं अणुपुच्चीए सुनं अत्थं उभयं वा वादिया वाइजमाणा बा, अहवा नाणदसणवातिया, चरित्रं च आसेवणासिक्खणा, तंजहा-एवं गंतव्यं०, ते तिविहा-जाणगा अयाणगा दुब्बिडगा, जाणणा पुच्वं सावया एवं आसि अमिगत. जीवाजीवा०, अयाणगा णाम अणभिग्गहियमिच्छादिट्ठी लोगधम्मे अविकोविता, उक्तं च-जे होंति पगइमु(सु)द्वा०, जेण लोइ| यसुतीहि कुप्पासंडिसंजमे पभाविता दुविय दृगा, ते पायसो दुपण्णवगा भवंति, अहवा पगतीए केइ अहंकरेइत्ता भवंति, ण तविहा जाणंति, जहा अहंकारओ दुयता भवंति, तत्थ दुषियडू पट्टच्च उवदेसो, ते उ वाइजमाणा समितिगुत्तीसु उवदिस्समाणासु दव्यचिंताए बावि उत्थाणं जंति, गोहामाहिलवत, केयी बादिया जमालि वा, जत्थ इमं सुत्-तेसिं महावीराणं तेसिमिति तित्थगराणं गणहराणं वा खे(थ)राणं वा, सोभणा वीरा, परोवदेसो आगमस्स, सुपनाणं गहियं, साहु आदितो वा जाणं पण्णाणं, तं| आयरियं पद लम्भति, अहवा पण्णाणं त्रुद्धिमितिकाउं आभिणियोहियं गहितं, जहा तहा जं भणितं पटुता, मइपुव्वगं च सुत्त-0॥२२७।। [१८८ १९३] दीप अनुक्रम [२०१२०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: | षष्ठं-अध्ययने चतुर्थ-उद्देशक: 'गौरवत्रिक विधुनन' आरब्धः, [239] Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८८-१९३] (०१) प्रत वृत्यक [१८८१९३] भीआचा-IV मितिकाउं तदंतम्गतमेव, तत्थ सुयलंभा णियमा मतिलंभो, सुतलंभ केति भयंति, तत्थ समगुत्थावि मती भवति जहा सुविणंतिगी, A जाइस्सरणं सुहुमअणुचिंतणं कप्पकिरियमादि, अवसेसणाणाणि समुत्थाणि चेव, जे य अण्णे तेवि महावीरा चेव, जेहिं नाणपण्णा ववादि चूर्णिः | य लद्धा, ते एवं सउणीवुड़ी वा अणुपुब्वेणं वाइयसंगहिता बहुमुता कया, कसायादिउवसमं लभित्ना हिया ओवसमं उवसमणं ॥२२८॥ उपसमो, सो दुविहो-दव्वे भावे य, दब्वे दग्वेण वा उपसमो, दन्बस्स उपसमो, तत्थ दब्बेण कचकफलेण कलुसं उदगं उवस-IN | मति, अंकुसेण कुंजरो, दबस्स उवसमो सुराए पागकाले, भावोबसमो नाणादि, तत्थ जो जेण नाणेण उवसामिग्नइ सो नाणोवसमो | भवति, तंजहा-अक्खेवणीए०, अहवा इसिभासितेहिं उत्तरज्झयणा एवमादि, दरिसणोयसमो जो विमुद्रेण संमत्तेण, परं-16 उपसमितेण परंउवसामितो, जहा सेणियरपणो, सो मिच्छादिट्ठी देवो सकवयणं असद्दहमाणो० जाव दंसणप्पभावगाहें सत्थेहिं उचसामिओ, गोविंद, जत्तादिणा चरितमेव उक्समो, तंजहा-उवसंतकोहे उपसंतमाणो उपसंतमाओ उपसंतलोभो, जाहे जयमाणं साहूं दट्टण उवसमति स चरित्तोवसमो, तं उपसमं विचा, जं भणितं-उबगिरिसित्ता, विणयमूलं संजमं विण्णाणमदेण अक्खरपडत्तेण या फारुसियं समादित्ता फरुसियभावो फारुसियं परोप्परगुणाए अगुणाए अर्थमीमांसा, एवाउमं! ण याणसि, ण य एस अत्यो एवं भवति, वितिओ पबहे, आयरिया एवं भणंति, पुण आह-अन्थो आयरिओ, जति तित्थगरोऽपि एवं आह सोऽवि ण याणति, किं पुण अण्णो ?, अहवा भणति-सो कि मवण्णू, सो चायाकुट्ठो पुट्ठिविगलो किं जाणह ?, तुमंपि तयोचिव पाडि ठिओ णिरूहलाओ पुढविकाइयतुल्लो कि जाणेस्ससि ?, पढिजाय 'हिचा उवसमं अप्पेगे फरुसियं समारभंति, अह इति. अणंतरे, बहुस्सुयीभूतो संतो, एगे ण गणे सम्बे दुवियडा, फरुसितं समादियंति समारभति, समं आरभते समारभते, बहुस्सुपविष्णाणमादीणि| | ||२२८॥ दीप अनुक्रम [२०१ २०६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [240] Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१८८ १९३] दीप अनुक्रम [२०१ २०६] श्रीआचा रंगसूत्रचूणिः ॥२२९॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [४], निर्युक्तिः [२५२...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १८८-१९३] कहिअमाणे वा अणाढायमाणा अच्छंति, अहवा आलते वाहिते तुसिणीए हुंकारे, एवं फरुसितं समादियंति, ण मुंचति एमओ, वसित्ता वंभचेरंसि वसित्ता जं भणितं पालिता, बंभचरणं चरितं, अतिदुब्बलेण भच्छिता संता केइ कातरा आणं तं णोत्ति मण्णमाणा आणा सुत्तादेसो, तंजहा एवं गंतव्वं एवमादि, ते तं तित्थगरआणं, णो देसपडिसेहो, ण सव्वमेवं अत्रमण्णति, सातागारवबहुला सरीरबाउसियतं करेंति, ण य दुक्खं मिक्वायरियं हिंडंति, रसगारवाओ उम्गमादि णो सोहेंति, पचतिते वादं चवदंति पुट्ठा अट्ठा यण एवं तित्थगरेहिं भणियं - आहाकम्मलक्खणं, समणं वाऽऽदा कम्मति काउं संजममेव उवक्खडेति आहाकम्मै, अहवा एवाणि ताव बलवंति, जहा वृत्तं- 'कुज्जा भिक्खु गिलाणस्स, अगिलाए समाहीए अण्णोवि जो जेण विणा सिथिलायति तं तस्स करेयध्वमिति, जं पुण परेणावि स अवसण्ण विहारिसंसग्गिणो णिहेसो, दोहिं आगलितो बालो सि, ण अवालो, यदुक्तं भवति-असंजतो, केण स बालो ?, णणु जेण आरंभट्ठी, आरंभणं आरंभो, पदणपादणादिअसंजमो, तेण जस्स अड्डो से भवति आरंभट्टी, अहवा इडिगारवरसगारवसात गारवा आरंभट्ठी, तत्थ विजामंतणिमित सद्दहेतुमादी अहिअति पजइ वा जो रिद्धिहेउं सो रिद्विगारवारंभट्ठी, ताणि चैव रसहेडं पउंजति अहिअति या रसगारवारं भट्ठी एवं सातागारबारंभड्डीवि, अणुवयमाणोत्ति अणुवदणं अणुवादो, वदतो पच्छा वदति अणुवदति, तकादीसु पयणपयावणादि आरंभे वदंति, तदंड तक्की, तस्स पक्खं ते अणुजदंति, एकोत्थ दोसो, ण असरीरो धम्मो भवति, तेण धम्मसरीरं वरेयन्वं, साहू य तं, जं भणितं- 'मणुष्णं भोयणं भोच्चा' अहवा णितियादिवायो वा कुसीले अणुवदति, मा एवं भण, जहा अम्हेवि गिरीणपेचवावारा इइलोगपडिबद्धा संसारसूयश ण तुज्झे, एवं ठिता चेहयपूयणं तो करेह, विसेसेण य आगंतुयआगमिते लक्खणखमते उत गिण्द, सयं किर पडिवादी, ब्रह्मचर्य - वासादि [241] ॥२२९॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८८-१९३] (०१) भीआचा- चूर्णिः ॥२३०॥ प्रत वृत्यक [१८८१९३] वेदावचं अपडिवाइ, एवं तेसिं अणुकूल बटुंति, एवं सो अणुवट्टमाणे हण पाणे घातमाणे हणतीति हणो घाएतीति पायमाणे, | सावयावृश्य| इणओवि समणुण्णे, तत्थ सकाणं अणुवसंपण्णा, तसादि सयं हणंति पागेसु, अवि पायगा हणावेंति, मुंजता अणुमोदंति, एगि च्छलादि दिए प्रति सब्वे हणा पाणे घायमाणा, हणनो याबि, इह तु ओसण्णेहिं अहिगारो, तेऽवि हणपाणधाय, तत्थ आउकाय सोदाफलादि, सचित्तभोयिणो वा सयमेव हणतीति हण, उहिस्सकतभोइणो तु सचित्ताहारविवजगा पातमाणा भवंति, अहवा तुमंसि णाम वाले आरंभट्ठी अणुवदमाणा तं एवं वाले जे तुम आरंभट्ठी अणुवदसि गारवदोसाओ य, अहं सच्चे हितो नाणसंपण्णो दसणसंपण्णो चरित्तसंपन्नो तवसंपण्णो बियणसंपण्णो एवं अणुवदमाणोवि बाल एव तुभं, ण अबालो, आरंभट्ठी पुढविकाइयादिजीचे हणसि हणावेसि हणतेचि योगत्रिककरणत्रिगण, सो एवं बालो घोरे धम्मे उदीरति घोरो-भयाणगो, सव्वस्सवि गिरोधाओ, अहीव एगंतदिद्वित्ता दुरणुचरिचा कापुरिसाणं, धरतीति धम्मो, उक्तं च-"दुर्गतिप्रवृनं जीवं, यस्मात् धारयते ततः। धत्ते चैनान शुभे स्थाने, तस्मात् धर्म इति स्मृतः ॥१॥ देवविही बा, उई ईरितो उदाहरितो दरिसितोनि वा तित्थगरगणहरेहिं, नेहि तेहिं चेच उज्जुब ईरिते उदीरितो, यदुक्तं भवति-कतो, उबेहति णं अणाणाए न उवेक्खति गारखदोसाओ० यद् उक्तं भवति-ण तित्थगरगणधराणं, अणाणाए-अणुवदेसेण, ते एवं यमादिणो मारववतो पमादी वा आरंभट्ठी अणुवदेमाणा जे वृत्ता से एस विसपणे वितहे, जे वा ते घोर धम्म उदीरेंति तं उवेहति अणाणाए, अणेगेहिं एगादेसाओ तुषंति एस विसपणे विती एस इति जो आरंभट्ठी घोरं धम्म उदीरितं पमादेति विविहं सग्यो, दम्बे भारवाहे पहियनदीतरता एवमादि सो समति, भावसष्णो णाणदसणचरिचाणि पत्नो तहावि ण तेसु जो मचिमंताण उगमति, णितियादि जाव छट्टो, विविहं तद्दो २ दवे मन- २३०॥ दीप अनुक्रम [२०१ २०६] पूज्य पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [242] Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत नृत्यक [१८८ 193] दीप अनुक्रम [२०१ २०६] श्रीजाचारोगसूत्रचूर्णि ॥२३१॥ भाग-1 "आचार" अंगसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन] [६] उद्देशक [४] निर्बुक्तिः [ २१२...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १८८-१९३] - कंटगादि गलए लग्गो विवरे, भावओ नाणस्स उपदेस अणणुलोमे वदृति, एवं दंसणनाणचरिततव विणएवि, तिरिच्छीतो वितदो, एवं ते रागंचिता विविहं आहिता विवाहिता, तहावि ताए पञ्चश्या एवं बुति इति बेमि, केरिसेणं परिणामेण ते पच्चइया जे गारवदोसेणं ओमण्णा जाव दिता-किं ते सियालत्ताए चैव क्खिता उदाहू सीहित्ताएवि ततो बुच्चति सीहत्ताएवि एंगे, जेण पटिजति किमणेण भो यणेण करिस्सा मित्ति मण्णमाणे, अदवा असद्दण्णू नाव एरिसणिच्छ असुंदरं पावेति, तहावि किं सक्षण्णूवि ?, आमं, तेर्सि तं करणं अज्झत्थं भवति, जेण पुणरवि कयाइ उअमिज कहंचि, वीतरागो सम्म उडितं णिच्छतीति ते जणं एवं उबतित्थंति, तं०-किमणेण भो जणेण करिस्सामि ? ते पञ्चावेति किमिति परिषण्हे, अणेणेति जो संपयं जीवति, ण मतो, ण य अणुप्पण्णो भो इति आमन्त्रणे, जायतीति जगो मातापितिमाति सयणवग्गो, करिस्वामीति पयोयणं, इपि ताव जणण मरणरोगमोगाभिभूतस्स सपणो न तागार अतो तस्स वेरगं उप्पअति, जेण अप्पणो आमं तणं काउं बेमि- किमणेण भो यणेण ?, जया वा क्खिमंतो परेण वुबति किं मातापितामादि सयणं णचिक्खति ?, ततो तेसि आमंत्रण कार्ड भणति-किमणेण भो योग ?, जो से इहंग जरादिताणाए, किं परलोगे ?, जतो बुचति-इमे ते सव्वाति कामभोगाहिरण्णाई घणधान्यं च सव्वंपि एतं भुञ्जत इति भोयणं, अहो राइभावो य णं ते किं छट्टि ? ततो बेमि- किमणेण भोयणेण, गवि एतेण तित्ता सुत्रहुणावि भोतुं भवति, तणकट्ठेण व अग्गी अग्गीसामण्णं चोरसामनं, अतो किमणेण भो यणेणं १, एवं मण्णमाणा जाणमाणा इति अस्थो, पढिजड़ य--एवं एगे विभक्ता एवमवधारणे, एगेण सब्बे, आत्रकहाए सीहत्ताए विहरिस्वामो, मातरं पितरं हिया जायते वीरा इव अध्याणं आयरंति धीरा पमाणा, अहवा ते आदितो वा नवेण विरमाणो एवासी, वितर्दादि [243] ॥२३१॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८८-१९३] (०१) प्रत वृत्यक [१८८१९३] आचा-DI सम्म उडाए समुहाए, ण मिच्छोपडाए, गोविंदवत, अविहिंसगा सुबता दंता सचबादी जाव संतुट्ठा सोभणाणि वताणि सुववादि चूर्णिः सिं सुचता, तवजुत्ता इंदियनोइंदियदंता, णागज्जुण्णा ते-समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपुत्ता अपसू ।।२३२॥ | अविहिंसगा सुखता दंता परदत्तभोइणो पावकम्मं णो करिस्सामो समुहाए एवं महईए पहपर्ण तरित्ता सियावित्ता विहारिणो अधऽणंतरे, एगेण सम्वे, पासंडी व सीहि अणुदारसत्तचाए, परीसहपराजिते उई परतिनिसचा उप्पइत्ता, आम-IN | रणांताए संजमट्ठाणे हिचा गारवदोसाओ पुणो पडिवपमाणे, कत्थ ?-अविरतीए गिहवासचारए वा, पडिवयमाणो पडिते य, वस| हिकायरा जणावासे बढुंतीति, वसही केसि, इंदियवसहगारवाणं अस्थित्ते आदारे, जेसि कायरा य दुक्खं भवति, ण तवसूरा, । | जाईति जाइस्संति य जाणंति वा कम्माणि जणा, अहवा जणा इति साह, ते पडिभग्गा समणा ण साहू जणा वुचंति, काउं दुद्ध-10 राणि अट्ठारससीलंगसहस्साणि धारेस्सतीति दवलिंगस्स भावलिंगस्स लूसगा भवंति, तेसि बयाणं, केई दरिसणस्सवि 'अह| मेगेसिं लोए पावए भवति' अह तेसि भग्गययाणं भग्गउच्छहाणं भग्गपरकमाणं गारववसोते उप्पअयित्वाणं, पंसेति पातेति | वा पावगं असिलोगो, अहमेसो, सो तु सपक्खाओ परपक्खाओ तहा, सपक्वं परपक्खं वा, तत्थ ताव परपक्खाओ परोक्खं जति | कोइ पसंसति सुतेण वा जातीए वा तो भणति-धिरत्धु या, तेसि तु तस्स उबदेसे ण वति, जहा खरोचंदणभारवाही भारस्स | भागीण चंदणस्स',हीणं से जाति कुलं वा. मा एतस्स कुलफंसणस्स णामपि गिण्डादि, असिक्खिगिज्मस्स पन्चईसु, उप्पण्व। इयाणं देवावि बीभेति, जेवि समविस्समियाहि धम्म करेंति, एवं सक्खमवि केइ भणति, विवातउपमहादिसु रोसिता अरोसिता वा मुकत्थं भगंति, अण्णं परावति, आदिचाणि ज्झायति, चप्पडियं देति, तमि य आगते परिसमझाओ पंतीओ वा उद्वेति सप- ॥२३२॥ दीप अनुक्रम [२०१ २०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [244] Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१८८ १९३] दीप अनुक्रम [२०१ २०६] श्री आचा रांग सूत्र चूर्णिः ॥२३३॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [४], निर्युक्तिः [२५२...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ९८८-१९३] क्खेवि बहूणं समणाणं समणीणं हीलणिजे गरहणिजे, पुराणो इय बुच्चति, तरुणोवि होतओ, एवं तस्स ण विपचर णामं गमेणेव बलवापयस्स, इथेवं तस्स पावते सिलोगे भवति, अहवा सुनेणेव तेसिं पावते सिलोगे भष्णति, तंजहा-समणवितंते, जावि विरतेहिं अविरतेत्ति अतिषिद्धरणं तवोकम्मेणं अम्हाणतेण या लूहरण य, भग्गं वा णेणं, विविहं ततो वितंतो, समणेविर्ततो समणवितंतति, वीज्झासमणत्तणेण, विविहं संतो २, जं भणितं पुणो उपन्यअति, किंच-पसह समागतेहिं, गिहत्था | चैव परोप्परं भणति पुरिसभेयमागया ते एगतेण लजाए विशियट्टमाणे पासिचा परसह पस्सऽहो वा समण्णागतेहि असमण्णागता, अनत्थवि संखडीते समुदये वा सभ्याय एहिं समण्णागतेहि लजाए ओभासमाना भीता वा असमण्णागता, जं भणितं ण तस्थति, ण वा सदाइअंति, जेवि समण्णायगा मित्ता या तेवि एव पुचेति-एसो सो तुज्झं चउलो महासीसो एति वा गच्छति वा, देसं च पच कत्थइ समण्णागतोबि एस विलितचिकाऊ तेण सद्धि ण भुंजंति, धीयारपव्यइतेण वा धीयारा सुयिवादी भागवताति सण्णागर्भपि ण झुंजंति संजयविट्टालितो चिकाऊ, अतो सो तेहिं असंमाणो भोषणेसु असमण्णामतेसु असमण्णागतो, ऊति णाम मरहट्टादिसु णादि दुर्गुखिञ्जति, तहारिसो अण्णोवि पडिभम्गो, सो तेण मंतखेण लोयहतेण वा सीसेणं समण्णागतेस अस मण्णागते, उत्तरपहादिसु चिर उप्पजह तोचि गरहिजति, जत्थ वा धीयारा पिलिताऊगा, तत्थ णाममाणेहिं अणाममाणेहिं, ते तु तम्भाविता मरुते णमंति, सो पुण मा सम्मद रिसणातियारो भविस्सतीति णो णमति, तो तेहिं वंदमाणेहिं अवंदमाणे एवं लविजइ एस समणतो णचि अण्पेसिं पणामं करेइ, अहवा अकोसते, किंष-दविते अदविते दव्त्रं तं जस्स अस्थि स भवति दविए, तस्स य पुत्रं उजितं णत्थि, जंपि आसि तंपि तस्स अष्णयोगेहिं खड्यं वइयं च सोय कम्मरओ आसि विढवंतओ, श्रमण वितंतादि [245] ॥२३३॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१८८ १९३] दीप अनुक्रम [२०१ २०६] श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥२३४॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [४], निर्युक्तिः [२५२...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ९८८-१९३] अतो तेसु बंधवेसु इस्सरेसु सो अदविते, जं भणितं दरिदो, दवियवजणाणिमितं वराहन्भूतो किलिस्सति, अतोऽवि सष्णागते हिं असमण्णागते, चाणकलोइयदितेण य णायसमण्णागतेहिं असमणागते ण सारीजतीतिकारुणं, जतिवि णाम कहिंचि सारिअति तहावि भांति-भुंजद ण तानि रिको, अतो समण्णागते असमं०, कृतो व ते अट्ठारसड्डाणाए गारवदोसेण पार्वति ? - 'हं भो दुस्समाए दुष्पजीवी' तहा विरते, तेसुवि णाम तस्थ संनायगा करेंसु, कम्मेसु चिरमंतितानि य, सो अविच्छिङ्गीए करेति, अतो विरतेहिं अविरते, अहवा गवि विरतेहिं समं जाओ, ण विकरेहिं समं जातो, गवि अविरतेहिं कहूं?, जेण तस्स कामभोगा ण विअंति, विणावि विशेण केरिसा कामभोगा १, जम्दा एते दोसा उप्पव्यतिया पार्वति उप्पवादिते ते अमिसमिचा, नं भणितं नंपि दवं तंपि चओषचयं, पापाडीणो पंडितो, गिट्टियही बीरे हिं णेतीणि पोट्ठितं, जं भणितं मोक्खो हि, उत्तमो अत्थो उत्त मत्थो, कोयि, सो नाणदंसणचरित्ततव विणय० णय अगारोवत्थो, तं एवं उत्तमं आगममाणो-चिंतेमाणो सता नियं आमरणंताए कसिणकम्मनयत्यं सव्वओ परिव्वयेासित्ति बेमि ॥ षष्ठाध्ययने चतुर्थोदेशकः परिसमासः ॥ उद्देसाभिसंबंधो-पढमे णियगविधुणणा भणिता, वितिए कम्मस्स, ततिए उवगरणसरीराण, चउत्थे गारवतियस्स, इह उबसम्गा जहा घुणिअंति तदा उदाहरिस्सामि, तस्स गारवरहियस्स विरतौ, जति नाम चत्तारि चउपगारा उवसग्गा उपजिजा, उवसग्गगहणेन पडिलोमा परीसहोवसग्गा गहिता, समाणग्गहणेण अणुलोमा, ते जति णाम कर्हिचि जुगवं अजुगवं वा उप्पजेजा ते वासी चंदण कप्पसमाणेणं विधुवरांति, सुत्तस्स-गारवतियं विधुणमाणो सुद्धं परिव्वजासि, तं च परिवयणं तस्स कत्थ १, मणिअति से गितरेसु वा से इति णिदेसे, कस्स है, तस्स गारवरहितस्स साहुणो, गिण्हंतीति गिहा, तत्थ गिहेहिं उक्षणीयमज्झिमाणि अद्रव्यादि [246] | ॥२३४॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : षष्ठं- अध्ययने पंचम उद्देशक: 'उपसर्ग-सन्मान विधुनन' आरब्ध:, Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९४-१९६] (०१) प्रत वृत्यक [१९४१९६] श्रीआचा-10 गिहाणि पिप्पंति, ताणि तु मिक्खाणिमित्तं पविसिजति, गिहतो गिहाणं वा अंतरं, ततो परं गामो, जेण वुचति-गामेसुवा, मणि-ID गृहान्तरादि रांग सूत्र | वेसणे साही पाडओ वा तेसिं वा, अंतरालं रत्थातियचउकचच्चरं वा, विहारभूमीगयस्स वा, गच्छंतस्स वा, एवं विहारभूमीएवि. चूर्णिः | उजाणतरेण उआणगतस्स बा, जहा बंदगस्स उवसग्गा कया उजाणाओ, सेसं गामंतरं तु गामओ गामाणं वा अंतर | ५ उद्देशः गामांतरं, पंथं उपहो वा, एवं नगरेसु वा नगरंतरेसु वा जाब रायहाणीसु वा रायहाणीअंतरेसु वा, एत्थं सण्णिगासो कायब्बो ॥२३५॥ अस्थतो, तंजहा गामस्स य नगरस्स य अंतरे, एवं गामस्स खेडस य अंतरे, जो गारवदोसे ण पावति 'हं भो दुस्समए दुष्पजीवी' तहा विरते, तेसुवि णाम तस्स सण्णायगा कयरेसु कम्मेसु चिरमंतिताणि य, सो अविहवं, गामस्स खेडस्स अंतरे जाव गामस्स | रायहाणीए य । एवं एकेक छड़ेंतेणं जाव अपच्छिमे रायहाणीए य, एवं एकेकतेसु जहुदिउसु जणवयंतरेसु वा अद्धाणपडिवास्स | अच्छतस्स या जाप काउस्सगं ठाणं वा ठियस्स संतेगड्या जणा लूसगा भवंति संतीति विजंतीति, एगतिया, ण सम्वे, जायंतीति जणा, तंजहा-नेरइया तिरिक्खजोणिया तहा मणुस्सा देवा, तत्थ नेरइया उवसम्गे प्रति अवत्थू , सेसा करेंति, तत्थचि मणुस्सा विसेसेणं, तत्व भंगा-एमइया जणा एगइयाणं साहूणं अणुलोमे उवसग्गे करेंति, अत्थेगइयाणं पडिलोमे उबसग्गे, अस्थेगतिया जणा एगतियाणं अणुलोमेवि उवसग्गे, अत्गइया जणा णावि अणुलोमे णावि पडिलोमे, मज्झत्या चेव । तत्थ देवा | चउबिहा-हासा पयोसा वीमंसा पुढोमाया, वीमंसा जहा कामदेवस्स, माणुस्सगा चउनिहा-हाम्रा पयोसा बीमंसा कुसीलपडि| सेवणा, तिरिक्खजोणिया चउबिहा-भया पदोसा आहारहेड वा अवचलेणसारक्खणया, साणगोणादि भएण पदोसेण य, सीह- | हो बग्धा आहारहेउं, अबञ्चलेणसारक्खणयाए वायसमेण्ठाति । लूसंतीति लूसगा, सरीरलूमगा संजमलूसगा वा पडिलोमा, अणुलोमा | |२३५|| a LEE दीप अनुक्रम [२०७२०९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [247] Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९४-१९६] (०१) श्रीआचारांग सूत्र चूर्णि: ॥२३६॥ प्रत वृत्यक [१९४१९६] तु एगतेण संजमलूमगा, अदुवा(अहवावि)फुसंति अह इति अणंतरे, जस्स अविसद्दा उबसग्गा ते फासा, जं भणित-आतसंवेय- सशादि | णिजा, तेवि चउबिहा-घडणया थंभणया लेसणया पवडणया, अहवा वाइयपित्तियसिमियसन्त्रिवाइया । अहवा फुसंतीति फासा, सहनादि | सीतं उण्हं दंसमसगादि, ते फासे पुट्ठा अहियासते, हाकारलोबो एत्थ दहब्बो, सम्म अहियासते, संमंति रागदोसरहितो पसत्थ| अण्णतरज्माणउवात्तो, जहा फासा तहा रसावि, जाव सद्दा रागदोसरहितोवि अहियासिज, अतो भण्णति-ओते समितदसणो ओते णाम एगो रागादिरहितो, समितदसणे संमदरिसी अहवा संमितदरिसो, तं च मिच्छादसणसमितं, सो एवं समितदसणे | गामादि रीयमाणे दयं लोगस्स जाणिज्जा दया अहिंसा, लोगो छज्जीवलोगो, तं जाणिजासि जस्स लोगस्स जहा कजति, | जे दयतो गुणा इह परलोगे य भवंति, णचा, न तत्परस्य संदध्यात्, प्रतिकूलं यदात्मनः । एषः संग्राहिको धर्मः, कामादन्यत्प्रवर्तते ॥१॥ जहा खंदगसीसेहिं सुहदुक्खखमेहि सांबाणुगाहसमत्थेहिषि दयागुणं जाणिसा दंडियस अहियासिय, एवं 2 जाव परिग्गरं जाणिना ततो विरमति । ताणि एवं दयादीणि वताणि णचा धंमं कहेमाणो तिरि जाति, सा य दया दवादिसु|" | भवति, दव्यतो छयु जीवनिकायेसु, लोगग्गहणा दब्बग्गहणं । एवं च णातं भवति, जति कीरति, खिने उ पाईणं पदीणं सवाहि IAN | दिसाहिं सव्वाहि भणदिसीहिं य पाणातिवातं पडिसेधंति, कालतो जावजी, भावतो अरत्तो अदुट्ठो, अहवा सो एवं लोगस्स | दयं जाषित्ता गामादि रीयमाण इति अणियतचरित्ता पादीणं जाव ओहारणि, केवलियपण्ण धम्मं तित्थपभावणत्थं से आइ-IN क्षति, स इति णिइसे सो अणियतचारी मिक्खु मिक्खुणो अभिक्खुणो चा, किं अक्खाति ? जाव रायिभोयणं चएञ्जतित्ति। 1 | से य पाणाइवाए चउविहे दयादि ४, एवं जाव परिग्गहो, किट्टेति णाम इहपारलोइए पाणाइवाए अस्सवदोसे संवरगुणे य | ॥२३६ दीप अनुक्रम [२०७२०९] | पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [248] Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९४-१९६] (०१) प्रत वृत्यक [१९४१९६] सीमापा-10 अक्खेवणादीहि कहाहिं, वेतिजति अणेण वेदो, वेदेतित्ति वेदो, जं भणितं-सम्मट्ठिी नाणी, अनेऽवि जीयातिपदत्थे वेदापय-101 धर्मकथा संग सूत्र- तीति वेदवी, नाणदसणचरित्ततवविणए वा। अहवा दब्बं खिनं कालं पुरिसं सामत्थं च विदिता कहेतीति, णागज्जुणा तु चूर्णिः 'जे खलु भिक्खू बहुमुत्तो बज्झागमे आहरणहेउकुसलो धम्मकहियलद्विसंपण्णो खित्तं कालं पुरिसं समा॥२३७॥ सज्ज के अयं पुरिसे? कं वा दरिसणं अभिसंपण्णो एवं गुणजाईए पभू धम्मस्स आघवित्तए, भणितो वेदवी, किं तेसिं कहेइ सो वेदवी गिहत्थो साहू कारणा एगो गच्छसहगतो वा, अण्णाणिवि तजातीयाणि पुथ्वभणिताणि पदानि विभासि| यवाणि, आयर(उपरय)दंडेसु वा जाव सोवहिएम वा सोतुं इच्छा सुस्पूसा समूसुसमाणाणं कहिञ्जति । साहु आदितो वा वेदिते पवेदिते, तं च इमं कहेति संति विरतिं उवसमं णिब्याणं समणं संति, जं भणित-अहिंसा, लोगेवि वत्तारो भवंति-संति| कम्मे कीरंतु, यदुक्तं भवति-आरोग्गं अब्बावाह, विरतिगद्दणा सेसाणि वयाणिगहियाणि, उवसमगहणा उत्तरगुणाण गहणं, तंजहा कोहोवसमं० लोभोवसम, अणुवसंतकसायाणं च पब्वयराइसमाणेणं० इहलोगपरलोगदोसे कधेति, इहलोगे डझइ तिबकसाओ० | परलोगे णरगादि विभासा, णिच्युति णिवाणं, तं च उवसमा भवति, इह परस्थ य, इह सीतिभूतो परिनिखुडोय, तहा 'तणसंथा| रणिवण्णो० परलोगेवि मोक्खो, तंजहा-कंमविवेगो असरीरया य०, सोयवितं सोयं, दब्वे भावे य, दव्वे पडादीण भावे अलु- | | दुता, लोगेवि वत्तारो भवंति-सुतिउ सो, गवि सो उकोडं लंच वा गिण्हेति, अजवा जात अजवित-अमाता, मद्दवाजात मदवितं, | लाघवाजातं लापवितं, जं भणितं-अकोहतं । एवं पच्छाणुपुब्बीते केसिंचि, अण्णे तु असुतिकलसो तु कोहित्तिकाउं कोहोऽवि होत, अपसण्णमणा कजाकजं ण जाणति तेण अमतिकोहो, सोयवियत्ता अकोहचाऽऽहता, अणाणुपुब्बीकमेण तु अञ्जवितं मद्द-10॥२३७॥ दीप अनुक्रम [२०७२०९] आगम १ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: (०१) [249] Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९४-१९६] (०१) श्रीआचा- वितं लापवितं, लाघवाजातं लापवितं, यदुक्तं भवति-अलोभो, अणतिवातिय नाणादीणि जहा ण अतिवयति तहा कहेति, अहवा शाननारांग सूत्र अतिपतणं अतिपातो, किं अतिवातेति , आयु सरीरं इंदियं चलं पाणातिवातो, ण अतिवातेति अणतिवातिय, तं तु सम्वेसि पाणाणं, चूर्णिः || तु जहा कृलिंगीणं अम्हे नहंतवा, अने तब्बा, एवं पभूताणं जीवाणं सत्ताणं अतिवातो ण भवति तहातहा कहेइ, इमंच अर्थ | ॥२३८॥ | विचिंतेति, तंजहा-के अयं पुरिसे? कं वा दरिसर्ण अहवा 'दवं खित्तं कालं' गाहा, भिक्खू पुन्वभणितो, धम्मो अगारधम्मो | अणगारधम्मो य अक्खाइअति-परूविज्जति, सो एवं अणुवीति मिक्खू धम्म कहेमाणो कि अन्नं कुजा, पति-णो अप्पाणं प्रत आसादिज्जा णो परं आसादिज्जा अहवा एतं च अणुचिंतेति जेण णो अप्पाणं आसादिजा, अश्लाघया अप्पा चेव घेप्पति, | | तब्बतिरित्तो परो साह, आर्य सातेतीति आसातणा, लोहगा लोउत्तरा य, एकेका दब्वे मावे य, लोइया दब्वे सचिचादिदबा - | वृत्यक सायणा, भावे तु जस्स जतो विआइलभो भवति ततो विणयातिखलितस्स आसायणा भवति, लोउचरिया दग्वे शरीरोक्गरणाण [१९४ अण्णपाणातिसातणा दबासातणा, भावे नाणदंसणचरिचतवविणय०, से धम्मं कहेंतो तहा कहेति जहा आसायणाण भवति | १९६] | दुबिहावि, दब्वे ताव तहा कहेति धम्म जेण आहारादिआयसायणा ॥ भवति, तंजहा-भिक्खुस्स अणुवरोहेण कहेयचं, पिडिपाए| वेलाए हिंडंतो ण लम्भति अपजत्तं वा, तेण विणा जा हाणी, अहवा के पुरिसे? कं वा दरिसणं एवं भावं कहेयवं, इथरा हि | उदूट्ठो समाणो अकोसे तहानुसेहिज वा विग्छिदिज वा अवहरेज वा, तेण तस्स सरीरे दबासायणा भवति, उद्द्यो वा मिक्वं| पडिसेधेजा, आहारासायणाओ जा परिहाणी भाषासायणा, ण तहा धम्मो कहे कब्बो जहा से परिहाणी भवति, जहा य सुत्तस्थ तदुभयं आयपरतदुभयस्स सीतंति, सारण वारण चोषणा पडिनोषणा ते यत्थे, भणितं च-जोगे जोगा जिणसासणंमि०, अनुक्रम [२०७२०९] । Ka पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: दीप [250] Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९४-१९६] (०१) आशातना प्रत वृत्यक [१९४१९६] श्रीश्राचा- य तारिसिताए इत्थियाए धम्म कहेइ जतो चरितमावासायणा भाति, वक्खति य-अवि साविया पवातेण., एत्थ संग सूत्र | भंगा, दवासायणा कति भवति भावासायणा, चतारि भंगा विभासियधा, णो परं आमाएजा, धर्म कहेंतो अणुधम्मकाही| चूर्णिः निंदति, सो वरातो धर्म चेवण जाणति तो किं कहेदिति ?, णवि सो जहा अहं ससमयपरसमपवियाणो, ण य वादं कहेति, ॥२३९॥ Pण य अक्खिचो, प्रत्ययितुं समत्थो, लजालुप्रो बा, सो ण सडिओ ण हेउओन वा सुमुहो एवं आसादेति, जाइकुलसम्भावादीहिं| | वा परं आसादेति, परावत्ताओ वा इत्थियायो पुरिसा वा भणति, णवि सुलभो सुसाहुसमागमो, अचिन्तं सरीरेणं धम्मकहीणं | | तेण मुहुचतरं सुणह, ततो ते अणुवरणाए सुणेति, पच्छा इस्थिया भत्तारेण ईसायमाणेणं अणिस्सायमाणेणं वारं २ भणति, ण करे| सिनि हम्मति, पुत्तो पितिमादिणा, भावासायणा णो अनहेर्ड वा कहेति, अहवा तेण कहेति जहा सम्मदिड्डी वा थिरीभवति, जहा | सकेति, तो चउनिहाए कहाए कहेति, अह अक्सिविऊर्ण तरि पुणो विक्खेविउँ सम्म नाणे चरिने तवे विणए, ततो तेसिंग मुठ्ठयरं भावो सादितो भवति, संसारसमई तेण पडिन्तो समूढो भवति, कुसत्थभावितमतिपस्स अण्णतिस्थियस्स पुरतो परि-16 साते असमत्थेण ण भणियवं-सम्वे सेसा कुसिद्धतगा, पुणं अक्खेवे सति अपच्चाईतस्स परिसाए सुपरं मिच्छ भविस्सति, सम्मदिट्ठीणं ओभावणा हीलणा य, बालमरणाणि य पसंसंवस्स दब्वभावासादणा भवति, जेण सुत्तेण तेसिं अन्नयर मरिज, अभूत| उम्भावणं च मिच्छत्तं, णो पाणाई भूपाई जीवाई सत्ताई आसादेज, पंथं गच्छमाणो पुढवि०, तत्थ आउतेउवाऊवणप्फइ छण्ई कायाणं अणंताणं आसातेइ, पुढविमादिसु वा कायेसु ठितो ठियस्स वा कहेति, धूमिताए मिण्णवासे वा गडते पाणाई भ्याई सत्ताई आसादेति, अत एवं भण्णति-णो पाणाई णो भूषाई णो जीवाई पोसत्ताई आसादिज, सो एवं अणासातए-अणासायमाणे ॥२३९॥ दीप अनुक्रम २०७- पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] “आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [251] Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९४-१९६] (०१) आशातनावर्जन प्रत वृत्यक [१९४१९६] श्रीआचा- | किंचि जति लोइया कुप्पावणिया वा दाणधम्म कूवतलागादीणि वा पसंसति तो पाणभूतजीवसत्ता आसादिता भवंति, अह भणतिरांग सूत्र दाणे दिर्जते कूवतलाएहिं वा खणतेहिं छकाया वहिजंति तेण अप्पणिग्गहो सेयो, अतो अंतराअदोसासायणा तजीवणाइ य पाणिचूर्णिः | भूतजीवसत्ताणि आसादियाणि भवंति, भणियं च-'जे य दाणं पसंसंति, वहमिच्छंति पाणिणं' तेण जह उभयमविण विरु॥२४॥ ज्झति तहा कहियव्यं, जह पवतणबिंदुपदाण अञ्जापदाण सरियाए वा (1) अतो णो पाणभूतजीवसत्ता आसादिता भवंति, जो य एवं कहेति से अणासादिते, अणासातयसीले अणासातयगो, सता पाणादीणं णचा इति वदृति, अणासातमाणोति तहाण कहेति जहा पाणभूयजीवसत्ताणं आसायणा भवति, अप्पं वा, अहवा धम्म कहेंतोण किंचि आसादए अचं पाणं वा, जंभणित-तदवाण कहेति, IMण तहा कहेति जहा सो पाणभृयजीवसत्ताणं आसादेति, कहते तु दाणघम्मे पसंसिते पाणा भूते चा हंति, अतो तदासायणापडिINIसेहोत्ति, णवि तदासायणा कया भवति, सो एवं अणासादतो, अणासायमाणो य धम्म केसि कहेंति, बुचति-बुज्नमाणाणं या पाणाणं चहिजमाणाणं वा संसारसमुदंतेण पाणाणं सरणं गई पइट्टा भवति जहा से दीवे असंदीणे, जहा सो दव्वदीवो आसास पगासदीवो ताणं सरणं गई पइटा भवति एवं सोऽवि अप्पणो परस्स तदुभयस्स आसासदीवो भवति पगासदीयो य, जहुद्दिद्वेण | कहाविहाणेणं कहेंतो केति पवावेंति केति सावते करेति, तहेति अहाभदए करेति, आगादमिच्छादिट्ठीवि मउईभवंति, तथा मुणिति PAतित्थयरगणधरो वा अण्णतरो वा साहू कम्मबललद्विसंपन्नो एवं से उहिते एवमवधारणे से इति मोजाणओ कहं कहेति गिहा दीणि चंदना मोक्खगमणे उद्वितो नाणादिपंथपट्टितो जस्स अप्पा स भवति उट्टिते उद्वितप्पा, अणिहेतिण णिहेति तयोपिरियं | पणिहंति जंच रागदोसेहिं कम्मविधुणणस्थं नाणादिपंधए ठितो मेरूप वादेण ण कंपिञ्जति परीसहोवसग्गेहिं अतो अचले, दीप अनुक्रम [२०७२०९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [252] Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१९४ १९६] दीप अनुक्रम [२०७ २०९] श्रीआचासंग सूत्रचूर्णिः ॥२४१॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [५], निर्युक्ति: [२५२...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १९४-१९६] चलति चालयति वा चलो, जीवायो व अडविहं कम्मसंघातं चालतीति चलो, चालितेति वा उदीरितेति वा एगट्ठा, अब हिलेस्से परिचए दबलेसा सिलेसादि, भावे परिणामो, संजमनिग्गतभावो वहिलेस्सो भवति, अवहिलेस्सो ण बहिलेसी, अहवा अप्पमत्थाओ लेस्साओ संजमस्स वाहिं वहतीतिकाउं सो बहिलिस्सो भवति, नो वहिलेस्सो अबहिलिस्सो अणुलोमेहिं पडिलोमेहिं उवसग्गेहिं उप्पण्पणेहिं अवहिलिस्सो अणाइलभावो अणिग्गयभावो, सचितो अबहिलिस्सोति एगट्ठा, जेऽवि ते गामाणुगामं दृतेणं आयरिया अणारिया वा धम्मं गाहिता तेहिं वंदिनमाणो पूजमाणो य आढायमानो अणादाइजमाणो वा तत्थ अबहिलिस्से चैव परिवतिज, समता वते परिव्यते, यदुक्तं भवति-ण कत्थति पडिवज्झमाणो, एवं सो अणियतविहारी परीसह उवसग्गसहो संखाए पेसलं धम्मं संखाए परिगणित्ता, जं भणितं - जच्चा, किमिति १-पेसलं धम्मं, पीर्ति उप्पारतीति पेसलो, धम्मो दुविहो- सुयधम्मो चरित्तधम्मो य, जो बुतो बुचमाणो वा, दिट्टिमंति अब्बिवरीतं दरिसणं दिट्ठी सा जस्स अस्थि जहिं वा विजति सो दिड्डिमा, एवं जाव विजयवं परिणिव्वुडित्ति विसयकसाएहिं उवसमंतो, दव्वणिव्वुडो अम्गी सीतीभूतो रागाउवसमाओ य णिव्वुडगा य भवंति भावे अकसाओ सीतीभूतो परिणिबुडो य, तंणिग्गओ, परमो वा तणुयकसाओ वा असंजमविवजयओ वा निबुतो, परिणिव्वायमाणे वा परिणिव्यतेति बुचति, जो पुण असंखाय पेसलं धम्मं मिच्छद्दिट्ठी अपरिणिबुडे भवति, तम्हा संगई पासह अहवा सव्व एव एसो गिदंतराओ आरम्भ दुविहो उवसग्गसहो भिक्खु अक्खाओ धम्मकहलद्धिसंपण्णो, तव्विवञ्जए तु संगति पासह, तम्हा इति जहोद्दिट्ठगुणविवजयाओ सद्दाईणं संगो, दव्वे पंकादि, पंचविहविवञ्जतो वा तदुवचितं कम्मं संगो भवति, संगोत्ति वा विग्घोत्ति वा वक्खोडिति वा एगडा, कस्स ? - मोक्खस्स, जाणह वा संगं-गंथं पासह, यदुक्तं भवति-कम्मं संगयंते, एवं अबहिर्लेश्यादि [253] ॥२४१॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९४-१९६] (०१) श्रीआचा- संगिणो, गंथे पढिता णरा कतरे?, ते जेहिं पंणियगादि पंचवि धुया, अप्पाणं वा पंच गाहितो, तेहि य अचिहिते हिते रागदोसा-AL कामविषरांग सूत्र-14 चूर्णिः ण्णादि दिएहिं गढिवा बद्धा नरा विसन्ना कामविप्पिता विविहं सन्ना विसण्णा, दव्वे पंकादिविसण्णा भारवाहपरिया चा, भावसन्ना । ॥२४२॥ | नियगा पंच, एयाए दुविहाए कामविप्पिता, विग्पितनि विप्पितत्ति वा एगट्ठा, दब्वे खंभादिविपिता दुरुद्वरा भवंति, भावे दुविहकामासनचित्ता, सयणधणादिणा मुच्छिता वा कामा, जेहिं वा सारीरमाणसेहिं वा दुक्खादी, माणसेहिं इह विप्पिता परलोएविपरहि | डंडणेहि य जाब पियविष्पोगेहि य विपिस्सिंति, जंसि इमे लूसिणो णो परिवित्तसंति जंसि जत्थ, इमे इति जे वुत्ता प्रत | गंथेहिं गढिता नरा, अहवा इमे मिच्छादिट्ठी असंजतमणुस्सा, लूसंतीति लूसगा, पंचगस्स वा लूसगा भंजगा विहारगा एगट्ठा, | जो परिवित्तसंति-णो उब्वियंति, णो वीभेति, लूपगत्ता ण परिविचसंति, तदुवचियस्स वा कम्मस्स नरमादिभयस्स वा, तहा वृत्यक ANIगंधाओ कामेहितो, पढिजह य-तम्हा लूहाओणो परिवित्तसिजा जम्हा गंथेहिं गहिता णरा विसमा इह परत्थ य दुक्खेहि [१९४ |च विपिजंति तम्हा तुम लूहातो णो परिवित्तसिज, दब्वे जं नेदविरहितं दध्वं तं लूई, भावे रागादिरहितो धम्मो, तत्थ रुक्खत्ता |ण कसादि वज्झति, भावरुक्रवत्थं दबक्खाओ ण चिचसे, भणियं च-अतिणिद्वेण चलि तिकतोसो लहाओ ण परिवित्त१९६] सेत्ति, णणुजस्सिमे आरंभा सघओसुपरिणाता भवंति, जस्सेति जस्स साहुस्स, कतरे आरंभाः पुढविकाइआरंभा आउकाइयारंभातेउकाइयारंभा वाउकाइयारंभा वणस्सकाइयारंभा जाव तसकाइयारंभा, जह सत्थपरिणाए एकेकस्स बहवे आरंभा भणिता | तंजहा उपभोगे य सस्थे य, अहवा णामादिआरंभा, णामठवणाओ गयाओ, दब्वे कायारंभो, भावे 'रागादीया तिपिण'गाहा, दीप | सबतो इति सिचं गहियं, गामे वा जाव सब्बलोए, सन्नता इति सब अप्पत्तेण, भावे गहिते कालोवि तत्थेव, जाणणापरिणाए अनुक्रम [२०७२०९] | Ka पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [254] Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९४-१९६] (०१) कषायशमादि प्रत वृत्यक [१९४१९६] श्रीआचा वा, पथक्वाणपरिणाए पडिसेधिता, एवं लूदाओ णो परिवित्तत्थो भवति, अहवा से वंता कोहं च माणं च मायं च से इति | रांग खत्र से रुक्खातो अवितत्थो, सम्बो सब्वापत्तेणं सबआरंभपरिणाओ धुणणाधिगारो अणुपत्तति, तेण पंता कोहं च, जं मणितंचूर्णिः | धुणित्ता हता, कोहमाणमायालोभनि वत्तम्ब, जं एकेकस्स उच्चारणं कीरति तंजहा-जावंतिज जइ ब, एकेको कसायो चउविहो, • ॥२४॥ | कसायो य एकेकस्स खमणे कीरति, तंजहा-अण मिच्छ मीसं अट्ठ णपुंसिस्थि वेद लकं च। आवस्सए, संवरेण निरूभित्ता तवेण | पुथ्वउबचितं कर्म खवित्ता, एस तिउद्दे एस इति जो साहू जहुदिहकमेणं णियगादि विधूता बोडिअमामा, तुट्टो बोडेति बोड इतवा, तं त्रोटये किमिति ?, कम्मबंधणं, उभयथावि एत्य समासो, कमबंधणं जस्स हूं, कम्मवंधणाओ वा तुट्टो, तित्थगरग-1] Nणहरेहिं विविहं अक्खाओ विक्खाओ, इति एवं, वेगि(बेमि)पंचासवनिरोहसामत्था तुट्टति, केचिरं एवं विहे गुणे धरतेण कम्माई | | तु तुडेति तिव्बाई , भन्नति-कायस्सवि ओवाए कम्मसरीरस्स भवोवनहकम्मचउक्कयरस वा वियोवाते विविहरूस जा ओरा| लियतेयाकम्मसरीरकायस्स अचंतविओवाते, संगमतीति संगामो, संगामस्स सीसं संगामसीसं, दव्वसंगामो बइवीरपट्टणं, तंजहारही रहेहिं हस्थिगतो हस्थिगतेहिं एवं जाव पदातिभावे, परीसहरिउजयसंगामसिरं अट्ठविहकम्मारिसंगामसीसं, जहा दग्यसंगामसिरे पराजिणिता इढे भोगे पावति एवं कम्मारिजयाओ को गुणो', भण्णति-से हु पारंगमे मुणी स इति सो दवभाव| जुज्झे कायवियोवाता परीसहरिउं जेता, पारं गच्छतीति पारंगमा, दबपारं नदीसमुद्दादीणं, भावे जहुदिट्टनियगादि पंचगं धुणित्ता |णाणादिपंचगपोतारूढो संसारसमुद्दपारं गच्छति, मुणी साहू आयरिओ अन्नतरोवा, सो एव परीसह अरी जिणति संसारपारं गच्छति, | कदा-अवि हण्णमाणो अवि पदार्थसंभावने, भण्णति-हण्णमाणो फलगावयट्टी जहा उभयतओ फलतं अवगरिसिजमाणं Mammu HEAR ॥२४३॥ दीप अनुक्रम [२०७ २०९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [255] Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१९४ १९६] दीप अनुक्रम [२०७ २०] श्रीआचा रंग सूत्र चूर्णिः ८ अध्य० ॥२४४॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) - श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [५], निर्युक्तिः [२५२...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १९४-१९६] अवगरिसियं च फलगा भवति, एवं सो बाहिरब्भंतरेण तवेण चाहिं अंतो य अप्पाणं अवकरिसति, तंजहा—बाहिं सरीरं अंतो कम्मं, दुविहेहि य उवसग्गेहिं अप्पाणं अवगरिसति, सत्थेण वा तच्छिमाणे जोतेण वेचारणा वा हंममाणो कम्मत्रोडणातोण | णिब्बिञ्जति-न नियतति, जह बाहिरे सरीरे हम्ममाणे ण णिब्विजति, कालोवणीते कालं उचणीतो कालोवणीतो, कालं मरणकालं तं तु पाउवगमणं भत्तपचक्खाणं वा, एकेकं वाघातिमं च निव्वाघातिमं च, कालोवणीतो, गहणे वाण अप्पत्ते काले मरणस्स उअमियन्वं एत्थ णागज्जुण्णा सक्खिणो-जति खलु अहं अपुणे आउते उ कालं करिस्सामि तो परिण्णालोवो अकित्ती दुग्गतिगमणं च भविस्सइ, सो एवं कालोवणीतो पातो० भत्तपाणपडियातिखित्तो वा कंखिञ्ज| पत्थेज पीहिअ अभिलसिजा जाव करिसणो कम्मक्खओ, कालमिति पंडियमरणं, ण तु तेणं णिविष्णो समाणो बेहाणसं गामगद्धपट्टे वा अण्णतरं बालमरणं वा जाव आउभेदे जाब परिमाणे अवहारणे वा भेदणं भेदे, कतरस्स ?, आउय कम्मगलरीगस्त, तदववद्वाणि चिट्ठति, यदुक्तं भवति-जीव सरीरवियोगो, तं जाव सरीरभेदो ताय कालं कंखिञ्ज, सो य देहवियोगो खिप्यं चिरातो वा होजा, ण य अष्णतरं आससापयोगं आसंसेजां कम्मधुयं भवतीति वेमि ।। षष्ठमध्ययनं समाप्तं ॥ ओवातो महापरिणाह संबंधो पुव्वभणितो, णिक्खेवणिज्जुत्ती, तंजदा - मोहसमुत्था परी महोवसग्गा परिजाणियव्वा, परिष्णाय || कम्मस्स णिजाणं भवति, यदुक्तं भवति-मरणं संपतं, महापरिण्णाण पढिज्जइ असमणुग्णाया, तेसिंपि घुणणं विवेगं च करेइ, अयं सुत्तस्स सुतेणं-कालं कंखिज जाव सरीरभेदो, तेणं सुत्तेणं, अवि सुनाओ आरंभ सव्वं संबज्झति, तत्थ आदिसु तेण सह संबंधो तंजहा 'इहमेगेसिं को सज्जा भवति, ण सव्वेसिं, तहा इहमेगेसिं सण्णा भवति जहा पातोवगमणं भतपञ्चक्खाणं वा ठितो कंखिज www. कालकांक्षि तादि पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : पूर्वकालात् अध्ययन - ७ व्युच्छिन्नम्, वृत्तिकारेण स्वयम् अस्य अध्ययनस्य विच्छेदस्य कथनं कृतमेव | परंतु चूर्णिकारेण इह अध्ययनस्य क्रमं सप्तमं एव लिखितम् तत् चिन्त्यम् | [ यहां चूर्णिमें इस अध्ययन का क्रम ७ लिखा है, वृत्तिकारने यहा स्पष्ट लिखा है कि अध्ययन-७ विच्छेद हो गया है, चूर्णि और वृत्ति दोनोमे निर्युक्ति और सूत्र तो समान हि है सिर्फ़ क्रममे विसंवाद है |] अष्टम अध्ययनं 'विमोक्ष' आरब्धः, [256] ॥२४४ ॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [4], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५३-२७५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] (०१) उदशार्धा प्रत वृत्यक [१९७२०१] श्रीआचा- | कालं, सका पुण सुहेण धम्मोत्तिकाउं भत्तपञ्चक्खाणं चेव णिच्छति, जेवि इच्छंति तेसिपि जहा अम्हं सुद्धं परिकम्मेउं च पञ्चक्खा-100 रांग सूत्र- IMI इअति तहा तेसिंणो सण्णा भवति, जह य अहं सरीरमेदाओ मोक्खो भवति, कर्मबन्धनबद्धसद्भूतस्थान्तरात्मनः सर्वकर्मविनि धिकारा चूर्णिः | मुक्तो मोक्ष इत्यपदिश्यते, एवं अण्णेसिं णो सण्णा भवति, तेसिं सन्नाणलोवाण अणवो भवति, एवं आदिमसुत्ताओ आरम्भ |N ॥२४५॥ | जाणि पसत्थाणि उपदंसियाणि सुत्ताणि ताणि सदहमाणो आयरमाणो य अपसस्थाणि वज्जतो कंखेज कालं, जहा य आदिमतस्स | मंगलमुत्तस्स अवसानेण सुत्तेण सह संबंधो जोइओ एवं अबेहिवि सुचेहिं सह संजोएयचं, तंजहा-अट्टे लोए परिजुण्यो इहमेगेसि | णो सण्णा भवति, एवं सब्बसुत्ताणि जोएयवाणि, जहा ध एतं आदिम मंगलसुन सधमुत्तेहिं सह संबद्धं एवं अण्णाशिवि मुत्ताणि | अण्णोण्णं सह संबद्धियवाणि, भणितो संबंधो, अणुयोगदारा परूवेऊणं दुविहो अत्याहिगारो-अज्झयणत्याहिगारो य उद्देसस्थाहिगारो य, अज्झयणस्थाहिगारो पुथ्वभणितो,'णिआणं अट्ठमए' अहवा विमोक्खेण अहिगारो, उद्देसत्थाहिगारो-पहमे असमणुग्णातं २५२-२५६।। तिण्डं तिसट्ठाणं कुप्पावयणियसताणं विवेगो कातब्बो, आहारउवहिसेजाओवि तेसि संतियाउ वजेयब्बाओ, किं | पुण जे तेसि दिट्ठी ?, नाणादिपंचगे समणुण्या, ते पासत्यादि चरित्ततरविणयमुअसमणुष्णा, अहाछंदा पंचसुवि असुहरूबा, तत्थुबसग्गा, बितिते अप्पितविमोक्योति, णिमंतिज्ज ताव पडिसेहंति, पडिसेहेंतेमु जति णाम कहिंचि रूसति ताहे तेसि सिद्धतसम्भावो कहिज्जति, ततियंमि अंगचिट्ठा हेमंते मिक्खं हिंडतं सीतवेवमाणगातं जति कोइ दुट्टत्ताए पुच्छइ-किं ते सीतं अदुव गामधम्मा बाधंति? जेण कंपसि, तत्थ तस्स सम्भावकहणं कीरति, न गाम वाधंति, सीतं ममं कंपेति, उद्देसंमि चउत्थे । | वेहाणसं केलं, पंचमए गेलनं कंठथ, स एव य उवगरणानां नाम 'छटुंमि उ एगत्ते'उबगरणमोक्खं तम्हा णाणिणं एकत्वं वक्ष्यति,0॥२४५॥ दीप अनुक्रम [२१०२१४] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अष्टम-अध्ययने प्रथम-उद्देशक: 'असमनोज्ञ विमोक्ष' आरब्धः, [257] Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१९७ २०१] दीप अनुक्रम [२१० २१४] श्री आचारांग सूत्रचूर्णिः ॥२४६॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२५३-२७५], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] 'एकोऽहं न में कचित्, नाहमन्यस्य कस्यचित् । इंगिणिमरणं अणुपविसेत्ता लाभं न लाति, अह स्वयं अनंतरपायोवगमकार्येव जो वयं चरिउं, 'अट्टमे अणुपुवाविहारीणं' कंठवं, णामणिष्फण्णे विमोक्खाययणं, सो छनिहो णामं ठविओ मोक्खो दबमोक्लो य गाहा || २५७|| दद्दविमोक्खो णिगलातिएहिं० गाहा || २५९ ॥ दव्वस्य दव्वाणं, तत्थ दव्यस्स बद्धस्स गोण| पडिनिमस्स वा बहूणं वा दव्याणं, जो जेण दव्वेण मुच्चति, बद्धो सचितेग अचितेण वा दब्वेहिं सचितादीहिं बहुणिगले हिंतो, बहूहिं निगलेहिं गलसंकलहत्थं दुगादीहिंनो या, खेतविमोक्खो चारगाओ विमुचति, जो वा खित्तं दाऊणं विमोएति, अहाकष्पगं सव्वता वा, काले जो जहिं काले मुञ्चति, दुब्भिक्ालकाला ओ वा मुको, मारिजिङकायो वा कत्तिमाइएस अमाघाते घुट्टे मुचति, दुविहो उ भावमोक्यो ।। २५९ ।। देशविमोक्खो दुविदो-सावगाणं साहूण य, सावगा दुविद्या-दंसणसावगा य गहियाणुब्वया य, दंसणसावगाणं पढिमिल्दुम कसायविमोक्खो, सामिग्गहाण तु अट्टहं कसायाणं विमोक्स्खो, साहूणं केसिंचि वारसह कसायाणं विमोक्खो, केसिंचि 'दो दो०' एवं खवगसेढी उवसामगोदी य येऊगं जो जनिए िकम्मेदिं विमोक्खो, सबचिमुका सिद्धा, बद्धस्स मोक्खो भवति तेण बंधो भंगियो, केप विषदो कर्हि वा १, तेण पोग्गलपातेण सह संजोगा, भवियं च-सव्वआतप्पदेसेहिं अनंताणंतष्णदेना, कहं बज्झति ?, 'कहणं भंते! जीवा अट्ठ कम्मपगडीओ बंधंति, गो० अत्तस्स रेणु उवलग्गते जहा अंगे, अहबा रागेण य गाहा ॥ २६० ॥ तथा सकषायत्याज्जीवः, अहंवा बद्धनिधनिकालिएत्ति, एवं बंधो भणितो, | इदाणिं मोक्खे, बंधवियोगो मोक्खो भवति, जीवरस अत्तजणिते हिं गाहा ।। २६२ ॥ कंठ्या, भणितो भावविमुक्खो, भावमोक्खस्स | उवाओ भत्तपरिण्णा इंगिणि० गाहा ॥ २६२ ॥ चरिममरणंति-चरिमभवसिद्धियमरणस्य संसारविमोक्खो भवति, तं पुष्प एकेकं मोक्षनिक्षेपाः [258] ॥२४६॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१९७ २०१] दीप अनुक्रम [२१० २१४] भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२५३-२७५], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] श्री आचारोग सूत्र चूर्णि ॥२४७॥ | मरणं दुविहं भवति, तंजहा - सपरकर्म अपरकर्म च एकेक दुविहं-वाघातिमं निवाघाइमं च सपरकमे य० गाहा ॥ २६३ ॥ सुत्तत्थजाणतेणंति जहा सुत्तत्थतदुभयणिम्मावो भवति, ततो-तिन्हं मरणाणं अन्नतरं अभुवगन्छति, अणिम्मातो वा गीयत्थं अन्वगच्छति, सपरक्कममादेसो० गाहा || २६४ || सुद्धिनिमित्तं अज्जव तिरेहिं सपरकमेहिं चैव होतएहिं पारिहद गिरिंमि भत्तं पञ्चकखायें, पाउवगमणंमि तहा तहा तेण पगारेण पाओवगमणं, किंचि तहा चैव सपरकम्मस्स भवति, अपरकम्म आदेसो | ॥२६५॥ आदेसो णाम दितो, उदहि णाम अञ्जसमुद्दा वृति, ते य गतिदुब्बला चेव आसि, पच्छा तेहिं लुंघालय (जंघाचल) परिहीणेहिं गच्छे चैव भत्तं पञ्चकखातं, पाउवगमति तहा तहा चैव जंधावलि परिदीगो उवसग्गस्त्र एगंते पाउवगमनं पडिवज्जति अणीहारिमं, इदाणिं वाघातिमं युबति, वाघातिमं आदेशो || २६६ || अवरदो णाम अवरद्विया वा से उट्ठिता अतिगिच्छा, विसेण लदो, वालेण वा भक्खितो, रिछेण वा चिरुगितो, तोसलिते वा महिसीते-हतो, तोसलीए बहुउदए बहुओ महिसीओ अडवीए चरंति, पिंडारं ण मारंति, अण्णं जणं मारेति, तत्थ ताहि एको साहू दिडो, के गणंति-वस्सवि तोसलितो चेव णामं, सो ताहिं दुइमहिसीहिं पाडेउं खुरेहि य तुंडेण य संनियंगमंगो अतिवेयगाए वाघातिमं पचक्खातं युतं वाधातिमं अणुपुब्वियं तु-अणुपुविगमादेसो गाहा ॥ २६७॥ पव्वञ्जचि 'पन्च सिक्खावय अत्थग्रहणं च तत्थ अत्यग्गहणं निष्कायियाय सिस्सा कहणंति ताणि सिस्साणं कहियाणि, विष्फायिया व सिस्सा गाहा । पच्छा जइ आयरिओ ताहे अण्णं गणे टवेऊणं णीति, विरुज्झितो समाणो गणं, ण जाव आयरिओ ठवितो, जो पुण अणायरिओ सोवि जति उवज्झातो ताहे तं तु उवज्झातचं णिक्खिविडं गीति गुरुविसञ्जितो, एवं पठंति धेरा गणावच्छेतियावि, भिक्खुको वा विसज्जितो गणाओ भितो, अन्भुञ्जय मरणकारणा मरणविभक्तिः [259] ॥२४७॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१९७ २०१] दीप अनुक्रम [२१० २१४] भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२५३-२७५ ], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] श्रीआचा रांग सूत्र चूर्णि: ॥२४८|| आहारो वहिसेज्जाओ विविहिं तिष्णि, जं भणितं णिच्चं आसेविज्जंति, भत्ते वा पञ्चकखाते पाणगस्स आहारेण असणखाइमसाइ| मेति सेसो तिविहो आहारो भवति, तस्स तियस्स मुको, अग्भुज्जतमरणं पुण अभुवगतो पढमं चैव संलेहं करेति, दव्व संलेहणाए भावेण य, इहरहा विराहेति, तत्थ एको दव्वसंलिहितो ण पुण भावेणं, आयरिए उबडितो विसज्जेहित्ति, मते, पच्छा आयरिएण | पडिचोईओ-संलिहाहि ताव, सो कुवितो अंगुलिं भंजेउं दरिसेति, पुलि (एत्ति) एहिं किं संलिहितो ण वित्ति १, गुरुणा भण्णतिअतो चेव ण संलिहितो ते भावो जेण कुप्पसि, पच्छा एत्थ तिक्खसीतला आणा बुच्चति, जहा तेण वेज्जेणं रण्णो, एको विचंडको राया, किरियं करेंतोवि अध्यणिज्जेहिं वेज्जेहिं नो पिट्टियाए मुञ्चद्द, आगंतुओ विज्जो आगंतुं भणइ अहं एवं पउणावेमि ते, जति पुण एमेकं गुलियाणिवातं सहसि, पण वा ममं मुहुज़मित्तं मारखेसि, अच्भुवगते अंजिताणि, तिब्ववेयणड्डो भणति-मारेह २ एतं वेज्जं, फुट्ठाणि मे अच्छीणि, एवं सा तिक्खा आणा सीयला भूता, जेण पुत्रं चैव बुत्ता मुहुत्तमज्झे मते भगतेवि ण मारिज्जह, मुहुसंतरेण पल्हाणाणि, गट्ठा पेल्लिता, पूजितो वेज्जो, एवं चैव तम्हाऽऽयरिया तिक्खं आणं पउंजंति, तुमं पडिचोयणं ण सहेसि, तंबोलपत्तसरिसो अण्णेवि विणासेहिसि, मंते पञ्चकखाते समाणे भावाओ असिलीढो रुस्समाणो, तेसु कारणेसु दव्बओवि | असंलिहितो एवं चैव वृच्छति, इथेतस्स विवेगो कीरति, अन्नगणातो आगतो ण पडिवज्जिज्जर अतो विवेगो, अह सगणे चैव तो | सेण ताव पञ्चक्खिज्जड़ अतो विवेगो, घट्टणत्ति एवं घट्टितमट्ठितो कज्जति, एवं आतीयेति वक्खणाए पुज्जति, जइ पुण एवं घट्टि ज्जतो वा आउट्टति अकरणाए अति पच्छितं पडिवज्जति तहा से पसाओ कीरति, अतो तिक्खा आणा सीतलीभवती, णिष्काइया य सीसा० गाहा ॥ सुचत्थतदुभयेसु विष्फातिता, सउणित्ति जहा से दियापोते अंडाओ आरम्भ जाव सर्य पचिष्णो ताव संलेखना [260] ॥२४८॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [4], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५३-२७५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] (०१) प्रत वृत्यक [१९७२०१] श्रीआचा-D| सारक्खति एवं उवसंगिहितो णिम्माओ विमजितो चारस संवच्छरियं सलेहि, चत्तारि विचित्ताई गाहा॥ ॥ चउत्थछट्टट्ठमा- समनोज्ञादि राम सूत्र- ईहिं विचिनेहिं तवोकम्मेहि, पारणते विगतिरहितेसु वा मिचिगतितेहिदि भवति, पंचमाओ वरिसाओ आरम्भ जाव अट्ठ ताव चूर्णिः IN विचित्ताणि चेव तबोकम्माणि करेति, पारणाए पुण ण विगई पडिसेवति, दो संवच्छरे णवमदसमेसु संवच्छरेसु पक्खंतरएण आय॥२४९॥ विलेण परकमति, पक्वदिवसं चउत्थयं पारणाए आयविलं, ताहे एकारसमं वरिसं दो भाए, तत्थ आदिल्लेसु छम्मासेसु णाति विगिट्ठ चउत्थछट्टमं तवं काउं परिमियं आयंबिल भुंजइ, बारसमं संवच्छर सर्व चेव वरिसं कोडिसहियं काउं णिचंचेव आय-10 बिलस्स कोडियमिति, पच्छा आयरिए पुच्छिओ सति परकमे एएण कमेण लहुँ मुचति अपरिकिलिट्ठो, जहा-किह णाम सो?, |तावाहारेणविरहितो० गाहा ।। पारणए पुण अप्पाहारो, बत्तीसं किर कवला०, पमाणाहारो त हासतो जाव एको लंबणो, अ8-12 | लंबणा एए निरुभिज, णिज्जुनी, सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारेय, अक्खलियं?, सुर्य मे आउसं तेण भगाया, सव्वमेतंपि ण असुतं, | किंतु सुतं, सो बेमि समणुग्णस्स वा सेति णिदेसे आमंतणे य, तस्स परिव्ययंतस्स भिक्खु अण्णतित्थियाण च उभयहावि य । | अविरुद्धं समाणो, समणुण्णो दिट्ठीओ लिंगाओ, सह भोयणादीहि वा समणुण्णे, अन्नहा असमणुष्णो सकादीणं, समणुस्सस्स वा असमणुण्णस्म वा अविरुद्धाचालस्सवि असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्वं वा पडिग्गहं वा कंबल वा पायपुंछणं वा पुष भणियाणि, पाएज तहा पादिज भोइजा, तीयग्गहणं देसीभासाओ असितपीतं भण्णति, जहा थके साहेहि वा, तहा लुक्खितोऽपि IG वा वातो बुञ्चति पुन्चदेसाणं, जं जस्स कप्पं फासुयं अफासुयं वा तं चेत्र पातेति भातेंति, सावसेसं तेसु चेव पात्रेषु वा पक्खिवंति, एवं ताव सतमागते पावंति वा भोइंति वा, अणुल्लियंतपि अण्णे णिमंतेति-दिणे दिणे एज्जासि, कुआ वा चियावडियंति गिलाणाति- ॥२४९॥ दीप अनुक्रम [२१०२१४] | पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [261] Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [4], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५३-२७५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] (०१) समनोज्ञादि SARAN प्रत वृत्यक [१९७२०१] श्रीआचा- निमित्त, जाइचा अण्णतोवि दवावेंति, गिलापमाणस्स वा सयमेव उव्वदृणादिवेयावचं करेंति, परं आढायमाणा, अहवा परमिति रांग सूत्र | परेणं पयत्तेणं आढायमाणा, पासं णिमंतेति वेयावडियं, जं भणितं-ण अणादरेणं, अहवा परं आदायमाणेसि जं वा देंति तहा तेसिं| चूर्णि हत्थाओ गिष्टंति, अतो आदिता भवंति, एवं सवपासंडिको णिमंतेति, अम्हतणएमु अहिगारो, तेणंति हे साधु ! धुवं वेयं ॥२५॥ जाणाहि, असणं वा जाच पादपुंछणं वा, धुवमिति णिणं, रज्झति सयट्ठाए, ण तवट्ठाए, जति तब उवक्खडितंण गिण्हह तदा विधुता अम्हं, सम्वता तेल्लगुलघयादिगोरसखीरादिणि वा लमिय णो लमित, जतिचि अण्णहिं लमहा ताव अम्ह पीतिए इह एजाह, तो कुसणं गोरसं पाणगं वा गेण्हिह, जति विचं पातं तोवि अम्हं चिति भविस्सति, अलद्धे तु णियमा चेव एजह, भुंजि| यत्ति भोत्तुंपि एजह पुणो भोक्सह, जति एते पढमालिता कयाओ इदं सध्वालियं करिजह, अनुना तु एबह चेव, इह वा पढ| मालिय छिच्छिह, अतो अभुजितेविअ च अचियचं, अणुपंथे सो अम्हं विहारावसहो वा, थोवं उचं कतिवि पदाणि, अहवा वचो पहो णिरावातो, ण तिणादिणा छण्णोवि भवइत्ति, अहा तुझं धम्मो, अन्नहा अम्ह, तं तुज्झे वि अप्पणिजग धर्म जोसमाणा, यदुक्तं भवति-सेवमाणा, मा तुज्झे मंसं वा कंदमूले वा गिहिजह, जहा य तुझं एसणिजं भवति तहा दाहामो आउकायादि TO असंघट्टित्ता, समेमाणेति इमं पलं विहारं चा समेमाणा पत्ता मालेमाणा गळता उपजानि चट्टति इति, एवं पादिज वा जाव कुखा वेयावडियं वा, ते पुण पुन्धसंगतिया वा अणुकंपाए या आहारादीदि वा लोमेऊणं कड़ितुकामा, एवं ते उवाएणं पादिज वा जाव कुजा विचा(वेया)वदियं आढायमाणा, तेसिं एवं भावपराणं ण गिहियष ण संवसिय ण संबवो कापन्यो, परं अणा- | | डायमाणाणं वज्जेयन्वा, भणियं च-एसा दसणसोही, के दोसा, चुगंति इहमेगेसिं आयारगोपरे णो सुणिसंते भवति | । ॥२५॥ दीप अनुक्रम [२१०२१४] पर पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] “आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [262] Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१९७ २०१] दीप अनुक्रम [२१० २१४] भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [२५३-२७५], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] श्री आनारांग सूत्र चूर्णिः ॥२५१॥ इह पत्रयणे, एगेसिं, ण सम्वेसिं सेहादीगं, आयारगोयरो बिसतोति एगट्ठा, जो पडिसेहे, सु पसंसायां विसतो सुतो, अवा सुणित्ता समनोज्ञादि उवलद्धो, यदुक्तं भवति-हितपट्टचितो, को सुणिसंतो, तहा आणावि सिद्धंतो, ण ताव च उवधारितो भवति, ते य भिक्लायरिया अव्हाणगसेयाजमल पंकपरिताविता तचिष्णियात घट्टम विहारवासी सर्पपि घट्टा मट्ठा, ते दुई बुद्धधम्मावि ताय आहारादिलोमेण तहिं परिणमंति, किमंग पुणे अण्णे ?, अधम्मदिडीए विष्णवेति-नियंठाणं पत्थरावि जीवा, तेण एवं मिच्छतं, ण य जीवपहुने सकति अहिंसाणिष्फति अ, णिरत्थओ य किलेसो अणुवहिज्जति, इह तु सुहेण धम्मो पाविज्जद्द मित्राणं च एवं बुग्गाहिता समाणा तं कुदरिसणं सद्दद्दमाणा जाव रोएमाणा केति तमेव पडिवज्जंति, जेण पडिवज्जति तेवि जिम्मा अवहिता ते एवं आरंभट्टी, आरंभो णाम पयणपथावणादि असंजमो तेण जेर्सि अड्डो एसो आरंभट्ठी, सकादिते य आरंभेणं धम्ममिच्छंति, विहाराशमास मतलागकरण उदेसियभोयणादि, जे हि वदंति णत्थि एत्थ दोसो इति सोनि ते एवंवादी अणुवदति-को वा एत्थ दोस्तो जति गिलाणादिनिमित्तं पिजाती कीरति, निरोगे तु सति बले विणयधम्भाओं अतीति, एवं तिष्टं तिसङ्काणं पावादियसताणं जस्म जं दरिसणं तहा अणुवदृति, जे अहिंसगवादिणो ते भांति को दोसो १, तुज्झवि अहिंसा अम्हवि अहिंसा, तुज्झेवि पञ्चइया, अम्हेवि पव्वश्या, तुझेवि बंभयारी, हणपाणघातमाणा सयं हणंति, एगिंदियते पाणा रंधावे माणा कहावेमाजा मगओ यावि सम| गुजाणमाणा उद्दिसियं मुंजमाणा एवं ताव हिंसं अणुवदंति णवएण भेदेण, मुसावाते बहुयं भाणियव्वंतिकाउं तेण सो पच्छा बुचिहिति, तेणं अदत्तं बुधति, अहवा अदिनं वाऽऽदियंति अणेगविहद रिसणाओ माणं भवति, भणियं च-उजमजुतीणीकेण तं तेसिं उदगं दिष्णं जंणमादिएस सगराहं अवगाहिता व्हायंति पयंति य, अह राणतेणं अणुष्णातं तदावि जेसिं जीवागं सरीराणि तेहिं ॥२५१॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : [263] Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [4], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५३-२७५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] (०१) प्रत वृत्यक [१९७२०१] श्रीआचा- ण अणुष्णातं, एवं पुष्फफलपचादीणिवि गिण्हंति, गोणिमादिधण्णाण य वत्थे वर्धति, बेंदियाणवि अग्निहोत्तकारिते विसीयमाणे, लोक गंग सूत्र-10 तेणं अणुण्णातं, एवं मेहुणं 'जहा गंडं खि(पि)लागं वा विवाहदिवसते वा देति, परिग्गहं विविहं गिण्हंति गामखित्तगिहादीणि, ध्रुवत्वादि ध्रुव चूर्णिः | अहवा मिच्छादिहिस्स एगमवियं पत्थि, मुसावाते उवायाओ विजुजंति वयणं वा, ण केवलं हिंसंति तिविद्दकरणप्रयोगेण, वाया॥२५२॥ ओवि एगे विविहं जुजति णाम विणासितं बुञ्चति, पुम्बुत्तर विरुद्ध भासित्तातो य विणासेंति, विजुजंति णाम विणासंति, केति | भणंति-अस्थि लोगों, णणु अस्थिमेव लोगो, तेण कहं विणासंति ?, भणिजइ-लोग अत्थितं एति अविरोधो, नाणाविहेहिं सच्छन्दविगप्पेहिं विणासेंति, तंजहा--लोगो किर वामतो, केसिंचि णिचं भवति, आदिचे अवडियमेव तं आदिचमंडलं, अबट्ठियमेव तं आदिच्चमंडलं दूरसाओ जे पुव्वं पासंति तेसिं आइचोदयो, मंडलहिटियाणं मज्झण्हे,, जे उ दूरातिकता ण पस्संति | तेसिं अत्थमिओ, तहा य धुवे लोगो, एवमादि विप्पडिवत्तीओ, णस्थि लोए, णत्थि लोएत्ति वेहतूलिया पडिवण्णा, तंजहा| गंधवनगरतुलं माताकारगहेतुपच्चयसामग्गिएहि भावेहि अभावा, एवमादिहेऊहिं पत्थि लोगो पडिवअंति इति, एवं ता वायं विजु अंति, धुवेति संख्या वुचंति, धुवो.लोगे वायति बति, सत्कार्यकारणत्वानेसि, ण किंचि उप्पजति विणस्सति वा, असदकरणा TII उपादानग्रहणात्सर्वसम्भवाभावात् । शक्यस्य शक्यकरणात् कारणभावाच सत्कार्य ।।१।। एगो भणति-जाति भावानां विनाश-IAL हेतुमितिकाउं कसिणं तेलोग खणे खणे विणस्सति उप्पज्जइ य, ते पुण अधुवे लोगे तु वायं विद्युति, अण्णो सादियं सह आदीये सादीयं, इस्सरेण अनतरेण वा सिट्टो, से इति से तु किंचिकालं भवित्ता वलयकाले पुणोण भवति अतो सादीयो, भणति-दिव्वं | वरिससहस्सं सुयति, दिव्यं वरिससहस्सं जागरति, अणादीयो तच्चण्णिया पादं भणति, जहा अणवदग्गोऽयं मिश्वः संसारो, यतिवि दीप अनुक्रम [२१०२१४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [264] Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [4], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५३-२७५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] (०१) चूर्णिः प्रत वृत्यक [१९७२०१] श्रीआचा- Oणाम केति णयादेसेण अण्णो लोगो भवति तहावि तेसिं ण भवति अतो वायं वियुंजंति सपजवसितोनि, जेसि अणादीयो तेसि रांग सूत्र- अपज्जवसिओवि, परिमाणओ वा एगेसि पज्जवसिओ तंजहा-सच दीवा, सकाणं सपज्जवसाणो अपज्जवसाणो वा इति अवाचं, एवं ता लोगं प्रति वार्य विद्युति तहा अप्पाणमवि युजंति, तंजहा-मुक हेचि या सुट्ठ कडं सुकडं, दुट्ठ कडं २, किरियावा॥२५॥ इणो पडिवज्जंति-सुकडेत्ति वा, पडिबज्जमाणोवि वायाओ वियुंजंति, अण्णास अण्णहा सुकडं भवति, अण्णेसि हिंसाते अण्णेसिं अहिंसाते, अण्णेसि तित्थामिसेगादिणेहसोयसुतघोरणमुह इति एवं सुकर्ड इच्छंति, केइ अण्णहा, दकडे विमासा, सुकडाणं कम्माणं । कल्लाणं फलविवागो भवति, दुकडाणं पावओ, अकिरियावादीणं पवि सुक्कडं पावि दुकर्ड, कुतो तग्विवागो, णवि कत्ता णवि। | कल्लाणपावर्ग, एवं अण्णाणियवेणतियवादीवि भाणेयब्बा, अण्णाणियाणं अण्णागा बंधो ण भवति, वेणतिया सबभावे मिस्से वदंति, किंचि साहत्ति वा असाहत्ति वा, जे साधतो ते असाह भणंति, जे असाधू ते साह भगति, अहवा विवरीपग्महणा जं साह अहिं-IN | सादिवयं तं असाहू वदंति, जंच असाधु हिंसादिकम्मं तं साधु त्रुवंति इति, एवं वियुजंति, तहा सिद्धीति वा असिद्धीति वा, केसिंचि | | सिद्धी अस्थि, यदुक्तं-भवति णिवाणं, केसिंचि णस्थि, जेसिपि णस्थि तेवि अन्नहा पडिवअंति, कारण विप्पडिवत्तीए कारियविप्पडिवत्ति, जह मट्टियातंतुवीरणाणं विवरीते कारणे कारियभावो भवति न तहा, अण्णे सिद्धिमेव ण इच्छति, तथा 'णत्थि ण णिच्चो ण कुणति०' एवं एगे विष्णडिवण्णा, एतं जहूद्दिढकमेणं तंजहा-अस्थि लोए णस्थि लोए जाव सेहीति वा असेधीइ वा वयं संपडिवण्णा, एते तु पादेण किरियावादियो, अकिरियावदिणो य भगिता, अस्थि लोए छिण्णे छिण्णे व धुवो, यदुक्तं भवति-अवयणीयो, अणादीये णवि सासतो णवि असासतो, एवं अनहावि एगे बदंति, अहवा अण्णाणिया वेणपिया एते अबहा वदंति, अहवा ॥२५३॥ दीप अनुक्रम [२१०२१४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [265] Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [4], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५३-२७५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] (०१) ॥२५४॥ प्रत वृत्यक [१९७२०१] श्रीआचा- एवं एगे विप्पतिवन्ना, अबहावि उभयथावि आयार प्रति एगे विप्पडिवण्णा, केइ सुहेणं धम्ममिति, केइ दुक्खेणं, केइ हाणेणं धर्महेत्वादि संग सूत्र 0 केइ मोणेणं, केद गामवासेणं केइ अरणवासेणं, एवं दिट्टप्पगारेणं आयारपगारेहिं आयारपगारेहि य विविहं प्रतिपण्णा मामगं चूणिः सिद्धत, मम एगो सिद्धतो, अण्णे पण्णवेंति परूवेंति दंसेंति उचदंसेंति, इह सुद्धी नान्यत्र, अहवा सयं सयं पसंसंति, एवमादि, Yएवं मामगं धम्म पण्णवेमाणा तेसिं अणुढे धम्माणं विप्परिणाम करेंति, जतो एवं तेण हरतो व यम्यो, जइ पुण गिलाणादि-IN कारणेण गतं अण्णत्थवि कत्थति, परिसाए वा अपरिसाए वा आगलेजा, तत्थ आगने सति पासणिते गिहिता जं जं धावेंति | | तत्थ तत्थ वत्तब-एस्थवि जाणह अकम्मा, यदुक्तं-एगतेणं अस्थि लोगोत्ति, अस्थित्तणामो एतं ण भवति, कम्हा !, परिणा | विरोधाओ, तनहा-जं अस्थि तं लोगो, तप्पडिपक्खो य अलोगो, सोचि अथिचिकाउं लोग एवं अलोगो, अभावो, अलोगअभावे AN| य तप्पडिपक्लभूयस्स लोगस्सवि अभावो, सवगतो वा लोगस्सेति, अहया अलोगो अस्थि य, ण य लोगो भाति, नेण लोगोवि | अस्थिणा लोगो भवति, तेणं लोगस्स अभावो पावति, अणिटुं च एतं, लोगबहुतपसंगो य, एवं तंजहा घडोवि अस्थि, सोवि लोगो, पडोवि अस्थि सोचि लोगो; एवं लोगबहुचं, पतिण्णाविसेवाओ य, तब जं अस्थि लोगो तेण पदण्णावि अस्थि स लोगो, हेऊवि अस्थि सोवि लोग इतिकाउं पइण्णाहेऊणं एगतं, एगने य हेउअभावी, तस्स भावे य किं तेण पडिबजति ?, अह अस्थिNA नाओ अप्यो लोगो तेण लोगस्स अभावे पइन्नाहाणी, जह एत्थं एगवेणं लोगअस्विते असदतेतदुवद्रुितं तहा इहपि जाणह हे | AV सिस्स ! अकम्ना अहेऊण कम्मा अकम्मा, जं भणितं-अहेतुं, जं चुन-गस्थि लोएत्ति, किं भवं अस्थि गस्थिति ?, जति | अस्थि लोगअंतगतो वा न वा?, जति लोपअंतगतो कई भणसि-अस्थि लोगो ? अहन लोगअंतगतो तेण न लोकसि खरविसाणं || ||२५|| दीप अनुक्रम [२१०२१४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [266] Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [4], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५३-२७५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] (०१) अकर्मादि प्रत वृत्यक [१९७२०१] श्रीआचा- वा, तेण कि केण पडिसिद्धं , कस्स च उत्तरं मते दायन इति, एवं जं जं भणति तत्थ तत्थ बनव्य, एत्यवि जागह अम्मा रांग सत्र-10 " जाव सेवति, अहवा जहा पइण्णा ते अक्रम्मा न तहा हेउणावि अम्मा न, एवं दिट्ठत उपसंथारेसुवि, एवं पुब्योतरविरुद्धभाचूर्णिः सीणं तिनि तिसठ्ठाणं कुप्पावयणपासंडीणं पंचात्रयवेण दसावयवेण ठाउं वत्तव्यं, निरुत्तरीभूतेसु एरिसं प्राप्य संडगभितं करेइ ॥२५५| ण केवलमेव एतं एतेसिं या जुञ्जइ, अहवा ण केवल एतेसि एवं ण जुञ्जति, अन्नेसिपि कुतित्थियाणं सामिप्यायं पस्साहि ताणि | मथाणि ण जुञ्जति, ततो बुञ्चति-ण एसु धम्मे मुअक्बाए ण पडिसोहइ एस इति जो जेण जहा सइच्छाए विकस्थितो कुप्पक्षणधम्मो, अहवा जो जो भणइ तं तं भणइ ण एस धम्मे सुयक्खाए, कई सुयक्खाओ भवति ?, नगु से जहेते भगक्या पवेइयं, इति णिसे, जेण पगारेण जह, भगवया वद्धमाणसामिणा, साहु आदितो वा वेदितं पवेदितं, जहाण एसो कुतिस्थियधम्मो मुयक्खाओ भवति, आसुपपणेण पासता आसुरिति क्षिI, आखूपयाणति ओहीनाणी मणपजानाणीषिण अणुषउत्ता जागति उवओगाय अंहोमहुत्ताउ, तेण तेऽवि ण आसुपण्णा, आसुप्पण्णो भवति केवलनाणी णिचो णियोवपोगाओ सब्बपञ्चक्खाओ य आउय आसुपण्णो, तेण आसुपण्णेण, वियाणता पासया य अक्खाय, ण एम धम्मे सुपरवातेत्ति चट्टति, एवं आयसामत्थं णचा विगिज्ज्ञणिपट्टपसिणवागरणा कापवा, अहवा गुतीए, या विभाषायां, जइ असमत्थो एगतेण उचर दाउं नतो भणतिवयं आरिसमुत्तपाढगा, जति तमेव इच्छसि ततो पागण यादं करेभो, सबहा अकीरमाणे सेहादि विपरिणामो भवति, सहहीला, सहअवण्यो, अह पागतेणवि असमस्थो ततो बेति----अम्ह इस्थिवालबुट्टअक्खरजयाणमाणाणं अणुकंपणत्थं सम्धसत्समदरिसीहि अदमागहाए भासाते सुतं उपदिलु, तं च अण्णेसि पुरतो ण पगामिति, अतो पुत्ला वहगोयरस्स, यदुक्तं भवति-पायाविसओ ॥२५५॥ दीप अनुक्रम [२१०२१४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [267] Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५३-२७५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] (०१) | वादनिषे धादि प्रत वृत्यक [१९७२०१] श्रीबाचा FIDAIन, किंच-रागदोसकरो वादो, एवं जहा जहा उत्तरं भवति तहा तहा ठाएयव्यं, अवा सुट्ठ विसद्धियं हेउस्स इमं उत्तरं दायव्यशंग मूत्रवृणिः A कई भवां अम्हेहिं सद्धिं पावदिट्ठी विरोधं इच्छिह , कहं पावदिट्ठी, नणु सचत्य संमतं पावं, सव्वसत्थे तिण्डं तिसट्ठाणं पावा॥२५६॥ | दियसयाणं, तेसिं सम्वेसिं पुढविआउतेउवाउवणस्सतिआरंभे कयकारियअणुमोयियातिहिति अणुण्णाओ, तेण सम्बत्य संमयं अप्पियं | भवतां तेण तदारंभ ण करेतु, अहवा सवपगारेहिं सम्मतं, यदुक्तं भवति-अपडिसिद्ध, हिंसं ताव एगिदियघाता उद्देसियभोइत्ता। य णवभेदेण ण परिहरंति, अहवा अदिण्णमादियंति जाव परिग्गई, वायाओ विजुज्जति, अतो सम्बासवपगारेहिं तं तेसिं पावं | | अच्छतं संमतं जेण तं न पडिसिद्धति, तमेव उपादिकम, तमिति त अण्णेसि ज समयं उक्सामिगादि, अतिरतिकमणादिसु,। जं भणित-धर्म उविच्च-अतिकम्म, एस महाविवेगो विवाहिते एस इति जो उचो, महमिति मम, अहवा महंतणएण सता | विवेगेणं, विवेगो मोक्खो, विमोहायतणं व एतं वट्टति, विविहं आहितो वियाहितो, तं कई ?, अहं सब्बत्थ सबभावेहिं अपडी| सिद्धअस्सवदारेहिं तं जायं अतिकतो तेहि सभावमवि करिस्सामि, भणंतु वा सोतारो, किं ताव आरंभत्थिनेणं एतेहिं सद्धिं अस माणेहिं संकहा कायब्वा ?, ण कार्यव्या इति, एवं असमणुनविवेगं करेति, अहवा गिहिणोऽवि असमणुण्णा चेव धम्मावट्टियस, तेज । उवदेशः एसो, सव्वत्थ सांमत्यं सम्वेसि, अविरताणं संमयं हिंसादि तमेव उवर्कम, तमिति तं हिंसादि पावकम्मपवनो असंते | उवातिकम एस मम विवेगे वियाहिते एम अपमणुण्ण विमोहाययणमिति यति, अहवा सत्थरांमनं अपितं तं च उपाति तो एस महं विवेगे अक्खाए, यदुक्तं भवति-अमोक्खो, जेग वा विमुचति, सो व मोक्खो, सो य तबो संजमो वा, अब कह। | सम्वेसि अनउत्थियाणं अहवा महा पहाणो संपावए? कई च सव्वे अन्नाणी मिच्छादिट्ठी रिती अतवस्सी ?, णणु तेवि अह ॥२५६॥ दीप अनुक्रम [२१०२१४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [268] Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५३-२७५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] (०१) प्रत वृत्यक [१९७२०१] श्रीआचा- किल क्लिष्टभूमीवणवासिणो मूलाहारा कंदाहाग फलाहारा बीयाहारा जाव परिसडियपंहुपत्ताओ व सधण्णुप्पण्ण तो भाणियग्यो, एवं IM उग्गं तवं अस्सिता, तहा अवरे पंसुमृलिता रुक्खमलिता, तं कहं ते अनाणी जाव अतवस्ती असमणुण्णा य भवंति जेण परिचूर्णिः | वजंति ?, आयरिओ आह-'जह वणवासमित्तेणं नाणी जाव तवस्सी भवति तेण सीहवम्पादयोविणाणाइ पंचए बहेअ, णतं इ8,। ॥२५७॥ णाणातिपंचगवियुत्तोचि गामे अहया रण्णे, ण व गामे, ण वसतीति वकसेस, तहा सोनाणादिपंचगे वकृति ण य समणुण्णो भवति । तत्थ गामग्गहणेण णगराईणि सम्बाई घेप्पंति, तबिवरीय अरणं, जंभणितं-अमणुण्णस्स सेवितं च णं, जं अगामस्स अहरे तं पर गामो भवति, ण च रणं, तं एवं गामे वा रणे वा गामेण व रण्णेण व वसमाणो ण य चीवरधारी वा सिही मुंडो वा असंजये वा णाणादिपंचगे भवति, ण मुणी रणवासेण कुसचीरेण व तावसो, अवरो वियप्पो-भगवं । जति गिहस्थगा य सम्चे असमगुण्णा, तेण वआओ गामे रणे वसियवं, भण्णति-गामो अहवा रणो, गामे वा वसतु अरण्णे वा वसतु ण व गामे ण व रणे गामनिस्साओ गाम उर्वते णय जिइंदिओणवि सोनाणादिपंचए भवति समणुण्णो वा, सिस्सो पुच्छर-किंगामगएणं भगवता धम्मो | | पवेदितो?, अरण्णगएण ?, भष्णति-गामे अहवा रणे, न च गामे न च रण्यो, तत्व गामो दुविहो-दव्यगामो भावगामो य, 1 एवं अरष्णपि, तत्थ दव्वगामो जीवसमुदओ गिहरत्थावडियदेउलमणुस्सा विवरीयमरणं, तत्थ दब्बगाम पति गामगतेण वा | नगरगतेण वा कतादि, समावण्णा य अरणगतेणवि, जह संमेतसेलसिहरे मज्झिमतेहिं तित्थगरेहिं कहितं, भावगाम पड्डुच्च |ण व गामेत्ति, केवलनाणस्स अतीतईदियत्ता इंदियगामणववितेण भगवता कहितं, भावारणं सुणीना किरियावादीतं भयवं आतो, करण्णे, एवं धम्म सुणिना चाती ते कयरत्थ वते ?, जहा परिवायगाणं वीसतिवरिसाओ हिट्ठा ण पन्नाविञ्जति, किं एवं भग- २५७।। दीप अनुक्रम [२१०२१४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [269] Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५३-२७५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] (०१) श्रीआचारांगसूत्र वृणिः ॥२५८॥ Amla प्रत वृत्यक [१९७२०१] बयावि वुत्ताऽण्णोनि, भणइ-जामा तिन्नि उदाहडा, तंजहा-पढमे मज्झिमे पच्छिमे, जामोनि वा वयोनि वा एगट्ठा, उदाहडा कहिता, यामत्रयादि अवखात्रा, जेसु इमे आयरिया इमे सिचायरियादि, नाणदंसणचरित्नारिएहिं अहिगारो छिष्णछेपणस्सट्ठि, णाणादिआरियो | पव्वाविञ्जति, न तु अणारितो, खिचारियादि भत्ता, अट्ठयरिसाओ आरद्धं जाव तीसतियरिसाई ताव पहमो जामो, तीसाओ आरद्धं जाच सविपरिसाई मज्झिमो जामो, इत्थ अतिवाल अतिवृद्धा पडिसिद्धा, सेसा अणुष्णाता, तिण्डं जामाणं अण्णपरे जामे, संमं बुज्झमाणा संबुज्झमाणा, चरितबोहिते अहिगारो, सम्म संजमममुट्टाणेण उट्टिता समुहिता, तत्थ भगवं पढमे जामे संयुद्धो, गणहरा केइ पढमे के मज्झिमे, तत्थ संजमसमुट्ठाणेणवि उहिता संता पमावबहुत्ता ण सच्चे णियाणं गच्छंतीतिअतो भण्णतिजे णिचुरा पायेहि कम्महिंजे इति अणुदिइम्स, जे ते तिहं बयाण अण्णतरे समं पुज्नमाणा जामसमुस्थाणेण उस्थिता णिब्बुडा उपसंता, कतो? पाणाइवायाइपहिंतो अट्ठारसहिं ठाणेहि, अणियाणा ते विवाहिया णियाण रंधणो, ण तेसि णिदाणं अस्थि अणिदाणं, जं भणित-अपंधणा, अहवा अणिदाणमिति हेउ रागादि, तत्थ जे णिचुडा तेसिं रागादिबंधहेऊ ण संभवंति अतो अणिदाणा, दवणिदाणं मातापितिमादि धणधनं च, भावनिदाणं विसयकपाया, पिविहं आहिया विवाहिया, जे अमणुण्णा कुलिंगिणो लिंगिणो वा ते अस्थतो पायत्ति अणिचुडा सणियाणा य आहिता, केण सधसासमणुण्यहिं तित्थगरगणहरेहि य, जे अमणुष्णा ते उष्टुं अहं तिरिय दिसासु पण्णवगं पढ़च उई पुफफलादिवणसहकाइ पासासपमूलकंददगादीणि वा तिरिय वाता सम्बन इति सम्पदिसापिदिशामु समकाले च सब्बे सब्य जाव बसपार्वति सयभावेण य, एके प्रति पत्नये, मका ताप सयं ण पचंति पायति य, तत्थ तणकट्टगामा य णिम्मित तहा गामखिलमयणासणधणधनमाविमहि सिमादि उवासंगसंतिमाणि HEL ||२५८॥ दीप अनुक्रम [२१०२१४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [270] Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [4], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५३-२७५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] (०१) दंडवजन श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥२५९॥ प्रत वृत्यक [१९७२०१] | भवंति जेसिं परिभोगं च करेंति, विहारकूवतलागणिमितं सयमवि काये समारंभंति आरभावती य, मांसमपि भक्षयंति, न य तत्थ | दोसं मण्णति, इति एवं पत्तेगं ठंड समारभंते, एवं च किर तेसि उवदिट्ठ-संघनिमित्तं किर म अरवृणदोसो भवति, अण्णे तु वणस्सइसमारंभं न इच्छंति, अण्णे उद्देसितमवि बजेति, ण पुण आउकार्य परिहरंति, अणणे तु पियंति, ण तु हायंति, अण्णे हत्थितावसा, अन्ने दिसापोक्खिता अन्ने मूलादिसचित्ताहारा, अन्ने परिसडियपंदुपत्ताहारा, एवं सच्छंदविगप्पएहि विविहेहिं पगारेहिं । | पत्तेयं पत्तेयं संमत्तं कायेसु डंडं आरंभंते समारभंते, णाघुकामा इति, साहू वा जहा ण आरभे, अहवा पनेयं इति जंपि संघाति| णिमित् आरम्भति अन्नस्स अट्ठाए तंपि तेणेव वेदियव्वमिति, इति पाडियकं डंडं आरभंति, जतोऽयमुवदेशो-तं परिणाय मेहावी तं इति तं तेसि मिच्छादिहितं कायडंडअणिबाणं परत्व य विवागं जाणणापरिणाए परियाणित्ता इतरीए पञ्चक्खाइत्तुं जहा ते अण्णाणिचा अविरइत्ताओ य कापसु डंडं पाविता तहा तम्हा इति उपदेसो, एवमादिसु कजेसु णेव सर्य छजीवकाएसु | य इंडं समारंभेजा, गोवि अण्णे एतेसु कायेसु डंडं समारंभाविजा, जाव समणुजाणिजा, एवं अनववि जाति जावंति साबअप्रयोगा ते जोगत्तियकरणत्तियजोगेण वजेजा, जाब मिच्छादसणसल्लं, जे वऽपणे एतेमु काए जे इति अणुद्दिटुस्स कुलिंगि-| |पासस्थादि बा एतेसु इति पुढविमादिकाएसु णवगस्स ते दस अनतरेण सम्वेहि वा समारंभंति तेसिपि वयं लजामोति वा परि हरामोति वा, यदुक्तं भवति-यो तेसु संसम्गी करेमो, अहवा जइ सासणपडिणीया चरगा अवि बहूहि असम्भावुभावणाहिं जाव | विहरंति, निण्हगा अहाछंदा य, तहा तेसिं लामोत्ति वा दयामोति वा एगट्ठा, भणियं च-लज्जा दया संजमो बंभचेरं,ण | जहा राया व चोरादी सारीरेण अण्णयरेणं वा दंडेणं दंडेइ, तहा ते वयं पातेभो, मतिवि उ रणो बले, तहा बलेवा, तेसि हियत्थं च RAND ॥२५९|| दीप अनुक्रम [२१०२१४] पर पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [271] Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम •भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५३-२७५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] (०१) अकल्प प्रत वृत्यक [१९७२०१] श्रीआचा- वाकडंडेहिं ते उवालभामो सासणपीतिते अडिणादि, अवि उहऽहे पवित्ने णिहोडेमो, त परिषणाय मेहावी तमिति तं सव्वतिरांग सूत्र0 बिहकरणजोगेण आयडंडं दुविहाते परिणाए मेहावी तं वा डंडेति अन्नउस्थितेसु डंडं अन्नं पति छसु जीवनिकाएसु डंड, अहवा तं || वर्जनादि चूर्णिः पाणवहादिडंडं जहा कुलिंगिणो समारभंति, अण्णंति मुसावायं जाव सल्लं, अहवा पाणवहादि जाव राइभोयर्ण, अन्नं तं विसयकसा७अध्य० २ उद्देशःINयादि, णोऽभिदंडं, ते प्रति इंडो प्राणवधादि तकरणे अप्पडंडोविणगरादिसु, एतं ते डंढाओ वीभेति डंडभीरू,हे डंडभीरूणो इंडस- | ॥२६०॥ मारमिजासीति, बेमि एवं बेमि भवहिपत्थं सकम्मनिजरणाति । विमोहायपणस्स अज्झयणस्स सप्तमस्य प्रथम उद्देशः। उदेसामिसंबंधो असमणुण्ण विमोक्खो मणितः, अण्णंपिजं अकप्पं उवदिस्सति, मुत्तस्स सुसेण-णो दंडभीरू इंडं समारमिजासि जाव समणुजाणेजा, तस्स पुण अकप्पस्स पगासं अप्पगासं वा संभवो होजा, पगासं भणिअति-भिक्खू य | परक्कमिज वा पर आणाभिमुहे परउक्कमेजा भिक्खाए वा वियारविहारट्ठाए वा अबतरेण वा कजेणं, चिट्ठिा बावि यतो अच्छिा , "णिसितेज वा णिविडिओ अच्छेज, ण चिट्ठिल वा णिवण्णतो अच्छइ जागरति, ण णिदातयट्टो, सुमाणे ण कप्पति गच्छवासिस्स | अच्छित्ता, को जाणति अणुप्पेहेंतो आभावगं पमादेणं भणेजा, देवता अवरज्ोज, पडिमापडिवण्णस्स जहिं चेव सूरो अस्थि सम| मिलसति ताहे चेव अच्छति तेण सो अच्छिा जाव जिणकप्पस्स परिकम करेति, सत्तभावणाते, सोऽवि किरण मुसाणमझे ठाति, । मुसाणस्स पासे ठाति, अन्भासे वा सुण्णघरे वा ठितओ होञ्जा, रुक्समूले वा जारिसो रुक्खमूलो णिसीहे भणितो, गिरिगुहाए वा, लेणआवसहंपि, परिवायगावसहमादिएहिं दगतोदरियमादीहिं जया छडिता, उवट्टणं गिह किर धंघसाला सा गाममज्झेसु Lil कुजति पुग्वदेसमादीएहिं, दक्षिणापहे गामदेउलिया भवति, देउलियाम प्रायेण वाणमंतरा हविजंति, कम्मगारसालाए वा तंतुवा- ॥२६०॥ दीप अनुक्रम [२१०२१४] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अष्टम-अध्ययने द्वितीय-उद्देशक: 'अकल्पनीय विमोक्ष' आरब्धः, [272] Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२०२ २०६] दीप अनुक्रम [२१५ २१९] श्रीआचा रांग सूत्र चूर्णिः ॥२६१॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [ २७५..], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २०२-२०६ ] यमालाए वा लोहगारसालाए वा जत्तियाओ साला सव्वाओ भाणियन्नाओ, सुमाणादिसु ठियणिविट्ठो आवासिओ विगो जया तासु ण विदावसीकतो, हुरत्थं बहिता गामादीणं देसी भासा उणादिसु, हुरत्या गच्छती बहिं बद्धति, गच्छणिग्गतो विहरमाणो विविहिं पगारेहिं कम्मरयं हरति विविहं वा कम्मरयं हरति तं मित्रखु उनकमिज गाहावती एवं सो गिहत्थो सुमाणादिसु | पुव्वद्वितो वा होजा पच्छा वा एञ्ज जुगवं वा, सो पुण अहिको वितो सदी वा सिम्पसम्मदसणं वा से तं सागुरूवं द दक्खिणा चेव उप्पजिअ, अहाभदउ व साहुं दिस्स साहुणो वा एते भगवंतो लालभोगो भोएण ण सुंदर आढाइअंति, जहा मरुयचरगादि, अहं एतेसिं अज्ज देमि तं उवसंकमित्ता बेति आउसंतो ! समणा आउसोति आमंत्रणे, हे सुमण! अहं खलु तबट्ठाए अहमिति अध्वगमे, खलु विसेसणे, साबगो सागपुतो वा मित्तो वा, तुझं अड्डाए-तुज्झ णिमितं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंवलं वा पायपुंछणं वा असिज्जतीति असणं, पाणगं कहं उद्दिस्सकयं भवति १, पणणु खंडपाणगं, मडियापाणगादि फासूर्यपि समारभते, जहा वा सिज्झति, वा विभाषायां, कोई अपणमेव ब्रूया अ करेमि, कोयि पाणं अणुत्तरं वा अहवा दोन्नि तिनि सव्वाणि वा, एवं वत्थादीणि वा, पाणाई भूयाई जीवाई सचाई समारंभ, समुहिस्स पाणेण ण पाणादि आरंभअंतरेण उद्देसियं णिच्फञ्जर, कीयपामिबअच्छिज अणिसट्टाणि वा, तेग अत्यावसीए उवदिस्सतिपाणाई भूयाई जीवाई ससाई समारंभ समुद्दिस्स समणत्थं आरंभसमारंभ०, छकायसमारंभगहणे आहाकम्मं गहितं समुद्दिस्स सो पुणो वाहिते करिता, आहाकम्मरगहणाओ य सव्वा अविसोहिकोडी गाहिता, कीयपामिच अच्छि अणिसदृअमिहडेहिं विसोहिकोड़ी गहिता, आह- आणित्ता, चेतेमिति केवि भणति करेमि तं तु ण युजति, जेण तं आहियमेव, आहियस्स करणं ण ॥२६२॥ आधाकर्मनिषेधः पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : [273] Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२७५..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २०२-२०६] (०१) श्रीवाचा रांग सूत्र चूर्णिः ॥२६२॥ प्रत वृत्यक [२०२२०६] | विजति, एरिसे सा चेतेमित्ति बेमि पदच्छामि, आवसहं वा समुस्सिणामि, से भुंजह वसह आउसंतो! समणा भुंजंतु आधाकर्मझुंजह वा असणं वा ४, वत्थं वा पडिग्गरं वा कंबलं वा पायपुंछगं या, आवसधे वसह, एवं पायवडणं करिचा भणइ, आउसंतो! निषेधः | समणा अकप्पितविमोक्खत्ति, एवं णिमंतितो सो साहू जदिचि, अतिकभितुकामो अभत्तट्टितो वा पञ्जनं वा से तो पडिसेहेयग्वं, कहं १, वुचइ-तं भिक्खू गाहावर्ति समणसं सवयसं पडियाइक्खेजा तमिति तं दातार, भिक्खू पुत्वमणितो, समण-IN संति सम्म सोभणेण वा मणसा समणसं णं एवं विनेयवा अहो अम्हं भगवया परगलओ ण चलितो जेण उद्देसियादि पडिसिद्धं, तत्थ तु अपमादो कायरो, अहो भगवयाऽऽदि सुदिट्ठी दिवा अहिंसा निउणा दिट्ठा इंदियणोइंदियदमो य, एवं वायाएविण पुण | एवं वत्तव्ब, किं?, करेह साबग! मुठ्ठ भत्ततो तुमं, अम्हं एसो भट्टारएण पोग्गलउबदुओ, तत्थवि सीभरमेव उपदिसियन, उज्जतेण वयसा कायेणवि, ण दीणदुम्मणेण होउं पढिसेहेयध्वं, सो दिदिए महुराए, ण य काया लक्खिजति, ण वा रूसिज एस | अम्ह अकप्पिवेण णिमंतेतिति, इचवं पडियाइक्खिज, तिविहेणवि करणेणं, आउसंतो! गाहावती हे आउसं ! गिहबई पो| खलु भे एवं वयणं पटिमुणेमि, कतर, जं में संभणसि, आउसंतो समणा ! अहं खलु तुझं अट्ठाओ असणं वा पाणं वा खाइम | वा साइमं वा जाव आवसह वा समुस्सिणामि, जति जातिएणेव सहो तो उल्लो तेण पिंडणिज्जुत्ती कडेति, अहामहगाणवि वा ] इमे उम्गमदोसा कहेइ-एरिसं कप्पद असणादि वस्थादि, सिजाए, फायदाणविहिफलं च अक्खाति, सरिसपत्तिमागमात्र वटस्य | | चीजं महतमव्यस्तं अपच्छेदितमूलं जनयति विपुलं महाखंध, जति ते सड़ा तो खीरादि फासुयदवाई दिज्जासिनि चेतिमित्ति च | | करिआसि, एतावताए गयडंडं तु, अन्नो पुण कोई असंविग्गभावितो सद्धो असन्नी वा अणुकंपाए पच्छ करेज ततो चुचति- ॥२६॥ दीप अनुक्रम [२१५२१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [274] Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२७५..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २०२-२०६] (०१) श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥२६॥ प्रत वृत्यक [२०२२०६] | भिक्खू परक्कमिज्ज वा चिढिन्त्र वा णिसिएज्ज वा सुसाणंसि वा, सवस्तयणा सुपाणं, सुन्नमेन अगारं जाव हुरत्था वा कम्हिवि हावाआधाकर्मविहरमाणं पासेत्ता आतगताए पेहाए अप्पए गता आयगता, इक्खा पेक्खा, यदुक्तं-साभिप्पारण, जहा ममं ण अण्णो कोइ निषेधः जाणति, मा पुण कण्याओ कण्णंतरं गते सो साहू सोचा णो गिहिहित्ति अतो मम निरत्थो उज्जमो भविस्सइ, भोइयाएवि अणमिगयाए, मा सा पगासेज्ज, असणं वा पाणं वा खाइमं वा जाव आवसहं वा समुस्सिणादि, तं च मिक् परिघासेउं तं वा | मिक्युं ते या भिक्खुणो परिघासेउं-पडिलाभेउं, जं भणित-भोतावेचा वत्थादीणि परिभुजावेउ आसवहे परिवसाइट, तं च भिक्खू जाणिजा तमिति तं असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा जाव आवसह, किमिति , जह एतेण अम्हे प्रति कीय वा कारियं वा असणादि पत्थादि आवसहवा, सहसंमुयाए सोभणा मती सहसंमुया साए, अबही मणो केवलनाणी जाइसरणस्स य, एत्थ य अभावो, परस बागरणं परवागरणं, सो य तित्थगरो, तब्बइरितो सबो अन्नो, सो उ केवली मणविऊ चोदसपुवी जाव दसपुची अन्नयरो वा साहू सावओ वा, तस्सयणो, समासितो वा अन्नतरो चा, किं हिंडसि ?, मा वा अज्ज हिंडिज्जासि | तुज्झ अज्ज अम्ह घरे अमुगस्स वा घरे उवक्खडिज्जइ वा इति, एवं सयं गाउं सोउं वा जह एस गाहाबई मम अट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गई वा कंबलं वा पायपुंछणं चा आवसई वा समुस्सिणादि तं एवं आयगयाए पेहाए | आगमेत्ता, जं भणितं-तचतो गया, जति जिणकप्पिओ तो तुहिको चेव अच्छति, पारिहारिया पुण अणुपरिहारिताणं कहेंति, अहालिंदिया सहाणे कति मच्छवासीणं, हिंडता वा उवस्सप वा गंतुं आणविज, अश्वत्थजणो व ते आणविजा, किमिति?-आउ-| संतो समणा! असुयस्थ गिहत्येण मम णिमित्तेण अनतरस्स वा साहुस्स साहूण वा संघस्स वा असणं वा ४ वत्थपडिग्गह जाब ॥२६॥ om gh T दीप अनुक्रम [२१५२१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [275] Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२७५..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २०२-२०६] (०१) प्रत वृत्यक [२०२२०६] श्रीआचा- आवसहं वा समुस्सिणाति, अणांसेवणं अगमणं अग्गहणं पुच्चगहियस्स या अपडिभोगो, एवं बेमि इति एवं अकप्पितविमोक्खो । निषेधनरांग सूत्र भवति, स एव अहिगारो, भिक्खं च खलु पुट्टा वा अपुट्ठा वा जो इमं आधच गंधा फुसंति भिक्य पुब्वभणितो, च चूर्णिः ॥२६॥ | पूरणे, खलु विसेसमे, भावभिक्षु विसेसेइ, पुट्ठो णाम आपुच्छित्ता, जहा अहं तुज्झ अट्ठाए असणादि करेमि जाव आवसह समुस्सिणामि, सो जति वारितो ठाति तो सुंदरं, तेण ण अहिगारो, जो पुण बारितो संतो करेति अबस्स एसो गिहिहित्ति, अपुट्ठा अपुच्छित्ता चेव करेंति, एवं पुट्ठा वा. जे इमे आहच णाम कयाइ गंथणं गंथो, से रायपुत्तो वा अनतरो इस्सरो वा अणिस्सरोM वा, तत्थ बहुते दबजाते कतपरिश्चातो, सिद्धो, भंगे वाकते रोसेण बंधेज णियलेहि रज्जूए वा संडंसगरूद्धए वा कीरेज, अतोते। Oणियलादिगंथा, यदुक्तं भवति-बंधा, फुसंति, जं भणितं पावेंति, इमे य अण्णे-से हताहणध खणह छणह डहह पयह जाव M विप्परामुसह सेति णिहेसे इस्सरी इस्सराइजो अणजो, हंत आमंतणे संपेसणे वा, पुरिसे आमतेत्ता संपेसेति, मते तु महता| पयत्तेणं तेर्सि साघिय असणाति, ण य इच्छंति, एनो तं मम ण दबं जातं ण धम्मो, तं एते हह हत्थेण वा केसेण वा णखेण । अवदार ताव कसेहिं पिहेह जाब सेवमाणिपललिताधि एवं खतो भवति, छिंदह इत्यपादकष्णणासंति, डहह खारादिणा, पय-11 |घ उंमुगादिणा आलुपह मुखणखैर्भक्षय, एवं विप्पलुपथ भूतो भूतो सहसकारण, सीसं से छिंदह, हथिपायस्स वा णं देह, | विविहं परामुसह, यदुक्तं भवति-डसह, ते फासे पुट्ठो अहियासए ते इति जेएते भणिया बंधवहखणणछेदणादि, अहवा फासा हेमंते सीतोडएण सिंचह, गिम्हे उम्हे धरेह, तेसिं फासेहिं पुट्ठो, संम अहियासए, अणुलोमे वा करिजा बहुयदनकयवतो सड़ो जतो मम मंदपरिव्वएणावि ता बुझं, सच्चसंघस्स वा, णवर्ग 'कयं च साली घरगुलगोरस' गाहा, अन्न तरकालोपगं वा भत्तं, तं ॥२६॥ दीप अनुक्रम [२१५२१९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [276] Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२७५..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २०२-२०६] (०१) आचार श्रीआचाराग सूत्रचूर्णिः ॥२६॥ MARRIA प्रत वृत्यक [२०२२०६] | भुजंतु अणुग्नहत्थं, कई वा अम्हेहि अहबा धम्मो करयच्यो , जो जस्स भत्तो सो तस्स देइ, जहा उपासमा सकाणं, संखा चर-101 | गाणं एवमादि, एते अणुरोमे अहियासते, जे जिणकप्पितो सो अणुलोमेसु वा पडिलोमेसु वा उप्पण्णेसु तुहिको चेव अच्छह गोचरादि गळवासी जा करणलद्विसंपण्णी. तो से कहेति, जता भण्वाति-अहवा आयारगोयरमाइक्खे आयारगोपरो जं भणितविसयो, आपारगोयर, णो आया एव तत्थ कहिअति, ण विणा दंसणं वा, दम्वचिंता वा, सो य आयारो मूलगुणा उत्तरगणा। | बा, मूलगुणधिरीकरणस्थं उत्तरगुणा कहिजेति, संजहा-'पिंडस जा विसोही ' तत्थ मिक्ख परकडपरणिट्टितं पेसितं बेसितं तद्दा य गिजीवं जं स्वयं, पवमादि कहिअति. सोतार अप्पगो य सत्ती जचा पंचावयवेहि कहियध्वं, असमत्थो तु पागतेण महवं आणेति, अणुलोमेणं उपसामति, तकिया मणा मिसं ताजं भणि पच्चा, आयरियं अणारियं वा, नहा अयं कं च णते ? तहा को एस मिच्छादिट्ठी, सो य धम्मो ण भवति जत्थ कप्पाकप्पविहीण मषितो, एवं सम्मेण तहा तहा उवसामति जहा पवावेइ | सावगो पा अहाभयो वा भवति, असरिसं जं भणित-अणण्णतुल्ल, अणुव्वणाणि सम्म, जंभणित-कम्मेण कित असरिस, पढि| लेहा पेक्खिता, आयगुत्ते तिहिं गुत्तीहिं उबउत्तो उत्तरेवि दिजमाणे कुप्पति ण बा, सतं उत्तरसमथो भवति ताहे, अह गुत्ती एगंतेणं गुची वयोगोयरे, से बुद्धहेयं पवेदय नाणादितियं बुझंतीति बुद्धा, तेहि य एतं पवेइयं, ण केवलं निहत्थाओ अकप्पं । | ण घेप्पति, जेऽपि असमणुमा कुलिंगी तेर्सि ण बकृति दाउं ततो वा घेत्तु, तत्थ इमं सुत-से समणुभो असमणुवस्स से इति णिदेसो, समणुनो साहू संविम्गो, असमणुभा अनउत्थिया, सो य समणुष्णो असमणुण्णस्सवि एसो मम समायोचिकाउं असण वा ४ णो पाएजा णो णिमंतेज णो कुजा याहि पूर्वक् विभाषा, सो एवं भावपरो तं परं अणा आढायमाणेत्ति ||२६५॥ CHHAMPCATION दीप अनुक्रम [२१५ २१९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [277] Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२७५..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २०२-२०६] (०१) प्रत वृत्यक [२०२२०६] श्रीआचामि जहा तेसिंण दिजह तहा ण घेप्पतीति तेहितो, अहवासमणुण्णो साह संविग्गो, असमणुणा असंविग्गा, सो य समणुण्णो | समता रांग सूत्रअसमणुण्णस्स असंविग्गरस असणं वा ४ वत्थं चा पडिग्गरं वा कंबलं वा पायपुंलणं पा णो दिज, जहा न देति तहा ण गिण्ड क्षेतरादि चूषिणः तीति, अहवा इमं लोहो असमशुष्णो, अण्णसंभोइओ असमणुण्णो, तस्सवि तहेव असणं वा ४ वत्थं वा णो पाएज, गिलाणअध्य०८ उद्देशः २ मादी भदणा, तेण तुमं मा रूसादि, णवि अम्हं सर्व सबस्स वा मूलाओ घिपति वा दिजति वा, एतं केण भणितं ?, गणु ॥२६६॥ बुद्धेभेतं पवेइयं, ग वेस सईदेणं भणामो, इमं च अवं बुद्धेहिं पवेइयं निचं, अप्पते गुरुमु य बहुवयणं सम्मतित्थगरेहिं वा, साहू आदितो वा वेदितं पवेदितं, धम्मो दुविहो, अहबा साभावो धम्मो, जंभणितं-अस्थित्ति, अचथं जाणह आपाणह दरिसितं, समपोत्ति बा माहणेति वा एगट्ठा, कतरेण माहणेण वडमाणसामिणा मतीमता, मबति जेण सा मती केवलनाणमती, मती जस्स | अस्थिति मतिमता, ममणुण्णो संविग्गो संभोइओ, सो य मणुण्णो समणुष्णस्स. वा असणं वा ४ वर्थ वा ४ पाएज परं आदाय-17 माणे, एवं कप्पाकप्पविही अक्खाओ, अममणुण्णाण तु जत्तियं लब्मति तं अगिज्झं, गिहत्थाओ केवलमेव अकप्पं पडिसिद्ध, असमगुण्योदितो सम्वं ।। इति मोक्षाध्ययने द्वितीयोदेशकः ।। उद्देसत्याहिगारों णिज्जुत्तीए भंणितो, तनिए इस्सरगेहादिपविट्ठो साहू वादातीसीतण कपिञ्ज, तं च गृही तथा संकते-| किन्नु ते इत्थीतो अलंकियदिभृसियायो दटुं मोहो वाहेति जेण वायधूतावा कंदलि कंपसि, इति आसंकिते पडिसेहो भणिजति, सुत्तस्स सुतेण-समणुण्णो अहिकितो, इदवि समणुष्णपबजाए अरुहो, सो कंमि काले पन्चाविजह?-मज्झिमेणं वयसा एगे वएतीति वयो, सो तिविहो, तंजहा-पढमो मजिसमी चरिमो, एगे ण सब्वे, एगे पच्छिमे चए, एगे पढमे, मजिामगदर्ण तु प्रायसो LEf२६६॥ BE दीप अनुक्रम [२१५ २१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अष्टम-अध्ययने तृतीय-उद्देशक: 'अंगचेष्टाभाषित' आरब्धः, [278] Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२७५.], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २०७-२१०] (०१) भीत्राचारांग खत्रपूर्णिः प्रत वृत्यक [२०७२१०] मज्झिमे वये पुज्झति तेण तम्गहणं, ते तु भुत्तभोगिता विगयकोउया सुई विरागमम्गे चिट्ठति, विष्णाणं च तेसिं पटुपरं भवति, वयस्त्रिकादि गणहरा य पायसो मज्झिमे बये पाइया, तेहि य एतं सुतं आयणिक्खमणपजायसवेणं भणितं, भगवंपि य मज्झिमवए पडिवण्णो निक्खंतो, एअकारणओ मज्झिमवयगहणं, सम्मं नाणादि बुज्झमाणा संवुज्झमाणा, चलमाणे चलितवत् , संजम उहाणेण संमें उद्विता, ते तिविहा-सयंबुद्धा पत्तेयबुद्धा घुबोधिता, तत्थ बुद्धबोधिते य पद्धच्च बुचति-सोचा चई मेहावीणं सोऊणं भवति वयणं, मेरा धावति मेहावी मेहावीर्ण वयणं, सो एवं मेहावी सोचा तित्थगरवयणंति, वयणंति वायगं चेव, अस्थं भासइ(अरहा)सुचं गंथंति गणहरा निउणं । सासणस्स हियट्ठाए ततो मुर्त पवचति ।।१।। पंडिता गणहरा, तं तित्थगखयणं पंडितगणहरेहिं ता सुची| कयं, सोचा णिसम्म हियए करिता, स्वादेतरिक धम्मो मज्झिमवयसामेव पवेदितो? जम्दा वृत्ती, मा, मज्झिमबए किण्णु हविज ?, | समो. कहितो लोगष्पदीचेहिंति, तदुच्यते-समयाए धम्मो आरिएहिं पवेदिते समता समं वा समिता तर तरुणमज्झिमवु डाणं सय्येसि समताए अक्खाओ, वृतं च-'जहा पुण्णस्स कत्थति' धम्मो दुविहो नाणादि, आरिया वित्वगरा, साहू आदितो | पवेदश्रो, एत एवं सम्मं धम्म सोपा तिण्डं बयाणं अनतरे वए संबुज्झ, समुद्विता पन्नइा संता ते अणवकखमागा इति, जेA ते अबतरे एव णिक्खंता मोक्खअमिमुहा पट्टिता, प अणवकखमाणा मित्तणातिमादि काममोगे वा मिच्छाभावाण वा, अश्वा सरीरं अणयकंखमाणा तबे, कि पुण सेसं १, अहवा इहलोर्ग च परलोगं च प्रति अपवखमाणा, भणियं च-'अलिसा अवयक्वंता अणवधवंता गया. मोक्वं, अणतिवाएमाणत्ति अतिपथणं आयुसरीरइंदियबुद्धिपाणाहितो, म अतिपातेमाणा अणतिवाते. माणा ते एवं अणतिबातेमाणा, यदुक्तं भवति-पाणादिपातं अधमाणा, अपरिग्गहो दयादि पुखभगितो, जहा अपरिग्गहमाणा ॥२६७। दीप अनुक्रम [२२०२२३] Ka पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [279] Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२७५..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २०७-२१०] (०१) श्रीआचा- रांग सूत्र चूर्णिः |२६८॥ प्रत वृत्यक [२०७२१०] तहा अलियमवि अभासमाणा अदचमवि अगिण्हमाणा मेहुणं च अगासेवमाणा, णो परिग्गहावंति, आदिरंतेन सहेता, जहाणो| परिग्गहावंता तहा पच्छाणुपुब्बीए जाव णो पाणाइवायतो, अणेगेसु एगादेसाओ वुच्चति-स सबावंति च णं लोगंसि णिहाय इंडस इमो पुलमणितो, तिण्डं चयाणं अनतरे वए पन्चइओ अणगारो असमिताए सोचा धम्म अगवखेमाणे अणतिवातेमाणे | जाव णो परिग्गहावंति, गंतुं गंतुं सीहो तहा येव दट्ठवं, ते कत्तिया पाणा जे अणतियातेपना, ततो चुचति-सव्वावंति च, | समति धावति वा सन्चं, सब्बावंति जावति पाणा, दबं गहितं खितं च, चसहा कालभावादि, एतेसिं चउण्हवि णिदेसो, जहा सवं सम्वत्थ सबकाले सम्बहा, सबलोगेति सबजीवलोए, णिहाय णाम णीक्रवंता, टंडं घायणं मारणंति वा एगट्ठा, पाणा भूया जीवा सत्ता, सो एवं निक्खित्तबंडा पावकम्मं अकुबमाणा पावं कर्म हिंसादि अष्टादशप्रकारं अवहमाणा एस महं | अगंथे वियाहिते एस इति जो भणितो सबलोगपाणेसु णिक्खित्तडंडो, महा प्राधान्ये, गंथणं यो पूर्ववत् , ण तस्स गंथो विद्यत | इति अगंथो, महाँ च अगंथे य मईअगथे, विविहं विसेसेण वा अक्खाओ, स एव वायोये जुतिमस्स खेयण्णे, ओधो णाम। एगो, यदुक्तं भवति-रागदोसरहितो, णिरुवहियचा अगासियत्तातो य, जुतिम संजमो, खेयण्णो णाम जाणगो, जुतिमस्स खेयण्णो, जं भणित-संजाणगो, अहवा जुत्तिर्म सिद्धिक्षेत्रं, तं तु सवंतिमेहिंतो जुत्तिम-जाजल्लमाणं एवमादि, अतो जुत्तिमं तस्स जाणतो, | जुतिमस्स जाणतो, जुत्तिमस्म खेयण्णो, सो य भगवं केवली अण्णोवि ओयजुत्तिमस्स खेयण्णो छउमत्यवीतरागो उत्सामिओ | खइओ वा, अण्णोवि यो वीतरागवत् रोगदोमनिग्गहपरो वीतरागवत् वीतरागो भवति, 'सहेसु य भयपावएसु' इति, एवं ओयभृतो जुतिम खेयष्णो, केवली भगवं इम जाणइ-जेहि कम्मे हि जब उववाति, तंजहा-नेरइएस ताव महारंभयाए महापरिग्गहयाए। ॥२६८॥ दीप अनुक्रम [२२०२२३] Ka पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [280] Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२०७ २१०] दीप अनुक्रम [२२० २२३] श्री आचारांग सूत्र चूर्णि: ||२६९ ।। भाग-1 "आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [३], निर्युक्तिः [ २७५..], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २०७-२१०] जात्र देवाणं चुर्य-चयणं च तं च जाणइ जो जचियं जीवित्ता चयति, अहवा उवत्रातो नारगदेवाणं, तिरियमणुस्साणं जम्मं, चयणं जोइसियवैमानिकानां, सेमाणं उच्चट्टणं, सो य सव्वं जाणड़, उववायं चयणं च णया अन्नतरे वए वट्टमाणा ओय चउकमक्खयाय पचतति केवली, अकेवली तउपदेसेणं अडविहकम्मक्खयाय जयति घडति, आह-जहा छउमत्थीभूओ अहिकमक्खयताए पट्टमाणो फासूर्य आहारं तहा केवली ?, बुचड़, सो चउकम्माबसेसा छुहापरीसहवे यणिज्जकम्मे सभोयरति सा य छुहा जाव सरीरं ताव अस्थि, तं च सरीरं छुदाए उनकामिज्जति, छुदापडिघाएण पुस्मति, कहं १, नणु आहारोपचिता देहा, आहारिज्जतीति आहारो असणाति चउव्धिहं, उच्चिचा चिज्जति जेण सो उबचओ, उबचओ णाम विहिआहारेहिं वा जइइडे हिं उवचिज्जति तेण आहारोवचयो, आहारस्स ताव आहारप्रयोजणी देहि यत इति देहो, तदभावे तु हीयाति मिलायति मरते चेति, परीसह भंगुरा परीसदेहिं मिस भजइति पदम वितिएहिं परीसहेडिं, अहड़ा अण्गेहिवि पभजंति दुब्बली भवणं हीणंति, सन्बभंगे या पतति एवं अनेषि परीसहे विसीतति, सीतउसिणदं समसग बहरो गधाताइए हिं पभज्जति, जयो य एवं तेण केवलीवि आहारथम्मिता सरीरस्स, अतो आहारेति, किंच- केवलीणं आहारगप्पसिद्धीए दिड्डीओ भण्णंति, पासग सवं एगई इंदिएहिं परिगिलायमाणे हिं परसह, एगे ण सव्ये, गहुँदिएहिं परिगिलायमाणेहिं परसह, एगे ण सब्वे, आहारेण विणा मणुस्से सच्चेहिं सोतादीहिं इंदिएहिं परिहायमाणेहिं, के एगे ण सब्बे, परिहायति छुहाए अविभज्जति, मंदं वा पस्पति, ण वा सुणेड़, जहा य एगे असंजयमाणुस्सा अकेवलिणो वा आहारेणवि सव्वेहिं इंदिएहिं परिहायमाणा पथक दीसंति तहा य पासाहि एगे केवलिणो, ण सब्बे, आहारमंतरेण सम्बिदिएहिं परिहायमाणेहिं, जतिवि तेसिं दबिंदियं आहारेण विणा परिगिलायतिनि विपुच्छाय, जती आगति उपपातादि [281] ||२६९॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२७५..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २०७-२१०] (०१) देहस्या हारोपमा चितत्वं प्रत वृत्यक [२०७२१०] मादिविसेसेहिं परिहायति, गुणओ, चिरेण हि कालेण आहारसरीराओ ण परिहावंति, छहिं मासेहिं अट्ठहिं मासेहिं वरिसेणं, तं | रांग सूत्र | जइवि ताव उत्तमसंघयणाणं केवलं, सरीराणि आहारमन्तरेण ण पुस्संति, किं पुण अन्नेसि , अतो आहारोपचता देहा परीसह-10 चूणिः ॥२७०|| | पभंगुरा, गिराहारिता सबिदिएहि परिहायमाणेहिंति सचमणुस्साणं दिस्संत इति वक्सेस, अकेवली अकियस्थसरीरधारणत्थं | आहारं आहारेइ, दयादीणि वयाणि अणुपालित्ता सरीरोवरमा णियमा सिझंति, तेण किं सरीरं धारेंति तद्धारणथं च आहारेति ?, एस्थ धुब्बति, णणु सोऽवि चउकम्मवसेसो तवखवणनिमित्तं च सरीरं धारेति तद्वारणथं च आहारं आहारेति, दयाईणि अणु| व्ययाणि अणुपालेति, जत्थ इमं सुतं ओदे दयं दयाति ओजो भणितो, दीयत इति दया, दय दाणे, जं भणितं ददाति, जहा |दयं ददाति तहा सेसाणिवि वयाणि, एवं चरितं गहितं, जहा चरितं तहा नाणदंसणचरिते अणुपालेति, दिटुंते जहा भरवहणVI समत्थस्स सगडस्स अडविमझे अक्खमक्खणं कीरति, एवं वईणवि आहारो भरवहणत्थं, एवं सिद्धिगमणोऽवि साहू सिद्भिणिमि | | आहारेति, अकेवलीवि सातासातातिकम्मक्खयस्थं च अन्तसो सिद्धिगमणत्तेवि, केवली दयादीणि वयाणि अणुपालेइ आहारेतिय, | को दोसो ?, अयमवि रोचिकप्पो, सो एवं ओयभूतो गुचिमतो खेयण्णो उययायाइगणगहणं संसारं णचा आहारोवचयदेहतदभावे पढमएण अवहभंगुरा, कि, सब्वे परीसहा, गुणा णाणाति, तिस्थगराओ जे अन्ने पासाहि सबिदिएहि परिहायमाणेसु, एवं जाणित्ता | पासित्ता य ओदे दयं दयाहि सब्बजीवाणं, कयरे सो', णणु जो सपिणधाणस्स खेयण्णो जे इति अणुट्ठिस्स निदेसे, सनिधि सन्निहाणं, जेण पुण जोनिग्गहणे चउगइए संसारे तासु तासु गतिमु सभिधीयते तं मणिहाणं-कम्मं तस्स खेयण्णो-जाणंग इति, अणइवाइणाए जे संणिहाणसस्थस्स खेयपणे सण्णिाहाणं तदेव तस्म सत्वं नागादिपंचगं, एवंविहो दयं ददाति जाव परिग्गह ||२७०11 दीप अनुक्रम [२२०२२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [282] Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२७५..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २०७-२१०] (०१) प्रत वृत्यक [२०७२१०] श्रीआचावेरमणं, भणिया मूलगुणा । इदाणिं उत्तरगुणा-पिंडचिसोही०, अविय-आहार एव वत्थुओ पिंडो आहारोवचया देहनि पभंगुरा, कालजगंग पत्रAओदे दयं दयाति जे संणिहाणस्स०, आहारगवेमणोवायो तु 'से भिक्खू कालपणे बलण्णे जाव दुहतो छित्ता णिआति'-al त्वादि चूर्णिः INति एतं पूर्ववत् , मिक्खावेलाधिगारो चेव वति, सो य मज्झिमयओ अधिकृतो साह, अभिगतत्थो, गवि अतितरुणो गवि अति-10 ॥२७॥ विदो य, तरुणस वलवन्तसरीरस्म ण सीतेण अंग थरथरेति, बद्धे तु कंपमाणेवि बरोण मेहुणसंकाए संकिजति, तेण मज्झिमवतो अधिकृतो साहू, सो य उपानीयमज्झिमाई अडतो एगस्स ईश्वरस्य गिहं पविसित्ता बाहिरे ठितो, सीतवाया य ते ण वारेण पविसर, तस्स अंग सर्व कंपति, सो य इम्भो मियलोमपाउयो कुंकुमाणुगतअगरुविलिनमतो सित्ति सुराए व मत्तो हस्सरिया उपहाए अणुगतो, पुणो य अंगारसगडियाए अणुतापमाणो अंतेपुरपरिखुद्दो परइस्थिणरगीतोवरमे कथंचितं साहुं दहें कंपमाणं | चिंतयति किमयं साहू सीतेण कंपति ? उत एयाओ ममित्थीओ अलकियाओ दढ़ मणस्स खोभो जातो ?, जेण से वतीवि धूत-| मिव कदलीपत्रं थरथरेति इति, एवं साई सीयफासेण वेवमाणगाय दड़े आसणा ओवट्ठाय तमुवसंक्राम्य ब्रवीति-आउसंतो! समणा ण स्वल ते गामधंमा उवाहति?, आउसोति आमन्त्रणं, समेति व वाणी समणो, अत्रणीय उवणीतवयणं, खलु ते | गामधंमा ओबादंति, खलु विशेषणे, किं विशेषयति-? इत्थीविसता गामा गणीया या गामा सहातिविसया तेसि धम्मो गाम, यदुक्तं भवति-सभावो, इसित्ति वाधंति जेण ते अंगं पति, इति पुट्ठो जति विरहितो तो सऽणिचं भाबितो बेति-हे आउसं! | अप्पं स्खलु मम गामधम्मा ओवाहंति अप्पंति अभावे भवति थोवे य, एस्थ अभाव, अप्पं न खलु मे गामधम्मा उवाहंति, 1 सीयं फासं चऽहं णो चएमि अहियासित्तए, जेण मे अंग थरथरेति, सो भणइ-अग्गीओ चालिजउ, तत्थ तावेह अप्पाणं, ||२७१। दीप अनुक्रम [२२०२२३] Ka पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [283] Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२७५..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २०७-२१०] (०१) रांग सूत्रचूर्णिः ॥२७२॥ प्रत वृत्यक [२०७२१०] तत्थ भणिजइ-णो एवं खलु मे कप्पति अगणिकार्य उचालित्तए वा, ईसित्ति जालणं उजालणं, तं कायं आयावित्तए । आतापन निषेधः | वा, कायो सरीरं, ईसिं तावणं मिसं तवणं आतावणं पतावर्ण, पुणो २ वा तावणं पतावणं, अन्नेसि वा वयणाए अ, णो | मणेण कप्पति सेवेत, लब्धं अग्गि ताव पञ्जालेहि तत्थ कार्य तविस्सामि एवं ण वयणेपनि वत्तम्ब, जाव कोइ अवुत्तोवि अग्गि। ममट्टाए पजालए मोऽवि पडिसेहेयम्वो, सो सेवं क्यंतस्स सियायि एवमधारणे बदतोवि परो स एव गाहाबई, पाणाई समारंभ माधाएत्ता घुगादि कटादिसंसिते संमं उदिस्स समुहिस्स एग वा साधं उहिस्स, कीतं कट्ठाणि किणित्ता, कट्ठाणि पामिश्चेति अलातं वा, | | अच्छिज्जं णाम अच्छिदित्ता अण्णेसि कहाणि, अणिसद्वेण वा कट्ठा णिति, इंधणेण अगणिकार्य उजालिज्ज वा पज्जालिज्ज वा, |तं च मिक्खु अगणिकार्य जाणिता आज्ञापयति, यदुकं भवति-उदिस्सति, तस गाहावइस्स जह मम अढाए अग्गी पालिए, | ण बट्टति, जतिवि सयट्ठाए गिहीहिं पज्जालिते तहावि ण वह आतवित्तए वा पतावित्तए वा, ताहे सो गाहावई आउट्टो वंदित्ता |तं साहुं ताहे चेव इंगालसगडियाए एतस्स कार्य आतावेति, तत्थवि सं भिक्खू पडिलेहाए पडिलेहा णाम सुतोवदेसं ताए आग| मित्ता-जाणित्ता आणाविज अणासेवणाएत्ति परेणविण में कप्पति कातो आतवित्तए वा०, आतवितो या सातिज्जित्तए, IN | जत्थ सो ठितो तत्थ गंतुं एगल्लविहारपडिवण्णस्स वा अणेगल्लविहारपडिवण्णस वा पडिमागतस्स वा इहरहा बा तस्स समीवे || |पाणाई भृयाई जीवाई सत्ताह समारंभ समूहिस्स कीतं पामिचं जाव अच्छिज्जं अणिसट्ठ अगणिकार्य उज्जालित्ता वा तस्स कार्य आता-| वेति वा पतावेति वा तं च मिक्ख पडिलेहाए आगमित्तए, यदुक्तं भवति-ज्ञात्वा, आणवेज्जा अणासेवणाए-अणुवभोगाइत्ति बेमि तित्थगरोवदेसाओ ।। इति विमोक्षाध्ययनस्स तृतीयोदेशकः॥ ||२७२।। दीप अनुक्रम २२०२२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [284] Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२७५..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २११-२१५] (०१) प्रत वृत्यक [२११ INI भीआचा-0 एम एव सीतफासाहिगारो, परित्राणं च वत्थं, तस्स उवायासेवणं, जत्थ इमं सुत्तं परिणामपसिद्धीए-जे भिक्खू तिहिं | | त्रिवखता वस्थेहिं परिवुसिते जे इति अणुद्दिवस गहणं, भिक्षु पुचत्रणितो, सो जहा पडिमापडियनगो, परिउसितो पज्जुसितोथितोचूर्णिः ५ उद्दशः ति वा एगट्ठा, ण एनो परं मए वत्थाणि घेत्तवाणि, पादं तेसिं चउत्थं, पडिग्गहो गहितो, तो ओहोरवीत्वेन पातम्गहणे सनि॥२७३|| जोगो सत्त, तिनि वत्थति एते दस, एकारसमं स्यहरणं, बारसमा मुहपोतिया, ने पुण दो सोतिया एको उणितो, कप्पाणं तु । पापमाणं संडासो, अहया दो च स्यणीशो चिट्ठग पाउणंति, पढमें एक पाउगंति खोमियं, पच्छा अतिसी तेण विहज्जयं तस्सुवरिं तहावि अतिसीने ततियं पाउणति, मबत्थ उचितं वाहि, ततो परं महासीते चउत्थं न गिवति, अतो एतं सुतं-जे मिक्खू तिहिं । वस्थेहि, तस्स णं णो एवं भवति-चउत्थं वत्थं धारिस्सामि, मणसावि एवं ण भवति, से अहे सणि जाई वधाई जाएजा से | N इति जो गच्छणिग्गओ जहेगणिज्जंति जहा जिषकप्पियस एसणा भणिता, उवरिल्लियाहिं दोहि अग्गहो, अभिग्गहो अनतरिज्जाए, एवं जाएता अदापरिग्गहाई वत्थाई धारेज्जा, जहा परिग्गहियाणि चेव धारए, णो धोएजा णो रगजति कमायधातुकद्दमादीहि, धोतरत्तं णाम जं धोवितुं पुणो रयति, अन्नं अरुचमाणगं घोहउं अण्योग रयति, जहा अहोयरतंतहा अपरिकम्मियंपि, सो भगवं उज्झियधम्मियाणि चेव धारेति अहरणिज्जाई, तेसिं इमो गुणो–अपलिउंचमाणो गार्मतरेसु, पलिउंचणं समंता, यदुक्तं भवति-अन्नेग समं गमणं, अहवा कक्खंतरे वा गंठिए वा गोवेति चोरभएण, पंथे दूइज्जमाणे गामंतरेसु, अहवा | गड्डाए वा दरीए वा ण णिहेति, जहा पंथे तहा मिक्खपि हिंडतो अपलिउंचंतो हिंडति, ण य चोरभयाईणि पडिलेहेति, पडिले| हितोचि अपडिलेहेउं चरमाणो पडिलेहेइ, णिचव तस्स पगासपडिलेहणा, ओमवेलिते गणणेण पमायोण य, गगणपमाणेणं तिष्णि | ||२७३॥ २१५] दीप अनुक्रम [२२४२२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] “आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अष्टम-अध्ययने चतुर्थ-उद्देशक: 'वेहासनादि मरण आरब्धः, [285] Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [२११ २१५] दीप अनुक्रम [२२४ २२८] श्रीआचा रंगसूत्र चूर्णिः ॥२७४॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [४], निर्युक्ति: [ २७५..], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २११-२१५] A SE N # पमाणं, पमाणेण य संडासो दो य रयणीओ, एवं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं एवमिति जं भणितं, समस्तं वा सामग्गी सामग्गिओ जातं सामग्गीजातं उबगरणं, पण्वइयं झाणं तथा चरित्रं च असढभावस्स, अह पुण एवं जाणिवा अह अणंतरे, पुण बिसेसणे, पयोयणेण विणा ण धरेति अयं विसेसो, अहवा इमो विसेसो, एवमवधारणे, जाणेज्जा-विदिज्जा, उविच अतिकंतो हेमंतो, गिम्हे पडिबने चिते वहसाहे च, अहापरिजुभाई वत्थाई परिबिज्जा समाईपि, जति वितिज्जं हेमंतं ण पावेंति तो परिवेद, तहा जुनाई परिविता अड्ड मासे अपाउओ चैव भवति, अह पुण एवं जाणिज-पडीदुहाई, न भविस्संति वा, ताहे जं जुष्णं तं परिवित्ता से सगाणि धारेति, ण पाउणति, अहवा संतरुचरेत्ति, जति चित्ते सीतं पडति जहा गोल्लविसए ताहे संतरुचरो भवति, एगं अंतरे एवं उत्तरे सवडीभवति, अहवा दोणि अतिजुष्णाई एको साधारणे ताहे दोनि परिद्ववित्ता एवं घरेतिचि एगसाडो, यदुक्तं भवति - एगप्रावरणी, सोचि क्वोमिओ, इतरहा हि तस्स चोलपट्टोविण कप्पति, कतो पूण साडओ ?, एतं चैव दृल्लभवत्थेहिं वा जुण्णाई परिवित्ता एगं. धारेति, किमत्थं सो एगेगं उद्धरति ?, ततो भण्णति लाघवियं आगमेमाणे, लघुतं लाघवितं, दव्वलाघवितं उबगरणलाघत्रितं सरीरलाघवितं च भावे अप्पकोडे अप्पमाणे अप्पमाणे अप्पलोमे, इह | पुण उवगरणलाघविर्त अधिकृत, आगममाणे चिंतेमाणे, से जहेयं भगवता पवेइयं जाव सम्मत्तमेव समभिजाणित्ता एवं पूर्ववत् उवगरणविमोक्खो भणितो । इदाणि सरीरविमोक्खं भण्णति, भणियं णिज्जुसीए- उबगरणसरीराण चउत्थए, सोणपु 'सरीरविमोक्खो उस्सग्गेण भत्तपश्चक्खाण टाइ पाओवगमणेण या, अववादो वेहाणा, णसेण वा गिद्ध पुत्रेण वा णं तं कई ?, बुञ्चतिजस्स वा मिंया भिक्खु, पूर्ववत्, पडीमाडीवष्णो गच्छवासी वा भवति जतेति स तं सरीरावत्थं द उवसग्गं वा, तब्बिह त्रिवेखता [286] ॥ २७४॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२७५..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २११-२१५] (०१) श्रीआचारांग पत्र घृणिः ॥२७५॥ PURA प्रत वृत्यक [२११ चिंता उप्पज्जति, 'पुट्ठो अहमंसि भवति पत्तो, केण ?, सीतपरीसहेण णालमहंसिण पडिसेहे, अलं पर्याप्तयारणभूपणेषु, णविशीतस्पर्शाअहं अलं तं उप्पन अहियासेउं, किमिति !, सीतफास अहियासित्तए, ण दब्बसीतं भावसीतमवि, इत्थी सकारपरीसहो य दो सहत्वं भावसीनला एते, अहियासणा गाम महणं, जहा मुदसणो गाहाबई तहा णालमहं तं पड़प्पन अहियासेउं, से सबसमपणागसपण्णाणेणं अप्पाणेणं से इति सह भोड्या ओवरए ओहरितेल्लो, सब्वसमष्णागतं पण्णाणं जस्म भवति सध्यसमण्णा- 10/ गते पण्णाणे, अतो य तस्म सन्चसमण्णागतं पण्णाण,तंजहा-असहणिजे परीसहोदए काएण मणसा बायाए य ण खुम्भति, केपि अकरणाए, केयि ण सम्बे, अकरणं अणासेवणं, कस्स १, मेहुणस्स सुदंसणवत्, आउट्टिनि वा अन् द्विति वा एगट्ठा, जो पुण अपलो, मणेण वाताए काएण ण पारेति अपाणं साहारिचए तबस्सियो उपते से, तयो किं करेति !, णणु भण्णति-जं सेवे गिहमादिते एगो रागदोसरहितो सण्णायपहिं उबरए, स च भोइयाए सणिरुद्धोण सकेति कतोइवि णिस्सरिउं, सा य तं आलिंगणाइएहिं उबयारेहि पुब्बलद्धप्पसरा खोभेति, ताहे सो कतितवमतो, तं च मतमिव णचा, देहमादि य तिविहं अगासं तं आदते, यदुक्तं | भवति-कइतबउबंधणं, मा य तं वारेति विद्धंसेजति तो सुंदर, अह ण विसज्जेति ताहे चितेइ-मा मे भंगो भविस्सति उब्बधिमावि, विमभक्खणं बावि करेजा, इतराईपि य भणइ जति मे ण मुयह तो विमभक्खणं करेमि उकलंबेमि वा पासायतलाओ तट्ठीउ वा अप्पाणं मृयामि, एवमचि अमुच्चमाणो ताव करेति, अण्णोवि जो अणुवसग्गिजमाणो णिविझ्यातिकयपरिकम्मो तहावि ण द्वाति ण य तरति भत्नपचक्खाणं काउंसो गिद्धपटुं वेदाणसं वा अन्भुवेति इति, एवं तत्थेवतस्स कालपरियार तस्थमिति तस्थ उवसग्गे, असहणिजे वा मोहणिजे, तम उवस्मन्गपत्तस्स अभिभवकीवस्य वा इतरस्स बा, ण एतं बालमरणं संसारबडणं, २१५] ॥२७५॥ दीप अनुक्रम [२२४२२८] र पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [287] Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२७५..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २११-२१५] (०१) श्रीआचाशंग सूत्र५-६ उदेशः चूणिः ॥२७६ प्रत वृत्यक [२११ | इञ्चेतेणं बालमरणेणं मरमाणे जीचे अर्णतेहिं नेरइयभवंगहणेहिं मुञ्चति, पाणु कारणे पुण?, दो अणुण्णाता, तंजहा आपवादिके | वेहाणसे य गद्धपढे,य, कालकरणं कालपजाओ, जत्तियं सेसकालं आउरणं कम्मं निअरिजति इचियं सो अप्पेणवि लन्मति, से| तस्य बियंतिकारए स इति कारणितं मरणं मरमाणो, तत्थेति तत्थ वेहाणसे गिद्धपट्टे वा, विसिट्ठाअंती वियंती, वियंति करेति | वियंतीकारओ, यदुक्तं भवति-अंतकिरियाकारओ, तस्स तं कारणमासन्ज उवसम्गमरणमेव गणिजति, इति एवं, अववाइयं मरणं |N अतीतकाले अणंता साहू मरिता निव्वाणगमणं पत्ता, जेण बुञ्चति-इथेयं विमोहाययणं हियं सुहं स्वमं जिस्सेसियं अणु गाभितं हियमप्पणो परेसिं च, ण उवधायगं, जहा अम्मिमरणं, आसुकारिता अप्पे असुई, सब्यअवग्गहे सुई, अपरोक्वाइचा "अण्णसुहमवि, एवं खमं, निस्सेसिमं चेति, अणुगच्छति अणुगामितं, जइविण णिवाति तहावि पुण बोधिलाभाय पंडितमरणमि-11 वेति, इति-एवं मज्झिमवयसाहिगारेण इहं उद्देसए पाएंणं तरुणस्स तस्स सीयविमोक्खो भणितो, तस्साहणा य सव्वविभोक्खो। इति विमोहज्झयणस्त चउत्थो उद्देसो सम्मत्तो।। __उद्देसत्याहिगारो णिज्जुत्तीए वस्थए गच्छे सीते य, जिणकप्पाओ वा थेरकप्पाओवा, दुवत्थपज्जुसितो पुण णियमा जिणकप्पिो वा परिहारअहालंदन्न पडिमाए पडिवण्णो वा. जे भिक्खू दोहिं वत्थेहिं जाव पुट्टो अहमंसि अबलो अहमंसीति, अपडियणता अपडिण्णत्तस्स, एनो धेरकप्पियाणं भणितो अहिगारो सुत्तं उच्चारित्ता-जे भिक्खू दोहिं वत्थेहिं सों नरुत्तर बज्झो स एव बज्झो जाव संसत्तमेव सममिजाणित्ता, इमंपि जओ कप्पिए सुतं चेत्र, तंजहा-जस्स णं निक्खुस्स एवं भवति-पुट्ठो अहमंसि, जस्सवि गच्छणिग्गयस्स चउण्डं जिणकप्पियादीणं अण्णतरस्स, किमिति ?-पुट्ठो-पुण्णो रोगेण आतंकेण वा, | ॥२७६॥ २१५] दीप अनुक्रम [२२४२२८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अष्टम-अध्ययने पंचम-उद्देशक: 'ग्लान-भक्त-परिज्ञा' आरब्धः, [288] Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२७५..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २१६-२१७] (०१) वैयावश्य ASA प्रत वृत्यक [२१६२१७]] श्रीआचा तेण अपडिकम्मेण वाहिणा अबलो, किं करेतु ?, भण्णाति-वसही वसही, अन्नतरं, मिहंतरंति मिहामो अन्नं गिहं गिहतर, तेण रांग सूत्र- MAI आमपि अबलताए गिहतर ण मिक्वायरियाए गमणा, सो एवं अचलताण भिक्खा, नेरिय अभिगच्छंति, तं च केह गाहावई परि-1 चूर्णिः किलामियसरीरं दटुं. तस्स अणुकंपापरिणतो जत्थ इमं सुन सेवा सेयतरं, तस्सवि परो भणितं-तं दुक्खं अकहतस्स परो ||२७७|| Mणाम सावओ वा सण्णी अहाभद्दओ वा मिच्छादिट्टी वा अणुकंपाए परिणतो असणं वा पाणं वा खाइमं या साइमं चा आहटु आणिचा आसन्नाओ दूरओ वा, आहटु दलएजा, अण्णहा उपक्खई, से पुवामेव आलोरबा से इति सो गिलाणो जिण| कपिलो ४, आलोएज्जत्ति णाम आउसंतो! गाहावई ?-आउमो गिहपती णो बल मे कप्पए णो पडिसेहे, खलु विसेसणे, किं विसेसेति !, ण केवल गिहिणा, साहुणावि अण्णेण आहितं णकप्पति, एवंविहे हि पडिमाभिग्गहविसेसे कप्पति वदति, अभिमुहं हितं | अभिहडं, असणे पाणे खाइमे साइमे भोत्तए वा पात्तए बा, भोयणं मोतु, अण्णवरेण वा तहप्पगारेण वा अभिहडं जीवोवरोहि-|| |निकाउंण मम कप्पति, एवं अनं भवे, तेण पगारेण तहपगारं आहाकम्मादि उम्गमदोससुई ण कप्पति-पद्दति, एवं उप्पा | यणाए गहणेसणाए वा अविसुद्ध, अहवा जीवा समारंभ समुहिस्स, कीपपामिछ, तत्थवि तहेच अफासुर्य अणेसणिजं लाभे संने | णो पडिगहिजा, गिलाणाधिगारो अणुयति, गिलाणोचितं अभिग्गहणं गणु चट्टति, तंजहा-जस्स णं भिक्खुस्स एवं पकप्पे Mजस्स जो वा जेसि, मिक्ख पुब्बभणिओ, एवमवधारणे, साहु आदीओ कप्पो पकप्पो-सामायारी माता, कतरे सो ?, परिहार विसुद्धीओ अहालंदितो बा, अहं च खलु पडियन्नो अपडिण्णतेहिं च समुच्चये, खलु पूरणे, पडिपन्नो णाम पडिण्णवितो, जहा वयं यावचं करेमो उड्डावणणिसियावणमत्तपाणाति, अपडिण्णतेहि-ण ते मते पाडण्याचा जहा तुझे मम करिबह उट्ठावणादि दीप अनुक्रम ॥२७७॥ [२२९ २३०] | पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [289] Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [२१६ २१७] दीप अनुक्रम [२२९ २३०] श्रीआचारांग सूत्र चूर्णि ॥२७८॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [ ५ ], निर्युक्तिः [२७५..], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २१६-२१७] बेयायचं, गिलाणोसहेण वावारसमणा शिव्यावणं भोइसा सूलादिगिलाणेण अगिलाणेहिं तस्य पुण अणुपरिहारितो करेति, कप्पडितो वा, जइ तेवि गिलाणाओ सेसना करेंति, एवं अहालंदिताणवि, अभिकख सामियवेयावडियं सो निजराकंखितेहिं सरिकप्पएहिं ण पुण थेस्कप्पिएहिं गिइत्थेहिं वा कीरमाणं सातिज्जिस्पामि, जहा चेव पडिष्णते अपडिण्ण तेहिं गिलाणो अगिलाहिं वेयावडियं कीरमाणं सातिनिस्सामि तहा परस्सवि जहण्णेग कयपडिकतियाए अहं खलु पनित्तो पडिण्णत्तस्स पडिपणती नाम नाहं साइजिस्सामि ण य वेयावचं केणयि अन्त्यव्य इति अपविणतो अपडिण्णत्तरसत्ति अहं तव इच्छाकारेण वैयावडियं करेमि जांव गिलायसि, अगिलाणो गिलाणस्स वैयावचं गुणे अभिकंखित्ता वैयावडियं करिस्सामि एवं ताव दण्डं भणितं, तंजहा एगो करेति एगो कारवेति इदाणिं तेसिं चैव चत्तारि विगप्पा आहद्दु परिवणं अणिविस्वस्सामि आरुमिता पहने अहवा अपडित्ते आरुमित्ता पहनं अनिक्खिस्सामिति-अणिरिससामि करेस्सामि सरिकधियवेयावचं आहड च साइजिस्सामि, अणुपरिहारितो अण्णतरो वा गिलाणस्स वेयावडियं काहिति तंपि अहं सम्माणिहामि, चितियो अभिग्गदं गिण्डति, तंजा सरिकप्पियस्स आहडं परिणयं अणिक्खिस्सामि गिलायमाणस्स, जं भणितं आणेतुं दिस्सामि पुण गिलायमाणोवि सरिकष्पितेणावि वैयावडियं कीरमाणं सातिजिस्सामि एवं तयचउत्था य जहां सुने तहा विभावियच्या, ततियभंगे अहालंदिया चेव पडिवी, उत्थभंगे जिणकप्पिओ, लाघवितं आगमेमाणो सुण ता लाघवितं दच्चे भावे य, जं इच्छमाणे जाय संमत्तमेव समभिजाणित्ता, एवं से अहाकिनिमेव किट्टितो दरिसितो तित्थगरेहिं, जहां कितिओ अहाकिट्टितो, एवमवधारणे दुवत्थमादि धम्मं, जो य अन्य अज्झाते अभिग्गहविसेसो भणितो तं अभिमुहं जाणमाणे समभिजाण माणो परमाणो य संतो विर वैयावृत्यविचारः [290] ॥२७८॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [9], नियुक्ति: [२७५..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २१६-२१७] (०१) प्रत वृत्यक [२१६२१७] तेसु समाहिलिस्सो संते कोहादिपहि, विरतो पाणाइवायातीतो, मुटु संमं अस्पते अहिलिस्सो सुसमाहियलेसो, पसत्थासु रांग पत्र प्रतिमा चूर्णिः लेसासु अप्पा आहितो जस्स जेण वा अप्पते आहियाओ लेस्साओ तत्थेव तस्स कालपरियाग एवमेव एमा, जेण सो गिलागो ७अध्यक | अपडि कम्मसरीरो अण्णेण य असरिकप्पितेण गहितं अगिण्डमाणो काले करेजा तस्स कालपायो मानुमेव तस्स गणिजह से ६ उद्देशःN | तत्थ वियंतिकारए, इच्चेयं विमोहायणं हितं सुहं धम्म णिस्सेसं ४ आणुगामितंतिबेमि । विमोक्षाध्ययनस्य पंचम उद्देशकः॥ ॥२७९॥ तिवत्थदुवत्थेहिंतो इमो बलवंतो संघयणजुनो जेण तस्स सुतं-भिक्खू एगेणं वत्येणं परिचुसितो जाव संमत्तमेव | समभिजाणित्ता, अभिग्गहबिसेसाहिगारे एव अणुयत्तते, तंजहा-जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति जस्स जयो जेसिं वा भिक्खू पूर्ववत् एवमवधारणे, किं भवति ?-वसाओ बुद्धिअज्झवसाओ एगहुँ, जहा एगो अहमंसि एगो नाम रागदोसरहितो |ण मे अस्थि कोइवि, ण पडिसेहे ण मम अस्थि-ण विति, कोइवित्ति पुब्बसंजोगो मातापितिमादि, सो भावतो परिचत्तो, बिजमाणो भवति मम तहेब आयरिओ विसेसिञ्जति एए बासिणोवि में अत्यित्ति जहेव भावओ परिचनं ता ण मम कोई णिोM नहा णाहमवि कस्मति, एवं से एगो णियमेव अप्पाणं समभिजाणेजा, एवं एएणं प्रकारेणं, स इति सो जस्स अयं अमि| पाओ ण मम कोयि ण याहमवि कस्मति एमाणियं अचंतियं एवमेव अप्पाणं समभिजाणमाणो लापवितं आगमेमाणो भाव|लापवितं, यदुक्तं भवति-अममीकारो जाव सम्मत्तमेव सममिजाणिता से आहारं स इति सो एगो, जपावि ण मे कयाति आहा रेइ ततोवि ण तं आहारं आहारेइ, आहारेमाणो नो वामातो हणुयाओ ण पडिसेहे वामाणाम अबसब्बा, तीति हणुया, Mणवि वामातो हणुयातो किंचि अस्ससे, जगं आहार दाहिणं हणुयं साहरेजा जामेव सर्व मुहं पम्हालेति, निधनदत्ता कुतो तस्स |॥२७९॥ दीप अनुक्रम [२२९२३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अष्टम-अध्ययने षष्ठ-उद्देशक: ‘एकत्व भावना/इंगित मरण' आरब्ध: [291] Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [६], नियुक्ति: [२७५..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २१८-२२२] (०१) रागष प्रत वृत्यक [२१८२२२ श्रीआचा- अस्सातेवं !, गणु कलमसालिओदणो कुम्मामाहिंगुदद्दराजीरगलवणसंजुना या सत्तुयपिंडी सअट्ठाए मदित्ता अहवा तस्स जति रांग बत्र| स्थाने कथाह णाम पञ्जनं आहारं तस्स परिफ़सियस्स किंचिदवि अस्सातणिजं भवति, पढिजह य-आढायमाणे, आढाणाम || त्यागादि चूर्णिः आयरो, तत्थ आहारे मुच्छितो गिद्धो, अमणुण्यो वा अमादायमाणे, सीतकरादी भोयणे कराणए वा, तं दुग्गंधं विरसं वा, णो ।।२८°N चामातो हणुयातो दाहिणं इणयं साहरेजा अणाढायमाणो, दाहिणाओ वा हणुयाओ वामं हणुयं साहरेआ, एवं रागेणं दोसेणं वा|FA इतरेतरं हणुयं साहरति, तेण ते रामदोसा ग कायचा इति लाबवित आगमेमाणे, कतरं लापवितं !, आहारलापवियं जाव सम| मिजाणित्ता, एतेसु अट्ठसुवि उद्देसएसु एस आलावओ सम्वत्थ भाणियन्यो-ण मे अस्थि कोयिणाहमवि कस्सति, अहवा | बेहाणसमरणउद्देसगातो आरम्भ एस आलावओ बत्तव्यो, ण मम अस्थि कोयि०, जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति जस्स जतो जेसि वा इह तु एगसाडए वा अधिकृतो एवं भवतीति, गिलाणमिव खलु अहं इमंसि समते, कतरेण गिलोण ?, रोगेण, इहरह पुण एचिरकालिओ, ओसण अपअत्तभोयणेण य, कुपाउरणो अपाउरणो वा, सुहीसु य णिचुकडयासणेण य, एगजाममाइ, अगि लाणोवि गिलाणो भवति, तस्स य एवं गिलायतो भवति-गिलाणमिव य बलु अहं इममि समते, च पूरणे, खलु विसेMसणे, प केवलं गिलाणतातिसयाए तवेणं वा झुसितसरीरो गिलाति, इहं तु गेलण्मेण चेव गिलायइ, इमंमि से भवति इमंमि पच्छिमकालसमए भिक्खायरियसन्नाभमिमादिस आवसएस इमं तबोसोसियं सरीरगं अणुपुब्वेण परिहित्तए, तत्थ अणुपुब्बी जहमणितकालोबमम्गोवकमो, कुत्सितं अणुकंपणिशं वा सरीरं सरीरंग, परि समता गामाणुगाम भिक्खायरियातिसु आवस्सएसु सचओ बहिसए परिवदित्तए, से अणुपुचीए आहार संबदिना, रोगस्म संलेदणाविही णिज्जुत्तीए-चत्तारि विचित्चाई जस्स 0 २८०॥ दीप अनुक्रम [२३१२३५] go पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [292] Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [६], नियुक्ति: [२७५..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २१८-२२२] (०१) प्रत वृत्यक [२१८ श्रीआचा. 10 एचिरकालं आउयं पहुप्पिहिति, इमो पुण गिलाणो अणुपुथ्वीए छटुट्ठमदममदुवालसहिं आयंबिलपरिगई दब्बसलेहणाए आहार लेखनादि गंग सूत्र- सम संवदृति, यदुक्तं भवति-संखियति, अणुपुराते वट्टित्ता भावसलेहणाए कमाए य पयणुए किचा, अनोवि ततो साहू कसाए चूर्णिः पपयणुए करेति, संलेहणाकाले विसेसेणं, कोइ सब्वे कमाए खवेति, अप्पाहारो वा अहाहारो वा अणाहारो वा गाहियन्यो, अञ्चा णाम ।१२८१॥ | सरीरं, सा अच्चा जस्स सम्मं आहिना स भवति समाहियचो, यदुक्तं भवति-कायगुत्तो, अहवा अच्चा लेसा, यदुक्तं भवति-भावो, सो जस्स भायो समाहिती स भवति समाहियचो, यदुक्तं भवति-विसुद्धलेसो, अहवा अचा जाला, ता जेण रागदोसजालारहितो | स भवति समाहियचो, फलगावयही फलगमिव वासीमातीहिं उभयतो अवगरिसियं बाहिरतो अम्भितरओ य स भवति फल गावपट्टो, बाहिरतो वहेणं सरीरं अवकरिसितं अंतो कसायकम्मं वा, जहा फलगतं छिअंत ण रुस्सति, चंदणेण वा लिप्पंतं ण | तुस्सति, रुक्खो वा, एवं सोवि वासीचंदणकप्पो, सो एवं रोगाभिभूतो दिणे दिणे सागारं मतं पवक्वायमाणो सब्बं W महारोगे आर्यके चा अट्ठायते उद्दाय भिक्ख उवट्ठाण ताव पूर्व ताव संजमउट्ठाणं पच्छा अभुञ्जयविहारं उट्ठाणं ततो य अन्भु. जयमरणउट्ठाणं मिक्खू पुग्धभणितो द्रव्यानिचलनशिखावपुश्च भावे तु भावाचिः लेश्या अन्योऽप्यचिः प्रोक्तो रागद्वेषानलज्जाला, | अभिमता निवृता अर्था जस्स भवति अभिणिवुडच्चो अमिणिबुडप्पा वा, सो संलिहप्पा सप्पति सामत्थे अणुपविसित्ता गाम वा नगरं वा खेडं वा कम्बई वा जाव रायहाणि वा अट्ठारसहं करभराण गंमो गमणिो वा गामी, गमति बुद्धिमा 6 दिगुणे वा गामो, ण एत्थ करो विजतीति नगरं, खेडं पंसुपागारवेढें, कब्बडं पाम धुल्लओ जस पागारो, मडवं जस्स अट्टाइ जेहिं गाउएहि णस्थि गामो, पट्टणं जलपट्टणं थलपट्टणं च, जलपट्टणं जहा कालगदीबो, थलपट्टणं जहा महुरा, आगरो हिर- २८१॥.. २२२] दीप अनुक्रम [२३१ २३५] Ka पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [293] Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [६], नियुक्ति: [२७५..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २१८-२२२] (०१) VI प्रत वृत्यक [२१८२२२ श्रीआचा-चण्णागरादी, गामो विजसण्णिविट्ठो दोहिं गम्मति जलेगवि धलेणविदोणमुहं जहा भरुयळं तामलित्ती एवमादि, आसमो| ग्रामादि राग सूत्र- आसमपदं, जहा आसनसन्निवेसो सनासन्निवेसो य, जहा समागमो वा, णिम्गमो जस्थ गमवम्गो परिवसति, रायहाणी जत्थ राया चूर्णिः वसइ, तणाइ दव्यकुसादीणि अझसिराणि डगलतणादीणं जस्सोग्गह करेति-तणसामी जायति, जाइत्ता से तमादाय एगन्तं उपक॥२८२।। मेजा, ताणि आदाय-गिहिला एगंतमवकमति, अगावातमसंलोग गमेत्ता अप्पपाणे बंधाणुलोमेण अप्पपाणं, इहरहा अप्पाण-IN | मेव, अप्पबीजं सामगादीचीयरहिय, अप्पहरियं हरियविवञ्जियं, अप्पाओसे जस्स हिट्ठाश्रो वा उप्परातो वा ओसा णत्थि,DI एवं अप्पोदगमबि, भोमो अंतरिक्खो बा, उनिंग कीडियानगरं, पणतो णाम उल्लितिया भूमि, उदगमट्टिया, आणेति वा फासुगीए भूमीए छुमित्ता, अहवा उदगमट्टिया मकडगसंताणउकलियाओ, अबा संताणओ पिपीलियादीणं, एरिसं थंडिल्लं पडिले. हिता संथारगं संथरेइ, संथारगं संथरेत्ता पुरस्थाभिमुद्दो संथारोवगतो करतलपरिग्गहिये सिरसाव मत्थए अंजलिं काउं एत्तिविYA समए इत्तिरिय करेति, इत्तिरिय णाम अप्पकालियं, त केयि मगंति-इत्तिरिय भत्तपञ्चक्खाइयं, यदुक्तं भवति-मागारं, जति एनो रोगायंकाओ मुच्चीहामी णबहि वारसहि दिवसेहि तो मे णबरि कप्पति पारेनए, अह ण मुञ्चामि तो मे तहा पञ्चक्खायमेव | भवतु, सागारं मनं पञ्चक्खाति, इतरसद्दमेचो, केह एवं इच्छंति, तं ण भवंति, वयं भणामो-एवं सागा अभिग्गहे अभिगिण्डंति, | सेसगाओ पडिमाओ पडिवजंति, ण तु साहयोऽवित्तरे, ण तु जिणकप्पिया, ते तु अण्णहपि काले णिचं अपमाति, ताण सागार पुरिमद्धमादि पञ्चक्रवं, किं पुण आवकहितं भन्नपञ्चक्वाणमिति, जं पुण बुचति-एत्थंपि समए इनिरियं करेति, तं एवं जाणावेति एसो इंगिणीमरणं उद्देसिओ, चउबिहाहारविरो, से जावजीवाए एत्थंपि समएनि ईगिणिमरणकालसमए, इतिरियं णाम ||॥२८२॥ दीप अनुक्रम [२३१२३५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [294] Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [६], नियुक्ति: [२७५..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २१८-२२२] (०१) awr प्रत वृत्यक [२१८२२२] श्रीआचा0 अप्पकालियं ठाणसिजणिसीहियं करेति, तं सचं सच्चवादी, तमिति इंगिणिमरणं, सच्चं णऽलियं, तित्थगरोवएसाए तं सच्चं, जहोसंग सूत्र- बदेसअणुढाणतो, अहवा सच्चो संजमो, तं जापञ्जीवे अणुपालिता अंतेण सञ्चमरणेण मरंतो सच सच्चकरो जहारोवियपत्तिण्णे अंत यावादित्वादि चूर्णिः Nणेता सचं कतं भवति, ओए तिपणे छिन्नकहे ओयो णाम एगोरागदोसरहितो, तरमाणे तिण्णे पन्चज, एगवस्थओसितिं जिण||२८३|| कप्पपइण्णं इंगिणिमरणं च चरमाणे, तिण्ण ण तस्स पुणरावती भवति, छिन्नकहं कहा संसयकरणं, कह कहा भवति !, किमहं | एतं भनपचक्खाणं णित्थरेजण णित्यरंज?, जीवादि० पयत्धेसु छिन्मकई, कतमेव सचं निस्संक' आइट्ठो अणातीते आतीतं णाम गहितं, तत्थ जीवादिनाणादीण वा पंचाग आतीतो अणातीतो, जहारोबियभारवाही, पुब्बंपि इंगिणिमरणेति, अतीता अत्था | बा सावजाओ सत्थासणसयणवणधाउ आरंभाउ अतीता, अतिकममाणो अतिकते, अहवा अतीतं संमाणियं, असमत्ता तस्स नाणादी पंच अन्धा कियपओयणा दत्तफला, समाणिजमाणा समत्ता, अस्सि विस्संभणयाए अस्मिन्निति अस्सि जहा जहा लदिढे इंगिणीमरणं, विहीए विस्स अणेगविहं विस्संभावित्ता विस्संभणियाए, कह', अचं सरीरं अन्नो अहं अन्ने संबंधिबंधवा, अथवा 'भज सेवाए' एवं भजित्ता, यदुक्तं भवति-सेवित्ता, अहा विसं भवित्ता जीवाओ सरीरं संधीसु भवति, देसीभासाओ बीसं पिई, विचा णो भेउरं कायं वेचा णाम पिइना, मिदुरधम्म भेउर, दुट्ठाणेहिं दुस्सेजाहिं दुनिस्सीहिताहि मिजंति, अहवा आयंके से बहाए होति संकप्पे से बहाए मरणंते से वहाए एतेहिं पगारेहिं भिदुरधम्म भेउरं, कायो सरीरं, संबिहुणिय विरूबरूवेहि परीसहोबसग्गेहि संमत्तं विहुणियं, विसिटुं विविहं वा रूपं जेसिं ते इमे विरूवरूवा, अशुलोमा पडिलोमा य, परीमहोवसम्र्मा य भणिया, अस्मिन् विस्संभणयाए विस्सं अपेगप्पगार विस्सं भविता, तंजहा-अण्णं सरीरं अण्णोऽहं ॥२८३।। दीप अनुक्रम [२३१२३५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [295] Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [२१८ २२२] दीप अनुक्रम [२३१ २३५] श्रीजाचा रांग सूत्र चूर्णि ७ उद्देशः ॥ २८४ ॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [६], निर्युक्ति: [ २७५..], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २१८-२२२] भय सेवाए, एवं भवित्ता, यदुक्तं भवति सेवित्ता, अहवा विस्सं अोगविदं भवो तं भत्ता, वीस वा भइया, जीवो सरीराओ सरीरं वा जीवाओ, अहवा जीवाओ कम्मं कम्मं वा जीवाओ, भैरवमणुचिष्णे भयं करोतीति भेरवं, भेरवेहिं परीसहोव सम्गेहिं अणुचिजमाणो अणुचिण्णो, दंसमसगसीहबग्धातिएहि य रक्खसपिसायादीहि य, अहवा दब्बादीहिं अणुचिष्णो तहावि अक्खुन्भमाणो, तत्थेव तस्स कालपरियाते तेसिं वा कालपरियार, सत्थ इंगिणिमरणे कालपरियाए से तत्थ वियंर्ति करे, इधेयं विमोहातणं विविहं सुहं खेमं णिस्सेसं आणुगामियंति वेमि ।। सप्तमस्य षष्ठोदेशकः परिसमाप्तः ॥ भणिता वत्थधारिणो सीत फास अहियासणा कमेण इदाणिं सीतफास विसोही बुचंति-जे भिक्खू अचेलए परिवु सिते एस पुण पडिमा पडिवनओ मामादि जात्र सत्तममा, केह तु भण्णंति-पडिमा पडिवन्नोवि कोइ जावजीवं होति, वासारते या पुण विहरति, तस्स णं एतं भवति, किं भवति ?, भिक्खु अचेलए परिवसिते, एस पुग पडिमा किसप्पो वा एव, अहं तणफार्स अहियासेत्तए, एवं सीतकासं दंसमसगकासं जाव एगतरे अनतरे विरूवरूवफासे अहियासेत्तए, हिरिपंडिच्छायणं वह णो | संचाएमि हिरी णाम लज्जा, ताए हिरीए पडिच्छायणं, यदुक्तं भवति-लजापडिच्छायणं, ण सो अहं अवाउडोत्ति लअति शरीरं नैरूपतया लञ्जति, अरिमाउ संणिग्गतेलियाड, ईसित्ति दूरं वा लंबंति, पउमुप्पलो वा अवदंसितो वा अतिखद्धसागरिओ वा विरु | पिएल्यं वा से अविरइयं वा दट्टणं ततो य थंभा घडंति, रसिया वा से संगलति, मेधपगारो वा मुत्तं पुणो २ कृमिया वा कस्सइ प्रति, सागारियाओ संपातिमा वा लग्गति, अरिसासु सागारे, एवमादिपगारेहिं लजमाणस्स एवं से कप्पह कडिबंधणं धारि तए, कडीए कअति कडिचंधणं, पमाण लञ्जमाणेणं एक, जुने जुन्ने अन्नं मग्गति, एगस्रू पृण एगल्लविहारपडिमपडिवण्णस्स णं भैरवानु-, चीर्णत्वादि [296] ॥२८४ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : अष्टम अध्ययने सप्तम उद्देशकः पादपोपगमन आरब्ध:, Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२२३ २२६] दीप अनुक्रम [२३६ २३९] श्री आचा रांग सूत्र चूणिः ॥२८५॥ भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [७], निर्युक्ति: [ २७५..], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २२३-२२६] भवति ततो ने उस ममगा, इतरेसु अण्णतरे, एवमेतं एवं कडिबंधणं महत्ता से एगलविहारकप्पं अणुपालेति लाघवितं आगमेमाणे, अरगनं लाघचितं जाय संगतमेव समभिजाणिता, अभिग्गहअहिग से वति, तंजहा-जस्म णं भिक्खुस्स एवं भ. वति जस्स जतो जेसिं वा, परिषण्णगस्स कप्पो दसासु भणिजिहिति, तं जहा परिजित कालामंतणं, अहवा तत्थ परकमंति अह इति अणंतरे, तस्थेति तर्हि काले, एगल्लविहारे एगकडिबंधणधारि अचेल तेण परिकर्मतं, जो विसेसेणं अचेलं अपाउरणं हेमंतसतिफामा फुसंति एवं भवति-अहं च वल्लु अवसिं भिक्खूणं अहमिति अतणिसे, च पूरणे, खलु विसेसणे, किं विसेसेति ? पडिमापडियओ चैव सो, अमेमिं आयवतिरिताणं सरिकवियाणं चेत्रं परिमापडिव नाणं चेत्र असणं वा ४, विभासाए वत्यमादि कडिबंध तणं वा आहह (टूड) परिणणं आहह (ड) निक्खिविस्सामि आदण्ड (ङ) पडणं- अणिग्गाहं गेण्हिता दाहामि | तेहि य आइडे साइजिस्सामि पढमो, अभ्णस्स पुण अभिग्गही-अहड्दु परिष्णं दाहामि पुण गिलायमाणो विसरिकपियस्मवि गिहिस्सामो असणादि जितियो, तइयस्स कस्मड़ करेमि जवि से लद्वी गत्थि अण्णं वा किंचि कारणं, आहर्ड पुण साहिजिस्सामि, चउत्थे उमयपडिसेहो लाघवितं आगमेमाणे आहारउवगरणलाघवितं चत्तारि पडिमा अभिग्गहविसेसा वृत्ता । इदाणिं पंचमोसो पूण तेसि चैव अ तिन्हं आदिल्लाणं परिमाविसेसाणं अभिग्गदं दरिसेति जस्स णं भिक्स्स्स अहं च वस्तु, अहमिति आतणिदेसे, चः समुच्चये, खलु पूरणे, अभेसिंति अप्पाणं वजिचा, समाजा सरिमा वा धम्मिया साहम्मिया, जति ते एगट्ठा न मुंजंति तावि ते अभिग्गहसाहम्मिया एगलविहारसाहम्मिया य संभोइया गणिअंति, तेण समणुष्णस्स, यदुक्तं भवति-परिनाभिग्गहस्स | परिहारकवन् पडिवष्णाणं एतं चैव तेर्सि परिहास्तवं जस्म कस्स देति ण पडिम्मर्हति अहेमणिजा, जहा तम्म एमणा बुना, वैयावृश्यकल्पः [297] ।। २८५।। पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [२२३ २२६] दीप अनुक्रम [२३६ २३९] श्रीआचा रांग सूत्रचूणिः ॥२८६ ।। भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [७], निर्युक्तिः [ २७५..], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २२३-२२६] पंचहि अग्गहो अनतरीए अभिग्गहो, अहा अहापरिग्गहितं अहाभावपरिग्ग हितंति, अहाभागपरिग्गहितेणं अडाए परिग्गहितेण दात्र न देति, अतस्तस्स, एवं वत्थपत्ताईपि, अहवा तेसिं कारणे मग्गिज अहातिरितं च से देखा, अभत्तरोयगमादिएहिं अभिलाए णो तिमिलाएति, अपरितंमंतो अणुग्गहबुद्धी (बुद्धी) ए निअरडाए अतिकम्म सामिएहिं अभिकंवंति, वेयावश्चं अभिकतो, किह णाम अहं पक (एया) रिसस्स वेयावचं करिआमि, कम्मणिञ्जरं वा अभिकखंतो अहवा इच्छतो करेति ण चला कारिञ्जति बेडिं वा मष्णति, विदालयति कम्मगंठिं, वेयावडियं करिस्सामि, अवावि खलु तेग अहातिरिषेण, अहमिति आतणिदेशे वा विभासा, खलु प्रेरणे, तेणेति तेण सरिसएण साहम्मिएण, अहेसणि जेणं असद्वाए तेण तं परिम्गहितं, आहारसित्ति, जइ तस्स अमतस्थं दाति उच्च| रीते सह सहाणेण वा अतिरिनं जातं, अभिकखंतेण पिञ्जरलाभो, तेण साहम्मिएण पडिमापडिवण्णरण चैत्र अगिला एवं ण कयमणं वेयावडियं कीरमाणं सातिजिस्सामि- इच्छिस्सामि, जो वा अण्णो सरिकप्पियस्स करेति तंपि अहं मणेण अणुमोदीहामि सुद्ध एस करेति, बायाए अणुवृहविस्तामि कारणवि दिट्ठमुहपासायादीहिं अणुब्रहामि, से जहेतं भगवया पवेड़यं जाव संमतमेव समभिजात्रा, एवं ते भगवंता जयंता घडता परकर्मता, अह चाए उप्पण्णे वा आउसेस आसनं वा जायेता पन्छा एत्थ उद्देनए पाओगमणं अधिकृतं उच्यते-जस्स णं भिक्नुस्स एवं भवति, अभिग्गहाहिकारेण वा अतो अणुवन्नति, इमो तबो चेव, तंजहा जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति, किमिति गिलामि च खलु इममि समए जाय तह चेत्र संथारगं संथरेति, संथारगं संथरेता समारुहति, समारुद्दित्ता एवं बदति नमोत्थूणं अरहंताणं सिद्धाणं, सयमेव पंच मन्ययाई आरुहेति, सयमेव पंच महण्नयाई आरुमिता एवं पाओगमणं अधिकृतं तेष अत्थ चउब्विपि आहारपि जिता कार्य च योगं च रीयं च गमणागम वैयावृश्यकल्पः [298] ॥ २८६॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत [२२३ २२६] दीप अनुक्रम [२३६ २३९] श्री आचा रांग सूत्रबूर्णि: ७ अध्य० ८ उद्देशः ॥२८७॥ भाग-1 "आचार" अंगसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) स्कंध [१], अध्ययन] [८] उद्देशक [७] निर्बुक्तिः [ २७५] [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २२३-२२६] - गादि पचलाएजा, बिसण्णी सयणन्थो वा, आउट्टणपसारणं दिट्ठिसंचारणं च सव्वं काययोगं निरंभति, वायोयोगं निरंभति, अहवा काय इति सरीरं तं बोसिरति, जोगे णाम तस्सेव आउंटणपसारणादी वाइयो गहितो, माणसिपि अपसत्थं निरंमति, रीयं च गमनादि पचखाएज, पाओवगमणं भणितं, समे जिसमे वा पादवो विवजह पाडिओ, णागणा-कट्ठमिव आतडे तत्थ संचतितं सजोकरेत्ता उपतिष्णे छिनक कहेजा जाव इथेयं विमोहामतणं हितं सुहं खमं निस्सेसं अणुगामियंति || विमोक्षाध्ययनस्य सप्तमोद्देशकः समाप्तः ॥ भणियं चउत्थउद्देसए वाघातिममरणं बेहाणसगद्धपङ्कं च, पंचमे मतपणकरवाणं इथे छडे इंगिणिमरणं, सतमए पाओब गमणं, अङ्कुमए तेसि तिव्ईपि पडिसमणेण बुच्चति, पुवभणित्रं तु जं भण्णः तत्थ कारणं, ताणि तिभि भचपचक्खाणाईणि, बाहातिमाणि वा अणुपुवीए मणियाणि, इमं पुण निव्यापातिमे चैव जतोऽभिधीयते-अणुपुवेणं विमोहाई० (१७) अणुकमो अणुपुत्री, तंजहा - पवजा सिक्वा वय अस्थग्गहणं च० पुरिसं आज अणुपुच्ची मत्तपचक्खाणं इंगिणि पाठवगमणं, संलेहणाणुपृथ्वी तंजहा- चत्तारि विचित्ताई, विमोक्तेति विमोहा, जं भणियं मरणाणि जाणि बीरा समासा, बीस भणिता, बुसिमंता मतिमंतो, संजमो उसी जत्थ अस्थि जत्थ वा विजति सो उसिमं भणियं च "संजमे वसता तु वसुवैसी वा येनेन्द्रियाणि तस्य वशे, वसु च धनं ज्ञानाद्यं तस्यास्तित्वान्मुनिर्वसुमां" वुसिमं च सिमंतो, एवं मतिमंतोचि, यदुक्तं भवति-नाणमंतो, सवं णच्चा अणेलिस भचपचक्खाणाइ तिविहं मरणविहाणं ज य जत्थ बिही जंच जस्स अणुष्णातं मरणं स्वतः संघयणधितिवलाणि आसज, अगेलिस इति अणण्णसरिसं अड्डाणे अवेलिसं, बालमरणाणि वा पहुंच अणेलिसं, दुविहंमि अनशनंआनुपूर्वी च [299] ॥२८७ ।। पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अष्टम अध्ययने अष्टम-उद्देशक: 'अनशन-मरण' आरब्धः, Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [८], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२५] (०१) श्रीआचागंग सूत्रचूर्णिः त्यागः l/૨૮૮| प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-२५] विदित्ताण बुद्धा धम्मस्स पारगा (१८) बझं अम्भितरं च, पज्झं मरीरोवगरणादि, अम्भितरं रागादि, पहिलइ य'दुविहंपि विगिचित्ता दुट्टादुद्वाण जाणगा' तिविहं वा मरणं बुद्धा, धम्मो दुविहो, धम्मस्स पारं गच्छंतीति, अणुपुषीए | संवाए, अणुकमो अणुपुग्धी, संखाए जाणणाए, यदुक्तं भवति-संखाए णच्चा, किं ताव जीवंतस्स ममं गुणा? अह सरीरं विमोक्खं कुणमाणस्स? कस्स वा अहं मरणस्म जोगो? इति संखाए, आरंभा यतिउति आरंभणं आरंभो-सरीरधारणत्थं भत्तपाणा| ईओ तिउगृति, अहवा वेयावश्चवायणपुच्छणादिआरंभा तिउट्टति, यदुक्तं भवति-णिज्जति, पढिजह य-कम्मुणा य तिउद्दति, कम्मं अट्ठविहं ततो तुट्टमाणो तुट्टे, दुविहंपि संलेहं करेंतस्स जया जया सो अतिगिलाणो भवइ कसाइ पतणुते किचा (१९) अहवा मूलसंलेखणाए कसाए पतणुकरणं, तेण सा आहिये-मणिअति, कसंतीति कसाया कोहादि सब्बघाहो वा तणुए, तणुए संलेखणाए अप्पाहारो तिउद्दति, यदुक्तं भवति-अपञ्जलाहारो, एत्थ दुविहाए संलेहणाए कोकणगहुँतो, अक्खोवंजणाणु| लेवणसमाहिणिमित्नं आहारते इति, तितिक्षणं सहर्ण सहणं सहति ओमोदरियं अह भिक्ख गिलाएजा आहारस्सेव। कारणा अह इति अम(ण)तरे, भिक्खू पुख्खयनितो, गिलायति, किं निमित्तं ?, आहारकारणा, आहारेण संलेहं करेमाणो अंतिय अम्भासे अतीव संलिहिता, जे भणित-आसनमरणकालो, एवं गिलायमाणोऽवि जीवियं णाभिकंखिजा (२०) कह णाम जीविजा चिरतरं ?, संलेहणं वा पमादेति, मरणंपि ण पत्थप अतीव छुहाए वा विज्झामि, कहं णाम मरिजति !, पञ्चक्खाते वा जति से देवता गट्टोवहाराति अणुलोमे उत्सग्गे करेइ, थयादिणा वा मणुया पूर्व करेंति तहवि जीवियं णावखेज, पडिलोमे-10 D| हि वा कीरमाणे मरणं णोवि पत्थए, दुहओवि ण मजे जा दुविहो दुहतो, कन्थ , जीविए मरणे तहा। ममत्थो दीप अनुक्रम [२३६२६४] ॥२८८॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [300] Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [८], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२५] (०१) समाधिपालनादि श्रीभाचा रांग पत्र चूर्णिः ॥२८॥ प्रत वृत्यक [२२६गाथा णिजरापेही (२१) मोहिं चिद्वतीति मज्झन्थो, जीवियमरणे ग आसंमते सुहृदुक्खे बा, पडिलोमअणुलोमेहि वा उपसग्गेहि |णिजर पेक्वतीति णिजरापेही, कह मम णिजग भविजा ?, नाणादि पंचविहं समाहिं अणुपालेति इति, एवं अंतो परिं विउस्सज अंतो गगादीवित्तिउस्सग्गो, बाहिरं सरीरं, आहारउवगरणमादीइ, एवं बर्हि अभितरं च उवहिं विउसञ्ज, अहवा।। अंतो वा बाहिबा गानादीणं सरीर विउस्सा, विसेसेण चषणा वियोसज, अज्झत्थं सुद्धमेसर अपाणं अहिकिश्च बद्दति, अमत्थं मुद्धं णाम जीवितमरणादि वियजेति, रागदोमादिराहियं बा, एमति णाम मग्गति, सो एवं संलिईतो जं किंचि उवक्रम जाणेज (२२) इति अणुद्दिस्म किंचि इति अतिगिलाणितो पित्तमुच्छ वा आयंबिल परिग्गदितण वा तवेण अतिघाती सरीरस्म | आउखेमस्स अपणो आउसो खेम-अबाधायत्तं जीवियस्म, अहवा जं किंचिदिति तस्म उकोसेहिं तवेहि सोसितसरीरस्स अण्णादिरूवा उबकमकारी भवंति, तं एवं आउमो खेम समतीए परवागरणेण वा जागेत्ता तस्सेब अंतरद्वाए श्रद्धा णाम कालो, अंतरे अद्धा अंतरद्धा, यदन्नं भवति-तत्व कालंतरे, खिप्पं सिक्विज खिप्पं सब्बासंगेण नहेव कालो, सिकाला णाम आसे| यमा, जं तवमिति जं तेण अवसितं तदेव सिक्खिन, तक्षणादेव आलोइयपडिकतो बयाई आरोपित्ता भने पचवावेजा, | पापाड्डीणो पंडितो, तत्थ गामे या अहवा रपणे (२३) अंतो गामस्म बसही तम्बादि वा उजाणे ठितो गिरिगुहाइसु वा, पाडिचरएहि मद्धिं, आसुक्कारेण वा एगाणितो, थंडिलं पहिलेहए थाणं ददातीति थंडिलं पडिलेहेहि, तं दुविहं सरीरं पडिहाय पाणियथंडिलं च, जत्थ प भ पञ्चस्वाति जत्थचि थंडिले सरीरमं परिद्वविअिस्सति पि जति अगीयस्था सेहा य ताहे तंपि सय मेत्र पडिलेहेति, एरिसे थंडिले मते परिढविजाह, पारिट्ठावणिया च बहि च मि कहेति, जत्थ पुण ण विञ्जति तं अप्पपाणं १-२५] |॥२८९॥ दीप अनुक्रम [२३६२६४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [301] Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [८], नियुक्ति: [२७५..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२५] (०१) नाहारादि प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-२५]] दीप अनुक्रम [२३६२६४] IS9 अप्पयीयं च अपहरितं जाव बियाणेचा तणाई संघरेजा, तणाई संथरेता दम्भसादीणि सयमेव अणाहारो णिवजेज रांग सूत्रचणित(२४) मुणी, तस्स आहारो ण विजतीति अणाहारो, तिचिहं वा पञ्चक्खाति, ताणि बछुआ जाव णिवण्णो संतो, पुट्ठो तत्वधि२९॥ | यासिजा पुट्ठो णाम दिगिछाते. तिविहे पञ्चक्रवाए, तिविहे चउबिहे वा पञ्चक्खाया, पिवासितो तत्थाहियासए, एवं अन्नेहिषि परीसहेहि पुट्ठो अहियासए णातिवेलं उपचरेण पडिसेहे अतिरतिक्रमणादिपु, वेलत्ति या सीमति वा मेरत्ति वा एगट्ठा, दब. Wवेला समुहस्स, भाववेला चरित्नपाली, तं सो परीसहेहिं उबसग्गेहिं पुट्ठोण अतिवेलं धम्मसुकराण, उवगरणे आहारो दाइजा, मणुस्सेमुवि पुट्ठवं धम्म मणुस्सेसु, अणुलोमेहि वा पडिलोमेहि, तत्थ अणुलोभो आहारनिमंतणादी, इस्थिया वा उवसग्गं करेति, पुरिसएसणी वा गणिया चउसटिकलाविसारया, पडिलोमे चा कट्ठलेहि पिट्टिज वा कट्टविकडिं वा करेजा, अवि पदत्यादिसु, दिब्बेहिवि पुट्ठवं, तिरिक्ख जोणिया पुण उवमग्गा सिरीसिवादि, ततो भणिजति-संसप्पगा य जे पाणा (२५) संसपंतीति संसप्पगा-मुयंगाओ मकोडगबगसीयल सीहवग्यतरच्छादि, जे य उड अहे चरा उड़े चरा उद्दचरा पक्षिणो कागा गिद्धा सहादि, पदममसगादयो य, पण्णपगदिसं पहुंच अहेचरा विलवासिणो. तंजहा-अहिमूमगादि, मुंजते मंससोणियं तत्थ मंसं सीहवग्ध 1| जंबुगादि भक्षयति जहा अवंतिकुसुमालस्स, सोणियं तु दंसममगपिपीलिगादि पिते, सनेवि ण चाणे हत्थेण वा पादेग| 17वा कट्टेण वा तणेण वा ण छणिज, यदुक्तं भवति-ण मारेज, पमजते सममगे वत्थेण वा हत्येण पत्तेण वा पाणा देहं विहिIN.संति (२६) इत्थ इमं आलेषण काउं अहियासेयब-मा तेमि अंतराइयं भविस्मति, एते तु पाणा मम देहमेव विहिंसंति, ण पुण नाणादिउबरोहं करेति, कई १-अण्णो जीयो अण्णं सरीरमितिकाउं, भणियं च-अण्णं इमं सरीरं अमोऽहं ०, अने संबंधिधया, तं पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [302] Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२२६ गाथा १-२५] दीप अनुक्रम [२३६ २६४] भाग-1 "आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [८], निर्युक्ति: [ २७५..], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २२६ / गाथा : १-२५] श्री आचा रांग सूत्र चूर्णिः ॥२९१॥ जति पाणा देहं भक्रखेति मया सिमिति एत्थ किं मम अवरज्झति है, अंतरं वा तेसिं, अतोरि ण शिवारते, ठाणाओ णवि उन्भमेति दव्वठाणं सो चेव ओवासो, मतद्वाणं भत्तपरिण्णा, विविधं उन्ममे विउम्भमे, सो एवं भावठाणाओ अचलितो भवति, जतो अवसव्वेहिं विचित्तेहिं अवसन्तीति अवसन्ना विसयकसाया हिंसादयो य विचित्ता-मुत्ता, अहवा विरूवपि भावो, विचितेहिं अवसन्देहिं अमिलितेहिं पमाणे अहिपासरति पमाण इति अमएव सिद्धमाणो खुपिवासिएहिं परीसह उवसग्गेहिं मिलायमाणे द्विजमाणे वा देहिति तो बसे, गवि कायावायामणेहिं तिहिं तप्पति अहेयासेजति सहिज, कम्मक्खयत्थं कमगंधेहिं विचितेहिं (२७) दन्गंथो सरीरवत्थपत्ताति भावे रागादि, आउकालस्स पारते आउकालस्स पारगो पइण्णापारगो य जाब चरिमा उस्सामणिस्मासा सिद्धिगमणं वा देवलोगउववातं, भत्तपच्चक्खाणं वृत्तं । इदाणिं इंगिणिमरणं वुबति, परिगहियतरागं च एतं मिसं गहियतरं परमहियतरं भत्तपञ्चक्खाणाओ भारिततरं पूइततरं च दुक्खतरं कस्स ?-दवियस्स विग्राणओ रागदोमरहियस्स दवियस्स सुद्ध आदितो वा आहिते सुवाहितो, पवज्जा सिक्खावय अस्थगहणं च०, सोविता परिकम्मं करिता उवगरणादिउवहिं चइता थंडिलं पमजित्ता आलोय पडिकंतो व्याणि आरुभित्ता चउनि आहारं पञ्चक्खाय संथारारूढो चिट्ठति, सयमेव चंक्रमणा किरियं करेतित्रि सो, आयविनं पडिगारं ( २८ ) सयमेव उद्वेति निसीयति चंक्रमणं वा करेति, आयविखं नाम नो तं असुहीभूतं अन्नो कोई उड़वेति णिसियावेइ वा उच्चारपासवणभूमिं णेति वा आणेति वा, पडियरणं पटियारो गायस्स आउंटगपसारणगमणागमणादि विजन निहा तिघा त्रिवि २ जहिज विजहिज, तिहा २ योगत्रिककरणत्रिकेण, केरिसए थंडिले विजति १, भनति-हरितेसु णणिवजेजा (२९) सयमेव थंडिलं पडीलेदिता गंतुं तत्थ णिविञ्जति, उदूभ्रमवर्जनादि [303] ॥२९१ ।। पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [८], नियुक्ति: [२७५..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२५] (०१) प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-२५] भीआचामुणी पुरणितो आसीत, आमए वियोसज, अणाहारो, कयसनचउनिह वा आहार, अणाहारो पव्यतब्बऽधियासए, पुट्ठोति अनाहारादि रांग सूत्र छदाईहिं परीसहेहिं उबसग्गेहि य अहियासए तिविहकरोणवि, सो एवं दिट्ठो संतो इंदिरहिं (३०) अंगपचंगसइसंचिट्ठो संकु-। चूणिः डीतो वा समितं माहरे मुशी, संकुडितो परिकिलंतो वा पमलिता साहरति, एवं उववत्तो परियनतो होऊण परावत्तति, यदुक्तं ।। ॥२९२॥ भवति-पडिलेहिता, तहेब से आउंडेन्तो पसारेंतो वा चकमणियं वा करेंतो अगरहणिज्जो चेव सो भवति, अचले जे समाधिते 2. अचलति अचलो, समाधिते अ, जति अचलो समाधितो भवति, इंगिणिमरणसमाधितो अहवा पतिपिण, अचलो चेव अच्छद बते. | चलतोवि समाधितो अचलो गणिअति, किंच- केवलं उच्यतत्ति वा परियचति वा, कताइ णिसण्यो सयणत्थो वा अवि परिसंतो उट्ठाय अभिक्कमे पडिकमे (३१) पन्नवगं पड़च अभिमुई कमे, अमिमुहोकान्तभृतो, किमिति पडिकमे , यदुक्तं भवति-- तं गमणागमणं करेति, हत्थं वा पायं वा परिस्संतं संकोडिज्ज चा पसारेज वा, सम्म कुचणं संकुचणं, यदुक्तं भवति-पडिले हित्ता, प्रति प्रसारण, किमत्थं वृञ्चति ? काया साधारणट्ठाए सम्म धारणं संधारणं, जं भणितं-सारक्रवर्ण, एगपक्षण सयमाणस्स गायाणि परिस्समेति ताणि उब्वनणरियत्तणाकुंचणपसारणेहि साधारेति, एत्थं वावि अथणेचि इत्थं इंगिणिमरणे वा विभासा जहा पाओवगमणेसु कट्टमिव अचेयणा मर्वक्रियारहिते चिट्ठति एवं एथवि इंगिणिमरणे जति से सामत्थं अस्थि तो अचेयणो, अचेयणोग्य किरियारहितो चिट्ठति, अचेयणेण तुल्लो अचेयणवत् , जो पुण परिगिलाति कट्टमित्र चिट्ठमाणो सो परकमे परिकिलतो ( ३२) परिकमणतेण तेणवि जदा क्ला-तो भवति तदा अहवा चिट्टे अहापतं अहायतमेभवित्ता चिट्ठति जहा परिहि यगतो ठिनी वा अच्छति, जया पृण ठाणेणावि परिकिलेसति तदा छातो परिकमणं, तेणवि ठाणेणं परिकिलंतो निसिएज वा HINIORMAP दीप अनुक्रम [२३६ NP २६४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [304] Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [८], नियुक्ति: [२७५.], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२५] (०१) प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-२५] श्रीआचाअंतसो ठाणस्स अंते यतसो णिसणोवि जया पलियंकण वा अद्धपलियंकेण वा उक्कुटुयासणो वा परितमति णिविज्जति, उत्ता-10 पर्यकासरांग मूत्र गतो वा पासिल्लितो च। उहायतो वा लगंडसाथी वा जहासमाहीते सन्धथवि (३३) आसीगमाण मिसं आसीण इति, उदासीणो। चूणिः ॥२९॥ | मज्झत्थो रागदोसरहितो, अणेलिसो, अहया धर्म आसीतो मरणं वा अणण्णसरिसं इंदियाई समीरते 'ईर गति कंपगतो' संमें ईरते | समीरए वाणिद्वेगु विसएमु रागदोसअंकणं इंदियसमीरण, अहवा ठितो चेव कोलावासं समासल कोला णाम घुगा, केह। आहु-उद्देहियाओ, कोलाणं आवासो कालापासो, यदुक्तं भवति-मुक्तकहूं, णायि अदे कढे कोला संभवंति, तं च अमुन्नं अघुणितं । अणुदेहियाखइयं उविध-आमज समाज, अहवा अवयंभे पने वितहं पादुसते सतो णं तहं वितह, किंमितो सो कोला वासो?, जधा कोलेवि अवहितो भवति तदा व नस्थ सन्ना भवति, तदवि पादुअतेसए-पादु पगासणे, पगासे अबट्टितं तं चक्खुसा Dय आलोके, बद्धमूलं अझुसिरं एसति, यदुक्तं भवति-अबद्धं भवति, अवलंबति वा, जतो वजं समुप्पजे (३४) जम्हा ततो जत्थ वा कडे कुडे चा अवलंबमाणो, वजं णाम कम्भ, समत्थं उप्पञ्जइ समुप्पञ्जइ, किमिति पुण ?, वयलिअंति, उद्देहियाउ पा संच-ID | रओ वा बंधा भजंति, पढ़ति वा, ण तस्थ अवलंबते, उक्कसे अप्पाणं ततो जम्हा ईसित्ति कसिता उकसिता अप्पाणं सव्वे | फासेऽधियासए, अहियासणे ठाणे वा निसियणे वा तुयट्टणे वा, जहा फासे तहा सेसेवि विसए, भणियं इंगिणिमरणं, अयं तु। | सिलीगत्थो तहवि मरणोहे समोयारेयव्यो, तंजहा कदायि पातोवगमणं पिडितयो वा करेजा, अप्रत्यंभियं या कहूँ हत्थेण अबलंबिउं, सोवि जतो बज्ज समुपज्जे ण तन्थ अवलंबते, भत्तपञ्चक्खाणेवि जतो वजं समुप्पजे जतो वा णिदाणकरणादि परिपणावितो वा, वजं कम्म उप्पज्जति ण तत्थ अवलंबते- तं परिणाम पुणो अवलंचिा , ततो उकसे अग्याण, विसुद्धपरिणाम दीप अनुक्रम [२३६२६४] र पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [305] Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [८], नियुक्ति: [२७५..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२५] (०१) आततरादि श्रीआचारांग सूत्र चूर्णि: ॥२९॥ प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-२५] तरमासज्ज सम्मं ठावति अप्पागं, पाओवगमणमियाणि, तंजहा-अयं वाततरे सिता(३५)अयमिति जो युवति अंततरो अंततरी वा आयतरो, पढिजह आयरे-द्रढग्गाहतरे धम्म मरणधम्मे इंगिणिमरणाओ आयतरे उत्तमतरेजो विवेकं करेति, नणु जो एवं अणुपालते तहेव एत्थवि पन्चज्जा सिक्खावय० जाव संलेहितुं णिवज्जति, सो पुण सधगायनिरोधेवि गातं हत्थषादं जतिथि से परिमट्ठाणट्टियस्स उत्तावितेहिं मुच्छा उप्पज्जति मरणं समुग्धातो वा तहवि ततो ठाणाओ णवि उम्भमे, दमट्ठाण स एव अवगासो, भाषट्ठाणं स एगो मरणभिग्गहो, ईसितमेव उज्जमे, एपस्त पादवेण उवमा कीरति पाओवगमणं, जहा पायवो अच्छिन्नोवि ण चलति, किं छिन्नपातो?, सो उज्झमाणे वा छिण्णमाणे वा विसमपडितो वा मित्तिकाउंण ततो ठाणाओ चलति, अण्णहा ठाणं ण करेइ, एवं एसोऽपि पातववत् पडितो निचलो निष्फंदो चिट्ठति, कत्थ पूण सो चिट्ठति ?-गामे अहवारपणे, कहं पुण गामेति ?, जति जाणइ एस गामो अचिरेण इंहिति, मम असमते घेव पाओवगमणा, ताहे गामे ठाति, इहरा तु सति | परकमे अरण्णे पेव करेति, अचिरं पडिलेहिता अचिरं णाम ठाणं, अहवा अचिरं कालं, कालकतं अविरं, तं पडिलेहित्ता पम- | ज्जेता बिहरे चिट्ठ माहणे विहरेति अच्छति णिसण्णे वा णिवण्णो वा चिट्ठति, उट्ठीयतो अच्छति, काउस्सग्गे ठिओ वा, माह| घोति वा समणेत्ति वा एगहुँ, णिश्चले निप्पडीकम्मो णिक्खिवति जं जहि जहा अंग, अचित्तं तु समासज्ज (३७) अचित्रं अचेयणं किंचि अवटुंभणं जा कुई वा कटुं वा तं आसज समासन, यदुक्तं भवति-प्राप्य, तत्थवि किर कीरति अबढुंमितं पाओ| वगमणं संमं, जो तिवत्य० पाओवगमणं, एतं कतरस्स?, अहवा अयं धंडिलं, सो थंडिल्ले णिसण्णो अबढुंभो वा अविलंवितो वा | | चोसिरे सबसो कार्य सम्येहि पगारेहिं सब्बसो सबसस्था पणामए देहे परीसहाण णामए देहि किंचि परायतं एतं सरीर-10 ॥२९४॥ दीप अनुक्रम २३६२६४] र पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [306] Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [८], नियुक्ति: [२७५..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२५] (०१) सर्व चूर्णिः प्रत वृत्यंक श्रीआचामेते, सव्यहा बोस?, सयं परीसडतीति, सेति देहे, दुक्खाणं भवंति, सो य देहो मम ण विज्जति, कतो परीसहा ?, अहवाण मम || सहनादि संगपत्र-10 देहे परीसहा संतीति सुहृदुक्खसमत्ता, एवं मण्णति पुढवी विव सबसहे पाणु कम्मसत्तुजयसहायकत्ता तो परीसहाणं अपरीसहा एव मन्नति, ते पुग केच्चिरं कालं परीसहा अहियासेइ उवसग्गा, युचंति–जावज्जीव परीसहा (३८) उवसग्गा य, ।।२९५॥ परीसहा दिगिन्छादि उवसग्गा य अणुलोमा पडिलोमा य, इति संखाय एवं संखावां तेण भवति, यदुक्तं-ते न भवति ततो अहियासते, पुण सुद्धते पडुश्च ण संखाया भवंति, अहवा जावज्जीवं एते परीसहा उबसग्गाविण मम तस्सविसंतीति एवं संखाए | अहियासए, अहवा परीसहा एव उवसम्गा ण देहे छिज्जमाणे डज्झमाणे वा इति पण्णे अहियासए इति एवं प्रज्ञावां उपग्यो अहि| यासए-सहेजासि, परिणिद्देसो वा, एवं सो पणो अहियासेति, देहदुक्रवं महाफलंतिकाउं अहियासेति, एवं तं अध तं कोति | विविहेहिं कामभोगेहिं णिमंतिज्ज सद्दातिविसरहिं तप्पडिसेहे इमं सुत्तं आरम्भति-भेउरेसु न रज्जेजा (३९) कामेसु बहु| तरेसु भेउरधम्मा मेउरा सदादिपसु कामेसु, बहुतरा णाम पभूततरा, अलाहि आसत्तमाश्रो कुलवंसाओ, पढिजइ य-कामेसु बहुलेसुवि, यदुक्तं भवति-बहुएसु, जतिवि रायकन्ना गणिया वा चउसटिकलागुणोरवेया उत्सग्गे करेति तंपि सहति, एवं | पडिलोमेवि भेउरे सहति, जह खंदसीसे हिं, किंच-इत्थ (च्छा)लोभ ण सेविज्जा इच्छा चए लोभो, ते पुरिसे, अन्नोऽवि काम इच्छा, पसत्था इच्छा नाणादि, सा तु लोभगहणा अपसत्था इच्छा, णिदाणकरणं, जहा भदत्तादी हिं, तं ण सेविज्जा, ण पत्थेज्जा या अभिलसेज्जा, इहलोगे वा आहारादि, अहवा इहलोगासंसप्पयोगे परलोगासंसप्पयोगे जीवियास सप्पओमे मरणा| संसप्पयोगे कामभोगासंसप्पयोगे, सुहमरूवे उवसग्गे सूयणीया सुहुमा, वण्णो णाम संजमो, सो य मुहमो, थोवेणवि विर- २९५॥ [२२६गाथा १-२५] दीप अनुक्रम [२३६ORUM पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [307] Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [८], नियुक्ति: [२७५.], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२५] (०१) ध्रुवप्रेवादि प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-२५] श्रीआचा-1 रांग सत्र | हिज्जति बालपद्मवत् , सम्ममेहिता समेहिता, पढिज्जइ य-धुवमन्नं समेहिता थिरसंजमं पेहित्ता, सो कहं थिरो?, धुर्व अव्व- चूर्णिः मिचारी, अहवा धुवमन्नं सपेहिया धुवो मोक्खो, सो य आणा, संजमो उ जस्स दोहि ता, किंच-सासतेहिं णिमंतिज्जा ॥२९६॥ | दिवं मातं न सहहे (४०) सासयमिति णितिएहिं, कोयी देवता व समत्थं पडिणीतताए वा, तं मायां, किं एवं किलिस्ससि ? PM अहं ते सासते कामे देमि, जं भणितं-दिव्बे, उढेहि एतं विमाणं, तं च अट्ठाए सकेण देवराइणा पेसिता, सरूवेणमेव सग्गं आर-1 मिज्जासि, अन्नं वा जं इच्छसि तं ते बरं देमि रज्जं धणं वा अक्खयं जीवितं, एतं निमतते तहिं देवे, तं दिवमायं ण सरहे। Bण एतिते जाव तं सव्वं तिविहेण करणेगवि, अहवा दिव्वं आयं ण सहहे, आतं-लाभं आगमणं ण सहहे, एवं देवीवि दिव्वं ।। रूवं विउवित्ता भोगेहिं निमंतिजा साभावितं कइयवियं वा, तं दिव्वमायं ण सदहे, तं पडिमिति तं मायाठाणं पडीबुझे, यदुक्तं भवति जाणिज्जा, समणेति या माहणेत्ति वा सवणूमं विधूणिता धूत्र कंपने, तं मातं विधूणिता, जं भणित-खवित्ता, अहवा| 2 नूमं कम्म, जेण तासु तासु गईसु मिज्जति-निहिज्जति, मातागहिताओ वा रागगहितो, तं विधूना, एवं दोसपि, अहवा तमिति तं दब्ब मुंचति तिविहं, धूमिता विधूमित्ता विमोक्खो य इति । एवं सो सबस्थेहिं अमुच्छितो (४१) अत्था सदादि, ते य । दिव्वा माणुसा य, केइ इच्छंति तिरिक्ख जोणियपि, दिब्बा सामाणीया तायतीसगादी, मणुस्सा चकवहिबलदेववासुदेवमंडलियादि एतेसु कम्मबंधणगेसु अड्डेसु अमुच्छिते-अगिद्धो आयु कालस्स पारतो एतीति आयुं तस्स आयुकालस्स पारं गच्छतीति पारगो सजाय तस्स मम्वविमोक्खो भवति दसविमोक्खो चा. भणिय चा पाओवगमणं, एतेसि तिण्डवि मरणाण किं आलंवर्ण ?, तदन्यते तितिक्वं परमं णचा णाविमो(तिण्हम)प्रणतरं हितं तधिमि तितिक्खगं, यदुक्तं भवति-सहणं तं, एतेसिं तिष्हवि मरणाणं ।।२९६॥ दीप अनुक्रम [२३६२६४ पर पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [308] Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२७५-२८४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२३] (०१) उदशाथा[धिकाराः प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-२३] श्रीआचा- परमं सिद्ध पहाणं भवति, जं भणित-जाणेचा जह विही विमोक्खतीति विमोक्खं, अण्णतरं णाम तिण्डविएतेसि अन्नतरं, अणु- राग सूत्र- पालि अंति इपेयं विमोहायपवणं एगतियं च अचंतियं च हितं सुहं आवकहितं परहितं मेति एवं धु(बु)वामि, तित्थगरोपदेसाओ, चूर्णिः MINण सेच्छाती इति ।। आचारचूपयों सप्तममध्ययनं विमोक्षायतनं नाम परिसमाप्तं ॥ ___अज्झयणामिसंबंधो जहा णिज्जुत्तीए पद मे अज्झयणे बुचो, तंजड़ा-कयरेण इमं सुथर्खधं प्रणीत ? केण वा एते गुणा अणु।।२९७॥ चरिता जे अडसु अज्झयणेसु उत्ता?, तं पुच्च(बुच)ति-बदमाणसामिणा भगवया, एस द्वितकप्पो व सब्बतित्थगराणं जेण भचेराणं नवमे अज्झपणे तवोकम्म वण्णेति जे अप्पणा अणुचिण्णमिति, जं च साहहिं अणुचरियध्वमिति, तत्थ गाहा-जो जइता तिस्थगरो॥२७५।। कंठणं, चत्तारि अणुयोगदारा वण्णेत्ता दुविहो अस्थाहिगारो, अज्झयणे ताब चउहिवि उद्देसरहिं तवोकम्मेहि अहिगारो बदमाणसामिणा य, उद्देसत्याधिमारो इमो-चरिया १ सेजा २ यं परीसहा य ३ आयकिते तिगिच्छाए ४ ॥२७६।। | तत्थ पढभए उद्देसए चरिया वणिजति जहा सा चरियब्वा, बितिए सेजाओ वणिअंति जारिसियासु सो भगवं वसिताइओ, ततिए | उपसग्गा वण्णिअंति, चउत्थे ओमोदरिया, जं च आहारं भगवं आहारियमो, णामणिष्फण्णे उवहाणसुतं, तस्स णिक खेवो-नाम | ठवणुबहाणं० गाहा ।।२८०।। दध्खुवहाणं वइरिच उवहाणं सयणिजस्स एगतो दुहतो वा, निरुवहाणो उत्तभयंति, आदिग्गहणा | उवविद्दुस्सवि, भावोवहाणं चरित्तस्स सेजाए, चाहिन्भतरो तवो, पंचमहत्वयसिजाए घा, जतो य एवं नाणदंसणचरित्त अभिग मणं-अभिगच्छणं, जे भणितं-करणं, तवसा को गुणो १, भण्णति-जह खलु महलं वत्थं० गाहा ।।२८२।। कंठध, तस्स पुण " भावोवहाणस्स इमे एगट्ठा नामधेचा भवंति, जं वा तेणं भायोवहाणेण वुचंति एगद्वियाणि, तंजहा -'उवहणण'गाहा ।।२८३॥ ||२९७॥ दीप अनुक्रम [२६५ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] “आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: नवम-अध्ययनं 'उपधानश्रुत' आरब्धः, [309] Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२७५-२८४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२३] (०१) श्रीवीर दीक्षा प्रत वृत्यंक श्रीआचा-Uएतं किमत्थं वणिजति उपहाणसुयं १, वुणति-'तित्थगरो चउनाणी 'गादा ।।२७७॥ एवं तु समणुचिण्णं. जं अणुचरेदु वीरा सिवं० गाहा ॥२८४॥ जहा य तेण भगवया एतं अणुचिणं एवं अण्णेहिवि अणुचरियममिति अयं संखेवत्थो, सुनाणु-10 चूर्णिः । ॥२९८॥ | गमे सुत्तं उच्चारेयव्यं, अहासुयं वइस्सामि (४२) अञ्जमुईमो जंबुखामि पुच्छंत भणति-अहासुतं यहस्सामि, जहा सुतं अहा| सुतं, जहेति जेण पगारेण, ण अनहा, वइस्सामि, अहं वा जह सुतं तहा वदिस्सामि, जहा से जेण पगारेण सेत्ति णिद्देसे, कस्म । भगवतो समणस्स, कतरस्स?-वर्द्धमानस्वामिनी, अपच्छिमतित्थगरस्स, उड्डाणं उद्याय, तंजहा-पंधं किरदेसित्ता साहणं अडविविणप्पडाणं० सामाइयनिज्जुत्तीगमएणं जहा पजोबसणाकप्पे भणियं जाव आभरण अलंकारं ओमुइत्ता पंचमुट्ठियालोयं | सिद्धाण णमोकार कार्ड सध्यं सावज एग देवदूसमादाय मुंडे भविचा मणपअवे उप्पण्णे इति, एवं अट्ठविहकम्मसन्तुनिग्घायणट्टयाए तित्थपवत्तणाय उद्विते संखाय तंमि हेमंते संखाय परिगणित्ता, यदुक्तं गच्चा, पुवं चेव अमापीतिहिं देवतं गतेहि नंदिबद्धणपभितिण सयणाण अज्झत्थिते गम्भकालपतिण्णा परिसमत्तीय निग्गहीभावो सयणं अणुपत्तति, अफासुपं आहारं राइभर्त चण आहारतो बंभयारी असंजमवावाररहितो ठितो इति, एवं संखाय, पधज्जाकालं च छ उमत्यपरियागं च कम्मक्खयकालं च संखाय संसारे दुक्खं मुहं च एवमादि संखाय, तत्थ हेमंते मग्गसिरबहुल इसमीए पाईणगामिणीए छायाए अहुणा पचतिए रीतित्था, रितित्था णाम विहरित्था, ततो दिवसे मुहुत्सेसे कुमारगाम अणुपत्तो, अयं च उद्देसओ चरियाधिगारेणं जाति, जहा सामियीयनिज्जुनीए छउमस्थचरिया, इहं तु किंचि विसेसं भण्णति, सो भगवा णिगिणो भवित्ता एगदूसं वा से खंबे काउं पच| इतो, तस्स पुण भगवतो एतं आलंषर्ण-नो चेव इमेण बत्थेण पीहेस्सामि तंसि हेमंते, ण पडिसेहे, ण अहं इमेण वत्येण INDRARIES [२२६गाथा १-२३] दीप ॥२९८॥ अनुक्रम [२६५ 21 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: नवम-अध्ययने प्रथम-उद्देशक: 'चर्या आरब्ध: [310] Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२७५-२८४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२३] (०१) देवध्यादि SHRSHDSANIPATRA प्रत श्रीआचा-ID| दिवेण, पिहिस्सामि, न तस्स जहा मम एतं सीतत्ताणं हिरिपडिच्छायणं वा भविस्सति, से पारते आवकहाए स इति सो| रांग सूत्र- भगवं वद्धमाणो, पारं गच्छतीति पारगो, सीतपरीसहाणं वत्थमंतरेणावि, जं पुण तं वत्थं खंधे ठितं धरितं वा तं अणुम्मियं चूर्णिः W तस्स अणु पच्छाभावे अनेहिवि तित्थगरेहिं तहा धरियं तं अणुधम्मियमेव एतं, जं भणित-गताणुगतं, अहवा तित्थगराणं अयं ॥२९ ॥ | अणुकालधम्मो-से वेमि जे य अतीता जे यपडपष्णा जे य आगमिस्सा अरहंता भगवंतोजे य पब्बड्या जे य पब्वयंति जे य पबहस्संति सब्जे सोवहिगो धम्मो देसियवनिकटु तित्थचधाए एसा अणुधम्मियति एग देवसमादाय पबईसु वा पथ्यइंति वा पचह संति वा, भणियं च-गरीयस्त्वात् सचेलस्स, धर्मस्थान्यैः तथागतः। शिभ्यसंप्रत्ययाच्चैव, वखं दधे न लज्जया॥१।। स हि भगवां दिग्वेहिं गोसीसाइएहिं चंदणेहिं चुन्नेहि य वासेहि य पु'फेहि य वासितदेहोऽपि णिक्खमणाभिसेगेण य अमिसिनो विसेसेणं ईदेहि | चंदणादिगंधेहिं वा वासितो, जो तस्स पब्बइयस्सविसओ चत्तारि साधिगे मासे तहावत्थो, ण जाति, आगममग्गसिरा आरद्ध चत्तारि मासा सो दिव्यो गंधो न फिडिओ, जओ से सुरभिगंधेणं भमरा मधुकरा य पाणजातीया बहवो आगमेंति दूराओपि, पुष्फितेवि लोहकंदादिवणसंडे चहत्ता, दिग्वेहिं गंधेहिं आगरिसिता, तत्स देहमागम्म आरुज्झ कायं विंधति, कायो णाम सरीरं, तं आरु-| भित्ता विहरींसु, ततो जतो जतो भट्टारतो जाति ततो ततो विलग्गा चेव केति विहरंति, केई मग्गो गमेंता मग्गओ अण्णेति. जहा पुण किंचिवि ण रोएंति ततो आरुसियाणं तत्व हिंसिंग अञ्चत्थं रुस्सिताणं आरुस्सिताणं, तत्थेति तत्थ सरीरे, हिंसिंसु णहेहि य रस्सयंति, वसन्तकालविरियं किंचि रक्तो व सुमणेहि भवति, ततो विलग्गिउं तं पिचित्ता आरु.सत्ताणं तत्थ हिंसिंसु, | महंगादीवि पाणजातीओ आरुभ कार्य विहरंति, जाव गाते वत्थे या चंदणादीविलेवणाणं चुनादीणं चकेति अवयवोवचितं ताव वृत्यंक [२२६गाथा १-२३] दीप ॥२९९॥ अनुक्रम [२६५21 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [311] Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२७५-२८४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२३] (०१) सबखता श्रीआचा-1 रांग मूत्र ॥३०॥ प्रत वृत्यंक [२२६गाथा ते खाइंसु तेहिं णिति, पण्डा ने ठितम्स वा चंकमतस्य वा आरुठा समाणा कार्य विदिसिम, जे वा अजितं दिया ते गंधे अग्यात | तरुणइना तं गंधमुच्छिता भगवंतं मिक्खायरियाए हिडतं गामाणुगाम दुइज्जंतं अणुगच्छंना अणुलोमं जायंति देहि अम्हवि एतं | गंधजुति, तुसिणीए अच्छमाणे पडिलोमा उवसग्गे करेंति, देहि वा, किं वा पिच्छसित्ति, एवं पडिमाट्ठियंपि उक्सग्गेति, एवं स्थियागोवि तस्स भगवतो गाय अम्बेदमलेहि विरहितं मिस्माससुगंधं व मुई दह्र भणंति-कहिं तुझे वसहि उवेह पुच्छंति जुची, ण से, सो एवं विहरमाणो संवच्छरं साहियं मासं सो हि भगवं तं वत्थं संवच्छरमेग, अहाभावेण स्थितवान् , पण तु रिकमतो साहियं मासेणं साहियं मासं, जं ण रिकासि तं तस्स खंध तेण वत्थेग रिकण आसि, अहवाण णिकासितवान् तं वत्थं | सरीराओ, अहवा णिर इति पडिसेहे तत्थ नं न कासि, वस्थभावो वस्थता, देसीभासाए वा मुनभणितीए वत्थता सब्बतित्थगराणं वा तेन अशेण वा साहिज्जा, भगवता तु तं पपइयमि नेण भाषाओ णिसहूं, तहावि सुवण्णवालुगानदीपूरे अवहिते कंटा लग्गं दहें पुणोषि बुबह वोसिरामि, इमं च अवलोइयं, किमिति ?, बुच्चति-चिरवरियता, सहसा व लज्जता, थंडिले चुतं णवित्ति, विपण केणति दिटुं, मो पक्विता तं दिवं, एवं चरित्ता अचेलए, तनो चागी, अबेलया णाम अवस्थता, तापभिइ नं वोलज | वत्थमणगारो, चरियाधिगारो अणुपत्तड़, अदु पोरिसिं निरियभित्ति (४६) अति सुतमणितीने अह इति वुतं भवति, पुरिमा पिएफष्णा पौरुसी, यदुनं भवति-गरीरप्पमाणा पोरिसी, पुणतो तिरिय पुण मिति, मणिला दिट्ठी, को अत्थो?, पुरतो संकुड़ा अंतो वित्थडा गा तिरियमित्तिसंठिता बुबति, सगइद्धिसंठिता बा, जनिवि ओहिणावा पायति नहावि सीसाणं उद्देसतो तहा करति जेण निरंभति दिदि,ण य णिच कालमेघ ओधीणाणोपोगो अन्थि, चकावुमासत अंतमो झायति पस्सति अनेण चक्खू, १-२३] दीप ॥३०॥ अनुक्रम [२६५21 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [312] Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२२६ गाथा १-२३] दीप अनुक्रम [२६५ PL भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२७५-२८४], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २२६ / गाथा: १ - २३] श्रीआचा संग सूत्र चूर्णिः ||३०१ || चक्खुसा आसज्ज, यदुक्तं भवति पुरओ अंतो मज्झे यातीति पश्यति, तदेव तस्त्र ज्झागं जं रिउपयोगो अणिमिसाए दिडीए बद्धेहिं अच्छीहिं तं एवं बद्धअच्छी जुगंतरणिरिक्खणं दह, अहं चक्खुभीत सहिता ते अह इति अणंतरे, तं चैव रुवाणि भीसणेणक्खिमिव दठ्ठे भीताणि एम रक्खसोति सहितेति समागता बाला अवच्वया, कडलगादिएहिं हंता हता कदाइति अन्नाईपि चेडरूवाणि खोहिंसु एवं एहिति परमह इमं पिसायं इरियाणंतरं सेज्जा भवति तेण सतहिं विमिस्सेहिं (४७) सातिज्ञ्जति जत्थ तं सयणं-उवासओ, वीतिमिस्सं अन्न उत्थियगिहत्थेहिं तत्थ ण ठाति, जति पुण पुत्रडियस्स एति से इत्थिया | पुरिसा जहा पत्तकालगादिसु एकिनाओ वा एज्जा संकेयगदिण्णिता वा तदडीओ वा ताहे ताओ जाणणापरिणाए परिष्णाय जहा एता हुसियाओ 'एता हसंति च रुदंति च अर्थहेतोर्विश्वासति पुरुषं च ण विश्वसंति' किंपाकफलसमाना विषया हि णिषेव्यमानरम गीयाः, एवं जाणणापरिण्णाएं परिण्गाय पञ्चकखाणपरिणाय पचकवाय सागारियं ण सेवेह च सागारिय णाम मेहणं तं ण सेवति, इति एवं संति भगवतो णिदेसो, वेरम्गे पविसित्ता अनाणं मरणं सोचा ज्झाति, ण तो सोतं वा चक्खुं वा समरणं वा देति, अप्पमागारितेवि सई पवेसिता ज्झायति, व्यसागारि यहि सति न भावसागारियं, जं भणितं ण सेवति, सो भगवं विचमेव एगंते सुनागारादिसु द्वाति, अह वाघातो ज्झाणड्डयाए, जड़ पुण से कहवि दीतिमिस्सा वसहि सेजा आसने वावि गत्थाणं तत्थ बारेति, जे केड़ मे अगारत्था (४८) जइ पृथ्बुदिवस, एता गृहस्था, स्थाने पयणादि अस्थि, करिजा | मासिज्ज वा, तत्थ मीस भावं तेसु पहायति, न तेसु मपि संवेति, तेसु रोसो वा समासो अगारे चिट्ठतीति अगारत्थो, इत्थीओ पुरिसा य, ते मिस्सीभावं पजहाय, यदुक्तं भवति-संमिम्सभायं, अन्नउत्थियाणाचे जहा दहजं तरसु दरिद्रप्रसूपगीतणक्ष (ड) उणुरु ऋजूपयोगादि [313] ॥ ३०९ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२७५-२८४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२३] (०१) श्रीआचा- रांग सूत्रचूर्णिः ॥३०२॥ प्रत वृत्यंक [२२६गाथा कादि तदत्थे चहत्ता ज्झाति, यतो किंच-पुढेवि स हि अपुढे वा पुच्छितो अपुच्छितो वा, अह वे भच करेमि वा, तुसीणीओ, अपु- अननुनादि |च्छिऊणं वा जो कोई करेति तंपि नाणुजाणइ, तं अगिण्हता गाणुण्यातमेव भवति, अहवा पुच्छंति-केण हडो? केण हितं, केण द8 ) | केण भग्गं? एवं पुट्ठो, णागज्जुण्णा तु पति-पुट्ठोघ सो अपुट्ठोबा णो अणुण्णाति पावर्ग भगवं, पुट्ठो सो अपुट्ठोवा || | गच्छति मोणेणं, ण तु अतिवचति बा, ज्झाणाश्रो वा, अञ्जवं अञ्जो-रागदोसरहितो, रिजुमग्गं जाति अमायावी, पाथि पडियस्सवि उल्लावं ण देति, पडिलोमे वा उबसग्गे करेंति, तस्स एतं वा णो सुकरमेतमेगेसि न पडीसेहे, सुई कीरति सुकरणं, एतमिति | जानाति आसवो भवति. मंतेहिं पयत्तेणवि दिजमाणो. पादगतेहिदि उपसिञ्जमाणो, जमणियमअब्बाबाईच पुच्छिज्जमाणो, ण|| | एतं तहा दुकरं जहा पडीलोमेहिं उबसग्गेहिं कीरमाणेहिं तुसिणीओ अच्छति, अणुलोमेहिं तु कीरमाणेहिं तुहिको तु एवं सुदुर, अहया सब्वमेव एवं, एगेसिं, न सन्वेसि, दुरणुचर हस्तिसरवत् , जहा परिजयमितो हत्थी संगामे सरप्पहारे िण नियत्तति, एवं भगवंपि, आराहणपडागगहणत्थं, परिसहभिजुद्धं वा, जायते परीसहा उवसग्गा पडीलोमा अणुलोमा य, तत्थ अणुलोमा भणिया, नो सुकरणा एतमेगेसिं, पडीलोमे आह-हतपुवो तत्व दंडेणं छउमथकाले विहरतो पडीमागतो वा हतपुब्बो, तत्थ दंडेणं डंडो, अहवा डंड इव डंडो लीलप्पहारः, जहा इंडेण तहा लेठ्ठणा दूरस्थिण अद्विणा वा मुट्ठिणा वा, फलेति मुडिणा, कसेण जोतेण वा, | एते पहारप्पगारा, एतेहिं चेव पहारपग्गारेहिं लूसियपुब्धो अप्पपुषणेहिं लूसितो, यदुक्तं भवति-भग्गो, अहवा लूसियपुथ्यो | भक्खियपुब्यो, तं पुण दस्सुआयतणेसु, अप्पपुण्णा जाम मंदपुण्णा, जइ भगवंतं वहियवंतो दोग्गइगामिणो, एवं सुधम्मो जंबुणाम | कइयति, तेहिं अप्पपृनेहि लूसियपुच्चो, अण्णाणि य फरुसाणि कारुसियाणि दुतितिक्वाणि पीतिरहिताई पप्फरुसाई कति-G १-२३] दीप ॥३० ॥ अनुक्रम [२६५21 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [314] Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२२६ गाथा १-२३] दीप अनुक्रम [ २६५ २८७ भाग-1 "आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२७५-२८४], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २२६ / गाथा: १ - २३] भीआचा रांग सूत्रचूर्णि: ॥२०३॥ साई, दुतितिक्खाणि तितिक्ख सहणं दुक्खं तितिक्खिति दुतितिक्खाई, अतिच मुणी परकममाणे अतिरतिक्रमणादिषु अतीव एत्य अतिअच्चा, अगणेंतो, तेण च मणे सति तेण चिंतेति, गुणी भणितो, धम्मे तद्देव परकममाणो, परीषदा विषयं वा परकममानो, भणिता पडीलोमा । इदाणि अणुलोमा, आघातणहगीताई आघातं अक्खाणगं, अग्घातितंति वा अतिक्खियंति वा एगट्ठा, लोइयं भारहादि, कुप्पावयणियाणि वा आघाइअंति, कहं ?, पवो लासगो मक्खो बुधति, ण णचंते, सं पुण इत्थी पुरिसो चाणचति, गति ( गीत ) मेव तंतीवंसादि आयोजं, जुद्धं विविहं, संजहा-डंडजुद्वाणि मुट्ठिजुद्वाति, डंडेहिं जुद्धं मल्लाणं जुद्धाणि वा रामियाई एयाई पाएण तेण ताई वारेति एव, गढिते विधूत (मिहुकहासु) समयमि (५१) गढितं यदुक्तं भवति-बद्धं विसयंमि, तहा विद्धं अनेहिं वा, से तंति चोएन्तो अच्छति, भगवं च हिंडमाणो आगतो, सो तं आगतं पेच्छेता भणइ-भगवं देवज्जगा ! इमं ता सुणेहि, अनुगं कलं वा पेच्छाहि, तत्थत्रि मोणेणं चैव गच्छति, णातिवत्तति अंजू, अतियश्च मुणी परकममाणो, एवं कहगस्सवि, मिहोक हासमयोति जे केवि इत्थिकदाति कहति, भक्तकहा देवकहा रायकहा, दोनि जगा वह वा, तहिं गच्छति, जातिवत्तति अंजूं, अहवा रीयंतं अच्छंतं वा पुच्छह-तुम्भं किंजाइत्थिया सुंदरी १, किं बंभणी खत्तियाणी व तिस्सी सुदी व १, एवमादी मिडुकहा, समतो गच्छति, णातिवत्तए पोहइरिसे, अरने अदुढे अणुलोमपडिलोमेसु, विसोगे विगतहरिसे, अदक्खिति दद, एयाणि से उरालाणि एयाणित्ति जहा उद्दिट्ठाई, अणुलोमाणि य उवसग्गाई, उदाराणि उरालियाणि यदुक्तं भवति-उकिडलोमाई, पडिलो माई तेण असुभपगारेण, उरालं गच्छतीति अतिकमति, णायपुत्ते असरणाए अमरणं अर्चितणं अणाढायमागंति एगट्ठा, अहवा सरणं गि, णस्स तं सरणं विजतीति असरणगो, ण य सरणंति अतिकंताणि पृथ्वरयाणीति, किं एत्थवि पराक्रमादि [315] ॥ ३०३ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२७५-२८४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२३] (०१) श्रीआचारांग सूत्रचूर्णिः ॥३०४॥ प्रत वृत्यंक [२२६गाथा तं?, जं भगवं अपरिमितबलबीरियपरकमो पन्धइयो स इंदियदर्म कृतवान् , सो भगवं आघवति जो फासुयाहार एवासी, कह , | तस्स हि अट्ठावीसतिबरिसस्स अम्मापियरो कालगयाई, तेसि मरणे सो समत्तपइन्नो भूतो, जणो ण देइ, तेहिं णातखइ(ति)एहिD हारादि | विचचितु-भगवं! खये खारावसेगं मा कुरु, पच्छा भगवं उबउत्तो, जह अहं संपर्य चेव णिक्खमामि तो एत्थ बहवे सोगेण खित-14 | यथादि भविस्संति, पाणा चइस्संति, एवं ओहिनाणेण णचा भणइ-केचिरं अच्छामि भणह, तेहि भण्णति-अम् परं विहिं संव|चरहिं रायदेविसोगा णासिजति, तेण पडिस्सुतं, ताहे भणइ-तता नवरं अच्छामि जति अप्पच्छंदेण भोयणातिकिरिय करेमि, तेहिं सामस्थिय, अतिसयरूबंपि ता से किंचिकालं पेच्छामो, तं तेसिं भगवया वयणं अब्भुवगर्य, सयं च णिक्खमणकालं णचा, | | अवि समहिते दुवे वासे (५२) अच्छइत्ति, अनतरे जम्हा ते तिब्बसोगे संतत्ता मा भ, मच्चुवसं गता भविस्संति, अह तेसिं |तं अवन्थं णचा साधिते दुवे वासे बसतीति, दुवे वरिसे सीनोदगं भावओ परिचतं न पुण पिबीहामि, जहा सीतोदगं तहा सब्बा| हारं सचिनं अमोबा-अपीचा, अपिइत्ता इति बत्तवे जाणावेति अनंपि सचेषणं अभोगा, ण य फासुतेणविण्हातो, हत्थपादसोदणं | | त, फामुएणं आयमणं, सबसचेतणाहारपरिचागे सति दुपरिहरं उदगमितिकार्ड तेण तस्स गहणं, इतरहा हि सो पंचवि सचेतणे ||" | कार्य परिहितवां तिबिहकरणेणवि, परं णिक्खमणमहामिसेगे अफामुएण हाणितो, जहा पाणाइवाय परिहरियवं तहा मुसावायपि | अदत्तादाण मेहुणं परिग्गहं राईभनाणिवि, ण य बंधवेहिदि अतिणेहं तूता, ततो वुवंति एगत्तिगते पिहितचा एगनिगतो। णाम ण मे कोति गाहमवि कस्सइ, पिहिता अचाओ जस्म स भवति पिहिताः, अच्चा पुनमणिता, सरीरं वा, तं पंचेंदियसमुदितो, मो रागदोसोदयं प्रति पिहितो, कायवायमणगुत्तो वा, भावनाओवि अपमत्थाओ पिही नाओ, रामदोसऽणलाला पिहिता, ॥३०४॥ १-२३] दीप अनुक्रम [२६५21 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [316] Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२७५-२८४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२३] (०१) प्रत वृत्यंक श्रीआचा- से अभिण्णायवंसणे संते स इति सो भगवं छउमत्थकाले ग्वातिते सम्प्रदरिसणे. दरिमणे य सति णियमा नाणं0 दर्शनादि संग मूत्र- | अत्थि, तं च पुन्यगइयस्स भगवतो चउब्धिह, मणपञ्जवनाणे य सति णियमा चरित्र, अतो दरिसणे गहणं तज्जातीयाणं, संतेत्ति ।। चूणिः IN विज्जमाणे, केह ति खोरसमियं सम्मईसणं तस्स आसी, तं च संत, जो एवं भगवं गिहवासे व सीतोदगादि छपि काए ॥३०५|| दोनि साधिए वासे अभोचा णिक्खंतो मो कह निक्खंतो ते आरभिस्सति ?, अत एव वित्धरा बुचति-'पुढवि आउंच(५३) Gठयं, पणतो णाम उल्ली अणंतकायो, सो जीवन प्रति धिभावो अतो तन्गहणं, तेण जो पणगमवि परिहरिदिद सो कई बत्त जातिवृद्धि आहारमरणधम्माणं वणस्यति न परिहरिस्मति?, अतो पणगग्गहणं बीयग्गबणं च, हरियाणि तु वलिंगाणि, वणस्सइ-in भेददरिसणस्थं च पणगादिगहणं, एवं पुद विकायियादि, पुढची मेदो भाणियबो, तसा बेइंदियादि, सनसो पगारेहिं सुहमवादरप-IYA ज्जनगादी व मेदे णचा उजिमना 'एयाणि संति पडिलेहे'(५४)एयाईति मागहामिहाणाण एताई कायाई, संतीति विज्जंति, || यदुक्तं भवति-ण कयाइ विति, कयाइ न विज्जति, आह-'इमा णं मंते ! रयणप्पभा पुढयी सब जीवेदि जपूया सघजीवेडिं जढा ?, गोयमा ! इमा ग रयणप्पट्टा पुढवी सयपुग्वे (जीवे)हिं जहपुब्बा, नो चेव णं सधजीवेहिं जहा, एवं सेमामु वे', अतो संतिग्गराहणं, चित्तमंताणि से अभिण्णाय चित्तमिति जीवस्स अक्खा, चित्तं तेसिं अत्थीति चित्तमता, पुढ चिकाइयादीणिवि कायाई,स। इति तित्थगरो छउमथकाले, अभिमुहं गचा अभिण्यात, यदुक्तं भवति-ण विवरीतं, परिवजियाण विहरित्ता इति संखाय से महावीरे एतं कंठय, अह थावरा नसताए (५५) तसजीवावि थावरत्ताए, यदुक्कं भवति-उववजंति, अदुवा सबजोणिया सत्ता अवत्ति अवसद्दा अबज्ज, सो मुहृदृहउच्चारणत्ता मधासु जोणिसु उत्रवज्जति सबजोणिया, ण तु जहा लोइता ॥३०५।। [२२६गाथा १-२३] दीप अनुक्रम [२६५21 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [317] Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२७५-२८४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२३] (०१) प्रत वृत्यंक श्रीआचाजा इत्थी सा इत्थीमेव, ण यनो, इस्सरो स इस्सरो एव, जो मुणी सो मुणी चेव, चउरासीइ य सयसहस्सविदाणा कम्मे हि | संग सूत्रअभिसित्ता सत्ता कंमणा कप्पिता पुढो वाला कप्पिता, यदुक्तं भवति-उववादिगे, वुत्तं च-छसु अवतरंसि कप्पति, पुढो णाम करवादि चूर्णिः पिहप्पिई, जं भणितं होति-पत्यं पुणो पुणो वा, दोनि आगलिता बाला, ते एवं कम्मेहि कप्पिते, भगवं च एवमण्णासिं ॥३०६॥ (५६) च पूरणे, एवमवधारणे, एवं अनिसित्ता, जं भणितं भवति-अणुचिंतेचा, गिहवासे अबहिनाणेण पनाहए चउहि नाणेहि | 2. अणिसिसा, किमिति निक्खमणकालं, जं भणिता होति-अह सामिवे दुवे यासे जाव कम्मुणा कप्पियत्ति, इमं च अब अणिसेचा | सोवचिते हुलुप्पती पालो दबउवही रबादि. भावे कम्ममेव उचही, सह उबहीणा सोबही, इह परथ य लुप्पति-छिअति । भिजति बहीजति मारिज्जति, इई ताव 'कतिया बच्चति मत्थो ? किं भंड ? कत्थ ? कित्तिया भूमी ?। को कयविकपकालो ? णिब्धिः। सति को ? कहि ? केण? ॥१॥' मणूसा लुप्पंति, चोररायअग्गिमादीहिं आलुप्पति, परत्थ कम्मोवहीमादाय नरगादिएसु लुपति, कम्मग्याओ लुप्पति, मोक्खमुहायो य लुप्पति, अहया इमं अणिसित्ता-जे पवइयावि संता कथं विणावि कारएदि जीविकाइएहि जीविस्मामो ?, मंसादिणिट्ठभोयणेण चा अर्चतेण वा, तेसु उववज्जमाणो, सो य उववज्जमागो बालो, सोयविधिया माइहाणिउ, तंजहा-सयं ण पयामि, अनेहिं पाययामि, एवं सतण छिंदामि छिंदामण्णेहि, एवं लोगरंजणणिमित्तं सोवि, जं भणीतं-त मोहकमोवहिमादाय नरगादिभवेसु लुप्पति पक्कति य, ते पहियबा कारण, जहा णचा सोबहियदोसे य णच्चा, इमं च अभणचा, तंजहा-कम्मं च सबसो णचा कम्मं अट्ठविहं तं सबसो सधपगारेहि पदिसठितिअणुभावतो णचा, जो य जस्स बंधहेऊ कम्मफलविवागं च, पडियाइक्खे पावगं भगवं हिवजुयो पचक्खाति पावर्ग हिंसादि, अणवजो तपोकम्मादि, ण त पच-10॥३०६॥ [२२६गाथा १-२३] दीप अनुक्रम [२६५21 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [318] Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२२६ गाथा १-२३] दीप अनुक्रम [२६५ PL भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२७५-२८४], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २२६ / गाथा: १ - २३] श्रीआचा रंग सूत्र चूणिः ॥३०७॥ क्खति, कम्माहिगारे अणुयत्तमा दुविहं समिच मेहावी (५७) दोनि विहा दुविहं, कीरतीति कम्मं इरियावहियं संपरायं च, अहवा पुनं पार्व च, अहबा इहलोगविवागं परलेोगवित्रागं च, समिच समं णच्चा, मेरा घावी (मेहावी) गहणधारणेवि, सव्यतित्थगरक्खायं अनेलिस-असरिसं अहवा दुविहं अंगारधम्मं अणगारधम्मं च, तहा रागं दोसं च पुत्रं पाव, किरिये अकिरिय च, संजमपुव्यगो तवो, कसिणकम्मकरवय किरिया, तं समेच्च, नाणं अस्म नागी, किंच तं ?, सुतं नाणं सुद्दमत्ता कम्मयोग्गलाणं ण अवधी तस्स, मणोदव्य विसयं च मणपजवनाणं, तेतेण सुतं अधिकतं, अंड्या देसेण नांणी, कम्महिगार एवं अणुयत्तए, जतो वृच्चति आदाणसोयमतिवायसोतं आददाति आदीयते वा तेण इति आदाणं, आदाणस्स सोयं आदाणसोयं, सोतादीणि इंदियाणि सद्दादिअत्थानं आदाणाणि भवति, अतिवादसोत तु हिंसादिपरिग्महत्यं, अहवा आदाणसोयं संपराइयं, अतिपातं दरियावद्दियं, तेण हि अतिपतति संसारातो अतिपावसोतं, अयं तु आरिसो अन्थो, आयाणसोपं नाणादि, अतिपातं हिंसाति, योगो तिविहो, तंजहा- आदाणसोय अतिवातसोयस्स जोगं सम्बद्दा सच्चतो णचा करेति, भन्नति-अतिवत्तियं अणाउहिं अतिवादिजति जेण सो अतिवादी हिंसादि, आउट्टणं करणं, तं अतिवानं गाउट्टति सयं, अण्णेहि अविकरणाएति ण करेति अहिं नाणुमोदति कतं जोगत्रिककरणत्रिकेणं जाय मिच्छादंसणस, केति भगति - जया किर सो बंधूहि पण्णविओ दुवे वरिसे विट्टत्ति तदा फासुआहारो सुपासनंदिवद्धणप्रभृतीदि सुहीहिं भणितो- किं ण ण्दासि १ ण य सीतोदगं पिबसि ?, भूमिए सुवसि पण सचितं आहारं आहारेसि, पुच्छितो पडिभणति आदाणसोनं अतिवातसोतं (५८) तहेव बच्चो, अतिपत्तियं अणाउहिं तव, अह इत्थीओ किं परिहरसित्ति भणितो यदि भगति अस्तित्वीओ परिवणाला अहवा उवदेसगमेव, एवं मूल- 1130911 कर्म हैविध्यादि पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [319] Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२७५-२८४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२३] (०१) प्रत वृत्यंक [२२६गाथा श्रीआचागुणाधिकारी अणुयत्तति-जस्सित्पीओ परिषणाता जतो जेसि वा दुविहाए परिणाए जाणणापरिणाए पचक्खाणपरिणाए। रांग सूत्रय, जाणणाए 'एता हसति च रुदंति च अर्थहेतु' बितियाए पडिसेहेति सव्वं अढविहं कम्म आवहंति एवं पेक्खित्ता, एवं सेसेवि ज्ञादि चूर्णिः अस्सवे, परिहरियं वा जहाय, एतं मूलगुणे परिहरितं वा, तं चेव उत्तरगुणेवि, जेण भण्णति--आहाकडं न से सेवे (५९) ॥३०८॥ जति कोति निमंतिम अअ अम्हंतणए मुंजसु गेहे अहं ते साधयामि भोयणं, तं एवं अहाकडं तमाहाय मणसीकृतं, जोवि अपुच्छिXN | पिउवणखंडे हिंडंतस्स दाहामि तंपि अहाकडं, सबसो कम्मुणा य अदक्खु सव्यस्स इति सवभावेण ण लेमुद्देसेण, किमिति, नणु कम्मुणा कम्मबंधो अदक्खुति, अत एव दृष्टं भवति-जं पावं न सेविअति, जेण आहाकम्मेण भुत्तेण, एवं सर्व अविसोधिकोडि बजेतब्ब, जं किंचि पावगं भगवं जमिति अणुदिट्ठस्स, जं च आहारिमं असणपागखाइमसाइमं वा, पावगमिति असुद्धं विसोधिकोडीए वा, तहा आहाकम्मं च बजेहि सेस उग्गमदोसेहिं उप्पारणदोसेहिं एसणादोसेहि य, तं अकुछ वियर्ड मुंजित्ता अकुव्वं सतं अन्नेहिं पावयं जोवि सो कोई आगताए पेहाए उबक्खडेज आगतस्स दाहामि तंपि नाणुमोदेति, यदुक्तं भवति-न | गेहाति तेण अणुष्णा ण भवति, अहवा पापगमिति मंसमञ्जमादि, तत्थ अकुव्वं ण असति, जं च अण्णं संजोयणादिपमाणइंगा-10 लधूमणिकारणादि आहारअस्सितं पावं तं अकुछ, तहा य चेव सुरुसुरादिपावं अकुछ, विगतनी विगई, एवं पागगमवि चाउ-11 लउण्डोदगसोवीरगादिपगारो, अतिकंतं चायी, जं भणित-भुक्तं वा, भणितं आहारविधाणं, इदाणि उबहिं युबति, सो य दुविहो-IN वत्थं पतं च, जतो बुबति-णो सेवह य परबत्थं (६०) जंतं दिव्वं देवाइ संपवयंतेण गहितं तं साहियं वरिसं खंवेणं चेव ॥ धरितं, णवि पाउयं, तं मुइत्ता सेसं परवत्यं पडिहारितमवि ण धरितं वा, केइ इच्छंति-से बत्थं तस्स रात् , सेसं परवत्थं, जं गाहितं ॥३०८॥ १-२३] दीप अनुक्रम [२६५21 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [320] Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२७५-२८४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२३] (०१) स निधादि रांग सूत्रचूणिः ॥३०९|| प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-२३] णासेवितपि, तहा सपतं तस्स पाणिपत्न, सेस परपतं, तस्थ ण सुजितं, तो केह इकछति-सपनो धम्मो पण्णवेपवृत्ति तेण पढम-II परपात्र| पारणं परपत्ते भुतं, तेण परं पाणिपत्ते, पगारो तहेच, अतिकतं चावि, गोसालेण किर तंतुवायसालाए भणियं-अहं तव भोषणं आणेमि, गिहपने काउं तपि भगवता निच्छितं, उप्पण्णा नाणस्स लोहजो आणेति-धन्नोसोलोधजो खतिवमो०.कि तत्थ || | ताण अडियचं ?, भणियं-'देविंदचकवट्टी मंडलिया ईसरा तलबरा य । अमिगळंति जिणिदं गोयरचरितं ण सो अडति ||2|| छउमत्थकाले अडियं, परिवजिताण ओमाणं सधओ वजिता परिवजिता, ओम माणं करेति, ओमाणं जं जस्स दिजति तं || जणं दिञ्जति, सम्वेहिं दुपदचउप्पदादीहिं आहारकंखीहिं संतेहिं पडिपुनेहिं चरति, आउयखंडणा संखडी, सयट्ठाए परेहिं उबखडितं, जा व णाम संखडी अप्पातिण्णा होजा, भिक्खायरा जत्थ णस्थि तत्थ गच्छति, असरणाएत्तिण ता सरति हिओ होहिति । परसुए होहितित्ति, अहवा पडिवाडी, ण घराणि वा मोतुं गच्छति, जुण्णा. संखडी, अहया संखडित्ति ण उस्सुगभूतो भवतिति, एत्थं मणुन पणीतं बहुयं च लभिस्सामिति ण सरति, अहवा सरणमिति गिह, तं तस्स नत्यि असरणो, जइवि णाम छमासपारणाए संखडीए असंखडीए वा मणु भत्तपाणं परं लभति, नत्थवि मायणे असणपाणस्स (६१) मनं जाणतीति मातण्णो, कस्स?, असणपाणस्स, भणियं च-'जह सगडक्वोवंको कीरति भरवहण' जतिवि भगवओ अणुत्तर ओरालियसरीरलद्विजुत्तो ताण अजिष्णादयो दोसा भवंति, तहावि सो भगवं तनिवारणत्थं सुभज्झाणादिकिरियरथं च मायण्यो असणपाणस्स, नाणुगिद्धे रसेमु अपडिपणे गिहवासेवि ताव भगवं रसेसु अविम्हितो आसि, किमु पब्बजाए ?, रसा तित्तादि, अपडिण्यो ण तस्स | एवं पडिण्णा आमी जहा मते एवं विहा भिक्खा भोजाण वा भोइयचा इति, तत्र अभिग्गहपइण्णा आसी जहा कुम्मासा मए | ॥३०९॥ दीप अनुक्रम [२६५२८७ र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [321] Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२७५-२८४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२३] (०१) प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-२३] श्रीआचा- भोत्तव्या इति, एवं ताव आहारं प्रति, रसपरिचागासितं तबो भणितो । इदाणिं कायकिले सासितं चुचति, तंजहा-अच्छीपि,W भगवतो अणिमिसगाणि चेव, नीलुप्पलपत्नसमाणाई अच्छीणि आसि, बीयअंसुविरहिताणि, तं च 'पद्याक्षः क्षीरगौर:०'आहा-10 कमेवादि चूणिः । सारियं तु, रेणु वा स्यो वा तृणावयवो वा पाणजाती वा परियावजेजा तहा तंण पमञ्जति, न वा पादे धुवति, हत्थे परे लेवाडं भोत्तुं ॥३१ ॥ मणिबंधाओ जाव धोवति, न वा पिपीलियादीहि खञ्जमाणोवि कहूइतबा, भणियं च-'आरम्भ कार्य विहरिंसु, सव्वं गायमवि-IN प्पमुके आसी' चरियाहिगारे एव अणुयत्तए, जतो सुत्तं-अप्पं तिरिय पेहाए (६२) अप्पमिति अभावे, ण गच्छंतो तिरिय पेहितं, ण वा पिटुतो, पच्छा वा अबलोगितं वा, किंतु 'पुरतो जुगमाताए,पेहमाणो महिं चरे'अयं तु आरिसो अत्थो-अप्पं तिरियं | पेहाए, अप्पमिति दुरा न, अतिदूर निरिक्खमाणे आसणो वादोसा, अतिश्रामण्णं ण पस्सति, तिरीयमवि पसंतो तिरियं संपातिमे अकमति, ण एतं भगवतो भवति तहावि आयरियं धम्माणं सिस्साणमितिकार्ड अप्पं तिरियं पेहाए, पटुतोवि नातिदुरे, नातिरं ठिया पिट्ठतो परवलोगिता मंचादि, मा भू अभिघाताओ वते पीला, उपउत्चमणो वा मम्गतो हरितादीणि छिदिज, | अप्पं बुतिए पडिमाणी कयो एहि ? जाहिवा? कतो वा मन्गो एवं पुच्छितो अप्प पडिभणति, अभावे दन्यो अप्पसदो, मोणेण अच्छति, पंधापेही चरे जतमाणो पंथं पेहति पंथापेही, चरे इति गच्छे, जयमाणे दट्टण तसे पाणे अमिकमे पडिकमे, जयं चरेति अतुरिय रियाए चरियादिणिविट्ठदिट्ठी, चरियाहिगारे एव वट्टति, जतो भन्नति-सिसिरंसि अद्भपडिवणे (६३) सिणातीति सिसिरं, सिसिरेवि सो भगवं अद्धाणपडिवन्ने, यदुक्तं भवति-पंथं गच्छति, तं दिव्वं वन्थं वायुउद्धृतं कंटगलग्गं योसिरिआ, बोसिरितुं, ण तस्स घरं विजतीति अणगारो, पसारेतुं वा एक बाई पसारिय, किमिति णाविलंबिताण ॥३१ ॥ दीप अनुक्रम [२६५२८७ पर पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [322] Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२७५-२८४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२३] (०१) प्रत श्रीआचा कंधंसि पाहूहि परकमितवान् , ण कंधे अवलंचितवां, चरियाहिगारे पडिसमाणे णस्थि, इमं भवति-एस विही अणिक्ख-10 आवेशरांग सूत्र-16(णुक)तो (६४) माहणेण मतीमता एस इति जो भणितो आ पचाओ, विहाणं विही, अणु पच्छाभावे, जहाअण्णेहिं तित्थ- नादिशय्या Mगरेहिं कतो तहा तेणावि अणुण्णावो अणुकतो, माहणेण-मा हण इति माहणं, जं भणितं-सवसावजजोगपडिसेहो सवयणिज-11 ॥३११॥ मेतं, समणेत्ति वा, मती जस्स अस्थि स भवति मतिमा तेण मतिमता, अपव्वतितेणावि सता बंधवजयोण सण्णिरुद्धेण जाव छउ८अध्यक मत्थकालो बारसबरसितो अपडिपणे रिपती (वीरेण कासवेण महेसिणा) सरीरसकार प्रति अपडिण्णेण, अदवा 'णो इहलोग याए तब्बमहिहिस्सामि' इति अपडिष्णो, वीरो भणितो, कामगोषण कासवेण महरिसिणा इति, पटिअइ य-बहुसो अपडिपणेण भगवता रीतियंति बेमि बहुसो इति अणेगसो, अपडिण्णो भणितो, भगवता रीयमाणेण रीयत्ताए वा, वेमि जहा | | मए सुतं । उपधानश्रुतस्य प्रथम उद्देशकः समासः। चरियाणतरं सेजा, तस्विभावगो अ दस्सते-चरितासणाई सिजाओ एगतियाओ जाड बुतिताओ। आइक्ख | ताति सपणासणाई जाई जाई सेवित्य महावीरो (६५) एसा पुच्छा, आएसणसभापवासु पणियसालासु | एगता वासो, णवि भगवतो आहारवत् सेजामिग्गहा णियमा आसी, पडिमाभिग्गहकाले तु सिामिग्गहो आसी, जहा एग| राईयाए बहिया गामादीणं ठिओ आसी, सुसाणे अन्नयरे वा ठाणे, अहाभावकमेण जत्धेव तत्थ चउत्थी पोरिसी ओगाढा भवति | तत्थेव अणुनवित्ता ठितवान् , तंजहा-आपसणसभापवासु, आगंतुं विसंति जहियं आवेसणं, जं भणियं-गिहं लोगप्पसिद्धं, जहा | | कुंभारावेसणं लोहारावेसर्ग एवमादि, सभा नाम नगरादीणं मज्झे देसे कीरति, गामे पउरसमागमा य भवंति, सेणिमादीणं तु पलेयं SUPER वृत्यंक [२२६गाथा १-२३] दीप अनुक्रम [२६५ 21 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: नवम-अध्ययने द्वितीय-उद्देशक: 'शय्या' आरब्धः, [323] Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक R], नियुक्ति: [२८४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-१६] (०१) सभादि | स्थानादि प्रत वृत्यंक [२२६गाथा १-१६] श्रीआचा- सभा भवंति, जत्थ रुद्दादिपडिमाओ ठविजंति, पिबिस्संति पेहियादि सा पवा, तंजहा-उदगप्पवा गुलउदगप्पया खंडप्पया सकरांग सूत्र || रप्प वा एवमादि, पणियगिई आवणो पणियसालति, पर्दति सालघराणं विसेसो, सकुहूं घरं कुड्डरहिता साला, जं वा लोगसिद्धं चूर्णिः ॥३१२॥ णाम, जहा सकुडावि हथिसाला बुचति, एगता णाम कताइ, वास इति राईगहिता उडुबद्धे, वासासु अदुवा पलियहाणेसु पलालपंजेसु एगया वासो अदुवेति अण्णतरे पलिय नाम कम्म, यदुक्तं भवति-कम्मतट्ठाणेसु, दम्भकम्मंतादिसु, अहबा पलि| गाति ठाणं, तंजहा-गोसाला, गोबद्धो वा करीसरहितो, ण अज्झावगासं, पलियं तु पलाल, पुंजो संघातो, पलालमंडबस्स हेटासु सिरमाणे पलालपुंजेसु पविसति, एगता कयाइ, आगंतारे आरामागारे (६७) गामरण्णेऽवि एगता बासे गामस्स अंतो | बर्हि वा, आगंतु जत्थ आगारा चिटुंति तं आगंतारं, आरामे आगारं आरामागार, गामेति कताइ गामे कयाइ नगरे, अयं तु विसेसोPAगामे एगर नगरे पंचरतं, एवं उदुबद्धे, वासामु नियमा चत्तारि मासे वासो, गामादीणं पुण कयाई अंतो कयाइ बाहिं अम्भासे सुसाणे सुन्नागारे वा रुक्खमूलेवि एगया वासो सबसयणं सुसाणं सुमाणन्भासे, सुन्न अगारं मुन्नागारं, रुक्खे वा-मूले वा खंधस्स अणम्भासे, जत्थ पुष्फफलाई ण पति, एगतत्ति उडुबद्धे, न तु बस्सासु, सुसाणरुक्खस्स तले वा वसति, सुनागारं वा जं |न गलति, एतेसु मुणि सयणेसु (६८) एतेमुत्ति जाणि एताणि उदिवाणि, अबाणि य एवंविहाई सेलगिहादीणि, मुणेतीति मुणी, सुष्पति जत्थ णं सवर्ण, समणेति स एव वद्धमाणसामी, अहवा तेसु पत्रातनिवातममविसमेसु मोवसग्गनिरुवसग्गेसु वसतिसु समण एवं आसी अतो समणे, जहा दुक्खसिजा आसी तहा तहा भिसतरं समण आसी, बरिस पगतं पत्थियं वा, तेरसमं वरिसं जेसिं बरिसाणं ताणिमाणि पतेरसबरिसाणि छउमथकाले, राइंदियंपि जयमाणे जहा रनिं तहा दिवा, उभयग्रहणमवि सामत्थं | दीप ॥३१२॥ अनुक्रम [२८८2021 पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [324] Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [२], नियुक्ति: २८४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-१६] (०१) in निद्रा श्रीआचारांग सूत्र चूणिः ॥३१॥ प्रत वृत्यंक | तु जहा अण्णणे थाणमोणादीरहि जइत्ता रसिं सारक्वगत्य णिदं भजीते, मो तु भगवं जहा दिवा नहा रतिपि जयमाणेसि मणो | वाकाएहिं एगग्गो अप्पमत्त इति जितिदियो कसायरहितो, कह?, मम एते पमादा ण भविज, ठाणाइएतु अप्पमते ज्झाणे य, बजेनादि | सम्मं आहितो समाहिती धम्म मुके ज्झायति भगवं, सधपमादाणं णिप्पमातो गुरुमाती सोवि जितो, जो य दुञ्जयं तं णिद-। प्पमादं परिहरिततो सो कहं इंदियादिपमादं काहिति ?, जत्थ भण्णति-णिपि णो (६९) पमादे, मिसं कामो पगामे, तं निई | सो ण पगामं सेवितां सेवइ वा भगवं, स एव उबट्ठागति अणि वजागरियन संजमे समुट्ठाणं वा तेणं वा तेण उद्वितो, भदन्त| नागार्जुनीया तु-णिहावि णपगामा आसी तहेब उठाए जतिआसि, तक्खणादेव उद्वियं वा, जग्गवती अप्पाणं पायसो | छउमत्थकाले जग्गबइ भगवा अप्पाणं ज्झाणेण पमादाओ, सरीरसंधारणत्थं वा चिरं जम्गिता ईसिं सम(इ)तासि इत्तरकालं णिमे-| सउम्मेसमेत्तं लवमित्तं वा ईसं सइतयां आसी जहा अट्ठीयग्गामे, निदासुहं प्रति अपडिपणे, यदुक्तं भवति-अणभिलासी, सर्छ । किर छउमस्थकालं निद्दापमादो अंतोमुहत्तं आसी, सो एवं मट्टारओ निदापमादा अणंतरं संजममाणे (७०) पुणरवि सयं संमं वा बुज्झमाणो, ण परेहिं विबोधिञ्जमाणे, बुज्झमाणो एव वुट्ठो, ण पडिसहो, तेण य ज्झायंति, ण णिहापमादं चिरं करति, सो एवं ज्झाणेण निदं जिणिजमाणो जति कदाइ निदाए अभिभूयति ततो निक्षम्म एगता रातो बहिं चंकमिया मुहुत्तागं | णिच्छितं कम्म णिकम्म उवस्सगाओ निक्खंमिओ, एगयादि गिम्हे अतिणिद्दा भवति हेमंते वा जिघांसुरादिसु, ततो पुन्धरसे अबरत्ते वा पुखपडिलेहिय उवासयगतो, तत्थ णिहाविमोयणहेतु मुहुत्तागं चंकमिओ, णिई पविणेत्ता पुणो अंतो पविस्स पडिमागतो झाइयवान् , जेसु गुत्तामुत्तेसु व समगम्स, सयणे सु तत्युवसम्गा (७१) मुप्पति तत्थ तं सपणं, तस्सेति तस्स छउमस्थकाले||॥३१३॥ [२२६गाथा १-१६] दीप अनुक्रम [२८८2021 पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [325] Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [२], नियुक्ति: २८४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-१६] (०१) DAR प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-१६] श्रीआचा चा- अरुहतो, उक्सग्गा दिब्बादि भयंकग भीमा संगमादिपउत्ता, ण एग तेसिं रूवमिति अणेगरूवा, एकेका चउब्धिहा, अहया मनुष्याधुसंग सूत्रचूर्णिः अणुलोमा पडिलोमा य, किंच-उवसम्माहिगारे एव तिरिक्खजोणियमणुस्सउबसग्गदरिसणस्थं पति-संसप्पगाय जे पाणा , पसगादि ॥३१४॥ संसप्पंतीति संसप्पगा-अदिनउलसाणमआरपिपीलियादि खायंति केइ भूमिगता केई कायगता अहवा पक्विणो उपचरंति | पक्खा तेसिं संतीति पक्खिणो, ते तु दंसमसगमक्खियादि, तेवि एगतावि उवचरिंसु, एगता दिवसउ रतिं वा, सोणीयादीहिं भिजमाणोवि ण अवज्झाणं गतवान् , मिसतरं झाणाइगतचेता आसी, अहमणुस्सगा अदु कुयरा उवचरिंसु अदु इति अर्ण-11 | तरे, कुत्थियं चरंतीति कुत्थियधारी, तंजहा-चोरा पारदारिया य, गार्म रक्खंतीति गामरक्खगा, हिंडिता चोरमाहा ते सत्तिकृतहत्थगता त उवचरंति, चोरपारदारिया परिसत्ति अभिवंति आहणंति, तंपि खयं लहुं चेव पउणति, गूढपहारोवि णिगिटुंबंधति, उबसग्गाहिगार एवं तेण चुचति अदु गामिता उवसम्गा इत्थी एगइया पुरिसा य, गामा जाता गामिता, गामो नाम खल-VA जणो, मणोवाकाथिए तिबिहेवि उबसग्गे, बतिमणसा अंतो, तस्स तं रूबंदह्र जहा जातं, पदोसारुहद्दणणेण जणो भयं करेति, अप्प-10 सत्था णं वायाए अकोसंति, कारणं तालंति, इच्छेते तिविहेवि गामिते उवसग्गे सहितातिया, अहया गामधम्मसमुत्था गामिता, ता तु इत्थी एगतरा पूरिसा य, इत्थीओ तं रूवमंतं रति आगंतुं उबसम्गति, गपुंसगा य, कम्मोदया अमिद्रवंति, मणसावि भगHAI तो ण पकुशवंति, अहवा एस अहंतणियाओ इत्थीओ पत्थेमाणो अम्हं अम्भासे वा समुवागतोति पुरिसा तं चाहणंति णिच्छु भंति पिटुंति वा, ते एते सम्वेहिंवि उवसम्गा तिविहा, तंजहा-इहलोइया परलोइया उभयलोइया य, ते य सम्वे सहियव्या, अतो भणिअति-इहलोइयाई परलोइयाई (७३) तत्थ इहलोइयाई माणुस्सग्गा, पारलोइया सेसा, अहवा इदलोइया इहलोगदुक्ख IM दीप अनुक्रम [२८८ Ka पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [326] Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [२], नियुक्ति: २८४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-१६] (०१) PAGE प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-१६] श्रीआचा 10 उप्पायगा पहारअकोसदंसमसगादिया, यदुक्तं भवति-पडिलोमा, परलोइया परलोकदुक्खुपायमा, यदुक्तं भवति-अणुलोमा, केहD लेखलौकिराम सूत्र- उभयलोइया, तंजहा-अस्सगतो पुरिसो अतिणेति, तहा अणुलोमे परलोमे य करेंति जहा अभयमुदरिसणस्म, भीमाई अणे- कोपसर्गादि चूर्णिः गरूवाई भीमा पुष्वभणिया, अणेगरूवाइ व भणिया, उबसम्माहिमारे एव अणुलोमा पढिलोमा य, जेण वुश्चति-अवि मुभि -IN दुन्भिगंधाई अवि पदार्थसंभावणे, सुरमिग्गहणा अणुलोमन्महणं, दुब्भिगद्दणा पडिलोमा, पडिगहणा अणुपडिलोमग्गहणं सुरमिगंधपुष्पमल्ल देवा पूएंता, मणुस्मा य तेहिं सुरभिएहिं, दुरमिगंधेहि पाणभोयणेहि, चमरादिअस्सिता, दुरभिगंधा मासा गेया, | पडिमाए द्वियस्स अस्मादा गंधा आसी, जत्थ गंधो तत्थ रसोवि, जहा गंधाई तहा सदाईपि अणेगरूयाईपि, अणेगरूवाईपि अणुलोमपडिलोमाई, अणुलोमा थुदवंदणापूयाअचणाई, णिभत्थगाति पडिलोमा, अहियासए सपासमाहिए (७४) फासाइंपि विरुवरूवाई अहियासितवां, अहियासए सयत-णिचं, जहा एगदिवसंतहा अद्धतेरसवासे पक्खाधिने नाणादिरहि, पढिजह | य-समिते सम्म इतो समितो वासीचंदणकप्पो समभावे दिनो, जह गंधरससहाई तहा फासाइंपि, विरूवरूपाइपि सुहासुहफासाई अवृत्तमवि पचति, एवं रूपाणिवि, अहवा अणेगरूबाइंति रूवग्गहणमेव कयं भवति, परिजइय-अहियासए समाहिते इति मंता भगवं अणगारे इति पदरिसणे, तंजहा-ते व सुम्भिसदा पोग्गला दुभिसद्दयाए परिणमंति, अहवा इमं मंता-कम्म| निजरा भवति अहियासेतस्स, इहरहा कम्मबंधो, ण तस्स अगार विजतीति अणगारो, किंच-सब्वेहिं विसरहिं अणुलोमपडिलो मेहि अरती समुप्पजति, संजमरती ण भवति, अरर्ति रतिं च अभिभूता जा संजमे अरती उप्पअति पडिलोमेहिं उवसग्गेहि, | विणा वा उपसग्गेडिं, असंजमे वा रती सद्दातिविसए पप्प पुधरतअणुस्सरणाओवा, ते अभिभूत सज्ज्ञाणेणेव रीयति माहणेति ॥३१५॥ दीप अनुक्रम [२८८ Ka पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [327] Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२८४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-१६] (०१) चर्णिः प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-१६] श्रीश्राचा बहुचायी रीयति गामाणुगाम, माहणो पुव्यवणितो, न तम्स बहुवयो, यदुक्तं भवति-मोणेण, अहवा जायणि अणुण्णवणिं च | रांग सूत्र मोतुं पुट्ठस्स बागरणं च, जहा सादिदत्तातपुच्छा, सेर्स मोणं, किंच-स एवं गुत्तो सुसयणेहिं तत्थ पुछिसु (७५) एगचरावि एगदा राओ एगा चरंति एगचग उम्भामिया, उम्भामगपुच्छत्ति, एस्थ को आगो आसी मणुस्सो पुरिसो वा ? इथि। ॥३१६॥ पुच्छति, अहवा दोषि णं, जणाइआगमं पुच्छंति-अस्थि एत्थ कोयी देवाओ कप्पडिओ वा ?, तुसिणीओ अच्छा, दटुं चा | भणंति-को तुम?, तत्थवि मोणं अच्छति, ण तेसि उम्भामइल्लाण वायपि देति, पच्छा ते अचाहिते कम्मइ, एत्थ पुच्छिजंतोवि | वायं ण देइत्तिकाऊणं रुस्संति पिटुंति य, उम्भामिया य उभामगं सो ण साहतिनिकाउं, किं आगतो आसि?णागतोत्ति, अपा हिते कसाइय भण्णति-अक्खाहि धम्मे, अहवा हंसपरिणो विसयसमासनिरोही णिवणमुहममाणेहिं वा पेहमाणो विसयसंगAN दोसे अ पेहमाणो, इह परन्थ य अपडिने, तंजहा-णो इहलोगट्टयाए तवं अणुचिट्ठिस्सामि, विसय सुहेसु य अपडिनो, सब प्पमादेसु वा, एगतरपुच्छा गता, सुत्ता रागादिसु, इदाथि केह भणति-प्रभू, पच्छा जेण से दिट्ठी पविसंती, पुने वा मातरि वा, जेण भण्णति-अयमंतरंसि को पत्थं के भणंति !, ते चेव एगचरा आगंतुं दट्टणं भणंति-अयमंतरीस, अयं अस्मिन् अंतरे | | अम्हसंतगे को एत्थं, एवं वुत्तेहिं अहं भिकात्ति एवं बुत्तेवि रुमति, केण तव दिवं? किंवा तुम अम्ह विहारट्ठाणे चिट्ठसि ? | अकोसेहिति वा, कम्मारगस्स वा ठाओ सामिएण दिनो होजा, पच्छा रन्नो भण्णति-को एस, सामी द्वितो, तुसिणीओ चिट्ठति, तत्थ गिहत्थे ममत्तं, कमाइने संका य, ने सकमाइते णातुं ज्झाति मेव ण भवति, पदमं दाऊणं एत्ताहे रुस्सह, असंकिते चेव ज्झाति, | जंसि एगे पवेदेति सिसिरे मामले पवायते जा गिम्हकाले एते अतिथिया मिहत्था वा णिवेदेति, सिसिरं सिसिरे वा| दीप ॥३१६॥ अनुक्रम [२८८ Ka पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [328] Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [२], नियुक्ति: २८४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-१६] (०१) भावः प्रत वृत्यंक श्रीआचा मासाओ. पचायति भिसं वायति, तपि एगा अण्ण तिथिया वमहीओ निवाता करेंति. पाउरणाई फंफगाई. उफ आहारयं, चण्णं नियातायः संग मत्र-1। एत्थं झुंजंति, जतिवि कुंचियायिजो(छिद्दे)ण सीतं एति तेणेति भणति-दुक्खाविओ, जेवि पासावधिज्जा तेविण संजमे रमंति, चूर्णिः | संघाडीओ (७८) वस्थाणि कंबलगादि पहिरिस्सामो पाउणिस्सामो, समिहातो कट्ठाई, ताई समाङहमाणा गिहत्थअण्णउत्थिया, ॥३१७॥ एवं सीतपडिगारं करेमाणो तहावि दुक्खं सीतं अहियासेइ, पिहिता पाउया वा पस्सामो अतिव दुक्खं हिममयं पएसं (७९) तहिं काले ८ उप० । | भावेंति अपडिपणे बसहि पडुच्च ण मए णिवाता वही पत्थेयव्या, अहिगदाएवि अहियासेति, दविते पुन्वभणिते, अह अश्वत्थं ३ उद्देशः सीतं ताहे णिक्वंम गगता राओ बसहीओ रातो-राईए मुहत्तं अच्छित्ता पुणो पविसति रासमदिटुंतेणं, पृणो य वसतिं च ।। | एति, स हि भगवं समियाए सम्ममणगारे, न भयट्ठाए वा सहति, एस विही अणुकतो (८०) स इति जो भणितो, विहाणं विही, अणु पच्छाभावे, जहा अन्नतित्थगरेहिं कतो तेणावि अणुकतो, पूर्ववतु एतस्स सिलोगस्स बक्खाणं कायब्ध, पढमुद्देमए इति ।। 1| उपधानश्रुतस्य द्वितीय उद्देशकः परिसमाप्तः । उद्देसामिसंबंधो भणितो, चरिता पदमुसिए, अज्झयणे तस्स तया, वितिए सेनाविहाण भण्णति. णिसीहियाहिगारो संपयं. | सो जहा सामायियणिज्जुत्तीए भगवं अच्छारियदृष्टान्तं मणमा परिकप्पेऊणं लाढाविसयं पविट्ठो, एन्थेव निसीहियापरीसहो | अधिकतो. तत्थ निसीयणं णिसिजा, यदक्तं भवति-निसीहियासु बसतो उबसग्गा आसी, तंजा-तणफास सीयफासं तेउफासे य दंसमसए य (८१) तरतीति तरणं, तत्थ पहुंजयमादी तणा लगंडसीतफासेण ठितं विधति, णिसन वा कडगकिसासरदन्मादि, सीतं पुण पब्वयाइन्नदेसे अतीव पडति, तेउत्ति उण्हंति, आतावणभूमी व हालदामाए अग्गिमेव आसी, उल्लु [२२६गाथा १-१६] दीप 11३१७॥ अनुक्रम [२८८ 2021 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] “आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: नवम-अध्ययने तृतीय-उद्देशक: परीषह' आरब्धः, [329] Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [३], नियुक्ति: २८४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-१४] (०१) श्रीआचा- एण वा कोइ, दंसमसगा य जलोयाओ एवमादि उबसग्गे अहियासए, सया समिते सया नाम निचकालं, फुसंतीति फासा दशाब रांग सूत्र-IN D| विरूवरूवाइंति एपाणि य अन्नाणि य अणुलोमाणि पडिलोमाणि य, अवि दुचरलाढमचारी (८२) अवि इति अर्णतरे. उप-ID प्यासन ॥३१८॥ सग्गबहुचा दुकरं परिजतीति दुचरं, लाढ इति जाणवतो, सो दुविहो-वजा भोम्मा य, सो तेसु भगवं ताव तेसु पन्तं सेज। सेवित्था, आसणाईपि चेव पंताणि, पंताओ णाम सुन्नागारादीओ, सडियपडियभग्गलग्गाओ, आसणाणि पंताणि पंसुकरीससकरालीगादीउबचित्राणि, कट्ठासणा वा णिञ्चलाणि फलहपट्टयादीहि, एरिसेसु सयणासणेसु वसमाणस्स लाढेसु (८३) वे | उबसग्गा बहवे जाणवता आर्गम लाढा, त एव दुविहा वजं सुझ० उपसग्मा चहवे पडिलोमा य अकोसवहादि, जाणवताउव. सग्गा जणवते भवा जाणपदा, यदुक्तं भवति-अणगरजगवो पार्य सो विसओ, ण तत्थ नगरादीणि संति, लूमगेहिं सो कट्ट| मुट्ठिप्पहारादीएहि अणेगेहि य लूसंति, एगे आहु-दंतेहिं खायंतेत्ति, किंच-अहा लूहदेसिए भने, तद्देसे पाएण रुक्खाहारा तैल घृतविवर्जिता रूक्षा, भक्तदेस इति बत्तव्वे बंधाणुलोमओ उपकमकरणं, गेह गोवांगरससीरहिणि, रूक्षं गोवालहलवाहादीणं सीतकरो, |आमतेऊणं अंबिलेण अलोणेण एए दिअंति माण्हे लुक्खएहि, माससहाएहि तं पिणाति प्रकाम, ण तत्थ तिला संति, ण गावीतो ||" बहुगीतो, कप्पासो वा, तणपाउरणातो ते, परुक्खाहारत्ता अतीव कोहणा, रुस्सिता अकोसादी य उबसग्गे फरेंति, कुक्करा तस्थ |हिंसिसु णिवतिसु सस्थ बहवे कुकुरादी हिंसंतीति हिसिसु णिवतिति सचओ तं निविसयंति, भट्टारगस्स थ नत्थि दंडउत्ति जेण ते पुण पवारेहिति, ते एवं णिब्भया भुक्खिया णिवतंता अपि अग्रणे निवारेंति (८४) जति सहसा सो कोति एगो निवारेति | लूमणगा, जं मणितं होति-भक्खणगा, भसंतीति भसमाणा, जेवि नाम ण क्खायति तेवि ते तुकारेंति आहंसु आइंसुचि || | ॥३१॥ प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-१४] NA दीप अनुक्रम [३०४ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [330] Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२२६ गाथा १-१४] दीप अनुक्रम [ ३०४ भाग-1 "आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [३], निर्युक्तिः [ २८४...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २२६ / गाथा: १-१४] श्रीआचा रांग सूत्र चूर्णिः ॥३१९॥ आहणेत्ताकेति चोरं चारिति च मण्णमाणा, केई पदेसणेण, एवं तत्थ छम्मासे अच्छितो भगवं, एलिक्वए जणे भुलो (८५) एलिक्खचि परिसर, ओत्ति पुणो, ताई चैव भूयं ठाणाणि विहरयं तो यहवे वज्झ भूमि फरुसासि बहवेति पायसो ते फरुमा फरुसं आसंति फरुसासिणो, फरुसासित्तातो य फरुमा एव, फरुसा वा आसी अतिकंतकाले, लट्ठीं गहाय नालीयं दंड लट्ठि च गहाय, दंडो सरीरप्यमाणा ऊणो लट्ठी सरीरप्पमाणा, दूरतर एवायरति, नालिया चउरंगुलअतिरित्ता, एगे चउरंगुलादि, विहरियं तो बहवे वज्झमुन्मे भिक्खं हिंडिं, ते एवं लडिहत्था एमावि एवंपि तत्थ विहरतो (८६ ) पुडुपुत्रा य अहेसि सुणतेहिं, एवमवधारणे, एवमवियप्पं तेण विधरंता पुट्टपुथ्या भक्खितपुत्र्या बहवे समणमाहणा संलुंचमाणा सुणएहिं सच्चे लंबंति, सं चमाणेसु देसेसु संतुंचमाणसुणगा, दुक्खं चरिअंति दुश्चरमाणि कामादीणि वकसेस, निधाय डंडं पाहि (८७) णिधायेति णिक्खिप्प, डंडं ण भणति सुणए वारेहि, उपाएण डवति, मणसावि ते णावखंति, सो एवं विहरमाणो अवि गामकंटए भगवं गामकंटगा सोतादिइंदियगामकंटगा, जं भणितं होति चउन्दिहा उवसग्गा, लाटेसु पुण माणुपतिरिच्छिएसु अहिगारो, तेरिया सुणगादयो माणुस्सगाव ते अणारिया पायं आहणंति, अमिस मेश्वचि तं लाढविमयं यदुक्तं भवति प्राप्य, अहवा ते चेव उव सग्गे प्राप्य, कहं सहियव्वा ?, णाओ संगामती सेवा (८८) ण तस्स किंचिवि अग्गमिति णागो, संगामसीसं, जं भणितं होति अग्गाणीयं, सो हि अग्गतो ठितो दूरत्थेहिं चैव उसुमादीहिं विज्झति, समीवत्थेहि य असिमादीहि य, सो य कृतयोगचा तद द्दण्णमाणोऽविण सीतति, पारमेव गच्छति, पारं नाम परेसिं जतो, एवं भगवयाऽवि परीसहसतू पराजिता, एवंपि तत्थ विहरतो एवं अवधारणे बोस कार्ड विहरंतओ, यदुक्तं भवति-अणवरज्झमाणो, एगया कदायि गामि पविद्वेण निवासो व लद्ध परुषादिसदनं [331] ॥३१९॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [३], नियुक्ति: २८४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-१४] (०१) वसत्य रांग सत्र लामादि श्रीआचा- चूर्णिः ॥३२०॥ प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-१४] पुचो, जेण उपस्सतो पण लद्धो तेण गामो ण लदो चेव भपति, कत्थति पुण उवसंकमंति पतिष्णं मिक्खढाए सहीणिमित्तं वा | उवसंकमंतं (८९) जं भणेज-गाममभिगच्छंतति, अपडिण्णो णाम पए पए परीसहउवसम्गाणं उदिण्णाणं ण पडिक्खिया कायब्वा, कारणेण गाममणियंतियं गामम्भासते लाढा पडिनिक्खमेतु लूसेंति, णग्गा तुमं किं अम्हं गाम पविससि , लूसितित्ति पितॄति, एतो परं पलेहेति-एचो चेव परेण लेहेन्ति, भसणस्स च्छज्झाहित्ति पावं निकटते, जं लादा तारिसेण स्वेण तजंति, बुबंति ते तु चिरु विघायण, तारिसे रूबे रजंति, सरिसासरिसु रमंति, तत्थ अन्नत्य वाहियपुबो, तत्थ दंडेण अदुवा अट्टिणा अदु 0 कुंतफलेणं (९०) दंडो मुट्टी कटु, फलमिति चवेडा, अध लेलुणा लेलू नाम लेट्ठगो, कवालं णाम कप्पर, उढिकवाल वा, हंत ।। | हंतत्ति हणेत्ता अण्णित्ता बईते, अन्ने कंदंति. जं भणितंबाहरंति, अन्नेहिं पुण मंसाणि छिन्नपुवाणि (९१) केयि थूभातेणं । | उट्ठभंति थुकरिति य, परीसहाणि लुचिमु अदुवा पंसुणा अवकिरिंसु पंसुणाइ कयाइ व करेंसु, धूलिए वा छारेण वा | भरेंति, नहावि भगवंतो अच्छीवि ण णिमल्लिति, एगे तु उच्चालइत्ता णिहणिसु (९२) केइ आसणातो खलयंति आयावणभूमीतो पा, जत्थ वा अनन्य ठिओ णिसणो वा, केति पुग एवं वेवमाणो हणेना आसणातो वा खलित्ता पच्छा पाएसु पडितुं || खमिन्ति, केरिसो य भगवं, बोसहकाए पणतासी उवसग्गेहिं अहियासे पणतो आसी, दुक्खाणि सारीराणि सीतउसिणमादीणि ताणि सहति, अपडिण्णो वुत्तो, सूरो संगामसीसे.वा (९३) संगामअग्गं परेहिं समादीएहिं विज्झमाणोविण णियत्तति एवं सो भगवं, राग दोसं या ण करेति, एवंपि बहुहिं उबसग्गेहिं कीरमाणेहि तत्थ लाटेसु य तवे उबसम्गे वा सहमाणो रागदोसरहिते तेरसमे परिसे पतेलिसे, पति पति सेवमाणो, जं भणितं भवति-सहमाणो, फरसाई-ककसाई ओरालाई अचलनि परीसहो ॥३२० दीप अनुक्रम [३०४ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [332] Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [४], नियुक्ति: २८४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-१६] (०१) श्रीबाचा संग सूत्र चूणिः । ॥३२॥ ९उप० ४ उद्देशः प्रत वृत्यक [२२६गाथा दएबि ज्झाणाओ ण चलति, रीयं-चामिति । एस विही अणोकतो माहणेण मतीमता (९४) इति तृतीयः॥ चिकित्सा उद्देसामिसंबंधो से जासु एमणादीसु य निसीहियाठाणेसु केह नस्स गेगा उप्पन्नपुवा, तेसिंवा उदिनाणं अणुदिनाणं काति चिगिच्छा न कयपुब्धा, भणंति ण च तस्स रोगा उपजंति, जति णाम उप्पजेज तोषि ण करेति किरियं, जारिसा पुण | अडविहकम्मरोगतिगिच्छा तेण कया भगवता सा तिहिं उद्देमपहिं भणिया, इहंपि चउत्थउद्देशए तबसंजमतिमिच्छा, अखिलेसु उद्देसएमु अवि सीतदंसमसगकोसतालनादि, सके परीसहा सोलु, दुक्खं तु ओमोदरिया, कहमिति , अतो ओमोदरियं चाएति (९५)सा य दुविहा-दब्वे भावे य, दब्बे ताव उवगरणं प्रति ओमोदरियं अचेलता, आहारेवि अप्पाहारे आसी, ण अतिपमाणभोई0 'बत्तीसं किर कवला' एनो एकेणवि घासेणं ऊगगं, भावे परिताविञ्जमाणोविण रुसति, भणियं च-णो सुकरणं मोनमेगेसि, चाएतिति अहियासेति, इह पायसो दब्बओमोदरिया, जण बुञ्चति-अपुढेऽवि भगवं रोगेहिं वातातिएहिं रोगेहिं अपुट्ठोवि | ओमोदरियं कृतवान् , लोगो तु जतो पुट्ठो रोगेहि भवति ततो पडिकारणनिमित्तं ओम करेति, भगवं पुण अपुट्ठो वातादीएहिं ओमोदरियं चाएति, सुभुजंग वा जहा आहारति, आह-किमितमेगंतो रोगेहिं ण सो फुसि अति, भण्णति-धातुक्खोभितेहिं ण फुसिन्नति, जइ कोवा कटं सलागं पवेसए तहा, तह(हत)पुन्चो दंडेणं, अतो वुञ्चति-पुढे व से अपुढे वा पुढे वा, पुढे तेहिं । आगंतुएहि णो सतं स करेति, जोवि अण्णो करेति तपि ण च करेतुति साइजा, अतो णीणि अंति, एवं लाए कडगसलागाए मणसावि भगवता ण सातिजिता, सा पुण तिगिच्छा तंजहा-संसोधणं च वमणं च (९६) संसोधणं विरेयणं, वमणं | |वमणमेव, गायम्भंगणं मक्खणं, सिणाणं देसे तात्र हत्थपायधोवणं, दगपडिगतो वा किंचि सिंचति, सव्वे सब्वगायअमिसेयणं, आता- 10||३२१॥ १-१६] दीप अनुक्रम [३०४ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: नवम-अध्ययने चतुर्थ-उद्देशक: 'आतंकित' आरब्धः, [333] Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [४], नियुक्ति: २८४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-१६] (०१) चूर्णिः प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-१६] श्रीआचा-IVवणपरिस्संतो सोयि संबाधणं ण सेविआ, ण च सतं संवाहेति, ण च अण्णेण संवाधावेति, एवं दंतवणपि दंतवणेण अंगुलिए वासवाहनादि उदएण वा परिणाय जाणितु ण करेति । एवं ताव सरीरतिगिच्छंण करेति सउ गायपरकमविमुको, मोहतिगिच्छावि विरते वर्जन |गामधम्मेसु (९७) गामा इंदियगामा, धम्मा सदाति, एहिंतो विरतो रीयति माहणे अबहुवाई रिपति, माहणो पुब्ब॥३२२॥ | मणितो, अपहुवायमाणो ण बहुबाई, सिसिरंमि एगता भगवं सीतकाले एगता कदावि छायाए झाति आसीत छायाए IN ण आत गच्छति, तस्थेव झातियासिचि, अतिपतकाले हेमंते अतिकते आयावयंति गिम्हासु (९८) उकुडयासणेण अभिमुहवाते उण्हे रुक्खे य वार्यते, एवं ताव कायकिलेसो, रसच्चागो तु अदु जाब एत्थ लूहेणं अदु इति अहिजावइतवा जीवितं अद्धाणं वा, अपाणं वा जावइतवान् , भावलूहे अरागतं, दवरुक्खं ओदणं विरहितं, मंथु इति मंधुसत्तुया णम्मोहमथुमादी वा | भुजितएहि तएहिं, कुम्मासा कुम्मासा एव, सम्बत्थ रुक्खसहो अणुयत्तति-एयाई तिण्णि पडिसेवे(९९)अट्ठ मासे य जावते । भगवं एतेहिं ओदणमंथुकुम्मासेहि, अट्ठमासेत्ति उडुबद्धिते अट्ठ मासे, वासासु णवरि आदिल्लेसु तिसु, गुत्तीसु, अद्धमासं मासं |दोमासं च कितक, वासारते णेच चेव सुनो अपिपत्थ एगता भगवं जो पाणगं ण पियति सो पादेण आहार ण आहारेति, एवं | |च सव्वं च तवोकम्म अप्पाणगं, अवि साधिते दुवे मासे(१००)जाब छम्मासे रीयितवान् रीयित्था, एवं परिग्महित उराल |तयोकम्म रातोवरातं अपडिपणे पुब्बरते अबरते य, दो पढमजामा पुख्यरतं, पच्छिमरत्तं पच्छिमा दो, तेसु जग्गति, अहवा|N रति उपरति रातोवरात-राती जाच सा उवरता, अपडिण्णो भणति अण्णगिलाए एगता भुंजे (१०१) अहवा अट्टमेण दसमेण दुवालसेण एगता भुंजे एतं कंठ, पेहमाणे समाही अपडिपणे समाधिमिति तवसमाधी णेवाणं समाहीतं |॥३२२॥ दीप अनुक्रम [३१८ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [334] Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [४], नियुक्ति: २८४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-१६] (०१) आधाकर्मवर्जनादि ॥३२३॥ प्रत वृत्यक [२२६गाथा | पेहमाणे, यदुक्तं पस्समाणो, आहारं पहुंच अपडिण्यो, णचा णं स महावीरे (१०२) णोवि य पावगं सयमकासी अक-10 |प्पियस्स आहारस्स दोसं णथा, 'आहाकम्मं गं भंते ! भुंजमाणो किं बंधेति !, गोयमा! अट्ठ कम्म०'सतं पावमकासी-ण कारि| तवान् अण्णेहिं केण कारित्या? कीरमाणपि नाणुमोतित्था कंठ, गामं पविस्स नगरं वा घासमेतं कई परवाए घासं-आहार 'अत् भक्खणे' परवाएत्ति अण्णसिं अट्ठाए सुविसुद्धं एसिया भगवं आपतजोगजाए गवेसिस्था सम्बउग्गमादिदासमुद्ध आयतण जागेण-तिविहेणावि सपनाणगवेसणाए सेसेहि य केवलबजेलिनाणेटिं, अद् वायसा दिगिछित्ता (१०४) जे अण्णे रसेसिणो सत्ता घासेसणाए चिट्ठते संधरे णिवतिते य पेहाए अह इति अर्णतरे, दिगिंछा छुहा, ताए अंता तिसिया वा जे अण्णे रसेसिणो काया पारवयचिट्टियादि, घासं एसंतीति घासेमणा ताए चिट्ठति-संचिटुं सततं संणिवेतया, ते मा उद्वेहिति ततो परिहरति, एवं गोणादिएवि, घरं धरेण हिंडंति, तेसि चारी दिअति करो य, एवं ताव तिरिक्खजो| णिए परिहरति घासेसणाए उछितो, इदाणिं मणुस्से अह माहणं च समणं वा (१०५) गामपिंडोलगं च अतिहिं वा माहणा मरुयादि, समणे पंच, पिंडेसु दिञ्जमाणेसु उल्लंतीति पिंडोलगा, जं भणितं-दमगा, गंडगा वा, केति भणंति-अतिहि आगंतुया, सोवागमूसियारिं वा कुछई चिट्टितं पुरुतो सोवागो साणं पचंतीति सोवागा-डोंबादि, मूसगारी मजारो, कुक्कुर्ड वा, उछितो पुरुतो, साणं वा विगप्पन्नतरं तेसिं वित्तिं अछेदेजें तो (१०६) तेसिमपत्तियं परिहरंतो, वित्तिच्छेतो जं तेसिं दायब्बं तं मा मम देहित्ति, तत्थागच्छता वित्तिच्छेदो परिहरितो भवति, अप्पत्तियं भवति जायंतस्स वा देंतस्स वा, मंदपरकमे भगवं अविहिंसमाणो घासमेसित्था मदं णाम अतुरियं घासं एसितवान् , जता पारेति तया तं जहावलद्धं भुजेति १-१६] SIDE ॥३२३॥ दीप अनुक्रम [३१८ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [335] Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [४], नियुक्ति: २८४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-१६] (०१) प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-१६] NI-IVअपि सचितं च सुकं वा सीयपिंड पुराणकुंमासं (१८७) सूचितं णाम कुसणितं, असूचितं भुतंति, पिंडो नाम सीत-IV पुराणकगंग सत्र-IN चूर्णिः 10 करो, पुराणकुम्मासोवि पज्जुसियकुम्मासो, अदु बुक्कसं पुलागं वा लद्धे पिंडे अलद्धे दविए पदे चैतो एकारो, पुराण मास ॥३२४॥ MO| धर्णाकुरु पुराणतणुसतुगा वा फरुसा बा, पुराणगोधूममंडगो वा, पुलागं णाम अवयवो णिप्फावादि, लद्धेपि पजत्ने दवितो-ण | रागं गच्छति, जहा अन मते पजनं लवं, अलद्धेवि ण दोसं दायगाणं करेति, एवं मणुण्णामणुण्णेवि अमिग्गहपाउम्गे वा इथे सरसं विरसं अप्पजतं पजत्तं वा मुंजिऊण पसत्थो उबस्सगं आगंम अवि ज्झाति से महावीरे (१०८) आसणे अकुकुते | उमाणं ज्झाइति धम्म सुकं वा, आसणं उक्कुडओ वा वीरासणेणं वा, अकुकुओ णाम निश्चलो, दव्यतो सरीरेण निश्चलो भावओ अकुकुओ पसत्थज्झाणो वगतो झियाति, किं झियाति ? उई अहेयं तिरियं च सबलोए झायति समितं, उद्दलोए जे भावा एवं अहेवि तिरिएवि, जेहिं वा कम्मादाणेहि उई गंमति एवं अहे तिरियं च, अहे संसार संसारहेउं च कम्मविपागं च ज्झायति, एवं मोक्खं मोक्खहेऊ मोक्खसुहं च ज्झायति, पेच्छमाणो आयसमाहिं पररूमाहिं च अहवा नाणादिसमाईि, अपडिण्णो भणितो, अकसायी विगतगेहिय (१०९) अकसायवां, अकसायत्तमवि गतगेहियस्स भवति-विगतगेही, कत्थवि विसएसु सद्दादिएहि |य अमुछितो ज्झायति, अरत्तो अट्ठोव, छउमत्थोवि परकममाणो छउमथकाले विहरतेणं भगवता जयंतेणं धुर्वतेणं परकमतेणं ण कपाइ पमाओ कयतो, अविसहा गवरं एकसि एको अंतोमुहुत्तं अट्ठियगामे, सयमेव अभिसमागम्म (११०) आयतजोगमायसो भीए सयंबुद्धो भगवं अभिगम्मागम्म णचा-एवं विमोक्खो भवति, ण अण्णहा मम इति, आयंत णाम दटुं| | पवत्तितेण णाणदसणचरित्ततबजोगेण अन्तसोही, एवं परकमंतो भगवं अभिणिबुडो अमाइल्लो आवकहा भगवं समि- ॥३२४॥ दीप अनुक्रम [३१८ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [336] Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [४], नियुक्ति: २८४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-१६] (०१) प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-१६] श्रीआचा| तासि अभिनिम्बुडो सीतीभूतो विमयकमाएसु कम्मबंधणजणएहि अ भावेहि, अमाइल्ले-अमाइल्ले, ण माइट्ठाणेण तवो कतो भग-U | अग्रादिरांग सूत्र- बता वरं देवो वा दाणवो मणुस्सो वा तुस्सिहिति, णवर कम्मक्खयट्ठाए, आवकहा जावञ्जीवाए, भगवं समितो आसी। एस निक्षेपः चूर्णिः IN | विही अनोकतो (१११) माहणेण मतीमता। बहुसो अपडिन्नेण भगवतारीयते ॥ त्तिबेमि पूर्ववत् इति ।। इति ॥३२५|| ब्रह्मचर्याध्ययनचूर्णिः।। आचारे प्रथमश्रुतस्कन्धस्य चूर्णिः परिसमाप्ता। २ श्रुत १अध्य उक्तो आचारार्थः नवयंभचेरः, इतो यदत्र विस्तरेण नोक्तं तदिह आचारे विस्तार्यते, आचारस्य अग्गाणि आचारग्गाणि, FII आचार एव वा अग्गं आचारगं, तेषां तेषामाचाराग्राणामयं न्यासो दशप्रकारः, णामम्ग(२८५) णामस्थापने पूर्ववत , दव्यगतिविहं । सचित्तं कुक्डसिहा रुक्खग्गं वा, अचित्तं कुंतग्गं, मासग्गं, तस्सेव देसे अवचिते, ओगाहणं सासयपवयग्गं चतुद्धागाई, जं वा जावतियं किंचि ओगाद, आदेसम्गं पंचण्ई अंगुलीणं जा पच्छा आदिस्सति, देवदत्तादीणं वा अंतो, भायणकमादिसु वा कजेम, भुंजता करहिं वा जो आदिस्सति, कालग्गं सम्बद्धा, अतः परं नास्ति कालः, कमग्गं चउधिह-दव्बादि ४, दनओ परमाणू-14 | दुपदेसियादीणं अणंतपएसितो अग्गं, खित्ततो एगपदेसोगाढादीण असंखिजपएसोगाढो कमगं, कालओ कम्माणं जा जस्स उक्कि| दृठिई, आउए कम्मे चउगइयाणं जीवाणं जा उकसा द्विती, अजीवदब्बाण वा परमाणुमादीणं जा वुक्किट्ठडिती, एतं कालग्गं, भाव कमग्गं जे जेसि वण्णादीणं अंतिमा पञ्जबा, वण्णेसु अणंतगुणकालओ, एवं सेसेसुवि, गणणग्गं सीसपहेलिया, संचयग्गं तणकट्ठ| मादीणं जं उवरिं, अण्णे या कस्सइ रासि जस्स उवरिं तं संचयग्गं तिविहं, पधाणग्गं बहुअग्गं उवचारगं, पहाणग्गे खाइओ भावो, || दीप अनुक्रम [३१८ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: 'आचार सूत्रे प्रथम श्रुतस्कंध: परिसमाप्त: ... अथ 'आचार'सूत्रे दवितीय-श्रतस्कंध: आरब्ध: [337] Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध २], चूडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२८५-२९७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-९] (०१) भीआचा- संग सूत्र अग्रादिनिक्षेपः चूर्णिः l ॥३२६| ANDANSAR प्रत वृत्यंक बहुअम्यं जीवादीणं छण्हं पञ्जवग्गं (२८६) उवचारे पवबंभचेराणि, उवचरितं आचारग्गाणि दिअति, अतो आयारस्सेव अग्गाणि | D| आयारम्गाणि जहा रुक्खस्स पब्वयस्स वा अग्गाणि, तधेयाणिं आयारस्स अम्गाणि, जहा रुक्खगं पब्बतम्ग वा रुक्खा पव्यया, वाण अत्यंतरभ्याणित्ति एवं ण आयारा आयारग्गाणि अत्यंतरभूयाणि, एत्थ पुण भावग्गेण अहिगारो, तत्थवि आयारउवयार-10 भावग्गाणि, उवचारंति वा अहीयंति वा अज्झितंति वा एगटुं, एयाणि पुण आयारम्गाणि आयारा चेव णिज्जूढाणि, केण णिज्जढाति, थेरेहि (२८७) थेरा गणधरा, किं णिमित्तं ?, अणुग्गहत्थं साहूणं सिस्साण हियत्थं पागडत्थं च भवउत्ति आयारस्स | अत्थो आयारग्गेसु णिज्जूढो, दवितो भविता, पिंडीकतो पृथक् पृथक् , पिंडस्स पिंडेसणासु कतो, सेजत्थो सेजासु, एवं सेसाणवि, | सो पुण कतरेहिंतो कतो', वितियस्स (२८८) अज्झयणस्स पंचमगाओ उद्देसगाओ, 'जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं लोगस्स | कम्मसमारंमा कअंति, तंजहा-अप्पणो से पुत्ताणं धूयाण धूईणं सध्यामगंध वा परिणाय वस्थपडिग्गहकंबलेण पादपंछणं ओग्गहं | कट्ठासणं' अट्ठमस्स वितियाओ उद्देमगातो तं 'मिक्खू उवसंकमित्तु गाहावई चूया-आवसंतो! समणा अहं खलु तब अट्ठाए असणं या ४ वत्थं वा पडिग्गरं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पाणाई भूयाई जीवाई सचाई समारंभ समुद्दिस्स कीयं पामिर्च अचिज | अणिसहूं अमिहडं आहटु चेतेमि आवसह वा समुस्सिणोमि' एतेहितो पिंडेसणसेज्जावत्थेसणा पादेसणा, उग्गहपडिमा णिच्छूढः ।। | पंचमस्स (२८१) लोगसारअज्झयणस्स चउत्थाओ उद्देसगाओ, 'गामाणुगाम दुइजमाणस्स तद्दिट्टीए पलिबाहिरे पासित पाणे गच्छिज्जा से अभिक्कममाणे एत्तो रिया णिच्छूढा, छट्ठस्स पंचमाओ उद्देसगाओ 'पाइन्न पडीनं दाहिणं उदीणं आइक्खे विरुए | किडे' एनो भासाता, सच सत्तिकगाई (२९०) सत्तवि महापरिणाओ एकेकाो उद्देसाओ, सत्यपरिणाओ भावणा, घुयाओ ||॥३२६।। [२२६गाथा १-९] दीप Tel अनुक्रम [३३५ 2021 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: • प्रथमा चूलिका आरब्धा, [338] Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति : [२८५-२९७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-९] (०१) प्रत वृत्यक [१-९] श्रीआचा विमुनी, आयारपकप्पो (२९१) पञ्चक्खाणपुग्धस्स नतियवधूतो आयारणामधिआओ बीसतितमातो पाहुढछेदाओ, आयाराओ संग-16आयारग्गाई णिज्जूदाई, वितियातो 'जहा पुण्णस्स कत्थति तहा तुन्छस्स कत्थति' अब्बोगडो (२९२) अविसतो अवि तेसि तो।। चूर्णिः IN अय्योकट इति, डंडणिक्खेवो 'णेव सयं छजीवनिकायमत्थं दंड वाममारभेआ, लोगविजते अवि ते-'एसि रक्वणा अप्पमत्था, ॥३२७॥ विसयकसायवअणा कीति (पसत्था), सीओसणि जेवि जीवसंरक्षणमेव, सीतोसिणा परीमहोबसग्गा अहियासिअंति, सम्मने लोग(सारे य उञ्जमइ त जीवसंरक्षणथमेव, धूतमहापरिष्णापि जीवपालणत्य, अट्ठमे च इमा जीवविराहणा तेण भत्तपरिणा, वेण तं णात !, आयरियं ! उबदेसियं वा ?, जिणेण भगवता, जीवरक्खणधं पिंडेसणाओ जहा तहा सेआरिया जाव विमोती जीवपालनार्थ, एवं ता चिट्ठतो, अथ सूत्रम्-गविहो पुण (२९४) सदविशेषात्सर्वमेकं, तदेव भूयो द्विविधो-जीवाधाजीवाथेति, सम्वनिक्खेवो एवं वित्वारिजति बिरजति तहा, अहवा एगविही असं जमें, दुविहे अस्थतो-बाहिरतरो अज्झन्थो, ने सेवंता, कई च बाहिरहितो, कायवायाणं, मणादिविभासा, चाउआमो य, बहिद्धा आदाणं ग्रहणमित्यर्थः, गृहीतं परिभुज्यते नागृहीसमिति, तेन गहणमेव, पंचमे पंच महब्बता, सराइभोयणा छद्वा, जाव मीलंगसहस्सा आयारस्स पविभागो, सवं आतिक्खेउं (२९५) जेण सुहतर होइ, एतेण कारणेणं पंच महव्वया पणत्ता, तेसि पेब (२९६) रक्खगट्ठाए एकेकस्स तस्सेव महब्बयस पंच २| भावणाओ, सस्थपरिण्णाए अम्भितरो सव्व एव आचारार्थमित्यर्थः, पिंडेसणादि जाव उग्गमउपायणेसचा जाब अढविह पिंडनिज्जुत्तीए, सेजाएवि वस्थेसणाए पादेसणाए उग्गहपडिमाए, भासाताणं जहा वकसुद्दीए, सेआयरिया उग्गहे तिव्हं छको मिक्लेवो सो, पिंडभासा बस्थे पाते चउको णिक्खेको, आयारग्गाणेसो पिंडत्थो चण्णितो समासेणं । एतो एक पृण अजन- दीप ANDE अनुक्रम [३३५ ॥३२७॥ ३४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: .प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा" आरब्धं प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", प्रथम-उद्देशक: आरब्ध: [339] Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध २], चूडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२८५-२९७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-९] (०१) प्रत वृत्यक [१-९] श्रीआचा- 10 यणं वनइस्मामि ॥१॥ पिंडेसणाओ चउके पुवाणुपुयादीसु जहासंभवं, सुत्तालावगे सुत्तं उच्चारेयब-से भिक्खू वा भिक्खुणी |STI रांग सूत्र Dवा भिक्खू हेडिमज्झयणगुणयुत्तो दशवकालिकमुत्तराध्ययनेषु अहवा 'जे मिक्खू तिहिं वत्थेहि परिसिते मिक्खू चउप्पगारो चूर्णिः निषेधः विभासा, तथा मिक्सुणीवि, गाइत्ति वा गिहत्ति वा एगहुँ, गिहस्स पती गिहपति, गिहपतिग्गहणं रायपिंडप्रतिषेधार्थ, कुलग्ग॥३२८॥ Nहणं पडिकुट्टपडिसेहार्थ, पिंडं पातयामि अनया प्रतिज्ञया, अविसेसिते पिंटो, स एव विसेसितो असणादि चउनिहो, जहा सुत्, IVA या पाडेउं वाणिग्गतो णिग्गतो व णं पाडेउं, जं लम्भति तस्स पाडेउंति सण्या, पाणगस्सत्ति सामइगी संज्ञा पिंडो, यथा जीवो क्षेत्रज्ञो । सांख्यानां, पडिया प्रतिज्ञा, विश प्रवेशने अनु पश्चाद्भावे, सुत्तत्थपोरिसिं सण्णाभूमि च गंतुं पच्छा पविढे चा, अहवा गिहीणं पागकते पच्छा पविढे अणुपविट्ठो, अहवा पिंडोलगादि पविद्वेसु पच्छा पविद्वेसुमणुपविढे समाणे, गच्छवासीणं संघाडएण सम, | अहवा समणाणऽस्थित्ते इत्यर्थः, पुनर्विशेषणे, किं विशिनष्टि ?, अशनादि-शत्तुकोदणकुम्मासादी, अहवा प्राणादीन् प्राणेहिं वा,पाणेहि अदुव आगंतुएहि, अहवा जहा चउत्थरसिते गोरससत्तुयदोसीणेसु होजा, आगंतुगा मूर्यगादी, पणगो खञ्जगदोसीणाइस, भायणेसु | वा, पइणइतेवी वा तलारतियातो वा, अहवा चीयरगहणा कंदाती, हरियं मूलगमादी, हरितग्गहणा रुक्खादी, बलिमादिसु संभव होजा, सचेहिं संसर्ग, इतरेहिं उम्मीस्स, सीतोदएण अमिसित्तं, कहं ?, अग्गि(ग्ग)भिक्खमादी पाणितेण अभिसिंचति, निक्खेवो, IM तंदुलोदएण मित्तगं उदगं, मिक्खा वा वरिसे पडतए, रयसा घासितं, समंतारएण मिस्सितं, उवचितसकुतपाणाणिमादि, तहप्रकार एतेहि दोसेहिं जुत्तं, परत्थहते (हत्थे) हत्थे पेव परमत्थो, परभावणं, अफासुगं सचित्तं, अणेसणिजं गवसणगहणेसणाय असुद्धं, | मन्नमाणो चिंतमाणो, लाभे संते-बिजमाणे नो पडिग्गाहिजा, आच-सहसा सिता-कदाति अणाभोगे पडीच्छितं, भंगा चत्तारि, दीप अनुक्रम [३३५३४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [340] Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१-९] दीप अनुक्रम [३३५ ३४३] भाग-1 "आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [ २८५-२९७], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १ - ९] श्रीआचा रांग सूत्र चूणिः ॥ ३२९॥ से तमादाय गहणाय एगंतमवकमिज, एगकाः एकान्ते, अहे आरामंसि वा २ अधित्ययं णिपातः अहग्गहणाऽगोयरे वा अंडगा पाणा जत्थ णत्थि हरितोदगं उस्सा वा जहिं णत्थि, उत्तिंगा गद्दभा की डियाणगरं वा, पणओ उल्ली, दएण मिस्सिता, मट्टिगा वा, मक्कडगा लूतापुडगा, तत्थ चैव कीडगा कीडियं च वा, तत्थ वा विनिश्चिता एकसि, विसोहिया बहु सोहिया, लोगमुहपोत्तियाए काए पमजेत्ता, ततो संजतगं भुंजेज वा पिएज वा जं चाएति २, ज्झामथंडिलं अज्जुसरं सामितगं अडि किड्डे हिरष्णसुवण्णाईणं तत्थ खजगादि णिसिरिजति, वीहितुसेसुं कुंडगादिसु ण उरणगादिसु संगुलिया, तत्यवि सत्तुगादि गोयमकरिसमच्छिगातो, णत्रगणिविसे पवेसे गामे दुल्लभथंडिले अबकरे परिडुत्रिजड़ पडिलेहिय २ तापमखित दूरोगाडे द्रवसिणेहादि, अदूरे सित्यादि, ततो संजतामेत्र परिहविआ, ओसहीओ सचिताओ पडिपुन्नाओ अखंडिताओ, सस्सियाओ परोहणसमत्थाओ, जहा सालि, किल अवसितिलस्स तिवरिस पंचवरिसयं, अविदला कणाण विणा, अतिरिच्छच्छिण्णाओ उज्झिताओ, फालिताओं पुण तिरिच्छी छिण्णा, आहाविणा जीवेण तरुणिया, छिवाडी कोमलिया मग्गजलिसंदातीणं, अणमिकता जीवेहिं, भञ्जिता मीसजीवाचेव, एत्तो विवरीता कप्पणिजा, अववादेणं पिहूगा सालिवीहीणं, बहुस्या जवाणं भवंति, भुज्झगा गोधुमाणं दुर्धति, मंथु वोरादि अण्णे वा फला केति, मथिता - चुण्णिता, मध्यतेति मंधु, चाउलं तंदुला चाउल लंब सुगिता विही सुकविता कूरमिस्सिताओ तंदुला कणिगा वा से, दुम्भजितं एकसिं, दुम्भजितं अफासुगं, विवरीयं असई भजिये दुपकं तो कप्पणिजं । अन्न उत्थिया परिमहा (हा) ति, गारत्थिया श्रीयारादी, अन्नो वा गिहत्थो, परिहारितो साहू, अपरिहारितो पासत्थो उ, भावणा वषणेण जाणंति च अप्पाणं, हरियावहियादि निराहणा वियारे दवअण्णकण्ण असती बिहारे चट्टा वारउग्घट्टगादि, गामाणुगामे थंडिलसंकमणअप्पमजणरागादियादिदोसा, पिंडेपणाध्ययनं [341] ॥ ३२९॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१-९] दीप अनुक्रम [ ३३५ ३४३] भाग-1 "आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [ २८५ - २९७], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १-९] श्रीआचारांग सूत्रचूर्णिः ॥३३०॥ देति सयमेव, अणुप्पदाणं दवावणं, तत्थवि अहिकरणादी देसा, अस्मिन् पडियाए-अस्मिन् साधुं एवं प्रतिज्ञाय प्रतीत्य वा, समानः धर्म्मः साधम्मिकः समुद्दिश्य समस्तं उद्दिश्य समुद्दिश्य समारंभ, अविसोधिकोडी सन्वेसिं पति ण कप्पड़, पुरिसंतरकार्ड अण्ण दिनं, णीहढं वहिता णिप्फेडितं, केहिं गीणितं ? अत्तट्टितं णो कोइ गिण्हइति अम्ह जेण भवतु, अण्णेण वा अप्पणण, मिस्सियं अफासुएणं, अपरिभुक्तं णाम अत्तिसे अच्छति, आसेवितं आम भोतुं ईसि संचितं, एवं सव्वंपिन कप्पड़, एतेसिं अपडिपकतो पडिसिद्धं चैव, बहवे पासंडिया, संघ गणं कुलं गच्छं वा एवं एगं साहम्मिणि बहवे साइम्मिणीओ, पगुणियत्ति प्रागण्य, समणगहणेण आजीवरचवड परिवायतावस साहूणं पंचन्हं, एसा बिसोहिकोडी, छडं यावंतियं, बहवे समणा पुरिसंतरकडाई कप्पेति, णितिओ पिंडो चिसि भिक्खा, अम्गपिंडो अम्गभिक्खा, जो उ भत्तड्डो अभतो, अद्धभत्तट्ठो तस्सद्धं उबभातो, एतेसिं गिण्हणे कंतियदोसा, अनेसिं दिनमाणे उम्माणं, अह दोहवि देति ता अप्यणो सिं उमाणं पच्छा धर्म रंधेति, अह बहुतरं तो छक्कायवहो, तम्हा सपक्खपरपक्खोमाणाई बजेञ्जा, एतं खलु० एवं परिहरता पिंडेसणागुणेहिं उत्तरगुणसमग्गता भवति, समग्गभावो सामग्गियं, मूलओ सम्मगता पाणसं सत्तगादि परिहरता, अगुणसमग्गता अपरिहरणेण, गुणसमग्गता उत्तरगुणाणं, संसामध्या चरिचसामग्गी, चारित्रसामय्या अव्यावाहा एसणा सामग्री भवति सव्त्रद्वेहिंति सव्याहिं समितीहिं जहा पिंडेमणासमितीए तहा सेवारिया भासी जाव विमोचीए या सुसमितीओ संभयंति चैव, आत्महितो या समितो, सहितो नाणादीहिं, सया शिवकालं आमरणंता जतेति बेमि । इति प्रथमा पिंडेसणा समत्ता ॥ इदाणिं सो चैव पिंटो कालखि तेहिं मग्गिज, कोई अमीर उपवास करेत्ता भोवणं करे, अट्ठमिग्रहणेण सेना दिवसावि ॥ ३३० ॥ पिंडेपणाध्ययनं पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : प्रथम चूलिकायाः प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", द्वितीय त्रुतियाँ उद्देशक आरब्धौ [342] Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२,३], नियुक्ति: [२९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १०-२१] (०१) ध्ययन रांग सूत्र चूर्णिः ॥३३॥ प्रत वृत्यक [१०-२१] यतिता, अद्धमासितं वा उपवासं काउं अयामसाए वा करेति भत्तं, मासितं पुन्निमाए, २३४५ छम्मासिए -'अपणमत्तए उहसि-1 सिरतादिसु ऋतौ घृतो गुलो गोरसा साली य पउरा अहवा पदोसा, हेमंतसिसिरगिम्हे सत्तुगमादि, एवं जा मि उड्डुमि दिअति, उडुसंधी दोहं उद्णं संधी, परियट्टे हेमंतो वसंतो अहवा से उधु समता, उक्खाओ खलिया, कुंभी कुंभप्पमाणा, कलसी गिहकुंभे भरिजति, कलोवादी पच्छीपडिगमादी, सनिधी गोरसो, संणिचओ घतगुला, एत्थवि तच्चेव पगारा, अपुरिसंतरकडादी ण कप्यति, कृतो? विसुद्धा णो भतपाणा भंगा ४, दोस विसुद्धेसु गहर्ण, सेसेसु पडिसेहो, उग्गा जे सामिणो दंडधरा आसी, भोजा गुरुत्थाणीया, राईणा राइणो, खत्तिया इक्खागहरियसपसिद्धा, एसिता दरिसणा, वेसिता रंगोचजीविणो, गंडगा गामतित्ति-11 वाहगा, कोटगा हरगाए कोट्टकीत्यर्थः, गामरक्खगा गामाउन्तगा, बोक्सा लिताणंतिका, एवमादि अ, दगुंछिता चंमारादी, तेसु | फासुसगाणवियगडणं । सनबातो-गोडीमनं, पिंडाणिगरो-पितिपिंडो, ईदमहे ईदो, खंदो महासेगो, रुदो रुदमेव, मुगुंडोबलदेबो,। जागा णागवलियाए, जक्वा आणंदपुरे सिद्धा चेव, मूले जहा देवणिम्मिते, चेइयं वाणमंतरं, रुक्खा पत्चब्बोवगाणि कजंति, गिरि उजंताई, दरी उपयअंधारियासु, कप्पंजणगा दहणागदुमो, णदीए भमतीए, सरे जहा भट्टचरणे, अन्ने य सागारे, अन्नतरेसु NI वा विरूवपर० एगाओ धक्खाओ तहेव अपुरिसंतरकर्ड णो पडिगाहिजा जाव अह पुण जाणे आ दिणं जं तेसिं दायब्बं अह । तत्थ ण मुंजेजा, भुज पालनाभ्यवहारयोः, पभू वा पभुसंदिट्ठो वा पभू गाहाबई आयरियगिलाणादीणं अलंभे वा सो देजा जाव | पडिगाहेजा। इदाणिं सित्त-परतो अद्धजोपणं भिक्खाचरियं गम्मति गाम वा रणं वा चउदिसिं, जस्थ संखडी तस्थ अबराएवि ॥ जई जाइ, सा संखडी प्रतिज्ञातुं न कप्पति । से भिक्खू वा भिक्खुणी वा पाईणं पुरिमदिमार बारेंतेवि जति तत्व संखडी दीप अनुक्रम [३४४३५५] ॥३३॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [343] Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२,३], नियुक्ति: [२९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १०-२१] (०१) श्रीआचा रांग सूत्र चूर्णि ॥३३२॥ प्रत वृत्यक [१०-२१] भांति तंजहा-अणादायमाणे पडिगछति अन्नं वा, एवं सेसामुवि. एवं ता वहिता. सग्गामेविन कप्पति. जत्थेव सा संखडी सिया || पिडेपणातंजहा-गामंसि वा जम्हा तं पद, गाम वा २ गामादि पुब्ववणिया, णो अभिसं केवली जतो केवली पर समत्थो गाउं ते दोसे, श्ययन आदाणं दोसाणं, प्रभवो संभवः, अहवा केवलिवयणेण भणामि दोसे, ण सच्छंदेणं, कतरतरो केवली, मुयनाण केवली, आहा-1 कंमितादीणं संभवो, तत्थ ताओ संखडीओ एगदेवसियाओ जहा सरस्सईजत्ता अहाभदएसु य सघरपासंड० जावंतियादी दोसा | | तेसु पंतावणादीया दोसो, खुड्डितो दुवारे जातो, महाप्रकाशः प्रवात अवकाशाऽथं बहुपाणा, महिल्लियाओ दुवारियाओ खुड्डु| याओ सुसंगुप्तणिवावार्थ, यो वा णं साहुसमणजावंतियाणं अर्थाय समं भूमि विसमं करेति, साहू अट्ठाए पडिणीयद्वयाए वा, तो| हेमंते सीतरक्षणहूँ णिवाता, गिम्हसरते पवातिढुं, एता सव्वा पडिणीता, अणुकंपणट्ठा वा करेजा, अंतोवि बाहिं चाहिरिया | छिंदिया दलेति कुसा, खरा पिट्टेतो संथरंति, एस खलु भगवया एवं आहाकम्ममि संजतदोसा, तम्हा से संजते णिययढे तहप्पगारे | पुरिसे संखडि वा पुथ्वग्गामे पुरेसंखडी, अहवा पुब्बण्हे अग्गिट्टिगादी जाते वा पुरेसंखडी, पच्छिमा गामे पच्छा संखडी, अवरहे वा | जहा गिरिकनिगादी वा पच्छासंखडी, विवाहे वा पुव्यसंखडी दीजा, दयिता रसगेहीए उकस्संति काउं, अतिप्पमार्ण भुजित्ता | | पिवित्ता : एगाणियदोसेण वा वियडमादि पीतं होआ, जावजीवो बोसिरा वणिता, वमणं वमणा, वागहणात् छिद्रतं ण बमियं, | न सन्म परिणायं, अजीणगमित्यर्थः, आगत्य संकोचयंति आयुं सरीरं बुद्धी व संकोचयंतीति आयङ्को, अन्नतरो षोडशानां एकतरः | अहवा अण्णतरे दुक्खे 'अलसते विमर' गाहा, अलस एव अच्छति, विसूहगा एवमच्छइत्ति, बोसिरइवि एगतरं वा करेति, अहवा | आयको जरमादी, आर्यको सज्जघाती, रोगो कालेण, असंजता करणकारावणे जीवघाता, असमाधि जरं वा, केवली च्या पुच्च- ३३२॥ दीप अनुक्रम [३४४३५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [344] Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२,३], नियुक्ति: [२९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १०-२१] (०१) ध्ययन श्रीआचा रांग मूत्र चूर्णिः ||३३३।। प्रत वृत्यक [१०-२१] | भणिता, इमे अन्ने-पवयणादी, गाहावई अगारिओ वा, परिवाया काबलियगादी, परिवायायो तेसिं चेत्र भोईयो, वासगिम्हरी-D| पिंडैपणा| कादीसु संखडीसु, एवंपि अगारीओवि, माहेस्सरसिरिमालउज्जेणीसु एगभ एगवत्ता एगचरित्ताबा, सम्बंमि भवा वा, सोंडे | विगडं चेव पिबंति, पादुः-प्रकाशने प्रकाशं पिवंति, रे प्रकाशे, पीवितं प्रकाशीभवति, भो! ति शिष्यामन्त्रगं, व्यामिश्रं नामा तेहिं पासंडगिहत्थेहि, अवा वे सुराओ, अहवा सिधुं व सुरं च अणुकंपया संजतं पाएज्जा, पडिणीययाय पाएज्जा जा उड्डाहो । | भवतु, मत्तगदोसा गाएज चा नवेज वा चमेज या, मत्तेण य पडिस्सओ ण गविट्ठो, हुरत्था णाम बाहि विगालो य जातो, को वा मत्तेल्लगस्स देति, गतिए संतस्सवि, तेहि चेव सम्मिसभावं पगतएल्लर आपेज्जेत, अनमणो णाम ण संजतमणो, सब्बेते ।। विप्परिपा, स० सयओ णाम अचेतो आतपरउभयसमुढेहिं दोसेहि, इत्थीविग्गहे वा विग्गहगहणं मत्तगपरीवत् , तत्रापि ग्रहण | दृष्ट, किली वो जाम नपुंसओ, एते गेण्हेज, पियधम्मेवि न देसो, किमंग पुण मंदधम्मे !. एवं वा बयान-आउसंतो! समणा एयाओ | संझ विगालो रत्तीवि परिचरियब्वा, गामणियंतिथं गाममभासं, कण्हुइ रहस्सितं कम्हिवि रहस्से, उच्छ् अक्खाडे वा अन्नतरे वा पच्छण्णे मिहुणस्स सहयोगे च, पवियरणं पवियारया, आउट्टामो कुचीमो, एगतीया कोई विधम्मोवि साइजेज, सातिजणा समणुजाणणा, अकृत्यमेतत् , जात्वा आदाणत्ता, सासंति विजंतो, प्रत्यवाया इह परलोगे य, तम्हा णो अभिः अण्णयरे संखडी णिसम्म, समर्थ धावति, उम्सुगभूतो सज्झायादीणि ण करेति, धुवा अस्थि णत्वि, होंतीएवि लंभो हुज वा ण वा, लम्भमाणोवि वेला फिद्विा , णो संचाएति-न शक्नोति इतराइतराई-उच्चनीयाणि जाणि पुनमणियाणि समुद्दाणतातं सामुदाणियं, फासुगं उम्ग| मादिसुद्धं एसणीयं, एसियं फासुगमेव एसितं, वेसियं णाम जहा वेसिवाणुरूवं, विरूवत्थे रयणे वाण जोएति, केवल कवलिते, ॥३३३॥ दीप अनुक्रम [३४४३५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [345] Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२,३], नियुक्ति: [२९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १०-२१] (०१) प्रत वृत्यक [१०-२१] एवं साहवि एसणाजुचो, वच्छगदिढतेणं एसणं जोएति, जं एवं लद्धं तं वेसितं, माइट्ठाणसंस्पशों, ता एवं गामादि पुखभणिता, | रांग सूत्रआइण्णा चरगादीहि, उम्माणा त सतस्स भने कते सहस्सं आगतं, पाऊणं माणं, ण विणा रसगेवीए संखडी गम्मति, आइण्णाए माध्ययन । चूर्णिः य इमे दोसा-पारण वा पाए अक्तपुब्वे भवति, आलावा पसिद्धा, असंखडादयो य दोसा, अणेपणिजं सोलमण्हं एगतरं, तम्हा ॥३३४॥ INIसे संजए णियंठे वितिगिच्छा संका उम्गमएसणासु पंचवीसे, असमाहिया असमाहडा, कण्टलेस्मादि तिथि, चरित्ता णो सय्ये, यतिनि, मंदं अब्बोगटो, उपहीआदी मुनेमुवि भासिजति, एवं विहारो अब्योगहो जिगराणं, जिणकपिता सुहुमबुद्धी काएवि | णाणंति, धेरकप्पिता सुहमेण वा सनाणेणं, इतरंमि कारणे, तिबदेसित सम्बदिवस, सुटुंबा बढाहि वा धाराहि अव्वोच्छिन,तिरिच्छं संपातिमा, निजाति, उरंसि वा र्ण णिलिजिआ, कक्खंसि वा णं आहडेजा, पाणिणा पाणि पिचित्ता, एयाणि करेति पाणिपडिग्ग| हतो धेरकप्पियाणं, से भिक्खू वा भिक्खुणी वा खतिया चकवडीवलदेववासुदेवमंडलियरायाणो, कुराया पचंतियरायाणो, राय| वंमिता रायवंसप्पसया, णारा णारी य सिया, अनवरा भोइता, अंतो अंतो नगरादीगं बाहिणिग्गताणं सम्णिविट्ठाणं इतरेसिं गच्छ| ताणं मंगलस्थं या, सयमेव आणि दकस्य देखा, देवाणं सयमेव अदेताणं अण्णो दिज असणं वा ४, लामे संते णो पडिगाहिआ, | इस्सरतल परको विय लामे संते रयणमा० एमणामादी एतं खलु भिक्खुस्स वा भिक्षुगीर वा सामभिर्य तृतीया पिण्डेमणा परिसमाप्ता। संखडिअहिगारो अणुयनति, मंसादि मास चाउम्मासं वा णिजिसितो आसि, पारणे मांसेहि चेव संखडि करेति, अद् भक्षणे' मर्स अदंतीति मंसादी मिगपट्टिना वा, गोमहिमवराहादीहि मारिन्जेज, संखडि करेति, एवं मच्छाइतेसु दो पगारा, णवर गोगाहेण दीप अनुक्रम [३४४३५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", चतुर्थ-उद्देशक: आरब्ध: [346] Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध २], चूडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], नियुक्ति: २९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२-२४] (०१) श्रीआचा रांग मूत्र चूर्णिः ।।३३५॥ प्रत वृत्यक [२२-२४] मारिजेज, मसखल जत्थ मंसा सुक्याविति सुक्खस्य वा कडबल्ला कता, एवं मच्छगाणपि सामाणो, तणखलाई काउं सुक्खावेत्तापिटेपणाविभयं भत्ताई करेति, पहेणं आहेणं वा तिताणं, वधुया हिजति एहेण वधूपत्ता, अहवा जं आणिअति तं पेहिण(पहे)हि, हिंगोल ध्ययन करडयभत्तं, सम्मेलो विवाहभत्तं, पच्छाकम्मेण या मिना वा कजंति भत्तं काऊण, अहवा गोडीमतं संमेलं, हीरमाणं, अहवा कीरति । अंतरा, बहपाणा पीपीलगसंखणगइंदगोवगईदजुवादि पुबुताणि, बहवो समणमाहणा उवागता गमिस्संति पच्छा अत्यर्थः आइण्णा [2] अचाइण्णा चरगादीहि नो पन्नस्स प्रज्ञावां प्राज्ञः तस्य प्राज्ञस्य अचाइष्णनणेग ठाणादी ण सकंति काउं, विसयपवेमा दुखं, | लोगो य भषज-अहो जिभिदियं अदंतं साहूणं, सो एवं गचा रायभिसेयाईसु चेव अप्पपाण दिसु अपादिनासु निकारणे ण | कप्पति, गिलाणणाणकारणादिसु कक्खडखेत्तवत्तब्वा, असंथरणे वा एगदिवसअणेगदिवसियासु गिण्हेजा, तत्य य वेलाए थेव | पविसिञ्जति, अवेलाए उस्सकणं पवत्तणदोसा । से भिक्खू बा भिक्खुणी वा खीरिजमाणासु संजयट्ठाए गात्री दुहितुं दिआ, उबक्खडिजमाणे संजतहाए किंचि छान्ती उबक्खडिज, अप्पहितं ण तात्र दिजति, संजयट्ठाए पवत्तणं होजा, एते दोसे जाणिना दो गाहावइकुल सेत्तमादाण आदायं नाणं इह ज्ञात्वा, एगंतमवकमिजा अणावादमसंलोए, सीरियासु उबक्खडिते, पज्जू हेयं पङिन्तं, एते दोमा ण-णथि पविसिा , मिक्खणसीला भिक्खागा, नामगहणा दब्यमिक्खागा, एगे ण सव्वे, एवमवधारणे, आहेसु | कंठा, समाणा बुड़वासी, वसमाणा णव विकापविहारी, दतिजमाणा मासकप्पं चउमासकर्ष वा काउं संकममाणा कहिंचि गामे | द्विता उडुबद्धे अहव हिंडमाणा, माइट्ठाणेण मा अम्हं किर विममो भवतुति पाहुगए आगते भगंति खुड्डाए खलु अयं बसती खुडगा, तेसिपि मद्दतरा देंतगाई णस्थि, थोपा भोजाणि, मंडिहिं वा अना, से इंता इंतामंत्रगे, पुरसंथुना मातापितादि, पच्छा दीप अनुक्रम [३५६३५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [347] Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध २], चूडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२-२४] (०१) प्रत वृत्यक [२२-२४] संधुता ससुरकुलादि, अहवा गिहवासे पुण्यसंधुता, पयजाए पच्छासंधुता, गाहावतिपिंडं णाम संपन्नरसं स्निग्धं द्रवं पेसलं उत्त-IN पिडपणारांग सूत्र-IN चूर्णिः रसंलोयगं वण्णादीहि अ सोभणितमित्यर्थः, सुकुली सुखजगं, फाणियं द्रवगुलो, पुथ्यो वा पूर्वओ, उल्लं खञ्जगं सव्वं गिहितं, 0 | सिहिरिणी मअिता, सिहरवयचि चिकणतणेण, तं भोचा पच्छा साहुणो हिंडावेति, तमि गहिते साहुणो किं करेतु ?, माइट्ठाणसं-16 | फासो, ता न एवं करिज्जा, केवलिपडिसेधियं अकप्पितं, सेवंतो मायामोसे बदृति, कह कुज्जा ?, सग्गामे परम्गामे अविसेसे पाहुण-IN | इचिए, तिणि दिणे पाहणं, से तत्थ भिक्वहिं सद्धि कालेण कालेणंति सति काले तत्थितरा सामुदाणितं तं आहार आहारेज्ज, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा २ सामग्गियं । चतुर्थी पिंडेपणा समाप्ता॥ इहापि कालोऽधिगार एव, अग्गपिंडः अग्गो णाम अरिज्जओ खिप्पमाणे संजाए अगारी चंभणस्स अम्गं पिंडं दातुं | समणसग्गदहपवत्तणदोसा अहवा उक्खलियादोसाओ वा उक्खिवति णिक्खिप्पति अण्णेहिं विज्जति हीरमाणं न निज्जति परिभाइज्जति, परिभुज्जति अण्णे भुंजंति, परिद्वविज्जति अधणीया कीरति, पुरा असणादी वा (४) तत्थेव भुंजति जहा बोडियसरक्खा , अहे चरति णाम उक्कममडति, खद्धं खद्धं णाम बहवे इह संकमंति तुरियं च, तत्थ भिक्खुवि तहेब सो० सा० माइट्ठाणं संफासे णो एवं करेज्जा से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अप्प० केतारो तलागं वा जं उबस्सं वा, फरिहा गामो उदएणं वेढितो फलिहतो वा, पागारतोरणअम्गलाणि, जहा हस्थिवारी अग्गलपासओ, अग्गलाए वा कार्य, उच्चारणाओ वलितो, अणंतरहिता नामांतरो अंतर्वा तेन अंतरहिता सचेतणा इत्यर्थः, सचेतणा, अहवा णो अगंतेहि रहिताओ, सहिता इत्यर्थः, इत्थं न दीसति, | ससिणिद्वा घडउऽच्छ पाणियभरितो पल्हत्थणो, वासं वा पडियमेचय, ससरक्खांवितो मट्टिता तहि पडति य सगडमादिणा णिज्ज दीप अनुक्रम [३५६३५८] ॥३३६॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं “पिण्डैषणा", पंचम-उद्देशक: आरब्ध: [348] Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [२५-३०] दीप अनुक्रम [३५९ ३६४] भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) - श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [५], निर्युक्ति: [ २९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २५-३०] श्रीजाचा रोग सूत्रचूणिः ||३३७|| माणा कुंभकारादिणा चलणं वा, चिचमंता मसिणा सिला एवं सचित्ता लेल गहिता, उडओ सवितो चैत्र, कोला मता मधुणो, तस्स आवासं कंठ, अन्ने वा दारुए, जीवपतिट्ठित हरितादीनं उवरिं, उदेहिगाग वा सचिते वा, सांडो सपाणे पुत्रमणिता, आमअति एकसिं, पमअति पुणो पुणो, अवसरक्खं अचिनं देतंगे असति उग्गहो अणुष्ण वेजति तणादीणं, एवमादीहिं पमजेजा, मणुस्सं विपालो णाम गहिलमचओ, गहिछउ हारणपिसाइया गहिता, सेना गोणादिमारगा अलकभावा, खुडुआ खायंति अस्मिन्निति तं उबातें, येसी मूसिगा धूली वा, मिल्लुगा पुढाली वा विसममि सुण्यं पाणियं तिलविजलं, न दुवारवाहा अग्गदारं कंटगवदिता अहेसी, दियग्गहणा कहंगचेलादिणा विहितं, अणुष्णन्नविचावि ण वदति, अणुभवितुं बहते गिलाणादिसु कारणेसु । गामपिंडोलतो विजमाणा ओलेति, संलोगो जहिं द्वितो दिस्सति, सपडिदुवारं संपडिजुनं दारस्य, केवली वृता, तस्स पुव्यपविट्ठस्स णीणियं विहरेजा, अचियत्तं अंतरालियदोसा, गिहत्थो वा भगति जो एत्तो चैव पडिच्छति एते दोसा जम्हा पुव्वोदिट्ठाए पइण्णाए, प्रतिज्ञा हेतुरुपदेशः, एप भगवतां अं णो संलोए, सेनमादाय ज्ञात्वा अणावात नसंलोए तस्सवि, तस्स तस्स गिहत्थो सम्बेसि सामनं गिहपाडसंजएहिं सम्मं दिज, भणेज य-अहं अक्खणितो तुझे चैव झुंजत परिभातेत वा, | च केइ मिण्डित्ता तुसिणीए माइद्वाणं० णो एवं करेजा, जइ फव्वंति ण गेव्हंति, अह असंथरणं गिलाणादीण वा णत्थि ताहे गेव्हंति, अह असंथरणं तच्चैव भायंति, अह भगंति-तुमं चैव भाएहि, ते वा बेंटलेंति ताहे परिमाएति, खद्धं बहुगं, डाग सागं वाहंगणमादि, अह भांति जामो, तत्थ अप्पणी उपकृति तेसिं तहेव देति, अह णिच्छंति, एवं पुण पासत्येहिं असंभोइएहिं वा, | गामपिंडोलादि पुचरविट्टे उवादिक्रम्म णो पविशे, मा पडिसेहिते व दिण्णे वा पवेसेज वा ओभासेज वा, एवं खलु भिक्खुस्स पंचमी पिंडेपणी [349] ॥३३७॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [६], नियुक्ति: [२९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ३१-३६] (०१) श्रीआचा रांग सूत्र षष्ठी पिंदैषणी चूर्णिः ॥३३८॥ प्रत वृत्यक [३१-३६] दीप अनुक्रम [३६५३७०] (वा २ सामग्गियं ।। पंचमा पिंडैषणा॥ 0 इह हि अंतराइयमेव तिरियाणं, रसं एसंतीति रसेसिणो पाणा-सत्ता, घासेसणाए आहारखइ, संथडा णिरंतरं सण्णिचतिया, दवदवस्त०, तिरियदुट्ठा, के ते? कुकुडजातीयं वा, जातिग्गहणे स्त्री नपुंसको वा कुक्कुडपेच्छगा, करिसमादीसु कणयाओ वा कोई दिजा, कुकूडा कलेवरा, लेहणे वा सरणगराणं कए कुडगं कोति दिजा, वायसा अग्गपिंडमि, तत्व अंतराइयं अहिकरणदोसा, दुवारवाधा दुवारपिंडो, अवलंवर्ण अवत्थंभणं कारण वा हत्थेण चा, दुबलकुडि उद्देहिपरिवहिते, फलहिते कलहो चेव दाणं उत्तरतरो कबाडतोरणेसु एतेमु पेव दोसा, दगच्छडणगं जत्थ पाणियं छडिजति, चंदणि उदगं जहिं उच्छिट्टभाषणादि धुव्वंति, | एतेसु वयणदोसा, सिणाणं जहि हायति, वचं नाम पंचवडओ, तर्हि पबयण भुताभुनेण कसंतरेहिं दोसो, आलोग उलाव (लंकि)गादि, निग्गलणं कुडो खंडितो, संधी दोहं घराणं कडगाण चा, दगभवणं ण्हाणघर, प्रतिज्झिता बाहं पूरिता, अंगुलीए | उद्देसिय २ निझाति जहा इमे दीणारवस्थाई थिग्गला बा दीसंति, गडहिते वखुरे संका, अंगुलीए दाएत्ता भणंति-एतं कुसाणं | मे देहि, बालेति, हेतु होतु सव्वेसिं देहि, अम्ह ण देहि, किं अणुदंसणु । अह तत्थ किंचि भुं भुज पालनाम्यवहारयोः, हत्थो हत्थो चेव, मत्तो पिडकुंडगं, मट्टितजाति, दबी दब्धी चेव, उल्लंकिगादीणं वा गहणं, भायणेण कम्मं भायणं कडगादि गहिता, | सीतं विगडं चउभंगो, इह अविगतजीवं गहितं, उदडलं पुरेकम्मसंजयट्ठाए घडति, ण ससणिद्धाए चिट्ठति, संसडेग जाव पडिगा'हेजा, पुहुगादि कोडेसु ३ सचित्तसिलादिसु, बिललोयां फासुगं कडिजइ, उब्धियग्गबणा सा सुद्धसिंधवादि, अफासुगं हितं देसंतरसंकमणगा उपहादीसु फासुगीभवति, रेवहादि मिअति रुचति वा। उस्सिंचति सतो णिसिंचति तहिं अण्णस्थ, तत् उण्होदगं| ॥३३८।। पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", षष्ठ:-उद्देशक: आरब्ध: [350] Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [३७-४२] दीप अनुक्रम [३७१ ३७६] भाग-1 "आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], निर्युक्तिः [२९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ३७-४२] श्रीजाचा रोग सूत्र चूणिः ॥ ३३९॥ घृतं वा आमजी, अगणिकार्य उक्खलितं तं या दव्यं जं देतियं पुणो पुणो उघेतुं ओतारेमाणे वा अगणिविराहणा, एतं खलु भिक्खुस्स वा २ सामग्गियं । षष्ठी पिंडेपणा ॥ संबंधी अगणिकाए संयमविराणा, इहावि संजमतव विराहणादि, खंधी पागारओ, अहवा खंधो सो तञ्जातो, घरे चैव पाहणखंधो वा राज्जातो गिरिणगरे, अतजातो अन्यत्र, मंचो मंच एव, कडेहिं कीरति, मालो मालो येव, पासादो पासादो चैत्र, इंमियतलं आगासतलं, अण्णतरं अंतलिक्खग्गहणेणं ता सिकंगादि गहिता, एतेसु मालोइडदोसा, पीढ़ छगण गोम प्रमादी, फलयं कटुमादी, णिसेणी णिस्सेणी चेव, उदूक्खलं मुशलं उक्खलं वा, अवहट्ट अण्णतो गिण्डित्ता अष्णहिं स्थावेति, उस्सविडं उई उचितुं तं | चंचलं पचलिजा, तत्थ पडेंतस्स सरीरिदियविराहणा जीवविराहणा य, तुम्हा ण पडिगाहेजा, उन्भाषा मालोइड, कोडिगा एव कालेजओ, विसमं ओवरि संकडओ, मूढिगाहा भूमी एगा खणितु भूमीघरगं उचरिं संकडे हेट्ठा विच्छिनं अग्गिणा दद्दित्ता कजति, | ताहिं तु चिरंपि गोधूमादी वत्युं अच्छति, कुंथा पुंजिगा, ओकुजिय अवकुजिय, अत्रकुजिय ओहरिय ओतारिय आहड्ड-आहृत्य णो परि०। मट्टिओलित्ते काय हो, उब्भिमाणे छण्डवि, जउणा लित्ते अगणिमादीओवि, लिप्यमाणेऽवि छक्कायत्रिराहणा पच्छाकम्मै वा, एवं पुढविआउनेउकाएस पतिद्वितेवि, उस्सकिय विव्वविया ओहरिष उतारेतुं । अगणिकाए अ दंसितं सूत्रं, सुप्पं विधुव बंयणओ, सेसाणि पागडडाणि चैत्र, जाव ण पडिगाहेजा । वणस्पतिट्ठितं पिट्ठस्स हरियकायअस्स वा उवरिं । पाणगजातं, उस्सेइमं पिट्टदीवगादि, संसेइमं तिलअयं तिपण्णगादि, सीतेण उण्हेण वा चाउलोदउ तिलोदगे य, अनुणाधोतं-घोयमित्तं चैत्र, अणंविलं ण अंबिलीमूर्त, अच्वोकण अचेयणं, अपरिणतं वनादीहिं तारिसं चैव, अविद्वत्थं ण जोणी विद्वत्था, एतं ण पडिगाहेजा सप्तमी पिंडेपणा [351] ॥ ३३९ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : प्रथम चूलिकायाः प्रथम अध्ययनं "पिण्डैषणा", सप्तम-उद्देशक: आरब्धः Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध २], चूडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], नियुक्ति: २९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ३७-४२] (०१) प्रत वृत्यक [३७-४२] रपिंडेपणा श्रीआचा-1 तिला भुजितगा पाणीते छुभन्ति, तुसोदए तुसिता भुजियगा छुभंति, जवोदए जवा ज्जियगा छुभंति, आयाम अवस्सावणं, रांग सूत्र | सोवीरगं अंविलं, केह भणंति-कोसलाए परिसित्तियं, सुद्धवियर्ड संसट्टपाणगं, निज्जा वा अहिगारो, अहुणा धोताईणी णो पढि-11 चूर्णिः गाहिज्जा, इमं पुण मुत्तं चिरघोतादिसु-से पुवामेव आलोए, पडिग्गहो एवं मत्ओवि गिहिमायणेण वा वक्खेवे चकिया फुडा ॥३४०॥ चेव पडिगाहेज्जा । से भिक्खू वा भिक्खुणी वा पाणगं अगंतरहितादिसु, उद्बटुत्ति उद्धृत्य, णिक्खितं ठवितं, उद उल्छेण । वा ससिणिद्वेण वा सकसाएण वल्मा(ल्ला दिणा कसाएणं, सो य सवेयणो य होज्जा, मत्तेण भायणेण, सीतोदएण संभोएत्ता भासेचा |णो पटिगाहेज्जा, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा० सामग्गियं । सत्तमा पिंडेसणा॥ ____संबंधो इह पाणगं, अंबगाई धोति अंबसालस्स वां संसट्ठपाणगं खोल्लविसए अंबगाणि फालेचा मुक्कविज्जति तेसिं धोवणं अंगपाणगं, एवं अंबाडगकविटुमाउलिंगमुढ़ियादालिमखज्जूरनालिएरकरीरकोलामलगचिंचादीणं सब्वेसिं धोवर्ण, रसमीसं बा| | अट्ठियं अडिल्लओ, सह अट्ठिएणं सअट्ठियं, सह कशुएण य सकणुयं, कणुपं अट्ठिएगदेसए वा अतुस्सो कच्छो वा, बीतेण सह | | साणुवीयक, छब्बकं सं बन्ध, चाल सउणीपरए वा, रएण बा, आवीलेति एकसि, परिपीलेति बहसो. परिसएति गालेति ण पडि10 आगंतारो मग्गो, मग्गे गिह, अहवा यत्र आगत्य आगत्यागारा तिष्ठति तं आगंतागारं, आरामे आगारं, गृहपतिकुलं वा, परिया-1 NI यगादीणं आषातो परियावतो, अन्नगंधाणि कलयसालिमादीणं, पाणगंधो कप्पूरपाडलावासितादि सुरभिगंधो चंदणागुरुकुंकुमादीणं |N आसायपडिसा भाणमुई, जो तस्थ सिद्धा, सालुगं उप्पलकंदगो, विगलिया गोल्छविसए बल्ली, पलासतो सासवसिद्धत्थपालिता, आमयं अरद्धं, असत्थपरिणतं सचिन, पिप्पली पिपलिमूलं, मिरियं मि २, सिंगवेरं मुंटी अल्लगं वा, चुण्णे एतेसिं चेत्र, दीप अनुक्रम [३७१३७६] ॥३४० पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", अष्टम-उद्देशक: आरब्ध: [352] Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध २], चूडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [८], नियुक्ति: २९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ४३-४८] (०१) AN पिंडैपणा प्रत वृत्यक [४३-४८] श्रीआचा|| अबफलं च फलमत्थओ, झिझिरी वल्लिपलासगमूल, सुरमिपलंबं सग्गयमूल, सल्लइए मूलं मोपई, पलासा(वाला)णवि, आसो- रांग सूत्र- दृपलासं वा आसट्ठो पिप्पलो, तेसि पल्लवा खअंति, नग्गोहो नाम वडो, पिलक्खू पिप्पली, ऊरमल्लइएवि, अंबसरोडुगं डोहियं | चूर्णिः | वा, एवं अंबाडगकचिट्ठदालिमविल्लाणवि, उंबरमंथु वा मंथु नाम फलचूर्णा एव, गम्मोहपिलक्खुसोट्ठाण मंथु वमणितिलेहिं। ॥३४॥ | समगं चुण्णिजंति, आमगं आमगमेच, दुरुकं दुपिटुं, अह अणुभी बीजो साणुवीय आमडागं आमचं, न मृतं अमृतं सजीव| मित्यर्थः, पूतीपिण्णाओ सरिसवभक्खो, अहवा सम्बो चेव खलो कुधितो पूतिपिण्णाओ, महुंपि संसजति तवण्णेहि, एवं णव णीयसप्पीवि, खोलं कल्लाणाणं, एत्थ पाणा अणुप्रसृता जाता संवृद्धा वकंता जीवा, एस्थ जीवा, णस्थि परेण विद्धत्था, एत्थ PA संजमविराहणा, बलीकवग्गुलेस्सादिदोसाग पट्ठिओ, मेरगं च्छोडियणं, मिझो मेदो, अंककरेलुगं वालिखरगं वा, एते गोल्लविसए, AU कसेरुगसिंघाडग, कोंकणेसु पूति आलुगं वा, ण पडिगाहेज्जा, एते जलजातीया होति, उप्पलनालो सम्वेसिपि खिज्जति भिसं | जहरए, पोक्खर केसरं सुकलं, पुक्खलगं खलगं, पुक्खरविगा कच्छमओ, अम्गवीया सालिमादी अनो वा जो परिभोगमेति, Ka मूलवीया फणसमादी, खंधवीया उंबरमादी, पोरवीया उच्छुमादी, अण्णाणिवि एतेहिं चेव जाई परिभोगमेति, एते आसमाणकुप्पं, N अण्णत्थ तकलिमत्थरण वा तकलीसीसएण वा नालियेरिमत्थएण वा खज्जूरिमत्थरण वा, एते एगजीवा, ते छडित्ता मत्थओ |घेप्पति, सो लहुं चेव विद्धंसति, एते ण कप्पंति, काणं पुण खड्यरात ? अंगिरगं खइराएणं समंडवाहियं वा यासिताला तेहिं दूमयंत न सकेयं खाइतुं चेव, तस्स अग्गर्ग-कंदली उस्सुगं-मज्झं कत्तं तीए हथिदसगसंठित, कलतो सिंचा, कलो चणगो, ओली सिंगा IAM तस्स चेव, एवं मुग्गमासाणवि, आमना कति, लसणं सवं, मिजाउ वा पतं तस्सेब, णालोवि तस्सेव, कंदओवि तस्सेव दीप । ॥३४१॥ अनुक्रम [३७७३८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [353] Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [४३-४८] दीप अनुक्रम [३७७ ३८२] भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) - श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [८], निर्युक्तिः [२९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ४३-४८] श्रीआचारांग सूत्रचूर्णिः ॥३४२॥ तया आमं ण कप्पति से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अच्छिगं कुंभीए पचति तेंडुगं तेम्बरूवं, एवं चैव वेलुगं विछे, कासवणालिता सीवष्णगं, आमगं असत्थपरिणतं लाभे संते नो पडिगाहेज्जा, फगतंदुला कणियाओ, कुंडओ कुकुसा, तेहिं चैव पूर्वलिता आमलिता, चाउला तंदुला, पिट्ठत्ति आमं, पिडुलोबि तिलपिडं, तिलपपडं आमं असत्यपरिणयं लाभे सन्ते णो पडिगाहेज्जा ।। अष्टमी पिंडेपणा परिसमाप्ता ॥ संबंधी सीलमधिकृत इहापि सीलं, पिंडोऽधिकृतो वा इहापि पिंड एव, खेतं वित्ता चउद्दिसिं पण्णत्रगदिसं वा पहुच संते ० सड्डा भवंति संभवो तं साहुं प्रशान्तं दद् हिंडतं सीलमंतादि संसिद्धा, इमं पुब्वं सिद्धं, मेहुणादो, इतरं आहारकतिणि, छंदिहि, से भिक्खू विस्तारो वा सुहाए समणं च एतप्पगारं सो तं अंतरिओ भोज्जा पुरओ वा भणिज्जा - एतस्स देह, अम्हे अष्णतरं, धम्मो, लाभे संते गो पडिगाद्देज्जा | समणादी पुब्व्वभणिता, गामादिसु पुरेसंयुता पच्छासंधुता, पुत्रं पविसमाणस्स, केवली बूता, उकरेति — परिवहेति, उबक्खडेति रंधेति, सेत्तमादाय एगंतमवकमिज्जा, कालेन सतिकाले तत्थेव पढमं वचति इहरहावि हिंडतं द आरंभ करेज्जा, गिट्टी चेयं, अहा सकालेवि पविस्स उबक्सडिज्जा आहू तं पडियाइक्खिस्तं, माइहाणं. संफासे, णो०, पुण्यामेव पडिसेहिज्जा, तहवि करेज्जा पण पहिगाहेज्जा । मंसमच्छा मज्जिज्जति, सक्कुलिग्गहणा सुकखज्जगं, पूयग्गहणा बेहरद्धो तेछापूतो, आदेसो पाहुणओ उ णो वद्धं २ पुणो २, णण्मत्थ गिलाणो । अण्णतरं अणेगप्रकार, सुविभ गाम वन्नगंधरसफासमन्तं तब्धिरीतं दुब्भि, एगं भुंजति एवं परिविज्जति मायादोसा सईंगालदोसो य, रागदोसरहिता भुंजिज्जा, पाणगं पुष्पं अच्छे कसायक कप कसाए उट्टो होज्जा, अच्छे पुण सोधणादि, सुहेति मुहं से भिक्खु वा भिक्खुणी ९ पिंडेपणा [354] ॥३४२॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : प्रथम चूलिकायाः प्रथम अध्ययनं "पिण्डैषणा", नवम-उद्देशक: आरब्धः Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध २], चूडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [९], नियुक्ति: २९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ४९-५५] (०१) पिंडपणा प्रत वृत्यंक श्रीआचावा बहुपरियात्रणं णाम परिट्ठावणिय, बहुभिः पर्याय आपनं बहुमिः पर्यायापन, गिलाणपाहुणगापरियमादीहिं । साहमिया संभो-| संग सूत्र- इया उबहिसुत्तभत्तपाणादिसु, मणुनामणुनसि य भंगा चत्नारि, अपरि० परिहास्तवं न पडियना, सखिते उबस्सए अबसाहिते | चूर्णिः Nता अन्नपाडए वा सग्गामे, अणु पच्छा, परिहवेंतेणं पाहुणगिलाणादी परिचत्ता, तत्थ गंतुं वदिज्जा-इमे भे असणपाणखाइमसाइमे ॥३४३।। झुंजह, पाणे, परिभाएह वा णं, उके सतमेव परियामाए वा, अण्णमण्णेसि देह, जापतिवणं भन्नति, मुंचंतस्स पारिद्वावणियं, भुने पढमे कप्पं दाऊण इतरेण कप्पेतब्बं, अह भणाति इतरेण चेव परिवाएयव्वं वा। से भिक्खू वा भिक्खुणी या परं समुहिस्स | चारभई कुलपुत्तगं मतहरगं वा, णीहई बाहिं णिफिडितं, तं पुण छिन्नं वा अच्छिन्नं वा, छिन्नेत्ति देयं कुलगस्स वा, विवरीय-| मच्छिन्नं, समणुष्णातं गिण्हाहि, णिसट्ठ, पगते पडी सोय गिहत्थाणं भाव आगारेहिं जाणिना एतं कप्पति एतंण कप्पतिचि ।। । णवमी पिंडेसणा समत्ता। संबंधो साधारणाहिगारे इमंपि साहमिएहि साहारणं, माण सामन्न, तं पुण विण्डं तिण्डं वा, तस्स अणापुच्छा जस्सिच्छति तस्स देति असामायारीए बढ़ति माया, सेत्तमादाय-तं गहाय तत्थ गन्छिज्जा, संति पुरेसंधुता पुवायरिया पवावगा आगता Vतेसिं देमि, जया वा आयरियाण मज्झगता जेसि पासे मुतं पढितं सुतं वा ते पच्छासंधुता तेसिं, खद्धं २, कामं णाम इच्छाता, अहापज्जत्तं जहा पज्जतं जावइयं वा बदेजा, इहरहा साधारणतेणिता, इमा णि साधारणतेणिया, अहवा तदपि सामण्णं आलाबगसिद्धं चेव, भगं णाम मणुनं धनादि, संपत्त वा, मिक्खागतो चेव मुंजति जिम्भादंडेणं, विवयं बनादीहिं विगतं विवन, | विगतरसं यन्नगंधरसफासेहिं वा नृ(५)प्रदेइ अण्णेसि रसेहिं वा का (४) आहारति, माया णो, एवं अंतरुच्छणं दोण्हाराणं मज्ज्ञ, ॥३४३॥ [४९-५५] दीप अनुक्रम [३८३३८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", दशम-उद्देशक: आरब्ध: [355] Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१०], नियुक्ति: [२९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ४९-५५] (०१) प्रत वृत्यंक श्रीआचा-||गंडीता चकलिता, छेदेण छिन्नता, चोदगं उच्छ्रितोदया छल्ली इत्यर्थः, उच्छुसालगं गिरो, अहवा सगलं उमंदो कालीओ बहुरांग सूत्रDD | गीतो, चोदगं खंडाखंडी, खंडाणि दलिता, सिंबलिं वा थोबातो सिंगाउ, थाली सव्वातो चेव, पिंडो समूहो य, उझियधम्मिया-D | पिंडैषणा चूर्णि दोसा। मांसे संजमायपवयणविराहणा, कारणिगगिलाणस्सट्ठा जावइयं मंसगं दलेहि, सो य पुण सट्टो सट्टी वा फरुसंण भणेजा। ॥३४४॥ | खंडे गिलाणणिमित्तं वा मग्गिर्त लोणं दिण्णं, अणामोगेण, पुनमणिता लोणा, सेसं आलावगसिद्धं जाव बहुपरियावण्णो । दसमी IN Dपिंडेसणा समाप्ता ॥ संबंधो गिलाणाहिगारे इहापि गिलाणएण वा, मिक्खणसीलो भिक्खू 'अकु भक्षणे मिक्षा भवन्तीति मिक्षाकाः समणादि भणिता, गिहि पबहतो वा, गिलाणस्स एत्थ वेति-से हंदह णं तस्साहरह खणेध दोण्हवि तेणियं करेति, पलिउंचगया आलो| यमाणे, पिंट संपत्त, कहं पुण पलिउंचति !, पित्तितस्स तिचकटुगं भण्णति, सिंभविपस्स महुरं ण भवति, सेसेसु विवरीय जहि| च्छियं आलोएइ, जहा गिलाणस्स सदति, कदाइ बाधातेणं ण णिजावि थोवं भत्तपाणं गिलाणे, अत्यंतो सूरो, गोणा खंधावारो | हत्थी मत्ततो मूलं वा होजा, इच्चेयाई आयतणांई-आयतणदोसाई, अपसत्थाई संसारस्स, पसत्थाई मोक्खस्स नाणादी । इमा || |वा सत्त पिंडेसणा, तंजहा-असंसट्ठा १ संसट्ठा २ उद्दडा ३ अप्पलेवा ४ उवट्टियाए उम्गहिता ५ पग्गहिता ६ उझिपधम्मियागा। |७, पढमा दोहि वि असंसट्ठा, सत्तुगकम्मासा सुक्खोदणो वा, सयं जायति परो वा देति, गिलाणादिकारणेण वा इतरंपि गिण्हति V. वितिया दोहिवि संसट्ठा, सुठुतरं पच्छेकम्मादोसा वञ्जित्ता, ततिया पाईणादि पण्णवगदिसा गहिता, कुक्कुडीयच्छति वा, कंसरुप्पमयं | वा पहडए वा अनंमि च्छूई, सरगं व समयं पिच्छिगादि, पिडीया छड्डगं पलगं वा परमंसि वा, धरा भूमी, अहावराहं तंजहा ॥३४४॥ [४९-५५] दीप अनुक्रम [३८३३८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", एकादशम-उद्देशक: आरब्ध: [356] Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [११], नियुक्ति: [२९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ५६-६३] (०१) श्रीश्राचा संग सूत्र चूणिः ॥३४५॥ | प्रत वृत्यक [५६-६३] बरा हंतीति वराहं उक्कारतीत्यर्थः, तं अलंदिगः वा कुंडगं वा, परझं मणिमवमादी, विरूवरूवमायणाणि अणेगप्पगाराणि, भायण अणेगप्पगारमेव, असंसट्टे हत्ये संसट्टे मचे चत्तारि भंगा, गच्छवासीणं चउहिपि अण्णिसीणं चउद्दिपि गिण्डंति, जाव णं संसहेदि दोहिवि गहणं भंगेहिं, सुत्तादेसेण वा ३, पुहुगादी पुब्बभणिता, अप्पसत्थकम्मे अभावे, अप्पसत्शे पञ्जबजायति निरवसेस, पाणतं तकणेसरणा ४ पंचमी उवगहिता, उबगहियं भुंजमाणस सअट्ठाए उवणीतं, सराव सरावमेव, डिंडिमं थडिकगं, कोसओ कोसगमेव, जस्स तं उब्वतंतस्स पाणीमु जो दगलेयो सोवि परिणतो सो वा दिया, जेण वा उवणीतं सो वा देजा ५, छहा उग्गहिता पग्महिता, उग्गहितं दव्यं हत्थगतं, पग्गहितं दिजमाणं, एलुगविखंभमेतं जस्संवि अट्ठाए उग्गहियं सोवि तं नेच्छति, पाद-| परियावनं कसभायणं, थिगदगलेको पाणीसु, नस्थि दगलेबो, देंतस्स नियनो भावो छट्ठो ६ सत्तमी देंतस्सवि जस्सवि दिजति | दोहवि णियत्तो भावो, अबउज्झियधम्मिया, पुचदेसे किर पुब्धण्हे रद्धं तं अवरणहे परिशुविजति, साहू आगमणं च, तंपि भाय णगं वा दिजा कप्पति, जिणकप्पियस्स पंचहि गहणं, थेराणं सत्चहिवि, एवं पाणएवि, चउत्थी अप्पलेवा तिलोदगादि, इच्चेतासि । | सत्ताहं पडिमाणं, गब्बो ण काययो जहाऽहं एगवत्यो दुवत्थो, मिच्छापडियन्ना वा एते, अहमेगो समाहिडिवणे, तमाणा भग|वतो, अन्योऽन्यसाधानार्थ । पिण्डैषणाध्ययनं प्रथमं समाप्त ।। संबंधो-एवं भत्तपाणं गहाय ठायव्वं भोनव्वं वा, एतेण संबंधेणं सेजा आगता, सेजा णाम वसही, 'सेजा उग्गम उप्पायण' गाहा ( ) पमाणे अतिरित्ता, इंगाले सुभा, धूमे विसमा, कारणे वासमावसतां दो अहिगारा वसहीए, ओहे विसेसो य आहिओ, | जहा एगा मणुस्सजाती सञ्चेव बंभणादीहिं विसेसिञ्जति, एवं ओहओ सब्वेवि सेजविसोहिकारगा, विसेसो उद्देसएहि, पढमे उग्ग ॥३४५॥ दीप अनुक्रम [३९०३९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: द्वितीय-अध्ययनं "शयैषणा", आरब्धं [357] Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२९८-३०४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६४-७१] (०१) पणाध्यक प्रत वृत्यक [६४-७१] श्रीआचा-| मदोसा 'एग साहम्मियं समुद्दिस्स' संसत्ता सागारिय सागणिय पाणेहिं वा, संजयपञ्चवाईए, सचेव वसही इत्थी चंभपचवाता, रांग सत्र- पासंडचारगादीहिं पञ्चवातो, चितिएण वा सोचवादी गाहावती सूयीसमायारा य बहुविहाण य सिजाण पिवेगो, 'ततिए जयंतच्छचूर्णिः लणा' गाहा (३०७) सिद्धा चेव, तीसे पुण सेज्जाए छको णिक्खेवो णाम ठवणा गता, दब्वे सचित्ताचित्तमीसगा, (३०२) सचिना दुपद चतुष्पदअपदाणं, दुपदस्स मणुसम्मुवरिं, चतुष्पदस्स हस्थिसंधपढ़ेसु महिसयस्स बा, अपदे हरियकायस्स, अहवा | सचित्ताए दबसेआए इमं उदाहरणं-उकालो कलिंगो य दो भायरो पल्लीवती य, तेसिं च दोण्हं भइणी वग्गुमती णाम, गोयमो | Mय परिवायतो, तेणं तत्थ संवसंतेणं बहु धणं विढतं, ताहे वग्गुमतीए पासा अस्थिधणो ठिओ, अपत्थोत्तिकाऊणं अहममग्गेण धाडितो, इतरेणं सधि णाऊणं सिद्धत्थगा विक्षिण्णा, ते उग्गता, तेण मग्गेण ते पल्लीवती आदणाविया, परिवायओ वेल्लु (बग्गु, मतीए | PA पोट्टे फालेस्था सुत्थो, एमा च सचित्ता दव्वसेजा, वितियादेसेणं वेल्लुमती चेव पल्टीए आहेवर्ष पारेवचं पोरेति, गोयमो बंभगो (U सहि, तत्थ उकलिकलंगा आजीवगा दोन्नि आगता, तहि कोटलेण वल्लुमती लासिता, तीए गोयमज्झयणाओ आवासो हरिता तेसिं दिग्णो, तहेव अबमग्गधारणा सिद्धत्थगपाडणं 'च, तत्थ पइण्णा गोयमेग कया-फालेउं पोर्ट सुयामि, पूरिया सा, एतिसा त अचित्ता भूमिसंथारपहिं उग्गमादिसुद्धा वा वसही, मीसिमा सतणिज्जे पुष्फोरयारकलिते, तणा चा अफासुगा न भूमी, फासुगा । | वा भूमी तणा अफासुगा, एसा तदुभवमीसिगा, पन्छतियमीसगा वा बच्चा, खिले जम्मि खिने वणिज्जति, एवं कालेवि, भावे दुविहा-कायगता छबिहभामि, गम्भो काए वमति सा सुहा दुहा य, जहा सुहिताए होति सुही दुहियाए दुक्खितो भवति, उदइओ | उदइए भावे वसति एवं सेसावि, जहा जस्थाहं तत्थ मे गि, अणुयोगदारवत्तवयाग तिण्डं सरणपाणं आयभावे चेव वसति, ॥३४६॥ दीप अनुक्रम [४००४०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: द्वितीय-अध्ययनं "शयैषणा", प्रथम-उद्देशक: आरब्धः [358] Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२९८-३०४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६४-७१] (०१) पिंडे पणाध्य. श्रीआचा रांग सूत्र-1 चूर्णिः ॥३४७॥ प्रत वृत्यक [६४-७१] | दब्बसेज्जाए पगतं, सा केरिसिता संजमजोगत्ति नायब्बा (३०१) सुत्तालावं 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ठाणं काउस्सग्गादी, सयणीयं सेज्जा, मिसीहिया जस्थ णिवसति, चेतिज आसेविजत्ति, तं अप्पंडं० एग साहम्मियं समुहिस्स च्छलणा | आलाया तहेव जहा पिंडेसणाए, णवरं बहिया णीहडं छप्णी सगड वा छइभंग णीणिज्जति कट्ठितो पासेहि, ओकिंचिमे उबरि | उल्लवितो, छनो उपरि चेव, लिचो कुट्टा, एते उत्तरगुणा, मूलगुणे अट्ठवि हणंति, पट्टा विसमा समीकता, मट्ठा माइता, संमट्ठा | पमलिता, संपविता दुग्गंधा सुगंधा कता, बंसगकडणो कम्मे अविसोहिकोडी, दमित धूविता विसोधिकोडी, खुहिनाई दुवारि| याओ जहा पिंडेसणाए, णिण्णुक्खु णीप्पता तं अंतो वा बाहिवा, उदए पस्याणि कंदाणिवा जहा उप्पलकंदगा, पोमणी वा, उस्सए | | कुंडएमु मट्टियं, तप्पोसणिया छातुं वाविज्जति, एवं मूलयीयहरियाणि, उदगप्पयाणि वा इतराणि वा, संजयट्ठाए गीणेज्ना, पीढं ण्हाणपीदादी पुषभणितानि, स्थानात् अन्यस्थानं साहरति-संकामेति, दोसा ते एव, खंति एवं खंभे पासाते दुढे वा विच्छिष्णे | अट्टपारए चा, फालिहोवि कोइ विच्छिन्नी जत्थ सुप्पेज्जति, ठाती वा, अण्णतरगहणा चंपले वा जत्थ पुरिसो निरनो मादि, नान्यत्र, आगाढागाढं असिवाती अलब्भमाणो बा, आहच-कदाचित् स्थितः स्यात् हत्याणि १, अविरुद्धं पागते बहुवयणं विण्हं, मुहाणि वा, कहं ?, उच्यते, अत्रापि त्रयं, आसए आलुए णवबामणमुहाणि, उच्छिते उस्सद्ध उच्चारादि, पवयणादिसु दोसा, सागा| रिया पामतुल्छगिभत्था पुरिसेहि, सागणियाए अगणिसंघट्टो सउदयाए उदगवाहा, सेहगिलाणादिदोसा, सह इस्थिताहिं सहस्थिया | आतपरसमुत्था, सखुकुत्ति खुडाणि चेडरूवाणि, मण्णाभूमि गच्छंति, पडते य वदंताणि, इहरहा य वाउलेंति, अहवामुट्टा सीह| बग्घा सुणगा, पम् गोणमहिसादि तं, भंगमादि दोसा, एतेसु भत्तपाणाई च दळु सेहाणं भुताभुत्तदोसा, आताए सेचं भिक्खुस्स दीप अनुक्रम [४००४०५] ॥३४७॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [359] Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२९८-३०४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६४-७१] (०१) पणाध्य० प्रत वृत्यक [६४-७१] श्रीआचा-IV अलसताए वा विसहगा वा, रोगा सोलस, आयको जरादी, दीहघाती वा रोगा, आयको आसुचाती, कालुणपडियाए तेल्लेण वा | चूर्णिः | DI४ सिणाणं उवण्हाणं, कट्ठव(को)लवणगं, लोद्धं कसाए, वण्योश हलिद्दमादी, चुष्णो छगलं इटालचुण्णओ वा, पउमं कुसुंभं कुंकुम ।। IA वा, आवंसंति एकसिं, पसंति पुणो २, उन्बलिज्ज वा २, सीतोदगवियडेण वा उच्छोलिज्ज पहोएज, सिणाविञ्जत्ति अण्णेणं, ॥३४८॥ सिंचति सय, दारुणा दारुपरिणामति कटु परियट्टेति दारूं, अथवा उत्तराधरसंजोएण अगणिं पाडिता उजालेला उक्कोसंति वा, 2. उच्चावयं मणं णियच्छिज्जा, उच्चावयं अणेगप्पगारं, अकोसंत वा मा वा, अगणिकार्य उआलिजा, ससणिद्धा एव एत्थ उजा, उज्ज-17 लंतो चोरा सावयं वा ण एहिचि, अहवा सुट्ठ विज्झवितो, मा एणं दच्छितुं सावट्ठाहिति तेणगा एहिंति, एवं कस्सइ उज्जोओ। पितो, कस्सइ अंधगारो, अनाणमेतं, कुंडले च कुचितं, गुणो दोरादी एगतरं, मणी मणिरेव, सूचिए सुत्तिका, हिरणं मासगमाला, | तरुणिय कुमारिमझिमवयं चा, एरिसगा मे भोतिगा आसि णं वा एरिसिंगा भाणिजा, णमए समाणं संचिक्खादि, माण सा एजा, | कहं मम एताए सव्वं मेलतो होजा?, अहवा सा कपणा ताहे चिंतेति-एस मए पटुप्पजेजा, अतोण मे तं इस्थिगाति लवे सीलDD | मतादि, संवासा जा एतेहिं सद्धिं मेहुणं अप्पता य सेवति, धूयवियाइणि पुनं पुत्तवियाई यस्मिन् ओरालसरीरं ते, यस्मिन् सूरो, वचंसी दीप्तिवान् , जसंसी लोगकयसंपराइयपराक्रमः, आलोगदरिसणिजंदरिसणादेः प्रीतिजणणं उपसंपाओ उक्सप्पं करेजा, आय| परतदुभयसमुत्था दोसा, तम्हा तारिसए ण ठाइयव्वं, एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा० सामग्गियं । इति शय्याध्यसने प्रधमोद्देशकः समाप्तः॥ संबंधो सागारिदोसा अणुयत्तंति चेव, गाहावई नामेगे सुइसमायारे, गिम्हे चंदागादिणा समालभंति, सिसिरे अगरुणा, | दीप अनुक्रम [४००४०५] I STRATrailar ॥३४८॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: द्वितीय-अध्ययनं "शयैषणा", द्वितीय-उद्देशक: आरब्ध: [360] Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध २], चूडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [३०४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७२-८६] (०१) प्रत वृत्यक [७२-८६] श्रीआचा | बरिसारने धूवेणं, साहुणो ण हायंति, मोयसमा० वियरंति तेण तेसिं सो गंधो पडिकूलो, पुब्बकम्मति निहत्थाणं पुब्बकम्म || शय्याध्यरांग सूत्र HAI उच्छोलणा तं चा पच्छा पब्बला, समाउट्टा होति, तत्थ बाउसदोसा, अहण करेति तो उड्डाहो, अहया ताई एवं एए जेमणमाहओ | यनं उ०२ चूर्णिः AN| पन्छा, संजय उवरोहो मुत्नत्थाणं, उसूरेणं वा पछिमाए पोरिसीए जमिताइओ, ताहे संज्याणं पाढयाघातोति पदे व जिमिताई. ॥३४९॥ M. उवखटणावि एवं, प्रत्यागते उसकणं, उसकणदोसा, मिक्खुप्पडियाए वा बहुमाणा करेज वाण वा, अह भिकाबु. आताणमेतं | मिक्खुस्स, अप्पणो उबक्खडिजा, तत्थ भुंजेज वा पीतिअिदावि, पट्ठि नए एमि चक्खुपहे अच्छति, ताहे सीदति गिदंते संजमविराहणा, अणेगरूबाई मिचं पुढालिताणि, दारुणा परिणायं परियणं अभिजाणणं वा, वियट्टित्तए अदरे, तप्पति संजमविरा-11 | इणा, से भिक्खू वा भिक्खुणी कवाडं तदेव संधि चरति तस्संधीचारि, तं घरं उम्भक हिं कतं, खेतं अलभमागगा बाहिर छिई मग्गति, साह णिग्गतो, संधी णाम अंतरे छिई, तेणं उडयं पवि सिजा, आयुधहत्वगतो०, मिक्खु नो कप्पति अयं तेणे | | पवसिति वा ण या पविसति, उपल्लयति टुकति व्रजति रुस्सति, साहू भगति-तेणं हडंति अमुतेण हर्ड ?, ताहे साहू भणति-अण्णेण हडं, पा तेण, एवं साहू चेव भणति, तस्स अमुगस्स ठवियगं हटं, ताणि वा भणंति-अमुगस्स टविपगं इडं ?, ताहे साहू भणति | सो-तस्स अबस्स हई, सो वा साहू किंचि दरिसेति अयं उवचरए, उवचरओ णाम तारिओ, नाणि वा साहुं चेव भणति-अयं तेणे अयं उवचरिये, अयं एत्य अकासी चरियं, आसि वा एत्थ, सम्भावे कहिए चोराजो भयं, तुहिके एवंगिरा अतेणगमिति संक्रति, एते सागारिए भवे दोसा। से भिक्खू वा भिक्षुणी वा तणपुंजेसु जा गिहाणं उपरितना कया, पलालं वा मंडपस्स उवरिं, हेट्ठा भूमी रमणिजा, संडेहि णो ठाणं चेतिजा, अपंडेहिं चेतिजा । से आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा साहू मासं अच्छिततो अह ॥३४९॥ दीप अनुक्रम [४०६४२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [361] Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध २], चूडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [३०४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७२-८६] (०१) शय्याध्ययनं उ०२ चूर्णिः प्रत वृत्यक [७२-८६] श्रीआचामि चेव दिवसे तओ ण एति, एवं सध्वं, निरंतर-अविरहिता, साहूण तस्थ दोसा, सीते सड़ी तीए वा परिकम्भ, च्छावणं | रांग मत्र संजयट्ठाए भवति, इदाणि भण्णति अपकिरिया, कालाइकंता जहिं स मासकर्ष वासावासं वा करेति, अतिता पाहणं वा पडीर्ण | वा दाहिणं वा उदीणं वा दिसा पनवगकप्पत्ति, कालाक्षरा रआदिसा वा गहिता, अट्ठो भणितो एव, णो सुणिस्संतो न सुद्ध॥३५॥ आयारगोयर सद्दहति, पुषफल वहीदाणस्स समणमाहणा अतिधिकिवणवणीमगा ममुद्दिस्स, आएपणा णित्थरणं सिमत्ति वणि | बुस्मति, अहवा लोहारसालमादी, आयतणं पासंडाणं, अवयन्तिया युद्धस्स पासे, देवउलं वाणमंतरहितं, देउलं वाणमंतरं सप | डिभ इत्यर्थः, सभा मंडवो, चलंती वा सा सवाणमंतरा इतरा या, पवा जन्थ पाणितं पिजा, पाणितगिह, श्रावणो सकुडओ, पणियA1 साला आवणो चेव अकुडवे, जाणगिह रहादीण वासकुई, सा एगेसिं चेव अट्टा, छुटाकडा छुहा जत्थ कोहाविमति बा, दम्भा | बलिअंति पिणंति या छिअंति या, यचओ पिअति बलिजति य, वज्झा वरत्ता, जागहोणं दलि अंति, इंगालकम्म, एतेसि सभातो | भवंति, सुसाणे गिहाई, गिरि जहा खहणागिरिरमि लेणमादी, कंदरा गिरिहा, संतिये घराई, सेलपाहाणघराई, उवट्ठाणगिह | जत्थ जावइओ उड्डावितु दमंति, सोभणंति भवणं, भा दीप्तौ, उच्चनंतेहिं उपवति, एमा अतिकता, सा दुसीलमंतत्तिकाऊणं एते | आहाकम्ममि ण वदंति, अप्पणो सयट्ठाए कयाई, एनेसि दोसा-अपणो अण्णाई करेमो इतराइतरेहिं कालातिकता, अणतिकता | इमा अआ इतरा, एवं सेमावि अण्णतरा इत्यर्थः, पाहुडे हिं पाहुडति या पहेणगंति वा एगहुँ, कस्य, कर्मवन्धस्य, णिरतस्य पाहुPaiडाई दुम्गतिपाहुडाई च अप्पसस्था सेवणाए सावअकिरिया, महावज्जा पासंडाण अट्ठाए एमा चेव बनब्बया, सारआ पंचण्हं सम णाणं पगणित २ एसा चेव दत्तव्यया, महासावजा एगं समणस्म जातं समुहिस्स जापति गिहाणि वा महता छजीवनिकायस- ॥३५०॥ दीप अनुक्रम [४०६४२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [362] Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [७२-८६ ] दीप अनुक्रम [४०६ २०] भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) - श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [ ३०४...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ७२-८६] श्रीआचा संग सूत्रनृणिः ॥३५१॥ मारंभेणं महता आरंभसमारंभेणं अगप्पगारेहिं च आरंभेहि संजयङ्काए छावत्ति लिप्पति संधारगा उथरंगा कुणंति दुवारं करेंति पीवंति बादो अ, सीतोदगपडे अभितरता सष्णिक्खिता, अगणिकार्य वा उजालेति, पाउया वा जे एतेसु उवागच्छंति, इतरा| इतरेहिं पृथ्वभणितं दुपक्वं कम्मं सेवंति अपसत्यासु, जहा रागो दोना य, पुनं पावं, इहलोइयं पारलोइयं च अहवा संपराइयं ईरियावहिये एसा महासावआ, अप्पमाबजाए अप्पणी सयङ्काए चेएति, इतराइतरेहिं इद अप्पयत्याणि वञ्जिता सत्येहिं पाहुडे हिं निव्वाणस्स सास्स वा एगपक्वं कम्मं सेवति, एगपक्वं ईरियावहियं एसा अप्यसावजा एवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा० सामग्गियं ॥ इति शय्याध्ययनस्य द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥ संबंध अागे विवाफासुगाणं गहणं, बसही सेया णो सुलभा, फातुए च उपस्सए आहारो सुहं सोहिज्जति, से बही दुक्खं, अच्चस्थं अण्णावेण कतउंछे असगिज्जे जहा एमणिज्जे सदो पुच्छति, उज्जगं साहुः, कम्मत्य साहणे अत्यंति भति पढमस्सता गत्थि अप्पणी ठाणाइउ, पडिस्स करेड, एवं नो सुलभे फासुए उक्रेण य सुद्धं इमं पाहुडेहिंति कारणेहिं काणि वा ताणि च १, मंगलमादीणि, ते कुडाण भूमीते वा लेवणं, संचारगा उबडगो, दुबारा खुडगा महलगा करेंति, पिणं चेडस्स वा, पिंडवातं मम गिरह दोसा पुच्छंति वा, किमत्थं इव साहू तं इच्छति ? उज्जू भणति, अह आह आयरियाणवकम्मणभूमी छिट्टागं | काउस्सग्गा भायणाणि वा जत्थ पुच्छति निसीहिया, एवं एतेसिं पमत्रो, चरिया जत्थ साहुगो चंक्रमणियं करेंति, आयरिओ ठाणं काउस्सग्गादी निसीहिया, जन्थ उवमति सेआ सयंति, संथारओ इकडादी, विंडवातो आयरिओ, को एवं अक्खाति ? संति भिक्खुणो एज्जगा नियागपडिवण्या चरित पडिवण्णा अमातियो, त्रियाहिया व्याख्याता एवं भणितुं साहुणो गता, पच्छा ते शय्याध्य यन उ० ३ [363] ।। ३५१॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता...... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकायाः द्वितीय-अध्ययनं "शयैषणा", तृतीय- उद्देशक: आरब्धः Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], नियुक्ति: [३०४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८७-११०] (०१) रांग सूत्र प्रत वृत्यक [८७११० श्रीआचा- वा अण्णो वा गता, स्यणग्गहणा संविग्गो, सो गिहत्थो, मज्झो असिन् भनिए, केषां एगता उक्खित्तपुब्बा-पढमं साहूणं उक्खिवति अग्गे भिक्खं, मिक्खं हिंडताणं, 'थके थकावडित', अभत्तए सालिभतं जातं मज्झाजातं 'मज्झ य पइस्स मरणं दिय यनं उ०३ चूर्णिः | रस्स मे मया भज्जा' उक्खित्तपुब्वा मा एतं चरगादीणं देह, परिभूतपुव्वतं अप्पणो भुंजंति, साहूण य देति, परिद्ववियपुब्वा | ॥३५२।। अचणियं करेंति, तुरि पञ्चाइतुं, मा मे से सज्जातरो अगिण्हतेण भनिभंग, अण्णपासंडावि जस्स भणिता तस्स अणुग्गहं करेंति, | एवं गेहणे दोसा, कत्थति पुण वसही दुल्लभा नो मिक्खा दुल्लभा, णो वसही एगत्थ भिक्खा, से एवं साहू उज्जुकडो उक्खा10 यमाणो सम्यक् अक्खाति ण लज्जति, कर्म बंधेणं पुच्छा, आस गाहा, वागरणं, हंता सम्यक् भवति, ण लिप्पति कम्मचंधेण । | इत्यर्थः, एते परसमुत्था दोसा, इमे आयसमुत्था बसहीदोसा, अतिरिचा पट्ठिता ण अण्णतिस्थिया एज्जा खुड्डाखुडि एव दुवारं | संनिरुद्धं, खुड्डलगं वा, णिविताओ निरुद्धा साधूहि वा भरितिया, अहवा मुहूतिया चेव भण्णति सण्णिरुद्धिया, एतासु दिवावि पण कप्पति, कारणि ट्ठियाणं जयणा, राइविगाला भणिता, पुरा हत्थेण रयहरणेण हत्थोपचारं कुज्जा पच्छा करेज्जा, आवसियाणि सज्ज णिन्तार्ण, पविसंताणं णिसीहिया आसेज्जा, के च दोसा ?, समणा पंच, माहणा धीयारा, अहवा सावगा, भत्त, छत्तगा। मे, वमेत्तए उच्चारादि, भंडयादि णिज्जोगो, सव्वं वा उवगरणं, अट्ठी आयपभिसिता कट्टमयी, तिसिगा मिसिगा चेव, Vबलग्गहणा वत्थं वलयिणीदोसा, चंमए मिगचंमें, उदाहरणाओवा चंमकोस, उक्खल्लो अंगुजट्ठा कोसए वा, चंमछेदणयं बज्झो दुवट्ठादी, साहू पबडमाणेसु व दोसा, पउरण्णपाणं अन्नत्थ णत्थि, वसही दुल्लमे य, अण्णतिस्थियमादीसु जयणा, अणुवीयि अणु-| विचित्य, इस्सरो पभू सामी, स महिहिए पभु संदिट्ठो कामं जाव तब अम्ह य इच्छा, अहालंदं जहाकाले उदगवासासु अहा-||॥३५२॥ दीप अनुक्रम [४२१४४४] पर पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [364] Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [८७ ११०] दीप अनुक्रम [ ४२१ ४४४] भाग-1 "आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], निर्युक्ति: [ ३०४...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ८७-११०] श्रीआचा रांग सूत्र चूर्णिः || ३५३ ॥ परिणायं जाय अणुजाणसि ता ता चैव वसिस्सामि, सो आउतो भण्णइ अहं पुण्यं दिज्जिस्सामि जाब आउसो ! जाव तुमं जाव साहम्मियति जत्तिया तुम इच्छसि जे वा तुमं भणसि, णामेणं अणुसुओ मोतेगं विसेसिओ, कारणे एवं णिकारणे णट्ठायंति, | तेण परं जति तुमं उचविजहिसि ण वा तब रोए, इह हि उवस्सओ वा मजिहिति, परेगवि, वाहरण्णामो णामो गोनं जाणेता, णामेणं उस्सुओ गोतेणं विसेसितो, भत्तपाणं ण गिष्हति सागारिय सागारितो, पण्णो आयरिओ, अवा विदू जाणओ, तस् पण्णयस्स ण भवति, निष्क्रमणं प्रवेश संकट इत्यर्थः, वायणपुच्छणपरियडूणधम्माणुओगचिंताए, सागारिए ण ताणि सकंति करे, तम्हा द्वाणादीणि ण कुज्जा, मज्झेण गंतुं वत्थए अकोसमादी, सिणाणादी सीतोंदण पंच आलावगा सिद्धा, णिगिणाजग्गाओ ट्टियाओ अच्छंति, णिगिणातो चलिअंति, मेहुणधम्मं विभवेति ओभासंति अविरतगा साहुं वा तवरिंस, मेहुणपत्तियं चैव अनं किंचि गुहा, आदिष्णो णाम सागारियमादिणा सलाखा, सचितं कम्म इति पढमं संथारगं ण गेण्हे, वितिय अप्पंड गुरुवं तंगि ण गेण्डति, ततियं अप्पंडे लहुयं अपाडिहारियं न गिण्हति चउत्थं अप्पंडे लहुगं पाडिहारियं णो, अहावच्चं न गेण्हेज, पंचमं अप्पंड लहुगं पाडिहारियं अहावचं पडिगाहिज, लहुओ जो वीणागहणे आणिञ्जति, लहुओ आहावच्चे, पाडिहारिओ अट्ठ भंगा, पढमो पसत्थो, इचेयाई आययणाई आयतपाणि वा संसारस्य अप्पसस्थाई, पसत्थाई मोक्खस्स, पडिमा प्रतिज्ञा प्रतिपत्तिर्वा उद्दिस्सित णामं गेण्हेत्तुं जहा इकडं वा इकडाकयारादिके, कढिणो किं धम्मादी वासरते, जंतुयं तणजाती, परओमंडओ, मोरगी तणजाती वा, तणं सव्वमेव जंकिंचि, कुसा दम्भा, कुच्चते सण्डए दब्बे, बच्चए सिन्धु, पलाल पलालमेव, एतेसिं | माणसे गिव्हंति जत्थ भूमी ओमिजेति, उदिट्ठे कतार छिंदितु आपोज, गते ण पेहा विमुद्धारा, पेहा णाम पिक्खिन्तु एरिसगं शय्याध्य० [365] ॥३५३॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [३०५-३१२], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १११-११९] (०१) श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥३५४॥ प्रत वृत्यक देहि, वितिया पडिमा, ततिया अधासमण्णागता णाम जति वाहि वसति बाहिं व दुकडाणि, णो अंतो. साहीओ ण वेसणीओ शय्याध्य आणेयवा, अहणं अंतो अंतो चेव इकडाणि घेव, णस्थि तो उक्कुडगो णेसिज्जिओ विहरिजा तथा पडिमा, अहावरा चउत्था अहासंगडा तत्वत्था अहासंगडा पुढविसिलाओ पट्टओ पाहाणसिला वा कट्ठसिला वा, सिलाइग्गहणा गुरुया अहासंधडग्गहणा भूमीए एलगग्गं चेब, अलाभे उक्कुडुगणेसिञ्जतो चउत्था पडिमा, मिच्छा, पडिमापडिवण्णा दीहत अप्पिण०, जय णाम सअंडं ण |N पञ्चप्पिणंति, अप्पंडं पडिलेह पमजतोविय विणुधुणिय चलिय पचप्पि० लेहिता व राओ वा वियाले वा पचडणमादी दोसा, सेजा| संथारभुमीए गिझंतीए इमे आचरियगाई एकारस मुतित्तु सेसाणं जहाराइणिया, गणी अण्णगणाओ आयरिओ, गणधरो अजाणं | चावारवाहतो, सब्वेसिं एतेसि विसेसो कप्पो, वातादीण म हाणं तत्थेव, समविसमपवायाण य तत्रैव, अंतो मज्झे वा, बहुफामुगादी सेजा संथारगा आलावगसिद्धा, णवर आसादेति संघट्टेति आसतं-मुहं पोसियं-अधिद्वाणं, पवायणिवायमादिसु पसत्थासु सइंगाला, अप्पसत्थासु सधूमा, पडिग्गहियतरं विहारं विहरेजा णो किंचि गिलाएजा पलादि णाम मात करेति, कहं ?विसमदंसमसगादिसु बाहिं अच्छति अण्णत्थ वा इति ।। शय्याऽध्ययनं परिसमाप्त ॥ संबंधो सेजाओ भुजितु सण्णाभूमि गच्छंतस्स रिया अहासेजं च मिक्खं च मग्गंतस्स रिया सोहेयन्वा, ताए विही भाणियव्या, ठाणाओ अणंतरं वा रिया, तस्स उद्देसगाहिगारो सवेऽविरियाविसोधिकारगा (२१३) नहेति इमो विसेसो-पढमे | | पवेसो णिग्गमो य सरते अद्धाणजयणा णावजयणा वा वितियए णावारूढे छलणं णाम जंघाहिं संतारिमे व पुग्छियन सपचवा| यणिपथपाये, ततिए दाणं नावियादीणं अप्पडिबद्धो य उवधिमि बचे, ण य रायसंपसारियं गाहावइसंपसारियं वा, वयष्या, |३५४॥ ११९] दीप अनुक्रम [४४५ ४५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: तृतीय-अध्ययनं "ईर्या", प्रथम-उद्देशक: आरब्ध: [366] Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [३०५-३१२], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १११-११९] (०१) प्रत वृत्यक श्रीआचा दवरिया सचित्तस्स जहा बाउणो पुरिसेण वा पेरियं दव्वं, मणुस्सस्स चा गच्छतो अणाउत्तस्स, अचित्ता जहा रसस्स, परमा-| रांग सूत्र | गुस्स वा, मीसगा जहा सगडस्स, खेत्तरिया जंमि खेने भूमिबलं पड्डुच्च, कालएरिया जहा धूयते णयाण, भावे रीया रियासमिती | चूणिः | संजमे सत्तरसबिहे संजमो, कई वा णिहोसं गमणं समणस पुच्छा ?, वागरणे सोलस भंगा, पंधेण दिया जयणाए सालंबो पहमो । ||३५५॥ | सुद्धो, सेसाणं जस्थ आलंवणं अत्थि नाणादि, उप्पधि वासवाति, जयणाएवि सुद्धो चेव, गाहाणुलोम बद्धा वा सोलस भंगा, | सुत्ताणुगमे अब्भुवगते अभ्यर्ण प्राप्तः अभ्युपगत इत्यर्थः, वासा० वर्षासु वासो, बासे चेव, अहवा वासाकाले बासो बासे चेव | वर्षासु वर्षा इत्यर्थः, अभिमुखेन प्रविष्टः अभिप्रविष्टः वृद्धे काले पत्ते णो वासे भंगा, पाणग्गहणा इंदगोववीयोवगादी अभिसंभूता | | जावइया, अहुणुभिण्णा अडरिता इत्यर्थः, अंतरितो बरिसारत्तो जहा 'अंतरवणसामलो भगवं' अंतराल वा अंते अणो-| Vतो लोएणं चरगादीहिं बा, अकंतावि अणकंतसरिसा णो विण्णाता पाणियण वञ्चति०, सेवं वा णो गा० से भिक्खू वा दीयार भूमि, णस्थि विहारभूमी सज्झायभूमी, पीढके णस्थि मया, इहरहा बरिसारत्ते णिसिजा कुत्थति, फलगं संथारओ, सेजाओवहिमादि जहनेणं चउगुणं खेतं, विरायइ समिई बिहारवसही आहारे उकस्सं तेरसणुणोत्रवेयं चिक्विल्ल पाण थंडिल गोरस वसही जपाउले वेजा । ओसध णिचता अधिपति पासंडा भिक्षु सज्झातो ॥१॥णो सुलभे फासुते उंछे पुव्युत्तं पिंडेसणाए, उवा| लएआ आगच्छेजा, विपरीएसु पसस्थए उल्लिएजा, अह पूण एवं जाणेजा चत्तारि मासा णिग्गमी तिविहो, आरेण पुणे परेण | असिवादिसु कारणेसु, आयरिय असाधए आरेणवि, वाघानेण सुक्खेसु पव्वेसु, कत्तियपाडिवए, दसराए गतेसु, ततो परेण पव| तेणवि णिम्गंतव्यं, आला दसराए यतिकते बहुपाणे मसगादिसु, समणातिसु अगागएसु ण रीतेजा, विवरीते रीएआ, कहं , ११९] ||३५५॥ दीप अनुक्रम [४४५ ४५३] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [367] Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [३०५-३१२], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १११-११९] (०१) श्रीआचारांग सूत्र चूणि ॥३५६॥ प्रत वृत्यक पुरतो जुगमात्रं पेहाए दुहतो य पार्श्वत इत्यर्थः; दलृत्ति उक्खिवित्तु अतिकमितु वा, साहटु पाएति साहरति निवर्तयती ईयोध्या त्यर्थः, वितिरिच्छं पासेणं अतिकमति, सति अ विजमाने, अन्यत्र गच्छेत, ण उज्जुगंधीयमाइसुविण गच्छिञ्जा, विरूवरूवाणि भासाए वेसेण य, भासाए जहा मीडसवरादीणं, वेसेण बाहुकट्टेण वा अवणइम्मि चूडगा सीसे मणुस्साण ओलिहिअति, एवं अणे| गप्पगारा, पचंतियाई अद्धछवीसाए जणवयाणं जे अंता एए भवंति-रिताए जए वेयाए, पर्चता, पर्चते भव। प्रत्यंतिका णिमा गुस्सगणा इत्यर्थः, दसंतीति दमुगाणि, जहा पुवसमुहलग्गा, दसुंति मिलक्खाणि, जंकिंचि भणिवो रुस्सति, अणारियाणि, | अणार्यवृत्ताणि, दुस्सण्णप्पाणि रुद्वाणि दुःखं सण्णविजंति दुक्खेण वा णजआणि धम्मं न गेहंति, तहिं अच्छताणं तित्थवोच्छेदो, अकालपडियोहीणि रति उद्विना गच्छंति मूलकंदादीणं, अकालभोई रचिंचेव भुंजंति, सति लाढे सति विजमाने लादेति। संयतस्याख्या, जावति अन्यत्र इत्यर्थः, विहाराय, संथरमाणेसु सुभिक्खे वहमाणे ण विहाराए, केवली, तेणं बाला, उबचरतो चरतो, ते य आरिएहि विरुद्धा०, कारणे सत्येण तेसिं मझेण बीतिकमिजा। अण्णारायं राया मतो, जुगरायं जुगराया अस्थि कता वा दावं अभिसञ्चति, दोरजं जत्थ बेरं अण्णरज्जेण सएण वा सद्धि, विरुद्धगमणं यस्मिन् राज्ये साधुस्स तं विरुद्धरजं सं०, भिक्खू वा २ अंतरा विहं विणा सत्थसण्णिहाणमित्यर्थः, एकाहेण अह इति दिवससंख्या, कह?, उच्यते, असाविति, णा| वा० णावासंतारिसे किणेजत्ति केति सड़ी-श्रद्धी, दुक्खं दिने दिने मग्गिजति ण वा०, पामिर्च उच्छिदति, परिणामो णाम परि| यदृति, इमा साहूण जोग्गत्ति वट्टिया खुडिया सुंदरी वनिकटु, पुष्णा भरितिया, सण्या सुत्तिया चिक्खिाल्ले, उड़गामिणी अणु-10 । सीयं, तिरिच्छंति तीरियगामिणी, अजोयणं दुरतरं वा, ण गच्छिा , अप्पतरो अद्धजोयणा आरेण, भुञ्जयरो जोयणा परेणं, ११९] दीप अनुक्रम [४४५ ४५३] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [368] Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [३०५-३१२], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १११-११९] (०१) AMI भीयाचा रांग पत्र चूर्णिः ॥३५७१ प्रत वृत्यक D| अहवा एकसि अप्पतरो, बहुसो भुजपरो, तिरिच्छसंपातिम जाणित्ता एगंतं एगायतं भंडग, हेट्ठामुहे सांतरी करेति, उवरि भंड-10 ईर्याध्ययन गए, पडिम्गहं एगजुयगं करेति, कार्य सव्वं पाए य पमञ्जति, भत्तं पञ्चक्वाति सागारं, ताव एगते अच्छति जाव अप्पणो जाएण | पट्ठिता, जहा एगेण स्थले एगेण णावाए, अशक्ये जले एगे एगे णावाए, अहवा एगे जो एगे थले, पलं आमासं, ण विरोलेंते, | ठाणतियं परिहरित्तु मज्झे दूरुहेजा, ण वाहातो पगिझिय २ उष्णमिय २ णिज्झाएजा अहो रुक्खा धानंति, एगचित्तो माणे, ऊद कसणं उक्कोसणं, समुद्दबातेणं, अधस्तात्कसणं, भंडतेणं खिवलं लग्गाए रजाणं ढोकर्ण जयणं वा. ण तस्स तत्प्रतिज्ञ परियाणेजा, ण आढाएका करिज वा, तसिणीओ उवेहेजा, अच्छिजा खडओ, अलिनओ कोदिवियाए फिट्ठो महल्लो वंसी, बंसए बलउ, कट्ठो वट्ठगं, अबल्लओ अवल्लगमेव, कंठगंधो उच्यते, उत्तिंग आगलंतर्ग, चेलमट्टिता चीवरेहिं समं मट्टिया महिन्जति, कुशप| ओ दम्भो, कुंभीचको वा मोल्लविसए असवनश्रो भण्णति, कुर्विदो सोदइ वक्काडओ, उसिंगगं आसेवति, उवरिगं दूसे गेण्हति, | कजले तित्ति पाणिते भरिजति, पो परं०, अप्पुस्सुओ जीवियमरणं हरिसं ण गच्छति, अहिलेसे कण्हादि तिणि वाहिरा, अहवा | उवगरणे बज्झोपवण्णो बहिलेसो, अबहिलेस्से पगतिं गतो, 'एगो मे सासओ०' अहवा उवगरणपुतित्ता एगीभूतो, वोसज्ज | उवगरणसरीरादि, समाहाणं समाधी, संजतगंण चडफडेंतो उद्गसंघट्ट करेति, एवं आधारिया जहा रिया इत्यर्थः ।। रियाए । प्रथम उद्देशक समासः॥ ___ संबंधो नावाधिगारो, नावाए व डंडगमादी, आत्मीयउपगरणं हाहि, एयाणि य असिधणुमादीहिं धारेहिति, दारगं वा । पमजेहिसि भुंजावेहि, घरेहिं वा णेा, अम्हे गावाए कम्मं करेमो, भंडभारेति जहा मंडभारियं ण वा किंचि करेति, थेरा उब्वे-10॥३५७॥ ११९] दीप अनुक्रम [४४५ ४५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: तृतीय-अध्ययनं "ईर्या", द्वितीय-उद्देशक: आरब्ध: [369] Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], नियुक्ति: [३१२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १२०-१२६] (०१) ईयोध्ययन INV प्रत वृत्यक [१२०१२६] श्रीआचा- ढति, जिणकप्पिो उपफेस करेति, उप्फेसो नाम कुडियंडी सीसकरणं वा। अमितकूर० अमितकर्माणः, ते मणिता सय- रांग सूत्र मेव उल्लंभासि, सहसा वा छुमिज्जा, णो सुमणो, कह?-मरामि चेव, अहवा अहो मरियन्वर्ग, दुम्मणो हा मरियम्ब, कहं च चूर्णिः | उत्तरियब ?, उच्चावए तो जणवहंते उरस्स बल्ली चा णिद्वातति, राउले वा च्छुभषेति, णियाणं करेति, वहपरिणतो मरतो, हत्थेण ॥३५८॥ हस्थादीणि संघट्टेति मा आउक्काय विराहणा होहिति, दुबलभावो दुबलियं, ताहेति उयहितीरे ताव अच्छति जाव दर्ग सव्वं गलितं, उदउल्लससणिद्वाणं कालको विसेसो, आमज्जेज कहंचिगा दोसा, जं बल्लेण परिणामिते आमजेज, परे गिहत्था अण्ण| उत्थिया वा, परिगविय चुंफ करेंतो जाति, धर्म वा कहेंतो, संजमश्रायविराहणा, तेणपहे वा घेपेज्जा, जंघासंतारिमे कंठं, वप्पाती | पुष्वमणिता, अहवा वप्पो वट्टो बलयागारो, गंभीरोदयं या तलागं, केदारो वा, मट्ठा अपाणिता दरीपवयकुहरा भूमीए वा, जिणकप्पितो पाडिपहियाहस्थं जाइनु उत्तरति, थेरा रुक्खादीणिवि, जावसाणि वा मासजवसो वा, जहा गोधूमाण वामुसो, सग|डरह सच सविसयराया, परचकं अबराया, सेणा सराइगा, विस्वरूवा अणेगप्पगारा, हस्त्यश्वरथमनुष्येष, चारउत्ति या काउं | आगसेखा, कट्टिा सुमणो, एते णाचिताओ वादेणं दंडियं पड़प्पाएमि, उच्चावदं घातबहाए सावे देति, गामाणु• पाढिपहिया पुच्छेज्जा केवइए से गामे णगरे वा, केवतिएत्ति केवढे केत्तिया आसा हत्थी, ते चारिया अण्णो वा कोह पुरुछेन्ज, ण पुन्छे, न | कयरे वा, णो वागरेज्जा, एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा २ सामग्गितं । इति इरियाद्वितीयोदेशका समाप्तः॥ संबंधो रियाधिगारे, इहापि रिया एव, अंतरा वप्पाणि ते चेव, कूडागारं रहसंठितं, पासाता सोलविहण्णूमगिहा, भूमी|| गिहा भूमीपरा, रुक्खगिह जालीसंछन, पव्वयगिई दरी लेग वा, रुक्खं वा चेइयकर्ट वाणमंतरच्छादियगं, पेठं वापि मेरवं, धूभेवि दीप अनुक्रम [४५४४६० पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: तृतीय-अध्ययनं "ईर्या", तृतीय-उद्देशक: आरब्ध: [370] Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], नियुक्ति: [३१२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १२७-१३१] (०१) प्रत वृत्यक [१२७१३१] 13 एवमादीणि आभिरामणा(एसणा)णि जहा गिरिणगरे, णो परिगिझिय २ णिज्झाए, णमरणगखरिया ज्झा व लोलया, पप-m रांग मूत्र- यावहिता पलिमथु, कच्छाणि जहा नदीकच्छा, दवियं सुवण्णारावणो, वीयं वा चलियं वा, णदिकोप्परो, म भूमीघरं, गहणं गंभीर चूणिः जस्थ चकमंतस्स कंटगसाहातो य लब्भंति, वणं एगरुक्खजाइयं वा, वणदुग्गं नाणाजातीहिं रुकवेहि, पचतो पश्चयाणि वा, ॥३५९॥ मागहभासाग एगवणेण णपुंपगवत्तव्ययाणं, पथ्यइएवि पधइयपि, प्रासादकप्रासादकाई, पायदुग्गाई बहू पब्धता, अगडतलागदहा अणेगहा संहिता, णदीपउरपाणिया, वावी वट्टा मल्लगमूला वा, पुक्खरणी चउरंसा, सरपंतिया पंतियाए ठिा, सरसरपंतिया पाणियस्स इममि भरिते इमावि भरिज्जति परिवाडीए पाणियं गच्छति, केवली व्या जीवाणं उत्तसगं ईपत् विनसणं अणेगष्प-11 गारं वा तस्सति, सरणं मातापितिमूलं गन्छति जं वा जस्स सरणं, जहा निपाणं गवीर्ण गहाणं दिसावसरणं पक्खीणं आगासं सरिसवाणं बिलं, अंतराइयअहिगरणादयो दोसा। से भिक्खू वा २ आयरियमझाएहिं समगं गच्छंतो हत्यादि संघति आधाराइणियाए पगतो, आयरिया पाढिपहिया पुच्छंति, जिगकप्पिओ तुहिको, थेरकप्पिता कहें ति आयरिया, तस्स णो अंतरभासं करेजा, एवं राइणिए दो आलावगा, पडिपाहगोणमादी आइक्वह दूरगतं, दंसह अब्भासत्वं, परिजाणेज्ज कपिज हिज पाडिएहिं ता उदगपत्रयाणि कंदाति ४ पुन्छति छुहाइतो तिसिओ पिविउकामो रंधेउकामो सीयह तो वा अम्गी एवं चेव जह साणिगामो, कोहरे गामह मणुस्सवियाल पुच्चभणिता जिणकप्पियस्म सुत्ता, विहं जाणेजा विहं अडवी अद्धाणं आमोसगाधम्मियजायणा थेराणं तुम्भे चिएहि चेव दिण्णाई, जिणकप्पिओ तसिणीओ चेय, सयं करणिज्जंति रुचति तं करेंति अकोमणादी, रायं संसरतीति रायसंसारियं । णो सुमणे सिया सुकोसियतोवहिस्स इदि । समाप्तं रियाऽध्ययनं तृतीयं ।। - ।।३५९॥ दीप अनुक्रम [४६१४६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [371] Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१,२], नियुक्ति: [३१३-३१४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३२-१४०] (०१) | प्रत वृत्यक [१३२ श्रीआचा उका रिता समिति, इदाणि भासासमिति, आहारसेज्ज पंथपुच्छा (पादपुच्छणा) य, सम्वेवि वपणविभत्तिकारगाई तहावि भाषाध्ययन गम सूत्र- विसेसो अस्थि, पढमे सोलसप्पगारा वयणत्रिभनी अप्पीतिवज्जणा वितिए काणकुंटणादी, णामणिफण्णे भासा चउब्विहा जहा चूर्णि: YA | वक्के तहा दब्बतो उप्पत्तीए पज्जवं अंतर, गहणे, उप्पत्ती वा भासाणं किमादीयं पञ्जवं, जतो जाई मूलभासादब्वेहिं परिणामिताई || |विस्सेषिं गच्छंति, अंतरं जतो जाति अणुसेढीए मीसाई गच्छंति, गहो जारिसाई गिव्हंति दचओ अणंतपएसियाई, भासा किमा| त्मीया? पोग्गलात्मिका, यथा घडं मृत्तिकात्मकं न सिकतापापाणैनिष्पद्यते एवं भासापयोग्गेहिं दम्बेहिं णिप्फज्जइ, खिने जंमि D. द्वितो गिण्हति जहा छर्दिसि जत्तियं वा खेतं गच्छति जहा परे सजोणि, जैमि वा खिने वणिज्जति भासा, कालो जमि जमि जेचिरं काला भासा भवति जाव ताव कालेणं जचिरं वा, से दो भवति काले-भावे उप्पांच पज्जवअंतरे जाता तं भावं भावेंता |णिणादं करेंताणि, तिमवि कालेसु चयि, आयाराई भणियाई जाई वा भन्नमाणाई, जाणेज भासेज, जे कोहातो वार्य युंजंति, क्रोधान विविहमनेक प्रकार जुंजंति सज्झसवत्थो वा जं जुंजंति, जहा कोहा न मम पुत्रः पिता वा अन्य माता वा इत्यर्थः, माणा अहं उत्त|मजाती उच्चहीनजातीयः, अदुर्हि वा मयठाणोवरीतने विजुंजणा, माया गिलाणोऽहं, लोभा जहा बाणिज करेमाणे जणो अचोरं चोर भणति अदासी दासी, अजाणतो भणति, सबमेयं सावजं बजए, विविच्यते येन स विवेकः, विवेकमादाय, विवेगो संजमो | चरितं वा कम्मविवेगं सत्यवचनं आयविवेगं कातुं अनृतस्य, लभिहिति, केणति भणितो-भिक्षु ! हिंडामो, भणति-सो तत्थ लभति, ण वदति एवं भणितुं, अंतराइयं उदिज्जा, ताई असणिहिताई होज्जा, अहया भणति-सो तत्थ णो लभिहिति, एवं हिणवदृति, कयाइ लभेज्ज, मिक्खायरियाते गतओ भणति-सोतस्थ भुंजिउं एहिति, अहवा अभुत्तोएहिति, छउमत्थविसओ य वदति उसओ, ॥३६॥ १४०] दीप अनुक्रम [४६६४७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: चतुर्थ-अध्ययनं “भाषाजात', आरब्धं [372] Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [३१३-३१४], [[वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३२-१४०] (०१) भाषाजाता प्रत वृत्यक [१३२१४०] श्रीश्राना | तत्थ णिलं आगतो, अज्जा एते ण दाएति, एन्थवि आगने, अस्मिन् संखडीए वा, तिपिकालो, अणुपीति विचिति पुवं वुद्धीए ||D रांग सत्र-14 पासित्ता निश्चितभासी सिद्धभासी, सम्यक् संजतो भाषेत, संकितः मण्णेत्ति, ण वा जाणामि, एगवयर्ण वृक्षः इत्थी वदनं कन्या || चूणिः वीणा लता, पुमवयणं राया गिरी सिहरी, णपुंसगरयणं वर्ण अछि कंसं, अज्झत्थं आयरियसन्नागारं नाउं सन्नाभूमी गंतुकामो ||३६१|| | अणुण्णवति, उवणीतवयणं पढाहि, ता भणति-तुम्भ पसाएणं, अवणीतं तुम सोचि भणिते भणति-नाई सोनि, उवगीत अव गीतक्यणं अहो रूपवती स्त्री किंतु कुशीला, अवणीतउवणीतायणं विरूवरूवो फोकणासो कालो, किंतु इस्सरो, ण य भिक्खा| यारसीलो, तीतादि अतीतत्वात् , करोति करिस्सति, पञ्चक्खं एस, देवदत्तः सो, एगवयणं वतिस्सामीति, तदेव वदिज्जा, इस्थि || पुरिसणेवस्थितं ण वदेज एसो पुरिसो गच्छति एषोऽप्येवं, एवमतिनिस्संदिद्धं अन्नहा वा, एवं णिस्संदिद्धं नाणकज्जेसु ण वत्तब्वं, | चत्तारि भासाजाता वक्तव्या, केन तानि उक्तानि ?, जे य अतीता अम्हंता, अचिनाई णिज्जीवाई, वण्णादिगुणजुत्ताणि चयोवचयाई, अनित्यो वैशेषिकः, वैदिको नित्यः शब्दः, यथा वायुर्वायनादिभिरभिजिज्जते, एवं शब्दः, ण च एवमरहतानां, यथा पटः चीयते अवचीयते च एवं विप्परिणामसभावाणि, ते चेव णं सुम्भिसद्द। पोग्गला०, पुचि न भासा भासिज्जमाणी भामा भासा| समयति वीतिकंता वा णं अभासा, दृष्टान्तो पटा, पूर्व पांशुकाले न घटः, मुद्राभिघाताच अघटो भविष्यतीति जो नासेज्जा, जहा काणं काणमिति मोसा, चोरं चोरमिति, सच्चामोसा दासचोरस्त, स तु दासः न चोरः, सहऽवजेण सावजा, सकिरिया कम्म जेण भवति, ककसा किसं करोति, कटुकी जहा मिरिएहिं वावडवडादियुत्तो समाणो, णिठ्ठरा जकारसगारेहि, फरुसा हवज्जिता, अण्हयकरी आश्रयकरी, छेदकरी प्रीतिच्छेदं करेति, भेदं स्वजनस्य भूतस्य वार्थस्य परियभूतो, अमिकंख जंमं सोक्खं वान भाषते, दीप अनुक्रम [४६६४७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: चतुर्थ-अध्ययनं "भाषाजात", प्रथम-उद्देशक: आरब्ध: [373] Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१४१ १५१] दीप अनुक्रम [४७५ ४८५ ] भाग-1 "आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१२], निर्युक्तिः [ ३१५], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १३२-१४०] श्रीआचा रांग सूत्रचूर्णिः ।।३६२ ।। सव्त्रा सुहा सा सूक्ष्मार्था, जह सुहं मोरंगादिना स्पृष्टस्य, सवस्य न युक्तं भवति, जूरणं खारवणादिना भवति, एवं जीवदयं प्रति सुहुमा, जा य असवामोसा अपाविगा असावज्जा, होलेति हुलं हुलो ऊरणतो, गोलेज्जतिति वली बट्टी, सवलेचि नृपल, कुपक्खे दासचोरपक्खो जेड दासिंगपुत इति वाच्यं इति वा, ते नाणगा पितरः, पितं वते, पसत्थाई आउसो ति वा, स्त्रियामपि कंठ, | देवे वा नभमाकाशं, आकाश देव इत्यर्थः, गज्जितदेव विज्जुता य तदेव प्रतिष्ठो देवः निवृष्टं देवेन, फड्डया वा कंठं असज्झाबुज्झाणं अहिगरणं च अंतलिक्खादि भासेज्ज इति । भासजाते प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥ अप्पितियवजणा वितिए, जहा वा एगइयाई रुवाई, णो एवं बएजा गंडी गंडीति वा, सोलसहा, हत्थछिको हत्थछिन्नाणि वा एवं न वक्तव्यं ?, जहा वासुदेवो तम्मि सुणए, एगमवि गुणं भासति, उपत्ति सरीरं, तेयंसी, बचसा दीप्तिः, सजो जसो किसी, अभिमतं अमिरुवं, रूवाणुरूवा गुणे, पडिरूवं प्रासादं जनयतीति प्रासादनीयं द्रव्यं, दर्शनीयं, जति सो किंचि पुच्छियो उभासियब्बो वा ततो सोचयारं वतव्बो, भदगं पहाणं, उसद्धं उत्कृष्टं, रसालं रसियं, पुल्लेवि अप्पत्तियं असंखर्ड मारिजेअवा, सुभे | सदे एगा इतरे दोसा चकसुद्धीगमाण चंता को च निधितभाषा विस्समभासी न बध्यते येन कर्म्म तं भाषेत इति । भासज्जाताध्ययनं समाप्तं ॥ इदाणिं एषणासमिती, तत्थ पिंडेसणा भणिता, वस्थ, पादेण अहिगारो, इह पढमे गहणं वितिए धारणा, बत्थे उगम उपायणा, ता वस्थे चटकणिकखेवो, नामंठवणाओ गयाओ, दव्यवत्थं तिविई-एगिदिय० विगलिंदियणिष्कष्णं पंचिदियणिष्कण्णं, एगिंदि| यणिष्कण्णं फलिहमादी, त्रिगलिंदियं को सियारादी, पंचेंदियं कंबलेयादि, अदवा उकोसं मज्झिमं जहणं, अहवा अहागडं कय प्रथम चूलिकायाः पंचम अध्ययनं "वस्त्रैषणा", आरब्धं प्रथम चूलिकायाः पंचम अध्ययनं "वस्त्रैषणा", प्रथम-उद्देशक: आरब्धः भाषाजाता० पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकायाः चतुर्थ अध्ययनं "भाषाजात", द्वितीय-उद्देशक: आरब्धः [374] ॥३६२॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [३१५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४१-१५१] (०१) रांग सूत्र- चूणिः ॥३६॥ प्रत वृत्यक [१४११५१] परिकम्म वा, जंगियमादी वा दव्ववत्थं, भाववत्थं सीलंगसहस्साई अट्ठारस साहुगुणे णियत्थो, भाववत्थसंरक्षणार्थ दबवस्थेणाहि-0 गारो, सीतदंसमसगादीणं च, जंगमाजातं अंगियं, अमिलं उट्टिण, भंगियं अयसिमादी, सण सणवागादि, णेच्छगं तालसरिस, II संघातिमतालक्षति वा, क्षोमियं मूलकडं कप्पति, सहण कप्पति, तूलकडं वा उणिय उणियउद्वियादि, तरुणीनीसातो आरम |N जाव चत्तालीसा, सोलसथुना आरम्भ जाब तीसा जुगवं, गणियमा तरुण्यो, तरुणो जगबंधू भजित्ता, जति व पत्नबलवं जति य || अणातका अप्पायंका वा थिरसंघयणो, एक जिणकरिपत्रओ, आयंकिताय जहा समाहीए, अथिरसंघयणो तिष्णि, थिरकप्पितवस्मिणो । एगं पाओगति, आयारसंति आयारसंतिए घरेति, भणियं च-तिण्णि कप्पा जहण्याण पंच दढ दुबलाई गेण्हेजा सत्त य, निग्गंथी| एवि संघाडीविभासा, पडिस्सए दुहत्यविन्थरा, मण्णाभूमी मिक्खायरियाए दो तिहरथाओ, एगा समोसरणे चउहत्था, जह मिक्खं अद्धजोयणा, परेण मुत्तादिपलिमंथो, उम्गमदोसा, एगं साहम्मियं समृदिस्स बहा पिंडेसणा एत्थ आलावगा, कीतादिविसोहिकोडी, धायंता कता संजयवाए, दाउं कामेण रत्तकद्दममाणासामुलीवालक्खासादित्तियादिणाइणा घडं पोहम्माई हावेति, मटुं अघाडगादि, | अमाणं निसंसट्ठ आहोडियं संपधृवितं वा, विसोधिकोडी सव्वा संजयट्ठा ण कप्पति अपुरिसंतरकडादी, पुरिसंतरकडा कप्पति, । | महणमल्लाई छावचरीए परेण अट्ठारसाई बा, आईगाणि चम्माणि सहिणाई, संकल्लाणाणि सण्हाई. लक्खणजुत्ताणि य, आया | जायाणि आयताणि, कायाणि, जत्थ इक्खागवण्णो पडिओ, तत्थ मणी, तस्स पभावेण सोबालो जाओ, अइगाणं पदवित्ने मुसो सम्गो, आवणे तु विअति जारिसी मणीण पमा, सिरी ए वत्थाणं भवति, एयाणि कायाणि, अहया आयाणि खोमियाणि, पलेहीयाणि पलेहाणि दुगुलाणि, दक्षिणापहे वागेसु पच्चुप्पण्णाणि काये, पायालो दीवाणं मुगाणि, सम्हाणि अमुगाणि, देशरागाणि दीप 11388 अनुक्रम [४७५४८५] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [375] Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [३१५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४१-१५१] (०१) श्रीआचा रांग सूत्रचूर्णिः ॥३६४ प्रत वृत्यक [१४११५१] W एगपदे सरिचाणि, अमिलाई सामुलीओ, गजलाणि कडकडें ताणि कायकंठलपावारादीणि, सुसिरदोसा य ण गृह्णीयान आयाणाणि AM वखैषणा माणि उद्याणि वा, उद्या मच्छा सिंधुविसए, तेसिं चमं मउयं भवति, पस्सा तहेच, पसचेयगणमाणि कणकप्पोलियाणि, कणग-1 पट्टाणि सोवन्नपदा दिजंति कणगकताई अंतेसु मंडिताणि, कणगखइयाणि कहिं २ चि कणगफुसियाणि इतिलिगा दिअंति, वग्याणि | बिग्घाइचित्तगस्स, आभरणाणि एगजातितेग आभरणेण मंडियाणि आभरणविहिता, णो विचित्तेहिं आभरणेहिं वरो, पडिमा उद्दिस्सिय दंसियमादी, बितिय पेहाए, पुच्छिते भणति-एरिसं, अहवा पेहाए पुच्छिते भगति एरिसं, अहबा पेहाए उक्खेवनिक्खेव| निदेसं बीयाण उबरि, ततियाए अंतरिअगं पंगुरणं, अहवा अंतरिजं हेट्ठिमपत्थरणं उत्तरिजगं पेच्छाओ, उझियधम्मियं चउत्थे | च, दव्वादि आलावगसिद्ध, सिणाणादिणा या घडगं मक्खुउ धोवति, दब्बतो सीयं णो भावतो, फासुगं, भावतो उसिणं तधोदगं, दोहिं सित्तं सचिचो होति, उसिणं उण्होदयं तिलकंदादी, कुंडलादी अंतो अंतेण सम्बो उक्खलित्ता सअंडं वत्थं, अणलं अपज|चगं, अथिरं दुबलंग, अधुवणं पाड़िहारियं, अधारणिजं अलक्खणं, एतं चेव न रुचति, अहवा तुण्णियकुट्टियपञ्जवलीढे ण गेण्हेज, | विवरीतं गेण्हेआ, ण णत्रए इमे वत्थंति कटु बहुदिवसपिंडं तं बहुदिवसितं, बहुदिवसतं बहुगं वा बहुदिवसित, लोद्धादिणा | सीतोदएण वा, एवं दुम्भिगंधेवि, जाहे पुण तिनं होति किहा, कप्पे या कते, ते णो अणंतरहिताए पुढपीए धूणा वेली गियुगं उमरो कुरुमुयागं उक्खल मुसल बा, कामे वलं पहागपी, कुले पंगट्ठी दिग्धोलि यो घरे जिदिग्या ते कुड्डा जे अंतिमपच्छिमा ताओ मिचीओ | 'सीला, सीलाए च लेलू लहुओ, बंधादी पुचभणिता, झामथंडिल्लादिसु, अतो वजा । वझेषणायाः प्रथमोशका समाप्तः।। वस्थेसणाए वितियाए धारणा, इंगालधूमपरिसुद्धं, परेवच्चं, एसणिजाई आहापडिग्गहिताई विमोहावयणे जिणकप्पितो एसेज, ||३३४॥ दीप अनुक्रम [४७५४८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: पंचम-अध्ययनं “वस्त्रैषणा', द्वितीय-उद्देशक: आरब्धः। [376] Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [५], उद्देशक [२], नियुक्ति: [३१५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४१-१५१] (०१) प्रत वृत्यक [१४११५१] श्रीआचाचीवरमादाप गाहावति पहिया विहारभूमि वा गामाणुगाम तिब्वादि शतंगादिसुण कप्पति मुहुनगं २ दिवस अहोर पक्खं मासं | 0 पात्रेषणा रांग सूत्र- जत्तियं वा कालं, असादुस्स मा पाडिहारियं निण्हेन्तु, आयरियपेसगेणं गतो एमताणिउ सो तत्थ कजे समत्तिवि अगिलाणो, चूणिः ण य गिलाणकजेण, एगागी पंचाहा परेण, विप्पखिसितसिद्ध नेणं, तेण उवही उवहाणविऊ, तं उबहिं जाणिऊर्ण उवाहिं सामि॥३६५|| |णाणं गिहियब्बं अन्नेसिं दायच्वं मम उवयंति पामिजिआचि, तो विपरिगहणत्ततो अनं गेण्हेजा, णवरं धूतायारेहि परिहराहि वा, ण पलिठिदिय परि०थिरं संत ससंघियं, संधी नाम ओवी तंबोलीणं, तस्स चेत्र णिसिरिज, एवं निग्धोसं, सब्बोमाइद्वाणर्ण उवहि हणावितो तं ताणि उस्सवेतुं परिट्ठाण्यवं, वान्नाई करेजा, पावगंणाम अचोक्वं भण्णाति अदत्तहारी, आलावगा | 'जद्दा रियाए, इति वौषणा परिसमाप्ता ।। दवपादं तिविहं, भावे अप्पा सीलंगसहस्साणं भाणं, जिणो एग घरेति, एगम्मि म वितियम्मि पाणर्ग, मत्तओ अपरि| भोगो, सण्णाभूमि गच्छंतस्स भवति, हारपुटं ते लोहिगं चेय पादं, बिल्लगिरिमादिणा भोतुं कीरति, चम्मपादं चम्मकुतुओ, | उद्दिष्टं लाउगमादी, पेहाए एरिसगं संगतियभनओ, वेजयंतियं पडिग्गहिओ, अहवा संगतियं च, पादा बारा वारएणं वा होति, तिणि बा, तत्थेग देति, जत्थ पत्रयणदोमो णस्थि, वे जयंति णाम जत्थ अन्भरहियस्स रायाहियस्स, सयादि घण्णो उस्सवि कालकिचे वा, भजिया हुँदं छोढुं णिज्जति, उझियधम्मिय, सेसा मब्बे तेल्लादी आलावगसिद्धा, पात्रैषणायाः प्रथमोद्देशकः समाप्तः॥ गाहावतिकुलं पविढे पेहाए पडिलेहेतु पडिग्गहियाओ अवहट्ठ पाणे अवणेतु रिय पमञ्जियं पमजिप परियाभाएति, छुमित दीप अनुक्रम [४७५ ४८५] र पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: षष्ठं-अध्ययनं "पात्रैषणा", आरब्धं प्रथम चूलिकाया: षष्ठं-अध्ययनं "पात्रैषणा", प्रथम-उद्देशक: आरब्ध: [377] Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१५२ १५४] दीप अनुक्रम [४८६ भाग-1 "आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [२], निर्युक्ति: [३१५...] [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १५२-१५४] श्रीआचा रांग सूत्र चूर्णिः ॥३६६॥ पडिगं परहत्थगयं ण गेण्हेज, आहथ गहिते गिहत्थो एस चेव उदए, जति परिसहारति लद्धं, अमत्थ वा उ पत्थर, अबहिं तणे पक्खिवति, सपदिग्गह परियसति पडिग्गहए व संताए उच्च दारए जोएण, तडीए ठाति, ताए लोढेति, ससणिद्वार वा पुढवी आयरति, उदउल्लससद्धिं पडिग्गद्दियं आमज पमज अंतो संलिहति चाहिँ गिल्लिहति उल्लेति यद्वेति आयवेज पताविज । इति पात्रैषणा समाप्ता ॥ 3) उवग्गहेकणिक्खेवो दब्बे सचिचादी तिविहो, लोहओ लोगुत्तरिओ य, सचितो सेहो अचित्तो वत्थादी मीसे स भंडमत्तोत्रधिगरणे उ, लोगोवि जहासंभवं खेचेवि उङ्गादि खिते गामे रण्णे वा एगदिसि छद्दिसिं वा, काले उडवद्धे वासारते वा, भावोमहो दुविहो-मतीए महणतोय, मती दुविहा- अत्थोग्गणमती वंजणोग्महणमती, छब्धिहो चउग्रिहो होइ, गहणोग्गहे अममत्ते अपरिकम्मा, परिणामा न मम एतं अपरिग्गहस्स समणस्स गणपरियणस्स पडिहारिते अपडिहारगा जा जपणा, अहवा देविंदाड पंचविहो उग्गहो, अडवा इमो गंडणी० समणा भविस्सामो अकिंचना दब्बे अपुता अपत्र, भावे अकोहादी, गहो परतः परिग्रह इतिकृत्वा आदौ परिग्गहणं पापं हिंसादिसेसरक्षणार्थाय उग्गहो वणिजति सव्वं अदिनादाणं पञ्चक्खामि तं कर्हि ?, गामे नगरे वा लोइयं गतं, लोउत्तरं उडगादि, छत्तगं दे पहुच जहा कोंकणेसु, जिचं वासताना ओलंति उडण, सन्नाभूम गच्छंतो अप्पणी अदिस्संतो अणुनवेत्ता णो तिसंधा, गामादिसु वा अणुण्णवति, ओगिण्हति एकमि, पगेण्डति पुणो २, से आगं नारेसु वा आरामागारेसु वा इस्सरो राया, भोइओ जाय सामाइओ, सामाइओ समधिष्ठाए, पञ्चसंदिट्ठो, गाहावतिमादी, समणुण्णेण तेण सर्ग असणं, ण वा एगछविहारी परवेयावडिया, परसंतिएणं अण्ण संभोइए, पीडएन वा फलरण वा सेजासंथारएण प्रथम चूलिकायाः सप्तमं - अध्ययनं "अवग्रह प्रतिमा", आरब्धं पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकायाः षष्ठं- अध्ययनं "पात्रैषणा", द्वितीय-उद्देशक: आरब्धः प्रथम चूलिकायाः सप्तमं अध्ययनं "अवग्रह प्रतिमा", प्रथम उद्देशक: आरब्धः अवग्रह सप्तकं [378] ।।३६६॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [७], उद्देशक [२], नियुक्ति: [३१६-३१९], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५५-१६२] (०१) अवग्रह प्रत वृत्यक [१५५१६२] श्रीआचा0 उवणिमंतेज, सईपिप्पलगमादी, अणंतरहिया सब्वे, सव्वे आलावगा आलावगसिद्धा इत्यवग्रहप्रतिमायाः प्रधमोद्देशकः।। रांग सूत्र-lil उग्गहे य दब्बशेषं, से आगंतारेसु वा आरामगारेसु वा 'पुच्चभणियं तु भण्णति.' किं पुण तत्थोवग्गहे समणा पंच, माहणा ! चूर्णिः धीयारा, इंडए या छत्तए वा, वाशब्दात् हत्थेण वा किंचि उवगरणं, णो अंतोहिंतो बाहिं णीणिश्रा, सुन वा ण उहवेति, उद्वेहि | ॥३६७|| | अन्हेहिं एस वसही लद्धा, णो तासि अप्पत्तियं करिजा, एरिसए कारणट्ठिया उच्चारपासवणे जयणाए, क्षेत्र संघाइए वेरत्तियं करेंति, अंबवणे ण वट्टति, दारुयअडिमादी दोसा, कारणे ओसहकले सडो मग्गिओ भणति-भगवं ! अंबवद्धादे कस्मवि गंधेण। चेव विणस्सति वाहीति सम्बईए गिलागो, जहा वा हरीडयीए गंधेग विरिवति एर्गयाए किल, सअंडमादीण कप्पति, अप्पंडादी कप्पति, भत्तए अद्धं, पेसी चउभागो, दोडगं छल्लिमोयगं, गिरो अंबसालओ, कोंकणेसु अतिरिच्छच्छिन्ना वकविच्छिन्ना अन्यो| च्छिन्ना वा जीवेण विणिभिन्नं, उक्खुवणेवि अंतरुच्छुगा पच्चसहितं, पन्चरहियं खंडं, चोदगंच्छोति वा, मोदगछोडियतं उच्छ् सगलगं, छल्ली उच्छुसगलगं, चकली चकलिरेव, लसुणेवि चोइओ, वाहिकारणे लमुणेवि भासियचं, इकडाडि तण्णो अच्छिदिय २ |विच्छिदिय २ परिभुजिय २ सत्त पटिमा तआतिया उग्गहमम्गणा सबा सत्तण्हं अम्भितरा, तहा पिंडमग्गणा पिंडेसणाणि, एवं सवपडिमासु पढमा संभोइयाण सामण्णा, वितिया गच्छवासीणं संभोइयाणं, ततिया अन्नसंभोइयाणं, कारणे तेण लभंति, अहाVलंदिया वा आयरियस्स गिण्हंति, सुत्वत्थावसेसो आवनपरिहारियोवि गेहति, कारणे तच्चा पडिमा, चउत्थी गच्छे ठिओ जिणकप्पा तिपडिकम्मं करेंतस्स, पंचमा जिणकप्पियस्स पडिमाए पडिवण्णमस्स बा, पच्छिमाओदोवि जिणाणं, छटो अंतेहितो बाहिं णाणेयव्वा वाहिताउ वा अंतो नेयब्बा, अलाभे उकुटुगणेसजिओ, समिती अहासंथर्ड तम्मि व संस्थिता अंतरवादी वासं, सुयं मे आउसं! ॥३६७॥ दीप अनुक्रम [४८९४९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: (प्रथम चूलिकाया: सप्तम-अध्ययनं "अवग्रह प्रतिमा, द्वितीय-उद्देशक: आरब्ध: [379] Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [१], उद्देशक नियुक्ति: [३२०], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १६३] (०१) अवग्रहसप्तक प्रत वृत्यक [१६३] श्रीआचा-|| तेण भगवया पंचविहे उग्गहे परूषेयवे, एवं पिंडेसणाणं सबज्झयणाण य । इत्यवग्रहप्रतिमाः समाप्ताः॥ संग सूत्र ' सत्तिका वितिया चूला, दारा अणुपुष्वीए अहिगारा एगसरगा, उ ह्याणे पगतं, तं पुर्व भणितं लोगविजये, णिसीहियाए । चूर्णिः छकं, णिसीयणं णिसीहिया, दब्वे कोंचफलेण पंको णिसियति, अहवा दयनिसीहिया बसही सज्झायभूमी वा, खिने जंमि खित्ते,1 ||३६८॥ जत्तियं वा खेनं फुसंति, काले जंमिकाले जचियं वा कालं, भावे उदइयाई जेण भावेण अच्छति, सरीराओ उच्छलति-णिफिडबति तेण उचारो, स्रवतीति तेण पस्सवणं, कहं तमयाणमाणस्स ठाणनिसीहियं उचरणं वा संजमसोही भवति', उच्यते, मुणिणा छक्का| यदयावरेण, छकं रूचे, रूपए द्रव्यस्य जो संठापाकृतिरेच, तं स्वं जत्तियं खिने पिच्छति जंमि वा खेचे रूवं वणिजति, कालस्वं | ॥ अणादीयं अपञ्जवसियं, जहा हरितं सालं प्रावृपेण, तत्कालरूपं, भावतो वणं कसिणं जह भमरो कसिणोववेतो, सभावोवा जहा। | कोहपरिणतस्स रूवं, कालगं मुह, अच्छी यरत्ताणि भवंति, जहा रूवषेण दाइय, अहवा 'रुट्ठस्स खरा दिट्ठी उप्पलधवला पसन-IN चित्तस्स ।' तहा सद्दो जं दवं सहपरिणयं, जहा कंसताला घंटासदो बा, खेत्तसद्दे जतिए खिने सुब्धति, जहा बारसहि जोयणेहितो, जंमि खिने सद्दो कीरद, कालसहो जहन्नेणं एक समय उकोसेणं आवलियाए असंखेजइभागो, भावसदो गुणेण किचियं, जहा । उसमसामी पढम जायो गरवई, धम्माण कलाविहीण विभासियच्या, छकं परम, तदनपरमाणु परमाणुस तदव्यपरो, परमाणु दुपदेसियस्स अगदव्यपरो अ, से दो सपंतीए द्विताण जे परित्ता तेमि गाहेहि देहि वा, कम्मपरो परमाणूतो दुपदेसिओ, जीवो पोग्गलविसेसा, परो दुपदादि, एवं अनेवि, जयमाणस्स जं परो करेति, कंठयं । इदाणि सव्वेसि मुत्तालावगा-से भिक्खू चा भिक्खुणी || वा अमिकखेज हाइलए, सअंडादिसु ण ठाएखा, अणंतरहिताए पुढबादी जाव आइष्ण, सलिक्खा आलावगसिद्धा, मामाविसु दीप अनुक्रम [४८९४९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: - द्वितीया चूलिका- "सप्तसप्तिका" द्वितीया चूलिकाया: प्रथमा सप्तसप्तिका- 'स्थान-विषयक' [380] Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [१], उद्देशक नियुक्ति: [३२०], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १६३] (०१) श्रीश्राचा गंग मूत्र घृणिः । ३६९। प्रत वृत्यक [१६३] Dएगो बा २,३,४, तेहिं सद्धिं एगततो ठाणं ठाएमाणो आलिंगणा बजेज, जम्हा एते दोसा तम्हा अंतरा सुवंति, दो हत्था अणा- समा.का: बाधा, चउहि द्वाणं द्वारा, अचित्तं अबसजिस्सामि, अमञ्जणं अवत्थंभणं, हे खंभादिसु वा पडीए वा, पट्टीए उरेण बा, | अवलंबणं हत्थेणं, लंबंता परिस्संता, अग्गलादिसु अवलंबति, द्वाणे परिच्चाओ, कायविपरिकमणं सचियारं चंकमणमित्यर्थः, उच्चा-IN पासवणादिसु भवति तं जाणेजा, मणिरुद्धगामट्ठाणं ठाइस्मामि, कहं सन्निरुद्धं , अन अज समेति अप्पतिरियं एगपोग्गलदिट्ठी अणिमिमणयणे विभासियच, परूदणहकेसमंसू, पदम हाणमत्तिकर्य समान ॥ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अमिकखेज णिसीहियं उवागच्छित्तए जहा ठाणसनिकए पढमावअणिसीहियासत्तिकग, | सऑर्ड थंडिलं ण उवागच्छति, अप्पड उवागच्छति, पादपुछणं स्यहरगं तं गहाय सतं, सए असंते णडे हिते बिस्सरिते उल्ले वा परा| यगं जाएतावि गिझंति, बोसिरति विसोधेति णिल्लेवेति एगट्ट, गाहा 'खुदाइसंनिरुद्धे' पवडणादिदोसा, बीयाणि पडिसारेति वा | पडिमाटिस्संति वा स्खलगादिसु, काहिति वा अचणिया, काया चीपहिं द्वाति, तिसु वा द्वाति हाविस्संति वा खेतादिसु अणं-10 नरहियादि जाव पंधो भणितो, आगंतगासु वा आरामागारेसु वा, उजाणं जत्थ उआणियाए गंमति, णिजाणं जस्थ मत्थो आधा-10 सेति, गिहा एतेसु येव, अद्यालगएर चरिया, अंतो पागारस्स अट्ठहत्थो, दारं च गोपुरं, पागारो, तत्थ छताणं पंतावणादी, दगमरगो मग्गो णिका सारणी वा पाणियाहारिपंथी, गत्लागार तं वेव पडिबंध, मिनागार रहसंद्वियं, कोडागार धनमाला, जाणसाला मग-10 डादीणं, पाहणमाला पलहादीणं, तणसारा वा, लीच्यभक्ति तुससाला कुंभकारा जत्थ तुसा दुवेति जवगोधूमाण, तुमसाला पला-| | सरस भरिता, गोमयसाला छाणुंडगा करीमो या, महाकुल रायादीणं, महागि राउलगिह, श्रावासो श, इत्थीणं जा सणाभूमी | दीप अनुक्रम [४९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: द्वितीया चूलिकाया: द्वितीया सप्तसप्तिका- 'निषिधिका-विषयक' एवं द्वितीया चूलिकाया: तृतीया सप्तसप्तिका- 'उच्चार प्रश्रवण-विषयक' [381] Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१६४ १६७ ] दीप अनुक्रम [ ४९८ ५०१] भाग-1 "आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [२,३], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [३२०-३२२], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १६४-१६७] श्री आचा काइयंभूमी वा गिहमज्यं, गिसुई अग्गुमरी, गेहिदुवारं उखाडचारिया, हिंगणं उग्वाडं, साराणंतरं, गिवचं पुरोहड, मडगं मृतराग सूत्र- ३)कमेव वच्च जत्थ छडिअति, उज्झति जत्थ तं हारियं, मडगलेणं मतगगिहं, जहां दीवे जोगविसए वा, धूमिया चियंग, | इंगालदाहसि वा जस्थ इंगाला उज्झति, खारो जत्थ तिचकुंतला उज्झति, गावी सुरमंतीस ममगाई सरीराई उवसमणत्थं उज्झति, ॥३७० ॥ अडिगाणि वा गाविआलोगे जत्थ गावीओ लिइंति, मट्टियाखागी जत्थ कुंभारा मट्टियं खर्णति, लोगो वा, सेओ पाणियमिस्तो पंको, जत्थ खलु पतिपणओ, जत्थ उडिया भूमी, आययणं, एतेसिं द्वाणाणि देसो वा उंबरपव्यंसि वा, प णाम जत्थ पत्ता- पुप्फा फला वा सुकविअंति, जग्गोइआसट्टषिलुक्ख पिप्परि, मालुगा वल्ली भवति, वणे वत्ति अंबवणमादी, चंपगवणमादी पत्तोवगतं बल्लीपुष्फोवगा जहा पुन्नागा, फलोवगा जहां कवित्यादी, णिच्छा उबगा, तंजतणं मंदिरुक्खादी, उपयोगं गच्छतीति उबगा से भिक्खू वा २ राओ वा वियाले वा बारगं णाम उचारमत्तओ, अप्पणगं परायगं वा जाइता अमिग्गहिओ धरेति न णिक्खिवति, विगिंश्चति वोसिरति, विसोहिति निल्लेवेति सेतमादाणं झामथंडिलादीसु परिद्वावेति तृतीयं समाप्तं ॥ डाणिसीहिगाउच्चारभूमिं पचस्स रुवाई, तेहिं रागो दोसो वा ण कायच्चो से भिक्खू वा २ वा जहेब जाई रुवाई 'ग सका चक्खुविसयमागयं ण दटुं जं तंनिमित्तं गमणं तं चयेज्ज, तंजा-चप्पाणि वा पुण्त्रभणिताई, कच्छादीवि य भणियन्ना, गाममादीणि पेच्छामो आगाराओ य पासायंताओ पहाविते तेसिं चेव, जहा सोपारए लित्ता, महामहावि एतेसिं महिमा, उम्मगं वालमादी, गंगरस्स वा गांमवहाणि गामघायाणि, आसकरणाणि आसा सिक्खाविअंति, रहचरियादिसु जह हत्थी सिक्खाविअंति, वेलुम्गाहा गहिता, उट्टगोणमहिसा उड्डाणाणि चैव सण्णादी, जुद्धाणि तेसिं चेव, मेंढगादीण य गियुद्धं सविवस खलीकरेति, सप्तसप्तकाः [382] ||३७० ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: द्वितीया चूलिकायाः चतुर्था सप्तसप्तिका 'शब्द-विषयक' एवं द्वितीया चूलिकाया: पंचमा सप्तसप्तिका 'रूप-विषयक' Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [४,५], उद्देशक -,नियुक्ति: [३२३-३२४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १६८-१७१] (०१) S प्रत वृत्यक [१६८१७१] श्रीआचा D| उज्जुहियाणि गावीओ उवद्धणातो अडवितेणं उज्जहंति, णिज्जूहियाणि णिखोडिअंति गावीओ येव जोइति वा, मिहो जुहिगाणि, सप्तसप्तकाः रांग सूत्र | परियाणगं च उंचराणं, हयाणीयाणि वा अणियम्गहणा चत्तारिवि अणियदंशणाणि, एगो वा एगपूरिसं बा बझं, नवरं सेहस्स चूर्णि दरिसिअति थिरीकरणत्थं, ओप्पाइतावि केवलपुस्तकवाचणाणि, माणुस्माणि याणि जत्तासुहवाणि, जागाणं गोणाणं च जह कंव||३७१॥ लसंवला, अहवा माणुस्साणं चेव एवं विहं जामणविआर्हि गामिजंति रेखा, अहवा गट्ठ सिक्खाविन्ताणं अंगाई णामिजंति, जोई-DA सत्थे कहियाई कव्वाई, धण्णाई वा पारमिता गधेतुं, कमवित्ताण पाउरणाणि कीरति, तं जाणरुक्खाई मग्गो, दटुं सवरभासाकलहाणि जहा सेंधवाण भासाओ, वेराणि गामाईणं, सग्गामा वा, जणवयाणि चेव जणायाणि जत्थ सभामाईसु जगवया बढुति, कहकम्माणि वट्टाति सरूवायारस्स वा पोत्थगा, कहिगादी, चितागं लेप्पारमादी, गंथिमाग पुष्फमादी, वटीसम विहागर्ग, पूरिमो रहो, संघातिमो कंचुगो महतो । से भिक्खू बा २ इच्छा ण बा, से भिक्खू वा २ महामहाणि बहुरयाणं ससुरउमादि, बहुणडाणि जहा इंदमहे, सब्वतालायरा बहुसढाणि, सरक्खगतला मनहजागएहि, मिलक्खूणि आभासियाणि, ण वा तेसिंग परिच्छि अंति। से भिक्खू वा २ इहलोइयं मणुस्साणं पारलोइंग दियगतादी, अहना जहा धम्मिलो इहलोइएसु परलोइएमु | IV संवदंतो (वंभदत्तो, सेसं कंठथं, एवं सदाइपि संखादीणि तताणि वीणावचीसमुग्घायादीणि वितताभिभादिकणाईलउलकुटा सुसिराई | | सपञ्चगादिपव्वादीणि सई सुणेन्ताणं, जतो जाति पिक्खतो वणिजंतेसु चारगादीणि जाति । पंचमं सत्तसत्तिकग समत्तं॥ परकिरिया परेण कीरमाणे कम्मं भवति, किरिया कम्म, अध्यात्मकं तस्स २ करेंतम्स, जति सात कजज साएति, अध्या-16 | रमस्थिता अम्भत्धिया, संसयता संजोयो भवति तत्थ अमत्थेणं, ततो कर्मसंश्लेषो भवति, तम्हा णो सादिजेजा, सा य इमा ॥३७१७ दीप अनुक्रम [५०२५०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: द्वितीया चूलिकाया:षष्ठा सप्तसप्तिका- 'परक्रिया-विषयक' [383] Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यक [१७२ १७३] दीप अनुक्रम [५०६ ५०७] भाग-1 "आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [६], उद्देशक [-],निर्युक्ति: [३२५], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १७२ - १७३] श्री आचा रंगसूत्र चूर्णि ।।३७२ ।। सिया मेरा, आमज्जेज वा पमज्जेज वा एकसिं पुणो पुथो, सादिजणा करायेति करेता वा ण वा करेंते समणुजाणेज, समणुमोदणा परियाइक्खिजा, मक्खणा उचलणधावणा आलाचगसिद्धा, पहा पदा फुसिता कोविता अलतगं गिव्हंति, एवं कारवि, एवं कार्यसि वर्ण गलगंडादि, अरतीओ अंधारईओ, अमियाओ अरिसाओ, पिलगा भगंदलं, अपानप्रदेसे सत्थेण अच्छिदणा विच्छिंदणा, सीतोदगादि उच्छोलणा, तेल्लादि आलेवणा, जतो उठवणं जाते उट्ठविजति उद्यचितो य सज्जति, पालुंकिमितो भगंदलाओ, कुच्छ किमिता गंहलगा किमिया य, से से परो दीहाओ सिहा अग्मगाई कम्पेति छिंदति संबद्वेति समारेति, कष्णाणि अच्छमणं कनवं पदंसेयब्वं सेओ प्रस्वेदो, जल्लो कमदो मलो, पायवो रुक्खो, रेसो चैव पाणिस्स पंको भवति, अनंतरं पुण आगंतारे कोउच्छंगो, एगम्मि जुष्णगो उक्खि ते, पालियको दोसुवि, अणुफासगं थोत्रं पातुं पच्छा दंसणं, एवं अणुदालपि, मूलाणि वा, पाहणाओ, कमाणि सुद्वेण बडबलेण विजामंतादिना, तम्हा अपडिकम्मं सरीरेण दोषव्यं किं कारणं १ जेण तिमिच्छा, एवं रसाणीए पचंति, पर्यंति भाणवा, पचति पूर्वकृतेन कर्मणा, ते पचमाणा अन्योऽन्यपि संतापयंति, यदुक्तमातापयंतीत्यर्थः इति साम्प्रतं पात्रंति, तेवि एति एयंति अनंतगुणं कदुगविवागं कम्मं एति करोत्यस्मिन्निति कट्टु एतेचि कर्तारं एति कर्म्म, कट्टु कडाणि वेदेति कृत्वा च कृदानि च वेदेति कर्माणि कम्मं इत्यर्थः, वेदणं चिरं कारए वा एस, वेदणया वेदणापि विदार्यतो विगतो भवति कर्मणां ते पच्छा प्रकृतिपुरुषेश्वरनियतवादीनां विगमनं विविक्तिः, अथवा कृत्वा यदुक्तं भवति फुमति च, तम्हा संपयं ण करेमि दुक्खं । छहं सतिक समाप्तमिति ॥ अण्णमण्ण किरिया दो सहिता अष्णमण्णं पगति, ण कष्पति एवं येव, एयं पुण पडिमा परिवण्णाणं जिणाणं च व सप्तनतकाः [384] ॥ ३७२ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : द्वितीया चूलिकायाः सप्तमा सप्तसप्तिका 'अन्योन्य क्रिया-विषयक' Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार' - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [७], उद्देशक नियुक्ति: [३२६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७४] (०१) प्रत वृत्यक श्रीआचा-0 कम्पति, थेराणं किंपि कप्पेञ्ज, कारणजाए कुजावि, भाषितवं विभूसापडियाएवि, निम्गमो सो चेव, गवाणं वत्थाणं रयहरणादि-10 भावनारांग पत्र- वदा आलावगा, अविया मतिलाणि विभूसापडिया धरेति, वरं अन्नाणि लभंतो । इति सप्तमं सत्तिक्कगं समाप्तम् ।। चूर्णिः | संबंधो-केण सो आयारो? केवतितो? भगवता, आचारवस्थितेन वा भावणा भावेयव्वा, इमा वा हतियातुला, भावणात्ति ॥३७३|| | भावयति तमिति भावयति वा अनया भावनया, अज्झासो भाषणत्ति वा एगहुँ, णिक्खेवो चउनिहो, दब्वे गाहा, दवं गंध गाहा ( ३३०) गंधंगेहिं वत्थे माविअंति, तिला य पुष्फमालादीहि, आदिग्गहणा कविल्लुगादी भाविअंति सीतभावं चणकट्ठः। |काणं, सियवल्ली एगा वालाणं, मियाणं घोडगाण य, आदिग्गहणा आगदीहि भाविति, भावे दुविहा-पसत्था य अपसत्था य, अपसस्था पाणवहमुसावाया (३३१) पाणवहा पढम घिणाति पच्छा णिद्धं ईहेति, वीरल्लसउणं वा, मुमाबाते वाणियगाणं च, अहवा दसणाणचरित्ते गाहा (३३२) जहा य भावेयच्या तासि लक्खणं वोच्छामि सुलक्षणतः आत्मीयदंसणं भावणा, अप्प| सत्था धीयारवच्छल्लगाणं तम्भत्ता ओचिट्ठभायणाणि गिव्हंति, अप्पगं बलं दावेंति, नाणेवि अप्पसत्था-दंभकाराद्धितिं कृत्वा, | नीतिलाघवमासुरैः । नातिसूक्ष्ममुलूकादि, तापिञ्जाकरणायशः ॥१।चरित्तेवि जहा वृक्षमूलिकायां एवमादि, ताहे तवे पंचग्गितावणादी, वेस्गे सते कवलंतस्स कुब्जंमि पुरे लिख्यते, तं पासित्ता वेरम्ग भावेति, एसा अपसत्था, इमा पसत्था दसणे 'तिस्थगराणं' गाहा (३३३) जहा भगवं जोयणणीहारिणा सद्देश धम्म कहेति, सम्वेसि सभासाए परिणमति, जहा 'एकरसमंतरि-| क्षात०' कस्सऽण्यास्स ?, एवं पचयणे दुवालसंगं गंभीरं, सब्यतो रुई, प्रवचनं वेत्ति प्रावचनः, सव्वो दसपुब्बी चउदपुची-पभू ! IN घडाए धडसहस्स, अनिसाचारादी, इड्डी विउव्वणादी जहा 'इत्थी अप्सी पडागा' एतेसि अप्पसस्थाणं अतिकमणं दूरस्थाणं | ॥३७३॥ [१७४] दीप अनुक्रम [५०८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: तृतीया चूलिका- "भावना" आरब्धाः [385] Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [R.], चुडा [३], अध्ययन -1, उद्देशक [-],नियुक्ति: [३२७-३४१], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७५-१७९ + गाथा:] (०१) PRECAMIN प्रत वृत्यक [१७५१७९] श्रीआचा-1 | गथणं, दरिसणेणं कित्तणाए संधुयणाए पूयणाए दंसणभावणा, सणसुद्दी य भवति, अहवा ठाणं इमं 'जंमाभिसेग'गाहा (३३४) भावनारांग सूत्र ध्ययन जंमभूमी, अमिसेगो,अमि० यस्थ,जस्थ रायाभिसेओवा, निक्खमाणं जहिं णिक्खंतो,चरणं कम्मारगामाअद्वियगामादि,जस्थ हिंडतो, चूणि णाणुप्पभूमी णिवाणभूमी भावेंतस्स आगाई दंसणं भवति, एवं दियलोए विमाणभवणेसु मंदरणंदिस्सरभोमणरगेसु ॥३७४| पवेश्यपृया, अट्ठापदादि (३३५) पाससामिणो अधिछत्ताए, पाव चने स्थाविते, जत्थ वा बहुस्सुता कालगता अइच्छिताइया विहरंता वा, चमरुप्पायं च, णिरणचष्णुता वा जत्थ पवयणा, इदाणि (३३६) गणितं वीयादि णिमित्तं अटुंगं जुत्ती सुवण्णादी जोणीपाहुई वा, संदिट्ठगाई एयाई, अवितहाई नाणादि, नान्यसमयेषु एतानि, एगत्ते उबगता दर्शनभावना इत्यर्थः, गुणपञ्चझ्या गुणनिष्फन्ना, इमे अस्था गणियादी (३३७) पपयणीणं गुणमाहप्पं जहा विण्हुअणगारस्स इच्छियसिद्धिदाति वा, इसिणामकित्तणं इसिमंडलत्थउ सुरपूजितो, हरिएमादी, सुरिंदेण अजरविता, नरिंदपूजिता मरिचीहंढादि, पोराणचेइयाणि काइत्तारे जुन्नस्वामीत्येवमादि, अतिसतो तिविहो-ओहिमणपसबकेवलागि आमोसहाइ वा, इही विउवणादि, दसणभावणा । णाणे णाणेण भावेति (३३८-४०) तत्थ जीराजीवादीनां पदार्थानां च नाणं इह दिटुं जिनप्रवचने वा, इह ज्ञाने लोके वा, कअं फलं, कारण नाणादी ३, कारकः साहू, सिद्धी, बन्धमोक्षे, सुहबद्धो जीवो, बंधहेतुः मिथ्यादर्शनअविरति बंधनं अष्टप्रकार कम्म, बंधफलं तद्विपाको, एताणि इह सुकधियाणि, संसारपवंचो इह कहितो जिणवरेहि, जेण 'अत्थं भासद अरहा सुत्तं' इमे य गुणा"पंचहिं ठाणेहि सुतं अहिजेजा-नाणनिमित्तं", एवं पंचहि ठाणेहि सज्शाए आउंनो, एवं वायणादी, सज्झाए आउत्तयाए य | ॥३७४॥ गुरुकुलयासो भवति, किंच 'जं अन्नाणी कम्मं खनेति०'एसा णाणेण भावणा 'साह अहिंसाधम्मो'गाहा (३४१) साहु अहिंसा-1G गाथा: HARSATIRSANA दीप अनुक्रम [५०९५४०] | पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [386] Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक नियुक्ति: [३२७-३४१], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७५-१७९] (०१) आचा ग सूत्रचूर्णिः ३७५॥ भावनाध्ययन प्रत वृत्यक [१७५१७९] धम्मो, सुख सोहणो अहिंसता धर्मः, एवं सेसव्यतेहि, एते मूलगुणा, साहू वारसविही य तवो, उत्तरगुणा, वेरगं विसएसु॥ आयसरीरया, अप्पमादो खणलवपडिबुझणातो, एग 'जायत्येको मृयत्येको' अहवा 'एगे मे सवे' अप्पाए सितं, अबंपि। जं किंचि चरित्तभावगं चरित्तवृद्धिकारगं च, सा चरित्नभावणा इति, चरित्तमणुगता, अणुगता अनुसता इत्यर्थः, इदाणिं तवभावणा 'किह मे होज अवंझो' गाहा (३४३) निनीतियादिणा तवेणं, किं वा पभू समर्थः, काउं. तवं, को इध दब्वे जोगे णिफावचणगादि अहोरत्तस्स को जोगो तवो, तहा पणीतं लभंतस्स दब्ब, को वा खिने मंगुलखिते सोमणे वा जो जोगो, | काले बरिसारिने गिम्हे वा जोगो, भावे दुब्बलयं धितिमंतं च जाणेचा जो जोगो ओच्छाह(बल)गाहाओ (३४४) तवे य बारPA सबिहे गिहियध्वे पालेयव्वे य इति तवभावणा, संजमसंघयणा तबवेरग्गेसु समोयरंति, संजमसंघयणगुरुता बेरग्गे, वारसविहा अनित्यता, अस्सवण्ण वर्णयित्वा चरित्तभावणाए इह अध्ययने एगतं, केण एयाओ उवदिट्ठाओ ? केण वा भावियाओ?-तेणं कालेणं तेणं समएणं० तस्मिन् उबवायसमए इत्यर्थः, हस्थो जासिं उत्तरार्ण आसन्ने हत्थस्स बाजाओ आसबाओ ताओ हत्थुतराओ, चयं चयिता, इह जंबुद्दीचे दीवे, नान्येपु, असंख्याता जंबुद्दीवा, आहारभवसरीरेसु बोच्छिण्णेसु दावेसु, तिणाणोवगतेति तित्राणे, एगसमए जोगो णत्थि तेण ण याणइ चयमाणो, ओहीरमाणी ईसि वियुज्झमाणीए निदाए, हिताणुकं० हितं अप्पाणं। सकस्स य, अणुकंपओ तित्थगरस्स, अदुधित्तएत्नि अवाबाहं तिष्हवि, उम्मिजलमालओ मिजले तद्भवति उम्मिअलमालं उम्मिअलमालतुल्ला उम्मिजलमालभूता, देवेहिं ओवयंतेहिं कह कहभूतो, सोभणा मतिः सन्मतिः सन्मत्या सह गतः सहसमु(संम)दियाए, अचले परीसहोवसग्गेहिं भयभेखाणं खंती अहियासइत्ता पडिमाओ पालए अरतिरतिसहे इदि, श्रेयः श्रेयसि तस्मिन्निति धेयांसः, गाथा: दीप ७५॥ अनुक्रम [५०९५४०] | पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [387] Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-],नियुक्ति : [३२७-३४१], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७५-१७९] (०१) प्रत वृत्यक [१७५१७९] श्रीआचा- विदेहेन विदेहवइदिना, विदेहजचा, प्रियं करोति प्रेयकारणी, नास्य पोजणं, अणोजा सेसवइ, दविणजातस्य पती, दक्खे क्रियासु । भावनारागन |पतिण्णो जाणका, पडिरूवो रूबाइगुणो, भद्रखभावः भद्रका मध्यस्थ इति, विणीतो विधादिगुणजुत्तोविण माणं गच्छति, णात ध्ययन चूर्णिः प्रत्तेधि ण थडे, णातकुलाआतः, विदेहदिनोति विदेहाए जेणिय जातो विदेहवर्चभूतो वा, गुरूहि अब्भणुनातो दोहिं वासेहि ॥३७६॥ NIगतेहि, मणुस्सधम्माओ मणुस्सभावो सोइंदियादि वा, णाण बुझाहि चरितधम्मे, अंतोदीपं दीपशिखायद सब्बाओ, विधिअDणियहा सरीराओ, पोरिसपमाणपत्ता चतुभागो, मंजुमंजुत्ति मधुरं, अपडिबुज्झमाणे ण विभाविञ्जति, रोरेणं कंको भवति, छिन्न-10 सोतित्ति इंदियसोएहि न रागद्वेषं गच्छति, कह छिन्नसोते, कसपादी दिट्ठतो, उदगं कसभाणे ण पविसति, एवं भगवं उदगं॥ ण पविसति, संखे जहा रंगणं ण गेण्हति एवं भगवपि कम्मं, जीवो अपडिहयगई एवं भगवंतो जत्थ सीतउण्हभयं वा, जत्थ न । | पडिहम्मति गतिगमणमि, एवं भगवं ण किंचि अवलंबति तवं करेंतो देविंदादी, एवं वसहीए गामे वा अपडिबद्धं, सारयं न | कलुसं, पुक्खर एवं कम्मुणा णोवलिप्पति, कूर्मवत् गुप्तेन्द्रियः, विहग इव ण वसहीए आहारोवधिमित्तव्य पुच्छति, खग्गविसाणं व एवं एको चेव, रागदोसरहितो, भारंडवत् अप्रमत्तः, कुंजर० सूरभावो सौर्य सोडीयं चा, एवं परीमहादीहिं ण जिजति, सेसा जहासंभवं यच्चा, जच्चकणगं वा जातरूवे पुणो कम्मुणा ण लिप्पति, बहुसहा वसुंधरा एवं भगवं दव्यतो सचित्ते दुपदादिसु अचिने || वज्झचामरादिसु मीसए आसहस्थिमादिमु सदस्थिउत्तेसु, खित्तकालभावेन, बुध्यतो बोधिवान् , अनतरं नाणं लोगप्रमाणं ओधी, IN पवयस्स चत्तारि नाणाई जाव छउमत्थो, खाइयं देसणं अहक्खायं चरितं, सुचिभावो सोवचिका तेसि फलं परिणिव्वाणं तस्सMI " मग्गो नाणादी ३, झाणतरिया मुहुमकिरियं असंपचं, अरहति चंदणनमंसणाई, जिणा जिणकसाया, तत्र अभिप्रायः अध्यवसायः!, गाथा: दीप अनुक्रम [५०९ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [388] Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक नियुक्ति: [३२७-३४१], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७५-१७९] (०१) प्रत वृत्यक [१७५१७९] श्रीआचा-श्रुतं पडिसेवियं, आविः प्रकाशे कर्म, रहः अप्रकाशं रहो कर्मः, अरहारहसि कृतानां मानसिकानां भाषानां प्रकाशकतानां च काइकानां रांग सूत्र- वेत्ता भगवं जानको इत्यर्थः, तं तं काल तीतानागतवर्तमानं तिहि जोगेहि वट्टमाणाणं, सबलोष उड़लोए अहोलोए तिरियलोए, चूर्णिः सबजीवानां तसथावराणं भावे जाणमाणे पासमाणे विहरति, अजीवाणं च, अभिसमिचा ज्ञात्वा, किं कृतवान् ?, धर्म आख्याति ||३७७॥ जीवनिकाये तेभ्यच विरमणं, वट्टमाणेह, ताव आतिक्वे एतन्मात्रं, पत्थि उत्चरिएणं, एतद्विशिष्टो एतद्वयतिरिक्तो वा आख्याति.। | पूर्वः भावाः, एतव्यतिरिक्तो न कश्चिद्धमोऽस्तीति तम्हा वुत्ते पढ़मे महब्बए, तस्स उपसंपजनाथे, ज्ञानभावना दर्शनभावना चोक्ता.. चरित्रभावनेयमपदिश्यते, भावयतीति भावना, यथा शिलाजतो आयसं भाजनं विपस्य कोद्रवाः, सिद्धाय गाहार व इमा भावना, Vतत्र इमा पढमा रियासमितेणं गच्छंतेण य भवियव, एसणासमिति, आलोगपाणेति, आलोगो प्रेक्षणा, आदाणं दोसाणं आपजेत "पाणादि, निक्खेवणासमिति, आदाणग्गहणेण वतिकायाण सप्तभंगा वायासमितिरुक्ता संजमे, इदानीं आध्यात्मिकी मणसमिति, कही, जे य मणे पावए सकिरिए, एवं बई व, अहासुतं जहा सुत्ते भणित, अहाकप्पं जहाविधि, अहामग्गं जहामग्गं मग्गो । | नाणादि, अहातचं जहासत्यं, हासं परिजाणे न हसे इत्यर्थः, हसंते संपाइमवायुबहो, हसंता किल संधेत मुसंवा त्यात , अणवीयि | पुब्वं वृद्धीए पासित्ता, कोहे पुत्र अपुत्रं भूयात् , इह परत्र च दोष ज्ञात्वा, कुंचंच कार्याकार्यानभिज्ञः, लोभस्य दोषां ज्ञात्वात | परिक्षाने, भयसीले उरगजातीओ, आचार भणति, तइएणं अदिन्नादाणसंरक्खणथं अदिण्णादाणे णियत्ति च भावणा, आगंतारेसु अणुचिन्ता उग्गहं जाएज, पभुसंदिट्ठाइसु उग्गहणसीले, एतेण डगलच्छारमल्लगउच्चारादिसु अणुष्णविअति, जइ सागारियस्स, || उम्गहो ततो मनःसंकल्पः कल्पते, ते संघाडइल्लगादिसु अणुण्णावंतु, भंजेज जहा रातीणिया, गंतओ वा साभिएसु जाएत्तु ततो || गाथा: दीप ॥३७७॥ अनुक्रम [५०९५४०] | पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [389] Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक नियुक्ति: [३२७-३४१], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७५-१७९] (०१) विमुत्त्यध्ययन चूर्णिः प्रत वृत्यक [१७५१७९] श्रीआचा- चिट्ठिज वा जाव पताविज वा, तिन्नि रागादि तिदोसा, धमिए अह एगो साहमिउग्गहो, णो पणीय आहारिज, पणियं णिद्धं,D संग सूत्र- || रुक्वंपि णातिबह, संनिसिञ्जति भोदेवरिता उ विविधो भंगो विभङ्गः चिनविभ्रम इत्यर्थः, धम्माओ भङ्गः पतनमित्यर्थः, अइ णिदेणं विभूसाए हत्थेण पादधोवणादी वत्थाणि च सुकिल्लादि वंदियमुलादीणि मनसः इष्टानि मनोवानि, मणं हरंतीति मणो॥३७८॥ हरणाई, नो इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई, णो इस्थीणं कह कहिचा, इथिपरिखुढे इस्थियाणं कहेति, परिग्गहे पंचसु विसएसु न रागदोस गच्छंति, गजोक्तोऽर्थः पुनः श्लोकैरेव समनुगद्यते, तद्वयक्तिर्व्यवसायार्थ, पुनरुक्तोऽनुगृहाति, रियासु नित्यं समितो सताजो पेक्ष्य मुंजुते पाण भोयणं, आयागणिक्खेवे दुगुंछति अपमञ्जितादि सत्त, सम्यक् आहितो समाहितो, संजमए-निरंभए अप्रशस्तं । मणवर, हस्सइ न हसमानस्स असचं भवति, कोहलोभायानि च त्यजेत् छहए इत्यर्थः, सह दोहरातेण, दीहरायं जावजीवं, समीक्ष्य, एताए भावणाए मुसं वज्जए। समये च उम्गहे जाइतथए घडति, समं पराइयं जंतिकाय अणुण्णाया, ताणि मतिमा णिसम्म जाणितु, अहियचा व परिभुजे पाणभोयणं, साहमियाणं उग्गहं च अहिए, आहारे भुने वित्तसिता जो खी न पेहए, संधविअति ण संवसेज, तंमि संमं बुद्धे, सुमणुति लामंत्रणं, खुड्डा इत्थिगा, तासिं कहा खुहाए कहा ण कुर्यात् , धर्मानुपेक्षी संवसेज्ज, एवं बंभचेरं दुबिहाए संधणाए, अहया सद्धए भयेरं जे सदरूव० आगमे आगते तेषु विषयप्राप्तेषु वा, धीरो पयपदोसा, द्वेषं तं न करेति पंडिते, स दंते इंदियनोइन्द्रियैः स विरतः स चाकिंचणः, अकिंचणो अपरिग्रहः, सुसंवृत्तः पंचर्हि संवरेकिं, णवं ण कुजा विधुणे पुराणं कर्म, आर्यगुप्तः स्थित इत्यर्थः, अहवा जो धर्मो उक्तः, बुनो भणितो इत्यर्थः, अहवा अब्ज धर्मः योन स्थितः अविरतः समणुनपति स च पुण जातिमरणं उवेति संसार इत्यर्थः । इति भावनाऽध्ययनं परिसमाप्तम् ।। TramaduIECIPAHATE गाथा: दीप ॥३७८॥ अनुक्रम [५०९५४०] | पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [390] Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [४], अध्ययन H, उद्देशक नियुक्ति: [३४२-३४६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७९/गाथा: १-१२] (०१) वृत्यक श्रीआचा-10 संबंधो-एयाओ भावणाओ भावेतस्स कर्मविमुक्तिर्भवति, अहया इहवि भाषणा एव तस्स अणुयोगदारविभासा, अधिगारो विमुक्त्यरांग सूत्र- य से पंच अणिचे पथए रुप्पे गाहा (३४५) जो चेव होइ मोक्खो (३४६) कंठयं, णवरि णिक्खेको दश्वमुत्ति जो जेण ध्ययन चूणिः प्रत दव्वेण विमुञ्चति यथा निगडेविमुक्तः, भावविमुनी कर्मक्षया, स च भावणाजुत्तस्स, ताओ य इमाओ भावणाओ अणिचतादी, ॥३७९॥ अणिचमाचासमुति जंतवो (१३६ सू०) माणुस्सं वासं सरीरं वा अणिचं, अहवा सव्य एवं संसारवासो अणि, उति प्राप्नुवन्ति, जंतबो जीवा, लोइया पासितुं सोचा समिच जाणेतु, इतरकालीयं इतरं, मभिवि अणिचते, जहा देवाणं चिरकालदुिईणं | [१७९] ण तहा मणुस्साणं आउं, इदं तु अल्पकायस्थितियं संसारं च कदलीगर्भणिस्मारं ज्ञात्वा तस्मादयस्थे(व्युत्सृजेन् ), जे तु विष्णुविद्वान् , अकरणं, अकारणबंधणं, तं तु इत्थिगा गिह वा, किं एतदेवमिति ?, उच्यते इदमन्यत्-अभीतो परीसहोवसम्गाणं, आरंभो| परिग्गहनिमिनं भवति, आरंभपरिम्गहो अतस्तं आरंभपरिग्गहं न कुर्यात् , छड़े चए वोसिरे इत्यर्थः, एवं सेसनता अधिगता । तं | गाथा: च एवंगुणजातीयं जहा पस्साहि अत उच्यते-तहा गतं भिक्खुम (१३७६) जहा तित्थगरगणहरा गता तहा गतः, तंजहा | कहं ?, उच्यते, भिक्ई अगंतेहिं चरित्तपञ्जवेहिं संजतं, जायजीवं संजयं वा, अपोलिसं असरिसं नाणादीहि ३ अन्नउत्थियादीहिं १-१२ | वा असरिसं, चिण्हचिट्ठ-सचरितं, एसणंति एसमाणं एसणं, कस्स? मोक्खमग्गस्स संजमस्स वा, तुदंति 'तुद् व्ययने' केण | तुदंति ? वायाहि अभिभवंता अभिवं, नरा मणुस्सा, जहा सरेहिं संगामगतं कुंजरं जोद्धार अभिद्रचंता तुदंति एवं तं भिक्ष | गारा अपंडीयाहिं तुदंति, जहा कोलियचमारा अलसगसामाइगा गहवति, दरिदा एते पबहता, तहाविहैण (१३८*) तहापगा रेण, जणेण बालजनेनेत्यर्थः, हीलते जिंदप, कई हीलेति? सदफासेति स इति णिदेसे स मिक्स् , अहया सह सद्देहिं फासा सपहारा अनुक्रम [५४१५५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: | चतुर्था चूलिका- "विमुक्ति” दीप ३७९॥ [391] Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [४], अध्ययन H, उद्देशक नियुक्ति: [३४२-३४६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७९/गाथा: १-१२] (०१) विमुक्त्य ध्ययन प्रत वृत्यक [१७९] श्रीआचा | फासा इत्यर्थः, फरुसा णिठुरा अमनोज्ञा, उदीरिता प्रेरिता, तितिक्वएत्ति 'तिज निशामने क्षमायां च नाणेत्ति विदिते परासंग सूत्र | परझो, उक्तं च-'आक्रुष्टेन मतिमता' विद्यते वैद्धा(द्विष्यते दुइः) तेण अदुवचेवसत्ति मणसा न पदुस्सति, कुतो वाया कम्मणा चूर्णिः | वा, कहं ?, जहा गिरि बातेण ण संपवेवए 'वेप कंपने' कंपये इत्यर्थः, कुतो?, वैराग्या संजमदर्शनाद्वा। उदेहमाणो| ॥३८०॥ (१३९*) केसु उवेहं करोति ? तेसु बालजणेसु, तेहिं वा फरुसेहिं सदफासेहिं उवेहं करेमाणा कुसला जे अहिंसादिसु वटुंति तः सार्दू संवसे, अहिंसणेणेव संबसे इत्यर्थः, किंनिमित्तं ?, जेण अर्शनदुक्खा , अकंतं अप्पियं, अप्रियदुक्खा इत्यर्थः, के ते?, तसथावरा, दुहीये ते संसारे चिट्ठमाणा, तम्हा एवं णचा अलूलए, अल्लूसएतिनो हिंसए, सब्वे पया सब्बजीवा, मब्बासु पयासु TAI दया परा यस्य यस्य दयावीरो वा, तहति जहोवदिदै भगवता तेन प्रकारेग, हि पादपूरणे, सेत्ति निदेशे, योऽधिकतो भिक्ष:17 सोभनको श्रमणः सुसमण इति उच्यते भवति, एवं सेवावि वता, किंचान्यद ? विष्णु विद्वान् , स नतेति प्राप्तः, कं?-धर्मपदं चरित्रमित्यर्थः, अहवा णातकवतेण ये धर्मपवापदं, कीदृशं ?-अणुत्तरं तस्माद् अन्यत् शोभनतरं न अणुनरं, अत्तस्तस्यैव विदुषः न | | तस्य धर्मपदं, विनीततृष्णस्य नातृप्तस्य इत्यर्थः, मुनेयितः, किं भवति ?, समाहि तस्य ध्यानादिषु यथा अग्नि इंधनादितस्य घृनावसिक्तस्य वा शिखा व ति, केन ?, तेजेन, सिहा जाला, तेजो दीप्तिः, एवं स मुणितो तेग प्रत्रजया जसेण य बहुते, जसो संजोगो, अवा नाणदंसणचरितेहिं पडुति, किंच-तकते द्योतते ? दिसोदिसिं (१४१४) सब्यासु खिचदिसासु पण्णवगदिसा वा प्रतीत्य मनुजा तिरिया वा, अणंतो संसारो सो जेण जितो स भवति अणंतजिणो तेण अणंतजिणेणं, तायतीति ताई तेण ताइणा, | | किं कृतं ? भावदिसाओ पालणत्थं मता, खेमा अपमादा जेसु महब्वएसु ते खेमंकरा वा, महब्बता खेमंकरा वा, पवेदिता कहिता, गाथा: १-१२ दीप ॥३८॥ अनुक्रम [५४१५५२] | पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [392] Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१७९] गाथा: १-१२ दीप अनुक्रम [५४१ ५५२] भाग-1 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [४], अध्ययन [-], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ ३४२-३४६], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १७९ / गाथा: १-१२ ] श्रीजाचा रांग सूत्र चूणिः ||३८१ ॥ | तेण अगंनजिणेण ताइणा, महगुरुनि दुःखं ते घरे महब्बते, गुरु च महागुरुं णिस्सीकरेति, खड़तेति यदुक्तं भवति, कहं ? क्षपणकरा उदीरिता प्रेरिता, जहां तमेव तेऊत्तिदिशं तमं अंधकारं तेउ आदिचो, तिदिशि उहूं अहे तिरियं, जं च तमं नाशयति प्रकाशयति च एवं ते महात्रता प्रकाशाः। किंच सितेहिं भिक्खु (१४२* ) सिता चदा अष्टविधेन कर्मणा, अहवा तिहिं पासेहिं, असितो गियासनिग्गतो कर्मखचणञ्जतो वा, संमं बजे परिव्रजेति असजमाण इति कस्मिन् है, इत्वीसु, इत्थी गुरुयतरा, मूलगुणा हिता, उत्तरगुणा- जहेज पूयणं पूर्ण लकारः, स एवं मूलगुण उत्तरगुणावस्थितो ण इहलोगपरलोगणिमित्तं तपः कुर्याद्, जहा इहलोगनिमित्तं धमिलो परलोगनिमित्तं भदत्तो, अणिस्सिते अनासृतः इहलोगं, परलोगं-इदं ण परलोगं, तहा परं कामं एवं गुणजुत्तो ण मिजति ण भरिज कामगुणप्रत्ययिकेन कर्म्मणा, न वा मूर्च्छति, अहवाण विजतेजो हि जहिं वरति सो तहिं विजते दृश्यते, नहा विमुक्तस्य (१४३) द्रेण प्रकारेण मुक्तस्य परिष्णा-ज्ञानं परिण्णा चरतीति | परिष्णचारी तस्त्र परिनाचारिणः, घितीमतो धृतियुक्तस्य दुःखं परीसहोवसग्गो तं खमिति अहियासेति सहति तस्य दुक्खक्षमस्य कस्य :-भिक्षुणो, किं भवति ? उच्यते-विमुधति (विमुज्झइ) निडति मलं कम्मरयं वा पुरे भवे कडं पुरेकर्ड असंजमेणं, कह - विसुज्झति १, समीरितं रूपं सम्यक् ईरितं प्रेरितं इत्यर्थः, रूप्पं समलं किहो सो अग्गिणा तावियस्स फिडत (१४४०) सच्चेवंगुणजातीओ यो भिक्षुः कस्मिन् च व्रते परिज्ञानसमए-ज्ञानोपदेशे वर्त्तते, उक्तं च- "ज्ञातागमस्य हि फलं०" निरासंसः आसंसा प्रार्थना, सा च इद्दलोगे परलोगे वा, तत्र प्रार्थयति, आरते उवरतः मेहुणा चरे-बिहरे, यः एवं चरेत् स कर्मभ्यो विमुच्यते, कहं ? भुजंगमे, भुजंगमः सर्पः जीर्णत्वचं जहा त्यजेत्, दुहसेआसंथारा संसारा विमुच्यति, क्रः, माहणः जमाह ओहं (१४५*) विमुक्तयध्ययनं [393] ॥३८१॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-1 "आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [४], अध्ययन H, उद्देशक नियुक्ति: [३४२-३४६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७९/गाथा: १-१२] चूर्णिः प्रत वृत्यक [१७९] बीमाचा- आहु-उक्तवान् तीर्थकरो ओह सलिल अपाग्ग-यस्य पार न गम्यते, कस्य ?-महासमुद्रस्य, अहवा महासमुद्र इव भुपाहि 0 विमुक्यगंग मूत्र D| दुत्तरो एवं संसारो दुचरो अणुपातेणं, अधस्तं परिजाणाति दुविहाए परिणाए जेण उनाएण उत्तरिजति, जाणित्ता य करेति स ध्ययन पण्डितः स मुनिः स ओहंतरः स चांतकरति उच्यते, अन्यच्च जहा य बद्रा (१४६५) जेण प्रकारेण जह रागादिमिः समतीता ॥३८२।। तिणि तु इह मनुष्यलोके, केन बद्धा?-कर्मणा, के नहा ?, पया नाम जीवा, जहा बद्धाणवि परो वेरमणायैस्तपसंजमेण वा, अहा तहा यथातधत्वेन बंधमोक्षं ज्ञात्वा कृत्वा च स अंतकड इह उच्यते । तस्यैवंगुणयुक्तस्य इममि लोए (१४७९) परमपदो इमो || लोगो माणुस्सभवो परो देवलोको उभए वा इद्दलोगे परलोगे, उभए वा बंधनं कर्म तत्तस्य न विजते किंचिदपि, पच्छा तस्स | वोच्छिण्णस्सऽयंधणस्स किं भवति ?, उच्यते-से हु निरालंबणः आलंवर्ण-सरीरं अमरीर इत्यर्थः, न कर्म तस्मिन् प्रतिष्ठितं सो चा कर्मसु पसत्था, तस्स को गुणो भवति, उच्यते-कलंकली संकलेया भवसंततिः आउगकम्मसंतती वा, पवंचो हीणमध्यमोत्तमपदा भूत्यत्रीनपुंसकपितापत्रमादी नटवत् कलंकलीभाव एवं प्रपंचः तस्मात्कलंकलीभावप्रपंचाद्विमुच्यते पुमान वा, प्रकामा मुच्यते विमुच्यतेति, निवाणं गच्छंतीत्यर्थः, वेमिति न मयं तीर्थकर उपदेशान् आचार्यसुधर्मो ब्रवीति, अथवा भगवान् श्रीव Mमानस्वामीति, अथवा अस्य पृतार्थस्य अयममिसंबंधो तस्थाकर्मचारिणोपसंपन्नस्य चतुर्थचूलोपचारिणः प्रमादाचरित पंचमी AVमाहूणो मन्यते स्थिती, शेषं तदेव ।। इति आचारानन्यूर्णिः परिसमाप्ता। प्रत्नानामप्यादर्शानामशुद्धतमत्वात् कृतेऽपि यथामति शोधने न तोषः, परं प्रवचनमक्तिरसिकता प्रसारणेऽस्याः प्रयोजिकेति विद्वद्भिः शोधनीयैपा चूर्णिः, क्षाम्पतु चापराधं श्रुतदेवीति । गाथा: १-१२ दीप अनुक्रम [५४१५५२] | पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: आचाराङ्गसूत्रस्य जिनदासगणि विहिता चूर्णि परिसमाप्ता: मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किचित वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) [394] Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम भाग-1 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च "आचारांगसूत्र" [भद्रबाहस्वामी रचिता नियुक्ति: एवं जिनदासगणि विहिता वृत्ति:] (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: 1 “आचार" चूर्णि:” नामेण परिसमाप्ता सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि श्रेणि, भाग- १ [आगम-१] [395] Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचना शताब्दी वर्ष ਆ ਤਰਲ ਭਾਸ਼ ਸ਼ ਸ਼ ਰ ਲ ਵ ੜ ਅਸਲ ਭਗਤ [396] Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक अभिनव संकलनकर्ता SINESS IN पूज्यपाद आरामोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] अनमहषि] प्रत प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855798253062751 [397] Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता सच्चारित्र चूडामणि स्वर्गस्थ पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागर सूरीश्वरजी महाराज साहेब श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ वीतराग सोसायटी, प्रभूदास ठक्कर कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद करीब पचास साल पहेले परम पूज्य स्वर्गस्थ गच्छाधिपति आचार्य देव श्रीमद् देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब द्वारा संस्थापित इस संघ में श्री शीतलनाथ भगवंत का जिनालय भी है, जिन के प्रतिष्ठाचार्य भी पूज्य देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी म० ही है । इस संघ में पूज्य साधू -भगवंत एवं साध्वी - महाराज के लिए उपाश्रय भी है, जहां हर साल चातुर्मास करवा के श्रावक-श्राविकाओ को धर्म-आराधन से लाभान्वित करवाया जाता है | इस संघमें आयंबिलभवन, उबाला हुआ पानी, ज्ञान भण्डार एवं पाठशाला की भी बहोत अच्छी सुविधा प्रदान हो रही है । ऐसे सम्यग् मार्गी संघ की सद्भावना और प्रभावक आचार्य पूज्य श्री हर्षसागरसूरिजी म० की प्रेरणा से इस शास्त्र के लिए अनुदान प्राप्त हुआ है । [398] Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजम आगम आगम आगम आगम मूल संशोधकाजामाआमा __पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आज आम आगमन आजम आजम आजम आगम आजम आगम - 01 'आचार' चूर्णि: 3. का काम गतिमी दीपावागरजी आजम आज अभिनव-संकलनकर्ता आजम आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी __ [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] / आगम आगम आजम आजम आज आजम आजमा [399]