Book Title: Gita Darshan Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ বগুনি भाग एक ओशो Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्र की ऊंची से ऊंची ऊंचाई मनस शा है। शब्द की ऊंची से ऊंची संभावना मनस है। अभिव्यक्ति की आखिरी सीमा मनस है। जहां तक मन है, वहां तक प्रकट हो सकता है। जहां मन नहीं है, वहां सब अप्रकट रह जाता है। गीता ऐसा मनोविज्ञान है, जो मन के पार इशारा करता है। लेकिन है मनोविज्ञान ही। अध्यात्म-शास्त्र उसे मैं नहीं कहूंगा। और इसलिए नहीं कि कोई और अध्यात्म-शास्त्र है। कहीं कोई शास्त्र अध्यात्म का नहीं है। अध्यात्म की घोषणा ही यही है कि शास्त्र में संभव नहीं है मेरा होना, शब्द में मैं नहीं समाऊंगा, कोई बुद्धि की सीमा-रेखा में नहीं मुझे बांधा जा सकता। जो सब सीमाओं का अतिक्रमण कर जाता है, और सब शब्दों को व्यर्थ कर जाता है, और सब अभिव्यक्तियों को शून्य कर जाता है—वैसी जो अनुभूति है, उसका नाम अध्यात्म है। -ओशो Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता-दर्शन भाग एक ___ अध्याय 1-2-3 ओशो द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम तीन अध्यायों विषादयोग, सांख्ययोग एवं कर्मयोग पर दिए गए अट्ठाइस अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन। Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता-दर्शन अध्याय 1-2-3 भाग एक 11831 ओशो Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकलनः मा योग गीता, स्वामी दिनेश भारती संपादनः स्वामी योग चिन्मय, स्वामी आनंद सत्यार्थी डिजाइनः मा प्रेम प्रार्थना टाइपिंगः मा कृष्ण लीला, मा देव साम्या, स्वामी प्रेम राजेंद्र, स्वामी सत्यम विभव डार्करूमः स्वामी प्रेम प्रसाद संयोजनः स्वामी योग अमित फोटोटाइपसेटिंगः ताओ पब्लिशिंग प्रा.लि., 50 कोरेगांव पार्क, पुणे मुद्रण : टाटा प्रेस लि., 414 वीर सावरकर मार्ग, मुंबई प्रकाशकः रेबल पब्लिशिंग हाउस प्रा.लि., 50 कोरेगांव पार्क, पुणे कापीराइटः ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन सर्वाधिकार सुरक्षितः इस पुस्तक अथवा इस पुस्तक के किसी अंश को इलेक्ट्रानिक, मेकेनिकल, फोटोकापी, रिकार्डिंग या अन्य सूचना संग्रह साधनों एवं माध्यमों द्वारा मुद्रित अथवा प्रकाशित करने के पूर्व प्रकाशक की लिखित अनुमति अनिवार्य है। द्वितीय विशेष राज संस्करणः दिसंबर 1996 ISBN 81-7261-062-9 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका विषाद का वसंत विषाद में से क्रांति का जन्म होता है। सृजन के मूल में विषाद है। गुमसुम होने की स्थिति, जगत को उदासीन होकर देखने की स्थिति को मनसविद बीमारी कहते हैं; लेकिन कभी-कभी यह बीमारी की स्थिति गहन मनन और ऊर्ध्व चिंतन के लिए राजमार्ग बन जाती है। इस स्थिति के प्रति जागरूक होना जरूरी है। बहुत ही प्रसन्न प्रकृति वाले डॉ. विलियम जेम्स पागलखाने की मुलाकात के बाद बड़े उदास हो गए। उनकी पत्नी को बड़ा आश्चर्य हुआ। हमेशा सबको हंसने-हंसाने वाला आदमी अचानक गंभीर हो गया। पत्नी ने कारण पूछा। विलियम ने जवाब दिया, 'मैंने इन पागलों को देखा। मुझे उनमें और मुझमें एक बात की समानता नजर आई। वे लोग जिस स्थिति में हैं, वहां मैं भी होकर आया हूं। फर्क सिर्फ इतना ही है, वे वहां से वापस नहीं आए, मैं वापस आ गया!' विषाद में से ही बड़ी क्रांति हई है, इस बात को ओशो सारगर्भित रूप में समझाते हैं. 'अर्जन का विषाद अपने विषाद में ही तप्त हो जाए, अथवा वहीं अटक जाए, तो वह विषाद अधार्मिक है। विषाद यात्रा बन जाए, गंगोत्री बने और विषाद में से निकलती गंगा आनंद के सागर तक पहंच जाए, तो वह धार्मिक बनती है। विषाद अटक जाए, वहां वह आत्मघाती बन जाता है। जहां वह निबंध बहता है, वहां आत्म-परिवर्तनकारी बन जाता है। बुद्ध को अपना विषाद उस मुकाम पर लाया था जहां आत्महत्या अथवा आत्म-परिवर्तन, ये दो रास्ते थे; महावीर का विषाद उनको उसी मुकाम पर ले आया था। वे दोनों अपने विषाद को स्वयं ऊपर उठा पाए थे। अर्जुन के विषाद की बात अलग है। अर्जुन हम सबका प्रतीक है। हम विषाद में डूबते हैं। स्वयं उससे बाहर आने की कोशिश करते हैं तब और-और ज्यादा डूबते जाते हैं। उस समय हमें किसी अरिहंत, किसी अवतारी पुरुष की जरूरत होती है। सब के नसीब में अरिहंत के साथ का योग निर्मित नहीं होता है। संवाद, विषाद में डूबे मनुष्य को ऊंचा उठा पाए, ऐसा होना चाहिए। कृष्ण-अर्जुन संवाद इस भूमिका का संवाद है। इसीलिए तो वह भारतीय संस्कृति के इतिहास में भिन्न-भिन्न मतों वालों के काम में आ सका है। जगत मिथ्या है, ऐसा कहने वाले अद्वैतवादियों को भी इस संवाद में अर्थ नजर आया। भक्ति, ज्ञान, प्रेम, विवेकबुद्धि सभी पंथ के लिए गीता उपयोगी है। गीता में यह सार्वभौमिकता का गुण है। इसीलिए तो धर्म के इस पृथक-पृथक स्वरूप को समझने वाले मनुष्य के पास गीता पहुंचती है तो चमत्कार घटता है। _____ओशो इस जगत के विषाद में से प्रकट हुई गंगा को आनंद के सागर तक ले जाने में समर्थ हुए हैं। इसीलिए उन्होंने गीता की बात कहने की शुरुआत की, तब धृतराष्ट्र के प्रश्न से शुरू हुए इस ग्रंथ की ही नहीं, तमाम धर्मग्रंथों की बातों को उसमें बुन लिया है। 'गीता-दर्शन' का प्रथम वाक्य ही इस प्रकार है : 'धृतराष्ट्र आंखों से अंधा है।' इधर ओशो धृतराष्ट्र की आंखों की कमी का उल्लेख नहीं कर रहे हैं। दुनिया के सभी मनुष्यों के भीतर यह धृतराष्ट्र है और किसी न किसी परिस्थिति में मामकाः' शब्द के साथ जाग्रत हो उठता है। धृतराष्ट्र के प्रश्न के साथ गीता का आरंभ होता है। धृतराष्ट्र संजय को पूछता है : 'धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में इकट्ठे हुए युद्ध की इच्छा रखने वाले मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया?' इस जिज्ञासा में से गीता का जन्म हुआ। ओशो यहां थोड़ी कठोर टिप्पणी करते हैं : 'इस अंधे धृतराष्ट्र ने जिज्ञासा की जिसके कारण यह धर्मग्रंथ शुरू हुआ। सारे धर्मग्रंथ अंधे मनुष्यों की जिज्ञासा के कारण ही शुरू होते हैं। जिस दिन दुनिया में अंधे मनुष्य नहीं होंगे, उस दिन धर्मग्रंथ की कोई जरूरत नहीं रहेगी।' धर्मग्रंथ मनुष्य की अंधी जिज्ञासा का परिणाम है, यह थोड़ा कठोर कथन है, लेकिन उनके सत्य का मनन करने जैसा है। जिनको Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य दिखता नहीं है वही तो खोजते हैं। जिसे उसका साक्षात्कार नहीं हुआ है, उसे ही उस रास्ते पर भटकना है। जिन्हें ज्ञान नहीं है वे ही वही-वही घोंटते रहते हैं। मनुष्य दो आंखों से देखता है इसलिए वह देख पाता है, ऐसा नहीं कह सकते। 'जिन नैनन में तव रूप बस्यो उस नैनन से अब देखना क्या'-इस मतलब की सूरदास की पंक्तियों का स्मरण हो आया। एक बार जो देख लेता है उसे देखने को कुछ बाकी नहीं रहता। कबीर की तरह ओशो भी 'देखादेखी बात' में भरोसा करते हैं। दूसरे जो ढूंढ़ रहे हैं, उन्हें कभी उलटबांसी से, तो कभी रास्ता दिखाकर मार्ग पर ले आते हैं। ___ गीता का प्रारंभ विषाद-योग से होता है। विषाद वरदान है। विषाद जगे तो कृष्ण से गीता सुनने को मिले। लेकिन यह विषाद मर्म में से जगना चाहिए। अगर यह विषाद सतह पर का ही हो तो इससे कोई परिणाम नहीं निकलता। अर्जुन का विषाद मर्म में से जगा है। युद्धभूमि पर उसे युद्ध की निरर्थकता समझ में आती है। कुरुक्षेत्र में आमने-सामने सेना सजी हो, शंखनाद हो रहा हो, तब अचानक शस्त्र नीचे रखकर, 'अब मैं युद्ध नहीं लडूंगा' ऐसे शब्द कृष्ण जैसे साथी को कहने वाले में बड़ी हिम्मत का होना जरूरी है। कृष्ण कहते हैं, तुम्हें लड़ना चाहिए, लेकिन अर्जुन उसका स्वीकार नहीं कर लेता है। कृष्ण सरीखे साथी-सारथि, गुरु जब मिल जाए तो फिर प्रश्न कैसा, ऐसा बहुतों को लग सकता है। अर्जुन को कृष्ण की महिमा का परिचय है। कृष्ण लोकोत्तर व्यक्ति हैं, यह बात अर्जुन जानता है। लेकिन मन के संदेह को प्रकट करने में उसे कोई संकोच नहीं। वह प्रश्न पूछता चला जाता है और उसमें से गीता के सात सौ श्लोक की रचना होती है। ओशो इस कृष्णत्व को पा चुके हैं। यह ब्रह्मविद्या उनके लिए किसी प्रयास से प्राप्त करने की सिद्धि नहीं है। सहज ही वह उनमें प्रकट हुई है। 1970 की 29 नवंबर की सुबह उन्होंने अहमदाबाद में सब से प्रथम गीता ज्ञान-यज्ञ का आरंभ किया। उसके बाद के पांच साल में उन्होंने इस विषय पर दो सौ बीस प्रवचन दिए। इन सब में से साढ़े छः हजार पृष्ठों में विस्तारित 'गीता-दर्शन' प्राप्त होता है। इसे गीता-विचार या गीता-मीमांसा नाम नहीं दिया है, 'गीता-दर्शन' शब्द का उपयोग हुआ है। गीता में ओशो का हुआ दर्शन सभी के लिए यहां प्रकट है। इसके बाद भी प्रश्न उठते हैं। प्रश्न उठने ही चाहिए। वही गति है। परंतु यहां गीता के विषय में स्थूल से लेकर सूक्ष्म तक की यात्रा की गई है। उदाहरण के तौर पर गीता के प्रथम अध्याय के दसवें श्लोक में, 'हमारी भीष्म से रक्षित सेना और उन लोगों की भीम से रक्षित सेना' ऐसे शब्दों का प्रयोग दर्योधन करता है। भीष्म के सामने भीम क्यों? अर्जन या धर्मराज क्यों नहीं? ओशो उसके जवाब में कहते हैं कि युद्ध खतम होने के बाद इस श्लोक को बोला गया होता तो भीम के स्थान पर अर्जुन को रख सकते थे। लेकिन युद्ध शुरू हुआ तब पांडवों के पक्ष में बल, युयुत्सा और विजयकामना का प्रतीक भीम था। सौ के सौ कौरवों को मारने की प्रतिज्ञा भीम की थी, अर्जुन की नहीं। अर्जुन विषाद अनुभव करता हुआ युद्धभूमि में न्यस्तशंस्त्र हो सकता है, भीम नहीं। ___ अव्यक्त की बात करते हुए वे गहनता में उतर जाते हैं। 'दि टेन्थ मैन' की बोधकथा से वे अव्यक्त को समझाते हैं। दस आदमी नदी पार उतर कर सभी सही सलामत हैं कि नहीं, वह तय करने के लिए गिनती करते हैं। सभी को नौ ही नजर आ रहे हैं। अंत में एक फकीर कहता है: मैं सभी को एक थप्पड़ मारता हूं। जिसे थप्पड़ लगे वह 'एक', 'दो' ऐसे अपनी संख्या बताए। दस थप्पड़ लगे और दसों व्यक्ति सलामत हैं, ऐसा सिद्ध हुआ। ऐसे, दो प्रकार के गणित हैं, एक गणित दूसरे से शुरू होता है। दूसरा गणित अपने से शुरू होता है। दूसरों से शुरू होने वाला गणित कभी भी अव्यक्त में नहीं ले जा पाएगा। अपने से शुरू होने वाला गणित अव्यक्त में ले जा सकता है। अव्यक्त किस ढंग से हमारे भीतर बसा है, उस बात को ओशो अदभुत ढंग से समझाते हैं : 'हम थोड़ा भीतर झांकें तो पता लगता है कि हम जहां जी रहे हैं वहीं एक विशाल ऊर्जा का उत्तुंग शिखर है। उस शिखर को हम जानते हैं, पर उसके पार क्या है उसे नहीं जानते। उसके पीछे अव्यक्त मौजूद है। सभी अव्यक्त घटनाओं के पीछे व्यक्त मौजूद है। सभी दृश्य घटनाओं के पीछे अदृश्य मौजूद है। जरा गहरे में जाएं...।' ___ गहरे में कैसे उतरा जाए इसकी चर्चा यहां की गई है। बोध के रूप में नहीं, संवाद के रूप में। कृष्ण-अर्जुन संवाद कुरुक्षेत्र के मैदान में समाप्त नहीं होता। वह सतत चलता ही रहता है। मन के कुरुक्षेत्र में मनुष्य प्रश्न पूछता ही रहता है। परमात्मा उनके उत्तर देता है। सिर्फ इस उत्तर को सुनने की कला मनुष्य के पास नहीं है। इस उत्तर को सुनने के लिए ओशो हमें सजग करते हैं। हमारे विषाद या संताप को वर्तुलाकार गति में घूमने से रोककर, उसे आगे बढ़ाकर आनंद के सागर तक की यात्रा कैसे कराएं इसका खयाल देते हैं। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता विषाद में से प्रकट हुआ संगीत है। विषाद वरदान. वाचक है। अर्जुन को विषाद नहीं जागा होता तो गीता की रचना नहीं होती। कृष्ण अर्जुन के साथ एक ही स्तर पर रहकर संवाद कर रहे हैं। ग्यारहवें अध्याय में कृष्ण ने विश्वरूप दर्शन कराया, उसे प्रथम अध्याय में ही करवा सकते थे और अर्जुन को कह सकते थे कि मैं परमात्मा हूं, तुम्हें मेरी बात माननी पड़ेगी। ___ परमात्मा कभी इस भाषा में बात नहीं करता; वह तो संदेह को योग्य परिप्रेक्ष्य में रखकर अर्जुन को खुद ही उत्तर सूझे, ऐसा करता है। और उसमें से ही अर्जुन के 'करिष्ये वचनं तव' जैसे शब्द प्रकट हो पाए। विषाद में से वसंत को खिलाने की समग्र प्रक्रिया ओशो हमें अनोखे ढंग से समझाते हैं। ओशो के अभिगम में क्रांति है। यह क्रांति भी मनुष्य जाति के लिए उनके अनुभव से निकले विषाद में से जागी है। उनमें एक कृष्ण और एक अर्जुन सतत प्रश्नोत्तर करते नजर आते हैं; एक महावीर और एक गौतम सतत सवाल पूछता है, जवाब देता है। एक आनंद संदेह करता है, एक बुद्ध समाधान देता है। ओशो अपनी अंतर्दृष्टि से गीता में प्रवेश करते हैं और हम आगे बढ़ने के लिए तैयार हों तो वे पगडंडी पर हमारी अंगुली पकड़ने को राजी हैं। हरीन्द्र दवे श्री हरीन्द्र दवे भारतीय साहित्य के सुविख्यात सर्जक हैं। उन्होंने गुजराती भाषा को आसव, मौन समय, अर्पण, सूर्योपनिषद और हयाती जैसे महत्वपूर्ण काव्य-संग्रह दिए हैं। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं और उपन्यासकार, नाटककार, विवेचक, निबंधकार और प्रख्यात पत्रकार भी हैं। समर्पण और जनशक्ति के संपादन के बाद इन दिनों वे जन्मभूमि-प्रवासी के मुख्य संपादक हैं। • गुजराती साहित्य को अनूठे योगदान के लिए श्री दवे को 1978 में राष्ट्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार से अलंकृत किया गया। 1982 में इन्हें रणजीतराय गोल्ड मेडल तथा इनकी रचना 'कृष्ण अने मानव संबंधों के लिए 1982-83 का श्री अरविंदो मेडल प्राप्त हुआ। इनको महाराष्ट्र सरकार का महाराष्ट्र गौरव, गुजरात साहित्य अकादमी का के. एम. मुंशी स्वर्णपदक जैसे अनेक सम्मान मिले हैं। मध्यप्रदेश शासन ने इन्हें 1991-92 के कबीर सम्मान से सम्मानित किया है। भारतीय कविता के लिए दिया जाने वाला यह देश का सर्वोच्च सम्मान है। पत्रकारिता के लिए इन्हें आर्गेनाइजेशन आफ अंडरस्टैंडिंग एंड फ्रेटरनिटी के हारमनी अवार्ड और बी.डी.गोयनका अवार्ड से भी विभूषित किया गया है। 1981 में ब्रिटिश सरकार ने अध्ययन-भ्रमण के लिए तथा 1984 में उत्तरी अमेरिका की साहित्य अकादमी ने संयुक्त राज्य अमेरिका में भाषण-भ्रमण के लिए इन्हें आमंत्रित किया। अमेरिका के विभिन्न राज्यों के विश्वविद्यालयों में इनके भाषण हुए। 1987-88 में भारत के प्रधानमंत्री की मास्को, तुर्की, सीरिया, पश्चिम जर्मनी तथा संयुक्त राष्ट्र की विशेष यात्राओं में . प्रतिनिधिमंडल के साथ इन्हें आमंत्रित किया गया। ___ और सर्वाधिक उल्लेखनीय है कि जन्मभूमि-प्रवासी में श्री हरीन्द्र दवे के साप्ताहिक धर्मलेखों में ओशो का जीवन-दर्शन निरंतर झलकता है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम गीता-दर्शन अध्याय 1-2 1 विचारवान अर्जुन और युद्ध का धर्मसंकट ... 1 गीता का प्रारंभ अंधे धृतराष्ट्र की जिज्ञासा से - जीवन की सारी कथाएं भी / अंधे पिता की अंधी संतानें – कौरव / सभी अंधे आदमी के ही पुत्र हैं / भीतर की आंख पानी कठिन / धर्मक्षेत्र में ही अधिकतर युद्ध / धर्मक्षेत्र में भी युद्ध की पिपासा - मनुष्य के गहरे में छिपा पशु / संजय की दूर दृष्टि और दूर-श्रवण की क्षमता का स्रोत क्या है? दूर- दृष्टि की क्षमता मानसिक शक्ति है - आध्यात्मिक नहीं / अमेरिका के टेड सीरियो की आंख में तस्वीरों का बनना / टेड सीरियो एक साधारण आदमी - आत्म- ज्ञानी नहीं / दुर्घटनावश अतींद्रिय क्षमताओं के सक्रिय होने के उदाहरण / कान से रेडियो तरंगों का पकड़ना / दिन में तारे देखना / साइकिक पावर्स में उलझने वाला सत्य तक नहीं पहुंच पाता / अमेरिका और रूस के अंतरिक्ष यात्रियों को दूर - दर्शन और विचार संप्रेषण के लिए प्रशिक्षित करना / दुर्योधन हीनता की ग्रंथि से पीड़ित नहीं है / दुर्योधन द्वारा विरोधियों के गुणों का उल्लेख पहले करना - प्रशंसनीय / भीष्म का प्रतिस्पर्धी भीम को क्यों माना गया है— अर्जुन को क्यों नहीं ? युद्ध का केंद्र अर्जुन के बजाय भीम जैसा कम बुद्धि और अधिक शक्ति वाला व्यक्ति ही / अर्जुन बुद्धिमान है / जहां बुद्धि - वहां संशय; जहां संशय - वहां द्वंद्व / अर्जुन युद्ध लिए भरोसे योग्य नहीं / भीम और दुर्योधन में सामंजस्य / युद्ध का केंद्र भीम से अर्जुन पर बदल जाना / एक अज्ञात परमात्म शक्ति का बीच में हस्तक्षेप / अर्जुन को कृष्ण द्वारा युद्ध के लिए तैयार करना / व्यक्ति कैसे जान पाए कि अज्ञात की क्या इच्छा है? व्यक्ति अपने को मिटा दे, तो जान सकता है / अहंकार के हटते ही सब कुछ ब्रह्म द्वारा ही हो रहा है इसका बोध / जीवन से संघर्ष का परिणाम — दुख, पीड़ा, संताप / जीवन के स्वीकार का परिणाम - आनंद, नृत्य, गीत / सब ब्रह्म- इच्छा है, तो वैज्ञानिक शोध का क्या होगा ? वह भी व्यक्ति इच्छा का परिणाम नहीं है / सारी खोजों का स्रोत - निर्विचार मौन / मैडम क्यूरी का नींद में सवाल हल करना / आर्किमिडीज को बाथ टब में समाधान / निर्व्यक्ति चेतना में हल का उतरना / अपौरुषेय - वेद, उपनिषद, कुरान, बाइबिल आदि / जितना गहरा सत्य का अनुभव, उतना ही व्यक्ति क्षीण / अचेतन मन भगवान से जुड़ा है या शैतान से ? मेरे लिए भगवान और शैतान एक / अच्छा-बुरा, अंधकार-प्रकाश - एक ही अस्तित्व के दो छोर / विभाजन, विरोध और पोलेरिटी - मनुष्य निर्मित / कृष्ण का शंखनाद क्या भीष्म के शंखनाद की प्रतिक्रिया है ? प्रतिक्रिया नहीं – चुनौती का स्वीकार है / जीवन - प्रतिपल चुनौती की स्वीकृति में / पहला शंखनाद कौरवों की ओर से - वे युद्ध के लिए उत्तरदायी / कृष्ण का केवल प्रतिसंवेदन / पांडवों की ओर से शंख का उत्तर कृष्ण से शुरू हुआ / युद्ध अर्जुन के लिए ऊपर से आया दायित्व है, भीतर से आयी पुकार नहीं / भीतर दुश्मनी हो तो बाहर दुश्मन प्रक्षेपित / भीतरी या बाहरी युद्ध में जीतने का . नियम - शत्रु को ठीक से पहचान लेना / लड़ने के लिए आंख बंद चाहिए / निरीक्षण हो तो क्रोध नहीं, क्रोध हो तो निरीक्षण नहीं / अर्जुन क्रोध में नहीं है / युद्ध का पहला सूत्रः सम्यक अवलोकन / निरीक्षण में उत्सुक अर्जुन लड़ाई में कठिनाई पाएगा / भीम या दुर्योधन जैसे विचारहीन व्यक्ति ही युद्ध कर सकते हैं / या कृष्ण की तरह निर्विचार व्यक्ति युद्ध कर सकते हैं / विकास के तीन चरण - विचारहीनता, विचार और निर्विचार / संत का बच्चे जैसा हो जाना / बच्चे की निर्दोषता में अप्रकट दोष छिपे हुए / ज्ञानी - अज्ञानी जैसा ही सरल / अर्जुन युद्ध में जा सकेगा - यदि विचारहीन हो जाए या निर्विचार | Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 अर्जुन के विषाद का मनोविश्लेषण 17 ... हिंसा और ममत्व साथ-साथ जीते हैं / अर्जुन का सारा शिक्षण - युद्ध और हिंसा के लिए / अर्जुन की युद्ध से विरक्ति - अहिंसा के कारण नहीं - ममत्व के कारण / अहिंसा का उदय अपने-पराए का भेद मिटने पर ही संभव / मेरों के जोड़ में मैं का गठन / ममत्व - गहरी और अदृश्य हिंसा है / अर्जुन की अहिंसा झूठी है, ममत्व उसका पूरा है / दुर्योधन, युधिष्ठिर, द्रोणाचार्य को विषाद क्यों नहीं हुआ ? वे भी ममत्व से भरे लोग थे / हिंसा और ममत्व दो तरह की - अंधी या आंख वाली / अर्जुन एक तनाव है - दुर्योधनत्व और कृष्णत्व के बीच / पशु की सहजता और मनुष्य का तनाव / विक्षिप्तता या विमुक्ति / अर्जुन मनुष्य का प्रतीक है, दुर्योधन पशु का और कृष्ण परमात्मा का / मनुष्य के साथ संताप का प्रारंभ / तनाव को भुलाने की कोशिश - सेक्स, शराब, ड्रग्ज में / प्रश्न, जिज्ञासा, असंतोष, संताप – तो धर्म आ सकता है / मनुष्य का द्वंद्व कैसे उसका विकास बने ? धैर्य से द्वंद्व को झेलना ही तपश्चर्या है / संदेह के पार हुई जीवंत श्रद्धा / द्वंद्व को जीएं - द्वंद्व की आग से भागें मत / इतनी लंबी गीता अर्जुन के द्वंद्व के प्रति बड़ा सम्मान है / श्रद्धा - संदेह की यात्रा से मिली मंजिल है / द्वंद्व को स्वीकार करने वाली तीसरी शक्ति / सार्त्र का संताप और अर्जुन का विषाद क्या एक है ? / पश्चिम की अनिर्णायक संकट स्थिति में कृष्ण के जन्म की संभावना / सार्त्र अर्जुन की स्थिति में है, लेकिन भ्रम में है कि कृष्ण की स्थिति में है / सार्त्र जिज्ञासा व प्रश्न करे – ठीक है; वह उत्तर दे रहा है - यह खतरा है / अर्जुन का अज्ञान विनम्र है / सार्त्र का अज्ञान - अविनम्र, · आग्रही और मुखर है / शिष्य द्वारा गुरु होने की चेष्टा / अनिश्चयवाद का दुष्परिणाम - अराजकता / सार्त्रवाद से निर्मित खोखलापन / लेकिन पश्चिम के पास कृष्ण नहीं हैं — पैदा हो सकते हैं / कृष्ण कांशसनेस आंदोलन - पश्चिम की किसी गहरी पीड़ा की खोज / अर्जुन पैदा हो गया है— पर कृष्ण कहां हैं / शरीर मन की ही छाया है / जैसा मन, वैसा शरीर / अर्जुन का विषाद व कंपना — जेम्स लेंगे सिद्धांत के विपरीत / शरीर के भीतर संकल्प से गरमी पैदा करना / परिधि को बदलने के लिए केंद्र पर चोट / एकाग्र मन में संकल्प का जन्म / गीता सभी धर्म-ग्रंथों में अनूठी — क्योंकि वह एक महान मनोविज्ञान है / कृष्ण सिर्फ मनोविश्लेषक नहीं – मनोसंश्लेषक भी हैं / अर्जुन का खंड-खंड मन - कृष्ण का उसे अखंडित बनाने का प्रयास / जिंदगी महाभारत है - लंबे फैलाव पर / अर्जुन तीव्र संकट में है / पलायन या आत्म-क्रांति / युद्ध से पलायन - अर्जुन के लिए अस्वाभाविक / पूरी गीता - अर्जुन को संकल्पवान, आत्मवान बनाने के लिए है / मेरी सारी चर्चा उपयोगी – यदि आप भी अर्जुन की हालत में हों—बेचैन, संतापग्रस्त । 3 विषाद और संताप से आत्म-क्रांति की ओर 35 204 अपनों को मार कर सुख कैसे मिलेगा? बिना अपनों को मारे सुख मिल जाए, तो अर्जुन तैयार है / सुख का भ्रम भंग अभी नहीं हुआ है / स्व-विरोध चित्त दशा / विषाद योग का अर्थ क्या है ? / विषाद से वापसी - स्वरूप पर / विषाद की जड़ में - आनंद की संभावना का छिपा बोध / विषाद – प्रतिभा का सहज परिणाम है / युधिष्ठिर तो धर्मराज हैं— उन्हें विषाद क्यों नहीं हो रहा है? वे तथाकथित धर्मराज हैं / धार्मिक होने का झूठा आश्वासन / समझौता और पाखंड / अर्जुन की चिंता और बेचैनी के पीछे उसकी प्रामाणिकता है / विषाद और विरह - आनंद की प्रक्रिया का प्राथमिक चरण / नास्तिक बट्रेंड रसेल को अर्थहीनता और खालीपन का अनुभव क्यों नहीं हुआ ? रुका हुआ विषाद है अधार्मिक – और गतिमान विषाद है धार्मिक / रसेल की नास्तिकता हां पर - प्रेम पर खड़ी है / प्रेम का स्वीकार गहरे में परमात्मा का स्वीकार है / आस्तिकता की तरफ बहती हुई नास्तिकता / ईमानदार आदमी जल्दी आस्तिक नहीं हो सकता / बड़ी तपश्चर्या से गुजरकर आस्तिकता का जन्म / नहीं का मरुस्थल / सार्त्र की Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नास्तिकता में कोई प्रवाह नहीं है / उधार आस्तिकता और बंद नास्तिकता खतरनाक है / धार्मिक नास्तिक और अधार्मिक आस्तिक अर्जुन भी - प्रामाणिक आस्तिकता की खोज में / रसेल को कोई कृष्ण नहीं मिला – आगे मिल जाएगा। / रसेल को बुद्धि पर भी संदेह है / अर्जुन सार्त्र और रसेल का समन्वय है / अर्जुन का विषाद धार्मिक है- क्योंकि श्रद्धा पर ले जाने वाला है / अर्जुन की वंचना - विषाद के पीछे छिपा अहंकार / अर्जुन का उलझाव / श्रेय की चिंता करने वाला अर्जुन आस्तिक कैसे है ? भौतिक सुख का योगदान – विषाद तक ले जाना / अध्यात्म के लिए अनिवार्य भूमिका - भौतिक सुखों की पूर्ण विफलता / गीता को आप मनस-शास्त्र क्यों कहते हैं? अध्यात्म-शास्त्र क्यों नहीं कहते ? शास्त्र मन के ही हिस्से हैं / शास्त्र के पार - मन के पार छलांग - अध्यात्म है / गीता-साधक के लिए उपयोगी है - सिद्ध के लिए नहीं / जहां तक समस्या - वहां तक मन / अध्यात्म समस्या नहीं - समाधान है / सब समस्याएं मन की हैं / मन ही समस्या है / अध्यात्म वह अनुभव है - जहां मन नहीं है / मन के पार कोई शास्त्र नहीं है / गीता की समाप्ति पर अध्यात्म का प्रारंभ / आज शास्त्रों की नहीं— जरूरत है— प्रायोगिक मनोविज्ञान की / अध्यात्म के शास्त्र नहीं - वक्तव्य संभव / जीवन में पुनरावर्तन की क्या उपयोगिता है? उसका अतिक्रमण कब ? क्या उसमें गुरु या ग्रंथ सहायक हैं? पुनरावर्तन से प्रौढ़ता भी और जड़ता आने का खतरा भी / होशपूर्वक गुजरने पर मुक्ति और मूर्च्छा में गुजरने से जड़ता और बंधन / जीवन एक खुला अवसर है / निर्णय, संकल्प और साधना से जीवन में क्रांति संभव / सारा जीवन एक परिवार है / सभी युद्ध पारिवारिक हैं / अर्जुन क्या करे? आंख बंद करके युद्ध में कूद जाए या भाग खड़ा हो। 4 दलीलों के पीछे छिपा ममत्व और हिंसा ...53 आप गीता को मनस-शास्त्र क्यों कहते हैं ? गीता एक मनस- शास्त्र है, लेकिन उसका इशारा मन के पार है-आत्मा की ओर / गीता का मनोविज्ञान फ्रायड के मनोविज्ञान से भिन्न है / फ्रायड का मनोविज्ञान मन पर ही समाप्त हो जाता है / अभिव्यक्ति की, शब्द की आखिरी सीमा मनस है / पश्चिम के सारे मनोविज्ञान मन तक बंद - मन के पार का उनमें इनकार / मनुस्मृति के अनुसार आततायी को मारना अनुचित नहीं है, तो अर्जुन दुर्योधन आदि को मारने में हिचकिचाता क्यों है? / मनु के वचन सोशल एथिक्स मात्र हैं / कौन है आततायी ? विचारशील के लिए निर्णय कठिन / अर्जुन की मनोदशा मनु के नियमों से ऊपर की है / नियम कामचलाऊ और जड़ होते हैं - विशेष संकट की स्थितियों में अर्थहीन । इतिहास विजेताओं द्वारा लिखा जाता है / मनु यहां काम न पड़ेंगे / अर्जुन के मनन से, मंथन से गीता का जन्म / महाभारत याद है - गीता के कारण / घटनाओं का नहीं — विचारणाओं का मूल्य / संकट में सवाल उठाना कठिन है / अर्जुन को मनु नहीं - कृष्ण जैसा आदमी चाहिए / गलत और सही की स्पष्टता – अज्ञानियों को अधिक, विचारशील को कम / चिंतन की प्रसव पीड़ा से गुजर कर मूल्यवान का जन्म / कौरवों की बुद्धि नष्ट - तो क्या हम भी युद्ध करके एक गलत काम करें ? अबौद्धिक तत्वों को बुद्धि से न्याययुक्त सिद्ध करने की चेष्टा / अर्जुन के पास दोहरा मन है / विचारशील आदमी सदा दोहरे मन वाला / विचारहीन या निर्विचार व्यक्ति में दोहरा मन नहीं / महाभारत का युद्ध मानवीय था, आज का युद्ध अमानवीय हो गया है / युद्ध के लिए तर्क-संगत व्याख्या की खोज में अर्जुन / युद्ध के मैदान में गीता जितना लंबा कृष्णार्जुन संवाद कैसे संभव ? मेरे लिए गीता काल्पनिक नहीं, शब्दशः घटी है / गीता टेलिपैथिक चर्चा है / गुरजिएफ का तीस व्यक्तियों पर भीड़ में भी अकेले रहने का प्रयोग / फयादेव के टेलिपैथी पर प्रयोग / घर पर अपने बच्चों के साथ टेलिपैथी करने का एक उदाहरण / हो सकता है कि महाभारत पहले लिखी गई हो, और गीता बाद में जोड़ी गई हो / महावीर की शून्य-वाणी / कृष्णार्जुन संवाद यदि संजय ने न सुना होता, तो खो जाता / बुद्ध का मौन हस्तांतरण महाकाश्यप को — अट्ठाइसवें आदमी बोधिधर्म द्वारा शाब्दिक अभिव्यक्ति / मौन संवाद में समय का माप भिन्न / स्वप्न में टाइम स्केल का सिकुड़ जाना / आनंद में समय शून्य हो जाता है / नारद की कहानी : जगत माया कैसे ? स्वप्न में प्रेम, शादी, बच्चे, पूर / संसार समय के माध्यम से देखा गया सत्य है, सत्य समय-शून्य माध्यम से देखा गया संसार है / युद्ध से स्त्री, संतान, कुल, जाति, धर्म, संस्कृति आदि के नष्ट होने का अर्जुन द्वारा उल्लेख / पलायन और दलीलें खोजने की वृत्ति / अमेरिका में एक किताब 'तेरह तारीख' / अर्जुन पलायन के लिए एक बड़ा जाल, एक बड़ी फिलासफी खड़ी कर रहा है / कृष्ण अर्जुन की चालबाज दलीलों पर हंस रहे हैं / अर्जुन निष्णात योद्धा है / अर्जुन तर्कपूर्वक भागना चाहेगा, कायरतापूर्वक नहीं / अर्जुन यदि प्रामाणिक हो जाए, तो कृष्ण न चाहेंगे कि लोगों की हत्या हो, धर्म विनष्ट हो / झूठे परिपूरक कारण / बुद्धि की चालाकी / युद्ध में वर्णसंकर Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतानों का जन्म? तर्पण और पिंडदान के अभाव में पितृगण का भूखों मरना और नरक में जाना क्या सही है? / अर्जुन के सब कारण अत्यंत ऊपरी और व्यर्थ हैं / पितगण आपके पिंडदान पर अवलंबित नहीं होते / पुरोहितों द्वारा शोषण / भय शोषण का आधार / प्रतिभाशाली जातियां, विकासमान संस्कृतियां, सभ्यताएं-सभी वर्णसंकर हैं / इंटर प्लेनेटरी क्रास ब्रीडिंग सबसे उत्तम / जितनी दूर की दो धाराएं-उतने ही विलक्षण व्यक्ति का जन्म / वर्णसंकर उस समय एक गाली थी, आज भी काशी में है / स्वर्ग और नरक क्या विशेष स्थान हैं? या प्रोत्साहन या भय की कल्पनाएं हैं? स्वर्ग और नरक-मानसिक दशाएं / सपने चित्रात्मक-क्योंकि बहुत आदिम / स्वर्ग अर्थात सुख, श्रेष्ठ, ऊपर, शीतलता, प्रकाश / नरक अर्थात दुख, नीचे, निकृष्ट, ताप, अंधकार / स्वर्ग या नरक हम मर कर नहीं जाते-हम दिन भर उनसे गुजरते रहते हैं / अर्जुन भागने की जिम्मेदारी खुद पर नहीं लेना चाहता है / अर्जुन बातें कर रहा है ब्राह्मणों जैसी, पर वह है-शुद्धतम क्षत्रिय, शौर्य का प्रतीक / बुद्ध हैं शुद्धतम ब्राह्मण-शांति के प्रतीक / समुराई अर्थात अर्जुन+बुद्ध / अर्जुन की दलीलें / दोहरे मन से उसे एक मन पर लाने का कृष्ण का प्रयत्न। अर्जुन का पलायनअहंकार की ही दूसरी अति ...71 दया और करुणा में अंतर / दया परिस्थिति-जन्य और करुणा मनःस्थिति-जन्य / दया अहंकार को भरती-करुणा विगलित करती / मुझे दया आती है-इसमें अर्जुन के अहंकार का स्वर / अर्जुन मारने के बदले मरने को तैयार / अहंकार शहीदगी से पुष्ट / कृष्ण बड़े मनोवैज्ञानिक-अर्जुन की नाड़ी पकड़ी है उन्होंने / अच्छाई और बुराई दोनों से अहंकार अपने को भरता है / दुर्जन सैडिस्ट (पर-पीड़क) होता है, सज्जन-मैसोचिस्ट (आत्म-पीड़क) / सैडिस्ट अपराधी कहलाते हैं और मैसोचिस्ट तपस्वी / अभी अर्जुन सैडिज्म से मैसोचिज्म की ओर जा रहा है / कृष्ण अर्जुन के अहंकार को फुसलाकर उसका मनोविश्लेषण शुरू करते हैं / विनम्रता-सुरक्षा करता हुआ अहंकार है / शरीर खो जाए पर इमेज बचे / पश्चात्ताप से अहंकार पुनःजीवित / मैं को बचा-बचा कर जीना / जानकारी ज्यादा, ज्ञान कम अर्थात पागलपन की संभावना ज्यादा / हर आदमी की अपनी निजी दुनिया / दूसरों की कोई नहीं सुनता, सब अपनी हांके चले जाते हैं / प्रोफेसरों को पागल आपने कहा, परंतु आप भी तो प्रोफेसर थे! / मनोवैज्ञानिक अहंकार-तृप्ति की बात करते हैं, पर आप अहं-शून्यता की बात करते हैं, ऐसा क्यों? प्रोफेसरों के पागल होने की संभावना ज्यादा है—आवश्यक नहीं / 'पर' से आया ज्ञान बोझ है, 'स्व' से स्फुरित ज्ञान मुक्ति है / पश्चिमी मनोविज्ञान के लिए मन ही अंतिम सत्य है, इसलिए मन के विकास की बात / संश्लिष्ट अहंकार को समर्पित भी होना है / अर्जुन पूछ रहा है कि मुझे रास्ता बताइए और अपना निर्णय भी दिए चला जा रहा है / अहंकार अति पर ही जीता है-भिखारी या सम्राट / दो अतियों के बीच खड़ा हो जाने वाला अहंकार से मुक्त / अदालत में शपथ लेते समय गीता पर ही हाथ क्यों रखवाते हैं-रामायण या उपनिषद पर क्यों नहीं? कृष्ण पूर्णावतार हैं / परमात्मा यदि पृथ्वी पर उतरे तो करीब-करीब कृष्ण जैसा होगा / कृष्ण-बहु-आयामी हैं / कृष्ण को सभी प्रकार के लोग प्रेम करते हैं, लेकिन अपनी-अपनी पसंद के हिस्से को / पूरे कृष्ण को प्रेम करने वाला कोई आदमी नहीं / सूरदास का केवल बाल कृष्ण से प्रेम / केशवदास का युवा कृष्ण से प्रेम / कृष्ण के मंदिर में बहुत दरवाजे हैं / कृष्ण से बड़ी छाती का आदमी खोजना मुश्किल है / गीता की कसम खिलाना अंधविश्वास नहीं है / प्रेम से बड़ा सत्य दूसरा नहीं है / प्रेम की रग पकड़कर ही हम आदमी से सत्य बुलवा सकते हैं। अनिश्चय से भरे अर्जुन का निश्चयात्मक ढंग से कहना कि मैं युद्ध नहीं करूंगा / कृष्ण को अर्जुन की आत्मवंचना पर हंसी आती है / निश्चय की भाषा बोलकर हम अपने अनिश्चय को छिपाते हैं / अर्जुन शास्त्रीय भाषा बोल रहा है, लेकिन है वह-मूढ़ / स्वयं को आगे रखना, धर्म को पीछे रखना-मूढजनों का काम / मूर्तमंत जीवंत शास्त्र-कृष्ण-सामने खड़ा है और अर्जुन शास्त्र की दलीलें दे रहा है / भगवान के सामने भी कुछ नासमझ शास्त्र लेकर पहुंच जाते हैं / अर्जुन कृष्ण को भगवान कहता है—पर जानता नहीं / अर्जुन का भगवान संबोधन औपचारिक है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु के पीछे अजन्मा, अमृत और सनातन का दर्शन ...87 निरहंकार और निर्विचार होने पर क्रियाएं कैसे, अभिव्यक्ति कैसे, समाज का विकास कैसे? तब सब कुछ होता है-केवल कर्ता का भाव नहीं बनता / तब परमात्मा ही करता. करवाता / जो है वह सदा से है | कछ भी विनष्ट नहीं होता केवल रूप परिवर्तन / अर्जन रूप की, परिवर्तनशील की बात कर रहा है; कृष्ण अरूप की, अपरिवर्तनशील की बात कर रहे हैं / जीवन प्रतिपल बदल रहा है / एक ही नदी में दुबारा नहीं उतर सकते / जो प्रतिपल बदल रहा है, मर रहा है उसके लिए अर्जुन चिंतित / असंभव के लिए चिंता का परिणाम विक्षिप्तता / अर्जुन को अमृत का पता नहीं / मृत्यु का भय-अर्थात अज्ञान निश्चित / अर्जुन की सारी पीड़ा आत्म-अज्ञान की है | क्या यह सही नहीं है कि नाम-रूप के बिना अरूप सत्ता की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती? अभिव्यक्ति और अस्तित्व में फर्क है / बिना अभिव्यक्ति के भी सत्ता संभव / कली के फोटोग्राफ में फूल की छाप / जो भविष्य में होने वाला है, वह आज भी किसी सूक्ष्म तल पर हो रहा है / बच्चे के चित्र में बुढ़ापे का चित्र भी लेना संभव / कृष्ण के लिए कोई अतीत और भविष्य नहीं-सब सनातन वर्तमान है / अस्तित्व है-होना; और अभिव्यक्ति है-घटना / प्रकट ही सब कुछ नहीं है-अप्रकट भी है बहुत कुछ / जीवन एक लीला है-बदलते चेहरों का / समस्त परिवर्तनशील के केंद्र में एक अपरिवर्तनशील तत्व / मरण और नए जन्म के बीच आत्मा का क्या रूप होता है? मरने के बाद सूक्ष्म शरीर नयी यात्रा पर / मृतात्मा के सूक्ष्म शरीर का फोटोग्राफ संभव / सूक्ष्म शरीर में पूरा बिल्ट-इन-प्रोग्रैम / सूक्ष्म शरीर-अनेक जन्मों का आधार / समाधि अर्थात जीते जी सूक्ष्म शरीर का पूर्ण विसर्जन / अभिव्यक्ति बंधन है-सीमा है / अभिव्यक्ति से मुक्त होना ही संसार से मुक्त होना है / मृतात्मा की शांति के लिए क्या पत्नी-बच्चे कुछ कर सकते हैं? / मृतात्मा की शांति के बहाने पत्नी या बच्चों द्वारा शुभ कर्म फलित / प्रौढ़ मनुष्यता को सीधी वैज्ञानिक व्याख्या देनी होगी / जो भी जन्मता है, वह मरता है / न मिटने में दुख है, न होने में सुख / आनंद सुख और दुख दोनों से ही ऊपर उठ जाना है / सुख और दुख, मिलन और विरह-एक ही सिक्के के दो पहलू / आधा सत्य सुख-दुख में ले जाएगा और पूरा सत्य आनंद में / अर्जुन पूरा सत्य देख ले तो चिंता-मुक्त हो जाए / द्वैत में अद्वैत के दर्शन से व्यक्ति ज्ञानी / खोजो सुख-मिलता है दुख / समय के अंतराल के कारण हम दोनों में संबंध नहीं जोड़ पाते / सुख-दुख को समान समझने वाले धीर पुरुष को इंद्रियों के . विषय व्यथित नहीं करते। भागना नहींजागना है ... 105 सत क्या, असत क्या-इसके भेद को जान लेना ज्ञान है / असत अर्थात जो नहीं है, फिर भी होने का भ्रम देता है / दो न होने के बीच में जो होना है, वह असत है / सत अर्थात जो सदा है, अनादि है, अनंत है / असत को असत की भांति जान लेना-सत्य की खोज का आधार / असत को सत का अवलंबन जरूरी / असत के प्रति बोध से असत का विसर्जन / असत है समय में सत्य है कालातीत / समय के दर्पण पर असत का प्रतिफलन / अविनाशी सत / जो हर हालत में बच ही रहता है—वह सत / बुद्ध के नथिंगनेस में और शंकर के एवरीथिंगनेस में क्या विरोध है? / न भोगो, न भागो-वरन जागो-तो जागना भी क्या एक प्रयास और चुनाव ही नहीं होगा? शून्य और पूर्ण एक ही सत्य के दो नाम हैं / बुद्ध और शंकर में कोई विरोध नहीं है केवल नकार और विधेय की भाषा का फर्क है / भागने का मतलब है-चुनाव / कुछ छोड़ना, कुछ पकड़ना / भागकर जहां भी जाएंगे, वहां संसार होगा / ज्ञानी जागता है-अज्ञानी भागता है / संसार न पाया जा सकता है, न छोड़ा जा सकता है / भागना भी गलत, पकड़ना Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी गलत / पूरी गीता भागने के खिलाफ है / संसार से भागकर नहीं-संसार में जागकर ही कोई संन्यासी होता है / सपने को सपने की भांति जानना ही जागना है / सत क्या, असत क्या-यह पहचान ही जागना है / क्या जागना भी भागने का शीर्षासन नहीं है? जागना अर्थात जो है-उसे देखना / बोध के अभाव में प्रयत्न / जागते ही जगत खो जाता है-परमात्मा ही शेष रहता है / प्रयास तो हमें असत्य के लिए करना पड़ता है / लड़-क्योंकि न कोई मरता, न कोई मारा जाता / जैनियों ने कृष्ण को नरक में डाल दिया / नीति धर्म नहीं-बहुत कामचलाऊ सामाजिक व्यवस्था है / नीति भी असत का हिस्सा है / धर्म-नीति और अनीति के पार है / गीता का युद्ध रूपक नहीं—ऐतिहासिक घटना है / नीति-अनीति, शुभ-अशुभ-सब स्वप्न / मारना भी स्वप्न, बचाना भी स्वप्न / जो है-उसे न मिटाया जा सकता, न बचाया जा सकता / अच्छे-बुरे सपने में चुनाव नहीं करना है-दोनों से जाग जाना है / मृत्यु एकमात्र असंभावना है। 8 मरणधर्मा शरीर और अमृत, अरूप आत्मा ... 119 आत्मा न हननकर्ता है और न हनन्य, तो हिटलर द्वारा की गई हत्याएं और हिरोशिमा का विनाश क्या न्याययुक्त माना जा सकता है? / हिंसा तो होती ही नहीं, लेकिन हिंसा की आकांक्षा होती है / मारने में रस लेना कि मैंने मारा-यह पाप है / पाप हिंसा होने में नहीं-हिंसा करने में है / प्रश्न भाव का है-घटना का नहीं / विनाश का रस हिंसा है / अशांत आदमी का रस विनाश में-शांत का सृजन में / ज्ञानी के लिए न कुछ अपना है, न कुछ पराया है / जब तक अपने-पराए का भाव है-तब तक चोरी है, हिंसा है / कृष्ण के तल पर ऊपर उठे / सब रूपों के आधार में अरूप / जो जन्मा है, वह मरेगा ही / जो जन्म के पहले था, वह मृत्यु के बाद भी होगा / मानना नहीं जानना / सत्य के संबंध में जानना–सत्य को जानना नहीं है / शरीर से हमारा तादात्म्य गहरा है। / शरीर से भिन्न अपने होने का हमें कोई पता नहीं है / अनेक जन्म–शरीररूपी जीर्ण वस्त्रों को बदलना / साक्षी के लिए शरीर वस्त्र की तरह / सर्वव्यापक और पूर्ण आत्मा का पुनर्जन्म कैसे? / आत्मा का गर्भ प्रवेश कैसे? मरण स्थूल शरीर का / पुनर्जन्म की सारी यात्रा सूक्ष्म शरीर द्वारा / सूक्ष्म शरीर द्वारा अपने योग्य गर्भ में प्रवेश सहज प्राकृतिक घटना है / सूक्ष्म शरीर का आना-जाना है-आत्मा न आती, न जाती / सूक्ष्म शरीर को जीवन ऊर्जा मिलती है-सर्वव्यापी आत्मा से / आत्मा परमात्मा से सदा मिली ही हुई है / सूक्ष्म शरीर के विसर्जित होते ही जन्म-मरण की यात्रा समाप्त / स्थूल शरीर मां-बाप से, सूक्ष्म शरीर पिछले जन्म के संस्कारों से और जीवन-ऊर्जा-आत्मा-परमात्मा से। आत्म-विद्या के गूढ़ आयामों का उदघाटन ... 135 आत्मा का अर्थ है-अस्तित्व, बीइंग / आत्मा का न प्रारंभ है-न अंत / भीतर का आकाश है-आत्मा / बाहर का आकाश है-परमात्मा / आकाश में बाहर-भीतर नहीं होता / मैं आत्मा नहीं है / वृद्धावस्था में आस्तिकता-मृत्यु-भय के कारण / सूक्ष्म शरीर की यात्राएं क्या बिना आत्मा के सहयोग के संभव? आत्मा सक्रिय भागीदार नहीं है सिर्फ उसकी निष्क्रिय मौजूदगी काफी / बंधन-आत्मा की स्वतंत्रता का ही हिस्सा / पहले खोना-फिर पाना / मुक्ति के अनुभव के लिए बंधन का अनुभव जरूरी / आत्मा संसार में जाती है, ताकि मुक्ति का फिर से अनुभव कर सके। संसार एक प्रयोग है-स्वयं को खोने का / यह आत्मा ही चुनाव है कि वह खोए और पाए / जिसे हम खोज रहे हैं, उसे हमने ही खोया है / जीवन आत्मा की लीला है | आखिरी क्यों का कोई उत्तर नहीं है / धर्म क्या की खोज है-और योग कैसे की खोज / धर्म एक विज्ञान है | क्यों का आग्रह Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बचकाना है / दार्शनिकों के उत्तरों की व्यर्थता / आत्मा के तल पर मात्र कामना ही कृत्य बन जाती है | अगर भाव और समझ पूरी हो, तो घटना तत्काल / क्या प्रेतात्मा और इथरिक बाडी एक है? क्या प्रेतात्मा का दूसरे के शरीर में प्रवेश करके उसे सताना संभव है? इसका निवारण क्या है? / साधारण मृत आत्माएं शीघ्र ही गर्भ पा जाती हैं। अधिक बुरी आत्माएं-भूत-प्रेत; और अधिक भली आत्माएं-देवता / संकल्पवान व्यक्ति में भूत-प्रेत का प्रवेश कठिन / निराशा, भय व आत्मग्लानि में सूक्ष्म शरीर का सिकुड़ना और प्रेतात्माओं के लिए खाली जगह का बनना / संकल्प के वर्तुल का फैलाव-शरीर के बाहर भी / संकल्प का पूरे ब्रह्मांड में फैलाव होने पर अहं ब्रह्मास्मि का अनुभव / बढ़ते हुए संकल्प में आस्तिकता का जन्म और सिकुड़ते हुए संकल्प में नास्तिकता का जन्म / अशरीरी भूत-प्रेतों का अपनी वासनापूर्ति के लिए दूसरे के शरीर में प्रवेश / देवताओं का-आमंत्रण पर ही शरीर में प्रवेश / देवताओं को निमंत्रित करने की विधियां / देवताओं द्वारा अनेक ज्ञान-विज्ञान की सूचनाओं का देना / आयुर्वेद-देवताओं द्वारा दी गई सूचनाओं पर आधारित / यज्ञ, हवन, मंत्र, अनुष्ठान आदि विधियां-देव आत्माओं के आह्वान के लिए / मान लो कि आत्मा यदि मरणधर्मा है, तो फिर मरने की चिंता क्यों करनी / विद्वान तर्क और विचार के तल पर जीता है-और ज्ञानी अनुभूति के तल पर / अर्जुन, ज्ञानी होने की तेरी तैयारी नहीं है, तो विद्वान हो जा / जो अपरिहार्य है-वह होकर ही रहेगा, तू चिंता छोड़ / अपने को निमित्त मात्र समझ / करोड़ों में कभी कोई एक व्यक्ति स्वयं को जानने के लिए पिपासु होता है / करोड़ों में एक व्यक्ति विचारों का अतिक्रमण कर पाता है / बिना विचार के आप हो सकते हैं, विचार आपके बिना नहीं हो सकता / आश्चर्य की बात है कि कोई आत्म-ज्ञान का उपदेश करे / वह कहा नहीं जा सकता, लेकिन कहना ही पड़ेगा / नहीं कह सकने की असमर्थता में ही शायद कुछ संवादित हो जाए। जीवन की परम धन्यतास्वधर्म की पूर्णता में ... 151 प्रारंभ और अंत में है अव्यक्त, अद्वैत; और मध्य में है व्यक्त, द्वैत-तो अव्यक्त, अद्वैत को मध्य के व्यक्त क्षणों में जानने का क्या प्रयोजन है? / व्यक्त की सीमा है-अव्यक्त असीम है / व्यक्त में ही भीतर उतरें तो अव्यक्त में पहुंच जाएंगे / स्वयं में उतरते ही सर्व में उतरना / अव्यक्त आपके भीतर ही मौजूद है / तू की खोज व्यक्त में ले जाती है और मैं में प्रवेश-सर्व में, अव्यक्त में / श्वास कौन लेता है? खून कौन चलाता है? कोई अज्ञात, अव्यक्त ताकत / रूप के पीछे अरूप, दृश्य के पीछे अदृश्य और व्यक्त के पीछे अव्यक्त छिपा है | आंखें बंद करें-भीतर उतरें; विचारों को, स्मृतियों को तटस्थ साक्षी भाव से देखते रहें / देखते-देखते-स्वयं का बोध और अव्यक्त में प्रवेश / जीने की इच्छा के हटते ही अव्यक्त सिकुड़ने लगता है या अव्यक्त के सिकुड़ने पर जीवेषणा छूट जाती है? दोनों युगपत घटित / दोनों एक ही घटना है / अहंकार के कारण कर्ताभाव / अव्यक्त में सब प्रश्नों का गिर जाना / व्यक्त में डूबना है मार्ग–अव्यक्त में प्रवेश का / क्षत्रिय का स्वधर्म है-युद्ध / प्रत्येक व्यक्ति असमान है / समानता हो नहीं सकती / चार मनोवैज्ञानिक टाइप-मनुष्य के / ब्राह्मण-सत्य और ज्ञान का खोजी / क्षत्रिय-शक्ति का पिपासु / अर्जुन का स्वधर्म है-क्षत्रिय होना / वैश्य का धन-केंद्रित जीवन / वर्ण की धारणा तुलनात्मक नहीं तथ्यात्मक है / वर्ण की धारणा का भी ऊंच-नीच के नाम पर शोषण हुआ है / वर्ण की धारणा के आज के समर्थक-शोषण के समर्थक / शूद्र है सेवा-केंद्रित / प्रत्येक व्यक्ति का मार्ग उसके वर्ण से-स्वधर्म से लेकर गुजरता है / वर्ण व्यवस्था ताकि अपने टाइप के अनुकूल गर्भ का चुनाव सुगमता से हो सके / एक गहन प्रयोग-सामाजिक तल पर / अमेरिका में वैश्यों की हुकूमत, रूस और चीन में शूद्रों का शासन / भविष्य में ब्राह्मणों का शासन संभव / अर्जुन का सारा शिक्षण क्षत्रिय होने का / क्षत्रियत्व का निखार-युद्ध में ही / अभय-क्षत्रिय की आत्मा है / अर्जुन को धन्यता उपलब्ध होगी-युद्ध के माध्यम से ही / कृष्ण का अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित करना-मनोवैज्ञानिक कारणों से / प्रत्येक व्यक्ति का अपना निजी स्वधर्म है / गीता का संदेश युद्ध नहीं-स्वधर्म का पालन है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्जुन का जीवन शिखरयुद्ध के ही माध्यम से ... 167 इहलोक और परलोक / परलोक मृत्यु के बाद नहीं-अभी और यहीं है / परलोक में समय और स्थान का खो जाना / परलोक अर्थात सूक्ष्म अंतर्जगत / स्वर्ग अर्थात अंतर्संगीत, नरक अर्थात अंतर्विसंगीत / स्वधर्म के विपरीत जाना सदा सरल है क्योंकि वह उतार की यात्रा है / स्वधर्म को पाना चढ़ाव है, ऊर्ध्वगमन है। अर्जुन का शिखर-अनुभव (पीक एक्सपीरिएंस) युद्ध में ही घटित / महाभारत जैसा विराट युद्ध ही अवसर बने अर्जुन के लिए / जो भीतर है, वही बाहर फैल जाता है-स्वर्ग तो स्वर्ग, नरक तो नरक / भीतर स्वर्ग बनाते ही-बाहर के सब नरक विलीन / अर्जुन युद्ध से भागकर-शिखर अनुभव से चूक जाएगा / भिन्न-भिन्न मार्गों से परमात्मा तक पहुंचने के कारण बुद्ध, महावीर, रमण आदि की भीतरी अनुभूति में बड़ा फर्क क्यों हो जाता है? अनुभूति में नहीं-अभिव्यक्ति में भेद / अभिव्यक्ति का माध्यम व्यक्तित्व है / प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व अलग / बुद्ध का अनत्ता, महावीर की आत्मा, शंकर का ब्रह्म और मीरा का नृत्य / क्या अच्छा, क्या बुरा? क्या पाप, क्या पुण्य? पाप और पुण्य कृत्य नहीं भाव हैं / कृत्य नहीं-कर्ता महत्वपूर्ण है / कृत्य पर आधारित नीति बहुत बचकानी है / द्वंद्व के पार उठ गए व्यक्ति से पाप असंभव / क्रोध स्वाभाविक है, तो क्या युद्ध भी स्वाभाविकता है? / युद्ध-मुक्ति कैसे संभव? / चेतना का तल बदलने पर स्वाभाविकता भिन्न-भिन्न / क्रोध है-मूर्छा के कारण / काम, क्रोध, लोभ स्वभाव है-प्रारंभ की तरह, अंत की तरह नहीं / पश्चिम के मनोविज्ञान ने काम-क्रोध को स्वाभाविक बताकर उच्छृखलता को बढ़ावा दिया है-व्यक्ति को दायित्व से मुक्त किया है / रूपांतरण की जिम्मेवारी से एक चिंता का जन्म / मार्क्स ने कहा-समाज जिम्मेवार है / फ्रायड ने कहा-प्रकृति जिम्मेवार है / मार्क्स और फ्रायड की धारणाएं पश्चिम में पतन का कारण / अधूरे सच-झूठ से भी ज्यादा खतरनाक / क्रोध स्वभाव है, लेकिन क्रोध से मुक्त होने की आकांक्षा भी स्वभाव है / पशुता यदि स्वभाव है, तो धर्म का कोई मूल्य नहीं / स्वभाव की आड़ में पशुता को बचाने की खतरनाक चेष्टा / वृक्षों में जड़े हैं, ताकि फूल खिल सकें / निम्न बिना श्रेष्ठ के हो सकता है, लेकिन श्रेष्ठ बिना निम्न के नहीं हो सकता / पशु से प्रारंभ और परमात्मा पर अंत। निष्काम कर्म और अखंड मन की कीमिया ... 183 अनंत हैं मार्ग-परमात्मा तक पहुंचने के / ज्ञानयोग की निष्ठा है कि करना कुछ नहीं है-जानना पर्याप्त है / परमात्मा को खोया नहीं है सिर्फ भल गए हैं । केवल पनमरण, केवल प्रत्यभिज्ञा चाहिए / सांख्य और झेन के बीच साम्य है. परंत झेन तो ब्रह्म की कोई बात नहीं करता? पश्चिम के दार्शनिक निरीश्वरवादी होने के कारण ही क्या सांख्य की चर्चा करते हैं? झेन और सांख्य दोनों में ज्ञान की प्रधानता है / खोजा–कि भटके | रुको-और जान लो / प्रयास से नहीं-अप्रयास से / तुम वही हो-जो तुम खोज रहे हो / स्वयं को पाने के लिए श्रम की कोई जरूरत नहीं / ध्यान अर्थात होना, कुछ न करना / डूइंग नहीं-बीइंग, नोइंग / बुद्धिज्म-झेन-शुद्ध ज्ञानयोग है / करना, रिचुअल्स, क्रियाकांड-सब अशुद्धियां / ज्ञानयोग-सांख्य–आम जनता के काम का नहीं / सांख्य और झेन निरीश्वरवादी हैं, लेकिन ब्रह्म या अस्तित्व को स्वीकारते हैं / ईश्वर से भी पहले हैं—ब्रह्म-अस्तित्व / ईश्वर और ब्रह्म में फर्क / ईश्वर है-मन से देखा गया ब्रह्म / निर्गुण, निराकार, अव्यक्त ब्रह्म तक पहुंचने के लिए सगुण ईश्वर की धारणा का समझौता / सांख्य शुद्धतम ज्ञान है और योग-शुद्धतम क्रिया / सत्य की खोज के दो मौलिक विभाजन-सांख्य और योग/ निष्काम कर्मयोग का कोई भी कदम व्यर्थ नहीं जाता / सकाम कर्म के सभी कदम व्यर्थ जाते हैं | अपेक्षा की अंतहीन लकीर के सामने सभी सफलताएं Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोटी / निष्काम कर्मी को कभी विषाद नहीं / विषाद - फ्रस्ट्रेशन – सकाम कर्म की छाया है / शिक्षा और संपन्नता द्वारा अपेक्षाओं का अंतहीन विस्तार / गरीब समाज की अपेक्षाएं सीमित, इसलिए विषाद कम / निष्काम कर्म में कोई बाधा नहीं क्योंकि सभी बाधाएं होती हैं अपेक्षा के कारण / अनियोजित निष्काम कर्म / निष्काम कर्म का अल्प आचरण भी बड़े-बड़े भयों से बचाता है— इसका क्या अर्थ है ? असफलता, विषाद, दुख का भय है / छोटी-छोटी अपेक्षाओं पर खड़े बड़े-बड़े दुख / पांडवों की एक छोटी-सी मजाक और द्रौपदी का दुर्योधन पर हंसना - विराट महाभारत युद्ध का कारण था / क्या निष्काम भाव से हमारी प्रगति नहीं रुक जाती ? / निष्काम कर्म से बढ़ेगा - आनंद, प्रेम, शांति / हो सकता है-धन, मकान, जायदाद के बढ़ने में रुकावट हो / शांत मन हो, तो दरिद्र होने की अनिवार्यता नहीं है / प्रगति की पागल दौड़ से छुटकारा / बहुचित्तवान मनुष्य / अनेक विरोधी खंडों में बंटा हुआ हमारा मन / शांति मत खोजो - खोजो : अशांति के कारणों को / अखंड चित्त में आता है - आनंद, सौंदर्य, शांति / अशांति अर्थात बहुत-बहुत दिशाओं में दौड़ता हुआ मन / अखंड मन में निश्चयात्मक बुद्धि । 13 काम, द्वंद्व और शास्त्र सेनिष्काम, निद्वंद्व और स्वानुभव की ओर.... 199 कामनाशून्य कर्म योग बन जाता है / कामनाशून्य कर्म को समझना पश्चिम के मनोविज्ञान के लिए अति कठिन / आंतरिक आनंद से सहज स्फुरित कामनाशून्य कर्म / जीवन ऊर्जा का ओवर फ्लो / ईश्वर को पाने की कामना भी कामना ही है / ईश्वर तो निष्कामता में उपलब्ध / निष्काम कर्म प्रार्थना बन जाता है / छोटे-छोटे निष्काम कर्म करें, तो ही गीता समझ में आ पाएगी / द्वंद्व में चुनाव आसान है / अचुनाव में मन का विसर्जन / जब तक चुनाव है - तब तक द्वंद्व / जिसको हम इनकार करते हैं, वह अचेतन मन में चला जाता है / अचेतन - चेतन से नौ गुना ज्यादा शक्तिशाली / द्वंद्व नरक है / द्वंद्व शून्यता और निष्काम कर्म अन्योन्याश्रित / चेतना के दर्पण पर द्वंद्व की तस्वीरें / ब्रह्म अर्थात चेतना का शून्य दर्पण / वेद को गुण्य-युक्त क्यों कहते हैं? कोई भी शब्द निर्गुण नहीं हो सकता / व्यक्त सगुण ही होगा / केवल अव्यक्त ही निर्गुण / अभिव्यक्ति गुणों के ही . माध्यम से / शास्त्र अकथ्य को कहने की चेष्टा है / गीता भी निर्गुण नहीं है / यदि योग-क्षेम आत्मवान होने का सहज फल है, तो उसे न चाहने को क्यों कहा गया है? आत्मवान होने का परिणाम - योग-क्षेम / योग-क्षेम सीधे नहीं / मोहम्मद, महावीर, बुद्ध जैसे लोग जहां भी जाते - वहां योग-क्षेम की अमृत वर्षा / बुरे, आत्महीन व्यक्तियों के आस-पास अमंगल घटित / अहंकार अर्थात विपन्नता - आत्मा अर्थात संपन्नता / शक्ति - अहंकार की खोज नहीं - अहंकार का विसर्जन है / असीम में सीमित समाहित ही है / सीमित के लिए असीम को छोड़ना खतरनाक / शास्त्र भी ज्ञान है - लेकिन दूसरे का / सत्य दर्शन है - और शास्त्र श्रुति / शास्त्र कुएं हैं, सत्य सागर है / कुआं सागर की याद दिलाए तो ही ठीक / कुआं सागर है— सीमा में बांधा है। 14 फलाकांक्षारहित कर्म, जीवंत समता और परमपद ... 213 कर्म व्यक्ति से निकलता है और फल आता है समष्टि से / अधिकार है कर्म में फल में नहीं / कल का कोई भरोसा नहीं / कर्म है अभी और यहीं — फल सदा भविष्य में है / कर्म हम करें और फल परमात्मा पर छोड़ दें / अधिक फलाकांक्षा - तो कम कर्म / कम फलाकांक्षा - तो अधिक कर्म / फलाकांक्षा है – अश्रद्धा, अनास्था, नास्तिकता / अश्रद्धालु चित्त फलातुर हो जाता है / श्रद्धा से पूर्ण कर्म होता है — और फल सुनिश्चित / Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या द्रौपदी नग्न की गई? अनूठी स्त्री-द्रौपदी / द्रौपदी में-सीता, क्लियोपेट्रा और गार्गी एक साथ / महाभारत के केंद्र में द्रौपदी, और रामायण के केंद्र में सीता / द्रौपदी-सीता से भी ज्यादा अनूठी / कर्म का संकल्प और फल की चिंता छोड़ने का साहस / फल-कर्म की छाया की तरह आता है / कर्म हमारा-और फल परमात्मा का प्रसाद है / फलाकांक्षारहित होते ही सारी जीवन-ऊर्जा सहयोगी / समता, अचुनाव, संतुलन ही योग है। मूछित समता नहीं-जीवंत समता चाहिए / खतरे में जागरण की जरूरत / युद्ध का खतरा हमें जगाता है इसलिए युद्ध में रस / निर्द्वद्वता अचुनाव में खिलती है । द्वंद्व के प्रति जागरण और समता में प्रवेश / बुद्धि के दो उपयोग-बाहर जाने के लिए या भीतर आने के लिए / अर्जुन बुद्धि का उपयोग कर रहा है-बहिर्जगत के संबंध में / अधिकतम पंद्रह प्रतिशत बुद्धि का उपयोग / बाहर की दुनिया में अधिक बुद्धि की जरूरत नहीं है / स्वयं को जानने के लिए सौ प्रतिशत बुद्धि का उपयोग जरूरी / बुद्धियोग–अर्थात अंतर्यात्रा के लिए बुद्धि का उपयोग / कर्म की कुशलता ही योग है / वस्तुगत ज्ञान और आत्मगत ज्ञान में फर्क / ज्ञान और परिचय की भिन्नता / ज्ञान अर्थात स्वयं को जानना-ज्ञाता को जानना / विज्ञान-ज्ञान नहीं-परिचय है / दूसरे का केवल परिचय संभव है / सांख्य अर्थात स्वयं को जानना-परम ज्ञान है / कृष्ण का योगी-कर्म कुशल / हमारा योगी-कर्म से भागने वाला / अर्जुन भी कर्म से भागना चाहता है / शांत, संतुलित, जाग गए व्यक्ति के सभी कर्म कुशलता-युक्त / अकुशलता आती है-भीतर की अशांति से / जन्म-मृत्यु का बंधन-मान्यता है, भ्रम है-सत्य नहीं / मृत्यु एक अनुमान है | क्या आपने अपना जन्म देखा है? अपनी मृत्यु देखी है? एक बार जागकर जन्म-मृत्यु को देख लेने पर उनका भ्रम टूट जाता है / सांख्य-बुद्धि को उपलब्ध व्यक्ति परमपद को उपलब्ध / परमपद भीतर है। 15 मोह-मुक्ति, आत्म-तृप्ति और प्रज्ञा की थिरता ... 229 मोहरूपी अंधकार से घिरी चेतना / अंधकार के लक्षण दिखाई न पड़ना, मार्ग न सझना, चीजों से टकराना / मोह का आध्यात्मिक अंधापन / मोह ही जीवन का दुख है / मोह का सम्मोहन / मैं का फैलाव / अधिक मैं-अधिक अंधकार / मोह-मुक्ति से वैराग्य का जन्म / कृष्ण का वैराग्य-राग की विपरीतता नहीं / वैराग्य अर्थात जहां न राग रहा—न विराग / वैराग्य अर्थात सभी द्वंद्वों के पार / मोह का कारण भीतर है-बाहर की वस्तुओं में नहीं / विचार भी कृत्य है, भाव भी कृत्य है / होना कृत्य नहीं है | जहां-जहां मैं-वहां-वहां संसार / भीतर से कंपित व्यक्ति का बाहर से दृढ़ता दिखाना / भीतर हीनता, तो बाहर-श्रेष्ठता का दिखावा / कृष्ण की दृढ़ता-एडलर की दृढ़ता से सर्वथा भिन्न / द्वंद्व और चुनाव से मुक्त चित्त सुदृढ़ हो जाता है / प्रज्ञा का थिर हो जाना क्या है? / स्थितप्रज्ञ पुरुष कैसे बोलता, कैसे बैठता, कैसे चलता है? / यह अर्जुन का पहला गहरा और प्रामाणिक प्रश्न है / अर्जुन के पिछले सारे प्रश्न—अपने अहंकार और ज्ञान की पुष्टि के लिए ही थे / अर्जुन ने पहली बार अपने को अज्ञानी की तरह स्वीकारा है / पहली विनम्र जिज्ञासा / जाग्रत व्यक्ति के जीवन का ऊपरी ढांचा क्या होगा? / क्या उसका जीवन अनुशासित हो जाएगा? सहज स्फूर्त जीवन / ढांचे के अभाव में भी एक आंतरिक अनुशासन / बुद्ध और महावीर का एक ही धर्मशाला में ठहरना, परंतु मिलना न हो सका / बुद्ध और महावीर का यह आग्रह कि केवल वे ही ठीक हैं और दूसरा बिलकुल गलत है-अज्ञानियों की सहायता के लिए / बुद्ध और महावीर जानते हैं कि सब ठीक है / ज्ञानियों को करुणावश अनेक असत्य बोलने पड़ते हैं | समाधिस्थ व्यक्ति की प्रज्ञा तो थिर होती है, लेकिन उसके जीवन का ढांचा प्रतिपल नया होता है / कृष्ण क्षण-क्षण जीते हैं / स्थितप्रज्ञ का पहला लक्षण-स्वयं से संतुष्ट, स्वयं से तृप्त / हम सदा स्वयं से ऊबे हुए हैं / स्वयं से असंतुष्ट व्यक्ति को कहीं भी संतोष नहीं / दूसरे से सुख पाने की आशा चित्त को कंपाती ही रहेगी / आदमी की अनंत सामर्थ्य-धोखा खाने की, धोखा देने की / स्वयं में सुख पाने पर प्रज्ञा थिर। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-त्याग नहींरस-विसर्जन मार्ग है ... 247 स्थितप्रज्ञ के अन्य तीन लक्षण-दुख में अनुद्विग्न, सुख की जिसे चाह नहीं और राग, भय, क्रोध जिसमें न हों / जहां सुख की चाह-वहां दुख की पीड़ा / दुख आता है-सुख की आड़ में / दुख सुख की ही छाया है / सुख भी उद्विग्नता है-उत्तेजना है / मात्रा से ज्यादा सुख भी मार डालता है । सुख और दुख एक-दूसरे में बदले जा सकते हैं / दुख का भी अभ्यास सुख बन जाता है / क्रोध और भय छोड़ने से समाधि नहीं आती-समाधि आने से क्रोध और भय छूट जाते हैं / क्रोध और भय से लड़ने वाला और गहरे क्रोध और भय में उतर जाता है / अभय और निर्भय में फर्क / कृष्ण कारण नहीं गिना रहे हैं—परिणाम बता रहे हैं / चित्त का स्वास्थ्य समाधि है / दबाने के बदले क्रोध को उभार कर देखना / क्या स्थितप्रज्ञ को कष्टों का पता नहीं चलता है? / कष्ट तथ्य है और दुख मन की व्याख्या / स्थितप्रज्ञ अत्यंत संवेदनशील है / उसकी चेतना हमेशा अव्यस्त है / स्थितप्रज्ञ पैर का कांटा निकालेगा–लेकिन उद्विग्न नहीं होगा / अकष्ट तथ्य है-सुख मन की व्याख्या है / उसकी चेतना सदा अस्पर्शित बनी रहती है / विषयों से अपनी इंद्रियों को सिकोड़ लेना / इंद्रियों के दो हिस्से-इंद्रिय का यंत्र और उसके पीछे वासना / आंख का यंत्र और देखने की वासना / इंद्रियों की सूक्ष्म वासनाओं को सिकोड़ लेने पर इंद्रियां व्यवहार की माध्यम मात्र रह जाती हैं | वासनाग्रस्त आंख अंधी हो जाती है | बहिर इंद्रियां तो द्वार हैं-जगत से संपर्क के लिए / आंखें बंद कर लेना सरल-लेकिन देखने का रस छोड़ना बड़ा कठिन / सपनों में इंद्रियों की वासनाओं का सक्रिय हो जाना / होश मात्र से, देखने मात्र से-अंतर-इंद्रियों का सिकुड़ना और बाहर की इंद्रियों का शांत हो जाना / भोगी और त्यागी–दोनों देह-केंद्रित हैं। इंद्रिय और शरीरवादी–चार्वाक दर्शन / संप्रदाय अल्पमत वालों के ही बनते हैं / सारी दुनिया चार्वाक के साथ है, इसलिए चार्वाक का कोई संप्रदाय नहीं है / हमारे सभी अनुभव ऐंद्रिक हैं / शरीर के ऊपर के किसी भी तत्व का हमें पता नहीं है / विषय बाहर है, रस भीतर है, इंद्रियां बीच में सेतु हैं | तपस्वी विषयों को तो छोड़ देता है, लेकिन उसके रस को नहीं छोड़ पाता / बाह्य विषय छोड़ दें और रस भीतर बना रहे, तो परिणाम होगा-विक्षिप्तता / रस छूट जाने पर विषय-वस्तुएं मात्र रह जाती हैं | विषय-त्याग नहीं-रस-विसर्जन मार्ग है / कृष्ण जहां हैं-वहां पूरे हैं / इंद्रियां हैं आदतों का संग्रह-आपका सहयोग-आपका तादात्म्य उनका बल है / हम संस्कार से जीते हैं-चेतना से नहीं / आदतों की गुलामी। 17 मन के अधोगमन और ऊर्ध्वगमन की सीढ़ियां ... 267 सूक्ष्मतम से प्रारंभ-स्थूलतम पर अंत / वासना का बीज-विचार के रूप में / सुंदर स्त्री या सुंदर पुरुष को सिर्फ देखा-या भीतर कोई चाह भी उठी? मन के किसी कोने में चाह का उठना / तथ्य के वक्तव्य में भी छिपी हुई चाह / चीजें न सुंदर हैं, न असुंदर / सुंदर-असुंदर-हमारी व्याख्याएं / वासना का प्रारंभ-पसंद, नापसंद से / बीज से मुक्त हुआ जा सकता है-वृक्ष से नहीं / बीज फेंके जा सकते हैं, पर वृक्षों को काटना और उखाड़ना पड़ता है / जड़ें बहुत गहरे अचेतन में छिपी / काम-चिंतन अर्थात काल्पनिक संग / काम में बाधा पड़ने पर क्रोध का जन्म / प्रेमी-प्रेमिका का दो होना भी भीतरी बाधा है / चाह में छोटी-छोटी अड़चनें बाधा बन जाती हैं | असल में दो व्यक्तियों का साथ रहना ही उपद्रव है / स्थितप्रज्ञ को काम नहीं इसलिए उसे क्रोध नहीं होता / सबकी अपनी कामनाएं हैं-उनकी टकराहट अपरिहार्य है / एक-एक चाह पर करोड़-करोड़ चाहों का कटाव है / वासना की रग कटने पर क्रोध का खुन / क्रोध उद्विग्न, उत्तप्त ऊर्जा है / जो नहीं मिलता, उसके प्रति मोह होता है / अधिक क्रोध-अधिक मोह / विवाह मोह को मार डालता है / ढंकी स्त्री मोह पैदा करती है / योरोप और अमेरिका में स्त्री उघड़ी-मोह क्षीण हुआ / जहां Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाधा है-वहां आकर्षण का जन्म / स्त्री-पुरुष की कामुकता-सामाजिक बाधाओं का परिणाम / असुविधाएं खड़ी करो-अगर मोह पैदा करना है तो / निषेध में निमंत्रण है / क्रोध प्रतिकार है-प्रक्षेप नहीं / मोह प्रक्षेपक है-अंधा कर देता है / क्रोध पागल कर देता है और मोह-अंधा / क्रोध से वापसी सरल-मोह से कठिन / जहां मोह है, वासना है-वहां प्रेम नहीं / मोह के बाद विक्षिप्तता और प्रेम के बाद विमुक्ति / मोह के कारण तथ्य दिखाई नहीं पड़ता / मोह से स्मृति का नाश और स्मृति के नाश से बुद्धि का नाश / बुद्धिनाश है-आध्यात्मिक दरिद्रता / हम वस्तुओं को बचा लेते हैं और स्वयं को खो देते हैं / पश्चिम का मनोविज्ञान अभी काम के आस-पास ही भटक रहा है / पुरुष अर्थात शरीररूपी गांव में रहने वाला / आनंद अर्थात स्वयं में केंद्रित होना, दुख अर्थात पर-केंद्रित होना। विषाद की खाई से ब्राह्मी-स्थिति के शिखर तक ... 281 ____ अंतःकरण की शुद्धि से विक्षेप खो जाते हैं / क्या कारण है और क्या कार्य—यह समझना अत्यंत जरूरी / अंतःकरण शुद्ध कैसे होगा? अंतःकरण को जानना है तो पता चलेगा कि वह शुद्ध ही है / अंधेरे से लड़ना नहीं—प्रकाश को जलाना है / अंतःकरण को शुद्ध करने की चेष्टा खतरनाक / अंतःकरण-कांशिएंस नहीं है / कांशिएंस-समाज के द्वारा हमारे भीतर डाली गई धारणाओं का नाम है / अंतःकरण अर्थात आत्मा का निकटतम उपकरण / आत्मा की निकटता में ही अंतःकरण की शुद्धि है / नैतिकताएं हजार हैं-अंतःकरण एक है / जितनी दूरी आत्मा से-उतनी ज्यादा अशुद्धि की संभावना / साधना की सीढ़ियां : शरीर, इंद्रियां, अंतस-इंद्रियां, स्मृति, प्रायोगिक बुद्धि, अप्रायोगिक बुद्धि, अंतःकरण, आत्मा, परमात्मा / सांख्य का मौलिक साधना-सूत्र : दृश्य और द्रष्टा भिन्न हैं / अंतःकरण की ओर लौटना एक यात्रा है-शुद्धि की प्रक्रिया नहीं / स्वयं से अलग होने का सपना / भावुकता-भावना नहीं है / स्वयं से जुड़ने पर भावना का जन्म / शांति अर्थात इनर हार्मनी-आत्म-तृप्ति / विषय-वासना की आंधियों में कंपता हुआ मन / आंधियां रोकनी नहीं पड़ती-सिर्फ चलानी पड़ती हैं / हमारा सहयोग मांगती है-वासना / वासना को शक्ति न दें, तो निर्वासना फलित / ज्ञानी पुरुष नींद में भी जागा रहता है / मूर्छा का आभा-मंडल / ज्ञानी पुरुषों के चारों ओर जागरण का एक आभा-मंडल / नींद में चलते हुए लोगों का उपद्रव / नींद का केंद्र है-मैं; जागरण का केंद्र है-निरहंकार भाव / धन्य हैं वे जो विषाद को उपलब्ध होते हैं / विषाद का सृजनात्मक उपयोग / ज्ञान अभिशाप को वरदान बना लेता है / कृष्ण का सजनात्मक मनोविज्ञान-कोयले को हीरा बनाने का। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता-दर्शन अध्याय 3 स्वधर्म की खोज ... 299 मनुष्य की चिंतना की दो धाराएं : सांख्य (ज्ञान निष्ठा) और योग (कर्म निष्ठा) / अर्जुन आत्म-ज्ञान में नहीं-भागने में उत्सुक / क्या योग और सांख्य परिपूरक हैं? उनमें विरोध क्यों? / अंतर्मुखी व्यक्ति के लिए सांख्य और बहिर्मुखी के लिए योग / ब्राह्मण अंतर्मुखी है और क्षत्रिय बहिर्मुखी / अर्जुन-आदर्श क्षत्रिय / सांख्य निष्ठा श्रेष्ठतम है / कुछ मात्रा में अंतर्मुखी और कुछ मात्रा में बहिर्मुखी व्यक्ति के लिए क्या सांख्य और योग दोनों जरूरी? / एक ही मार्ग से यात्रा संभव / गीता की विशेषताः गीता समस्त मार्गों का विचार है / जिस मार्ग की कृष्ण बात करेंगे उसे ही वे श्रेष्ठ कहेंगे / प्रत्येक निष्ठा अपने में परम है / क्या योग साधते-साधते सांख्य में जाना उपयोगी है? / बहिर्मुखी पाता है-मैं ब्रह्म हूं, अंतर्मुखी पाता है-मैं शून्य हूं / बहिर्मुखी = विधायक, पूर्ण की भाषा, श्रद्धा / अंतर्मुखी = निषेधात्मक, शून्य की भाषा, तर्क / अनिश्चय से भरे चित्त के लिए सब कुछ में अनिश्चय / अर्जुन का अर्थ-टेढ़ा-मेढ़ा / संबोधन-हे निष्पाप अर्जुन का राज / निष्पापता के भरोसे से पाप की संभावना क्षीण / सामूहिक अचेतन मन में गंगा स्नान का महत्व-प्रभावकारी / निष्कर्म-कर्म का नहीं-कर्ता का अभाव है / त्याग से परमात्मा नहीं मिलता-परमात्मा मिल जाए तो त्याग घटित / कर्म को चलने दो—कर्ता को जाने दो / निमित्त मात्र हो जा / ओरिजिनल सिन–कर्ता का भाव / चिंता, संताप-कर्ता की छाया। 2 कर्ता का भ्रम ... 317 जीते जी कर्म-त्याग असंभव / कर्म के अभाव में उपद्रव / कर्म नहीं बदलो कर्ता को / जितना ज्यादा 'मेरा' उतना ज्यादा 'मैं' / मित्रता या शत्रुता का आधार-मैं / ब्राह्मण है अंतर्मुखी और क्षत्रिय है बहिर्मुखी, वैश्य और शद्र-किस कोटि में? / शद्र अंतर्मुखी है विकसित होकर ब्राह्मण / वैश्य बहिर्मुखी है—विकसित होकर क्षत्रिय / जन्म से सभी शद्र या वैश्य / वर्ण-अर्थात व्यक्तित्व के मनोवैज्ञानिक टाइप / टाइप की पहचान कीमती / शद्र ब्राह्मण नहीं बनना चाहता-ब्राह्मण को नीचे खींचकर शूद्र बनाना चाहता है । सत्य में समन्वय (कंप्रोमाइज)? / दो दृष्टिकोण-विधेयात्मक और निषेधात्मक / क्या दुष्कर्म का प्रेरक भी परमात्मा है? / निरहंकारी से बुरा कृत्य असंभव / नैतिकता-अहंकार पर ही आधारित / वासना का मूल-स्रोत-अहंकार / ध्यान साधना से ज्ञान या ध्यान एक कर्म है? / ध्यान-अंतर्मुखी व बहिर्मुखी दोनों के लिए प्रभावकारी / इंद्रियों का दमन मूढ़ता है / वासनाएं इंद्रियों में नहीं-मन में हैं / अज्ञान से बुरा है-पाखंड / मिथ्याचरण से जीवन में जटिलता / कर्म और क्रिया में अंतर? / क्रिया में भी अहंकार छिपा हुआ / क्रियाओं का भी आधार-जीवेषणा / अनैच्छिक जीवेषणा / कर्ता का भ्रम। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 परमात्म समर्पित कर्म ... 335 वासना की जड़ें शरीर व इंद्रियों में नहीं-मन में / संकल्प का अर्थ–दमन नहीं, स्वयं की मौजूदगी का अनुभव / संकल्प के आते ही शरीर मांग बंद कर देता है | कभी शरीर को आज्ञा दी है? / संकल्पवान होना ही आत्मवान होना है / मन से इंद्रियों को वश में करें या मन को ही विसर्जित करें? / पहले संगठित संकल्प-फिर समर्पण / वासना से आत्मा, फिर आत्मा से परमात्मा / सिर नहीं-स्वयं को चरणों पर रखना होगा / कमजोर समर्पण नहीं कर सकता / सिर झुकाना नहीं-गरदन ही चढ़ा देना / शास्त्रसम्मत स्वधर्म अर्थात बुद्ध पुरुषों द्वारा सम्मत स्वधर्म / वर्ण का विभाजन-हाइरेरकी नहीं-क्षैतजिक विभाजन / वर्ण का त्याग–अहितकर / वर्ण स्वधर्मानुकूल व्यक्तित्व के विकास की व्यवस्था / वर्ण व्यवस्था में आत्माओं को चुनावपूर्वक विकास की सुविधा / अनेक जन्मों की श्रृंखला में स्पेशलाइजेशन / अनेक-अनेक जन्मों से अर्जुन क्षत्रिय है / सुनियोजित आत्मिक विकास / संकल्प और इंद्रियों के दमन में फर्क? / संकल्प विधायक और दमन नकारात्मक कृत्य है / संकल्प है नयी शक्ति को जगाना और दमन है वासनाओं को दबाना / संकल्प का तिब्बती प्रयोग हीट योग / संकल्प हो तो वासना चुप / वासनाओं की फिक्र छोड़ो-ब्रह्म में डूबो / दमन और विपरीत परिणाम का नियम / कर्मों को यज्ञ की तरह कर / बंधन का मूल-मेरा / यज्ञ अर्थात परमात्म समर्पित कर्म / बोध घटना : नानक का कर्ता विसर्जन / 'मैं बंधता है और 'मेरा' बांधता है / सष्टि परमात्मा का सजन नहीं-परमात्मा का स्वभाव है / कर्ताभाव खोते ही व्यक्ति स्रष्टा / परमात्मा का अहंशून्य कृत्य-सृष्टि / अनुपस्थित-सा, शून्य-सा परमात्मा / यज्ञ अर्थात कर्ताशून्य कर्म / देवता अर्थात श्रेष्ठ मृतात्मा / शभ और अहंशन्य कर्म में देवताओं का सहारा / अशुभ कर्म में प्रेतात्माओं का सहारा / श्रेष्ठ, निकृष्ट और साधारण मृत आत्माएं / मृतात्माओं के अस्तित्व के वैज्ञानिक प्रमाण। समर्पित जीवन का विज्ञान ... 353 यज्ञरूपी कर्म से दिव्य शक्तियां प्रसन्न / मांग से हृदय बंद, दान से हृदय का खुलना / मांग के साथ भय भी मौजूद / भिखारी मन / गलत आदमी गलत को ही मांगता है / प्रार्थना–मांग नहीं, धन्यवाद है / भक्तों की मांग और तथाकथित साधुओं की सप्लाई / बांटने से आनंद बढ़ता है / आनंद भी है-क्रास वेंटिलेशन की तरह / न बांटने वाला चोर है / आनंद एक सतत प्रवाह हो / पाना-देना–पानाः एक वर्तुलाकार गति / यज्ञ से बचे हुए अन्न का अर्थ? / सामान्य अर्थ और विशेष अर्थ / निकृष्ट दान-बेकार की चीजों को देना / आनंद है-'दान' की छाया / देने वाले व्यक्ति का जीवन यज्ञ बन जाता है / क्या दुख को भी बांट देना चाहिए? / दुख बांटने की असफल कोशिश / दुख देने की कोशिश में दुख का बढ़ना / आनंद बांटने से–चेतना का विस्तार / चेतना के विस्तार से-परमात्मा को पाने की क्षमता का बढ़ना / किसी को दुख देने पर आप छोटे / दुख है आनंद को पाने की अक्षमता / पाषाण हृदय व्यक्ति / पृथ्वी माता, आकाश पिता / पश्चिम में : 'प्रकृति पर विजय' की भाषा / पूर्व और पश्चिम के दृष्टिकोण में बुनियादी फर्क / अन्न ब्रह्म है / वर्षा से अन्न-यज्ञ से वर्षा / प्रकृति और मनुष्य के बीच का आत्मिक लेन-देन / स्त्री-पुरुष की संख्या का रहस्यपूर्ण संतुलन / इकोलाजी-एक नया विज्ञान / जीवनः एक संयुक्त परिवार / वृक्ष बादलों को (वर्षा को) आमंत्रित करते हैं / समर्पित जीवन से प्रकृति और परमात्मा प्रसन्न / यज्ञ अर्थात परमात्मा को समर्पित लोगों का कर्म / संगीत से पौधों का विकास / अहंकार की दूषित तरंगें। आकर्षक और विकर्षक चित्त-तरंगें/ मनुष्य का आज प्रकृति से तालमेल टूट गया है | क्या हमारे आज के यज्ञ मूर्खतापूर्ण हैं? / यज्ञ की सार्थकता यज्ञ करने वाले की चित्त-दशा (चेतना) पर निर्भर / अहंशून्य चेतना में परमात्मा का अवतरण / उनकी लिखी किताबें-परमात्मा की लिखी हैं। ज्ञान-परमात्मा का स्वभाव है और अज्ञान-अहंकार का / अज्ञान से निकले कर्म से-बंधन, दुख, संताप, पीड़ा का जन्म / ज्ञान से निकले कर्म से—मुक्ति, आनंद और निश्चितता। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व की जीवन-कला: आश्रम प्रणाली ... 369 जीने के दो ढंगः अस्तित्व से लड़कर या स्वीकार में बहकर / धार्मिक व्यक्ति अर्थात स्वीकार में जीने वाला / जीवन से लड़ने के लिए ईश्वर का इनकार जरूरी / शास्त्रसम्मत कर्म अर्थात जीवन-विज्ञान द्वारा सम्मत कर्म / चार आश्रम व्यवस्था में जीवन का क्रम / ब्रह्मचर्य आश्रम-शक्ति संरक्षण के पचीस वर्ष / कम शक्तिवाला ज्यादा कामुक / अधिक शक्ति-कामुकता उतनी ही कम / अस्वस्थ युग की मानसिक कामवासना / इंद्रियों का अनुभव-सशक्त गहरे अनुभव से / प्रथम आश्रम–श्रम, साधना और संकल्प का / सुप्त अंतस संभावनाओं को जगाने का काल / सह-जीवन और समान जीवन का काल / स्पर्धामुक्त, महत्वाकांक्षा-शून्य जीवन का आधार / कामवासना में उतरने के पहले ही ब्रह्मचर्य के आनंद का स्वाद जरूरी / कामवासना समाज के प्रति एक कर्तव्य / वानप्रस्थ आश्रम में अनुभवों का हस्तांतरण-गृहस्थ बच्चों को / संन्यास आश्रम-जीवन का संध्याकाल-प्रभु स्मरण व पूर्ण विश्राम का काल / संन्यास को उपलब्ध, निर्वासनायुक्त-वृद्ध गुरु-परमात्मा जैसा / आज विद्यार्थी और शिक्षक-समान तल पर-आदर संभव नहीं / गुरु और शिष्य में चेतना-तल का अस्तित्वगत भेद / जीवन का शिखर-संन्यास आश्रम / न विरक्त, न आसक्त-वरन अनासक्त / न तो आसक्त साक्षी है-न विरक्त / दोनों से अमंगलकारी तरंगों का उठना / अनासक्त व्यक्ति से ही लोक-मंगल संभव / आसक्ति और विरक्ति का आपस में बदलना / अनासक्त कर्म-साधना है या सिद्धि का परिणाम? / दोनों है । चलना-पहुंचने का ही एक हिस्सा / सिद्धि है-निरभ्यास अनासक्ति / निन्यानबे प्रतिशत आदमी नकल में जीते हैं / नकल ही करनी हो तो श्रेष्ठ की करें / बच्चों को सम्यक अनुशासन, सम्यक संस्कार देना जरूरी। वर्ण व्यवस्था की वैज्ञानिक पुनर्स्थापना ... 385 दूसरे रुक न जाएं, इसलिए सिद्ध पुरुष भी चलते रहते हैं | अवतार अर्थात वह सिद्ध जो करुणावश अज्ञानियों के बीच खड़ा है / दूसरों के लिए जीना-श्रेष्ठतम कर्म / आज वर्ण व्यवस्था को वापस लाना क्या उचित है? / वर्ण और आश्रम व्यवस्था सनातन सत्य है / वर्ण में ऊंच-नीच का भाव आने से आज उसमें सड़ांध / वर्ण व्यवस्था में भिन्नता की स्वीकृति थी—मूल्यांकन नहीं था / वर्ण व्यवस्था लौटेगी-और भी ज्यादा वैज्ञानिक होकर / चार टाइप के लोग / वर्ण व्यवस्था उसी दिन असत्य होगी, जब आदमी मशीन हो जाएगा / जीवन के नियम को इनकार कर सकते हैं, नष्ट नहीं / एक से होंगे आदमी यदि आत्मा नष्ट हो जाए / व्यक्तित्व की भिन्नता कायम रहनी चाहिए / व्यक्ति-भिन्नता पर ही लोकतंत्र संभव / भिन्नता का सौंदर्य / सभी वैज्ञानिक ब्राह्मण / राकफेलर, मार्गन, रथचाइल्ड वैश्य हैं / नीत्से क्षत्रिय है / ब्राह्मण निर्मित धर्म-ध्यान केंद्रित / शूद्र निर्मित धर्म-सेवा केंद्रित / चार टाइप के व्यक्ति-चार टाइप के धर्म / स्त्री-पुरुष के जैविक भेद को तोड़ने से हानि / ज्यादा भिन्नता से ज्यादा आकर्षण / जीवन एक आर्केस्ट्रा है-विपरीत, विभिन्न स्वरों का संतुलन / आप बच्चों को संन्यास क्यों देते हैं? / आज आश्रम व्यवस्था का क्रम टूट गया है / पिछले जन्म की संन्यास यात्रा / अपवाद भी होते हैं / संन्यास की आकांक्षा-पिछले जन्म के अनुभव पर आधारित / सब संन्यासी न होंगे / संन्यास जीवन का सुंदरतम फूल / अच्छे को करके असफल भी हो जाना ठीक है / वृद्ध का परिवार से विरक्त हो जाना सम्यक- आज तो उम्र के साथ कोई पकता ही नहीं / संन्यास की नयी धारणा / चौथे चरण में संन्यास की प्रतीक्षा अब कठिन / संन्यास की संक्रमणकालीन धारणा / संन्यास की प्राथमिक धारणा–किसी दिन अंतिम संन्यास की आशा / नव-संन्यास-वानप्रस्थ के निकट / हे अर्जुन, अनासक्त होकर कर्म कर / अभिनेता की भांति जी / Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण की लीला और राम का चरित्र / कृष्ण कुशलतम अभिनेता हैं / फर्क कर्म में नहीं, कर्ता में कर / लोक-मंगल के लिए कर्म / अर्जुन अभी अनासक्त नहीं हुआ है, इसलिए लोक-मंगल का बहाना / ज्ञानीजन अज्ञानियों के मन में कर्म के प्रति अश्रद्धा पैदा न करें / ज्ञानी का आचरण-अज्ञानियों के लिए खतरनाक / कृष्णमूर्ति को सुनकर साधकों का भटकना / कृष्ण, क्राइस्ट, बुद्ध और महावीर में कृष्णमूर्ति के बजाय ज्यादा करुणा है / निपट सत्य का भी दुरुपयोग और असत्य का भी सदुपयोग संभव / ज्ञानी का भी-लोक-मंगल के लिए-मर्यादित होना / कच्चे पत्तों के टूटने पर पीछे घाव का छूट जाना / सब कर्म प्रकृति के गुणों से होते हैं / कर्ताभाव भ्रांति है / अहंकार अर्थात कर्ताभाव के हटते ही सुख-दुख, हार-जीत-सब खो जाते हैं। अहंकार का भ्रम ... 403 दो दृष्टिकोण-मैं जगत का केंद्र हूं-परमात्मा केंद्र है / विराट (परमात्मा) के कारण कर्म घटित हो रहे हैं-इस बोध से अनासक्ति का जन्म / अहंकार की उत्पत्ति कैसे? / अहंकार-उपयोगिता से उत्पन्न एक भ्रम / नाम-एक कामचलाऊ शब्द है / कुछ भी मेरा' 'तेरा' नहीं-सब परमात्मा का / मोह अर्थात सम्मोहन / प्रकृति के गुणों से सम्मोहित व्यक्ति–पशु की तरह बंधा हुआ / स्तन से सम्मोहन / सम्मोहन से सपनों का, कल्पनाओं का जन्म / कृष्ण का 'मैं' 'मुझमें'-अर्थात परमात्मा में / सर्वाधिक कठिन घटना-समर्पण / ज्वर है-काम, क्रोध, लोभ / ज्वर-मुक्त व्यक्ति ही समर्पण कर सकता है / ज्वर से अहंकार की उत्पत्ति / समर्पण किया नहीं जा सकता-वह होता है-विगतज्वर होने पर / काम, लोभ, क्रोध-बीमारियां हैं / बीमारियों को हमने स्वास्थ्य समझ लिया है / मानसिक ज्वरों से शक्ति का क्षय / शक्तिशाली ही समर्पित हो सकता है । अहंकार है कमजोरी, समर्पण है बल / जितना हीनभाव उतना ही अधिक अहंकार / युद्ध से चिंता नहीं है अर्जुन को–'मेरों' से लड़ने में चिंता है । 'छोड़ सब मुझ पर'-कृष्ण की मौजूदगी-अर्जुन की प्रतीति। ०० श्रद्धा है द्वार ... 421 श्रद्धा विश्वास नहीं है / श्रद्धा अविश्वास का अभाव है / श्रद्धा का अर्थ है : हृदय की समग्रता / अविश्वासी किसी दिन श्रद्धा को उपलब्ध, पर विश्वासी कभी नहीं / विश्वास मिलता है बाहर से-उधार; श्रद्धा आती है भीतर से / विश्वास और अविश्वास दोनों तर्क से जीते हैं / श्रद्धा-तर्क काफी नहीं है-इसकी अनुभूति है / जीवन अतयं है / रहस्य श्रद्धा का द्वार है / रहस्य में डूबने पर श्रद्धा अंकुरित / श्रद्धा का बीज और रहस्य की भूमि / तर्क तोड़ता है, श्रद्धा जोड़ती है / सभी बुद्ध पुरुष कहते हैं कि जो मेरी बात मानेगा, वह पहुंच जाएगा / राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, क्राइस्ट-एक ही जीवन-धारा विभिन्न झरोखों से झांकती / ज्ञानी और अज्ञानी-दोनों प्रकृति के परवश हुए कर्म करते हैं, तो दोनों में फर्क क्या है? / ज्ञानी सहज स्वीकारपूर्वक जीवन से अछूता गुजर जाता है, अज्ञानी लड़ता हुआ-पीड़ित गुजरता है । अर्जुन हठधर्मी पर उतारू-कि नहीं लडूंगा / अज्ञानी हर चीज को परेशानी बना लेता है / श्रद्धा क्या अंध-श्रद्धा नहीं हो सकती? / श्रद्धा के बदले क्या विवेक ज्यादा उचित शब्द नहीं है? / श्रद्धा है-चेतना की समग्रता-दर्शन की समग्रता / विवेक व्यक्ति निर्भर-श्रद्धा समष्टि निर्भर / श्रद्धा निर्विचार है-विवेक विचार का सारभूत निचोड़ / विवेक श्रद्धा तक पहुंचा दे–यही उसका मूल्य है / विवेकवान श्रद्धा पर पहुंच जाते हैं और विवेकहीन-अश्रद्धा पर / विवेक स्वयं समर्पण नहीं बनता / श्रद्धा की आंख तर्क जैसी नहीं—प्रेम जैसी है / श्रद्धा की आंख से धर्म का जन्म / तर्क की आंख से विज्ञान का जन्म / श्रद्धावान तर्क से गुजर चुका होता है / अध्यात्म चेतसा होकर समर्पित हो-इसका क्या अर्थ है? / मनुष्य के पास तीन चेतनाएं हैं: विज्ञान चेतना, कला चेतना और अध्यात्म Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना / विज्ञान-सत्य का अन्वेषण करता, उसे उघाड़ता, कला संवारती-सृजन करती और अध्यात्म चेतना समर्पण करती और सत्य के साथ एक हो जाती है / जगत द्वंद्व निर्भर है / सारा जीवन विरोध पर खड़ा है-घृणा-प्रेम, शत्रुता-मित्रता, क्रोध-क्षमा आदि के / हम एक को छोड़ना और दूसरे को बचाना चाहते हैं / दोनों का एक साथ स्वीकार / दोनों के बाहर–साक्षी / ज्ञानी पर सुख-दुख-सब आते हैं, पर वह न सुखी होता, न दुखी / ज्ञानी दोनों को देखता और अपने को तीसरा जानता है / ऐसा अनासक्त व्यक्ति जीवन के समस्त बंधनों से मुक्त हो जाता है। परधर्म, स्वधर्म और धर्म ... 437 स्वधर्म में जीना आनंद है-परधर्म में भटक जाना दुख है / बीज की धन्यता-फूल बन जाने में / नैवेद्य ः निजता का खिला हुआ फूल / अर्जुन, तू स्वधर्म को खोज / परमात्मा की सृजन की क्षमता असीम है-पुनरुक्ति कभी नहीं / परधर्म से सावधान रहो / परधर्म आत्मघातक है / स्वधर्म की यात्रा बड़ा दुस्साहस है / स्वधर्म की यात्रा सर्वथा अज्ञात में यात्रा है / स्वधर्म में-चलना ही मार्ग का निर्माण है / आज स्वधर्म खो गया है-इसलिए अर्थहीनता है / धर्म, समाधि, परमात्मा-सब एक हैं, तो स्वधर्म अनेक कैसे हो सकता है? / स्वधर्म के रास्ते अनेक हैं, पर मंजिल एक है / परधर्म से स्वधर्म और स्वधर्म से धर्म / दूसरे के मार्ग से पाप आता है / अधर्म, पाप, काम, भोग-इनके लिए दूसरा जरूरी / जो सरलता लाए-वही ज्ञान है / आदमी को बलात पाप कर्म कौन करवाता है? बुराई कहां से आती है? / त्रिगुण-सब का स्रोत / तमस अवरोधक शक्ति है-रजस गत्यात्मक शक्ति है और सत्व संतुलन शक्ति है / एक सीमा तक हर वृत्ति हमारे नियंत्रण में / वृत्तियां प्रकृति के नियमानुसार / न शैतान, न परमात्मा-वरन तीन गुण / तमस को बनाने के पीछे परमात्मा का क्या उद्देश्य? / कोई उद्देश्य नहीं बनाने में ही आनंद है / तमस अपने आप में बुरा नहीं है । श्रेष्ठतम स्वास्थ्य-जहां तीनों गुण संतुलित हैं / तीनों के बाहर परमात्मा का अनुभव / कृष्ण का पूरा योग-समता का योग है / पहले तम और रज के बीच संतुलन-फिर तीन के बीच संतुलन / दो के बीच संतुलन से व्यक्ति साधु होता है और तीन के बीच संतुलन से संत / प्रकृति है त्रिगुणा और परमात्मा है त्रिगुणातीत। वासना की धूल, चेतना का दर्पण ... 453 जैसे धुएं से अग्नि और मल से दर्पण ढंका होता है, ऐसे ही काम (वासना) से ज्ञान ढंका हुआ है / अज्ञान ज्ञान का अभाव नहीं—ज्ञान का ढंका होना है | वासना गीला ईंधन है / वासना का आधार ः जो मुझे चाहिए, वह मेरे पास नहीं है / वासना-जो नहीं है, उसकी मांग है / वासना सदा भविष्य में है और आत्मा-सदा वर्तमान में / वासना पर लगा हुआ ध्यान-आत्मा से च्युत हो जाता है / वासना का स्मरण परमात्मा का विस्मरण है। वासना दुष्पर है / वासना की दौड़ में जो मिला ही हुआ है, वह भूल जाता है / अज्ञान-ज्ञान का खोना नहीं-विस्मरण है / अज्ञान धुएं की तरह नान-सब्स्टेंशियल है / ऊपर धूल होने पर भी दर्पण दर्पण ही रहता है / मल (वासना) से ढंका हुआ दर्पण / मल अर्थात दुर्गधयुक्त / परतंत्रता है दुर्गंध और स्वतंत्रता है सुवास / वासना तृप्त न हो तो, या वासना तृप्त हो जाए तो-दोनों ही स्थितियों में विषाद / वासना से चेतना धूमिल / गंदगी के आदी हो गए हैं, इसलिए उसका पता नहीं चलता / जब दुर्गंध सुगंध मालूम पड़ने लगे, तो छुटकारा और मुश्किल / दर्पण और फोटो का फर्क / दर्पण पकड़ता नहीं-अशुद्ध नहीं होता / हम दर्पण कम और फोटो की फिल्म ज्यादा हैं / दर्पण जैसा व्यक्ति ही अनासक्त हो सकता है | दर्पण पर दाग लगता ही नहीं / काम-ऊर्जा को ज्ञानियों का नित्य वैरी क्यों कहा है? / इसमें निंदा नहीं–तथ्य की सूचना है / वासना का सदुपयोग भी है और Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुरुपयोग भी / अधिक वासना-तो परमात्मा से अधिक दूरी / कम वासना तो कम दूरी / वासना की चरम ऊंचाई पर रूपांतरण कैसे? / हममें पापी होने का भी साहस नहीं है / पापी छलांग लगाना जानता है / दो नावों पर यात्रा-वासना भी, गीता-पाठ भी / परमात्मा से सर्वाधिक दूर व्यक्ति को-सर्वाधिक कमी का अनुभव। / इंद्रियां, मन और बुद्धि-इनके द्वारा ही वासनाओं का सम्मोहन उठता है / इंद्रियों को वश में कर, काम को मार डाल / रूपांतरण ही ठीक अर्थ में मृत्यु है / मारने से नहीं-रूपांतरण से ही इंद्रियों का मरना / इंद्रियों को सीधे मारने से विकृति (परवर्सन) / साक्षित्व और अकर्ताभाव से इंद्रियां वश में / तुम अंशी हो-इंद्रियां अंश हैं, तुम मालिक हो-इंद्रियां नौकर हैं / इंद्रियां माने मन की, मन माने बुद्धि की और बुद्धि माने परमात्मा की / बुद्धि पर रुक जाएं तो अहंकार प्रगाढ़ / इंद्रियों को सौंपें-मन के हाथ में, मन को सौंपें-बुद्धि के हाथ में और बुद्धि को सौंपें-परमात्मा के हाथ में। Page #30 --------------------------------------------------------------------------  Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 1-2 पहला प्रवचन विचारवान अर्जुन और युद्ध का धर्मसंकट Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m गीता दर्शन भाग-1 AM श्रीमद्भगवद्गीता प्रथमोऽध्यायः तीसरी बात यह भी ध्यान रख लेनी जरूरी है। धृतराष्ट्र कहते हैं, धर्म के उस कुरुक्षेत्र में युद्ध के लिए इकट्ठे हुए...। धृतराष्ट्र उवाच जिस दिन धर्म के क्षेत्र में युद्ध के लिए इकट्ठा होना पड़े, उस दिन धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः। धर्मक्षेत्र धर्मक्षेत्र बचता नहीं है। और जिस दिन धर्म के क्षेत्र में भी मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ।।१।। लड़ना पड़े, उस दिन धर्म के भी बचने की संभावना समाप्त हो जाती धृतराष्ट्र बोले : हे संजय, धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में इकट्ठे हुए, युद्ध है। रहा होगा वह धर्मक्षेत्र, था नहीं! रहा होगा कभी, पर आज तो की इच्छा वाले, मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया? वहां एक-दूसरे को काटने को आतुर सब लोग इकट्ठे हुए थे। __यह प्रारंभ भी अदभुत है। यह इसलिए भी अदभुत है कि अधर्मक्षेत्रों में क्या होता होगा, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है। er तराष्ट्र आंख से अंधे हैं। लेकिन आंख के न होने से | धर्मक्षेत्र में क्या होता है? वह धृतराष्ट्र संजय से पूछते हैं कि वहां 'वासना नहीं मिट जाती; आंख के न होने से कामना युद्ध के लिए आतुर मेरे पुत्र और उनके विरोधियों ने क्या किया है, ८ नहीं मिट जाती। काश! सूरदास ने धृतराष्ट्र का खयाल | क्या कर रहे हैं, वह मैं जानना चाहता हूं। कर लिया होता, तो आंखें फोड़ने की कोई जरूरत न होती। सूरदास धर्म का क्षेत्र पृथ्वी पर शायद बन नहीं पाया अब तक, क्योंकि ने आंखें फोड़ ली थीं; इसलिए कि न रहेंगी आंखें, न मन में उठेगी धर्मक्षेत्र बनेगा तो युद्ध की संभावना समाप्त हो जानी चाहिए। युद्ध कामना! न उठेगी वासना! पर आंखों से कामना नहीं उठती, कामना की संभावना बनी ही है और धर्मक्षेत्र भी युद्धरत हो जाता है, तो हम उठती है मन से। आंखें फूट भी जाएं, फोड़ भी डाली जाएं, तो भी अधर्म को क्या दोष दें, क्या निंदा करें! सच तो यह है कि अधर्म के वासना का कोई अंत नहीं है। क्षेत्रों में शायद कम यद्ध हए हैं. धर्म के क्षेत्रों में ज्यादा यद हए हैं। गीता की यह अदभुत कथा एक अंधे आदमी की जिज्ञासा से | | और अगर युद्ध और रक्तपात के हिसाब से हम विचार करने चलें, शुरू होती है। असल में इस जगत में सारी कथाएं बंद हो जाएं, | तो धर्मक्षेत्र ज्यादा अधर्मक्षेत्र मालूम पड़ेंगे, बजाय अधर्मक्षेत्रों के। अगर अंधा आदमी न हो। इस जीवन की सारी कथाएं अंधे आदमी | यह व्यंग्य भी समझ लेने जैसा है कि धर्मक्षेत्र पर अब तक युद्ध की जिज्ञासा से शुरू होती हैं। अंधा आदमी भी देखना चाहता है। | होता रहा है। और आज ही होने लगा है, ऐसा भी न समझ लेना; उसे, जो उसे दिखाई नहीं पड़ता; बहरा भी सुनना चाहता है उसे, | | कि आज ही मंदिर और मस्जिद युद्ध के अड्डे बन गए हों। हजारों जो उसे सुनाई नहीं पड़ता। सारी इंद्रियां भी खो जाएं, तो भी मन के | साल पहले, जब हम कहें कि बहुत भले लोग थे पृथ्वी पर, और भीतर छिपी हुई वृत्तियों का कोई विनाश नहीं होता है। कृष्ण जैसा अदभुत आदमी मौजूद था, तब भी कुरुक्षेत्र के धर्मक्षेत्र तो पहली बात तो आपसे यह कहना चाहूंगा कि स्मरण रखें, | पर लोग लड़ने को ही इकट्ठे हुए थे! यह मनुष्य की गहरे में जो युद्ध धृतराष्ट्र अंधे हैं, लेकिन युद्ध के मैदान पर क्या हो रहा है, मीलों दूर की पिपासा है, यह मनुष्य की गहरे में विनाश की जो आकांक्षा है, बैठे उनका मन उसके लिए उत्सुक, जानने को पीड़ित, जानने को | यह मनुष्य के गहरे में जो पशु छिपा है, वह धर्मक्षेत्र में भी छूट नहीं आतुर है। दूसरी बात यह भी स्मरण रखें कि अंधे धृतराष्ट्र के सौ पुत्र | जाता, वह वहां भी युद्ध के लिए तैयारियां कर लेता है। हैं, लेकिन अंधे व्यक्तित्व की संतति आंख वाली नहीं हो सकती है; - इसे स्मरण रख लेना उपयोगी है। और यह भी कि जब धर्म की भला ऊपर से आंखें दिखाई पड़ती हों। अंधे व्यक्ति से जो जन्म पाता | आड़ मिल जाए लड़ने को, तो लड़ना और भी खतरनाक हो जाता है और शायद अंधे व्यक्तियों से ही लोग जन्म पाते हैं तो भला | है। क्योंकि तब जस्टीफाइड, न्याययुक्त भी मालूम होने लगता है। ऊपर की आंख हो, भीतर की आंख पानी कठिन है। यह अंधे धृतराष्ट्र ने जो जिज्ञासा की है, उससे यह धर्मग्रंथ शुरू यह दूसरी बात भी समझ लेनी जरूरी है। धृतराष्ट्र से जन्मे हुए | होता है। सभी धर्मग्रंथ अंधे आदमी की जिज्ञासा से शुरू होते हैं। सौ पुत्र सब तरह से अंधा व्यवहार कर रहे थे। आंखें उनके पास | जिस दिन दुनिया में अंधे आदमी न होंगे, उस दिन धर्मग्रंथ की कोई थीं, लेकिन भीतर की आंख नहीं थी। अंधे से अंधापन ही पैदा हो | | जरूरत भी नहीं रह जाती है। वह अंधा ही जिज्ञासा कर रहा है। सकता है। फिर भी यह पिता, क्या हुआ, यह जानने को उत्सुक है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारवान अर्जुन और युद्ध का धर्मसंकट प्रश्नः भगवान श्री, अंधे धृतराष्ट्र को युद्ध की रिपोर्ताज निवेदित करने वाले संजय की गीता में क्या भूमिका है? संजय क्या क्लेअरवायन्स, दूर- दृष्टि या क्लेअरआडियन्स, दूर- श्रवण की शक्ति रखता था ? संजय की चित्-शक्ति की गंगोत्री कहां पर है? क्या वह स्वयंभू भी हो सकती है ? सं जय पर निरंतर संदेह उठता रहा है; स्वाभाविक है। संजय बहुत दूर बैठकर, कुरुक्षेत्र में क्या हो रहा है, उसकी खबर धृतराष्ट्र को देता है। योग निरंतर से मानता रहा है कि जो आंखें हमें दिखाई पड़ती हैं, वे ही आंखें नहीं हैं। और भी आंख हैं मनुष्य के पास, जो समय और क्षेत्र की सीमाओं को लांघकर देख सकती है। लेकिन योग क्या कहता है, इससे जो कहता है वह सही भी होगा, ऐसा नहीं है। संदेह होता है मन को, इतने दूर संजय कैसे देख पाता है? क्या वह सर्वज्ञ है ? नहीं। पहली तो बात यह कि दूर- दृष्टि, क्लेअरवायन्स कोई बहुत बड़ी शक्ति नहीं है। सर्वज्ञ से उसका कोई संबंध नहीं है। बड़ी छोटी शक्ति है । और कोई भी व्यक्ति चाहे तो थोड़े ही श्रम से विकसित कर सकता है। और कभी तो ऐसा भी होता है कि प्रकृति की किसी भूल चूक से वह शक्ति किसी व्यक्ति को सहज भी विकसित हो जाती है। एक व्यक्ति है अमेरिका में अभी मौजूद, नाम है, टेड सीरियो । उसके संबंध में दो बातें कहना पसंद करूंगा, तो संजय को समझना आसान हो जाएगा। क्योंकि संजय बहुत दूर है समय में हमसे और न मालूम किस दुर्भाग्य के क्षण में हमने अपने समस्त पुराने ग्रंथों को कपोलकल्पना समझना शुरू कर दिया है। इसलिए संजय को छोड़ें। अमेरिका में आज जिंदा आदमी है एक, टेड सीरियो, जो कि कितने ही हजार मील की दूरी पर कुछ भी देखने में समर्थ है; न केवल देखने में, बल्कि उसकी आंख उस चित्र को पकड़ने में भी समर्थ है। हम यहां बैठकर यह जो चर्चा कर रहे हैं, न्यूयार्क में बैठे हुए टेड सीरियो को अगर कहा जाए कि अहमदाबाद में इस मैदान पर क्या हो रहा है; तो वह पांच मिनट आंख बंद करके बैठा रहेगा, फिर आंख खोलेगा, और उसकी आंख में आप सबकी — बैठी हुई तस्वीर दूसरे देख सकते हैं। और उसकी आंख में जो तस्वीर बन रही है, उसका कैमरा फोटो भी ले सकता है। हजारों फोटो लिए ए हैं, हजारों चित्र लिए गए हैं और टेड सीरियो की आंख कितनी ही दूरी पर, किसी भी तरह के चित्र को पकड़ने में समर्थ है; न | केवल देखने में, बल्कि चित्र को पकड़ने में भी । टेड सीरियो की घटना ने दो बातें साफ कर दी हैं। एक तो संजय कोई सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि टेड सीरियो बहुत साधारण आदमी है, कोई आत्मज्ञानी नहीं है। टेड सीरियो को आत्मा का कोई भी पता नहीं है। टेड सीरियो की जिंदगी में साधुता का कोई भी नाम नहीं है, लेकिन टेड सीरियो के पास एक शक्ति है - वह दूर देखने की। विशेष है शक्ति । कुछ दिनों पहले स्कैंडिनेविया में एक व्यक्ति किसी दुर्घटना में जमीन पर गिर गया कार से। उसके सिर को चोट लग गई। और अस्पताल में जब वह होश में आया तो बहुत मुश्किल में पड़ा । उसके कान में कोई जैसे गीत गा रहा हो, ऐसा सुनाई पड़ने लगा । उसने समझा कि शायद मेरा दिमाग खराब तो नहीं हो गया ! लेकिन एक या दो दिन के भीतर स्पष्ट, सब साफ होने लगा । और तब तो यह भी साफ हुआ कि दस मील के भीतर जो रेडियो स्टेशन था, | उसके कान ने उस रेडियो स्टेशन को पकड़ना शुरू कर दिया है। फिर उसके कान का सारा अध्ययन किया गया और पता चला कि | उसके कान में कोई भी विशेषता नहीं है, लेकिन चोट लगने से कान में छिपी कोई शक्ति सक्रिय हो गई है। आपरेशन करना पड़ा, | क्योंकि अगर चौबीस घंटे - आन आफ करने का तो कोई उपाय नहीं था- अगर उसे कोई स्टेशन सुनाई पड़ने लगे, तो वह आदमी पागल ही हो जाए। 3 पिछले दो वर्ष पहले इंग्लैंड में एक महिला को दिन में ही आकाश के तारे दिखाई पड़ने शुरू हो गए। वह भी एक दुर्घटना में ही हुआ। छत से गिर पड़ी और दिन में आकाश के तारे दिखाई पड़ने शुरू हो गए। तारे तो दिन में भी आकाश में होते हैं, कहीं चले नहीं जाते; सिर्फ सूर्य के प्रकाश के कारण ढंक जाते हैं। रात फिर उघड़ जाते हैं, प्रकाश हट जाने से। लेकिन आंखें अगर सूर्य के प्रकाश को पार करके देख पाएं, तो दिन में भी तारों को देख सकती हैं। उस स्त्री की भी आंख का आपरेशन ही करना पड़ा। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि आंख में भी शक्तियां छिपी हैं, जो दिन में आकाश के तारों को देख लें। कान में भी शक्तियां छिपी हैं, दूर के रेडियो स्टेशन से विस्तारित ध्वनियों को पकड़ लें। आंख में भी शक्तियां छिपी हैं, जो समय और क्षेत्र की सीमाओं को पार Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 +m करके देख लें। लेकिन अध्यात्म से इनका कोई बहुत संबंध नहीं है। संजय उवाच तो संजय कोई बहुत आध्यात्मिक व्यक्ति हो, ऐसा नहीं है; दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा । संजय विशिष्ट व्यक्ति जरूर है। वह दर यद्ध के मैदान पर जो हो | आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ।।२।। रहा है, उसे देख पा रहा है। और संजय को इस शक्ति के कारण, इस पर संजय बोलाः उस समय राजा दुयोधन ने कोई परमात्मा, कोई सत्य की उपलब्धि हो गई हो, ऐसा भी नहीं है। व्यूहरचनायुक्त पांडवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य संभावना तो यही है कि संजय इस शक्ति का उपयोग करके ही के पास जाकर, यह वचन कहा। समाप्त हो गया हो। पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् । __ अक्सर ऐसा होता है। विशेष शक्तियां व्यक्ति को बुरी तरह व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ।। ३ ।। . भटका देती हैं। इसलिए योग निरंतर कहता है कि चाहे शरीर की अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि । सामान्य शक्तियां हों और चाहे मन की-साइकिक पावर युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ।।४।। की विशेष शक्तियां हों, शक्तियों में जो उलझता है वह सत्य तक हे आचार्य, आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा नहीं पहुंच पाता। व्यूहाकार खड़ी की हुई पांडुपुत्रों की इस भारी सेना को पर, यह संभव है। और इधर पिछले सौ वर्षों में पश्चिम में देखिए । इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले, युद्ध में भीम और साइकिक रिसर्च ने बहुत काम किया है। और अब किसी आदमी | अर्जुन के समान बहुत से शूरवीर है। जैसे सात्यकि और को संजय पर संदेह करने का कोई कारण वैज्ञानिक आधार पर भी विराट तथा महारथी राजा द्रुपद। नहीं रह गया है। और ऐसा ही नहीं कि अमेरिका जैसे धर्म को धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् । स्वीकार करने वाले देश में ऐसा हो रहा हो; रूस के भी पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुंगवः ।।५।। मनोवैज्ञानिक मनुष्य की अनंत शक्तियों का स्वीकार निरंतर करते | और धृष्टकेतु, चेकितान तथा बलवान काशिराज, पुरुजित चले जा रहे हैं। कुंतिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य। __ और अभी चांद पर जाने की घटना के कारण रूस और अमेरिका युधामन्युश्च विक्रांत उत्तमौजाश्च वीर्यवान् । के सारे मनोवैज्ञानिकों पर एक नया काम आ गया है। और वह यह सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः । १.६ ।। . . है कि यंत्रों पर बहुत भरोसा नहीं किया जा सकता। और जब हम अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम। अंतरिक्ष की यात्रा पर पृथ्वी के वासियों को भेजेंगे, तो हम उन्हें गहन | नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थ तान्ब्रवीमि ते ।।७।। खतरे में भेज रहे हैं। और अगर यंत्र जरा भी बिगड़ जाएं तो उनसे | और पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र हमारे संबंध सदा के लिए टूट जाएंगे; और फिर हम कभी पता भी | अभिमन्यु और द्रौपदी के पांचों पुत्र, यह सब ही महारथी हैं। नहीं लगा सकेंगे कि वे यात्री कहां खो गए। वे जीवित हैं, जीवित हे ब्राह्मण श्रेष्ठ, हमारे पक्ष में भी जो-जो प्रधान हैं, उनको नहीं हैं, वे किस अनंत में भटक गए-हम उनका कोई भी पता न | आप समझ लीजिए। आपके जानने के लिए मेरी सेना के लगा सकेंगे। इसलिए एक सब्स्टीटयूट, एक परिपूरक व्यवस्था की जो-जो सेनापति हैं, उनको कहता हूं। तरह, दूर से बिना यंत्र के देखा जा सके, सुना जा सके, खबर भेजी जा सके, इसके लिए रूस और अमेरिका दोनों की वैज्ञानिक प्रयोगशालाएं अति आतुर हैं। और बहुत देर न होगी कि रूस और नुष्य का मन जब हीनता की ग्रंथि से. इनफीरिआरिटी अमेरिका दोनों के पास संजय होंगे। हमारे पास नहीं होंगे। 01 कांप्लेक्स से पीड़ित होता है, जब मनुष्य का मन ___ संजय कोई बहुत आध्यात्मिक व्यक्ति नहीं है। लेकिन संजय के अपने को भीतर हीन समझता है, तब सदा ही अपनी पास एक विशेष शक्ति है, जो हम सबके पास भी है, और | | श्रेष्ठता की चर्चा से शुरू करता है। लेकिन जब हीन व्यक्ति नहीं विकसित हो सकती है। होते, तब सदा ही दूसरे की श्रेष्ठता से चर्चा शुरू होती है। यह दुर्योधन कह रहा है द्रोणाचार्य से, पांडवों की सेना में कौन-कौन Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Om विचारवान अर्जुन और युद्ध का धर्मसंकट र महारथी, कौन-कौन महायोद्धा इकट्ठे हैं। इससे वह शुरू कर रहा भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंजयः । है। यह बड़ी प्रतीक की, बड़ी सिम्बालिक बात है। साधारणतः शत्रु अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्थैव च ।।८।। की प्रशंसा से बात शुरू नहीं होती। साधारणतः शत्रु की निंदा से अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः । बात शुरू होती है। साधारणतः शत्रु के साथ अपनी प्रशंसा से बात नानाशस्त्र प्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ।।९।। शुरू होती है। शत्रु की सेना में कौन-कौन महावीर इकट्ठे हैं, एक तो स्वयं आप और पितामह भीष्म तथा कर्ण और दुर्योधन उनसे बात शुरू कर रहा है। संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण दुर्योधन कैसा भी व्यक्ति हो, इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स से और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा, और भी बहुत से शूरवीर पीड़ित व्यक्ति नहीं है, हीनता की ग्रंथि से पीड़ित व्यक्ति नहीं है। अनेक प्रकार के शस्त्र-अस्त्रों से युक्त मेरे लिए जीवन की और यह बड़े मजे की बात है कि अच्छा आदमी भी अगर हीनता आशा को त्यागने वाले सबके सब युद्ध में चतुर हैं। की ग्रंथि से पीड़ित हो तो उस बुरे आदमी से बदतर होता है, जो अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् । हीनता की ग्रंथि से पीड़ित नहीं है। दूसरे की प्रशंसा से केवल वही पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ।। १० ।। शुरू कर सकता है, जो अपने प्रति बिलकुल आश्वस्त है। ___ अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः। यह एक बुनियादी अंतर सदियों में पड़ा है। बुरे आदमी पहले भी भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ।।११।। थे, अच्छे आदमी पहले भी थे। ऐसा नहीं है कि आज बुरे आदमी और भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार बढ़ गए हैं और अच्छे आदमी कम हो गए हैं। आज भी बुरे आदमी से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना उतने ही हैं, अच्छे आदमी उतने ही हैं। अंतर क्या पड़ा है? जीतने में सुगम है। इसलिए सब मोचों पर अपनी-अपनी · निरंतर धर्म का विचार करने वाले लोग ऐसा प्रचार करते रहते जगह स्थित रहते हुए आप लोग सब के सब ही निःसंदेह हैं कि पहले लोग अच्छे थे और अब लोग बुरे हो गए हैं। ऐसी भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें। उनकी धारणा, मेरे खयाल में बुनियादी रूप से गलत है। बुरे आदमी सदा थे, अच्छे आदमी सदा थे। अंतर इतना ऊपरी नहीं है, अंतर बहुत भीतरी पड़ा है। बुरा आदमी भी पहले हीनता की ग्रंथि से प्रश्नः भगवान श्री, श्रीमद्भगवद्गीता में सारा भार पीड़ित नहीं था। आज अच्छा आदमी भी हीनता की ग्रंथि से पीड़ित अर्जुन पर है और यहां गीता में दुर्योधन कहता है, है। यह गहरे में अंतर पड़ा है। पांडवों की सेना भीम-अभिरक्षित और कौरवों की आज अच्छे से अच्छा आदमी भी बाहर से ही अच्छा-अच्छा है, भीष्म...। तो भीष्म के सामने भीम को रखने का भीतर स्वयं भी आश्वस्त नहीं है। और ध्यान रहे, जिस आदमी का खयाल क्या यह नहीं हो सकता कि दुर्योधन अपने आश्वासन स्वयं पर नहीं है, उसकी अच्छाई टिकने वाली अच्छाई | प्रतिस्पर्धी के रूप में भीम को ही देखता है? नहीं हो सकती। बस, स्किनडीप होगी, चमड़ी के बराबर गहरी होगी। जरा-सा खरोंच दो और उसकी बुराई बाहर आ जाएगी। और जो बुरा आदमी अपनी बुराई के होते हुए भी आश्वस्त है, उसकी ग ह बिंदु विचारणीय है। सारा युद्ध अर्जुन की धुरी पर बुराई भी किसी दिन बदली जा सकती है, क्योंकि बहुत गहरी 4 है, लेकिन यह पीछे से सोची गई बात है—युद्ध के अच्छाई बुनियाद में खड़ी है-वह स्वयं का आश्वासन। ___बाद, युद्ध की निष्पत्ति पर। जो युद्ध के पूरे फल को इस बात को मैं महत्वपूर्ण मानता हूं कि दुर्योधन जैसा बुरा | | जानते हैं, वे कहेंगे कि सारा युद्ध अर्जुन की धुरी पर घूमा है। लेकिन आदमी एक बहुत ही शुभ ढंग से चर्चा को शुरू कर रहा है। वह जो युद्ध के प्रारंभ में खड़े थे, वे ऐसा नहीं सोच सकते थे। दुर्योधन विरोधी के गुणों का पहले उल्लेख कर रहा है, फिर पीछे अपनी के लिए युद्ध की सारी संभावना भीम से ही पैदा होती थी। उसके सेना के महारथियों का उल्लेख कर रहा है। कारण थे। अर्जुन जैसे भले व्यक्ति पर युद्ध का भरोसा दुर्योधन भी नहीं कर सकता था। अर्जुन डांवाडोल हो सकता है, इसकी Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ im+ गीता दर्शन भाग-1 - संभावना दुर्योधन के मन में भी है। अर्जुन युद्ध से भाग सकता है, | अगर भीम केंद्र पर रहता, तो शायद दुर्योधन जो कहता है कि हम इसकी कोई गहरी अचेतन प्रतीति दुर्योधन के मन में भी है। अगर विजयी हो सकेंगे, हो सकता था। लेकिन दुर्योधन की दृष्टि सही युद्ध टिकेगा, तो भीम पर टिकेगा। युद्ध के लिए भीम जैसे कम सिद्ध नहीं हुई। और आकस्मिक तत्व बीच में उतर आया। वह भी बुद्धि के, लेकिन ज्यादा शक्तिशाली लोगों पर भरोसा किया जा सोच लेने जैसा है। सकता है। कृष्ण का खयाल ही न था। कि अर्जुन अगर भागने लगे, तो अर्जुन बुद्धिमान है। और जहां बुद्धि है, वहां संशय है। और कृष्ण उसे युद्ध में रत करवा सकते हैं। हम सबको भी खयाल नहीं जहां संशय है, वहां द्वंद्व है। अर्जुन विचारशील है। और जहां | होता। जब हम जिंदगी में चलते हैं, तो एक अज्ञात परमात्मा की विचारशीलता है, वहां पूरे पर्सपेक्टिव, पूरे परिप्रेक्ष्य को सोचने | तरफ से भी बीच में कुछ होगा, इसका हमें कभी खयाल नहीं होता। की क्षमता है; वहां युद्ध जैसी भयंकर स्थिति में आंख बंद करके हम जो भी हिसाब लगाते हैं, वह दृश्य का होता है। अदृश्य भी उतरना कठिन है। दुर्योधन भरोसा कर सकता है-युद्ध के बीच में इंटरपेनिट्रेट कर जाएगा, अदृश्य भी बीच में उतर आएगा, लिए-भीम का। इसका हमें भी कोई खयाल नहीं होता। भीम और दुर्योधन के बीच गहरा सामंजस्य है। भीम और कृष्ण के रूप में अदृश्य बीच में उतर आया है और सारी कथा दुर्योधन एक ही प्रकृति के, बहुत गहरे में एक ही सोच के, एक ही बदल गई है। जो होता, वह नहीं हुआ; और जो नहीं होने की ढंग के व्यक्ति हैं। इसलिए अगर दुर्योधन ने ऐसा देखा कि भीम | संभावना मालूम होती थी, वह हुआ है। और अज्ञात जब उतरता है केंद्र है दूसरी तरफ, तो गलत नहीं देखा, ठीक ही देखा। और गीता | तो उसके प्रिडिक्शन नहीं हो सकते, उसकी कोई भविष्यवाणी नहीं भी पीछे सिद्ध करती है कि अर्जुन भागा-भागा हो गया है। अर्जुन हो सकती। इसलिए जब कृष्ण भागते हुए अर्जुन को युद्ध में धक्का पलायनवादी दिखाई पड़ा है, वह एस्केपिस्ट मालूम पड़ा है। अर्जुन | देने लगे, तो जो भी इस कथा को पहली बार पढ़ता है, वह शॉक जैसे व्यक्ति की संभावना यही है। अर्जुन के लिए यह युद्ध भारी | खाए बिना नहीं रह सकता; उसको धक्का लगता है। पड़ा है। युद्ध में जाना, अर्जुन के लिए अपने को रूपांतरित करके | ___ जब इमर्सन ने पहली बार पढ़ा, तो उसने किताब बंद.कर दी; ही संभव हो सका है। अर्जुन एक नए तल पर पहुंचकर ही युद्ध के | | वह घबड़ा गया। क्योंकि अर्जुन जो कह रहा था, वह सभी लिए राजी हो सका है। | तथाकथित धार्मिक लोगों को ठीक मालूम पड़ेगा। वह ठीक ___ भीम जैसा था, उसी तल पर युद्ध के लिए तैयार था। भीम के | | तथाकथित धार्मिक आदमी का तर्क दे रहा था। जब हेनरी थारो ने लिए युद्ध सहजता है, जैसे दुर्योधन के लिए सहजता है। इसलिए इस जगह आकर देखा कि कृष्ण उसे युद्ध में जाने की सलाह देते दुर्योधन भीम को केंद्र में देखता है, तो आकस्मिक नहीं है। लेकिन हैं, तो वह भी घबड़ा गया। हेनरी थारो ने भी लिखा है कि मुझे ऐसा • यह युद्ध के प्रारंभ की बात है। युद्ध की निष्पत्ति क्या होगी, अंत | भरोसा नहीं था, खयाल भी नहीं था कि कहानी ऐसा मोड़ लेगी कि क्या होगा, यह दुर्योधन को पता नहीं है। हमें पता है। कृष्ण और युद्ध में जाने की सलाह देंगे! गांधी को भी वहीं तकलीफ और ध्यान रहे, अक्सर ही जीवन जैसा प्रारंभ होता है, वैसा थी, उनकी पीड़ा भी वहीं थी। अंत नहीं होता। अक्सर अंत सदा ही अनिर्णीत है, अंत सदा ही | लेकिन जिंदगी किन्हीं सिद्धांतों के हिसाब से नहीं चलती। अदृश्य है। अक्सर ही जो हम सोचकर चलते हैं, वह नहीं होता।। | जिंदगी बहुत अनूठी है। जिंदगी रेल की पटरियों पर दौड़ती नहीं, अक्सर ही जो हम मानकर चलते हैं, वह नहीं होता। जीवन एक | गंगा की धारा की तरह बहती है; उसके रास्ते पहले से तय नहीं हैं। अज्ञात यात्रा है। इसलिए जीवन के प्रारंभिक क्षणों में किसी भी | | और जब परमात्मा बीच में आता है, तो सब डिस्टर्ब कर देता है; घटना के प्रारंभिक क्षणों में जो सोचा जाता है, वह अंतिम जो भी तैयार था, जो भी आदमी ने निर्मित किया था, जो आदमी निष्पत्ति नहीं बनती। और हम भाग्य के निर्माण की चेष्टा में रत हो की बुद्धि सोचती थी, सब उलट-फेर हो जाता है। सकते हैं, लेकिन भाग्य के निर्णायक नहीं हो पाते हैं; निष्पत्ति कुछ इसलिए बीच में परमात्मा भी उतर आएगा इस युद्ध में, इसकी और होती है। दुर्योधन को कभी कल्पना न थी। इसलिए वह जो कह रहा है, खयाल तो दुर्योधन का यही था कि भीम केंद्र पर रहेगा। और प्रारंभिक वक्तव्य है। जैसा कि हम सब आदमी जिंदगी के प्रारंभ में Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ yam+ विचारवान अर्जुन और युद्ध का धर्मसंकट HAR जो वक्तव्य देते हैं, ऐसे ही होते हैं। बीच में अज्ञात उतरता चलता अपने को छोड़ दे, मिटा दे, तो तत्काल जान लेता है; अज्ञात के है और सब कहानी बदलती चलती है। अगर हम जिंदगी को पीछे साथ एक हो जाता है। बूंद नहीं जान सकती कि सागर क्या है, जब से लौटकर देखें तो हम कहेंगे. जो भी हमने सोचा था. वह सब | तक कि बूंद सागर के साथ खो न जाए। व्यक्ति नहीं जान सकता गलत हुआः जहां सफलता सोची थी, वहां असफलता मिली; जो | कि परमात्मा की इच्छा क्या है। जब तक व्यक्ति अपने को व्यक्ति पाना चाहता था, वह नहीं पाया जा सका; जिसके मिलने से सुख बनाए है, तब तक नहीं जान सकता है। व्यक्ति अपने को खो दे, सोचा था, वह मिल गया और दुख पाया; और जिसके मिलने की तो फिर परमात्मा की इच्छा ही शेष रह जाती है, क्योंकि व्यक्ति की कभी कामना भी न की थी, उसकी झलक मिली और आनंद के कोई इच्छा शेष नहीं रह जाती। तब जानने का सवाल ही नहीं उठता। झरने फूटे। सब उलटा हो जाता है। तब व्यक्ति वैसे ही जीता है, जैसे अज्ञात उसे जिलाता है। तब लेकिन इतने बुद्धिमान आदमी इस जगत में कम हैं, जो निष्पत्ति व्यक्ति की कोई आकांक्षा, तब व्यक्ति की कोई फलाकांक्षा, तब को पहले ध्यान में लें। हम सब प्रारंभ को ही पहले ध्यान में लेते व्यक्ति की कोई अपनी अभीप्सा, तब व्यक्ति की समग्र की हैं। काश! हम अंत को पहले ध्यान में लें तो जिंदगी की कथा आकांक्षा के ऊपर अपनी थोपने की कोई वृत्ति शेष नहीं रह जाती, बिलकल और हो सकती है। लेकिन अगर दर्योधन अंत को पहले क्योंकि व्यक्ति शेष नहीं रह जाता। ध्यान में ले ले, तो युद्ध नहीं हो सकता। दुर्योधन अंत को ध्यान में | जब तक व्यक्ति है, तब तक अज्ञात क्या चाहता है, नहीं जाना नहीं ले सकता; अंत को मानकर चलेगा कि ऐसा होगा। इसलिए | जा सकता। और जब व्यक्ति नहीं है, तब जानने की कोई जरूरत वह कह रहा है बार-बार कि यद्यपि सेनाएं उस तरफ महान हैं, | नहीं; जो भी होता है, वह अज्ञात ही करवाता है। तब व्यक्ति एक लेकिन जीत हमारी ही होगी। मेरे योद्धा जीवन देकर भी मुझे जिताने इंस्ट्रमेंट हो जाता है, तब व्यक्ति एक साधनमात्र हो जाता है। के लिए आतुर हैं। कृष्ण पूरी गीता में आगे अर्जुन को यही समझाते हैं कि वह अपने . लेकिन हम अपनी सारी शक्ति भी लगा दें, तो भी असत्य जीत | को छोड़ दे अज्ञात के हाथों में; समर्पित कर दे। क्योंकि वह जिन्हें नहीं सकता। हम सारा जीवन भी लगा दें, तो भी असत्य जीत नहीं | सोच रहा है कि ये मर जाएंगे, वे अज्ञात के द्वारा पहले ही मारे जा सकता; इस निष्पत्ति का दुर्योधन को कोई भी बोध नहीं हो सकता चुके हैं। कि वह जिन्हें सोचता है कि इनकी मृत्यु के लिए मैं है। और सत्य, जो कि हारता हुआ भी मालूम पड़ता हो, अंत में | जिम्मेवार हो जाऊंगा, उनके लिए वह बिलकुल भी जिम्मेवार नहीं जीत जाता है। असत्य प्रारंभ में जीतता हुआ मालूम पड़ता है, अंत | होगा। अगर वह अपने को बचाता है, तो जिम्मेवार हो जाएगा। में हार जाता है। सत्य प्रारंभ में हारता हुआ मालूम पड़ता है, अंत | अगर अपने को छोड़कर साधनवत, साक्षीवत लड़ सकता है, तो में जीत जाता है। लेकिन प्रारंभ से अंत को देख पाना कहां संभव उसकी कोई जिम्मेवारी नहीं रह जाती है। है! जो देख पाता है, वह धार्मिक हो जाता है। जो नहीं देख पाता व्यक्ति अपने को खो दे समष्टि में, व्यक्ति अपने को समर्पित है, वह दुर्योधन की तरह अंधे युद्ध में उतरता चला जाता है। कर दे, छोड़ दे अहंकार को, तो ब्रह्म की इच्छा ही फलित होती है। अभी भी वही फलित हो रही है। ऐसा नहीं कि हम उससे भिन्न फलित करा लेंगे। लेकिन हम भिन्न फलित कराने में लड़ेंगे, टूटेंगे, प्रश्न: भगवान श्री, एक तो अज्ञात का विल होता है, | नष्ट होंगे। एक व्यक्ति का अपना विल होता है। दोनों में | । एक छोटी-सी कहानी मैं निरंतर कहता रहा हूं। मैं कहता रहा हूं कांफ्लिक्ट होते हैं। तो व्यक्ति कैसे जान पाए कि | कि एक नदी में बहुत बाढ़ आई है और दो छोटे-से तिनके उस नदी अज्ञात का क्या विल है, अज्ञात की क्या इच्छा है? | में बह रहे हैं। एक तिनका नदी में आड़ा पड़ गया है और नदी की बाढ़ को रोकने की कोशिश कर रहा है। और वह चिल्ला रहा है बहुत जोर से कि नहीं बढ़ने देंगे नदी को, यद्यपि नदी बढ़ी जा रही 17 छते हैं, व्यक्ति कैसे जान पाए कि अज्ञात की क्या है। वह चिल्ला रहा है कि रोककर रहेंगे, यद्यपि रोक नहीं पा रहा । इच्छा है? व्यक्ति कभी नहीं जान पाता। हां, व्यक्ति है। वह चिल्ला रहा है कि नदी को हर हालत में रोककर ही रहूंगा, Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 AM जीऊं या मरूं! लेकिन बहा जा रहा है। नदी को न उसकी आवाज | | एक हुआ जा सकता है। और तब, अपनी इच्छा खो जाती है, सुनाई पड़ती है, न उसके संघर्ष का पता चलता है। एक छोटा-सा | | उसकी इच्छा ही शेष रह जाती है। तिनका! नदी को उसका कोई भी पता नहीं है। नदी को कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन तिनके को बहुत फर्क पड़ रहा है। उसकी जिंदगी बड़ी मुसीबत में पड़ गई है, बहा जा रहा है। नहीं लड़ेगा तो जहां पहुंचेगा, | प्रश्नः भगवान श्री, वैज्ञानिक-सिद्धि में व्यक्ति का वहीं पहंचेगा लडकर भी। लेकिन यह बीच का क्षण. यह बीच का अपना कछ होता है। और अज्ञात इस वैज्ञानिककाल, दुख, पीड़ा, द्वंद्व और चिंता का काल हो जाएगा। सिद्धि में कैसे उतरता होगा, यह तकलीफ की बात उसके पड़ोस में एक दूसरे तिनके ने छोड़ दिया है अपने को। वह बन जाती है! नदी में आड़ा नहीं पड़ा है, सीधा पड़ा है, नदी जिस तरफ बह रही है उसी तरफ, और सोच रहा है कि मैं नदी को बहने में सहायता दे रहा हूं। उसका भी नदी को कोई पता नहीं है। वह सोच रहा है, मैं सा साधारणतः लगता है कि वैज्ञानिक खोज में व्यक्ति नदी को सागर तक पहुंचा ही दूंगा; मेरे साथ है तो पहुंच ही जाएगी। की अपनी इच्छा काम करती है; ऐसा बहुत ऊपर से नदी को उसकी सहायता का भी कोई पता नहीं है। देखने पर लगता है; बहुत भीतर से देखने पर ऐसा नहीं लेकिन नदी को कोई फर्क नहीं पड़ता, उन दोनों तिनकों को बहुत | | लगेगा। अगर जगत के बड़े से बड़े वैज्ञानिकों को हम देखें तो हम फर्क पड़ रहा है। जो नदी को साथ बहा रहा है, वह बड़े आनंद में | | बहुत हैरान हो जाएंगे। जगत के सभी बड़े वैज्ञानिकों के अनुभव है, वह बड़ी मौज में नाच रहा है; और जो नदी से लड़ रहा है, वह बहुत और हैं। कालेज, युनिवर्सिटीज में विज्ञान की जो धारणा पैदा बड़ी पीड़ा में है। उसका नाच, नाच नहीं है, एक दुखस्वप्न है। होती है, वैसा अनुभव उनका नहीं है। उसका नाच उसके अंगों की टूटन है; वह तकलीफ में पड़ा है, हार | __ मैडम क्यूरी ने लिखा है कि मुझे एक सवाल दिनों से पीड़ित किए रहा है। और जो नदी को बहा रहा है, वह जीत रहा है। | हुए है। उसे हल करती हूं और हल नहीं होता है। थक गई हूं, ___ व्यक्ति ब्रह्म की इच्छा के अतिरिक्त कुछ कभी कर नहीं पाता है, | परेशान हो गई हूं, आखिर हल करने की बात छोड़ दी है। और एक लेकिन लड़ सकता है, इतनी स्वतंत्रता है। और लड़कर अपने को | रात दो बजे वैसे ही कागजात टेबल पर अधूरे छोड़कर सो गई हूं चिंतित कर सकता है, इतनी स्वतंत्रता है। और सोच लिया कि अब इस सवाल को छोड़ ही देना है। सार्च का एक वचन है, जो बड़ा कीमती है। वचन है, ह्यूमैनिटी थक गया व्यक्ति। लेकिन सुबह उठकर देखा है कि आधा इज़ कंडेम्ड टु बी फ्री—आदमी स्वतंत्र होने के लिए मजबूर है; | सवाल जहां छोड़ा था, वह सुबह पूरा हो गया है। कमरे में तो कोई विवश है, कंडेम्ड है, निंदित है-स्वतंत्र होने के लिए। आया नहीं, द्वार बंद थे। और कमरे में भी कोई आकर उसको हल लेकिन आदमी अपनी स्वतंत्रता के दो उपयोग कर सकता है। कर सकता था, जिसको मैडम क्यूरी हल नहीं कर सकती थी, अपनी स्वतंत्रता को वह ब्रह्म की इच्छा से संघर्ष बना सकता है। इसकी भी संभावना नहीं है। नोबल-प्राइज-विनर थी वह महिला। और तब उसका जीवन दुख, पीड़ा, एंग्विश, संताप का जीवन घर में नौकर-चाकर ही थे, उनसे तो कोई आशा नहीं है। वह तो होगा। और अंततः पराजय फल होगी। और कोई व्यक्ति अपनी | और बड़ा मिरेकल होगा कि घर में नौकर-चाकर आकर हल कर स्वतंत्रता को ब्रह्म के प्रति समर्पण बना सकता है, तब जीवन आनंद दें। लेकिन हल तो हो गया है। और आधा ही छोड़ा था और आधा का, ब्लिस का, नृत्य का, गीत का जीवन होगा। और अंत? अंत पूरा है। तब बड़ी मुश्किल में पड़ गई। सब द्वार-दरवाजे देखे। कोई में विजय के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। वह जो तिनका परमात्मा उतर आए, इसकी भी आस्था उसे नहीं हो सकती। कोई सोच रहा है कि नदी को साथ दे रहा हूं, वह विजयी ही होने वाला परमात्मा ऐसे ऊपर से उतर भी नहीं आया था। है। उसकी हार का कोई उपाय नहीं है। और जो नदी को रोक रहा लेकिन गौर से देखा तो पाया कि बाकी अक्षर भी उसके ही हैं। है, वह हारने ही वाला है, उसकी जीत का कोई उपाय नहीं है। तब उसे खयाल आना शुरू हुआ कि रात वह नींद में सपने में उठी। ब्रह्म की इच्छा को नहीं जाना जा सकता है, लेकिन ब्रह्म के साथ सपने का उसे याद आ गया कि वह सपने में उठी है। उसने सपना Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विचारवान अर्जुन और युद्ध का धर्मसंकट + देखा कि वह सवाल हल कर रही है। वह नींद में उठी है रात में और | जाएगा? पानी में लेटने से कोई बुद्धि बढ़ जाती है? जो कपड़े पहने उसने सवाल हल किया है। फिर तो यह उसकी व्यवस्थित विधि हो | | हल नहीं हुआ था, वह नंगे होने से हल हो जाएगा? गई कि जब कोई सवाल हल न हो, तब वह उसे तकिए के नीचे नहीं, कुछ और घटना घट गई है। यह व्यक्ति नहीं रहा कुछ देर दबाकर सो जाए; रात उठकर हल कर ले। | के लिए, अव्यक्ति हो गया। यह कुछ देर के लिए ब्रह्म के स्रोत में दिनभर तो मैडम क्यूरी इंडिविजुअल थी, व्यक्ति थी। रात नींद खो गया। में अहं खो जाता है, बूंद सागर से मिल जाती है। और जो सवाल ___ अगर हम जगत के सारे बड़े वैज्ञानिकों के—आइंस्टीन के, हमारा चेतन मन नहीं खोज पाया, वह हमारा अचेतन, गहरे में जो | मैक्स प्लांक के या एडिंग्टन के या एडीसन के-इनके अगर हम परमात्मा से जुड़ा है, खोज पाता है। अनुभव पढ़ें, तो इन सब का अनुभव यह है कि जो भी हमने जाना, आर्किमिडीज एक सवाल हल कर रहा था, वह हल नहीं होता | वह हमने नहीं जाना। निरंतर ही ऐसा हुआ है कि जब हमने जाना, था। वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया था। सम्राट ने कहा था, हल | तब हम न थे और जानना घटित हुआ है। यही उपनिषद के ऋषि करके ही लाओ। आर्किमिडीज की सारी प्रतिष्ठा हल करने पर ही | | कहते हैं, यही वेद के ऋषि कहते हैं, यही मोहम्मद कहते हैं, यही निर्भर थी, लेकिन थक गया। रोज सम्राट का संदेश आता है कि जीसस कहते हैं। कब तक हल करोगे? अगर हम कहते हैं कि वेद अपौरुषेय हैं, तो उसका और कोई सम्राट को किसी ने एक सोने का बहत कीमती आभषण भेंट मतलब नहीं। उसका यह मतलब नहीं कि ईश्वर उतरा और उसने किया था। लेकिन सम्राट को शक था कि धोखा दिया गया है, और किताब लिखी। ऐसी पागलपन की बातें करने की कोई जरूरत नहीं सोने में कुछ मिला है। लेकिन बिना आभूषण को मिटाए पता है। अपौरुषेय का इतना ही मतलब है कि जिस पुरुष पर यह घटना लगाना है कि उसमें कोई और धातु तो नहीं मिली है! अब उस वक्त घटी, उस वक्त वह मौजूद नहीं था; उस वक्त मैं मौजूद नहीं था। तक कोई उपाय नहीं था जानने का। और बड़ा था आभूषण। उसमें जब यह घटना घटी, जब यह उपनिषद का वचन उतरा किसी पर कहीं बीच में अगर अंदर कोई चीज डाल दी गई हो, तो वजन तो और जब यह मोहम्मद पर कुरान उतरी और जब ये बाइबिल के बढ़ ही जाएगा। वचन जीसस पर उतरे, तो वे मौजूद नहीं थे। आर्किमिडीज थक गया, परेशान हो गया। फिर एक दिन सुबह धर्म और विज्ञान के अनुभव भिन्न-भिन्न नहीं हैं; हो नहीं सकते; अपने टब में लेटा हुआ है, पड़ा हुआ है! बस, अचानक, नंगा ही क्योंकि अगर विज्ञान में कोई सत्य उतरता है, तो उसके उतरने का था, सवाल हल हो गया। भागा! भूल गया—आर्किमिडीज अगर भी मार्ग वही है जो धर्म में उतरता है, जो धर्म के उतरने का मार्ग है। होता, तो कभी न भूलता कि मैं नंगा हूं-सड़क पर आ गया। और सत्य के उतरने का एक ही मार्ग है, जब व्यक्ति नहीं होता तो चिल्लाने लगा, इरेका, इरेका, मिल गया। और भागा राजमहल की परमात्मा से सत्य उतरता है; हमारे भीतर जगह खाली हो जाती है, तरफ। लोगों ने पकड़ा कि क्या कर रहे हो? राजा के सामने नंगे| उस खाली जगह में सत्य प्रवेश करता है। पहुंच जाओगे? उसने कहा, लेकिन यह तो मुझे खयाल ही न रहा! | दुनिया में कोई भी ढंग से-चाहे कोई संगीतज्ञ, चाहे कोई घर वापिस आया। चित्रकार, चाहे कोई कवि, चाहे कोई वैज्ञानिक, चाहे कोई धार्मिक, यह जो आदमी सड़क पर पहुंच गया था नग्न, यह आर्किमिडीज चाहे कोई मिस्टिक–दुनिया में जिन्होंने भी सत्य की कोई किरण नहीं था। आर्किमिडीज सड़क पर नहीं पहुंच सकता था। यह व्यक्ति | | पाई है, उन्होंने तभी पाई है, जब वे स्वयं नहीं थे। यह धर्म को तो नहीं था। और यह जो हल हुआ था सवाल, यह व्यक्ति की चेतना | | बहत पहले से खयाल में आ गया। लेकिन धर्म का अनुभव दस में हल नहीं हुआ था। यह निर्व्यक्ति-चेतना में हल हुआ था। वह हजार साल पराना है। दस हजार साल में धार्मिक-फकीर को. बाथरूम में पड़ा था अपने टब में-रिलैक्स्ड, शिथिल। ध्यान घट धार्मिक-संत को, धार्मिक-योगी को यह अनुभव हुआ कि यह मैं गया, भीतर उतर गया-सवाल हल हो गया। जो सवाल स्वयं से | नहीं हूं। हल न हुआ था, वह टब ने हल कर दिया? टब हल करेगा सवाल यह बड़ी मुश्किल बात है। जब पहली दफा आपके भीतर को? जो स्वयं से हल नहीं हुआ था, वह पानी में लेटने से हल हो | परमात्मा से कुछ आता है, तब डिस्टिंक्शन करना बहुत मुश्किल Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ yam गीता दर्शन भाग-1 AM होता है कि यह आपका है कि परमात्मा का है। जब पहली दफा | |फायड का ऐसा जरूर खयाल है कि वह जो अचेतन मन आता है तो डांवाडोल होता है मन कि मेरा ही होगा और अहंकार | प्रा है हमारा, वह भगवान से ही नहीं, शैतान से भी जुड़ा की इच्छा भी होती है कि मेरा ही हो। लेकिन धीरे-धीरे, धीरे-धीरे होता है। असल में भगवान और शैतान हमारे शब्द जब दोनों चीजें साफ होती हैं और पता चलता है कि आप और इस हैं। जब किसी चीज को हम पसंद नहीं करते, तो हम कहते हैं, सत्य में कहीं कोई तालमेल नहीं बनता, तब फासला दिखाई पड़ता | शैतान से जुड़ा है; और किसी चीज को जब हम पसंद करते हैं, तो है, डिस्टेंस दिखाई पड़ता है। हम कहते हैं, भगवान से जुड़ा है। लेकिन मैं इतना ही कह रहा हूं विज्ञान की उम्र नई है अभी—दो-तीन सौ साल। लेकिन कि अज्ञात से जुड़ा है। और अज्ञात मेरे लिए भगवान है। और दो-तीन सौ साल में वैज्ञानिक विनम्र हुआ है। आज से पचास साल भगवान में मेरे लिए शैतान समाविष्ट है, उससे अलग नहीं है। पहले वैज्ञानिक कहता था, जो खोजा, वह हमने खोजा। आज नहीं । असल में जो हमें पसंद नहीं है, मन होता है कि वह शैतान ने कहता। आज वह कहता है, हमारी सामर्थ्य के बाहर मालूम पड़ता | किया होगा। जो गलत, असंगत नहीं है, वह भगवान ने किया होगा। है सब। आज का वैज्ञानिक उतनी ही मिस्टिसिज्म की भाषा में बोल | ऐसा हमने सोच रखा है कि हम केंद्र पर हैं जीवन के, और जो हमारे रहा है, उतने ही रहस्य की भाषा में, जितना संत बोले थे। | पसंद पड़ता है, वह भगवान का किया हुआ है, भगवान हमारी सेवा इसलिए जल्दी न करें! और सौ साल, और वैज्ञानिक ठीक वही | कर रहा है। जो पसंद नहीं पड़ता, वह शैतान का किया हुआ है; भाषा बोलेगा, जो उपनिषद बोलते हैं। बोलनी ही पड़ेगी वही भाषा, | | शैतान हमसे दुश्मनी कर रहा है। यह मनुष्य का अहंकार है, जिसने जो बुद्ध बोलते हैं। बोलनी ही पड़ेगी वही भाषा, जो अगस्तीन और | शैतान और भगवान को भी अपनी सेवा में लगा रखा है। फ्रांसिस बोलते हैं। बोलनी ही पड़ेगी। बोलनी पड़ेगी इसलिए कि | भगवान के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। जिसे हम शैतान कहते जितना-जितना सत्य का गहरा अनुभव होगा, उतना-उतना व्यक्ति | हैं, वह सिर्फ हमारी अस्वीकृति है। जिसे हम बुरा कहते हैं, वह का अनुभव क्षीण होता है। और जितना सत्य प्रगट होता है, उतना सिर्फ हमारी अस्वीकृति है। और अगर हम बुरे में भी गहरे देख ही अहंकार लीन होता है। और एक दिन पता चलता है कि जो भी पाएं, तो फौरन हम पाएंगे कि बुरे में भला छिपा होता है। दुख में जाना गया है, वह प्रसाद है; वह ग्रेस है; वह उतरा है; उसमें मैं नहीं भी गहरे देख पाएं, तो पाएंगे कि सुख छिपा होता है। अभिशाप में हूं। और जो-जो मैंने नहीं जाना, उसकी जिम्मेवारी मेरी है, क्योंकि | भी गहरे देख पाएं, तो पाएंगे कि वरदान छिपा होता है। असल में तना मजबूत था कि जान नहीं सकता था। मैं इतना गहन था कि बुरा और भला एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। शैतान के खिलाफ सत्य नहीं उतर सकता था। सत्य उतरता है खाली चित्त में, शून्य | जो भगवान है, उसे मैं अज्ञात नहीं कह रहा; मैं अज्ञात उसे कह रहा चित्त में। और असत्य उतारना हो, तो मैं की मौजूदगी जरूरी है। हूं, जो हम सबके जीवन की भूमि है, जो अस्तित्व का आधार है। विज्ञान की खोज को बाधा नहीं पड़ेगी। जो खोज हुई है, वह भी | | उस अस्तित्व के आधार से ही रावण भी निकलता है, उस अस्तित्व अज्ञात के संबंध से ही हई है: समर्पण से हुई है। और जो खोज होगी के आधार से ही राम भी निकलते हैं। उस अस्तित्व से अंधकार भी आगे, वह भी समर्पण से ही होगी। समर्पण के द्वार के अतिरिक्त | | निकलता है, उस अस्तित्व से प्रकाश भी निकलता है। सत्य कभी किसी और द्वार से न आया है, न आ सकता है। हमें अंधकार में डर लगता है, तो मन होता है, अंधकार शैतान | पैदा करता होगा। हमें रोशनी अच्छी लगती है, तो मन होता है कि भगवान पैदा करता होगा। लेकिन अंधकार में कुछ भी बुरा नहीं है, प्रश्न: भगवान श्री, आपका यह स्टेटमेंट बड़ी दिक्कत | रोशनी में कुछ भी भला नहीं है। और जो अस्तित्व को प्रेम करता में डाल देता है कि अचेतन मन भगवान से जुड़ा हुआ है, वह अंधकार में भी परमात्मा को पाएगा और प्रकाश में भी होता है। यह तो जुंग ने पीछे से बताया, मिथोलाजी परमात्मा को पाएगा। का कलेक्टिव अनकांशस से संबंध जोड़कर। मगर सच तो यह है कि अंधकार को भय के कारण हम कभी-उसके यड कहता है कि वह शैतान से भी जुड़ा होता है, सौंदर्य को-जान ही नहीं पाते; उसके रस को, उसके रहस्य को तो तकलीफ बढ़ जाती है। हम कभी जान ही नहीं पाते। हमारा भय मनुष्य निर्मित भय है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारवान अर्जुन और युद्ध का धर्मसंकट र कंदराओं से आ रहे हैं हम, जंगली कंदराओं से होकर गुजरे हैं हम। सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् । । १३ ।। अंधेरा बड़ा खतरनाक था। जंगली जानवर हमला कर देता; रात इस प्रकार द्रोणाचार्य से कहते हुए दुर्योधन के वचनों को डराती थी। इसलिए अग्नि जब पहली दफा प्रकट हो सकी, तो हमने | सुनकर, कौरवों में वृद्ध, बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उसके उसे देवता बनाया। क्योंकि रात निश्चित हो गई: आग जलाकर हम हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंहनाद के निर्भय हए। अंधेरा हमारे अनुभव में भय से जुड़ गया है। रोशनी | समान गर्जकर शंख बजाया। उसके उपरांत शंख और नगाड़े हमारे हृदय में अभय से जुड़ गई है। तथा ढोल. मदंग और नसिंहादि बाजे एक साथ ही बजे। लेकिन अंधेरे का अपना रहस्य है, रोशनी का अपना रहस्य है। उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हआ। और इस जीवन में जो भी महत्वपूर्ण घटित होता है, वह अंधेरे और ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ । रोशनी दोनों के सहयोग से घटित होता है। एक बीज हम गड़ाते हैं माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः ।। १४ ।। अंधेरे में, फूल आता है रोशनी में। बीज हम गड़ाते हैं अंधेरे में, पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनंजयः । जमीन में; जड़ें फैलती हैं अंधेरे में, जमीन में। फूल खिलते हैं पौण्ड्रं दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदरः ।। १५ ।। आकाश में, रोशनी में। एक बीज को रोशनी में रख दें, फिर फूल अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः । कभी न आएंगे। एक फूल को अंधेरे में गड़ा दें, फिर बीज कभी नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ । । १६ ।। पैदा न होंगे। एक बच्चा पैदा होता है मां के पेट के गहन अंधकार | इसके अनंतर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए में, जहां रोशनी की एक किरण नहीं पहुंचती। फिर जब बड़ा होता | श्रीकृष्ण और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाए । उनमें है, तो आता है प्रकाश में। अंधेरा और प्रकाश एक ही श्रीकृष्ण ने पांचजन्य नामक शंख और अर्जुन ने देवदत्त जीवन-शक्ति के लिए आधार हैं। जीवन में विभाजन, विरोध, | नामक शंख बजाया। भयानक कर्म वाले भीमसेन ने पौण्ड्र पोलेरिटी मनुष्य की है। नामक महाशंख बजाया। कुंतीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने फ्रायड जो कहता है कि शैतान से जुड़ा है...। फ्रायड अनंतविजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और यहूदी-चिंतन से जुड़ा था। फ्रायड यहूदी घर में पैदा हुआ था। मणिपुष्पक नाम वाले शंख बजाए। बचपन से ही शैतान और परमात्मा के विरोध को उसने सुन रखा था। यहूदियों ने दो हिस्से तोड़ रखे हैं—एक शैतान है, एक भगवान प्रश्नः भगवान श्री. भीष्म के गगनभेदी शंखनाद के लगा कि जहां-जहां से बुरी चीजें उठती हैं अचेतन से, वे बुरी-बुरी प्रतिशब्द में कृष्ण शंखनाद करते हैं। तो क्या उनकी चीजें शैतान डाल रहा होगा। शंखध्वनि एक्शन के बजाय रिएक्शन, प्रत्याघात कही नहीं, कोई शैतान नहीं है। और अगर शैतान हमें दिखाई पड़ता | | जा सकती है? भगवद्गीता के इस प्रथम अध्याय में है, तो कहीं न कहीं हमारी बुनियादी भूल है। धार्मिक व्यक्ति शैतान | कृष्ण का पांचजन्य शंख या अर्जुन का देवदत्त शंख को देखने में असमर्थ है। परमात्मा ही है। और अचेतन-जहां से | बजाना-यह उदघोषणा के बजाय कोई और तात्पर्य वैज्ञानिक सत्य को पाता है या धार्मिक सत्य को पाता है-वह | रखता है? परमात्मा का द्वार है। धीरे-धीरे हम उसकी गहराई में उतरेंगे, तो खयाल में निश्चित आ सकता है। कष्ण का शंखनाद, भीष्म के शंखनाद की प्रतिक्रिया, y० रिएक्शन है? ऐसा पूछा है। तस्य संजनयन्हर्ष कुरुवृद्धः पितामहः । ८ नहीं, सिर्फ रिस्पांस है, प्रतिसंवेदन है। और शंखनाद सिंहनादं विनद्योच्चैः शंखं दध्मौ प्रतापवान् । । १२ ।। से केवल प्रत्युत्तर है—युद्ध का नहीं, लड़ने का नहीं शंखनाद से ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः । सिर्फ स्वीकृति है चुनौती की। वह चुनौती जो भी लाए, वह चुनौती के दो हिस्से Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30- गीता दर्शन भाग-14 जो भी दिखाए, वह चुनौती जहां भी ले जाए, उसकी स्वीकृति है। युद्ध को केवल परमात्मा की तरफ से डाले गए,दायित्व से ज्यादा इस स्वीकृति को थोड़ा समझना उपयोगी है। मानने को तैयार नहीं हैं। परमात्मा की तरफ से आई हुई पुकार के जीवन प्रतिपल चुनौती है। और जो उसे स्वीकार नहीं करता, वह | | लिए वे तैयार हैं। वे केवल परमात्मा के साधन भर होकर लड़ने के जीते जी ही मर जाता है। बहुत लोग जीते जी ही मर जाते हैं। बर्नार्ड | | लिए तैयार हैं। इसलिए यह जो प्रत्युत्तर है युद्ध की स्वीकृति का, शा कहा करता था कि लोग मरते तो हैं बहुत पहले, दफनाए बहुत वह कृष्ण से दिलवाया गया है। बाद में जाते हैं। मरने और दफनाने में कोई चालीस साल का उचित है। उचित है, परमात्मा के साथ लड़कर हारना भी उचित अक्सर फर्क हो जाता है। जिस क्षण से व्यक्ति जीवन की चुनौती है; और परमात्मा के खिलाफ लड़कर जीतना भी उचित नहीं है। का स्वीकार बंद करता है, उसी क्षण से मर जाता है। जीवन है, अब हार भी आनंद होगी। अब हार भी आनंद हो सकती है। क्योंकि प्रतिपल चुनौती की स्वीकृति। यह लड़ाई अब पांडवों की अपनी नहीं है; अगर है तो परमात्मा लेकिन चुनौती की स्वीकृति भी दो तरह की हो सकती है। चुनौती | की है। लेकिन यह रिएक्शन नहीं है, रिस्पांस है। इसमें कोई क्रोध की स्वीकृति भी क्रोधजन्य हो सकती है; और तब प्रतिक्रिया हो नहीं है। जाती है, रिएक्शन हो जाती है। और चुनौती की स्वीकृति भी | अगर भीम इसको बजाता, तो रिएक्शन हो सकता था। अगर प्रसन्नता, उत्फुल्लता से मुदितापूर्ण हो सकती है; और तब | भीम इसका उत्तर देता, तो वह क्रोध में ही दिया गया होता। अगर प्रतिसंवेदन हो जाती है। कृष्ण की तरफ से यह उत्तर आया है, तो यह बड़ी आनंद की ध्यान देने योग्य है कि भीष्म ने जब शंख बजाया तो वचन है कि | स्वीकृति है, कि ठीक है। अगर जीवन वहां ले आया है, जहां युद्ध प्रसन्नता से और वीरों को प्रसन्नचित हुए...। आह्लाद फैल गया । ही फलित हो, तो हम परमात्मा के हाथों में अपने को छोड़ते हैं। उनके शंखनाद से। उस शंखनामको प्रसन्नता फैल गई। वह एक स्वीकार है। जीवन जो दिखा रहा है, अगर युद्ध भी, तो युद्ध का भी स्वीकार है। जीवन जहां ले जा रहा है, अगर युद्ध में भी, तो इस युद्ध काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः। का भी स्वीकार है। निश्चित ही इसे प्रत्युत्तर मिलना चाहिए। और धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः।। १७ ।।। पीछे कष्ण और पांडव अपने-अपने शंखनाद करते हैं। द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते । यहां भी सोचने जैसी बात है कि पहला शंखनाद कौरवों की तरफ सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक् ।। १८।। से होता है। युद्ध के प्रारंभ का दायित्व कौरवों का है; कृष्ण सिर्फ स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्। प्रत्युत्तर दे रहे हैं। पांडवों की तरफ से प्रतिसंवेदन है, रिस्पांस है। नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ।। १९।। अगर युद्ध ही है, तो उसके उत्तर के लिए वे तैयार हैं। ऐसे युद्ध की श्रेष्ठ धनुष वाला काशिराज और महारथी शिखंडी और वृत्ति नहीं है। पांडव भी पहले बजा सकते हैं। नहीं लेकिन इतना | धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद दायित्व-युद्ध में घसीटने का दायित्व-कौरव ही लेंगे। और द्रौपदी के पांचों पुत्र और बड़ी भुजा धाला सुभद्रापुत्र युद्ध का यह प्रारंभ बड़ा प्रतीकात्मक है। इसमें एक बात और अभिमन्यु इन सबने, हे राजन्! अलग-अलग शंख बजाए। ध्यान देने जैसी है कि प्रत्युत्तर कृष्ण शुरू करते हैं। अगर भीष्म ने | और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी शुरू किया था, तो कृष्ण को उत्तर देने के लिए तैयार करना उचित शब्दायमान करते हुए धृतराष्ट्र-पुत्रों के नहीं है। उचित तो है कि जो युद्ध के लिए तत्पर योद्धा हैं... । कृष्ण ___हृदय विदीर्ण कर दिए। तो केवल सारथी की तरह वहां मौजूद हैं; वे योद्धा भी नहीं हैं, वे अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः । युद्ध करने भी नहीं आए हैं। लड़ने की कोई बात ही नहीं है। पांडवों प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पांडवः ।। २० ।। की तरफ से जो सेनापति है, उसे शंखनाद करके उत्तर देना चाहिए। हषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते । लेकिन नहीं, यह बहुत महत्वपूर्ण है कि शंखनाद का उत्तर कृष्ण से | अर्जुन उवाच शुरू करवाया गया है। यह इस बात का प्रतीक है कि पांडव इस सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ।। २१ ।। | 12 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m विचारवान अर्जुन और युद्ध का धर्मसंकट - यावदेतानिरीक्षेऽहं योद्धकामानवस्थितान् । दूसरी बात, जिससे लड़ना है, उसे ठीक से पहचान लेना युद्ध कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिरणसमुद्यमे ।। २२ ।। का पहला नियम है। जिससे भी लडना हो. उसे ठीक से पहचान हे राजन् ! उसके उपरांत कपिध्वज अर्जुन ने खड़े हुए लेना. यद्ध का पहला नियम है। समस्त यद्धों का. कैसे भी यद्ध हों धृतराष्ट्र-पुत्रों को देखकर उस शस्त्र चलने की तैयारी के | जीवन के-भीतरी या बाहरी-शत्रु की पहचान, युद्ध का पहला समय धनुष उठाकर हषीकेश श्रीकृष्ण से यह वचन कहा, हे | नियम है। और युद्ध में केवल वे ही जीत सकते हैं, जो शत्रु को ठीक अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा करिए। से पहचानते हैं। जब तक मैं इन स्थित हुए युद्ध की कामना वालों को अच्छी | इसलिए आमतौर से जो युद्ध-पिपासु है, वह नहीं जीत पाता; प्रकार देख लूं कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन क्योंकि युद्ध-पिपासा के धुएं में इतना घिरा होता है कि शत्रु को के साथ युद्ध करना योग्य है। पहचानना मुश्किल हो जाता है। लड़ने की आतुरता इतनी होती है कि किससे लड़ रहा है, उसे पहचानना मुश्किल हो जाता है। और | जिससे हम लड़ रहे हैं, उसे न पहचानते हों, तो हार पहले से ही 27 र्जुन, जिनके साथ युद्ध करना है, उन्हें देखने की कृष्ण | | निश्चित है। 4 से प्रार्थना करता है। इसमें दो-तीन बातें आज की । इसलिए युद्ध के क्षण में जितनी शांति चाहिए विजय के लिए, सुबह के लिए आखिरी समझ लेनी उचित हैं, फिर हम | उतनी शांति किसी और क्षण में नहीं चाहिए। युद्ध के क्षण में जितना सांझ बात करेंगे। साक्षी का भाव चाहिए विजय के लिए, उतना किसी और क्षण में एक तो, अर्जुन का यह कहना कि किनके साथ मुझे युद्ध करना नहीं चाहिए। यह अर्जुन यह कह रहा है कि अब मैं साक्षी होकर है, उन्हें मैं देखें, ऐसी जगह मुझे ले चलकर खड़ा कर दें-एक देख लूं कि कौन-कौन लड़ने को है। उनका निरीक्षण कर लूं, उनको बात का सूचक है कि युद्ध अर्जुन के लिए ऊपर से आया हुआ आब्जर्व कर लूं। दायित्व है, भीतर से आई हुई पुकार नहीं है; ऊपर से आई हुई यह थोड़ा विचारणीय है। जब आप क्रोध में होते हैं, तब मजबूरी है, भीतर से आई हुई वृत्ति नहीं है। युद्ध एक विवशता है, आब्जर्वेशन कम से कम रह जाता है। जब आप क्रोध में होते हैं, तब मजबरी है। लडना पडेगा. इसलिए किससे लडना है. इसे वह पछ| निरीक्षण की क्षमता बिलकल खो जाती है। और जब क्रोध में होते रहा है, उनको मैं देख लूं। कौन-कौन लड़ने को आतुर होकर आ | हैं, तब सर्वाधिक निरीक्षण की जरूरत है। लेकिन बड़े मजे की बात गए हैं, कौन-कौन युद्ध के लिए तत्पर हैं, उन्हें मैं देख लूं। है, अगर निरीक्षण हो, तो क्रोध नहीं होता; और अगर क्रोध हो, तो जो आदमी स्वयं युद्ध के लिए तत्पर है, उसे इसकी फिक्र नहीं | | निरीक्षण नहीं होता। ये दोनों एक साथ नहीं हो सकते हैं। अगर एक होती कि दूसरा युद्ध के लिए तत्पर है या नहीं। जो आदमी स्वयं | व्यक्ति क्रोध में निरीक्षण को उत्सुक हो जाए तो क्रोध खो जाएगा। युद्ध के लिए तत्पर है, वह अंधा होता है। वह दुश्मन को देखता - यह अर्जुन क्रोध में नहीं है, इसलिए निरीक्षण की बात कह पा नहीं, वह दुश्मन को प्रोजेक्ट करता है। वह दुश्मन को देखना नहीं रहा है। यह क्रोध की बात नहीं है। जैसे युद्ध बाहर-बाहर है, छू चाहता, उसे तो जो दिखाई पड़ता है, वह दुश्मन होता है। उसे | नहीं रहा है कहीं; साक्षी होकर देख लेना चाहता है, कौन-कौन दुश्मन को देखने की जरूरत नहीं, वह दुश्मन निर्मित करता है, वह | लड़ने आए हैं; कौन-कौन आतुर हैं। दुश्मनी आरोपित करता है। जब युद्ध भीतर होता है, तो बाहर यह निरीक्षण की बात कीमती है। और जब भी कोई व्यक्ति दुश्मन पैदा हो जाता है। | किसी भी युद्ध में जाए–चाहे बाहर के शत्रुओं से और चाहे भीतर जब भीतर युद्ध नहीं होता, तब जांच-पड़ताल करनी पड़ती है के शत्रुओं से-तो निरीक्षण पहला सूत्र है, राइट आब्जर्वेशन कि कौन लड़ने को आतुर है, कौन लड़ने को उत्सुक है! तो अर्जुन | पहला सूत्र है। अगर भीतर के शत्रुओं से भी लड़ना हो, तो राइट कृष्ण को कहता है कि मुझे ऐसी जगह, ऐसे परिप्रेक्ष्य के बिंदु पर | | आब्जर्वेशन पहला सूत्र है। ठीक से पहले देख लेना, किससे लड़ना खड़ा कर दें, जहां से मैं उन्हें देख लूं, जो लड़ने के लिए आतुर यहां है! क्रोध से लड़ना है तो क्रोध को देख लेना, काम से लड़ना है तो इकट्ठे हो गए हैं। काम को देख लेना, लोभ से लड़ना है तो लोभ को देख लेना। बाहर Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1 - भी लड़ने जाएं तो पहले बहुत ठीक से देख लेना कि किससे लड़ पहले मित्र तो बनाना जरूरी होता ही है। बिना मित्र बनाए शत्रु रहे हैं? वह कौन है? इसका पूरा निरीक्षण तभी संभव है, जब साक्षी | | बनाना मुश्किल है। विचारहीन चित्त मित्रता भी बनाता है, तो शत्रुता होने की क्षमता हो, अन्यथा संभव नहीं है। ही निकलती है। युद्ध स्वाभाविक है। इसलिए गीता अब शुरू होने के करीब आ रही है। उसका ___ दूसरी सीढ़ी विचार की है। विचार सदा डांवाडोल है। विचार रंगमंच तैयार हो गया है। लेकिन इस सूत्र को देखकर लगता है कि | | सदा कंपित है। विचार सदा वेवरिंग है। दूसरी सीढ़ी पर अर्जुन है। अगर आगे की गीता का पता भी न हो, तो जो आदमी निरीक्षण को | | वह कहता है, निरीक्षण कर लूं, देख लूं, समझ लूं, फिर युद्ध में समझता है, वह इतने सूत्र पर भी कह सकता है कि अर्जुन को | | उतरूं। कभी कोई दुनिया में देख-समझकर युद्ध में उतरा है? लड़ना मुश्किल पड़ेगा। यह आदमी लड़ न सकेगा। इसको लड़ने | देख-समझकर तो युद्ध से भागा जा सकता है। देख-समझकर युद्ध . में कठिनाई आने ही वाली है। में उतरा नहीं जा सकता। क्योंकि जो आदमी निरीक्षण को उत्सुक है, वह आदमी लड़ने में | __ और तीसरी सीढ़ी पर कृष्ण हैं। वह निर्विचार की स्थिति है। वहां मुश्किल पाएगा। वह जब देखेगा तो लड़ न पाएगा। लड़ने के लिए | भी विचार नहीं हैं; लेकिन वह विचारहीनता नहीं है। थाटलेसनेस आंखें बंद चाहिए। लड़ने के लिए जूझ जाना चाहिए, निरीक्षण की | और नो थाट, विचारहीनता और निर्विचार एक से मालूम पड़ते हैं। सुविधा नहीं होनी चाहिए। गीता न भी पता हो आगे, तो जो आदमी | | लेकिन उनमें बुनियादी फर्क है। निर्विचार वह है, जो विचार की निरीक्षण के तत्व को समझेगा, वह इसी सूत्र पर कह सकेगा कि यह | | व्यर्थता को जानकर ट्रांसेंड कर गया, पार चला गया। आदमी भरोसे का नहीं है। यह आदमी युद्ध में काम नहीं पड़ेगा। यह | विचार सब चीजों की व्यर्थता बतलाता है—जीवन की भी, प्रेम आदमी युद्ध से हट सकता है। क्योंकि जब देखेगा, तो सब इतना | | की भी, परिवार की भी, धन की भी, संसार की भी, युद्ध की व्यर्थ मालूम पड़ेगा। जो भी निरीक्षण करेगा, तो सब इतना फ्युटाइल, | भी विचार सब चीजों की व्यर्थता बतलाता है। लेकिन अगर कोई इतना व्यर्थ मालूम पड़ेगा कि वह कहेगा कि हट जाऊं। | विचार करता ही चला जाए, तो अंत में विचार विचार की भी व्यर्थता यह अर्जन जो बात कह रहा है, वह बात इसके चित्त की बड़ी बतला देता है। और तब आदमी निर्विचार हो जाता है। फिर प्रतीक है। यह अपने चित्त को इस सूत्र में साफ किए दे रहा है। यह | निर्विचार में सब ठीक वैसा ही हो जाता है संभव, जैसा विचारहीन . यह नहीं कह रहा है कि मैं युद्ध को आतुर हूं। मेरे सारथी! मुझे उस | को संभव था। लेकिन क्वालिटी, गुण बिलकुल बदल जाता है। जगह ले चलो, जहां से मैं दुश्मनों का विनाश ठीक से कर सकूँ। एक छोटा बच्चा जैसे होता है। जब कोई संतत्व को उपलब्ध यह यह नहीं व कहना यही चाहिए। यह होता है बढापे तक. तब फिर छोटे बच्चे जैसा हो जाता है। लेकिन कि मुझे उस जगह ले चलो, जहां से मैं देख सकूँ कि कौन-कौन | | छोटे बच्चे और संतत्व में ऊपरी ही समानता होती है। संत की आंखें लड़ने आए हैं, कितने आतुर हैं; मैं निरीक्षण कर सकूँ। यह निरीक्षण | | भी छोटे बच्चे की तरह भोली हो जाती हैं। लेकिन छोटे बच्चे में बता रहा है कि यह आदमी विचार का आदमी है। और विचार का | | अभी सब दबा पड़ा है। अभी सब निकलेगा। इसलिए छोटा बच्चा आदमी दुविधा में पड़ेगा। | तो एक वॉल्केनो है, एक ज्वालामुखी है। अभी फूटा नहीं है, बस __या तो युद्ध वे लोग कर सकते हैं, जो विचारहीन हैं-भीम की | | इतना ही है। उसकी निर्दोषता, उसकी इनोसेंस ऊपर-ऊपर है, भीतर तरह, दुर्योधन की तरह। या युद्ध वे लोग कर सकते हैं, जो निर्विचार | | तो सब तैयार है; बीज बन रहे हैं, फूट रहे हैं। अभी काम आएगा, हैं—कृष्ण की तरह। विचार है बीच में। क्रोध आएगा, शत्रुता आएगी-सब आएगा। अभी सबकी तैयारी ये तीन बातें हैं। विचारहीनता विचार के पहले की अवस्था है। | चल रही है। छोटा बच्चा तो सिर्फ टाइम बम है। अभी समय लेगा युद्ध बहुत आसान है। युद्ध के लिए कुछ करने की जरूरत नहीं है, | | और फूट पड़ेगा। लेकिन संत पार जा चुका है। वह सब जो भीतर ऐसी चित्त-दशा में आदमी युद्ध में होता ही है। वह प्रेम भी करता | | बीज फूटने थे, फूट गए, और व्यर्थ हो गए, और गिर गए। अब है, तो प्रेम उसका युद्ध ही सिद्ध होता है। वह प्रेम भी करता है, तो | | कुछ भी भीतर शेष नहीं बचा; अब आंखें फिर सरल हो गई हैं, अब अंततः घृणा ही सिद्ध होती है। वह मित्रता भी बनाता है, तो सिर्फ फिर सब निर्दोष हो गया है। शत्रुता की एक सीढ़ी सिद्ध होती है। क्योंकि शत्रु बनाने के लिए इसलिए जीसस ने कहा है किसी ने पूछा जीसस से कि कौन रहा 14 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m- विचारवान अर्जुन और युद्ध का धर्मसंकट -AM तुम्हारे स्वर्ग के राज्य का अधिकारी होगा? तो जीसस ने कहा कि वे जो बच्चों की भांति हैं। जीसस ने नहीं कहा कि जो बच्चे हैं। क्योंकि बच्चे नहीं प्रवेश कर सकते। जो बच्चों की भांति हैं, अर्थात जो बच्चे नहीं हैं। एक बात तो पक्की हो गई, जो बच्चे नहीं हैं, लेकिन बच्चों की भांति हैं। बच्चे प्रवेश करें, तब तो कोई कठिनाई ही नहीं है, सभी प्रवेश कर जाएंगे। नहीं; बच्चे प्रवेश नहीं करेंगे। लेकिन जो बच्चों की भांति हैं, जो पार हो गए हैं। इसलिए अज्ञानी और परमज्ञानी में बड़ी समानता है। अज्ञानी जैसा ही सरल हो जाता है परमज्ञानी। लेकिन अज्ञानी की सरलता के भीतर जटिलता पूरी छिपी रहती है, कभी भी प्रकट होती रहती है। परमज्ञानी की सब जटिलता खो गई होती है। जो विचारहीन है, उसमें विचार की शक्ति पड़ी रहती है, वह विचार कर सकता है, करेगा। जो निर्विचार है, वह विचार के अतिक्रमण में हो गया; वह ध्यान में पहुंच गया, समाधि में पहुंच गया। जो कठिनाई पूरी गीता में उपस्थित होगी, यह जो पूरा भीतर का अंतद्वंद्व उपस्थित होगा...अर्जुन दो तरह से युद्ध में जा सकता है। या तो वह विचारहीन हो जाए, नीचे उतर आए, वहां खड़ा हो जाए जहां दुर्योधन और भीम खड़े हैं, तो युद्ध में जा सकता है। और या फिर वह वहां पहुंच जाए जहां कृष्ण खड़े हैं, निर्विचार हो जाए, तो युद्ध में जा सकता है। अगर अर्जुन अर्जुन ही रहे, मध्य में ही रहे, विचार में ही रहे, तो वह जंगल जा सकता है, युद्ध में नहीं जा सकता है। वह पलायन करेगा, वह भागेगा। शेष संध्या हम बात करेंगे। Page #46 --------------------------------------------------------------------------  Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 1-2 दूसरा प्रवचन अर्जुन के विषाद का मनोविश्लेषण Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + गीता दर्शन भाग- 14 अ र्जुन युद्ध से पीड़ित नहीं है, युद्ध-विरोधी भी नहीं है। हिंसा के संबंध में उसकी कोई अरुचि भी नहीं है । उसके सारे जीवन का शिक्षण, उसके सारे जीवन का संस्कार, हिंसा और युद्ध के लिए है। लेकिन, यह समझने जैसी बात है कि जितना ही हिंसक चित्त हो, उतना ही ममत्व से भरा हुआ चित्त भी होता है। हिंसा और ममत्व साथ ही साथ जीते हैं। अहिंसक चित्त ममत्व के भी बाहर हो जाता है। योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः । धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ।। २३ ।। संजय उवाच एवमुक्तो हृषीकेशी गुडाकेशेन भारत । सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ।। २४ ।। भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् । उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ।। २५ ।। तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितृनथ पितामहान । आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ।। २६ ।। श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि । तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ।। २७ ।। कृपया परयाविष्टो विषीदनिदमब्रवीत् । अर्जुन उवाच दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ।। २८ । । सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति । वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ।। २९ ।। और दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में कल्याण चाहने वाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आए हैं, उन युद्ध करने वालों को मैं देखूंगा । संजय बोला : हे धृतराष्ट्र, अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में ले जाकर भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने और संपूर्ण राजाओं के सामने, उत्तम रथ को खड़ा करके ऐसे कहा कि हे पार्थ, इन इकट्ठे हुए कौरवों को देख । उसके उपरांत पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित हुए पिता के भाइयों को, पितामहों को, आचायों को, मामों को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और सुहृदों को भी देखा। इस प्रकार उन खड़े हुए संपूर्ण बंधुओं को देखकर वह अत्यंत करुणा से युक्त हुआ कुंतीपुत्र अर्जुन शोक करता हुआ यह बोला: हे कृष्ण ! इस युद्ध की इच्छा वाले खड़े हुए स्वजन समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जाते हैं और मुख भी सूखा जाता है और मेरे शरीर में कंप तथा रोमांच होता है। JS 18 असल में जिसे अहिंसक होना हो, उसे मेरे का भाव ही छोड़ | देना पड़ता है। मेरे का भाव ही हिंसा है। क्योंकि जैसे ही मैं कहता हूं मेरा, वैसे ही जो मेरा नहीं है, वह पृथक होना शुरू हो जाता है। | जैसे ही किसी को मैं कहता हूं मित्र, वैसे ही किसी को मैं शत्रु निर्मित करना शुरू कर देता हूं। जैसे ही मैं सीमा खींचता हूं अपनों की, वैसे ही मैं परायों की सीमा भी खींच लेता हूं। समस्त हिंसा, अपने और पराए के बीच खींची गई सीमा से पैदा होती है। इसलिए अर्जुन शिथिल -गात हो गया। उसके अंग-अंग शिथिल हो गए। इसलिए नहीं कि वह युद्ध से विरक्त हुआ; इसलिए नहीं कि उसे होने वाली हिंसा में कुछ बुरा दिखाई पड़ा; इसलिए नहीं कि अहिंसा का कोई आकस्मिक आकर्षण उसके मन में जन्म गया; | बल्कि इसलिए कि हिंसा के ही दूसरे पहलू ने उसके भीतर से, हिंसा | के ही गहरे पहलू ने, हिंसा के ही बुनियादी आधार ने, उसके चित्त को पकड़ लिया - ममत्व ने उसके चित्त को पकड़ लिया। ममत्व हिंसा ही है। इसे न समझेंगे तो फिर पूरी गीता को समझना कठिन हो जाएगा। जो इसे नहीं समझ सके, उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि अर्जुन अहिंसा की तरफ झुकता था, कृष्ण ने उसे हिंसा की तरफ झुकाया ! जो अहिंसा की तरफ झुकता हो, उसे कृष्ण हिंसा की तरफ झुकाना नहीं चाहेंगे। जो अहिंसा की तरफ झुकता हो, उसे कृष्ण चाहें भी हिंसा की तरफ झुकाना, तो भी न झुका पाएंगे। लेकिन अर्जुन अहिंसा की तरफ रत्तीभर नहीं झुक रहा है। अर्जुन का चित्त हिंसा के गहरे आधार पर जाकर अटक गया है। वह हिंसा का ही आधार उसे दिखाई पड़े अपने ही लोग — प्रियजन, संबंधी । काश ! वहां प्रियजन और संबंधी न होते, तो अर्जुन भेड़-बकरियों की तरह लोगों को काट सकता था। अपने थे, इसलिए काटने में कठिनाई मालूम पड़ी। पराए होते, तो काटने में कोई कठिनाई न मालूम पड़ती। और अहिंसा केवल उसके ही चित्त में पैदा होती है, जिसका 'अपना-पराया मिट गया हो। अर्जुन, यह जो संकटग्रस्त हुआ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IITRA अर्जुन के विषाद का मनोविश्लेषण Ham ता। उसका चित्त, यह अहिंसा की तरफ आकर्षण से नहीं, हिंसा के ही भी मरती है; क्योंकि मां बेटे के पहले मां नहीं थी, मां बेटे के जन्म मूल आधार पर पहुंचने के कारण है। स्वभावतः, इतने संकट के के साथ ही हुई है। जब बेटा जन्मता है, तो एक तरफ बेटा जन्मता क्षण में, इतने क्राइसिस के मोमेंट में हिंसा की जो बुनियादी | | है, दूसरी तरफ मां भी जन्मती है। और जब बेटा मरता है, तो एक आधारशिला थी, वह अर्जुन के सामने प्रकट हुई। अगर पराए होते | तरफ बेटा मरता है, दूसरी तरफ मां भी मरती है। जिसे हमने अपना तो अर्जुन को पता भी न चलता कि वह हिंसक है; उसे पता भी न | है; उसे पता भी न कहा है, उससे हम जुड़े हैं, हम भी मरते हैं। चलता कि उसने कुछ बुरा किया; उसे पता भी न चलता कि युद्ध | अर्जुन ने जब देखा कि अपने ही सब इकट्ठे हैं, तो अर्जुन को अधार्मिक है। उसके गात शिथिल न होते, बल्कि परायों को देखकर अगर अपना ही आत्मघात, स्युसाइड दिखाई पड़ा हो तो आश्चर्य उसके गात और तन जाते। उसके धनुष पर बाण आ जाता; उसके | नहीं है। अर्जुन घबड़ाया नहीं दूसरों की मृत्यु से; अर्जुन घबड़ाया हाथ पर तलवार आ जाती। वह बड़ा प्रफुल्लित होता। आत्मघात की संभावना से। उसे लगा, सब अपने मर जाएं, तो मैं लेकिन वह एकदम उदास हो गया। इस उदासी में उसे अपने बचूंगा कहां! चित्त की हिंसा का मूल आधार दिखाई पड़ा। उसे दिखाई पड़ा, इस ___ यह थोड़ा सोचने जैसा है। हमारा मैं, हमारे अपनों के जोड़ का संकट के क्षण में उसे ममत्व दिखाई पड़ा! | नाम है। जिसे हम मैं कहते हैं, वह मेरों के जोड़ का नाम है। अगर यह बड़े आश्चर्य की बात है कि अक्सर हम अपने चित्त की | | मेरे सब मेरे विदा हो जाएं, तो मैं खो जाऊंगा। मैं बच नहीं सकता। गहराइयों को केवल संकट के क्षणों में ही देख पाते हैं। साधारण | यह मेरा मैं, कुछ मेरे पिता से, कुछ मेरी मां से, कुछ मेरे बेटे से, क्षणों में हम चित्त की गहराइयों को नहीं देख पाते। साधारण क्षणों | | कुछ मेरे मित्र से-इन सबसे जुड़ा है। में हम साधारण जीते हैं। असाधारण क्षणों में, जो हमारे गहरे से ___ आश्चर्य तो यह है कि जिन्हें हम अपने कहते हैं, उनसे ही नहीं पहरे में छिपा है, वह प्रकट होना शुरू हो जाता है। जुड़ा है, जिन्हें हम पराए कहते हैं, उनसे भी जुड़ा है—परिधि के अर्जुन को दिखाई पड़ा, मेरे लोग! युद्ध की वीभत्सता ने, युद्ध | बाहर–लेकिन उनसे भी जुड़ा है। तो जब मेरा शत्रु मरता है, तब की सन्निकटता ने, बस अब युद्ध शुरू होने को है, तब उसे दिखाई | | भी थोड़ा मैं मरता हूं। क्योंकि मैं फिर वही नहीं हो सकूँगा, जो मेरे पड़ा, मेरे लोग! शत्रु के होने पर मैं था। शत्रु भी मेरी जिंदगी को कुछ देता था। मेरा काश! अर्जुन ने कहा होता, युद्ध व्यर्थ है, हिंसा व्यर्थ है, तो शत्रु था, होगा शत्रु, पर मेरा शत्रु था। उससे भी मेरे मैं का संबंध गीता की किताब निर्मित न होती। लेकिन उसने कहा, अपने ही लोग | | था। उसके बिना मैं फिर अधूरा और खाली हो जाऊंगा। इकट्ठे हैं; उनको काटने के विचार से ही मेरे अंग शिथिल हुए जाते __ अर्जुन को, दूसरों का घात होगा, ऐसा दिखाई पड़ता, तो बात . हैं। असल में जिसने अपने जीवन के भवन को अपनों के ऊपर और थी। अर्जुन को बहुत गहरे में दिखाई पड़ा कि यह तो मैं अपनी बनाया है, उन्हें काटते क्षण में उसके अंग शिथिल हों, यह बिलकुल ही आत्महत्या करने को उत्सुक हुआ हूं; यह तो मैं ही मरूंगा। मेरे स्वाभाविक है। मर जाएंगे, तो मेरे होने का क्या अर्थ है! जब मेरे ही न होंगे, तो मृत्यु होती है पड़ोस में, छूती नहीं मन को! कहते हैं, बेचारा मर मुझे सब मिल जाए तो भी व्यर्थ है। गया। घर में होती है. तब इतना कहकर नहीं निपट पाते। तब छती। यह भी थोडा सोचने जैसा है। हम अपने लिए जो कछ इकट्टा है। क्योंकि जब घर में होती है, अपना कोई मरता है, तो हम भी करते हैं, वह अपने लिए कम, अपनों के लिए ज्यादा होता है। जो मरते हैं। हमारा भी एक हिस्सा मरता है। हमारा भी इनवेस्टमेंट था | मकान हम बनाते हैं, वह अपने लिए कम, अपनों के लिए ज्यादा उस आदमी में। हम भी उसमें कुछ लगाए थे। उसकी जिंदगी से हमें | | होता है। उन अपनों के लिए भी जो साथ रहेंगे, और उन अपनों के भी कुछ मिलता था। हमारे मन के भी किसी कोने को उस आदमी | | लिए भी जो देखेंगे और प्रशंसा करेंगे, और उन पराए-अपनों के ने भरा था। लिए भी, जो जलेंगे और ईर्ष्या से भरेंगे। पत्नी मरती है, तो पत्नी ही नहीं मरती, पति भी मरता है। सच | अगर इस पृथ्वी पर सबसे श्रेष्ठ भवन भी मेरे पास रह जाए और तो यह है कि पत्नी के साथ ही पति पैदा हुआ था, उसके पहले पति अपने न रह जाएं-मित्र भी नहीं, शत्रु भी नहीं तो अचानक मैं नहीं था। पत्नी मरती है तो पति भी मरता है। बेटा मरता है, तो मां पाऊंगा, वह भवन झोपड़ी से भी बदतर हो गया है। क्योंकि वह Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m+ गीता दर्शभाग-1 AM भवन एक फसाड, एक दिखावा था। उस भवन के माध्यम से | | कहता हूं मेरा, तो पजेशन शुरू हो गया, मालकियत शुरू हो गई। अपनों को, परायों को मैं प्रभावित कर रहा था। वह भवन तो सिर्फ | | मालकियत हिंसा का एक रूप है। पति पत्नी से कहता है, मेरी। प्रभावित करने की एक व्यवस्था थी। अब मैं किसे प्रभावित करूं! | | मालकियत शुरू हो गई। पत्नी पति से कहती है, मेरे। मालकियत आप जो कपड़े पहनते हैं, वह अपने शरीर को ढंकने को कम, | शुरू हो गई। और जब भी हम किसी व्यक्ति के मालिक हो जाते हैं, दूसरे की आंखों को झपने को ज्यादा है। अकेले में सब बेमानी हो तभी हम उस व्यक्ति की आत्मा का हनन कर देते हैं। हमने मार डाला जाता है। आप जो सिंहासनों पर चढ़ते हैं, वह सिंहासनों पर बैठने | | उसे। हमने तोड़ डाला उसे। असल में हम उस व्यक्ति के साथ के आनंद के लिए कम–क्योंकि कोई सिंहासन पर बैठकर कभी | व्यक्ति की तरह नहीं, वस्तु की तरह व्यवहार कर रहे हैं। अब कुर्सी किसी आनंद को उपलब्ध नहीं हुआ है—पर अपनों और परायों में मेरी जिस अर्थ में होती है, उसी अर्थ में पत्नी मेरी हो जाती है। मकान जो हम सिंहासन पर चढ़कर, जो करिश्मा, जो चमत्कार पैदा कर पाते | | मेरा जिस अर्थ में होता है, उसी अर्थ में पति मेरा हो जाता है। हैं, उसके लिए ज्यादा है। सिंहासन पर बैठे आप रह जाएं और नीचे | स्वभावतः, इसलिए जहां-जहां मेरे का संबंध है, वहां-वहां प्रेम से लोग खो जाएं, अचानक आप पाएंगे, सिंहासन पर बैठे होना फलित नहीं होता, सिर्फ कलह ही फलित होती है। इसलिए दुनिया हास्यास्पद हो गया। उतर आएंगे; फिर शायद दुबारा नहीं चढ़ेंगे। | में जब तक पति-पत्नी मेरे का दावा करेंगे, बाप-बेटे मेरे का दावा अर्जुन को लगा उस क्षण में कि अपने ही इकट्ठे हैं दोनों तरफ। करेंगे, तब तक दुनिया में बाप-बेटे, पति-पत्नी के बीच कलह ही मरेंगे अपने ही। अगर जीत भी गया, तो जीत का प्रयोजन क्या है? चल सकती है, मैत्री नहीं हो सकती। मेरे का दावा, मैत्री का विनाश जीत के लिए जीत नहीं चाही जाती। जीत रस है, अपनों और परायों है। मेरे का दावा, चीजों को उलटा ही कर देता है। सब हिंसा हो के बीच जो अहंकार भरेगा, उसका! साम्राज्य मिलेगा, क्या होगा | जाती है। अर्थ? कोई अर्थ न होगा। ___ मैंने सुना है, एक आदमी ने शादी की है, लेकिन पत्नी बहुत __यह जो अर्जुन के मन में विषाद घिर गया, इसे ठीक से समझ पढ़ी-लिखी नहीं है। मन में बड़ी इच्छा है कि पत्नी कभी पत्र लिखे। लेना चाहिए। यह विषाद ममत्व का है। यह विषाद हिंसक चित्त का घर से बाहर पति गया है, तो उसे समझाकर गया है। थोड़ा लिख है। और इस विषाद के कारण ही कृष्ण को इतने धक्के देने पड़े। | लेती है। समझाकर गया है, क्या-क्या लिखना। सभी पति-पत्नी . अर्जुन को। अर्जुन की जगह अगर महावीर जैसा व्यक्ति होता, तो | एक-दूसरे को समझा रहे हैं, क्या-क्या लिखना! बात उसी वक्त खत्म हो गई होती। यह बात आगे नहीं चल सकती | ___ उसने बताया था, ऊपर लिखना, प्राणों से प्यारे-कभी ऐसा थी। अगर महावीर जैसा व्यक्ति होता, तो शायद यह बात उठ भी होता नहीं है-नीचे लिखना, चरणों की दासी। पत्नी का पत्र तो नहीं सकती थी। शायद महावीर जैसा व्यक्ति होता, तो कृष्ण एक मिला, लेकिन कुछ भूल हो गई। उसने ऊपर लिखा, चरणों के शब्द भी उस व्यक्ति से न बोले होते। बोलने का कोई अर्थ न था। | दास। और नीचे लिखा, प्राणों की प्यासी। बात समाप्त ही हो गई होती। जो नहीं लिखते हैं, उनकी स्थिति भी ऐसी ही है। जो बिलकुल यह गीता कृष्ण ने कही कम, अर्जुन ने कहलवाई ज्यादा है। | ठीक-ठीक लिखते हैं, उनकी स्थिति भी ऐसी ही है। जहां आग्रह है इसका असली ऑथर, लेखक कृष्ण नहीं हैं; इसका असली लेखक | | मालकियत का, वहां हम सिर्फ घृणा ही पैदा करते हैं। और जहां अर्जुन है। अर्जुन की यह चित्त-दशा आधार बनी है। और कृष्ण को | घृणा है, वहां हिंसा आएगी। इसलिए हमारे सब संबंध हिंसा के साफ दिखाई पड़ रहा है कि एक हिंसक अपनी हिंसा के पूरे दर्शन | | संबंध हो गए हैं। हमारा परिवार हिंसा का संबंध होकर रह गया है। को उपलब्ध हो गया है। और अब हिंसा से भागने की जो बातें कर | | यह जो अर्जुन को दिखाई पड़ा, मेरे सब मिट जाएंगे तो मैं कहां! रहा है, उनका कारण भी हिंसक चित्त है। अर्जुन की दुविधा और मेरों को मिटाकर जीत का, साम्राज्य का क्या अर्थ है! इससे अहिंसक की हिंसा से भागने की दुविधा नहीं है। अर्जुन की दुविधा वह अहिंसक नहीं हो गया है, अन्यथा कृष्ण आशीर्वाद देते और हिंसक की हिंसा से ही भागने की दुविधा है। कहते, विदा हो जा, बात समाप्त हो गई। लेकिन कृष्ण देख रहे हैं इस सत्य को ठीक से समझ लेना जरूरी है। यह ममत्व हिंसा ही | कि हिंसक वह पूरा है। मैं और ममत्व की बात कर रहा है, इसलिए है, लेकिन गहरी हिंसा है, दिखाई नहीं पड़ती। जब मैं किसी को. अहिंसा झूठी है। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 अर्जुन के विषाद का मनोविश्लेषण +HIK जो मैं की बात कर रहा हो और अहिंसा की बात कर रहा हो, तो | हैं। सबसे बड़े प्रश्न वे नहीं हैं, जो हम पूछते हैं कि किसने जगत जानना कि अहिंसा झूठी है। क्योंकि मैं के आधार पर अहिंसा का | बनाया ? सबसे बड़े प्रश्न वे नहीं हैं, जो हम पूछते हैं कि ईश्वर है फल खिलता ही नहीं। मेरे के आधार पर अहिंसा के जीवन का कोई | या नहीं? सबसे बड़े प्रश्न वे हैं, जो हमारे मन के ही कांफ्लिक्ट, विकास ही नहीं होता। मन के ही द्वंद्व से जन्मते हैं। लेकिन अपने ही मन के द्वंद्व को देख पाने के लिए विचार चाहिए, चिंतन चाहिए, मनन चाहिए। अर्जुन सोच पा रहा है, देख पा रहा है कि मैं जो हिंसा करने जा प्रश्नः भगवान श्री, अर्जुन युद्धभूमि पर गया। उसने | रहा हूं, उसमें वे ही लोग मर जाएंगे, जिनके लिए हिंसा करने का स्वजन, गुरुजन और मित्रों को देखा तो शोक से भर | कुछ अर्थ हो सकता है। अंधा नहीं है। और यह अंधा न होना ही गया; विषाद हुआ उसको। उसका चित्त हिंसक था। । उसका कष्ट भी है, उसका सौभाग्य भी है। युद्धभूमि पर दुर्योधन भी था, युधिष्ठिर भी था, | इसे समझ लेना उचित है। अंधा नहीं है, यह उसका कष्ट है। द्रोणाचार्य भी थे और भी जो बहुत से थे, उनके भी दुर्योधन कष्ट में नहीं है। दुर्योधन के लिए युद्ध एक रस है। अर्जुन स्वजन-मित्र थे। उनका भी चित्त हिंसा तथा ममत्व से के लिए युद्ध एक संकट और कष्ट हो गया। सौभाग्य भी यही है। भरा हुआ था, तो अर्जुन को ही सिर्फ विषाद क्यों | यदि वह इस कष्ट को पार हो जाता है, तो निर्विचार में पहुंच हुआ? सकेगा। अगर वह इस कष्ट को पार हो जाता है, तो परमात्मा में समर्पण को पहुंच सकेगा। अगर वह इस कष्ट को पार हो जाता है, तो ममत्व को छोड़ने में पहंच सकेगा। अगर इस कष्ट को पार नहीं नश्चय ही, दुर्योधन भी वहां था, और भी योद्धा वहां थे, हो पाता, तो निश्चित ही यह युद्ध उसके लिए विकट संकट होगा, IUI उन्हें क्यों विषाद न हुआ? वे भी ममत्व से भरे लोग जिसमें वह स्किजोफ्रेनिक हो जाएगा, जिसमें उसका व्यक्तित्व दो थे। वे भी हिंसा से भरे लोग थे। नहीं हुआ; कारण है। खंडों में टूट जाएगा। या तो भाग जाएगा, या लड़ेगा बेमन से और हिंसा भी अंधी हो सकती है, विचारहीन हो सकती है। ममत्व भी | हार जाएगा। अंधा हो सकता है, विचारहीन हो सकता है। हिंसा भी आंख वाली | | जो लड़ाई बेमन से लड़ी जाए, वह हारी ही जाने वाली है। हो सकती है, विचारपूर्ण हो सकती है। ममत्व भी आंख वाला हो | क्योंकि बेमन से लड़ने का मतलब है, आधा मन भाग रहा है, आधा' सकता है और विचारपूर्ण हो सकता है। मन लड़ रहा है। और जो आदमी अपने भीतर ही विपरीत दिशाओं सुबह मैंने कहा था कि अर्जुन की कठिनाई यही है कि वह | | में गति करता हो, उसकी पराजय निश्चित है। दुर्योधन जीतेगा फिर। विचारहीन नहीं है। विचार है। और विचार दुविधा में डालता है। पूरे मन से लड़ रहा है। कुएं में भी गिर रहा है, तो पूरे मन से गिर विचार ने दुविधा में डाला उसे। दुर्योधन को भी दिखाई पड़ रहा है, | | रहा है; अंधकार में भी जा रहा है, तो पूरे मन से जा रहा है। लेकिन हिंसा इतनी अंधी है कि यह नहीं देख पाएगा दुर्योधन कि इस ____ असल में अंधकार में दो ही व्यक्ति पूरे मन से जा सकते हैं, एक हिंसा के पीछे मैं उन सबको मार डालूंगा, जिनके बिना हिंसा भी व्यर्थ | | तो वह, जो अंधा है। क्योंकि उसे अंधकार और प्रकाश से कोई अंतर हो जाती है। अंधेपन में यह दिखाई नहीं पड़ेगा। अर्जुन उतना अंधा नहीं पड़ता। एक वह, जिसके पास आत्मिक प्रकाश है। क्योंकि तब नहीं है। इसलिए अर्जुन उस युद्ध के स्थल पर विशेष है। विशेष इन | | अंधकार को, उसका होना ही अंधकार को मिटा देता है। अर्थों में है कि जीवन की तैयारी उसकी वही है, जो दुर्योधन की है; अर्जुन या तो दुर्योधन जैसा हो जाए, नीचे गिर जाए, विचार से जीवन की तैयारी उसकी वही है, जो दुर्योधन की है, लेकिन मन की विचारहीनता में गिर जाए, तो युद्ध में चला जाएगा। और या कृष्ण तैयारी उसकी भिन्न है। मन में उसके विचार है, संदेह है, डाउट है। | जैसा हो जाए, विचार से निर्विचार में पहुंच जाए, इतना ज्योतिर्मय मन में उसके शक है। वह पूछ सकता है, वह प्रश्न उठा सकता है। | हो जाए, इतना ज्योति से भर जाए भीतरी कि देख पाए कि कौन और जिज्ञासा का बुनियादी सूत्र उसके पास है। | मरता है, कौन मारा जाता है! देख पाए कि यह जो सब हो रहा है, और सबसे बड़े प्रश्न वे नहीं हैं, जो हम जगत के संबंध में उठाते स्वप्न से ज्यादा नहीं है। या तो इतने बड़े सत्य को देख पाए तो युद्ध | 21 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 AM में जा सकता है, या इतने बड़े असत्य को देख पाए कि हम उनको है, वह विक्षिप्त हो सकता है। लेकिन यह एक ही पहलू है। ही मारकर आनंद को उपलब्ध हो जाएंगे, जिनके लिए मारने की। दूसरा पहलू यह है कि जो विक्षिप्त होने की स्थिति को पार कर चेष्टा कर रहे हैं! या तो दुर्योधन के असत्य में उतर जाए, तो अर्जुन जाए, वह विमुक्त भी हो सकता है। और जो चिंता को पार कर निश्चित हो जाएगा; या कृष्ण के सत्य में पहुंच जाए, तो अर्जुन | | जाए, वह निश्चितता के सजग आनंद को उपलब्ध हो सकता है। निश्चित हो जाएगा। और जो तनाव को पार कर जाए, वह विश्रांति के उस अनुभव को अर्जुन एक तनाव है। | पा सकता है, जो सिर्फ परमात्मा में विश्राम से उपलब्ध होती है। नीत्से ने कहीं कहा है कि आदमी एक सेतु है, ए ब्रिज, दो । अर्जुन मनुष्य का प्रतीक है; दुर्योधन पशु का प्रतीक है; कृष्ण अलग-अलग पारों को जोड़ता हुआ। आदमी एक तनाव है। या तो परमात्मा के प्रतीक हैं। वहां तीन प्रतीक हैं उस युद्ध-स्थल पर। पशु हो जाए, तो सुख को पा ले; या परमात्मा हो जाए, तो आनंद | अर्जुन डांवाडोल है। वह दुर्योधन और कृष्ण के बीच डांवाडोल है। को पा ले। लेकिन जब तक आदमी है, तब तक सुख भी नहीं पा उसे निश्चितता मिल सकती है, ही कैन बी ऐट ईज़, अगर वह सकता; तब तक आनंद भी नहीं पा सकता; तब तक सुख और दुर्योधन हो जाए, अगर वह कृष्ण हो जाए। अर्जुन रहते कोई सुविधा आनंद के बीच सिर्फ खिंच सकता है; एंग्जाइटी और तनाव भर हो नहीं है। अर्जुन रहते तनाव है। अर्जुन रहते मुश्किल है। उसकी सकता है। मुश्किल यही है कि दुर्योधन हो नहीं सकता; कृष्ण होना समझ में इसीलिए हम दोनों काम करते हैं जीवन में। शराब पीकर पशु हो | | नहीं आता; और जो है, वहां टिक नहीं सकता। क्योंकि वह बीच जाते हैं, थोड़ा सुख मिलता है। सेक्स में थोड़ा सुख मिलता है; पशु | की तरंग भर है, वहां टिका नहीं जा सकता। कोई भी सेतु मकान में वापस उतर जाते हैं। नीचे गिर जाते हैं विचार से, तो थोड़ा सुख बनाने के लिए नहीं होता। मिलता है। अकबर ने फतेहपुर सीकरी बनाई, तो वहां एक पुल पर, एक दुनिया में शराब का इतना आकर्षण किसी और कारण से नहीं ब्रिज पर उसने वाक्य लिखवाया-सेतु पार करने को है, सेतु है। शराब हमें वापस पशु में पहुंचा देने की सुविधा बन जाती है; | निवास के लिए नहीं है। नशा करके हम वहीं हो जाते हैं, जहां सभी पशु हैं। फिर हम पशु ठीक ही है। जो भी आदमी सेतु पर निवास बनाएगा, वह . जैसे निश्चित हैं, क्योंकि पशु कोई चिंता नहीं करता। कोई पशु मुश्किल में पड़ेगा। कहीं भी लौट जाएं-पशु हो जाएं कि परमात्मा पागल नहीं होता। सिर्फ सर्कस के पशु पागल होते हैं। क्योंकि | | हो जाएं-आदमी नियति नहीं है। आदमी होना संकट है, क्राइसिस सर्कस का पशु करीब-करीब आदमी की हालत में आ जाता है। | है। आदमी अंत नहीं है। आदमी, अगर ठीक से हम समझें तो, न आदमी करीब-करीब सर्कस के पशु की हालत में है। कोई पशु तो पशु है और न परमात्मा है। न तो वह पशु हो पाता है, क्योंकि पागल नहीं होता। और किसी पशु के लिए विक्षिप्तता, चिंता, । | पशु को पार कर चुका। और न वह परमात्मा हो पाता है, क्योंकि अनिद्रा, इनसोमेनिया-ऐसी बीमारियां नहीं आतीं। कोई पशु | परमात्मा को पहंचना है। मनुष्य सिर्फ परमात्मा और पश के बीच आत्मघात नहीं करता; स्युसाइड नहीं करता। क्योंकि आत्मघात के | डोलता हुआ अस्तित्व है। लिए बहुत चिंता इकट्ठी हो जानी जरूरी है। हम चौबीस घंटे में कई बार दोनों कोनों पर पहुंच जाते हैं। क्रोध बड़े मजे की बात है कि कोई पशु बोर्डम अनुभव नहीं करता; में वही आदमी पशु के निकट आ जाता है, शांति में वही आदमी वह कभी ऊबता नहीं है। एक भैंस है; वह रोज वही घास चर रही । परमात्मा के निकट पहुंच जाता है। हम दिन में चौबीस घंटे में बहुत है, चरती रहेगी; वह कभी नहीं ऊबती। ऊबने का कोई सवाल नहीं | | बार नर्क और स्वर्ग की यात्रा कर लेते हैं—बहुत बार। क्षण में स्वर्ग है। ऊबने के लिए विचार चाहिए। बोर्डम के लिए, ऊब के लिए | | में होते हैं, क्षण में नर्क में उतर जाते हैं। नर्क में पछताते हैं, फिर विचार चाहिए। इसलिए मनुष्यों में जो जितना ज्यादा विचारशील | | स्वर्ग की चेष्टा शुरू हो जाती है। स्वर्ग में पैर जमा नहीं पाते, फिर है, उतना ऊबेगा। मनुष्यों में जो जितना ज्यादा विचारशील है, उतना | | नर्क में पहुंचना शुरू हो जाता है। चिंता से भर जाएगा। मनुष्यों में जो जितना ज्यादा विचारशील है, | | और तनाव का एक नियम है कि तनाव सदा विपरीत में आकर्षण वह पागल हो सकता है। मनुष्यों में जो जितना ज्यादा विचारशील पैदा कर देता है। जैसे घड़ी का पेंडुलम होता है। वह बाईं तरफ जाता 22 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2- अर्जुन के विषाद का मनोविश्लेषण - है। जब बाईं तरफ जाता है, तब हमें लगता है कि बाईं तरफ जा रहा । हममें भी जो दुर्योधन की तरह हैं, वे निश्चित हैं; वे मकान बना है। लेकिन जो घड़ी के विज्ञान को समझते हैं, वे यह भी जानते हैं रहे हैं; वे दिल्ली में, राजधानियों के सिंहासन चढ़ रहे हैं; वे धन कि वह बाईं तरफ जाते समय दाईं तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी कर | कमा रहे हैं। हममें भी जो अर्जुन की तरह हैं, वे बेचैन और परेशान रहा है, मोमेंटम इकट्ठा कर रहा है। वह जितनी दूर बाईं तरफ जाएगा, | | हैं। वे बेचैन हैं इसलिए कि जहां हैं, वह जगह घर बनाने योग्य नहीं उतनी ही दूर दाईं तरफ जाने की ताकत इकट्ठी कर रहा है। असल में मालूम पड़ती। जहां से आ गए हैं, वहां से आगे बढ़ गए हैं, पीछे वह बाईं तरफ इसीलिए जा रहा है कि दाईं तरफ जा सके। और दाईं लौटना संभव नहीं है। जहां पहुंचे नहीं हैं, उसका कोई पता नहीं है तरफ जाते वक्त इसीलिए जा रहा है कि बाईं तरफ जा सके। । | कि वह कहां है मार्ग; वह मंदिर कहां है! उसका कोई पता नहीं है। ___ आदमी पूरे समय पशु और परमात्मा के बीच पेंडुलम की तरह धार्मिक आदमी स्वभावतः संकटग्रस्त होता है, क्राइसिस में होता घूम रहा है। अर्जुन आदमी का प्रतीक है। और आज के आदमी का | | है। अधार्मिक आदमी क्राइसिस में नहीं होता। इसलिए मंदिरों में तो और भी ज्यादा है। आज के आदमी की चेतना ठीक अर्जुन की | बैठा आदमी ज्यादा चिंतित दिखाई पड़ेगा, बजाय कारागृहों में बैठे चेतना है। इसलिए दुनिया में दोनों बातें एक साथ हैं, एक ओर | | आदमी के। कारागृह में बैठा आदमी इतना चिंतित नहीं मालूम मनुष्य अपनी चेतना को समाधि तक ले जाने के लिए आतुर है; | | पड़ता है, निश्चित है। एक किनारे पर वह है, वह सेतु पर नहीं है। और दूसरी तरफ आदमी एल एस डी से, मैस्कलीन से, मारिजुआना | एक अर्थों में वह सौभाग्यशाली मालूम पड़ सकता है, ईर्ष्या-योग्य, से, शराब से, सेक्स से पशु की तरफ ले जाने को आतुर है। कितना निश्चित है! लेकिन उसका सौभाग्य बड़े गहरे अभिशाप को और अक्सर ऐसा होगा कि एक ही आदमी ये दोनों काम करता | | छिपाए है। वह इसी तट पर रह जाएगा। उसमें अभी मनुष्य की हआ मालम पड़ेगा। वही आदमी भारत की यात्रा पर आएगा, वही किरण भी पैदा नहीं हुई। आदमी अमेरिका में एल एस डी लेता रहेगा। वह दोनों एक साथ मनुष्य के साथ ही उपद्रव शुरू होता है, मनुष्य के साथ ही संताप - कर रहा है। | शुरू होता है, क्योंकि मनुष्य के साथ ही परमात्मा होने की । मनुष्य बेहोश हो जाए, तो पशु हो सकता है। लेकिन बेहोश ज्यादा | संभावना, पोटेंशियलिटी के द्वार खुलते हैं। देर नहीं रहा जा सकता। बेहोशी के सुख भी होश में ही अनुभव हो | वह अर्जुन पशु होना नहीं चाहता; स्थिति पशु होने की है। पाते हैं। बेहोशी में बेहोशी का सुख भी अनुभव नहीं होता। शराब | परमात्मा होने का उसे पता नहीं है। बहुत गहरी अनजान में आकांक्षा का भी मजा, जब शराब पीए होता है आदमी, तब पता नहीं चलता। परमात्मा होने की ही है, इसीलिए वह पूछ रहा है; इसीलिए प्रश्न पता तो तभी चलता है, जब शराब का नशा उतर जाता है। नींद में | उठा रहा है। इसीलिए जिज्ञासा जगा रहा है। जिसके जीवन में भी जब आप होते हैं, तब नींद का कोई मजा पता नहीं चलता। वह सुबह प्रश्न हैं, जिसके जीवन में भी जिज्ञासा है, जिसके जीवन में भी जागकर पता चलता है कि बड़ी आनंदपूर्ण निद्रा थी। बेहोशी के सुख असंतोष है-उसके जीवन में धर्म आ सकता है। जिसके जीवन में के लिए होश में आना जरूरी है। और होश में कोई सुख नहीं मालूम नहीं है चिंता, नहीं है प्रश्न, नहीं है संदेह, नहीं है जिज्ञासा, नहीं है पड़ता, इसलिए फिर बेहोशी में उतरना पड़ता है। असंतोष-उसके जीवन में धर्म के आने की कोई सुविधा नहीं है। अर्जुन मनुष्य की चेतना है, इसलिए अदभुत है। गीता इसीलिए __जो बीज टूटेगा अंकुरित होने को, चिंता में पड़ेगा। बीज बहुत अदभुत है कि वह मनुष्य की बहुत आंतरिक मनःस्थिति का आधार | | मजबूत चीज है, अंकुर बहुत कमजोर होता है! बीज बड़ा निश्चित है। मनुष्य की आंतरिक मनःस्थिति अर्जुन के साथ कृष्ण का जो होता है, अंकुर बड़ी चिंता में पड़ जाता है। अंकुर निकलता है जमीन संघर्ष है पूरे समय, वह जो अर्जुन के साथ कृष्ण का संवाद है या से पत्थरों को तोड़कर। अंकुर जैसी कमजोर चीज पत्थरों को विवाद है, वह जो अर्जुन को खींच-खींचकर परमात्मा की तरफ | तोड़कर, मिट्टी को काटकर बाहर निकलती है, अज्ञात, अनजाने लाने की चेष्टा है, और अर्जुन वापस शिथिल-गात होकर बैठ जाता। | जगत में, जिसका कोई परिचय नहीं, कोई पहचान नहीं। कोई बच्चा है; वह फिर पशु में गिरना चाहता है; यह जो संघर्ष है, वह अर्जुन | तोड़ डालेगा; कोई पशु चर जाएगा; किसी के पैर के नीचे दबेगा! के लिए है, दुर्योधन के लिए नहीं। दुर्योधन निश्चित है। अर्जुन भी | क्या होगा, क्या नहीं होगा! बीज अपने में रहे, तो बहुत निश्चित वैसा हो तो निश्चित हो सकता है। वैसा नहीं है। है। न किसी बच्चे के पैर के नीचे दबेगा, न कोई अज्ञात के खतरे Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 हैं अपने में बंद है। दुर्योधन बीज में बंद जैसा व्यक्ति है, निश्चित है। अर्जुन अंकुरित है; अंकुर चिंतित है, अंकुर बेचैन है। क्या होगा ? फूल आएंगे कि नहीं? बीज होना छोड़ दिया, अब फूल आएंगे कि नहीं ? फूल के लिए, बढ़ने के लिए आतुर है। वही आतुरता उसे कृष्ण से निरंतर प्रश्न पुछवाए चली जाती है। इसलिए अर्जुन के मन में चिंता है, प्रश्न हैं, दुर्योधन के मन में नहीं । । प्रश्नः भगवान श्री कृपया यह बताइए कि 'मनुष्य सामने द्वंद्वात्मक दशा बार-बार आती रहती है, तो इस द्वंद्व भरी दशा को पार करने लिए मूल आधार कौन-सा होना चाहिए? और द्वंद्व भरी दशा को हम विकासोन्मुख किस तरह बना सकें? और यह जो द्वंद्व दशा होती है, उसमें से हमने जो अपना संकल्प कर लिया या निश्चय कर लिया, तो उसमें मूल चीज कौन सी होती है हमारे सामने ? अ र्जुन के लिए भी यही सवाल है । इस सवाल को आमतौर से आदमी जैसा हल करता है, वैसा ही अर्जुन भी करना चाहता है। द्वंद्व मनुष्य का स्वभाव है — मनुष्य का, आत्मा का नहीं, शरीर का नहीं – मनुष्य का द्वंद्व स्वभाव है। द्वंद्व को अगर जल्दबाजी से हल करने की कोशिश की, तो पशु की तरफ वापस लौट जाना रास्ता है। शीघ्रता की, तो पीछे लौट जाएंगे। वह परिचित रास्ता है; वहां वापस जाया जा सकता है । द्वंद्व से गुजरना ही तपश्चर्या है; धैर्य से द्वंद्व को झेलना ही तपश्चर्या है। और द्वंद्व को झेलकर ही व्यक्ति द्वंद्व के पार होता है। इसलिए कोई जल्दी से निश्चय कर ले, सिर्फ द्वंद्व को मिटाने के लिए, तो उसका निश्चय काम का नहीं है, वह नीचे गिर जाएगा; वह वापस गिर रहा है। पशु बहुत निश्चयात्मक है; पशुओं में डाउट नहीं है। बड़े निश्चय में जी रहे हैं; बड़े विश्वासी हैं; बड़े आस्तिक मालूम होते हैं। पर उनकी आस्तिकता आस्तिकता नहीं है। क्योंकि जिसने नास्तिकता नहीं जानी, उसकी आस्तिकता का अर्थ कितना है ? और जिसने नहीं कहने का कष्ट नहीं जाना, वह हां कहने के आनंद को 24 उपलब्ध नहीं हो सकता है। और जिसने संदेह नहीं किया, उसकी श्रद्धा दो कौड़ी की है। लेकिन जिसने संदेह किया और जो संदेह को जीया और संदेह के पार हुआ, उसकी श्रद्धा का कुछ बल है, उसकी श्रद्धा की कोई प्रामाणिकता है। में तो एक तो रास्ता यह है कि जल्दी कोई निश्चय कर लें। और निश्चय करने के बहुत रास्ते आदमी पकड़ लेता है। किसी शास्त्र को पकड़ ले, तो निश्चय हो जाएगा। शास्त्र निश्चय की भाषा बोल देगा कि ऐसा - ऐसा करो और विश्वास करो। जिसने शास्त्र पकड़कर निश्चय किया, उस आदमी ने अपने मनुष्य होने से इनकार कर दिया। उसे एक अवसर मिला था विकास का, उसने खो दिया। गुरु को पकड़ लो ! जिसने गुरु को पकड़ लिया, उसने अवसर खो दिया। एक संकट था, जिसमें बेसहारा गुजरने के लिए परमात्मा ने उसे छोड़ा था, उसने उस संकट से बचाव कर लिया। वह संकट से बिना गुजरे रह गया। और आग में गुजरता, तो सोना निखरता । वह आग में गुजरा ही नहीं, वह गुरु की आड़ में हो गया, तो सोना निखरेगा भी नहीं । निश्चय करने को आपसे नहीं कहता। आप निश्चय करोगे कैसे? जो आदमी द्वंद्व में है, उसका निश्चय भी द्वंद्व से भरा होगा। जब द्वंद्व में हैं, तो निश्चय करेंगे कैसे? द्वंद्व से भरा आदमी निश्चय नहीं कर सकता; करना भी नहीं चाहिए। द्वंद्व को जीएं, द्वंद्व में तपें, द्वंद्व में मरें और खपें, द्वंद्व को भोगें, द्वंद्व की आग से भागें मत। क्योंकि जो आग दिखाई पड़ रही है, उसी में कचरा जलेगा और सोना बचेगा । द्वंद्व से गुजरें; द्वंद्व को नियति समझें। वह मनुष्य की डेस्टिनी है, वह उसका भाग्य है। उससे गुजरना ही होगा। उसे जीएं। जल्दी न करें। निश्चय जल्दी न करें। हां, द्वंद्व से गुजरें, तो निश्चय आएगा । द्वंद्व से गुजरें, तो श्रद्धा | आएगी, लानी नहीं पड़ेगी। लाई गई श्रद्धा का कोई भी मूल्य नहीं |है। क्योंकि जो श्रद्धा लानी पड़ी है, उसका मतलब ही है कि अभी आने के योग्य मन न बना था; जल्दी ले आए। जो श्रद्धा बनानी पड़ी है, उसका अर्थ ही है पीछे द्वंद्वग्रस्त मन है। वह भीतर जिंदा रहेगा, ऊपर से पर्त श्रद्धा की हो जाएगी। वह ऊपर-ऊपर काम देगी, समय पर काम नहीं देगी। जब कठिन समय होगा, मौत सामने खड़ी होगी। तो बहुत पक्का विश्वास कर लिया था कि आत्मा अमर है; जब गीता पढ़ते थे, तब पक्का विश्वास रहा था। जब रोज सुबह मंदिर जाते थे, तब पक्का था कि आत्मा अमर है। और जब डाक्टर पास खड़ा हो जाएगा, Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sim+ अर्जुन के विषाद का मनोविश्लेषण - और उसका चेहरा उदास दिखाई पड़ेगा, और घर के लोग इसके दो परिणाम होंगे। जैसे ही कोई व्यक्ति अपने चित्त के द्वंद्व भागने-दौड़ने लगेंगे, और नाड़ी की गति गिरने लगेगी, तब में पूरी तरह उतरने को राजी हो जाता है, वैसे ही उस व्यक्ति के अचानक पता चलेगा कि पता नहीं, आत्मा अमर है या नहीं! भीतर एक तीसरा बिंदु भी पैदा हो जाता है, दो के अलावा तीसरी क्योंकि लाख कहें गीताएं, उनके कहने से आत्मा अमर नहीं हो | | ताकत भी पैदा हो जाती है। जैसे ही कोई व्यक्ति अपने द्वंद्व को जीने सकती। आत्मा अमर है, इसलिए वे कहती हैं, यह दूसरी बात है। के लिए राजी होता है, वैसे ही उसके भीतर दो नहीं, तीन शुरू हो लेकिन उनके कहने से आत्मा अमर नहीं हो सकती। और आप | जाते हैं। दि थर्ड फोर्स, वह जो निर्णय करती है कि जीएंगे द्वंद्व को, किसी को मान लें, इससे कुछ होने वाला नहीं है। हां, द्वंद्व से गुजरें, वह द्वंद्व के बाहर है; वह द्वंद्व के भीतर नहीं है। पीड़ा को झेलें, वह अवसर है; उससे बचने की कोशिश मत करें। । मैंने सुना है, सेंट थेरेसा एक ईसाई फकीर औरत हुई है। उसके अर्जुन भी बचने की कोशिश कर रहा है। लेकिन कृष्ण उसे | | पास तीन पैसे थे। और एक दिन सुबह उसने गांव में कहा कि मैं बचाने की कोशिश नहीं कर रहे; वे पूरे द्वंद्व को खींचते हैं। अन्यथा | एक बड़ा चर्च बनाना चाहती हूं। मेरे पास काफी पैसे आ गए हैं। कृष्ण कहते कि बेफिक्र रहो, मैं सब जानता हूं। बेकार की बातचीत लोग हैरान हुए, क्योंकि कल भी उसको लोगों ने भीख मांगते देखा मत कर। मुझ पर श्रद्धा रख और कूद जा, ऐसा भी कह सकते थे। | था। लोगों ने पूछा कि इतने पैसे अचानक कहां से आ गए, जिससे इतनी लंबी गीता कहने की जरूरत न थी। बड़ा चर्च बनाने का खयाल है? उसने अपना भिक्षापात्र दिखाया, . इतनी लंबी गीता अर्जुन के द्वंद्व के प्रति बड़ा सम्मान है। और उसमें तीन पैसे थे। लोगों ने कहा, पागल तो नहीं हो गई थेरेसा! मजा है कि अर्जुन बार-बार वही पूछता है। और कृष्ण हैं कि यह | वैसे हम पहले ही सोचते थे कि तेरा दिमाग कुछ गड़बड़ है! नहीं कहते कि यह तो तू पूछ चुका! फिर वही पूछता है। फिर वही | | असल में भगवान की तरफ जो लोग जाते हैं, उनका दिमाग पूछता है। सारे के सारे, पूरे के पूरे प्रश्न अर्जुन के अलग-अलग | उनको थोड़ा गड़बड़ दिखाई पड़ता ही है, जो नहीं जाते हैं। नहीं हैं। सिर्फ शब्दावली अलग है। बात वह वही पूछ रहा है। | हम पहले ही सोचते थे कि तेरा दिमाग कुछ न कुछ ढीला है। उसका द्वंद्व बार-बार लौट आ रहा है। कृष्ण उससे यह नहीं कहते तीन पैसे से चर्च बनाएगी? थेरेसा ने कहा, मैं हूं, तीन पैसे हैं और कि चुप, अश्रद्धा करता है! चुप, अविश्वास करता है! अर्जुन परमात्मा भी है। थेरेसा + तीन पैसे + परमात्मा। उन सबने कहा, पूछता है वही-वही दोहरा-दोहराकर। उसका द्वंद्व ही बार-बार वह परमात्मा कहां है? तो थेरेसा ने कहा कि वह थर्ड फोर्स है, वह नए-नए रूप-लेकर खड़ा हो जाता है। तीसरी शक्ति है; वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ेगी; क्योंकि अभी तुम कृष्ण उसे विश्वास दिलाने को उत्सुक नहीं हैं। कृष्ण उसे श्रद्धा अपने भीतर तीसरी शक्ति को नहीं खोज सके हो। तक पहुंचाने को जरूर उत्सुक हैं। और विश्वास और श्रद्धा में बड़ा जो व्यक्ति अपने भीतर तीसरी शक्ति को खोज लेता है, वह इस फर्क है। विश्वास वह है, जो हम संदेह को हल किए बिना ऊपर सारे जगत में भी तीसरी शक्ति को तत्काल देखने में समर्थ हो जाता से आरोपित कर लेते हैं। श्रद्धा वह है, जो संदेह के गिर जाने से | है। आप द्वंद्व को ही देख रहे हैं, लेकिन यह खयाल नहीं है कि जो फलित होती है। श्रद्धा, संदेह की ही यात्रा से मिली मंजिल है। द्वंद्व को देख रहा है और समझ रहा है, वह द्वंद्व में नहीं हो सकता; विश्वास, संदेह के भय से पकड़ लिए गए अंधे आधार हैं। | वह द्वंद्व के बाहर ही होगा। अगर दो लड़ रहे हैं आपके भीतर, तो तो मैं कहूंगा, जीएं द्वंद्व को, तीव्रता से जीएं, इंटेंसिटी से जीएं। निश्चित ही आप उन दोनों के बाहर हैं, अन्यथा देखेंगे कैसे? अगर धीरे-धीरे जीएंगे, तो बहुत समय लगेगा। कुनकुनी आंच में डाल | | उन दोनों में से एक से जुड़े होते, तब तो एक से आपका तादात्म्य देंगे सोने को, तो निखरने में जन्म लग सकते हैं। तीव्रता से जीएं। | हो गया होता और दूसरे से आप अलग हो गए होते। द्वंद्व मनुष्य का अनिवार्य परीक्षण है, जिससे वह परमात्मा तक | लेकिन आप कहते हैं, द्वंद्व हो रहा है, मेरे बाएं और दाएं हाथ पहुंचने की योग्यता का निर्णय दे पाता है। जीएं, भागें मत। एस्केप | | लड़ रहे हैं। मेरे बाएं और दाएं हाथ लड़ पाते हैं, क्योंकि इन बाएं न करें, कंसोलेशंस मत खोजें, सांत्वनाएं मत बनाएं। जानें कि यही और दाएं हाथ के पीछे मैं एक तीसरी ताकत हूं। अगर मैं बायां हाथ है नियति; द्वंद्व है। लड़ें, तीव्रता से उतरें इस द्वंद्व में। क्या होगा | | हूं, तो दाएं हाथ से मेरा क्या आंतरिक द्वंद्व है? वह पराया हो गया। इसका परिणाम? अगर मैं दायां हाथ नहीं बायां हाथ हूं, तो दायां हाथ पराया हो गया, 25 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mगीता दर्शन भाग-1 AM टन से द्वंद्व आंतरिक द्वंद्व कहां है? एक्झिस्टेंशियल ही थी। सार्च, कामू या उनामुनो या जेस्पर या आंतरिक द्वंद्व इसीलिए है कि एक तीसरा भी है, जो देख रहा है। हाइडेगर, पश्चिम में जो भी अस्तित्ववादी विचारक हैं, वे ठीक जो कह रहा है कि मन में बड़ा द्वंद्व है। मन कभी यह कहता है, मन अर्जुन की मनःस्थिति में हैं। इसलिए सावधान रहना, पश्चिम में कभी वह कहता है। लेकिन जो मन के द्वंद्व के संबंध में कह रहा | | कृष्ण पैदा हो सकते हैं। क्योंकि जहां अर्जुन की मनःस्थिति हो, वहां है, यह कौन है? कृष्ण के पैदा होने की संभावना हो जाती है। पूरा पश्चिम द्वंद्व में उतरें और इस तीसरे को पहचानते जाएं। जैसे-जैसे द्वंद्व | | एक्झिस्टेंशियल क्राइसिस में है। पूरे पश्चिम के सामने मनुष्य की में उतरेंगे, यह तीसरा साक्षी, यह विटनेस दिखाई पड़ना शुरू हो | चिंतातुरता एकमात्र सत्य होकर खड़ी हो गई है। क्या करें और क्या जाएगा। और जिस दिन यह तीसरा दिखाई प न करें? ईदर ऑर, यह या वह? क्या चुनें, क्या न चुनें? कौन-सा विदा होने शुरू हो जाएंगे। तीसरा नहीं दिखाई पड़ता, इसलिए द्वंद्व | | मूल्य चुनने योग्य है, कौन-सा मूल्य चुनने योग्य नहीं है-सब है। तीसरा दिखाई पड़ता है, तो जोड़ शुरू हो जाता है। संदिग्ध हो गया है। पर द्वंद्व से भागे मत। द्वंद्व की प्रक्रिया अनिवार्य है। उससे ही और ध्यान रहे कि पश्चिम में भी यह जो अस्तित्ववादी चिंतन गुजरकर, वह जो द्वंद्व के पार है, ट्रांसेंडेंटल है, उसे पाया जाता है। पैदा हुआ, यह दो युद्धों के बीच में पैदा हुआ है। सार्च या कामू या पूरी गीता उस तीसरे बिंदु पर ही खींचने की कोशिश है अर्जुन उनामुनो पिछले दो महायुद्धों की परिणति हैं। पिछले दो महायुद्धों को, पूरे समय अर्जुन को खींचने की चेष्टा कृष्ण की यही है कि वह ने पश्चिम के चित्त में भी वह स्थिति खड़ी कर दी है, जो अर्जुन के तीसरे को पहचान ले। वह तीसरे को पहचान ले, तीसरे की पहचान | चित्त में महाभारत के सामने खड़ी हो गई थी। विगत दो युद्धों ने के लिए सारा श्रम है। वह तीसरा सबके भीतर है और सबके बाहर | पश्चिम के सारे मूल्य डगमगा दिए हैं। और अब सवाल यह है कि भी है। लेकिन जब तक भीतर न दिखाई पड़े, तब तक बाहर दिखाई | लड़ना कि नहीं लड़ना? लड़ने से क्या होगा? और ठीक स्थिति नहीं पड़ सकता है। भीतर दिखाई पड़े, तो बाहर वही-वही दिखाई | | वैसी है कि अपने सब मर जाएंगे, तो लड़ने का क्या अर्थ है! और पड़ने लगता है। जब युद्ध की इतनी विकट स्थिति खड़ी हो जाए, तो शांति के समय | में बनाए गए सब नियम संदिग्ध हो जाएं तो आश्चर्य नहीं है। यह . ठीक सवाल उठाया है। प्रश्नः भगवान श्री, आपने धनंजय को सिंबल आफ सार्च ठीक अर्जुन की मनःस्थिति में है। खतरा दूसरा है। सार्च की ह्यूमन एट्रिब्यूट, मानवीय गुणों का प्रतीक बताया है। | मनःस्थिति से खतरा नहीं है। सार्च अर्जुन की मनःस्थिति में है, और सार्च के कथन से, ही इज़ कंडेम्ड टु बी एंग्जाइटी | लेकिन समझ रहा है, कृष्ण की मनःस्थिति में है। खतरा वहां है। है रिडेन। तो स्वजनों की हत्या के खयाल से धनंजय का | अर्जुन की मनःस्थिति में। जिज्ञासा करे, ठीक है। प्रश्न पूछे, ठीक कंप जाना क्या मानवीय नहीं था? युद्धनिवृत्ति का | है। वह उत्तर दे रहा है। खतरा वहां है। खतरा यहां है कि सार्च उसका विचार मोहवशात भी क्या प्रकृति-संगत नहीं | जिज्ञासा नहीं कर रहा है। सार्च पूछ नहीं रहा कि क्या है ठीक। सार्च था? शेक्सपियर के हेमलेट की तरह अर्जुन का विषाद | उत्तर दे रहा है कि कुछ भी ठीक नहीं है। सार्च उत्तर दे रहा है कि भी, टु किल आर नाट टु किल, मारना या न मारना | कुछ भी ठीक नहीं है, कोई मूल्य नहीं है। अस्तित्व अर्थहीन है, प्रकार का था। तिलक ने गीता-रहस्य में अर्जुन की मीनिंगलेस है। विषाद दशा का साम्य हेमलेट की मनःस्थिति में ढूंढ़ यह जो उत्तर दे रहा है कि ईश्वर नहीं है जगत में, आत्मा नहीं है निकाला, क्या यह उचित है? जगत में, मृत्यु के बाद बचना नहीं है जगत में, सारा का सारा अस्तित्व एक अव्यवस्था है, एक अनार्की है, एक संयोग-जन्य घटना है, इसमें कोई सार नहीं है कहीं भी। यह उत्तर दे रहा है। यहां मात्र जो कहता है, वह अर्जुन लिए बिलकुल ठीक ही | खतरा है। राा कहता है। अर्जुन की भी संकट-अवस्था । अर्जुन भी उत्तर दे सकता था। लेकिन अर्जुन सिर्फ जिज्ञासा कर Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9- अर्जुन के विषाद का मनोविश्लेषण Am रहा है। अगर अर्जुन उत्तर दे, तो खतरे पैदा होंगे। लेकिन अर्जुन | | उतना साहसी नहीं है। असल में कई बार ऐसा होता है कि अंधेरी जिज्ञासा कर रहा है। और मैं मानता हूं कि जिसे दिखाई पड़ता | गली में आदमी निकलता है, तो सीटी बजाता हुआ निकलता है। हो—जैसा सार्च को दिखाई पड़ता है कि कोई मूल्य नहीं है, एक | | सीटी बड़ी साहसी मालूम पड़ती है आस-पास सोए हुए लोगों को। वैल्युलेसनेस है-जिसे दिखाई पड़ता है कि कोई अर्थ नहीं, कोई | | लेकिन सीटी बजाने से साहस पता नहीं चलता, उससे सिर्फ इतना प्रयोजन नहीं। अगर सच में ही ऐसा दिखाई पड़ता है, तब तो सार्च | | ही पता चलता है कि आदमी डर रहा है। वह सीटी साहस का सबूत को कुछ कहने का भी अर्थ नहीं है। चुप हो जाना चाहिए। ऐसी | नहीं होती। वह सिर्फ भय को छिपाने की चेष्टा होती है। स्थिति में मौन ही सार्थक मालूम पड़ सकता है। व्यर्थ है सारी बात। | वह जो केआस, जो अराजकता पश्चिम के सामने दो महायुद्धों नहीं, लेकिन सार्च मौन नहीं है। आतुर है कहने को, समझाने | | ने प्रकट कर दी है, वह जो नीचे से एक बवंडर प्रकट हुआ है और को, जो कह रहा है उससे दूसरों को राजी करने को। तब डर होता | भूमि फट गई है, और एक ज्वालामुखी ने मुंह बा दिया है पश्चिम है। तब डर यह होता है कि सार्च भी भीतर असंदिग्ध नहीं है कि जो | के सामने, उस ज्वालामुखी को झुठलाने की कोशिश चल रही है। कह रहा है वह ठीक है। शायद सार्च दूसरों को समझाकर दूसरों के है ही नहीं जीवन में कोई अर्थ, इसलिए अनर्थ से डरने की चेहरे पर यह देखने को उत्सुक है कि कहीं उनको अगर ठीक लगती | | जरूरत क्या है! है ही नहीं कोई मूल्य, इसलिए मूल्य की खोज की हो यह बात. तो ठीक होगी। मैं भी फिर ठीक मान लं। चिंता भी क्या करनी है! है ही नहीं कोई परमात्मा, तो प्रार्थना करने .. सात्र जिज्ञासा करे, वहां तक ठीक है। लेकिन पश्चिम में | | से क्या फायदा है! है ही नहीं कोई आशा, इसलिए निराशा में भी एक्झिस्टेंशियलिस्ट विचारक जिज्ञासा को उत्तर बना रहे हैं। और जब चिंतित होने की कोई जरूरत नहीं है! जिज्ञासा उत्तर बनती है, और जब शिष्य गुरु हो जाता है, और जब । निराशा में भी निश्चितता खोजने की चेष्टा, सिर्फ इस बात की पूछना ही बताना बन जाता है, तब एक क्राइसिस आफ वैल्यूज पैदा | सूचक है कि हृदय बहुत कमजोर है और साहस कम है। असल में होती है, जो कि पश्चिम में पैदा हुई है। सब अस्तव्यस्त हो गया है। | आशा जब तीव्र निराशा में पड़ती है, तभी पता चलता है कि है या सब अस्तव्यस्त हो गया है। उस अस्तव्यस्तता में कहीं कोई राह नहीं | | नहीं। और जब गहन अंधकार में ज्योति को खोजने की चेष्टा चलती दिखाई पड़ती। नहीं दिखाई पड़ती, इसलिए नहीं कि राह नहीं है, राह | है, तभी पता चलता है कि प्रकाश की कोई आकांक्षा, गहरा साहस, तो सदा है। लेकिन अगर हम यह मान ही लें कि राह है ही नहीं, यही गहरी लगन और गहरे संकल्प से जुड़ी है या नहीं जुड़ी है। हमारा उत्तर बन जाए, तो फिर राह दिखाई पड़नी असंभव है। __पश्चिम की सार्त्रवादी चिंतना निराशा को स्वीकार कर लेने की है। अर्जुन यह नहीं मानता। अर्जुन बड़ी जिज्ञासा कर रहा है कि राह निराशा है। इससे पश्चिम उबरेगा नहीं। इसलिए एक्झिस्टेंशियलिज्म होगी। मैं खोजता हूं, मैं पूछता हूं, आप मुझे बताएं। वह कृष्ण को | और उस तरह के विचारक सिर्फ एक फैशन से ज्यादा नहीं हैं। और कह रहा है, आप मुझे बताएं, आप मुझे समझाएं। मैं अज्ञानी हूं, | फैशन मरनी शुरू हो गई है, फैशन मर रही है। अब अस्तित्ववाद मुझे कुछ पता नहीं है। विनम्र है। अर्जुन का अज्ञान विनम्र है, सार्च | | कोई बहुत जीवित धारणा नहीं है। बच्चे पश्चिम के उसको भी इनकार का अज्ञान विनम्र नहीं है। सार्च का अज्ञान बहुत असर्टिव है। खतरा | कर रहे हैं, वह भी ओल्ड फैशन हो गई है। छोड़ो यह बकवास भी! है। और जब अज्ञान असर्टिव होता है, जब अज्ञान मुखर होता है, __ लेकिन सार्च की पीढ़ी ने जो निराशा दी है, उसका दुष्परिणाम तो जितने खतरे होते हैं, उतने खतरे और किसी बात से नहीं होते।। आने वाली पीढ़ी पर दिखाई पड़ रहा है। वह पीढ़ी कहती है कि ठीक लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि अज्ञान मुखर होता है। | है, हम सड़क पर नंगे नाचेंगे; क्योंकि तुम्हीं ने तो कहा कि कोई __ अर्जुन पूछ रहा है। वह कहता है, मुझे पता नहीं है। मैं संदेह में | | अर्थ नहीं है, तो फिर कपड़े पहनने में ही कौन-सा अर्थ है! तो हम पड़ गया हूं। मैं डूबा जा रहा हूं संकट में, मुझे कोई मार्ग दें। लेकिन | | फिर किसी भी तरह के काम-संबंध निर्मित करेंगे; क्योंकि तुम्हीं ने मार्ग हो सकता है, इसकी उसकी खोज जारी है। तो कहा है कि कोई अर्थ नहीं है, तो परिवार का भी क्या अर्थ है! मैं मानता हूं कि अर्जुन सार्च से ज्यादा साहसी है। क्योंकि इतनी | । | फिर हम किसी को आदर नहीं देंगे; क्योंकि तुम्हीं ने तो कहा है कि गहन निराशा में भी मार्ग की खोज बड़े साहस की बात है। सार्च | | जब ईश्वर ही नहीं है, तो आदर का क्या अर्थ है! और हम कल की उतना साहसी नहीं है। उसके वक्तव्य बहुत साहसी मालूम पड़ते हैं, चिंता न करेंगे। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m गीता दर्शन भाग-1 AM आज अमेरिका और यूरोप की युनिवर्सिटीज लड़के खाली करके | नहीं है। यह आकस्मिक नहीं है। इस जगत में आकस्मिक कुछ भी भाग रहे हैं। उनसे कहते हैं उनके मां-बाप कि पढ़ो, तो वे कहते हैं, नहीं होता। इस जगत में फूल भी खिलता है, तो लंबे कारण होते कल का क्या भरोसा? तुम्हीं ने तो कहा है कि सब अनिश्चित है, | हैं। अगर लंदन की सड़क पर कोई हरेकृष्ण का भजन ढोल पर -लिखकर भी क्या होगा? और वे लड़के पूछते हैं कि पीटता हआ घमता है, तो यह आकस्मिक नहीं है। यह पश्चिम के हिरोशिमा में भी लड़के पढ़ रहे थे कालेज में, फिर एटम गिर गया | | चित्त में कहीं कोई गहरी पीड़ा है। और सब समाप्त हो गया। हम भी पढ़ेंगे, तुम एटम तैयार कर रहे | ___ अर्जुन तो मौजूद हो गया, कृष्ण कहां हैं ? प्रश्न तो खड़ा हो गया, हो, किस दिन गिरा दोगे, कुछ पता नहीं है। तो हमें जी लेने दो, जो उत्तर कहां है? उत्तर की तलाश है; उत्तर की तलाश पैदा हुई है। दो-चार क्षण हमें मिले हैं, हमें जी लेने दो। | इसलिए ठीक सवाल था यह। तो पश्चिम में जो जीवन का एक विस्तार है टाइम में, समय में । लेकिन मैं अर्जुन को मनुष्य का प्रतीक कहता हूं। और अर्जुन को जो एक जीवन की यात्रा है, वह एकदम खंडित हो गई है। क्षण पर जो ममत्व पकड़ा, वह भी मनुष्य की मनुष्यता है। लेकिन नीत्से का टिक गया है; अभी जो है, कर लो; अगले क्षण का कोई भरोसा एक वचन आपसे कहूं। नीत्से ने कहा है, अभागा होगा वह दिन, नहीं है। और अगले क्षण के भरोसे को करोगे भी क्या? अंततः तो जिस दिन मनुष्य मनुष्य से पार होने की आकांक्षा छोड़ देगा। मृत्य ही है; अगला क्षण मृत्य है। टाइम जो है, वह डेथ का अभागा होगा वह दिन, जिस दिन मनुष्य की प्रत्यंचा पर मनुष्य को पर्यायवाची हो गया पश्चिम में; समय और मृत्यु एक ही अर्थ के | पार करने वाला तीर न खिंचेगा। अभागा होगा वह दिन, जिस दिन हो गए। अभी जो है, है; और कोई मूल्य नहीं है। | मनुष्य मनुष्य होने से तृप्त हो जाएगा। मनुष्य मंजिल नहीं है, पड़ाव अभी एक व्यक्ति ने कई हत्याएं कीं। और जब अदालत ने उससे | है। उसे पार होना ही है। अर्जुन मंजिल नहीं है, पड़ाव है। पूछा तो उसने कहा, क्या हर्ज है! जब सभी को मर ही जाना है, तो | | स्वाभाविक है आदमी के लिए, अपनों को चाहे। स्वाभाविक है मैंने मरने में सहायता की है। और वे तो मर ही जाते; उनको मारने | | आदमी के लिए, अपनों को मारने से डरे। स्वाभाविक है आदमी से मुझे थोड़ा आनंद मिला है! उसके ले लेने में हर्ज क्या है? जब | | के लिए, ईदर-ऑर पकड़े-यह या वह, करूं या न करूं–चिंता कोई मूल्य ही नहीं है, तो ठीक है। आए। लेकिन जो मनुष्य के लिए स्वाभाविक है, वह जीवन का अंत , सार्च की पीढ़ी पश्चिम को एक खोखलेपन से, एक हालोनेस से नहीं है। और मनुष्य के लिए जो स्वाभाविक है, वह सिर्फ मनुष्य भर गई। क्योंकि उसके पास उत्तर नहीं थे, सिर्फ प्रश्न थे। और के लिए स्वाभाविक है। और उस स्वभाव में चिंता और पीड़ा और उसने प्रश्नों को ही उत्तर बता दिया। | तनाव भी जुड़े हैं; अशांति, दुख और विक्षिप्तता भी जुड़ी है। अगर अर्जुन जीत जाए, तो इस मुल्क में भी हालोनेस पैदा हो मनुष्य को अगर हम स्वाभाविक समझें, तो वह स्वाभाविकता जाए। अर्जुन नहीं जीता और कृष्ण जीत गए। वह एक संघर्ष था | | वैसी ही है, जैसे कैंसर स्वाभाविक है, टी.बी. स्वाभाविक है। बड़ा अर्जुन और कृष्ण के बीच। अगर अर्जुन को शक सवार हो | | लेकिन टी.बी. के स्वभाव के साथ पीड़ा भी जुड़ी है। ऐसे ही मनुष्य जाए, और धुन सवार हो जाए गुरु होने की, और वह अपनी | को अगर हम पशु की तरफ से देखें, तो मनुष्य एक एवोल्यूशन है, जिज्ञासाओं को उत्तर बना दे, और अपने प्रश्नों को उत्तर बना दे, | | एक विकास है; और अगर परमात्मा की तरफ से देखें, तो एक और अपने अज्ञान को ज्ञान मान ले, तो इस मुल्क में भी वही स्थिति | | डिसीज है, एक बीमारी है। अगर हम पशु की तरफ से देखें, तो पैदा हो जाती, जो पश्चिम में अस्तित्ववादी चिंतन के कारण पैदा | मनुष्य एक विकास है; और अगर परमात्मा की तरफ से देखें, तो हुई है। स्थिति वही है, लेकिन पश्चिम के पास अभी भी कृष्ण नहीं | मनुष्य एक बीमारी है, एक डिसीज है। हैं। लेकिन इस सिचुएशन में कृष्ण पश्चिम में पैदा हो सकते हैं। | यह अंग्रेजी का शब्द डिसीज बहुत अच्छा है। यह दो शब्दों से और इसलिए बहुत आश्चर्य की बात नहीं है कि कृष्ण- बना है-डिस, ईज। उसका सिर्फ मतलब होता है बेचैनी, नाट ऐट कांशसनेस जैसे आंदोलन पश्चिम के मन को पकड़ रहे हैं। कोई | | ईज। तो आदमी एक डिसीज है, एक बेचैनी है, अगर परमात्मा की आश्चर्य नहीं है कि पश्चिम की सड़कों पर लड़के और लड़कियां | तरफ से देखें। ढोल पीटकर और कृष्ण का भजन कर रहे हैं। यह कोई आश्चर्य | और अगर पशु भी हमारे संबंध में सोचते होंगे, तो वे भी नहीं Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अर्जुन के विषाद का मनोविश्लेषण - . सोचते होंगे कि हम विकास हैं। वे भी सोचते होंगे कि हमारे बीच खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूं। और हे केशव! लक्षणों से कुछ लोग गड़बड़ हो गए हैं, विक्षिप्त हो गए हैं; इनका दिमाग को भी विपरीत ही देखता हूं तथा युद्ध में अपने कुल को खराब हो गया है। सिवाय परेशानी के...क्योंकि जब कोई पशु मारकर कल्याण भी नहीं देखता । हे कृष्ण! मैं विजय को देखता होगा कि आदमी साइकियाट्रिस्ट के दफ्तर में जाता है, नहीं चाहता और राज्य तथा सुखों को भी नहीं चाहता। आदमी मनोवैज्ञानिक के पास अपने मन की जांच के लिए जाता है; हे गोविंद! हमें राज्य से क्या प्रयोजन है, जब देखते होंगे आदमी पागलखाने खड़े करता है; और जब देखते अथवा भोगों से और जीवन से भी क्या प्रयोजन है। होंगे कि यह आदमी दिन-रात चिंता में जीता है, तो पशु भी कभी सोचते होंगे। कभी न कभी उनकी जमात बैठती होगी और वे सोचते होंगे कि इन बेचारों को कितना समझाया था कि मत आदमी बनो। 27 र्जुन के अंग शिथिल हो गए हैं। मन साथ छोड़ दिया नहीं माने हैं, और फल भोग रहे हैं! जैसा कि पिता अक्सर बेटों के ग है। धनुष छूट गया है। वह इतना कमजोर मालूम पड़ संबंध में सोचते हैं।. रहा है कि कहता है, रथ पर मैं बैठ भी सकूँगा या नहीं, पशु पिता हैं, हम उसी यात्रा से आते हैं। जरूर सोचते होंगे कि | इतनी भी सामर्थ्य नहीं है। यहां दो-तीन बातें समझनी जरूरी हैं। कितना समझाया, लेकिन बिगड़ गई है यह जेनरेशन, यह पीढ़ी | ___ एक तो यह कि शरीर केवल हमारे चित्त का प्रतिफलन है। गहरे भटक गई। लेकिन उन्हें पता नहीं कि इस भटकाव से संभावनाएं | | में मन में जो घटित होता है, वह शरीर के रोएं-रोएं तक फलित हो खुल गई हैं। इस भटकाव से एक बड़ी यात्रा खुली है। जाता है। यह अर्जुन बलशाली इतना, अचानक ऐसा बलहीन हो स्वभावतः, जो घर बैठा है, वह उतना परेशान नहीं होता। जो | | गया कि रथ पर बैठना उसे कठिन मालूम पड़ रहा है! क्षणभर पहले यात्रा पर निकला है, वह परेशान होता है। राह की धूल भी है, राह | | ऐसा नहीं था। इस क्षणभर में वह बीमार नहीं हो गया। इस क्षणभर के गड्ढे भी हैं, राह की भूलें भी हैं, राह पर भटकन भी है। अनजान | | में उसके शरीर में कोई अशक्ति नहीं आ गई। इस क्षणभर में वह रास्ता है, पास कोई नक्शा नहीं। अनचार्टर्ड है, खोजना है और | | वृद्ध नहीं हो गया। इस क्षणभर में क्या हुआ है? चलना है; चलना है और रास्ता बनाना है। लेकिन जो चलेंगे, | इस क्षण में एक ही घटना घटी है. उसका मन क्षीण हो गया: भूलेंगे, भटकेंगे, गिरेंगे, दुखी होंगे, वे ही पहुंचते भी हैं। | उसका मन दुर्बल हो गया; उसका मन स्व-विरोधी खंडों में अर्जुन स्वाभाविक है मनुष्य के लिए। लेकिन अर्जुन खुद पीड़ा | विभाजित हो गया। जहां मन विभाजित होता है विरोधी खंडों में, से भरा है। वह भी मनुष्य होने की इच्छा में नहीं है। वह कहता है | | तत्काल शरीर रुग्ण, दीन हो जाता है। जहां मन संयुक्त होता है एक या तो दुर्योधन हो जाए, या तो कोई समझा दे कि जो हो रहा है, सब | | संगीतपूर्ण स्वर में, वहां शरीर तत्काल स्वस्थ और अविभाजित हो ठीक है। या कोई ऊपर उठा दे अर्जुन होने से। उसकी चिंता, उसका | | जाता है। उसके धनुष का गिर जाना, उसके हाथ-पैर का कंपना, दुख, उसकी पीड़ा वही है। उसके रोओं का खड़ा हो जाना, सूचक है। इस बात का सूचक है कि शरीर हमारे मन की छाया से ज्यादा नहीं है। नहीं, पहले ऐसा खयाल नहीं था। वैज्ञानिक कहते रहे हैं कि मन गाण्डीवं संसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते । हमारा शरीर की छाया से ज्यादा नहीं है। जो इस भ्रांत-चिंतन को न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः । ।३०।। मानकर सोचते रहे, वे लोग भी यही कहते रहे हैं। बृहस्पति भी यही निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव । कहेंगे, एपिकुरस भी यही कहेगा, कार्ल मार्क्स और एंजिल्स भी न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।३१।। यही कहेंगे, कि वह जो चेतना है, वह केवल बाई-प्राडक्ट है। वह __ न कांक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च । जो भीतर मन है, वह केवल हमारे शरीर की उप-उत्पत्ति है; वह किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैजीवितेन वा ।। ३२ ।। केवल शरीर की छाया है। तथा हाथ से गांडीव धनुष गिरता है और त्वचा भी बहुत अभी अमेरिका में दो मनोवैज्ञानिक थे, जेम्स और लेंगे। उन्होंने जलती है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है। इसलिए मैं | एक बहुत अदभुत सिद्धांत प्रतिपादित किया था, और वर्षों तक Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Im गीता दर्शन भाग-1 - स्वीकार किया जाता रहा। जेम्स-लेंगे थियरी उनके सिद्धांत का नाम रहा है; बिलकुल उलटा काम कर रहा है। जेम्स-लेंगे इसको था। बड़ी मजे की बात उन्होंने कही थी। उन दोनों ने यह सिद्ध करने बिलकुल मानने को राजी नहीं होंगे; कहेंगे, बिलकुल उलटी बातें की कोशिश की थी कि सदा से हम ऐसा समझते रहे हैं कि आदमी कर रहा है। इसे कहना चाहिए कि चूंकि मेरा धनुष गिरा जाता है, भयभीत होता है, इसलिए भागता है। उन्होंने कहा, नहीं, यह गलत चूंकि मेरे रोएं खड़े हुए जाते हैं, चूंकि मेरा शरीर शिथिल हुआ जाता है। क्योंकि अगर शरीर प्रमुख है और मन केवल उप-उत्पत्ति है, तो है, क्योंकि मेरे अंग निढाल हुए जाते हैं, इसलिए हे केशव! मेरे मन सच्चाई उलटी होनी चाहिए। उन्होंने कहा, मनुष्य चूंकि भागता है, में बड़ी चिंता पैदा हो रही है। इसलिए भय अनुभव करता है। लेकिन यह ऐसा नहीं कह रहा है। चिंता इसे पहले पैदा हो गई हम सोचते रहे हैं सदा से कि आदमी क्रोधित होता है, इसलिए है। क्योंकि इसके शरीर के शिथिल होने और इसके रोएं खड़े होने मद्रियां भिंच जाती हैं: क्रोधित होता है. इसलिए दांत भिंच जाते हैं: का और कोई भी कारण नहीं है बाहर कोई भी कारण नहीं है। एक क्रोधित होता है इसलिए आंखों में खून दौड़ जाता है; क्रोधित होता क्षण में बाहर कुछ भी नहीं बदला है। बाहर सब वही है; लेकिन है, इसलिए श्वास तेजी से चलने लगती है और हमले की तैयारी भीतर सब बदल गया है। भीतर सब बदल गया है। हो जाती है। तिब्बत में ल्हासा युनिवर्सिटी में विद्यार्थियों का भी शिक्षण जो जेम्स-लेंगे ने कहा, गलत है यह बात। क्योंकि शरीर प्रमुख है, होता था, उसमें भी योग का कुछ वर्ग अनिवार्य था। और एक योग इसलिए घटना पहले शरीर पर घटेगी, मन में केवल प्रतिफलन का नियमित प्रयोग ल्हासा युनिवर्सिटी में चलता था। उसमें भी होगा। मन सिर्फ एक मिरर है, एक दर्पण! इससे ज्यादा नहीं। | विद्यार्थियों को उत्तीर्ण होना जरूरी था। और वह था हीट-योग। वह इसलिए उन्होंने कहा कि नहीं, बात उलटी है। आदमी चूंकि मुट्ठियां | | है शरीर में भीतर से मन के कारण गर्मी पैदा करने की प्रक्रिया। भींच लेता है और आदमी चूंकि दांत कस लेता है और चूंकि शरीर | अजीब! सिर्फ मन से! सिर्फ मन से। बाहर बर्फ पड़ रही है; और में खून तेजी से दौड़ता है, श्वास तेज चलती है, इसलिए क्रोध पैदा आदमी नग्न खड़ा है, और उसके शरीर से पसीना चू रहा है। . होता है। और इतने पर राजी नहीं होते थे वे। और जब पश्चिम से आए फिर उन्होंने सिद्ध करने के लिए...और यहां तर्क का बहुत | हुए डाक्टरों ने भी इसका परीक्षण किया, तो बहुत हैरान हो गए। मजेदार मामला है। और तर्क कभी-कभी कैसे गलत रास्तों पर ले क्योंकि जब विद्यार्थियों की परीक्षा होती थी, तो रात में खुले मैदान जाता है, वह देखने जैसा है। उन्होंने कहा, तो मैं यह कहता हूं कि में, बर्फ के पास, झील के किनारे उन्हें नग्न खड़ा किया जाता। और एक आदमी बिना भागे हुए और बिना शरीर पर भागने का कोई | उनके पास कपड़े, कोट, कमीज गीले करके रखे जाते, पानी में प्रभाव हुए भयभीत होकर बता दे। या एक आदमी बिना आंखें लाल | डुबाकर। और वे नग्न खड़े हैं। और उस लड़के को सर्वाधिक अंक किए, मुट्ठियां बांधे, दांत भींचे, क्रोध करके बता दे। | मिलेंगे, जो रात अपने शरीर से इतनी गर्मी पैदा करे कि अनेक कपड़े मुश्किल है बात! कैसे बताइएगा क्रोध करके। तब उन दोनों ने | | सुखा दे शरीर पर पहनकर! जितने ज्यादा कपड़े रातभर में वह सुखा कहा कि तब ठीक है, जब इसके बिना क्रोध नहीं हो सकता, तो | देगा, उतने ज्यादा अंक उसको मिलने वाले हैं! क्रोध इनका ही जोड़ है। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं है। __ और जब पश्चिम से आए डाक्टरों के एक दल ने यह देखा, तो लेकिन पता नहीं, जेम्स-लेंगे को किसी ने क्यों नहीं कहा कि वे दंग रह गए। उन्होंने कहा, जेम्स-लेंगे थियरी का क्या हुआ? इससे उलटा होता है। एक अभिनेता क्रोध करके बता सकता है, क्योंकि बाहर तो बर्फ पड़ रही है और वे डाक्टर तो लबादे पर लबादे आंखें लाल करके बता सकता है, दांत भींच सकता है, मुट्ठी भींच | | पहनकर भी भीतर कंपे जा रहे हैं। और ये नग्न खड़े लड़के क्या कर सकता है, फिर भी भीतर उसके कोई क्रोध नहीं होता। और एक | रहे हैं? क्योंकि इनके शरीर पर जो होना चाहिए, वह हो रहा है। अभिनेता प्रेम करके बता सकता है और जितना अभिनेता बता लेकिन मन इनकार कर रहा है। और मन कहे चला जा रहा है कोई सकता है, उतना शायद कोई भी नहीं बता सकता-भीतर उसके बर्फ नहीं है। और मन कहे चला जा रहा है कि धूप है, तेज गर्मी कोई प्रेम नहीं होता है। | है। और मन कहे जा रहा है कि शरीर में आग तप रही है। इसलिए यह अर्जुन, जेम्स-लेंगे सिद्धांत के बिलकुल विपरीत काम कर शरीर को पसीना छोड़ना पड़ रहा है। 301 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m+ अर्जुन के विषाद का मनोविश्लेषण -AIR बलहीन हो यह जो अर्जुन के साथ हुआ, वह उसके मन में पैदा हुए भंवर रहा है। यह थोड़ा विचारणीय है। का शरीर तक पहुंचा हुआ परिणाम है। और हमारी जिंदगी में शरीर __ जैसा मैंने कहा, आज भी मनुष्य जाति करीब-करीब अर्जुन की से बहुत कम भंवर मन तक पहुंचते हैं। मन से ही अधिकतम भंवर | | चेतना से ग्रस्त है। उसके शरीर पर भी वे परिणाम हो रहे हैं। लेकिन शरीर तक पहुंचते हैं। लेकिन हम जिंदगीभर शरीर की ही फिक्र किए | हम जो इलाज कर रहे हैं, वे शरीर से शुरू करने वाले हैं। इसलिए चले जाते हैं। . सब इलाज हो जाते हैं, और बीमार बीमार ही बना रहता है। उसकी अगर कृष्ण को थोड़ी भी—जिसको तथाकथित वैज्ञानिक बुद्धि | चेतना से कोई इलाज शुरू नहीं हो पाता है। कहें-होती, तो वे अर्जुन को कहते कि मालूम होता है, तुझे फ्लू | | यह अर्जुन कहता है, मेरा मन साथ छोड़े दे रहा है। मैं बिलकुल हो गया है! अगर उन्होंने मार्क्स को पढ़ा होता, तो वे कहते, मालूम | निर्वीर्य हो। होता है, तेरे शरीर में किसी हार्मोन की कोई कमी हो गई है। वे | | बल क्या है? एक तो बल है जो शरीर की मांस-पेशियों, कहते. त चल और किसी जनरल अस्पताल में भर्ती हो जा। लेकिन मसल्स में होता है। उसमें तो कोई भी फर्क नहीं पड गया है। लेकिन उन्होंने यह बिलकुल नहीं कहा। वे शिथिल-गात होते अर्जुन को | | इस क्षण अर्जुन को एक छोटा-सा बच्चा भी धक्का दे दे, तो वह कुछ और समझाने लगे; वे उसके मन को कुछ और समझाने लगे। गिर जाएगा। इस क्षण अर्जुन की मसल्स कुछ भी काम नहीं करेंगी। वे उसके मन को बदलने की कोशिश करने लगे। एक छोटा-सा बच्चा उसे हरा सकता है। यह मस्कुलर ताकत कुछ जगत में दो ही प्रक्रियाएं हैं, या तो आदमी के शरीर को बदलने | | अर्थ की नहीं मालूम होती है। एक और बल है, जो संकल्प से, की प्रक्रिया और या आदमी की चेतना को बदलने की प्रक्रिया। | विल से पैदा होता है। सच तो यह है कि वही बल है, जो संकल्प विज्ञान आदमी के शरीर को बदलने की प्रक्रिया पर ध्यान देता है, | से पैदा होता है। धर्म मनुष्य की चेतना को बदलने की प्रक्रिया पर ध्यान देता है। वहीं ___ वह जो संकल्प से पैदा होने वाला बल है, वह बिलकुल ही खो भेद है। और इसलिए मैं कहता हूं, धर्म विज्ञान से ज्यादा गहरा गया है। क्योंकि संकल्प कहां से आए? मन दुविधा में पड़ गया, तो विज्ञान है, धर्म विज्ञान से ज्यादा महान विज्ञान है। वह सुप्रीम साइंस संकल्प खंडित हो जाता है। मन एकाग्र हो, तो संकल्प संगठित हो है, वह परम विज्ञान है। क्योंकि वह केंद्र से शुरू करता है। और जाता है। मन दुविधा में द्वंद्वग्रस्त हो जाए, कांफ्लिक्ट में पड़ जाए, वैज्ञानिक बुद्धि निश्चित ही केंद्र से शुरू करेगी। परिधि पर की गई तो संकल्प खो जाता है। हम सब भी निर्बल हैं, संकल्प नहीं है। वही चोटें जरूरी नहीं कि केंद्र पर पहुंचे, लेकिन केंद्र पर की गई चोटें संकल्प खो गया है। क्या करूं, क्या न करूं? करना क्या उचित जरूरी रूप से परिधि पर पहुंचती हैं। | होगा, क्या उचित नहीं होगा? सब आधार खो गए पैर के नीचे से। एक पत्ते को पहुंचाया गया नुकसान जरूरी नहीं है कि जड़ों तक | अर्जुन अधर में लटका रह गया है; वह त्रिशंकु हो गया है। पहुंचे। अक्सर तो नहीं पहुंचेगा। पहुंचने की कोई जरूरत नहीं है। यह प्रत्येक मनुष्य की स्थिति है। और इसलिए अदभुत सत्य हैं लेकिन जड़ों को पहुंचाया गया नुकसान पत्तों तक जरूर पहुंच | कुरान में, और अदभुत सत्य हैं बाइबिल में, और अदभुत सत्य हैं जाएगा; पहुंचना ही पड़ेगा; पहुंचने के अतिरिक्त और कोई मार्ग जेन्दअवेस्ता में, और अदभुत सत्य हैं ताओ-तेह-किंग में, और नहीं है। दुनिया के अनेक-अनेक ग्रंथों में अदभुत सत्य हैं, लेकिन गीता फिर इसलिए अर्जुन की इस स्थिति को देखकर, कृष्ण उसे कहां से | भी विशिष्ट है, और उसका कुल कारण इतना है कि वह धर्मशास्त्र पकड़ते हैं? अगर वे शरीर से पकड़ते, तो गीता फिजियोलाजी की | | कम, मनस-शास्त्र, साइकोलाजी ज्यादा है। उसमें कोरे स्टेटमेंट्स एक किताब होती। वह भौतिक-शास्त्र होती। वे उसे चेतना से | | नहीं हैं कि ईश्वर है और आत्मा है। उसमें कोई दार्शनिक वक्तव्य पकड़ते हैं, इसलिए गीता एक मनस-शास्त्र बन गई। गीता के | | नहीं हैं; कोई दार्शनिक तर्क नहीं हैं। गीता मनुष्य जाति का पहला मनस-शास्त्र बनने का प्रारंभ-अर्जुन के शरीर की घटना पर कृष्ण | मनोविज्ञान है; वह पहली साइकोलाजी है। इसलिए उसके मूल्य की बिलकुल ध्यान ही नहीं देते। वे न उसकी नाड़ी देखते हैं, न | बात ही और है। थर्मामीटर लगाते हैं। वे उसकी फिक्र ही नहीं करते कि उसके शरीर | | अगर मेरा वश चले, तो कृष्ण को मनोविज्ञान का पिता मैं कहना को क्या हो रहा है। वे फिक्र करते हैं कि उसकी चेतना को क्या हो चाहूंगा। वे पहले व्यक्ति हैं, जो दुविधाग्रस्त चित्त, माइंड इन | 31 | Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-14 कांफ्लिक्ट, संतापग्रस्त मन, खंड-खंड टूटे हुए संकल्प को अखंड और इंटिग्रेट करने की... कहें कि वे पहले आदमी हैं, जो साइको - एनालिसिस का, मनस- विश्लेषण का उपयोग करते हैं । सिर्फ मनस-विश्लेषण का ही नहीं, बल्कि साथ ही एक और दूसरी बात का भी, मनस-संश्लेषण का भी, साइको-सिंथीसिस का भी । तो कृष्ण सिर्फ फ्रायड की तरह मनोविश्लेषक नहीं हैं; वे संश्लेषक भी हैं। वे मन की खोज ही नहीं करते कि क्या-क्या खंड हैं उसके ! वे इसकी भी खोज करते हैं कि वह कैसे अखंड, इंडिविजुएशन को उपलब्ध हो; अर्जुन कैसे अखंड हो जाए ! और यह अर्जुन की चित्त - दशा, हम सबकी चित्त - दशा है। लेकिन, शायद संकट के इतने तीव्र क्षण में हम कभी नहीं होते । हमारा संकट भी कुनकुना, ल्यूक-वार्म होता है, इसलिए हम उसको सहते चले जाते हैं। इतना ड्रामैटिक इतना त्वरा से भरा, इतना नाटकीय संकट हो, तो शायद हम भी अखंड होने के लिए आतुर हो जाएं। मैंने सुना है कि एक मनोवैज्ञानिक ने एक उबलते हुए पानी की बाल्टी में एक मेंढक को डाल दिया। वह मेंढक तत्काल छलांग लगाकर बाहर हो गया। वह मेंढक अर्जुन की हालत में पड़ गया था। उबलता हुआ पानी, मेंढक कैसे एडजस्ट करे ! छलांग लगाकर बाहर हो गया। फिर उसी मनोवैज्ञानिक ने उसी मेंढक को एक दूसरी बाल्टी में डाला और उसके पानी को धीरे-धीरे गरम किया, चौबीस घंटे में उबलने तक लाया वह । करता रहा धीरे -धीरे गरम। वह जो मेंढक था, हम जैसा, राजी होता गया। थोड़ा पानी गरम हुआ, मेंढक भी थोड़ा गरम हुआ। उस मेंढक ने कहा, अभी ऐसी कोई छलांग लगाने की खास बात नहीं है; चलेगा। वह एडजस्टमेंट करता चला गया, जैसा हम सब करते चले जाते हैं। चौबीस घंटे में वह एडजस्टेड हो गया। जब पानी उबला, तब एडजस्टेड रहा, क्योंकि अभी उसे कोई फर्क नहीं मालूम पड़ा । रत्ती - रत्ती बढ़ा। एक रत्ती से दूसरी रत्ती में कोई छलांग लगाने जैसी बात नहीं थी। उसने कहा कि इतने से राजी हो गए, तो इतने से और सही। वह मर गया। पानी उबलता रहा, वह उसी में उबल गया, छलांग न लगाई। मेंढक छलांग लगा सकता था। अब मेंढक को छलांग लगाने से ज्यादा स्वाभाविक और कुछ भी नहीं है, मगर वह भी न हो सका। अर्जुन उबलते हुए पानी में एकदम पड़ गया है। इसलिए सिचुएशन ड्रामैटिक है, सिचुएशन एक्सट्रीम है। वह ठीक स्थ पूरी उबलती हुई है। इसलिए अर्जुन एकदम धनुषबाण छोड़ दिया। हम अपनी तराजू भी नहीं छोड़ सकते इस तरह, हम अपना गज भी | नहीं छोड़ सकते इस तरह, हम अपनी कलम भी नहीं छोड़ सकते | इस तरह । और रथ पर ही बैठने में एकदम इतना कमजोर हो गया ! | क्या हुआ ? संकट से इतनी तीव्रता से राजी होना, एडजस्ट होना मुश्किल हो गया। मैं आपसे कहना चाहूंगा कि राजीं मत होते चले जाना। नहीं सबको ऐसे मौके नहीं आते कि महाभारत हो हरेक की जिंदगी में। और बड़ी कृपा है भगवान की, ऐसा हरेक आदमी को महाभारत का मौका लाना पड़े, तो कठिनाई होगी बहुत । लेकिन जिंदगी महाभारत है, पर लंबे फैलाव पर है! त्वरा नहीं है उतनी तीव्रता नहीं है उतनी । सघनता नहीं है उतनी । धीमे-धीमे सब होता रहता है। मौत आ जाती है और हम एडजस्ट होते चले | जाते हैं; हम समायोजित हो जाते हैं। और तब जिंदगी में क्रांति नहीं हो पाती है। से अर्जुन की जिंदगी में क्रांति निश्चित है। इधर या उधर, उसे क्रांति गुजरना ही पड़ेगा। पानी उबलता हुआ है। ऐसी जगह है, जहां | उसे कुछ न कुछ करना ही होगा। या तो वह भाग जाए, जैसा कि बहुत लोग भाग जाते हैं। सरल वही होगा । शार्ट कट वही है । निकटतम यही मालूम पड़ता है, भाग जा " | इसलिए अधिक लोग जीवन के संकट में से भागने वाला संन्यास निकाल लेते हैं। अधिक लोग जीवन के संकट में से एस्केपिस्ट रिनंसिएशन निकाल लेते हैं, एकदम जंगल भाग जाते हैं। वे कहते हैं, नहीं, अहमदाबाद नहीं, हरिद्वार जा रहे हैं। अर्जुन वैसी स्थिति में था। हालांकि गीता वे अपने साथ ले जाते हैं। | तब बड़ी हैरानी होती है। हरिद्वार में गीता पढ़ते हैं । अर्जुन भी पढ़ सकता था। हरिद्वार वह भी जाना चाहता था। लेकिन वह उसको एक गलत आदमी मिल गया, कृष्ण मिल गया। उसने कहा कि रुक; भाग मत ! क्योंकि भगोड़े परमात्मा तक पहुंच सकते हैं? भगोड़े परमात्मा तक नहीं पहुंच सकते। जो जीवन के सत्य से भागते हैं, वे परमात्मा तक नहीं पहुंच सकते हैं। जो जीवन का ही साक्षात्कार करने में | असमर्थ हैं, वे परमात्मा का साक्षात्कार नहीं कर सकते हैं। क्योंकि | जो जीवन को ही देखकर शिथिल-गात हो जाते हैं, जिनके गांडीव छूट जाते हैं हाथ से, जिनके रोएं कंपने लगते हैं और जिनके प्राण थरथराने लगते हैं— जीवन को ही देखकर - नहीं, परमात्मा के समक्ष वे खड़े नहीं हो सकेंगे। 32 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्जुन के विषाद का मनोविश्लेषण - | संकल्प, वापस व्यक्तित्व और आत्मवान बनाने की पूरी चेष्टा है। और इसलिए मैं जो सारी चर्चा करूंगा, वह इसी दृष्टि से चर्चा | करूंगा कि वह आपके मनस के भी काम की है। और अगर आपके | भीतर अर्जुन न हो, तो आप मत आएं. वह आपके काम की बात | नहीं है। वह बेमानी है। आपके भीतर दुविधा न हो, आपके भीतर | संघर्ष न हो, आपके भीतर बेचैनी न हो, तो आप मत सुनें। उससे | कोई संबंध नहीं है। आपके भीतर दुविधा हो, बेचैनी हो, तनाव हो, आपके भीतर निर्णय में कठिनाई हो, आपके भीतर खंड-खंड | आदमी हो और आप भी भीतर से टूट गए हों, डिसइंटिग्रेटेड हों, | तो ही आने वाली बात आपके अर्थ की हो सकती है। शेष कल सुबह! जीवन तैयारी है, जीवन कदम-कदम तैयारी है, उस विराट सत्य के साक्षात्कार की, एनकाउंटर की। और अर्जुन तो जीवन के एक छोटे से तथ्य से ही भागा चला जा रहा है। लेकिन भागने की तैयारी उसकी पूरी हो गई है। अब यह बड़े मजे की बात है कि वह रथ पर नहीं चढ़ पाता। वह कहता है, रथ पर चढ़ने की भी शक्ति नहीं है। लेकिन अगर उससे कहो कि भाग जाओ जंगल की तरफ, तो वह बड़ी शक्ति पाएगा; अभी भाग जाएगा। एकदम इतनी तेजी से दौड़ेगा, जितनी तेजी से कभी नहीं दौड़ा है। जो आदमी जिंदगी से लड़ने की सामर्थ्य नहीं जुटा पा रहा है, वह भागने की जुटा लेता है। सामर्थ्य की तो कमी नहीं मालूम पड़ती, शक्ति की तो कमी नहीं मालूम पड़ती, शक्ति तो है। अगर कृष्ण उसे कहें, छोड़ सब, तो वह बड़ा प्रफुल्ल हो जाएगा। लेकिन यह प्रफुल्लता ज्यादा देर टिकेगी नहीं। और अगर अर्जुन जंगल चला जाए, तो थोड़ी देर में ही उदास हो जाएगा। बैठ भी जाए वह संन्यासी के वेश में एक वृक्ष के नीचे, तो थोड़ी देर में जंगल से ही लकड़ी वगैरह बटोरकर वह तीर-कमान बना लेगा। वह आदमी वही है। क्योंकि हम अपने से भागकर कहीं भी नहीं जा सकते हैं। हम सबसे भाग सकते हैं, अपने से नहीं भाग सकते हैं। मैं तो अपने साथ ही पहुंच जाऊंगा। तो थोड़ी देर में जब वह देखेगा कि कोई देखने वाला नहीं है, तो पशु-पक्षियों का शिकार शुरू कर देगा। अजुन ही तो भागेगा न! और पशु-पक्षी तो अपने नहीं हैं: वे तो स्वजन-प्रियजन नहीं हैं। उन्हें तो मारने में कोई कठिनाई आएगी नहीं। वह मजे से मारेगा। __ अर्जुन संन्यासी हो नहीं सकता। क्योंकि जो संसारी होने की भी हिम्मत नहीं दिखा पा रहा है, उसके संन्यासी होने का कोई उपाय नहीं है। असल में संन्यास संसार से भागने का नाम नहीं है, संसार को पार कर जाने का नाम है। संन्यास, संसार की जलन और आग का अतिक्रमण है। और जो उसे पूरा पार कर लेता है, वही अधिकारी हो पाता है। संन्यास संसार से विरोध नहीं, संन्यास संसार की संपूर्ण समझ और संघर्ष का फल है। संन्यास की स्थिति में आ गया है वह। पलायनवादी हो, तब तो अभी रास्ता है उसके सामने। अगर संघर्ष में जाए, तो कठिनाई है। अब पूरी गीता उसके गात की शिथिलता को मिटाने के लिए है। उसे वापस संकल्पवान होने के लिए है; उसे वापस शक्ति, Page #64 --------------------------------------------------------------------------  Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 1-2 तीसरा प्रवचन विषाद और संताप से आत्म-क्रांति की ओर Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm गीता दर्शन भाग-1 AM गाण्डीवं संसते हस्तात्त्वक्वैव परिदह्यते । | सुख इस जगत में संभव नहीं है। बड़ा पैराडाक्सिकल, बड़ा उलटा न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः । । ३०।। दिखाई पड़ता है। जो सोचता है. इस जगत में सख मिल सकता है. निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव। | कुछ शर्ते भर पूरी हो जाएं, वह केवल नए-नए दुख खोजता चला न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ।।३१।। | जाता है। असल में हर दुख को खोजना हो तो सुख बनाकर ही नकांक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च। | खोजना पड़ता है। दुख के खोजने की तरकीब ही यही है कि उसे किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैजीवितेन वा ।। ३२ ।। | सुख मानकर खोजना पड़ता है। जब तक खोजते हैं तब तक सुख तथा हाथ से गांडीव धनुष गिरता है और त्वचा भी बहुत | मालूम पड़ता है, जब मिल जाता है तब दुख मालूम पड़ता है। जलती है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है। इसलिए मैं | लेकिन मिल जाने के बाद कोई उपाय नहीं है। खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूं। और हे केशव! लक्षणों __ अर्जुन अगर कहे कि सुख संभव कहां है? संसार में कल्याण को भी विपरीत ही देखता हूं तथा युद्ध में अपने कुल को संभव कहां है? राज्य में प्रयोजन कहां है? अगर वह ऐसा कहे तो मारकर कल्याण भी नहीं देखता। हे कृष्ण! मैं विजय को उसका प्रश्न बेशर्त है, अनकंडीशनल है। तब उत्तर बिलकल और नहीं चाहता और राज्य तथा सुखों को भी नहीं चाहता। होता। लेकिन वह यह कह रहा है, अपनों को मारकर सुख कैसे हे गोविंद! हमें राज्य से क्या प्रयोजन है, मिलेगा? सुख तो मिल सकता है, अपने न मारे जाएं तो सुख लेने अथवा भोगों से और जीवन से भी क्या प्रयोजन है। | को वह तैयार है। कल्याण तो हो सकता है, राज्य में प्रयोजन भी हो सकता है, लेकिन अपने न मारे जाएं तो ही राज्य में प्रयोजन हो सकता है। 27 र्जुन बड़ी सशर्त बात कह रहा है; बहुत कंडीशनल, | । राज्य व्यर्थ है, सुख व्यर्थ है, महावीर या बुद्ध को जैसा खयाल 1 शर्त से बंधा उसका वक्तव्य है। सुख के भ्रम से वह | | हुआ, अर्जुन को वैसा खयाल नहीं है। अर्जुन के सारे वक्तव्य मुक्त नहीं हुआ है। लेकिन वह कह रहा है कि अपनों उसकी विरोधी मनोदशा की सूचना देते हैं। वह जिस चीज को कह को मारकर जो सुख मिलेगा, ऐसे सुख से क्या प्रयोजन? अपनों रहा है, बेकार है, उस चीज को बेकार जान नहीं रहा है। वह जिस ' को मारकर जो राज्य मिलेगा, ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन? अगर चीज को कह रहा है, क्या प्रयोजन? क्या फायदा? वह पूरे वक्त अपनों को बिना मारे राज्य मिल जाए, और अपनों को बिना मारे मन में जान रहा है कि फायदा है, प्रयोजन है, सिर्फ उसकी शर्त पूरी सुख मिल जाए, तो अर्जुन लेने को तैयार है। सुख मिल सकता है, होनी चाहिए। उसका यदि अगर पूरा हो जाए, इफ अगर पूरी हो इसमें उसे कोई संदेह नहीं है। कल्याण हो सकता है, इसमें उसे कोई जाए, तो सुख मिलेगा, इसमें उसे कोई भी संदेह नहीं है। संदेह नहीं है। अपनों को मारने में उसे संदेह है। ___ मैंने एक मजाक सुनी है। मैंने सुना है कि बऍड रसेल मर रहा इस मनोदशा को समझ लेना उपयोगी है। हम सब भी ऐसे ही | | है। मजाक ही है। एक पादरी यह खबर सुनकर कि बड रसेल मर शों में सोचते हैं। वेहेंगर ने एक किताब लिखी है, दि फिलासफी | रहा है, भागा हुआ पहुंच गया कि हो सकता है यह जीवनभर का आफ ऐज इफ। जैसे सारा जीवन ही यदि पर खड़ा है। यदि ऐसा हो | | निष्णात नास्तिक, शायद मरते वक्त मौत से डर जाए और भगवान तो सुख मिल सकेगा, यदि ऐसा न हो तो सख नहीं मिल सकेगा। को स्मरण कर ले। पर उस पादरी की मरते हुए बर्टेड रसेल के पास यदि ऐसा हो तो कल्याण हो सकेगा, यदि ऐसा न हो तो कल्याण | भी जाने की सामने हिम्मत नहीं पड़ती है। वह भीड़ में, जो मित्रों की नहीं हो सकेगा। लेकिन एक बात निश्चित है कि सुख मिल सकता इकट्ठी हो गई थी, पीछे डरा हुआ खड़ा है कि कोई मौका अगर मिल है, शर्त पूरी होनी चाहिए। और मजे की बात यही है कि जिसकी | | जाए, तो वह बडूंड रसेल को कह दे कि अभी भी माफी मांग लो। शर्त है, उसे सुख कभी नहीं मिल सकता है। क्यों? क्योंकि जिसे | | और तभी बड रसेल ने करवट बदली और कहा, हे परमात्मा! सुख का भ्रम नहीं टूटा, डिसइलूजनमेंट नहीं हुआ, जिसका सुख | | तो उसने सोचा, यह ठीक मौका है। इसके मुंह से भी परमात्मा का का मोह भंग नहीं हुआ, उसे सुख नहीं मिल सकता है। | नाम निकला है! तो वह पास गया और उसने कहा कि ठीक अवसर सुख मिलता है केवल उसे, जो इस सत्य को जान लेता है कि है, अभी भी क्षमा मांग लो परमात्मा से। तो बर्टेड रसेल ने आंख Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ am+ विषाद और संताप से आत्म-क्रांति की ओर AM खोली और उसने कहा, हे परमात्मा! यदि कोई परमात्मा हो, तो से यानी आत्मभाव से दूर हो जाता है, स्वभाव से बड रसेल क्षमा मांगता है; यदि कोई बड रसेल की आत्मा हो; वियोग होता है। तो गीता के प्रथम अध्याय को क्षमा मांगता है, यदि कोई पाप किए गए हों; क्षमा मांगता है, यदि अर्जुन-विषादयोग कहा गया है, वह कैसे? विषाद क्षमा संभव हो। का योग से क्या संबंध है? या गीता में योग शब्द सारा जीवन हमारा यदि से घिरा है। बड रसेल साफ है, | किस अर्थ में प्रयुक्त किया गया है? ईमानदार है। हम इतने साफ नहीं हैं। अर्जुन भी साफ नहीं है, बहुत कनफ्यूज्ड है, बहुत उलझा हुआ है। चित्त की गांठ उसकी बहत इरछी-तिरछी है। वह कह रहा है. | + षादयोग! योग के बहुत अर्थ हैं। और योग के ऐसे भी सुख तो मिल सकता है, लेकिन यदि अपने न मरें। वह कहता है, पि अर्थ हैं, जो साधारणतः योग से हमारी धारणा है, राज्य कल्याणकारी है मिल जाए तो, यदि अपने न मरें। यह यदि ही ___उसके ठीक विपरीत हैं। यह ठीक ही सवाल है कि उसकी गांठ है। और जो आदमी ऐसा कहता है, उसे—सुख, | | विषाद कैसे योग हो सकता है? आनंद योग हो सकता है; विषाद राज्य, धन, यश-उनका मोह नहीं टूट गया है; उनकी आकांक्षा कैसे योग हो सकता है? . नहीं टूट गई है। उनकी अभीप्सा नहीं टूट गई है। पीछे वह बहुत | ___ लेकिन विषाद इसलिए योग हो सकता है कि वह आनंद का ही तैयार है, सब मिल जाए, लेकिन उसके यदि भी पूरे होने चाहिए। | शीर्षासन करता हुआ रूप है, वह आनंद ही सिर के बल खड़ा है। ___ इसीलिए कृष्ण को निरंतर पूरे समय उसके साथ श्रम करना पड़ आप अपने पैर के बल खड़े हों, तो भी आदमी हैं, और सिर के बल रहा है। वह श्रम उसके सेल्फ-कंट्राडिक्टरी, उसके आत्म-विरोधी | | खड़े हो जाएं, तो भी आदमी हैं। जिसको हम स्वभाव से विपरीत चिंतन के लिए करना पड़ रहा है। क्योंकि पूरे समय यह दिखाई पड़ | जाना कहते हैं, वह भी स्वभाव का उलटा खड़ा हो जाना है, रहा है कि वह जो कह रहा है, वही चाह रहा है। जिससे भाग रहा | इनवर्शन है। जिसको हम विक्षिप्तता कहते हैं, वह भी स्वभाव का है, उसी को मांग रहा है। जिससे बचना चाह रहा है, उसी को | | विकृत हो जाना है, परवर्शन है। लेकिन है स्वभाव ही। आलिंगन कर रहा है। सोने में मिट्टी मिल जाए, तो अशुद्ध सोना ही कहना पड़ता है। अर्जुन की यह दशा ठीक से समझ लेनी चाहिए। ऐसा अर्जुन अशुद्ध है, इसलिए पूछा जा सकता है कि जो अशुद्ध है, उसे सोना हम सबके भीतर है। जिसे हम एक हाथ से धकाते हैं, उसे दूसरे | क्यों कह रहे हैं? लेकिन सोना ही कहना पड़ेगा। अशुद्ध होकर भी हाथ से खींचते रहते हैं। जिसे हम एक हाथ से खींचते हैं. उसे दसरे सोना है। और इसलिए भी सोना कहना पडेगा कि कि अशुद्धि जल से धकाते रहते हैं। एक कदम बाएं चलते हैं, तो तत्काल एक कदम सकती है और सोना वापस सोना हो सकता है। दाएं चल लेते हैं। एक कदम परमात्मा की तरफ जाते हैं, तो एक | विषादयोग इसलिए कह रहे हैं कि विषाद है, विषाद जल सकता कदम तत्काल संसार की तरफ उठा लेते हैं। | है, योग बच सकता है। आनंद की यात्रा हो सकती है। कोई भी यह जो अर्जुन है, ऐसी बैलगाड़ी की तरह है, जिसमें दोनों तरफ | | इतने विषाद को उपलब्ध नहीं हो गया कि स्वरूप को वापस लौट बैल जुते हैं। वह दोनों तरफ खिंच रहा है। वह कह रहा है, सुख तो | | न सके। विषाद की गहरी से गहरी अवस्था में भी स्वरूप तक है, इसलिए मन भागता है। वह कह रहा है, लेकिन अपनों को | | लौटने की पगडंडी शेष है। उस पगडंडी के स्मरण के लिए ही योग मारना पड़ेगा, इसलिए मन लौटता है। यह स्व-विरोध है, स्मरण | रखने योग्य है, क्योंकि अर्जुन की पूरी चित्त-दशा इसी स्व-विरोध | और वह जो विषाद है, वह भी इसीलिए हो रहा है। विषाद क्यों का फैलाव है। | हो रहा है? एक पत्थर को विषाद नहीं होता। नहीं होता, इसलिए कि उसे आनंद भी नहीं हो सकता है। विषाद हो इसलिए रहा है, | वह भी एक गहरे अर्थ में आनंद का स्मरण है। इसलिए विषाद हो प्रश्नः भगवान श्री, विषादग्रस्त अर्जुन के चित्त की रहा है। वह भी इस बात का स्मरण है, गहरे में चेतना कहीं जान दशा हमने देखी। अब विषाद होने से व्यक्ति स्वभाव रही है कि जो मैं हो सकता हूं, वह नहीं हो पा रहा हूं; जो मैं पा 37 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ im गीता दर्शन भाग-1 AM सकता हूं, वह मैं नहीं पा रहा हूं। जो संभव है, वह संभव नहीं हो पीड़ा से गुजर रहा है, जिससे धर्म पैदा हो सकता है। युधिष्ठिर तृप्त पा रहा है, इसलिए विषाद हो रहा है। | है; अतीत से जो धर्म मिला है, उससे राजी है। इसलिए धार्मिक भी इसलिए जितना ही प्रतिभाशाली व्यक्तित्व होगा, उतने ही गहरे हो सकते हैं, जुआ भी खेल सकते हैं, तब भी कोई संदेह मन में विषाद में उतरेगा। सिर्फ जड़-बुद्धि विषाद को उपलब्ध नहीं होते हैं। | पैदा नहीं होता। धार्मिक भी हो सकते हैं, राज्य के लिए युद्ध पर भी क्योंकि जड़-बुद्धि को तुलना का उपाय भी नहीं होता; उसे यह भी | | जा सकते हैं, तब भी कोई संदेह मन में पैदा नहीं होता। धार्मिक भी खयाल नहीं होता कि मैं क्या हो सकता हूं। जिसे यह खयाल है कि हैं और तथाकथित धर्म के आस-पास सब अधर्म पूरी तरह चलता मैं क्या हो सकता है, जिसे यह खयाल है कि आनंद संभव है, उसके है; कोई पीड़ा उससे नहीं होती। विषाद की कालिमा बढ जाएगी: उसे विषाद ज्यादा गहरा दिखाई आमतौर से मंदिर में. मस्जिद में, गरुद्रारा में, चर्च में जाने वाला पड़ेगा। जिसे सुबह का पता है, उसे रात के अंधकार में बहुत | आदमी युधिष्ठिर से तालमेल रखता है। तृप्त है। गीता रोज पढ़ता है; अंधकार दिखाई पड़ेगा। जिसे सुबह का कोई पता नहीं है, उसे रात | धार्मिक आदमी है-बात समाप्त हो गई। गीता कंठस्थ है, पक्का भी सुबह हो सकती है; और रात भी उसे लग सकती है कि ठीक है। धार्मिक आदमी है—बात समाप्त हो गई। सब उसे मालूम है, जो अर्जुन की इस विषाद की स्थिति को भी योग ही कहा जा रहा है, मालूम करने योग्य है-बात समाप्त हो गई। ऐसा आदमी चली हुई क्योंकि यह विषाद का बोध भी स्वरूप के विपरीत, कंट्रास्ट में | | कारतूस जैसा होता है, उसमें कुछ चलने को नहीं होता। खाली दिखाई पड़ता है, अन्यथा नहीं दिखाई पड़ेगा। ऐसा विषादयोग और | | कारतूस होता है, उसमें बारूद नहीं होती। खाली कारतूस अच्छी भी किसी को भी उस युद्ध के स्थल पर नहीं हो रहा है। ऐसा दुर्योधन | | मालूम पड़ती है, क्योंकि उससे बहुत खतरा भी नहीं होता। को नहीं हो रहा है। युधिष्ठिर इन अथों में धर्मराज हैं। अतीत से जो धर्म मिला है, ___ कल रास्ते में जाता था तो एक मित्र ने पूछा कि आपने दुर्योधन उसकी धरोहर है। अतीत से, परंपरा से, रूढ़ि से जो धर्म मिला है, की तो बात की, युधिष्ठिर के संबंध में क्या खयाल है? क्योंकि | | वे उसके प्रतीक, प्रतिमा-पुरुष हैं। उन्हें कोई अड़चन नहीं होती! दुर्योधन को नहीं हो रहा है, माना, आदमी भला नहीं है। पर तथाकथित धार्मिक आदमी कंप्रोमाइजिंग होता है, समझौतावादी युधिष्ठिर तो भला आदमी है, धर्मराज है, उसे क्यों नहीं हो रहा है? होता है। वह हर स्थिति में धर्म और अधर्म के बीच समझौते खोज . तो यह भी थोड़ा विचारणीय है। आशा तो करनी चाहिए कि लेता है। युधिष्ठिर को हो; लेकिन युधिष्ठिर को नहीं हो रहा है। युधिष्ठिर तथाकथित धार्मिक आदमी हिपोक्रेट होता है, पाखंडी होता है। तथाकथित धार्मिक आदमी है, सोकाल्ड रिलीजस है। और बुरा | | उसके दो चेहरे होते हैं। एक उसका धार्मिक चेहरा होता है, जो वह आदमी भी तथाकथित धार्मिक आदमी से बेहतर होता है। क्योंकि | | दिखाने के लिए रखता है। एक उसका असली चेहरा होता है, जो बुरे आदमी को आज नहीं कल, बुरे की पीड़ा और बुरे का कांटा | वह काम चलाने के लिए रखता है। और इन दोनों के बीच कभी चुभने लगेगा। लेकिन तथाकथित धार्मिक आदमी को वह पीड़ा भी | | कांफ्लिक्ट पैदा नहीं होती। यही हिपोक्रेसी का सूत्र है, राज है। नहीं चुभती, क्योंकि वह मानकर ही चलता है कि धार्मिक है। इनके बीच कभी द्वंद्व पैदा नहीं होता, कभी उसे ऐसा नहीं लगता कि विषाद कैसे हो? युधिष्ठिर अपने धार्मिक होने में आश्वस्त है। | मैं दो हूं। वह बड़ा लिक्विड होता है, बड़ा तरल होता है। वह इधर आश्वासन बड़ा झूठा है। लेकिन आश्वस्त है। असल में युधिष्ठिर से उधर बड़ी आसानी से हो जाता है। उसे कोई अड़चन नहीं आती। रूढिग्रस्त धार्मिक आदमी की प्रतिमा है। वह अभिनेता की तरह है। पात्र अभिनय बदल लेता है, उसे दो तरह के धार्मिक आदमी होते हैं। एक तो उधार धार्मिक अड़चन नहीं होती। कल वह राम बना था, आज उसे रावण बना आदमी होते हैं, बारोड, जिनका धर्म अतीत की उधारी से आता है। | दें, उसे कोई अड़चन नहीं आती। वह रावण की वेशभूषा पहनकर और एक वे धार्मिक आदमी होते हैं, जिनका धर्म उनकी आंतरिक खड़ा हो जाता है; रावण की भाषा बोलने लगता है। क्रांति से आता है। यह जो तथाकथित धार्मिक आदमी है, यह अधार्मिक से भी तो अर्जुन आंतरिक क्रांति के द्वार पर खड़ा हुआ धार्मिक आदमी | | बदतर है, ऐसा मैं कहता हूं। ऐसा इसलिए कहता हूं कि अधार्मिक है। धार्मिक है नहीं, लेकिन क्रांति के द्वार पर खड़ा हुआ है। उस अपनी पीड़ा को ज्यादा दिन नहीं झेल सकेगा; आज नहीं कल कांटा Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HITRA विषाद और संताप से आत्म-क्रांति की ओर AM चुभेगा। लेकिन जो आदमी समझौते कर लिया है, वह पीड़ा को एक जगह कहते हैं कि डिस्पेअर इन इटसेल्फ इज़ अनंतकाल तक झेल सकता है। रिलीजस। तो गीता की दृष्टि से तो आप जो कहते हैं, इसलिए युधिष्ठिर को पीड़ा नहीं आती। युधिष्ठिर बिलकुल राजी उससे यह मालूम होता है कि अर्जुन का विषाद है। अब यह बड़े मजे की बात है, अधार्मिक आदमी बिलकुल राजी अधार्मिक था! कुछ वार्तिक दें। है उस युद्ध में; धार्मिक आदमी बिलकुल राजी है उस युद्ध में; और यह अर्जुन, जो न तो अधार्मिक होने से राजी है, न अभी तथाकथित धर्म से राजी है, यह चिंतित है। 27 र्जुन का विषाद यदि विषाद में ही तृप्त हो जाए और __अर्जुन बहुत आथेंटिक, प्रामाणिक मनुष्य है। उसकी प्रामाणिकता I बंद हो जाए, तो अधार्मिक है; क्लोज्ड हो जाए, तो इसमें है कि चिंता है उसे। उसकी प्रामाणिकता इसमें है कि प्रश्न हैं अधार्मिक है। और अगर विषाद यात्रा बन जाए. उसके पास। उसकी प्रामाणिकता इसमें है कि जो स्थिति है, उसमें | गंगोत्री बने और विषाद से गंगा निकले और आनंद के सागर तक वह राजी नहीं हो पा रहा है। यही उसकी बेचैनी, यही उसकी पीड़ा | पहुंच जाए, तो धार्मिक है। विषाद अपने में न तो अधार्मिक है, न उसका विकास बनती है। धार्मिक है। अगर विषाद बंद करता है व्यक्तित्व को, तो आत्मघाती विषादयोग इसलिए ही कहा है कि अर्जन विषाद को उपलब्ध हो जाएगा। और अगर विषाद व्यक्तित्व को बहाव देता है, तो हुआ। धन्य हैं वे, जो विषाद को उपलब्ध हो जाएं। क्योंकि जो आत्म-परिवर्तनकारी हो जाएगा। विषाद को उपलब्ध होंगे, उन्हें मार्ग खोजना पड़ता है। अभागे हैं वे, ___पाल टिलिक जो कहते हैं कि डिस्पेअर इन इटसेल्फ इज़ जिनको विषाद भी नहीं मिला, उनको आनंद तो कभी मिलेगा ही रिलीजस-वह जो विषाद है, दुख है, वह अपने आप में धार्मिक नहीं। धन्य हैं वे, जो विरह को उपलब्ध हो जाएं, क्योंकि विरह | है-यह अधूरा सत्य है। पाल टिलिक पूरा सत्य नहीं बोल रहे हैं। मिलन की आकांक्षा है। इसलिए विरह भी योग है; मिलन की | यह अधूरा सत्य है, आधा सत्य है। विषाद धार्मिक बन सकता है। आकांक्षा है। वह मिलन के लिए खोजता हुआ मार्ग है। योग तो | | उसकी पासिबिलिटी है, उसकी संभावना है धार्मिक बनने की, मिलन ही है; लेकिन विरह भी योग है; क्योंकि विरह भी मिलन की अगर विषाद बहाव बन जाए। पुकार और प्यास है। विषाद भी योग है। योग तो आनंद ही है। __लेकिन अगर विषाद वर्तुल बन जाए, सर्कुलर हो जाए, अपने लेकिन विषाद भी योग है, क्योंकि विषाद आनंद के लिए जन्मने की | | में ही घूमने लगे, तो सिर्फ आत्मघाती हो सकता है, धार्मिक नहीं प्रक्रिया है। इसलिए विषादयोग कहा है। हो सकता। यह बड़े मजे की बात है कि आत्मघाती व्यक्तित्व उस जगह पहुंच जाता है, जहां से या तो उसे आत्मा परिवर्तन करनी पड़ेगी या आत्मघात करना पड़ेगा। एक बात तय है कि पुरानी प्रश्नः भगवान श्री, आपने अभी बट्रेंड रसेल का नाम आत्मा से नहीं चलेगा। तो हम ऐसा भी कह सकते हैं कि स्युसाइड लिया। वेद मेहता ने टिलिक से बदँड रसेल की इन इटसेल्फ इज़ रिलीजस, आत्महत्या अपने आप में धार्मिक है। आत्मतुष्ट अनास्तिकता के पहलू प्रकट करके पूछा कि | लेकिन यह अधूरा सत्य होगा, वैसा ही जैसा पाल टिलिक ने कहा। रसेल को नास्तिक होते हुए भी जीवन में एंपटीनेस, ___ हां, आत्महत्या की स्थिति में आए व्यक्ति के सामने दो विकल्प खालीपन का अनुभव नहीं हुआ! तब पाल टिलिक हैं, दो आल्टरनेटिव हैं, या तो वह अपने को मार डाले, जो कि ने बताया कि ऐसे लोग आत्मवंचक हो सकते हैं। | बिलकुल अधार्मिक होगा; और या वह अपने को बदल डाले, जो कितने लोग बस यूं ही हरे रंग को, ग्रीन रंग को नहीं | कि मारने की और भी गहरी कीमिया है, तब वह धार्मिक होगा। देख पाते। क्या रसेल उनमें से एक होगा? अर्जुन इस बुद्ध उस जगह आ जाते हैं, जहां या तो आत्महत्या करें या चर्मचक्षु से विराट-रूप का भव्य-दर्शन नहीं कर आत्म-रूपांतरण करें। महावीर उस जगह आ जाते हैं, या तो सकता था। और दूसरी बात यह कि पाल टिलिक | आत्महत्या करें या आत्म-रूपांतरण करें। अर्जुन भी उस जगह खड़ा अल्बर्ट काम की नैराश्य, डिस्पेअर पर वार्तिक देते हए है, जहां या तो वह मिट जाए, मर जाए, अपने को समाप्त कर ले, 39 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Im गीता दर्शन भाग-1 AIR और या अपने को बदले और नए तलों पर चेतना को ले जाए। हो। नास्तिकता भी हां पर खड़ी हो सकती है। पाल टिलिक का वक्तव्य अधूरा है। और पाल टिलिक के और बड रसेल की नास्तिकता हां पर खड़ी है। ईश्वर को वक्तव्य के अधूरे होने का कारण है। क्रिश्चियनिटी का बुनियादी | | इनकार करता है, लेकिन प्रेम को इनकार नहीं करता। और जो सत्य अधूरा है। ईसाइयत का बुनियादी सत्य अधूरा है। और आदमी प्रेम को इनकार नहीं करता, उसको नास्तिक केवल नासमझ इसलिए ईसाइयत ने डिस्पेअर को...और पाल टिलिक जो है, | | आस्तिक ही कह सकते हैं। क्योंकि जो आदमी प्रेम को इनकार नहीं आधुनिक युग में ईसाइयत का बड़ा व्याख्याकार है। उसके पास करता, वह बहुत गहरे में परमात्मा को स्वीकार कर रहा है। फार्मल पैनी दृष्टि है, लेकिन पैनी दृष्टि जरूरी नहीं है कि पूरी हो। नहीं है उसकी स्वीकृति। वह भगवान की मूर्ति रखकर मंदिर में घंटी ईसाइयत ने जीसस की जो शकल पकड़ी है, वह डिस्पेअर की नहीं बजाता। लेकिन जो बजाते हैं, वे कोई आस्तिक हैं, ऐसा मानने है। ईसाइयत ने जीसस की और कोई शकल नहीं पकड़ी। ईसाइयत का कोई भी कारण नहीं है। क्योंकि घंटी बजाने से आस्तिकता का के पास जीसस की हंसती हुई कोई तस्वीर नहीं है। ईसाइयत के पास | क्या लेना-देना है? प्रेम का स्वर जिसके जीवन में हो, उसके जीवन जीसस का नाचता हुआ, प्रसन्न कोई व्यक्तित्व नहीं है। ईसाइयत के | | में प्रार्थना ज्यादा दूर नहीं है। प्रेम का स्वर जिसके जीवन में हो, पास सत-चित-आनंद की घोषणा करने वाले जीसस की कोई उसके जीवन में परमात्मा ज्यादा दूर नहीं है। और प्रेम इनकार करने धारणा नहीं है, कोई प्रतिमा नहीं है। उनके पास प्रतिमा है जीसस वाला सूत्र नहीं है, प्रेम स्वीकार करने वाला सूत्र है। प्रेम बड़ी गहरी की-सूली पर लटके हुए, कंधे पर टिका हुआ सिर, आंखें उदास, हां है पूरे अस्तित्व के प्रति। मरने की घड़ी! और क्रास इसलिए ईसाइयत का प्रतीक बन | तो मैं बड रसेल को नास्तिक सिर्फ औपचारिक अर्थों में कहता गया-सूली। यह जो डिस्पेअर और सूली है, यह अपने आप में | हूं। औपचारिक अर्थों में बर्दैड रसेल नास्तिक है। जिस तरह धार्मिक नहीं है। हो सकती है धार्मिक, नहीं भी हो सकती है। | औपचारिक अर्थों में बहुत से लोग आस्तिक हैं। लेकिन बड रसेल और पाल टिलिक बढ़ेंड रसेल के संबंध में गलत बात कहते हैं, की नास्तिकता आस्तिकता की तरफ बहती हुई है; बहती हुई है, उसमें पूरी ही तरह गलत कहते हैं, अगर वे यह कहते हैं कि बदँड रसेल बहाव है; वह खुल रही है। वह फूलों में भी आनंद ले पाता है। . जैसे लोग आत्मवंचक हैं। क्योंकि बड रसेल नास्तिक है, ईश्वर हमारा आस्तिक मंदिर में जाकर फूल तो चढ़ा देता है, लेकिन फूल पर उसकी कोई आस्था नहीं है। इसलिए अगर कोई पूछता है पाल में कोई आनंद नहीं ले पाता। फूल तोड़ते वक्त उसे ऐसा नहीं लगता टिलिक से कि बऍड रसेल को ईश्वर पर कोई आस्था नहीं है, फिर | | कि परमात्मा को तोड़ रहा है। पत्थर की एक मूर्ति के लिए एक जिंदा भी बर्दैड रसेल को अर्थहीनता, एंपटीनेस, खालीपन का कोई बोध | | फूल को तोड़कर चढ़ा देता है। यह आदमी गहरे में नास्तिक है। नहीं होता है, जैसा सार्च को होता है या कामू को या किसी और को इसका अस्तित्व के प्रति कोई स्वीकार-भाव नहीं है। और न अस्तित्व होता है। बड रसेल को क्यों नहीं होता? अगर वे नास्तिक हैं, तो | | में इसे परमात्मा की कोई प्रतीति है। इसे कोई प्रतीति नहीं है। इसकी उन्हें खालीपन का अनुभव होना चाहिए। पत्थर की मूर्ति को कोई तोड़ दे, तो यह हत्या पर उतारू हो जाता है, जरूरी नहीं है। क्योंकि नास्तिकता भी मेरी दृष्टि में दो तरह की जिंदा मूर्तियों को तोड़ देता है। इसके मन में आस्तिकता का कोई होती है, अपने में बंद, और बाहर बहती हुई। जो नास्तिक अपने में | | संबंध नहीं है। इसकी आस्तिकता आत्मवंचना है। बंद हो जाएगा—जैसा विषाद अपने में बंद हो जाएगा तो वह और बट्रेंड रसेल की नास्तिकता भी आत्मवंचना नहीं है। क्योंकि खाली हो जाएगा। क्योंकि जो आदमी नहीं के ऊपर जिंदगी खड़ी | मझे ऐसा दिखाई पड़ता है कि रसेल सिंसियर, ईमानदार आदमी है। करेगा, वह एंप्टी हो जाएगा। जो आदमी कहेगा कि नहीं मेरे जीवन | और ईमानदार आदमी जल्दी आस्तिक नहीं हो सकता। सिर्फ का आधार है, वह खाली नहीं होगा तो और क्या होगा! बेईमान आदमी ही जल्दी आस्तिक हो सकते हैं। क्योंकि जिस क्योंकि नहीं के बीज से कोई अंकुर नहीं निकलता। नहीं के बीज | | आदमी ने ईश्वर को भी बिना खोजे ही भर दी, उससे बड़ा बेईमान से कोई फूल नहीं खिलते। नहीं के बीज से कोई जीवन विकसित आदमी मिल सकता है। जिस आदमी ने ईश्वर जैसे महत तत्व को नहीं होता। जीवन में कहीं न कहीं हां अगर न हो. तो जीवन खाली किताब में पढकर स्वीकार कर लिया. उस आदमी से ज्यादा हो जाएगा। लेकिन जरूरी नहीं है कि नास्तिकता नहीं पर ही खड़ी आत्मवंचक आदमी, सेल्फ डिसेप्टिव आदमी मिल सकता है! 401 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HTRA विषाद और संताप से आत्म-क्रांति की ओर - ईश्वर बच्चों का खेल नहीं है। ईश्वर किताबों में पढ़े हुए पाठ से बड रसेल, मैं मानता हूं कि नास्तिकता के उस दौर से गुजरता संबंधित नहीं है। ईश्वर का मां-बाप द्वारा सिखाए गए सिद्धांतों से | हुआ व्यक्ति है, जो खोज रहा है। और बिना खोजे हां नहीं भर क्या वास्ता है ? ईश्वर तो जीवन की बड़ी प्राणवंत खोज और पीड़ा | सकता। उचित है; ठीक है; धार्मिक है। रसेल को मैं नास्तिक कहता है: बड़ी एंग्विश है। बड़े विषाद से उपलब्ध होगा। बड़े श्रम से. हूं, लेकिन धार्मिक। धार्मिक नास्तिक। और तथाकथित आस्तिकों बड़ी तपश्चर्या से, बड़े इनकार से गुजरने पर, बड़ी पीड़ा, बड़े को मैं आस्तिक कहता हूं, लेकिन अधार्मिक। अधार्मिक आस्तिक। खालीपन से गुजरने पर, बड़ी मुश्किल से, शायद जन्मों की यात्रा, | ये शब्द उलटे मालूम पड़ते हैं। लेकिन उलटे नहीं हैं। जन्मों-जन्मों की यात्रा और खोज और जन्मों की भटकन और जन्मों ___ अर्जुन का विषाद बहुत धार्मिक है; उसमें गति है। अगर वह की असफलता और विफलता, तब शायद इस सारी प्रसव-पीड़ा चाहे, तो कृष्ण जैसे कीमती आदमी को पास पाकर कह सकता है के बाद, वह अनुभव आता है, जो व्यक्तित्व को आस्तिकता देता | कि गुरु, तुम जो कहते हो, ठीक है, हम लड़ते हैं! नहीं कहता, है-तब। कृष्ण से जूझता है। कृष्ण से जूझने की हिम्मत साधारण नहीं है। लेकिन मैं मानता हूं कि बऍड रसेल वैसी यात्रा पर है। इसलिए कृष्ण जैसे व्यक्तित्व के पास हां करने का मन होता है। कृष्ण जैसे खाली नहीं है। सार्च खाली है, उसकी नास्तिकता क्लोज्ड है। | व्यक्तित्व को न कहने में पीड़ा होती है। कृष्ण जैसे व्यक्तित्व से एनसर्किल्ड इन वनसेल्फ, अपने भीतर ही वर्तुल बनाकर घूम रही | | प्रश्न उठाने में भी दुख होता है। लेकिन अर्जुन है कि पूछे चला जाता है। तो अपने भीतर तो आदमी फिर खाली हो जाएगा। और नहीं है, पूछे चला जाता है। वह कृष्ण के व्यक्तित्व को आड़ में रख देता. पर, नथिंगनेस पर जिसने आधार रखे–जिंदगी में कैसे फूल है; अपने प्रश्न को छोड़ता नहीं। इसका भय नहीं लेता मन में कि खिलें! उसने मरुस्थल में जिंदगी बोने की कोशिश की है। वहां फूल | | क्या कहेगा कोई, अश्रद्धालु हूं, संदेह करता हूं, शक उठाता हूं, नहीं खिल सकते। आस्थावान नहीं हूं। कृष्ण जैसा व्यक्ति मिला हो, मान लो गुरु और नहीं से बड़ा कोई मरुस्थल नहीं है। और जमीन पर जो मरुस्थल | स्वीकार करो। तब आस्तिकता उधार हो जाती है। लेकिन नहीं, वह होते हैं, वहां तो ओएसिस भी होते हैं, वहां तो कुछ मरूद्यान भी | | प्रामाणिक आस्तिकता की खोज में है। होते हैं। लेकिन नहीं के मरुस्थल में कोई ओएसिस, कोई मरूद्यान इसलिए इतनी बड़ी गीता की लंबी यात्रा हुई। पूछता चला जाता नहीं होता। वहां कोई हरियाली नहीं खिलती। हरियाली तो हां में ही | | है, पूछता चला जाता है, पूछता चला जाता है। खिलती है। आस्तिक ही पूरा हरा हो सकता है। आस्तिक ही पूरा कृष्ण भी अदभुत हैं। अपनी महिमा का जोर डाल सकते थे। भरा हो सकता है। आस्तिक ही फूलों को उपलब्ध हो सकता है, | अगर गुरुडम का जरा भी मोह होता, तो जरूर डाल देते। लेकिन नास्तिक नहीं। जो भी आस्तिक है, उसे गुरु होने की आकांक्षा नहीं होती। परमात्मा लेकिन नास्तिकता दो तरह की हो सकती है और आस्तिकता भी | ही है, तो और व्यक्ति को गुरु होने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। 'दो तरह की हो सकती है। नास्तिकता तब खतरनाक हो जाती है, | | और जिसे परमात्मा पर भरोसा है, वह प्रश्नों को संदेह की दृष्टि से जब अपने में बंद हो जाए। और आस्तिकता तब खतरनाक होती | | नहीं देखता, निंदा की दृष्टि से भी नहीं देखता। क्योंकि वह जानता है, जब उधार और बारोड होती है। आस्तिकता का खतरा उधारी में है, परमात्मा है। और यह व्यक्ति पूछ रहा है, तो यात्रा कर रहा है, है, नास्तिकता का खतरा अपने में बंद हो जाने में है। सब उधार | | पहुंच जाएगा। इसे पहुंचने दें सहज ही। आस्तिक हैं पृथ्वी पर! नास्तिक तक होने की ईमानदारी नहीं है, तो | | । गंगा बह चली है, तो सागर तक पहुंच जाएगी। अभी उसे पता आस्तिक होने का बहुत विराट कदम बिलकुल असंभव है। नहीं कि सागर है; लेकिन बह रही है, तो बेफिक्र रहें, पहुंच जाएगी। __ मैं तो मानता हूं कि नास्तिकता पहली सीढ़ी है आस्तिक होने के वह कहता नहीं कि रुक जाओ और मान लो। और गंगा अगर रुक लिए। शिक्षण है नास्तिकता। नहीं कहने का अभ्यास, हां कहने की | | जाए और मान ले कि सागर है, तो कभी जान नहीं पाएगी कि सागर तैयारी है। और जिसने कभी नहीं नहीं कहा, उसके हां में कितना | | है। रुक जाएगी, एक डबरा बन जाएगी सड़ा-गला; फिर उसी को बल होगा? और जिसने कभी नहीं कहने की हिम्मत नहीं जुटाई, । | सागर समझेगी। उसकी हां में कितना प्राण, कितनी आत्मा हो सकती है? | ऐसा आस्तिक अर्जुन नहीं है। अगर ठीक से समझें तो अर्जुन Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ITS गीता दर्शन भाग-1 AM और बढ़ेंड रसेल के व्यक्तित्व में कुछ मेल है। जैसा मैंने कल कहा 7 ग-पग पर अर्जुन की भ्रांतियां जुड़ी हैं। कह रहा है कि सार्च और अर्जुन के व्यक्तित्व में कुछ मेल है। वह मेल इतना 4 अर्जुन कि जिन पिता, पुत्र, मित्र, प्रियजन के लिए हम है कि जैसा सार्च चिंतित है, वैसा अर्जुन चिंतित है, लेकिन यहां मेल राज्य-सुख चाहते हैं...। झूठ कह रहा है। कोई टूट जाता है इसके आगे। सार्च अपनी चिंता को सिद्धांत बना लेता | चाहता नहीं। सब अपने लिए चाहते हैं। और अगर पिता-पुत्र के है, अर्जन अपनी चिंता को सिर्फ प्रश्न बनाता है। यहां उसका बर्टेड | लिए चाहते हैं, तो सिर्फ इसलिए कि वे अपने पिता हैं, अपना पुत्र रसेल से मेल है। है। वह जितना अपना उसमें जुड़ा है, उतना ही; इससे ज्यादा नहीं। बढ़ेंड रसेल एगनॉस्टिक है, जिंदगी के अंतिम क्षण तक पूछ रहा ___ हां, यह बात जरूर है कि उनके बिना सुख भी बड़ा विरस हो है। यह दूसरी बात है कि कोई कृष्ण नहीं मिला। कोई हर्जा भी नहीं | जाएगा। क्योंकि सुख तो मिलता कम है, दूसरों को दिखाई पड़े, है; आगे कभी मिल जाएगा। कोई हर्जा नहीं है। लेकिन पूछना वहां | | यह ज्यादा होता है। सुख मिलता तो न के बराबर है। बड़े से बड़ा है। यात्रा जारी है। मैं मानता हूं कि इस पृथ्वी पर बड रसेल के | | राज्य मिल जाए, तो भी राज्य के मिलने में उतना सुख नहीं मिलता, आस-पास पाल टिलिक जैसे जो आस्तिक हैं, ये इनसिंसियर हैं। | जितना राज्य मुझे मिल गया है, यह मैं अपने लोगों के सामने सिद्ध पाल टिलिक आत्मवंचक हो सकते हैं, रसेल नहीं है। और इस | कर पाऊं, तो सुख मिलता है। पृथ्वी पर पाल टिलिक और रसेल जैसे व्यक्ति साथ-साथ रहे हैं। और आदमी की चिंतना की सीमाएं हैं। अगर एक महारानी रास्ते मेरी अपनी समझ है कि बड रसेल आस्तिकता की तरफ ज्यादा से निकलती हो स्वर्ण आभषणों से लदी. हीरे-जवाहरातों से बढ़ा है, पाल टिलिक नहीं बढ़े; थियॉलाजिस्ट हैं। लदी-तो गांव की मेहतरानी को कोई ईर्ष्या पैदा नहीं होती। क्योंकि और बड़े मजे की बात है कि दुनिया में धर्म का सबसे बड़ा शत्रु महारानी रेंज के बाहर पड़ती है। मेहतरानी की चिंतना की रेंज नहीं अगर कोई है, तो अधर्म नहीं है, थियॉलाजी है, धर्म-शास्त्र है। धर्म है वह, वह सीमा नहीं है उसकी। महारानी से कोई ईर्ष्या पैदा नहीं की सबसे बड़ी शत्रुता शास्त्रीयता में है। तो जो लोग भी शास्त्रीयता होती, लेकिन पड़ोस की मेहतरानी अगर एक नकली कांच का में जीते हैं, वे कभी धार्मिक नहीं हो पाते। उसके कारण हैं, क्योंकि टुकड़ा भी लटकाकर निकल जाए, तो प्राण में तीर चुभ जाता है। धर्म बद्धि से ऊपर की बात है और शास्त्र सदा बद्धि से नीचे की बात वह रेंज के भीतर है। आदमी की ईर्ष्याएं, आदमी की महत्वाकांक्षाएं है। शास्त्र बुद्धि के ऊपर नहीं जाता और बुद्धि धर्म तक नहीं जाती। | निरंतर एक सीमा में बंधकर चलती हैं। पाल टिलिक सिर्फ बुद्धि से जी रहे हैं। ऐसा नहीं है कि बटैंड अगर आप यश पाना चाहते हैं, तो यह यश जो अपरिचित हैं, रसेल बुद्धि को इनकार कर रहा है; पूरी तरह बुद्धि से जी रहा है। स्ट्रेंजर्स हैं, उनके सामने आपको मजा न देगा। जो अपने हैं, परिचित लेकिन बुद्धि की स्वीकृति नहीं है। बद्धि पर भी बढ़ेंड रसेल को हैं. उनके सामने ही आपको मजा देगा। क्योंकि जो अपरिचित हैं. संदेह है. वह स्केप्टिक है बद्धि के बाबत भी। यह उसे लगता है | उनके सामने अहंकार को सिद्ध करने में कोई सुख नहीं है। जो अपने कि बुद्धि की भी सीमाएं हैं। हैं, उन्हीं को हराने का मजा है। जो अपने हैं, उन्हीं को दिखाने का अर्जुन में बड़ा गहरा समन्वय है। रसेल और सार्च जैसे इकट्ठे हैं। | मजा है कि देखो, मैं क्या हो गया और तुम नहीं हो पाए! उसका विषाद धार्मिक है, क्योंकि उसका विषाद श्रद्धा पर ले जाने | | जीसस ने कहीं कहा है कि पैगंबर या तीर्थंकर अपने ही गांव में वाला है। कभी आदृत नहीं होते। यद्यपि चाहेंगे अपने ही गांव में आदृत होना; लेकिन हो नहीं सकते। अगर जीसस अपने ही गांव में गए हों, तो लोग कहेंगे, बढ़ई का लड़का है। वही न जोसफ बढ़ई का लड़का! येषामर्थे कांक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च । कहां से ज्ञान पा लेगा? अभी कल तक लकड़ी काटता था, ज्ञान पा त इमेऽवस्थितत युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ।। ३३ ।। लिया? लोग हंसेंगे। इस हंसने में भी बढ़ई के लड़के को इतनी हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादिक इच्छित हैं, ऊंचाई पर स्वीकार करने की कठिनाई है। रेंज के भीतर है। बहुत वे ही यह सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर कठिन है। कोई प्रोफेट अपने गांव में पुज जाए, बड़ी कठिन बात युद्ध में खड़े हैं। | है। क्योंकि गांव की ईर्ष्या की सीमा के भीतर है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + विषाद और संताप से आत्म-क्रांति की ओर AM विवेकानंद को जितना आदर अमेरिका में मिलता था, उतना | | भूल जाता है। क्यों भूल जाता है? जब तक वह मैं को मजबूत करता कलकत्ता में कभी नहीं मिला। दो-चार-दस दिन कलकत्ता लौटकर | था, तब तक अपना था। और जब मैं को मजबूत नहीं करता, तब स्वागत-समारोह हुआ, फिर सब समाप्त हो गया। फिर कलकत्ता अपना नहीं रह जाता। में लोग कहेंगे कि अरे, वही न, कायस्थ का लड़का है, कितना ज्ञान | नहीं. अर्जन गलत कह रहा है। उसे पता नहीं है। उसे पता हो. हो जाएगा! . तब तो बात और हो जाए। उसे पता पड़ेगा धीरे-धीरे। गलत कह रामतीर्थ को अमेरिका में भारी सम्मान मिला, काशी में नहीं | रहा है कि जिनके लिए हम राज्य चाहते हैं...। नहीं, उसे कहना मिला। काशी में एक पंडित ने खड़े होकर कहा कि संस्कृत का अ चाहिए कि जिनके बिना राज्य चाहने में मजा न रह जाएगा...। बस नहीं आता और ब्रह्मज्ञान की बातें कर रहे हो? पहले संस्कृत चाहते तो अपने ही लिए हैं, लेकिन जिनकी आंखों के सामने चाहने सीखो! और बेचारे रामतीर्थ संस्कृत सीखने गए। में मजा आएगा कि मिले, जब वे ही न होंगे, तो अपरिचित, रेंज है, एक सीमा, एक वर्तुल है। लेकिन शायद रामतीर्थ को भी | अनजान लोगों के बीच राज्य लेकर भी क्या करेंगे! अहंकार का इतना मजा न्यूयार्क में सम्मान मिलने से नहीं आ सकता था, जितना मजा भी क्या होगा उनके बीच, जो जानते ही नहीं कि तुम कौन हो! काशी में मिलता, तो आता। इसलिए रामतीर्थ भी कभी नाराज नहीं | | जो जानते हैं कि तुम कौन हो, उन्हीं के बीच आकाश छूने पर पता हुए, अमेरिका में जब तक थे। कभी दुखी और चिंतित नहीं हुए। चलेगा कि देखो! काशी में दुखी और चिंतित हो गए। निरंतर ब्रह्मज्ञान की बात करते | ___ ध्यान रहे, हम अपने दुश्मनों से ही प्रतियोगिता नहीं कर रहे हैं, थे, काशी में इतनी हिम्मत न जुटा पाए कि कह देते कि ब्रह्मज्ञान का | अपने मित्रों से हमारी और भी गहरी प्रतियोगिता है। अपरिचितों से संस्कृत से क्या लेना-देना! भाड़ में जाए तुम्हारी संस्कृत। इतनी | | हमारी कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है, परिचितों से हमारी असली प्रतिस्पर्धा हिम्मत न जुटा पाए। बल्कि एक टयूटर लगाकर संस्कृत सीखने है। इसलिए दो अपरिचित कभी इतने बड़े दुश्मन नहीं हो सकते, बैठ गए। यह पीड़ा समझते हैं? | जितने दो सगे भाई हो सकते हैं। उन्हीं से हमारी प्रतिस्पर्धा है, उन्हीं वह जो अर्जुन कह रहा है निरंतर, सरासर झूठ कह रहा है। उसे के सामने सिद्ध करना है कि मैं कुछ हं। पता नहीं है। क्योंकि झूठ भी आदमी में ऐसा खून में मिला हुआ है | | वह अर्जुन गलत कह रहा है। लेकिन उसे साफ नहीं है स्वयं को, कि उसका पता भी मुश्किल से चलता है। असल में असली झूठ | वह जानकर नहीं कह रहा है। जानकर जो हम झूठ बोलते हैं, बहुत वे ही हैं, जो हमारे खून में मिल गए हैं। जिन झूठों का हमें पता ऊपरी हैं। न-जाने जो झूठ हमसे बोले जाते हैं, वे बहुत गहरे हैं। चलता है, उनकी बहुत गहराई नहीं है। जिन झूठों का हमें पता नहीं और जन्मों-जन्मों में हमने उन्हें अपने खून के साथ आत्मसात कर चलता, जिनके लिए हम कांशस भी नहीं होते, चेतन भी नहीं होते, लिया है, एक कर लिया है। वैसा ही एक झूठ अर्जुन बोल रहा है वे ही झूठ हमारी हड्डी-मांस-मज्जा बन गए हैं। अर्जुन वैसा ही झूठ कि जिनके लिए राज्य चाहा जाता है. वे ही न होंगे तो राज्य का क्या बोल रहा है, जो हम सब बोलते हैं। करूंगा...। पति अपनी पत्नी से कहता है कि तेरे लिए ही सब कर रहा हूं। नहीं। उचित, सही तो यह है कि वह कहे, राज्य तो अपने लिए पत्नी अपने पति से कहती है कि तुम्हारे लिए ही सब कर रही हूं! । चाहा जाता है, लेकिन जिनकी आंखों को चकाचौंध करना चाहूंगा, कोई किसी के लिए नहीं कर रहा है। हम सब अहंकार-केंद्रित | जब वे आंखें ही न होंगी, तो अपने लिए भी चाहकर क्या करूंगा! होकर जीते हैं। अहंकार की सीमा-रेखा में जो-जो अपने मालम | लेकिन वह अभी यह नहीं कह सकता। इतना ही वह कह सके, तो पड़ते हैं, उनके लिए भी हम उतना ही करते हैं, जितने से हमारा | जगह-जगह गीता का कृष्ण चुप होने को तैयार है। लेकिन वह जो अपना भरता है। वह जो अपनापन भरता है, जितना वे मेरे ईगो और | | भी कहता है, उससे पता चलता है कि वह बातें उलटी कह रहा है। मेरे अहंकार के हिस्से होते हैं, उतना ही हम उनके लिए करते हैं। | अगर वह एक जगह भी सीधी और सच्ची बात कह दे, एक भी वही पत्नी कल अपनी पत्नी न रह जाए, डाइवोर्स का विचार करने | | असर्शन उसका आथेंटिक हो, तो गीता का कृष्ण तत्काल चुप हो लगे, बस फिर सब करना बंद हो जाता है। जिस मित्र के लिए हम | | जाए। कहे, बात खतम हो गई। चलो, वापस लौटा लेते हैं रथ को। जान देने को तैयार थे, कल उसी की जान भी ले सकते हैं। सब | | लेकिन वह बात खतम नहीं होती, क्योंकि अर्जुन पूरे समय दोहरे 43 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1-AM वक्तव्य बोल रहा है। डबल, दोहरे वक्तव्य बोल रहा है। बोल कुछ से यह साफ न हो जाए कि यह-यह नर्क का मार्ग है, तब तक यह और रहा है, चाह कुछ और रहा है। है कुछ और, कह कुछ और | साफ नहीं हो पाता है कि स्वर्ग का मार्ग क्या है। रहा है। उसकी दुविधा कहीं और गहरे में है, प्रकट कहीं और कर भौतिक सुख, आध्यात्मिक सुख तक पहुंचाने में एक निषेधात्मक रहा है। चेतावनी का, निगेटिव चेतावनी का काम करते हैं। बार-बार हम इसे हमें समझकर चलना है, तभी हम कृष्ण के उत्तरों को समझ | | खोजते हैं भौतिक सुख को और बार-बार असफल होते हैं। सकेंगे। जब तक हम अर्जुन के प्रश्नों की दुविधा और अर्जुन के | बार-बार चाहते हैं और बार-बार नहीं पाते हैं। बार-बार आकांक्षा प्रश्नों का उलझाव न समझ लें, तब तक कृष्ण के उत्तरों की गहराई करते हैं और बार-बार वापस गिर जाते हैं। और कृष्ण के उत्तरों के सुलझाव को समझना मुश्किल है। यूनानी कथाओं में सिसिफस की कथा है। कामू ने उस पर एक | किताब लिखी है, दि मिथ आफ सिसिफस। सिसिफस को सजा दी है देवताओं ने कि वह एक पत्थर को खींचकर पहाड़ के शिखर प्रश्न : भगवान श्री, स्वजनों की हत्या में अर्जुन ने जो | तक ले जाए। और सजा का दूसरा हिस्सा यह है कि जैसे ही वह न च श्रेयोऽनुपश्यामि कहा, वहां वह प्रेयस से स्पष्टतः शिखर पर पहुंचेगा-पसीने से लथपथ, हांफता, थका, पत्थर को दूर ही रहता है। क्या केवल भौतिक उपयोग का | घसीटता-वैसे ही पत्थर उसके हाथ से छूटकर वापस खड्ड में गिर संदर्भ है? और यदि ऐसा है, तो वह सच्चा आस्तिक | जाएगा। फिर वह नीचे जाए, फिर पत्थर को खींचे और चोटी तक कैसे बनेगा? ले जाए। और फिर यही होगा. और फिर-फिर यही होता रहेगा। | अब यह सजा है। और यह इटरनिटी तक होता रहेगा। यह अंत तक होता रहेगा। अनंत तक होता रहेगा। र्जुन जहां है, वहां भौतिक सुख से ही संबंध हो सकता | | अब वह सिसिफस है कि फिर जाता है खाई में, फिर उठाता है 1 है। आस्तिक का भौतिक सुख से संबंध नहीं होता, | | पत्थर को। जब वह पत्थर को उठाता है, तो फिर इसी आशा से कि ऐसा नहीं है। आस्तिक का भौतिक सख से संबंध इस बार सफल हो जाएगा। अब की बार तो पहंचा ही देगा शिखर होता है, लेकिन जितना ही वह खोजता है, उतना ही पाता है कि पर। बता ही देगा देवताओं को कि बड़ी भूल में थे। देखो, भौतिक सुख असंभावना है। भौतिक सुख की खोज असंभव होती | | सिसिफस ने पत्थर पहुंचा ही दिया। फिर खींचता है। महीनों का है, तभी आध्यात्मिक सुख की खोज शुरू होती है। तो भौतिक सुख | अथक श्रम; किसी तरह टूटता, मरता ऊपर शिखर पर पहुंचता है। का भी आध्यात्मिक सुख की खोज में महत्वपूर्ण कांट्रिब्यूशन है, | पहुंच नहीं पाता कि पत्थर हाथ से छूट जाता है और फिर खाई में उसका बहुत महत्वपूर्ण दान है। सबसे महत्वपूर्ण दान भौतिक सुख | गिर जाता है। फिर सिसिफस उतर आता है। का यही है कि वह अनिवार्य रूप से विषाद में और फ्रस्ट्रेशन में ले आप कहेंगे, बड़ा पागल है। खाई में क्यों नहीं बैठ जाता? जाता है। अगर इतना आपको पता चल गया, तो आपकी जिंदगी में धर्म अब यह बड़े मजे की बात है कि जिंदगी में वे ही सीढ़ियां हमें | | की शुरुआत हो जाएगी। क्योंकि हम सब सिसिफस हैं। कहानी परमात्मा के मंदिर तक नहीं पहुंचातीं, जो परमात्मा के मंदिर से ही अलग-अलग होगी, पहाड़ अलग-अलग होंगे, पत्थर अलगजुड़ी हैं। वे सीढ़ियां भी परमात्मा के मंदिर की सीढ़ियों तक पहुंचाती अलग होंगे, लेकिन सिसिफस हम सब हैं। हम वही काम बार-बार हैं, जो परमात्मा के मंदिर से नहीं जुड़ी हैं। अब यह बड़ी उलटी-सी | | किए चले जाते हैं, बार-बार शिखर से छूटता है पत्थर और खाई मालूम पड़ेगी। स्वर्ग तक पहुंचने में वही सीढ़ी काम नहीं में गिर जाता है। लेकिन बड़ा मजेदार है आदमी का मन, वह आती, जो स्वर्ग से जुड़ी है। उससे भी ज्यादा और उससे भी पहले, बार-बार अपने को समझा लेता है कि कुछ भूल-चूक हो गई इस वह सीढ़ी काम आती है, जो नर्क से जुड़ी है। असल में जब तक बार मालूम होता है। अगली बार सब ठीक कर लेंगे। फिर शुरू कर नर्क की तरफ की यात्रा पूरी तरह से व्यर्थ न हो जाए, तब तक स्वर्ग | | देता है। और ऐसी भूल-चूक अगर एक-दो जन्म में होती हो तो भी की तरफ की कोई यात्रा प्रारंभ नहीं होती। जब तक बहुत स्पष्ट रूप ठीक है। जो जानते हैं, वे कहेंगे, अनंत जन्मों में ऐसा ही, ऐसा ही, बात मालू Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9- विषाद और संताप से आत्म-क्रांति की ओर AM ऐसा ही होता रहा है। गीता को सिर्फ मानस-शास्त्र कहकर आप रुक जाएंगे भौतिक सुख की चाह आध्यात्मिक खोज का अनिवार्य हिस्सा | कि अध्यात्म-शास्त्र भी कहेंगे? स्पष्ट करें। है। क्योंकि उसकी विफलता, उसकी पूर्ण विफलता आध्यात्मिक आनंद की खोज का पहला चरण है। इसलिए जो भौतिक सुख खोज रहा है, उसको मैं अधार्मिक नहीं कहता। वह भी धर्म को ही गलत | गीता को मनोविज्ञान ही कहूंगा। और मन से मेरा अर्थ दिशा से खोज रहा है। वह भी आनंद को ही वहां खोज रहा है, जहां 1 आत्मा नहीं है। मन से मेरा मतलब मन ही, माइंड ही आनंद नहीं मिल सकता है। लेकिन इतना तो पता चले पहले कि है। कई को दिक्कत और कठिनाई होगी। वे कहेंगे, नहीं मिल सकता है, तो किसी और दिशा में खोजे। | यह तो मैं गीता को नीचे गिरा रहा हूं। अध्यात्म-शास्त्र कहना लाओत्से से किसी ने पूछा कि तुम कहते हो, शास्त्रों से कुछ भी | चाहिए। लेकिन आपसे कहना चाहूंगा कि अध्यात्म का कोई शास्त्र नहीं मिला, लेकिन हमने सुना है कि तुमने शास्त्र पढ़े! तो लाओत्से | होता नहीं। ज्यादा से ज्यादा शास्त्र मन का हो सकता है। हां, मन ने कहा कि नहीं, शास्त्रों से बहुत कुछ मिला। सबसे बड़ी बात तो का शास्त्र वहां तक पहुंचा दे, जहां से अध्यात्म शुरू होता है, इतना यह मिली शास्त्र पढ़कर कि शास्त्रों से कुछ भी नहीं मिल सकता | ही हो सकता है। अध्यात्म-शास्त्र होता ही नहीं; हो नहीं सकता। है। यह कोई कम मिलना है! नहीं कुछ मिल सकता है, लेकिन बिना अध्यात्म-जीवन होता है, शास्त्र नहीं। अधिक से अधिक जो शब्द पढ़े यह पता नहीं चल सकता था। पढ़ा बहुत, खोजा बहुत, नहीं | कर सकता है, वह यह है कि वह मन की आखिरी ऊंचाइयों और मिल सकता है, यह जाना। यह कोई कम दाम नहीं है। निगेटिव है, | गहराइयों को छूने में समर्थ बना दे। इसलिए हमें खयाल में नहीं आता। ___ इसलिए मैं गीता को अध्यात्म-शास्त्र कहकर व्यर्थ न करूंगा। .लेकिन एक बार यह खयाल में आ जाए कि शब्द से, शास्त्र से | | वैसा कोई शास्त्र होता नहीं। और जो-जो शास्त्र आध्यात्मिक होने नहीं मिल सकता है, तो शायद हम अस्तित्व में, जीवन में खोजने | का दावा करते हैं-शास्त्र तो क्या करते हैं, शास्त्र को मानने वाले निकलें। सुख में नहीं मिल सकता है सुख, तो फिर शायद हम शांति | दावा कर देते हैं। वे-वे अपने शास्त्रों को व्यर्थ ही, व्यर्थ ही मनुष्य में खोजने निकलें। बाहर नहीं मिल सकता है सुख, तो शायद हम | की सारी उपयोगिता के बाहर कर देते हैं। भीतर खोजने निकलें। पदार्थ में नहीं मिल सकता है सुख, तो शायद ___ अध्यात्म है अनुभव और जो अनिर्वचनीय है, और जो हम परमात्मा में खोजने निकलें। लेकिन वह जो दूसरी खोज है, इस अवर्णनीय है, और जो व्याख्या के पार है, और जो शब्दों के अतीत पहली खोज की विफलता से ही शुरू होती है। है, और शास्त्र ही जिसे चिल्ला-चिल्लाकर कहते हैं कि मन से नहीं तो अर्जुन अभी जो बात कर रहा है, वह तो भौतिक सुख की ही मिलेगा, मन के आगे मिलेगा जो मन के आगे मिलेगा, वह कर रहा है कि राज्य से क्या मिलेगा? प्रियजन नहीं रहेंगे, तो क्या | | शब्दों में नहीं लिखा जा सकता है। इसलिए शास्त्र की आखिरी से मिलेगा? सुख से क्या मिलेगा? लेकिन आध्यात्मिक खोज का | | आखिरी पहुंच मनस है, मन है। उतना पहुंचा दे तो परम शास्त्र है। पहला चरण उठाया जा रहा है। इसलिए मैं उसे धार्मिक व्यक्ति ही | | और उसके पार जो छलांग लगेगी, वहां अध्यात्म शुरू होगा। कहूंगा। धर्म को उपलब्ध हो गया है, ऐसा नहीं; धर्म को उपलब्ध ___ गीता को मैं मनस-शास्त्र कहता हूं, क्योंकि गीता में वहां तक होने के लिए जो आतुर है, ऐसा। पहुंचाने के सूत्र हैं उसमें, जहां से छलांग, दि जंप, जहां से छलांग लग सकती है। लेकिन अध्यात्म-शास्त्र कोई शास्त्र होता नहीं। हां, आध्यात्मिक वक्तव्य हो सकते हैं; जैसे उपनिषद हैं। उपनिषद प्रश्नः भगवान श्री, आपने कल बताया कि | आध्यात्मिक वक्तव्य हैं। लेकिन उनमें कोई विज्ञान नहीं है। इसलिए भगवद्गीता मानस-शास्त्र है और आधुनिक | | मनुष्य के बहुत काम के नहीं हैं। गीता बहुत काम की है। मानस-शास्त्र के करीब आ जाता है। तो क्या आप | वक्तव्य है कि ब्रह्म है; ठीक है। एक वक्तव्य है कि ब्रह्म है। साइक का अर्थ माइंड करके उसको सीमित करते हैं? ठीक है। हमें पता नहीं है। जो जानता है, वह कहता है, है। जो नहीं क्योंकि साइक का जो मूल अर्थ है, वह है सोल। तो | | जानता है, वह कहता है, होगा। बेयर स्टेटमेंट है। तो उपनिषद काम 45 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1 में आ सकता है, जब आपको अध्यात्म का अनुभव हो जाए। तब है, वहां किसी समाधान की क्या जरूरत है? आप उपनिषद में पढ़कर कह सकते हैं कि ठीक है, ऐसा मैंने भी | | अध्यात्म स्वयं समाधान है। इसलिए अध्यात्म के द्वार का नाम जाना है। तो उपनिषद जो है, वह गवाही बन सकता है, विटनेस हो | हमने रखा है समाधि। सकता है। लेकिन जब आप जान लें, तब। समाधि का मतलब है, यहां से समाधान शुरू होता है, यहां से और मजा यह है कि जब आप जान लें, तो उपनिषद की गवाही | | अब समस्याएं नहीं होंगी। समाधि का मतलब है, यहां से अब की कोई जरूरत नहीं होती। आप ही जानते हैं, तो आप जो कहते | | समाधान शुरू होता है, अब समस्या नहीं; अब आगे प्रश्न नहीं हैं, वही उपनिषद हो जाता है। होंगे; अब आगे प्रश्न का कोई उपाय नहीं है। दरवाजे का नाम तो उपनिषद जो है, वह ज्यादा से ज्यादा गवाही बन सकता है | | समाधि रखा है। इसका मतलब यह है कि दरवाजे पर आ गए, अब सिद्ध के लिए। और सिद्ध के लिए कोई गवाही की जरूरत नहीं है। | इसके पार समाधान का जगत है। वहां समाधान ही समाधान होंगे, गीता साधक के लिए उपयोगी हो सकती है। सिद्ध के किसी काम | | वहां अब कोई समस्या नहीं होगी। लेकिन समाधि के द्वार तक बड़ी की गीता नहीं है। लेकिन असली सवाल तो साधक के लिए है। | समस्याएं होंगी। और वे सब समस्याएं मानसिक हैं। और साधक का असली सवाल आध्यात्मिक नहीं है। अगर ठीक से समझें, तो मतलब है, दि माइंड इज़ दि प्राब्लम, अर्जुन का असली सवाल आध्यात्मिक नहीं है। अर्जुन का मन ही समस्या है। जिस दिन मन नहीं है, उस दिन कोई समस्या नहीं असली सवाल मानसिक है, साइकोलाजिकल है। उसकी समस्या | | है। और अध्यात्म का मतलब है, वह अनुभव, जहां मन नहीं है। ही मानसिक है। इसलिए अगर कोई यह कहे कि उसकी समस्या | इसलिए मैं जब गीता को मनस-शास्त्र कहता हूं, तो अधिकतम तो मानसिक है और कष्ण उसका आध्यात्मिक हल कर रहे हैं. तो | | जो शास्त्र के संबंध में कहा जा सकता है, दि मैग्जिमम, वह मैं कह उन दोनों के बीच फिर कोई कम्युनिकेशन नहीं हो सकता। जहां | | रहा हूं। उससे आगे कहा नहीं जा सकता। और जो लोग उसे समस्या है, वहीं समाधान को होना चाहिए, तभी सार्थक होगा। आध्यात्मिक बनाएंगे, वे पिटवा देंगे, वे उसे फिंकवा देंगे। क्योंकि अर्जुन की समस्या मानसिक है, उसकी समस्या आध्यात्मिक नहीं | अध्यात्म की कोई समस्या नहीं है किसी की, सबकी समस्या मन है। उसका उलझाव मानसिक है। की है। . __ अब यह बड़े मजे की बात है, आध्यात्मिक समस्या होती ही और जब मैं कहता हूं, कृष्ण को मैं कहता हूं मनोविज्ञान का नहीं। जहां अध्यात्म है, वहां समस्या नहीं है। और जहां तक पहला उदघोषक, तो अधिकतम जो कहा जा सकता है, वह मैं कह समस्या है, वहां तक अध्यात्म नहीं है। मामला ठीक ऐसा ही है, | रहा हूं। हां! मनःसंश्लेषक, आत्मा का कोई संश्लेषण नहीं होता। जैसे कि मेरे घर में अंधेरा है और मैं आप से कहूं, अंधेरा है। आप | सारा खेल मन का है। सारा उपद्रव मन का है, मन के पार न कोई कहें कि मैं दीया ले जाकर देखता हं. कहां है। और आप दीया ले उपद्रव है. न कोई समस्या है। इसलिए मन के पार को कोई शास्त्र नहीं जाएं और अंधेरे को मैं न बता पाऊं। आप कहें, बताओ, कहां है? | | है। सब गुरु-शिष्य मन तक हैं, मन के पार कोई गुरु-शिष्य नहीं अब मैं दीया ले आया, अंधेरा कहां है? अब मैं मुश्किल में पड़ | है। मन के पार न अर्जुन है, न कृष्ण हैं। मन के पार जो है, उसका जाऊंगा, तो मैं आपसे कहूं कि कृपा कर दीया बाहर रखकर आइए। | कोई नाम नहीं है। सब मन के भीतर की सारी बात है। और इसलिए आप कहें कि दीया बाहर रख आऊंगा, तो अंधेरे को देखूगा कैसे? |गीता बहुत विशिष्ट है। . क्योंकि रोशनी चाहिए देखने के लिए। तो फिर एक ही बात मैं आप आध्यात्मिक वक्तव्य बहत हैं, कीमती हैं। लेकिन वक्तव्य हैं, से कहूंगा कि फिर अंधेरा नहीं देखा जा सकता, क्योंकि जहां रोशनी | | बेयर स्टेटमेंट्स हैं। एक आदमी कहता है, ऐसा है। लेकिन इससे है, वहां अंधेरा नहीं है और जहां अंधेरा है, वहां रोशनी नहीं है। कोई हल नहीं होता। हमारी समस्याएं किसी और तल पर हैं। हमारी और इन दोनों के बीच कोई कम्युनिकेशन नहीं है। मुसीबतें किसी और तल पर हैं। उस तल पर ही बात होनी चाहिए। आध्यात्मिक समस्या जैसी कोई समस्या होती ही नहीं। सब कृष्ण ने ठीक उस तल से बात की है, जा समस्याएं मानसिक हैं। अध्यात्म समस्या नहीं, समाधान है। जहां अपने तल से बात करें, तो गीता अध्यात्म-शास्त्र होती। लेकिन तब अध्यात्म है, वहां कोई समस्या नहीं है। और जहां कोई समस्या नहीं | अर्जुन को नहीं समझाया जा सकता था। अर्जुन कहता, माफ करें, किष्ण д6 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Im+ विषाद और संताप से आत्म-क्रांति की ओर AM होगा। मेरा कोई संबंध नहीं है इससे। तब उन दोनों के बीच कोई अध्यात्म का मतलब, जो जाना है जीसस ने, वह वक्तव्य दे रहे हैं। संवाद नहीं हो सकता था। तब एक आदमी आकाश में और एक वही तकलीफ हुई। क्योंकि जीसस आकाश की बातें कर रहे हैं। आदमी पाताल में होता। अर्जुन के सिर पर से बातें निकल जातीं। सुनने वाले जमीन की बातें समझ रहे हैं, इसलिए सूली पर लटकाए कुछ पकड़ में अर्जुन को नहीं आने वाला था। | गए। सूली पर लटकाने का कारण है। और बहत-सा कारण जीसस लेकिन कृष्ण, ठीक अर्जुन जहां है, वहां से उसका हाथ पकड़ते के ऊपर है। हैं। और वहीं से सारी समस्याओं को सुलझाना शुरू करते हैं। ___ जीसस कह रहे हैं, दि किंग्डम आफ गॉड, मैं तुम्हें परमात्मा के इसलिए गीता एक बहत साइकिक. एक बहत मनस की गतिमान | राज्य का मालिक बना दूंगा। लोग समझ रहे हैं कि वे जमीन के राज्य व्यवस्था है। एक-एक कदम अर्जुन ऊपर उठता है, तो गीता ऊपर का मालिक बनाने वाले हैं। यहूदियों ने रिपोर्ट कर दी उनकी कि यह उठती है। अर्जुन नीचे गिरता है, तो गीता नीचे गिरती है। अर्जुन आदमी खतरनाक है, रिबेलियस है। यह कुछ राज्य हड़पने की जमीन पर गिर जाता है, तो कृष्ण नीचे झुकते हैं। अर्जुन खड़ा हो कोशिश कर रहा है। और जब उनसे पूछा पायलट ने कि क्या तुम जाता है, तो कृष्ण खड़े हो जाते हैं। पूरे समय अर्जुन केंद्र पर है, राज्य हड़पने की कोशिश कर रहे हो? उन्होंने कहा कि हम राज्य पर कृष्ण नहीं हैं केंद्र पर। उपनिषद का ऋषि केंद्र पर है; वह अपने हमला बोल रहे हैं। मगर वह दूसरे राज्य की बात कर रहे हैं, किंग्डम वक्तव्य दे रहा है। वह कह रहा है, जो मैंने जाना, वह मैं कहता हूं। आफ गॉड। वह राज्य कहीं किसी को पता नहीं है। उन्होंने कहा, यह उसका आपसे कोई संबंध नहीं है। इसलिए मैं गीता को एक शिक्षक आदमी खतरनाक है। इस आदमी को सूली पर लटकाना चाहिए। के द्वारा कही हुई बातें कह रहा हूं। - जीसस जहां से बोल रहे हैं, वहां सुनने वाले लोग नहीं हैं। और कृष्ण सिर्फ ब्रह्मज्ञानी की तरह बोलें, तो अर्जुन से कोई नाता नहीं | | जहां जीसस बोल रहे हैं, वहां उनको सुनने वाला एक भी आदमी रह जाएगा। वे बहुत नीचे झुककर अर्जुन के साथ खड़े होकर बोलते | नहीं है। इसलिए जीसस और उनके सुनने वाले में कोई तालमेल हैं। और धीरे-धीरे जैसे अर्जुन ऊपर उठता है, वैसे ही वे ऊपर उठते | | नहीं है। हैं। और वहां छोड़ते हैं गीता के आखिरी सूत्रों को, जहां से मनस कृष्ण अदभुत शिक्षक हैं। वे अर्जुन को प्रायमरी क्लास से लेकर समाप्त हो जाता है और अध्यात्म शुरू हो जाता है। उसके बाद चर्चा ठीक युनिवर्सिटी के आखिरी दरवाजे तक पहुंचाते हैं। बहुत लंबी बंद हो जाती है। उसके बाद चर्चा का कोई मतलब नहीं है। यात्रा है। बहुत लंबी यात्रा है और बड़ी सूक्ष्म यात्रा है। और मैं वैसे __इसलिए मैंने बहुत जानकर, कंसीडर्ड-मेरा जो वक्तव्य है, ही चाहूंगा कि हम वैसे ही यात्रा करें। ऐसे ही नहीं कह देता हूं, कुछ भी नहीं ऐसे कह देता हूं-बहुत जानकर कहा कि गीता एक साइकोलाजी है। और भविष्य सिर्फ उन्हीं ग्रंथों का है, जो साइकोलाजी हैं। प्रश्नः भगवान श्री, आपने बताया कि मनुष्य भविष्य उन ग्रंथों का नहीं है, जो मेटाफिजिक्स हैं। मेटाफिजिक्स जन्मों-जन्मों का पुनरावर्तन करता रहता है। तो क्या मर गई; अब उसकी कोई जगह नहीं है। अब आदमी कहता है, पुनर्जीवन पाने के लिए वह पुनरावर्तन जरूरी नहीं है? हमारी समस्याएं हैं, इन्हें हल करिए। और जो इन्हें हल करेगा, यदि न हो, तो उसमें से अतिक्रमण कब होता है? उसकी जगह होगी। अब फ्रायड, जुंग, एडलर और फ्रोम और | और उसमें क्या गुरु या ग्रंथ कुछ मदद नहीं कर सलीवान, इनकी दुनिया है; अब यह कपिल, कणाद की दुनिया | सकते? कृपया बताइए। नहीं है। और आने वाले भविष्य में कृष्ण अगर फ्रायड और मुंग और एडलर की पंक्ति में खड़े होने का साहस दिखलाते हैं, तो ही गीता का भविष्य है; अन्यथा कोई भविष्य नहीं है। जीवन का अनंत पुनरावर्तन है; उपयोगिता है उसकी; मैंने बहुत सोचकर कहा है, बहुत जानकर कहा है। बाइबिल को UII उससे प्रौढ़ता आती है। खतरा भी है उसका; उससे मैं नहीं कह सकता कि वह मनस-शास्त्र है, नहीं कह सकता। कुछ जड़ता भी आ सकती है। एक ही चीज से दुबारा वक्तव्य हैं जो मानसिक हैं, लेकिन बहुत गहरे में वे अध्यात्म हैं। | गुजरने में दो संभावनाएं हैं। या तो दुबारा गुजरते वक्त आप उस 471 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm गीता दर्शन भाग-1 AM चीज को ज्यादा जान लेंगे; और यह भी संभावना है कि दोबारा यह कहेगा। कसम खाएगा कि अब क्रोध कभी नहीं करूंगा। गुजरते वक्त आप उतना भी न जान पाएंगे, जितना आपने पहली हालांकि ये कसमें इसने पहले भी खाई हैं, इसका कोई मतलब नहीं बार जाना था। दोनों ही बातें हैं। | है। यह जड़ व्यवस्था हो गई है। आपके घर के सामने जो वृक्ष लगा है, आप उसको शायद ही | | लेकिन अगर कोई आदमी होशपूर्वक क्रोध किया है, तो हर बार देखते हों, क्योंकि इतनी बार देखा है कि देखने की कोई जरूरत | क्रोध का अनुभव उसे क्रोध से मुक्त कराने में सहयोगी होगा। और नहीं रह गई है। पति-पत्नी शायद ही एक-दूसरे को देखते हों। | अगर बेहोशी से क्रोध किया है, तो हर क्रोध का अनुभव उसे और तीस-तीस साल साथ रहते हो गए। देख लिया था बहुत पहले, जब भी क्रोध की जड़ मूर्छा में ले जाने में सहयोगी होता है। शादी हुई थी। फिर देखने का कोई मौका नहीं आया। असल में ___जीवन का पुनरावर्तन दोनों संभावनाएं खोलता है। हम कैसा देखने की कोई जरूरत नहीं आई। अपरिचित स्त्री सड़क से | उपयोग करेंगे, हम पर निर्भर है। जीवन सिर्फ संभावनाएं देता है। निकलती है, तो दिखाई पड़ती है। हम उन संभावनाओं को क्या रूपांतरण देंगे, यह हम पर निर्भर है। असल में अपरिचित दिखाई पड़ता है, परिचित के प्रति हम अंधे एक आदमी चाहे तो क्रोध करके और गहरे क्रोध का अभ्यासी बन हो जाते हैं; ब्लाइंड स्पाट हो जाता है। उसे देखने की कोई जरूरत सकता है। और एक आदमी चाहे तो क्रोध करके, क्रोध की मूर्खता नहीं होती। कभी आंख बंद करके सोचें कि आपकी मां का चेहरा | को देखकर, व्यर्थता को देखकर, क्रोध की अग्नि और विक्षिप्तता कैसा है, तो आप बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे। फिल्म एक्ट्रेस का | | को देखकर, क्रोध से मुक्त हो सकता है। जो आदमी जड़ होता चला चेहरा याद आ सकता है; मां का चेहरा आंख बंद करके देखेंगे, तो जाता है, वह अधार्मिक होता चला जाता है; वह और संसारी होता एकदम खोने लगेगा। थोड़ी देर में रूप-रेखा गड्ड-मड्ड हो जाएगी। चला जाता है। जो आदमी चेतन होता चला जाता है, वह धार्मिक मां का चेहरा पकड़ में नहीं आता! इतना देखा है, इतने पास से देखा | होता चला जाता है, उसके जीवन में एक क्रांति होती चली जाती है। है, कि कभी गौर से नहीं देखा। निकटता अपरिचय बन जाती है। प्रत्येक पर निर्भर है कि जीवन का आप क्या करेंगे। निकटता अपरिचय बन जाती है। जीवन निर्भर नहीं है, जीवन अवसर है। उसमें क्या करेंगे, यह तो अनंत जीवन में एक से ही अनुभव से बार-बार गुजरने पर आप पर निर्भर है। यह निर्भरता ही आपके आत्मवान होने का प्रमाण . दो संभावनाएं हैं। और चुनाव आप पर है कि आप क्या करेंगे; | | है। यह निर्भरता ही आपके आत्मा होने का गौरव है। आपके पास स्वतंत्रता आपकी है। | आत्मा है, अर्थात चुनाव की शक्ति है कि आप चुनें कि क्या करेंगे। आप यह भी कर सकते हैं कि आप बिलकुल जड़, मेकेनिकल और मजे की बात यह है कि आपने हजारों चक्कर लगाए हों, हो जाएं, जैसा कि हम अधिक लोग हो गए हैं। एक यंत्रवत घूमते | अगर आज भी आप निर्णय कर लें, तो सारे चक्कर इसी क्षण छोड़ रहें, बस वही रोज-रोज करते रहें। कल भी क्रोध किया था. परसों सकते हैं, तोड़ सकते हैं। लेकिन मन लीस्ट रेसिस्टेंस की तरफ भी क्रोध किया था, उसके पहले भी, पिछले वर्ष भी, उसके पहले बहता है। घर में एक लोटा पानी गिरा दें। फर्श से बह जाए, सूख वर्ष भी। इस जन्म का ही हिसाब रखें, तो भी काफी है। अगर पचास | जाए, पानी उड़ जाए; लेकिन एक सूखी रेखा फर्श पर छूट जाती साल जीए हैं, तो कितनी बार क्रोध किया है! और हर बार क्रोध | | है। पानी नहीं है जरा भी। कुछ भी नहीं है, सिर्फ एक सूखी रेखा। करके कितनी बार पश्चात्ताप किया है। और हर बार पश्चात्ताप और सूखी रेखा का मतलब क्या है? कुछ भी मतलब नहीं है। वहां करके फिर दुबारा क्रोध किया है, फिर दुबारा पश्चात्ताप किया है! | | पानी बहा था। बस, इतनी एक रेखा छूट जाती है। फिर दुबारा पानी फिर धीरे-धीरे एक रूटीन, एक व्यवस्था बन गई है। उस कमरे में डोल दें, सौ में से निन्यानबे मौके यह हैं कि वह उसी और आदमी को देखकर आप कह सकते हैं कि यह अभी क्रोध | | सूखी रेखा को पकड़कर फिर बहेगा। क्योंकि लीस्ट रेसिस्टेंस है। कर रहा है, थोड़ी देर बाद पश्चात्ताप करेगा। क्रोध में क्या कह रहा | | उस सूखी रेखा पर धूल कम है। कमरे के दूसरे हिस्सों में धूल ज्यादा है, यह भी बता सकते हैं, क्या कहेगा, यह भी बता सकते है। वहां जगह जरा आसानी से बहने की है। पानी वहीं से बहेगा। हैं-अगर दो-चार दफे उसको क्रोध करते देखा है। और बाद में । हम बहुत बार जो किए हैं, वहां-वहां सूखी रेखाएं बन गई हैं। भी प्रिडिक्ट कर सकते हैं कि क्रोध के बाद पश्चात्ताप में ये-ये बातें उन सखी रेखाओं को ही मनस-शास्त्र संस्कार कहता है। वह 48 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषाद और संताप से आत्म-क्रांति की ओर 4 हमारी कंडीशनिंग है। उन सूखी रेखाओं पर फिर वही काम, फिर शक्ति का जन्म, फिर पानी का बहना, लीस्ट रेसिस्टेंस, फिर हम वहीं से बहना शुरू कर देते हैं। लेकिन सूखी रेखा कहती नहीं कि यहां से बहो । सूखी रेखा बांधती नहीं कि यहां से नहीं बहे, तो अदालत में मुकदमा चलेगा। सूखी रेखा कहती नहीं कि कोई नियम है ऐसा कि यहीं से बहना पड़ेगा, कि परमात्मा की आज्ञा है कि यहीं से बहो । सूखी रेखा सिर्फ एक खुला अवसर है, चुनाव सदा आपका है। और पानी अगर तय करे कि नहीं बहना है सूखी रेखा से, नई रेखा बना ले और बह जाए। फिर नई सूखी रेखा बन जाएगी। फिर नया संस्कार बन जाएगा। धर्म निर्णय और संकल्प है; जो होता रहा है, उससे अन्यथा होने की चेष्टा है; जो कल तक हुआ है, उसकी समझ से वैसा दुबारा न हो, इसका संकल्पपूर्वक चुनाव है। इसे ही हम साधना कहें, योग कहें, जो भी नाम देना चाहें, दे सकते हैं। एक आखिरी सूत्र और फिर सांझ को बात करेंगे। आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः । मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबन्धिनतस्था ।। ३४ । एतान्न हन्तुमिच्छामि नतोऽपि मधुसूदन । अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ।। ३५ ।। गुरुजन, ताऊ, चाचे, लड़के, और वैसे ही दादा, मामा, ससुर, पोते, साले तथा और भी संबंधी लोग हैं। इसलिए हे मधुसूदन, मुझे मारने पर भी अथवा तीन लोक के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है ? निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन । पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः ।। ३६ । । हे जनार्दन ! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर भी हमें क्या प्रसन्नता होगी! इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप हीं लगेगा । बा र-बार, फिर-फिर अर्जुन जो कह रहा है, वह बहुत विचार योग्य है। दो-तीन बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं। वह कह रहा है कि ये अपने स्वजनों को मारकर अगर तीनों लोक का राज्य भी मिलता हो, तो भी मैं लेने को तैयार नहीं हूं; इसलिए इस पृथ्वी के राज्य की तो बात ही क्या ! देखने में ऐसा लगेगा, बड़े त्याग की बात कह रहा है। ऐसा है नहीं। मैं एक वृद्ध संन्यासी से मिलने गया था । उन वृद्ध संन्यासी ने मुझे एक गीत पढ़कर सुनाया। उनका लिखा हुआ गीत। उस गीत में उन्होंने कहा कि सम्राटो, तुम अपने स्वर्ण सिंहासन पर होओगे सुख में, मैं अपनी धूल में ही मजे में हूं। मैं लात मारता हूं तुम्हारे | स्वर्ण सिंहासनों पर । तुम्हारे स्वर्ण सिंहासनों में कुछ भी नहीं रखा है। मैं अपनी धूल में ही मजे में हूं। ऐसा ही गीत था। पूरे गीत में यही बात थी। सुनने वाले बड़े मंत्रमुग्ध हो गए। हमारे मुल्क में मंत्रमुग्ध होना इतना आसान है कि और कोई चीज आसान नहीं है। सिर हिलाने लगे । मैं बहुत हैरान हुआ। उनका सिर हिलता देखकर संन्यासी भी बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने मुझसे पूछा, आप क्या कहते हैं? मैंने कहा, मुझे मुश्किल में डाल दिया है आपने। आप मुझसे पूछिए ही मत। उन्होंने कहा, नहीं, कुछ तो कहिए। मैंने कहा कि मैं सदा | सोचता हूं कि अब तक किसी सम्राट ने ऐसा नहीं कहा कि संन्यासियो, अपनी धूल में रहो मजे में, हम तुम्हारी धूल को लात मारते हैं। हम अपने सिंहासन पर ही मजे में हैं। किसी सम्राट ने अब तक ऐसा गीत नहीं लिखा। संन्यासी जरूर | सैकड़ों वर्ष से ऐसे गीत लिखते रहे हैं । कारण खोजना पड़ेगा । असल में संन्यासी के मन में सुख तो सोने के सिंहासन में ही दिखाई पड़ रहा है। अपने को समझा रहा है। कंसोलेटरी है उसकी बात । वह कह रहा है, रहे आओ अपने सिंहासन पर, हम अपनी धूल में ही बहुत मजे में हैं। लेकिन तुम से कह कौन रहा है कि तुम सिंहासन पर रहो। तुम धूल में मजे में हो, तो मजे में रहो। सिंहासन वाले को | ईर्ष्या करने दो तुम्हारे मजे की । लेकिन सिंहासन वाला कभी गीत नहीं लिखता है कि तुम अपने मजे में हो, तो रहे आओ। 49 उसको कंसोलेशन की कोई जरूरत नहीं है। वह अपने सिंहासन पर तुम्हारी धूल से कोई ईर्ष्या नहीं कर रहा है। लेकिन तुम धूल में पड़े हुए, उसके सिंहासन से जरूर ईर्ष्यारत हो । ईर्ष्या गहरी है। अब अर्जुन अपने को समझा रहा है। मन तो उसका होता है कि राज्य मिल जाए, लेकिन वह यह कह रहा है, इन सबको मारकर अगर तीनों लोक का राज्य भी मिलता हो - हालांकि कहीं कुछ मिल नहीं रहा है; कोई देने वाला नहीं है - तीनों लोक का राज्य भी Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ im गीता दर्शन भाग-1 AM मिलता हो, तो भी बेकार है। ऐसे बड़े राज्य की बात करके, फिर मित्र थे, वे इकट्ठे हो गए हैं; जो थोड़े कम मित्र थे, वे उस तरफ इकट्ठे वह उसका दसरा निष्कर्ष निकालता है कि तब पथ्वी के राज्य का हो गए हैं। मित्र वे भी हैं. प्रियजन वे भी हैं. गरु उस तरफ हैं। तो प्रयोजन ही क्या है! ऐसा बड़ा खयाल मन में पैदा करके कि मैं यह मैं कह रहा हूं, महत्वपूर्ण है। और ऐसी सिचुएशन इसलिए तीनों लोक का राज्य भी छोड़ सकता हूं, तो फिर पृथ्वी का राज्य तो महत्वपूर्ण है कि जिंदगी में चीजें वाटर टाइट कंपार्टमेंट में बंटी हुई छोड़ ही सकता हूं। लेकिन न उसको पृथ्वी का राज्य छोड़ने की | नहीं होती हैं। जिंदगी में चीजें काले और सफेद में बंटी हुई नहीं इच्छा है। और अगर कहीं कृष्ण उससे कहें कि देख, तुझे तीनों होतीं। जिंदगी ग्रे का फैलाव है। उसके एक कोने पर काला होता लोक का राज्य दिए देते हैं, तो वह बड़ी बिगूचन में पड़ जाएगा। है, दूसरे कोने पर सफेद होता है, लेकिन जिंदगी के बड़े फैलाव में वह कह रहा है, अपने को समझा रहा है। काला और सफेद मिश्रित होता है। यहां फलां आदमी शत्रु और अब यह बड़े मजे की बात है कि बहुत बार जब हम अपने को | फलां आदमी मित्र, ऐसा बंटाव नहीं है। फलां आदमी कम मित्र, समझाते होते हैं, तो हमारे खयाल में नहीं होता है कि हम किन-किन | | फलां आदमी ज्यादा मित्र; फलां आदमी कम शत्रु, फलां आदमी तरकीबों से अपने को समझाते हैं। बड़ा मकान देखकर पड़ोसी का | ज्यादा शत्रु-ऐसा बंटाव है। यहां जिंदगी में एब्सोल्यूट टर्म नहीं हम कहते हैं, क्या रखा है बड़े मकान में! लेकिन जब कोई आदमी | हैं। यहां कोई चीज पूरी कटी हुई नहीं है। यही उलझाव है। यहां सब कहता है, क्या रखा है बड़े मकान में! तो उस आदमी को बहुत कुछ चीजें कम-ज्यादा में बंटी हैं। रखा है, निश्चित ही रखा है। अन्यथा बड़ा मकान दिखता नहीं। वह __ हम कहते हैं, यह गरम है और यह ठंडा है। लेकिन ठंडे का क्या अपने को समझा रहा है, वह अपने मन को सांत्वना दे रहा है कि | | मतलब होता है, थोड़ा कम गरम। गरम का क्या मतलब होता है, कुछ रखा ही नहीं है, इसलिए हम पाने की कोशिश नहीं करते। अगर थोड़ा कम ठंडा। कभी ऐसा करें कि एक हाथ को स्टोव पर जरा कुछ होता, तो हम तत्काल पा लेते। लेकिन कुछ है ही नहीं, इसलिए गरम कर लें और एक हाथ को बरफ पर रखकर जरा ठंडा कर लें हम पाने की कोई कोशिश नहीं करते। . और फिर दोनों हाथों को एक ही बाल्टी के पानी में डाल दें, तब यह अर्जुन कह रहा है, तीन लोक के राज्य में भी क्या रखा है, आप बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे। तब ठीक अर्जुन की हालत में इसलिए पृथ्वी के राज्य में तो कुछ भी नहीं रखा है। और इतने छोटे | पड़ जाएंगे। तब आपका एक हाथ कहेगा पानी ठंडा है और एक से राज्य की बात के लिए इतने प्रियजनों को मारना...! हाथ कहेगा पानी गरम है। और एक ही पानी है। दोनों तो नहीं हो यह प्रियजनों को मारना उसके लिए सर्वाधिक कष्टपूर्ण मालूम सकता एक साथ-ठंडा और गरम! पड़ रहा है, न कि मारना कष्टपूर्ण मालूम पड़ रहा है। प्रियजनों को जीवन में सब कुछ सापेक्ष है, रिलेटिव है। जिंदगी में कुछ भी मारना कष्टपूर्ण मालूम पड़ रहा है। निरपेक्ष नहीं है। यहां सब कम-ज्यादा का बंटाव है। अर्जुन की वही स्वभावतः, सारा परिवार वहां लड़ने को खड़ा है। ऐसे युद्ध के तकलीफ है। और जो आदमी भी जिंदगी को देखेगा ठीक से, मौके कम आते हैं। यह युद्ध भी विशेष है। और युद्ध की तीक्ष्णता उसकी यही तकलीफ हो जाएगी। यहां सब कम-ज्यादा का बंटाव यही है महाभारत की कि एक ही परिवार कटकर खड़ा है। उस | है। कोई थोड़ा अपना ज्यादा, कोई अपना कम। कोई थोड़ा ज्यादा कटाव में भी सब दुश्मन नहीं हैं। कहना चाहिए कि जो फर्क | | निकट, कोई थोड़ा जरा दूर। कोई सौ प्रतिशत, कोई नब्बे प्रतिशत, है-यह थोड़ा सोचने जैसा है जो फर्क है, वह दुश्मन और मित्र कोई अस्सी प्रतिशत अपना है। और कोई नब्बे प्रतिशत, कोई का कम है; जो फर्क है, वह कम मित्र और ज्यादा मित्र का ही है। | अस्सी प्रतिशत, कोई सत्तर प्रतिशत पराया है। लेकिन जो पराया है, जो बंटवारा है, वह बंटवारा ऐसा नहीं है कि उस तरफ दुश्मन हैं | | उसमें भी अपना एक प्रतिशत का हिस्सा है। और जो अपना है, और इस तरफ मित्र हैं। इतना भी साफ होता कि उस तरफ पराए हैं | उसमें भी पराए के प्रतिशत का हिस्सा है। इसलिए जिंदगी उलझाव और इस तरफ अपने हैं, तो कटाव बहुत आसानी से हो जाता। | है। यह कट जाए ठीक शत्रु-मित्र में, अच्छे-बुरे में, तो बड़ा अर्जुन ठीक से मार पाता। आसान हो जाए। इतना आसान नहीं हो पाता। ... लेकिन बंटवारा बहुत अजीब है। और वह अजीब बड़ा अर्थपूर्ण __राम के भीतर भी थोड़ा रावण है और रावण के भीतर भी थोड़ा है। वह अजीब बंटवारा ऐसा है कि इस तरफ अपने थोड़े जो ज्यादा | राम है। इसलिए तो रावण को भी कोई प्रेम कर पाता है, नहीं तो Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ am विषाद और संताप से आत्म-क्रांति की ओर - रावण को कोई प्रेम न कर पाए। रावण को कोई प्रेम कर पाता है। | एकदम स्वाभाविक है; उसकी चिंता एकदम स्वाभाविक है। वह रावण में भी कहीं न कहीं राम किसी न किसी को दिखाई पड़ता है। थरथर कांप गया है, यह बिलकुल स्वाभाविक है। रावण को भी कोई प्रेम करता है। राम से भी कोई शत्रुता कर पाता | इस दुविधा से क्या निस्तार है? या तो आंख बंद करे और युद्ध है, तो राम की शत्रुता में भी कहीं न कहीं रावण थोड़ा दिखाई पड़ता | | में कूद जाए; या आंख बंद करे और भाग जाए। ये दो ही उपाय है। यहां बड़े से बड़े संत में भी थोड़ा पापी है, और यहां बड़े से बड़े | | दिखाई पड़ते हैं। तो आंख बंद करे और कहे, होगा कोई; जो अपनी पापी में भी थोड़ा संत है। जिंदगी सिर्फ सापेक्ष विभाजन है। | तरफ नहीं है, अपना नहीं है। मरना है, मरे। आंख बंद करे, युद्ध में यह अर्जुन की तकलीफ है कि सब अपने ही खड़े हैं। एक ही कूद जाए-सीधा है। या आंख बंद करे और भाग जाए-सीधा है। परिवार है, बीच में से रेखा खींच दी है। उस तरफ अपने हैं, इस लेकिन कृष्ण जो उपाय सुझाते हैं, वह सीधा नहीं है। वह लीस्ट तरफ अपने हैं। हर हालत में अपने ही मरेंगे। यह पीड़ा पूरे जीवन | रेसिस्टेंस का नहीं है। ये दोनों लीस्ट रेसिस्टेंस के हैं। ये दोनों सूखी की पीड़ा है। और यह स्थिति, यह सिचुएशन पूरे जीवन की स्थिति रेखाएं हैं। इन दोनों में वह कहीं भी चला जाए, बड़ी सरल है बात। है। इसलिए अर्जुन के लिए जो प्रश्न है, वह सिर्फ किसी एक शायद अनंत जन्मों में इन दो में से कहीं न कहीं वह गया होगा। ये युद्ध-स्थल पर पैदा हुआ प्रश्न नहीं है, वह जीवन के समस्त स्थलों | सहज विकल्प हैं। पर पैदा हुआ प्रश्न है। | लेकिन कृष्ण एक तीसरा ही विकल्प सझाते हैं. जिस पर वह .. अब वह घबड़ा गया है। उधर द्रोण खड़े हैं, उन्हीं से सीखा है। | कभी नहीं गया है। वह तीसरा विकल्प ही कीमती है। और जिंदगी अब उन्हीं पर तीर खींचना है। उन्हीं से धनुर्विद्या सीखी है। वह | में जब भी आपको दो विकल्प आएं, तो निर्णय करने के पहले उनका सबसे पट्ट शिष्य है। सबसे ज्यादा जीवन में उसके लिए ही | तीसरे के संबंध में सोच लेना। क्योंकि वह तीसरा सदा ही महत्वपूर्ण द्रोण ने किया है। एकलव्य का अंगूठा काट लाए थे इसी शिष्य के है, वे दो हमेशा वही हैं, जो आपने बार-बार चुने हैं। कभी इसको, लिए। वही शिष्य आज उन्हीं की हत्या करने को तैयार हो गया है! | इससे थक गए हैं तो विपरीत को, कभी विपरीत से थक गए तो इसी शिष्य को उन्होंने बड़ा किया है खून-पसीना देकर, सारी कला इसको उनको आप चुनते रहे हैं। दि थर्ड, वह तीसरा ही इसमें उंडेल दी है। आज इसी के खिलाफ वे धनुष-बाण खींचेंगे। | महत्वपूर्ण है, जो खयाल में नहीं आता है। उस तीसरे को ही कृष्ण बड़ा अदभुत युद्ध है। यह एक ही परिवार है, जिसमें बड़े तालमेल प्रस्तावित करेंगे, उस पर हम सांझ बात करेंगे। हैं, बड़े जोड़ हैं, बड़ी निकटताएं हैं, कटकर खड़ा हो गया है। लेकिन अगर हम जिंदगी को देखें, बहुत गहरे से देखें, तो जिंदगी के सब युद्ध अपनों के ही युद्ध हैं, क्योंकि पृथ्वी एक परिवार से ज्यादा नहीं है। अगर हिंदुस्तान पाकिस्तान से लड़ेगा, तो एक परिवार ही लड़ेगा। कल जिन बच्चों को हमने पढ़ाया, लिखाया, बड़ा किया था, वे वहां हैं। कल जिस जमीन को हम अपना कहते थे, वह वहां है। कल जिस ताजमहल को वे अपना कहते थे और जिसके लिए मर जाते, वह यहां है। यहां सब जुड़ा है। अगर हम कल चीन से लड़ेंगे, तो हिंदुस्तान ने चीन को सब कुछ दिया है। और हिंदुस्तान की सबसे बड़ी धरोहर, बुद्ध को, चीन ने बचाया है। और कोई बचाता नहीं। कल उनसे हम लडने खड़े हो जाएं। सारी जिंदगी, सारी पृथ्वी, ठीक से देखें तो एक बड़ा परिवार है। उसमें सारे युद्ध पारिवारिक हैं। और सब युद्ध इसी स्थिति को पैदा कर देते हैं, जो अर्जुन के मन में पैदा हो गई है। उसकी दुविधा Page #82 --------------------------------------------------------------------------  Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 1-2 चौथा प्रवचन दलीलों के पीछे छिपा ममत्व और हिंसा Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1 AM प्रश्नः भगवान श्री, आज सुबह आपने बताया कि मौजूद नहीं होता, इसलिए विचार कोई खबर नहीं ला पाता। गीता अध्यात्म-शास्त्र नहीं है. मानस-शास्त्र है। मगर इसलिए तो उपनिषद कह-कहकर थक जाते हैं, नेति-नेति। आपने यह भी बताया कि राम में रावण का अंश होता | कहते हैं, यह भी नहीं, वह भी नहीं। पूछे कि क्या है ? तो कहते हैं, है और रावण में राम का होता है। वैसे ही गीता में | यह भी नहीं है, वह भी नहीं है। जो भी मनुष्य कह सकता है, वह भी क्या ऐसा नहीं हो सकता कि शास्त्र में भी | | कुछ भी नहीं है। फिर क्या है वह अनुभव, जो सब कहने के बाहर अध्यात्म का कुछ अंश आ गया हो? | शेष रह जाता है? बुद्ध तो ग्यारह प्रश्नों को पूछने की मनाही ही कर दिए थे, कि इनको पूछना ही मत। क्योंकि इनको तुम पूछोगे तो खतरे हैं। अगर ' अध्यात्म को ऐसी अनुभूति कहता हूं, जो अभिव्यक्त | | मैं उत्तर न दूं तो कठोर मालूम पडूंगा तुम्हारे प्रति, और अगर उत्तर दूं 1 नहीं हो सकती। इशारे दिए जा सकते हैं, लेकिन इशारे | | तो सत्य के साथ अन्याय होगा, क्योंकि इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया अभिव्यक्तियां नहीं हैं। चांद को अंगुली से बताया जा जा सकता। इसलिए पूछना ही मत, मुझे मुश्किल में मत डालना। तो सकता है, लेकिन अंगुली चांद नहीं है। जिस गांव में बद्ध जाते. खबर कर दी जाती कि ये ग्यारह सवाल कोई गीता को जब मैंने कहा कि मनोविज्ञान है, तो मेरा अर्थ ऐसा नहीं | | भी न पूछे। वे ग्यारह सवाल अध्यात्म के सवाल हैं। है, जैसे कि फ्रायड का मनोविज्ञान है। फ्रायड का मनोविज्ञान मन | __ लाओत्से पर जब लोगों ने जोर डाला कि वह अपने अनुभव पर समाप्त हो जाता है; उसका कोई इशारा मन के पार नहीं है। मन लिख दे, तो उसने कहा, मुझे मुश्किल में मत डालो। क्योंकि जो मैं ही इति है, उसके आगे और कोई अस्तित्व नहीं है। गीता ऐसा | | लिखूगा, वह मेरा अनुभव नहीं होगा। और जो मेरा अनुभव है, जो मनोविज्ञान है, जो इशारा आगे के लिए करता है। लेकिन इशारा | मैं लिखना चाहता हूं, उसे लिखने का कोई उपाय नहीं है। फिर भी आगे की स्थिति नहीं है। दबाव में, मित्रों के आग्रह में, प्रियजनों के दबाव में नहीं माने गीता तो मनोविज्ञान ही है, लेकिन आत्मा की तरफ, अध्यात्म | | लोग, तो उसने अपनी किताब लिखी। लेकिन किताब के पहले ही की तरफ, परम अस्तित्व की तरफ, उस मनोविज्ञान से इशारे गए | | लिखा कि जो कहा जा सकता है, वह सत्य नहीं है। और सत्य वही . हैं। लेकिन अध्यात्म नहीं है। मील का पत्थर है; तीर का निशान | | है, जो नहीं कहा जा सकता है। इस शर्त को ध्यान में रखकर मेरी बना है; मंजिल की तरफ इशारा है। लेकिन मील का पत्थर मील | | किताब पढ़ना। का पत्थर ही है, वह मंजिल नहीं है। दुनिया में जिनका भी आध्यात्मिक अनुभव है, उनका यह भी कोई भी शास्त्र अध्यात्म नहीं हैं। हां, ऐसे शास्त्र हैं, जो अध्यात्म | अनुभव है कि वह प्रकट करने जैसा नहीं है। वह प्रकट नहीं हो की तरफ इशारे हैं। लेकिन सब इशारे मनोवैज्ञानिक हैं। इशारे सकता। निरंतर फकीर उसे गूंगे का गुड़ कहते रहे हैं। ऐसा नहीं कि अध्यात्म नहीं हैं। अध्यात्म तो वह है जो इशारे को पाकर उपलब्ध गूंगा नहीं जान लेता है कि गुड़ का स्वाद कैसा है, बिलकुल जान होगा। और वैसे अध्यात्म की कोई अभिव्यक्ति संभव नहीं है लेता है। लेकिन गंगा उस स्वाद को कह नहीं पाता। आप सोचते आंशिक भी संभव नहीं है। उसका प्रतिफलन भी संभव नहीं है। | | होंगे, आप कह पाते हैं, तो बड़ी गलती में हैं। आप भी गुड़ के स्वाद उसके कारण हैं। संक्षिप्त में दो-तीन कारण खयाल में ले लेने | | को अब तक कह नहीं पाए। गूंगा ही नहीं कह पाया, बोलने वाले जरूरी हैं। भी नहीं कह पाए। और अगर मैं जिद्द करूं कि समझाइए कैसा होता एक तो जब अध्यात्म का अनुभव होता है, तो कोई विचार चित्त है स्वाद, तो ज्यादा से ज्यादा गुड़ आप मेरे हाथ में दे सकते हैं कि में नहीं होता। और जिस अनुभव में विचार मौजूद न हो, उस | चखिए। इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। लेकिन गुड़ तो अनुभव को विचार प्रकट कैसे करे! विचार प्रकट कर सकता है उस | | हाथ में दिया जा सकता है, अध्यात्म हाथ में भी नहीं दिया जा अनुभव को, जिसमें वह मौजूद रहा हो, गवाह रहा हो। लेकिन | सकता कि चखिए। जिस अनुभव में वह मौजूद ही न रहा हो, उसको विचार प्रकट नहीं | - दुनिया का कोई शास्त्र आध्यात्मिक नहीं है। हां, दुनिया में ऐसे कर पाता। अध्यात्म का अनुभव निर्विचार अनुभव है। विचार | शास्त्र हैं, जिनके इशारे अध्यात्म की तरफ हैं। गीता भी उनमें से 54 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HTA दलीलों के पीछे छिपा ममत्व और हिंसा - एक है। लेकिन वे इशारे मन के भीतर हैं। मन के पार दिखाने वाले सामाजिक चिंतना है, सोशल कोड है। मनु का वचन अध्यात्म नहीं हैं, लेकिन मन के भीतर हैं। और उनका विज्ञान तो मनोविज्ञान है; | है। मनु का वचन तो मनस भी नहीं है, मनोविज्ञान भी नहीं है। मनु उनका आधार तो मनोविज्ञान है। शास्त्र की ऊंची से ऊंची ऊंचाई का वचन तो सामाजिक रीति-व्यवहार की व्यवस्था है। इसलिए मनस है। शब्द की ऊंची से ऊंची संभावना मनस है। अभिव्यक्ति | मनु को जोड़ना हो अगर, तो उसे जोड़ना पड़ेगा मार्क्स से, उसे की आखिरी सीमा मनस है। जहां तक मन है, वहां तक प्रकट हो | | जोड़ना पड़ेगा दुर्थीम से, इस तरह के लोगों के साथ। मनु का कोई सकता है। जहां मन नहीं है, वहां सब अप्रकट रह जाता है। बहुत गहरा सवाल नहीं है। तो जब मैंने गीता को मनोविज्ञान कहा, तो मेरा अर्थ नहीं है कि मनु सामाजिक व्यवस्थापक हैं। और समाज की कोई भी वाटसन के मनोविज्ञान जैसा मनोविज्ञान, कोई बिहेवियरिज्म, कोई व्यवस्था चरम नहीं है। समाज की सभी व्यवस्थाएं सामयिक हैं। व्यवहारवाद। या पावलोव का विज्ञान, कोई कंडीशंड रिफ्लेक्स। जो व्यक्ति भी थोड़ा चिंतन करेगा, उसका चिंतन निरंतर समाज की ये सारे के सारे मनोविज्ञान अपने में बंद हैं और मन के आगे किसी व्यवस्था के ऊपर चला जाएगा। क्योंकि समाज की व्यवस्था सत्ता को स्वीकार करने को राजी नहीं हैं। कुछ तो मन की भी सत्ता अंतिम व्यक्ति को ध्यान में रखकर बनाई गई होती है। स्वीकार करने को राजी नहीं हैं। वे तो कहते हैं, मन सिर्फ शरीर का _ जैसे कहा जाता है कि योग्य शिक्षक वही है, जो अपनी कक्षा में ही हिस्सा है। मन यानी मस्तिष्क। मन कहीं कुछ और नहीं है। यह | अंतिम विद्यार्थी को ध्यान में रखकर बोलता हो। निश्चित ही योग्य हड्डी-मांस-पेशी, इन सबका ही विकसित हिस्सा है। मन भी शरीर | शिक्षक वही है, जो कक्षा में अंतिम व्यक्ति को ध्यान में रखकर से अलग कुछ नहीं है। | बोलता हो। लेकिन तब जो कक्षा में प्रथम व्यक्ति है, उसके लिए गीता ऐसा मनोविज्ञान नहीं है। गीता ऐसा मनोविज्ञान है, जो मन | शिक्षक तत्काल बेकार हो जाता है। के पार इशारा करता है। लेकिन है मनोविज्ञान ही। अध्यात्म-शास्त्र समाज की व्यवस्था में तो अंतिम व्यक्ति को ध्यान में रखा जाता उसे मैं नहीं कहूंगा। और इसलिए नहीं कि कोई और अध्यात्म-शास्त्र है और जड़ नियम स्थापित किए जाते हैं। अर्जुन साधारण व्यक्ति है। कहीं कोई शास्त्र अध्यात्म का नहीं है। अध्यात्म की घोषणा ही | नहीं है, मीडियाकर माइंड नहीं है; अर्जुन चिंतनशील है, मेधावी है; यही है कि शास्त्र में संभव नहीं है मेरा होना, शब्द में मैं नहीं असाधारण प्रतिभाशाली है; जिंदगी उसके लिए सोच-विचार बन समाऊंगा, कोई बुद्धि की सीमा-रेखा में नहीं मुझे बांधा जा सकता। जाती है। जो सब सीमाओं का अतिक्रमण कर जाता है, और सब शब्दों को । अब मनु कहते हैं कि जो आततायी है, उसे तो मार देने में कोई व्यर्थ कर जाता है, और सब अभिव्यक्तियों को शून्य कर जाता बुराई नहीं है। विचारशील को इतना आसान नहीं है मामला। कौन है-वैसी जो अनुभूति है, उसका नाम अध्यात्म है। आततायी है? और आततायी हो भी, तब भी मारना उचित है या नहीं उचित है? फिर आततायी अपना है, मनु को उसका खयाल भी नहीं है। आततायी में मानकर चला गया है कि वह दुश्मन है। यहां प्रश्न : भगवान श्री, कहीं ऐसा मनु-वचन है कि जहां आततायी अपना है। और एक व्यक्ति नहीं है, लाखों व्यक्ति हैं। आततायी को मारने के लिए उन्होंने निर्देश दिया है, | और उन लाखों से लाखों तरह के निकट संबंध हैं। आततायिनम् आयन्तं अन्यादेवऽविचारतः। शास्त्राज्ञा इसलिए अर्जुन की स्थिति बहुत भिन्न है। वह साधारण आततायी तो है ऐसी और अर्जुन यह भी जानता है कि दुर्योधन | की, हमलावर की, और जिसके ऊपर हमला हुआ है, उसकी नहीं आदि सब आततायी हैं, और तब भी उनको मारने से | है। वही तो वह चिंतन कर रहा है, वही तो वह कह रहा है कि अगर उसका जी हिचकिचाता है। तो इसका कारण क्या है? | इन सब को मारकर राज्य को भी पा लें, तो क्या यह सौदा उचित | है? वह वही पूछ रहा है। इन सबको मारकर राज्य को पा लेना, | क्या सौदा उचित है? क्या इतनी कीमत पर राज्य को ले लेना कुछ 5 क तो मनु जो कहते हैं, वह सिर्फ सामाजिक नीति है, ।। | सार्थकता रखता है? वह यही पूछ रहा है। ५ सोशल इथिक्स है। मनु जो कहते हैं, वह केवल यह जो अर्जुन की मनोदशा है, मनु के जो नियम हैं, उन नियमों 55 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm गीता दर्शन भाग-1 - से बहुत ऊपर चिंतन की है। जिम्मेवार हैं। लेकिन यह भी बहुत पीछे से जब पर्सपेक्टिव मिलता असल में नियम तो सदा जड़ होते हैं। जड़ नियम कामचलाऊ | | है, दूरी मिलती है, तब तय होता है। होते हैं और विशेष संकट की स्थितियों में अर्थहीन हो जाते हैं। और | ठीक युद्ध के घने क्षण में अर्जुन का मन बहुत चिंतित हो उठा अर्जुन की संकट की स्थिति बहुत विशेष है। विशेषता तीन प्रकार है। कुछ साफ नहीं है, क्या हो रहा है, वह कहां तक ठीक हो रहा की है। एक तो यह है कि यह तय करना बहुत मुश्किल है कि | है। और फिर अगर यह भी तय हो कि आततायी वही हैं, तो भी उस आततायी कौन है? | तरफ सारे प्रियजन खड़े हैं। होगा, दुर्योधन आततायी होगा। लेकिन सदा ही मुश्किल है। हमें बहुत आसानी लगती है पीछे से तय | | द्रोण? द्रोण आततायी नहीं हैं। दुर्योधन आततायी होगा, लेकिन करने में कि आततायी कौन है। अगर कौरव जीत गए होते, तो | भीष्म? भीष्म आततायी नहीं हैं, उनकी गोद में ये सब बच्चे बड़े आपको पता चलता कि आततायी कौन है ? क्योंकि तब कथा और | | हुए हैं। दुश्मन एक नहीं है, दुश्मन एक बड़ी जमात है। उस जमात ढंग से लिखी गई होती, क्योंकि तब कथाकार और होते। और | में तय करना कठिन है। यही चिंता का कारण है। कथाकार तो जो विजेता है, उसके आस-पास इकट्ठे होते हैं; हारे | मनु जो नियम बना रहे हैं, वे बहुत साधारण हैं, साधारणतया हुओं के आस-पास तो इकट्टे नहीं होते। | उपयोगी हैं। लेकिन इस विशेष स्थिति में मनु काम नहीं करेंगे। कर दूसरे महायुद्ध में हिटलर हार गया, तो अब हम जानते हैं कि । | भी सकते थे, कर सकते थे एक ही हालत में कि अर्जुन इस स्थिति बुरा कौन था। लेकिन अगर हिटलर जीत जाता और चर्चिल और । | को झुठलाना चाहता, तो कहता, मनु का हवाला देता, कि ठीक है रूजवेल्ट और स्टैलिन हारते, तो हम बिलकुल पक्का जानते कि मनु ने कहा है, आततायी को मारो, मारते हैं। लेकिन वह कोई बहुत बुरा कोई दूसरा था। स्थितियां गुजर जाने पर पीछे से जो हम सोच बड़ा विचारपूर्ण कदम न होता। और एक तो बात पक्की थी कि पाते हैं, वह ठीक स्थितियों के बीच में इतना तय नहीं होता है। विचारपूर्ण इसलिए भी न होता कि यह गीता आपको उपलब्ध न आमतौर से इतिहास लिखने वाला आदमी विजेताओं का इतिहास | | होती। यह गीता उपलब्ध हो सकी है अर्जुन के मंथन से, मनन से, लिखता है। और आमतौर से इतिहास विजेताओं के आस-पास | | उसकी विचारणा से, उसकी जिज्ञासा से। चीजों को सीधा स्वीकार क्रिस्टलाइज होता है। | कर लिया होता, तो ठीक था, युद्ध होता, कोई जीतता, कोई हारता। . तो आज हम जानते हैं कि कौरव आततायी थे। लेकिन ठीक युद्ध युद्ध होता है तो कोई जीतता है, कोई हारता है। कहानी बनती है, के क्षण में, कौन आततायी है, किसने बरा किया है, यह मामला। कथा बनती है। इतना दो और दो चार जैसा साफ नहीं होता। कभी साफ नहीं होता। महाभारत उतना महत्वपूर्ण सिद्ध नहीं हुआ है, जितनी गीता चीन कहे चला जाता है कि हमला हिंदुस्तान ने उस पर किया | | महत्वपूर्ण सिद्ध हुई है। महाभारत तो हुआ और समाप्त हो गया। था। हिंदुस्तान कहे चला जाता है कि चीन ने हमला उस पर किया | | गीता का समाप्त होना मुश्किल है। महाभारत तो एक घटना रह गई था। कभी यह तय नहीं होगा कि किसने हमला किया था। आज | | है। और समय बीतता जाता है और भूलता चला जाता है। बल्कि तक कभी तय नहीं हो पाया कि कौन हमलावर है। हां, जो जीत | सच तो यह है कि महाभारत याद ही इसलिए रह गया कि उसमें जाता है, वह इतिहास लिख लेता है। हारा हुआ हमलावर तय हो | गीता भी घटी, नहीं तो महाभारत याद रहने जैसा भी नहीं था। जाता है। जो हार जाता है, वह इतिहास नहीं लिख पाता है। । हजारों युद्ध हुए हैं। आदमी ने तीन हजार साल में चौदह हजार क्या हार जाना ही हमलावर होने का सबत है? पीछे से तय यद किए हैं। लेकिन यद्ध. ठीक है. एक छोटा-सा फटनोट बन करना सदा आसान है, क्योंकि तब रेखाएं बंध गई होती हैं। लेकिन | जाता है इतिहास में। लेकिन युद्ध से भी बड़ी घटना गीता बन गई ठीक परिस्थिति के बीच इतना आसान नहीं है। है। वह महाभारत का जो युद्ध था, उससे भी महत्वपूर्ण घटना गीता भूल-चूक सदा दोनों तरफ होती है; मात्राओं में फर्क हो सकते | बन गई है। आज अगर महाभारत याद है, तो गीता के कारण याद हैं, लेकिन इकतरफा नहीं होती। ऐसा नहीं है कि कौरव ही एकदम है; गीता महाभारत के कारण याद नहीं है। . जिम्मेवार हैं सारे पाप के लिए, और पांडव बिलकुल नहीं हैं। ऐसा | और इसलिए यह भी आपसे कहना चाहूंगा, इस जगत में नहीं है। मात्राओं के फर्क होते हैं। यह हो सकता है, कौरव ज्यादा घटनाओं का मूल्य नहीं, इस जगत में विचारणाओं का मूल्य है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PM दलीलों के पीछे छिपा ममत्व और हिंसा - इस जगत में इवेंट्स, घटनाएं घटती हैं और राख हो जाती हैं। और को जिन्होंने सहा है, उनसे पैदा हुआ है। अर्जुन ने कष्ट सहा है उस विचार शाश्वत यात्रा पर निकल जाते हैं। घटनाएं मर जाती हैं, उन | | घड़ी में, उस कष्ट के परिणाम में गीता प्रतिसंवेदित हुई है। घटनाओं के बीच अगर किसी विचार का, किसी आत्मवान विचार | नहीं, मनु से काम नहीं चल सकता। उतने जड़ नियम सड़क पर का जन्म हुआ, तो वह अनंत की यात्रा पर निकल जाता है। | ट्रैफिक के नियम जैसे हैं कि बाएं चलना चाहिए। बिलकुल ठीक महाभारत महत्वपूर्ण नहीं है। न भी हुआ हो तो क्या फर्क पड़ता | | है। इसमें कोई अड़चन नहीं है। उलटा कर लें कि दाएं चलना है! लेकिन गीता न हुई हो तो बहुत फर्क पड़ता है। महाभारत एक | | चाहिए, तो भी कोई तकलीफ नहीं है। अमेरिका में उलटा चलते हैं, छोटी-सी घटना हो गई। और जैसे समय आगे बढ़ता जाएगा, | लिखा है दाएं चलना चाहिए, तो आदमी दाएं चल रहा है। बाएं छोटी होती जाएगी। एक परिवार के भाइयों का, चचेरे भाइयों का | चलें, दाएं चलें, तय कर लेने से काम चल जाता है। झगडा था। हो गया. निपट गया। उनकी बात थी. समाप्त हो गई। लेकिन ये कोई जीवन के परम आधार नहीं हैं। और अगर कोई लेकिन गीता रोज-रोज महत्वपूर्ण होती चली गई है। यह हो सकी | आदमी सवाल उठाए कि बाएं चलने में ऐसी कौन-सी खूबी है, महत्वपूर्ण इसलिए कि अर्जुन के पास मनु को मान लेने जैसी दाएं क्यों न चला जाए! तो दुनिया में कोई नहीं समझा पाएगा। यह साधारण बुद्धि नहीं थी। अर्जुन के पास एक प्रतिभा थी, जो पूछती | सिर्फ व्यवस्थागत है। और अगर कोई बहुत विचारशील आदमी हो है, जो संकट में सवाल उठाती है। और सवाल उठाए कि बाएं क्या है और दाएं क्या है, तो मुश्किल - आमतौर से संकट में सवाल उठाना बहुत कठिन है। घर में | | खड़ी हो जाएगी। कामचलाऊ है। बैठकर गीता पढ़ना और सवाल उठाना बहुत आसान है। अर्जुन की | मनु की जो व्यवस्था है, अत्यंत कामचलाऊ है। कामचलाऊ स्थिति में सवाल उठाना बहुत जोखम से भरा काम है। वह स्थिति | व्यवस्था के ऊपर प्रश्न उठ रहे हैं अर्जुन के मन में। उसके प्रश्न सवाल की नहीं है। वह स्थिति कोई ब्रह्म-जिज्ञासा की नहीं है, वह | परम हैं। वह यह पूछ रहा है कि मिल जाएगा राज्य इतनों को स्थिति कोई गुरु-शिष्य वृक्ष के नीचे बैठकर चिंतन-मनन करें, मारकर, अपनों को मारकर-क्या होगा अर्थ? क्या होगा इसकी नहीं है। यद्ध द्वार पर खड़ा है। हंकारें हो गई हैं, शंख बज गए प्रयोजन? माना कि जीत जाऊंगा, क्या होगा? माना कि वे हैं और इस क्षण में उस आदमी के मन में कंपन हैं। हिम्मतवर आदमी आततायी हैं, काट डालेंगे उन्हें, बदला पूरा हो जाएगा-फिर क्या है। कंपन को उस युद्ध के बीच स्थल में प्रकट करता है और वहां होगा? बदले का क्या अर्थ है? और न मालूम कितने निहत्थे मर भी सोच-विचार करता है। इतने संकट में जो सोच-विचार करता है, जाएंगे, न मालूम कितने निर्दोष मर जाएंगे, जिनका कोई संबंध नहीं वह साधारण प्रतिभा नहीं है। मनु से काम न चलेगा, उसे कृष्ण जैसा | है, जो युद्ध में घसीटकर ले आए गए हैं, क्योंकि उनका कहीं कोई आदमी चाहिए। मनु वहां होते तो वे कहते कि पढ़ लो मेरी मनुस्मृति, | संबंध है—उन सबका क्या होगा? उसमें लिखा है कि आततायी को मारो, कर्तव्य स्पष्ट है। नहीं, उसके प्रश्न ज्यादा कीमती हैं, मनु से काम नहीं चल कर्तव्य सिर्फ नासमझों को सदा स्पष्ट रहा है. समझदारों को | सकता है। कभी स्पष्ट नहीं रहा। समझदार सदा संदिग्ध रहे हैं। क्योंकि समझदार इतना सोचता है और अक्सर दोनों पहलुओं पर सोचता है कि मुश्किल में पड़ जाता है कि कौन सही है, कौन गलत है! तस्मानार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् । गलत और सही की स्पष्टता अज्ञानियों को जितनी होती है, उतनी स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ।। ३७ ।। विचारशील लोगों को नहीं होती। यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः । अज्ञानी के लिए सब साफ होता है, यह गलत है, वह सही है। __कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ।। ३८।। यह हिंदू है, वह मुसलमान है। यह अपना है, वह पराया है। लेकिन इससे हे माधव, अपने बांधव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के जितना चिंतन आगे बढ़ता है, उतना ही संदेह खड़ा होता है। कौन | | लिए हम योग्य नहीं हैं, क्योंकि अपने कुटुंब को मारकर हम अपना, कौन पराया? क्या ठीक, क्या गलत? और इस जगत में | कैसे सुखी होंगे? यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग जो भी मूल्यवान पैदा हुआ है, वह इस चिंतन की पीड़ा के प्रसव | कुल के नाशकृत दोष को और मित्रों के साथ विरोध करने 57 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + गीता दर्शन भाग - 14 में पाप को नहीं देखते हैं। कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् । कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ।। ३९ ।। कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः । धर्मे नष्टे कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ।। ४० ।। परंतु हे जनार्दन, कुल के नाश करने से होते हुए दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए? क्योंकि कुल के नाश होने से सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं। धर्म के नाश होने से संपूर्ण कुल को पाप भी बहुत दबा लेता है ! अ र्जुन कह रहा है कि वे विचारहीन हैं, हम भी विचारहीन होकर जो करेंगे, वह कैसे शुभ होगा ! माना कि वे गलत हैं, लेकिन गलत के प्रत्युत्तर में हम भी गलत करेंगे, तो क्या वह ठीक होगा! क्या एक गलत का प्रत्युत्तर दूसरे गलत से दिए जाने पर सही का निर्माण करता है ! वह यह पूछ रहा है कि भूल है उनकी, तो हम भी भूल करेंगे, तो दो भूलें मिलकर ठीक हो जाती हैं कि दुगुनी हो जाती हैं। माना कि उनका चित्त भ्रमित हो गया है, माना कि उनकी बुद्धि नष्ट हुई है, तो क्या हम भी अपनी बुद्धि नष्ट कर लें! और जो मिलेगा, क्या वह इस योग्य है ! क्या उसकी इतनी उपादेयता है! क्या उसका इतना मूल्य है! ध्यान रखें, इसमें अर्जुन के मन में दोहरी बात चल रही है। एक ओर वह कह रहा है कि क्या इसका कोई मूल्य है ! इसमें दो बातें हैं। हो सकता है कोई मूल्य हो और कृष्ण उसे मूल्य बता पाएं, तो वह लड़ने के लिए रेशनलाइज कर ले। हो सकता है, कृष्ण समझा पाएं कि हां मूल्य है; हो सकता है, कृष्ण समझा पाएं कि लाभ है, कल्याण है; हो सकता है, कृष्ण समझा पाएं कि बुराई को बुराई से काट दिया जाएगा, और तब जो शेष बचेगा वह शुभ होगा - तो वह लड़ने के लिए अपने को तैयार कर ले। आदमी अपने को तैयार करने के लिए बुद्धिगत कारण खोजना चाहता है। अर्जुन के मन में दोनों बातें हैं। वह जिस तरह से प्रश्न को मौजूद कर रहा है, वह यह है कि या तो मुझे भाग जाने के लिए स्वीकृति दें, या तो मैं एस्केप कर जाऊं; और या फिर मैं युद्ध में उतरूं, तो मुझे प्रयोजन स्पष्ट करा दें। वह अपने मन को साफ कर लेना चाहता है। युद्ध में उतरे, तो यह जानकर निश्चितमना, कि जो हो 58 रहा है, वह शुभ हो रहा है। या फिर युद्ध से भाग जाए। ये दो विकल्प उसे दिखाई पड़ रहे हैं। वह दोनों के लिए राजी दिखाई पड़ता है, दो में से कोई भी एक हो जाए। इसे थोड़ा समझ लेने जैसा है। आदमी सदा से अपने को बुद्धिमान, विचारशील, रेशनल समझता रहा है। अरस्तू ने तो आदमी को रेशनल एनिमल ही कहा है; कहा है कि बुद्धिमान प्राणी है। लेकिन जैसे-जैसे आदमी के संबंध में समझ हमारी बढ़ी है, वैसे-वैसे पता चला है कि उसकी बुद्धिमानी सिर्फ अपनी अबुद्धिमानियों को बुद्धिमानी सिद्ध करने से ज्यादा नहीं है। आदमी' का रीजन, सिर्फ उसके भीतर जो इर्रेशनल है, जो बिलकुल अबौद्धिक है, उसको जस्टिफाई करने की कोशिश में लगा रहा है। कि अगर उसे युद्ध करना है, तो पहले वह सिद्ध कर लेना चाहेगा युद्ध से मंगल होगा, कल्याण होगा; फिर युद्ध में उतर जाएगा। अगर उसे किसी की गर्दन काटनी है, तो वह पहले सिद्ध कर लेना चाहेगा कि जिसकी गर्दन कट रही है, उसके ही हित में यह कार्य हो रहा है; तब फिर वह गर्दन आसानी से काट सकेगा। अगर उसे आग लगानी है तो वह तय कर लेना चाहेगा कि इस आग लगाने से धर्म की रक्षा होगी, वह आग लगाने के लिए तैयार हो जाएगा। आदमी ने उसके भीतर जो बिलकुल अबौद्धिक तत्व हैं, उनको भी बुद्धिमानी से सिद्ध कर लेने की निरंतर चेष्टा की है। अर्जुन भी वैसी ही स्थिति में है। उसके भीतर लड़ने की तैयारी तो है, अन्यथा इस युद्ध के मैदान तक आने की कोई जरूरत न थी । उसके मन के भीतर युद्ध का आग्रह तो है। राज्य वह लेना चाहता है। जो हुआ है उसके साथ, उसका बदला भी चुकाना चाहता है। इसीलिए तो युद्ध के इस आखिरी क्षण तक आ गया है। लेकिन वैसी तैयारी नहीं है, जैसी दुर्योधन की है, जैसी भीम की है। पूरा नहीं है। मन बंटा हुआ है, स्प्लिट है, टूटा हुआ है। कहीं भीतर लग भी रहा है कि गलत है, व्यर्थ है; और कहीं लग भी रहा है कि करना ही पड़ेगा, प्रतिष्ठा का, अहंकार का, कुल का, हजार बातों का सवाल है। दोनों बातें उसके भीतर चल रही हैं । दोहरा उसका मन है, डबल बाइंड है। और ध्यान रहे, विचारशील आदमी में सदा ही दोहरा मन होता है। विचारहीन में दोहरा मन नहीं होता। निर्विचार में भी दोहरा मन नहीं होता, लेकिन विचारशील आदमी में दोहरा मन होता है। विचारशील आदमी का मतलब है, जो अपने भीतर ही निरंतर डायलाग में और डिसकशन में लगा है, जो अपने भीतर ही विवाद Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Im दलीलों के पीछे छिपा ममत्व और हिंसा -Am में लगा है। अपने को ही दो हिस्सों में करके, क्या ठीक, क्या ठीक | | पास होता है, एक लाख आदमी मरेंगे। एक लाख आदमी मरेंगे, यह नहीं, इसका उत्तर-प्रत्युत्तर कर रहा है। विचारशील आदमी चौबीस | सुनकर कुछ भी पता नहीं चलता। एक लाख आदमियों को सामने घंटे अपने भीतर चर्चा कर रहा है स्वयं से ही। खड़ा करिए, खड़े हो जाइए मंच पर, देखिए कि ये एक लाख आदमी वह चर्चा अर्जुन के भीतर चलती रही होगी। समझा-बुझाकर वह मरेंगे! तब इनकी एक लाख पत्नियां भी दिखाई पड़ती हैं, इनके अपने को युद्ध के मैदान पर ले आया है कि नहीं, लड़ना उचित है। लाखों बच्चे भी दिखाई पड़ते हैं। इनकी बूढ़ी मां भी होंगी, इनके पिता लेकिन युद्ध की पूरी स्थिति का उसे पता नहीं था। भी होंगे। इनकी न मालूम क्या-क्या जिम्मेवारियां होंगी। इन एक पिछले महायुद्ध में जिस आदमी ने हिरोशिमा पर एटम बम | लाख को मारने की जिम्मेवारी अगर हिरोशिमा पर बम डालने वाले गिराया, उसे कुछ भी पता नहीं है कि क्या होगा! उसे इतना ही पता | को सामने होती, तो मैं भी सोचता हूं कि वह आदमी कहता, इससे है कि एक बटन दबा देनी है और नीचे एटम गिर जाएगा। उसे यह | मैं मर जाना पसंद करूंगा; यह आज्ञा मैं नहीं मानता। उसके सामने भी पता नहीं है कि इस एटम से एक लाख आदमी मरेंगे। उसे कुछ | भी सवाल उठता, इनको मारना है, क्या नौकरी के लिए? भी पता नहीं है। उसे सिर्फ एक आर्डर है, एक आज्ञा है, जो उसे पूरी | अर्जुन को सवाल उठा; सामने था सब चित्र। उसे सब दिखाई करनी है। और आज्ञा यह है कि उसे जाकर हवाई जहाज से एक बटन | | पड़ने लगा, ये विधवाएं रोती-बिलखती दिखाई पड़ने लगीं। इनमें दबा देनी है। हिरोशिमा के ऊपर वह बटन दबाकर लौट आया। | न मालूम कितने उसके प्रियजन थे, उनकी विधवाएं होंगी, उनके . जैसे सारी दुनिया को पता चला, ऐसे ही उसको भी पता चला | | बच्चे तड़फेंगे, रोएंगे। यह सब लाशों से भर जाएगा मैदान। यह कि एक लाख आदमी मर गए हैं। फिर उसकी नींद हराम हो गई। इतना साफ उसे दिखाई पड़ा कि अपने को समझा-बुझाकर लाया फिर वह आदमी रात-दिन लाखों मुर्दे देखने लगा। उसके प्राण | था कि लड़ना उचित है, वह सब डांवाडोल हो गया। उसके दूसरे थरथराने लगे, कंपने लगे। उसके हाथ-पैर में कंपन होने लगा। मन ने कहना शुरू किया कि यह तू क्या करने जा रहा है! यह तो फिर तो अंततः उसने हमले करने शुरू कर दिए अपने पर; नाड़ी पाप होगा। इससे बड़ा पाप और क्या हो सकता है? और इसलिए काट डाली एक दिन, सिर पर हथौड़ी मार ली। फिर तो उसे | कि राज्य मिल जाए, और इसलिए कि धन मिल जाए, और इसलिए पागलखाने में रखना पड़ा। फिर तो उसने दूसरों पर भी हमले शुरू | कि थोड़ा सुख मिल जाए, इन सबको मारने की तेरी तैयारी है? कर दिए। फिर तो उसे जंजीरों में रखना पड़ा। उसकी नींद बिलकुल | निश्चित ही वह विचारशील आदमी रहा होगा। उसके मन ने चली गई। और वह आदमी एक ही अपराध की ग्लानि से भर गया, | | इनकार करना शुरू कर दिया। लेकिन इनकार में दूसरा मन भीतर गिल्ट एक ही उसको पकड़ गई कि मैंने लाख आदमी मारे हैं। बैठा हुआ है। और वह दूसरा मन भी बोल रहा है कि अगर कोई लेकिन उसे कोई पता नहीं था। रेशनलाइजेशन मिल जाए, अगर मिल जाए कि नहीं, इसमें कोई अब जो हमारी यद्ध की व्यवस्था है. बिलकल इनामन है। अब | हर्ज नहीं है; यह उचित है बिलकुल, यह औचित्य मालूम पड़ जाए, उसमें पता नहीं चलता, मारने वाले को भी पता नहीं चलता कि वह | तो वह अपने को इकट्ठा कर ले, एकजुट कर ले, युद्ध में उतर जाए। लाख आदमियों की मौत का बटन दबा रहा है। लेकिन महाभारत | कृष्ण से पूछते वक्त अर्जुन को भी पता नहीं है कि उत्तर क्या में स्थिति और थी, सब चीजें सामने थीं। युद्ध सीधा मानवीय था, | | मिलेगा? और कृष्ण से पूछते वक्त अर्जुन को भी साफ नहीं है कि ह्यूमन था। आमने-सामने सब खड़े थे। अर्जुन देख सकता था रथ | | स्थिति बाद में क्या बनेगी? कृष्ण जैसे आदमी प्रिडिक्टेबल नहीं पर खड़ा होकर कि क्या होगा परिणाम! उसे दिखाई पड़ने लगा, होते। कृष्ण जैसे आदमियों के उत्तर निश्चित नहीं होते, रेडीमेड नहीं इनमें फलां मित्र है, वह मरेगा, उसके छोटे बच्चे हैं घर पर। | होते। कृष्ण जैसे आदमी के साथ पक्का नहीं है कि वे क्या कहेंगे! ___ ध्यान रहे, युद्ध अब जो है, वह इनह्यूमन हो गया है, अमानवीय | लेकिन अर्जुन के साथ पक्का है कि वह दो बातें चाह रहा है। या हो गया है। इसलिए अब बड़ा खतरा है। क्योंकि लड़ने वाले को तो यह सिद्ध हो जाए कि यह युद्ध उचित है, नीतिसम्मत है, धार्मिक भी साफ पता नहीं चलता कि क्या होगा! जो हो रहा है, बिलकुल है, लाभ होगा, कल्याण होगा, श्रेयस मिलेगा, इस लोक में, अंधेरे में हो रहा है। और जो आदमी तय करते हैं उसको, उनके परलोक में सुख मिलेगा, तो वह युद्ध में कूद जाएगा। और अगर पास भी फिगर होते हैं, आदमी नहीं होते हैं, आंकड़े होते हैं। उनके | यह सिद्ध हो जाए कि नहीं हो सकता, तो युद्ध से भाग जाए। उसके Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 AM सामने दो विकल्प स्पष्ट हैं। और उन दोनों के बीच उसका मन डोल मांगने जाता है। जब भी कोई आदमी सलाह मांगने जाता है, तब रहा है, और दोनों के बीच उसके भीतर मन का बंटाव है। लड़ना जानना चाहिए, वह भीतर से इतना बंट गया है कि अब उसके भीतर भी चाहता है! अगर उसका मन लड़ना ही न चाहता हो, तो कृष्ण से उसे उत्तर नहीं मालूम पड़ रहा है। ऐसी उसकी दशा है। वह से पूछने की कोई भी जरूरत नहीं है। अपनी उसी दशा का वर्णन कर रहा है। अभी मैं एक गांव में था। एक यवक मेरे पास आए और उन्होंने मुझ से पूछा कि मैं संन्यास लेना चाहता हूं। आपकी क्या सलाह है? मैंने कहा, जब तक मेरी सलाह की जरूरत हो, तब तक तुम प्रश्नः भगवान श्री, आपने अभी संन्यास के बारे में संन्यास मत लेना। क्योंकि संन्यास कोई ऐसी बात नहीं है कि मेरी कुछ कहा। तो यहां जीवन जागृति केंद्र के बुक स्टॉल सलाह से लिया जा सके। जिस दिन तुम्हें ऐसा लगे कि सारी दुनिया पर अभिनव संन्यास योजना नामक एक पुस्तिका भी भी कहे कि संन्यास मत लो, तब भी तुम्हें लेने जैसा लगे, तभी तुम बिक रही है, तो उसमें कहीं लिखा है कि आप गुरु लेना। तो ही संन्यास के फूल में आनंद की सुगंध आ सकेगी, नहीं गवाह बनते हैं, तो वह भी स्पष्ट करें। और साथ अन्यथा नहीं आ सकेगी। में और भी एक सवाल है। अर्जुन और कृष्ण दोनों वह अर्जुन सलाह नहीं मांगता, अगर उसको साफ एक मन हो युद्ध में खड़े हैं, युद्धारंभ में ही गीता के अठारह जाता कि गलत है. चला गया होता। उसने कष्ण से कहा होता कि अध्याय सुनने में अर्जुन कैसे प्रवृत्त हो सकता है और सम्हालो इस रथ को, ले जाओ इन घोड़ों को जहां ले जाना हो, और कृष्ण कैसे गीता-प्रवचन सुनाने को व्यस्त हो सकते जो करना हो करो, मैं जाता हूं। और कृष्ण कहते कि मैं कोई सलाह हैं? सारी सेनाएं भी वहां मौजूद थीं। तो क्या सब देता हूं, तो वह कहता कि बिना मांगी सलाह न दुनिया में कभी मानी | कृष्णार्जुन संवाद, प्रश्नोत्तर सुनने में ही व्यस्त थे? गई न मानी जाती है। अपनी सलाह अपने पास रखें। क्या वह टाइम साइकोलाजिकल टाइम था या कोई नहीं, लेकिन वह सलाह मांग रहा है। सलाह मांग रहा है, वही दूसरा था? बता रहा है कि उसका दोहरा मन है। अभी उसको भी भरोसा है कि कोई सलाह मिल जाए तो युद्ध कर ले; यह भरोसा है उसके भीतर। इसलिए कृष्ण से पूछ रहा है। अगर यह भी पक्का होता कि युद्ध कष्ण से इतनी लंबी चर्चा निश्चित ही प्रश्नवाची है। करना उचित है, तब कृष्ण से कोई सलाह लेने की जरूरत न थी, yा निश्चय ही प्रश्न उठता है। युद्ध के मैदान पर, जहां कि युद्ध की सब तैयारी हो गई थी। योद्धा तैयार हों लड़ने को, जूझने को, वहां ये अठारह अर्जुन डांवाडोल है; अर्जुन बंटा है, इसलिए वह सारे सवाल | | अध्याय, यह इतनी लंबी किताब, अगर कृष्ण ने बिलकुल उस तरह उठा रहा है। उसके सवाल महत्वपूर्ण हैं। और जो आदमी भी थोड़ा | से कही हो, जैसे कि गीता-भक्त दोहराते हैं, तो भी काफी समय विचार करते हैं, उन सबकी जिंदगी में ऐसे सवाल रोज ही उठते लग गया होगा। अगर बिना रुके और बिना अर्जुन की तरफ देखे, हैं—जब मन बंट जाता है, और दोहरे उत्तर एक साथ आने लगते आंख बंद करके बोलते ही चले गए हों, तब भी काफी वक्त लग हैं, और सब निर्णय खो जाते हैं। अर्जुन संशय की अवस्था में है। जाएगा। यह कैसे संभव हुआ होगा? डिसीसिवनेस खो गई है। दो बातें इस संबंध में। निरंतर यह सवाल गूंजता रहा है। इसलिए जब भी आप किसी से सलाह मांगते हैं, तब वह सदा ही इस कुछ लोगों ने तो यह कह दिया कि गीता महाभारत में प्रक्षिप्त है, बात की खबर होती है कि अपने पर भरोसा खो गया है. सेल्फ वह बाद में डाल दी गई है. यह हो नहीं सकता। कछ लोगों ने कहा कांफिडेंस खो गया है। अब अपने से कोई आशा नहीं उत्तर की। | कि वहां संक्षिप्त में बात हुई होगी, फिर उसको विस्तार से बाद में क्योंकि अपने से दो उत्तर एक-से बलपूर्वक आ रहे हैं, एक-सी | कवि ने फैला दिया है। एम्फेसिस लेकर आ रहे हैं। दोनों में तय करना मुश्किल है। कभी दोनों ही बातें मेरे लिए सही नहीं हैं। मेरे लिए तो गीता घटी है, एक ठीक, कभी दूसरा ठीक मालूम पड़ता है। तभी आदमी सलाह और वैसी ही घटी है जैसी सामने है। लेकिन घटने के क्रम को थोड़ा Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IA दलीलों के पीछे छिपा ममत्व और हिंसा समझना जरूरी है। यह सारी बातचीत आमने-सामने हुई हो, यह आदमी बच ही गए, तीन भी छोटी संख्या नहीं है। इतना कठिन नहीं सारी बातचीत जैसे हम और आप बोल रहे हैं, ऐसी हुई हो, तो | है, क्योंकि एक आदमी जंगल में बैठकर आंख बंद करके भीड़ में इसमें कृष्ण और अर्जुन ही भागीदार न रह जाते। इसमें बहुत लोग | हो जाता है, तो भीड़ में बैठकर अकेला क्यों नहीं हो सकता। मन थे, बड़ी भीड़ थी चारों तरफ। इसमें और लोग भी भागीदार हो गए की सभी क्रियाएं रिवर्सिबल हैं। मन की सभी क्रियाएं उलटी हो होते। इसमें और लोगों ने भी सवाल उठाए होते। इसमें और सारे सकती हैं। अगर जंगल में बैठकर आदमी अपनी पत्नी से बातचीत लोग बिलकुल चुप ही खड़े हैं! इस तरफ भी योद्धा हैं, उस तरफ कर सकता है, तो अपनी पत्नी के पास बैठकर बिलकुल अकेला भी योद्धा हैं। यह बात दोनों की चलती है घंटों। इसमें कोई बोला हो सकता है। इसमें कोई अड़चन नहीं है। नहीं बीच में! किसी ने इतना भी न कहा कि यह बातचीत का समय तीन आदमी बच गए, उनमें गणितज्ञ आस्पेंस्की भी था। वह खुद नहीं है, युद्ध का समय है, शंख बज चुके हैं, अब यह चर्चा नहीं भी एक वैज्ञानिक चिंतक था। और इधर सौ वर्षों में गणित पर शायद चलनी चाहिए। सर्वाधिक गहरी किताब उसने लिखी है, टर्शियम आर्गानम। कहते नहीं, कोई नहीं बोला। मेरे देखे, यह चर्चा टेलीपैथिक है, यह | हैं कि यूरोप में तीन बड़ी किताबें लिखी गई हैं अब तक। एक अरस्तू चर्चा सीधी आमने-सामने नहीं हुई है। टेलीपैथी थोड़ी समझनी | का आर्गानम, फिर बैकन का नोवम आर्गानम, और फिर आस्पेंस्की पड़े, तो खयाल में आए, अन्यथा खयाल में नहीं आ पाएगी। एक का टर्शियम आर्गानम। यह बड़ा वैज्ञानिक चिंतक था; यह भी उन दो-तीन उदाहरण से समझाने की कोशिश करूंगा। तीन में एक बच गया था। एक फकीर था अभी यूनान में जार्ज गुरजिएफ। तीन महीने के | । तीन महीने बीत गए। तीन महीने वह ऐसे वहां रहा, जैसे अकेला लिए रूस के एक बहुत बड़े गणितज्ञ आस्पेंस्की और उसके तीस | है। वे कमरों में जो लोग थे, वे तो भूल ही गए; बाहर जो दुनिया थी, और शिष्यों को लेकर वह तिफलिस के एक छोटे से गांव में जाकर | | वह भी भूल गई। और जो आदमी दूसरों को भूल जाए, वह अपने बैठ गया था। इन तीस लोगों को एक बड़े बंगले में उसने कैद कर | को भी भूल जाता है; स्मरण रखें। अगर अपने को याद रखना हो, रखा था। कैद, क्योंकि बाहर निकलने की कोई आज्ञा न थी। और तो दूसरों को याद रखना जरूरी है। क्योंकि मैं और तू एक ही डंडे के इन तीस लोगों को कहा था कि कोई एक भी शब्द तीन महीने दो छोर हैं। इनमें से एक गया कि दूसरा फौरन गया। ये दोनों बचते बोलेगा नहीं। न केवल शब्द नहीं बोलेगा, इशारे से भी नहीं हैं, या दोनों चले जाते हैं। कोई कहे कि मैं मैं को बचा लूं और तू को बोलेगा, आंख से भी नहीं बोलेगा, हाथ से भी नहीं बोलेगा। कहा | भूल जाऊं, तो असंभव है। क्योंकि मैं जो है, वह तू की ही चोट है; था कि ये तीस लोग जो इस मकान में रहेंगे तीन महीने, प्रत्येक को | वह तू का ही उत्तर है। अगर तू भूल जाए तो मैं बिखर जाता है। अगर ऐसे रहना है, जैसे वह अकेला ही हो, कोई दूसरा मौजूद ही नहीं | मैं भूल जाए तो तू विदा हो जाता है। वे दो एक साथ बचते हैं, अन्यथा है। दूसरे को रिकग्नाइज भी नहीं करना है-आंख से भी, इशारे से नहीं बचते। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भी। दूसरा आस-पास से निकल जाए, तो देखना भी नहीं है। और दूसरे भूल गए, यह तो ठीक था, आस्पेंस्की खुद को भी भूल गुरजिएफ ने कहा कि जिसको भी मैं पकड़ लूंगा जरा-सा इशारा गया। फिर बचा सिर्फ अस्तित्व। तीन महीने बाद, गुरजिएफ सामने करते हुए भी, दूसरे को स्वीकार करते हुए भी पकड़ लूंगा कि दूसरा | बैठा है और आस्पेंस्की भी सामने बैठा है। अचानक आस्पेंस्की को निकल रहा था और तुम बचकर निकले, तो भी मैं बाहर कर दूंगा। | सुनाई पड़ा कि किसी ने बुलाया है और कहा, आस्पेंस्की, सुनो! क्योंकि तुमने दूसरे को स्वीकार कर लिया कि दूसरा यहां है, | | उसने चौंककर चारों तरफ देखा, कौन है? लेकिन कोई बोल नहीं बातचीत हो गई; तुम बचकर निकले, इशारा हो गया। रहा है। सामने गुरजिएफ बैठा है। उसने गुरजिएफ को गौर से देखा __पंद्रह दिन में सत्ताइस आदमी बाहर कर दिए गए। | इन तीन महीनों में। गुरजिएफ हंसने लगा। फिर भीतर से आवाज बड़ा मुश्किल मामला था। जहां तीस आदमी मौजूद हों, एक | आई, पहचान नहीं रहे हो मेरी आवाज? मैं गुरजिएफ बोल रहा हूं। कमरे में दस-दस, बारह-बारह लोग बैठे हों, वहां दूसरों को | | सामने ओंठ बंद हैं, वह आदमी चुप बैठा है। आस्पेस्की बहुत हैरान बिलकुल भूल ही जाना कि वे हैं ही नहीं, अकेले जीने लगना, | हुआ। उसने कहा कि मैं यह क्या अनुभव कर रहा हूं? वह पहली कठिन था। इतना कठिन नहीं जितना हम सोचते हैं, क्योंकि तीन दफे तीन महीने में बोला। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ im+ गीता दर्शन भाग-1 AM गरजिएफ ने कहा कि अब तम उस जगह आ गए हो मौन की. | नहीं बोले। और जितने उनके शब्द हैं, वे उन्होंने नहीं बोले। उनके जहां बिना शब्द के बातचीत की जा सकती है। अब मैं तुमसे सीधे पास लोग खड़े रहते थे, महावीर उनसे बोलते-ऊपर से नहीं, बोल सकता हूं, शब्दों की अब कोई जरूरत नहीं है। | क्योंकि हजारों लोग सुनने आए होते, उनको कुछ सुनाई न अभी रूस के एक दूसरे वैज्ञानिक फयादोव ने एक हजार मील | पड़ता—फिर वह आदमी जोर से बोलता कि महावीर ऐसा कहते हैं। दूर बिना किसी माध्यम के संदेश भेजने के प्रयोग में सफलता पाई ___ इसलिए महावीर की वाणी को शून्य वाणी, शब्दहीन वाणी कहा है। आप भी पा सकते हैं, बहुत कठिन मामला नहीं है। कभी एक गया है। उन्होंने सीधा कभी नहीं बोला। किसी से भीतर से बोला छोटा-सा प्रयोग घर में कर लें। छोटे बच्चे को चुन लें। अंधेरा कर | और किसी ने उसे बाहर प्रकट किया। करीब-करीब ऐसे ही जैसे लें कमरे में, दूसरे कोने में उसे बैठा दें, एक कोने में आप बैठ जाएं। इस माइक से मैं बोल रहा हूं और आप सुन रहे हैं। माइक की तरह और उस बच्चे से कह दें कि तू आंख बंद कर ले और ध्यान मेरी | एक आदमी का भी उपयोग हो सकता है। तरफ रख। और सुनने की कोशिश कर कि मैं कुछ बोल तो नहीं कृष्ण और अर्जुन के बीच जो बात हुई थी, अगर संजय ने न रहा हूं। और एक ही शब्द अपने भीतर बार-बार दोहराए चले सुनी होती तो खो गई होती। बहुत-सी और बातें भी बहुत बार हुई जाएं : गुलाब, गुलाब, गुलाब। बोलें मत; भीतर दोहराए चले हैं और खो गई हैं। महावीर के बहुत वचन उपलब्ध नहीं हैं। जाएं। घंटे, आधा घंटे में वह बच्चा बोलने लगेगा कि आप गुलाब बुद्ध ने एक दिन अपने सारे भिक्षुओं को इकट्ठा किया। और हाथ बोल रहे हैं। और आप भीतर ही बोलें, आप बाहर मत बोलें। में एक कमल का फूल लेकर वे वहां आए। फिर बैठ गए और उस इससे उलटा भी हो सकता है, लेकिन जरा देर लगेगी। अगर कमल के फूल को देखने लगे और देखते रहे। लोग हैरान हो गए, बच्चा वहां बैठकर अपने मन में एक शब्द सोचे और आप पकड़ना | थोड़ी देर में बेचैनी शुरू हो गई, कोई खांसा होगा, किसी ने करवट चाहें, तो शायद दो-तीन दिन लग जाएंगे। बच्चा जल्दी पकड़ लेगा। बदली होगी, क्योंकि बहुत देर हो गई। वे चुप क्यों बैठे हैं! बोलें, आदमी, जिसको हम जिंदगी कहते हैं, उसमें बिगड़ने के सिवाय और बोलें, बोलें। फिर आखिर आधा घंटा बीतने लगा, तो बेचैनी बहुत कुछ भी नहीं करता। बूढ़े बिगड़े हुए बच्चों से अतिरिक्त और कुछ बढ़ गई। किसी ने खड़े होकर कहा, आप क्या कर रहे हैं? हम भी नहीं होते। लेकिन बच्चा घंटे, आधा घंटे में पकड़ना शुरू कर आपको सुनने आए हैं। आप बोलते नहीं! बुद्ध ने कहा, मैं बोल देगा। एक ही शब्द दोहराएं और अगर एक पकड लिया जाए तो रहा है. सनो. सनो। लेकिन लोगों ने कहा, आप कछ बोलते न फिर अभ्यास से पूरा वाक्य पकड़ा जा सकता है। क्या सुनें? कृष्ण और अर्जुन के लिए ध्यान में रखना जरूरी है कि यह चर्चा, । तभी एक भिक्षु, जिसका नाम था महाकाश्यप, वह हंसने लगा। बाहर हुई चर्चा नहीं है। यह चर्चा गहरी है और यह चर्चा बिलकुल | तो बुद्ध ने उसे बुलाकर वह फूल दे दिया। और कहा कि सुनो, जो भीतरी है। इसलिए इसमें युद्ध के आसपास खड़े लोग भी गवाह | | शब्द से बोला जा सकता था, वह मैं तुमसे कह चुका; और जो नहीं थे। और इसलिए हो सकता है यह भी कि जिन्होंने महाभारत | | शब्द से नहीं बोला जा सकता था, भीतर ही बोला जा सकता था, लिखा, उन्होंने पहले गीता उसमें न जोड़ी हो। यह हो सकता है। | वह मैंने महाकाश्यप से कह दिया है। अब तुम्हें पूछना हो तो यह हो सकता है कि इतिहासकार ने, जिसने लिखी है, उसने न | महाकाश्यप से पूछ लेना। जोड़ी हो, लेकिन संजय सुन पा रहा है। क्योंकि संजय, जो देख महाकाश्यप से बद्ध ने क्या कहा, यह अब तक बुद्ध के भिक्षु पाता है इतनी दूर, वह सुन भी पा सकता है। असल में दुनिया को | | पूछते हैं एक-दूसरे से। क्योंकि वह महाकाश्यप से जब भी किसी संजय से पहली दफा गीता सुनने को मिली है, कृष्ण से सुनने को | ने पूछा, तो वह हंसने लगा और उसने कहा, जब बुद्ध न कह सके, पहली दफा नहीं मिली। पहली दफा अर्जुन ने सुनी है, वह सुनना | | तो मैं क्यों उपद्रव में पडूं! उसने कहा कि कहना होता तो बुद्ध ही बहुत भीतरी है। उस सुनने का बाहरी कोई प्रमाण नहीं था। । | तुम से कह देते। और जब वे भूल-चूक नहीं किए, तो मैं करने और दूसरी बात आपसे कहना चाहूंगा कि यह टेलीपैथिक | वाला नहीं हूं। कम्युनिकेशन है। गीता एक अंतर्संवाद है, जिसमें शब्दों का ऊपर | फिर महाकाश्यप ने किसी को फिर मौन से कहा, फिर उस उपयोग नहीं हुआ है। महावीर के संबंध में कहा जाता है कि वे कभी आदमी ने भी किसी से नहीं कहा-और ऐसे छः आदमियों की | 62 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Om दलीलों के पीछे छिपा ममत्व और हिंसा - परंपरा। और तब छठवां आदमी था बोधिधर्म, उसने पहली दफा | | का स्केल चौबीस घंटे एक-सा नहीं रहता। उसमें पूरे वक्त उस बात को कहा। इस बीच कोई नौ सौ वर्ष बीत गए। बोधिधर्म बदलाहट होती रहती है, वह फ्लिकर करता है। ने पहली दफे वह कहा, जो बुद्ध ने महाकाश्यप से कहा था। और जैसे जब आप दुख में होते हैं तो समय लंबा हो जाता है, और उसने क्यों कहा? क्योंकि जब बोधिधर्म ने चीन में पहली दफे | जब सुख में होते हैं तो छोटा हो जाता है। कोई प्रियजन पास आकर जाकर कहा कि अब मैं वह कहता हूं जो बुद्ध ने महाकाश्यप से | | बैठ जाता है, घंटा बीत जाता है, लगता है, अभी तो आए थे, क्षणभर कहा था, तो लोगों ने कहा, अब तक किसी ने नहीं कहा, तुम क्यों हुआ है। और कोई दुश्मन आकर बैठ जाता है, और क्षणभर भी नहीं कहते हो! तो उसने कहा कि अब चुपचाप सुनने वाला कोई भी बैठता है कि ऐसा लगता है, कब जाएगा! जिंदगी बीती जा रही है। उपलब्ध नहीं है। इसलिए मजबूरी है और मैं मरने के करीब हूं। वह घड़ी में तो उतना ही समय चलता है, लेकिन आपके मन के समय बात खो जाएगी जो बुद्ध ने महाकाश्यप से कही थी। अब जितनी की धारणा पूरे वक्त छोटी-बड़ी होती रहती भी गलत-सही मुझसे बन सकती है, मैं कहे देता हूं। __ घर में कोई मर रहा हो, रातभर उसकी खाट के पास बैठे तो ऐसा यह एक घटना है। इसलिए पहली बात आपसे कहूं, गीता कृष्ण | | लगेगा कि इटरनिटी हो गई, अनंत मालूम पड़ता है। अनंत मालूम और अर्जुन के बीच मौन-संवाद में घटी है। दूसरी बात आप से कहूं | पड़ता है। रात खतम होती नहीं मालूम पड़ती। कब होगी खतम! कि मौन-संवाद का टाइम-स्केल अलग है। इसे समझना भी जरूरी लेकिन वही कोई अपने प्रियजन के साथ नृत्य कर रहा है, और रात होगा। नहीं तो आप कहेंगे कि मौन-संवाद में भी तो कम से कम | | ऐसे भागने लगती है कि आज रात दुश्मन है और जल्दी कर रही घंटे, डेढ़ घंटे, दो घंटे तो लगते ही। क्योंकि इससे क्या फर्क पड़ता | | है। और रात जल्दी से भाग जाती है और सुबह आ जाती है। और है कि मैं आपसे ऊपर से कहूं कि भीतर से कहूं; समय तो लगेगा!| | ऐसा लगता है, सांझ और सुबह के बीच में कोई वक्त ही नहीं था। तब आपको थोड़ा समय के स्केल को, समय की सारणी को बस, सांझ आई और सुबह आ गई। बीच का वक्त गिर जाता है। समझना पड़ेगा। | सख में समय छोटा मालम होता है। छोटा हो जाता है: मालम आपको कभी एक दफा कुर्सी पर बैठे-बैठे झपकी लग जाती है | | होता नहीं, हो ही जाता है। दुख में बड़ा हो जाता है। दिन में भी, और आप एक सपना देखते हैं। और सपने में देखते हैं कि आपकी जागते में भी समय पूरे वक्त बदल रहा है। और अगर कभी आनंद शादी हो गई, घर बस गया, नौकरी लग गई, मकान खरीद लिया, का अनुभव किया हो, तो समय समाप्त हो जाता है। बच्चे हो गए, बच्चे बड़े हो गए, शहनाई बज रही है, लड़के की | जीसस से किसी ने पूछा कि तुम्हारे प्रभु के राज्य में खास बात शादी हो रही है। और तभी कोई आपको बगल से आपका आफिसर | क्या होगी? तो जीसस ने कहा, देयर शैल बी टाइम नो लांगरआकर उठाता है। और आप घड़ी में देखते हैं, और पाते हैं कि | | समय नहीं होगा। खास बात यह होगी। तो उन्होंने पूछा कि यह मुश्किल से एक मिनट बीता है झपकी लगे। तब बड़ी मुश्किल होती | | हमारी समझ में नहीं आता कि समय नहीं होगा, तो फिर सब काम है कि एक मिनट में इतना लंबा उपद्रव कैसे हुआ होगा! आधी | कैसे चलेगा! जिंदगी लग जाती है इतना उपद्रव करने में। तीस-चालीस साल लग | आनंद के क्षण में समय नहीं होता। अगर कभी ध्यान का एक जाते हैं, यह एक मिनट में कैसे हुआ? लेकिन बिलकुल हुआ। क्षण भी आपके भीतर उतरा है, कभी आनंद का एक क्षण भी आपको असल में ड्रीम-टाइम अलग है। उसका स्केल अलग है। स्वप्न नचा गया है, तो उस वक्त समय नहीं होता; समय समाप्त हो गया की जो समय की धारणा है, बिलकुल अलग है। इसलिए एक | होता है। इस संबंध में दुनिया के वे सारे लोग सहमत हैं-चाहे मिनट के सपने में जिंदगीभर के सपने देखे जा सकते हैं। एक मिनट महावीर, चाहे बुद्ध, चाहे लाओत्से, चाहे जीसस, चाहे मोहम्मद, में पूरी जिंदगी देखी जा सकती है। चाहे कोई और-वे सब राजी हैं कि वह जो क्षण है आत्म-अनुभव आमतौर से लोग कहते हैं कि जब कोई नदी में डूबकर मरता है, का, आनंद का, ब्रह्म का, वह टाइमलेस मोमेंट है; वह समयरहित तो आखिरी डुबकी में अपनी पूरी जिंदगी को फिर से देख लेता है। | क्षण है; वह कालातीत है। देख सकता है; इसमें कोई बहुत कठिनाई नहीं है। समय अलग है | - तो जो टेलीपैथी का समय है, उसके स्केल अलग हैं। क्षणभर स्वप्न का, जागने का समय अलग है। लेकिन जागने में भी समय | | में भी यह बात हो सकती है, जिसके लिए डेढ़ घंटा लिखने में लगे। 63 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 14 आपने क्षणभर में जो सपना देखा है, अगर लिखिएगा तो आपको डेढ़ घंटा लगेगा। आप कहेंगे, बड़ी अजीब बात है । देखा क्षणभर में और लिखने में डेढ़ घंटा लग रहा है! क्या कारण है? क्या वजह है? तीसरी बात इसलिए और आपको खयाल में दे दूं। वजह यह है कि जब आपके भीतर कोई घटना घटती है, तब वह साइमलटेनियस घटती है, वह युगपत घटती है। जैसे मैं आपको देख रहा हूं, तो मैं आपको इकट्ठा देख रहा हूं एक ही क्षण में। लेकिन अगर आपकी गिनती करने आऊं, तो एक-एक की गिनती करूंगा । और तब लीनियर हो जाएगा; एक रेखा में मुझे आपकी गिनती करनी पड़ेगी; उसमें घंटों लग जाएंगे। आपको जब देखा, तो मैंने सबको देखा आपको। वह एक क्षण में एक साथ हो गया। लेकिन जब गिना और कहीं आपके नाम लिखूं रजिस्टर पर, तो बहुत घंटे लग जाएंगे। तो जब आप सपने को देखते हैं, तो युगपत घट जाता है। जब आप उसको लिखते हैं कागज पर, तब आप लंबाई में लिखते हैं, युगपत नहीं रह जाता। एक-एक घटना लिखनी पड़ती है। तब वह लंबी हो जाती है, समय ज्यादा ले लेती है। गीता जब लिखी गई या संजय ने जब कही धृतराष्ट्र को कि ऐसी-ऐसी बात हो रही है वहां कृष्ण और अर्जुन के बीच, तब उसमें वक्त लगा होगा उतना ही, जितना वक्त अभी गीता पढ़ते वक्त आपको लगेगा —उतना ही । लेकिन कृष्ण और अर्जुन बीच समय कितना लगा, यह तब तक आपको खयाल में आना मुश्किल है, जब तक आपको टेलीपैथी का थोड़ा-सा अनुभव न हो। हमारे हिसाब से समय का कोई मूल्य नहीं है वहां । इसलिए हो सकता है, किसी भी योद्धा को पता भी न चला हो कि कृष्ण और अर्जुन के बीच क्या घटा ! एक क्षण में हो गया हो। रथ जाकर खड़ा हुआ हो; अर्जुन निढाल होकर बैठ गया हो और एक क्षण में यह सारी बात हो गई हो, जो हुई है। एक छोटी-सी कहानी, फिर हम दूसरा श्लोक लें। सुना है मैंने, नारद के जीवन में एक कहानी है। यह जगत माया है, यह जगत माया है— बड़े-बड़े ज्ञानियों से नारद ने सुना है। फिर स्वयं भगवान से जाकर उन्होंने पूछा कि मेरी समझ में नहीं आता; है, वह माया कैसे हो सकता है? जो है, वह है ! वह माया कैसे हो सकता है? उसके इलूजरी, उसके माया होने का क्या मतलब है ? धूप तपती है तेज, आकाश में सूरज है, दोपहर है। भगवान ने कहा कि मुझे बड़ी प्यास लगी है— फिर पीछे समझाऊं - थोड़ा पानी ले आ 64 नारद पानी लेने गए। गांव में प्रवेश किया। दोपहर है, लोग अपने घरों में सो रहे हैं। एक दरवाजे पर दस्तक दी। एक युवती बाहर आई । नारद भूल गए भगवान को कोई भी भूल जाए। जिसको सदा याद किया जा सकता है, उसको याद करने की इतनी जल्दी भी क्या है ! भूल गए। और जब भगवान को ही भूल गए, कहा, उनकी प्यास का क्या सवाल रहा! किसलिए आए थे, याद न रहा। लड़की को देखते रहे; मोहित हो गए। निवेदन किया कि मैं विवाह का प्रस्ताव लेकर आया हूं। पिता बाहर थे। उस लड़की ने पिता को आ जाने दें, तब तक आप विश्राम करें। विश्राम किया। पिता आए । राजी हो गए। विवाह हो गया। फिर चली कहानी। बच्चे हुए, चार-छह बच्चे पैदा हो गए। काफी वक्त लगा। पिता मर भी गया, ससुर मर भी गए। बूढ़े हो गए नारद । पत्नी भी बूढ़ी हो गई, बच्चों की लाइन लग गई। बाढ़ आ गई। वर्षा के दिन हैं। गांव डूब गया। अब अपने पत्नी-बच्चों को बचाकर किसी तरह बाढ़ पार कर रहे हैं। बूढ़े हैं, शक्ति नहीं है पास। बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। पत्नी को बचाते हैं, तो बच्चे बहे जाते हैं; बच्चों को बचाते हैं, तो पत्नी बही जाती है। बाढ़ है तेज और सबको बचाने में सब बह हैं। नारद अकेले थके-मांदे तट पर जाकर लगते हैं। आंखें बंद हैं, आंसू बह रहे हैं। और कोई पूछता है कि उठो; बड़ी देर लगा दी; सूरज ढलने के करीब हो गया और हम प्यासे ही बैठे हैं। पानी अब तक नहीं लाए ? नारद ने आंख खोली; देखा, भगवान खड़े हैं। उन्होंने कहा, अरे, मैं तो भूल ही गया। मगर इस बीच तो बहुत कुछ हो गया। आप कहते हैं, अभी सिर्फ सूरज ढल रहा है? उन्होंने कहा, सूरज ही ढल रहा है। चारों तरफ देखा, बाढ़ का कोई पता नहीं है। पूछा, बच्चे - पत्नी ? भगवान ने कहा, कैसे बच्चे, कैसी पत्नी ? कोई सपना तो नहीं देखते थे? भगवान ने कहा कि तुम पूछते थे कि जो है, वह माया कैसे हो सकता है? जो है, वह माया नहीं है। लेकिन जो है, उसे समय के माध्यम से देखने से वह सब माया हो जाता है। और जो है, उसे समय के अतिरिक्त, समय का अतिक्रमण | करके देखने से वह सब सत्य हो जाता है। संसार समय के माध्यम से देखा गया सत्य है । सत्य समय शून्य माध्यम से देखा गया संसार है। यह जो घटना घटी है, यह घटना आंतरिक है और समय की परिधि के बाहर है। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दलीलों के पीछे'छिपा ममत्व और हिंसा अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः । स्त्रीषु दुष्टासु वाष्र्णेय जायते वर्णसंकरः । । ४१ ।। संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च । पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ।। ४२ ।। तथा हे कृष्ण, पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियां दूषित हो जाती हैं। और हे वाष्र्णेय, स्त्रियों के दूषित होने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है। और वह वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नर्क में ले जाने के लिए ही (होता) है। लोप हुई पिंड और जल की क्रिया वाले इनके पितर लोग भी गिर जाते हैं। दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः । उत्साद्यन्तेजातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ।। ४३ । । उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन । नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ।। ४४ ।। और इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुलधर्म और जातिधर्म नष्ट हो जाते हैं। • हे जनार्दन, नेष्ट हुए कुलधर्म वाले मनुष्यों का अनंत काल तक नर्क में वास होता है, ऐसा हमने सुना है। से क्या-क्या हो अ. युद्ध में, उसकी खोजबीन कर रहा है। उसके मन में बहुत - बहुत बुराइयां दिखाई पड़ रही हैं। अभी ही नहीं, आगे भी, संतति कैसी हो जाएगी, वर्ण कैसे विकृत हो जाएंगे, सनातन धर्म कैसे नष्ट हो जाएगा, वह सब खोज रहा है। यह बहुत अजीब-सा लगेगा कि उसे इस सब की चिंता क्यों है ! लेकिन अगर हिरोशिमा के बाद बट्रेंड रसेल और पश्चिम के समस्त युद्ध-विरोधी लोगों का साहित्य देखें, तो हैरान होंगे। वे भी सब यही कह रहे हैं। बच्चे विकृत हो जाएंगे, व्यवस्था नष्ट हो जाएगी, 'सभ्यता नष्ट हो जाएगी, धर्म खो जाएगा, संस्कृति खो जाएगी। जो-जो अर्जुन को खयाल आ रहा है, वह वह खयाल हिरोशिमा के बाद सारी दुनिया के शांतिवादी लोगों को आ रहा है। शांतिवादी - शांतिवादी कह रहा हूं - शांतिवादी युद्ध से क्या-क्या बुरा हो जाएगा, उसकी तलाश में लगता है। लेकिन उसकी सारी तलाश, जैसा मैंने कहा, उसके भीतर पलायन की जो वृत्ति पैदा हो रही है, उसके समर्थन में कारण खोजने की होती है। हम वही खोज लेते हैं, जो हम करना चाहते हैं। लेकिन दिखाई ऐसा पड़ता है कि जो होना चाहिए, वही हम कर रहे हैं। हम जो करना चाहते हैं, हम उसकी ही दलीलें खोज लेते हैं । और जिंदगी में सब की दलीलों के लिए सुविधा है। जो आदमी जो करना चाहता है, उसके लिए पक्ष की सारी दलीलें खोज लेता है। एक आदमी ने अमेरिका में एक किताब लिखी है कि तेरह तारीख या तेरह का आंकड़ा, तेरह की संख्या खतरनाक है। बड़ी किताब लिखी है। और सब खोज लिया उसने कि तेरहवीं मंजिल पर से कौन आदमी गिरकर मरा। तो आज तो अमेरिका के कई होटलों में तेरहवीं मंजिल ही नहीं है उस किताब के प्रभाव में, क्योंकि तेरहवीं पर कोई ठहरने को राजी नहीं है। बारहवीं के बाद सीधी चौदहवीं मंजिल आ जाती है। तेरह तारीख को अस्पताल में जो लोग भर्ती होते हैं, उनमें से कितने मर जाते हैं, तेरह तारीख को कितने एक्सिडेंट होते हैं सड़क पर, तेरह तारीख को कितने लोगों को कैंसर | होता है, तेरह तारीख को कितने हवाई जहाज गिरते हैं, तेरह तारीख को कितनी मोटरें टकराती हैं - तेरह तारीख को क्या-क्या उपद्रव होता है, उसने सब इकट्ठा कर लिया है। बारह को भी होता है, | ग्यारह को भी होता है—उतना ही । लेकिन वह उसने छोड़ दिया है। तेरह का सब इकट्ठा कर लिया है। कोई अगर ग्यारह तारीख के खिलाफ हो, तो वह ग्यारह तारीख के लिए यह सब इकट्ठा कर लेगा। अगर कोई तेरह तारीख के पक्ष में हो, तो तेरह तारीख को बच्चे भी पैदा होते हैं, तेरह तारीख को हवाई जहाज नहीं भी गिरते हैं, तेरह तारीख को अच्छी घटनाएं भी घटती हैं, विवाह भी होते हैं, तेरह तारीख को मित्रता भी बनती है, तेरह तारीख को विजय उत्सव भी होते हैं, तेरह तारीख को भी सब अच्छा भी होता है। आदमी का चित्त उसे खोज लेता है, जो वह चाहता है। अभी वह पलायन चाहता है अर्जुन, तो वह यह सब खोज रहा | है । कल तक उसने यह बात नहीं कही थी कभी भी। कल तक उसे आने वाली संतति को क्या होगा, कोई मतलब न था। युद्ध के आखिरी क्षण तक उसे कभी इन सब बातों का खयाल न आया, आज सब खयाल आ रहा है! आज उसके मन को पलायन पकड़ रहा है, तो वह सब दलीलें खोज रहा है। अब यह बड़े मजे की बात है कि कुल मामला इतना है कि वह अपनों को मारने से भयभीत हो रहा है। लेकिन दलीलें बहुत दूसरी | खोज रहा है। वह सब दलीलें खोज रहा है। मामला कुल इतना है 65 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1 AM कि वह ममत्व से पीड़ित है, मोह से पीड़ित है, अपनों को मारने की | | कि कायर है। वजह से भागेगा। रीजनेबल होगा उसका भागना। हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। इतनी-सी बात है, लेकिन इसके कहेगा कि इतने कारण थे, इसलिए भागता हूं। अगर बिना कारण आस-पास वह बड़ा जाल, फिलासफी खड़ी कर रहा है। | भागेगा, तो दुनिया हंसेगी। यहीं उसकी चालाकी है। यहीं हम सब हम सब करते हैं। छोटी-सी बात जो होती है, अक्सर ऐसा होता | | की भी चालाकी है। हम जो भी कर रहे हैं, उसके लिए पहले कारण है कि वह बात हम छोड़ ही देते हैं, जो होती है; उसके आस-पास का एक जाल खड़ा करेंगे। जैसे मकान को बनाते हैं, तो एक स्ट्रक्चर जो जाल हम खड़ा करते हैं, वह बहुत दूसरा होता है। एक आदमी | खड़ा करते हैं, ऐसे हम एक जाल खड़ा करेंगे। उस जाल से हम को किसी को मारना है, तो वह बहाने खोज लेता है। एक आदमी | दिखाएंगे कि यह ठीक है। लेकिन मूल कारण बिलकुल और होगा। को क्रोध करना है, तो वह बहाने खोज लेता है। एक आदमी को | अगर कृष्ण को यह साफ दिखाई पड़ जाए कि अर्जुन जो कह रहा भागना है, तो वह बहाने खोज लेता है। आदमी को जो करना है, है, वही कारण है, तो मैं नहीं मानता कि वे धर्म का विनाश करवाना वह पहले आता है; और बहाने खोजना पीछे आता है। | चाहेंगे; मैं नहीं मानता कि वे चाहेंगे कि बच्चे विकृत हो जाएं; मैं नहीं ___ वह कृष्ण देख रहे हैं और हंस रहे हैं। समझ रहे हैं कि ये सब | सोचता कि वे चाहेंगे कि संस्कृति, सनातन-धर्म नष्ट हो जाए। नहीं जो दलीलें वह दे रहा है, ये चालबाजी की दलीलें हैं; ये दलीलें वे चाहेंगे। लेकिन ये कारण नहीं हैं। ये फाल्स सब्स्टीट्यूट्स हैं, ये वास्तविक नहीं हैं; ये सही नहीं हैं। यह उसकी अपनी दृष्टि नहीं है। झूठे परिपूरक कारण हैं। इसलिए कृष्ण इनको गिराने की कोशिश क्योंकि उसने कभी आज तक किसी को मारते वक्त नहीं सोचा। करेंगे, इनको काटने की कोशिश करेंगे। वे अर्जुन को वहां लाएंगे, कोई ऐसा पहला मौका नहीं है कि वह मार रहा है। वह निष्णात | | जहां मूल कारण है। क्योंकि मूल कारण से लड़ा जा सकता है, योद्धा है। मारना ही उसकी जिंदगीभर का अनुभव और कुशलता | लेकिन झूठे कारणों से लड़ा नहीं जा सकता। और इसलिए हम मूल है। मारना ही उसका बल है, तलवार ही उसका हाथ है, धनुष-बाण को छिपा लेते हैं और झूठे कारणों में जीते हैं। ही उसकी आत्मा है। ऐसा आदमी नहीं है कि कोई तराजू पकड़े बैठा ___ यह अर्जुन की मनोदशा ठीक से पहचान लेनी जरूरी है। यह रहा हो और अचानक युद्ध पर लाकर खड़ा कर दिया गया हो। रीजन की कनिंगनेस है, यह बुद्धि की चालाकी है। सीधा नहीं इसलिए उसकी बातों पर कृष्ण जरूर हंस रहे होंगे। वे जरूर देख कहता कि मैं भाग जाना चाहता हूं; नहीं होता मन अपनों को मारने रहे होंगे कि आदमी कितना चालाक है! का; यह तो आत्मघात है; मैं जा रहा हूं। सीधा नहीं कहता। दुनिया . सब आदमी चालाक हैं। जो कारण होता है, उसे हम भुलाते हैं। में कोई आदमी सीधा नहीं कहता। जो आदमी सीधा कहता है, और जो कारण नहीं होता है, उसके लिए हम दलीलें इकट्ठी करते | | उसकी जिंदगी में क्रांति हो जाती है; जो इरछा-तिरछा कहता रहता हैं। और अक्सर ऐसा होता है कि खुद को ही दलीलें देकर हम | | है, उसकी जिंदगी में कभी क्रांति नहीं होती। वह जिसको कहते हैं समझा लेते हैं और मूल कारण छट जाता है। | झाड़ी के आसपास पीटना, बीटिंग अराउंड दि बुश; बस, ऐसे ही - लेकिन कृष्ण चाहेंगे कि उसे मूल कारण खयाल में आ जाए। वह पीटेगा पूरे वक्त। झाड़ी बचाएगा, आसपास पिटाई करेगा। क्योंकि मूल कारण अगर खयाल में हो, तो समझ पैदा हो सकती | | अपने को बचाएगा और हजार-हजार कारण खोजेगा। छोटी-सी है। और अगर मूल कारण छिपा दिया जाए और दूसरे फाल्स बात है सीधी उसकी, हिम्मत खो रहा है, ममत्व के साथ हिम्मत जा रीजन्स, झूठे कारण इकट्ठे कर लिए...। | रही है। उतनी सीधी बात नहीं कहेगा और सारी बातें इकट्ठी कर रहा अर्जुन को क्या मतलब है कि आगे क्या होगा? धर्म की उसे है। उसके कारण सुनने और समझने जैसे हैं। हमारा चित्त भी ऐसा कब चिंता थी कि धर्म विनष्ट हो जाएगा! कब उसने फिक्र की थी | करता है, इसलिए समझना उपयोगी है। कि ब्राह्मण, कि कहीं कुल विकृत न हो जाएं? कब उसने फिक्र की थी? इन सब बातों की कोई चिंता न थी कभी। आज अचानक सब चिंताएं उसके मन पर उतर आई हैं। प्रश्नः भगवान श्री, अर्जुन के चित्त ने जो कुछ भी यह समझने जैसा है कि ये सारी चिंताएं क्यों उतर रही हैं, क्योंकि | | कारण बताए, उसमें है कि कुलधर्म का क्षय होने से वह भागना चाहता है। भागना चाहता है, तो ऐसा नहीं दिखाएगा दुषित स्त्रियों से वर्णसंकर प्रजा का जन्म होता है। जो Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दलीलों के पीछे छिपा ममत्व और हिंसा 4 प्रजा पिंड और तर्पण क्रिया नहीं करती है, उससे उनके पितृगण नर्क में जाते हैं। तो क्या पितृगण पिंडदान नहीं देने पर भूखे मरते हैं? यह क्या अर्जुन के चित्त की भ्रांति ही है ? अर्जुन के कारण सब अत्यंत ऊपरी, अत्यंत व्यर्थ हैं। कोई पितृगण आपके पिंड से बंधकर नहीं जीते हैं। और अगर आपके पिंडदान से किन्हीं जा चुके पितृगणों की आगे की यात्रा बिगड़ती हो, तब तो पिंडदान बड़ी खतरनाक बात है। आत्माएं अपने ही भीतर से अपनी यात्रा पर निकलती हैं। आपने उनके पीछे क्या किया और क्या नहीं किया, इससे उनकी यात्रा का कोई भी संबंध नहीं है। न लेकिन पुरोहितों का एक जाल है जगत में। और पुरोहितों का जाल जन्म से लेकर मृत्यु तक आदमी को कसता है, मरने बाद भी कसता है। और बिना आदमी को भयभीत किए आदमी का शोषण नहीं किया जा सकता। भय ही शोषण का आधार है । तो बेटे का शोषण किया जा सकता है, मरे हुए बाप के लिए भी भय दिखाकर । अर्जुन वह सब बातें कर रहा है। वह उसने सुनी होंगी। वह सब उसके आसपास हवा में रही होंगी। तब थीं, तब तो आश्चर्य नहीं, अभी भी हैं। पांच हजार साल पहले अर्जुन ने सुनी होंगी, कोई आश्चर्य की बात नहीं, अभी भी हैं। अर्जुन जो कह रहा है, उसने जो सुना होगा हवा में, जो पुरोहित समझाते रहे होंगे आसपास, वही कह रहा है। उसे कोई मतलब नहीं है। वह तो वे सब दलीलें इकट्ठी परेड करवा रहा है कृष्ण के सामने कि साबित हो जाए 1 वह भाग रहा है, भागना ही धर्म है, उचित है । वह इसीलिए ये सारी दलीलें ला रहा है। लेकिन इनमें कोई भी सत्य नहीं है । और न ही कोई वर्णसंकर से कोई विकृति होती है। उस दिन खयाल था। अभी भी है। करपात्री और शंकराचार्य से पूछिए, तो यही खयाल है। कुछ लोगों के खयाल बदलते ही नहीं, सारी दुनिया में सब बदल जाए! कुछ लोग खयाल को ऐसा पकड़ते हैं कि खयाल के नीचे से सारी जिंदगी निकल जाती है, लेकिन मुर्दा खयाल को पकड़े रह जाते हैं। क्रास ब्रीडिंग - जिसको वर्णसंकर कह रहा है अर्जुन — श्रेष्ठतम ब्रीडिंग है। क्रास ब्रीडिंग से संभावना श्रेष्ठतर होने की है। बीज में आप पूरी तरह उपयोग कर रहे हैं। उस वक्त आप खयाल में नहीं लाते कि अर्जुन के खिलाफ जा रहे हैं। जानवरों में उपयोग कर रहे हैं। आदमी में अभी उपयोग नहीं कर रहे हैं। इसलिए आज आदमी की ब्रीडिंग जानवरों से भी पिछड़ी हुई ब्रीडिंग है। आज हम जितने अच्छे कुत्ते पैदा कर लेते हैं कुत्तों में, उतना अच्छा आदमी आदमी में पैदा नहीं कर पाते। आदमी की अभी भी संतति की व्यवस्था एकदम अवैज्ञानिक है। अर्जुन के वक्त में तो रही ही होगी, आज भी है। आज भी आदमी से श्रेष्ठतर आदमी, मन और शरीर की दृष्टि से स्वस्थ, ज्यादा आयुष्य वाला, ज्यादा प्रतिभाशाली पैदा हो सके, इस तरफ हमारा कोई खयाल नहीं है। बीज की हम फिक्र करते हैं। बीज अच्छे से अच्छा होता जा रहा है— फलों का, फूलों का, गेहूं का। पशुओं में हम अच्छे से अच्छे पशु पैदा करने की फिक्र करते हैं। आदमी में अभी भी फिक्र नहीं है। लेकिन पुराने वक्त में ऐसा खयाल था कि अगर दूसरी जाति से | मिलना हुआ, तो जो बच्चा पैदा होगा वह वर्णसंकर हो जाएगा। सच तो यह है कि इस जगत में जितनी भी प्रतिभाशाली जातियां हैं, | वे सब वर्णसंकर हैं । और जितनी शुद्ध जातियां हैं, वे बिलकुल | पिछड़ गई हैं। नीग्रो बिलकुल शुद्ध हैं; अफ्रीका के जंगलों में रहने वाले आदमी बिलकुल शुद्ध हैं; हिंदुस्तान के आदिवासी बिलकुल | शुद्ध हैं। जितनी भी विकासमान संस्कृतियां हैं, सभ्यताएं हैं, वे सभी वर्णसंकर हैं। असल में, जैसे दो नदियां मिलकर ज्यादा समृद्ध हो जाती हैं, वैसे | ही जीवन की दो विभिन्न धाराएं भी मिलकर ज्यादा समृद्ध हो जाती हैं। अगर अर्जुन ठीक है, तब तो बहन और भाई की शादी करवा देनी चाहिए, उससे बिलकुल शुद्ध बच्चे पैदा होंगे। लेकिन बहन और भाई की शादी से शुद्ध बच्चा पैदा नहीं होता, सिर्फ रुग्ण बच्चा पैदा होता है। बहन और भाई को हम बचाते हैं। जो बुद्धिमान हैं, वे चचेरे भाई और बहन भी बचाते हैं। जो उनसे भी ज्यादा बुद्धिमान हैं, वे अपनी जाति में शादी कभी न करेंगे। जो उनसे भी ज्यादा बुद्धिमान हैं, वे अपने देश को भी बचाएंगे। और आज नहीं कल, अगर किसी ग्रह पर, उपग्रह पर हमने कोई मनुष्य खोज लिए, तो जो बहुत बुद्धिमान हैं, वे इंटर प्लेनेटरी क्रास ब्रीडिंग की फिक्र करेंगे। लेकिन वह अर्जुन तो सिर्फ परेड करवा रहा है। वह तो यह कह रहा है कि यह यह उसने सुना है। ऐसी-ऐसी हानि हो जाएगी, | इसलिए मुझे भागने दो। न उसे क्रास ब्रीडिंग से मतलब है, न कोई वह जानकार है। उसकी जानकारी और कुशलता इस सबकी नहीं है। हां, ये उसके सुने हुए खयाल हैं। चारों तरफ हवा में ये बातें थीं, 67 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 AM आज भी हैं। उस समय थीं, तो बिलकुल स्वाभाविक लगता है। | बिना चित्रों के नहीं सोच पाता। आदमी को सोचने में चित्र बड़े क्योंकि मनुष्य की संतति का जन्म-शास्त्र बहुत विकसित नहीं था। सहयोगी हो जाते हैं। आज तो बहुत विकसित है। हम सबने देखी है, अभी भी घरों में टंगी हुई है भारत माता की लेकिन आज भी इतने विकसित संतति-शास्त्र के साथ, हमारा | | फोटो। वह तो कुछ बुद्धिमान हमारे मुल्क में पता नहीं क्यों नहीं हैं मस्तिष्क इतना विकसित नहीं है कि हम उसे सह सकें या उस संबंध कि भारत माता की खोज पर नहीं निकलते। फोटो तो घरों में लटकी में सोच सकें। क्योंकि अपनी जाति में शादी करना, बहुत दूर की | हुई है भारत माता की। लेकिन भारत माता कहीं खोजने से मिलने अपनी बहन से ही शादी करना है। जरा फासला है; दस-पांच | वाली नहीं है। लेकिन हजार, दो हजार साल बाद अगर कोई कहेगा पीढ़ियों का फासला होगा। अपनी ही जाति में शादी करना, | कि भारत माता नहीं थी, तो लोग कहेंगे, बिलकुल गलत कहते हैं। दस-पांच पीढ़ियों के पीछे एक ही पिता की संतति है वह। सौ पीढ़ी | | देखो, गांधीजी इशारा कर रहे हैं फोटो में भारत माता की तरफ। पीछे होगी, बहुत दूर जाएंगे. तो। लेकिन एक जाति में सब | | गांधीजी गलती कर सकते हैं? भारत माता जरूर रही होंगी। या तो बहन-भाई ही हैं। और ज्यादा पीछे जाएंगे तो एक महाजाति में भी कहीं गुहा-कंदराओं में छिप गई हैं हमारे पाप की वजह से। सब बहन-भाई हैं। आदमी जो भी समझना चाहे, उसे चित्रों में रूपांतरित करता है। जितने दूर जाएं, जितना विभिन्न बीजारोपण संयुक्त हो, उतनी | | असल में जितना हम पुराने में लौटेंगे, उतनी ही पिक्टोरियल लैंग्वेज विभिन्न समृद्धियां, उतने विभिन्न संस्कार, उतनी विभिन्न जातियों के | | बढ़ती जाती है। असल में दुनिया की पुरानी भाषाएं चित्रात्मक हैं। द्वारा अनभव किया गया सारा का सारा हजारों साल का इतिहास जैसे चीनी अभी भी चित्रों की भाषा है। अभी भी शब्द नहीं हैं. वर्ण जेनेटिक अणु में इकट्ठा होकर उस व्यक्ति को मिल जाता है। जितने | नहीं हैं, चित्र हैं; चित्रों में ही सारा काम करना पड़ता है; इसलिए दूर से ये दो धाराएं आएं, उतने विलक्षण व्यक्ति के पैदा होने की | चीनी सीखना बहुत मुश्किल मामला हो जाता है। साधारण भी कोई संभावना है। | सीखे तो दस-पंद्रह साल तो मेहनत करनी ही पड़े। क्योंकि कम से तो वर्णसंकर बहुत गाली थी अर्जुन के वक्त में, हिंदुस्तान में | कम दस-बीस हजार चित्र तो उसे याद होने ही चाहिए। अब चीनी अभी भी काशी में गाली है। लेकिन अब सारे जगत के बुद्धिमान | | में अगर झगड़ा लिखना है, तो एक झाड़ बनाकर उसके नीचे दो इस बात के लिए राजी हैं कि जितने दूर का वर्ण हो, जितनी संकरता औरतें बिठालनी पड़ती हैं, तब पता चलता है कि झगड़ा है। हो, उतने ही श्रेष्ठतम व्यक्ति को जन्म दिया जा सकता है। लेकिन | बिलकुल पक्का झगड़ा तो है ही। एक झाड़ के नीचे दो औरतें! अर्जुन को इससे लेना-देना नहीं है। अर्जुन कोई इस पर वक्तव्य | इससे बड़ा झगड़ा और क्या हो सकता है? नहीं दे रहा है। वह तो सिर्फ दलीलें इकट्ठी कर रहा है। सारी दुनिया की, जितने हम पीछे लौटेंगे, उतनी चिंतना पिक्टोरियल होगी। अभी भी हम सपना जब देखते हैं, तो उसमें शब्द नहीं होते, चित्र होते हैं। क्योंकि सपना जो है, वह प्रिमिटिव, प्रश्नः भगवान श्री, नर्क या स्वर्ग जैसे कुछ स्थान बहुत पुराना है, नया नहीं है। बीसवीं सदी में भी बीसवीं सदी का विशेष हैं क्या? ऐसा लगता है कि पाप और पुण्य | सपना देखना मुश्किल है। सपना तो हम देखते हैं कोई लाख साल एवं नर्क और स्वर्ग की कल्पना व्यक्ति को भयभीत पुराना। उसका ढंग लाख साल पुराना होता है। या प्रोत्साहित करने के हेतु की गई है। क्या आप इसलिए बच्चों की किताब में चित्र ज्यादा रखने पड़ते हैं और सहमत हैं इससे? शब्द कम रखने पड़ते हैं। क्योंकि बच्चा शब्दों से नहीं समझ सकेगा, चित्रों से समझेगा। अभी ग गणेश जी का, नाहक गणेश जी को फंसाना पड़ता है। गणेश जी का कोई लेना-देना नहीं है ग - क और स्वर्ग भौगोलिक स्थान नहीं हैं, लेकिन से। लेकिन बच्चा गणेश जी को समझेगा. फिर ग को समझेगा। 1 मानसिक दशाएं जरूर हैं। लेकिन आदमी का चिंतन | | बच्चा प्रिमिटिव है। सदा ही चीजों को चित्रों में रूपांतरित करता है। आदमी तो जितना हम पीछे लौटेंगे, उतने सारे मानसिक तत्व हमें Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दलीलों के पीछे छिपा ममत्व और हिंसा 4 भौगोलिक बनाने पड़े। स्वर्ग चित्त की एक दशा है। जब सब सुखपूर्ण है, सब शांत है, सब फूल खिले हैं, सब संगीत से भरा है । लेकिन इसे कैसे कहें। इसे ऊपर रखना पड़ा। नर्क है, जहां कि सब दुख है, पीड़ा है, जलन है। नीचे रखना पड़ा। नीचे और ऊपर वेल्यूज बन गईं। ऊपर वह है, जो श्रेष्ठ है; नीचे वह है, जो बुरा है, निकृष्ट है। फिर जलन, दुख, पीड़ा, तो आग की लपटें बनानी पड़ीं। स्वर्ग, तो शीतल, शांत, एयरकंडीशनिंग की व्यवस्था करनी पड़ी। लेकिन वे सब चित्र हैं। लेकिन जिद पीछे पैदा होती है । जिद पुरोहित पैदा करवाता है। वह कहता है, नहीं, चित्र नहीं हैं। ये तो स्थान हैं। अब वह मुश्किल में पड़ेगा। क्योंकि जब खुश्चेव का आदमी पहली दफा अंतरिक्ष में पहुंचा, तो खुश्चेव ने रेडियो पर कहा कि मेरे आदमी चांद का चक्कर लगा लिए हैं। कोई स्वर्ग दिखाई नहीं पड़ रहा है। अब यह पुरोहित से झगड़ा है खुश्चेव का । खुश्चेव से पुरोहित को हारना पड़ेगा, क्योंकि पुरोहित दावा ही गलत कर रहा है । कहीं कोई ऊपर स्वर्ग नहीं है, कहीं कोई नीचे नर्क नहीं है। हां, लेकिन सुख की अवस्था ऊपर की अवस्था है, नर्क की अवस्था दुख की अवस्था, नीचे की अवस्था है। और यह नीचे - ऊपर को इतना भौगोलिक बनाने का कारण है। जब आप सुखी होंगे, तब आपको लगेगा जैसे आप जमीन से ऊपर उठ गए हैं। और जब आप दुखी होंगे, तो ऐसा लगेगा कि जमीन गड़ गए हैं। वह बहुत मानसिक फीलिंग है जब आप दुखी होंगे, तो सब तरफ ऐसा लगेगा कि अंधेरा छा गया। जब सुखी होंगे, तब सब तरफ लगेगा कि आलोक छा गया। वह फीलिंग है, भाव है, अनुभव है भीतर। जब दुखी होंगे, तो ऐसा लगेगा कि जैसे जल रहे हैं, जैसे कोई भीतर से आग जल रही है । और जब आनंदित होंगे, तो भीतर फूल खिलने लगेंगे। वे भीतरी भाव हैं। लेकिन कवि उनको कैसे बनाए ! चित्रकार उनको कैसे समझाए ! धर्मगुरु उन्हें कैसे लोगों के सामने उपस्थित करे! तो उसने बनाया उनका चित्र, तो ऊपर गया स्वर्ग, नीचे गया नर्क। लेकिन अब वह भाषा बेमानी हो गई। अब आदमी उस भाषा के पार चला गया; भाषा बदलनी पड़ेगी। तो मैं कहता हूं, ज्यॉग्राफिकल नहीं, भौगोलिक नहीं, साइकोलाजिकल हैं, स्वर्ग और नर्क हैं। और ऐसा भी नहीं है कि आप मरकर स्वर्ग चले जाएंगे और नर्क चले जाएंगे। आप चौबीस घंटे में कई बार स्वर्ग और नर्क में यात्रा करते रहते हैं। ऐसा नहीं है। कोई कि इकट्ठा एक दफा होलसेल, बिलकुल फुटकर है मामला; चौबीस घंटे का काम है। 69 जब आप क्रोध में होते हैं तो फौरन नर्क में होते हैं। जब आप प्रेम में होते हैं तो स्वर्ग में उठ जाते हैं। पूरे वक्त आपका मन नीचे-ऊपर हो रहा है। पूरे वक्त आप सीढ़ियां उतर रहे हैं अंधेरे की | और आलोक की ! ऐसा कोई इकट्ठा नहीं है। लेकिन जो आदमी जिंदगीभर नर्क में ही गुजारता हो, उसकी आगे की यात्रा भी अंधेरे की तरफ ही हो रही है। यह अर्जुन बेचारा सारी दुनिया को बचाने के लिए - आत्माएं स्वर्ग जाएं, इसके लिए; उनके बेटे पिंडदान करें, इसलिए; कोई विधवा न हो जाए, इसलिए; वर्णसंकरता न फैल जाए, विनाश न हो जाए - इतने बड़े उपद्रव के लिए...। यह आदमी सिर्फ भागना चाहता है | इतनी-सी छोटी बात की कृष्ण आज्ञा दे दें। लेकिन इसमें भी वह सेंक्शन मांग रहा है; इसमें भी वह चाह | रहा है कि कृष्ण कह दें कि अर्जुन, तू बिलकुल ठीक कहता है । ताकि कल जिम्मेवारी उसकी अपनी न रह जाए; तब वह कल कह | सके कि कृष्ण ! तुमने ही मुझसे कहा था, इसलिए मैं गया था। असल में इतनी भी हिम्मत नहीं है उसकी कि वह रिस्पांसबिलिटी अपने ऊपर ले ले, कि कह दे कि मैं जाता हूं। क्योंकि तब उसे दूसरा मन उसका कहता है कि कायरता होगी! यह तो उसके खून में नहीं है। यह भागना उसके वश की बात नहीं है। क्षत्रिय है, पीठ दिखाना उसकी हिम्मत के बाहर है। मर जाना बेहतर है, पीठ दिखाना बेहतर नहीं है। यह भी उसके भीतर बैठा है। इसलिए वह कहता है कि कृष्ण अगर साक्षी दे दें, और कह दें कि ठीक है, तू उचित कहता है. अर्जुन... । वह तो कृष्ण की जगह अगर कोई साधारण धातु का बना हुआ कोई पंडित-पुरोहित होता, तो कह देता कि बिलकुल ठीक कहता है अर्जुन, शास्त्र में ऐसा ही तो लिखा है; अर्जुन भाग गया होता। वह भागने का रास्ता खोज रहा है। लेकिन उसे पता नहीं कि जिससे वह बात कर रहा है, उस आदमी को धोखा देना मुश्किल है। वह | अर्जुन को पैना, गहरे देख रहा है। वह जानता है कि वह क्षत्रिय है और क्षत्रिय होना ही उसकी नियति है; वही उसकी डेस्टिनी है। वह ये सब बातें ऐसी कर रहा है, ब्राह्मणों जैसी । ब्राह्मण वह है नहीं । बातें ब्राह्मणों जैसी कर रहा है। दलीलें वह ब्राह्मणों की दे रहा है। | है वह ब्राह्मण नहीं, है वह क्षत्रिय । तलवार के अतिरिक्त वह कुछ नहीं जानता। एक ही शास्त्र है उसका। असल में अर्जुन जैसा क्षत्रिय Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m गीता दर्शन भाग-1 AM दुनिया में खोजना मुश्किल है। मेरे एक मित्र जापान से आए, तो किसी ने उन्हें एक मूर्ति भेंट कर दी। उस मूर्ति के एक हाथ में तलवार है और तलवार की चमक है चेहरे पर। और दूसरे हाथ में एक दीया है और दीए की ज्योति की चमक है दूसरे हिस्से पर चेहरे के! जिस तरफ दीया है, उस तरफ से मूर्ति को देखें, तो लगता है कि चेहरा बुद्ध का है। और जिस तरफ तलवार है, उस तरफ से देखें, तो लगता है कि चेहरा अर्जुन का है। वे मुझसे पूछने लगे कि यह क्या मामला है? तो मैंने कहा कि अगर बुद्ध के मुकाबले बुद्ध से ज्यादा बड़ा ब्राह्मण खोजना मुश्किल है, शुद्ध ब्राह्मण, तो अर्जुन से बड़ा क्षत्रिय भी खोजना मुश्किल है। और यह जो मूर्ति है जापान में, समुराई सैनिक की मूर्ति है। समुराई के लिए नियम है कि उसके पास बुद्ध जैसी शांति और अर्जुन जैसी क्षमता चाहिए, तभी वह सैनिक है। लड़ने की हिम्मत अर्जुन जैसी और लड़ते समय शांति बुद्ध जैसी। बड़े इंपासिबल की मांग है, बड़े असंभव की मांग है। लेकिन अर्जुन के पास बुद्ध जैसा कुछ भी नहीं है। उसकी शांति सिर्फ बचाव है। उसकी शांति की बातें सिर्फ पलायनवादी हैं। वह शांति की बातें करके भी पछताएगा। कल अर्जुन फिर कृष्ण को पकड़ लेगा कि तुमने क्यों मुझे सहारा दिया, बदनामी हो गई! कुल की प्रतिष्ठा चली गई! वह फिर पच्चीस दलीलें ले आएगा। जैसे अभी पच्चीस दलीलें लाया है भागने के पक्ष में, कल पंच्चीस दलीलें लाएगा और कृष्ण को कहेगा कि तुम ही जिम्मेवार हो, तुमने ही मुझे उलझा दिया और भगा दिया। अब सब बदनामी हो गई। अब कौन जिम्मा ले इसका? इसलिए कृष्ण उसे इतने सस्ते में छोड़ नहीं सकते हैं। इतने सस्ते में छोड़ने की बात भी नहीं है। वह आदमी दोहरे दिमाग में है। उसे एक दिमाग पर लाना एकदम आवश्यक है। फिर वह एक दिमाग से जो भी करे, कृष्ण की उसे सहमति हो सकती है। आज इतना ही। फिर कल सुबह। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 1-2 पांचवां प्रवचन अर्जुन का पलायनअहंकार की ही दूसरी अति Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 AM अहो बत महत्पापं कर्तुव्यवसिता वयम् । योग्य नहीं है। हे परंतप, तुच्छ हृदय की दुर्बलता को यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।। ४५ ।। त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो। अहो! शोक है कि हम लोग (बुद्धिमान होकर भी) महान पाप करने को तैयार हुए हैं, जो कि राज्य और सुख के लोभ से अपने कुल को मारने के लिए उद्यत हुए हैं। जय ने अर्जुन के लिए, दया से भरा हुआ, दया के यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः। 1 आंसू आंख में लिए, ऐसा कहा है। दया को थोड़ा धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् । । ४६ ।।। समझ लेना जरूरी है। संजय ने नहीं कहा, करुणा से यदि मुझ शस्त्ररहित, न सामना करने वाले को, शस्त्रधारी भरा हुआ; कहा है, दया से भरा हुआ। धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मारें, तो वह मरना भी मेरे लिए साधारणतः शब्दकोश में दया और करुणा पर्यायवाची दिखाई अति कल्याणकारक होगा। | पड़ते हैं। साधारणतः हम भी उन दोनों शब्दों का एक-सा प्रयोग संजय उवाच करते हुए दिखाई पड़ते हैं। उससे बड़ी भ्रांति पैदा होती है। दया का एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् । | अर्थ है, परिस्थितिजन्य; और करुणा का अर्थ है, मनःस्थितिजन्य। विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ।। ४७।। उनमें बुनियादी फर्क है। संजय बोले कि रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाला अर्जुन | | | करुणा का अर्थ है, जिसके हृदय में करुणा है। बाहर की इस प्रकार कहकर बाण सहित धनुष को त्यागकर | परिस्थिति से उसका कोई संबंध नहीं है। करुणावान व्यक्ति अकेले स्थ के पिछले भाग में बैठ गया। | में बैठा हो, तो भी उसके हृदय से करुणा बहती रहेगी। जैसे निर्जन | में फूल खिला हो, तो भी सुगंध उड़ती रहेगी। राह पर निकलने | वालों से कोई संबंध नहीं है। राह से कोई निकलता है या नहीं अथ द्वितीयोऽध्यायः | निकलता है, फूल की सुगंध को इससे कुछ लेना-देना नहीं है। नहीं | कोई निकलता, तो निर्जन पर भी फूल की सुगंध उड़ती है। कोई निकलता है तो उसे सुगंध मिल जाती है, यह दूसरी बाते है; फूल तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् । उसके लिए सुगंधित नहीं होता है। विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः।।१।। । करुणा व्यक्ति की अंतस चेतना का स्रोत है। वहां सुगंध की संजय ने कहाः पूर्वोक्त प्रकार से दया से भरकर और | भांति करुणा उठती है। इसलिए बुद्ध को या महावीर को दयावान आंसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस | कहना गलत है, वे करुणावान हैं, महाकारुणिक हैं। अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा। __अर्जुन को संजय कहता है, दया से भरा हुआ। दया सिर्फ उनमें श्रीभगवानुवाच | पैदा होती है, जिनमें करुणा नहीं होती। दया सिर्फ उनमें पैदा होती कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् । | है, जिनके भीतर हृदय में करुणा नहीं होती। दया परिस्थिति के अनार्यजुष्टमस्वयंमकीर्तिकरमर्जुन । । २।। दबाव से पैदा होती है। करुणा हृदय के विकास से पैदा होती है। हे अर्जुन, तुमको इस विषम स्थल में यह अज्ञान किस हेतु राह पर एक भिखारी को देखकर जो आपके भीतर पैदा होता है, वह से प्राप्त हुआ, क्योंकि यह न तो श्रेष्ठ पुरुषों से आचरण दया है; वह करुणा नहीं है। किया गया है, न स्वर्ग को देने वाला है, और तब एक बात और समझ लेनी चाहिए कि दया अहंकार को न कीर्ति को करने वाला है। | भरती है और करुणा अहंकार को विगलित करती है। करुणा सिर्फ क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते । उसमें ही पैदा होती है, जिसमें अहंकार न हो। दया भी अहंकार को क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप ।।३।। | ही परिपुष्ट करने का माध्यम है। अच्छा माध्यम है, सज्जनों का इसलिए हे अर्जुन, नपुंसकता को मत प्राप्त हो । यह तेरे लिए माध्यम है, लेकिन माध्यम अहंकार को ही पुष्ट करने का है। संजय उवाच 72 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + अर्जुन का पलायन – अहंकार की ही दूसरी अति जब आप किसी को दान देते हैं, तब आपके भीतर जो रस उपलब्ध होता है - देने वाले का, देने वाले की स्थिति में होने का - भिखारी को देखकर जो दया पैदा होती है; उस क्षण में अगर भीतर खोजेंगे, तो अहंकार का स्वर भी बजता होता है। करुणावान चाहेगा, पृथ्वी पर कोई भिखारी न रहे; दयावान चाहेगा, भिखारी रहे । अन्यथा दयावान को बड़ी कठिनाई होगी। दया पर खड़े हुए समाज भिखारी को नष्ट नहीं करते, पोषित करते हैं। करुणा पर कोई समाज खड़ा होगा, तो भिखारी को बरदाश्त नहीं कर सकेगा। नहीं होना चाहिए। अर्जुन के मन में जो हुआ है, वह दया है। करुणा होती तो क्रांति हो जाती। इसे इसलिए ठीक से समझ लेना जरूरी है कि कृष्ण जो उत्तर दे रहे हैं, वह ध्यान में रखने योग्य है। तत्काल कृष्ण उससे जो कह रहे हैं, वह सिर्फ उसके अहंकार की बात कह रहे हैं। वह उससे कह रहे हैं, अनार्यों के योग्य। वह दूसरा सूत्र बताता है कि कृष्ण ने पकड़ी है बात। अहंकार का स्वर बज रहा है उसमें वह कह रहा है, मुझे दया आती है। ऐसा कृत्य मैं कैसे कर सकता हूं? कृत्य बुरा है, ऐसा नहीं। ऐसा कृत्य मैं कैसे कर सकता हूं? इतना बुरा मैं कहां हूं! इससे तो उचित होगा, कृष्ण से वह कहता है कि वे सब धृतराष्ट्र के पुत्र मुझे मार डालें। वह ठीक होगा, बजाय इसके कि इतने कुकृत्य को करने को मैं तत्पर होऊं । अहंकार अपने स्वयं की बलि भी दे सकता है। अहंकार जो आखिरी कृत्य कर सकता है, वह शहीदी है; वह मार्टर भी हो सकता है। और अक्सर अहंकार शहीद होता है, लेकिन शहीद होने से और मजबूत होता है। अर्जुन कह रहा है कि इससे तो बेहतर है कि मैं मर जाऊं । मैं, अर्जुन, ऐसी स्थिति में कुकृत्य नहीं कर सकूंगा । दया आती है मुझे, यह सब क्या करने को लोग इकट्ठे हुए हैं! आश्चर्य होता है मुझे। उसकी बात से ऐसा लगता है कि इस युद्ध के बनने में वह बिलकुल साथी - सहयोगी नहीं है। उसने कोआप्ट नहीं किया है। यह युद्ध जैसे आकस्मिक उसके सामने खड़ा हो गया है। उसे जैसे इसका कुछ पता ही नहीं है । यह जो परिस्थिति बनी है, इसमें वह जैसे पार्टिसिपेंट, भागीदार नहीं है। इस तरह दूर खड़े होकर बात कर रहा है, कि दया आती है मुझे। आंख में आंसू भर गए हैं उसके । नहीं, ऐसा मैं न कर सकूंगा। इससे तो बेहतर है कि मैं ही मर जाऊं, वही श्रेयस्कर है...। इस स्वर को कृष्ण ने पकड़ा है। इसलिए मैंने कहा कि कृष्ण इस पृथ्वी पर पहले मनोवैज्ञानिक हैं। क्योंकि दूसरा सूत्र कृष्ण का सिर्फ अर्जुन के अहंकार को और बढ़ावा देने वाला सूत्र है। दूसरे सूत्र में कहते हैं, कैसे अनार्यों जैसी तू बात करता है? आर्य का अर्थ है श्रेष्ठजन, अनार्य का अर्थ है निकृष्टजन । आर्य का अर्थ है अहंकारीजन, अनार्य का अर्थ है दीन-हीन । तू कैसी अनार्यों जैसी बात करता है! 73 अब सोचने जैसा है कि दया की बात अनार्यों जैसी बात है ! आंख में दया से भरे हुए आंसू अनार्यों जैसी बात है! और कृष्ण | कहते हैं, इस पृथ्वी पर अपयश का कारण बनेगा और परलोक में भी अकल्याणकारी है। दया! शायद ही कभी आपको खयाल आया हो कि संजय कहता है, | दया से भरा अर्जुन, आंखों में आंसू लिए; और कृष्ण जो कहते हैं, | उसमें तालमेल नहीं दिखाई पड़ता । क्योंकि दया को हमने कभी ठीक से नहीं समझा कि दया भी अहंकार का भूषण है । दया भी अहंकार का कृत्य है । वह भी ईगो एक्ट है-अच्छे आदमी का । क्रूरता बुरे आदमी का ईगो एक्ट है। ध्यान रहे, अहंकार अच्छाइयों से भी अपने को भरता है, बुराइयों से भी अपने को भरता है। और अक्सर तो ऐसा होता है कि जब अच्छाइयों से अहंकार को भरने की सुविधा नहीं मिलती, तभी वह | बुराइयों से अपने को भरता है। इसलिए जिन्हें हम सज्जन कहते हैं और जिन्हें हम दुर्जन कहते हैं, उनमें बहुत मौलिक भेद नहीं होता, ओरिजनल भेद नहीं होता। सज्जन और दुर्जन, एक ही अहंकार की धुरी पर खड़े होते हैं। फर्क इतना ही होता है कि दुर्जन अपने अहंकार को भरने के लिए दूसरों को चोट पहुंचा सकता है। सज्जन अपने अहंकार को भरने के लिए स्वयं को चोट पहुंचा सकता है। चोट पहुंचाने में फर्क नहीं होता । अर्जुन कह रहा है, इनको मैं मारूं, इससे तो बेहतर है मैं मर | जाऊं । दुर्जन- - अगर हम मनोविज्ञान की भाषा में बोलें तो| सैडिस्ट होता है। और सज्जन जब अहंकार को भरता है, तो | मैसोचिस्ट होता है। मैसोच एक आदमी हुआ, जो अपने को ही मारता था। सभी स्वयं को पीड़ा देने वाले लोग जल्दी सज्जन हो सकते हैं। अगर मैं आपको भूखा मारूं, तो दुर्जन हो जाऊंगा। कानून, अदालत मुझे पकड़ेंगे। लेकिन मैं खुद अनशन करूं, तो कोई कानून, अदालत मुझे पकड़ेगा नहीं; आप ही मेरा जुलूस निकालेंगे। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ im गीता दर्शन भाग-144 लेकिन भूखा मारना आपको अगर बुरा है, तो मुझको भूखा है, वह अगर अहंकार से उठ रही है, तो अहंकार को फुलाने से मारना कैसे ठीक हो जाएगा? सिर्फ इसलिए कि यह शरीर मेरे जिम्मे | तत्काल विदा हो जाएगी। पड़ गया है और वह शरीर आपके जिम्मे पड़ गया है! तो आपके | इसलिए कहते हैं, कातरपन की बातें कर रहा है! कायरता की शरीर को अगर कोड़े मारूं और आपको अगर नंगा खड़ा करूं और बातें कर रहा है! सख्त से सख्त शब्दों का वे उपयोग करेंगे। कांटों पर लिटा दूं, तो अपराध हो जाएगा। और खुद नंगा हो जाऊं । यहां अर्जुन से वे जो कह रहे हैं पूरे वक्त, उसमें क्या प्रतिक्रिया और कांटों पर लेट जाऊं, तो तपश्चर्या हो जाएगी! सिर्फ रुख पैदा होती है, उसके लिए कह रहे हैं। मनोविश्लेषण शुरू होता है। बदलने से, सिर्फ तीर उस तरफ से हटकर इस तरफ आ जाए, तो कृष्ण अर्जुन को साइकोएनालिसिस में ले जाते हैं। लेट गया अर्जुन धर्म हो जाएगा! कोच पर अब कृष्ण की। अब वे जो भी पूछ रहे हैं, उसको जगाकर अर्जुन कह रहा है, इन्हें मारने की बजाय तो मैं मर जाऊं। वह पूरा देखना चाहेंगे कि वह है कहां! कितने गहरे पानी में है! बात वही कह रहा है; मरने-मारने की ही कह रहा है। उसमें कोई अब आगे से कृष्ण यहां साइकोएनालिस्ट, मनोविश्लेषक हैं। बहुत फर्क नहीं है। हां, तीर का रुख बदल रहा है। और अर्जुन सिर्फ पेशेंट है, सिर्फ बीमार है। और उसे सब तरफ से और ध्यान रहे, दूसरे को मारने में कभी इतने अहंकार की तृप्ति उकसाकर देखना और जगाना जरूरी है। पहली चोट वे उसके नहीं होती, जितना स्वयं को मारने में होती है। क्योंकि दूसरा मरते अहंकार पर करते हैं। वक्त भी मुंह पर थूककर मर सकता है। लेकिन खुद आदमी जब __ और स्वभावतः, मनुष्य की गहरी से गहरी और पहली बीमारी अपने को मारता है, तो बिलकुल निहत्था, बिना उत्तर के मरता है। | अहंकार है। और जहां अहंकार है, वहां दया झूठी है। और जहां दूसरे को मारना कभी पूरा नहीं होता। दूसरा मरकर भी बच जाता | अहंकार है, वहां अहिंसा झूठी है। और जहां अहंकार है, वहां शांति है। उसकी आंखें कहती हैं कि मार डाला भला, लेकिन हार नहीं | झूठी है। और जहां अहंकार है, वहां कल्याण और मंगल और गया वह! लेकिन खुद को मारते वक्त तो कोई उपाय ही नहीं। हराने लोकहित की बातें झूठी हैं। क्योंकि जहां अहंकार है, वहां ये सारी का मजा पूरा आ जाता है। की सारी चीजें सिर्फ अहंकार के आभूषण के अतिरिक्त और कुछ अर्जुन दया की बात करता हो और कृष्ण उससे कहते हैं कि भी नहीं हैं। अर्जुन, तेरे योग्य नहीं हैं ऐसी बातें, अपयश फैलेगा-तो वे सिर्फ उसके अहंकार को फुसला रहे हैं, परसुएड कर रहे हैं। दसरा सत्र कष्ण का. बताता है कि पकडी है उन्होंने नसावे ठीक अर्जुन उवाच जगह छ रहे हैं उसे। क्योंकि उसे यह समझाना कि दया ठीक नहीं, कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन । व्यर्थ है। उसे यह भी समझाना कि दया और करुणा में फासला है, ईषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजाविरिसूदन ।। ४ ।। अभी व्यर्थ है। अभी तो उसकी रग अहंकार है। अभी अहंकार तब अर्जुन बोला, हे मधुसूदन, मैं रणभूमि में भीष्म पितामह सैडिज्म से मैसोचिज्म की तरफ जा रहा है। अभी वह दूसरे को दुख और द्रोणाचार्य के प्रति किस प्रकार बाणों को करके युद्ध देने की जगह, अपने को दुख देने के लिए तत्पर हो रहा है। कलंगा, क्योंकि हे अरिसूदन, वे दोनों ही पूजनीय हैं। इस स्थिति में वे दूसरे सूत्र में उससे कहते हैं कि त क्या कह रहा है! आर्य होकर, सभ्य, सुसंस्कृत होकर, कुलीन होकर, कैसी अकुलीनों जैसी बात कर रहा है! भागने की बात कर रहा है युद्ध | - किन अर्जुन नहीं पकड़ पाता। वह फिर वही दोहराता से? कातरता तेरे मन को पकड़ती है? वे चोट कर रहे हैं उसके | CI है दूसरे कोण से। वह कहता है, मैं द्रोण और भीष्म से अहंकार को। ___ कैसे युद्ध करूंगा, वे मेरे पूज्य हैं। बात फिर भी वह बहुत बार गीता को पढ़ने वाले लोग ऐसी बारीक और नाजुक विनम्रता की बोलता है। जगहों पर बुनियादी भूल कर जाते हैं। क्या कृष्ण यह कह रहे हैं कि । लेकिन अहंकार अक्सर विनम्रता की भाषा बोलता है। और अहंकारी हो? नहीं, कृष्ण सिर्फ यह देख रहे हैं कि जो दया उठ रही अक्सर विनम्र लोगों में सबसे गहन अहंकारी पाए जाते हैं। असल 14 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अर्जुन का पलायन-अहंकार की ही दूसरी अति र में विनम्रता डिफेंसिव ईगोइज्म है, वह सुरक्षा करता हुआ अहंकार है। आक्रामक अहंकार मुश्किल में पड़ सकता है। विनम्र अहंकार पहले से ही सुरक्षित है, वह इंश्योर्ड है। इसलिए जब कोई कहता है, मैं तो कुछ भी नहीं हूं, आपके चरणों की धूल हूं, तब जरा उसकी आंखों में देखना। तब उसकी आंखें कछ और ही कहती हई मालम पड़ेंगी। उसके शब्द कुछ और कहते मालूम पड़ेंगे। कृष्ण ने अर्जुन की रग पर हाथ रखा है, लेकिन अर्जुन नहीं समझ पा रहा है। वह दूसरे कोने से फिर बात शुरू करता है। वह कहता है, द्रोण को, जो मेरे गुरु हैं; भीष्म को, जो मेरे परम आदरणीय हैं, पूज्य हैं-उन पर मैं कैसे आक्रमण करूंगा! यहां ध्यान में रखने जैसी बात है, यहां भीष्म और द्रोण गौण हैं। अर्जन कह रहा है. मैं कैसे आक्रमण करूंगा? इतना बरा मैं नहीं कि द्रोण पर और बाण खींचूं! कि भीष्म की और छाती छेदूं! नहीं, यह मुझसे न हो सकेगा। यहां वह कह तो यही रहा है कि वे पूज्य हैं, यह मैं कैसे करूंगा? लेकिन गहरे में खोजें और देखें तो पता चलेगा, वह यह कह रहा है कि यह मेरी जो इमेज है, मेरी जो प्रतिमा है, मेरी ही आंखों में जो मैं हूं, उसके लिए यह असंभव है। इससे तो बेहतर है मधुसूदन कि मैं ही मर जाऊं। इससे तो अच्छा है, प्रतिमा बचे, शरीर खो जाए; अहंकार बचे, मैं खो जाऊं। वह जो इमेज है मेरी, वह जो सेल्फ इमेज है उसकी...। हर आदमी की अपनी-अपनी एक प्रतिमा है। जब आप किसी पर क्रोध कर लेते हैं और बाद में पछताते हैं और क्षमा मांगते हैं, तो इस भ्रांति में मत पड़ना कि आप क्षमा मांग रहे हैं और पछता रहे हैं। असल में आप अपने सेल्फ इमेज को वापस निर्मित कर रहे हैं। आप जब किसी पर क्रोध करते हैं, तो आपने निरंतर अपने को अच्छा आदमी समझा है, वह प्रतिमा आप अपने ही हाथ से खंडित कर लेते हैं। क्रोध के बाद पता चलता है कि वह अच्छा आदमी, जो मैं अपने को अब तक समझता था, क्या मैं नहीं हं! अहंकार कहता है; नहीं, आदमी तो मैं अच्छा ही हूं। यह क्रोध जो हो गया है, यह बीच में आ गई भल-चक है। इंस्पाइट आफ मी. मेरे बावजूद हो गया है। यह कोई मैंने नहीं किया है, हो गया, परिस्थितिजन्य है। पछताते हैं, क्षमा मांग लेते हैं। अगर सच में ही क्रोध के लिए पछताए हैं, तो दुबारा क्रोध फिर जीवन में नहीं आना चाहिए। नहीं, लेकिन कल फिर क्रोध आता है। नहीं, क्रोध से कोई अड़चन न थी। अड़चन हुई थी कोई और | बात से। यह कभी सोचा ही नहीं था कि मैं और क्रोध कर सकता हूं! तो जब पछता लेते हैं, तब आपकी अच्छी प्रतिमा, आपका अहंकार फिर सिंहासन पर विराजमान हो जाता है। वह कहता है, देखो माफी मांग ली, क्षमा मांग ली। विनम्र आदमी हूं। समय ने, परिस्थिति ने, अवसर ने, मूड नहीं था, भूखा था, दफ्तर से नाराज लौटा था, असफल था, कुछ काम में गड़बड़ हो गई थी-परिस्थितिजन्य था। मेरे भीतर से नहीं आया था क्रोध। | मैंने तो क्षमा मांग ली है। जैसे ही होश आया, जैसे ही मैं लौटा, | मैंने क्षमा मांग ली है। आप अपनी प्रतिमा को फिर सजा-संवारकर, फिर गहने-आभूषण पहनाकर सिंहासन पर विराजमान कर दिए। | क्रोध के पहले भी यह प्रतिमा सिंहासन पर बैठी थी, क्रोध में नीचे | लुढ़क गई थी; फिर बिठा दिया। अब आप फिर पूर्ववत पुरानी जगह आ गए. कल फिर क्रोध करेंगे। पर्ववत अपनी ज | गए। क्रोध के पहले भी यहीं थे, क्रोध के बाद भी यहीं आ गए। जो | पश्चात्ताप है, वह इस प्रतिमा की पुनर्स्थापना है। __ लेकिन ऐसा लगता है, क्षमा मांगता आदमी बड़ा विनम्र है। सब | दिखावे सच नहीं हैं। सच बहुत गहरे हैं और अक्सर उलटे हैं। वह |आदमी आपसे क्षमा नहीं मांग रहा है। वह आदमी अपने ही सामने | निंदित हो गया है। उस निंदा को झाड़ रहा है, पोंछ रहा है, बुहार रहा है। वह फिर साफ-सुथरा, स्नान करके फिर खड़ा हो रहा है। ___ यह जो अर्जुन कह रहा है कि पूज्य हैं उस तरफ, उन्हें मैं कैसे | मारूं? एम्फेसिस यहां उनके पूज्य होने पर नहीं है। एम्फेसिस यहां अर्जन के मैं पर है कि मैं कैसे मारूं? नहीं-नहीं, यह अपने मैं की | प्रतिमा खंडित करने से, कि लोक-लोकांतर में लोग कहें कि अपने ही गुरु पर आक्रमण किया, कि अपने ही पूज्यों को मारा, इससे तो बेहतर है मधुसूदन कि मैं ही मर जाऊं। लेकिन लोग कहें कि मर. | गया अर्जुन, लेकिन पूज्यों पर हाथ न उठाया। मर गया, मिट गया, लेकिन गुरु पर हाथ न उठाया। । उसके मैं को पकड़ लेने की जरूरत है। अभी उसकी पकड़ में | नहीं है। किसी की पकड़ में नहीं होता है। जिसका मैं अपनी ही पकड़ में आ जाए, वह मैं के बाहर हो जाता है। हम अपने मैं को | बचा-बचाकर जीते हैं। वह दूसरी-दुसरी बातें करता जाएगा। वह सब्स्टीटयूट खोजता चला जाएगा। कभी कहेगा यह, कभी कहेगा वह। सिर्फ उस बिंदु को छोड़ता जाएगा, जो है। कृष्ण ने छूना चाहा | था, वह उस बात को छोड़ गया है। अनार्य-आर्य की बात वह नहीं उठाता। कातरता की बात वह नहीं उठाता। लोक में यश. परलोक Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 14 में भटकाव, उसकी बात वह नहीं उठाता; वह दूसरी बात उठाता है। जैसे उसने कृष्ण को सुना ही नहीं। उसके वचन कह रहे हैं कि बीच में जो कृष्ण ने बोला है, अर्जुन ने नहीं सुना। सभी बातें जो बोली जाती हैं, हम सुनते नहीं। हम वही सुन लेते हैं, जो हम सुनना चाहते हैं। सभी जो दिखाई पड़ता है, वह हम देखते नहीं। हम वही देख लेते हैं, जो हम देखना चाहते हैं। सभी जो हम पढ़ते हैं, वह पढ़ा नहीं जाता; हम वही पढ़ लेते हैं, जो हम पढ़ना चाहते हैं। हमारा देखना, सुनना, पढ़ना, सब सिलेक्टिव है; उसमें चुनाव है। हम पूरे वक्त वह छांट रहे हैं, जो हम नहीं देखना चाहते। एक नया मनोविज्ञान है, गेस्टाल्ट। यह जो अर्जुन ने उत्तर दिया वापस, यह गेस्टाल्ट का अदभुत प्रमाण है। गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिक कहते हैं, आकाश में बादल घिरे हों, तो हर आदमी उनमें अलग-अलग चीजें देखता है । डरा हुआ आदमी भूत-प्रेत देख लेता है, धार्मिक आदमी भगवान की प्रतिमा देख लेता है, फिल्मी दिमाग का आदमी अभिनेता-अभिनेत्रियां देख लेता है। वह एक ही बादल आकाश में है, अपना-अपना देखना हो जाता है। प्रत्येक आदमी अपनी ही निर्मित दुनिया में जीता है। और हम अपनी दुनिया में... इसलिए इस पृथ्वी पर एक दुनिया की भ्रांति में मत रहना आप। इस दुनिया में जितने आदमी हैं, कम से कम उतनी दुनियाएं हैं। अगर साढ़े तीन अरब आदमी हैं आज पृथ्वी पर, तो पृथ्वी पर साढ़े तीन अरब दुनियाएं हैं। और एक आदमी भी पूरी जिंदगी एक दुनिया में रहता हो, ऐसा मत सोच लेना। उसकी दुनिया भी रोज बदलती चली जाती है। पर्ल बक ने एक किताब अपनी आत्मकथा की लिखी है, तो नाम दिया है, माई सेवरल वर्ड्स, मेरे अनेक संसार । अब एक आदमी के अनेक संसार कैसे होंगे ? रोज बदल रहा है। और प्रत्येक व्यक्ति अपनी दुनिया के आस पास बाड़े, दरवाजे, संतरी, पहरेदार खड़े रखता है । और वह कहता है, इन-इन को भीतर आने देना, इन-इन को बाहर से ही कह देना कि घर पर नहीं हैं। यह हम लोगों के साथ ही नहीं करते, सूचनाओं के साथ भी करते हैं। अब अर्जुन बिलकुल नहीं सुना है; कृष्ण ने जो कहा, वह . बिलकुल नहीं सुना है। वह जो उत्तर दे रहा है, वह बताता है कि वह इररेलेवेंट है, उसकी कोई संगति नहीं है । हम भी नहीं सुनते। दो आदमी बात करते हैं, अगर आप चुपचाप साक्षी बनकर खड़े हो जाएं तो बड़े हैरान होंगे। लेकिन साक्षी बनकर खड़ा होना मुश्किल है। क्योंकि पता नहीं चलेगा और आप भी तीसरे आदमी भागीदार हो जाएंगे बातचीत में। अगर आप दो आदमियों की साक्षी बनकर बात सुनें तो बहुत हैरान होंगे कि ये एक-दूसरे से बात कर रहे हैं या अपने-अपने से बात कर रहे हैं ! एक आदमी जो कह रहा है, दूसरा जो कहता है उससे उसका कोई भी संबंध नहीं है। जुंग ने एक संस्मरण लिखा है कि दो पागल प्रोफेसर उसके पागलखाने में भर्ती हुए इलाज के लिए। ऐसे भी प्रोफेसरों के पागल होने की संभावना ज्यादा है। या यह भी हो सकता है कि पागल आदमी प्रोफेसर होने को उत्सुक रहते हैं। वे दोनों पागल हो गए हैं। | साधारण पागल नहीं हैं। साधारण पागल डर जाता है, भयभीत हो जाता है। प्रोफेसर पागल हैं। पागल होकर वे और भी बुद्धिमान हो गए हैं। जब तक जागे रहते हैं, घनघोर चर्चा चलती रहती है। जुंग | खिड़की से छिपकर सुनता है कि उनमें क्या बात होती है ! बातें बड़ी अदभुत होती हैं, बड़ी गहराई की होती हैं। दोनों | इन्फार्म्स हैं; उन दोनों ने बहुत पढ़ा-लिखा, सुना-समझा है। कम उनकी जानकारी नहीं है, शायद वही उनके पागलपन का कारण है। जानकारी ज्यादा हो और ज्ञान कम हो, तो भी आदमी पागल हो सकता है। और ज्ञान तो होता नहीं, जानकारी ही ज्यादा हो जाती है, फिर वह बोझ हो जाती है। चकित है जुंग, उनकी जानकारी देखकर। वे जिन विषयों पर | चर्चा करते हैं, वे बड़े गहरे और नाजुक हैं। लेकिन इससे भी चकित ज्यादा दूसरी बात पर है, और वह यह कि जो एक बोलता है, उसका | दूसरे से कोई संबंध ही नहीं होता। लेकिन यह तो पागल के लिए | बिलकुल स्वाभाविक है। इससे भी ज्यादा चकित इस बात पर है | कि जब एक बोलता है तो दूसरा चुप रहता है। और ऐसा लगता है कि सुन रहा है। और जैसे ही वह बंद करता है कि दूसरा जो बोलता है तो उसे सुनकर लगता है कि उसने उसे बिलकुल नहीं सुना । | क्योंकि अगर वह आकाश की बात कर रहा था, तो वह पाताल की शुरू करता है । उसमें कोई संबंध ही नहीं होता । | तब वह अंदर गया और उसने जाकर पूछा कि और सब तो मेरी समझ में आ गया; आप गहरी बातें कर रहे हैं, वह समझ में आ गया। समझ में यह नहीं आ रहा है कि जब एक बोलता है, तो दूसरा चुप क्यों हो जाता है ! तो वे दोनों हंसने लगे और उन्होंने कहा कि क्या तुम हमें पागल समझते हो ? इस दुनिया में पागल भर अपने को कभी पागल नहीं समझते। 76 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HTRA अर्जुन का पलायन-अहंकार की ही दूसरी अति पर और जो आदमी अपने को पागल समझता हो, समझना चाहिए, वह प्रश्नः भगवान श्री, आपने बताया कि प्रोफेसर पागल पागल होने के ऊपर उठने लगा। होते हैं। तो आप पहले दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक थे, ___ क्या तुम हमें पागल समझते हो? उन दोनों ने कहा। नहीं, जुंग अब आप आचार्य बन गए हैं। तो हमको आप उपलब्ध ने कहा, ऐसी भूल मैं कैसे कर सकता हूं! पागल बिलकुल आपको हुए हैं, यह हमारा सौभाग्य है। आपने अभी एक बात नहीं समझता हूं। पर यही मैं पूछ रहा हूं कि जब एक बोलता है, तो बताई ईगो के बारे में। तो एक प्रश्न यह उठता है कि दूसरा चुप क्यों रह जाता है! तो उन्होंने कहा, क्या तुम समझते हो ईगो के बिना तो प्रोजेक्शन होता ही नहीं। और कि हमें कनवर्सेशन का नियम भी मालूम नहीं, बातचीत करने की साइकोलाजिस्ट जो हैं-आप तो आत्म-संश्लेषक व्यवस्था भी मालूम नहीं? हमें मालूम है कि जब एक बोले तो दूसरे | हैं-मगर साइकोलाजिस्ट तो यह कहते हैं कि ईगो को चुप रहना चाहिए। जुंग ने कहा, जब तुम्हें इतना मालूम है, तो | | फुलफिलमेंट के बिना व्यक्तित्व का पूर्णतया विकास मैं यह और पूछना चाहता हूं कि जो एक बोलता है, उससे दूसरे के नहीं होता। और आप अहं-शून्यता की बात करते हैं, बोलने का कभी कोई संबंध ही नहीं होता! दोनों फिर हंसने लगे। तो क्या ईगो को एनाइलेट करने का आप सूचन दे उन्होंने कहा, खैर, हम तो पागल समझे जाते हैं, लेकिन इस जमीन रहे हैं? पर जहां भी लोग बोलते हैं दो, उनकी बातों में कोई संबंध होता है? जंग घबड़ाकर वापस लौट आया। उसने अपने संस्मरण में लिखा है कि उस दिन से मैं भी सोचता हूं जब किसी से बात करता 17 क तो मैंने कहा कि प्रोफेसर के पागल होने की संभावना हूं-संबंध है! ए ज्यादा होती है। पागल हो ही जाता है, ऐसा नहीं कहा। . थोड़ा संबंध हम बना लेते हैं। जब आपसे मैं बात कर रहा हूं, और दूसरा यह भी नहीं कहा है कि सभी पागल प्रोफेसर अगर हम पागल नहीं हैं—जिसकी कि संभावना बहुत कम है तो होते हैं। ऐसा भी नहीं कहा है; संभावना ज्यादा होती है। असल में जब आप बोल रहे हैं. तब मैं अपने भीतर बोले चला जाता है। जैसे | | जहां भी तथाकथित ज्ञान का भार ज्यादा हो, बर्डन हो, वहीं चित्त ही आप चप होते हैं. मैं बोलना शरू करता है। मैं जो बोलना शरू विक्षिप्त हो सकता है। ज्ञान तो चित्त को मुक्त करता है, ज्ञान का भार करता हूं, उसका संबंध मेरे भीतर जो मैं बोल रहा था, उससे होता विक्षिप्त करता है। और ज्ञान, जो मुक्त करता है, वह स्वयं से आता है; आपसे नहीं होता। हां, इतना संबंध हो सकता है जैसा खुंटी और है। और ज्ञान, जो विक्षिप्त कर देता है, वह स्वयं से कभी नहीं आता, कोट का होता है, कि आपकी बात में से कोई एक बात पकड़ लूं, वह सदा पर से आता है। खूटी बना लूं, और मेरे भीतर जो चल रहा था, उसको उस पर टांग __दूसरी बात पूछी है कि मनोवैज्ञानिक तो अहंकार को विकसित दूं। बस, इतना ही संबंध होता है। करने की बात करते हैं। मैं तो अहंकार को शून्य करने की बात अर्जुन और कृष्ण की चर्चा में यह मौका बार-बार आएगा, करता हूं। मनोवैज्ञानिक निश्चित ही अहंकार को विकसित करने की इसलिए मैंने इसे ठीक से आपसे कह देना चाहा। अर्जुन ने | बात करेंगे। सभी मनोवैज्ञानिक नहीं; बुद्ध नहीं करेंगे, कृष्ण नहीं बिलकुल नहीं सुना कि कृष्ण ने क्या कहा है। नहीं कहा होता, ऐसी | करेंगे, महावीर नहीं करेंगे। फ्रायड करेगा, एरिक्सन करेगा। करेगा, ही स्थिति है। वह अपने भीतर की ही सुने चला जा रहा है। वह कह | | उसका कारण है। क्योंकि फ्रायड या एरिक्सन के लिए अहंकार से रहा है, ये पूज्य, ये द्रोण, ये भीष्म...। वह यह सोच रहा होगा | ऊपर कोई और सत्य नहीं है। तो जो आखिरी सत्य है, उसको भीतर। इधर कृष्ण क्या बोल रहे हैं, वे जो बोल रहे हैं, वह परिधि | | विकसित किया जाना चाहिए। महावीर, बुद्ध या कृष्ण के लिए के बाहर हो रहा है। उसके भीतर जो चल रहा है, वह यह चल रहा अहंकार आखिरी सत्य नहीं है, केवल बीच की सीढ़ी है। निरहंकार है। वह कृष्ण से कहता है कि मधुसूदन, ये पूज्य, ये प्रिय; इन्हें मैं | | आखिरी सत्य है। अहंकार नहीं, ब्रह्म आखिरी सत्य है। अहंकार मार सकता हूं? मैं अर्जुन। इसे ध्यान रखना। उसने कृष्ण की बात | सिर्फ सीढ़ी है। इसलिए बुद्ध या महावीर या कृष्ण कहेंगे, अहंकार को विकसित भी करो और विसर्जित भी करो। सीढ़ी पर चढ़ो भी और सीढ़ी को नहीं सुनी। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 AK छोड़ो भी। आओ भी उस पर, जाओ भी उस पर से। उठो भी उस | | उपाय करे, आकाश की तरफ उड़ेगी, सागर में कूद नहीं सकती। तक, पार भी हो जाओ। चूंकि मन के पार भी सत्ता है, इसलिए मन | बूंद कूद सकती है। का जो आखिरी सत्य है-अहंकार-वह पार की सत्ता के लिए | तो पश्चिम का मनोविज्ञान बूंद बनाने तक है, कृष्ण का छोड़ने का पहला कदम होगा। अगर मैं अपने घर से आपके घर में | मनोविज्ञान सागर बनाने तक है। लेकिन पश्चिम के मनोविज्ञान से आना चाहूं, तो मेरे घर की आखिरी दीवार छोड़ना ही आपके घर में | गुजरना पड़ेगा। जो अभी भाप हैं, उनको फ्रायड और जुंग के पास प्रवेश का पहला कदम होगा। मन की आखिरी सीमा अहंकार है। | से गुजरना पड़ेगा, तभी वे कृष्ण के पास पहुंच सकते हैं। लेकिन अहंकार से ऊपर मन नहीं जा सकता। बहुत से भाप के कण सीधे ही कृष्ण तक पहुंचना चाहते हैं, वे चूंकि पश्चिम का मनोविज्ञान मन को आखिरी सत्य समझ रहा | | मुश्किल में पड़ जाते हैं। बीच में फ्रायड है ही, उससे बचा नहीं जा है, इसलिए अहंकार के विकास की बात उचित है। उचित कह रहा | | सकता। अंत वह नहीं है, लेकिन प्रारंभ वह जरूर है। हूं, सत्य नहीं। सीमा के भीतर बिलकुल ठीक है बात। लेकिन जिस कृष्ण का मनोविज्ञान चरम मनोविज्ञान है, दि सुप्रीम। जहां से दिन पश्चिम के मनस-शास्त्र को एहसास होगा, और एहसास | मन समाप्त होता है, वहां है वह। वह लास्ट बैरियर पर है। और होना शुरू हो गया है। जुंग के साथ दीवार टूटनी शुरू हो गई है। फ्रायड और एडलर मन की पहली सीमा की चर्चा कर रहे हैं। यह और अनुभव होने लगा है कि अहंकार के पार भी कुछ है। अगर खयाल में रहे, तो कठिनाई नहीं होगी। लेकिन अभी भी अहंकार के पार का जो अनुभव हो रहा है। मैं भी कहूंगा, अहंकार को संश्लिष्ट करें, ताकि एक दिन पश्चिम के मनोविज्ञान को, वह अहंकार के नीचे हो रहा है—बिलो समर्पित कर सकें। क्योंकि समर्पित वही कर सकेगा जो संश्लिष्ट ईगो; बियांड ईगो नहीं हो रहा है। अहंकार के पार भी कुछ | है। जिसके अपने ही अहंकार के पच्चीस खंड हैं, जो स्किजोफ्रेनिक है-मतलब अचेतन, चेतन से भी नीचे-अति चेतन नहीं, सुपर है, जिसके भीतर एक मैं भी नहीं है, कई मैं हैं—वह समर्पण करने कांशस नहीं, चेतन के भी आगे नहीं। लेकिन यह बड़ी शुभ घड़ी कैसे जाएगा? एक मैं को समर्पण करेगा, दूसरा कहेगा, रहने दो, है। अहंकार के पार तो कम से कम कुछ है, नीचे ही सही। और वापस आ जाओ। अगर नीचे है तो ऊपर होने की बाधा कम हो जाती है। और अगर ___ हम अभी ऐसे ही हैं। मनोविज्ञान की समस्त खोजें कहती हैं, हम • हम अहंकार के पार नीचे भी कुछ स्वीकार करते हैं, तो आज नहीं | | पोलीसाइकिक हैं। हमारे भीतर एक मैं भी नहीं है, बहुत मैं हैं, कल ऊपर भी स्वीकार करने की सुविधा बनती है। | अनेक मैं हैं। रात एक मैं कहता है कि सुबह पांच बजे उठेंगे, कसम मनोविज्ञान तो कहेगा, अहंकार को ठीक से इंटिग्रेटेड, | | खा लेता है। सुबह पांच बजे दूसरा मैं कहता है, सर्दी बहुत है। क्रिस्टलाइज्ड, अहंकार को ठीक शुद्ध, साफ, संश्लिष्ट हो जाना छोड़ो, कहां की बातों में पड़े हो! फिर कल देखेंगे। करवट लेकर चाहिए। यही इंडिविजुएशन है, यही व्यक्तित्व है। कृष्ण नहीं | सो जाता है। सुबह सात बजे तीसरा में कहता है कि बड़ी भूल की। कहेंगे। कृष्ण कहेंगे, उसके आगे एक कदम और है। संश्लिष्ट, | शाम को तय किया था, पांच बजे सुबह बदले क्यों? बड़ा पश्चात्ताप एकाग्र हुए अहंकार को किसी दिन समर्पित हो जाना चाहिए, | | करता है। आप एक ही आदमी पांच बजे तय किए थे, तो सुबह किस सरेंडर्ड हो जाना चाहिए। वह आखिरी कदम है अहंकार की तरफ आदमी ने आपसे कहा कि सो जाओ! आपके भीतर ही कोई बोल से। लेकिन ब्रह्म की तरफ वह पहला कदम है। | रहा है, बाहर कोई नहीं बोल रहा है। और जब सो ही गए थे पांच निश्चित ही बूंद अपने को खो दे सागर में, तो सागर हो सकती बजे, तो सुबह सात बजे पश्चात्ताप क्यों कर रहे हैं? आप ही सोए है। और अहंकार अपने को खो दे सागर में, तो ब्रह्म हो सकता है। थे, किसी ने कहा नहीं था। अब यह पश्चात्ताप कौन कर रहा है? लेकिन खोने के पहले होना तो चाहिए, बूंद भी होनी तो चाहिए। सामान्यतः हमें खयाल आता है कि मैं एक मैं हूं, इससे बड़ा अगर बंद ही न हो. भाप हो. तो सागर में खोना मश्किल है। अगर कनफ्यजन पैदा होता है। हमारे भीतर बहत मैं हैं। एक मैं कह देता कोई भाप की बूंद उड़ रही हो, तो उससे हम पहले कहेंगे, बूंद बन है उठेंगे, दूसरा मैं कहता है नहीं उठते, तीसरा मैं कहता है पश्चात्ताप जाओ। फिर बूंद बन जाने पर कहेंगे कि जाओ, सागर में कूद करेंगे। चौथा मैं सब भूल जाता है, कोई याद ही नहीं रखता इन सब जाओ। क्योंकि भाप सीधी सागर में नहीं कद सकती, कितना ही बातों की। और ऐसे ही जिंदगी चलती चली जाती है। 78 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 अर्जुन का पलायन-अहंकार की ही दूसरी अति -Am मनोविज्ञान कहता है, पहले मैं को एक करो। __यच्छ्रेयः स्यानिश्चितं ब्रूहि तन्मे एक मैं हो तो समर्पण हो सकता है। पच्चीस स्वर हों तो समर्पण | शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।। ७।। कैसे होगा! इसलिए भगवान के सामने एक मैं तो झुक जाता है चरणों इसलिए कायरतारूप दोष करके उपहत हुए स्वभाव वाला में, दूसरा मैं अकड़कर खड़ा रहता है, वहीं मंदिर में। एक मैं तो चरणों और धर्म के विषय में मोहितचित्त हुआ मैं आपको पूछता हूं, में सिर रखे पड़ा रहता है, दूसरा देखता रहता है कि मंदिर में कोई जो कुछ निश्चय किया हुआ कल्याणकारक साधन हो, वह देखने वाला आया कि नहीं आया। एक ही आदमी खड़ा है, पर दो | मेरे लिए कहिए, क्योंकि मैं आपका शिष्य हूं, इसलिए मैं हैं। एक वहां चरणों में सिर रखे है, दूसरा झांककर देख रहा है कि आपके शरण हुए मेरे को शिक्षा दीजिए। लोग देख रहे हैं कि नहीं देख रहे हैं! अब समर्पण कर रहे हो, तो लोगों से, देखने वालों से क्या लेना-देना है! एक मैं नीचे चरणों में | पड़ा है, दूसरा मैं कह रहा है, कहां के खेल में पड़े हो! सब बेकार | 27 र्जुन अपनी ही बात कहे चला जाता है। पूछता मालूम है। कहीं कोई भगवान नहीं है। एक मैं इधर भगवान के चरण पकड़े OI पड़ता है कृष्ण से, लेकिन वस्तुतः कृष्ण को ही धर्म हुए है, दूसरा मैं दुकान पर बैठा हुआ काम में लगा है। क्या है, बताए चला जाता है। पूछ रहा है कि अविद्या मैं संश्लिष्ट होना चाहिए, तभी समर्पण हो सकता है। इसलिए मैं | से मेरा मन भर गया है। क्या उचित है, क्या अनुचित है, उसका इनमें विरोध नहीं देखता। मैं इनमें विकास देखता हूं। फ्रायड अंत नहीं | | मेरा बोध खो गया है। लेकिन साथ ही कहे चला जा रहा है कि है, लेकिन महत्वपूर्ण है और मैं संश्लिष्ट करने में उपयोगी है। कृष्ण | अपनों को मारकर तो जो अन्न भी खाऊंगा, वह रक्त से भरा हुआ अंत हैं। वहां एक सीमा पर जाकर मैं को समर्पित भी कर देना है। | होगा। अपनों को मारकर सम्राट बन जाने से तो बेहतर है कि मैं सड़क का भिखारी हो जाऊं। निर्णय दिए चला जा रहा है। निर्णय दिए चला जा रहा है और कह रहा है, अविद्या से मेरा मन भर गया गुरूनहत्वा हि महानुभावान् है। दोनों बातों में कोई संगति नहीं है। अविद्या से मन भर गया है. श्रेयो भोक्तुं भक्ष्यमपीह लोके । तो अर्जुन के पास कहने को कुछ भी नहीं होना चाहिए। इतना ही हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहव काफी है कि अविद्या से मेरा मन भर गया है; मुझे मार्ग बताएं। मैं भुजीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान् ।। ५ ।। नहीं जानता, क्या ठीक है, क्या गलत है। नहीं, लेकिन साथ ही वह महानुभाव गुरुजनों को न मारकर, इस लोक में भिक्षा का | कहता है कि यह ठीक है और यह गलत है। अन्न भी भोगना कल्याणकारक समझता हूं, चित्त हमारा कितना ही कहे कि अविद्या से भर गया, अहंकार क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने मानने को राजी नहीं होता। अहंकार कहता है, मैं और अविद्या से हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूंगा। | भर गया! मुझे पता है कि धर्म क्या है और अधर्म क्या है। न चैतद्विद्यः कतरनो गरीयो दूसरी बात यह भी देख लेने जैसी है कि अहंकार जहां भी होता यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः। है, वहां सदा अतियों का चुनाव करता है, एक्सट्रीम इज़ दि यानेव हत्वा न जिजीविषाम च्वाइस। एक अति से ठीक दूसरी अति को चुनता है। अहंकार कभी स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।। ६ ।। | मध्य में खड़ा नहीं होता; खड़ा नहीं हो सकता; क्योंकि ठीक मध्य हम लोग यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए क्या करना | में अहंकार की मृत्यु है। तो वह कहता है, सम्राट होने से तो भिखारी श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि हम जीतेंगे या होना बेहतर है। दो आखिरी पोलेरिटी चुनता है। वह कहता है, हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर जीना भी नहीं चाहते, सम्राट होने से तो भिखारी होना बेहतर है। अर्जुन या तो सम्राट हो वे ही धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने खड़े हैं। सकता है या भिखारी हो सकता है, बीच में कहीं नहीं हो सकता। कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः या तो उस छोर पर नंबर एक या इस छोर पर नंबर एक; लेकिन पृच्छामि त्वां धर्मसंमूळचेताः। नंबर एक ही हो सकता है। 79 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ am गीता दर्शन भाग-1 AM यह थोड़ा ध्यान रखने जैसा है। बर्नार्ड शा ने कभी कहा कि अगर चढ़ता है तो सीढ़ियों के किनारे रेलिंग की जगह नंगी स्त्रियों को मुझे स्वर्ग भी मिले और नंबर दो होना पड़े, तो मैं इनकार करता हूं। | खड़ा रखता है, उनके कंधों पर हाथ रखकर चढ़ता है। जरा इससे मैं नर्क में ही रहना पसंद कर लूंगा, लेकिन नंबर एक होना चाहिए। | सावधान रहना। शराब और स्त्री के अतिरिक्त इसकी जिंदगी में नंबर एक होना चाहिए, नर्क भी पसंद कर लूंगा। नंबर दो भी अगर कभी कुछ नहीं आया है। और यह आज अचानक भिक्षु होने और हो जाता हूं, तो स्वर्ग मुझे नहीं चाहिए। क्या मजा होगा उस स्वर्ग | त्यागी बनने, तपश्चर्या का व्रत लेने आया है। यह आदमी बीच में में जिसमें नंबर दो हो गए! नर्क में भी मजा हो सकता है, अगर धोखा न दे जाए। नंबर एक...। इसलिए नंबर एक होने वाले लोग अगर सब नर्क | बद्ध ने कहा, जहां तक मैं आदमियों को जानता है, यह आदमी में इकट्ठे हो जाते हों तो बहुत हैरानी नहीं है। दिल्ली से नर्क का | धोखा न देगा। यह एक अति से ऊब गया, अब दूसरी अति पर जा रास्ता एकदम करीब है। दिल्ली से गए कि नर्क में गए। वहां बीच रहा है। एक एक्सट्रीम से ऊब गया और अब दूसरे एक्सट्रीम पर में गैप भी नहीं है। वह जो नंबर एक होने के लिए पीड़ित है, अगर | जा रहा है। पर उन्होंने कहा, हमें संदेह होता है, क्योंकि यह कल उससे सम्राट होना छटता हो तो वह तत्काल जो दसरा विकल्प है, तक बिलकुल और था। बुद्ध ने कहा, मुझे संदेह नहीं होता है। इस वह भिखारी होने का है। | तरह के लोग अक्सर ही अतियों में चुनाव करते हैं। भय मत करो। यह विकल्प भी देखना जरूरी है; क्योंकि यह विकल्प सिर्फ | उन्होंने कहा, हमें नहीं लगता है कि यह भीख मांग सकेगा, सड़क अहंकार ही चुनता है। यह विकल्प-एक्सट्रीम, अति का | पर नंगे पैर चल सकेगा, धूप-छांव सह सकेगा, हमें नहीं दिखाई विकल्प-सदा अहंकार ही चुनता है। क्योंकि अहंकार को इससे | पड़ता। बुद्ध ने कहा, यह तुम से ज्यादा सह सकेगा। हंसे वे सब। मतलब नहीं है कि सम्राट बनो कि भिखारी बनो; मतलब इससे है। उन्होंने कहा कि इस मामले में कम से कम बुद्ध निश्चित ही गलत कि नंबर एक! हो जाने वाले हैं। अर्जुन कह रहा है कि इससे तो बेहतर है कि मैं भिखारी ही हो लेकिन नहीं, बुद्ध गलत नहीं हुए। दूसरे ही दिन से देखा गया जाऊं, सड़क पर भीख मांगू। ऊपर से दिखाई पड़ता है कि बड़ी | | कि भिक्षु अगर रास्ते पर चलते, तो रास्ते के नीचे चलता वह सम्राट विनम्रता की बात कह रहा है। सम्राट होना छोड़कर भीख मांगने की | जहां कांटे होते। और भिक्षु अगर वृक्ष की छाया में बैठते, तो वह ' बात कह रहा है। लेकिन भीतर से बहुत फर्क नहीं है। भीतर बात वही | सम्राट धूप में खड़ा रहता। और भिक्षु अगर दिन में एक बार भोजन है। भीतर बात वही है, अति पर होने की बात अहंकार की इच्छा है। करते, तो वह सम्राट दो दिन में एक बार भोजन करता। आखिरी पोल पर, ध्रुव पर खड़े होने की इच्छा अहंकार की इच्छा है। छह महीने में वह सूखकर काला पड़ गया। अति सुंदर उसकी या तो इस कोने या उस कोने, मध्य उसके लिए नहीं है। | काया थी। भूख से हड्डियां उसकी बाहर निकल आईं। पैरों में घाव बद्ध के मनोविज्ञान का नाम मध्यमार्ग है, दि मिडल वे। और बन गए। बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से पूछा कि कहो, तुम कहते थे कि जब बुद्ध से किसी ने पूछा कि आप अपने मार्ग को मज्झिम | यह आदमी भरोसे का नहीं, और मैंने तुमसे कहा था कि यह आदमी निकाय-बीच का मार्ग-क्यों कहते हैं? तो बुद्ध ने कहा, जो दो | | बहुत भरोसे का है, यह आदमी तुमसे आगे तपश्चर्या कर लेगा। अतियों के बिलकुल बीच में खड़ा हो जाए, वही केवल अहंकार से पर, वे भिक्षु कहने लगे, हम हैरान हैं कि आप कैसे पहचाने! मक्त हो सकता है, अन्यथा मक्त नहीं हो सकता। बुद्ध ने कहा, अहंकार सदा एक अति से दूसरी अति चुन लेता एक छोटी-सी घटना बुद्ध के जीवन के साथ जुड़ी है। एक गांव | है। बीच में नहीं रुक सकता। यह सम्राटों में सम्राट था, यह भिक्षुओं में बुद्ध आए हैं। सम्राट दीक्षित होने आ गया। और उस सम्राट ने | में भिक्षु है। यह सम्राटों में नंबर एक सम्राट था। इसने सारी सुंदर कहा कि मुझे भी दीक्षा दे दें। बुद्ध के भिक्षुओं ने बुद्ध के कान में | | स्त्रियां राज्य की इकट्ठी कर रखी थीं। इसने सारे हीरे-जवाहरात कहा, सावधानी से देना इसे आप। क्योंकि हमने जो इसके संबंध | | अपने महल के रास्तों पर जड़ रखे थे। अब यह भिक्षुओं में साधारण में सुना है, वह बिलकुल विपरीत है। यह आदमी कभी रथ से नीचे | | | भिक्षु नहीं है। यह भिक्षुओं में असाधारण भिक्षु है। तुम चलते हो नंगे पैर भी नहीं चला है। यह आदमी अपने महल में, जो भी संभव | सीधे रास्ते पर, यह चलता है तिरछे रास्ते पर। तुम कांटे बचाकर है, सारे भोग के साधनों में डूबा पड़ा है। यह अपनी सीढ़ियां भी चलते हो, यह कांटे देखकर चलता है कि कहां-कहां हैं। तुम छाया Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ im+ अर्जुन का पलायन-अहंकार की ही दूसरी अति - में बैठते हो, यह धूप में खड़ा होता है। यह नंबर एक रहेगा, यह | क्यों रखवाते हैं? रामायण पर क्यों नहीं रखवा लेते? उपनिषद पर कहीं भी रहे। यह नंबर एक होना नहीं छोड़ सकता; यह तुम्हें मात क्यों नहीं रखवा लेते? बड़ा कारण है। पता नहीं अदालत को पता करके रहेगा। इसने सम्राटों को मात किया, तुम भिखारियों को कैसे | है या नहीं, लेकिन कारण है; कारण बड़ा है। मात नहीं करेगा! अहंकार अति चुनता है। राम, कितने ही बड़े हों, लेकिन इस मुल्क के चित्त में वे पूर्ण __ अर्जुन कह रहा है कि छोड़ दूं सब साम्राज्य, कुछ अर्थ नहीं। | अवतार की तरह नहीं हैं; अंश है उनका अवतार। उपनिषद के ऋषि भिक्षा मांग लेंगे। मांग सकता है, बिलकुल मांग सकता है। | कितने ही बड़े ज्ञानी हों, लेकिन अवतार नहीं हैं। कृष्ण पूर्ण अवतार अहंकार की वहां भी तृप्ति हो सकती है। मध्य में नहीं रुक सकता। | हैं। परमात्मा अगर पूरा पृथ्वी पर उतरे, तो करीब-करीब कृष्ण जैसा अति से अति पर जा सकता है। अति से अति पर जाने में कोई | होगा। इसलिए कृष्ण इस मुल्क के अधिकतम मन को छू पाए हैं; रूपांतरण, कोई ट्रांसफार्मेशन नहीं है। बहुत कारणों से। एक तो पूर्ण अवतार का अर्थ होता है, मल्टी फिर बुद्ध एक दिन उस सम्राट के पास गए सांझ को। रुग्ण, डायमेंशनल, बहआयामी; जो मनुष्य के समस्त व्यक्तित्व को बीमार, वह राह के किनारे पड़ा था। बुद्ध ने उससे कहा, मैं एक स्पर्श करता हो। राम वन डायमेंशनल हैं। बात पूछने आया हूं। मैंने सुना है कि तुम जब सम्राट थे, तो वीणा हर्बर्ट मारक्यूस ने एक किताब लिखी है, वन डायमेंशनल मैन, बजाने में बहुत कुशल थे। मैं तुमसे पूछने आया हूं कि वीणा के तार एक आयामी मनुष्य। राम वन डायमेंशनल हैं, एक आयामी हैं, अगर बहुत कसे हों, तो संगीत पैदा होता है ? उसने कहा, कैसे पैदा एकसुरे हैं, एक ही स्वर है उनमें। स्वभावतः एक ही स्वर का आदमी होगा! तार टूट जाते हैं। और बुद्ध ने कहा, बहुत ढीले हों तार, तब सिर्फ उस एकसुरे आदमियों के लिए प्रीतिकर हो सकता है, सबके संगीत पैद होता है? उस सम्राट ने कहा कि नहीं, बहुत ढीले हों लिए प्रीतिकर नहीं हो सकता। महावीर और बुद्ध सभी एकसरे हैं। तो टंकार ही पैदा नहीं होती संगीत कैसे पैदा होगा? बुद्ध ने कहा, | एक ही स्वर है उनका। इसलिए समस्त मनुष्यों के लिए महावीर अब मैं जाऊं। एक बात और तमसे कह जाऊं कि जो वीणा के तारों और बद्ध प्रीतिकर नहीं हो सकते। हां, मनष्यों का एक वर्ग होगा. का नियम है—न बहुत ढीले, न बहुत कसे; अर्थात न कसे न | जो बुद्ध के लिए दीवाना हो जाए, जो महावीर के लिए पागल हो ढीले, बीच में कहीं; जहां न तो कहा जा सके कि तार कसे हैं, न जाए। लेकिन एक वर्ग ही होगा, सभी मनुष्य नहीं हो सकते। . कहा जा सके कि तार ढीले हैं-ठीक मध्य में जब तार होते हैं, तभी लेकिन कृष्ण मल्टी डायमेंशनल हैं। ऐसा आदमी जमीन पर संगीत पैदा होता है। जीवन की वीणा का भी नियम यही है। | खोजना कठिन है, जो कृष्ण में प्रेम करने योग्य तत्व न पा ले। चोर काश! अर्जुन बीच की बात करता, तो कृष्ण कहते, जाओ, बात | | भी कृष्ण को प्रेम कर सकता है। नाचने वाला भी प्रेम कर सकता समाप्त हो गई, कोई अर्थ न रहा। लेकिन वह बीच की बात नहीं है। साधु भी प्रेम कर सकता है; असाधु भी प्रेम कर सकता है। युद्ध कर रहा है। वह एक अति से दूसरी अति की बात कर रहा है। दूसरी के क्षेत्र में लड़ने वाला भी प्रेम कर सकता है; गोपियों के साथ नृत्य अति पर अहंकार फिर अपने को भर लेता है। | करने वाला भी प्रेम कर सकता है। कृष्ण एक आर्केस्ट्रा हैं। बहुत | वाद्य हैं; सब बज रहे हैं। जिसे जो वाद्य पसंद हो, वह अपने वाद्य | को तो प्रेम कर ही सकता है। और इसलिए पूरे कृष्ण को प्रेम करने प्रश्नः भगवान श्री, यहां पर एक मुद्दे का प्रश्न आ वाले आदमी पैदा नहीं हो सके। जिन्होंने भी प्रेम किया है, उन्होंने गया है श्रोतागणों से। पूछते हैं कि कोर्ट में सब से | कृष्ण में चुनाव किया है। पहले गीता पर क्यों हाथ रखवाते हैं? कोर्ट में सूरदास तो बालकृष्ण को प्रेम करते हैं, गोपियों से वे बहुत डरते रामायण या उपनिषद क्यों नहीं रखते? क्या गीता में | हैं। इसलिए बालकृष्ण को प्रेम करते हैं। क्योंकि बालकृष्ण उन्हें एक श्रद्धा है या सिर्फ अंधश्रद्धा है? जमते हैं कि बिलकुल ठीक हैं। ठीक है कि बालक है; तो चलेगा। जवान कृष्ण से सूरदास को डर लगता है, क्योंकि जवान सूरदास से सूरदास को डर लगा है। तो अपना चुनाव है उनका। वह अपना छा है कि अदालत में शपथ लेते वक्त गीता पर हाथ चुनाव कर लेंगे। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 4 अब अगर केशवदास को कृष्ण को प्रेम करना है, तो बालकृष्ण की वह फिक्र ही छोड़ देंगे। वह तो जवान कृष्ण को — जो कि चांद की छाया में नाच रहा है, जिसके कोई नीति-नियम नहीं हैं; जिसकी कोई मर्यादा नहीं, जो अमर्याद है, जिसको कोई बंधन नहीं पकड़ते; जो एकदम अराजक है - तो केशवदास तो उस युवा कृष्ण को चुन लेंगे; बालकृष्ण की फिक्र छोड़ देंगे। अब तक कृष्ण को पूरा प्रेम करने वाला आदमी नहीं हुआ। क्योंकि पूरे कृष्ण को प्रेम करना तभी संभव है, जब वह आदमी भी मल्टी डायमेंशनल हो। हम आमतौर से एक आयामी होते हैं। एक हमारा ट्रैक होता है व्यक्तित्व का, एक रेल की पटरी होती है, उस पटरी पर हम चलते हैं। मगर कृष्ण में हमें अपनी पटरी के योग्य मिल जाएगा। इसलिए कृष्ण इस मुल्क के हर तरह के आदमी के लिए प्रीतिकर हैं। बुरे से बुरे आदमी के लिए प्रीतिकर हो सकते हैं। ध्यान रहे, अदालत में अच्छे आदमियों को तो कभी-कभी जाना पड़ता है — यानी जब बुरे आदमी उनको ले जाते हैं, तब जाना पड़ता है - अदालत आमतौर से बुरे आदमियों की जगह है। बुरा आदमी अगर राम को प्रेम करता होता, तो अदालत में आता ही नहीं । जो अदालत में आ गया है, राम की कसम खिलाना नासमझी है उसको। कृष्ण की कसम खिलाई जा सकती है। अदालत में आकर भी आदमी कृष्ण को प्रेम करता हुआ हो सकता है। बुरे आदमी के लिए भी कृष्ण खुले हैं। इन बुरे आदमियों के लिए भी उनके मकान का एक दरवाजा है, जो खुला है। राम वगैरह के मंदिर में इकहरे दरवाजे हैं; कृष्ण के मंदिर में बहुत दरवाजे हैं। वहां शराबी भी जाए, तो उसके लिए भी एक दरवाजा है। असल में कृष्ण से बड़ी छाती का आदमी खोजना बहुत मुश्किल है । इसलिए मैं नहीं कहता कि अदालत को पता होगा - यह मुझे पता नहीं - लेकिन जाने-अनजाने, कृष्ण का रेंज व्यक्तियों को छूने का सर्वाधिक है। अधिकतम व्यक्ति उनसे स्पर्शित हो सकते हैं। ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है, जिससे कृष्ण आलिंगन करने इनकार करें; कहें कि तू हमारे लिए नहीं, हट! सबके लिए हैं। इसलिए सर्वाधिक के लिए होने से संभावना है। और पूछा है कि क्या सिर्फ अंधविश्वास है ? नहीं, सिर्फ अंधविश्वास नहीं है। इस जगत में सत्य से भी बड़ा सत्य प्रेम है । और जिसके प्रति प्रेम है, उसके प्रति असत्य होना मुश्किल है। असल में जिसके प्रति प्रेम है, हम उसी के प्रति सत्य 82 हो पाते हैं। जिंदगी में हम सत्य वहीं हो पाते हैं, जहां हमारा प्रेम है। और अगर प्रेमी के पास भी आप सत्य न हो पाते हों, तो समझना कि प्रेम का धोखा है। अगर एक पति अपनी पत्नी से भी कुछ छिपाता हो और सत्य न हो पाता हो; एक पत्नी अपने पति से भी कुछ छिपाती हो और सत्य न हो पाती हो– कोई बड़ी बात नहीं, छोटी-मोटी बात भी छिपाती | हो; अगर उसे क्रोध आ रहा हो और क्रोध को भी छिपाती हो - तो भी प्रेम की कमी है; तो भी प्रेम नहीं है। प्रेम अपने को पूरा नग्न | उघाड़ देता है - सब तरह से, सब परतों पर । अंधविश्वास कारण नहीं है। प्रेम की रग को पकड़ना जरूरी है, | तो ही सत्य बुलवाया जा सकता है। यह भी मैं नहीं जानता कि | अदालत को पता है या नहीं। क्योंकि अदालत को प्रेम का कुछ पता होगा, इसमें जरा संदेह है। लेकिन इतना तो मनस-शास्त्र कहता है | कि अगर हम प्रेम की रग को पकड़ लें, तो आदमी के सत्य बोलने की सर्वाधिक संभावना है। बोलेगा कि नहीं, यह दूसरी बात है। लेकिन अधिकतम संभावना वहीं है, जहां प्रेम की रग को हम पकड़ लेते हैं। और जहां प्रेम नहीं है, वहां अधिकतम असत्य की संभावना | है; क्योंकि सत्य का कोई कारण नहीं रह जाता है। न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद् यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् । अवाप्य भूमावसपत्नमृद्ध राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् । । ८ । । क्योंकि भूमि में निष्कंटक धनधान्य संपन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपन को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूं जो कि मेरी इंद्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके। संजय उवाच एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप । न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ।। ९ ।। तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत । सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ।। १० ।। संजय बोले : हे राजन, निद्रा को जीतने वाला अर्जुन अंतर्यामी भगवान श्री कृष्ण के प्रति इस प्रकार कहकर फिर (श्री गोविंद को) युद्ध नहीं करूंगा, Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Im+ अर्जुन का पलायन-अहंकार की ही दूसरी अति - ऐसे स्पष्ट कहकर चुप हो गया। वह कह रहा है, कृष्ण ने हंसते हुए...। उसके उपरांत हे भरतवंशी धृतराष्ट्र, अंतर्यामी श्री कृष्ण ने | वह हंसी किस बात पर है? हंसने का क्या कारण है ? अर्जुन दोनों सेनाओं के बीच में उस शोकयुक्त अर्जुन को | हंसी योग्य है? इतनी दुख और पीड़ा में पड़ा हुआ, इतने संकट में, हंसते हुए से यह वचन कहा। इतनी क्राइसिस में और कृष्ण हंसते हैं। लेकिन अब तक नहीं हंसे थे। पहली दफे कृष्ण हंसते हैं उसके वक्तव्य को सुनकर। उस हंसी का कारण है। कि वे देखते हैं, इतना अनिश्चित आदमी 27 र्जुन अति अनिश्चय की स्थिति में है। संजय कहता है, | | इतने निश्चय वक्तव्य दे रहा है कि युद्ध नहीं करूंगा! धोखा 1 फिर भी ऐसा कहकर कि मैं युद्ध नहीं करूंगा, अर्जुन | | किसको दे रहा है? उसके धोखे पर, उसके सेल्फ डिसेप्शन पर, रथ में बैठ गया है। अति अनिश्चय की स्थिति में ऐसा | उसकी आत्मवंचना पर कृष्ण को हंसी आ जाती है। जो जानता है, निश्चयात्मक भाव कि मैं युद्ध नहीं करूंगा, सोचने जैसा है। इतना | उसे आएगी। देख रहे हैं कि नीचे तो दरारें ही दरारें हैं उसके मन में। डिसीसिव वक्तव्य, इतना निर्णायक वक्तव्य कि मैं युद्ध नहीं देख रहे हैं कि नीचे तो कटा-कटा मन है उसका, टूटा-टूटा मन है। करूंगा और इतनी अनिश्चय की स्थिति कि क्या ठीक है, क्या | | देख रहे हैं कि नीचे कुछ भी तय नहीं है और ऊपर से वह कहता है गलत है; इतनी अनिश्चय की स्थिति कि मन अविद्या से भरा है | | कि मैं युद्ध नहीं करूंगा। यह वह अपने को धोखा दे रहा है। मेरा, मुझे प्रकाशित करो। लेकिन मुझे प्रकाशित करो, यह कहता | हम सब देते हैं। और जब भी हम बहुत निश्चय की भाषा बोलते हुआ भी वह निर्णय तो अपना ही ले लेता है। वह कहता है, मैं युद्ध | | हैं, तब भीतर अनिश्चय को छिपाते हैं। जब हम बहुत प्रेम की भाषा नहीं करूंगा। बोलते हैं, तो भीतर घृणा को छिपाते हैं। और जब हम बहुत ... इसके जरा भीतर प्रवेश करना जरूरी होगा। अक्सर जब आप आस्तिकता की भाषा बोलते हैं, तो भीतर नास्तिकता को छिपाते हैं। बहुत निश्चय की बात बोलते हैं, तब आपके भीतर अनिश्चय गहरा आदमी उलटा जीता है। ऊपर जो दिखाई पड़ता है, ठीक उससे होता है। एक आदमी कहता है कि मैं दृढ़ निश्चय करता हूं। जब उलटा भीतर होता है। ऐसा कोई आदमी कहे, तो समझना कि उसके भीतर अनिश्चय ___ इसलिए कृष्ण की हंसी बिलकुल मौजूं है, ठीक वक्त पर है। बहुत ज्यादा है, नहीं तो दृढ़ निश्चय की जरूरत नहीं पड़ेगी। जब | असामयिक नहीं है, लगेगी असामयिक। अच्छा नहीं लगता यह। एक आदमी कहे, मेरा ईश्वर पर पक्का भरोसा है, तो समझना कि । बड़ी कठोर बात मालूम पड़ती है कि कृष्ण हंसें। इतने दुख, इतने भरोसा भीतर बिलकुल नहीं है। नहीं तो पक्के भरोसे का लेबल | | संकट में पड़ा हुआ अर्जुन, उस पर हंसें! लेकिन हंसी का कारण लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। जब एक आदमी बार-बार कहे कि | है। देख रहे हैं उसको कि कैसा दोहरा काम अर्जुन कर रहा है। एक मैं सत्य ही बोलता हूं, तब समझना कि भीतर असत्य की बहुत | | तरफ कुछ कह रहा है, दूसरी तरफ ठीक उलटा वक्तव्य दे रहा है। संभावना है। अन्यथा ऐसे बोलने की जरूरत नहीं पड़ेगी। | दो-सुरे आदमी के वक्तव्य में, दोहरे आदमी के वक्तव्य में __ हम अपने भीतर जो डांवाडोलपन है, उसे निश्चयात्मक हमेशा अंतर्विरोध होता है। अंतर्विरोध बहुत साफ है। यानी वह वक्तव्यों को ऊपर से थोपकर मिटाने की कोशिश में रत होते हैं। ऐसा काम कर रहा है, कि एक हाथ से ईंट रख रहा है मकान की हम सभी, हम सभी जो भीतर बिलकुल निश्चित नहीं है, उसको | | और दूसरे हाथ से खींच रहा है; एक हाथ से दीवार उठाता है, दूसरे भी बाहर चेहरे पर निश्चित करके देख लेना चाहते हैं। हाथ से खींचता है; दिनभर मकान बनाता है, रात गिरा लेता है। यह अब यह अर्जुन बड़े मजे की बात कह रहा है। वह कह रहा है, | | जो दोहरा काम वह कर रहा है, इसलिए कृष्ण हंस रहे हैं। यह हंसी मैं युद्ध नहीं करूंगा। उसने तो आखिरी निर्णय ले लिया, उसने | उसके व्यक्तित्व के इस दोहरेपन पर, इस स्किजोफ्रेनिक, बंटे हुए निष्पत्ति ले ली। उसने तो कनक्लूडिंग बात कह दी। अब कृष्ण के | | पन पर हंसी के सिवाय और क्या हो सकता है! लिए छोड़ा क्या है ? अगर युद्ध नहीं करूंगा, तो अब कृष्ण से पूछने । मगर कृष्ण की हंसी में काफी इशारा है। लेकिन मैं नहीं समझता को क्या बचा है ? सलाह क्या लेनी है? | कि अर्जुन ने वह हंसी देखी होगी। और मैं नहीं समझता कि अर्जुन इसलिए दूसरी बात जो संजय कह रहा है, वह बड़ी मजेदार है। ने वह हंसी सुनी होगी। 83 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 AM आखिरी सूत्र और पढ़ लें। को अपने पक्ष में खड़ा कर लेना बहुत कनफर्मिस्ट, बहुत सरल, बड़ा रूढ़िग्रस्त कदम है; क्योंकि उससे आप अपने को बचाने के | लिए सुविधा और सिक्योरिटी खोजते हैं। श्री भगवानुवाच ___ अर्जुन पंडित की भाषा बोल रहा है, पंडित जैसी बातें बोल रहा अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे । | है। लेकिन अर्जुन को ज्ञान से, प्रज्ञा से कोई लेना-देना नहीं है। गतासूनगतार॑श्च नानुशोचन्ति पण्डिताः । । ११ ।। | अपने पक्ष में सारे शास्त्रों को खड़ा करना चाहता है। श्री कृष्ण बोलेः हे अर्जुन, तू न शोक करने योग्यों के लिए और जो व्यक्ति शास्त्र को अपने पक्ष में खड़ा कर लेना चाहता शोक करता है, और पंडितों के से वचनों को कहता है, परंतु । | है, स्वभावतः अपने को शास्त्र के ऊपर रख लेता है। और अपने पंडितजन, जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके को शास्त्र के ऊपर रख लेने से ज्यादा खतरनाक और कुछ भी नहीं प्राण नहीं गए हैं, उनके लिए भी नहीं शोक करते हैं। हो सकता है। क्योंकि उसने यह तो मान ही लिया कि वह ठीक है; उसमें गलती होने की तो उसे अब कोई संभावना न रही। उसने अपने ठीक होने का तो अंतिम निर्णय ले लिया। अब वह शास्त्रों में सकर जो कृष्ण ने कहा है, वह और भी कठोर है। वे | | में भी अपने को खोज लेता है। ए अर्जुन को कहते हैं कि तुम शास्त्र की भाषा बोल रहे | ईसाई फकीर एक बात कहा करते हैं कि शैतान भी शास्त्र से हो, लेकिन पंडित नहीं हो, मूढ़ हो, मूर्ख हो। क्योंकि | हवाले दे देता है; अक्सर देता है। कोई कठिनाई नहीं है शास्त्र से शास्त्र की भाषा बोलते हुए भी तुम जो निष्पत्तियां निकाल रहे हो, | | हवाले दे देने में। आसान है बात। अर्जुन भी वैसे ही शास्त्र के वे तुम्हारी अपनी हैं। शास्त्र की भाषा बोल रहा है क्या-क्या हवाले दे रहा है। अधर्म हो जाएगा, क्या-क्या अशुभ हो जाएगा, क्या-क्या बुरा हो __ और बड़े मजे की बात यह है कि किस आदमी के सामने शास्त्र जाएगा-पूरी शास्त्र की भाषा अर्जुन बोल रहा है। लेकिन शास्त्र के हवाले दे रहा है! जब शास्त्र मूर्तिमंत सामने खड़ा हो, तब शास्त्र की भाषा पर अपने को थोप रहा है। जो निष्कर्ष लेना चाहता है, | के हवाले सिर्फ नासमझ दे सकता है। किस आदमी के सामने ज्ञान , वह उसके भीतर लिया हुआ है। शास्त्र से केवल गवाही और | की बातें बोल रहा है! जब ज्ञान सामने खड़ा हो, तब ज्ञान की उधार समर्थन खोज रहा है। बातें सिर्फ नासमझ बोल सकता है। कृष्ण का हंसना उचित है। और मूर्ख और पंडित में एक ही फर्क है। मूर्ख भी शास्त्र की भाषा बोल कृष्ण का यह कहना भी उचित है कि अर्जुन तू पंडित की भाषा बोलता सकता है, अक्सर बोलता है; कुशलता से बोल सकता है। क्योंकि | है, लेकिन निपट गंवारी का काम कर रहा है। किसके सामने? मूर्ख होने और शास्त्र की भाषा बोलने में कोई विरोध नहीं है। लेकिन | | सना है मैंने कि बोधिधर्म के पास एक आदमी गया बद्ध की एक मूर्ख शास्त्र से वही अर्थ निकाल लेता है, जो निकालना चाहता है। | किताब लेकर, और बोधिधर्म से बोला कि इस किताब के संबंध में शास्त्र से मूर्ख को कोई प्रयोजन नहीं है; प्रयोजन अपने से है। शास्त्र मुझे कुछ समझाओ। बोधिधर्म ने कहा कि यदि तू समझता है कि को भी वह अपने साथ खड़ा कर लेता है गवाही की तरह। बुद्ध की किताब मैं समझा सकूँगा, तो किताब को फेंक, मुझसे ही सिमन वेल ने कहीं एक वाक्य लिखा है; लिखा है कि कुछ लोग समझ ले। और अगर तू समझता है कि बुद्ध की किताब बोधिधर्म हैं जो सत्य को भी अपने पक्ष में खड़ा करना चाहते हैं, और कुछ नहीं समझा सकेगा, तो मुझे फेंक, किताब को ही समझ ले। लोग हैं जो सत्य के पक्ष में स्वयं खड़े होना चाहते हैं। बस, दो ही कृष्ण की हंसी बहुत उचित है। किनके हवाले दे रहा है? और तरह के लोग हैं। कुछ लोग हैं जो धर्म को अपनी पीठ के पीछे खड़ा बड़े मजे की बात है, पूरे समय कह रहा है, भगवन् ! कह रहा है, करना चाहते हैं, शास्त्र को अपने पीछे खड़ा करना चाहते हैं; और | | भगवान! हे भगवान! हे मधुसूदन! और शास्त्र के हवाले दे रहा है। कुछ लोग हैं जो धर्म के साथ खड़े होने का साहस रखते हैं। भगवान के सामने भी कुछ नासमझ शास्त्र लेकर पहंच जाते हैं। लेकिन धर्म के साथ खड़ा होना बडा क्रांतिकारी कदम है। उनकी नासमझी का कोई अंत नहीं है। अगर कभी भगवान भी उन्हें क्योंकि धर्म मिटा डालेगा, आपको तो बचने नहीं देगा। लेकिन धर्म | मिल जाए, तो उसके सामने भी वे गीता के उद्धरण देंगे कि गीता में Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 301 अर्जुन का पलायन-अहंकार की ही दूसरी अति - ऐसा लिखा है। तो भगवान को हंसना ही पड़ेगा कि कम से कम इस क्षण में जीसस भगवान से ज्यादा बुद्धिमान अपने को समझ अब तो गीता छोड़ो। लेकिन वे नहीं छोड़ेंगे। वह अर्जुन, जो आम पंडित की नासमझी है, वही कर रहा है। तत्काल जीसस को खयाल आ गया। अर्जुन को बहुत मुश्किल और कृष्ण सीधे और साफ कह रहे हैं। इतनी सीधी और साफ बात | से खयाल आता है; जीसस को तत्काल खयाल आ गया। जैसे ही कम कही गई है, बहुत कम कही गई है। कृष्ण कह सकते हैं, कहने उनके मुंह से यह आवाज निकली कि हे भगवान, यह क्या दिखला का कारण है। लेकिन अर्जुन इसे भी सुनेगा या नहीं, यह कहना रहा है! दूसरा वाक्य उन्होंने कहा, क्षमा कर। जो तेरी मर्जी–दाई मुश्किल है! अर्जुन करीब-करीब पूरी गीता में, बहुत समय तक, विल बी डन-तेरी ही इच्छा पूरी हो। यह मैं क्या कह दिया-क्या अंधे और बहरे का ही प्रदर्शन करता है। अन्यथा शायद गीता की दिखला रहा है! शक पैदा हो गया। जरूरत ही नहीं थी। अगर वह एक बार गौर से आंख खोलकर ___ मेरे हिसाब में तो इस एक वचन को बोलते वक्त जीसस मरियम कृष्ण को देख लेता, तो ही बात समाप्त हो गई थी। लेकिन वह | के बेटे जीसस थे और दूसरे वचन को बोलते वक्त वे क्राइस्ट हो भगवान भी कहे चला जाता है और उनकी तरफ ध्यान भी नहीं दे गए। इस बीच में क्रांति घटित हो गई। एक क्षण पहले तक वे सिर्फ रहा है! | मरियम के बेटे जीसस थे, जिसने कहा, यह क्या दिखला रहा है! जब खुद भगवान ही सारथी हैं—अगर सच में वह जानता है | | शिकायत मौजूद थी। आस्तिक के मन में शिकायत नहीं हो सकती। कि वे भगवान हैं तो जब वे सारथी बनकर ही रथ पर बैठ गए दूसरे क्षण में ही तत्काल उनके मुंह से निकला, क्षमा कर; तेरी इच्छा हों और लगाम उनके ही हाथ में हो, तब वह व्यर्थ अपने सिर पर पूरी हो। जो तू कर रहा है, वही ठीक है; उससे अन्यथा ठीक होने वजन क्यों ले रहा है सोचने का! अगर वे भगवान ही हैं, ऐसा वह का कोई सवाल ही नहीं है। जानता है. तो अब और पछने की क्या गंजाइश है? हाथ में लगाम बस, वे क्राइस्ट हो गए। दूसरे ही क्षण वे मरियम के साधारण उनके है. छोड दे बात। लेकिन वह कहता है भगवान. जानता अभी बेटे न रहे: वे परमात्मा के पत्र हो गए। नहीं है। अर्जुन कहे तो चला जा रहा है, भगवान, भगवान! लेकिन वह हम भी भगवान कहे चले जाते हैं, जानते नहीं हैं। मंदिर में एक संबोधन है; वैसे ही जैसे सभी संबोधन झूठे होते हैं, औपचारिक आदमी भगवान के सामने खड़े होकर कहता है कि नौकरी नहीं लग होते हैं। अभी भगवान उसे दिखाई नहीं पड़ रहा है। दिखाई तो उसे रही, नौकरी लगवा दें भगवान। अगर भगवान को जानता ही है, तो | यही पड़ रहा है कि अपना सखा है कृष्ण। आ गया है साथ, सारथी इतना तो जानना ही चाहिए कि नौकरी नहीं लग रही, इसका उन्हें | | का काम कर रहा है। साथ है, इसलिए पूछ लेते हैं। बाकी भगवान पता होगा। यह कपा करके इन्फर्मेशन मत दें। और अगर इतना भी की जो अनभति है, वह अगर उसे हो जाए तो पछने को क्या बचता उनको पता नहीं है, तो ऐसे भगवान के सामने हाथ जोड़कर भी कुछ | है! उसे कहना चाहिए कि लगाम तुम्हारे हाथ में है, जो मर्जी। दाई होने वाला नहीं है। जो आम भक्त भगवान के सामने कर रहा है, | विल बी डन, अपनी इच्छा पूरी करो। कह रहा है, भगवान! और शक उसे इतना भी है कि अब यह लड़के - इसलिए उसके भगवान का संबोधन अभी सार्थक नहीं है। को नौकरी नहीं लग रही है...! | क्योंकि वह संबोधनों के बाद भी निर्णय खुद ले रहा है। वह कह जीसस सूली पर आखिरी क्षण में, जब हाथ में उनके खीले ठोंक रहा है, मैं युद्ध नहीं करूंगा। कह रहा है, भगवान! कह रहा है, मैं दिए गए; तो उनके मुंह से एक आवाज निकल गई जोर से कि हे युद्ध नहीं करूंगा। इस पर कृष्ण हंसें और कहें कि तू बड़ी विरोधी भगवान, यह क्या दिखला रहा है! यह क्या करवा रहा है ! एक क्षण बातें बोल रहा है, तो उचित ही है। को जीसस के मुंह से निकल गया, यह क्या करवा रहा है! शेष संध्या बात करेंगे। मतलब क्या हुआ? शिकायत हो गई। मतलब क्या हुआ? मतलब यह हुआ कि जीसस कुछ और देखना चाहते थे और कुछ और हो रहा है। मतलब यह हुआ कि समर्पण नहीं है; मतलब यह हुआ कि भगवान के हाथों में लगाम नहीं है; मतलब यह हुआ कि 85 Page #116 --------------------------------------------------------------------------  Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 1-2 छठवां प्रवचन मृत्यु के पीछे अजन्मा, अमृत और सनातन का दर्शन Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1-m प्रश्नः भगवान श्री, लक्ष्य के साथ क्रियाएं बनती हैं क्योंकि आत्मा नित्य है, इसलिए शोक करना अयुक्त है। और निश्चित परिणाम की इच्छा रहती है। अगर हर वास्तव में न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, समय चित्त निरहंकार या निर्विचार रहा, तो क्रियाएं अथवा तू नहीं था, अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा कैसे होंगी? निर्विचार मन कुछ व्यक्त कैसे कर सकता ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे। है? सब निरंतर निर्विचार रहने से निष्क्रिय हो जाएं, तो समाज कैसे चल सकता है? समाज नष्ट नहीं हो जाएगा? 27 र्जुन ऐसी चिंता दिखाता हुआ मालूम पड़ता है कि ये I सब जो आज सामने खड़े दिखाई पड़ रहे हैं, युद्ध में मर जाएंगे, नहीं हो जाएंगे। कृष्ण उसे कहते हैं, जो है, निरहंकार होने से कोई निष्क्रिय नहीं होता है; न ही वह सदा से था; जो नहीं है, वह सदा ही नहीं है। . । निर्विचार होने से कोई निष्क्रिय होता है। निरहंकार होने इस बात को थोड़ा समझ लेना उपयोगी है। से सिर्फ कर्ता का भाव चला जाता है। लेकिन कर्म | धर्म तो सदा ऐसी बात कहता रहा है, लेकिन विज्ञान ने भी ऐसी परमात्मा को समर्पित होकर पूर्ण गति से प्रवाहित होते हैं। नदी | बात कहनी शुरू की है। और विज्ञान से ही शुरू करना उचित होगा। बहती है, कोई अहंकार नहीं है। हवाएं चलती हैं, कोई अहंकार नहीं क्योंकि धर्म शिखर की बातें करता है, जिन तक सबकी पहुंच नहीं है। फूल खिलते हैं, कोई अहंकार नहीं है। ठीक ऐसे ही सहज, | | है। विज्ञान आधार की बातें करता है, जहां हम सब खड़े हैं। विज्ञान निरहंकारी जीवन से सब कुछ होता है, सिर्फ भीतर कर्ता का भाव | की गहरी से गहरी खोजों में एक खोज यह है कि अस्तित्व को संगृहीत नहीं होता है। अनस्तित्व में नहीं ले जाया जा सकता है। जो है, उसे विनष्ट करने इसलिए सुबह जो मैंने कहा कि अर्जुन का अहंकार ही पूरे समय | | का कोई उपाय नहीं है। और जो नहीं है, उसका सृजन करने का भी उसकी पीड़ा और उसका संताप बना है। इसका यह अर्थ नहीं कि | कोई उपाय नहीं है। रेत के एक छोटे से कण को भी हमारे विज्ञान वह अहंकार छोड़ दे, तो कर्म छूट जाएगा। की सारी जानकारी और सारे जगत की प्रयोगशालाएं और सारे . और जैसा मैंने कहा कि विचार मनुष्य को चिंता में डालता है; जगत के वैज्ञानिक मिलकर भी विनष्ट नहीं कर सकते हैं; रूपांतरित निर्विचार हो जाए चित्त, तो चिंता के बाहर हो जाता है। इसका यह भर कर सकते हैं; नए रूप भर दे सकते हैं। अर्थ नहीं है कि निर्विचार चित्त फिर बोलेगा नहीं, करेगा नहीं, जिसे हम सृजन कहते हैं, क्रिएशन कहते हैं, वह भी नए रूप का अभिव्यक्ति नहीं रहेगी। | निर्माण है-नए अस्तित्व का नहीं, एक्झिस्टेंस का नहीं—फार्म नहीं, ऐसा नहीं है। निर्विचार चित्त बांस की पोंगरी की तरह हो | | का। और जिसे हम विनाश कहते हैं, वह भी अस्तित्व का विनाश जाएगा। गीत उससे बहेंगे, लेकिन अपने नहीं, परमात्मा के ही | | नहीं है, सिर्फ रूप का, आकृति का। आकृतियां बदली जा सकती बहेंगे। विचार उससे निकलेंगे, लेकिन अपने नहीं, परमात्मा के | | हैं, लेकिन जो आकृति में छिपा है, वह अपरिवर्तित है। करीब-करीब ही निकलेंगे। समस्त के प्रति समर्पित होगा वैसा चित्त। बोलेगा | | ऐसा, जैसे कि गाड़ी का चाक चलता है, घूमता है; लेकिन एक वही. जो परमात्मा बलाता है. करेगा वही. जो परमात्मा कराता है। कील है. जो खडी है. जिस पर चाक घमता रह स्वयं के बीच का जो मैं का आधार है, वह बिखर जाएगा। इसके | ही जानते हैं, वे कहेंगे, सब परिवर्तन है। जो कील को भी जानते बिखरते ही चिंता नहीं है। इसके बिखरते ही कोई संताप, कोई | हैं, वे कहेंगे, सब परिवर्तन के मूल में, केंद्र पर ठहरा हुआ भी कुछ एंग्जाइटी नहीं है। है, अनमूविंग भी कुछ है। ___ और बड़े मजे की बात यह है कि अगर चाक से कील अलग कर लें, तो चाक जरा भी घूम न पाएगा। चाक का घूमना उस पर न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः। | निर्भर है, जो नहीं घूमता है। रूप बदलते हैं। रूप का बदलना उस न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।। १२ ।। | पर निर्भर है, जो अरूप है, फार्मलेस है और नहीं बदलता है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IIT मृत्यु के पीछे अजन्मा, अमृत और सनातन का दर्शन - अर्जुन जब कह रहा है कि ये सब मर जाएंगे, तब वह फार्म की, | चित्र इतना ऊपर दूसरा और ऊपर, तीसरा और ऊपर, चौथा और रूप की, आकृति की बात कह रहा है। वह कह रहा है, ये सब मिट | ऊपर। इतनी तेजी से घूमने से हाथ उठता हुआ मालूम पड़ता है। जाएंगे। उसे आकृति से ज्यादा का कोई भी पता नहीं है। लेकिन अगर उन्हें धीमे चलाया जाए तो आप पाएंगे कि हाथ के __ और जब कृष्ण कहते हैं कि नहीं, जिन्हें तू आज देख रहा है, वे हजार चित्र लेने पड़े हैं। पहले नहीं थे, ऐसा नहीं है। वे पहले भी थे। मैं भी पहले था, तू भी | ठीक ऐसे ही, जब हम एक व्यक्ति को देख रहे हैं, तो हम एक पहले था। और ऐसा भी नहीं है कि जो हम आज हैं, कल नहीं होंगे। ही व्यक्ति को नहीं देख रहे हैं। जितनी देर हमने देखा, उस बीच कल भी हम होंगे, सदा-सदा अनादि से अनंत तक हमारा होना है। हजार चित्र हमारी आंखों ने ग्रहण किए हैं। भीतर चित्र संश्लिष्ट यहां कृष्ण और अर्जुन दो अलग चीजों की बात कर रहे हैं, यह हुए और एक आकृति हमारे मन में बनी। जब तक वह बनी है, तब समझ लेना जरूरी है। तक बाहर सब बदल गया है। __ अर्जुन रूप की बात कर रहा है, कृष्ण अरूप की बात कर रहे हैं। विराट आकाश में तारे दिखाई पड़ते हैं। जो तारे हमें दिखाई पड़ते अर्जुन उसकी बात कर रहा है, जो दिखाई पड़ता है; कृष्ण उसकी हैं, वे वहीं नहीं होते हैं, जहां दिखाई पड़ते हैं। वहां कभी थे। क्योंकि बात कर रहे हैं, जो नहीं दिखाई पड़ता है। अर्जुन उसकी बात कर रहा | जो निकटतम तारा है, उससे भी हम तक आने में कोई चार साल है, जो आंखों और हाथों की पकड़ में आता है; कृष्ण उसकी बात रोशनी को लग जाते हैं। और रोशनी धीमी नहीं चलती। रोशनी कर रहे हैं, जो हाथ, आंख और कान की पकड़ के पीछे छूट जाता चलती है एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील। एक लाख है। अर्जुन, जैसा हम सब सोचते हैं, वैसा सोच रहा है। कृष्ण, वैसा | छियासी हजार मील प्रति सेकेंड से प्रकाश की किरण यात्रा करती कह रहे हैं, जैसा हम सब जान सकें कभी तो सौभाग्य है। है हम तक। चार साल लगते हैं, निकटतम तारे से हम तक पहुंचने • जो दिखाई पड़ता है, वह सदा नहीं था। सदा तो बहुत बड़ा शब्द में। जब हमारे पास किरण पहुंचती है, तो हमें तारा वहां दिखाई है। जो दिखाई पड़ता है, वह क्षणभर पहले भी नहीं था। आप मेरे | पड़ता है, जहां चार साल पहले था। इस बीच हो सकता है कि रहा चेहरे को देख रहे हैं, क्षणभर पहले यह चेहरा यही नहीं था, क्षणभर | | ही न हो, बिखर गया हो। और इतना तो तय है कि उस जगह अब बाद यही नहीं होगा। क्षणभर में बहुत कुछ मेरे शरीर में मर गया | नहीं होगा, जहां चार साल पहले था। इस बीच में वह करोड़ों, और बहुत कुछ नया आ गया। | अरबों, खरबों मील की यात्रा कर गया है। बुद्ध कहा करते थे—कोई उनसे मिलने आता, तो वे उससे कहा ___ इसलिए रात हमें जो तारे दिखाई पड़ते हैं, वे वहां नहीं हैं, जहां करते थे—कि तुम जब मिलने आए थे और जब तुम विदा होओगे, | दिखाई पड़ते हैं। रात बड़ी झूठी है, तारे बिलकुल झूठे हैं। कोई तारा तो वही नहीं होओगे जो मिलने आया था। वहां नहीं है। और दूर के तारे हैं। किसी तारे को सौ वर्ष लगते हैं, घंटेभर में बहुत कुछ बदल जाता है। एक आदमी सत्तर साल में हजार वर्ष लगते हैं रोशनी पहुंचाने में; करोड़ वर्ष लगते हैं। ऐसे कोई दस बार पूरा का पूरा बदल जाता है। हर सात साल में शरीर | तारे हैं कि जब पृथ्वी बनी थी—कोई चार अरब वर्ष पहले तब के सब अणु-परमाणु बदल जाते हैं। प्रतिक्षण शरीर में कुछ मर रहा | | से उनकी चली रोशनी अब तक पृथ्वी पर नहीं पहुंची। इन चार है और बाहर फेंका जा रहा है। प्रतिक्षण शरीर में नया जीवित हो | अरब वर्षों में न मालूम क्या हो गया होगा! रहा है, नया आ रहा है, भोजन से आप नया डाल रहे हैं। और | | जो हमें दिखाई पड़ता है, वह वही नहीं है, जो है। उतनी देर में प्रतिपल शरीर से बहुत कुछ बाहर फेंका जा रहा है। सात साल में | भी बदल जाता है। जब आंख से मैं देखता हूं आपके चेहरे को, तो पूरा शरीर बदल जाता है। लेकिन हम कहे चले जाते हैं कि मैं वही | | आपसे किरण मुझ तक आती है, तब तक भी समय गुजरा। आप हूं। आकृति की समानता, आकृति की एकता बन जाती है। | वही नहीं होते हैं। इस बीच भीतर सब कुछ बदल गया है। फिल्म देखते हैं कभी आप। अगर परदे पर फिल्म को धीमे-धीमे आकृति-सदा की तो बात दूर-क्षणभर भी एक नहीं रहती। चलाया जाए, तो आप बहुत हैरान हो जाएंगे। इतना हाथ, पैर से हेराक्लतु ने कहा है, यू कैन नाट स्टेप ट्वाइस इन दि सेम इतना ऊपर सिर तक उठे, इतने हाथ के उठने के लिए हजारों चित्र रिवर–एक ही नदी में दोबारा नहीं उतर सकते। यह भी जरा ठीक लेने पड़ते हैं। फिर वे चित्र एकदम से तेजी से चलाए जाते हैं। एक नहीं है, बिलकुल ठीक नहीं है। एक ही नदी में एक बार भी उतरना Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m गीता दर्शन भाग-1 AM बहुत मुश्किल है, दोबारा उतरना तो असंभव है। एक नदी में एक कौन होगा। पीड़ित कौन होगा! कौन जानेगा कि मैं मर गया! अगर बार भी उतरना मुश्किल है! क्योंकि जब पैर आपका नदी की सतह | मैं मर ही जाऊंगा, तो जानने को भी कोई नहीं बचेगा कि मैं मर को छूता है, तब नीचे नदी भागी जा रही है। जब पैर और थोड़ा नीचे । गया। जानने को भी कोई नहीं बचेगा कि मैं कभी था। जानने को जाता है, तब ऊपर नदी भागी जा रही है। जब पैर और नीचे जाता कोई नहीं बचेगा कि सुकरात जैसा कुछ था। इसलिए चिंता का कोई है, तब नदी भागी जा रही है। आपका पैर नदी में एक फीट उतरता कारण नहीं है। और अगर नहीं मरा, अगर नहीं मरा मरकर भी, तब है, उस बीच नदी का सारा पानी भागा जा रहा है। जब आप ऊपर | तो चिंता का कोई कारण ही नहीं है। और दो ही संभावनाएं छुए थे, तब नीचे का पानी भाग गया है। जब आप नीचे पहुंचे, तब हैं-सुकरात ने कहा—या तो मैं मर ही जाऊंगा और या फिर नहीं तक ऊपर का पानी नहीं है। ही मरूंगा। और तीसरी कोई भी संभावना नहीं है। इसलिए मैं आकृति तो नदी की तरह भाग रही है। लेकिन आकृति हमें थिर निश्चित हूं। दिखाई पड़ती है। समानता की वजह से तादात्म्य मालूम होता है। ___ कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि जो मरने वाला है, वह तेरे बचाने वही है जो कल देखा था, वही है जो सुबह देखा था, वही है। से नहीं बचेगा। और जो नहीं मरने वाला है, वह तेरे मारने से नहीं प्रतिपल आकृति बदली जा रही है। मर सकता है। इसलिए तू व्यर्थ की चिंता में पड़ रहा है। इस व्यर्थ यह आकृतियों का जो जगत, यह रूप का जो जगत है, अर्जुन | की चिंता को छोड़। इस रूप के जगत के प्रति चिंतित है बहुत। हम भी चिंतित हैं बहुत। ___ यह शायद रूप और अरूप के बीच जो जगत का फैलाव है, जो मर ही रहा है प्रतिपल, उसके लिए वह कह रहा है कि ये मर | अगर हम रूप की तरफ से पकड़ें, तब भी चिंता व्यर्थ है। क्योंकि जाएंगे तो क्या होगा? जो मर ही रहा है, जिसे बचाने का कोई उपाय | जो मिट ही रहा है, मिट ही रहा है, मिट ही रहा है, मिट ही जाएगा, नहीं है, उसके लिए वह चिंतित है; वह असंभव के लिए चिंतित | पानी पर खींची गई लकीर है। खिंच भी नहीं पाती और मिटनी शुरू है। और जो असंभव के लिए चिंतित है, वह चिंता से कभी मुक्त हो जाती है। हाथ उठ भी नहीं पाता और मिट गई होती है। अगर नहीं हो सकता। असंभव की चिंता ही विक्षिप्तता बन जाती है। हम अरूप से सोचें, तो जो नहीं मिटेगा, नहीं मिटेगा, नहीं मिटेगा, आकृति को सदा बचाना तो दूर, क्षणभर भी बचाना मुश्किल है। वह कभी मिटा नहीं है। लेकिन अरूप से हमारा कोई परिचय नहीं । एक आकृति का जगत है-रूप का, ध्वनि का, किरण का, तरंगों है, अर्जुन का भी कोई परिचय नहीं है। का–वह कंपित है पूरे समय। सब बदला जा रहा है। अभी हम यह भी समझ लेना जरूरी है कि अर्जुन की चिंता एक और दूसरी यहां इतने लोग बैठे हैं, हम सब बदले जा रहे हैं, सब कंपित हैं, सूचना भी देती है। अर्जुन कहता है, ये सब मर जाएंगे। इसका सब तरंगायित हैं, सब वेवरिंग हैं, सब बदल रहा है। इस बदलाहट मतलब है कि अर्जुन अपने को भी रूप ही समझता है। अन्यथा के जगत को, जो भी सोचता हो बचाने की आकांक्षा, वह असंभव | ऐसा नहीं कहेगा। हम दूसरों के संबंध में जो कहते हैं, वह हमारे आकांक्षा कर रहा है। असंभव आकांक्षाओं के किनारे टकराकर ही | संबंध में ही कहा गया होता है। जब मैं किसी को मरते देखकर मनुष्य विक्षिप्त हो जाता है। | सोचता हूं कि मर गया, खो गया, मिट गया, तब मुझे जानना कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि तू जो कह रहा है कि ये मर चाहिए कि मुझे अपने भीतर भी उसका पता नहीं है, जो नहीं मिटता जाएंगे, तो मैं तुझे कहता हूं, ये पहले भी थे, ये बाद में भी होंगे। है, नहीं मरता है, नहीं खोता है। तू इनके मरने की चिंता छोड़ दे। क्यों? __ अर्जुन जब चिंता जाहिर कर रहा है कि ये मर जाएंगे, तो वह मुझे सुकरात की घटना याद आती है। सुकरात जब मर रहा था, अपनी मृत्यु की ही चिंता जाहिर कर रहा है। वह यह जानता नहीं तो उसके एक मित्र ने, केटो ने पूछा कि आप मर जाएंगे, लेकिन कि उसके भीतर भी कुछ है, जो नहीं मरता है। और जब कृष्ण कह आप चिंतित और परेशान नहीं दिखाई पड़ते! तो सुकरात ने कहा रहे हैं कि ये नहीं मरेंगे, तब कृष्ण अपने संबंध में ही कह रहे हैं, कि मैं इसलिए चिंतित और परेशान नहीं हूं, क्योंकि मैं सोचता हूं क्योंकि वे उसे जानते हैं, जो नहीं मरता है। .. कि यदि मरकर मर ही जाऊंगा, तब तो चिंता का कोई कारण ही हमारा बाहर का ज्ञान, हमारे भीतर के ज्ञान का ही विस्तार है। नहीं है। क्योंकि जब बचूंगा ही नहीं, तो चिंता कौन करेगा! दुखी हमारा जगत का ज्ञान, हमारे स्वयं के ज्ञान का ही विस्तार है, 90 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ im+ मृत्यु के पीछे अजन्मा, अमृत और सनातन का दर्शन +Am एक्सटेंशन है। जो हम अपने संबंध में जानते हैं, उसे ही फैलाकर | जानता है, वह कहेगा, लहरों को बनने दो, मिटने दो। लहरों में जो हम समस्त के संबंध में जान लेते हैं। और जो हम अपने संबंध में | | पानी है, जो सागर है, वह पहले भी था जब लहर नहीं थी, और नहीं जानते, उसे हम किसी और के संबंध में कभी नहीं जान सकते।। | बाद में भी होगा जब लहर नहीं होगी। आत्म-ज्ञान ही ज्ञान है; बाकी सब ज्ञान गहरे अज्ञान पर खड़ा होता । जीसस से एक मित्र ने पूछा है उनके कि अब्राहम-एक बहुत है। और अज्ञान पर खड़े ज्ञान का कोई भी भरोसा नहीं। पुराना प्रोफेट हुआ जेरूसलम में, तो अब्राहम बहुत पहले हुआ अब वह अर्जुन बड़े ज्ञान की बातें करता हुआ मालूम पड़ता है; | | आप अब्राहम के संबंध में क्या जानते हैं? तो जीसस ने कहा, जब वह बड़े धर्म की बातें करता हुआ मालूम पड़ता है; लेकिन उसे | | अब्राहम हुआ, उसके पहले भी मैं था—बिफोर अब्राहम, आई इतना भी पता नहीं है कि अरूप भी है कोई, निराकार भी है कोई।। वाज़-मैं अब्राहम के पहले भी था। अस्तित्व के आधार में कुछ है, जो अमृत है-इसका उसे कोई भी निश्चित ही, उस आदमी को शक हुआ होगा। तीस साल से पता नहीं है। और जिसे अमृत का पता नहीं है, उसके लिए जीवन | | ज्यादा उम्र नहीं थी जीसस की। अब्राहम को मरे हजारों साल हो गए में अभी ज्ञान की कोई भी किरण नहीं फूटी। जिसे मृत्यु का पता है, | | और यह आदमी कहता है, अब्राहम के पहले भी मैं था। जब वह घने अंधकार और अज्ञान में खड़ा है। अब्राहम नहीं हुआ था, तब भी मैं था। कसौटी यही है, अगर ज्ञात है आपको सिर्फ मृत्यु, तो अज्ञान । असल में जीसस सागर की बात कर रहे हैं; उस लहर की बात आधार है; और अगर ज्ञात है आपको अमृत, नहीं जो मरता, तो | | नहीं कर रहे, जो मरियम से उठी। वह जो जीसस नाम की लहर है, ज्ञान आधार है। अगर मृत्यु का भय है मन में चाहे दूसरे की, उसकी बात नहीं कर रहे हैं। वह उस सागर की बात कर रहे हैं, जो चाहे अपनी, इससे कोई भेद नहीं पड़ता-अगर मृत्यु का भय है | लहरों के पहले है और लहरों के बाद है। मन में, तो गवाही है वह भय इस बात की कि आपको अमृत का | और जब कृष्ण कहते हैं कि पहले भी हम थे, तू भी था, मैं भी कोई भी पता नहीं है। था; ये जो लोग सामने युद्ध के स्थल पर आकर खड़े हैं, ये भी थे; और अमृत ही है; और मृत्यु केवल ऊपर बनी हुई लहरों का नाम | | बाद में भी हम होंगे तो वे सागर की बात कर रहे हैं। और अर्जुन है। सागर ही है लेकिन सागर दिखाई नहीं पड़ता; दिखाई लहरें| लहर की बात कर रहा है। और अक्सर सागर और लहर की बात पड़ती हैं। आप कभी सागर के किनारे गए हैं, तो सागर देखा है? | | करने वाले लोगों में संवाद बड़ा मुश्किल है, कम्युनिकेशन बहुत कहेंगे, जरूर देखा है। लेकिन सिर्फ लहरें ही देखी होंगी, सागर नहीं मुश्किल है। क्योंकि कोई पूरब की बात कर रहा है, कोई पश्चिम देखा होगा। लहरें सागर नहीं हैं; लहरें सागर में हैं जरूर, लेकिन की बात कर रहा है। लहरें सागर नहीं हैं। क्योंकि सागर बिना लहरों के भी हो सकता है, इसलिए गीता इतनी लंबी चलेगी। क्योंकि अर्जुन बार-बार लेकिन लहरें बिना सागर के नहीं हो सकतीं। पर दिखाई लहरें पड़ती लहरों की बातें उठाएगा, और कृष्ण बार-बार सागर की बात करेंगे, हैं; उन्हीं का जाल फैला है ऊपर। आंखें उन्हीं को पकड़ती हैं, कान | और उनके बीच कहीं भी, कहीं भी कटाव नहीं होता। कहीं वे उन्हीं को सुनते हैं। | एक-दूसरे को काटते नहीं। काट दें तो बात हल हो जाए। इसलिए __ और मजा यह है कि जिस लहर को आप देख रहे हैं, लहर का | लंबी चलेगी बात। वह फिर दोहरकर लहरों पर लौट आएगा। उसे मतलब ही यह है कि आप उसे कभी न देख पाएंगे। क्योंकि लहर, | लहरें ही दिखाई पड़ती हैं। और जिसे लहरें दिखाई पड़ती हैं, उसका देख रहे हैं, तभी बदली जा रही है। देख भी नहीं पाए कि बदल गई। | भी कसूर क्या है! लहरें ही ऊपर होती हैं। लहर का मतलब ही है, जो हो रही है, नहीं हो रही है, जिसका होना ___ असल में जो देखने पर ही निर्भर है, उसे लहरें ही दिखाई पड़ेंगी। और न होना एक साथ चल रहा है; जो उठ रही है और गिर रही है | | अगर सागर को देखना हो, तो खुली आंख से देखना जरा मुश्किल जो है और नहीं है; जो एक साथ डोल रही है। इस लहर को ही हम | है। आंख बंद करके देखना पड़ता है। अगर सागर को देखना हो, देखते हैं। | तो सच तो यह है कि आंख से देखना ही नहीं पड़ता, सागर में जिसने लहरों को ही सागर समझा, वह चिंतित हो सकता है कि | डबकी लगानी पडती है। और डबकी लगाते वक्त आंख बंद कर क्या होगा? लहरें मिट रही हैं, क्या होगा? लेकिन जो सागर को | लेनी होती है। लहरों से नीचे उतरना पड़ता है सागर में। लेकिन जो Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m गीता दर्शन भाग-1 AM अभी अपने ही चित्त की लहरों से नीचे न उतरा हो, वह दूसरे के खोज में बाकी वैज्ञानिकों ने जितनी बाधा डाली, उतनी और किसी ऊपर उठी लहरों के नीचे नहीं जा सकता है। अर्जुन की सारी पीड़ा ने भी नहीं डाली है। तो अक्सर नई घटना भूल से घटती है; आत्म-अज्ञान है। | वैज्ञानिक उसको कर नहीं रहा होता, एक्सिडेंटल होती है। __डिलाबार प्रयोगशाला में बहुत संवेदनशील कैमरों के साथ फूलों पर कुछ अध्ययन किया जा रहा था। और एक कली का फोटो लिया प्रश्नः भगवान श्री, यह भी लहर का ही सवाल है। गया, लेकिन कली का फोटो तो नहीं आया, फोटो फूल का आया! कृष्ण जब अर्जुन से यह कह रहे हैं कि मैं, तू और ये कैमरे के सामने कली थी और कैमरे के भीतर फल आया। तब पहले जनादि पहले भी थे और बाद में भी होंगे, इससे यह | तो यही खयाल हुआ कि जरूर कुछ कैमरे की फिल्म में कुछ भूल निष्कर्ष निकलता है, अभी आपने बताया कि आत्मा | हो गई है। कोई एक्सपोजर पहले हो गया। कुछ न कुछ गलती हो की फार्मलेस कंटेंट का ही शरीर के फार्म के बजाय | गई है। लेकिन फिर भी फूल के खिलने तक प्रतीक्षा करनी चाहिए। महत्व है। लेकिन क्या यह संभावना भी नहीं हो __ और जब फूल खिला तो बड़ी कठिनाई हो गई। गलती कैमरे की सकती है कि फार्म के बगैर कंटेंट की सम्यक | फिल्म में नहीं हुई थी, गलती वैज्ञानिकों की समझ में थी। जब फूल अभिव्यक्ति नहीं हो सकती! घटादि आकृति के बगैर | खिला, तो ठीक वह वैसा था, जैसा कि चित्र बना था। तब फिर इस मृत्तिका का क्या प्रयोजन है? पर काम आगे जारी हुआ। और ऐसा समझा गया कि जो कल होने वाला है, वह भी किसी सूक्ष्म तरंगों के जगत में, इस समय भी हो रहा है, तभी कल हो पाएगा। OT भिव्यक्ति और अस्तित्व में फर्क है; एक्झिस्टेंस और एक बच्चा पैदा होता है मां से। नौ महीने अंदर गर्भ में छिपा होता 1 एक्सप्रेशन में फर्क है। जो अभिव्यक्त नहीं है, वह भी रहता है। किसी को पता नहीं, क्या हो रहा है। नौ महीने बाद पैदा हो सकता है। एक बीज है। छिपा है वृक्ष उसमें होता है। यह नौ महीने बाद अचानक नहीं आ जाता, नौ महीने की अभिव्यक्त नहीं है, लेकिन है। है इस अर्थ में कि हो सकता है; है | इसने भीतर यात्रा की है। एक कली जब फूल बनती है, तो फूल इस अर्थ में कि छिपा है; है इस अर्थ में कि पोटेंशियल है। | बनने के पहले उसके आस-पास की विद्युत तरंगें यात्रा करती हैं अभी आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी की एक लेबोरेटरी में, डिलाबार | फूल बनने की—गर्भ में। वह चित्र लिया जा सकता है। इसका प्रयोगशाला में, एक बहुत अनूठा प्रयोग चल रहा है, वैज्ञानिक मतलब यह हुआ कि आज नहीं कल, हम एक बच्चे के चित्र से प्रयोग है। और वह प्रयोग, मैं समझता हूं, इस समय चलने वाले | उसके बुढ़ापे का चित्र भी ले सकेंगे। मैं मानता हूं, ले सकेंगे। प्रयोगों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वह प्रयोग यह है कि बहुत | इस अर्थ में ज्योतिष बहुत वैज्ञानिक आधार लेगा। अब तक संवेदनशील कैमरे बीज में छिपे हुए उस वृक्ष का भी चित्र ले सकते | ज्योतिष वैज्ञानिक नहीं बन सका है। इस अर्थ में वैज्ञानिक बनेगा। हैं, जो बीस साल बाद पूरा का पूरा प्रकट होगा। | जो कल होने वाला है, वह आज भी किसी तल पर हो रहा है-हमें यह बहुत हैरानी वाली बात है। एक कली का चित्र लेते वक्त | | चाहे दिखाई पड़े, चाहे न दिखाई पड़े। भूल से यह घटना घट गई। और विज्ञान की बहुत-सी खोजें भूल कठिनाई कुछ ऐसी है कि मैं एक वृक्ष के नीचे बैठा हूं, आप वृक्ष से होती हैं। क्योंकि वैज्ञानिक बहत ट्रेडीशनल माइंड के होते हैं। | के ऊपर बैठे हैं। आप कहते हैं, एक बैलगाड़ी रास्ते पर मुझे दिखाई वैज्ञानिक बहुत कनफर्मिस्ट होते हैं। वैज्ञानिक आमतौर से पड़ रही है। मैं कहता हूं, मुझे दिखाई नहीं पड़ रही है। मैं कहता हूं, क्रांतिकारी नहीं होता। क्रांतिकारी कभी-कभी वैज्ञानिक हो जाते हैं, | | कोई बैलगाड़ी नहीं है, रास्ता खाली है। जहां तक रास्ता मुझे दिखाई यह दूसरी बात है; लेकिन वैज्ञानिक आमतौर से क्रांतिकारी नहीं पड़ता है, रास्ता खाली है। मेरे लिए बैलगाड़ी भविष्य में है, फ्यूचर होता। वैज्ञानिक तो जितना विज्ञान जानता है, उसको जोर से में है। झाड़ पर आप बैठे हैं, आपके लिए प्रेजेंट में है, वर्तमान में पकड़ता है; और किसी भी नई चीज को प्रवेश नहीं करने देता। है। आप कहते हैं कि नहीं, बैलगाड़ी है। मैं कहता हूं, होगी; है तो पिछले पूरे विज्ञान का इतिहास यह बताता है कि हर विज्ञान की नई नहीं, भविष्य में होगी। लेकिन आप कहते हैं, वर्तमान में है; मुझे Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m+ मृत्यु के पीछे अजन्मा, अमृत और सनातन का दर्शन +m था, तुम भी थे। दिखाई पड़ रही है। फिर बैलगाड़ी मुझे भी दिखाई पड़ने लगती है। भविष्य से मेरे | - यहां भी डर है कि भूल हो जाएगी। यहां भी डर यह है कि अर्जुन लिए भी वर्तमान में आ जाती है। फिर रास्ते पर चली जाती है, थोड़ी | समझेगा कि मैं अर्जुन नाम का व्यक्ति पहले भी था। कृष्ण यह नहीं देर में मुझे दिखाई पड़नी बंद हो जाती है। अतीत में चली जाती है, | कह रहे हैं। अर्जुन नाम का व्यक्ति कभी नहीं था पहले हो नहीं पास्ट में। लेकिन झाड़ पर से आप कहते हैं कि नहीं, मुझे अभी भी सकता। अर्जुन नाम का व्यक्ति तो सिर्फ एक वस्त्र है। उस वस्त्र दिखाई पड़ रही है। मेरे लिए अभी भी वर्तमान में है। के पीछे जो छिपी है चेतना निराकार, वह थी। और अर्जुन नाम का मेरे लिए बैलगाड़ी भविष्य में थी, वर्तमान में हुई, अतीत में हो व्यक्ति आगे भी नहीं होगा। वह तो वस्त्र है, वह तो मौत के साथ गई। आपके लिए एक ही प्रेजेंट में चल रही है, वर्तमान में चल रही | खो जाएगा। हां, जिस पर टंगा है वस्त्र, वह आगे भी होगा। है। आप जरा मुझसे ऊंचाई पर बैठे हैं और कोई खास फर्क नहीं है। ___ कृष्ण जो कह रहे हैं, अगर अर्जुन बहुत भी समझेगा, तो भी भूल जहां से कृष्ण देख रहे हैं, वह ऊंचाई से देखना है, फ्राम दि पीक। | होने वाली है। वह भूल यह होगी कि वह ज्यादा से ज्यादा यही जहां से वे कह रहे हैं कि नहीं, कल भी थे, परसों भी थे, पहले भी | समझेगा, तो मैं अर्जुन तुम कृष्ण, हम पहले भी थे। ये जो लोग थे; अभी भी हैं, कल भी होंगे, परसों भी होंगे। असल में कृष्ण | खड़े हैं, ये पहले भी थे। वह फिर भी वही पूछेगा, ये आकृतियां जहां से देख रहे हैं, वहां एवर प्रेजेंट है, वहां सब वर्तमान है। अर्जुन पहले भी यही थीं? जहां से देख रहा है, वहां से वह कहता है, क्या पता जन्म के पहले आकृतियां कभी ये न थीं। लेकिन आकृति अभिव्यक्ति है। थे या नहीं थे! मुझे पता नहीं। बस, उसकी यात्रा जन्म तक जाती अनाकृति, निराकार अस्तित्व-अभिव्यक्ति नहीं है। लेकिन है। जन्म तक भी नहीं जाती। अस्तित्व अनभिव्यक्त भी हो सकता है, अनमैनिफेस्ट भी हो अगर आप ठीक से देखेंगे, तो चार वर्ष से पहले की स्मृति | सकता है। जो प्रकट है वही नहीं है, जो अप्रकट है वह भी यही है। आपको नहीं होती है। चार वर्ष से पहले की बात अनुमान है, | | प्रकट हमें है ही क्या! बहुत थोड़ा-सा हमें प्रकट है। इनफरेंस है। लोग कहते हैं कि आप थे। चार वर्ष तक आपकी स्मृति । अगर हम वैज्ञानिक से पूछे, तो आज वैज्ञानिक कहने लगा है जाती है। कोई बहुत बुद्धिमान हुआ, तीन वर्ष तक चली जाएगी। | कि हमारे सामने प्रकट बहुत थोड़ा-सा है। यहां हम बैठे हैं। आज कोई और बहुत ही प्रतिभाशाली हुआ, तो दो वर्ष तक चली जाएगी। से दो सौ साल पहले रेडियो तो नहीं था। आज रेडियो है। यहां हम लेकिन दो वर्ष तक भी जाए, तो दो वर्ष तक आप थे? कुछ कहा | रेडियो रखे हैं और उसे लगाते हैं और लंदन की आवाज सुनाई नहीं जा सकता। स्मृति ही आधार है, तो दो वर्ष के पहले आप नहीं | | पड़नी शुरू हो जाती है। जब आप रेडियो पर बटन घुमाते हैं, तब थे। लेकिन अचानक कैसे हो जाएंगे, अगर दो वर्ष तक न रहे हों। लंदन से आवाज शुरू हो जाती है? नहीं, लंदन की आवाज तों लेकिन अगर याद आ जाए जन्म तक दसरे याद दिला देते गजर ही रही थी परे वक्त। सिर्फ आपके पास रेडियो नहीं था. जो हैं—पर मां के पेट में भी आप थे, उसकी कोई स्मति नहीं है। पकड़े। जब नहीं सुन रहे थे, तब भी गुजर रही थी; मैनिफेस्ट नहीं लेकिन गहरी हिप्नोसिस में उसकी स्मृति भी आ जाती है। गहरे | | थी, प्रकट नहीं थी; अप्रकट गुजर रही थी। कान उसे नहीं पकड़ सम्मोहन में व्यक्ति को बेहोश किया जाए, तो वह बता देता है कि | पाते थे, बस इतना ही। और भी हजारों आवाजें गुजर रही हैं। वह तीन महीने का जब मां के पेट में था, तो मां गिर पड़ी थी। बच्चे ___ वैज्ञानिक कहते हैं कि हमारी आवाज सुनने का एक रेंज है। इतनी को भी तो चोट लगती है, जब मां गिरती है तो। गर्भ की भी स्मृति | तरंगों तक हम सुनते हैं। इतनी तरंगों के नीचे भी नहीं सुनते, इसके आ जाती है। गर्भ के पार की भी स्मृति आ सकती है। पिछले जन्म | | ऊपर भी नहीं सुनते। हमारी सुनने की क्षमता की एक सीमा है; की भी स्मृति आ सकती है। लेकिन वह हमारे लिए पास्ट होगा। | उसके पार बहुत कुछ गुजर रहा है, जो हमें सुनाई नहीं पड़ता है। उसकी स्मृति जगानी पड़ेगी। अतीत होगा। वह है। उसके नीचे भी बहुत कुछ गुजर रहा है, जो हमें सुनाई नहीं कृष्ण के लिए सब शाश्वत वर्तमान है, दि इटरनल नाउ, अब पड़ता। वह भी है। जो हमें दिखाई नहीं पड़ता, वह भी है। अस्तित्व ही है सब। वे जिस जगह से खड़े होकर देख रहे हैं, वे कहते हैं | | उतना ही प्रकट होता है, जितनी हमारे पास इंद्रियां हैं। कि नहीं अर्जुन, पहले भी सब थे, बाद में भी सब होंगे। मैं भी समझ लें एक अंधा आदमी है, उसके लिए प्रकाश का कोई 93 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 40 अस्तित्व नहीं है। क्योंकि अंधे आदमी के लिए प्रकाश प्रकट होने में असमर्थ है। क्योंकि अंधे आदमी के पास कोई माध्यम नहीं है। जरा सोचें कि कहीं किसी न किसी ग्रह उपग्रह पर जरूर ऐसे प्राणी होंगे, जिनके पास पांच से ज्यादा इंद्रियां होंगी। तब हमको पहली दफे पता चलेगा कि और भी चीजें हैं जगत में, जिनका हमें कोई भी पता नहीं है। क्योंकि पांच इंद्रियां कोई सीमा नहीं आ गई। वैज्ञानिक कहते हैं कि कम से कम पचास हजार प्लेनेट्स पर जीवन है, कम से कम पचास हजार प्लेनेट्स पर । कोई चार अरब ग्रहों-उपग्रहों का पता है, उनमें कम से कम पचास हजार पर जीवन होने की संभावना है। इन पर अलग-अलग तरह का जीवन विकसित हुआ होगा—कहीं सात इंद्रियों वाले, कहीं पंद्रह इंद्रियों वाले, कहीं बीस इंद्रियों वाले व्यक्ति होंगे। तो वे वे चीजें जान रहे होंगे, जिनका हम सपना भी नहीं देख सकते। क्योंकि सपना भी हम वही देख सकते हैं, जो हम जानते हैं। सपने में भी हम वह नहीं देख सकते हैं, जो हम जानते नहीं हैं। हम कल्पना भी नहीं कर सकते, हमारे कालिदास और हमारे भवभूति और हमारे रवींद्रनाथ कविता भी नहीं लिख सकते, कल्पना भी नहीं कर सकते उसकी, जो हमारी इंद्रियों के बाहर है। लेकिन वह है। चूंकि हमें नहीं दिखाई पड़ता है, इसलिए नहीं है, ऐसा कहने का कोई भी कारण नहीं है। और फिर अभिव्यक्ति बहुत ऊपरी घटना है। अस्तित्व बहुत भीतरी घटना है। अस्तित्व घटना नहीं है, कहना चाहिए, अस्तित्व होना है, बीइंग है । और अभिव्यक्ति हैपनिंग है, घटना है। मैं यहां बैठा हूं। मैं एक गीत गाऊं । जब तक मैंने गीत नहीं गाया था, तब तक गीत मेरे भीतर कहां था ? कहीं था । कोई फिजियोलाजिस्ट मेरे शरीर को काट-पीटकर गीत पकड़ पाता? कोई वैज्ञानिक, कोई मनोवैज्ञानिक, कोई मस्तिष्क का सर्जन मेरे मस्तिष्क को काटकर गीत की कड़ी पकड़ पाता? कहीं भी खोजने से मेरे भीतर गीत नहीं मिलता। लेकिन जो गीत मैं गा रहा हूं, अगर वह मेरे भीतर नहीं था, तो उसके आने का उपाय क्या है ! वह अनमैनिफेस्ट था, वह कहीं बीज था, वह कहीं छिपा था । वह कहीं सूक्ष्मतम तरंगों में था, वह कहीं अस्तित्व में तो था, अभिव्यक्त नहीं था। फिर वह प्रकट हुआ है। फिर वह प्रकट हुआ है। प्रकट होने से वह हो गया है, ऐसा नहीं, प्रकट होने के पहले भी था । और ऐसा भी नहीं कि वह पूरा प्रकट हो गया हो, क्योंकि प्रकट होने में मेरी सीमाएं भी बाधा डालती हैं। रवींद्रनाथ मरते दम तक कहते रहे कि जो मैं गाना चाहता था, | वह गा नहीं पाया हूं। लेकिन जिसको तुम गा ही नहीं पाए, तुम्हें कैसे | पता चला कि तुम उसे गाना चाहते थे ! जरूर कहीं भीतर कुछ एहसास हो रहा है; कहीं कोई फीलिंग कि कुछ गाना था। जैसा कई बार आपको लगता है कि किसी का नाम जबान पर रखा है और याद | नहीं आता। अब बड़े पागलपन की बात कहते हैं आप कि जबान पर | रखा है और याद नहीं आता। अगर जबान पर रखा है, तो अब और याद आने की जरूरत क्या है, निकालिए जबान से! लेकिन आप कहते हैं, नहीं, रखा तो जबान पर है, लेकिन याद नहीं आता। | क्या मतलब हुआ इसका ? इसका मतलब हुआ कि कहीं कोई | एक सरकता एहसास है कि मालूम है, लेकिन फिर भी मैनिफेस्ट नहीं हो पा रहा है, फिर भी अभिव्यक्त नहीं हो पा रहा है, मन पकड़ नहीं पा रहा है। कहीं एहसास है। और अगर आप मर जाएं या आपको काट डाला जाए और हम आपके भीतर सब खोज - बीन करें कि जो बिलकुल जबान पर रखा था, वह कहां है! तो जबान मिल जाएगी, जबान पर रखा हुआ कुछ भी नहीं मिलेगा। मस्तिष्क मिल जाएगा, तंतु मिल जाएंगे, हजारों-हजारों सेल की व्यवस्था मिल जाएगी, काट-पीट हो जाएगी, वह कहीं मिलेगा नहीं। कहीं अनभिव्यक्त, अनमैनिफेस्ट, कहीं छिपा, कहीं अंतराल में, अस्तित्व में दबा वह खो जाता है। जो कृष्ण कह रहे हैं, वह यह कह रहे हैं कि जो प्रकट हुआ है, | वही तू नहीं है। वह जो अप्रकट रह गया है, वही तू है । और जो अप्रकट है, वह बहुत बड़ा है; और जो प्रकट हुआ है, वह एक छोर भर है अर्जुन! ऐसे छोर बहुत बार प्रकट हुए हैं, ऐसे छोर बहुत बार प्रकट होते रहेंगे, होते रहेंगे। लेकिन वह जो अप्रकट है, वह अनंत; | वह जो अप्रकट है, अनादि, वह जो अप्रकट है, असीम; वह कभी चुकता नहीं । सारी अभिव्यक्तियों के बाद भी वह अनचुका, पीछे शेष रह जाता है। निश्चित ही, अभिव्यक्त न होगा तो हम इंद्रियों से उसे न पहचान पाएंगे। हम इंद्रियों से न पहचान पाएंगे, क्योंकि इंद्रियां सिर्फ | अभिव्यक्ति को पकड़ती हैं। लेकिन हम इंद्रियां ही नहीं हैं। और अगर हम इंद्रियों के भीतर उतरने की कला सीख जाएं, तो जो अभिव्यक्त नहीं है, वह भी पकड़ा जाता है, वह भी पहचाना जाता है, वह भी देखा जाता है, वह भी सुना जाता है, वह भी हृदय के किसी गहन तल पर स्पर्शित होता है। 94 अभिव्यक्ति अस्तित्व की अनिवार्यता नहीं है, अभिव्यक्ति | अस्तित्व का खेल है; आकृति अस्तित्व की अनिवार्यता नहीं है, Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ → मृत्यु के पीछे अजन्मा, अमृत और सनातन का दर्शन 4 आकृति अस्तित्व का खेल है। इसलिए कृष्ण जगत को, जीवन को एक लीला से ज्यादा नहीं कहते हैं। और लीला का मतलब है कि मंच पर कोई आया है, राम बनकर आया है; बस वह एक आकृति है । कोई रावण बनकर आया है, वह एक आकृति है । वे धनुष-बाण लेकर लड़ने खड़े हुए हैं, वह एक आकृति है । परदे के पीछे अभी थोड़ी देर बाद वे गपशप करेंगे, सीता को भूल जाएंगे। झगड़ा बंद हो जाएगा, चाय पीएंगे ग्रीन रूम में बैठकर । वह जो कृष्ण कह रहे हैं, वह ग्रीन रूम की बात कह रहे हैं। अर्जुन जो बात कह रहा है, वह मंच की बात कह रहा है। पर जो मंच पर प्रकट हुआ है, वह सिर्फ रूप है, वह सिर्फ अभिनय है, वह एक आकृति है। और आकृति के बिना अस्तित्व हो सकता है, लेकिन अस्तित्व के बिना आकृति नहीं हो सकती है। जैसा मैंने कहा, लहर नहीं हो सकती सागर के बिना, सागर बिना लहर के हो सकता है। जब राम और रावण पर्दे के पीछे जाकर गपशप करके चाय पीने लगेंगे, तब राम और रावण की जो आकृतियां बनी थीं, वे कहां हैं? नहीं हैं। वे लहरें थीं, वे सिर्फ आकार थे, जो पीछे प्राण न हो, तो नहीं हो जाते हैं। रूप बदलता है, फार्म बदलता है, आकृतियां बदलती हैं, अभिनय बदलता है, अभिनेता नहीं; वह जो पीछे खड़ा है, वह नहीं। कृष्ण उसकी ही बात कर रहे हैं। देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा । तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र मुह्यति ।। १३ ।। किंतु जैसे जीवात्मा की इस देह में कुमार, युवा और वृद्ध अवस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है। उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता है। कृ ष्ण कह रहे हैं कि जैसे इस एक शरीर में भी सब बदलाहट है— बचपन है, जवानी है, बुढ़ापा है, जन्म है, मृत्यु है - जैसे इस एक शरीर में भी कुछ थिर नहीं है, जैसे इस एक शरीर में भी सब अथिर, सब बदला जा रहा है, बच्चे जवान हुए जा रहे हैं, जवान बूढ़े हुए जा रहे हैं, बूढ़े मृत्यु में उतरे जा रहे हैं... । एक बड़े मजे की बात है, भाषा में पता नहीं चलता, क्योंकि शब्दों में गति नहीं होती । शब्द तो ठहरे हुए, थिर होते हैं, स्टैटिक होते हैं। चूंकि भाषा में शब्द ठहरे हुए होते हैं, जीवन के साथ भाषा बड़ा अनाचार करती है। जीवन में कुछ भी ठहरा हुआ नहीं होता । न ठहरे हुए जीवन पर जब हम ठहरे हुए शब्दों को जड़ देते हैं, तो बड़ी गलती हो जाती है। हम बोलते हैं, यह बच्चा है। गलत बात बोलते हैं। बच्चा है की स्थिति में कभी नहीं होता, बच्चा पूरे वक्त होने की स्थिति में होता है— हो रहा है । कहना चाहिए, बच्चा हो रहा है। हम कहते हैं, बूढ़ा है । गलत बात कहते हैं । है की स्थिति में कोई बूढ़ा नहीं होता । बूढ़ा हो रहा है। प्रत्येक चीज हो रही है । है की स्थिति में कोई भी चीज नहीं है। इज़ की हालत में कोई चीज नहीं है, प्रत्येक चीज कमिंग में है। हम कहते हैं, नदी है। कैसी गलत बात कहते हैं ! नदी और है हो सकती है? नदी का मतलब ही है कि जो बह रही है, हो रही है। सब शब्द थिर हैं और जीवन में कहीं भी कुछ थिर नहीं है। |इसलिए जीवन के साथ बड़ी भूल हो जाती है। और इन शब्दों को | दिन-रात बोलते-बोलते हम भूल जाते हैं। जब हम किसी आदमी को जवान कहते हैं, तो जवान का मतलब क्या होता है जीवन में? भाषाकोश में नहीं, शब्दकोश में नहीं। शब्दकोश में तो जवान का | मतलब जवान होता है। जिंदगी में क्या होता है? जिंदगी में जवान | का मतलब सिर्फ बूढ़े होने की तैयारी होता है और कुछ नहीं । शब्दकोश में नहीं कहीं लिखा है ऐसा | शब्दकोश में बूढ़े का मतलब बूढ़ा होता है। जिंदगी में बूढ़े का मतलब मरने की तैयारी होता है । और तैयारी भी ऐसी नहीं कि जो हो गई, हो रही है, होती जा रही है। 95 कृष्ण कह रहे हैं, इस जीवन में भी अर्जुन, चीजें ठहरी हुई नहीं हैं। इस जीवन में भी जिन आकृतियों को तू देख रहा है, कल वे बच्चा थीं, जवान हुईं, बूढ़ी हो गईं। बड़े मजे की बात है। अगर मां के पेट में जब पहली दफे बीजारोपण होता है, उस सेल, उस कोष्ठ का चित्र ले लिया जाए और आपको बताया जाए कि आप यही थे पचास साल पहले, तो आप मानने को राजी न होंगे कि क्या मजाक करते हैं, मैं और यह ! एक छोटा-सा सेल जो नंगी आंख से दिखाई भी नहीं पड़ता, जिसको खुर्दबीन से देखना पड़ता है; जिसमें न कोई आंख है, न कोई कान है, न कोई हड्डी है; जिसमें कुछ भी नहीं है; जिसका पता नहीं कि वह स्त्री होगी कि पुरुष होगा; जिसका पता नहीं, एक Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 - छोटा-सा बिंदु, यह काला धब्बा-यह मैं। मजाक कर रहे हैं। यह | चाहिए। अन्यथा दस साल में जो घटना घटी, उसे मैं कैसे याद कर मैं कैसे हो सकता हूं! लेकिन यह आपकी पहली तस्वीर है। इसे | सकता हूं। मैं तो नहीं था, जो मैं आज हूं, यह तो मैं नहीं था। जो अपने एल्बम में लगाकर रखना चाहिए। और अगर यह आप नहीं | | भी आज दिखाई पड़ता है, यह दस साल में मैं नहीं था। किसे याद हैं, तो जो तस्वीर आपकी आज है, वह भी आप नहीं हो सकते हैं। | है? यह स्मृति का सूत्र कहां है? कोई जरूर मेरे गहरे में कोई कील क्योंकि कल वह भी बदल जाएगी। होनी चाहिए, जिस पर सब बदल गया है। रास्ते बदल गए हैं, __ अगर हम एक आदमी की, पहले दिन पैदा हुआ था तब की अनेक-अनेक रास्तों पर वह रथ घूम चुका है, लेकिन कोई एक तस्वीर, और जिस दिन मरता है उस दिन की तस्वीर को आस-पास कील जरूर होनी चाहिए, जिसने चक्के की हर स्थिति देखी है। रखें, क्या इन दोनों के बीच कोई भी तालमेल दिखाई पड़ेगा? कोई चक्का खुद याद नहीं रख सकता है, बदल रहा है पूरे समय। कोई भी संबंध हम जोड़ पाएंगे? क्या हम कभी कल्पना भी कर पाएंगे अनबदला तत्व चाहिए। कि यह वही बच्चा है, जो पैदा हुआ था, वही यह बूढ़ा मर रहा है! तो कृष्ण कह रहे हैं कि बचपन था, जवानी थी, बुढ़ापा था। इस नहीं कोई संगति दिखाई पड़ेगी, बड़ी असंगत बात दिखाई पड़ेगी| | सब बदलाहट के बीच कोई थिर, कोई नहीं बदलने वाला, कोई कि कहां यह कहां वह, इसका कोई संबंध दिखाई नहीं पड़ता है। | अपरिवर्तित, कोई अनमूविंग तथ्य, उसकी स्मृति जगाने की है। तब लेकिन इतने असंगत प्रवाह की भी हम कभी चिंता, कभी विचार | फिर हम ऐसा न कह सकेंगे कि मैं बच्चा था; फिर हम ऐसा न कह नहीं करते हैं। सकेंगे कि मैं जवान था; फिर हम ऐसा न कह सकेंगे कि मैं बूढ़ा हूं। कृष्ण यही विचार उठाना चाह रहे हैं अर्जुन में। वे यह कह रहे | । नहीं, तब हमारी बात और होगी। तब हम कहेंगे कि मैं कभी हैं कि जिन आकृतियों को तू कह रहा है कि ये मिट जाएंगी, इसका बचपन में था, मैं कभी जवानी में था, मैं कभी बुढ़ापे में था। मैं कभी मुझे डर है; ये आकृतियां मिट ही रही हैं। ये चौबीस घंटे मिटती ही | जन्मा, मैं कभी मरने में था। लेकिन यह जो मैं है, यह इन सारी रही हैं। ये सदा मिटने के क्रम में ही लगी हैं। स्थितियों से ऐसे ही टूट जाएगा, जैसे कोई यात्री स्टेशनों से गुजरता आदमी पूरी जिंदगी सिवाय मरने के और कुछ करता ही नहीं है। | है। तो अहमदाबाद के स्टेशन पर नहीं कहता कि मैं अहमदाबाद उसकी सारी जिंदगी मरने का ही एक लंबा क्रम है। जन्म में जो शुरू | हूं। वह कहता है कि मैं अहमदाबाद के स्टेशन पर हूं। बंबई होता है, मृत्यु में वह पूरा होता है। जन्म की प्रक्रिया एक कदम है, | पहुंचकर वह यह नहीं कहता कि मैं बंबई हो गया हूं। वह कहता मृत्यु की प्रक्रिया दूसरा कदम है। | है, मैं बंबई के स्टेशन पर हूं। क्योंकि अगर वह बंबई हो जाए, तो और ऐसा भी नहीं है कि अचानक मौत एक दिन आ जाती है।। | फिर अहमदाबाद कभी नहीं हो सकेगा। अहमदाबाद हो जाए, तो मौत जन्म के दिन से रोज-रोज आती ही रहती है; तभी तो पहुंच | | फिर बंबई कभी नहीं हो सकेगा। पाती है। उसको सत्तर साल लग जाते हैं आप तक आने में। या ऐसा | | आप अगर बच्चे थे, तो जवान कैसे हो सकते हैं? और अगर समझिए कि आपको सत्तर साल लग जाते हैं उस तक पहुंचने में। | आप जवान थे, तो बूढ़े कैसे हो सकते हैं? निश्चित ही कोई आपके लेकिन यात्रा पहले दिन ही शुरू हो जाती है। भीतर होना चाहिए जो बच्चा नहीं था। इसलिए बचपन भी आया ___ यह सब बदल रहा है, लेकिन फिर भी यह खयाल नहीं आता | | और गया; जवानी भी आई और गई; बुढ़ापा भी आया और जाएगा। कि इतनी बदलाहट के बीच मुझे यह खयाल क्यों बना रहता है कि | जन्म भी आया, मृत्यु भी आई; और कोई है, जो इस सब के भीतर मैं वही हूं, जो बच्चे में था; मैं वही हूं, जो जवान में था; मैं वही हूं, | खड़ा है और सब आ रहा है और जा रहा है स्टेशंस की तरह। जो बूढ़े में है। यह आइडेंटिटी, यह तादात्म्य, इतनी बदलाहट के ___ अगर यह फासला दिखाई पड़ जाए कि जिन्हें हम अपना होना बीच यह सातत्य, यह स्मृति, यह रिमेंबरिंग कहां बनी रहती है, मान लेते हैं, वे केवल स्थितियां हैं। हमारा होना वहां से गुजरा है, किसे बनी रहती है, क्यों बनी रहती है? एक स्वर तो जरूर भीतर | लेकिन हम वही नहीं हैं—उसके स्मरण के लिए कृष्ण कह रहे हैं। होना चाहिए जो अनबदला है, अन्यथा कौन याद करेगा? मैं कहता हूं कि दस साल का था, तो ऐसी घटना घटी। मेरे भीतर जो दस साल में था, वह जरूर किसी तल पर आज भी होना | प्रश्नः भगवान श्री, यह शरीर छोड़कर आत्मा अन्य 96 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Nim+ मृत्यु के पीछे अजन्मा, अमृत और सनातन का दर्शन +AM शरीर में प्रवेश करता है। मरण और जन्म के बीच के किसी दिन हम वैसा कैमरा बहुत ठीक से विकसित कर पाए-जो समय में आत्मा का क्या केवल अस्तित्व रहता है या | कि हो ही जाएगा, क्योंकि चित्र तो सूक्ष्म शरीरों के लिए ही जाने अभिव्यक्ति भी? उस अवस्था में आत्मा का स्वरूप | लगे हैं और यहां का चित्र किसी दिन उस कैमरे से लिया जाए कैसा होता है? जो सूक्ष्म शरीरों को भी पकड़ता हो, तो लोग इतने ही नहीं दिखाई पड़ेंगे, जितने बैठे हैं। और भी बहुत से लोग दिखाई पड़ेंगे, जो हमें दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। 15 क शरीर को छोड़ने के बाद दूसरे शरीर में प्रवेश के | महावीर की सभाओं के लिए कहा जाता है कि उनमें बड़ी भीड़ ५ बीच जो अंतराल है, उस अंतराल में कोई अभिव्यक्ति | होती थी। लेकिन उस भीड़ में बहुत तरह के व्यक्ति सम्मिलित होते भी होती है कि सिर्फ अस्तित्व होता है! अभिव्यक्ति | थे। उसमें वे तो सम्मिलित होते थे, जो गांवों से सुनने आए थे; वे भी होती है। लेकिन वह अभिव्यक्ति, जैसी अभिव्यक्ति से हम | भी सम्मिलित होते थे, जो आकाश से सुनने आए थे। परिचित रहे हैं शरीर के भीतर, वैसी नहीं होती। उस अभिव्यक्ति सदा, सब जगह वे चेतनाएं भी मौजूद हैं। कभी वे चेतनाएं अपनी का माध्यम पूरा बदल जाता है। वह अभिव्यक्ति सूक्ष्म शरीर की तरफ से भी कोशिश करती हैं कि आपको दिखाई पड़ जाएं। कभी वे अभिव्यक्ति होती है। उसे भी देखा जा सकता है—विशेष ट्यूनिंग चेतनाएं आप कोशिश करें तो भी दिखाई पड़ सकती हैं। लेकिन उनसे में। जैसे रेडियो सुना जा सकता है—विशेष टयूनिंग में। उसे भी | | उनके दिखाई पड़ने का संबंध विशेष है, सामान्य नहीं है। स्पर्श किया जा सकता है-विशेष व्यवस्था से। एक शरीर से दूसरे शरीर की यात्रा के बीच में शरीर तो होता है, लेकिन साधारण शरीर, जिसे हम जानते हैं वैसा शरीर, तो हम क्योंकि सूक्ष्म शरीर अगर न हो तो नया शरीर ग्रहण नहीं किया जा दफना आते हैं, वह नहीं रह जाता। लेकिन वही अकेला शरीर नहीं सकता। सक्ष्म शरीर को अगर विज्ञान की भाषा में कहें, तो वह है हमारे भीतर। उसके भीतर और शरीर और शरीर भी हैं। उसके | बिल्ट-इन-प्रोग्रैम है; नए शरीर को ग्रहण करने की योजना है, भीतर शरीरों का एक जाल है। साधारण मृत्यु में सिर्फ पहला शरीर | ब्लूप्रिंट है। नहीं तो नए शरीर को ग्रहण करना मुश्किल हो जाएगा। गिरता है। उसके पीछे छिपा दूसरा शरीर हमारे साथ ही यात्रा करता आपने अब तक इस जिंदगी तक जो भी संग्रह किया है-संस्कार, है। सूक्ष्म शरीर कहें, कोई भी नाम दे दें, एस्ट्रल बाडी कहें, कोई अनुभव, ज्ञान, कर्म-जो भी आपने इकट्ठा किया है, जो भी आप भी नाम दे दें-वह हमारे साथ यात्रा करता है। उस शरीर में ही | हैं, वह सब उसमें है। हमारी सारी स्मृतियां, सारे अनुभव, सारे कर्म, सारे संस्कार कभी आपने देखा, रात जब आप सोते हैं, तो रात सोते समय संगृहीत होते हैं। वह हमारे साथ यात्रा करता है। जो आपका आखिरी विचार होता है, वह सुबह उठते वक्त आपका उस शरीर को देखा जा सकता है। बहत कठिन नहीं है उसे पहला विचार होता है। नहीं देखा हो तो थोडा खयाल करना। रात देखना। बहुत कठिन नहीं है, बहुत ही सरल है। और जैसे-जैसे सोते वक्त नींद के उतरने के आखिरी क्षण में, इधर नींद उतर रही दुनिया आगे बढ़ी है सभ्यता में, थोड़ा कठिन हो गया है, अन्यथा है, उस वक्त आपका जो विचार होगा, वह सुबह जब नींद टूट रही, इतना कठिन नहीं था। कुछ चीजें खो गई हैं, हमें दिखाई पड़नी | तब आपका पहला विचार होगा। रात का आखिरी विचार, सुबह मुश्किल हो गई हैं। सिर्फ हम आदी नहीं रहे उनको देखने के। उस का पहला विचार होगा। वह रातभर कहां था? आप तो सो गए थे। दिशा से हमारे मन हट गए हैं। उस दिशा में हमने खोज-बीन बंद अब तक उसे खो जाना चाहिए था। वह आपके सूक्ष्म शरीर में कर दी है। अन्यथा वह सूक्ष्म शरीर बहुत सरलता से देखा जा प्रतीक्षा करता रहा-आप फिर उठे, वह फिर आपको पकड़े। सकता था। अभी भी देखा जा सकता है। और अभी तो वैज्ञानिक | ___ जैसे ही यह शरीर छूटता है, आप एक बिल्ट-इन-प्रोग्रैमआधारों पर भी देखने की बड़ी सफल चेष्टाएं की गई हैं। उस सूक्ष्म | | जिंदगीभर की आकांक्षाओं, वासनाओं, कामनाओं का सब संगृहीत शरीर के सैकड़ों-हजारों चित्र भी लिए गए हैं। समस्त वैज्ञानिक | | ब्लूप्रिंट, एक नक्शा-अपने सूक्ष्म शरीर में लेकर यात्रा पर निकल उपकरणों से जांच भी की गई है। जाते हैं। वह नक्शा प्रतीक्षा करेगा, जब तक आप नए शरीर को यहां हम इतने लोग बैठे हैं। हम इतने ही लोग नहीं बैठे हैं। अगर ग्रहण करें। जैसे ही शरीर ग्रहण होगा, फिर जो-जो संभावना शरीर Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm गीता दर्शन भाग-1 +m में उपलब्ध होने लगेगी, जिस-जिस चीज का अवसर बनने लगेगा, | | लगता है। फिर एक बड़ा महल बनाता है, थोड़े दिन में वह भी छोटा वह सूक्ष्म शरीर उन-उन चीजों को प्रकट करना शुरू कर देगा। | | मालूम पड़ने लगता है। लेकिन एक बार ऐसी मृत्यु भी होती है, जब सूक्ष्म शरीर भी | | असल में आदमी के पास इतना बड़ा अस्तित्व है कि पूरा आपके साथ नहीं होता। वैसी मृत्यु को ही मुक्ति, वैसी मृत्यु को ही | | आकाश भी छोटा है। इसलिए वह कितने ही बड़े मकान बनाता मोक्ष...। उसके बाद सिर्फ अस्तित्व होता है, फिर कोई अभिव्यक्त | | जाए, सब छोटे पड़ जाएंगे। उसको इतनी स्पेस चाहिए, जितनी शरीर नहीं होता। लेकिन साधारण मृत्यु में आपके साथ एक शरीर | | परमात्मा को मिली है। बस, इससे कम में काम नहीं चल सकता। होता है। असाधारण मत्य है वह, महामत्य है, समाधिस्थ की होती वहां भी भीतर परमात्मा ही है। वह पुरी जगह चाहता है, वह असीम है। जो इस जन्म में समाधि को उपलब्ध होगा, उसका मतलब होता चाहता है, जहां कहीं कोई सीमा न आती हो। जहां भी सीमा है कि उसने जीते जी अपने सूक्ष्म शरीर को विसर्जित कर दिया। आएगी, वहीं बंधन मालूम होगा। और शरीर बहुत तरह की सीमाएं समाधि का मतलब ही यही है कि उसने जीते जी सूक्ष्म शरीर को | बना लेता है। देखने की सीमा, सुनने की सीमा, सोचने की सीमा, विसर्जित कर दिया, बिल्ट-इन-प्रोग्रैम तोड़ डाला। अब आगे की | | सब चीज की सीमा है। यात्रा के लिए उसके पास कोई योजना न रही। अब न कोई | और असीम है अस्तित्व और सीमित है अभिव्यक्ति, इसलिए पंचवर्षीय योजना है उसके पास, न कोई पांच जीवन की। अब | | अभिव्यक्ति से मुक्त होना ही संसार से मुक्त होना है। वह जिसको उसके पास कोई योजना नहीं है। अब वह योजना-मुक्त हो गया। | हम पुरानी भाषा में कहें, आवागमन से मुक्त होना, वह अभिव्यक्ति अब इस शरीर के गिरते ही उसके पास सिर्फ अस्तित्व रह जाएगा, | से मुक्त होना है। वह शुद्ध अस्तित्व की तलाश है, प्योर अभिव्यक्ति नहीं। एक्झिस्टेंस की तलाश है। वह उस अस्तित्व की तलाश है, जहां अभिव्यक्ति बंधन है, क्योंकि अभिव्यक्ति पूरे की अभिव्यक्ति | | अभिव्यक्ति नहीं होगी, बस होना ही होगा—जस्ट बीइंग-सिर्फ नहीं है। इसलिए थोड़ा-सा प्रकट होता है और जो अप्रकट रहता | होना ही रह जाएगा। और कोई सीमा न होगी। सिर्फ होने में सीमा है, वह बेचैन होता है। हमारे प्राणों में जो स्वतंत्रता की छटपटाहट | है, हमारे प्राणों में जो मुक्ति की आकांक्षा है, वह इस कारण से है तो जिस दिन कोई समाधि को पाकर, सब बिल्ट-इन-प्रोग्रॅम कि बड़ा थोड़ा-सा प्रकट हो रहा है। जैसे एक आदमी के सारे शरीर तोड़कर, अभिव्यक्ति की सारी आकांक्षाएं छोड़कर, अभिव्यक्ति में जंजीरें बांध दीं और सिर्फ एक अंगुली खुली छोड़ दी। वह अपनी की सारी वासनाओं को छोड़कर मरता है, उस दिन उसके पास फिर अंगुली हिला रहा है। तकलीफ में पड़ा हुआ है। वह कहता है, मुझे कोई शरीर नहीं होता, फिर हम उसका फोटोग्राफ नहीं ले सकते। स्वतंत्रता चाहिए। क्योंकि मेरा पूरा शरीर जकड़ा हुआ है। | तो अभी पश्चिम में साइकिक रिसर्च सोसाइटीज ने जो ऐसे ही हमारा पूरा अस्तित्व जकड़ा हुआ है। एक छोटे-से द्वार फोटोग्राफ्स लिए हैं, उन फोटोग्राफ्स में महावीर का फोटोग्राफ नहीं से जरा-सी अभिव्यक्ति है, वह अभिव्यक्ति बंधन मालूम पड़ती | | हो सकता, उस फोटोग्राफ में बुद्ध को नहीं पकड़ा जा सकता, उस है। वही हमारी पीड़ा है। छटपटा रहे हैं। लेकिन इस छटपटाहट के | फोटोग्राफ में कृष्ण को नहीं पकड़ा जा सकता। उस फोटोग्राफ में हम दो तरह के प्रयोग कर सकते हैं। या तो वह जो छोटा-सा द्वार | उनको ही पकड़ा जा सकता है, जो अभी बिल्ट-इन-प्रोग्रैम लेकर है हमारा शरीर, उसी के माध्यम से हम अपने को मुक्त करने की | चले हैं। जिनके पास एक योजना है, एक ब्लूप्रिंट है शरीर का, कोशिश में लगे रहें, तो हम उसको बड़ा करेंगे। उनको पकड़ा जा सकता है। महावीर का फोटोग्राफ नहीं पकड़ा जा एक आदमी बड़ा मकान बनाता है। उसका मतलब सिर्फ यह है | | सकता है, कोई उपाय नहीं है। अस्तित्व का कोई भी चित्र नहीं लिया कि वह अपने शरीर को बड़ा बना रहा है। कोई और मतलब नहीं | | जा सकता। अस्तित्ववान का चित्र लिया जा सकता है, अस्तित्व है। एक आदमी बड़ा मकान बनाता है और बड़े मकान में जरा का कोई चित्र नहीं लिया जा सकता है। अस्तित्व का कैसे चित्र लगता है कि थोड़ा मुक्त हुआ। स्पेस बढ़ी, जगह बड़ी हुई। छोटी | | होगा? क्योंकि अस्तित्व की कोई सीमा नहीं है। चित्र उसी का हो कोठरी में ज्यादा बंद मालम होता था. बडे मकान में जरा खला सकता है. जिसकी सीमा हो। मालूम पड़ता है। लेकिन थोड़े दिन में वह भी छोटा मालूम पड़ने । तो साधारण मृत्यु में तो—पूछा है आपने—शरीर रहेगा, सूक्ष्म नहीं है। 98 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ATM मृत्यु के पीछे अजन्मा, अमृत और सनातन का दर्शन AM हो जाएगा। असाधारण मृत्यु में, योगिक मृत्यु में, महामृत्यु में, कामना, उसकी अपनी वासना को तिरोहित करेगी। निर्वाण में नहीं कोई शरीर रह जाता, सिर्फ अस्तित्व ही रह जाता है। यह बड़े मजे की बात है कि दूसरे की वासना जगाने में हम अपनी नहीं कोई लहर रह जाती, बस सागर ही रह जाता है। ही वासना जगाते हैं। और दूसरे की वासना मिटाने में हम अपनी ही वासना मिटाते हैं। असल में दूसरे के साथ जो हम करते हैं, गहरे में अपने ही साथ करते हैं। सच तो यह है कि दूसरे के साथ सिर्फ प्रश्नः भगवान श्री, वासनामय सूक्ष्म शरीर की शांति किए जाने का दिखावा हो सकता है, सब करना अंततः अपने ही के लिए क्या पुत्र-पत्नी कुछ कर सकते हैं? क्योंकि साथ है। उपयोगी है, लेकिन कृपा करके ऐसा मत सोचें कि वह जो गीता में पिंडदान का उल्लेख आता है। दूसरा यात्रा पर निकल गया है, उसके लिए उपयोगी है। आपके लिए उपयोगी है। आपके लिए सार्थक है। लेकिन शायद ऐसा अगर कहा गया होता जैसा मैं कह रहा हूं, वासना, प्रत्येक व्यक्ति की अपनी है, दूसरा उसमें कुछ | तो शायद पत्नी प्रार्थना भी न करे। सोचेगी, ठीक है। लेकिन मरे पा भी नहीं कर सकता। वासना मेरी है, मेरी पत्नी कुछ | हुए पति के लिए इतना करने की आकांक्षा उसके मन में होती है कि नहीं कर सकती। हां, लेकिन मेरी वासना के लिए . | शायद उनको सुगम मार्ग मिल जाए, आनंद की राह मिल जाए, करने के बहाने से अपनी वासना के लिए कुछ कर सकती है। पर स्वर्ग का द्वार मिल जाए। वह बहुत दूसरी बात है। होने का बुनियादी कारण है। क्योंकि जिंदा रहते तो हम ___ पति मर गया है। पत्नी अपने पति को वासनामुक्त करने की | एक-दूसरे को सिर्फ नर्क के द्वार तक पहुंचाते हैं, एक-दूसरे को कोशिश करती है—प्रार्थना करती है, हवन करती है, पिंडदान | दुख में धक्के देते हैं। इसलिए मरने के बाद पछतावा, रिपेंटेंस शुरू करती है, कुछ भी करती है, कोई आयोजन करती है—इससे उसके | होता है। मरने के बाद पति पत्नी को जितना प्रेम करता हुआ दिखाई पति की वासना में कोई अंतर नहीं पड़ सकता है, लेकिन उसकी पड़ने लगता है, ऐसा जिंदगी में कभी नहीं किया था। रिपेंटेंस शुरू स्वयं की वासना में अंतर पड़ सकता है। और योजना का सीक्रेट होता है। जीते के साथ जो किया था, उससे बिलकुल उलटा करना यही है। शुरू होता है। योजना पति की वासना-मुक्ति के लिए नहीं है। क्योंकि पति की बाप के साथ बेटा जिंदा में जो कर रहा था, वह मरने के बाद वासना-मक्ति अगर आप करवा दें, तब तो पति को वासना भी कछ और करने लगता है। जिंदा में कभी आदर न दिया था. मरने पकड़ा सकते हैं आप। तब तो इस दुनिया में मुक्ति मुश्किल हो के बाद तस्वीर, फोटो लगाता है, फूल चढ़ाता है! जिंदा में कभी पैर जाएगी। महावीर मर जाएं और महावीर की पत्नी वासना पकड़ाए, न दबाए थे, मरने के बाद राख को समेटकर गंगा ले जाता है। जिंदा तो महावीर क्या करेंगे। क्योंकि जिसे हम मुक्त कर सकते हैं, उसे बाप ने कहा होता कि गंगा ले चलो, तो भूलकर न ले गया होता। हम बांध भी सकते हैं। तब तो मुक्ति भी बंधन बन जाएगी; तब तो | मरे बाप को गंगा ले जाता है! मुक्ति भी असंभव है। __ यह बहुत गहरे में हमारा जो जगत है, इसमें हम जिंदा लोगों के नहीं, लेकिन राज दूसरा है, सीक्रेट दूसरा है। वह सीक्रेट | साथ इतना दुर्व्यवहार कर रहे हैं कि सिर्फ मरों के साथ क्षमायाचना साधारणतः खोला नहीं गया है। राज यह है कि पति मर गया है; | कर सकते हैं, और कुछ नहीं। इसलिए पति के लिए पत्नी कर पति के लिए तो पत्नी कुछ भी नहीं कर सकती। जिंदा में ही कुछ । सकती है, पति पत्नी के लिए कर सकता है, बेटा बाप के लिए कर नहीं कर सकती, मरने के बाद करना तो बहुत मुश्किल है। दूसरे सकता है, बेटा मां के लिए कर सकता है। अपने लिए शायद नहीं का अपना होना है, जिसमें हमारा कोई प्रवेश नहीं है-न पति का, | भी करेगा। न पत्नी का, न मां का, न पिता का। लेकिन पति के बहाने वह जो | | इसलिए एक बहुत मनोवैज्ञानिक सत्य'को, एक बहुत गलत करेगी-अगर वह पति को वासना-मुक्त करने की आकांक्षा से | | कारण देकर पकड़ाने की कोशिश की गई है। वह सत्य केवल इतना प्रार्थना करे, तो यह प्रार्थना, यह आकांक्षा, यह वासना-मुक्ति की है कि हम अपनी वासना को, दूसरे की वासना-शांति के लिए किए Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1-m गए प्रयास से-अपनी वासना को शांत करने में सक्षम होते हैं। और यह छोटी बात नहीं है। मगर यह जानकर ही की जानी चाहिए अब। और अब यह जानकर ही होगी; क्योंकि युग बदलता है, प्रौढ़ता बदलती है मस्तिष्क की। घर में यदि मिठाई रखी है, तो हम बच्चों से कह देते हैं कि भूत है कमरे में, मत जाना। कोई भूत नहीं होता, मिठाई होती है। लेकिन मिठाई बच्चा ज्यादा न खा ले। और बच्चे को अभी समझाने का कोई उपाय नहीं होता कि मिठाई ज्यादा खा लोगे तो नुकसान हो जाएगा। तो भूत खड़ा करना पड़ता है। काम हो जाता है— भूत की वजह से बच्चा नहीं जाता। लेकिन बच्चा फिर जवान हो जाता है। अब इसको कहिए, भूत है, तो वह कहता है, रहने दो, कोई फिक्र नहीं। बल्कि भूत की वजह से और आकर्षण पैदा होता है, वह और चला जाता है। वैसे शायद न भी जाता। अब तो उचित है कि इसे पूरी बात ही समझा दी जाए। आदमियत ने जो-जो धारणाएं मनुष्यता के बचपन में निर्मित की थीं, वे सभी की सभी अब अस्तव्यस्त हो गई हैं। अब उचित है कि सीधी और साफ बात कह दी जाए। आज से पांच हजार साल पहले जब गीता कही गई होगी या और भी पहले, तो जो धारणाएं मनुष्य के विकास की बहुत प्राथमिक अवस्थाओं में कही गई थीं, वे अब सब हंसने योग्य हो गई हैं। अगर उन्हें बचाना हो तो उनके राज खोल देने जरूरी हैं, उन्हें सीधा-साफ कह देना जरूरी है कि वे इसलिए हैं। भूत नहीं है, मिठाई है। और मिठाई खाने के नुकसान क्या हैं, वे साफ कह देने उचित हैं। मनुष्य प्रौढ़ हुआ है। और इसलिए मनुष्य सारी दुनिया में अधार्मिक दिखाई पड़ रहा है। यह मनुष्य की प्रौढ़ता है, अधार्मिकता नहीं है। असल में प्रौढ़, एडल्ट आदमी के लिए, एडल्ट ह्यूमैनिटी के लिए, प्रौढ़ हो गई मनुष्यता के लिए, बचपन में दिए गए मनुष्यता को जो सिद्धांत थे, अब उनकी आत्मा को फिर से नए शरीर देने की जरूरत है। 'भी जन्मता है, मरता है। जो भी उत्पन्न होता है, वह UII विनष्ट होता है। जो भी निर्मित होगा, वह बिखरेगा, समाप्त होगा। कृष्ण कह रहे हैं, इसे स्मरण रख भारत, | इसे स्मरण रख कि जो भी बना है. वह मिटेगा। और जो भी बना | है, वह मिटेगा; जो जन्मा है, वह मरेगा-इसका अगर स्मरण हो, | इसकी अगर याददाश्त हो, इसका अगर होश, अवेयरनेस हो, तो | उसके मिटने के लिए दुख का कोई कारण नहीं रह जाता। और जिसके मिटने में दुख का कारण नहीं रह जाता, उसके होने में सुख का कोई कारण नहीं रह जाता। | हमारे सुख-दुख हमारी इस भ्रांति से जन्मते हैं कि जो भी मिला है वह रहेगा। प्रियजन आकर मिलता है, तो सुख मिलता है | लेकिन जो आकर मिला है, वह जाएगा। जहां मिलन है, वहां विरह है। जो मिलन में विरह को देख ले, उसके मिलन का सुख विलीन हो जाता है, उसके विरह का दुख भी विलीन हो जाता है। जो जन्म | में मृत्यु को देख ले, उसकी जन्म की खुशी विदा हो जाती है, उसका | मृत्यु का दुख विदा हो जाता है। और जहां सुख और दुख विदा हो | जाते हैं, वहां जो शेष रह जाता है, उसका नाम ही आनंद है। आनंद | सुख नहीं है। आनंद सुख की बड़ी राशि का नाम नहीं है। आनंद | सुख के स्थिर होने का नाम नहीं है। आनंद मात्र दुख का अभाव नहीं है। आनंद मात्र दुख से बच जाना नहीं है। आनंद सख और दुख दोनों से ही उठ जाना है, दोनों से ही बच जाना है। असल में सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो मिलन में सिर्फ मिलन को देखता और विरह को नहीं देखता, वह क्षणभर के सुख को उपलब्ध होता है। फिर जो विरह में सिर्फ विरह को देखता है, मिलन को नहीं देखता, वह क्षणभर के दुख को | उपलब्ध होता है। और जब कि मिलन और विरह एक ही प्रक्रिया के दो हिस्से हैं: एक ही मैग्नेट के दो पोल हैं: एक ही चीज के दो | छोर हैं। इसलिए जो सुखी हो रहा है, उसे जानना चाहिए, वह दुख की | ओर अग्रसर हो रहा है। जो दुखी हो रहा है, उसे जानना चाहिए, वह सुख की ओर अग्रसर हो रहा है। सुख और दुख एक ही अस्तित्व के दो छोर हैं। और जो भी चीज निर्मित है, जो भी चीज बनी है, वह बिखरेगी; बनने में ही उसका बिखरना छिपा है; निर्मित होने में ही | उसका विनाश छिपा है। जो व्यक्ति इस सत्य को पूरा का पूरा देख लेता है. परा...। हम आधे सत्य देखते हैं और दखी होते हैं। यह बड़े मजे की बात है, असत्य दुख नहीं देता, आधे सत्य दुख मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः । आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत । । १४ ।। हे कुंतीपुत्र, सर्दी-गर्मी और सुख-दुख को देने वाले इंद्रिय और विषयों के संयोग तो क्षणभंगर और अनित्य है। इसलिए, हे भरतवंशी अर्जुन, उनको तू सहन कर। 11000 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SO मृत्यु के पीछे अजन्मा, अमृत और सनातन का दर्शन AM देते हैं। असत्य जैसी कोई चीज है भी नहीं, क्योंकि असत्य का | | अनुभव कर लेता है, ऐसा व्यक्ति ही ज्ञानी है। जिसे जन्म में मृत्यु मतलब ही होता है जो नहीं है। सिर्फ आधे सत्य ही असत्य हैं। वे | की यात्रा दिखाई पड़ जाती है, जिसे सुख में दुख की छाया दिखाई भी हैं इसीलिए कि वे भी सत्य के आधे हिस्से हैं। पूरा सत्य आनंद | | पड़ जाती है, मिलन में विरह आ जाता है जिसके पास, जो प्रतिपल में ले जाता, आधा सत्य सुख-दुख में डांवाडोल करवाता है। विपरीत को मौजूद देखने में समर्थ हो जाता है, वैसा व्यक्ति ही ज्ञानी इस जगत में असत्य से मुक्त नहीं होना है, सिर्फ आधे सत्यों से | | है। देखने में समर्थ हो जाता है-खयाल रखना जरूरी है। ऐसा मुक्त होना है। ऐसा समझिए कि आधा सत्य, हाफ ट्रथ ही असत्य | | मानने में समर्थ हो जाता है, वह ज्ञानी नहीं हो जाता है। मान लिया है। और कोई असत्य है नहीं। असत्य को भी खड़ा होना पड़े तो | | ऐसा, तो काम नहीं चलता है। सत्य के ही आधार पर खड़ा होना पड़ता है, वह अकेला खड़ा नहीं __माने हुए सत्य अस्तित्व के जरा-से धक्के में गिर जाते हैं और हो सकता; उसके पास अपने कोई पैर नहीं हैं। बिखर जाते हैं। जाने हुए सत्य ही जीवन में नहीं बिखरते हैं। जो कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से, तू पूरे सत्य को देख। तू आधे सत्य ऐसा जान लेता है, ऐसा देख लेता है, या कहें कि ऐसा अनुभव कर को देखकर विचलित, पीड़ित, परेशान हो रहा है। | लेता है और बड़े मजे की बात है कि अनुभव करने कहीं दूर जाने जो भी विचलित, पीड़ित, परेशान हो रहा है, वह किसी न किसी की जरूरत नहीं है। जिंदगी रोज मौका देती है, प्रतिपल मौका देती आधे सत्य से परेशान होगा। जहां भी दुख है, जहां भी सुख है, है। ऐसा कोई सुख जाना है आपने, जो दुख न बन गया हो? ऐसा वहां आधा सत्य होगा। और आधा सत्य पूरे समय पूरा सत्य बनने कोई सुख जाना है जीवन में, जो दुख न बन गया हो? ऐसी कोई की कोशिश कर रहा है। | सफलता जानी है, जो विफलता न बन गई हो? ऐसा कोई यश जाना तो जब आप सुखी हो रहे हैं, तभी आपके पैर के नीचे से जमीन | है, जो अपयश न बन गया हो? खिसक गई है और दुख आ गया है। जब आप दुखी हो रहे हैं, तभी | | लाओत्से कहा करता था कि मुझे जीवन में कभी कोई हरा नहीं जरा गौर से देखें, आस-पास कहीं दुख के पीछे सुख छाया की तरह | | पाया। वह मर रहा है, आखिरी क्षण है। तो शिष्यों ने पूछा, वह राज आ रहा है। इधर सुबह होती है, उधर सांझ होती है। इधर दिन हमें भी बता दो, क्योंकि चाहते तो हम भी हैं कि जीतें और कोई हमें निकलता है, उधर रात होती है। इधर रात है, उधर दिन तैयार हो | | हरा न पाए। जरूर बता दें जाने के पहले वह राज, वह सीक्रेट। रहा है। जीवन पूरे समय, अपने से विपरीत में यात्रा है। जीवन पूरे | लाओत्से हंसने लगा। उसने कहा, तुम गलत आदमी हो। तुम्हें समय, अपने.से विपरीत में यात्रा है। एक छोर से दूसरे छोर पर | बताना बेकार है। तुमने मेरी पूरी बात भी न सुनी और बीच में ही पूछ लहरें जा रही हैं। कृष्ण कहते हैं, भारत! पूरा सत्य देख। पूरा तुझे | लिया। मैं इतना ही कह पाया था कि मुझे जिंदगी में कोई हरा नहीं दिखाई पड़े, तो तू अनुद्विग्न हो सकता है। पाया। तुम इतनी जल्दी ही पूछ लिए। पूरी बात तो सुन लो! आगे मैं कहने वाला था कि मुझे जिंदगी में कोई हरा नहीं पाया, क्योंकि मैंने जिंदगी में किसी को जीतना नहीं चाहा। क्योंकि मुझे दिखाई पड़ गया यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ । कि जीता कि हारने की तैयारी की। इसलिए मुझे कोई हरा नहीं पाया, समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ।। १५ ।। क्योंकि मैं कभी जीता ही नहीं। उपाय ही न रहा मुझे हराने का। मुझे क्योंकि, हे पुरुषश्रेष्ठ, दुख-सुख को समान समझने वाले | हराने वाला आदमी ही नहीं था पृथ्वी पर। कोई हरा ही नहीं सकता जिस धोर पुरुष को ये इंद्रियों के विषय व्याकुल नहीं कर था, क्योंकि मैं पहले से ही हारा हुआ था। मैंने जीतने की कोई चेष्टा सकते, वह मोक्ष के लिए योग्य होता है। ही नहीं की। लेकिन तुम कहते हो कि हम भी जीतना चाहते हैं और. हम भी चाहते हैं कि कोई हमें हरा न पाए, तब तो तुम हारोगे। क्योंकि जीत और हार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। रोधी ध्रुवों में बंटा हुआ जो हमारा अस्तित्व है, इन | | कृष्ण कह रहे हैं, वह यह कह रहे हैं कि ऐसा जो देख लेता दोनों के बीच, इन दोनों की आकृतियों के भेद को | | है....! और देखने का ध्यान रखें; यह देखना एक्झिस्टेंशियल देखकर, इनके भीतर की अस्तित्व की एकता को जो | अनुभव है; यह अस्तित्वगत अनुभव है। हम रोज जानते हैं, लेकिन 101 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Im गीता दर्शन भाग-1 AM पता नहीं कैसे चूक जाते हैं देखने से! कैसे अपने को बचा लेते हैं मिलेगा। जिससे भी सुख चाहा, उससे दुख मिलेगा। क्योंकि सब देखने से! शायद कोई बड़ी ही चालाकी हम अपने साथ करते हैं। | | सुख दुख में बदल जाते हैं। जिससे भी मित्रता चाही, उससे शत्रुता अन्यथा ऐसा जीवंत सत्य दिखाई न पड़े, यही आश्चर्य है। | मिलेगी। क्योंकि सभी मित्रताएं शत्रुताओं की शुरुआत हैं। रोज अनुभव में आता है। सब चीजें अपने से विपरीत में बदल | | ट्रिक कहां है मन की? धोखा कहां है? तरकीब? जाती हैं। ज्यादा गहरी मित्रता करें और शत्रता जन्मनी शुरू हो जाती । तरकीब है, अनुभूति के सत्य को, स्थिति के सत्य को, हम है। लेकिन तरकीब क्या है हमारी इससे बच जाने की? तरकीब व्यक्तियों पर थोप देते हैं। फिर नया व्यक्ति खोजने निकल जाते हैं। हमारी यह है कि जब मित्र शत्रु बनने लगता है, तो हम ऐसा नहीं | साइकिल नहीं है घर में, साइकिल खरीद ली। फिर पाते हैं, सोचा समझते हैं कि मित्रता शत्रुता बन रही है, हम समझते हैं कि मित्र | | था कि बहुत सुख मिलेगा, नहीं मिला। लेकिन तब तक यह खयाल शत्रु बन रहा है। बस वहीं भूल हो जाती है। जब एक मित्र शत्रु बनने | | भी नहीं आता कि जिस साइकिल के लिए रात-रातभर सपने देखे लगता है, तो हम समझते हैं कि मित्र शत्रु बन रहा है; दूसरा कोई | | थे कि मिल जाए तो बहुत सुख मिलेगा, अब बिलकुल नहीं मिल मित्र होता तो नहीं बनता, यह आदमी दगाबाज था। तीसरा कोई | | रहा है। लेकिन वह बात ही भूल जाते हैं। तब तक हम कार मिल मित्र होता तो नहीं बनता, यह आदमी दगाबाज था। वह दूसरा मित्र, | जाए तो उसके सुख में लग जाते हैं। फिर कार भी मिल जाती है। आप भी उसके शत्रु बन रहे हैं अब, वह भी यही सोचता है कि यह | फिर भूल जाते हैं कि जितना सुख सोचा था, उतना मिला? वह आदमी गलत आदमी चुन लिया। ठीक आदमी होता तो कभी ऐसा | कभी मिलता नहीं। नहीं होने वाला था। मित्रं जब शत्रु बनता है, तब हम सत्य से वंचित ___ मिलता है दुख, खोजा जाता है सुख। मिलती है घृणा, खोजा रह जाते हैं। सत्य यह है कि मित्रता शत्रुता बन जाती है। लेकिन हम | जाता है प्रेम। मिलता है अंधकार, यात्रा की जाती है सदा प्रकाश मित्र पर थोपकर, फिर दूसरे मित्र की तलाश में निकल जाते हैं। | की। लेकिन इन दोनों को हम कभी जोड़कर नहीं देख पाते, गणित एक आदमी ने अमेरिका में आठ बार शादियां कीं। मगर को हम कभी पूरा नहीं कर पाते। उसका एक कारण और भी खयाल होशियार आदमी रहा होगा। पहली शादी, सालभर बाद तलाक | । में ले लेना जरूरी है। क्योंकि दोनों के बीच में टाइम-गैप होता है, किया। देखा कि पत्नी गलत है। कोई अनहोनी बात नहीं देखी; इसलिए हम नहीं जोड़ पाते हैं। सभी पति देखते हैं, सभी पत्नियां देखती हैं। देखा कि पत्नी गलत | ___ अफ्रीका में जब पहली दफा पश्चिम के लोग पहुंचे, तो बड़े है, चुनाव गलत हो गया। तलाक कर दिया। फिर दूसरी पत्नी चुनी। हैरान हुए। क्योंकि अफ्रीकनों में यह खयाल ही नहीं था कि बच्चों छः महीने बाद पता चला कि फिर गलत हो गया! आठ बार जिंदगी का संभोग से कोई संबंध है। उनको पता ही नहीं था इस बात का में शादी की। लेकिन मैंने कहा कि आदमी होशियार होगा, क्योंकि | | कि बच्चे का जन्म संभोग से किसी भी तरह जुड़ा हुआ है। आठ बार की भूल से भी जो ठीक सत्य पर पहुंच जाए, वह भी | टाइम-गैप बड़ा है। एक तो सभी संभोग से बच्चे पैदा नहीं होते। असाधारण आदमी है। आठ हजार बार करके भी नहीं पहुंचते, | दूसरे नौ महीने का फर्क पड़ता है। अफ्रीका में खयाल ही नहीं था क्योंकि हमारा तर्क तो वही रहता है हर बार। कबीलों में कि बच्चे का कोई संबंध संभोग से है। संभोग से कुछ आठ बार के बाद उसने शादी नहीं की। और उसके मित्रों ने पूछा लेना-देना ही नहीं है। कॉज़ और एफेक्ट में इतना फासला जो कि तमने शादी क्यों न की? तो उसने कहा कि आठ बार में एक | है—कारण नौ महीने पहले, कार्य नौ महीने बाद तो जोड़ नहीं अजीब अनुभव हुआ कि हर बार जिस स्त्री को मैं ठीक समझकर हो पाता। लाया, वह पीछे गलत साबित हुई। तो पहली दफा मैंने सोचा कि ___ सुख को जब हम पकड़ते हैं, जब तक वह दुख बनता है, तब वह स्त्री गलत थी। दूसरी दफे सोचा कि वह स्त्री गलत थी। लेकिन | | तक बीच में टाइम गिरता है समय गिरता है। तो हम जोड़ नहीं पाते तीसरी दफे शक पैदा होने लगा। चौथी दफा तो बात बहुत साफ |कि ये दोनों बिंदु जुड़े हैं। यह वही सुख है जो अब दुख बन गया। दिखाई पड़ने लगी। फिर भी मैंने कहा, एक-दो प्रयोग और कर लेने | नहीं, वह हम नहीं जोड़ पाते। मित्र को शत्रु बनने में समय लगेगा चाहिए। आठवीं बार बात स्पष्ट हो गई कि यह सवाल स्त्री के न! आखिर कुछ भी बनने में समय लगता है। तो जब मित्र बना था गलत और सही होने का नहीं है। जिससे भी सुख चाहा, उससे दुख | तब, और जब शत्रु बना तब, वर्षों बीच में गुजर जाते हैं। जोड़ नहीं 102 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm+ मृत्यु के पीछे अजन्मा, अमृत और सनातन का दर्शन - AM पाते कि मित्र बनने में और शत्रु तक पहुंचने में इतना वक्त लगा। | दो छोर हैं। इसलिए पीड़ित नहीं होता, डांवाडोल नहीं होता, अस्थिर नहीं, मित्र बनने की घटना अलग है और शत्रु बनने की घटना नहीं होता। संतुलन नहीं खोता।। अलग है। तब तय नहीं कर पाते; तब व्यक्ति पर ही थोप देते हैं कि लेकिन इससे बड़ी भ्रांति हुई है। और वह भ्रांति यह हुई है कि गलती व्यक्ति के साथ हो गई है। | जिस आदमी को ठंडी-गरमी का पता न चले, वह ज्ञानी हो गया! कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि तू आर-पार देख, पूरा देख। और | | यह बहुत आसान है। वह काम बहुत कठिन है, जो मैं कह रहा हूं। जो इस पूरे को देख लेता है, वह ज्ञानी हो जाता है। और ज्ञानी को | | ठंडी-गरमी का पता न चले, इसके लिए तो थोड़ा-सा ठंडी-गरमी फिर ठंडा और गरम, सुख और दुख पीड़ा नहीं देते। लेकिन इसका | का अभ्यास करने की जरूरत है। ठंडी-गरमी का पता नहीं चलेगा, यह मतलब मत समझ लेना कि ज्ञानी को ठंडे और गरम का पता | चमड़ी जड़ हो जाएगी, उसका बोध कम हो जाएगा। जरा नाक में, नहीं चलता है नासापुटों में जो थोड़े से गंध के तंतु हैं, अगर दुर्गंध के पास बैठे रहें, ऐसी भ्रांति हुई है, इसलिए मैं कहता हूं। ऐसी भ्रांति हुई है। तब | | वे अभ्यासी हो जाएंगे। तो वह ज्ञानी न हुआ, जड़ हो गया। अगर सेंसिटिविटी मर जाए, तो तो परमहंस भी हो जाते हैं लोग, दुर्गंध के पास बैठकर। नासमझ उसको पता ही न चले। तो कई जड़-बुद्धि ज्ञानी होने के भ्रम में पड़ | उनके चरण भी छूते हैं कि बड़ा परमहंस है, दुर्गंध का पता नहीं जाते हैं, क्योंकि उनको ठंडी और गरमी का पता नहीं चलता। थोड़े | चल रहा है! किस भंगी को पता चलता है? नासापुट नष्ट हो जाते अभ्यास से पता नहीं चलेगा। इसमें कोई कठिनाई तो नहीं है। | हैं। लेकिन इससे भंगी परमहंस नहीं हो जाता। ध्यान रहे, ज्ञानी को ठंडे और गरम से, सुख और दुख से पीड़ा | | खलील जिब्रान ने एक छोटी-सी कहानी लिखी है, वह मैं कहूं, नहीं होती। सुख और दुख में चुनाव नहीं रह जाता, च्वाइस नहीं | फिर आज की बात पूरी करूं। फिर हम सुबह बात करेंगे। रह जाती, च्वाइसलेसनेस हो जाती है। इसका यह मतलब नहीं है। | जिब्रान ने लिखा है कि गांव से, देहात से, एक औरत शहर आई कि दिखाई नहीं पड़ता। इसका यह मतलब नहीं है कि ज्ञानी को | | मछलियां बेचने। मछलियां बेच दीं। लौटती थी सांझ, तो उसकी सुई चुभाएं तो पता नहीं चलेगा। इसका यह मतलब नहीं है कि | सहेली थी शहर में। गांव की ही लड़की थी। उसने उसे ठहरा लिया ज्ञानी के गले में फूल डालें तो सुगंध न आएगी और दुर्गंध फेंकें कि आज रात रुक जा। वह एक माली की पत्नी थी, मालिन थी; तो दुर्गंध न आएगी। बगिया थी सुंदर उसके पास, फूल ही फूल थे। मेहमान घर में आया नहीं, सुगंध और दुर्गंध दोनों आएंगी, शायद आपसे ज्यादा | | है, गरीब मालिन, उसके पास कुछ और तो न था। उसने बड़े आएंगी। उसकी संवेदनशीलता आपसे ज्यादा होगी। उसकी | फूल-मोगरे के, गुलाब के, जुही के, चमेली के-उसके चारों सेंसिटिविटी ज्यादा होगी। क्योंकि वह अस्तित्व के प्रति ज्यादा | | तरफ लाकर रख दिए। सजग होगा; क्षण के प्रति ज्यादा जागा होगा। उसकी अनुभूति | रात उसे नींद न आए। वह करवट बदले, और बदले, और नींद आपसे तीव्र होगी। लेकिन वह यह जानता है कि सुगंध और दुर्गंध, | न आए। मालिन ने उससे पूछा कि नींद नहीं आती? कोई तकलीफ गंध के ही दो छोर हैं। है? उसने कहा, तकलीफ है। ये फूल हटाओ-एक। और मेरी कभी, जहां सुगंध बनती है, उस फैक्टरी के पास से गुजरें तो | | टोकरी, जिसमें मैं मछलियां लाई थी, वह टोकरी मुझे दे दो, उसमें पता चल जाएगा। असल में दुर्गंध को ही सुगंध बनाया जाता है। थोड़ा पानी छिड़क दो। खाद डाल देते हैं और फूल में सुगंध आ जाती है। सुगंध और | अपरिचित मकान हो तो मुश्किल हो जाती है। अपरिचित गंध! दुर्गंध, गंध के ही दो छोर हैं। गंध अगर प्रीतिकर लगती है, तो | | मछलियां आदत का हिस्सा थीं, लेकिन इससे कुछ कोई परमहंस सुगंध मालूम होती है; गंध अप्रीतिकर लगती है, तो दुर्गंध मालूम | नहीं हो जाता। पड़ती है। __ठंडी और गरमी का पता न चले तो कोई ज्ञानी नहीं हो जाता। ऐसा नहीं है कि ज्ञानी को पता नहीं चलता कि क्या सौंदर्य है और सुख-दुख का पता न चले तो कोई ज्ञानी नहीं हो जाता। क्या कुरूप है। बहुत पता चलता है। लेकिन यह भी पता चलता है | सुख-दुख का पूरी तरह पता चले और फिर भी सुख-दुख कि सौंदर्य और कुरूप आकृतियों के दो छोर हैं, एक ही लहर के संतुलन न तोड़ें सुख-दुख का पूरी तरह पता चले, लेकिन सुख में 103 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1 AM भी दुख की छाया दिखे, दुख में भी सुख की छाया दिखे। सुख-दुख आर-पार, ट्रांसपैरेंट दिखाई पड़ने लगें, तो व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध होता है। शेष कल। 104 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 1-2 सातवां प्रवचन भागना नहींजागना है Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm गीता दर्शन भाग-1 - नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। | से, तो भी छाती धड़कती रही है। जागकर देख लिया है कि स्वप्न उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ।। १६ ।। । | था, लेकिन छाती धड़की जा रही है, हाथ-पैर कंपे जा रहे हैं। और हे अर्जुन, असत (वस्तु) का तो अस्तित्व नहीं है और यदि वह स्वप्न बिलकुल ही नहीं होता, तो उसका कोई भी सत का अभाव नहीं है। इस प्रकार, इन दोनों को हम परिणाम नहीं हो सकता था। था, लेकिन उस अर्थ में नहीं था. जिस तत्व-ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है। | अर्थ में जागकर जो दिखाई पड़ता है, वह है। उसे किस कोटि में रखें न होने की, होने की? उसे किस जगह रखें ? था जरूर और फिर भी नहीं है! क पा है सत्य, क्या है असत्य, उसके भेद को पहचान | असत की जो कोटि है, असत की जो केटेगरी है, अनरियल की पपा लेना ही ज्ञान है, प्रज्ञा है। किसे कहें है और | जो कोटि है, वह अनस्तित्व की कोटि नहीं है। अनरियल, असत किसे कहें नहीं है, इन दोनों की भेद-रेखा को | की कोटि अस्तित्व और अनस्तित्व के बीच की कोटि है। ऐसा सत, खींच लेना ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। क्या है स्वप्न | जो सत मालूम पड़ता है, लेकिन नहीं है। और क्या है यथार्थ, इसके अंतर को समझ लेना ही मुक्ति का मार्ग | | लेकिन हम यह कैसे जानेंगे? क्योंकि स्वप्न में तो पता नहीं है। कृष्ण ने इस वचन में कहा है, जो है, और सदा है, और जिसके पड़ता कि जो हम देख रहे हैं, वह नहीं है। स्वप्न में तो मालूम होता न होने का कोई उपाय नहीं है, जिसके न होने की कोई संभावना ही | | है, जो देख रहे हैं, वह बिलकुल है। और ऐसा नहीं है कि पहली नहीं है, वही सत है, वही रियल है। जो है, लेकिन कभी नहीं था दफे स्वप्न देखने में ऐसा मालूम पड़ता हो। जीवनभर स्वप्न देखकर और कभी फिर नहीं हो सकता है, जिसके न हो जाने की संभावना | | भी और रोज सुबह जागकर भी, जानकर कि नहीं था, आज रात है, वही असत है, वही अनरियल है। | फिर जब स्वप्न आएगा, तब स्वप्न में पूरी तरह लगेगा कि है। यहां बहुत समझ लेने जैसी बात है। साधारणतः असत, | | लगता है पूरी तरह कि है; भासता है पूरी तरह कि है; फिर भी सुबह अनरियल हम उसे कहते हैं, जो नहीं है। लेकिन जो नहीं है, उसे तो | जागकर पाते हैं कि नहीं है। असत कहने का भी कोई अर्थ नहीं है। जो नहीं है, उसे तो कुछ भी __ यह जो एपिअरेंस है, भासना है, यह जो दिखाई पड़ना है, यह ' कहने का कोई अर्थ नहीं है। जो नहीं है, उसे इतना भी कहना कि जो होने जैसा धोखा है, इसका नाम असत है। संसार को जब असत वह नहीं है, गलत है, क्योंकि हम है शब्द का प्रयोग कर रहे हैं। कहा है, तो उसका यह अर्थ नहीं है कि संसार नहीं है। उसका इतना जब हम कहते हैं नहीं है, तब भी हम है शब्द का प्रयोग कर रहे हैं। ही अर्थ है कि चेतना की ऐसी अवस्था भी है, जब हम जागने से जो नहीं है, उसके लिए नहीं है, कहना भी गलत है। जो नहीं है, | | भी जागते हैं। अभी हम स्वप्न से जागकर देखते हैं, तो पाते हैं, वह नहीं ही है, उसकी कोई बात ही अर्थहीन है। स्वप्न नहीं है। लेकिन जब हम जागने से भी जागकर देखते हैं, तो इसलिए असत का अर्थ नान-एक्झिस्टेंट नहीं होता है। असत | | पाते हैं कि जिसे जागने में जाना था, वह भी नहीं है। जागने से भी का अर्थ होता है, जो नहीं है, फिर भी है; जो नहीं है, फिर भी होने | | जाग जाने का नाम समाधि है। जिसे अभी हम जागना कह रहे हैं, का भ्रम देता है; जो नहीं है, फिर भी प्रतीत होता है कि है। रात स्वप्न | जब इससे भी जागते हैं, तब पता चलता है कि जो देखा था, वह देखा है, यह नहीं कह सकते कि वह नहीं है। नहीं था, तो देखा | भी नहीं है। कैसे? नहीं था, तो स्वप्न भी हो सके, यह संभव नहीं है। देखा है, | | कृष्ण कह रहे हैं, जिसके आगे-पीछे न होना हो और बीच में जीया है, गुजरे हैं, लेकिन सुबह उठकर कहते हैं कि स्वप्न था। होना हो, वह असत है। जो एक समय था कि नहीं था और एक ___ यह सुबह उठकर जिसे स्वप्न कहते हैं, उसे बिलकुल नहीं, | समय आता है कि नहीं हो जाता है, उसके बीच की जो घटना है, नान-एक्झिस्टेंट नहीं कहा जा सकता। था तो जरूर। देखा है, गुजरे | | बीच की जो हैपनिंग है, दो न होने के बीच जो होना है, उसका नाम हैं। और ऐसा भी नहीं था कि जिसका परिणाम न हुआ हो। जब रात | | असत है; उसका नाम अनरियल है। स्वप्न में भयभीत हुए हैं, तो कंप गए हैं। असली शरीर कंप गया | लेकिन जिसका न होना है ही नहीं, जिसके पीछे भी होना है, है, प्राण कंप गए हैं, रोएं खड़े हो गए हैं। नींद भी टूट गई है स्वप्न | बीच में भी होना है, आगे भी होना है, जो तीनों तलों पर है ही; सोएं [1061 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m-भागना नहीं-जागना है AM तो भी है, जागें तो भी है, जागकर भी जागें तो भी है; निद्रा में भी | जानेंगे कि असत्य क्या है? सत्य पता हो, तो ही असत्य को जान है, जागरण में भी है, समाधि में भी है; जो चेतना की हर स्थिति में | | सकेंगे। और सत्य हमें पता नहीं है। ही है, उसका नाम सत है। और ऐसा जो सत है, वह सदा है, | लेकिन इससे उलटी बात भी कही जा सकती है। और सोफिस्ट सनातन है, अनादि है, अनंत है। उलटी दलील भी देते रहे हैं। वे कहते हैं कि जब तक हमें यही पता जो ऐसे सत को पहचान लेते हैं, वे बीच में आने वाले असत के | नहीं है कि असत्य क्या है, तो हम कैसे समझ लेंगे कि सत्य क्या भंवर को, असत की लहरों को देखकर न सुखी होते हैं, न दुखी | | है! यह चक्रीय तर्क वैसा ही है, जैसे अंडे और मुर्गी का है। कौन होते हैं। क्योंकि वे जानते हैं, जो क्षणभर पहले नहीं था, वह क्षणभर | पहले है? अंडा पहले है या मुर्गी पहले है? कहें कि मुर्गी पहले है बाद नहीं हो जाएगा। दोनों ओर न होने की खाई है, बीच में होने | तो मुश्किल में पड़ जाते हैं, क्योंकि मुर्गी बिना अंडे के नहीं हो का शिखर है। तो स्वप्न है। तो असत है। दोनों ओर होने का ही | | सकेगी। कहें कि अंडा पहले है तो उतनी ही कठिनाई खड़ी हो जाती विस्तार है अंतहीन, तो जो है, वह सत है। है, क्योंकि अंडा बिना मुर्गी के रखे रखा नहीं जा सकेगा। लेकिन कसौटी, कृष्ण कीमती कसौटी हाथ में देते हैं, उससे सत की | | कहीं से प्रारंभ करना पड़ेगा, अन्यथा उस दुष्चक्र में, उस विशियस परख हो सकती है। सुख अभी है, अभी क्षणभर पहले नहीं था, | सर्किल में कहीं कोई प्रारंभ नहीं है। और अभी क्षणभर बाद फिर नहीं हो जाता है। दुख अभी है, क्षणभर | | अगर ठीक से पहचानें, तो मुर्गी और अंडे दो नहीं हैं। इसीलिए पहले नहीं था, क्षणभर बाद नहीं हो जाता है। जीवन अभी है, कल दुष्चक्र पैदा होता है। अंडा, हो रही मुर्गी है; मुर्गी, बन रहा अंडा नहीं था, कल फिर नहीं हो जाता है। जो-जो चीजें बीच में होती हैं है। वे दो नहीं हैं; वे एक ही प्रोसेस, एक ही हिस्से के, एक ही लहर और दोनों छोरों पर नहीं होती हैं, वे बीच में केवल होने का धोखा के दो भाग हैं। और इसीलिए दुष्चक्र पैदा होता है कि कौन पहले! ही दे पाती हैं। क्योंकि जो दोनों ओर नहीं है, वह बीच में भी नहीं उनमें कोई भी पहले नहीं है। एक ही साथ हैं, साइमलटेनियस हैं, हो सकता है। सिर्फ भासता है, दिखाई पड़ता है, एपीअर होता है। युगपत हैं। अंडा मुर्गी है, मुर्गी अंडा है। जीवन की प्रत्येक चीज को इस कसौटी पर कसा जा सकता है। यह सत और असत का भी करीब-करीब सवाल ऐसा है। वह अर्जुन से कृष्ण यही कह रहे हैं कि तू कसकर देख। जो अतीत में | | जिसको हम असत कहते हैं, उसका आधार भी सत है। क्योंकि वह नहीं था, जो भविष्य में नहीं होगा, उसके अभी होने के व्यामोह में | असत भी सत होकर ही भासता है; वह भी दिखाई पड़ता है। एक मत पड़। वह अभी भी वस्तुतः नहीं है; वह अभी भी सिर्फ दिखाई | रस्सी पड़ी है और अंधेरे में सांप दिखाई पड़ती है। सांप का दिखाई पड़ रहा है; वह सिर्फ होने का धोखा दे रहा है। और तू धोखे से | पड़ना बिलकुल ही असत है। पास जाते हैं और पाते हैं कि सांप जाग भी न पाएगा कि वह नहीं हो जाएगा। तू उस पर ध्यान दे, जो | नहीं है, लेकिन पाते हैं कि रस्सी है। वह रस्सी सांप जैसी भास पहले भी था, जो अभी भी है और आगे भी होगा। हो सकता है, | | सकी, पर रस्सी थी भीतर। रस्सी का होना सत है। वह सांप एक वह तुझे दिखाई भी न पड़ रहा हो, लेकिन वही है। तू उसकी ही | क्षण को दिखाई पड़ा, फिर नहीं दिखाई पड़ा, वह असत था। पर तलाश कर, तू उसकी ही खोज कर। वह भी, उसके आधार में भी सत था, सब्सटैंस में, कहीं गहरे में जीवन में सत्य की खोज. असत्य की परख से शरू होती है। ट |सत था। उस सत के ही आभास से, उस सत के ही प्रतिफलन से नो दि फाल्स एज दि फाल्स, मिथ्या को जानना मिथ्या की भांति, वह असत भी भास सका है। असत को पहचान लेना असत की भांति, सत्य की खोज का आधार | लहर के पीछे भी सागर है, मर्त्य के पीछे भी अमृत है, शरीर के है। सत्य को खोजने का और कोई आधार भी नहीं है हमारे पास। पीछे भी आत्मा है, पदार्थ के पीछे भी परमात्मा है। अगर पदार्थ भी हम कैसे खोजें कि सत क्या है? सत्य क्या है? हम ऐसे ही शुरू भासता है, तो परमात्मा के ही प्रतिफलन से, रिफ्लेक्शन से भासता कर सकते हैं कि असत्य क्या है। है, अन्यथा भास नहीं सकता। कई बार बड़ी उलझन पैदा होती है। क्योंकि कहा जा सकता है| आप एक नदी के किनारे खड़े हैं और नीचे आपका प्रतिबिंब कि जब तक हमें सत्य पता न हो, तब तक हम कैसे जानेंगे कि बनता है। निश्चित ही वह प्रतिबिंब आप नहीं हैं, लेकिन वह असत्य क्या है! जब तक हमें सत्य पता न हो, तब तक हम कैसे प्रतिबिंब आपके बिना भी नहीं है। निश्चित ही वह प्रतिबिंब सत नहीं | 107| Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 AM है, पानी पर बनी केवल छवि है। लेकिन फिर भी वह प्रतिबिंब जहां | आप पाएंगे कि आपके भीतर कोई रूपांतरित होता चला जा रहा है। से आ रहा है, वहां सत है। और जहां कल मन पकड़ लेने का होता था, आज वहां मुट्ठी नहीं ___ असत, सत की ही झलक है क्षणभर को मिली। क्षणभर को सत | | बंधती। कल जहां मन रोक लेने का होता था किसी स्थिति को, ने जो आकृति ली, अगर हमने उस आकृति को जोर से पकड़ | | आज वहां हंसकर गुजर जाने का मन होता है। क्योंकि जो दोनों लिया, तो हम असत को पकड़ लेते हैं। और अगर हमने उस | | तरफ नहीं है, उसे पकड़ना, हवा को मुट्ठी में बांधने जैसा है। जितने आकृति में से उसको पहचान लिया जो निराकार, निर्गुण, उस जोर से पकड़ो, उतने ही बाहर हाथ के हो जाती है। मत पकड़ो तो क्षणभर आकृति में झलका था, तो हम सत को पकड़ लेते हैं। बनी रहती है; पकड़ो तो खो जाती है। किन जहां हम खड़े हैं, वहां आकृतियों का जगत है। जहां हम जैसे ही यह दिखाई पड़ गया कि दो नहीं के बीच में जो है. है खड़े हैं, वहां प्रतिफलन ही दिखाई पड़ते हैं। हमारी आंखें इस तरह | मालूम पड़ता है, वह स्वप्न है, वैसे ही आपकी जिंदगी से असत झुकी हैं कि नदी के तट पर कौन खड़ा है, वह दिखाई नहीं पड़ता; की पकड़ गिरनी शुरू हो जाएगी; स्वप्न बिखरना शुरू हो जाएगा। नदी के जल में जो प्रतिबिंब बन रहा है, वही दिखाई पड़ता है। हमें | तब जो शेष रह जाता है, दि रिमेनिंग, वह सत्य है। जिसको आप उससे ही शुरू करना पड़ेगा; हमें असत से ही शुरू करना पड़ेगा। | पूरी तरह जागकर भी नहीं मिटा पाते, जिसको आप पूरी तरह स्मरण हम स्वप्न में हैं, तो स्वप्न से ही शुरू करना पड़ेगा। अगर हम स्वप्न | करके भी नहीं मिटा पाते, जो आपके बावजूद शेष रह जाता है, वही को ठीक से पहचानते जाएं, तो स्वप्न तिरोहित होता चला जाएगा। | सत्य है। वह शाश्वत है; उसका कोई आदि नहीं है, कोई अंत नहीं यह बड़े मजे की बात है, कभी प्रयोग करने जैसा अदभुत है। है। कहना चाहिए, वह टाइमलेस है। रोज रात को सोते समय स्मरण रखकर सोएं, सोते-सोते एक ही यह भी थोड़ा समझ लेने जैसा है। स्मरण रखे रहें कि जब स्वप्न आए तब मझे होश बना रहे कि यह असत हमेशा टाइम में होगा, समय में होगा। क्योंकि जो कल स्वप्न है। बहुत कठिन पड़ेगा, लेकिन संभव हो जाता है। नींद | नहीं था, आज है, और कल नहीं हो जाएगा, उसके समय के तीन लगती जाए, लगती जाए, और आप स्मरण करते जाएं, करते जाएं | विभाजन हुए–अतीत, वर्तमान और भविष्य। लेकिन जो कल भी कि जैसे ही स्वप्न आए, मैं जान पाऊं कि यह स्वप्न है। थोड़े ही था, आज भी है, कल भी होगा, उसके तीन विभाजन नहीं हो दिन में यह संभव हो जाता है. नींद में भी यह स्मति प्रवेश कर जाती सकते। उसका कौन-सा अतीत है? उसका कौन-सा वर्तमान है? है। अचेतन में उतर जाती है। और जैसे ही स्वप्न आता है, वैसे ही | | उसका कौन-सा भविष्य है? वह सिर्फ है। इसलिए सत्य के साथ पता चलता है, यह स्वप्न है। | टाइम सेंस नहीं है, समय की कोई धारणा नहीं है। सत कालातीत लेकिन एक बहुत मजे की घटना है। जैसे ही पता चलता है, यह है, समय के बाहर है। असत समय के भीतर है। स्वप्न है, स्वप्न तत्काल टूट जाता है—तत्काल, इधर पता चला जैसे मैंने कहा, आप नदी के तट पर खड़े हैं और आपका कि यह स्वप्न है कि उधर स्वप्न टूटा और बिखरा। स्वप्न को स्वप्न प्रतिफलन, रिफ्लेक्शन नदी में बन रहा है। आप नदी के बाहर हो की भांति पहचान लेना, उसकी हत्या कर देनी है। वह तभी तक जी सकते हैं, लेकिन रिफ्लेक्शन सदा नदी के भीतर ही बन सकता है। सकता है, जब तक सत्य प्रतीत हो। उसके जीने का आधार उसके | | पानी का माध्यम जरूरी है। कोई भी माध्यम जो दर्पण का काम कर सत्य होने की प्रतीति में है। सके, कोई भी माध्यम जो प्रतिफलन कर सके, वह जरूरी है। इस प्रयोग को जरूर करना ही चाहिए। आपके होने के लिए, कोई प्रतिफलन करने वाले माध्यम की इस प्रयोग के बाद कृष्ण का यह सूत्र बहुत साफ समझ में आ जरूरत नहीं है। लेकिन आपका चित्र बन सके, उसके लिए जाएगा कि वे इतना जोर देकर क्यों कह रहे हैं कि अर्जुन, असत प्रतिफलन के माध्यम की जरूरत है। और सत के बीच की भेद-रेखा को जो पहचान लेता है, वह ज्ञान टाइम, समय प्रतिफलन का माध्यम है। किनारे पर सत खड़ा को उपलब्ध हो जाता है। स्वप्न से ही शुरू करें रात के, फिर बाद होता है, समय में असत पैदा होता है। समय की धारा में, समय के में दिन के स्वप्न को भी जागकर देखें और वहां भी स्मरण रखें कि दर्पण पर, टाइम मिरर पर जो प्रतिफलन बनता है, वह असत है। जो है-दो नहीं के बीच में वह स्वप्न है। और तब अचानक । और समय में कोई भी चीज थिर नहीं हो सकती। जैसे पानी में कोई 11081 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागना नहीं – जागना है 4 भी चीज थिर नहीं हो सकती, क्योंकि पानी अथिर है। इसलिए कितना ही थिर प्रतिबिंब हो, फिर भी कंपता रहेगा। पानी कंपन है। ये जो कंपते हुए प्रतिबिंब हैं समय के दर्पण पर बने हुए, कल थे, अभी हैं, कल नहीं होंगे। कल भी बड़ी बात है; बीते क्षण में थे, नहीं थे, अगले क्षण में नहीं हो जाएंगे। ऐसा जो क्षण-क्षण बदल रहा है, जो क्षणिक है, वह असत है। जो क्षण के पार है, जो सदा है, वही सत है। इसकी भेद-रेखा को जो पहचान लेता, कृष्ण कहते हैं, वह ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है। अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् । विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।। १७ ।। इस न्याय के अनुसार नाशरहित तो उसको जानो कि जिससे यह संपूर्ण जगत व्याप्त है, क्योंकि इस अविनाशी का विनाश करने को कोई भी समर्थ नहीं है। जि सने इस सारे जगत को व्याप्त किया है, वह सूक्ष्मतम अविनाशी है। लेकिन जिससे यह सारा जगत व्याप्त हुआ है, वह वस्तु स्थूल है और विनाशवान है। इसे | ऐसा समझें, एक कमरा है, खाली है, कुछ भी सामान नहीं है। वह जो कमरे का खालीपन है, वह पूरा का पूरा व्याप्त किए है कमरे को । उचित तो यही होगा कि जब कमरा नहीं था, तब भी वह खालीपन था । पीछे हमने दीवारें उठाकर उस खालीपन को चारों तरफ से बंद किया है। कमरा नहीं था, तब भी वह खालीपन था । कमरा नहीं होगा, तब भी वह खालीपन होगा। कमरा है, तब भी वह खालीपन है। कमरा बना है, मिटेगा; कभी नहीं था, कभी नहीं हो जाएगा; पर वह जो खालीपन है, वह जो स्पेस है, वह जो अवकाश है, वह जो आकाश है - वह था, है, रहेगा । उसके लिए था, है, इस तरह के शब्द उचित नहीं हैं। क्योंकि जो कभी भी नहीं नहीं हुआ, उसके लिए है कहना ठीक नहीं है। है सिर्फ उसी चीज के लिए कहना ठीक है, जो नहीं है भी हो सकती है। वृक्ष है, कहना ठीक है; आदमी है, कहना ठीक है; परमात्मा है, कहना ठीक नहीं है। परमात्मा के साथ यह कहना कि परमात्मा है, पुनरुक्ति है, रिपिटीशन है। परमात्मा का अर्थ ही है कि जो है । उसको दोहराने की कोई जरूरत नहीं है कि परमात्मा है। इसका मतलब यह हुआ कि जो है, वह है । कोई और मतलब नहीं हुआ । जो नहीं नहीं हो सकता, उसके लिए है कहना बिलकुल बेमानी है। इसीलिए बुद्ध जैसे परम आस्तिक ने, परमात्मा है, ऐसा शब्द कभी प्रयोग नहीं किया । नासमझ समझे कि नास्तिक है यह आदमी। लेकिन बुद्ध को लगा कि यह तो बड़ी ही भूल भरी बात कहनी है कि परमात्मा है। क्योंकि है सिर्फ उसी के लिए कहना चाहिए, जो नहीं है भी हो जाता है। आदमी है, ठीक है बात। उस पर है हम लगा सकते हैं। है उस पर आई हुई घटना है, कल खो जाएगी। लेकिन परमात्मा है, यह कहना ठीक नहीं है। गॉड इज़ कहना ठीक नहीं है। क्योंकि गॉड का तो मतलब ही इज़नेस है। जो है ही, उसके लिए है कहना, बड़ा कमजोर शब्द उपयोग करना है; गलत शब्द उपयोग करना है; पुनरुक्ति है। खाली जगह है ही । कमरा नहीं था, तब भी थी। फिर कमरे में हम फर्नीचर ले फिर कमरे में हमने तस्वीरें लगा दीं, फिर आए, कमरे में हम आकर बैठ गए। कमरा पूरा सज गया, भर गया। अब इस कमरे में दो चीजें हैं। एक तो वह खालीपन, जो सदा से था; और एक यह भरापन, जो सदा से नहीं था। लेकिन बड़े मजे की बात है कि कमरे का खालीपन हमें कभी दिखाई नहीं पड़ता; कमरे का भरापन दिखाई पड़ता है। कमरे में वही दिखाई पड़ता है, जो भरा हुआ है। वह नहीं दिखाई पड़ता, जो खाली है। किसी भी कमरे में आप प्रवेश करेंगे, तो वही दिखाई पड़ता है, जो वहां है । वह नहीं | दिखाई पड़ता, जो वहां सदा था। वह नहीं दिखाई पड़ता । वह अदृश्य भी है। अगर खालीपन का भी पता चलता है, तो कहना चाहिए कि भरेपन के रिफरेंस में पता चलता है। यह कुर्सी रखी है, तो इसके आस-पास खाली जगह मालूम पड़ती है। इस कुर्सी के आस-पास खाली जगह मालूम पड़ती है। खाली जगह के बीच में यह कुर्सी मालूम नहीं पड़ती। असलियत यही है कि खालीपन के बीच में यह कुर्सी रखी है। कुर्सी हटाई जा सकती है, खालीपन हटाया नहीं जा सकता; भरा जा सकता है, | हटाया नहीं जा सकता । आप एक कमरे से कुर्सी बाहर निकाल ले सकते हैं, क्योंकि कुर्सी कमरे के अस्तित्व का हिस्सा नहीं है। लेकिन कमरे से खालीपन नहीं निकाल सकते। ज्यादा से ज्यादा कमरे में सामान भरकर खालीपन को दबा सकते हैं। अगर कमरे में से सब चीजें निकाल ली जाएं, तो आप कहेंगे, यहां तो कुछ भी नहीं है । और अगर कमरे से सब चीजें निकाल ली गई हों, तो आपको सिर्फ कमरे 109 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Om गीता दर्शन भाग-1 AM की दीवारें दिखाई पड़ेंगी। अगर दीवारें भी निकाल ली जाएं, तो ही जुड़ा है। हम कितना ही कहें सूक्ष्मातिसूक्ष्म, तो भी स्थूल से ही आप कहेंगे, यहां कमरा ही नहीं है। | जुड़ा है। आदमी की भाषा द्वंद्व से बनी है। उसमें पेयर्स हैं, उसमें लेकिन दीवारें कमरा नहीं हैं। दीवारों के बीच में जो खाली जगह दो-दो चीजों के जोड़े हैं। है, वही कमरा है। अंग्रेजी का शब्द रूम बहुत अच्छा है। रूम का | लेकिन कृष्ण जिसे सूक्ष्म कह रहे हैं, वह स्थूल का कोई हिस्सा मतलब होता है, खाली जगह। रूम का मतलब ही होता है, खाली नहीं है। कृष्ण सूक्ष्म कह रहे हैं उसे, जो स्थूल नहीं है। मजबूरी है। जगह। पर वह खाली जगह दिखाई भी नहीं पड़ती, खयाल में भी | लेकिन उसके लिए हमारे पास कोई शब्द नहीं है। इसलिए नहीं आती, क्योंकि खाली जगह का हमें स्मरण ही नहीं है। असल निकटतम गलत शब्द जो हो सकता है, वह सूक्ष्म है। यानी कम से में खाली जगह इतनी सदा से है कि उसे हमें देखने की जरूरत ही | कम गलत शब्द जो हो सकता है, वह सूक्ष्म है। उसके लिए कोई नहीं पड़ी है। शब्द नहीं है। कुछ भी हम कहें।। ठीक ऐसे ही, यह जो विराट आकाश है, यह जो स्पेस है अनंत, हमने जितने शब्द बनाए हैं, वे बड़े मजेदार हैं। हम उलटे से यह जो खाली जगह है, यह जो एंपटीनेस है फैली हुई अनंत तक, | उलटा शब्द भी प्रयोग करें, तो भी कोई अंतर नहीं पड़ता। वह जिसका कोई ओर-छोर नहीं है, जो कहीं शुरू नहीं होती और कहीं | उलटे से उलटा भी हमारे पुराने शब्द से ही जुड़ा होता है। अगर हम समाप्त नहीं होती। कहें कि वह असीम है, तो भी हमें सीमा से ही वह शब्द बनाना आप ध्यान रखें, खाली चीज कभी भी शुरू और समाप्त नहीं हो पड़ता है। सकती, सिर्फ भरी चीज शुरू और समाप्त हो सकती है। खालीपन | अब यह बड़े मजे की बात है कि सीमा में असीम का कोई भाव की कोई बिगनिंग और कोई एंड नहीं हो सकता। कमरे के खालीपन नहीं होता। लेकिन असीम में सीमा का भाव होता है। हम कितनी की कौन-सी शुरुआत है और कौन-सा अंत है? हां, दीवार का ही कल्पना करें असीम की, हम ज्यादा से ज्यादा बहुत बड़ी सीमा होता है, सामान का होता है, कमरे का नहीं होता। स्पेस की कोई की कल्पना करते हैं। हम कितना ही सोचें, तो हमारा मतलब यही सीमाएं नहीं हैं, आकाश का अर्थ ही है कि जिसकी कोई सीमा नहीं | | होता है कि सीमा और आगे हटा दो, और आगे हटा दो, और आगे है। यह जो असीम फैला हुआ है, यह सत है। और इस असीम के | हटा दो। लेकिन सीमा होगी ही नहीं, यह हमारा विचार नहीं सोच । बीच में बहुत कुछ उठता है, बनता है, निर्मित होता है, बिखरता है, पाता। वह इनकंसिवेबल है। उसकी कोई चिंतना नहीं हो सकती वह असत है। असीम की। वृक्ष बने, खालीपन थोड़ी देर के लिए हरा हुआ। फूल खिले, __ जब हम कहते हैं, कमरे में खालीपन है, तो उसका मतलब हमारे खालीपन थोड़ी देर के लिए सुगंध से भरा। फिर फूल गिर गए, फिर | मन में यह होता है कि कमरे में खालीपन भरा है। तो हम एंपटीनेस वृक्ष गिर गया; खालीपन फिर अपनी जगह है। और जब वृक्ष उठा | | को भी वस्तु की तरह उपयोग करते हैं, खालीपन भरा है। जैसे था और फूल खिले थे, तब भी खालीपन में कोई अंतर नहीं पड़ा | | खालीपन कोई चीज है। जब कि खालीपन का मतलब न भरा होना था; वह वैसा ही था। | है, जहां कुछ भी नहीं है। लेकिन अगर हम कुछ भी नहीं का भी चीजें बनती हैं और मिटती हैं। जो बनता है और मिटता है, वह | प्रयोग करें, तो हम कुछ भी नहीं का भी वस्त की तरह प्रयोग करते स्थूल है, वह दिखाई पड़ता है। जो नहीं बनता, नहीं मिटता, वह | | हैं। अंग्रेजी में शब्द है नथिंग, वह बना है नो-थिंग से। नथिंग भी सूक्ष्म है, वह अदृश्य है। सूक्ष्म कहना भी ठीक नहीं है। लेकिन | कहना हो-नहीं कुछ तो भी थिंग, वस्तु उसमें लानी पड़ती है। मजबूरी में कृष्ण ने सूक्ष्म का प्रयोग किया है। उचित नहीं है, लेकिन बिना वस्तु के हम सोच ही नहीं सकते; बिना स्थूल के हम सोच ही मजबूरी है। कोई और उपाय नहीं है। असल में जब हम कहते हैं | नहीं सकते। सूक्ष्म, तो हमारा मतलब यह होता है, स्थूल का ही कोई हिस्सा। ___ इसलिए कृष्ण के इस सूक्ष्म शब्द को आदमी की मजबूरी समझें। जब हम कहते हैं छोटा, तो मतलब होता है कि बड़े का ही कोई इसका मतलब स्थूल का कोई अंश नहीं है, कोई बहुत सूक्ष्म स्थूल हिस्सा। जब हम कहते हैं बहुत सूक्ष्म, तो हमारा मतलब होता है | नहीं है। सूक्ष्म का अर्थ है, जो स्थूल नहीं ही है। और स्थूल क्या कि बहुत कम स्थूल। बाकी मनुष्य की भाषा में सूक्ष्म भी स्थूल से है? जो दिखाई पड़ता है, वह स्थूल है। जो स्पर्श में आता है, वह Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mभागना नहीं-जागना है - स्थूल है। जो सुनाई पड़ता है, वह स्थूल है। असल में जो इंद्रियों नोन बन सकता है; जो अज्ञात है, वह कल ज्ञात हो जाएगा। वह की पकड़ में आता है, वह स्थूल है। सूक्ष्म नहीं है। जिसके ज्ञात होने की अनंत में भी कभी संभावना है, ऐसा भी नहीं है कि आप कल बड़ी दूरबीन बना लें, खुर्दबीन वह सूक्ष्म नहीं है। बना लें और उसकी पकड में आ जाए तो वह सक्षम हो जाएगा। स्थल ही ज्ञात हो सकता है। आज न हो. कल हो जाए। कल न नहीं, जो भी पकड़ में आ जाए, वह स्थूल है। क्योंकि दूरबीन कुछ हो, कभी हो जाए। लेकिन जो भी ज्ञात हो सकता है, वह स्थूल है। नहीं करती, सिर्फ आपकी आंख की इंद्रिय की शक्ति को बड़ा करती जो ज्ञात हो ही नहीं सकता, जो सदा ही ज्ञान के बाहर छूट जाता है, है। आपकी आंख ही जैसे और बड़ी आंख हो जाती है। बड़े से बड़े जो सदा ही जानने की पकड़ के बाहर रह जाता है, अननोएबल, यंत्र भी हम विकसित कर लें, तब भी जो पकड़ में आएगा, वह अज्ञेय है। नहीं, जाना ही नहीं जा सकता जो, वही सूक्ष्म है। इसलिए स्थूल ही होगा। क्योंकि सब यंत्र हमारी इंद्रियों के एक्सटेंशन हैं; वे सूक्ष्म का मतलब ऐसा नहीं है कि हमारे पास अच्छे उपकरण होंगे हमारी इंद्रियों के लिए और जोड़े गए हिस्से हैं। तो हम उसे जान लेंगे। एक आदमी आंख से चश्मा लगाकर देख रहा है। तो जो उसे लोग पूछते हैं कि क्या विज्ञान कभी परमात्मा को जान पाएगा? आंख से नहीं दिखाई पड़ता था, वह अब दिखाई पड़ रहा है। लेकिन जिसे भी विज्ञान जान लेगा, वह परमात्मा नहीं होगा। क्योंकि वह कोई सूक्ष्म चीज नहीं देख रहा है। वैज्ञानिक बड़ी दूर की चीजें परमात्मा से अर्थ ही है कि जो जानने की पकड़ में नहीं आता। किसी देख रहे हैं; बड़े दूर का, लेकिन वह भी स्थूल है। जो भी दिखाई दिन विज्ञान की प्रयोगशाला अगर परमात्मा को पकड़ लेगी, तो वह पड़ेगा, जो भी सनाई पड़ेगा, जो भी स्पर्श में आ जाएगा, इंद्रियों की पदार्थ हो जाएगा। असल में जहां तक परमात्मा पकड़ में आता है, सीमा के भीतर जो भी आ जाएगा, वह स्थूल है। सूक्ष्म का मतलब | उसी का नाम पदार्थ है। और जहां परमात्मा पकड़ में नहीं आता, है, जो मनुष्य की इंद्रियों की सीमा में नहीं आता है, नहीं आ सकता वहीं परमात्मा है। है, नहीं लाया जा सकता है। असल में विचार भी जिसे नहीं पकड़ सूक्ष्म का कृष्ण का अर्थ ठीक से खयाल में ले लेना जरूरी है। सकता, वही सूक्ष्म है। क्योंकि जो सूक्ष्म है, वही सत है। जो पकड़ में आता है, वह असत अब वैज्ञानिक कहते हैं...कल तक वह परमाणु सूक्ष्मतम था। होगा। वह आज होगा, कल नहीं होगा। जो पकड़ में नहीं आता, अब परमाणु भी टूट गया, अब इलेक्ट्रान है, न्यूट्रान है, प्रोटान है। वही सत है। अब वैज्ञानिक कहते हैं कि वे सर्वाधिक सूक्ष्म हैं। क्योंकि अब वे एक कमरे में हम जाएं, वहां फूल रखा है। फूल सुबह ठीक है, दिखाई पड़ने के बाहर ही हो गए। अब अनुमान का ही मामला है। सांझ मुरझा जाएगा। उसी फूल के नीचे शंकर जी की पिंडी रखी है, लेकिन जो अनुमान में भी आता है, वह भी सूक्ष्म नहीं है। क्योंकि पत्थर रखा है। वह सुबह भी था, सांझ भी होगा। लेकिन सौ वर्ष, अनुमान भी मनुष्य के विचार का हिस्सा है। | दो सौ वर्ष, तीन सौ वर्ष, हजार वर्ष–बिखर जाएगा। फूल एक इसलिए वैज्ञानिक जिसे इलेक्ट्रान कह रहे हैं, वह भी कृष्ण का दिन में बिखर गया। पत्थर था, हजारों वर्ष में बिखरा। इससे अंतर सूक्ष्म नहीं है। इलेक्ट्रान के भी पार, ठीक होगा कहना, आलवेज | | नहीं पड़ता। कमरे में सिर्फ एक चीज है जो नहीं बिखरेगी, वह कमरे दि बियांड, जहां तक आप पहुंच जाएंगे, उसके जो पार। वहां भी | का कमरापन है, रूमीनेस है। वह जो खालीपन है, वह भर नहीं पहुंच जाएंगे, तो उसके जो पार, दि ट्रांसेंडेंटल; वह जो सदा बिखरेगा। वही सूक्ष्म है, वही सत है। बाकी कमरे में जो भी है, वह अतिक्रमण कर जाता है, वही सूक्ष्म है। पार होना ही जिसका गुण सब बिखर जाएगा। है। आप जहां तक पकड़ पाते हैं, जो उसके पार सदा शेष रह जाता | | मैंने एक ताओइस्ट चित्रकार की कहानी पढ़ी है। मैंने पढ़ा है कि है; सदा ही शेष रह जाता है और रह जाएगा। | एक ताओ गुरु ने अपने शिष्यों को कहा कि तुम एक चित्र बना ठीक से समझ लेना उचित होगा। हमारे पास दो शब्द हैं- | लाओ। उन्होंने पूछा कि कोई थीम, कोई विषय दे दें। तो उसने अज्ञात, अननोन; अज्ञेय, अननोएबल। साधारणतः जब हम सूक्ष्म | कहा, तुम एक चित्र बना लाओ कि गाय घास चर रही है। वे चित्र को समझने जाते हैं, तो ऐसा लगता है, जो अज्ञात है, अननोन है।। बनाकर ले आए। सभी अच्छे-अच्छे चित्र बनाकर ले आए थे। नहीं, कृष्ण उसे सूक्ष्म नहीं कह रहे हैं। क्योंकि जो अननोन है, वह | लेकिन एक साधु जो चित्र बनाकर लाया था, उसमें जरा चौंकने 111 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 40 वाली बात थी। क्योंकि वह कोरा कागज ही ले आया था। गुरु ने पूछा कि क्या बना नहीं पाए ? उसने कहा कि नहीं, चित्र बना है, देखें। फिर गुरु ने उसके कागज की तरफ देखा, और शिष्यों भी कागज की तरफ देखा; फिर सबने उसकी तरफ देखा और पूछा कि गाय कहां है ! तो उसने कहा, गाय घास चरकर जा चुकी है। उन्होंने पूछा कि घास कहां है? तो उसने कहा कि घास गाय चर गई। तो उन्होंने पूछा, इसमें फिर क्या बचा? तो उसने कहा, जो गाय के पहले भी था और घास के पहले भी था, और गाय के बाद भी बचता है और घास के बाद भी बचता है, वही मैं बना लाया हूं। लेकिन वे सब कहने लगे, यह कोरा कागज है ! पर उसने कहा कि यही बचता है - यह कोरापन । कृष्ण इस कोरेपन को सूक्ष्म कह रहे हैं। जो सब लहरों के उठ जाने, गिर जाने पर बच जाता है। और जो सदा बच जाता है, वही सत है। प्रश्न : भगवान श्री, नथिंगनेस वर्सेस एवरीथिंगनेस में आप कभी आपके प्रवचन में भागना और जागना जो प्रयोग करते हैं, तो मैं उससे भागूं या जागूं, इससे उसको क्या मतलब है? इसमें क्या एफर्ट का तत्व नहीं आता ? और टोटल एक्सेप्टिबिलिटी में ईविल का क्या स्थान होता है ? शू | न्य, नथिंगनेस और सब कुछ, एवरीथिंगनेस, एक ही चीज को कहने के दो ढंग हैं दो ओर से नकार से या विधेय से, निगेटिव से या पाजिटिव से। जब हम कहते हैं शून्य, तो यह हमारा चुनाव है नकार का। जब हम कहते हैं पूर्ण, तो यह हमारा चुनाव है विधेय का। लेकिन मजे की बात है कि सिर्फ शून्य ही पूर्ण होता है और पूर्ण ही शून्य होता है। सिर्फ शून्य ही पूर्ण होता है, क्योंकि शून्य के अपूर्ण होने का कोई उपाय नहीं है। आप अधूरा शून्य नहीं खींच सकते। आप शून्य के दो हिस्से नहीं कर सकते। आप शून्य में से कितना ही निकाल लें, तो भी शून्य में कुछ कम नहीं होता। आप शून्य में कितना ही जोड़ दें, कुछ बढ़ता नहीं। में शून्य का मतलब ही यह है कि उससे बाहर-भीतर कुछ नहीं निकाला जा सकता। का भी मतलब यही है। पूर्ण का मतलब ही यह है कि जिसमें जोड़ने को कुछ नहीं बचा। क्योंकि पूर्ण के बाहर कुछ नहीं बच सकता। दि टोटल, अब उसके बाहर कुछ बचा नहीं, जिसको जोड़ें। जिसमें से कुछ निकालें तो कोई जगह नहीं बची, क्योंकि टोटल के बाहर कोई जगह नहीं बच जाएगी, जिसमें निकाल लें। शून्य से कुछ निकालें, तो पीछे शून्य ही बचता है। शून्य में कुछ जोड़ें, तो उतना ही शून्य रहता है । पूर्ण से कुछ निकालने का उपाय नहीं, पूर्ण में कुछ जोड़ने का उपाय नहीं । क्योंकि पूर्ण में अगर कुछ जोड़ा जा सके, तो इसका मतलब है कि वह अपूर्ण था पहले, अब उसमें कुछ जोड़ा जा सकता है। शून्य और पूर्ण एक ही सत्य के दो नाम हैं। हमारे पास दो रास्ते हैं, जहां से हम नाम दे सकते हैं। या तो हम नकार का उपयोग करें, या विधेय का उपयोग करें। सब कुछ और कुछ भी नहीं, एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। यह हमारा चुनाव है कि हम कैसे इसे. कहें। अगर यह खयाल में आ जाए, तो इस जगत में उठे बहुत बड़े |विवाद की बुनियादी आधारशिला गिर जाती है। N बुद्ध और शंकर के बीच कोई विवाद नहीं है। सिर्फ नकार और विधेय के शब्दों के प्रयोग का फासला और भिन्नता है । बुद्ध नकारात्मक शब्दों का प्रयोग करते हैं। वे कहते हैं, नहीं है, शून्य है, निर्वाण है। निर्वाण का मतलब, दीए का बुझ जाना। जैसे दीया बुझ जाता है; बस, ऐसे ही सब कुछ नहीं हो जाता है। शंकर कहते हैं, सब है, ब्रह्म है, मोक्ष है, ज्ञान है । सब विधेय शब्दों का प्रयोग करते हैं। और बड़े मजे की बात यह है कि ये दोनों इशारे बिलकुल एक चीज की तरफ हैं। शंकर और बुद्ध से करीब दूसरे आदमी खोजना मुश्किल है। लेकिन शंकर और बुद्ध के करीब ही इस मुल्क का सबसे बड़ा विवाद खड़ा हुआ। हां और न | | के बीच कितना फांसला मालूम पड़ता है! इससे ज्यादा उलटे शब्द नहीं हो सकते। लेकिन पूर्ण हां और पूर्ण न के बीच कोई फासला नहीं है। लेकिन वह हमें अनुभव हो जाए दो में से किसी एक का भी, तो ही दिखाई पड़ सकता है। - पूछा है कि मैं कहता हूं, भागें मत, जागें – समग्र के प्रति जागें । क्योंकि भागने का मतलब ही यह है कि हमने समग्र में कुछ चुनाव कर लिया कि इसे छोड़ेंगे, उसे पकड़ेंगे, तभी भागा जा सकता है। भागने का मतलब है कि कुछ हम छोड़ेंगे और कुछ हम पकड़ेंगे। | अगर पूरे को छोड़ें, तो भागकर कहां जाएंगे? अगर पूरे को स्वीकार करें, तो भागकर कहां जाएंगे? अगर त्याग पूर्ण हो, तो भागना नहीं 112 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sim भागना नहीं-जागना है AM हो सकता। भागेंगे कहां? जहां भाग रहे हैं, पूर्ण में वह भी त्यागा | जो न पाया जा सकता है और न छोड़ा जा सकता है, उसका नाम जा चुका है। मक्का भागेंगे? मदीना भागेंगे? काशी भागेंगे? संसार है। सपने न पाए जा सकते हैं, न छोड़े जा सकते हैं। असत हरिद्वार भागेंगे? अगर त्याग पूर्ण है, तो भागना असंभव है। अगर न पाया जा सकता है, न छोड़ा जा सकता है। असत के प्रति केवल भोग भी पूर्ण है, तो भागना असंभव है। भागने की कोई जरूरत | | जागा जा सकता है, वन कैन बी ओनली अवेयर। सपने के प्रति नहीं है। सिर्फ जागा जा सकता है। जो आदमी सपना छोड़कर भाग रहा है, सब अधूरे का खेल है, सब आधे का खेल है। तो जो | वह काफी गहरे सपने में अभी है। क्योंकि जिसको सपना छोड़कर हाफ-हार्टेड, जो आधे हृदय से भोग रहे हैं, उनको पकड़ने का भागना पड़ रहा है, उसे इतना तो पक्का है कि सपना सपना नहीं उपाय है। जो आधे हृदय से त्याग रहे हैं, उनको छोड़ने का उपाय है। भागने योग्य तो मालूम ही हो रहा है। इतना सच तो दिखाई है। लेकिन जो पूरे हृदय से जी रहे हैं, उनको न भागने को कुछ है, पड़ता ही है। न त्यागने को कुछ है। उनको तो सिर्फ जानने को ही कुछ __ कृष्ण को समझेंगे तो दिखाई पड़ेगा। कृष्ण अर्जुन को भागने से है—जागने को ही। ही बचाने की चेष्टा में संलग्न हैं। यह पूरी गीता भागने वालों के प्रश्न भागने का नहीं है, प्रश्न जागने का है। प्रश्न देखने का है, | | खिलाफ है। यह पूरी गीता इस बात के खिलाफ है कि जो भागने दर्शन का है। प्रश्न गहरे में झांकने का है। प्रश्न यह नहीं है कि पदार्थ वाले हैं, वे वही पागलपन को उलटी दिशा में कर रहे हैं, जो पकड़ने से भाग जाओ, क्योंकि कहीं भी भागोगे तो पदार्थ है। प्रश्न यह है | वाले करते हैं। लेकिन सिर्फ पागलपन उलटा हो जाए, शीर्षासन कि पदार्थ में गहरे झांको, ताकि परमात्मा दिखाई पड़े; तब भागने | करने लगे, तो इससे पागलपन नहीं रह जाता, ऐसा नहीं है। कोई की कोई जरूरत न रह जाएगी। पागल शीर्षासन करके खड़ा हो जाए, तो पागलपन मिट जाता है, • आकृतियों से जो भागेगा, वह जाएगा कहां? दूसरी आकृतियों | ऐसा नहीं है। के पास पहुंच जाएगा। स्थानों से भागेगा, दूसरे स्थानों में पहुंच | | भोगी त्यागी हो जाते हैं, संसारी संन्यासी हो जाते हैं, उलटे हो जाएगा। मकानों से भागेगा, दूसरे मकानों में पहुंच जाएगा। लोगों | जाते हैं, तो कोई अंतर नहीं पड़ता। हां, दिशा उलटी दिखाई पड़ने से भागेगा, दूसरे लोगों में पहुंच जाएगा। भागकर जाएंगे कहां? | लगती है, आदमी वही होता है। ढंग उलटे हो जाते हैं, आदमी वही जहां भी भागेंगे वहां संसार है। संसार से नहीं भागा जा सकता। हर होता है। जगह पहुंचकर पता चलेगा, संसार है। फिर वहां से भी भागो, फिर __ कृष्ण गीता में एक बहुत ही अनूठी बात कह रहे हैं। और वे यह वहां से भी भागो-भागते रहो। कह रहे हैं कि संसारी और संन्यासी विपरीत नहीं हैं। एक-दूसरे से __ अगर हम चांद-तारों की रोशनी की गति भी पा जाएं, तो भी उलटे नहीं हैं। संसार से भागकर कोई संन्यासी नहीं होता, संसार संसार के बाहर न भाग सकेंगे। अभी तक कोई चांद-तारा नहीं भाग में जागकर कोई संन्यासी होता है। और जागना हो, तो यहीं जाग सका, अभी तक कोई रोशनी की किरण नहीं भाग सकी संसार के जाओ। कहीं भी भागो, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। जागने के बाहर। अनंत-अनंत यात्रा है रोशनी की किरणों की। लेकिन होगी | | लिए कोई खास जगह नहीं है, कहीं भी जागा जा सकता है। सपने संसार के भीतर ही, भाग नहीं सकतीं। असल में जहां तक भाग मिटाने के लिए खास सपने देखने की जरूरत नहीं है, किसी भी सकते हैं, वहां तक तो संसार होगा ही। नहीं तो भागेंगे कैसे? रास्ता | सपने में जागा जा सकता है। कहां पाएंगे? एक आदमी सपना देख रहा है चोर का, एक आदमी सपना देख जाग सकते हैं। ज्ञानी जागता है, अज्ञानी भागता है। हां, अज्ञानी रहा है साधु का। क्या साधु वाले सपने से जागना आसान है, बजाय के भागने के दो ढंग हैं। कभी वह स्त्री की तरफ भागता है, कभी | | चोर वाले सपने के? दोनों सपने हैं। जागना एक-सा ही है। कोई स्त्री की तरफ से भागता है। कभी धन की तरफ भागता है, कभी | | अंतर नहीं पड़ता। साधु होने के सपने से जागने में भी यही करना धन छोड़ने के लिए भागता है। कभी मुंह करके भागता है संसार की | पडेगा कि जानना पडेगा. यह सपना है। और चोर के सपने से भी तरफ, कभी पीठ करके भांगता है। न मुंह करके कभी संसार को | | जागने के लिए यही करना पड़ेगा कि जानना पड़ेगा कि यह सपना उपलब्ध कर पाता है, न पीठ करके कभी संसार को छोड़ पाता है। है। सपने को सपने की भांति जानना ही जागना है। और सपने को 113 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1-m सत्य की तरह जो मान लेता है, उसके समाने दो विकल्प हैं। या तो | | तो प्रसन्न नहीं होता। कहता नहीं, कि आइए, स्वागत है, बड़ा सपने में डूबे, भोगे; या सपने से भागे और त्यागे। अच्छा हुआ। गीता, भोग और त्याग दोनों की अतियों को सपने के बीच ___ जागने का अर्थ यह है, जहां हैं-कहीं न कहीं हैं, किसी न मानेगी। जागना! और जागने के लिए ही वे कह रहे हैं कि तू पहचान | | किसी सपने में हैं; कोई आश्रम के सपने में होगा, कोई दूकान के अर्जुन, क्या सत है, क्या असत है! यह तू पहचान, तो यह | सपने में होगा—जहां हैं, किसी न किसी सपने में हैं, वहां जागें। पहचान, यह रिकग्नीशन ही तेरा जागरण बन जाने वाला है। इस सपने को पहचानें कि यह सत्य है ? इस बात की जिज्ञासा, इस बात की खोज कि जो मैं देख रहा हूं, वह क्या है? . नहीं, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप कहने लगें, यह सपना है। प्रश्नः भगवान श्री, आप यह तो कहेंगे न कि जागना | अगर आपको कहना पड़े कि यह सपना है, तो जागना नहीं होगा, भी भागने का शीर्षासन है? इतना तो एफर्ट करना तब एफर्ट होगा। अगर आपको कोशिश करनी पड़े कि यह सब पड़ेगा! सपना है, आपको अगर कोशिश करके अपने को समझाना पड़े कि यह सब सपना है, तब तो समझ लेना कि अभी आपको सपने का | पता नहीं चला। सपने का पता अगर चल जाए, तो यह कहने की न हीं, जागना भागने से जरा भी संबंधित नहीं है। | कोई जरूरत नहीं रह जाती कि सब सपना है। सब सपना है, यह UI जागना भागने से संबंधित ही नहीं है। क्योंकि जागने | | तो वही आदमी दोहराता है अपने मन में, जिसे अभी सपने का कोई में भागने का कोई भी तत्व नहीं है, विपरीत तत्व भी | | भी पता नहीं है। नहीं है; दूसरी तरफ भागना भी नहीं है। जागने का मतलब ही है कि | एक सूफी फकीर को मेरे पास लाए थे। वह मित्र जो लाए थे, जो है, उसे हम देखने को तत्पर होते हैं। कहने लगे कि उन फकीर को सब जगह परमात्मा ही परमात्मा धन है, इसके साथ भागने के दो काम हो सकते हैं। एक काम | दिखाई पड़ता है। मैंने उनसे पूछा कि जगह भी दिखाई पड़ती है? हो सकता है कि इसे छाती से लगाकर पकड़कर बैठ जाएं; इसमें | | परमात्मा भी दिखाई पड़ता है ? दोनों दिखाई पड़ते हैं ? उन्होंने कहा, ' से एक पैसा न भाग जाए, इसका ध्यान रखें। दूसरा हो सकता है | | हां, उन्हें कण-कण में परमात्मा दिखाई पड़ता है। तो मैंने कहा, कण कि इससे ऐसे भागें कि लौटकर न देखें। भी दिखाई पड़ता है, कण में परमात्मा भी दिखाई पड़ता है ? ऐसा? मुझे कोई कह रहा था कि विनोबा के सामने पैसा करो, तो दूसरी| उन्होंने कहा, आप कैसी बातें पूछते हैं? मैंने कहा, अगर परमात्मा तरफ मुंह कर लेते हैं। पैसे से इतना डर! तो पैसे में काफी ताकत ही दिखाई पड़ता है, तो अब कण दिखाई नहीं पड़ना चाहिए। और मालूम पड़ती है। रामकृष्ण के पास अगर कोई पैसा रख दे, तो ऐसी कण दिखाई पड़ता है, तो परमात्मा आरोपित होगा, इंपोज्ड होगा। छलांग लगाकर उचकते हैं कि सांप-बिच्छू आ गया। पैसे में कोशिश की गई होगी। सांप-बिच्छ? तो सपना टटा नहीं। सपने ने दसरी शकल ली। | इसलिए जो आदमी कहता है। कण-कण में परमात्मा दिखाई पहले पैसा स्वर्ग मालूम पड़ता था, अब नर्क मालूम पड़ने लगा। पड़ता है, उसे दो चीजें दिखाई पड़ रही हैं, कण भी दिखाई पड़ रहा लेकिन पैसा कुछ है-यह जारी है। है, परमात्मा भी दिखाई पड़ रहा है। ये दोनों चीजें एक साथ दिखाई पैसा कुछ भी नहीं है। है तो लहर है-न भागने योग्य, न नहीं पड़ सकतीं। इनमें से एक ही चीज एक बार दिखाई पड़ सकती पकड़ने योग्य। जागना बहुत और बात है। उसमें पैसे से आंख बंद है। अगर परमात्मा दिखाई पड़ता है, तो कण दिखाई नहीं पड़ता। करने की जरूरत नहीं है, पैसे को छाती से पकड़ लेने की जरूरत | क्योंकि परमात्मा के अतिरिक्त कण की कोई जगह नहीं रह जाती, नहीं है। पैसा वहां है, आप यहां हैं। पैसे ने कभी आपको नहीं | जहां उसे देखें। और अगर कण दिखाई पड़ता है, तो परमात्मा पकड़ा, न पैसा कभी आपसे भागा। आपकी पैसे ने इतनी फिक्र नहीं दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि जब तक कण दिखाई पड़ रहा है, तब की, जितनी फिक्र आप पैसे की कर रहे हैं। पैसा कहीं ज्यादा ज्ञानी तक परमात्मा दिखाई पड़ना मुश्किल है। मालम पड़ता है। आप चले जाओ तो रोता नहीं है. आप आ जाओ | तो मैंने उनसे कहा, कोशिश की होगी, समझाया होगा अपने Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागना नहीं - जागना है 4 को, लिखा है किताबों में कि कण-कण में परमात्मा है। नहीं, उन्होंने कहा कि मुझे वर्षों से दिखाई पड़ता है। तो मैंने कहा, और वर्षों के पहले कोशिश की होगी। मैंने कहा, आप रुकें। मेरे पास रुक जाएं और दो-चार दिन अब देखने की कोशिश न करें। दूसरे दिन सुबह उन्होंने मुझसे कहा कि आपने मुझे भारी | नुकसान पहुंचाया। मेरी तीस साल की साधना खराब कर दी । क्योंकि मैंने रात से कोशिश नहीं की, तो मुझे वृक्ष फिर वृक्ष दिखाई पड़ने लगे। अब मुझे परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता ! तो मैंने कहा, जिसको तीस साल देखकर भी, दो-चार घंटे देखने की कोशिश न की जाए और खो जाता हो, तो आप वृक्षों के ऊपर अपना एक सपना आरोपित कर रहे हैं । उसका परमात्मा से कोई लेना-देना नहीं है। कह रहे हैं कि वृक्ष में परमात्मा है। समझाए जाएं, तो दिखाई पड़ने लगेगा। लेकिन यह वह परमात्मा नहीं है, जिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं। आपको परमात्मा थोपना नहीं है जगत पर, आपको तो जगत के प्रति ही जाग जाना है। जागते से जगत खो जाता है और परमात्मा शेष रह जाता है। आपको सपने समझाना नहीं है अपने को कि यह झूठ है, यह झूठ है। नहीं, सपने को देख लेना है ठीक से, क्या है? और जैसे ही सपने को देख लिया जाता है कि क्या है, तो आप अचानक पाते हैं कि सपना टूट गया और नहीं है। फिर जो शेष रह जाता है, वही सत्य है। प्रयास तो हमें असत्य के लिए करने पड़ते हैं, सत्य के लिए नहीं करने पड़ते हैं। एफर्ट तो असत्य के लिए करना पड़ता है, सत्य के लिए नहीं करना पड़ता। क्योंकि जो सत्य मनुष्य के प्रयास मिलता होगा, वह सत्य नहीं हो सकता। जो सत्य मनुष्य के प्रयास बिना ही मौजूद है, वही सत्य है। सत्य आपको निर्मित नहीं करना है, वह आपका कंस्ट्रक्शन नहीं है कि आप उसका निर्माण करेंगे। सत्य तो है ही । कृपा करके असत्य भर निर्माण न करें; जो है, वह दिखाई पड़ जाएगा। मैं एक वृक्ष शाखा को अपने हाथ से खींच लेता हूं। फिर मैं राह चलते आपसे पूछता हूं कि इस वृक्ष की शाखा को मैंने इसकी जगह से नीचे खींच लिया है, अब मैं इसे इसकी जगह वापस पहुंचाना चाहता हूं, तो क्या करूं? तो आप क्या कहेंगे मुझसे कि कुछ करिए! आप कहेंगे, कृपा करके खींचिए भर मत; छोड़ दीजिए। शाखा अपनी जगह पहुंच जाएगी; शाखा अपनी जगह थी ही; आपकी कृपा से ही अपनी जगह से हट गई है। परमात्मा में पहुंचने के लिए मनुष्य को किसी एफर्ट और प्रयास की जरूरत नहीं है। परमात्मा को खोने के लिए उसने जो प्रयास किया है, कृपा करके उतना प्रयास भर वह न करे, अपनी जगह पहुंच जाएगा। | स्वप्न हमारे निर्माण हैं। सत्य हमारा निर्माण नहीं है। इसलिए बुद्ध को जब ज्ञान हुआ और लोगों ने बुद्ध से पूछा कि तुम्हें क्या मिला ? तो बुद्ध ने कहा, मुझे कुछ मिला नहीं, सिर्फ मैंने कुछ खोया है। तब तो वे बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहा, हम तो सोचते थे कि आपको कुछ मिला है! बुद्ध ने कहा, मिला कुछ भी नहीं। जो था ही, उसे मैंने जाना है। हां, खोया जरूर कुछ । जो-जो मैंने बनाया था, वह मुझे सब देना पड़ा। अज्ञान मैंने खोया और ज्ञान मैंने पाया नहीं, क्योंकि ज्ञान था ही। जिस अज्ञान को मैं जोर से पकड़े था, उसकी वजह से दिखाई नहीं पड़ रहा था। खोया जरूर, पाया कुछ भी नहीं । पाया वही, जो पाया ही हुआ था, | सदा से मिला ही हुआ था । ठीक से समझें तो सिर्फ जागकर देखने की जरूरत है। आंख खोलकर, प्रज्ञा को पूरी तरह जगाकर, चेतना को पूरे होश से अप्रमाद में लाकर देखने भर की जरूरत है कि क्या है ! और जैसे ही हम देखते हैं कि क्या है, उसमें जो नहीं है, वह गिर जाता है; जो है, वह शेष रह जाता है। अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः । अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ।। १८ । और, इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये शरीर नाशवान कहे गए हैं। इसलिए, हे भरतवंशी अर्जुन, तू युद्ध कर । अ र्जुन को युद्ध बड़ा सत्य मालूम पड़ रहा है; देह बहुत सत्य मालूम पड़ रही है; मृत्यु बहुत सत्य मालूम पड़ रही है; उसकी अड़चन स्वाभाविक है। उसकी अड़चन हमारी सबकी अड़चन है। जो हमें सत्य मालूम पड़ता है, वही उसे सत्य मालूम पड़ रहा है। कृष्ण उसे बड़ी दूसरी दुनिया की बातें कह रहे हैं। वे कह रहे हैं कि यह देह, ये शरीरधारी लोग, यह | 115 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग- 14 दिखाई पड़ने वाला सारा जाल - यह स्वप्न है। तू इसकी फिक्र मत और लड़ कृष्ण का लड़ने के लिए यह आह्वान तथाकथित धार्मिक लोगों को, सो काल्ड रिलीजस लोगों को, सदा ही कष्ट का कारण रहा है; समझ के बाहर रहा है। क्योंकि एक तरफ समझाने वाले लोग हैं, जो कहते हैं, चींटी पर पैर पड़ जाए तो बचाना, अहिंसा है। पानी छानकर पीना । दूसरी तरफ यह कृष्ण है, जो कह रहा है कि लड़, क्योंकि यहां न कोई मरता, न कोई मारा जाता। यह सब देह स्वप्न है। अर्जुन साधारणतः ठीक कहता मालूम पड़ता है। गांधी ने चाहा होता कि अर्जुन की बात कृष्ण मान लेते, अहिंसावादियों ने चाहा होता कि कृष्ण की बात न चलती, अर्जुन की चल जाती। लेकिन कृष्ण बड़ी अजीब बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, जो स्वप्न है, उसके लिए तू दुखी हो रहा है ! जो नहीं है, उसके लिए तू पीड़ित और परेशान हो रहा है! साधारण नीति के बहुत पार चली गई बात। इसलिए जब पहली बार गीता के अनुवाद पश्चिम में पहुंचे, तो पश्चिम के नीतिविदों की छातियां कंप गईं। भरोसा न हुआ कि कृष्ण और ऐसी बात कहेंगे। जिन्होंने सिर्फ पुरानी बाइबिल के टेन कमांडमेंट्स पढ़े थे धर्म के नाम पर - जिन्होंने पढ़ा था चोरी मत ,जिन्होंने पढ़ा था असत मत बोल, जिन्होंने पढ़ा था किसी को दुख मत पहुंचा — उनके प्राण अगर कंप गए हों...। बड़ा शॉकिंग था कि कृष्ण कहते हैं कि यह सब स्वप्न है; तू लड़! कर तो पश्चिम के नीतिविदों को लगा कि गीता जैसी किताब नैतिक नहीं है। या तो अनैतिक है या अतिनैतिक है। या तो इम्मारल है या एमारल है। कम से कम मारल तो नहीं है। यह क्या बात है ? और ऐसा पश्चिम में ही लगा हो, ऐसा नहीं, जैन विचारकों ने कृष्ण को नर्क में डाल दिया। जैन चिंतन को अनुभव हुआ कि यह आदमी क्या कह रहा है! मारने की खुली छूट ! अगर अर्जुन का वश चलता तो महाभारत शायद न होता। कृष्ण ने ही करवा दिया। तो अहिंसा की धारा इस मुल्क में भी थी। उसने कृष्ण को नर्क में डालने की जरूरत महसूस की। इस आदमी को नर्क में डाल ही देना चाहिए। यह बड़ा मुद्दा है और बड़े विचार का है। इसमें ध्यान रखना जरूरी है कि नीति धर्म नहीं है, नीति बहुत कामचलाऊ व्यवस्था है। नीति बिलकुल सामाजिक घटना है। नीति स्वप्न के बीच व्यवस्था 'है। स्वप्न में भी रास्तों पर चलना हो तो नियम बनाने पड़ेंगे। स्वप्न में भी जीना हो तो व्यवस्थापन, डिसिप्लिन, शिष्ट- अनुशासन बनाना पड़ेगा। नीति धर्म नहीं है, नीति बिलकुल सामाजिक व्यवस्था है। इसलिए नीति रोज बदल सकती है; समाज बदलेगा और नीति बदलेगी। कल जो ठीक था, वह आज गलत हो जाएगा। आज ठीक है, वह कल गलत हो जाएगा। नीति भी असत का हिस्सा है। इसका यह मतलब नहीं है कि धर्म अनीति है । जब नीति तक असत का हिस्सा है, तो अनीति तो असत का हिस्सा होगी ही । धर्म नीति और अनीति को पार करता है। असल में धर्म संसार को पार | करता है। तो इसलिए कृष्ण की बात जिस तल से कही जा रही है, | उस तल से बहुत मुश्किल से समझी जा सकी है। | जैनों ने नर्क में डाल दिया, वह एक उपाय था, उनसे 'छुटकारा पाने का। गांधी ने पूरी गीता को मेटाफर मान लिया। मान लिया कि यह हुई नहीं है घटना कभी, क्योंकि कृष्ण कहां युद्ध करवा सकते हैं! यह किसी असली युद्ध की बात नहीं है, यह तो शुभ-अशुभ | के बीच जो युद्ध चलता है, उसकी प्रतीक- कथा है, सिम्बालिक है। यह दूसरी तरकीब थी — ज्यादा बली । लेकिन मतलब वही छुटकारा पाने का है। मतलब यह कि यह घटना कभी...। कृष्ण युद्ध कैसे करवा सकते हैं! कृष्ण कैसे कह सकते हैं कि युद्ध करो ! नहीं, कृष्ण तो यह कह ही नहीं सकते। इसलिए अब एक दूसरा उपाय है - होशियारी से कृष्ण से बच जाने का — और वह यह है कि कहो कि मेटाफर है, सिंबल है, एक कहानी है, प्रतीक-कथा है। यह घटना कभी घटी नहीं, ऐसा कोई युद्ध कहीं हुआ नहीं कि जिसमें युद्ध करवाया गया हो। ये सब तो प्रतीकपुरुष हैं - यह अर्जुन और यह दुर्योधन और ये सब - ये व्यक्ति नहीं हैं, ये ऐतिहासिक तथ्य नहीं हैं। यह तो सिर्फ एक पैरेबल है, एक प्रतीक - कथा है, जिसमें शुभ और अशुभ की लड़ाई हो रही है। और अशुभ के खिलाफ लड़ने के लिए कृष्ण कह रहे हैं। अब यह कृष्ण को एकदम विकृत करना है। कृष्ण अशुभ के खिलाफ लड़ने को नहीं कह रहे हैं। अगर कृष्ण को ठीक समझें, तो वे कह रहे हैं कि शुभ और अशुभ एक ही स्वप्न के हिस्से हैं, हिंसा और अहिंसा एक ही स्वप्न के हिस्से हैं। कृष्ण यह नहीं कह | रहे हैं कि हिंसा ठीक है, कृष्ण इतना ही कह रहे हैं कि हिंसा और अहिंसा अच्छे और बुरे आदमी के स्वप्न हैं । स्वप्न ही हैं। और पूरे स्वप्न को स्वप्न की भांति जो जानता है, वह सत्य को उपलब्ध होता है । नीति का अतिक्रमण करती है यह बात । अनैतिक नहीं है। अनीति का भी अतिक्रमण करती है यह बात । 116 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागना नहीं - जागना है 4 इन अर्थों में कृष्ण का संदेश बहुत कठिन हो जाता है समझना। चुनाव आसान पड़ता है - यह बुरा है, यह ठीक है । लेकिन ठीक और बुरा दोनों ही स्वप्न हैं, यहां हमारे पैर डगमगा जाते हैं। लेकिन जो यहां पैर को थिर रख सके, वही गीता में आगे प्रवेश कर सकेगा। इसलिए इस बात को बिलकुल ठीक से समझ लेना कि कृष्ण न हिंसक हैं, न अहिंसक हैं। क्योंकि हिंसक की मान्यता है कि मैं दूसरे मार डालता हूं। और अहिंसक की मान्यता है कि मैं दूसरे को बचा रहा हूं। और कृष्ण कहते हैं कि जो न मारा जा सकता, वह बचाया भी नहीं जा सकता है। न तुम बचा सकते हो, न तुम मार सकते हो। जो है, वह है । और जो नहीं है, वह नहीं है। तुम दोनों एक-दूसरे से विपरीत स्वप्न देख रहे हो । एक आदमी किसी की छाती में छुरा भोंक देता है, तो सोचता है, • मिटा डाला इसे । और दूसरा आदमी उसकी छाती से छुरा निकाल कर मलहम पट्टी करता है, और सोचता है, बचा लिया इसे । इन दोनों ने सपने देखे विपरीत - एक बुरे आदमी का सपना, एक अच्छे आदमी का सपना। और हम चाहेंगे कि अगर सपना ही देखना है, तो अधिक लोग अच्छे आदमी का सपना देखें। लेकिन कृष्ण यह कह रहे हैं कि दोनों सपने हैं। और एक और तल है देखने का, जहां बचाने वाला और मारने वाला एक सी ही भूल कर रहा है। वह भूल यही है कि जो है, उसे या तो मिटाया जा सकता है, या बचाया जा सकता है। कृष्ण कह रहे हैं, जो नहीं है, वह नहीं है; जो है, वह है। वे यह नहीं कह रहे हैं कि बुरे आदमी का सपना देखें, वे यह कह रहे हैं कि दोनों ही सपने हैं । और अगर देखना ही है, तो पूरे सपने को देखें, ताकि जाग जाएं। अगर देखना ही है, तो बुरे-अच्छे आदमी के सपनों में चुनाव न करें, पूरे सपने को ही देखें और जाग जाएं। यह जागरण की, अवेयरनेस की जो प्रक्रिया कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं, वह अर्जुन की कैसे समझ में आएगी, बड़ी कठिनाई है। क्योंकि अर्जुन बड़ी नीतिवादी बातें कर रहा है । और वह नैतिक सपना देखने को बड़ा उत्सुक है। वह अनैतिक सपने से ऊबा हुआ मालूम पड़ता है। अब वह नैतिक सपना देखने को उत्सुक है। और कृष्ण कहते हैं, सपने में ही चुनाव कर रहा है। पूरे सपने के प्रति ही जाग जाना है। एक सूत्र और पढ़ लें, फिर रात हम बात करेंगे। य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् । उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते । । १९ । । और, जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है, तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों हीं नहीं जानते हैं। क्योंकि, यह आत्मा न मारता है और न मारा जाता है। जो है, वह न मरता है और न मारा जाता है। और जो है हमारे भीतर, उसका नाम आत्मा है। और जो है हमारे बाहर, उसका नाम परमात्मा है। जो मारा जाता है और जो मार सकता है, या जो अनुभव करता है कि मारा गया – हमारे भीतर उसका नाम शरीर है, हमारे बाहर उसका नाम जगत है। जो अमृत है, जो इम्मार्टल है, वही चेतना है । और जो मर्त्य है, वही जड़ है। साथ ही, जो मर्त्य है, वही लहर है, असत है; और जो अमृत है, वही सागर है, सत है। अर्जुन के मन में यही चिंता, दुविधा और पीड़ा है कि मैं कैसे मारने में संलग्न हो जाऊं ! इससे तो बेहतर है, मैं ही मर जाऊं । ये दोनों बातें एक साथ ही होंगी। जो दूसरे को सोच सकता है मरने | की भाषा में, वह अपने को भी मरने की भाषा में सोच सकता है। | जो सोच सकता है कि मृत्यु संभव है, वह स्वभावतः दुखी हो जाएगा। लेकिन कृष्ण कह रहे हैं कि मृत्यु एक मात्र असंभावना है – दि ओनली इंपासिबिलिटी । मृत्यु हो ही नहीं सकती । मृत्यु की असंभावना है। लेकिन जिंदगी जहां हम जीते हैं, वहां तो मृत्यु से ज्यादा निश्चित और कोई संभावना नहीं है। वहां सब चीजें असंभव हो सकती हैं, मृत्यु भर सुनिश्चित रूप से संभव है। एक बात तय है, वह है मृत्यु । और सब बातें तय नहीं हैं। और सब बदलाहट हो सकती है। कोई दुखी होगा, कोई सुखी होगा। कोई स्वस्थ होगा, कोई बीमार होगा। कोई सफल होगा, कोई असफल होगा। कोई दीन होगा, कोई | सम्राट होगा । और सब होगा, और सब विकल्प खुले हैं, एक | विकल्प बंद है। वह मृत्यु का विकल्प है, वह होगा ही । सम्राट भी वहां पहुंचेगा, भिखारी भी वहां पहुंचेगा; सफल भी, असफल भी; स्वस्थ भी, बीमार भी - सब वहां पहुंच जाएंगे। एक बात, जिस जीवन में हम खड़े हैं, वहां तय है, वह मृत्यु है। और कृष्ण बिलकुल उलटी बात कह रहे हैं, वे यह कह रहे हैं कि एक बात भर सुनिश्चित है कि मृत्यु असंभावना हैं। न कभी 117 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m- गीता दर्शन भाग-1-4m कोई मरा और न कभी कोई मर सकता है। मृत्यु अकेला भ्रम है। | फिर चलने लगी, हृदय फिर धड़कने लगा, खून फिर बहने लगा, शायद इस मृत्यु के आस-पास ही हमारे जीवन के सारे कोण निर्मित | नाड़ी फिर वापस लौट आई। और उन्होंने कहा, फिर सर्टिफिकेट होते हैं। जो देखता है कि मृत्यु सत्य है, उसके जीवन में शरीर से | लिखें कि इस आदमी के बाबत क्या खयाल है! उन डाक्टरों ने ज्यादा का अनुभव नहीं है। कहा, हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए। आप हम पर कोई अदालत में __यह बड़े मजे की बात है कि आपको मृत्यु का कोई भी अनुभव मुकदमा तो न चलाएंगे? क्योंकि मेडिकल साइंस जो कह सकती नहीं है। आपने दूसरों को मरते देखा है, अपने को मरते कभी नहीं | थी, हमने कह दिया। तो ब्रह्मयोगी ने कहा, मुझे यह भी लिखकर देखा है। दें कि अब तक जितने लोगों को आपने मरने के सर्टिफिकेट दिए समझें कि एक व्यक्ति को हम विकसित करें, जिसने मृत्यु न | हैं, वे संदिग्ध हो गए हैं। देखी हो, किसी को मरते न देखा हो। कल्पना कर लें, एक व्यक्ति असल में जिसे हम मृत्यु कह रहे हैं, वह जीवन का शरीर से को हम इस तरह बड़ा करते हैं, जिसने मृत्यु नहीं देखी। क्या यह | सरक जाना है। जैसे कोई दीया अपनी किरणों को सिकोड़ ले आदमी कभी भी सोच पाएगा कि मैं मर जाऊंगा? क्या इसके मन वापस, ऐसे जीवन का फैलाव वापस सिकुड़ जाता है, बीज में में कभी भी यह कल्पना भी उठ सकती है कि मैं मर जाऊंगा? । वापस लौट जाता है। फिर नई यात्रा पर निकल जाता है। लेकिन असंभव है। मृत्यु इनफरेंस है, अनुमान है; दूसरे को मरते | बाहर से इस सिकुड़ने को हम मृत्यु समझ लेते हैं। देखकर। और मजा यह है कि जब दूसरा मरता है तो आप मृत्यु नहीं बटन दबा दी हमने, बिजली का बल्ब जलता था, किरणें समाप्त देख रहे, क्योंकि मृत्यु की घटना आपके लिए सिर्फ इतनी है कि वह | हो गईं। बल्ब से अंधकार झरने लगा। क्या बिजली मर गई? सिर्फ कल तक बोलता था. अब नहीं बोलता: कल तक चलता था. अब अभिव्यक्ति खो गई। सिर्फ मैनिफेस्टेशन बंद हो गया। फिर बटन नहीं चलता। आप चलते हुए को, न चलते की अवस्था में गया दबाते हैं, फिर किरणें बिजली की वापस बहने लगीं। क्या बिजली हुआ देख रहे हैं। बोलते हुए को, न बोलते की अवस्था में देख रहे पुनरुज्जीवित हो गई? क्योंकि जो मरी नहीं थी, उसको पुनरुज्जीवित हैं। धड़कते हृदय को, न धड़कते हृदय की अवस्था में देख रहे हैं। | कहने का कोई अर्थ नहीं है। बिजली पूरे समय वहीं थी, सिर्फ लेकिन क्या इतने से काफी है कि आप कहें, जो भीतर था, वह मर अभिव्यक्ति खो गई थी। गया? क्या इतना पर्याप्त है ? क्या इतना काफी है ? मृत्यु की निष्पत्ति जिसे हम मृत्यु कहते हैं, वह प्रकट का फिर पुनः अप्रकट हो लेने को क्या यह काफी हो गया? यह काफी नहीं है। | जाना है। जिसे हम जन्म कहते हैं, वह अप्रकट का पुनः प्रकट हो दक्षिण में एक योगी थे कुछ वर्षों पहले, ब्रह्मयोगी। उन्होंने | | जाना है। आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में, और कलकत्ता और रंगून युनिवर्सिटी | कृष्ण कहते हैं, न ही शरीर को मारने से आत्मा मरती है, न ही में तीन जगह मरने का प्रयोग करके दिखाया। वह बहुत कीमती | | शरीर को बचाने से आत्मा बचती है। आत्मा न मरती है, न बचती प्रयोग था। वह दस मिनट के लिए मर जाते थे। है। असल में जो मरने और बचने के पार है, वही आत्मा है, वही जब आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में उनका प्रयोग हुआ तो डाक्टर्स अस्तित्व है। .. मौजूद थे। और उन्होंने कहा कि इस दस मिनट में आप मेरी शेष सांझ हम बात करेंगे। जांच-पड़ताल करके लिख दें सर्टिफिकेट कि यह आदमी मर गया कि जिंदा है। फिर उनकी श्वास खो गई। फिर उनकी नाड़ी बंद हो गई। फिर हृदय ने धड़कना बंद कर दिया। फिर खून की चाल सब शांत हो गई। और दस डाक्टरों ने-आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के मेडिकल कालेज के सर्टिफिकेट लिखा कि यह आदमी मर गया है। और मरने के सारे सिम्प्टम्स इस आदमी ने पूरे कर दिए हैं। और दस आदमियों ने दस्तखत किए। और वे ब्रह्मयोगी दस मिनट के बाद वापस जिंदा हो गए। श्वास Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 1-2 आठवां प्रवचन मरणधर्मा शरीर और अमृत, अरूप आत्मा Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m गीता दर्शन भाग-1 -- प्रश्नः भगवान श्री, किसी मरते और मिटते को बचा पाएं, तो कोई अर्थ नहीं है। य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम। नहीं. महावीर और बद्ध की अहिंसा का अर्थ और है। यह बचाने उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।। की आकांक्षा, यह न मारने की आकांक्षा! यह मारने में रस न लेने इस श्लोक के बारे में सुबह जो चर्चा हुई, उसमें | की स्थिति, यह बचाने में रस लेने का मनोभाव! जब महावीर एक आत्मा यदि हननकर्ता नहीं या हनन्य भी नहीं है, तो | चींटी को बचाकर निकलते हैं, तो ऐसा नहीं है कि महावीर के बचाने जनरल डायर या नाजियों के कनसनट्रेशन कैंप की | से चींटी बच जाती है। चींटी में जो बचने वाला है, बचा ही रहेगा; घटनाएं कैसे जस्टिफाई हो सकती हैं! टोटल | और जो नहीं बचने वाला है, वह महावीर के बचाने से नहीं बचता एक्सेप्टिबिलिटी में इनकी क्या उपादेयता है? है। लेकिन महावीर का यह भाव बचाकर निकलने का बड़ा कीमती है। इस भाव से चींटी को कोई लाभ-हानि नहीं होती, लेकिन महावीर को जरूर होती है। - कोई मरता है और न कोई मारता है; जो है, उसके | - बहुत गहरे में प्रश्न भाव का है, घटना का नहीं है। बहुत गहरे UI विनाश की कोई संभावना नहीं है। तब क्या इसका यह | में प्रश्न भावना का है, वह व्यक्ति क्या सोच रहा है। क्योंकि व्यक्ति अर्थ लिया जाए कि हिंसा करने में कोई भी बुराई नहीं | जीता है अपने विचारों में घिरा हुआ। घटनाएं घटती हैं यथार्थ में, है? क्या इसका यह अर्थ लिया जाए कि जनरल डायर ने या व्यक्ति जीता है विचार में, भाव में। आउश्वित्ज में जर्मनी में या हिरोशिमा में जो महान हिंसा हुई, वह | | हिंसा बुरी है; कृष्ण के यह कहने के बाद भी बुरी है कि हिंसा निंदा योग्य नहीं है? स्वीकार योग्य है? | नहीं होती। और कृष्ण का कहना जरा भी गलत नहीं है। असल में नहीं, कृष्ण का ऐसा अर्थ नहीं है। इसे समझ लेना उपयोगी है। | कृष्ण अस्तित्व से कह रहे हैं; अस्तित्व के बीच खोज रहे हैं। हिंसा नहीं होती, इसका यह अर्थ नहीं है कि हिंसा करने की | हिटलर जब लोगों को मार रहा है, तो कृष्ण की मनोदशा में नहीं आकांक्षा बुरी नहीं है। हिंसा तो होती ही नहीं, लेकिन हिंसा की | | है। हिटलर को लोगों को मारने में रस और आनंद है—मिटाने में, आकांक्षा होती है, हिंसा का अभिप्राय होता है, हिंसा की मनोदशा | विनाश करने में। विनाश होता है या नहीं होता है, यह बिलकुल होती है। | दूसरी बात है। लेकिन हिटलर को विनाश में रस है। यह रस हिंसा जो हिंसा करने के लिए इच्छा रख रहा है, जो दूसरे को मारने में रस ले रहा है, जो दूसरे को मारकर प्रसन्न हो रहा है, जो दूसरे को ___ अगर ठीक से समझें, तो विनाश का रस हिंसा है, मारने की मारकर समझ रहा है कि मैंने मारा-कोई नहीं मरेगा पीछे-लेकिन इच्छा हिंसा है। मरना होता है या नहीं होता है, यह बिलकुल दूसरी इस आदमी की यह समझ कि मैंने मारा, इस आदमी का यह रस कि | बात है। और यह जो रस हिटलर का है, यह एक डिसीज्ड, रुग्ण मारने में मजा मिला, इस आदमी की यह मनोकांक्षा कि मारना संभव | चित्त का रस है। है, इस सबका पाप है। समझ लेना जरूरी है कि जब भी विनाश में रस मालूम पड़े, तो पाप हिंसा होने में नहीं है, पाप हिंसा करने में है। होना तो | | ऐसा आदमी भीतर विक्षिप्त है। जितना ही भीतर आदमी शांत और असंभव है, करना संभव है। जब एक व्यक्ति हिंसा कर रहा है, तो | आनंदित होगा. उतना ही विनाश में रस असंभव है। जितना ही दो चीजें हैं वहां। हिंसा की घटना तो, कृष्ण कहते हैं, असंभव है, | | भीतर आनंदित होगा, उतना सृजन में रस होगा, उतना क्रिएटिविटी लेकिन हिंसा की मनोभावना बिलकुल संभव है। में रस होगा। ठीक इससे उलटा भी सोच लें कि फिर क्या महावीर की अहिंसा महावीर की अहिंसा एक क्रिएटिव फीलिंग है, जगत के प्रति और बुद्ध की अहिंसा का कोई अर्थ नहीं? अगर हिरोशिमा और | । एक सृजनात्मक भाव है। हिटलर की हिंसा जगत के प्रति एक आउश्वित्ज के कनसनट्रेशन कैंप्स में होने वाली हिंसा का कोई अर्थ | । विनाशात्मक भाव है, एक डिस्ट्रक्टिव भाव है। यह भाव नहीं है, तो बुद्ध और महावीर की अहिंसा का भी कोई अर्थ नहीं रह | महत्वपूर्ण है। और जहां हम जी रहे हैं, वहां अस्तित्व में क्या होता जाता। अगर आप समझते हों कि अहिंसा का अर्थ तभी है, जब हम | | है, यह मूल्यवान नहीं है। 120 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मरणधर्मा शरीर और अमृत, अरूप आत्मा HAR मैं एक छोटी-सी घटना से समझाने की कोशिश करूं। ने कहा, मुझे याद ही न रहा, क्योंकि जब से यह दिखाई पड़ने लगा कबीर के घर बहत भक्त आते हैं। गीत. भजन...। और जब | कि सभी एक हैं, तब से कुछ अपना न रहा, कुछ पराया न रहा। जाने लगते हैं, तो कबीर कहते हैं, भोजन करते जाएं। फिर कबीर | वह दूसरे का है, तब चोरी पाप है। लेकिन वह याद ही न रहा, तूने का बेटा और पत्नी परेशान हो गए। बेटे ने एक दिन कहा कि अब | ठीक याद दिला दिया। लेकिन तूने पहले याद क्यों न दिलाया! बरदाश्त के बाहर है। हम कब तक कर्ज लेते जाएं! यह हम कहां कबीर कह रहे हैं, वह दूसरे का है, तब तक तो चोरी पाप है। से लोगों को खिलाएं! अब आप कहना बंद करें। लेकिन अगर दूसरे की कोई चीज नहीं रह गई, अगर सभी एक का कबीर ने कहा कि मुझे याद ही नहीं रहती; जब घर कोई मेहमान ही है; और उस तरफ जो श्वास चलती है, वह भी मेरी है; और इस आता है, तो मुझे खयाल ही नहीं रहता कि घर में कुछ नहीं है। और तरफ जो श्वास चलती है, वह भी मेरी है तो इस तल पर चोरी घर कोई आया हो तो कैसे खयाल रखा जाए कि घर में कुछ नहीं | | के पाप होने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। लेकिन यह अस्तित्व के है! तो मैं कहे ही जाता हूं कि भोजन करते जाएं। फिर तो बेटे ने तल की बात हुई। यह ब्रह्मज्ञान में प्रविष्ट व्यक्ति की बात हुई। कहा, तो क्या हम चोरी करने लगें? व्यंग्य में कहा, क्रोध में कहा तो कबीर ने कहा, अगर न जगा सकता हो तो वापस लौटा दे। कि क्या हम चोरी करने लगें! कबीर ने कहा कि अरे, तुझे यह पहले क्योंकि अपने को ही अगर हम खबर करने में डरते हैं, तो चीज फिर खयाल क्यों न आया! वह बेटा तो हैरान हुआ, क्योंकि उसे आशा | | अपनी नहीं है। तो फिर वापस लौटा दे। किससे बचकर ले जाना है? न थी कि कबीर और ऐसा कहेंगे। तो उसने कहा. तो फिर आज मैं | अब यह बहुत दो तलों की बात हो गई, यह दो एक्झिस्टेंस की चोरी करने जाऊं? वह बेटा भी साधारण नहीं था; कबीर का ही | बात हो गई। इसे ठीक से खयाल में ले लें। एक तो अस्तित्व का बेटा था। मैं आज चोरी करने जाऊं? कबीर ने कहा, बिलकुल। तो जगत है, जहां सभी कुछ परमात्मा का है, वहां चोरी नहीं हो बेटे ने और परीक्षा लेने के लिए कहा, आप भी चलिएगा? कबीर सकती। कबीर उसी जगत में जी रहे हैं। एक मनोभावों का जगत ने कहा, चला चलूंगा। | है, जहां दूसरा दुसरा है, में में है; मेरी चीज मेरी है. दसरे की चीज रात हो गई, बेटे ने कहा, चलें। बेटा भी आखिरी तर्क की सीमा | दूसरे की है। वहां चोरी होती है, हो रही है, हो सकती है। तक देखना चाहता था कि बात क्या है, क्या कबीर चोरी करने को ___ जब तक दूसरे की चीज दूसरे की है, तब तक चोरी पाप है। चोरी राजी हैं? कबीर-और चोरी करने को राजी! बेटे की समझ के घटित होती नहीं, सिर्फ चीजें यहां से वहां रखी जाती हैं। चोरी की बिलकुल बाहर है। अर्जुन की समझ के भी बाहर है कि कृष्ण हिंसा क्या घटना घट सकती है इस जमीन पर! कल न मैं रहूंगा, न आप करने को राजी हैं। | रहेंगे। मेरी चीजें भी मेरी नहीं रह जाएंगी, आपकी चीजें भी आपकी ले गया कबीर का बेटा कमाल कबीर को। फिर जाकर दीवार | | नहीं रह जाएंगी। चीजें यहां पड़ी हैं-इस घर में या उस घर में, क्या तोड़ी। दीवार तोड़कर बीच-बीच में देखता भी रहा। कबीर उससे | फर्क पड़ेगा! कहते हैं, इतना घबड़ाता क्यों है? इतना कंपता क्यों है? उसने __ अस्तित्व के तल पर चोरी नहीं घटती, भाव के तल पर चोरी दीवार भी तोड़ ली। फिर उसने कहा, मैं भीतर जाऊं? कबीर ने कहा | घटती है। अगर हिटलर यह कह सके कि मरने में हिंसा होती ही कि जरूर जा। वह भीतर भी गया। वह एक गेहूं का बोरा घसीटकर | | नहीं, तो हिटलर को फिर अपने आस-पास संतरी खड़े करने की भी लाया। उसने सोचा, अब रोकेंगे, अब रोकेंगे। अब तो बहुत हो | जरूरत नहीं। फिर वह आउश्वित्ज में मारे लोगों को, तो हमें कोई गया, हद्द हो गई। कबीर ने बोरा भी बाहर निकलवा लिया। फिर | | एतराज न होगा। लेकिन खुद को बचाने के लिए जो तत्पर है, दूसरे बेटे से कहा, भीतर जाकर, घर में लोग सोए होंगे, उनको कह | को मारने को जो आतुर है, वह जानता है, मानता है कि हिंसा होती आओ कि तुम्हारे घर चोरी हो गई है, हम एक बोरा ले जा रहे हैं। है। खुद को जो बचा रहा है। तो उस बेटे ने कहा, यह किस प्रकार की चोरी है? चोरी कहीं बताई ___ अगर कृष्ण अर्जुन से यह कहें कि ये कोई मरने वाले नहीं हैं, जाती है? तो कबीर ने कहा कि जो चोरी बताई नहीं जा सकती, वह | | बेफिक्री से मार, लेकिन तू मरने वाला है, जरा अपने को सम्हालना, फिर पाप हो गई। खबर करो! तो बेटे ने कहा कि मैं इतनी देर से बचाना। तब फिर बेईमानी हो जाएगी। लेकिन कृष्ण उससे कहते हैं परेशान ही था कि यह किस तरह आप चोरी करवा रहे हैं! कबीर कि न कोई मरता है, न कोई मारा जाता है। अगर ये भी तुझे मार 121 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mगीता दर्शन भाग-1 AM डालें, तो भी कुछ मरता नहीं। अगर तू भी इन्हें मार डाले, तो भी | | हो जाता है, कृष्ण को ही खींचकर हम अपने तल पर ले आते हैं। कुछ मरता नहीं। वे बहुत अस्तित्व की गहरी बात कह रहे हैं। इतना | तब हम ऐट ईज़, सुविधा में हो जाते हैं। तब हम कह पाते हैं, सब स्मरण रखना जरूरी है। | माया है; सब माया है; बेईमानी कर पाते हैं, कह पाते हैं, माया है। हिरोशिमा में हिंसा हुई, क्योंकि जिन्होंने बम पटका, वे मारने के | अब बड़े मजे की बात है कि जिस आदमी को माया दिखाई पड़ रही लिए पटके थे। हिटलर ने हिंसा की, क्योंकि वह मानकर चल रहा | | है, वह आदमी बेईमानी करने में इतना रसलिप्त हो सकता है? है कि दूसरे को मार रहे हैं। मरता है, नहीं मरता है, यह बहुत दूसरी एक मित्र आए। कहने लगे, जब से ध्यान करने लगा हूं, तो मन बात है। इससे हिटलर का कोई लेना-देना नहीं है। जब तक मैं सरल हो गया है। एक आदमी धोखा देकर मेरा झोला ले गया। ऐसे अपने को बचाने को उत्सुक हूं, तब तक मैं दूसरे को मारने को | | तो सब माया है-उन्होंने कहा-ऐसे तो सब माया है, लेकिन वह सिद्धांत नहीं बना सकता। जब तक मैं कहता हूं, यह मेरी चीज है,। धोखा दे गया, झोला ले गया। अब आगे ध्यान करूं कि न करूं? कोई चोरी न कर ले जाए, तब तक मैं दूसरे के घर चोरी करने जाऊं, | | ऐसे तो सब माया है-इसे वे बार-बार कहते हैं। मैंने कहा, ऐसे तो वह चोरी कबीर की चोरी नहीं हो सकती। कबीर की चोरी चोरी | तो सब माया है, तो इतना झोले से क्यों परेशान हो रहे हैं? और ही नहीं है। कृष्ण की हिंसा हिंसा ही नहीं है। ऐसे सब माया है, तो वह आदमी क्या धोखा दे गया? और ऐसे इसलिए सवाल उचित है। कृष्ण की गीता और कृष्ण का संदेश सब माया है, तो किसका झोला कौन ले गया है? समझकर कोई अगर ऐसा समझ ले कि दूसरे को मारना मारना ही | नहीं, उन्होंने कहा, ऐसे तो सब माया है, लेकिन पूछने मैं यह नहीं है, बिलकुल झूठ है, समझे; लेकिन खुद का मारा जाना भी | आया हूं कि अगर ऐसा ध्यान में सरल होता जाऊं, और हर कोई मारा जाना नहीं है, इस शर्त को ध्यान में रखकर; तब कोई हर्ज नहीं | | धोखा देने लगे! है। लेकिन अपने को बचाए और दूसरे को मारे-और मजा यह है अब ये दो तलों की बातें हैं। उनके खयाल में नहीं पड़तीं, कि कि हम अपने को बचाने के लिए ही दूसरे को मारते हैं-तब फिर वह ऐसे तो सब माया है, कृष्ण से सुन लिया, और वह जो झोला कृष्ण को भूल ही जाएं तो अच्छा है। चोरी चला गया, वहां हम खड़े हैं। और यह जो बात है, यह किसी खतरा हुआ है। इस मुल्क ने जीवन के इतने गहरे सत्यों को | | शिखर से कही गई है। हम जहां खड़े हैं, वहां यह बात बिलकुल . पहचाना था, उसकी वजह से यह मुल्क बुरी तरह पतित हुआ है। नहीं है। असल में बहुत गहरे सत्य बेईमान आदमियों के हाथों में पड़ जाएं, इस देश के पतन में, इस देश के चारित्रिक ह्रास में, इस देश के तो असत्यों से बदतर सिद्ध होते हैं। इस मुल्क ने इतने गहरे सत्यों | | जीवन में एकदम अंधकार भर जाने में और गंदगी भर जाने में, हमारे पहचाना था कि उन सत्यों को जब तक हम परा न जान लें, तब ऊंचे से ऊंचे सिद्धांतों की हमने जो व्याख्या की है. वह कारण है। तक उनका आधा उपयोग नहीं कर सकते। यह सवाल ठीक है। इस मुल्क ने भलीभांति जाना था कि व्यवहार तो माया है, वह | __ कृष्ण आपसे नहीं कह रहे हैं कि बेफिक्री से हिंसा करो। कृष्ण तो सपना है। तो फिर ठीक है, बेईमानी में कौन-सी बुराई है! अगर यह कह रहे हैं कि अगर यह तुम्हारी समझ में आ जाए कि कोई यह मुल्क पांच हजार साल की निरंतर चिंतना के बाद आज पृथ्वी मरता नहीं, कोई मारा नहीं जाता; तब, तब जो होता है, होने दो। पर सर्वाधिक बेईमान है, तो उसका कारण है। अगर हम इतनी लेकिन दोहरा है यह तीर। डबल ऐरोड है। यह ऐसा नहीं है कि अच्छी बातें करने के बाद भी जीवन में एकदम विपरीत सिद्ध होते | | दूसरा मरता है तो मारो, क्योंकि कोई नहीं मरता। और जब खुद हैं, तो उसका कारण है। उसका कारण यही है कि जिस तल पर बातें | | मरने लगो तो चिल्लाओ कि कहीं मुझे मार मत डालना। ऐसा ही हैं, उस तल पर हम नहीं उठते, बल्कि जिस तल पर हम हैं, उसी | | हो गया है। तल पर उन बातों को ले आते हैं। हम इस देश में सर्वाधिक मानते हैं कि आत्मा अमर है और कृष्ण के तल पर अर्जुन उतरे, उठे, तब तो ठीक। और अगर सबसे ज्यादा मरने से डरते हैं जमीन पर। हमसे ज्यादा कोई भी मरने अर्जुन कृष्ण को अपने तल पर खींच लाए, तो खतरा होने वाला है। से नहीं डरता। जिनको हम नास्तिक कहते हैं, जिनको हम कहते और अक्सर ऐसा होता है कि कृष्ण के तल तक उठना तो मुश्किल हैं-ईश्वर को नहीं मानते, आत्मा को नहीं मानते, वे भी नहीं डरते 122 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मरणधर्मा शरीर और अमृत, अरूप आत्मा र हैं मरने से। वे भी कहते हैं कि ठीक है, मौका आ जाए, जिंदगी दांव | हां, कृष्ण की बात सुनकर सिर्फ समझना इतना, एक शिखर है पर लगा दें। लेकिन हम एक हजार साल तक गुलाम रह सके। | चेतना का, जहां अंधेरा है ही नहीं, जहां दीया जलाना पागलपन है। क्योंकि जिंदगी दांव पर लगाने की हमारी हिम्मत ही नहीं रही। हां, | | पर उस शिखर की यात्रा करनी होती है। उस शिखर की यात्रा पर घर में बैठकर हम बात करते हैं कि आत्मा अमर है। अगर आत्मा हम धीरे-धीरे बढ़ेंगे। कि वह शिखर कैसे, कैसे हम उस जगह अमर है, तो इस मुल्क को एक सेकेंड के लिए गुलाम नहीं किया पहुंच जाएं, जहां जीवन अमृत है, और जहां अहिंसा और हिंसा जा सकता था। बचकानी बातें हैं, चाइल्डिश बातें हैं। लेकिन वहां नहीं जहां हम हैं, लेकिन आत्मा जरूर अमर है; लेकिन हम बेईमान हैं। आत्मा | | वहां बड़ी सार्थक हैं, वहां बड़ी महत्वपूर्ण हैं। अमर है, वह हम कृष्ण से सुन लेते हैं; और हम मरने वाले हैं, यह हम भलीभांति जानते हैं। अपने को बचाए चले जाते हैं। बल्कि आत्मा अमर है, इसका पाठ रोज इसीलिए करते हैं, कि भरोसा आ न जायते प्रियते वा कदाचिन् जाए कि मरेंगे नहीं। कम से कम मैं तो नहीं मरूंगा, इसका भरोसा नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। दिला रहे हैं, इससे अपने को समझा रहे हैं। इस दो तल पर-जहां अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो कृष्ण खड़े हैं वहां, और जहां हम खड़े हैं वहां-वहां के फासले न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।। २०।। को ठीक से समझ लेना। यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है, और कृष्ण की बात तभी पूरी सार्थक होगी, जब आप कृष्ण के अथवा न यह आत्मा, हो करके फिर होने वाला है, क्योंकि तल पर उठे। और कृपा करके कृष्ण को अपने तल पर मत लाना। यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नाश हालांकि वह आसान है. क्योंकि कष्ण कछ भी नहीं कर सकते। आप होने पर भी यह नष्ट नहीं होता है। गीता को जिस तल पर ले जाना चाहें, वहीं ले जाएं। जहां कटघरे में रहते हों, गोडाउन में रहते हों, नर्क में रहते हों, वहीं ले जाएं गीता को, तो वहीं चली जाएगी। कृष्ण कुछ भी नहीं कर सकते। न हां हम हैं, जो हम हैं, वहां सभी कुछ जात है, जन्मता कृपा करके जीवन के जो परम सत्य हैं, उन्हें जीवन की अंधेरी | UI है। जिससे भी हम परिचित हैं, वहां अजात, अजन्मा, गुहाओं में मत ले जाना। वे जीवन के परम सत्य शिखरों पर जाने कुछ भी नहीं है। जो भी हमने देखा है, जो भी हमने गए हैं। आप भी शिखरों पर चढ़ना, तभी उन परम सत्यों को समझ | पहचाना है, वह सब जन्मा है, सब मरता है। लेकिन जन्म और पाएंगे। वे परम सत्य सिर्फ पुकार हैं, आपके लिए चुनौतियां हैं कि | मरण की इस प्रक्रिया को भी संभव होने के लिए इसके पीछे कोई, आओ इस ऊंचाई पर, जहां प्रकाश ही प्रकाश है, जहां आत्मा ही | इस सब मरने और जन्मने की श्रृंखला के पीछे-जैसे माला के आत्मा है, जहां अमृत ही अमृत है। गुरियों को कोई धागा पिरोता है; दिखाई नहीं पड़ता, गुरिए दिखाई लेकिन जिन अंधेरी गलियों में हम जीते हैं, जहां अंधेरा ही अंधेरा | पड़ते हैं—इस जन्म और मरण के गुरियों की लंबी माला को पिरोने है, जहां प्रकाश की कोई किरण नहीं पहुंचती मालूम पड़ती। वहां वाला कोई अजात धागा भी चाहिए। अन्यथा गुरिए बिखर जाते हैं। यह सुनकर कि प्रकाश ही प्रकाश है, अंधकार है ही नहीं, अपने टिक भी नहीं सकते, साथ खड़े भी नहीं हो सकते, उनमें कोई जोड़ हाथ के दीए को मत बुझा देना–कि जब प्रकाश ही प्रकाश है, तब भी नहीं हो सकता। दिखती है माला ऊपर से गुरियों की, होती नहीं इस दीए की क्या जरूरत है, फूंक दो। उस दीए को बुझाने से गली | | हैं गुरियों की। गुरिए टिके होते हैं एक धागे पर, जो सब गुरियों के और अंधेरी हो जाएगी। जहां आदमी जी रहा है, वहां हिंसा और | बीच से दौड़ता है। अहिंसा का भेद है। अंधेरा है वहां। जहां आदमी जी रहा है, वहां जन्म है, मृत्यु है, आना है, जाना है, परिवर्तन है, इस सबके पीछे चोरी और अचोरी में भेद है। अंधेरा है वहां। वहां कृष्ण की बात अजात सूत्र-अनबॉर्न, अनडाइंग; अजात, अमृत; न जो जन्मता, सुनकर अपने इस भेद के छोटे-से दीए को मत फूंक देना। नहीं तो न जो मरता-ऐसा एक सूत्र चाहिए ही। वही अस्तित्व है, वही सिर्फ अंधेरा घना हो जाएगा, और कुछ भी नहीं होगा। आत्मा है, वही परमात्मा है। सारे रूपांतरण के पीछे, सारे रूपों के [123] Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 पीछे, अरूप भी चाहिए। वह अरूप न हो, तो रूप टिक न सकेंगे। फिल्म देखते हैं सिनेमागृह में बैठकर । प्रतिपल दौड़ते रहते हैं फिल्म के चित्र | चित्रों में कुछ होता नहीं बहुत । सिर्फ किरणों का जाल होता है। छाया-प्रकाश का जोड़ होता है। लेकिन पीछे एक परदा चाहिए। वह परदा बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता, जब तक फिल्म दौड़ती रहती है । उसे दिखाई पड़ना भी नहीं चाहिए । अगर वह दिखाई पड़े, तो फिल्म दिखाई न पड़ सके। जब तक फिल्म चलती रहती है, रूप आते और जाते रहते हैं, तब तक पीछे थिर खड़ा परदा दिखाई नहीं पड़ता । लेकिन उस परदे को हटा दें, तो ये रूप कहीं भी प्रकट नहीं हो सकते, ये आकृतियां कहीं भी प्रकट नहीं हो सकतीं। इन आकृतियों की दौड़ती हुई परिवर्तन की इस लीला में पीछे कोई थिर परदा चाहिए, जो उन्हें सम्हाले। एक चित्र आएगा, तब भी परदा वी होगा। दूसरा चित्र आएगा, तब भी परदा वही होगा। तीसरा चित्र आएगा, तब भी परदा वही होगा। चित्र बदलते जाएंगे, परदा वही होगा। तभी इन चित्रों में एक संगति, तभी इन चित्रों में एक श्रृंखला, तभी इन चित्रों में एक संबंध दिखाई पड़ेगा। वह संबंध, पीछे जो थिर परदा है, उससे ही पैदा हो रहा है। सारा जीवन चित्रों का फैलाव है। ये चित्र टिक नहीं सकते। जन्म भी एक चित्र है, मृत्यु भी एक चित्र है— जवानी भी, बुढ़ापा भी, सुख भी, दुख भी, सौंदर्य भी, कुरूपता भी, सफलता-असफलता भी वह सब चित्रों की धारा है। उन चित्रों की धारा को सम्हालने के लिए कोई चाहिए, जो दिखाई नहीं पड़ेगा। उसको दिखाई पड़ने का उपाय नहीं है। जब तक चित्रों को आप देख रहे हैं, तब तक वह दिखाई नहीं पड़ेगा। वह परदे की तरह जो पीछे खड़ा है, वही अस्तित्व है। उसे कृष्ण कहते हैं, वह अजात, अजन्मा, कभी जन्मता नहीं, कभी मरता नहीं। लेकिन भूलकर भी आप ऐसा मत समझ लेना कि यह आपके संबंध में कहा जा रहा है। आप तो जन्मते हैं और मरते हैं । और जिस आप के संबंध में यह कहा जा रहा है, उस आप का, आपको कोई भी पता नहीं है। जिस आप को आप जानते हैं, वह तो जन्मता है; उसकी तो जन्म-तारीख है; उसकी तो मृत्यु की तिथि भी होगी। कब्र पर पत्थर लगेगा, तो उसमें जन्म और मृत्यु दोनों की तारीखें लग जाएंगी। लोग, जब आप जन्मे थे, तो बैंडबाजा बजाए थे, खुशी किए थे। जब मरेंगे, तो रोएंगे, दुखी होंगे। आप जितना अपने को जानते हैं, वह सिर्फ चित्रों का समूह है। इसे थोड़ा वैज्ञानिक ढंग से भी समझना उपयोगी है कि क्या सच | में ही जिसे आप जानते हैं, वह चित्रों का समूह है? अब तो हम ब्रेनवाश कर सकते हैं। अब तो वैज्ञानिक रास्ते उपलब्ध हैं, जिनसे हम आपके चित्त की सारी स्मृति को पोंछ डाल | सकते हैं। एक आदमी है पचास साल का, उसे पता है कि चार लड़कों का पिता है, पत्नी है, मकान है, यह उसका नाम है, यह उसकी वंशावली है। इस इस पद पर रहा है, यह यह काम किया | है। सब पचास साल की कथा है। उसका ब्रेनवाश किया जा सकता | है | उसके मस्तिष्क को हम साफ कर डाल सकते हैं। फिर भी वह होगा। लेकिन फिर वह यह भी न बता सकेगा कि मेरा नाम क्या है। और यह भी न बता सकेगा कि मेरे कितने लड़के हैं। मेरे एक मित्र हैं डाक्टर | ट्रेन से गिर पड़े। चोट खाने से स्मृति चली गई। बचपन से मेरे साथी हैं, साथ मेरे पढ़े हैं। देखने उन्हें मैं | उनके गांव गया । जाकर सामने बैठ गया; उन्होंने मुझे देखा और जैसे नहीं देखा। मैंने उनसे पूछा, पहचाना नहीं ? उन्होंने कहा कि | कौन हैं आप? उनके पिता ने कहा कि सारी स्मृति चली गई है; जब से ट्रेन से गिरे हैं, चोट लग गई, सारी स्मृति चली गई; कोई स्मरण नहीं है। इस आदमी के पास इसका कोई अतीत नहीं है। चित्र खो गए। | कल तक यह कहता था, मैं यह हूं, मेरा यह नाम है। अब वे सब चित्र खो गए। वह फिल्म वाश हो गई। वह सब धुल गया। अब | यह खाली है - कोरा कागज । अब इस कोरे कागज पर फिर से लिखा जाएगा। अब उसकी नई स्मृति बननी शुरू हुई। | अभी जब दुबारा मैं मिलने गया, तो उसने कहा कि आपको पता होगा कि तीन साल पहले मैं गिर पड़ा, चोट लग गई। अब इस तीन साल की स्मृति फिर से निर्मित होनी शुरू हुई। लेकिन तीन | साल के पहले वह कौन था, वह बात समाप्त हो गई। हां, उसे याद | दिलाते हैं कि तुम डाक्टर थे, तो वह कहता है, आप लोग कहते हैं | कि मैं डाक्टर था, लेकिन मुझे कुछ पता नहीं । मेरा इतिहास तो बस | वहीं से समाप्त हो जाता है, जहां से वह घटना घट गई, जहां वह दुर्घटना घट गई। आज चीन में तो कम्युनिस्ट ब्रेनवाश को एक पोलिटिकल, एक राजनैतिक उपाय बना लिए हैं। रूस में तो वह चल ही रहा है। अब आने वाली दुनिया में किसी राजनैतिक विरोधी को मारने की जरूरत | नहीं होगी। क्योंकि इससे बड़ी हत्या और क्या हो सकती है कि उसके ब्रेन को वाश कर दो। विरोधी को पकड़ो और उसके मस्तिष्क 124 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m-मरणधर्मा शरीर और अमृत, अरूप आत्मा पर को साफ कर दो। विद्युत के धक्कों से, और दूसरे केमिकल्स से, कृष्ण जब कह रहे हैं कि कोई है अजन्मा, नहीं जन्मता, नहीं और दूसरी मानसिक प्रक्रियाओं से उसकी स्मृति को पोंछ डालो। मरता, जिसे शस्त्रों से छेदा नहीं जा सकता...। फिर क्या बात है? समाप्त हो गई। अगर मार्क्स के दिमाग को साफ आपको, मुझे छेदा जा सकता है। इसलिए ध्यान रखना, जिसे कर दो. तो कैपिटल साफ हो जाएगी। उसके दिमाग में जो है. वह छेदा जा सकता है. कष्ण उसके संबंध में बात नहीं कर रहे हैं। वे मिट जाएगा। फिर उस आदमी की कोई आइडेंटिटी, उसका कोई कहते हैं कि जिसे छेदा नहीं जा सकता शस्त्रों से, आग में जलाया तादात्म्य पीछे से नहीं रह जाएगा। नहीं जा सकता, पानी में डुबाया नहीं जा सकता। तो हम जिसे कहते हैं मैं, जो कभी पैदा हुआ, जो किसी का बेटा हमें तो छेदा जा सकता है; कोई कठिनाई नहीं है छेदे जाने में। है, किसी का पिता है, किसी का पति है, यह सिर्फ चित्रों का संग्रह आग में जलाए जाने में कोई कठिनाई नहीं है। पानी में डुबाए जाने है, एलबम है; इससे ज्यादा नहीं है। अपना-अपना एलबम सम्हाले में कोई कठिनाई नहीं है। बैठे हैं। उसी को लौट-लौटकर देख लेते हैं; दूसरों को भी दिखा __तो जो पानी में डुबाया जा सकता, आग में जलाया जा सकता, देते हैं, कोई घर में आता है, कि यह एलबम है। बाकी यह आप | शस्त्रों से छेदा जा सकता, उसकी यह चर्चा नहीं है। जिसके ऊपर नहीं हैं। सर्जन कुछ कर सकता है, उसकी यह चर्चा नहीं है। जिसके लिए ___ अगर इस एलबम को आप समझते हों कि कृष्ण कह रहे हैं डाक्टर कुछ कर सकता है, उसकी यह चर्चा नहीं है। डाक्टर जिससे अजात, तो इस गलती में मत पड़ना। यह अजात नहीं है। यह तो उलझा है, वह मर्त्य है। और सर्जन जिस पर काम कर रहा है, वह जन्मा है। यह तो जात है। यह मरेगा भी। जो जन्मा है, वह मरेगा भी। मरणधर्मा है। विज्ञान की प्रयोगशाला में जिस पर खोज-बीन हो रही जन्म एक छोर है, मृत्यु दूसरा अनिवार्य छोर है। आप तो मरेंगे ही। है, वह मरणधर्मा है। इससे उसका कोई लेना-देना नहीं है। इस बात को ठीक से समझ लें, तो शायद उस आप को खोजा इसलिए अगर वैज्ञानिक सोचता हो कि अपनी प्रयोगशाला की जा सके, जो कि नहीं मरेगा। लेकिन हम इसी मैं को पकड़े रह जाते टेबल पर किसी दिन वह कृष्ण के अजात को, अजन्मे को, अमृत हैं, जो जन्मा है। यह मैं—यह मैं—मैं नहीं हूं। यह सिर्फ मेरे उस को पकड़ लेगा, तो भूल में पड़ा है। वह कभी पकड़ नहीं पाएगा। गहरे मैं पर इकट्ठे हो गए चित्र हैं, जिनसे मैं गुजरा हूं। उसके सब सूक्ष्मतम औजार उसको ही पकड़ पाएंगे, जो छेदा जा इसलिए जापान में झेन फकीर के पास जब कोई साधक जाता है सकता है। लेकिन जो नहीं छेदा जा सकता, अगर वह दिखाई पड़ और उससे पूछता है कि मैं क्या साधना करूं? तो वह कहता है कि जाए...वह दिखाई पड़ सकता है। वह दिखाई पड़ सकता है। तू यह साधना कर, अपना ओरिजनल फेस, जो जन्म के पहले तेरा सिकंदर हिंदुस्तान आया। जब हिंदुस्तान से वापस लौटता था, चेहरा था, उसको खोजकर आ। तो हिंदुस्तान की सीमा को छोड़ते वक्त उसके मित्रों ने याद दिलाया जन्म के पहले कहीं कोई चेहरा होता है! अब कोई आपसे कहने कि जब हम यूनान से चले थे, तो यूनान के दार्शनिकों ने कहा था लगे, मरने के बाद जो आपकी शकल होगी, उसको खोजकर कि हिंदुस्तान से एक संन्यासी को लेते आना। लाइए। कोई आपसे कहे कि जन्म के पहले जो आपकी शकल थी, अब संन्यासी जो है, वह सच यह है कि जगत को हिंदुस्तान की वह खोजकर लाइए। देन है, अकेली देन है। पर काफी है। सारे जगत की सारी देनें भी वे झेन फकीर ठीक कहते हैं। वे वही कहते हैं, जो कृष्ण कह रहे इकट्ठी कर ली जाएं, तो एक संन्यासी भी हमने जगत को दिया, तो हैं। वे यह कहते हैं, उसका पता लगाओ, जो तुममें कभी जन्मा नहीं | | हमने बैलेंस पूरा कर दिया है। और शायद जिस दिन दुनिया की सब था। अगर ऐसे किसी सूत्र को तुम खोज सकते हो, जो जन्म के देनें बेकार सिद्ध हो जाएंगी, उस दिन हमारा दिया संन्यास ही सारी पहले भी था, तो विश्वास रखो फिर कि वह मृत्यु के बाद भी होगा। | दुनिया के लिए अर्थ का हो सकता है। जो जन्म के पहले था, उसे मृत्यु नहीं पोंछ सकेगी। जो जन्म के | । तो याद दिलाई मित्रों ने सिकंदर को कि एक संन्यासी को तो ले पहले था, वह मृत्यु के बाद भी होगा। और जो जन्म के बाद ही चलें। बहुत चीजें लूट ली हैं। धन लूट लिया, लेकिन धन वहां भी हुआ है, वह मृत्यु के पहले तक ही साथी हो सकता है, उसके आगे है। बहुमूल्य चीजें, हीरे-जवाहरात ले जा रहे हैं, लेकिन वे वहां भी साथी नहीं हो सकता है। हैं। एक संन्यासी को भी ले चलें, जो वहां नहीं है। सिकंदर ने सोचा | 125 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-14 कि जैसे और चीजें ले जाई जा सकती हैं, वैसे ही संन्यासी को ले जाने में क्या तकलीफ है। उसने कहा कि जाओ, पकड़ लाओ, कहीं कोई संन्यासी हो । गांव में लोग गए, गांव में पूछा कि कोई संन्यासी है? लोगों ने कहा, संन्यासी तो है, लेकिन प्रयोजन क्या है ? तुम्हारे ढंग संन्यासी के पास पहुंचने जैसे नहीं मालूम पड़ते ! नंगी तलवारें हाथ में लिए हो, पागल मालूम पड़ते हो; क्या बात है ? तो उन्होंने कहा कि पागल नहीं, हम सिकंदर के सिपाही हैं। और किसी संन्यासी को पकड़कर हम यूनान ले जाना चाहते हैं। तो उन लोगों ने कहा कि जो संन्यासी तुम्हारी पकड़ में आ जाए, समझना कि संन्यासी नहीं है। जाओ, हालांकि गांव में एक संन्यासी है, हम तुम्हें उसका पता दिए देते हैं। नदी के किनारे तीस वर्षों से एक आदमी नग्न रहता है। जैसा हमने सुना है, जैसा हमने उसे देखा है, जैसा इन तीस वर्षों में हमने उसे जाना है, हम कह सकते हैं कि वह संन्यासी है। लेकिन तुम उसे पकड़ न पाओगे। पर, उन्होंने कहा, दिक्कत क्या है? तलवारें हमारे पास, जंजीरें हमारे पास ! उन्होंने कहा, तुम जाओ, उसी से निपटो । वे गए। उस संन्यासी से उन्होंने कहा कि महान सिकंदर की आज्ञा है कि हमारे साथ चलो। हम तुम्हें सम्मान देंगे, सत्कार देंगे, शाही व्यवस्था देंगे। यूनान तुम्हें ले जाना है। कोई पीड़ा नहीं, कोई दुख नहीं, कोई रास्ते में तकलीफ नहीं होने देंगे। वह संन्यासी हंसने लगा। उसने कहा कि अगर सत्कार ही मुझे चाहिए होता, अगर स्वागत ही मुझे चाहिए होता, अगर सुख ही मुझे चाहिए होता, तो मैं संन्यासी कैसे होता ? छोड़ो ! सपने की बातें मत करो। मतलब की बात कहो । तो उन्होंने कहा कि मतलब की बात यह अगर नहीं जाओगे, तो हम जबरदस्ती पकड़कर ले जाएंगे। तो उस संन्यासी ने कहा कि जिसे तुम पकड़कर ले जाओगे, वह संन्यासी नहीं है। संन्यासी परम स्वतंत्र है; उसे कोई पकड़कर नहीं ले जा सकता। उन्होंने कहा, हम मार डालेंगे। तो उस संन्यासी ने कहा, वह तुम कर सकते हो। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि तुम मारोगे, लेकिन भ्रम में रहोगे, क्योंकि तुम जिसे मारोगे, वह मैं नहीं हूं। तुम अपने सिकंदर को ही लिवा लाओ। शायद उसकी कुछ समझ में आ जाए। वे सिपाही सिकंदर को बुलाने आए। सिकंदर से उन्होंने कहा कि अजीब आदमी है। वह कहता है, मार डालो, तो भी जिसे तुम मारोगे, वह मैं नहीं हूं। कौन है फिर वह, सिकंदर ने कहा, हमने तो ऐसा कोई आदमी नहीं देखा, जो मारने के बाद बचता हो । बचेगा | कैसे ? अब सिकंदर अनुभव से कहता था, हजारों लोग मारे थे | उसने । उसने कहा, मैंने कभी किसी आदमी को मरने के बाद बचते नहीं देखा ! गया, नंगी तलवार उसके हाथ में है। संन्यासी से उसने कहा कि चलना पड़ेगा। अन्यथा यह तलवार गरदन और शरीर को अलग कर देगी। वह संन्यासी खिलखिलाकर हंसने लगा । और उसने कहा कि जिस गरदन और शरीर के अलग करने की तुम बात कर रहे हो, उसे मैं बहुत पहले अलग है, ऐसा जान चुका हूं। इसलिए अब तुम और ज्यादा अलग न कर सकोगे। इतनी अलग जान चुका हूं कि तुम्हारी तलवार के लिए बीच में से गुजर जाने के लिए काफी फासला है, जगह है। काफी अलग जान चुका हूं, अब तुम और अलग न कर सकोगे। सिकंदर को क्या समझ में आतीं ये बातें ! उसने तलवार उठा ली। उसने कहा, मैं अभी काट दूंगा। देखो, सिद्धांतों की बातों में मत पड़ो । फिलासफी से मुझे बहुत लेना-देना नहीं है। मैं आदमी व्यावहारिक हूं, प्रैक्टिकल हूं। ये ऊंची बातें छोड़ो। एक झटका और गरदन अलग हो जाएगी। सिकंदर से उस संन्यासी ने कहा, तुम मारो तलवार। जिस तरह तुम देखोगे कि गरदन नीचे गिर गई, उसी तरह हम भी देखेंगे कि गरदन नीचे गिर गई। अब यह जो आदमी है, यह कह रहा है वही, जो कृष्ण कह रहे | हैं― छेदने से छिदता नहीं, काटने से कटता नहीं। इसलिए जब तक आप छेदने से छिद जाते हों और काटने से कट जाते हों, तब तक जानना, अभी अपने होने का पता नहीं चला। जब छेदने से शरीर छिद जाता हो और भीतर अनछिदा कुछ रह जाता हो; जब काटने से शरीर कट जाता हो और भीतर अनकटा कुछ शेष रह जाता हो; जब बीमार होने से शरीर बीमार हो जाता हो और भीतर बीमारी के बाहर कोई रह जाता हो; जब दुख आता हो तो शरीर दुख से भर जाता हो और भीतर दुख के पार कोई खड़ा देखता रह जाता हो – तब जानना कि कृष्ण जिस आप की बात कर रहे हैं, उस आप का अब तक आपको भी पता नहीं था। अर्जुन वही बात कर रहा है, जो सिकंदर कर रहा है। टाइप भी | उनका एक ही है। उनके टाइप में भी बहुत फर्क नहीं है— शरीर ही । लेकिन हम सबका भी टाइप वही है। 126 निरंतर खोजते रहना! कांटा तो चुभता है रोज पैर में, तब जरा | देखना कि अनचुभा भी भीतर कोई रह गया ? बीमारी तो आती Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणधर्मा शरीर और अमृत, अरूप आत्मा 4 रोज, जरा भीतर देखना, बीमारी के बाहर कोई बचा ? दुख आता है रोज, रोना, हंसना, सब आता है रोज । देखना, देखना, खोजना उसे, जो इनके बाहर बच जाता है। 7 धीरे-धीरे खोजने से वह दिखाई पड़ने लगता है। और जब एक बार दिखाई पड़ता है, तो पता चलता है कि जिसे हमने अब तक समझा था कि मैं हूं, वह सिर्फ छाया थी, सिर्फ शैडो थी । छाया को ही समझा था कि मैं हूं और उसका हमें कोई पता ही नहीं था, जिसकी छाया बन रही है। छाया के साथ ही एक होकर जीए थे। वह छाया हमारी स्मृतियों का जोड़ है, हमारे जन्म से लेकर मृत्यु तक बने हुए चित्रों का एलबम है। वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् । कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्तिकम् ।। २१ । । हे पृथापुत्र अर्जुन, जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है। जा 'नता है! कृष्ण कहते हैं, जो ऐसा जानता है-हू नोज लाइक दिस। नहीं कहते हैं कि जो ऐसा मानता है— हू “बिलीव्स लाइक दिस। कह सकते थे कि जो पुरुष ऐसा मानता है कि न जन्म है, न मृत्यु है । तब तो हम सबको भी बहुत आसानी हो जाए। मानने से ज्यादा सरल कुछ भी नहीं है, क्योंकि मानने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता। जानने से ज्यादा कठिन कुछ भी नहीं है, क्योंकि जानने के लिए तो पूरी आत्म-क्रांति से गुजर जाना पड़ता है। कृष्ण कहते हैं, जो पुरुष ऐसा जानता है। इस जानने शब्द को ठीक से पहचान लेना जरूरी है। क्योंकि सारा धर्म जानने शब्द को छोड़कर मानने शब्द के इर्द-गिर्द घूम रहा है। सारा धर्म, सारी पृथ्वी पर बहुत - बहुत नामों से जो धर्म प्रचलित है, वह सब मानने के आस-पास घूम रहा है। वह सारा धर्म कह रहा है, मानो ऐसा, मानोगे तो हो जाएगा। लेकिन कृष्ण कहते हैं, जो जानता है। अब जानने का क्या मतलब? जानना भी दो तरह से हो सकता है। शास्त्र से कोई पढ़ ले, तो भी जान लेता है। अनुभव से कोई जाने, तो भी जान लेता है। क्या ये दोनों जानना एक ही अर्थ रखते हैं ? शास्त्र से जानना तो बड़ा सरल है। लिखा है, पढ़ा और जाना। | उसके लिए सिर्फ शिक्षित होना काफी है, पठित होना काफी है। उसके लिए धार्मिक होने की कोई जरूरत नहीं है। शास्त्र से पढ़कर जो जानना है, वह जानना नहीं है, जानने का धोखा है। वह सिर्फ इन्फर्मेशन है, सूचना है। लेकिन सूचना से धोखे हो जाते हैं। पढ़ लेते हैं, अजर है, अमर है; नहीं जन्मता, नहीं मरता; पढ़ लेते हैं, दोहरा लेते हैं। बार-बार | दोहरा लेने से भूल जाते हैं कि जानते नहीं हैं, सिर्फ दोहराते हैं। बहुत बार-बार दोहराने से, बहुत बार - बार दोहराने से बात ही भूल जाती है कि जो हम कह रहे हैं, वह अपना जानना नहीं है । एक आदमी शास्त्र में पढ़ ले तैरने की कला; जान ले पूरा शास्त्र । चाहे तो तैरने पर बोल सके, बोले; लिख सके तो लिखे। चाहे तो कोई युनिवर्सिटी से पीएच. डी. ले ले। डाक्टर हो जाए तैरने के संबंध में। लेकिन फिर भी उस आदमी को भूलकर नदी में धक्का मत देना। क्योंकि उसकी पीएच.डी. तैरा न सकेगी। उसकी पीएच. डी. और जल्दी डुबा देगी, क्योंकि काफी वजनी होती है, पत्थर का काम करेगी। तैरने के संबंध में जानना, तैरना जानना नहीं है। सत्य के संबंध में जानना, सत्य जानना नहीं है। टु नो अबाउट, संबंध में जानना, इज़ इक्वीवेलेंट, बिलकुल बराबर है न जानने के । सत्य के संबंध | में जानना, सत्य को न जानने के बराबर है। लेकिन एकदम बराबर कहना ठीक नहीं है, थोड़ा खतरा है। सत्य को न जानना, ऐसा | जानना, सत्य की तरफ जाने में राह बन जाती है। लेकिन सत्य को बिना जानते हुए जान लेना कि जानते हैं, सत्य की तरफ जाने में बाधा बन जाती है। नहीं, इक्वीवेलेंट भी नहीं है। 127 कृष्ण के इस शब्द को बहुत ठीक से समझ लेना चाहिए। क्योंकि इस एक शब्द के आस-पास ही आथेंटिक रिलीजन, वास्तविक धर्म का जन्म होता है— जानने। मानने के आस-पास नान - आथेंटिक, अप्रामाणिक धर्म का जन्म होता है । जानने से जो उपलब्ध होता है, उसका नाम श्रद्धा है। और मानने से जो उपलब्ध होता है, उसका नाम विश्वास है, बिलीफ है। और जो लोग विश्वासी हैं, वे धार्मिक नहीं हैं; वे बिना जाने मान रहे हैं। यह शब्द बहुत छोटा नहीं है, बड़े से बड़ा शब्द है। लेकिन भ्रांति | इसके साथ निरंतर होती रहती है। हमारे पास एक शब्द है, वेद; वेद का अर्थ है, जानना । लेकिन हम तो वेद से मतलब लेते हैं, संहिता, वह जो किताब है। हमने कहा है, वेद अपौरुषेय है, जानना Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Im गीता दर्शन भाग-1 AM अपौरुषेय है। लेकिन हम मतलब लेते हैं कि वह जो किताब है बार-बार, गहरे से गहरा जोर देते हैं। हमारे पास, वेद नाम की, वह परमात्मा की लिखी हुई है। वेद किताब नहीं है, वेद जीवन है। लेकिन जानने को मानना बना लेना बड़ा आसान है, ज्ञान को किताब बना लेना बड़ा आसान है, वासांसि जीर्णानि यथा विहाय जानने को शास्त्र पर निर्भर कर देना बहुत आसान है। क्योंकि तब नवानि गृहणाति नरोऽपराणि। बहत कुछ करना नहीं पड़ता, जानने की जगह केवल स्मृति की | तथा शरीराणि विहाय जीर्णाजरूरत होती है। बस, याद कर लेना काफी होता है। तो बहुत लोग न्यन्यानि संयाति नवानि देहीं ।। २२।। . गीता याद कर रहे हैं! और यदि तू कहे कि मैं तो शरीरों के वियोग का शोक __ मैं एक गांव में गया था अभी तो वहां उन्होंने एक गीता-मंदिर करता हूं, तो यह भी उचित नहीं है; क्योंकि जैसे मनुष्य बनाया है। मैंने पूछा, एक छोटी-सी गीता के लिए इतना बड़ा पुराने वस्त्रों को त्यागकर, दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता मंदिर? तो उन्होंने कहा कि नहीं, जगह कम पड़ रही है। मैंने कहा, है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नए क्या कर रहे हैं यहां आप? उन्होंने कहा कि अब तक हम यहां एक शरीरों को प्राप्त होता है। लाख गीता लिखवाकर हाथ से रखवा चुके हैं। अब जगह कम पड़ रही है। हिंदस्तान भर में हजारों लोग गीता लिख-लिखकर भेज रहे हैं। मैंने कहा, लेकिन यह क्या हो रहा है? इससे क्या होगा? उन्होंने वा स्त्रों की भांति, जीर्ण हो गए वस्त्रों की भांति शरीर को कहा कि कोई आदमी दस दफे लिख चुका, कोई पचास दफे लिख प छोड़ती है आत्मा, नए शरीरों को ग्रहण करती है। चुका, कोई सौ दफे लिख चुका-लिखने से ज्ञान होगा। लेकिन वस्त्रों की भांति! हमने कभी अपने शरीर को तो मैंने उनसे कहा. छापेखाने तो परम ज्ञानी हो गए होंगे। वस्त्र की भांति अनभव किया? ऐसा जिसे हमने ओढा हो? ऐसा कंपोजिटरों के तो हमको चरण पकड़ लेना चाहिए, कंपोजिटर जहां जिसे हमने पहना हो? ऐसा जो हमारे बाहर हो? ऐसा जिसके हम मिल जाएं; क्योंकि कितनी गीताएं छाप चुके वे! अब महात्माओं | भीतर हों? कभी हमने वस्त्र की तरह शरीर को अनुभव किया? की तलाश प्रेस में करनी चाहिए, मुद्रणशाला में करनी चाहिए, अब नहीं, हमने तो अपने को शरीर की तरह ही अनुभव किया है। और कहीं नहीं करनी चाहिए। जब भूख लगती है, तो ऐसा नहीं लगता कि भूख लगी है-ऐसा यह पागलपन क्यों पैदा होता है ? होने का कारण है। ऐसा लगता मुझे पता चल रहा है। ऐसा लगता है, मुझे भूख लगी। जब सिर में है, शास्त्र से जानना हो जाएगा। शास्त्र से सूचना मिल सकती है, दर्द होता है, तो ऐसा नहीं लगता है कि सिर में दर्द हो रहा है-ऐसा इन्फर्मेशन मिल सकती है, इशारे मिल सकते हैं, ज्ञान नहीं मिल न नहीं मिल मुझे पता चल रहा है। सकता। जान तो जीवन के अनुभव से ही मिलेगा। और जब तक | नहीं, ऐसा लगता है, मेरे सिर में दर्द हो रहा है, मुझे दर्द हो रहा जीवन के अनुभव से यह पता न चल जाए कि हमारे भीतर कोई | | है। तादात्म्य, आइडेंटिटी गहरी है। ऐसा नहीं लगता कि मैं और. अजन्मा है, तब तक रुकना मत, तब तक कृष्ण कितना ही कहें, | | शरीर ऐसा कुछ दो हैं। ऐसा लगता है, शरीर ही मैं हूं। मान मत लेना। कृष्ण के कहने से इतना ही जानना कि जब इतने | | कभी आंख बंद करके यह देखा, शरीर की उम्र पचास वर्ष हुई, जोर से यह आदमी कह रहा है, तो खोजें, तो लगाएं पता। जब इतने मेरी कितनी उम्र है? कभी आंख बंद करके दो क्षण सोचा, शरीर आश्वासन से यह आदमी भरा है, इतने सहज आश्वासन से कह | की उम्र पचास साल हुई, मेरी कितनी उम्र है? कभी आंख बंद करके रहा है; जाना है इसने, जीया है कुछ, देखा है कुछ। हम भी देखें, | | चिंतन किया कि शरीर का तो ऐसा चेहरा है, मेरा कैसा चेहरा है? हम भी जानें, हम भी जीएं। काश! शास्त्र इशारा बन जाए और हम कभी सिर में दर्द हो रहा हो तो आंख बंद करके खोज-बीन की कि यात्रा पर निकल जाएं। लेकिन शास्त्र मंदिर बन जाता है और हम | यह दर्द मुझे हो रहा है या मुझसे कहीं दूर हो रहा है? विश्राम को उपलब्ध हो जाते हैं। पिछले महायुद्ध में एक बहुत अदभुत घटना घटी। फ्रांस में एक इस जानने शब्द को स्मरण रखना, क्योंकि पीछे कृष्ण उस पर अस्पताल में एक आदमी भरती हआ--युद्ध में बहत आहत, चोट 128 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ STA मरणधर्मा शरीर और अमृत, अरूप आत्मा र खाकर। उसका पूरा का पूरा पैर जख्मी हो गया। अंगूठे में उसे कंपने शुरू हो जाते हैं। कंपन से ही वे खबर पहुंचाते हैं। जैसे भयंकर पीड़ा है। चीखता है, चिल्लाता है, बेहोश हो जाता है। होश टिक-टिक, टिक-टिक से टेलिग्राफ में खबर पहुंचाई जाती है, आता है, फिर चीखता और चिल्लाता है। रात उसे डाक्टरों ने बेहोश | ऐसा ही कंपित होकर वे स्नायु खबर पहुंचाते हैं। कई हेड आफिसेज करके घुटने से नीचे का पूरा पैर काट डाला। क्योंकि उसके पूरे | से गुजरती है वह खबर आपके मस्तिष्क तक आने में। फिर शरीर के विषाक्त हो जाने का डर था। मस्तिष्क चेतना तक खबर पहुंचाता है। इसमें कई ट्रांसफार्मेशन चौबीस घंटे बाद वह होश में आया। होश में आते ही उसने चीख होते हैं। कई कोड लैंग्वेज बदलती हैं। कई बार कोड बदलता है, मारी। उसने कहा, मेरे अंगूठे में बहुत दर्द हो रहा है! अंगूठा अब क्योंकि इन सबकी भाषा अलग-अलग है। था ही नहीं। पास खड़ी नर्स हंसी और उसने कहा, जरा सोचकर | तो कुछ ऐसा हुआ कि अंगूठा तो कट गया, लेकिन जो कहिए। सच, अंगूठे में दर्द हो रहा है? उसने कहा, क्या मजाक संदेशवाहक नाड़ियां खबर ले जा रही थीं, वे कंपती ही रहीं। वे कर रहा हूं? अंगूठे में मुझे बहुत भयंकर दर्द हो रहा है। कंबल पड़ा | कंपती रहीं, तो संदेश पहुंचता रहा। संदेश पहुंचता रहा और है उसके पैर पर, उसे दिखाई तो पड़ता नहीं। मस्तिष्क कहता रहा कि अंगूठे में दर्द हो रहा है। उस नर्स ने कहा, और जरा सोचिए, थोड़ा भीतर खोज-बीन ___ क्या ऐसा हो सकता है कि हम एक आदमी के पूरे शरीर को करिए। उसने कहा, खोज-बीन की बात क्या है, दर्द इतना साफ | अलग कर लें और सिर्फ मस्तिष्क को निकाल लें? अब तो हो जाता है। नर्स ने कंबल उठाया और कहा, देखिए अंगूठा कहां है? अंगूठा है। पूरे शरीर को अलग किया जा सकता है। मस्तिष्क को बचाया तो नहीं था। आधा पैर ही नहीं था। पर उस आदमी ने कहा कि देख जा सकता है, अकेले मस्तिष्क को। अगर एक आदमी को हम तो रहा हूं कि अंगूठा नहीं है, आधा पैर भी कट गया है, लेकिन दर्द | बेहोश करें और उसके पूरे शरीर को अलग करके उसके मस्तिष्क फिर भी मुझे अंगूठे में हो रहा है। को प्रयोगशाला में रख लें और अगर मस्तिष्क से हम पूछ सकें कि .. तब तो एक मुश्किल की बात हो गई। चिकित्सक बुलाए गए। तुम्हारा शरीर के बाबतं क्या खयाल है? तो वह कहेगा कि सब चिकित्सकों के सामने भी पहली दफा ऐसा सवाल आया था। जो | | ठीक है। कहीं कोई दर्द नहीं हो रहा है। शरीर है ही नहीं। वह अंगूठा नहीं है, उसमें दर्द कैसे हो सकता है? लेकिन फिर कहेगा, सब ठीक है। जांच-पड़ताल की, तो पता चला कि हो सकता है। जो अंगूठा नहीं शरीर का जो बोध है, वह कृष्ण कहते हैं, वस्त्र की भांति है। है, उसमें भी दर्द हो सकता है। यह बड़ी मेटाफिजिकल बात हो | | लेकिन वस्त्र ऐसा, जिससे हम इतने चिपट गए हैं कि वह वस्त्र नहीं गई, यह तो बड़ा अध्यात्म हो गया। डाक्टरों ने परी जांच-पड़ताल रहा, हमारी चमड़ी हो गया। इतने जोर से चिपट गए हैं, इतना की, तो लिखा कि वह आदमी ठीक कह रहा है, दर्द उसे अंगूठे में | | तादात्म्य है जन्मों-जन्मों का, कि शरीर ही मैं हूं, ऐसी ही हमारी हो रहा है। पकड़ हो गई है। जब तक यह शरीर और मेरे बीच डिस्टेंस, फासला तब तो उस आदमी ने भी कहा कि क्या मजाक कर रहे हैं! पहले | | पैदा नहीं होता, तब तक कृष्ण का यह सूत्र समझ में नहीं आएगा उन्होंने उससे कहा था, क्या मजाक कर रहे हो? फिर उस आदमी कि जीर्ण वस्त्रों की भांति...। . ने कहा कि कैसी मजाक कर रहे हैं। मैं जरूर किसी भ्रम में पड़ गया | | यह, थोड़े-से प्रयोग करें, तो खयाल में आने लगेगा। बहुत होऊंगा। लेकिन आप भी कहते हैं कि दर्द हो सकता है उस अंगूठे ज्यादा प्रयोग नहीं, बहुत थोड़े-से प्रयोग। सत्य तो यही है, जो कहा में, जो नहीं है! तो डाक्टरों ने कहा, हो सकता है। क्योंकि दर्द जा रहा है। असत्य वह है, जो हम माने हुए हैं। लेकिन माने हुए अंगूठे में होता है, पता कहीं और चलता है। अंगूठे और पता चलने असत्य वास्तविक सत्यों को छिपा देते हैं। माना हुआ है हमने, वह की जगह में बहुत फासला है। जहां पता चलता है, वह चेतना है। हमारी मान्यता है। और बचपन से हम सिखाते हैं और मान्यताएं घर जहां दर्द होता है, वह अंगूठा है। दर्द से चेतना तक संदेश लाने के | करती चली जाती हैं। लिए जिन स्नायुओं का काम रहता है, भूल से वे स्नायु अभी तक ___ हमने माना हुआ है कि मैं शरीर हूं। शरीर सुंदर होता है, तो हम खबर दे रहे हैं कि दर्द हो रहा है। | मानते हैं, मैं सुंदर हूं। शरीर स्वस्थ होता है, तो हम मानते हैं, मैं जब अंगूठे में दर्द होता है, तो उससे जुड़े हुए स्नायुओं के तंतु स्वस्थ हूं। शरीर को कुछ होता है, तो हम मैं के साथ एक करके 129 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ am गीता दर्शन भाग-1 मानते हैं। फिर यह प्रतीति गहरी होती चली जाती है, यह स्मृति मुझसे कहा कि हैरानी की बात है। दर्द जितनी जगह फैला हुआ सघन हो जाती है। फिर शरीर वस्त्र नहीं रह जाता, हम ही वस्त्र हो | दिखाई पड़ता था, इतनी जगह है नहीं। बस, घुटने के ठीक पास जाते हैं। मालूम पड़ता है। मैंने कहा, कितनी जगह घेरता होगा? उन्होंने कहा एक मेरे मित्र हैं। वृद्ध हैं, सीढ़ियों से पैर फिसल पड़ा उनका।। कि जैसे कोई एक बड़ी गेंद के बराबर जगह। मैंने कहा, और थोड़ा पैर में बहुत चोट पहुंची। कोई पचहत्तर साल के वृद्ध हैं। गया उनके | | खोजें। और थोड़ा खोजें। उन्होंने फिर आंख बंद कर ली। और अब गांव तो लोगों | तो आश्वस्त थे. क्योंकि दर्द इतना सिकडा कि सोचा भी नहीं था डाक्टरों ने तीन महीने के लिए उनको बिस्तर पर सीधा बांध रखा कि मन ने इतना फैलाया होगा। और खोजा। पंद्रह मिनट मैं बैठा था। और कहा कि तीन महीने हिलना-इलना नहीं। सक्रिय आदमी रहा। वे खोजते चले गए। हैं, पचहत्तर साल की उम्र में भी बिना भागे-दौड़े उन्हें चैन नहीं। फिर उन्होंने आंख नहीं खोली। चालीस मिनट, पैंतालीस तीन महीने तो उनको ऐसा अनंत काल मालुम होने लगा। मिनट और उनका चेहरा मैं देख रहा है और उनका चेहरा __ मैं मिलने गया, तो कोई छह-सात दिन हुए थे। रोने लगे। बदलता जा रहा है। कोई सत्तर मिनट बाद उन्होंने आंख खोली और हिम्मतवर आदमी हैं। कभी आंख उनकी आंसुओं से भरेगी, मैंने | | कहा, आश्चर्य है कि वह तो ऐसा रह गया, जैसे कोई सुई चुभाता सोचा नहीं था। एकदम असहाय हो गए और कहा कि इससे तो | हो इतनी जगह में। फिर मैंने कहा, फिर क्या हआ? आपको जवाब बेहतर है, मैं मर जाता। ये तीन महीने इस तरह बंधे हए। यह तो देना था: मझे जल्दी जाना है: मैं सत्तर मिनट से बैठा हआ हं: आप बिलकुल नर्क हो गया। यह मैं न गुजार सकूँगा। मुझसे बोले, मेरे | आंख नहीं खोले। उन्होंने कहा कि जब वह इतना सिकुड़ गया कि लिए प्रार्थना करिए कि भगवान मुझे उठा ही ले। अब जरूरत भी | | ऐसा लगने लगा कि बस, एक जरा-सा बिंदु जहां पिन चुभाई जा क्या है। अब काफी जी भी लिया। अब ये तीन महीने इस खाट पर | रही हो, वहीं दर्द है, तो मैं उसे और गौर से देखने लगा। मैंने सोचा, बंधे-बंधे ज्यादा कठिन हो जाएंगे। तकलीफ भी बहुत है, पीड़ा भी | जो इतना सिकुड़ सकता है, वह खो भी सकता है। और ऐसे क्षण बहुत है। । आने लगे कि कभी मुझे लगे कि नहीं है। और कभी लगे कि है, मैंने उनसे कहा, छोटा-सा प्रयोग करें। आंख बंद कर लें और | कभी लगे कि खो गया। और एक क्षण लगे कि सब ठीक है, और . पहला तो यह काम करें कि तकलीफ कहां है, एक्जेक्ट पिन प्वाइंट एक क्षण लगे कि वापस आ गया। करें कि तकलीफ कहां है। वे बोले, परे पैर में तकलीफ है। मैंने | फिर मैंने कहा कि फिर भी मझे खबर कर देनी थी. तो मैं जाता। कहा कि थोड़ा आंख बंद करके खोज-बीन करें, सच में पूरे पैर में उन्होंने कहा, लेकिन एक और नई घटना घटी, जिसके लिए मैं सोच तकलीफ है? | ही नहीं रहा था। वह घटना यह घटी कि जब मैंने इतने गौर से दर्द क्योंकि आदमी को एग्जाजरेट करने की, बढ़ाने की आदत है। को देखा, तो मुझे लगा कि दर्द कहीं बहुत दूर है और मैं कहीं बहुत न तो इतनी तकलीफ होती है, न इतना सुख होता है। हम सब दूर हूं। दोनों के बीच बड़ा फासला है। तो मैंने कहा, अब ये तीन बढाकर देखते हैं। आदमी के पास मैग्नीफाइंग माइंड है। उसके महीने इसका ही ध्यान करते रहें। जब भी दर्द हो, फौरन आंख बंद पास-जैसे कि कांच होता है न, चीजों को बड़ा करके बता देता | | करें और ध्यान में लग जाएं। है-ऐसी खोपड़ी है। हर चीज को बड़ा करके देखता है। कोई तीन महीने बाद वे मुझे मिले तो उन्होंने पैर पकड़ लिए। फिर फूलमाला पहनाता है, तो वह समझता है कि भगवान हो गए। कोई रोए, लेकिन अब आंसू आनंद के थे। और उन्होंने कहा, भगवान जरा हंस देता है. तो वह समझता है कि गए. सब इज्जत पानी में की कपा है कि मरने के पहले तीन महीने खाट पर लगा दिया. मिल गई। मैग्नीफाइंग ग्लास का काम उसका दिमाग करता है। | अन्यथा मैं कभी आंख बंद करके बैठने वाला आदमी नहीं हूं। मैंने कहा, जरा खोजें। मैं नहीं मानता कि पूरे पैर में दर्द हो लेकिन इतना आनंद मुझे मिला है कि मैं जीवन में सिर्फ इसी घटना सकता है। क्योंकि पूरे पैर में होता, तो पूरे शरीर में दिखाई पड़ता। के लिए अनुगृहीत हूं परमात्मा का। जरा खोजें। । मैंने कहा, क्या हुआ आपको? उन्होंने कहा, यह दर्द को आंख बंद करके उन्होंने खोजना शुरू किया। पंद्रह मिनट बाद मिटाते-मिटाते मुझे पता चला कि दर्द तो जैसे दीवार पर हो रहा है Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मरणधर्मा शरीर और अमृत, अरूप आत्मा - घर की और मैं तो घर का मालिक हूं, बहुत अलग! | तो ज्यादा से ज्यादा चुनौती मिल सकती है। लौटकर घर प्रयोग करने शरीर को भीतर से जानना पड़े, फ्राम दि इंटीरियर। हम अपने | लग जाना। लौटकर भी क्यों, यहां से चलते वक्त ही रास्ते पर जरा शरीर को बाहर से जानते हैं। जैसे कोई आदमी अपने घर को बाहर | | देखना कि यह जो चल रहा है शरीर, इसके भीतर कोई अचल भी से जानता हो। हमने कभी शरीर को भीतर से फील नहीं किया है; | है? और चलते-चलते भी भीतर अचल का अनुभव होना शुरू हो बाहर से ही जानते हैं। यह हाथ हम देखते हैं, तो यह हम बाहर से | जाएगा। यह जो श्वास चल रही है, यही मैं हूं या श्वासों को भी ही देखते हैं। वैसे ही जैसे आप मेरे हाथ को देख रहे हैं बाहर से, | | देखने वाला पीछे कोई है? तब श्वास भी दिखाई पड़ने लगेगी कि ऐसे ही मैं भी अपने हाथ को बाहर से जानता हूं। हम सिर्फ फ्राम यह रही। और जिसको दिखाई पड़ रही है, वह श्वास नहीं हो दि विदाउट, बाहर से ही परिचित हैं अपने शरीर से। हम अपने सकता, क्योंकि श्वास को श्वास दिखाई नहीं पड़ सकती। शरीर को भी भीतर से नहीं जानते। फर्क है दोनों बातों में। घर के तब विचारों को जरा भीतर देखने लगना, कि ये जो विचार चल बाहर से खड़े होकर देखें तो बाहर की दीवार दिखाई पड़ती है, घर रहे हैं मस्तिष्क में, यही मैं हूं? तब पता चलेगा कि जिसको विचार के भीतर से खड़े होकर देखें तो घर का इंटीरियर, भीतर की दीवार | | दिखाई पड़ रहे हैं, वह विचार कैसे हो सकता है! कोई एक विचार दिखाई पड़ती है। दूसरे विचार को देखने में समर्थ नहीं है। किसी एक विचार ने दूसरे इस शरीर को जब तक बाहर से देखेंगे, तब तक जीर्ण वस्त्रों की | विचार को कभी देखा नहीं है। जो देख रहा है साक्षी, वह अलग तरह, वस्त्रों की तरह यह शरीर दिखाई नहीं पड़ सकता है। इसे | | है। और जब शरीर, विचार, श्वास, चलना, खाना, भूख-प्यास, भीतर से देखें, इसे आंख बंद करके भीतर से एहसास करें कि शरीर सुख-दुख अलग मालूम पड़ने लगें, तब पता चलेगा कि कृष्ण जो भीतर से कैसा है? इनर लाइनिंग कैसी है? कोट के भीतर की कह रहे हैं कि जीर्ण वस्त्रों की तरह यह शरीर छोडा जाता है. नए सिलाई कैसी है? बाहर से तो ठीक है, भीतर से कैसी है? इसकी वस्त्रों की तरह लिया जाता है, उसका क्या अर्थ है। और अगर यह भीतर की रेखाओं को पकड़ने की कोशिश करें। और जैसे-जैसे दिखाई पड़ जाए, तो फिर कैसा दुख, कैसा सुख? मरने में फिर साफ होने लगेगा, वैसे-वैसे लगेगा कि जैसे एक दीया जल रहा है मृत्यु नहीं, जन्म में फिर जन्म नहीं। जो था वह है, सिर्फ वस्त्र बदले और उसके चारों तरफ एक कांच है। अब तक कांच से ही हमने | जा रहे हैं। देखा था, तो कांच ही मालूम पड़ता था कि ज्योति है। जब भीतर से देखा तो पता चला कि ज्योति अलग है, कांच तो केवल बाहरी आवरण है। प्रश्न : भगवान श्री, आत्मा व्यापक है, पूर्ण है, तो पूर्ण और एक बार एक क्षण को भी यह एहसास हो जाए कि ज्योति से पूर्ण कहां जाता है? आत्मा एक शरीर से छूटकर अलग है और शरीर बाहरी आवरण है, तो फिर सब मृत्यु वस्त्रों का दूसरे कौन शरीर में जाता है? कहां से शरीर में आता बदलना है, फिर सब जन्म नए वस्त्रों का ग्रहण है, फिर सब मृत्यु भी है? आत्मा का उदर-प्रवेश हो, उससे पहले गर्भ पुराने वस्त्रों का छोड़ना है। तब जीर्ण वस्त्रों की तरह यह शरीर छोड़ा जीता भी कैसे है? जाता है, नए वस्त्रों की तरह लिया जाता है। और आत्मा अपनी अनंत यात्रा पर अनंत वस्त्रों को ग्रहण करती और छोड़ती है। तब जन्म और मृत्यु, जन्म और मृत्यु नहीं हैं, केवल वस्त्रों का परिवर्तन TT त्मा न तो आता है, न जाता है। आने-जाने की सारी है। तब सुख और दुख का कारण नहीं है। 11 बात शरीर की है। मोटे हिसाब से दो शरीर समझ लें। लेकिन यह जो कृष्ण कहते हैं, यह गीता से समझ में न आएगा; एक शरीर तो जो हमें दिखाई पड़ रहा है। यह शरीर यह अपने भीतर समझना पड़ेगा। धर्म के लिए प्रत्येक व्यक्ति को | माता-पिता से मिलता है. जन्मता है। और इसके पास अपनी सीमा स्वयं ही प्रयोगशाला बन जाना पड़ता है। यह कृष्ण जो कह रहे हैं, | है, अपनी सामर्थ्य है; उतने दिन चलता है और समाप्त हो जाता है। इसको पढ़कर मत समझना कि आप समझ लेंगे। मैं जो समझा रहा | | यंत्र है। माता-पिता से सिर्फ यंत्र मिलता है। गर्भ में माता-पिता हूं, उसे समझकर समझ लेंगे, इस भ्रांति में मत पड़ जाना। इससे | | सिर्फ यंत्र की सिचुएशन, स्थिति पैदा करते हैं। यह शरीर जो हमें 131 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IT गीता दर्शन भाग-1 AM दिखाई पड़ रहा है, यह जन्म के साथ शुरू होता है और मृत्यु के वे आने-जाने के हैं। घर में कोई आया और गया। तो आदमी तो साथ समाप्त होता है। यह आता और जाता है। | प्रतीकों का उपयोग करेगा। प्रतीक कभी भी ठीक-ठीक नहीं होते। एक और शरीर है जो आत्मा के लिए और भीतर का वस्त्र है, | | आने-जाने की बात बहुत ठीक नहीं है आत्मा के संबंध में। अब कहें कि अंडरवियर है। यह ऊपर का वस्त्र है यह शरीर, वह जरा | आत्मा को हम कैसा प्रतीक, किस प्रतीक से कहें! कृष्ण के वक्त भीतरी वस्त्र है। वह शरीर पिछले जन्म से साथ आता है। वह सूक्ष्म | में तो प्रतीक और भी नहीं हैं। प्रतीक तो बहुत क्रूड हैं। उनसे हमें शरीर है। सूक्ष्म है, इसका अर्थ इतना ही कि यह शरीर बहुत काम चलाना पड़ता है। जैसे उदाहरण के लिए, एक-दो उदाहरण पौदगलिक, मैटीरियल है, वह शरीर इलेक्ट्रानिक है। वह शरीर लेने से खयाल में आ जाए। विद्युत-कणों से निर्मित है। वह जो विद्युत-कणों से निर्मित दूसरा ___ एक आदमी किसी समुद्र में एक छोटे-से द्वीप पर रहता है। वहां शरीर है, वह आपके साथ पिछले जन्म से आता है। वही यात्रा | कोई फूल नहीं होते। पत्थर ही पत्थर हैं। रेत ही रेत है। वह आदमी करता है। वह भी यात्रा करता है। यात्रा पर निकलता है और किसी महाद्वीप पर बहुत-से फूल देखकर वह शरीर, दूसरा सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर में प्रवेश कर जाता है, | लौटता है। उसके द्वीप के लोग उससे पूछते हैं कि क्या नई चीज गर्भ में प्रवेश कर जाता है। उसका प्रवेश होना वैसा ही | | देखी? वह कहता है, फूल। वे लोग कहते हैं, फूल यानी क्या? आटोमैटिक, स्वचालित है, जैसे पानी पहाड़ से उतरता है, नदियों | व्हाट डू यू मीन? तो उस द्वीप पर फूल नहीं होते, अब वह क्या से बहता है और सागर में चला जाता है। जैसे पानी का नीचे की करे! वह नदी के किनारे से चमकदार पत्थर उठा लाता है, रंगीन तरफ बहना प्राकृतिक है, ऐसा ही सूक्ष्म शरीर का अपने योग्य पत्थर उठा लाता है। वह कहता है, ऐसे होते हैं। अनुकूल शरीर में प्रवाहित होना एकदम प्राकृतिक घटना है। निश्चित ही, उस द्वीप का कोई आदमी इस पर सवाल नहीं इसलिए साधारण आदमी मरता है तो तत्काल जन्म मिल जाता | | उठाएगा। क्योंकि सवाल का कोई कारण नहीं है। लेकिन उस है, क्योंकि चौबीस घंटे पृथ्वी पर लाखों गर्भ उपलब्ध हैं। | आदमी की—जो फूल देखकर आया है—बड़ी मुसीबत है। कोई असाधारण आदमी मरता है तो समय लगता है, जल्दी गर्भ नहीं प्रतीक उपलब्ध नहीं है, जिससे वह कहे। मिलता। चाहे बुरा आदमी मरे असाधारण, चाहे अच्छा आदमी मरे हम जिस जगत में जीते हैं, वहां आना-जाना प्रतीक है। तो जन्म असाधारण, दोनों के लिए बहुत प्रतीक्षा का समय है। दोनों के लिए | को हम कहते हैं आना, मृत्यु को हम कहते हैं जाना। लेकिन सच तत्काल गर्भ उपलब्ध नहीं होता। रेडीमेड गर्भ सिर्फ बिलकुल में ही आत्मा न आती है, न जाती है। तो इसके लिए एक प्रतीक मेरे मध्यवर्गीय लोगों को मिलते हैं। उनके लिए रोज गर्भ उपलब्ध हैं। खयाल में आता है, वह शायद और करीब है, वह आपके समझ इधर मरे नहीं कि उधर गर्भ ने पुकारा नहीं। इधर मरे नहीं कि गर्भ में आ जाए। के गड्ढे में बहे नहीं। इसमें देर नहीं लगती। अभी पश्चिम में उनका खयाल है कि पेट्रोल से ज्यादा दिन तक लेकिन बहुत बुरा आदमी, जैसे हिटलर जैसा आदमी, तो | | कार नहीं चलाई जा सकेगी। क्योंकि पेट्रोल ने इतना नुकसान कर मुश्किल हो जाती है। हिटलर के लिए मां-बाप की प्रतीक्षा में काफी | | दिया है। इकोलाजी का एक नया आंदोलन सारे योरोप और समय लग जाता है। गांधी जैसे आदमी को भी काफी समय लग अमेरिका में चलता है। इतनी गंदी कर दी है हवा पेटोल ने कि जाता है। इनके लिए जल्दी गर्भ उपलब्ध नहीं हो सकता। हमारे आदमी के जीने योग्य नहीं रह गई है। तो अब पेट्रोल से कार नहीं हिसाब से कभी सैकड़ों वर्ष भी लग जाते हैं। उनके हिसाब से नहीं | चलाई जा सकती, तो बिजली से ही चलाई जाएगी। या तो बैटरी से कह रहा हूं। उनके लिए टाइम-स्केल अलग है। हमारे हिसाब से | | चलाई जाए, तो थोड़ी महंगी होगी। या बिजली से चलाई जाए। कभी सैकड़ों वर्ष लग जाते हैं। जैसे ही योग्य गर्भ उपलब्ध हुआ | लेकिन बिजली से चलाने के लिए कैसे चलाई जाए? बिजली कि वैसे ही योग्य सूक्ष्म शरीर उसमें प्रवेश कर जाता है। सारी यात्रा कार को कैसे मिलती रहे? इन्हीं शरीरों की है। अब आत्मा किस भांति संबंधित होता है इस तो रूसी वैज्ञानिकों का एक सुझाव कीमती मालूम पड़ता है। सब में? | उनका कहना है, इस सदी के पूरे होते-होते हम सारे रास्तों के नीचे असल में हमारे पास अब तक जो भी प्रतीक हैं, आदमी के पास, | | बिजली के तार बिछा देंगे। सारे रास्तों के नीचे बिजली के तार बिछा Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m+ मरणधर्मा शरीर और अमृत, अरूप आत्मा -AIR देंगे। जो भी कार ऊपर से चलेगी रास्ते के, नीचे से उसे बिजली | यंत्र में फर्क है, बल्ब के यंत्र में फर्क है। चलने के लिए उपलब्ध होती रहेगी। परमात्मा चारों तरफ मौजूद है। सब तरफ वही है। हमारे पास जैसे ट्राम चलती है आपकी। ऊपर तार होता है, उससे बिजली एक सूक्ष्म यंत्र है, सूक्ष्म शरीर। उसके अनुसार हम उससे ताकत मिलती रहती है। ट्राम चलती हैं, बिजली नहीं चलती। बिजली ऊपर और जीवन ले रहे हैं। इसलिए अगर हमारे पास पांच कैंडिल का से मिलती रहती है, नीचे से ट्राम दौड़ती रहती है। जितनी आगे सूक्ष्म शरीर है, तो हम पांच कैंडिल की ताकत ले रहे हैं; पचास बढ़ती है, उधर से बिजली मिल जाती है। जैसे ट्राम चलती है और कैंडिल का है, तो पचास कैंडिल की ले रहे हैं। महावीर के पास बिजली नहीं चलती, लेकिन ऊपर से प्रतिपल मिलती रहती है। और हजार कैंडिल का है, तो हजार कैंडिल का ले रहे हैं। हम गरीब हैं जब बिजली न मिले, तो ट्राम तत्काल रुक जाए। बिजली के द्वारा | | बहुत, एक ही कैंडिल का सूक्ष्म शरीर है, तो एक ही कैंडिल की ले चलती है, लेकिन बिजली नहीं चलती, ट्राम चलती है। ठीक वैसे ही रूस का वैज्ञानिक कहता है, नीचे हम सड़कों के | | परमात्मा की कंजूसी नहीं है इसमें। हम जितना बड़ा पात्र लेकर तार बिछा देंगे, कार ऊपर से दौड़ती रहेगी। बस, उसके दौड़ने से | आ गए हैं, उतना ही उपलब्ध हो रहा है। हम चाहें हम हजार कैंडिल वह बिजली लेती रहेगी। कार का मीटर तय करता रहेगा, कितनी | के हो जाएं, तो ठीक महावीर से जैसी प्रतिभा प्रकट होती है, हमसे बिजली आपने ली। वह आप जमा करते रहेंगे। लेकिन बिजली नहीं प्रकट हो जाए। और एक सीमा आती है कि महावीर कहते हैं, हजार चलेगी, चलेगी कार। से भी काम नहीं चलेगा, हम तो अनंत कैंडिल चाहते हैं! तो फिर ठीक ऐसे ही, आत्मा व्यापक तत्व है; वह है ही सब जगह। कहते हैं कि बल्ब तोड़ दो, तो फिर अनंत कैंडिल के हो जाओ। सिर्फ हमारा सूक्ष्म शरीर बदलता रहता है, दौड़ता रहता है। और क्योंकि बल्ब जब तक रहेगा, तो सीमा रहेगी ही कैंडिल की, हजार , आत्मा से उसे जीवन मिलता रहता है। हो, दो हजार हो, लाख हो, दस लाख हो। लेकिन अगर अनंत जिस दिन सक्ष्म शरीर बिखर जाता है, टाम टूट गई, बिजली प्रकाश चाहिए. तो बल्ब तोड दो। तो फिर महावीर कहते हैं. हम अपनी जगह रह जाती है; ट्राम टूट जाती है, सूक्ष्म शरीर खो जाता बल्ब तोड़ देते हैं, हम मुक्त हो जाते हैं। है। तो जब सूक्ष्म शरीर खोता है, तो आत्मा परमात्मा से मिल जाती मुक्त होने का कुल मतलब इतना है कि अब ले चुके यंत्रों से है, ऐसा नहीं। आत्मा परमात्मा से सदा मिली ही हुई थी, सूक्ष्म | बहुत, लेकिन देखा कि हर यंत्र सीमा बन जाता है। और जहां सीमा शरीर की दीवार के कारण अलग मालूम पड़ती थी, अब अलग नहीं | है वहां दुख है। इसलिए तोड़ देते हैं यंत्र को, अब हम पूरे के साथ मालूम पड़ती है। एक ही हुए जाते हैं। __ आने-जाने की जो धारणा है-आवागमन की—वह बड़ी क्रूड यह भाषा की गलती है कि एक ही हुए जाते हैं, एक थे ही। यंत्र सिमली है। वह बहुत ही दूर की है, लेकिन कोई उपाय नहीं है। जो | बीच में था, इसलिए कम मिलता था। यंत्र टूट गया, तो पूरा है। " मैं कह रहा हूं, मैं यह कह रहा हूं कि आत्मा तो चारों तरफ मौजूद आत्मा आती-जाती नहीं, सूक्ष्म शरीर आता है, जाता है। स्थूल है, हमारे भीतर भी, बाहर भी। शरीर आता है, जाता है। स्थूल शरीर मिलता है माता-पिता से, __ अब यहां बिजली के बल्ब जल रहे हैं। एक सौ कैंडिल का बल्ब | सूक्ष्म शरीर मिलता है पिछले जन्म से। और आत्मा सदा से है। जल रहा है, एक पचास कैंडिल का जल रहा है, एक बीस कैंडिल सूक्ष्म शरीर न हो, तो स्थूल शरीर ग्रहण नहीं किया जा सकता। का जल रहा है, एक बिलकुल जुगनू की तरह पांच कैंडिल का जल सूक्ष्म शरीर टूट जाए, तो स्थूल शरीर ग्रहण करना असंभव है। रहा है। इन सबके भीतर एक सी बिजली दौड़ रही है। और प्रत्येक इसलिए सूक्ष्म शरीर के टूटते ही दो घटनाएं घटती हैं। एक तरफ अपनी कैंडिल के आधार पर उतनी बिजली ले रहा है। यह माइक सूक्ष्म शरीर गिरा कि स्थूल शरीर की यात्रा बंद हो जाती है। और है, इसमें तो कोई बल्ब भी नहीं लगा हआ है: यह माइक अपनी | दूसरी तरफ परमात्मा से जो हमारी सीमा थी, वह मिट जाती है। सूक्ष्म उपयोगिता के लिए बिजली ले रहा है। रेडियो अपनी उपयोगिता की | शरीर का गिर जाना ही साधना है। बीच का सेतु, जो ब्रिज है बीच में बिजली ले रहा है, पंखा अपनी उपयोगिता की बिजली ले रहा है। हमें जोड़ने वाला—शरीर से इस तरफ और उस तरफ परमात्मा बिजली में कोई फर्क नहीं है—पंखे के यंत्र में फर्क है, माइक के | | से—वह गिर जाता है। उसको गिरा देना ही समस्त साधना है। 133| Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m गीता दर्शन भाग-1 - वह सूक्ष्म शरीर जिन चीजों से बना है, उन्हें समझ लेना जरूरी | सागर में ही जाना पड़े। है। वह हमारी इच्छाओं से, वासनाओं से, कामनाओं से, ___ माता-पिता से मिलता है बूंद का आकार, बाह्य। स्वयं के पिछले आकांक्षाओं से, अपेक्षाओं से, हमारे किए कर्मों से, हमारे न किए | | जन्मों से मिलती है बंद की भीतरी व्यवस्था। और परमात्मा से कर्मों से लेकिन चाहे गए कर्मों से, हमारे विचारों से, हमारे कामों से, | मिलती है जीवन-ऊर्जा, वह है हमारी आत्मा। लेकिन जब तक इस हम जो भी रहे हैं—सोचा है, विचारा है, किया है, अनुभव किया | बूंद की दोहरी परत को हम ठीक से न पहचान लें, तब तक उसको है, भावना की है—उस सबका, उस सबके इलेक्ट्रानिक प्रभावों से, हम नहीं पहचान सकते, जो दोनों के बाहर है। उस सबके वैद्युतिक प्रभावों से निर्मित हमारा सूक्ष्म शरीर है। आज इतना ही। फिर कल सुबह बात करेंगे। उस सूक्ष्म शरीर का विसर्जन ही दो परिणाम लाता है। इधर गर्भ की यात्रा बंद हो जाती है। जब ज्ञान हुआ तब बुद्ध ने कहा कि घोषणा करता हूं कि मेरे मन, तू, जिसने अब तक मेरे लिए बहुत शरीरों के घर बनाए, अब तू विश्राम को उपलब्ध हो सकता है। अब तुझे मेरे लिए कोई और घर बनाने की जरूरत नहीं। धन्यवाद देता हूं और तुझे छुट्टी देता हूं। अब तेरे लिए कोई काम नहीं बचा, क्योंकि मेरी कोई कामना नहीं बची। अब तक मेरे लिए अनेक-अनेक घर बनाने वाले मन, अब तुझे आगे घर बनाने की कोई जरूरत नहीं है। मरते वक्त जब बुद्ध से लोगों ने पूछा कि अब, जब कि आपकी | आत्मा परम में लीन हो जाएगी, तो आप कहां होंगे? तो बुद्ध ने | " कहा कि अगर मैं कहीं होऊंगा तो परम में लीन कैसे हो सकूँगा! क्योंकि जो समव्हेयर है, जो कहीं है, वह एवरीव्हेयर नहीं हो सकता, वह सब कहीं नहीं हो सकता। जो कहीं है, वह सब कहीं नहीं हो सकता। तो बुद्ध ने कहा, यह पूछो ही मत। अब मैं कहीं नहीं होऊंगा, क्योंकि सब कहीं होऊंगा। मगर फिर-फिर पूछते हैं भक्त, कि कुछ तो बताएं, अब आप कहां होंगे? बूंद से पूछ रहे हैं कि सागर में गिरकर तू कहां होगी? बूंद कहती है, सागर ही हो जाऊंगी। लेकिन और बूंदें पूछना चाहेंगी कि वह तो ठीक है, लेकिन फिर भी कहां होगी? कभी मिलने आएं। तो बूंद, जो सागर हो रही है, वह कहती है, तुम सागर में ही आ जाना, तो मिलन हो जाएगा। लेकिन बूंद से मिलन नहीं होगा, सागर से ही मिलन होगा। जिसे बुद्ध से मिलना हो, कृष्ण से मिलना हो, महावीर से मिलना हो, जीसस से, मोहम्मद से मिलना हो, तो अब बूंद से मिलना नहीं हो सकता। कितना ही मूर्ति बनाकर रखे रहें; अब बूंद से मिलना नहीं हो सकता। बूंद गई सागर में, इसीलिए तो मूर्ति बनाई। यही तो मजा है, पैराडाक्स है। मूर्ति इसीलिए बनाई कि बूंद सागर में गई। बनाने योग्य हो गई मूर्ति अब इसकी। लेकिन अब मूर्ति में कुछ मतलब नहीं है। अब तो मिलना हो तो 134 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAHANVI अध्याय 1-2 नौवां प्रवचन आत्म-विद्या के गूढ़ आयामों का उदघाटन Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + गीता दर्शन भाग-1 AM नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । आकस्मिक नहीं हो सकता। सब प्रारंभ पूर्व की तैयारी से, पूर्व के न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।। २३ ।।। कारण से बंधे होते हैं, कॉलिटि से बंधे होते हैं। हे अर्जुन, इस आत्मा को शस्त्रादि नहीं काट सकते हैं और एक बच्चे का जन्म होता है. हो सकता है. क्योंकि मां-बाप के इसको आग नहीं जला सकती है तथा इसको जल नहीं दो शरीर उसके जन्म की तैयारी करते हैं। सब प्रारंभ अपने से भी गीला कर सकता है और वायु नहीं सुखा सकता है। | पहले किसी चीज को, प्रिसपोज्ड, अपने से भी पहले किसी चीज __ अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च। को स्वीकार करते हैं। इसलिए कोई प्रारंभ मौलिक रूप से प्रारंभ नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ।। २४ ।।। नहीं होता। किसी चीज का प्रारंभ हो सकता है, लेकिन शुद्ध प्रारंभ क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य नहीं होता। ठीक वैसे ही, किसी चीज का अंत हो सकता है, लेकिन और अशोष्य है तथा यह आत्मा निःसंदेह नित्य, सर्वव्यापक, अस्तित्व का अंत नहीं होता। क्योंकि कोई भी चीज समाप्त हो, तो अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है। उसके भीतर जो होना था, जो अस्तित्व था, वह शेष रह जाता है। अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।। । तो जब हम कहते हैं, आत्मा का कोई जन्म नहीं, कोई मृत्यु नहीं, तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमहीस । । २५।। तो समझ लेना चाहिए। दूसरी तरफ से समझ लेना उचित है कि और यह आत्मा अव्यक्त अर्थात इंद्रियों का अविषय और यह जिसका कोई जन्म नहीं, जिसकी कोई मृत्यु नहीं, उसी का नाम हम आत्मा अचिंत्य अर्थात मन का अविषय और यह आत्मा । | आत्मा कह रहे हैं। आत्मा का अर्थ है-अस्तित्व, बीइंग। . विकाररहित अर्थात न बदलने वाला कहा जाता है। इससे है लेकिन हमारी भ्रांति वहां से शुरू होती है, आत्मा को हम समझ अर्जुन, इस आत्मा को ऐसा जानकर तू शोक करने के योग्य | | लेते हैं मैं। मेरा तो प्रारंभ है और मेरा अंत भी है। लेकिन जिसमें मैं नहीं है अर्थात तुझे शोक करना उचित नहीं है। जन्मता हूं और जिसमें मैं समाप्त हो जाता हूं, उस अस्तित्व का कोई अंत नहीं है। आकाश में बादल बनते हैं और बिखर जाते हैं। जिस आकाश प्रश्नः भगवान श्री, जो आत्मा अपनी तरफ से किसी | |में उनका बनना और बिखरना होता है, उस आकाश का कोई प्रारंभ भी दिशा में प्रवृत्त नहीं होता, वह वस्त्रों की भांति | | और कोई अंत नहीं है। आत्मा को आकाश समझें-इनर स्पेस, जीर्ण देह को त्यागने की और नवीन देह को धारण | | भीतरी आकाश। और आकाश में भीतर और बाहर का भेद नहीं करने की चेष्टा की तकलीफ क्यों उठाता है? इसमें | | किया जा सकता। बाहर के आकाश को परमात्मा कहते हैं, भीतर कुछ इंट्रॅिजिक कंट्राडिक्शन नहीं फलित होता है? के आकाश को आत्मा। इस आत्मा को व्यक्ति न समझें, | इंडिविजुअल न समझें। व्यक्ति का तो प्रारंभ होगा, और व्यक्ति का | अंत होगा। इस आंतरिक आकाश को अव्यक्ति समझें। इस या त्मा, न जन्म लेता है, न मरता है; न उसका प्रारंभ है, | आंतरिक आकाश को सीमित न समझें। सीमा का तो प्रारंभ होगा l न उसका अंत है-जब हम ऐसा कहते हैं, तो | और अंत होगा। थोड़ी-सी भूल हो जाती है। इसे दूसरे ढंग से कहना इसलिए कृष्ण कह रहे हैं कि न उसे आग जला सकती है। ज्यादा सत्य के करीब होगा जिसका जन्म नहीं होता, जिसकी मृत्यु __ आग उसे क्यों नहीं जला सकती? पानी उसे क्यों नहीं डुबा नहीं होती. जिसका कोई प्रारंभ नहीं है. जिसका कोई अंत नहीं है. सकता? अगर आत्मा कोई भी वस्त है. तो आग नाग जरूर जला सकती ऐसे अस्तित्व को ही हम आत्मा कहते हैं। है। यह आग न जला सके, हम कोई और आग खोज लेंगे। कोई निश्चित ही, अस्तित्व प्रारंभ और अंत से मुक्त होना चाहिए। एटामिक भट्ठी बना लेंगे, वह जला सकेगी। अगर आत्मा कोई वस्तु जो है, दैट व्हिच इज़, उसका कोई प्रारंभ नहीं हो सकता। प्रारंभ का है, तो पानी क्यों नहीं डुबा सकता? थोड़ा पानी न डुबा सकेगा, तो अर्थ यह होगा कि वह शून्य से उतरे, ना-कुछ से उतरे। और प्रारंभ | बड़े पैसिफिक महासागर में डुबा देंगे। होने के लिए भी प्रारंभ के पहले कुछ तैयारी चाहिए पड़ेगी। प्रारंभ | जब वे यह कह रहे हैं कि आत्मा को न जलाया जा सकता है, 136 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ST- आत्म-विद्या के गूढ़ आयामों का उदघाटन - न डुबाया जा सकता है पानी में, न नष्ट किया जा सकता है, तो वे | भीतर हो, जो मरेगा नहीं, ताकि मैं मृत्यु को झुठला सकू। यह कह रहे हैं कि आत्मा कोई वस्तु नहीं है; थिंगनेस, वस्तु उसमें | | इसलिए मंदिर में, मस्जिद में, गुरुद्वारे में जवान दिखाई नहीं नहीं है। आत्मा सिर्फ अस्तित्व का नाम है। एक्झिस्टेंट वस्तु नहीं, | पड़ते। क्योंकि अभी मौत जरा दूर मालूम पड़ती है। अभी इतना एक्झिस्टेंस इटसेल्फ। वस्तुओं का अस्तित्व होता है, आत्मा स्वयं | | भय नहीं, अभी पैर कंपते नहीं। वृद्ध दिखाई पड़ने लगते हैं। सारी अस्तित्व है। इसलिए आग न जला सकेगी, क्योंकि आग भी | | दुनिया में धर्म के आस-पास बूढ़े आदमियों के इकट्ठे होने का एक अस्तित्व है। पानी न डुबा सकेगा, क्योंकि पानी भी अस्तित्व है। | ही कारण है कि जब मैं मरने के करीब पहुंचता है, तो मैं जानना इसे ऐसा समझें कि आग भी आत्मा का एक रूप है, पानी भी चाहता है कि कोई आश्वासन, कोई सहारा, कोई भरोसा, कोई आत्मा का एक रूप है, तलवार भी आत्मा का एक रूप है, इसलिए प्रामिस–कि नहीं, मौत को भी झुठला सकेंगे, बच जाएंगे मौत के आत्मा से आत्मा को जलाया न जा सकेगा। आग उसको जला पार भी। कोई कह दे कि मरोगे नहीं-कोई अथारिटी, कोई सकती है, जो उससे भिन्न है। आत्मा किसी से भी भिन्न नहीं। आत्मा प्रमाण-वचन, कोई शास्त्र! अस्तित्व से अभिन्न है, अस्तित्व ही है। इसीलिए आस्तिक, जो वृद्धावस्था में आस्तिक होने लगता है, अगर हम आत्मा शब्द को अलग कर दें और अस्तित्व शब्द को | उसके आस्तिक होने का मौलिक कारण सत्य की तलाश नहीं होती, विचार करें, तो कठिनाई बहुत कम हो जाएगी। क्योंकि आत्मा से मौलिक कारण भय से बचाव होता है, फियर से बचाव होता है। और हमें लगता है, मैं। हम आत्मा और ईगो को, अहंकार को इसलिए दुनिया में जो तथाकथित आस्तिकता है, वह भगवान के पर्यायवाची मानकर चलते हैं। इससे बहुत जटिलता पैदा हो जाती | आस-पास निर्मित नहीं, भय के आस-पास निर्मित है। और अगर है। आत्मा अस्तित्व का नाम है। उस अस्तित्व में उठी हुई एक लहर | | भगवान भी है उस आस्तिकता का, तो वह भय का ही रूप है; उससे का नाम मैं है। वह लहर उठेगी. गिरेगी: बनेगी. बिखरेगी: उस मैं भिन्न नहीं है। वह भय के प्रति ही सरक्षा है, सिक्योरिटी है। को जलाया भी जा सकता है, डुबाया भी जा सकता है। ऐसी आग | तो जब कृष्ण यह कह रहे हैं, तो एक बात बहुत स्पष्ट समझ खोजी जा सकती है, जो मैं को जलाए। ऐसा पानी खोजा जा सकता लेना कि यह आप नहीं जलाए जा सकेंगे, इस भ्रांति में मत पड़ना। है, जो मैं को डुबाए। ऐसी तलवार खोजी जा सकती है, जो मैं को | | इसमें तो बहुत कठिनाई नहीं है। घर जाकर जरा आग में हाथ काटे। इसलिए मैं को छोड़ दें। आत्मा से मैं का कोई भी लेना-देना | डालकर देख लेना, तो कृष्ण एकदम गलत मालूम पड़ेंगे। एकदम नहीं है, दूर का भी कोई वास्ता नहीं है। ही गलत बात मालूम पड़ेगी। गीता पढ़कर आग में हाथ डालकर मैं को छोड़कर जो पीछे आपके शेष रह जाता है, वह आत्मा है। | देख लेना कि आप जल सकते हैं कि नहीं! गीता पढ़कर पानी में लेकिन मैं को छोड़कर हमने अपने भीतर कभी कुछ नहीं देखा है। डुबकी लगाकर देख लेना, तो पता चल जाएगा कि डूब सकते हैं जब भी कुछ देखा है, मैं मौजूद हूं। जब भी कुछ सोचा है, मैं मौजूद या नहीं। हूं। मैं हर जगह मौजूद हूं भीतर। इतने घने रूप से हम मैं के | __ लेकिन कृष्ण गलत नहीं हैं। जो डूबता है पानी में, कृष्ण उसकी आस-पास जीते हैं कि मैं के पीछे जो खड़ा है सागर, वह हमें कभी | बात नहीं कर रहे हैं। जो जल जाता है आग में, कृष्ण उसकी बात दिखाई नहीं पड़ता। | नहीं कर रहे हैं। लेकिन क्या आपको अपने भीतर किसी एक भी और हम कृष्ण की बात सनकर प्रफल्लित भी होते हैं। जब सनाई। ऐसे तत्व का पता है, जो आग में नहीं जलता? पानी में नहीं डबता? पड़ता है कि आत्मा को जलाया नहीं जा सकता, तो हमारी रीढ़ | | अगर पता नहीं है, तो कृष्ण को मानने की जल्दी मत करना। सीधी हो जाती है। हम सोचते हैं, मुझे जलाया नहीं जा सकता। जब | | खोजना, मिल जाएगा वह सूत्र, जिसकी वे बात कर रहे हैं। हम सुनते हैं, आत्मा मरेगी नहीं, तो हम भीतर आश्वस्त हो जाते हैं | - सवाल पूछा है। पूछा है कि आत्मा न भी करती हो यात्रा, सूक्ष्म कि मैं मरूंगा नहीं। इसीलिए तो बूढ़ा होने लगता है आदमी, तो | शरीर, लिंग शरीर अगर यात्रा करता है, तो भी आत्मा का सहयोग गीता ज्यादा पढ़ने लगता है। मृत्यु पास आने लगती है, तो कृष्ण | | तो है ही। आत्मा कोआप्ट तो करती ही है। अगर इनकार कर दे की बात समझने का मन होने लगता है। मृत्यु कंपाने लगती है मन सहयोग करने से, तब तो यात्रा नहीं हो सकेगी! को, तो मन समझना चाहता है. मानना चाहता है कि कोई तो मेरे | इसे भी दो तलों पर समझ लेना जरूरी है। सहयोग भी इस जगत 1137 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 AM में दो प्रकार के हैं। एक, वैज्ञानिक जिसको कैटेलिटिक कोआपरेशन | को छूती है। न स्पर्श करती है, न उनके साथ कुछ करती। बस कहता है, कैटेलिटिक एजेंट जिसको वैज्ञानिक कहता है, उस बात | उसकी मौजूदगी, सिर्फ उसका होना। उसकी मौजूदगी के बिना नहीं को समझ लेना उचित है। एक सहयोग है, जिसमें हम पार्टिसिपेंट | | हो पाता। कहना चाहिए, उसकी मौजूदगी ही कुछ करती है; बिजली होते हैं। एक सहयोग है, जिसमें हमें भागीदार होना पड़ता है। एक | कुछ नहीं करती। और सहयोग है, जिसमें मौजूदगी काफी है, जस्ट प्रेजेंस। कृष्ण कह रहे हैं इस सूत्र में, आत्मा निष्क्रिय है, अक्रिय है, सुबह सूरज निकला। आपकी बगिया का फूल खिल गया। नान-एक्टिव है। सूरज को पता भी नहीं है कि उसने इस फूल को खिलाया। सूरज आत्मा अक्रिय है, निष्क्रिय है, कर्म नहीं करती, तो फिर यह सारी इस फूल को खिलाने के लिए निकला भी नहीं है। यह फूल न होता की सारी यात्रा, यह जन्म और मरण, यह शरीर और शरीर का तो सूरज के निकलने में कोई बाधा भी नहीं पड़ती। यह न होता तो छूटना, और नए वस्त्रों का ग्रहण और जीर्ण वस्त्रों का त्याग, यह सूरज यह न कहता कि फूल तो है नहीं, मैं किसलिए निकलूं! यह | कौन करता है? आत्मा की मौजूदगी के बिना यह नहीं हो सकता खिल गया है, इसके लिए सिर्फ सूरज की मौजूदगी, प्रेजेंस काफी है, इतना पक्का है। लेकिन आत्मा की मौजूदगी सक्रिय तत्व की बनी है। सूरज की मौजूदगी के बिना यह खिल भी न सकता, यह तरह काम नहीं करती, निष्क्रिय उपस्थिति की तरह काम करती है। बात पक्की है। लेकिन सूरज की मौजूदगी इसको खिलाने के लिए __ जैसे समझें कि बच्चों की क्लास लगी है। शिक्षक नहीं है। नहीं है, यह बात भी इतनी ही पक्की है। सूरज की मौजूदगी में यह | चिल्ला रहे हैं, शोरगुल कर रहे हैं, नाच रहे हैं। फिर शिक्षक कमरे खिल गया है। । में आया। सन्नाटा छा गया, चप्पी हो गई। अपनी जगह बैठ गए हैं. लेकिन यह भी बहुत ठीक नहीं है। क्योंकि सूरज की किरणें किताबें पढ़ने लगे हैं। अभी शिक्षक ने एक शब्द नहीं बोला। अभी कुछ करती हैं। चाहे सूरज को पता हो, चाहे न पता हो। सूरज की | शिक्षक ने कुछ किया नहीं। अभी उसने यह भी नहीं कहा कि चुप किरणें उसकी कलियों को खोलती हैं। सूरज की किरणें उस पर हो जाओ। अभी उसने यह भी नहीं कहा कि गलत कर रहे हो। अभी चोट भी करती हैं। चोट कितनी ही बारीक और सूक्ष्म हो, लेकिन उसने कुछ किया ही नहीं। अभी वह सिर्फ प्रवेश हआ है। पर उसकी चोट होती है। मौजूदगी, और कुछ हो गया है। शिक्षक कैटेलिटिक एजेंट है इस सूरज की किरणों का भी वजन है। सूरज की किरणें भी प्रवेश | क्षण में। अभी कुछ कर नहीं रहा है। करती हैं। कोई एक वर्ग मील पर जितनी सूरज की किरणें पड़ती हैं, ये सारे उदाहरण बिलकुल ठीक नहीं हैं, सिर्फ आपको खयाल उसका कोई एक छटांक वजन होता है। बहुत कम है। एक वर्ग मील | आ सके, इसलिए कह रहा हूं। आत्मा की मौजूदगी-लेकिन पूछा पर जितनी किरणें पड़ती हैं, अगर हम इकट्ठी कर सकें, तो कहीं एक जा सकता है, मौजूद होने का भी उसका निर्णय तो है ही; डिसीजन छटांक वजन होगा। एक तो इकट्ठा करना मुश्किल है। अनुमान है। | तो है ही! शिक्षक कमरे में आया है, नहीं आता। आने का निर्णय वैज्ञानिकों का, इतना वजन होगा। इतना भी सही, तो भी सूरज फूल | | तो लिया ही है। यह भी कोई कम काम तो नहीं है। आया है। आत्मा की पखुड़ियों पर कुछ करता है। तो वह भी कैटेलिटिक एजेंट नहीं कम से कम निर्णय तो ले ही रही है जीवन में होने का। अन्यथा है, इनडायरेक्ट पार्टिसिपेंट है, परोक्ष रूप से भाग लेता है। | जीवन के प्रारंभ का कोई अर्थ नहीं है। कैसे जीवन प्रारंभ होगा! तो लेकिन कैटेलिटिक एजेंट वैज्ञानिक बहुत दूसरी चीज को कहते | आत्मा क्यों निर्णय ले रही है जीवन के प्रारंभ का? मौजूद होने की हैं। जैसे कि हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलकर पानी बनता है। तो | भी क्या जरूरत है? क्या परपज है? आप हाइड्रोजन और आक्सीजन एक कमरे में बंद कर दें, तो भी पानी तो यहां थोड़े और गहरे उतरना पड़ेगा। एक बात तो यह समझ नहीं बनेगा। सब तरह से सब मौजूद है, लेकिन पानी नहीं बनेगा। | लेनी जरूरी है कि स्वतंत्रता सदा दोहरी होती है। स्वतंत्रता कभी लेकिन उस कमरे में बिजली की एक धारा दौड़ा दें। तो बस, इकहरी नहीं होती। स्वतंत्रता सदा दोहरी होती है। स्वतंत्रता का तत्काल हाइड्रोजन और आक्सीजन के अणु मिलकर पानी बनाना मतलब ही यह होता है कि आदमी या जिसके लिए स्वतंत्रता है, शुरू कर देंगे। सब तरह से खोज-बीन की गई, बिजली की धारा | वह विपरीत भी कर सकता है। कुछ भी नहीं करती। न वह हाइड्रोजन को छूती है, न आक्सीजन समझ लें, एक गांव में हम डुंडी पीट दें और कहें कि प्रत्येक 1382 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mआत्म-विद्या के गूढ़ आयामों का उदघाटन - आदमी अच्छा काम करने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन बुरा काम नहीं | | लेकिन वह आनंद कहां है? साधन पूरे हो गए, लेकिन वह साध्य कर सकता। तो उस गांव में अच्छा काम करने की स्वतंत्रता भी नहीं | कहां है? भवन बन गया, लेकिन अतिथि कहां है? उसी दिन रह जाएगी। अच्छा काम करने की स्वतंत्रता में इम्प्लाइड है, छिपी | | आदमी अमीर होता है। वही उसका सौभाग्य है। लेकिन बहुत कम । है, बुरा काम करने की स्वतंत्रता। और जो आदमी बुरा काम कर अमीर आदमी अमीर होते हैं। ही नहीं सकता, उसने अच्छा काम किया है, ऐसा कहने का कोई | वह अमीर आदमी अमीर था; चिंता पकड़ गई उसे। उसने अपने अर्थ नहीं रह जाता। घर के लोगों को कहा कि बहुत दिन प्रतीक्षा कर ली, अब मैं खोज स्वतंत्रता दोहरी है, समस्त तलों पर। आत्मा स्वतंत्र है, अस्तित्व में जाता हूं। अब तक सोचता था कि इंतजाम कर लूंगा, तो आनंद स्वतंत्र है। उस पर कोई परतंत्रता नहीं है। उसके अतिरिक्त कोई है का अतिथि आ जाएगा। इंतजाम पूरा है, अतिथि का कोई पता ही नहीं, जो उसे परतंत्र कर सके। अस्तित्व फ्रीडम है, अस्तित्व चलता नहीं। अब मैं उसकी खोज पर निकलता हूं। बहुत-से स्वातंत्र्य है। और स्वातंत्र्य में हमेशा दोहरे विकल्प हैं। आत्मा चाहे | | हीरे-जवाहरात अपने साथ लेकर वह गया। गांव-गांव पूछता था . तो दोनों यात्राएं कर सकती है-संसार में, शरीर में, बंधन में लोगों से कि आनंद कहां मिलेगा? लोगों ने कहा, हम खुद ही बंधन के बाहर. संसार के बाहर. शरीर के बाहर। ये दोनों तलाश में हैं। इस गांव तक हम उसी की तलाश में पहुंचे हैं। रास्तों संभावनाएं हैं। और संसार का अनुभव, संसार के बाहर उठने के | | पर लोगों से पूछता था, आनंद कहां मिलेगा? वे यात्री कहते कि अनुभव की अनिवार्य आधारशिला है। विश्रांति का अनुभव, तनाव | हम भी सहयात्री हैं, फेलो ट्रेवलर्स हैं; हम भी खोज में निकले हैं। के अनुभव के बिना असंभव है। मुक्ति का अनुभव, अमुक्त हुए तुम्हें पता चल जाए, तो हमें भी खबर कर देना। बिना असंभव है। जिससे पूछा उसी ने कहा कि तुम्हें खबर मिल जाए, तो हमें भी _.मैं एक छोटी-सी कहानी निरंतर कहता रहता हूं। मैं कहता रहता | बता देना। हमें कुछ पता नहीं, हम भी खोज में हैं। थक गया, हूं कि एक अमीर आदमी, एक करोड़पति, जीवन के अंत में सारा परेशान हो गया, मौत करीब दिखाई पड़ने लगी। आनंद की कोई धन पाकर चिंतित हो उठा। चिंतित हो उठा कि आनंद अब तक खबर नहीं। मिला नहीं! सोचा था जीवनभर धन, धन, धन। सोचा था, धन फिर एक गांव से गुजर रहा था, तो किसी से उसने पूछा। झाड़ के साधन बनेगा, आनंद साध्य होगा। साधन पूरा हो गया, आनंद की | | नीचे एक आदमी बैठा हुआ था। देखकर ऐसा लगा कि शायद यह कोई खबर नहीं। साधन इकट्ठे हो गए, आनंद की वीणा पर कोई | आदमी कोई जवाब दे सके। क्योंकि अंधकार घिर रहा था सांझ का, स्वर नहीं बजता। साधन इकट्ठा हो गया, भवन तैयार है, लेकिन | लेकिन उस आदमी के आस-पास कुछ अलौकिक प्रकाश मालूम आनंद का मेहमान आता हुआ दिखाई नहीं पड़ता, उसकी कोई | | पड़ता था। रात उतरने को थी, लेकिन उसके चेहरे पर चमक थी पदचाप सुनाई नहीं पड़ती है। चिंतित हो जाना स्वाभाविक है। । | सुबह की। पकड़ लिए उसके पैर, धन की थैली पटक दी। और कहा गरीब आदमी कभी चिंतित नहीं हो पाता, यही उसका दुर्भाग्य | | कि ये हैं अरबों-खरबों रुपए के हीरे-जवाहरात-आनंद चाहिए! है। अगर वह चिंतित भी होता है, तो साधन के लिए होता है कि __उस फकीर ने आंखें ऊपर उठाईं और उसने कहा कि सच में कैसे धन मिले, कैसे मकान मिले! अमीर आदमी की जिंदगी में | | चाहिए? बिलकुल तुम्हें आज तक कभी आनंद नहीं मिला? उसने पहली दफा साध्य की चिंता शुरू होती है। क्योंकि साधन पूरा होता कहा, कभी नहीं मिला। उसने कहा, कभी कोई थोड़ी-बहत धन है। अब वह देखता है, साधन सब इकट्ठे हो गए, जिसके लिए | बजी हो! कोई धुन नहीं बजी। उसने कहा, कभी थोड़ा-बहुत स्वाद इकट्ठे किए थे, वह कहां है! आया हो! उस आदमी ने कहा, बातों में समय खराब मत करो; तुम इसलिए जब तक किसी आदमी की जिंदगी में साध्य का खयाल | | पहले आदमी हो, जिसने एकदम से यह नहीं कहा कि मैं भी खोज न उठे, तब तक वह गरीब है। चाहे उसके पास कितना ही धन | | रहा हूं। मुझे बताओ! उस फकीर ने पूछा, कोई परिचय ही नहीं है? इकट्ठा हो गया हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसके अमीर होने | | उसने कहा, कोई परिचय नहीं है। की खबर उसी दिन मिलती है, जिस दिन वह यह सोचने को तैयार | इतना कहना था कि वह फकीर उस झोले को, जिसमें हो जाता है-सब है जिससे आनंद मिलना चाहिए ऐसा सोचा था, | | हीरे-जवाहरात थे, लेकर भाग खड़ा हुआ। उस अमीर ने तो सोचा 1390 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m गीता दर्शन भाग-1 AM भी नहीं था। वह उसके पीछे भागा और चिल्लाया, मैं लुट गया। | का अपना ही चुनाव है कि वह खोए और पाए। परमात्मा संसार में तुम आदमी कैसे हो! गांव परिचित था फकीर का, अमीर का तो | अपने को खोकर पा रहा है; खोता रहेगा, पाता रहेगा; अंधेरे में परिचित नहीं था। गली-कूचे वह चक्कर देने लगा। सारा गांव जुट | उतरेगा और प्रकाश में आकर जागेगा कि प्रकाश है। गया। गांव भी पीछे भागने लगा। अमीर चिल्ला रहा है, छाती पीट ___ इसलिए कृष्ण से अगर हम पूछेगे, तो वे कहेंगे, लीला रहा है, आंख से आंसू बहे जा रहे हैं। और वह कह रहा है, मैं लुट | | है-अपने से ही अपने को छिपाने की, अपने से ही अपने को गया; मैं मर गया; मेरी जिंदगीभर की कमाई है। उसी के सहारे मैं | | खोजने की, अपने से ही अपने को पाने की-लीला है, बहुत आनंद को खोज रहा है: अब क्या होगा! मेरे दुख का कोई अंत नहीं गंभीर मामला नहीं है। बहुत सीरियस होने की जरूरत नहीं है। है। मुझे बचाओ किसी तरह इस आदमी से; मेरा धन वापस | इसलिए कृष्ण से ज्यादा नान-सीरियस, गैर-गंभीर आदमी खोजना दिलवाओ। वह गांवभर में चक्कर लगाकर भागता हुआ फकीर मुश्किल है। और जो गंभीर हैं, वे खबर देते हैं कि उन्हें जीवन के वापस उसी झाड़ के नीचे आ गया, जहां अमीर का घोड़ा खड़ा था। | पूरे राज का अभी पता नहीं चला है। जीवन का पूरा राज यही है कि झोला जहां से उठाया था वहीं पटककर, जहां बैठा था वहीं झाड़ के | जिसे हम तलाश रहे हैं, उसे हमने खोया है। जिसे हम खोज रहे हैं, पास फिर बैठ गया। उसे हमने छिपाया है। जिसकी तरफ हम जा रहे हैं, उसकी तरफ से ___ पीछे से भागता हुआ अमीर आया और सारा गांव। अमीर ने हम खुद आए हैं। झोला उठाकर छाती से लगा लिया और भगवान की तरफ हाथ | | पर ऐसा है। और आप पूछे, क्यों है? तो उस क्यों का कोई उत्तर उठाकर कहा, हे भगवान, तेरा परम धन्यवाद! फकीर ने पूछा, कुछ | नहीं है। एक क्यों तो जरूर जिंदगी में होगा, जिसका कोई उत्तर नहीं आनंद मिला? उस अमीर ने कहा, कुछ ? बहुत-बहुत मिला। ऐसा | होगा। वह क्यों हम कहां जाकर पकड़ते हैं, यह दूसरी बात है। आनंद जीवन में कभी भी नहीं था। उस फकीर ने कहा, आनंद के | | लेकिन अल्टिमेट व्हाई, आखिरी क्यों का कोई उत्तर नहीं हो सकता पहले दखी होना जरूरी है: पाने के पहले खोना जरूरी है: होने के है। नहीं हो सकता, इसीलिए फिलासफी, दर्शनशास्त्र फिजूल के पहले न होना जरूरी है: मुक्ति के पहले बंधन जरूरी है; ज्ञान के चक्कर में घम जाता है। वह क्यों की तलाश करता है। पहले अज्ञान जरूरी है; प्रकाश के पहले अंधकार जरूरी है। इसको थोड़ा समझ लेना उचित है। इसलिए आत्मा एक यात्रा पर निकलती है, वह धन खोने की दर्शनशास्त्र क्यों की तलाश करता है-ऐसा क्यों है? एक यात्रा है। असल में जिसे हम खोते नहीं, उसे हम कभी पाने का | कारण मिल जाता है; फिर वह पूछता है, यह कारणं क्यों है? फिर अनुभव नहीं कर सकते। और इसलिए जब जिन्होंने पाया है, जैसे | | दूसरा कारण मिल जाता है; फिर वह पूछता है, यह कारण क्यों है? कृष्ण, जैसे बुद्ध...जब बुद्ध को मिला ज्ञान, लोगों ने पूछा, क्या | | फिर इनफिनिट रिग्रेस हो जाता है। फिर अंतहीन है यह सिलसिला। मिला? तो बुद्ध ने कहा, मिला कुछ भी नहीं। जो मिला ही हुआ और हर उत्तर नए प्रश्न को जन्म दे जाता है। हम कोई भी कारण था, उसको जाना भर। लेकिन बीच में खोना जरूरी था। स्वास्थ्य | | खोज लें, फिर भी क्यों तो पूछा ही जा सकता है। ऐसा कोई कारण का अनुभव करने के लिए भी बीमार होना अनिवार्य प्रक्रिया है। | हो सकता है क्या, जिसके संबंध में सार्थक रूप से क्यों न पूछा जा ऐसा जीवन का तथ्य है। ऐसी फैक्टिसिटी है। सके? नहीं हो सकता। इसलिए दर्शनशास्त्र एक बिलकुल ही अंधी तो जब आप पूछते हैं, क्या जरूरत है आत्मा को संसार में जाने | गली है। की? तो मैं कहता हूं, मुक्ति के अनुभव के लिए। और आत्मा | | | विज्ञान नहीं पछता-क्यों विज्ञान पछता है क्या. व्हाट) संसार में आने के पहले भी मुक्त है, लेकिन उस मुक्ति का कोई इसलिए विज्ञान अंधी गली नहीं है। धर्म भी नहीं पूछता—क्यों? बोध नहीं हो सकता; उस मुक्ति की कोई प्रतीति नहीं हो सकती; | | धर्म भी पूछता है-व्हाट, क्या? इसे समझ लेना आप। उस मुक्ति का कोई एहसास नहीं हो सकता। खोए बिना एहसास | | विज्ञान और धर्म बहुत निकट हैं। विज्ञान की भी दुश्मनी अगर असंभव है। है, तो फिलासफी से है। और धर्म की भी अगर दुश्मनी है, तो इसलिए संसार एक परीक्षण है। संसार एक एक्सपेरिमेंट है, फिलासफी से है। आमतौर से ऐसा खयाल नहीं है। लोग समझते स्वयं को खोने का। संसार इससे ज्यादा कुछ भी नहीं है। यह आत्मा हैं कि धर्म तो खुद ही एक फिलासफी है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-विद्या के गूढ़ आयामों का उदघाटन धर्म बिलकुल भी फिलासफी नहीं है। धर्म एक विज्ञान है। धर्म यह पूछता है, क्या? क्यों नहीं। क्योंकि धर्म जानता है कि अस्तित्व से क्या का उत्तर मिल सकता है। क्यों का कोई उत्तर नहीं मिल सकता। विज्ञान भी पूछता है, क्या ? विज्ञान पूछता है, पानी क्या है ? हाइड्रोजन और आक्सीजन। आप पूछें कि क्यों हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलते हैं? वैज्ञानिक कहेगा, दार्शनिक से पूछो। हमारी लेबोरेटरी में हम क्या खोजते हैं। हम बता सकते हैं कि हाइड्रोजन और आक्सीजन से मिलकर पानी बनता है । क्या, हम बताते हैं । कैसे, हम बतातें हैं। क्यों, कृपा करके हमसे मत पूछो। या तो पागलों से या फिलासफर से, इनसे क्यों पूछो। वैज्ञानिक कहता है कि हम कितना ही खोजें, हम इतना ही जान सकते हैं कि क्या ! और जब हमें क्या पता चल जाए, तो हम जान सकते हैं, कैसे! पानी हाइड्रोजन और आक्सीजन से मिलकर बना है, हमने जान लिया — व्हाट । अब हम खोज कर सकते हैं कि कैसे मिला है। इसलिए विज्ञान क्या की खोज करता है और कैसे को प्रयोगशाला में ढूंढ़ लेता है। धर्म भी अस्तित्व के क्या की खोज करता है और योग में कैसे की प्रक्रिया को खोज लेता है। इसलिए धर्म का जो आनुषांगिक अंग है, वह योग है । और विज्ञान का जो आनुषांगिक अंग है, वह प्रयोग है। लेकिन धर्म का कोई संबंध नहीं है क्यों से। क्योंकि एक बात सुनिश्चित है कि हम अस्तित्व के क्यों को न पूछ पाएंगे। अस्तित्व है, और यहीं बात समाप्त हो जाती है। तो कृष्ण कह हैं कि ऐसा है कि वह जो आत्मा है, वह मरणधर्मा नहीं है। पूछें, क्यों? तो क्यों का कोई सवाल ही नहीं है। ऐसा है, थिंग्स आर सच | वह जो आत्मा है, वह आत्मा जल नहीं सकती, जन्म नहीं लेती, मरती नहीं । क्यों ? कृष्ण कहेंगे, ऐसा है । अगर तुम पूछो कि कैसे हम जानें उस आत्मा को, तो रास्ता बताया जा सकता है— जो नहीं मरती, जो नहीं जन्मती । लेकिन अगर पूछें कि क्यों नहीं मरती ? तो कृष्ण कहते हैं, कोई उपाय नहीं है। यहां जाकर सब निरुपाय हो जाता है। यहां जाकर आदमी एकदम हेल्पलेस हो जाता । यहां जाकर बुद्धि एकदम थक जाती और गिर जाती है। लेकिन बुद्धि क्यों ही पूछती है । उसका रस क्यों में है। क्योंकि अगर आप क्यों पूछें, तो बुद्धि कभी न गिरेगी और कभी न थकेगी, कभी न मरेगी। वह पूछती चली जाएगी, पूछती चली जाएगी, पूछती चली जाएगी। बचपन में मैंने एक कहानी सुनी है, आपने भी सुनी होगी। एक बूढ़ी औरत, नानी है। बच्चे उसे घर में घेर लेते हैं और कहानी पूछते हैं। वह थक गई है, उसकी सब कहानियां चुक गईं हैं। लेकिन बच्चे हैं कि रोज पूछे ही चले जाते हैं। वे फिर-फिर कहते हैं रोज रात, कहानी ! और वह बूढ़ी थक गई है, उसकी सब कहानियां चुक गई हैं। अब वह क्या करे और क्या न करे ! और बच्चे हैं कि पीछे पड़े हैं। 141 फिर उसने एक कहानी ईजाद की। ठीक वैसी ही जैसी परमात्मा की कहानी है। उसने कहानी ईजाद की। उसने कहा, एक वृक्ष पर अनंत पक्षी बैठे हैं। बच्चे खुश हुए, क्योंकि अनंत पक्षी हैं, कथा अनंत चल सकेगी। उसने कहा, एक शिकारी है, जिसके पास अनंत बाण हैं। उसने एक तीर छोड़ा। तीर के लगते ही वृक्ष पर, एक पक्षी उड़ा। बच्चों ने पूछा, फिर ? उस बूढ़ी ने कहा, उस शिकारी ने दूसरा तीर छोड़ा, फिर एक पक्षी उड़ा। बच्चों ने पूछा, फिर ! उस बूढ़ी ने कहा, फिर शिकारी ने एक तीर छोड़ा। फिर एक पक्षी उड़ा – फुर्र | बच्चों ने पूछा, फिर! फिर यह कहानी चलने लगी, बस ऐसे ही चलने लगी । फिर बच्चे थक गए और उन्होंने कहा, कुछ और नहीं होगा? उस बूढ़ी स्त्री ने कहा कि अब मैं थक गई हूं, अब और कहानी नहीं। अब यह एक कहानी काफी रहेगी। अब तुम रोज पूछना। फिर उसने एक तीर छोड़ा - अनंत हैं तीर, अनंत हैं पक्षी । | यह जो हमारे क्यों का जगत है, वह ठीक बच्चों जैसा है, जो पूछ रहे हैं, क्यों? क्यों का सवाल चाइल्डिश है, यद्यपि बहुत बुद्धिमान लोग पूछते हुए मालूम पड़ते हैं। असल में बुद्धिमानों से ज्यादा | बाल- बुद्धि के लोग खोजने मुश्किल हैं। क्यों का सवाल एकदम बचकाना है। लेकिन बड़ा कीमती मालूम पड़ता है। क्योंकि दुनिया में जिनको हम बुद्धिमान कहते हैं, वे यही पूछते रहे हैं। चाहे वे यूनान के दार्शनिक हों, चाहे भारत के हों और चाहे चीन के हों, वे यह क्यों ही पूछते रहे हैं । और फिर क्यों के उत्तर खोजते रहे हैं। किसी उत्तर | ने किसी को तृप्ति नहीं दी। किसी उत्तर से हल नहीं हुआ। क्योंकि हर उत्तर के बाद पूछने वाले ने पूछा, क्यों? फिर एक तीर, फिर पक्षी उड़ जाता है। और फिर इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है। इसलिए मैंने निरंतर पीछे आपसे कहा कि यह किताब मेटाफिजिकल नहीं है। यह कृष्ण का संदेश जो अर्जुन को है, यह कोई दार्शनिक, कोई तत्व - ज्ञान का नहीं, यह मनस-विज्ञान का है ।। इसलिए वे कह रहे हैं, ऐसा है । और एक आत्मा जब यात्रा करती Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1-m है, तो कैसे यात्रा करती है, वह मैंने आपसे कहा। यात्रा का कमी को पूरा करते हैं, फिर भी पूरा नहीं कर पाते। अगर कामना क्या-इतना ही ज्ञात है, इतना ही ज्ञात हो सका है, इतना ही ज्ञात पूरी है, तो कृत्य तत्काल हो जाता है। अगर आप इसी क्षण पूरे भाव हो सकता है, इससे शेष अज्ञात ही रहेगा। से कामना कर पाएं कि परमात्मा को जानूं, तो एक सेकेंड भी नहीं वह यह कि स्वतंत्रता के पूर्ण अनुभव के पहले परतंत्रता का गिरेगा और परमात्मा जान लिया जाएगा। अनुभव जरूरी है। मुक्ति के पूरे आकाश में उड़ने के पहले किसी | अगर बाधा पड़ती है, तो कृत्य की कमी से नहीं; बाधा पड़ती है, कारागृह, किसी पिंजरे के भीतर थोड़ी देर टिकना उपयोगी है। | भीतर मन ही पूरा नहीं कहता। वह यह कहता है, जरा और सोच उसकी यूटिलिटी है। इसलिए आत्मा यात्रा करती है। और जब तक | | लू; इतनी जल्दी भी क्या है जानने की! एक मन कहता है, जानें। आत्मा बहुत गहरी नहीं उतर जाती पाप, अंधकार, बुराई, कारागृह | आधा मन कहता है, छोड़ो। क्या रखा है! परमात्मा है भी, नहीं में, तब तक लौटती भी नहीं। है-कुछ पता नहीं है। कामना ही पूरी नहीं है। कल कोई दोपहर मुझसे पूछता था कि वाल्मीकि जैसे पापी ___ इसलिए कृष्ण जब कहते हैं, आत्मा निष्क्रिय है, तो इस बात को उपलब्ध हो जाते हैं ज्ञान को! तो मैंने कहा, वही हो पाते हैं। जो | ठीक से समझ लेना कि आत्मा के लिए कृत्य करने की अनिवार्यता मीडियाकर हैं, जो बीच में होते हैं, उनका अनुभव ही अभी पाप का | ही नहीं है। आत्मा के लिए कामना करना ही पर्याप्त कृत्य है। अगर इतना नहीं कि पुण्य की यात्रा शुरू हो सके। इसलिए वे बीच में ही | | यह खयाल में आ जाए, तो ही यह बात खयाल में आ पाएगी कि रहते हैं। लेकिन वाल्मीकि के लिए तो आगे जाने का रास्ता ही | | कृष्ण अर्जुन को समझाए चले जा रहे हैं, इस आशा में कि अगर खतम हो जाता है; कल-डि-सैक आ जाता है; वहां सब रास्ता ही समझ भी पूरी हो जाए, तो बात पूरी हो जाती है; कुछ और करने खतम हो जाता है। अब और वाल्मीकि क्या पाप करें? आखिरी आ| | को बचता नहीं है। कुछ ऐसा नहीं है कि समझ पूरी हो जाए, तो गई यात्रा। अब दूसरी यात्रा शुरू होती। | फिर शीर्षासन करना पड़े, आसन करना पड़े, व्यायाम करना पड़े, इसलिए अक्सर गहरा पापी गहरा संत हो जाता है। साधारण | | फिर मंदिर में घंटी बजानी पड़े, फिर पूजा करनी पड़े, फिर प्रार्थना पापी साधारण सज्जन ही होकर जीता है। जितने गहरे अंधकार की करनी पड़े। अगर अंडरस्टैंडिंग पूरी हो जाए, तो कुछ करने को यात्रा होगी, उतनी अंधकार से मुक्त होने की आकांक्षा का भी जन्म | बचता नहीं। वह पूरी नहीं होती है, इसलिए सब उपद्रव करना पड़ता . होता है; उतनी ही तीव्रता से यात्रा भी होती है दूसरी दिशा में भी। | है। सारा रिचुअल सब्स्टीटयूट है। जो भी क्रियाकांड है, वह समझ इसलिए आत्मा निष्क्रिय होते हुए भी कामना तो करती है यात्रा | की कमी को पूरा करवा रहा है और कुछ नहीं। उससे पूरी होती भी की। निष्क्रिय कामना भी हो सकती है। आप कुछ न करें, सिर्फ नहीं, सिर्फ वहम पैदा होता है कि पूरी हो रही है। अगर समझ पूरी कामना करें। लेकिन आत्मा के तल पर कामना ही एक्ट बन जाती हो जाए, तो तत्काल घटना घट जाती है। है, दि वेरी डिजायर बिकम्स दि एक्ट। वहां सिर्फ कामना करना ही एडिंग्टन ने अपने आत्म-संस्मरणों में लिखा है कि जब मैंने कृत्य हो जाता है। वहां कोई और कृत्य करने की जरूरत नहीं होती। जगत की खोज शुरू की थी, तो मैं कुछ और सोचता था। मैं सोचता इसलिए शास्त्र कहते हैं कि परमात्मा ने कामना की, तो जगत था, जगत वस्तुओं का एक संग्रह है। अब जब कि मैं जगत की निर्मित हुआ। बाइबिल कहती है कि परमात्मा ने कहा, लेट देअर | | खोज, जितनी मुझसे हो सकती थी, करके विदा की बेला में आ बी लाइट, एंड देअर वाज़ लाइट। कहा कि प्रकाश हो, और प्रकाश | | गया हूं, तो मैं कहना चाहता हूं, दि वर्ल्ड इज़ लेस लाइक ए थिंग हो गया। यहां प्रकाश हो और प्रकाश के हो जाने के बीच कोई भी | | एंड मोर लाइक ए थाट। अब यह नोबल प्राइज विनर वैज्ञानिक कृत्य नहीं है। सिर्फ कामना है। आत्मा की कामना कि अंधेरे को | कहे, तो थोड़ा सोचने जैसा है। वह कहता है कि जगत वस्तु के जाने, कि यात्रा शुरू हो गई। आत्मा की कामना कि मुक्त हों, कि जैसा कम और विचार के जैसा ज्यादा है। . यात्रा शुरू हो गई। आत्मा की कामना कि जानें परम सत्य को, कि | अगर जगत विचार के जैसा ज्यादा है, तो कृत्य मूल्यहीन है, यात्रा शुरू हो गई। संकल्प मूल्यवान है। कृत्य संकल्प की कमी है। इसलिए हमें और आपको अगर कृत्य करने पड़ते हैं, तो वे इसलिए करने लगता है कि कुछ करें भी, तब पूरा हो पाएगा। पड़ते हैं कि कामना पूरी नहीं है। असल में कृत्य सिर्फ कामना की। संकल्प ही काफी है। आत्मा बिलकुल निष्क्रिय है। और उसका 142 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + आत्म-विद्या के गूढ़ आयामों का उदघाटन - संकल्प ही एकमात्र सक्रियता है। संकल्प है कि हम जगत में जाएं, | | के लिए या स्टैलिन के लिए या गांधी के लिए या अलबर्ट शवित्जर तो हम आ गए। जिस दिन संकल्प होगा कि उठ जाएं वापस, उसी के लिए, इस तरह के लोगों के लिए जन्म एक मृत्यु के बाद काफी दिन हम वापस लौट जाते हैं। लेकिन जगत का अनुभव, लौटने के | समय ले लेता है-जब तक योग्य गर्भ उपलब्ध न हो। तो बुरी संकल्प के लिए जरूरी है। आत्माएं और अच्छी आत्माएं, एक्सट्रीमिस्ट; जिन्होंने बुरे होने का | ठेका ही ले रखा था जीवन में, ऐसी आत्माएं; जिन्होंने भले होने का ठेका ले रखा था, ऐसी आत्माएं-इनको रुक जाना पड़ता है। प्रश्नः भगवान श्री, बहुत सारे श्रोताओं की जिज्ञासा | जो इनमें बुरी आत्माएं हैं, उनको ही हम भूत-प्रेत कहते हैं। और मंडराती है इस प्रश्न के बारे में। क्या एस्ट्रल बाडी और । | इनमें जो अच्छी आत्माएं हैं, उनको ही हम देवता कहते रहे हैं। ये प्रेतात्मा एक ही चीज हैं? क्या ऐसी प्रेतात्मा दूसरे स्थूल काफी समय तक रुक जाती हैं, कई बार तो बहुत समय तक रुक शरीर में प्रवेश करके परेशान कर सकती है? उसका | जाती हैं। हमारी पृथ्वी पर हजारों साल बीत जाते हैं, तब तक रुक क्या उपाय है? बहुत सारे श्रोताजनों ने यह पूछा है। | जाती हैं। पूछा है कि क्या ये दूसरे के शरीर में प्रवेश कर सकती हैं? कर सकती हैं। प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में जितनी संकल्पवान सा मैंने कहा, साधारण व्यक्ति, सामान्यजन, जो न आत्मा हो, उतनी ही रिक्त जगह नहीं होती। जितनी विल पावर की बहुत बुरा है, न बहुत अच्छा है...। चार तरह के लोग आत्मा हो, उतनी ही उसके शरीर में रिक्त जगह नहीं होती, जिसमें हैं। साधारणजन, जो अच्छाई और बुराई के मिश्रण हैं। कोई दूसरी आत्मा प्रवेश कर सके। जितनी संकल्पहीन आत्मा हो, असाधारणजन, जो या तो शुद्ध बुराई हैं अधिकतम या शुद्ध उतनी ही रिक्त जगह होती है। अच्छाई हैं अधिकतम। तीसरे वे लोग, जो न बुराई हैं, न अच्छाई इसे थोड़ा समझना जरूरी है। जब आप संकल्प से भरते हैं, तब हैं—दोनों नहीं हैं। इनके लिए क्या नाम दें, कहना कठिन है। चौथे | । आप फैलते हैं। संकल्प एक्सपैंडिंग चीज है। और जब आपका वे लोग, जो बुराई और अच्छाई में बिलकुल समतुल हैं, बैलेंस्ड | संकल्प निर्बल होता है, तब आप सिकुड़ते हैं। जब आप हीन-भाव हैं। ये तीसरे और चौथे लोग ऐसे हैं, जिनकी जन्म की यात्रा बंद हो | से भरते हैं, तो सिकुड़ जाते हैं। यह बिलकुल सिकुड़ने और फैलने जाएगी। उनकी हम पीछे बात करेंगे। पहले और दूसरे लोग ऐसे हैं, | की घटना घटती है भीतर। जिनकी जन्म की यात्रा जारी रहेगी। तो जब आप कमजोर होते हैं, भयभीत होते हैं, डरे हुए होते हैं, जो पहली तरह के लोग हैं—मिश्रण; अच्छे भी, बुरे भी, दोनों | | आत्मग्लानि से भरे होते हैं, आत्म-अविश्वास से भरे होते हैं, स्वयं ही एक साथ; कभी बुरे, कभी अच्छे; अच्छे में भी बुरे, बुरे में भी | | के प्रति अश्रद्धा से भरे होते हैं, स्वयं के प्रति निराशा से भरे होते अच्छे; सबका जोड़ हैं; निर्णायक नहीं, इनडिसीसिव: इधर से | हैं, तब आपके भीतर का जो सूक्ष्म शरीर है, वह सिकुड़ जाता है। उधर डोलते रहते हैं इनके लिए साधारणतया मरने के बाद | और आपके इस शरीर में इतनी जगह होती है फिर कि कोई भी तत्काल गर्भ मिल जाता है। क्योंकि इनके लिए बहुत गर्भ उपलब्ध | आत्मा प्रवेश कर सकती है। आप दरवाजा दे सकते हैं। हैं। सारी पृथ्वी इन्हीं के लिए मैन्युफैक्चर कर रही है। इनके लिए __ आमतौर से भली आत्माएं प्रवेश नहीं करती हैं। नहीं करने का फैक्टरी जगह-जगह है। इनकी मांग बहुत असाधारण नहीं है। ये | | कारण है। क्योंकि भली आत्मा जिंदगीभर ऐंद्रिक सुखों से मुक्त जो चाहते हैं, वह बहुत साधारण व्यक्तित्व है, जो कहीं भी मिल होने की चेष्टा में लगी रहती है। एक अर्थ में, भली आत्मा शरीर सकता है। ऐसे आदमी प्रेत नहीं होते। ऐसे आदमी तत्काल नया | से ही मुक्त होने की चेष्टा में लगी रहती है। लेकिन बुरी आत्मा के शरीर ले लेते हैं। | जीवन के सारे अनुभव शरीर के सुख के अनुभव होते हैं। और बुरी लेकिन बहुत अच्छे लोग और बहुत बुरे लोग, दोनों ही बहुत आत्मा, शरीर से बाहर होने पर जब उसे नया जन्म नहीं मिलता, तो समय तक अटक जाते हैं। उनके लिए उनके योग्य गर्भ मिलना | | उसकी तड़फन भारी हो जाती है; उसकी पीड़ा भारी हो जाती है। मुश्किल हो जाता है। जैसा मैंने कहा कि हिटलर के लिए या चंगेज | | उसको अपना शरीर तो मिल नहीं रहा है, गर्भ उपलब्ध नहीं है, 143 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m गीता दर्शन भाग-1 - लेकिन वह किसी के शरीर पर सवार होकर इंद्रिय के सुखों को | | के उस क्षण में उन्हें अनुभव हुआ है, जब सारा संकल्प सारे ब्रह्मांड चखने की चेष्टा करती है। तो अगर कहीं भी कमजोर संकल्प का को घेर लेता है। तब चांद-तारे बाहर नहीं, भीतर चलते हुए मालूम आदमी हो...। | पड़ते हैं। तब सारा अस्तित्व अपने ही भीतर समाया हुआ मालूम इसीलिए पुरुषों की बजाय स्त्रियों में प्रेतात्माओं का प्रवेश मात्रा | पड़ता है। संकल्प इतना भी सिकुड़ जाता है कि आदमी को यह भी में ज्यादा होता है। क्योंकि स्त्रियों को हम अब तक संकल्पवान नहीं | पक्का पता नहीं चलता कि मैं जिंदा हूं कि मर गया। इतना भी बना पाए हैं। जिम्मा पुरुष का है, क्योंकि पुरुष ने स्त्रियों का संकल्प | सिकुड़ जाता है। तोड़ने की निरंतर कोशिश की है। क्योंकि जिसे भी गुलाम बनाना | इस संकल्प के अति सिकुड़े होने की हालत में ही नास्तिकता का हो, उसे संकल्पवान नहीं बनाया जा सकता। जिसे गुलाम बनाना | | गहरा हमला होता है। संकल्प के फैलाव की स्थिति में ही हो, उसके संकल्प को हीन करना पड़ता है, इसलिए स्त्री के संकल्प आस्तिकता का गहरा हमला होता है। संकल्प जितना फैलता है, को हीन करने की निरंतर चेष्टा की गई है हजारों साल में। जो उतना ही आदमी आस्तिक अनुभव करता है अपने को। क्योंकि आध्यात्मिक संस्कृतियां हैं, उन्होंने भी भयंकर चेष्टा की है कि स्त्री | | अस्तित्व इतना बड़ा हो जाता है कि नास्तिक होने का कोई कारण के संकल्प को हीन करें, उसे डराएं, उसे भयभीत करें। क्योंकि | नहीं रह जाता। संकल्प जब बहुत सिकड़ जाता है, तो नास्तिक पुरुष की प्रतिष्ठा उसके भय पर ही निर्भर करेगी। अनुभव करता है। अपने ही पैर डांवाडोल हों, अपना ही अस्तित्व तो स्त्री में जल्दी प्रवेश...। और मात्रा बहुत ज्यादा है। दस | न होने जैसा हो, उस क्षण आस्तिकता नहीं उभर सकती; उस वक्त प्रतिशत पुरुष ही प्रेतात्माओं से पीड़ित होते हैं, नब्बे प्रतिशत स्त्रियां | जीवन के प्रति नहीं का भाव, न का भाव पैदा होता है। नास्तिकता पीड़ित होती हैं। संकल्प नहीं है; जगह खाली है; प्रवेश आसान है। और आस्तिकता मनोवैज्ञानिक सत्य हैं—मनोवैज्ञानिक। संकल्प जितना मजबूत हो, स्वयं पर श्रद्धा जितनी गहरी हो, तो | सिमन वेल ने लिखा है कि तीस साल की उम्र तक मेरे सिर में हमारी आत्मा हमारे शरीर को पूरी तरह घेरे रहती है। अगर संकल्प भारी दर्द था। चौबीस घंटे होता था। तो मैं कभी सोच ही नहीं पाई और बड़ा हो जाए, तो हमारा सूक्ष्म शरीर हमारे इस शरीर के बाहर । | कि परमात्मा हो सकता है। जिसके सिर में चौबीस घंटे दर्द है, भी घेराव बनाता है—बाहर भी। इसलिए कभी किन्हीं व्यक्तियों के | | उसको बहुत मुश्किल है मानना कि परमात्मा हो सकता है। पास जाकर, जिनका संकल्प बहुत बड़ा है, आप तत्काल अपने | अब यह बड़े मजे की बात है कि सिरदर्द जैसी छोटी चीज भी संकल्प में परिवर्तन पाएंगे। क्योंकि उनका संकल्प उनके शरीर के परमात्मा को दरवाजे के बाहर कर सकती है। वह ईश्वर के न होने बाहर भी वर्तुल बनाता है। उस वर्तुल के भीतर अगर आप गए, तो | की बात करती रही। उसे कभी खयाल भी न आया कि ईश्वर के न आपका संकल्प परिवर्तित होता हुआ मालूम पड़ेगा। बहुत बुरे | | होने का बहुत गहरा कारण मेडिकल है। उसे खयाल भी नहीं आया आदमी के पास भी। | कि ईश्वर के न होने का कारण सिरदर्द है। तर्क और दलीलें और अगर एक वेश्या के पास जाते हैं, तो भी फर्क पड़ेगा। एक संत | नहीं। जिसके सिर में दर्द है, उसके मन से नहीं का भाव उठता है। के पास जाते हैं, तो भी फर्क पड़ेगा। क्योंकि उसके संकल्प का | उसके मन से हां का भाव नहीं उठता। हां के भाव के लिए भीतर वर्तुल, उसके सूक्ष्म शरीर का वर्तुल, उसके स्थूल शरीर के भी बड़ी प्रफुल्लता चाहिए, तब हां का भाव उठता है। बाहर फैला होता है। यह फैलाव बहुत बड़ा भी हो सकता है। इस | | फिर सिरदर्द ठीक हो गया। तब उसे एहसास हुआ कि उसके फैलाव के भीतर आप अचानक पाएंगे कि आपके भीतर कुछ होने भीतर से इनकार का भाव कम हो गया है। तब उसे एहसास हुआ लगा, जो आपका नहीं मालूम पड़ता। आप कुछ और तरह के | कि वह न मालूम किस अनजाने क्षण में नास्तिक से आस्तिक होने आदमी थे, लेकिन कुछ और हो रहा है भीतर। लगी। तो हमारा संकल्प इतना छोटा भी हो सकता है कि इस शरीर के संकल्प अगर क्षीण है, तो प्रेतात्माएं प्रवेश कर सकती हैं; बुरी भीतर भी सिकुड़ जाए, इतना बड़ा भी हो सकता है कि इस शरीर | | प्रेतात्माएं, जिन्हें हम भूत कहें, प्रवेश कर सकती हैं, क्योंकि वे के बाहर भी फैल जाए। वह इतना बड़ा भी हो सकता है कि पूरे | | आतुर हैं। पूरे समय आतुर हैं कि अपना शरीर नहीं है, तो आपके गांड को घेर ले। जिन लोगों ने कहा अहं ब्रह्मास्मि वह संकल्प शरीर से ही थोडा-सा रस ले लें। और शरीर के रस शरीर के बिना 144 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आत्म-विद्या के गूढ़ आयामों का उदघाटन पर एक नहीं लिए जा सकते हैं, यह तकलीफ है। शरीर के रस शरीर से ही | लेकिन सात सौ साल पहले हवाई जहाज ही नहीं था। इसलिए बड़ी लिए जा सकते हैं। मुश्किल में वैज्ञानिक पड़ गए हैं उस नक्शे को पाकर। बहुत अगर एक कामुक आत्मा है, सेक्सुअल आत्मा है और उसके कोशिश की गई कि सिद्ध हो जाए कि वह नक्शा सात सौ साल पास अपना शरीर नहीं है, तो सेक्सुअलिटी तो पूरी होती है, शरीर | | पुराना नहीं है, लेकिन सिद्ध करना मुश्किल हुआ है। वह कागज नहीं होता, इंद्रियां नहीं होतीं। अब उसकी पीड़ा आप समझ सकते | | सात सौ साल पुराना है। वह स्याही सात सौ साल पुरानी है। वह हैं। उसकी पीड़ा बड़ी मुश्किल की हो गई। चित्त कामुक है, और | भाषा सात सौ साल पुरानी है। जिन दीमकों ने उस कागज को खा उपाय बिलकुल नहीं है, शरीर नहीं है पास में। वह किसी के भी लिया है, वे छेद भी पांच सौ साल पुराने हैं। लेकिन वह नक्शा बिना शरीर में प्रवेश करके कामवासना को तृप्त करने की चेष्टा कर हवाई जहाज के नहीं बन सकता। सकती है। ___ तो एक तो रास्ता यह है कि सात सौ साल पहले हवाई जहाज शुभ आत्माएं आमतौर से प्रवेश नहीं करतीं, जब तक कि रहा हो, जो कि ठीक नहीं है। सात हजार साल पहले रहा हो, इसकी आमंत्रित न की जाएं। अनइनवाइटेड उनका प्रवेश नहीं होता। | संभावना है; सात सौ साल पहले रहा हो, इसकी संभावना नहीं है। क्योंकि उनके लिए शरीर की कोई आकांक्षा नहीं है। लेकिन | | क्योंकि सात सौ साल बहुत लंबा फासला नहीं है। सात सौ साल इनविटेशन पर, आमंत्रण पर, उनका प्रवेश हो सकता है। आमंत्रण | | पहले हवाई जहाज रहा हो और बाइसिकल न रही हो, यह नहीं हो का मतलब इतना ही हुआ कि अगर कोई ऐसी घड़ी हो, जहां उनका | | सकता। क्योंकि हवाई जहाज एकदम से आसमान से नहीं बनते। उपयोग किया जा सके, जहां वे सहयोगी हों और सेवा दे सकें, तो उनकी यात्रा है-बाइसिकल है, कार है, रेल है, तब हवाई जहाज उपलब्ध हो जाती है। बुरी आत्मा हमेशा अनइनवाइटेड बन पाता है। ऐसा एकदम से टपक नहीं जाता आसमान मे। प्रवेश करती है, घर के पीछे के दरवाजे से; भली आत्मा आमंत्रित तो रास्ता यह है कि हवाई जहाज रहा हो, जो कि सात सौ साल होकर प्रवेश कर सकती है। | पहले नहीं था। लेकिन भली आत्माओं का प्रवेश निरंतर कम होता चला गया | । दूसरा रास्ता यह है कि अंतरिक्ष के यात्री आए हों-जैसा कि है, क्योंकि आमंत्रण की विधि खो गई है। और बुरी आत्माओं का | | एक रूसी वैज्ञानिक ने सिद्ध करने की कोशिश की है कि किसी प्रवेश बढ़ता चला गया है। क्यों? क्योंकि संकल्प दीन-हीन और | | दूसरे प्लेनेट से कोई यात्री आए हों और उन्होंने यह नक्शा दिया हो। नकारात्मक, निगेटिव हो गया है। इसलिए आज पृथ्वी पर देवता | लेकिन दूसरे प्लेनेट से यात्री सात सौ साल पहले आए हों, यह भी की बात करना झूठ है; भूत की बात करना झूठ नहीं है। प्रेत अभी | संभव नहीं है। सात हजार साल पहले आए हों, यह संभव है। भी अस्तित्ववान हैं; देवता कल्पना हो गए हैं। क्योंकि सात सौ साल बहुत लंबी बात नहीं है। इतिहास के घेरे की __ लेकिन देवताओं को बुलाने की, निमंत्रण की विधियां थीं। | बात है। हमारे पास कम से कम दो हजार साल का तो सुनिश्चित सारा वेद उन्हीं विधियों से भरा हुआ है। उसके अपने सीक्रेट इतिहास है। उसके पहले का इतिहास नहीं है। इसलिए इतनी बड़ी मैथड्स हैं कि उन्हें कैसे बुलाया जाए, उनसे कैसे तारतम्य, उनसे | घटना सात सौ साल पहले घटी हो कि अंतरिक्ष से यात्री आए हों कैसे कम्युनिकेशन, उनसे कैसे संबंध स्थापित किया जाए, उनसे | और उसका एक भी उल्लेख न हो, जब कि सात सौ साल पहले चेतना कैसे जुड़े। और निश्चित ही, बहुत कुछ है जो उनके द्वारा | की किताबें पूरी तरह उपलब्ध हैं, संभव नहीं है। ही जाना गया है। और इसीलिए उसके लिए आदमी के पास कोई ___ मैं तीसरा सझाव देता है, जो अब तक नहीं दिया गया। और वह प्रमाण नहीं है। सुझाव मेरा यह है कि यह जो नक्शे की खबर है, यह किसी आत्मा अब यह जानकर आपको हैरानी होगी कि सात सौ साल पुराना | के द्वारा दी गई खबर है, जो किसी व्यक्ति में इनवाइटेड हुई। जो एक पृथ्वी का नक्शा बेरूत में मिला है। सात सौ साल पुराना, पृथ्वी | किसी व्यक्ति के द्वारा बोली। का नक्शा, बेरूत में मिला है। वह नक्शा ऐसा है, जो बिना हवाई | | पृथ्वी गोल है, यह तो पश्चिम में अभी पता चला। ज्यादा समय जहाज के नहीं बनाया जा सकता। जिसके लिए हवाई जहाज की नहीं हुआ, अभी कोई तीन सौ साल। लेकिन हमारे पास भूगोल ऊंचाई पर उड़कर पृथ्वी देखी जाए, तो ही बनाया जा सकता है। शब्द हजारों साल पुराना है। तब भूगोल जिन्होंने शब्द गढ़ा होगा, 1451 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1 उनको पृथ्वी गोल नहीं है, ऐसा पता रहा हो, नहीं कहा जा सकता। सकती है। लेकिन हमारे पास ऐसी कोई प्रयोगशाला थी, इसकी नहीं तो भूगोल शब्द कैसे गढ़ेंगे! लेकिन आदमी के पास जमीन खबर नहीं मिलती। यह सर्पगंधा की खबर, आमंत्रित आत्माओं से गोल है-इसको जानने के साधन बहुत मुश्किल मालूम पड़ते हैं। | मिली हुई खबर है। और बहुत देर नहीं है कि हमें आमंत्रित सिवाय इसके कि यह संदेश कहीं से उपलब्ध हुआ हो। | आत्माओं के उपयोग फिर खोजने पड़ेंगे।। __ आदमी के ज्ञान में बहुत-सी बातें हैं, जिनकी कि प्रयोगशालाएं इसलिए आज जब आप वेद को पढ़ें, तो कपोल-कल्पना हो नहीं थीं, जिनका कि कोई उपाय नहीं था। जैसे कि लुकमान के | जाती है, झूठ मालूम पड़ता है कि क्या बातचीत कर रहे हैं ये-इंद्र संबंध में कथा है। और अब तो वैज्ञानिक को भी संदेह होने लगा | आओ, वरुण आओ, फलां आओ, ढिका आओ। और इस तरह है कि कथा ठीक होनी चाहिए। | | बात कर रहे हैं कि जैसे सच में आ रहे हों। और फिर इंद्र को भेंट लुकमान के संबंध में कथा है कि उसने पौधों से जाकर पूछा कि | भी कर रहे हैं, इंद्र से प्रार्थना भी कर रहे हैं। और इतने बड़े वेद में बता दो, तुम किस बीमारी में काम आ सकते हो? पौधे बताते हुए | कहीं भी एक जगह कोई ऐसी बात नहीं मालूम पड़ती कि कोई एक मालूम नहीं पड़ते। लेकिन दूसरी बात भी मुश्किल मालूम पड़ती है भी आदमी शक कर रहा हो कि क्या पागलपन की बात कर रहे हो! कि लाखों पौधों के संबंध में लुकमान ने जो खबर दी है, वह इतनी | | किससे बात कर रहे हो! देवता, वेद के समय में बिलकुल जमीन सही है, कि या तो लुकमान की उम्र लाखों साल रही हो और पर चलते हुए मालूम पड़ते हैं। लुकमान के पास आज से भी ज्यादा विकसित फार्मेसी की निमंत्रण की विधि थी। सब हवन, यज्ञ बहुत गहरे में निमंत्रण की प्रयोगशालाएं रही हों, तब वह जांच कर पाए कि कौन-सा पौधा विधियां हैं, इनविटेशंस हैं, इनवोकेशंस हैं। उसकी बात तो कहीं किस बीमारी में काम आता है। लेकिन लुकमान की उम्र लाखों आगे होगी, तो बात कर लेंगे। साल नहीं है। और लुकमान के पास कोई प्रयोगशाला की खबर लेकिन यह जो आपने पूछा, तो सूक्ष्म शरीर ही स्थूल शरीर से नहीं है। लुकमान तो अपना झोला लिए जंगलों में घूम रहा है और मुक्त रहकर प्रेत और देव दिखाई पड़ता है। पौधों से पूछ रहा है। पौधे बता सकेंगे? मेरी अपनी समझ और है। पौधे तो नहीं बता सकते, लेकिन शुभ आत्माएं पौधों के संबंध में खबर दे सकती हैं। बीच में मीडिएटर अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्। कोई आत्मा काम कर रही है, जो पौधों की बाबत खबर दे सकती तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि । । २६ ।। है कि यह पौधा इस काम में आ जाएगा। और यदि तू इसको सदा जन्मने और सदा मरने वाला माने, अब यह बड़े मजे की बात है, जैसे कि हमारे मुल्क में आयुर्वेद तो भी हे अर्जुन, इस प्रकार शोक करना योग्य नहीं है। की सारी खोज बहुत गहरे में प्रयोगात्मक नहीं है, बहुत गहरे में देवताओं के द्वारा दी गई सूचनाओं पर निर्भर है। इसलिए आयुर्वेद की कोई दवा आज भी प्रयोगशाला में सिद्ध होती है कि ठीक है। कष्ण का यह वचन बहुत अदभुत है। यह कृष्ण अपनी लेकिन हमारे पास कभी कोई बड़ी प्रयोगशाला नहीं थी, जिसमें पृ० तरफ से नहीं बोलते, यह अर्जुन की मजबूरी देखकर हमने उसको सिद्ध किया हो। ८ कहते हैं। कृष्ण कहते हैं, लेकिन तुम कैसे समझ जैसे सर्पगंधा है। अब आज हमको पता चला कि वह सच में | | पाओगे कि आत्मा अमर है? तुम कैसे जान पाओगे इस क्षण में कि ही, सुश्रुत से लेकर अब तक सर्पगंधा के लिए जो खयाल था, वह | आत्मा अमर है? छोड़ो, तुम यही मान लो, जैसा कि तुम्हें मानना ठीक साबित हुआ। लेकिन अब पश्चिम में सर्पेटीना-सर्पगंधा | सुगम होगा कि आत्मा मर जाती है, सब समाप्त हो जाता है। लेकिन का रूप है वह–अब वह भारी उपयोग की चीज हो गई है। पागलों | | महाबाहो! कृष्ण कहते हैं अर्जुन से, अगर ऐसा ही तुम मानते हो, के इलाज के लिए अनिवार्य चीज हो गई है। लेकिन यह सर्पगंधा तब भी मृत्यु के लिए सोच करना व्यर्थ हो जाता है। जो मिट ही जाता का पता कैसे चला होगा? क्योंकि आज तो पश्चिम के पास | है, उसको मिटाने में इतनी चिंता क्या है? जो मिट ही जाएगा-तुम प्रयोगशाला है, जिसमें सर्पगंधा की केमिकल एनालिसिस हो नहीं मिटाओगे तो भी मिट जाएगा-उसको मिटाने में इतने परेशान 146 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आत्म-विद्या के गूढ़ आयामों का उदघाटन पर क्यों हो? और जो मिट ही जाता है, उसमें हिंसा कैसी? | भी नहीं सुना होगा। एक यंत्र को तोड़ते वक्त तो हम नहीं कहते कि हिंसा हो गई। इस वक्त जीसस का मुझे स्मरण आता है। जीसस ने कहा है, एक घड़ी को फोड़ दें पत्थर पर पटककर, तब तो नहीं कहते कि कान हैं तुम्हारे पास, लेकिन तुम सुनते कहां! आंख है तुम्हारे पास, हिंसा हो गई, तब तो हम नहीं कहते कि बड़ा पाप हो गया! क्यों? लेकिन तुम देखते कहां! क्योंकि कुछ भी तो नहीं था घड़ी में, जो न मिटने वाला हो। कृष्ण को ऐसा ही लगा होगा। नहीं सुन रहा है, नहीं सुन रहा है, तो कृष्ण कहते हैं, जो मिट ही जाने वाले यंत्र की भांति हैं, जिनमें | नहीं समझ रहा है। बात भी सुनने और समझने से आने वाली कहां कोई अजर, अमर तत्व ही नहीं हैं, तो मिटा दो इन यंत्रों को, हर्ज | है! कसूर भी उसका क्या है! बात अस्तित्वगत है, बात अनुभूतिगत क्या है? फिर चिंतित क्यों होते हो? और कल तम भी मिट | है। मात्र सुनने से कैसे समझ में आ जाएगी? जाओगे, तो किस पर लगेगा पाप? कौन होगा भागीदार पाप का? नहीं, अभी कृष्ण को और मेहनत लेनी पड़ेगी। और-और कौन भोगेगा? कौन किसी यात्रा पर तुम जा रहे हो, जहां कि इनको आयामों से दरवाजे उसके खटखटाने पड़ेंगे। अभी तक वे जो कह मारने का जिम्मा और रिस्पांसिबिलिटी तुम्हारी होने को है? तुम भी | | रहे थे, पर्वत के शिखर से कह रहे थे। अब वे अंधेरी गली का तर्क नहीं बचोगे। ये भी मर जाएंगे, तुम भी मर जाओगे; डस्ट अनटु ही अंधेरी गली के लिए उपयोग कर रहे हैं। डस्ट, धूल धूल में गिर जाएगी। तो चिंता क्या करते हो? लेकिन ध्यान रहे, यह कृष्ण अपनी तरफ से नहीं बोलते। कृष्ण इतनी बात कहकर अर्जुन की आंखों में देखते होंगे, कुछ परिणाम जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्बुवं जन्म मृतस्य च। नहीं होता है। परिणाम आसान भी नहीं है। आपकी आंखों में देखें, तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।। २७ ।। तो जानता हूं कि नहीं होता है। अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत। आत्मा अमर है, सुनने से नहीं होता है कुछ। देखा होगा कृष्ण अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना । । २८ ।। ने कि वह अर्जुन वैसा ही निढाल बैठा है। ये बातें उसके सिर पर क्योंकि ऐसा होने से तो जन्मने वाले की निश्चित मृत्यु और से गुजर जाती हैं। सुनता है कि आत्मा अमर है, लेकिन उसकी चिंता मरने वाले का निश्चित जन्म होना सिद्ध हुआ। इससे भी तू में कोई अंतर नहीं पड़ता। तो कृष्ण यह वचन मजबूरी में अर्जुन की इस बिना उपाय वाले विषय में शोक करने को योग्य नहीं तरफ से बोलते हैं। वे कहते हैं, छोड़ो, मुझे छोड़ो। मैं जो कहता है। (और यह भीष्मादिकों के शरीर मायामय होने से अनित्य हूं, उसे जाने दो। फिर ऐसा ही मान लो, तुम जो कहते हो, वही हैं, इससे शरीरों के लिए शोक करना उचित नहीं है, ठीक है। लेकिन ध्यान रहे, वे कहते हैं, ऐसा ही मान लो, लेट अस क्योंकि) हे अर्जुन, संपूर्ण प्राणी जन्म से पहले बिना शरीर सपोज। कहते हैं, ऐसा ही स्वीकार कर लेते हैं। तुम जो कहते हो, वाले और मरने के बाद भी बिना शरीर वाले ही हैं। वही मान लेते हैं कि आत्मा मर जाती है, तो फिर तुम चिंता कैसे केवल बीच में ही शरीर वाले (प्रतीत होते हैं। कर रहे हो? फिर चिंता का कोई भी कारण नहीं। फिर धूल धूल में फिर उस विषय में क्या चिंता है? गिर जाएगी। मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी। पानी पानी में खो जाएगा। आग आग में लीन हो जाएगी। आकाश आकाश में तिरोहित हो जाएगा। फिर चिंता कैसी? मन याल आपको आया होगा कि कृष्ण जब अपनी तरफ यह अर्जुन के ही तर्क से, अर्जुन की ही ओर से कृष्ण कोशिश असे बोल रहे थे, तब उन्होंने अर्जुन को मूर्ख भी कहा। करते हैं। यह कृष्ण का वक्तव्य बताता है कि अर्जुन को देखकर जब वे अपनी सतह से बोल रहे थे, तब अर्जुन को कैसी निराशा उन्हें न हुई होगी। यह वक्तव्य बहुत मजबूरी में दिया | मूढ़ कहने में भी उन्हें कठिनाई न हुई। लेकिन जब वे अर्जुन की हुआ वक्तव्य है। यह वक्तव्य खबर देता है कि अर्जुन बैठा सुनता | | तरफ से बोल रहे हैं, तब उसे महाबाहो, भारत...तब उसे बड़ी रहा होगा। फिर भी उसकी आंखों में वही प्रश्न रहे होंगे, वही चिंता | | प्रतिष्ठा दे रहे हैं, बड़े औपचारिक शब्दों का उपयोग कर रहे हैं। रही होगी, वही उदासी रही होगी। सुन लिया होगा उसने और कुछ | जब अपनी तरफ से बोल रहे थे, तब उसे निपट मूढ़ कहा, कि तू 147 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 निपट गंवार है, तू बिलकुल मूढ़ है, तू बिलकुल मंद बुद्धि है। लेकिन अब उसी मंद बुद्धि अर्जुन को वे कहते हैं, हे महाबाहो ! अब उसकी ही जगह उतरकर बात कर रहे हैं। अब ठीक उसके कंधे पर हाथ रखकर बात कर रहे हैं। अब ठीक मित्र जैसे बात कर रहे हैं। क्योंकि इतनी बात से लगा है कि जिस शिखर की उन्होंने बात कही, वह उसकी पकड़ में शायद नहीं आती। बहुत बार ऐसा हुआ है। मोहम्मद ने कहा है कि मैं वैसा कुआं नहीं हूं कि अगर तुम मेरे पास पानी पीने न आओ, तो मैं तुम्हारे पास न आऊं । अगर तुम मोहम्मद के पास न आओगे, तो मोहम्मद तुम्हारे पास आएगा। और अगर प्यासा कुएं के पास न आएगा, तो कुआं ही प्यासे के पास जाएगा। कृष्ण अर्जुन के पास वापस आकर खड़े हो गए हैं। ठीक वहीं खड़े थे, भौतिक शरीर तो वहीं खड़ा था पूरे समय, लेकिन पहले वे बोल रहे थे बहुत ऊंचाई से। वहां से, जहां आलोकित शिखर है। तब वे अर्जुन को कह सके, तू नासमझ है। अब वे अर्जुन को कह रहे हैं कि तेरी समझ ठीक है। तू अपनी ही समझ का उपयोग कर। अब मैं तेरी समझ से ही कहता हूं। लेकिन अब वे जो कह रहे हैं, वह सिर्फ तर्क और दलील की बात है। क्योंकि जो अनुभव को न पकड़ पाए, फिर उसके लिए तर्क और दलील के अतिरिक्त पकड़ने को कुछ भी नहीं रह जाता; कोई उपाय नहीं रह जाता। जो तर्क और दलील को ही पकड़ पाए, तो फिर तर्क और दलील की ही बात कहनी पड़ती है। लेकिन उस बात में प्राण नहीं है, वह बल नहीं है। वह बल हो नहीं सकता। क्योंकि कृष्ण जानते हैं कि वे जो कह रहे हैं, अब सिर्फ तर्क है, अब सिर्फ दलील है। अब वे यह कह रहे हैं कि तुझे ही ठीक मान लेते हैं। लेकिन यह जो शरीर बना है, जिन भौतिक तत्वों से, जिस माया से, खो जाएगा उसमें । विद्वान पुरुष इसके लिए चिंता नहीं किया करते। विद्वान और ज्ञानी के फर्क को भी ठीक से समझ लेना चाहिए। क्योंकि पहले कृष्ण पूरे समय कह रहे हैं कि जो ऐसा जान लेता है, वह ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है। लेकिन अब वे कह रहे हैं - ज्ञानी नहीं- - अब वे कह रहे हैं, विद्वान पुरुष चिंता को उपलब्ध नहीं हो । विद्वान का वह तल नहीं है, जो ज्ञानी का है। विद्वान तर्क के तल पर जीता है, युक्ति के तल पर जीता है। ज्ञानी अनुभूति के तल पर जीता है। ज्ञानी जानता है, विद्वान सोचता है। लेकिन यही सही, कृष्ण कहते हैं, नहीं ज्ञानी होने की तैयारी तेरी, तो विद्वान ही हो जा। सोच मत कर, चिंता मत कर। क्योंकि सीधी-सी बात है कि जब सब खो ही जाता है, इतना तो तू सोच ही सकता है, यह तो विचार में ही आ जाता है कि सब खो जाता है, सब मिट जाता है, तो फिर चिंता मत कर, मिट जाने दे। तू बचाएगा कैसे ? तू बचा कैसे सकेगा? तो जो अपरिहार्य है— दैट व्हिच इज़ इनएविटेबल - जो अपरिहार्य है, जो होगा ही, होकर ही रहेगा, उसमें तू ज्यादा से ज्यादा निमित्त है, अपने को निमित्त समझ ले । विद्वान हो जा, चिंता से मुक्त हो। लेकिन इसे समझ लेना। कृष्ण ने जब अर्जुन को मूढ़ भी कहा, तब भी इतना अपमान न था, जितना अब विद्वान होने के लिए कहकर हो गया है। मूढ़ कहा, तब तक भरोसा था उस पर अभी । अभी आशा थी कि उसे खींचा जा सकता है शिखर पर । उसे | देखकर वह आशा छूटती है। अब वे उसे प्रलोभन दे रहे हैं विद्वान | होने का। वे कह रहे हैं कि कम से कम, बुद्धिमान तो तू है ही। और | बुद्धिमान पुरुष को चिंता का कोई कारण नहीं, क्योंकि बुद्धिमान | पुरुष ऐसा मानकर चलता है कि सब चीजें बनी हैं, मिट जाती हैं। कुछ बचता ही नहीं है पीछे, बात समाप्त हो जाती है। रास्ते में मैं आ रहा था, तो मेरे जो सारथी थे यहां लाने वाले, वे कहने लगे कि कृष्ण बड़ा अपमान करते हैं अर्जुन का कभी मूर्ख कहते हैं, कभी नपुंसक कह देते हैं उसको; यह बात ठीक नहीं है। . अब वे बड़ा सम्मान कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, हे महाबाहो, हे भारत, विद्वान पुरुष शोक से मुक्त हो जाते हैं । तू भी विद्वान है । | लेकिन मैं आपसे कहता हूं, अपमान अब हो रहा है। जब उसे मूढ़ कहा था, तो बड़ी आशा से कहा था कि शायद यह चिनगारी, शायद | यह चोट... वह ठीक शॉक ट्रीटमेंट था। वह बेकार चला गया। वह ठीक शॉक ट्रीटमेंट था, बड़ा धक्का था। अर्जुन को काफी क्रोध चढ़ा | देते हैं वे । लेकिन उसको क्रोध भी नहीं चढ़ा। उसे सुनाई ही नहीं पड़ा कि वे क्या कह रहे हैं। वह अपनी ही रटे चला जाता है। तब वे अब, अब यह बिलकुल निराश हालत में कृष्ण कह रहे हैं। ऐसे बहुत उतार-चढ़ाव गीता में चलेंगे। कभी आशा बनती है | कृष्ण को, तो ऊंची बात कहते हैं। कभी निराशा आ जाती है, तो फिर नीचे उतर आते हैं। इसलिए कृष्ण भी इसमें जो बहुत-सी बातें कहते हैं, वे एक ही तल पर कही गई नहीं हैं। कृष्ण भी चेतना के बहुत से सोपानों पर बात करते हैं। कहीं से भी— लेकिन अथक | चेष्टा करते हैं कि अर्जुन कहीं से भी कहीं से भी उस यात्रा पर निकल जाए, जो अमृत और प्रकाश को उसके अनुभव में ला दे । 148 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Om आत्म-विद्या के गूढ़ आयामों का उदघाटन पर आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन वे कहते हैं, लेकिन वह आत्मा सोचने-समझने, मनन से नहीं माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः । उपलब्ध होता है; विचार से नहीं उपलब्ध होता है। एक तो यही आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति आश्चर्य है कि मुश्किल से कभी कोई उसके संबंध में विचार करता श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् । । २९ ।। है। लेकिन विचार करने वाला भी उसे पा नहीं लेता है। पाता तो उसे और हे अर्जुन, यह आत्मतत्व बड़ा गहन है, इसलिए कोई वही है, जो विचार करते-करते विचार का भी अतिक्रमण कर जाता (महापुरुष) ही इस आत्मा को आश्चर्य की तरह देखता है | है। जो विचार करते-करते वहां पहुंच जाता है, जहां विचार कह और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही आश्चर्य की तरह। | देता है कि बस, अब आगे मेरी गति नहीं है। इसके तत्व को कहता है और दूसरा कोई ही इस आत्मा को एक तो करोड़ों में कभी कोई विचार शुरू करता है। और फिर आश्चर्य की तरह सुनता है और कोई सुनकर भी इस आत्मा उन करोड़ों में, जो विचार करते हैं, कभी कोई एक विचार की सीमा को नहीं जानता। के आगे जाता है। और विचार की सीमा के आगे जाए बिना, उसका कोई अनुभव नहीं है। क्योंकि आत्मा का होना विचार के पूर्व है। आत्मा विचार के पीछे और पार है। विचार आत्मा के ऊपर उठी हुई व ड़ी अदभुत बात है। एक तो कृष्ण कहते हैं, इस आत्मा लहरें हैं, तरंगें हैं। विचार आत्मा की सतह पर दौड़ते हुए हवा के प की दिशा में किसी भी मार्ग से गति करने वाला एक | झोंके हैं। विचार से आत्मा को नहीं जाना जा सकता। आत्मा से आश्चर्य है-एक मिरेकल, एक चमत्कार। किसी भी | | विचारों को जाना जा सकता है। क्योंकि विचार ऊपर हैं, आत्मा दिशा से उन्मुख होने वाला आत्मा की तरफ-एक चमत्कार है। | पीछे है। विचार को आत्मा से जाना सकता है, विचार से आत्मा को क्योंकि करोड़ों-करोड़ों में कभी कोई एक उस ऊंचाई की तरफ | | नहीं जाना जा सकता। मैं अपने हाथ से इस रूमाल को पकड़ आंख उठाता है। अन्यथा हमारी आंखें तो जमीन में गड़ी रह जाती| सकता हूं। लेकिन इस रूमाल से अपने हैं, आकाश की तरफ कभी उठती ही नहीं। नीचाइयों में उलझी रह हाथ पीछे है। विचार बहुत ऊपर है। जाती हैं, ऊंचाइयों की तरफ हमारी आंख की कभी उड़ान नहीं | __एक जगत है हमारे बाहर, वस्तुओं का; वह बाहर है। फिर एक होती। कभी हम पंख नहीं फैलाते आकाश की तरफ। कभी जगत है हमारे भीतर, विचारों का; लेकिन वह भी बाहर है। हम करोड़ों-करोड़ों में कोई एक आदमी...। | उसके भी पीछे हैं। हमारे बिना वह नहीं हो सकता। हम उसके बिना इस जगत में सबसे बड़ा आश्चर्य शायद यही है कि कभी कोई | भी हो सकते हैं। रात जब बहुत गहरी नींद में सो गए होते आदमी स्वयं को जानने के लिए आतुर और पिपासु होता है। होना हैं—सुषुप्ति में-तब कोई विचार नहीं रह जाता, लेकिन आप होते नहीं चाहिए ऐसा; लेकिन है ऐसा। मैं कौन हूं? यह कोई पूछता ही हैं। सुबह कहते हैं, स्वप्न भी नहीं था, विचार भी नहीं था, बड़ी नहीं। होना तो यह चाहिए कि यह बुनियादी प्रश्न होना चाहिए | गहरी थी नींद। लेकिन आप तो थे। विचार के बिना आप हो सकते प्रत्येक के लिए। क्योंकि जिसने अभी यह भी नहीं पूछा कि मैं कौन हैं, लेकिन कभी आपका विचार आपके बिना नहीं हो सकता। वह हूं, उसके और किसी बात के पूछने का क्या अर्थ है! और जिसने | जो पीछे है, वह विचार को जान सकता है, लेकिन विचार उसे नहीं अभी यह भी नहीं जाना कि मैं कौन हूं, वह और जानने निकल पड़ा जान सकते। है? जिसका खुद का घर अंधेरे से भरा है, जिसने वहां भी दीया नहीं | लेकिन हम विचार से ही जानने की कोशिश करते हैं। पहले तो जलाया, उससे ज्यादा आश्चर्य का आदमी नहीं होना चाहिए। । | हम जानने की कोशिश ही नहीं करते। वस्तुओं को जानने की लेकिन कृष्ण बड़ा व्यंग्य करते हैं, वे बड़ी मजाक करते हैं; बहुत | कोशिश करते हैं। वस्तुओं से किसी तरह करोड़ों में एक का आयरानिकल स्टेटमेंट है। वे यह कहते हैं कि अर्जुन, बड़े आश्चर्य | छुटकारा होता है, तो विचारों में उलझ जाता है। क्योंकि वस्तुओं के की बात है कि कभी करोड़ों-करोड़ों में कोई एक आदमी आत्मा के बाद विचारों का जगत है। विचार से भी किसी का छटकारा हो, तो संबंध में खोज पर जानने पर निकलता है। लेकिन पीछे और एक स्वयं को जान पाता है। मजेदार बात कहते हैं। __ तो कृष्ण कहते हैं, चिंतन से, मनन से, अध्ययन से, प्रवचन से 149 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m गीता दर्शन भाग-1 AM उसे नहीं जाना जा सकता। एक और मजे की बात उन्होंने इसमें कही | | तकलीफ, इनकी उलझन बड़ी गहरी है। कुछ इन्होंने जाना है, जो है कि आश्चर्य है कि कोई आत्मा के संबंध में समझाए, उपदेश दे। ये चाहेंगे कि सबको जना दें। जो ये चाहेंगे कि जो इन्हें मिला है, पहली तो बात इसलिए आश्चर्य है कि कोई आत्मा के संबंध में वह सबको मिल जाए। जो आनंद की वर्षा और जो अमृत का सागर उपदेश दे, क्योंकि आत्मा किसी की भी आवश्यकता नहीं है; | इनमें उतर आया है, सब में उतर आए। लेकिन समझाने की बड़ी उपदेश सुनेगा कौन? नो वन्स नेसेसिटी। बाजार में वही चीज बिक | मुश्किल है। शब्द बेकार हैं। जिसे विचार से जाना नहीं, उसे विचार सकती है, जो किसी की जरूरत हो। आत्मा किसी की भी जरूरत | से कहेंगे कैसे! और जिसे शब्द छोड़कर जाना, उसे शब्द से प्रकट नहीं है। इसलिए जो आत्मा के संबंध में उपदेश देने की हिम्मत कैसे करेंगे! तो आश्चर्य इसलिए भी है कि वह कहा नहीं जा करता है, बिलकुल पागल आदमी है। कोई जिस चीज को लेने को सकता, फिर भी कहना ही पड़ेगा, फिर भी कहना ही पड़ा है। तैयार नहीं, उसको बेचने निकल पड़े! इसलिए एक और एब्सर्ड, बिलकुल असंगत सी घटना दुनिया वह कष्ण को खद भी समझ में आ रहा होगा कि अर्जन की जो में घटी कि बद्ध कहते हैं. कहा नहीं जा सकता: और जितना बद्ध मांग नहीं, जो उसकी डिमांड नहीं, वे उसकी सप्लाई कर रहे हैं। | बोलते हैं, उतना कोई आदमी नहीं बोलता। और कृष्ण कहते हैं, वह बेचारा कुछ और मांग रहा है। वह मांग रहा है एस्केप, वह मांग | | समझाया नहीं जा सकता; और समझाए चले जा रहे हैं। और रहा है पलायन, वह मांग रहा है कंसोलेशन, वह मांग रहा है | | महावीर कहते हैं, वाणी के बाहर है, शब्द के बाहर है; लेकिन यह सांत्वना। वह कह रहा है, मुझे किसी तरह बचाओ, निकालो इस | | भी तो वाणी से और शब्द से ही कहना पड़ता है। चक्कर से। वह आत्मा वगैरह की बात ही नहीं कर रहा है। वह | विगिंस्टीन ने अपने टेक्टेट्स में एक वाक्य लिखा है, दैट किसी की जरूरत नहीं है। इसलिए आश्चर्य है कि कभी कोई | | व्हिच कैन नाट बी सेड, मस्ट नाट बी सेड-जो नहीं कहा जा आदमी आत्मा को बेचने निकल जाता है! सकता, वह नहीं ही कहना चाहिए। लेकिन विगिंस्टीन की बात पर कछ लोग सनकी होते हैं. आत्मा को भी समझाने लगते हैं। अगर कष्ण, बद्ध और महावीर मान लें, तो यह दनिया बहत गरीब एक तो यह आश्चर्य है कि कोई समझने को जिसे तैयार नहीं है...|| होती, यह बहुत दीन और दरिद्र होती। अभी मैंने पढ़ा, एक ईसाई बिशप का मैं जीवन पढ़ रहा था। | तो मैं तो कहना चाहूंगा, दैट व्हिच कैन नाट बी सेड, मस्ट बी कीमती आदमी था। सारे योरोप के ईसाई पादरियों का एक सम्मेलन सेड-जो नहीं कहा जा सकता, उसे भी कहना ही चाहिए। नहीं था। तो उस बिशप ने उस पादरियों के सम्मेलन में यह कहा, उनसे कहा जा सकेगा, यह पक्का है। लेकिन नहीं कह सकने की पूछा कि मैं तुमसे यह पूछना चाहता हूं कि चर्चों में जब तुम बोलते | तकलीफ में भी कुछ संवेदित हो जाएगा, कुछ कम्युनिकेट हो हो, तो लोग सिर्फ ऊबे हुए मालूम पड़ते हैं; बोर्ड मालूम पड़ते हैं। | जाएगा। नहीं कहा जा सकता, इस मुसीबत में भी कोई चीज शब्दों अधिक तो सोए मालूम पड़ते हैं। कोई रस लेता नहीं मालूम पड़ता। | के बाहर और शब्दों के पार और पंक्तियों के बीच में निवेदित हो और लोग बार-बार घड़ी देखते मालम पड़ते हैं। कारण क्या है? जाएगी। उसी की चेष्टा चल रही है। उत्तर वे बिशप नहीं दे सके, जो इकट्ठे थे। तब जिसने पूछा था, उस | संगीत वही नहीं है, जो स्वरों में होता है; संगीत वह भी है, जो फकीर ने खुद ही कहा कि मैं समझता हूं कि कारण यह है कि तुम | | दो स्वरों के बीच के मौन में होता है। वही नहीं कहा जाता, जो शब्दों उन प्रश्नों के उत्तर दे रहे हो, जो कोई पूछता ही नहीं है, जो किसी | | में कहा जाता है; वह भी कहा जाता है, जो दो शब्दों के बीच के के प्रश्न ही नहीं हैं। साइलेंस में, शून्य में होता है। वही नहीं सुना जाता, जो शब्द से पहला तो आश्चर्य कि कोई आत्मा को समझाने निकलने की | सुना जाता है; वह भी सुना जा सकता है, जो शब्द के बाहर, हिम्मत करे, करेजियस है मामला कि कोई आत्मा की दुकान खोले, | इर्द-गिर्द, आस-पास छूट जाता है। कोई ग्राहक मिलने की उम्मीद नहीं होनी चाहिए। और दूसरा इस | तो कृष्ण कह रहे हैं. मिरेकल है. चमत्कार है। कारण भी आश्चर्य है कि आत्मा ऐसा तत्व है, जो समझाया नहीं | शेष सांझ बात करेंगे। जा सकता। कोई उपाय जिसे समझाने का नहीं है। इसलिए कृष्ण या कबीर या बुद्ध या मोहम्मद या नानक, इनकी | Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 1-2 दसवां प्रवचन जीवन की परम धन्यतास्वधर्म की पूर्णता में Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm गीता दर्शन भाग-1 AM प्रश्नः भगवान श्री, अट्ठाइसवें श्लोक पर सुबह बात निश्चित ही है। एक वृक्ष के नीचे खड़े हैं। पत्ते हवाओं में हिल रहे हैं। सूरज की अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत। रोशनी में पत्ते चमक रहे हैं। एक-एक पत्ता अलग-अलग मालूम अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिवेदना।। | होता है। और अगर पत्ते सचेतन हो जाएं, अगर एक-एक पत्ता होश इसमें कहा गया है कि आदि में अप्रकट, अंत में | | | से भर जाए, तो सोच भी न पाएगा कि साथ का जो पड़ोसी पत्ता है, अप्रकट और मध्य में प्रकट है जो, तो यह जो | वह और मैं कहीं एक हैं, कहीं नीचे शाखा पर जुड़े हैं। पड़ोस में मैनिफेस्टेड है, प्रकट है, इसमें ही द्वैतता का अनुभव | हिलते हुए पत्ते को देखकर जागा हुआ, होश में आ गया पत्ता होता है। और जो अप्रकट है, उसमें अद्वैत का दर्शन सोचेगा, कोई पराया है। किया जाता है। तो यह जो मध्य में मैनिफेस्टेड है, सोचना ठीक भी है; तर्कयुक्त भी है। क्योंकि पड़ोस में कोई पत्ता उसमें जो द्वैतता है, डुअलिज्म है, उसका परिहार करने | बूढ़ा हो रहा है और यह पत्ता तो अभी जवान है। अगर ये दोनों एक के लिए आप कोई विशेष प्रक्रिया का सूचन देंगे? | होते, तो दोनों एक साथ बूढ़े हो गए होते। पड़ोस में कोई पत्ता गिरने के करीब है, पीला होकर सूखकर गिर रहा है। गिर गया है कोई, जमीन पर सूखा पड़ा है, हवाओं में उड़ रहा है। अगर वह इस पत्ते 27 व्यक्त है प्रारंभ में, अव्यक्त है अंत में; मध्य में व्यक्त | | से एक होता, तो वह वृक्ष पर और जिससे एक है, वह पृथ्वी पर 01 का जगत है। कैसे हो सकता था! वह हरा है, कोई सूख गया है। वह नवान है, जिब्रान ने कहीं कहा है, एक रात, अंधेरी अमावस की | | कोई बूढ़ा हो गया है। कोई अभी बच्चा है, किसी की अभी कोंपल रात में, एक छोटे-से झोपड़े में बैठा था, मिट्टी का एक दीया | | फूटती है। उस पत्ते का सोचना ठीक ही है कि वह अलग है। जलाकर। टिमटिमाती थोड़ी-सी रोशनी थी। द्वार के बाहर भी | | लेकिन काश! यह पत्ता बाहर से न देखे। अभी बाहर से देख अंधकार था। भवन के पीछे के द्वार के बाहर भी अंधकार था। सब रहा है, देख रहा है दूसरे पत्ते को। काश! यह पत्ता अपने भीतर देख ओर अंधकार था। केवल उस छोटे-से झोपड़े में उस दीए की | | सके और भीतर उतरे, तो क्या बहुत दूर वह रस-धार है, जहां से थोड़ी-सी रोशनी थी। और एक रात का पक्षी फड़फड़ाता हुआ | ये दोनों पत्ते जुड़े हैं! वह भी जो बूढ़ा, वह भी जो जवान; वह भी झोपड़े के द्वार से प्रविष्ट हुआ, उसने दो या तीन चक्कर झोपड़े के जो आ रहा है, वह भी जो जा रहा है; क्या वह रस-धार बहुत दूर टेमाती रोशनी में लगाए, और पीछे के द्वार से बाहर हो । है? यह पत्ता अपने भीतर उतरे, स्वयं में उतरे, तो उस शाखा को गया। जिब्रान ने उस रात अपनी डायरी में लिखा कि उस पक्षी को | | जरूर ही देख पाएगा, जान पाएगा, जहां से सब पत्ते निकले हैं। अंधेरे से प्रकाश में दो क्षण के लिए आते देखकर, फिर प्रकाश में | लेकिन फिर वह शाखा भी समझ सकती है कि दूसरी शाखा से दो क्षण फड़फड़ाते देखकर और फिर गहन अंधकार में खो जाते | | अन्य है, भिन्न है। वह शाखा भी भीतर उतरे, तो उस वृक्ष को खोज देखकर मुझे लगा कि जीवन भी ऐसा ही है। लेने में बहुत कठिनाई नहीं है, जहां सभी शाखाएं जुड़ी हैं। लेकिन अव्यक्त है प्रारंभ में, अव्यक्त है बाद में; दो क्षण की व्यक्त की। | वह वृक्ष भी सोच सकता है कि पड़ोस में खड़ा हुआ वृक्ष और है, फड़फड़ाहट है। दो क्षण के लिए वह जो मैनिफेस्टेड है, वह जो | | अन्य है। लेकिन वह वृक्ष भी नीचे उतरे, तो क्या उस पृथ्वी को प्रकट है, उसमें फल खिलते हैं, पत्ते आते हैं, जीवन हंसता है, रोता खोजना बहत कठिन होगा, जिस पर कि दोनों वक्ष जड़े हैं और एक है और फिर खो जाता है। अव्यक्त में अद्वैत है—पहले भी, अंत | ही रस-धार से जीवन को पाते हैं! पृथ्वी भी सोचती होगी कि दूसरे में भी, दोनों ओर। मध्य में द्वैत है; द्वैत ही नहीं है, अनेकत्व है। दो | ग्रह-मंडल, तारे, चांद, सूरज अलग हैं। काश! पृथ्वी भी अपने ही नहीं हैं, अनेक हैं। सब चीजें पृथक-पृथक मालूम होती हैं। भीतर उतर सके, तो जैसे पत्ते ने उतरकर जाना, वैसे पृथ्वी भी तो पूछ रहे हैं कि उस अपृथक को, उस अभिन्न को, उस एक | जानती है कि सारा ब्रह्मांड भीतर एक से जुड़ा है! . को, उस अद्वय को, उस मूल को और आदि को, मध्य के इन व्यक्त | दो ही रास्ते हैं देखने के। एक रास्ता है जो तू से शुरू होता है, क्षणों में जानने का क्या कोई प्रयोग है? | और एक रास्ता है जो मैं से शुरू होता है। जो रास्ता तू से शुरू होता Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की परम धन्यता है, वह अनेक के दर्शन में ले जाता है। जो रास्ता मैं से शुरू होता है, वह एक के दर्शन में ले जाता है। जो तू से शुरू होता है, वह अनमैनिफेस्टेड में नहीं ले जाएगा, वह अव्यक्त में नहीं ले जाएगा, वह व्यक्त में ही ले जाएगा। क्योंकि दूसरे के तू को हम बाहर से ही छू सकते हैं, उसकी आंतरिक गहराइयों में उतरने का कोई उपाय नहीं, हम उसके बाहर ही घूम सकते हैं। भीतर तो हम सिर्फ स्वयं ही उतर सकते हैं। इसलिए प्रत्येक के भीतर वह सीढ़ी है, जहां से वह उतर सकता है वहां, जहां अब भी अव्यक्त है । सब व्यक्त नहीं हो गया है। सब कभी व्यक्त हो भी नहीं सकता। अनंत है अव्यक्त । क्योंकि जो अद्वैत है, वह अनंत भी होगा; और जो व्यक्त है, वह सीमित भी होगा । व्यक्त की सीमा है, अव्यक्त की कोई सीमा नहीं है। जो अव्यक्त है, वह अनंत है, वह अभी भी है। उस बड़े सागर पर बस एक लहर प्रकट हुई है। उस लहर ने सीमा बना ली है। वह सागर असीम है। लेकिन अगर लहर दूसरी लहर को देखे, तो सागर तक कभी न पहुंच पाएगी। दूसरी लहर से सागर तक पहुंचने का कोई भी उपाय नहीं है। क्योंकि दूसरी लहर के भीतर ही पहुंचने का कोई उपाय नहीं है । हम सिर्फ अपने ही भीतर उतर सकते हैं। और अपने ही भीतर उतरकर सबके भीतर उतर सकते हैं। स्वयं में उतरना पहली सीढ़ी है, स्वयं में उतरते ही सर्व में उतरना हो जाता है। और यह बड़े मजे की बात है कि जो दूसरे में उतरता है, उसको लगता है कि मैं हूं। और जो मैं में उतरता है, उसे लगता है, मैं नहीं हूं, सर्व है । मैं की सीढ़ी पर उतरते ही पता चलता है कि मैं भी खो गया, सर्व ही रह गया। लेकिन हम जीवन में सदा दूसरे से शुरू करते हैं, दि अदर । बस वह दूसरे से ही हम सब सोचते हैं। अपने को छोड़कर ही हम चलते हैं, उसको बाद दिए जाते हैं। जन्मों-जन्मों तक एक चीज को हम छोड़ते चले जाते हैं, निग्लेक्ट किए जाते हैं, एक चीज के प्रति हमारी उपेक्षा गहन है— स्वयं को हम सदा ही छोड़कर चलते हैं। सब जोड़ लेते हैं, सब हिसाब में ले लेते हैं। बस वह एक, जो अपना होना है, उसे हिसाब के बाहर रख देते हैं। -स्वधर्म की पूर्णता में 4 बह न गया हो ! तो उन्होंने गिनती की। निश्चित ही, गिनती उन्होंने वैसी ही की जैसी हम करते हैं। लेकिन बड़ी मुश्किल हो गई । थे तो दस, लेकिन गिनती में नौ ही निकले। एक ने की, दूसरे ने की, तीसरे नेकी, फिर तो कन्फर्म हो गया कि नौ ही बचे हैं, एक खो गया। जैसे सभी की जिंदगी का ढंग एक ही था - हम सभी का | है – प्रत्येक ने स्वयं को छोड़कर गिना । गिनती नौ हुई। अब वह जो एक खो गया, उसके लिए बैठकर वे रोने लगे। यह भी पक्का पता नहीं चलता था कि वह कौन खो गया ! ऐसे शक भी होता है। कि कोई नहीं खोया। लेकिन शक ही है, क्योंकि गणित कहता है। कि खो गया। अब गणित इतना प्रामाणिक मालूम होता है कि अब शक को अलग ही हटा देना उचित है। रो लेना भी उचित है, क्योंकि जो खो गया मित्र, उसके लिए अब और तो कुछ कर नहीं सकते। | वे वहां बैठकर एक वृक्ष के नीचे रोते हैं। वहां से एक फकीर गुजरा है। उसने पूछा कि क्या हुआ ? क्यों रोते हो ? उन्होंने कहा, एक साथी खो गया है। दस चले थे उस पार से, अब गिनते हैं तो नौ ही हैं। वे फिर छाती पीटकर रोने लगे। उस फकीर ने नजर डाली और देखा कि वे दस ही हैं। पर समझा वह फकीर । संसारी आदमी की बुद्धि और संसारी आदमी के गणित को भलीभांति जानता था। जानता था कि संसारी की भूल ही एक है। वही भूल दिखता है, हो गई है। aa ने एक किताब लिखी है, दि टेंथ मैन, दसवां आदमी । और बहुत पुरानी भारतीय कथा से वह किताब शुरू की है। उस कहानी से हम सब परिचित हैं, कि दस आदमियों ने नदी पार की। वर्षा थी, बाढ़ थी। नदी पार उतरकर सहज ही उन्होंने सोचा कि कोई उसने कहा, जरा फिर से गिनो। लेकिन एक काम करो, मैं एक - एक आदमी के गाल पर चांटा मारता हूं। जिसको मैं चांटा मारूं, वह बोले, एक ! दूसरे को मारूं, दो! तीसरे को मारूं, तीन ! मैं चांटा मारता चलता हूं। चांटा इसलिए, ताकि तुम याद रख सको कि तुम छूट नहीं गए हो। 153 बड़ी हैरानी हुई, गिनती दस तक पहुंच गई। वे बड़े चकित हुए और उन्होंने कहा, क्या चमत्कार किया? यह गिनती दस तक कैसे पहुंची? हमने बहुत गिना, लेकिन नौ पर ही पहुंचती थी! | दुनिया में उस फकीर ने कहा, दुनिया में गिनने के दो ढंग दो तरह के गणित हैं। एक गणित जो तू से शुरू होता है और एक | गणित जो मैं से शुरू होता है । जो गणित तू से शुरू होता है, वह गणित कभी भी अव्यक्त में नहीं ले जाएगा। नहीं ले जाएगा इसलिए कि तू के भीतर प्रवेश का द्वार ही नहीं है। जो गणित मैं से शुरू होता है, वह अव्यक्त में ले जाता है। इसलिए धर्म की परम अनुभूति परमात्मा है । और धर्म का प्राथमिक चरण आत्मा है। आत्मा से शुरू करना पड़ता है, Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + गीता दर्शन भाग - 14 परमात्मा पर पूर्णता होती है। स्वयं से चलना पड़ता है, सर्व में निष्पत्ति होती है। तो अपने भीतर से गिनती शुरू करें। अभी भी आपके भीतर अव्यक्त मौजूद है। झांकते ही नहीं वहां, यह दूसरी बात है। आपके भीतर अव्यक्त मौजूद है। इसे थोड़ा समझ लेना उचित होगा कि अव्यक्त आपके भीतर. कैसे है! आपके ठीक पैरों के नीचे है। जिस जमीन पर आप खड़े हैं, वहीं ! वहीं थोड़े ही दो कदम नीचे। चले नहीं कि अव्यक्त मौजूद है कौन चला रहा है आपकी श्वास को ? आप? तो जरा बंद करके देखें, तो पता चलेगा, आप नहीं चला रहे हैं। जरा रोकें, तो पता चल जाएगा, आप नहीं चला रहे हैं। श्वास धक्के देगी और चलेगी, तब आपको पता चलेगा, आपके नीचे से भी कोई और गहरे में इसे चला रहा है। खून चल रहा है चौबीस घंटे, आप नहीं चला रहे हैं। आपने कभी चलाया नहीं, चलाना पड़ता तो बहुत मुश्किल में पड़ जाते। वह काम ही इतना होता कि और कोई काम न बचता। और मिनट दो मिनट भी चूक जाते, भूल जाते, तो समाप्ति हो जाती। वह श्वास आदमी पर अगर होती चलाने की, तो दुनिया में आदमी बचता नहीं, कभी का समाप्त हो गया होता। • एक क्षण चूके कि गए। नहीं, आप सोए रहें, बेहोश पड़े रहें, शराब पीए पड़े रहें, वह श्वास चलती रहेगी, वह खून दौड़ता रहेगा। खाना तो आप खा लेते हैं, पचाता कौन है? आप ? अभी तक बड़ी से बड़ी वैज्ञानिक प्रयोगशाला रोटी को खून में बदलने में समर्थ नहीं हो पाई है। और वैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी का छोटा-सा पेट जो करता है, अगर किसी दिन हम समर्थ हुए, तो कम से कम सैकड़ों मील जगह घेरे, इतनी बड़ी फैक्टरी और लाखों लोग काम करें, इतना इंतजाम, एक आदमी के पेट में जो रहा है, उसके लिए करना पड़ेगा। लेकिन फिर भी पक्का नहीं है कि यह हो सकेगा। कौन चला रहा है? आप ? आती, नहीं आती, नहीं आती। सच तो यह है कि जितने उपाय | करता है, उतनी ही नहीं आती। और अगर कभी आती है तो उसके | उपाय की वजह से नहीं आती, उपाय कर-कर के थक गया होता है, तब आती है। नींद ला नहीं सकते आप कि ले आएं। कहां से आती है? आपके भीतर अव्यक्त से आती है। मनोवैज्ञानिक से पूछें, तो उसे थोड़ी-सी समझ मिली है उस अव्यक्त की, उसे वह अनकांशस कह रहा है। वह कह रहा है, अचेतन से आती है। पैर पर चोट लग गई है। तत्काल, तत्काल मवाद से भर जाता है घाव | आपने कुछ किया? आपने कुछ भी नहीं किया। लेकिन | पता नहीं, पूरे शरीर से वे जीवाणु दौड़कर उस घाव के पास पहुंच जाते हैं। जिसको आप मवाद कहते हैं, वह मवाद नहीं है; वह उन जीवाणुओं की पर्त है, जो तत्काल उसे चारों तरफ से घेर लेते हैं, | बाहर के जगत से सुरक्षा देने के लिए। चमड़ी तो टूट गई है, दूसरी पर्त चाहिए। वह पर्त उसे घेर लेती है। और भीतर अव्यक्त तत्काल, जो घाव बन गया है, उसे ठीक करने में लग जाता है। साधारण चिकित्सक सोचता है कि हम ठीक कर देते हैं बीमारी को। लेकिन जो असाधारण चिकित्सक हैं जगत में, जो जरा गहरे उतरे हैं मनुष्य की बीमारी में, वे कहते हैं कि नहीं, ज्यादा से ज्यादा हम थोड़ा-सा सहयोग पहुंचाते हैं; इतना भी कहना अतिशयोक्ति | है। शायद इतना ही कहना उचित है कि हम थोड़ी-सी बाधाएं अलग. करते हैं; बाकी हीलिंग फोर्स भीतर से आती है। और अब तो मनोवैज्ञानिक निरंतर इतने गहरे उतर रहे हैं, वे | कहते हैं कि अगर एक आदमी के भीतर जीने की इच्छा चली गई | है, तो घाव भरना मुश्किल हो जाता है। अगर एक आदमी के भीतर | से जीवन की इच्छा चली गई है, तो बीमारी को चिकित्सा ठीक नहीं कर पाती। क्योंकि अव्यक्त जीने की जो शक्ति थी, वह देनी | बंद कर दी, वापस ले ली। बूढ़े आदमी के शरीर में कोई बुनियादी फर्क नहीं हो गए होते हैं। लेकिन अव्यक्त सिकुड़ने लगता है। वह शक्ति वापस लौटने लगती है । उतार शुरू हो गया। अगर हम अपने भीतर थोड़ा-सा झांकें, तो हमें पता चलेगा कि हम जहां जी रहे हैं, वह शायद किसी एक बहुत बड़ी ऊर्जा का ऊपरी शिखर है। बस उस शिखर से ही हम परिचित हैं, उसके पीछे हम बिलकुल परिचित नहीं हैं। उसके पीछे अव्यक्त अभी भी मौजूद है। सभी व्यक्त घटनाओं के पीछे अव्यक्त मौजूद है। सभी दृश्य घटनाओं के पीछे अदृश्य मौजूद है। सभी चेतन घटनाओं के पीछे अचेतन मौजूद है। सभी दिखाई पड़ने वाले जगत और रूप के पीछे निश्चित ही, एक बात पक्की है कि आप नहीं चला रहे हैं। तो आपके भीतर अव्यक्त, आपके भीतर छिपी हुई कोई ताकत, आपके मैं की सीमा के पार... ! आप सोते हैं रोज । लेकिन इस भ्रांति में मत पड़ना कि आप सोते हैं, क्योंकि सोना कोई एक्ट नहीं है, कोई क्रिया नहीं है। भाषा में है। भाषा से कोई लेना-देना नहीं है। सोना बिलकुल ही क्रिया नहीं है। क्योंकि जिसको नींद नहीं आती है, उसको भलीभांति पता है कि कितनी ही करवट बदलता है, कितने ही उपाय करता है, नहीं। 154 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm जीवन की परम धन्यता-स्वधर्म की पूर्णता में - अरूप मौजूद है। जरा रूप की परत में गहरे उतरें। ' लेगा। उसका अपना ग्रेविटेशन है; उससे बड़ा कोई ग्रेविटेशन नहीं कैसे उतरें? क्या करें? है; उससे बड़ी कोई कशिश नहीं है। वह खींच लेगा। लेकिन हम दूसरे को भूलें। बहुत कठिन है। आंख बंद करें, तो भी दूसरा ही | | दूसरे को पकड़े हैं। वह दूसरे को पकड़े होने की वजह से, दूसरे के याद आता है। आंख बंद करें, तो भी दूसरा ही दिखाई पड़ता है। | साथ हम इतने जोर से चिपके हुए हैं कि वह द्वार ही नहीं खुल पाता, आंख बंद करें, तो भी दूसरे से ही मिलना होता रहता है। दूसरे से | | जहां से अव्यक्त हमें पुकार ले और खींच ले और बुला ले और आब्सेस्ड हैं, दूसरे से रुग्ण हैं। दूसरा है कि पीछा छोड़ता ही नहीं; अपने में डुबा ले। बस, चित्त में घूमता ही चला जाता है। यह जो दूसरे की भीतर भीड़ __और एक बार अव्यक्त में डूबकर लौटे, तो फिर दूसरे में भी वही है, इसे विदा करें। | दिखाई पड़ेगा, जो स्वयं में दिखाई पड़ा है। क्योंकि दूसरे को हम विदा करने का उपाय है, इस भीड़ के प्रति साक्षी का भाव करें। | वहीं तक जानते हैं, जितना हम स्वयं को जानते हैं। जिस दिन भीतर आंख बंद करके, वे जो दूसरों के प्रतिबिंब हैं, उनके साक्षी आपको अपने भीतर अव्यक्त दिखाई पड़ जाएगा, वह इटरनल भर रह जाएं। देखते रहें, कुछ कहें मत। न पक्ष लें, न विपक्ष लें। एबिस, वह अंतहीन खाई अव्यक्त की अपने भीतर मुंह खोलकर न प्रेम करें, न घृणा करें। न किसी चित्र को कहें कि आओ; न किसी दिखाई पड़ जाएगी, उस दिन प्रत्येक आंख में और प्रत्येक चेहरे में चित्र को कहें कि जाओ। बस बैठे रह जाएं और देखते रहें, देखते वही अव्यक्त दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा। फिर पत्ते में और फूल रहें, देखते रहें। धीरे-धीरे चित्र विदा होने लगते हैं। क्योंकि जिन | | में और आकाश में, सब तरफ उस अव्यक्त की मौजूदगी अनुभव मेहमानों को आतिथेय देखता ही रहे, वे मेहमान ज्यादा देर नहीं | होने लगती है। टिक सकते। मित्रता दिखाए तो भी टिक सकते हैं, शत्रुता दिखाए | लेकिन यात्रा का पहला कदम स्वयं के भीतर है। उपेक्षा या साक्षी तो भी आ सकते हैं। कुछ भी न दिखाए...। या कोई भी नाम दें, अवेयरनेस, कुछ भी नाम दें-दूसरे के जो तो बुद्ध ने एक सूत्र दिया है, उपेक्षा, इंडिफरेंस। बस, रह जाए, | चित्र भीतर हैं, दूसरे के जो प्रतिबिंब भीतर हैं, उनके प्रति होश से कुछ भी न दिखाए; न पक्ष, न विपक्ष। तो धीरे-धीरे दूसरे के चित्र | भर जाएं और कुछ मत करें, वे गिर जाते हैं। कुछ किया कि वे पकड़ बिखर जाते हैं। विचार खो जाते हैं। | | जाते हैं। कछ मत करें और अचानक आप पाएंगे कि घटना घट गई और जिस क्षण भी दूसरे के चित्र नहीं होते, उसी क्षण स्वयं के और आप अव्यक्त में उतर गए। होने का बोध पहली दफा उतरता है। जिस क्षण दूसरा आपके भीतर __ कृष्ण उसी अव्यक्त की बात कर रहे हैं। वह पहले भी था, बाद मौजूद नहीं है, उसी क्षण अचानक आपको अपनी प्रेजेंस का, अपने | | में भी है, अभी भी है। सिर्फ व्यक्त से ढंका है। जरा व्यक्त की परत होने का अनुभव होता है; कहीं से कोई झरना फूट पड़ता है जैसे। | के नीचे जाएं और वह प्रकट हो जाता है। जैसे पत्थर रखा था दूसरे का झरने के ऊपर, वह हट गया और झरने की धारा फूट पड़ी। आप पहली दफा अपनी प्रेजेंस को, अपने होने को, अपने अस्तित्व को अनुभव करते हैं और अव्यक्त में यात्रा | प्रश्न: भगवान श्री, हम अगर जीने की इच्छा छोड़ दें, . शुरू हो जाती है। उसके आगे आपको कुछ नहीं करना है। । तो क्या अव्यक्त का सिकुड़ना शुरू होता है? या जैसे एक आदमी छत से कूद जाए। कूद जाए, तब तो ठीक है। | अव्यक्त का सिकुड़ना शुरू होता है, इसके प्रभाव से कूदने के पहले पूछे कि मैं छत से कूद तो जाऊंगा, लेकिन फिर | हम जीने की इच्छा खो बैठते हैं? प्रश्न यह है कि जमीन तक आने के लिए क्या करूंगा? तो हम कहेंगे, तुम कुछ | आरंभ कहां से होता है? क्या पारस्परिक असर नहीं करना ही मत, बाकी काम जमीन कर लेगी। तुम छत से कूद भर होता? जाना, बाकी काम जमीन पर छोड़ देना। वह बड़ी कुशल है। उसका ग्रेविटेशन है, उसकी अपनी कशिश है, अपना गुरुत्वाकर्षण है, वह तुम्हें खींच लेगी। तुम सिर्फ एक कदम छत से उठा लेना। वन की इच्छा हम छोड़ दें तो अव्यक्त सिकुड़ना शुरू बस, दूसरे से एक कदम उठा लेना आप, बाकी अव्यक्त खींच UII हो जाता है, या अव्यक्त सिकुड़ना शुरू हो जाता है, Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Im गीता दर्शन भाग-1 - इसलिए हम जीवन की इच्छा छोड़ देते हैं—ये अगर दो घटनाएं को नमस्कार कर रहे हैं! होती. तो मैं कोई उत्तर दे पाता। ये दो घटनाएं नहीं हैं. यह । हमारा अहंकार करीब-करीब जीवन की घटनाओं और पीछे साइमलटेनियस, युगपत घटना है। अव्यक्त का सिकुड़ना और | अव्यक्त के चलने वाले रथ के बीच में, कुत्ते की हालत में होता है। हमारा जीने की इच्छा छोड़ देना, एक ही घटना है। हमारा जीने की । | सब नमस्कार इस मैं को होते हैं; सब पीछे से घटने वाली घटनाएं इच्छा छोड़ देना और अव्यक्त का सिकुड़ना भी एक ही घटना है। इस मैं को होती हैं। लेकिन कौन इस कुत्ते को समझाए? कैसे क्योंकि हम अव्यक्त से पृथक नहीं हैं, हम उससे अन्य नहीं हैं, हम | समझाए? उससे दूसरे नहीं हैं। यह एक ही चीज है। इस पर निर्भर करेगा कि आपने पूरे जीवन को कैसे लिया है। हां, हमें सबसे पहले जो पता चलता है, उसमें फर्क हो सकता है। जब आपको भूख लगी है, तब आपने सोचा है कि मैं भूख लगा अस्तित्व में दोनों एक चीज हैं; पता चलने में फर्क हो सकता है। एक रहा हूं या अव्यक्त से भूख आ रही है! जब आप बच्चे से जवान आदमी को पहले पता चल सकता है कि मेरी जीवन की इच्छा मरती हो गए हैं, तो आपने समझा कि मैं जवान हो गया हूं या अव्यक्त जाती है। एक आदमी को पता चल सकता है कि मेरी तो इच्छा कोई से जवानी आ रही है! मरी नहीं, लेकिन भीतर कुछ सिकुड़ना शुरू हो गया है। यह ___ यह इंटरप्रिटेशन की बात है, यह व्याख्या की बात है। घटना तो आदमियों पर निर्भर करेगा कि उनकी कहां से शुरुआत होगी। वही है, जो हो रही है, वही हो रही है। लेकिन कुत्ता अपनी व्याख्या __ अगर कोई आदमी निरंतर अहंकार में ही जीया है, तो उसकी | करने को तो स्वतंत्र है। रथ चल रहा है, नमस्कार रथ को की जा प्रतीति और होगी। और कोई आदमी निरंतर निरहंकार में जीया है, | रही है, लेकिन कुत्ते को व्याख्या करने से तो नहीं रोक सकते कि तो उसकी प्रतीति और होगी। वह प्रतीति अहंकार के अस्तित्व पर | नमस्कार मुझे हो रही है, रथ मेरे लिए चल रहा है! निर्भर करेगी, घटना के अस्तित्व पर नहीं। घटना तो एक ही है। आदमी जो व्याख्या कर रहा है, उसी से सभी कुछ अहंकारघटना एक ही है। वे घटनाएं दो नहीं हैं। लेकिन हम तो अहंकार में केंद्रित हो जाता है। अन्यथा अहंकार को छोड़ें, तो फिर दो बातें नहीं ही जीते हैं। इसलिए साधारणतः जब जीवन सिकुड़ना शुरू होता है, | रह जातीं, एक ही बात रह जाती है, क्योंकि हम भी अव्यक्त के ही अस्तित्व जब डूबना शुरू होता है, तो हमें ऐसा ही लगता है...। | हिस्से हैं। हम अगर अलग होते, तब उपाय भी था; हम भी बूढ़े आदमी कहते हुए सुने जाते हैं कि अब जीने की कोई इच्छा | अव्यक्त के ही हिस्से हैं। हम भी जो कर रहे हैं, वह भी अव्यक्त न रही। अब जीना नहीं चाहते। अब तो मौत ही आ जाए तो अच्छा ही कर रहा है। हम भी जो सोच रहे हैं, वह भी अव्यक्त ही सोच है। लेकिन अभी भी वे यह कह रहे हैं कि अब जीने की कोई इच्छा | रहा है। हम भी जो हो रहे हैं, वह भी अव्यक्त ही हो रहा है। न रही, जैसे कि अपनी इच्छा से अब तक जीते थे। लेकिन सब जिस दिन हमें ऐसा दिखाई पड़ेगा, उस दिन यह सवाल नहीं चीजों को अपने से बांधकर देखा है, तो इसको भी अपने से ही | | | बनेगा। लेकिन अभी बनेगा, क्योंकि हमें लगता है, कुछ हम कर बांधकर वे देखेंगे। | रहे हैं। कुछ हम कर रहे हैं, वह मनुष्य की व्याख्या है। उसी व्याख्या हमारी स्थिति करीब-करीब ऐसी ही है। मैंने सुना है कि जगन्नाथ | | में अर्जुन उलझा है, इसलिए पीड़ित और परेशान है। वह यह कह की रथ-यात्रा चल रही है। हजारों लोग रथ को नमस्कार कर रहे | रहा है कि मैं मारूं! इन सबको मैं काट डालूं! नहीं, ये सब मेरे हैं, हैं। एक कुत्ता भी रथ के आगे हो लिया। उस कुत्ते की अकड़ देखते | मैं यह न करूंगा। इससे तो बेहतर है कि मैं भाग जाऊं। लेकिन ही बनती है। ठीक कारण है। सभी उसको नमस्कार कर रहे हैं! जो भागना भी वही करेगा, मारना भी वही करेगा। वह कर्ता को नहीं भी सामने आता है, एकदम चरणों में गिर जाता है। सामने जो भी छोड़ पाएगा, वह मैं की व्याख्या नहीं छोड़ पा रहा है। आ जाता है, चरणों में गिर जाता है। उस कुत्ते की अकड़ बढ़ती __कृष्ण अगर कुछ भी कह रहे हैं, तो इतना ही कह रहे हैं कि तू चली जा रही है। फिर पीछे लौटकर देखता है. तो पता चलता है कि जो व्याख्या कर रहा है मैं के केंद्र से. वह केंद्र ही झठा है. वह केंद्र सामने ही नहीं स्वागत हो रहा है, पीछे भी रथ चल रहा है। | कहीं है ही नहीं। उस केंद्र के ऊपर तू जो सब समर्पित कर रहा है, स्वभावतः, जिस कुत्ते का इतना स्वागत हो रहा हो, उसके पीछे रथ | वहीं तेरी भूल हुई जा रही है। चलना ही चाहिए। यह रथ कुत्ते के पीछे चल रहा है! ये लोग कुत्ते लेकिन हमें सब चीजें दो में टूटी हुई दिखाई पड़ती हैं। यह श्वास 156 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की परम धन्यता - स्वधर्म की पूर्णता में 4 मेरे भीतर आती है, फिर दूसरी श्वास बाहर जाती है। ये दो श्वासें नहीं हैं, एक श्वास है। कोई पूछ सकता है कि मैं श्वास को बाहर निकालता हूं, इसलिए मुझे श्वास भीतर लेनी पड़ती है? या चूंकि मैं श्वास भीतर लेता हूं, इसलिए मुझे श्वास बाहर निकालनी पड़ती है? तो हम कहेंगे, भीतर आना और बाहर जाना एक ही श्वास के डोल का फर्क है। एक ही श्वास है; वही भीतर आती है, वही बाहर जाती है। असल में बाहर और भीतर भी दो चीजें नहीं हैं अव्यक्त में। बाहर और भीतर भी अव्यक्त में बाहर और भीतर भी अव्यक्त में एक ही चीज के दो छोर हैं। लेकिन जहां हम जी रहे हैं, मैनिफेस्टेड जगत में, व्यक्त में, जहां सब अनेक हो गया है, वहां सब भिन्न है, वहां सब अलग है। फिर उस अलग से हमारे सब सवाल उठते हैं। बुद्ध के पास एक व्यक्ति आया है। और बहुत सवाल पूछता है। बुद्ध ने कहा, ऐसा कर, तू सवालों के उत्तर ही चाहता है? उसने कहा, उत्तर ही चाहता हूं। बुद्ध ने कहा, और कितने लोगों से तूने पूछा है? उसने कहा, मैं बहुत लोगों से पूछकर थक चुका हूं, अब आपके पास आया हूं। बुद्ध ने कहा, इतने लोगों से पूछकर तुझे उत्तर नहीं मिला, तो तुझे यह खयाल नहीं आता कि पूछने से उत्तर मिलेगा ही नहीं! उसने कहा कि नहीं, यह खयाल नहीं आया। मुझे तो इतना ही खयाल आता है कि अब और किसी से पूछें, अब और किसी से पूछें, अब और किसी से पूछें। बुद्ध ने कहा, तो कब तक तू पूछता रहेगा? मैं भी तुझे उत्तर दे दूं उसी तरह, जैसे दूसरों ने तुझे दिए थे? या कि तुझे सच ही उत्तर चाहिए। उसने कहा, मुझे सच ही उत्तर चाहिए। तो बुद्ध ने कहा, फिर तू रुक जा; फिर तू सालभर पूछ ही मत । उसने कहा, बिना पूछे उत्तर कैसे मिलेगा ? बुद्ध ने कहा, तू प्रश्न छोड़। सालभर बाद पूछना। सालभर पूछ ही मत, सालभर सोच मत, सालभर बात ही मत कर, सालभर मौन ही हो जा। उसने कहा, लेकिन इससे क्या होगा? यह, बुद्ध ने कहा, सालभर बाद ठीक इसी दिन पूछ लेना। जब बुद्ध ने उससे यह कहा कि ठीक इसी दिन पूछ लेना, तो एक भिक्षु वृक्ष के नीचे बैठा था, खिलखिलाकर हंसने लगा। उस आदमी ने उस भिक्षु से पूछा, हंसते हैं आप, क्या बात है ? हंसने की क्या बात है ? उस भिक्षु ने कहा, पूछना हो तो अभी पूछ लेना, क्योंकि इसी धोखे में हम भी पड़े। हम साल बिता चुके हैं। | जब सालभर बाद खुद ही जान लेते हैं, तो पूछने को बचता नहीं है। पूछना हो तो अभी पूछ लेना, नहीं तो फिर पूछ ही न पाओगे। ये बुद्ध | बड़े धोखेबाज हैं। मैं भी इसी धोखे में पड़ा और पीछे मुझे पता चला कि और लोग भी इस धोखे में पड़े हैं। बुद्ध ने कहा, मैं अपने वचन पर अडिग रहूंगा। अगर सालभर बाद तू पूछेगा, तो मैं उत्तर दूंगा । साल बीत गया। फिर वही दिन आ गया। और बुद्ध ने उस आदमी को कहा कि मित्र, अब खड़े हो जाओ और प्रश्न पूछ लो ! वह हंसने लगा और उसने कहा कि जाने दें, बेकार की बात-चीत | में कोई सार नहीं है। पर बुद्ध ने कहा, वायदा था मेरा, तो मैं तुम्हें याद दिलाए देता हूं। पीछे मत कहना कि मैंने धोखा दिया। उसने कहा कि नहीं, आप उस दिन उत्तर देते तो ही धोखा होता । | क्योंकि जब मैं चुप हुआ, तब मैंने देखा कि सारे प्रश्न विचार से निर्मित थे, क्योंकि विचार ने अस्तित्व को खंड-खंड में तोड़ा हुआ था। और अस्तित्व था अखंड | अब जब मैं भीतर निर्विचार हुआ, तो मैंने पाया कि सारे प्रश्न झूठे थे; क्योंकि अस्तित्व को तोड़कर खड़े किए गए थे। उस अव्यक्त में, उस अखंड में सब प्रश्न गिर जाते हैं, लेकिन | व्यक्त में सब प्रश्न उठते हैं । तो या तो हम प्रश्न पूछते रहें, तो जिंदगी दर्शनशास्त्र बन जाती है। और या हम भीतर उतरें, तो जिंदगी धर्म बन जाती है। और अधर्म धर्म के खिलाफ उतना नहीं है, जितनी फिलासफी है, जितना दर्शन है धर्म के खिलाफ । क्योंकि वह विचार, और विचार, और विचार में ले जाता है। और हर विचार चीजों को तोड़ता चला जाता है। आखिर में सब चीजें टूट जाती हैं; प्रश्न ही प्रश्न रह जाते हैं; कोई उत्तर नहीं बचता । भीतर उतरें, वहां एक ही है, वहां दो नहीं हैं। और जहां दो नहीं हैं, वहां प्रश्न नहीं हो सकता। प्रश्न के लिए कम से कम दो का होना जरूरी है कम से कम । पूछा जा सके, इसलिए कम से कम दो का होना जरूरी है। 157 वह जो पहले था अव्यक्त, वह जो बाद में रह जाएगा अव्यक्त, वह अभी भी है। उसमें उतरना, उसमें डूबना ही मार्ग है। देही नित्यमध्योऽहं देहे सर्वस्य भारत । तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ।। ३० ।। स्वधर्मपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि । धम्र्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ।। ३१ ।। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 14 हे अर्जुन, यह आत्मा सब के शरीर में सदा ही अवध्य है, इसलिए संपूर्ण भूत प्राणियों के लिए त शोक करने को योग्य नहीं है। और अपने धर्म को देखकर भी त भय करने को योग्य नहीं है, क्योंकि धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारक कर्तव्य क्षत्रिय के लिए नहीं है। कृ ष्ण अर्जुन को कहते हैं कि और सब बातें छोड़ भी दो, तो भी क्षत्रिय हो, और क्षत्रिय के लिए युद्ध से भागना श्रेयस्कर नहीं है। थोड़ा समझ लेना जरूरी है, कई कारणों से। एक तो विगत पांच सौ वर्षों में, सभी मनुष्य समान हैं, इसकी बात इतनी प्रचारित की गई है कि कृष्ण की यह बात बहुत अजीब लगेगी, बहुत अजीब लगेगी, कि तुम क्षत्रिय हो । समाजवाद के जन्म के पहले, सारी पृथ्वी पर, उन सारे लोगों ने, जिन्होंने सोचा है और जीवन को जाना है, बिलकुल ही दूसरी उनकी धारणा थी । वह धारणा यह थी कि कोई भी व्यक्ति समान है। एक और दूसरी धारणा उस असमानता से ही बंधी हुई थी और वह यह थी कि व्यक्तियों के टाइप हैं, व्यक्तियों के विभिन्न प्रकार हैं। बहुत मोटे में, इस देश के मनीषियों ने चार प्रकार बांटे हुए थे। वे चार वर्ण थे। वर्ण की धारणा भी बुरी तरह, बुरी तरह निंदित हुई। इसलिए नहीं कि वर्ण की धारणा के पीछे कोई मनोवैज्ञानिक सत्य नहीं है, बल्कि इसलिए कि वर्ण की धारणा मानने वाले लोग अत्यंत नासमझ सिद्ध हुए। वर्ण की धारणा को प्रतिपादित जो आज लोग कर रहे हैं, अत्यंत प्रतिक्रियावादी और अवैज्ञानिक वर्ग के हैं। संग-साथ से सिद्धांत तक मुसीबत में पड़ जाते हैं! इसलिए आज बड़ी मुश्किल पड़ती है यह बात कि कृष्ण का यह कहना कि तू क्षत्रिय है । जिस दिन यह बात कही गई थी, उस दिन यह मनोवैज्ञानिक सत्य बहुत स्पष्ट था। अभी जैसे-जैसे पश्चिम में मनोविज्ञान की समझ बढ़ती है, वैसे-वैसे यह सत्य पुनः स्थापित होता जाता है। कार्ल गुस्ताव जुंग ने फिर आदमी को चार टाइप में बांटा है। और आज अगर पश्चिम में किसी आदमी की भी मनुष्य के मनस में गहरी से गहरी पैठ है, तो वह जुंग की है। उसने फिर चार हिस्सों में बांट दिया है। नहीं, आदमी एक ही टाइप के नहीं हैं। पश्चिम में जो मनोविज्ञान का जन्मदाता है फ्रायड, उसने तो मनोवैज्ञानिक आधार पर समाजवाद की खिलाफत की है। उसने कहा कि मैं कोई अर्थशास्त्री नहीं हूं, लेकिन जितना ही मैं मनुष्य के मन को जानता हूं, उतना ही मैं कहता हूं कि मनुष्य असमान है। इनइक्वालिटी इज़ दि फैक्ट, और इक्वालिटी सिर्फ एक झूठी कहानी है, पुराणकथा है। समानता है नहीं; हो नहीं सकती, क्योंकि व्यक्ति-व्यक्ति बुनियाद में बहुत भिन्न हैं। इन भिन्नताओं की अगर हम बहुत मोटी रूप-रेखा बांधें, तो इस | मुल्क ने कृष्ण के समय तक बहुत मनोवैज्ञानिक सत्य को विकसित कर लिया था और हमने चार वर्ण बांटे थे। चार वर्णों में राज है । और जहां भी कभी मनुष्यों को बांटा गया है, वह चार से कम में नहीं बांटा गया है और चार से ज्यादा में भी नहीं बांटा गया; जिन्होंने भी बांटा है - इस मुल्क में ही नहीं, इस मुल्क के बाहर भी। कुछ | कारण दिखाई पड़ता है। कुछ प्राकृतिक तथ्य मालूम होता है पीछे। ब्राह्मण से अर्थ है ऐसा व्यक्ति, जिसके प्राणों का सारा समर्पण बौद्धिक है, इंटेलेक्चुअल है। जिसके प्राणों की सारी ऊर्जा बुद्धि में रूपांतरित होती है। जिसके जीवन की सारी खोज ज्ञान की खोज है। उसे प्रेम न मिले, चलेगा; उसे धन न मिले, चलेगा; उसे पद न मिले, चलेगा; लेकिन सत्य क्या है, इसके लिए वह सब समर्पित कर सकता है। पद, धन, सुख, सब खो सकता है। बस, एक लालसा, उसके प्राणों की ऊर्जा एक ही लालसा के इर्द-गिर्द जीती है, उसके भीतर एक ही दीया जल रहा है और वह दीया यह है कि ज्ञान कैसे मिले? इसको ब्राह्मण...। आज पश्चिम में जो वैज्ञानिक हैं, वे ब्राह्मण हैं। आइंस्टीन को ब्राह्मण कहना चाहिए, लुई पाश्चर को ब्राह्मण कहना चाहिए। आज पश्चिम में तीन सौ वर्षों में जिन लोगों ने विज्ञान के सत्य की खोज में अपनी आहुति दी है, उनको ब्राह्मण कहना चाहिए। दूसरा वर्ग है क्षत्रिय का। उसके लिए ज्ञान नहीं है उसकी आकांक्षा का स्रोत, उसकी आकांक्षा का स्रोत शक्ति है, पावर है। व्यक्ति हैं पृथ्वी पर, जिनका सारा जीवन शक्ति की ही खोज है। | जैसे नीत्से, उसने किताब लिखी है, विल टु पावर । किताब लिखी है उसने कि जो असली नमक हैं आदमी के बीच - नीत्से कहता | है - वे सभी शक्ति को पाने में आतुर हैं, शक्ति के उपासक हैं, वे . सब शक्ति की खोज कर रहे हैं। इसलिए नीत्से ने कहा कि मैंने श्रेष्ठतम संगीत सुने हैं, लेकिन जब सड़क पर चलते हुए सैनिकों के पैरों की आवाज और उनकी चमकती हुई संगीनें रोशनी में मुझे 158 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mजीवन की परम धन्यता-स्वधर्म की पूर्णता में - दिखाई पड़ती हैं, इतना सुंदर संगीत मैंने कोई नहीं सुना। | ही जिसके जीवन की सारी व्यवस्था निर्मित होती है। अगर वैसे ब्राह्मण को यह आदमी पागल मालूम पड़ेगा, संगीन की | | आदमी को मोक्ष की भी बात करनी हो, तो उसके लिए मोक्ष भी धन चमकती हुई धार में कहीं कोई संगीत होता है? कि सिपाहियों के के रूप में ही दिखाई पड़ सकता है। अगर वह भगवान का भी एक साथ पड़ते हुए कदमों की चाप में कोई संगीत होता है ? संगीत | चिंतन करेगा, तो भगवान को लक्ष्मीनारायण बनाए बिना नहीं रह तो होता है कंटेंप्लेशन में, चिंतना में, आकाश के नीचे वृक्ष के पास | | सकता। इसमें उसका कोई कसूर नहीं है। सिर्फ फैक्ट, सिर्फ तथ्य बैठकर तारों के संबंध में सोचने में। संगीत तो होता है संगीत में, की बात कर रहा हूं मैं। ऐसा है। और ऐसा आदमी अगर छिपाए काव्य में। संगीत तो होता है खोज में सत्य की। यह पागल है नीत्से! अपने को, तो व्यर्थ ही कठिनाई में पड़ेगा। अगर वह दबाए अपने लेकिन नीत्से किसी एक वर्ग के लिए ठीक-ठीक बात कह रहा को, तो कठिनाई में पड़ेगा। उसके लिए जीवन की जो परम अनुभूति है। किसी के लिए तारों में कोई अर्थ नहीं होता। किसी के लिए एक | | का द्वार है, वह शायद धन की खोज से ही खुलने वाला है। इसलिए ही अर्थ होता है, एक ही संकल्प होता है कि शक्ति और ऊर्जा के | | और कहीं से खुलने वाला नहीं है। ऊपरी शिखर पर वह कैसे उठ जाए! उसे हमने कहा था क्षत्रिय। | . अब एक राकफेलर या एक मार्गन या एक टाटा, ये कोई छोटे कृष्ण पहचानते हैं अर्जुन को भलीभांति। वह टाइप क्षत्रिय का | लोग नहीं हैं। कोई कारण नहीं है इनके छोटे होने का। ये अपने वर्ग है। अभी बातें वह ब्राह्मण जैसी कर रहा है। इसमें कनफ्यूज्ड हो | में वैसे ही श्रेष्ठ हैं, जैसे कोई याज्ञवल्क्य, जैसे कोई पतंजलि, जैसे जाएगा। इसमें उपद्रव में पड़ जाएगा। उसके व्यक्तित्व का पूरा का कोई अर्जुन अपने वर्गों में होंगे। इसमें कोई तुलना नहीं है, कोई पूरा बनाव, स्ट्रक्चर, उसके मनस की एनाटामी, उसके मनस का | | कंपेरिजन नहीं है। सारा ढांचा क्षत्रिय का है। तलवार ही उसकी आत्मा है; वही उसकी | वर्ण की जो धारणा है, वह तुलनात्मक नहीं है, वह सिर्फ रौनक है, वही उसका संगीत है। अगर परमात्मा की झलक उसे | तथ्यात्मक है। जिस दिन वर्ण की धारणा तुलनात्मक हुई कि कौन कहीं से भी मिलनी है, तो वह तलवार की चमक से मिलनी है। ऊपर, कौन नीचे, उस दिन वर्ण की वैज्ञानिकता चली गई और वर्ण उसके लिए कोई और रास्ता नहीं है। एक सामाजिक अनाचार बन गया। जिस दिन वर्ण में तुलना पैदा तो उससे वे कह रहे हैं, तू क्षत्रिय है; अगर और सब बातें भी | हुई—कि क्षत्रिय ऊपर, कि ब्राह्मण ऊपर, कि वैश्य ऊपर, कि शूद्र छोड़, तो तुझसे कहता हूं कि तू क्षत्रिय है। और तुझसे मैं कहता हूं | | ऊपर, कि कौन नीचे, कि कौन पीछे-जिस दिन वर्ण का शोषण कि क्षत्रिय में यहां-वहां होकर तू सिर्फ दीन-हीन हो जाएगा, | | किया गया, वर्ण के वैज्ञानिक सिद्धांत को जिस दिन सामाजिक यहां-वहां होकर तू सिर्फ ग्लानि को उपलब्ध होगा, यहां-वहां | शोषण की आधारशिला में रखा गया. उस दिन से वर्ण की धारणा होकर तू सिर्फ अपने प्रति अपराधी हो जाएगा। अनाचार हो गई। और ध्यान रहे, अपने प्रति अपराध जगत में बड़े से बड़ा अपराध । सभी सिद्धांतों का अनाचार हो सकता है, किसी भी सिद्धांत का है। क्योंकि जो अपने प्रति अपराधी हो जाता है, वह फिर सबके शोषण हो सकता है। वर्ण की धारणा का भी शोषण हुआ। और प्रति अपराधी हो जाता है। सिर्फ वे ही लोग दूसरे के साथ अपराध | | अब इस मुल्क में जो वर्ण की धारणा के समर्थक हैं, वे उस वर्ण नहीं करते, जो अपने साथ अपराध नहीं करते। और कृष्ण की भाषा। | की वैज्ञानिकता के समर्थक नहीं हैं। उस वर्ण के आधार पर जो में समझें, तो अपने साथ सबसे बड़ा अपराध यही है कि जो उस | शोषण खड़ा है, उसके समर्थक हैं। उनकी वजह से वे तो डूबेंगे ही, व्यक्ति का मौलिक स्वर है जीवन का, वह उससे च्युत हो जाए, | वर्ण का एक बहुत वैज्ञानिक सिद्धांत भी डूब सकता है। उससे हट जाए। ___ एक चौथा वर्ग भी है, जिसे धन से भी प्रयोजन नहीं है, शक्ति तीसरा एक वर्ग और है, जिसको तलवार में सिर्फ भय के | से भी अर्थ नहीं है, ज्ञान की भी कोई बात नहीं है, लेकिन जिसका अतिरिक्त और कुछ भी नहीं दिखाई पड़ेगा; संगीत तो कभी नहीं, | | जीवन कहीं बहुत गहरे में सेवा और सर्विस के आस-पास घूमता सिर्फ भय दिखाई पड़ेगा। जिसे ज्ञान की खोज नासमझी मालूम | है। जो अगर अपने को कहीं समर्पित कर पाए और किसी की सेवा पड़ेगी कि सिरफिरों का काम है। तो तीसरा वर्ग है, जिसके लिए | कर पाए, तो फुलफिलमेंट को, आप्तता को उपलब्ध हो सकता है। धन महिमा है। जिसके लिए धन ही सब कुछ है। धन के आस-पास | | ये जो चार वर्ग हैं, इनमें कोई नीचे-ऊपर नहीं है। ऐसे चार मोटे 159 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ im+ गीता दर्शन भाग-14 विभाजन हैं। और कृष्ण की पूरी साइकोलाजी, कृष्ण का पूरा का | | स्पष्ट ढांचा दे देना चाहते थे कि आत्माएं, जो चुनाव करती हैं अपने पूरा मनोविज्ञान इस बात पर खड़ा है कि प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा | | नए जन्म के लिए, उनके लिए एकदम सुगम व्यवस्था हो जाए। तक पहुंचने का जो मार्ग है, वह उसके स्वधर्म से गुजरता है। | फिर भी भूल-चूक हो जाती थी। इतने बड़े समाज में बहुत वैज्ञानिक स्वधर्म का मतलब हिंदू नहीं, स्वधर्म का मतलब मुसलमान नहीं, | प्रयोग भी भूल-चूक ले आता है। तो कभी किसी...। का मतलब जैन नहीं: स्वधर्म का मतलब. उस व्यक्ति का अब एक पिता और एक मां जिनके दोनों के जीवन की खोज जो वर्ण है। और वर्ण का जन्म से कोई संबंध नहीं है। | ज्ञान रही है, निश्चित ही ये जिस गर्भ को निर्मित करेंगे, वह गर्भ लेकिन संबंध निर्मित हो गया। हो जाने के पीछे बहुत कारण हैं, | किसी ज्ञान की खोजी आत्मा के लिए सुगमतम होगा। इसलिए वह मैं बात करूंगा। हो जाने के पीछे कारण थे, वैज्ञानिक ही कारण बहुत संभावना है कि ब्राह्मण के घर में ब्राह्मण का टाइप पैदा हो। थे। संबंध था नहीं जन्म के साथ वर्ण का, इसलिए फ्लुइडिटी थी, | संभावना है, निश्चय नहीं है। भूल-चूक हो सकती है। इसलिए और कोई विश्वामित्र यहां से वहां हो भी जाता था। संभावना थी | भूल-चूक के लिए तरलता थी, थोड़ी यात्रा हो सकती थी। कि एक वर्ण से दूसरे वर्ण में यात्रा हो जाए। लेकिन जैसे ही यह ___ इन चार हिस्सों में जो स्ट्रैटिफिकेशन किया गया समाज का, चार सिद्धांत खयाल में आ गया और इस सिद्धांत की परम प्रामाणिकता | | हिस्सों में तोड़ दिया गया, ये चार हिस्से नीचे-ऊपर की धारणा से सिद्ध हो गई कि प्रत्येक व्यक्ति अपने वर्ण से ही, अपने स्वधर्म से | बहुत बाद में भरे। पहले तो एक बहुत वैज्ञानिक, एक बहुत ही सत्य को उपलब्ध हो सकता है, तो एक बहुत जरूरी बात पैदा | मनोवैज्ञानिक प्रयोग था, जो इनके बीच किया गया। ताकि आदमी हो गई और वह यह कि यह पता कैसे चले कि कौन व्यक्ति किस | पहचान सके कि उसके जीवन का मौलिक, उसके जीवन का वर्ण का है! अगर जन्म से तय न हो, तो शायद ऐसा भी हो सकता | मौलिक पैशन, उसके जीवन की मौलिक वासना क्या है। क्योंकि है कि एक आदमी जीवनभर कोशिश करे और पता ही न लगा पाए | | वह उसी वासना से यात्रा करके निर्वासना तक पहुंच सकता है। कि वह किस वर्ण का है। उसका क्या है झकाव, वह क्या होने को कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि तू क्षत्रिय है। और सब बातें छोड़ पैदा हुआ है—पता ही कैसे चले? तो फिर सुगम यह हो सकता है | दे, तो भी मैं तुझे कहता हूं कि तेरे लिए यही उचित है, तू लड़ने से कि अगर जन्म से कछ निश्चय किया जा सके। मत भाग। तू लड़। तू लड़ ही सकता है। तेरा सारा व्यक्तित्व ही योद्धा लेकिन जन्म से निश्चय किया कैसे जा सके? कोई आदमी किसी | का व्यक्तित्व है। तू हाथ में किताब लेकर नहीं बैठ सकता। हाथ में के घर में पैदा हो गया, इससे तय हो जाएगा? कोई आदमी किसी के | किताब रहेगी, लेकिन तेरे प्राणों तक किताब नहीं पहुंच सकती। तू घर में पैदा हो गया, ब्राह्मण के घर में, तो ब्राह्मण हो जाएगा? सेवा करने की फिक्र में पड़ जाए कि सेवक हो जाऊं, लोगों के पैर जरूरी नहीं है। लेकिन बहुत संभावना है। प्रोबेबिलिटी ज्यादा | दबाऊं, तो तेरे हाथ पैर दबाते रहेंगे, तेरी आत्मा वहां नहीं होगी। तू है। और उस प्रोबेबिलिटी को बढ़ाने के लिए, सर्टेन करने के लिए | धन कमाने में लग जा, तो तू रुपये इकट्ठा करता रहेगा, लेकिन वे बहुत से प्रयोग किए गए। बड़े से बड़ा प्रयोग यह था कि ब्राह्मण | | रुपये तेरे लिए निर्मूल्य होंगे; उनका मूल्य नहीं होगा। को एक सनिश्चित जीवन व्यवस्था दी गई, एक डिसिप्लिन दी गई। मूल्य रुपये में नहीं होता, मल्य व्यक्ति के वर्ण में होता है। उससे यह डिसिप्लिन इसलिए दी गई कि इस आदमी को या इस स्त्री को | | रुपये में आता है। मूल्य रुपए में नहीं होता, मूल्य व्यक्ति के वर्ण जो नई आत्मा अपने गर्भ की तरह चुनेगी, तो उस आत्मा को बहुत | | में होता है। अगर वैश्य के हाथ में रुपया आ जाए तो उसमें मल्य स्पष्ट हो जाना चाहिए कि वह उसके टाइप से मेल खाता है कि नहीं | | होता है, क्षत्रिय के हाथ में रुपये का इतना ही मूल्य हो सकता है कि खाता है। वह तलवार खरीद ले, इससे ज्यादा मूल्य नहीं होता। इंट्रिंजिक इसलिए मैंने परसों आपसे कहा कि वर्णसंकर होने के डर से वैल्यू नहीं होती रुपये की क्षत्रिय के हाथ में; हां, एक्सटर्नल वैल्यू नहीं, क्योंकि वर्णसंकर से तो बहुत ही विकसित व्यक्तित्व पैदा हो हो सकती है कि एक तलवार खरीद ले। सकते हैं, लेकिन दो जातियों में शादी न हो, उसका कारण बहुत । एक ब्राह्मण के हाथ में रुपये का कोई मतलब नहीं होता, कोई दूसरा था। उसका कुल कारण इतना था कि हम प्रत्येक वर्ण को एक मतलब ही नहीं होता; ठीकरा होता है। इसलिए ब्राह्मण रुपये को स्पष्ट फार्म, एक रूप दे देना चाहते थे। और प्रत्येक वर्ण को इतना ठीकरा कहते रहेंगे। वैश्य की समझ में कभी नहीं आता कि बात 11601 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Om जीवन की परम धन्यता-स्वधर्म की पूर्णता में - क्या है! यह हो नहीं सकता। उसे तो दिखाई पड़ेगा कि इस जगत | यह जो कृष्ण उसको कह रहे हैं अर्जुन को, वह एक बहुत बड़ी में कुछ चल नहीं सकता, पैसा ही सब कुछ चला रहा है। | मनोवैज्ञानिक बात कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि तू अन्यथा हो इसलिए अब तक दुनिया में जो भी व्यवस्थाएं बनी हैं, वे भी | नहीं सकता। और इसको भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है कि क्यों गहरे में वर्ण की ही व्यवस्थाओं के रूपांतरण हैं। अब तक पृथ्वी नहीं हो सकता। अगर अर्जुन चाहे, तो क्यों ब्राह्मण नहीं हो सकता? पर कोई भी व्यवस्था ब्राह्मण की नहीं बन सकी। संभावना है आगे। अगर बुद्ध क्षत्रिय घर में पैदा होकर ब्राह्मण हो सकते हैं, और बुद्ध आज जो पश्चिम में बहुत बुद्धिमान लोग मेरिटोक्रेसी की बात कर | जैसा ब्राह्मण नहीं हुआ। अगर महावीर क्षत्रिय घर में पैदा होकर रहे हैं, गुणतंत्र की, तो कभी ऐसा वक्त आ सकता है कि जगत में ब्राह्मण हो सकते हैं, और महावीर जैसा ब्राह्मण नहीं हुआ। जैनों के ब्राह्मण की व्यवस्था हो। शायद वैज्ञानिक इतने प्रभावशाली हो | तो चौबीस तीर्थंकर ही क्षत्रिय हैं, लेकिन क्षत्रिय का कोई काम नहीं जाएंगे आने वाले पचास सालों में कि राजनीतिज्ञों को अपने आप | | किया; शुद्धतम ब्राह्मण की यात्रा पर निकले। तो क्यों कृष्ण जोर जगह खाली कर देनी पड़े। अभी भी बहुत प्रभावशाली हो गए हैं। देते हैं कि अर्जुन, तू क्षत्रिय ही हो सकता है। जब बुद्ध हो सकते अभी भी एक वैज्ञानिक के ऊपर निर्भर करता है बड़े से बड़ा युद्ध, | | हैं, महावीर हो सकते हैं, पार्श्व हो सकते हैं, नेमिनाथ हो सकते कि कौन जीतेगा। हैं—नेमिनाथ तो कृष्ण के चचेरे भाई ही थे—वे जब हो सकते हैं, अगर आइंस्टीन जर्मनी में होता, तो जीत का हिसाब और होता। तो इस अर्जुन का क्या कसूर है कि नहीं हो सकता! तो थोड़ी-सी आइंस्टीन अमेरिका में था, तो हिसाब और हो गया। हिटलर को | बातें समझ लेनी जरूरी हैं। अगर कोई भी भूल-चूक पछताती होगी अभी भी नर्क में, तो एक | आज मनोविज्ञान कहता है कि तीन साल की उम्र तक आदमी ही भूल-चूक पछताती होगी कि इस यहूदी को भाग जाने दिया, वही | | जितना सीखता है, वह पचास प्रतिशत है पूरे जीवन के ज्ञान का, गलती हो गई। यह एक आदमी पर इतना बड़ा निर्णय होगा...।। | फिफ्टी परसेंट। बाकी शेष जीवन में वह पचास प्रतिशत और ज्ञान निर्णायक होता जा रहा है! क्षत्रिय दुनिया पर हुकूमत कर | सीखेगा। पचास प्रतिशत तीन साल में सीख लेता है; शेष पचास चुके। वैश्य आज अमेरिका में हुकूमत कर रहे हैं। शूद्र आज रूस प्रतिशत आने वाले जीवन में सीखेगा। और वह जो पचास प्रतिशत और चीन में हुकूमत कर रहे हैं। शूद्र यानी प्रोलिटेरिएट, शूद्र यानी उसने तीन वर्ष की उम्र तक सीखा है, उसे बदलना करीब-करीब वह जिसने अब तक सेवा की थी, लेकिन बहुत सेवा कर चुका, | असंभव है। बाद में जो पचास प्रतिशत सीखेगा, उसे बदलना कभी वह कहता है, हटो। अब हम मालकियत भी करना चाहते हैं। भी संभव है। तीन वर्ष तक मानना चाहिए, समझना चाहिए कि लेकिन ब्राह्मण के हाथ में भी कभी आ सकती है व्यवस्था। | व्यक्ति का मन करीब-करीब प्रौढ़ हो जाता है भीतर। संभावना बढ़ती जाती है। क्योंकि क्षत्रियों के हाथ में जब तक अगर बुद्ध और महावीर क्षत्रिय घरों में पैदा होकर भी ब्राह्मण की व्यवस्था रही, सिवाय तलवार चलने के कुछ भी नहीं हुआ। | यात्रा पर निकल जाते हैं, तो उनके लक्षण बहुत बचपन से साफ हैं। अमेरिका के हाथ में, जब से वैश्यों के हाथ में धन की सत्ता आई | बुद्ध को एक प्रतियोगिता में खड़ा किया गया कि हरिण को निशाना है, तब से सारी दुनिया में सिवाय धन के और कोई चीज विचारणीय | | लगाएं, तो वे इनकार कर देते हैं। इस अर्जुन ने कभी ऐसा नहीं नहीं रही। और जब से प्रोलिटेरिएट, सेवक, श्रमिक के हाथ में | | किया। यह अब तक निशाना ही लगाता रहा है; इसकी सारी यात्रा व्यवस्था आई है, तब से वह दुनिया में एरिस्टोक्रेसी ने जो भी श्रेष्ठ | | अब तक की क्षत्रिय की ही यात्रा है। आज अचानक, आकस्मिक, पैदा किया था, उसे नष्ट करने में लगा है। | एक क्षण में यह कहने लगा कि नहीं। तो इसके पास जो व्यक्तित्व चीन में जिसे वे सांस्कृतिक क्रांति कह रहे हैं, वह सांस्कृतिक | | का ढांचा है, वह पूरा का पूरा ढांचा ऐसा नहीं है कि बदला जा सके। क्रांति नहीं, सांस्कृतिक हत्या है। जो भी संस्कृति ने पैदा किया है | उसकी सारी तैयारी, सारा शिक्षण, सारी कंडीशनिंग बहुत व्यवस्था चीन की, उस सबको नष्ट करने में लगे हैं। बुद्ध की मूर्तियां तोड़ी | | से क्षत्रिय के लिए हुई है। आज अचानक वह भाग नहीं सकता। जा रही हैं, मंदिर गिराए जा रहे हैं! विहार, मस्जिदें, गुरुद्वारे गिराए __ कृष्ण उससे कहते हैं कि तू जो छोड़ने की बात कर रहा है, वह जा रहे हैं। कीमती चित्र, बहुमूल्य पेंटिंग्स, वे सब बुर्जुआ हो गई | | उपाय नहीं है कोई; कठिन है। तू क्षत्रिय है, यह जान। और अब हैं, उन सबमें आग लगाई जा रही है। | शेष यात्रा तेरी क्षत्रिय की तरह गौरव के ढंग से पूरी हो सकती है, 161 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m+ गीता दर्शन भाग-1 AM या तू अगौरव को उपलब्ध हो सकता है और कुछ भी नहीं। तो वे | | सकती है। तो हम सर्टिफिकेट लिखवाकर कहां से लाएं? कहते हैं कि या तो तू यश को उपलब्ध हो सकता है क्षत्रिय की यात्रा सर्टिफिकेट कोई और हो भी नहीं सकता बहादुरी का। से, या सिर्फ अपयश में गिर सकता है। अकबर तो घबड़ा गया, उसने अपनी आत्मकथा में लिखवाया है कि इतना मैं कभी नहीं घबड़ाया था। मानसिंह को उसने बुलाया | और कहा कि क्या, यह मामला क्या है? मैंने तो ऐसे ही पछा था। यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् । तो मानसिंह ने कहा, क्षत्रिय से दोबारा ऐसे ही मत पूछना। क्योंकि सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ।। ३२ ।। जिंदगी हम हाथ पर लेकर चलते हैं। क्षत्रिय का मतलब यह है कि हे पार्थ, अपने आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के । मौत एक क्षण के लिए भी विचारणीय नहीं है। लेकिन अकबर ने द्वाररूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही | लिखवाया है कि हैरानी तो मझे यह थी कि मरते वक्त वे बडे प्रसन्न पाते हैं। | थे; उनके चेहरों पर मुस्कुराहट थी। तो मानसिंह से उसने पूछा कि यह मुस्कुराहट, मरने के बाद भी! तो मानसिंह ने कहा, क्षत्रिय जो हो सकता था, हो गया। फूल खिल गया। तृप्त! कोई यह नहीं कह र स दूसरे सूत्र में भी वे क्षत्रिय की धन्यता की स्मृति | सका कि क्षत्रिय नहीं! बात खतम हो गई। २ दिला रहे हैं। क्षत्रिय की क्या धन्यता है। क्षत्रिय के लिए। वह जो कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि स्वर्ग और नर्क, जिसके . क्या ब्लिसफुल है। क्षत्रिय के लिए क्या फुलफिलमेंट | सामने दोनों के द्वार खुले हों, ऐसा क्षत्रिय के लिए युद्ध का क्षण है। है। वह कैसे फुलफिल्ड हो सकता है। वह कैसे आप्तकाम हो | | वहीं है कसौटी उसकी, वहीं है परीक्षा उसकी। जिसकी तू प्रतीक्षा सकता है, कैसे भर सकता है पूरा। | करता था, जिसके लिए तू तैयार हुआ आज तक, जिसकी तूने युद्ध ही उसके लिए अवसर है। वहीं वह कसौटी पर है। वहीं | | अभीप्सा और प्रार्थना की, जो तूने चाहा, वह आज पूरा होने को है। चुनौती है, वहीं संघर्ष है, वहां मौका है जांच का; उसके क्षत्रिय होने | | और ऐन वक्त पर तू भाग जाने की बात करता है! अपने हाथ से की अग्निपरीक्षा है। कृष्ण कह रहे हैं कि जैसे स्वर्ग और नर्क के | नर्क में गिरने की बात करता है! द्वार पर कोई खड़ा हो और चुनाव हाथ में हो। युद्ध में उतरता है तू, । क्षत्रिय के व्यक्तित्व को उसकी पहचान कहां है? उस मौके में, चुनौती स्वीकार करता है, तो स्वर्ग का यश तेरा है। भागता है, | उस अवसर में, जहां वह जिंदगी को दांव पर ऐसे लगाता है, जैसे पलायन करता है, पीठ दिखाता है, तो नर्क का अपयश तेरा है। | जिंदगी कुछ भी नहीं है। इसके लिए ही उसकी सारी तैयारी है। यहां स्वर्ग और नर्क किसी भौगोलिक स्थान के लिए सूचक नहीं इसकी ही उसकी प्यास भी है। यह मौका चूकता है वह, तो सदा के हैं। क्षत्रिय का स्वर्ग ही यही है...। | लिए तलवार से धार उतर जाएगी; फिर तलवार जंग खाएगी, फिर मैंने सुना है कि अकबर के दरबार में दो राजपूत गए। युवा, | आंसू ही रह जाएंगे। जवान, अभी मूंछ की रेखाएं आनी शुरू हुई हैं। दोनों अकबर के | | अवसर है प्रत्येक चीज का। ज्ञानी का भी अवसर है, धन के सामने गए और उन्होंने कहा कि हम दो बहादुर हैं और सेवा में | यात्री का भी अवसर है, सेवा के खोजी का भी अवसर है। अवसर उपस्थित हैं; कोई काम! तो अकबर ने कहा, बहादुर हो, इसका | | जो चूक जाता है, वह पछताता है। और जब व्यक्तित्व को उभरने प्रमाण क्या है? उन दोनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा, हंसे। | का आखिरी अवसर हो, जैसा अर्जुन के सामने है, शायद ऐसा तलवारें बाहर निकल गईं। अकबर ने कहा, यह क्या करते हो? अवसर दोबारा नहीं होगा, तो कृष्ण कहते हैं, उचित ही है कि तू लेकिन जब तक वह कहे, तब तक तलवारें चमक गईं, कौंध गईं। स्वर्ग और नर्क के द्वार पर खड़ा है। चुनाव तेरे हाथ में है। स्मरण एक क्षण में तो खून के फव्वारे बह रहे थे; एक-दूसरे की छाती में | | कर कि तू कौन है! स्मरण कर कि तूने अब तक क्या चाहा है! तलवारें घुस गई थीं। खून के फव्वारों से चेहरे भर गए थे। और वे स्मरण कर कि यह पूरी जिंदगी, सुबह से सांझ, सांझ से सुबह, तूने दोनों हंस रहे थे और उन्होंने कहा, प्रमाण मिला? क्योंकि क्षत्रिय किस चीज की तैयारी की है! अब वह तलवार की चमक का मौका सिर्फ एक ही प्रमाण दे सकता है कि मौत मुस्कुराहट से ली जा आया है और तू जंग देने की इच्छा रखता है? 162 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 जीवन की परम धन्यता - स्वधर्म की पूर्णता में अथ चेत्त्वमिमं धर्म्य संग्रामं न करिष्यसि । ततः स्वधर्म कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्यसि ।। ३३ ।। अकीर्ति चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् । संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ।। ३४ ।। और यदि तू इस धर्मयुक्त संग्राम को नहीं करेगा, तो स्वधर्म को और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा। और सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति को भी कथन करेंगे और वह अपकीर्ति माननीय पुरुष के लिए मरण से भी अधिक बुरी होती है। अ भय क्षत्रिय की आत्मा है, फियरलेसनेस । कैसा भी भय न पकड़े उसके मन को, कैसे भी भय के झंझावात उसे कंपाएं न। कैसा भी भय हो, मृत्यु का ही सही, तो उसके भीतर हलन चलन न हो। एक छोटी-सी कहानी आपसे कहूं, उससे खयाल आ सकेगा। . सुना है मैंने कि चीन में एक बहुत बड़ा धनुर्धर हुआ । उसने जाकर सम्राट को कहा कि अब मुझे जीतने वाला कोई भी नहीं है। तो मैं घोषणा करना चाहता हूं राज्य में कि कोई प्रतियोगिता करता हो, तो मैं तैयार हूं। और अगर कोई प्रतियोगी न निकले – या कोई | प्रतियोगी निकले, तो मैं स्पर्धा के लिए आ गया हूं। और मैं यह चाहता हूं कि अगर कोई प्रतियोगी न निकले या प्रतियोगी हार जाए, मुझे पूरे देश का श्रेष्ठतम धनुर्धर स्वीकार किया जाए। सम्राट ने कहा, इसके पहले कि तुम मुझसे कुछ बात करो, मेरा जो पहरेदार है, उससे मिल लो। पहरेदार ने कहा कि धनुर्धर तुम बड़े हो, लेकिन एक व्यक्ति को मैं जानता हूं, कुछ दिन उसके पास रह आओ। कहीं ऐसा न हो कि नाहक अपयश मिले। उस व्यक्ति की खोज करता हुआ वह धनुर्धर जंगल पहुंचा। जब उस व्यक्ति के पास उसने देखा और रहा, तो पता चला कि वह तो कुछ भी नहीं जानता था। तीन वर्ष उसके पास सीखा। सब सीख गया। तब उसके मन में हुआ कि अब तो मैं सब सीख गया, लेकिन फिर भी अब मैं किस मुंह से राजा के पास जाऊं, क्योंकि मेरा गुरु तो कम से कम मुझसे ज्यादा जानता ही है। नहीं ज्यादा, तो मेरे बराबर जानता ही है। तो अच्छा यह हो कि मैं गुरु की हत्या करके चला जाऊं । अक्सर गुरुओं की हत्या शिष्य ही करते हैं- अक्सर। यह | बिलकुल स्वाभाविक नियम से चलता है। तो गुरु सुबह-सुबह लकड़ियां बीनने गया है जंगल में; वह एक वृक्ष की ओट में खड़ा हो गया । धनुर्धर है, दूर से उसने तीर मारा, गुरु लकड़ियां लिए चला आ रहा है। लेकिन अचानक सब उलटा हो गया। वह तीर पहुंचा, उस गुरु ने देखा, एक लकड़ी सिर के बंडल से निकालकर उस तीर को मारी । वह तीर उलटा लौटा और जाकर उस युवक की छाती में छिद गया। गुरु ने आकर तीर निकाला और कहा कि इतना भर मैंने बचा रखा था। शिष्यों से गुरु को थोड़ा-सा बचा रखना पड़ता है। लेकिन तुम नाहक ... । मुझसे कह देते। मैं गांव आऊंगा नहीं। और शिष्य से प्रतियोगिता करने आऊंगा? पागल हुए हो? तुम जाओ, घोषणा करो, तुम मुझे मरा हुआ समझो। तुम्हारे निमित्त अब किसी को सिखाऊंगा भी नहीं । और मेरे आने कोई बात ही नहीं; तुमसे प्रतियोगिता करूंगा! जाओ, लेकिन जाने के पहले ध्यान रखना कि | मेरा गुरु अभी जिंदा है। और मैं कुछ भी नहीं जानता। उसके पास दस-पांच साल रहकर जो थोड़े-बहुत कंकड़-पत्थर बीन लिए थे, वही । इसलिए उसके दर्शन एक बार कर लो। बड़ा घबड़ाया वह आदमी। महत्वाकांक्षी के लिए धैर्य बिलकुल नहीं होता। तीन साल इसके साथ खराब हुए। लेकिन अब बिना उस आदमी को देखे जा भी नहीं सकता। तो गया पहाड़ों में खोजता हुआ, और ऊंचे शिखर पर। उसके गुरु ने कहा था कि मेरा बूढ़ा गुरु है, कमर उसकी झुक गई है, तुम पहचान लोगे। जब वह उसके पास पहुंचा, तो उसने जाकर देखा कि एक अत्यंत वृद्ध आदमी, सौ के ऊपर पार हो गया होगा, कमर झुक गई है, बिलकुल गोल हो गया है । सोचा कि यह आदमी! 163 उसने कहा कि क्या आप ही वे धनुर्धर हैं, जिनके पास मुझे भेजा गया है? तो उस बूढ़े ने आंखें उठाईं, उसकी पलकों के बाल भी बहुत बड़े हो गए थे, बामुश्किल आंखें खोलकर उसने देखा और कहा, हां, ठीक है । कैसे आए हो ? क्या चाहते हो ? उसने कहा, मैं भी एक धनुर्धर हूं। | तो वह बूढ़ा हंसने लगा। उसने कहा, अभी धनुष-बाण साथ लिए हो ! कैसे धनुर्धर हो ? क्योंकि जब कोई कला में पूर्ण हो जाता है, तो यह व्यर्थ का बोझ नहीं ढोता है । जब वीणा बजाने में वीणावादक पूर्ण हो जाता है, तो वीणा तोड़ देता है, क्योंकि फिर वीणा पूर्ण संगीत के मार्ग पर बाधा बन जाती है। और जब धनुर्धर पूरा हो जाता है, तो धनुष-बाण किसलिए ? ये तो सिर्फ अभ्यास Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm गीता दर्शन भाग-1 AM के लिए थे। कृष्ण सिर्फ एक मनस-शास्त्री हैं। अर्जुन की पोटेंशियलिटी को बहुत घबड़ाया वह धनुर्धर। उसने कहा, सिर्फ अभ्यास ही! तो समझते हैं; अर्जुन क्या हो सकता है, यह समझते हैं; और अर्जुन आगे और कौन-सी धनुर्विद्या है ? तो उस बूढ़े ने कहा, आओ मेरे क्या होकर तृप्त हो सकता है, यह समझते हैं। और अर्जुन क्या होने साथ। वह बूढ़ा उसे लेकर पहाड़ के कगार पर चला गया, जहां नीचे | से चूक जाए, तो सदा के लिए दुख और विषाद को उपलब्ध हो हजारों फीट का गड्ड है। | जाएगा और अपने ही हाथ नर्क में, आत्मघाती हो जाएगा, यह भी ___ वह बूढ़ा आगे बढ़ने लगा, वह धनुर्धर पीछे खड़ा रह गया। वह | | समझते हैं। बूढ़ा आगे बढ़ा, उसके पैरों की अंगुलियां पत्थर के बाहर झांकने | अब आज सारी दुनिया में मनस-शास्त्र के सामने जो गहरे से लगीं। उसकी झुकी हुई गरदन खाई में झांकने लगी। उसने कहा कि गहरा सवाल है, वह यही है कि हम प्रत्येक बच्चे को उसकी बेटे, और पास आओ; इतने दूर क्यों रुक गए हो! उसने कहा, | संभावना, उसकी पोटेंशियलिटी बता सकें, वह क्या हो सकता है। लेकिन वहां तो मुझे बहुत डर लगता है। आप वहां खड़े ही कैसे सब अस्तव्यस्त है। हैं? मेरी आंखें भरोसा नहीं करतीं, क्योंकि वहां तो जरा श्वास भी रवींद्रनाथ के पिता रवींद्रनाथ को कवि नहीं बनाना चाहते हैं। चूक जाए...! कोई भी पिता नहीं बनाना चाहेगा। मैंने तो सुना है कि महाकवि तो उस बूढ़े ने कहा, जब अभी मन इतना कंपता है, तो निशाना | निराला के घर एक रात एक छोटी-सी बैठक चलती थी। तुम्हारा अचूक नहीं हो सकता। और जहां भय है, वहां क्षत्रिय कभी | सुमित्रानंदन पंत थे, महादेवी थीं, मैथिलीशरण गुप्त थे, और कुछ पैदा नहीं होता है। उस बूढ़े ने कहा, जहां भय है, वहां क्षत्रिय कभी | लोग थे। मैथिलीशरण गुप्त बहुत दिन बाद आए थे। तो जैसी उनकी पैदा नहीं होता है। वहां धनुर्धर के जन्म की संभावना नहीं है। आदत थी, निराला के भोजन बनाने वाले महाराज को भी पूछा कि भयभीत किस चीज से हो? और अगर भय है, तो मन में कंपन होंगे | ठीक तो हो? सब ठीक तो है? उसने कहा, और तो सब ठीक है ही, कितने ही सूक्ष्म हों, कितने ही सूक्ष्म हों, मन में कंपन होंगे ही। | महाराज, लेकिन मेरा लड़का, किसी तरह उसे ठीक करें, बर्बाद तो कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं, तू और भयभीत? तो कल जो | हुआ जा रहा है। तो मैथिलीशरण ने पूछा, क्या हुआ तुम्हारे लड़के तेरा सम्मान करते थे, कल जिनके बीच तेरे यश की चर्चा थी, कल को? क्या गुंडा-बदमाश हो गया? चोर-लफंगा हो गया? उसने , जो तेरा गुणगान गाते थे, कल तक जो तेरी तरफ देखते थे कि तू | कहा कि नहीं-नहीं, मेरा लड़का कवि हो गया है। ' एक जीवंत प्रतीक है क्षत्रिय का, वे सब हंसेंगे। अपयश की चर्चा | इन सब कवियों पर क्या गुजरी होगी, पता नहीं। हो जाएगी, कीर्ति को धब्बा लगेगा। तू यह क्या कर रहा है? तेरा | रवींद्रनाथ के पिता भी नहीं चाहते थे कि कवि हो जाए लड़का। निज-धर्म है जो, तेरी तैयारी है जिसके लिए, जिसके विपरीत होकर | सब चेष्टा की, पढ़ाया, लिखाया, पूरा परिवार बड़ा ही धुआंधार तू जी भी न सकेगा; कीर्ति के शिखर से गिरते ही, तू श्वास भी न | | पीछे लगा था-इंजीनियर बन जाए, डाक्टर बन जाए, प्रोफेसर बन ले सकेगा। जाए-कुछ भी बन जाए, काम का बन जाए। और ठीक कहते हैं कृष्ण। अर्जुन जी नहीं सकता। क्षत्रिय मर | | रवींद्रनाथ के घर में एक किताब रखी है, जोड़ासांको भवन में। सकता है गौरव से, लेकिन पलायन करके गौरव से जी नहीं | बड़ा परिवार था, बहुत बच्चे थे, सौ लोग थे घर में। हर बच्चे के सकता। वह क्षत्रिय होने की संभावना में ही नहीं है। तो कृष्ण कहते | जन्मदिन पर उस किताब में उस बच्चे के संबंध में घर के सब हैं, जो तेरी संभावना है, उससे विपरीत जाकर तू पछताएगा, उससे | बड़े-बूढ़े भविष्यवाणियां लिखते थे। उस किताब में रवींद्रनाथ के विपरीत जाकर तू सब खो देगा। सारे भाई-बहन-काफी थे, दर्जनभर-सबके संबंध में बहुत इस संबंध में दो-तीन बातें अंत में आपसे कहूं, जो खयाल ले अच्छी बातें लिखी हैं। रवींद्रनाथ के संबंध में किसी ने अच्छी बात लेने जैसी हैं. उनसे बडी भ्रांति होती है. अगर वे खयाल में न रहें। नहीं लिखी है। रवींद्रनाथ की मां ने खद लिखा है कि रवि से हमें लग सकता है कि कृष्ण क्या युद्धखोर हैं, वार-मांगर हैं। लग कोई आशा नहीं है। सब लड़के बड़े होनहार हैं; कोई प्रथम आता सकता है कि युद्ध की ऐसी उत्तेजना! युद्ध के लिए ऐसा प्रोत्साहन! | है, कोई गोल्ड मेडल लाता है, कोई युनिवर्सिटी में चमकता है। यह तो भूल हो जाएगी, अगर आपने ऐसा सोचा। लड़का बिलकुल गैर-चमक का है। 164 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Im जीवन की परम धन्यता-स्वधर्म की पूर्णता में - लेकिन आज आप नाम भी नहीं बता सकते कि रवींद्रनाथ के उन | रहा है, न हो सकता है। उसकी आत्मा जो हो सकती है, कृष्ण सब चमकदार भाइयों के नाम क्या हैं! वे अचानक कहीं खो गए। | उसके पीछे बिलकुल लाठी लेकर पड़ गए हैं, कि तू वही हो जा, मनोविज्ञान इस समय बहुत व्यस्त है कि यह जो जगत इतना | जो तू हो सकता है। वह भाग रहा है। वह बचाव कर रहा है, वह दुखी मालूम पड़ रहा है, इसका बहुत बुनियादी कारण जो है, वह | डर रहा है, वह भयभीत हो रहा है, वह पच्चीस तर्क खोज रहा है। डिसप्लेसमेंट है। हर आदमी जो हो सकता है, वह नहीं हो पा रहा | कृष्ण युद्धखोर नहीं हैं। कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं यह। और है। वह कहीं और लगा दिया गया है। एक चमार है, वह प्रधानमंत्री | | आप भूलकर भी यह मत समझ लेना कि सबके लिए, अर्जुन से हो गया है। जिसे प्रधानमंत्री होना चाहिए, वह कहीं जूते बेच रहा | कहा गया सत्य, सत्य है। ऐसा भूलकर मत समझ लेना। है। सब अस्तव्यस्त है। किसी को भी पता भी तो नहीं है कि वह हां, एक ही बात सत्य है उसमें, जो जनरलाइज की जा सकती क्या हो सकता है! धक्के हैं, बिलकुल एक्सिडेंटल है जैसे सब, है; और वह यह है कि प्रत्येक की संभावना ही उसका सत्य है। सांयोगिक है जैसे सब। बाप को एक सनक सवार है कि लड़के को इससे अगर कोई भी बात निकालनी हो, तो इतनी ही निकलती है इंजीनियर होना चाहिए, तो इंजीनियर होना चाहिए। अब बाप की कि प्रत्येक की उसकी निज-संभावना ही उसके लिए सत्य है। सनक से लड़के का क्या लेना-देना! होना था तो बाप को हो जाना गीता की इस किताब को अगर महावीर पढ़ें, तो भी पढ़कर चाहिए था। लेकिन बाप को सनक सवार है, बेटे को इंजीनियर | महावीर महावीर ही होंगे, अर्जुन नहीं हो जाएंगे। क्योंकि वे राज होना चाहिए। फिर बाप भी क्या कर सकता है, उसे कुछ भी तो पता | समझ जाएंगे कि मेरी पोटेंशियलिटी क्या है, वही मेरी यात्रा है। इस नहीं है। किताब को बुद्ध पढ़ें, तो दिक्कत नहीं आएगी जरा भी। वे कहेंगे, इसलिए आज सारी दुनिया में मनोवैज्ञानिक इस बात के लिए | बिलकुल ठीक, मैं अपनी यात्रा पर जाता हूं, जो मैं हो सकता हूं। आतुर हैं कि प्रत्येक बच्चे की पोटेंशियलिटी की खोज ही मनुष्यता | | प्रत्येक को जाना है अपनी यात्रा पर, जो वह हो सकता है। और के लिए मार्ग बन सकती है। प्रत्येक को खोज लेना है व्यक्त जगत में कि मेरे होने की क्या वह जो कृष्ण कह रहे हैं, वह युद्ध की बात नहीं कह रहे हैं, संभावना है। गीता का संदेश इतना ही है, युद्धखोरी का नहीं है। भूलकर भी मत समझ लेना यह। इससे बड़ी भ्रांति पैदा होती है। | लेकिन भ्रांति हुई है गीता को पढ़कर। युद्धखोर को लगता है कि कृष्ण जब यह कह रहे हैं, तो यह बात स्पेसिफिकली, विशेष रूप | बिलकुल ठीक, होना चाहिए युद्ध। गैर-युद्धखोर को लगता है, से अर्जुन के टाइप के लिए निवेदित है। यह बात, अर्जुन की जो | | बिलकुल गलत है, युद्ध करवाने की बात कर रहे हैं! संभावना है, उस संभावना के लिए उत्प्रेरित है। यह बात हर किसी | कृष्ण का युद्ध से लेना-देना ही नहीं है। जब मैं ऐसा कहूंगा, तो के लिए नहीं है। यह हर कोई के लिए नहीं है। आपको जरा मुश्किल होगी, लेकिन मैं फिर पुनः-पुनः कहता हूं, लेकिन इतने बड़े मनोविज्ञान की समझ खो गई। महावीर ने | | कृष्ण को युद्ध से लेना-देना नहीं है। कृष्ण एक मनोवैज्ञानिक सत्य अहिंसा की बात कही। वह कुछ लोगों के लिए सार्थक है, अगर | कह रहे हैं। वे कह रहे हैं अर्जुन से, यह तेरा नक्शा है, यह तेरा पूरे मुल्क को पकड़ ले तो खतरा है। कृष्ण ने हिंसा की बात कही। बिल्ट-इन-प्रोसेस है। तू यह हो सकता है। इससे अन्यथा होने की वह अर्जुन के लिए सार्थक है, और कुछ लोगों के लिए बिलकुल चेष्टा में सिवाय अपयश, असफलता, आत्मघात के और कुछ भी सार्थक हैं, पूरे मुल्क को पकड़ ले तो खतरा है। नहीं है। लेकिन भूल निरंतर हो जाती है। वह निरंतर भूल यह हो जाती है। शेष कल सुबह बात करेंगे। कि हम प्रत्येक सत्य को जनरलाइज कर देते हैं; उसको सामान्य नियम बना देते हैं। कोई सत्य व्यक्त जगत में सामान्य नियम नहीं है। अव्यक्त जगत की बात छोड़ें, व्यक्त जगत में, मैनिफेस्टेड जगत में सभी सत्य सशर्त हैं, उनके पीछे शर्त है। ध्यान रखेंगे पूरे समय कि अर्जुन से कही जा रही है यह बात, एक पोटेंशियल क्षत्रिय से, जिसके जीवन में कोई और स्वर नहीं 165 Page #196 --------------------------------------------------------------------------  Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 1-2 ग्यारहवां प्रवचन अर्जुन का जीवन शिखरयुद्ध के ही माध्यम से Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 भयाद्रणादुपतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः । येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ।। ३५ ।। और जिनके लिए तू बहुत माननीय होकर भी अब तुच्छता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध उपराम हुआ मानेंगे। अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः । निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ।। ३६ ।। हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् । तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ।। ३७ ।। तेरे बैरी तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए बहुत से न कहने योग्य वचनों को कहेंगे। फिर उससे अधिक दुख क्या होगा? इसलिए युद्ध करना तेरे लिए सब प्रकार से अच्छा है। क्योंकि या तो मरकर तू स्वर्ग को प्राप्त होगा, अथवा जीतकर पृथ्वी को भोगेगा। इससे हे अर्जुन, युद्ध के लिए निश्चर्यं वाला होकर खड़ा हो। कृ ष्ण की बात यदि यूनान के मनस्वी प्लेटो ने पढ़ी होती, तो सौ प्रतिशत स्वीकृति देता। प्लेटो से किसी ने पूछा, स्वर्ग क्या है? सुख क्या है? तो प्लेटो ने जो सुख की परिभाषा की है, वह समझने जैसी है। प्लेटो ने कहा, अंतस की निजता का बाहर के आचरण से जहां संगीतपूर्ण तालमेल है, वहीं सुख है; जहां अंतस की निजता का बाहर के आचरण से तालमेल है, अविरोध है, वहीं आनंद है। और प्लेटो ने कहा, व्यक्ति जो हो सकता है, जो उसके बीज में छिपा है, जिस दिन वही हो जाता है, उसी दिन स्वर्ग है। कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, क्षत्रिय होकर ही तेरा स्वर्ग है। उससे विचलित होकर तेरा कोई सुख नहीं है। तेरी जो निजता है, तेरी जो इंडिविजुअलिटी है, जो तेरे भीतर का गुणधर्म है, जो तू भीतर से लिए बैठा है, जो तू हो सकता है, वही होकर ही — अन्यथा नहीं - तू स्वर्ग को उपलब्ध होगा, तू सुख को उपलब्ध होगा, तू आनंद को अनुभव कर सकता है। जीवन का आशीर्वाद, जीवन की प्रफुल्लता स्वयं के भीतर जो भी छिपा है, उसके पूरी तरह प्रकट हो जाने में है। जीवन का बड़े से बड़ा दुख, जीवन का बड़े से बड़ा नर्क एक ही है कि व्यक्ति वह न हो पाए, जो होने के लिए पैदा हुआ है; व्यक्ति वह न हो पाए, जो हो सकता था और अन्य मार्गों पर भटक जाए। स्वधर्म से भटक जाने के अतिरिक्त और कोई नर्क नहीं है। और स्वधर्म को उपलब्ध हो जाने के अतिरिक्त और कोई स्वर्ग नहीं है । कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि इस दिखाई पड़ने वाले लोक में जिसे लोग सुख कहते हैं, वह तो तुझे मिलेगा ही, लेकिन न दिखाई पड़ने वाले लोक में...! इसे भी थोड़ा समझ जरूरी है कि परलोक से हमने जो अर्थ ले रखा है, वह सदा मृत्यु के बाद जो लोक है, उसका ले रखा है। हमने जो व्याख्या कर रखी है अपने मन में इस लोक की और उस लोक की, वह टेंपोरल है, टाइम में है। हमने सोच रखा है कि यह लोक खतम होता है, जहां हमारा जीवन समाप्त होता है, और परलोक शुरू होता है। ऐसा नहीं है। यह लोक और परलोक साथ ही मौजूद हैं। टेंपोरल नहीं है, समय में उनका विभाजन नहीं है। बाहर जो हमें मिलता है, वह | इहलोक है; भीतर जो हमें मिलता है, वह परलोक है। परलोक-का | केवल मतलब इतना ही है कि इस लोक के जो पार है, इस लोक के जो बियांड है - वह अभी भी है, इस वक्त भी है। जिसको जीसस ने किंगडम आफ गॉड कहा है, प्रभु का राज्य कहा है, उसे ही इस देश ने परलोक कहा है। परलोक का संबंध आपके जीवन के समाप्त होने से नहीं है; परलोक का संबंध आपके दृश्य से में प्रवेश से है। वह आप अभी भी कर सकते हैं, और वह अदृश्य आप मृत्यु के बाद भी चाहें तो नहीं कर सकते हैं। चाहें तो मृत्यु के बाद भी इहलोक में ही घूमते रहें - इसी लोक में। और चाहें तो जीते-जी परलोक में प्रवेश कर जाएं। वह आंतरिक—जहां समय और क्षेत्र मिट जाते हैं, जहां टाइम और स्पेस खो जाते हैं, जहां दृश्य खो जाते हैं और अदृश्य शुरू होता है - वह जो आंतरिकता का, वह जो भीतर का लोक है, वहां भी कृष्ण कहते हैं, स्वर्ग। लेकिन स्वर्ग से आप किसी परियों के | देश की बात मत समझ लेना | स्वर्ग सिर्फ इनर हार्मनी का नाम है, | जहां सब स्वर जीवन के संगीतपूर्ण हैं । और नर्क सिर्फ इनर, आंतरिक विसंगीत का नाम है, जहां सब स्वर एक-दूसरे के विरोध में खड़े हैं। सार्त्र ने नर्क की परिभाषा में एक वचन कहा है। उसने कहा है कि मनुष्य के मन में नर्क उसी क्षण उत्पन्न हो जाता है, जिस क्षण उसके चित्त में दो बातें खड़ी हो जाती हैं। टु बी, व्हाट वन इज़ नाट; | एंड नाट टु बी, व्हाट वन इज़ - वह होने की इच्छा, जो कि मैं नहीं 168 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्जुन का जीवन शिखर - युद्ध के ही माध्यम से 4 हूं और वह नहीं होने की इच्छा, जो कि मैं हूं – इन दोनों के बीच में ही नर्क उपस्थित हो जाता । सार्त्र भी कृष्ण से राजी होगा। अर्जुन ऐसे ही नर्क में खड़ा हो गया है। जो है, वह न होने की इच्छा पैदा हुई है उसे; जो नहीं है, वह होने की इच्छा पैदा हुई है। वह एक ऐसे असंभव तनाव में खड़ा हो गया है, जिसमें प्रवेश तो बहुत आसान, लेकिन लौटना बहुत मुश्किल है। जिंदगी में किसी भी चीज से लौटना बहुत मुश्किल है । जाना बहुत आसान है, लौटना सदा मुश्किल है। और स्वयं के धर्म से जाना बहुत आसान है, क्योंकि स्वधर्म से विपरीत जाना सदा उतार है। वहां हमें कुछ भी नहीं करना पड़ता, सिर्फ हम अपने को छोड़ दें, तो हम उतर जाते हैं। स्वधर्म को पाना चढ़ाव है । उतर जाना बहुत आसान है, चढ़ना बहुत कठिन हो जाता है। पश्चिम का इस समय का एक बहुत कीमती मनोवैज्ञानिक अभी-अभी गुजरा है। उसका नाम था अब्राहम मैसलो | अब्राहम मैसो के पूरे जीवन की खोज एक छोटे-से शब्द में समा जाती है। और वह शब्द है, पीक एक्सपीरिएंस । वह शब्द है, शिखर का अनुभव। अब्राहम मैसलो का कहना है कि व्यक्ति के जीवन में स्वर्ग का क्षण वही है, जो उसके व्यक्तित्व के शिखर का क्षण है। जिस क्षण कोई व्यक्ति जो हो सकता है, उसके होने के शिखर पर पहुंच जाता है, जिसके आगे कोई उपाय नहीं बचता, 1 जिसके आगे कोई मार्ग नहीं बचता, जिसके आगे कोई ऊंचाई नहीं बचती, जब भी कोई व्यक्ति अपने भीतर के पीक को छू लेता है, तभी समाधि, एक्सटैसी अनुभव करता है। निश्चित ही, जो पीक एक्सपीरिएंस अर्जुन के लिए होगा, वही पीक एक्सपीरिएंस बुद्ध के लिए नहीं हो सकता। जो पीक एक्सपीरिएंस, शिखर की अनुभूति बुद्ध की है, वही अनुभूति जीसस के लिए नहीं हो सकती। लेकिन एक बात ध्यान रख लें, जब हम कहते हैं कि वही अनुभूति नहीं हो सकती, तो हमारा प्रयोजन व्यक्ति से है। अर्जुन और मार्ग से उस अनुभूति पर पहुंचेगा; वह क्षत्रिय है, वह क्षत्रिय के मार्ग से पहुंचेगा। हो सकता है, जब दो तलवारें खिंच जाएंगी, और जीवन और मृत्यु साथ-साथ खड़े हो जाएंगे, श्वास ठहर जाएगी और पलभर के लिए सब रुक जाएगा जगत, और पलभर के लिए निर्णय न रह जाएगा कि जीवन में अब एक पल और है—उस तलवार की धार पर, उस चुनौती के क्षण में अर्जुन अपनी पीक पर होगा, वह अपने क्षत्रिय होने के आखिरी शिखर पर होगा। जहां जीवन और मृत्यु विकल्प होंगे, जहां क्षण में सब तय होता होगा — उस डिसीसिव मोमेंट में वह अपने पूरे शिखर पर पहुंच जाएगा। यह जो शिखर की अनुभूति है, बुद्ध को किसी और मार्ग से मिलेगी, महावीर को किसी और मार्ग से मिलेगी, मोहम्मद को किसी और मार्ग से मिलेगी । मार्ग भिन्न होंगे, लेकिन प्रत्येक व्यक्ति जब अपने शिखर पर पहुंचता है, तो शिखर की जो भीतरी अनुभूति है, वह एक होगी। इसलिए कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं, एक अवसर मिला है और अवसर बार-बार नहीं मिलते। खोए अवसरों के लिए कभी-कभी जन्मों प्रतीक्षा करनी पड़ती है। मार्गन से किसी ने एक दिन पूछा - वह अमेरिका का बड़ा करोड़पति था, अरबपति था - उससे पूछा कि आपको जिंदगी में इतनी सफलता कैसे मिली? तो मार्गन ने कहा, मैंने कभी कोई अवसर नहीं खोया । जब भी अवसर आया, मैंने छलांग लगाई और उसे पकड़ा। अपने को खोने को मैं राजी रहा, लेकिन अवसर को खोने को राजी नहीं रहा । उस आदमी ने पूछा, तो हम कैसे पहचानेंगे कि अवसर आ गया ! और जब तक हम पहचानेंगे, तब तक कहीं ऐसा न हो कि अवसर निकल जाए! कहीं ऐसा न हो कि हम पहचानें और छलांग लगाएं, तब तक अवसर जा चुका हो ! क्योंकि क्षण तो क्षण नहीं रुकता। आया नहीं कि गया नहीं । पहचानते - पहचानते चला जाता है। तो आप कैसे पहचानते थे और छलांग लगाते थे ? मार्गन ने जो उत्तर दिया, 'वह बहुत हैरानी का है। मार्गन ने कहा कि मैं कभी रुका ही नहीं; मैं छलांग लगाता ही रहा । अवसर आ गया तो छलांग काम कर गई, अवसर नहीं आया तो भी मैं छलांग | लगाता रहा। क्योंकि इतना मौका नहीं था कि मैं प्रतीक्षा करूं, अवसर को पहचानूं, फिर छलांग लगाऊं । मैं छलांग लगाता ही रहा। अवसर का घोड़ा नीचे आ गया, तो हम सवार थे; लेकिन हमारी छलांग जारी थी, जब घोड़ा नहीं था, तब भी। कृष्ण के लिए जो बड़ी से बड़ी चिंता अर्जुन की तरफ से दिखाई पड़ती है, वह यही दिखाई पड़ती है, एक विराट अवसर... 1 अर्जुन को महाभारत जैसा अवसर न मिले, तो अर्जुन का फूल खिल नहीं सकता। कोई छोटी-मोटी लड़ाई में नहीं खिल सकता उसका फूल। जहां जीत सुनिश्चित हो, वहां अर्जुन का फूल नहीं खिल सकता। जहां जीत पक्की हो, वहां अर्जुन का फूल नहीं खिल सकता। जहां जीत निश्चित हो, वहां अर्जुन का फूल नहीं खिल सकता। जहां जीत 169 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1 AM चिंता हो, जहां जीत अनिर्णीत हो, जहां हार की उतनी ही संभावना मैं झांकता हूं, तो मुझे लगता है कि वह आदमी किसी भीतरी हो, जितनी जीत की है, तो ही उस चुनौती के दबाव में, उस चुनौती विश्वास से कह रहा है। और सप्ताह में एक दिन ऐसे आदमी की की पीड़ा में, उस चुनौती के प्रसव में अर्जुन का फूल खिल सकता आंख में झांक लेना उचित है, जिसे भीतरी कोई स्वर्ग का अनुभव है और अर्जुन अपने शिखर को छू सकता है। हो रहा है। वह जो कहता है, उसमें मुझे कोई भरोसा नहीं है कि वह __इसलिए कृष्ण इतना आग्रह कर रहे हैं कि सब खो देगा! स्वर्ग आदमी जो कह रहा है, वह ठीक हो सकता है। उसके सिद्धांतों को का क्षण तुझे उपलब्ध हुआ है, उसे तू खो देगा—इस जगत में भी, मैं तर्कयुक्त नहीं मानता। लेकिन फिर भी सप्ताह में मैं एक ऐसे उस जगत में भी। उस जगत का मतलब, मृत्यु के बाद नहीं-बाहर आदमी की आंख में झांक लेना चाहता हूं, जो भीतर आश्वस्त है। के जगत में भी, भीतर के भी जगत में। उसकी सुगंध! और ध्यान रहे, बाहर के जगत में तभी स्वर्ग मिलता है, जब यह बक ने एक दिन, चर्च में जो फकीर बोलता था, उससे पूछा भीतर के जगत में स्वर्ग मिलता है। यह असंभव है कि भीतर के कि मैं तुमसे पूछना चाहता हूं। उस दिन उसने बाइबिल के एक जगत में नर्क हो और बाहर के जगत में स्वर्ग मिल जाए। हां, यह वचन की व्याख्या करते हुए कहा कि भले लोग, जो परमात्मा में संभव है कि बाहर के जगत में नर्क हो, तो भी भीतर के जगत में | विश्वास करते हैं, वे स्वर्ग को उपलब्ध होते हैं। बक ने उससे पूछा स्वर्ग मिल जाए। और यह बड़े मजे की बात है कि अगर भीतर के | | कि आप कहते हैं, भले लोग, जो परमात्मा में विश्वास करते हैं, वे जगत में स्वर्ग मिल जाए, तो बाहर का नर्क भी नर्क नहीं मालूम | स्वर्ग को उपलब्ध होते हैं। तो मैं पूछना चाहता हूं कि बुरे लोग, जो पड़ता है। और बाहर के जगत में स्वर्ग मिल जाए और भीतर के | परमात्मा में विश्वास करते हैं, वे स्वर्ग को उपलब्ध होते हैं या नहीं? जगत में नर्क हो, तो बाहर का स्वर्ग भी स्वर्ग नहीं मालूम पड़ता है। और यह भी पूछना चाहता हूं कि भले लोग, जो परमात्मा में हम जीते हैं भीतर से, हमारे जीने के सारे गहरे आधार भीतर हैं। विश्वास नहीं करते हैं, वे स्वर्ग को उपलब्ध होते हैं या नहीं? इसलिए जो भीतर है, वही बाहर फैल जाता है। भीतर सदा ही बाहर · वह फकीर साधारण फकीर नहीं था, ईमानदार आदमी था। उसने को जीत लेता है, ओवरपावर कर लेता है। इसलिए जब आपको | | कहा, उत्तर देना मुश्किल है, जब तक कि मैं परमात्मा से न पूछ लूं। बाहर नर्क दिखाई पड़े, तो बहुत खोज करना। पाएंगे कि भीतर नर्क | क्योंकि इसका मुझे कुछ भी पता नहीं। रुको, सात दिन मैं प्रार्थना , है, बाहर सिर्फ रिफ्लेक्शन है, बाहर सिर्फ प्रतिफलन है। और जब | करूं, फिर उत्तर दे सकता हूं। क्योंकि तुमने मुझे मुश्किल में डाल बाहर स्वर्ग दिखाई पड़े, तब भी भीतर देखना। तो पाएंगे, भीतर | दिया। अगर मैं यह कहूं कि भले लोग, जो परमात्मा में विश्वास स्वर्ग है, बाहर सिर्फ प्रतिफलन है। | नहीं करते, नर्क जाते हैं, तो भलाई बेमानी हो जाती है, मीनिंगलेस इसलिए जो बुद्धिमान हैं, वे बाहर के नर्क को स्वर्ग बनाने में | | हो जाती है। और अगर मैं यह कहूं कि भले लोग, जो परमात्मा में जीवन नष्ट नहीं कर देते। वे भीतर के नर्क को स्वर्ग बनाने का श्रम | | विश्वास नहीं करते हैं, वे भी स्वर्ग को उपलब्ध हो जाते हैं, तो करते हैं। और एक बार भीतर का नर्क स्वर्ग बन जाए. तो बाहर | परमात्मा बेमानी हो जाता है। उसमें विश्वास का कोई अर्थ नहीं कोई नर्क होता ही नहीं। रहता। तो रुको। मैंने सना है कि बक, इंग्लैंड का एक बहत बडा विचारक था लेकिन वह फकीर सात दिन सो नहीं सका। सब तरह की वह ऐसे नास्तिक था, लेकिन चर्च जाता था। मित्रों ने कई बार उससे | प्रार्थनाएं की, लेकिन कोई उत्तर न मिला। कहा भी कि तुम चर्च किसलिए जाते हो? क्योंकि तुम नास्तिक हो! | सातवां दिन आ गया। सुबह ही आठ बजे बक मौजूद हो जाएगा ठीक ऐसी ही बात कभी डेविड ह्यूम से भी किसी ने पूछी थी। | और पूछेगा कि बोलो! तो वह पांच बजे ही चर्च में चला गया, हाथ डेविड ह्यूम भी एक नास्तिक था, बड़े से बड़ा इस जगत में जो हुआ, | | जोड़कर बैठकर प्रार्थना करता रहा। प्रार्थना करते-करते उसे नींद कीमती से कीमती। वह भी लेकिन रविवार को चर्च जरूर जाता था। | लग गई। उसने एक स्वप्न देखा। वही जो सात दिन से उसके प्राणों तो ह्यूम ने जो उत्तर दिया, वही बक ने भी उत्तर दिया था। में चल रहा था, वही स्वप्न बन गया। .. बक ने कहा कि चर्च में जो कहा जाता है, उसमें मेरा कोई उसने स्वप्न देखा कि वह ट्रेन में बैठा हुआ है, तेजी से ट्रेन जा विश्वास नहीं। लेकिन वह जो आदमी कहता है, उसकी आंखों में रही है। उसने लोगों से पूछा, यह ट्रेन कहां जा रही है? उन्होंने कहा, Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HTRA अर्जुन का जीवन शिखर-युद्ध के ही माध्यम से - यह स्वर्ग जा रही है। उसने कहा, अच्छा हुआ; मैं देख ही लूं। सुगंध है; वह अच्छे आदमी के प्राणों की वीणा से उठा संगीत है। सुकरात कहां है? आदमी अच्छा था, लेकिन ईश्वर में भरोसा नहीं | नर्क कोई स्थान नहीं है; वह बुरे आदमी के जीवन से उठे विसंगीत था। वे सारे लोग कहां हैं? बुद्ध कहां हैं? आदमी अच्छे से अच्छा | का फैल जाना है; वह बुरे आदमी के भीतर से उठी दुर्गंधों का छा था, लेकिन ईश्वर की कभी बात नहीं की। महावीर कहां हैं? आदमी | | जाना है; वह बुरे आदमी के भीतर जो विक्षिप्तता है, उसका बाहर अच्छे से अच्छा था, लेकिन परमात्मा की जब भी किसी ने बात की,. | तक उतर आना है। तो कह दिया कि नहीं है। ये कहां हैं? कृष्ण जब अर्जुन से कहते हैं कि स्वर्ग का क्षण है, उसे तू खो स्वर्ग पहुंच गई ट्रेन। बड़ी निराशा हुई लेकिन स्वर्ग को देखकर। | रहा है। तो एक ही बात ध्यान में रखनी है कि तेरे आंतरिक व्यक्तित्व ऐसी आशा न थी। सब उजड़ा-उजड़ा मालूम पड़ता था। सब के लिए जो शिखर अनुभव हो सकता है, उसका क्षण है, और तू रूखा-रूखा मालूम पड़ता था। रौनक न थी। पूछा, यही स्वर्ग है | | उसे खो रहा है। न? लोगों ने कहा, यही स्वर्ग है। पूछा कि महावीर कहां? बुद्ध कहां? सुकरात कहां? बहुत खोज-बीन की, पता चला कि नहीं हैं। बहत घबडाया फकीर। स्टेशन भागा हआ आया और कहा कि नर्क प्रश्नः भगवान श्री, आपने बताया कि साधन में, मार्ग की गाड़ी? में भिन्न रहने पर भी बुद्ध, महावीर, रमण की भीतरी . नर्क की गाड़ी में बैठा और नर्क पहुंचा। लेकिन बड़ी मुश्किल में | | अनुभूति में भेद नहीं होता है। किंतु अभिव्यक्ति देखते पड़ा। देखा कि बड़ी रौनक है। जैसी स्वर्ग में होने की आशा थी, | | हैं, तो एक-दूसरे से भिन्न और कभी-कभी विरुद्ध ऐसी रौनक है। जैसी नर्क में उदासी होनी चाहिए थी, वैसी स्वर्ग में | | दिशा की मालूम होती है। जैसे कि शंकर का बुद्ध से थी। बड़ी चिंता हुई उसे कि कुछ भूल-चूक तो नहीं हो रही है! विरोध है। यह कैसे? स्टेशन पर उतरा, तो बड़ी ही रौनक है; रास्तों से निकला, तो बड़ा काम चल रहा है, बड़ा आनंद है; कहीं गीत है, कहीं कुछ है, कहीं 27 नुभूति में तो कभी भेद नहीं होता, लेकिन अभिव्यक्ति उसने पूछा कि सुकरात, महावीर, बुद्ध यहां हैं? उन्होंने कहा, 1 में बहुत भेद होता है। और जो लोग अभिव्यक्ति को यहां हैं। उसमे कहा, लेकिन यह नर्क है! सुकरात नर्क में? तो जिस देखकर ही सोचते हैं, उन्हें विरोध भी दिखाई पड़ सकता आदमी से उसने पूछा था, उसने कहा कि चलो, मैं तुम्हें सुकरात से है। साधारण नहीं, असाधारण दुश्मनी और शत्रुता दिखाई पड़ सकती मिला देता हूं। एक खेत में सुकरात गड्डा खोद रहा था। उसने है। क्योंकि अभिव्यक्ति अनुभूति से नहीं आती, अभिव्यक्ति व्यक्ति सुकरात से पूछा कि तुम सुकरात और यहां नर्क में? अच्छे आदमी से आती है। इस फर्क को समझ लेना जरूरी है। और नर्क में? तो सुकरात हंसने लगा और उसने कहा, तुम अभी ___ मैं एक बगीचे में जाऊं। फूल खिले हैं; पक्षी गीत गा रहे हैं; एक भी गलत व्याख्याएं किए जा रहे हो। तुम कहते हो कि अच्छा | रुपया पड़ा है। अगर मैं रुपए का मोही हूं, तो मुझे फूल दिखाई नहीं आदमी स्वर्ग में जाता है। हम कहते हैं, अच्छा आदमी जहां जाता | पड़ेंगे। मुझे पक्षियों के गीत सुनाई पड़ते हुए भी सुनाई नहीं पड़ेंगे। है, वहां स्वर्ग आता है। तुम गलत ही बात–व्याख्या-अभी तक | | सब खो जाएगा, रुपया ही दिखाई पड़ेगा, इम्फेटिकली मुझे रुपया तुम अपनी बाइबिल से गलत व्याख्या किए जा रहे हो। हम कहते | ही दिखाई पड़ेगा। रुपया मेरी जेब में आ जाए, तो शायद पक्षी का हैं, अच्छा आदमी जहां जाता है, वहां स्वर्ग आता है; बुरा आदमी | गीत भी सुनाई पड़े। जहां जाता है, वहां नर्क आता है। ___ लेकिन एक कवि प्रवेश कर गया है। उसे रुपया दिखाई ही नहीं __ अच्छे आदमी स्वर्ग में नहीं जाते। स्वर्ग कोई रेडीमेड जगह नहीं पड़ेगा। जहां पक्षी गीत गा रहे हैं, वहां रुपया दिखाई पड़ जाए, तो है कि वहां कोई चला गया। स्वर्ग अच्छे आदमी का निर्माण है। वह वह आदमी कवि नहीं है। उसका सारा व्यक्तित्व पक्षी के गीतों की उसके भीतर जब अच्छा निर्मित हो जाता है, तो बाहर अच्छा फैल | | तरफ बह जाएगा। चित्रकार है, उसका सारा व्यक्तित्व रंगों के लिए जाता है। वह अच्छे आदमी की छाया है; वह अच्छे आदमी की बह जाएगा। 17] Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 m फिर वे एक ही बगीचे से होकर लौटें और गांव में आकर अगर | | आ जाती है तो चलते नहीं, जमीन गीली हो तो पैर नहीं उठाते, कि हम उनसे पूछे कि क्या देखा? तो बगीचा एक था, जहां वे गए थे, | कहीं कोई कीड़ा न दब जाए। और कहां नाचते हुए पैर मीरा के! लेकिन अभिव्यक्ति भिन्न होगी। अभिव्यक्ति में चुनाव होगा। जो बड़ा विपरीत है। महावीर कहेंगे, बहुत हिंसा हुई जा रही है। मीरा जिसने देखा होगा या जो जिसको पकड़ा होगा या जो जिसको प्रकट कहेगी, नाच ही नहीं रहे, तो कहां जाना उसको! क्योंकि उसे कर सकता होगा, वह वैसे ही प्रकट करेगा। जानकर जो नहीं नाचा, तो जाना ही कहां! मीरा भी उस जगत में गई है उस अनुभूति के, लेकिन लौटकर फिर शंकर जैसा व्यक्ति है, वह भी जानकर आता है वहां से। नाचने लगी। महावीर की नाचने की कल्पना भी नहीं कर सकते। | तो वह कहता है कि एक ब्रह्म ही सत्य है, बाकी सब माया है। बुद्ध, सोच भी नहीं सकते, कि महावीर और नाचें। उनके व्यक्तित्व में | | जैसा व्यक्ति है, जो कहता है, कोई ब्रह्म-ब्रह्म नहीं है; कुछ नहीं है, नाचने की कोई जगह ही नहीं है। महावीर भी उस जगत से लौटे हैं, | शून्य है सब। बड़ी उलटी बातें कहते हैं, तो विवाद दिखाई पड़ता पर वे नाचते नहीं। उस जगत की जो खबर वे लाए हैं, वह खबर है, बड़ा विरोध दिखाई पड़ता है। अपने ही ढंग से प्रकट करेंगे। उनकी खबर उनकी अहिंसा से प्रकट शंकर और बुद्ध से ज्यादा विरोधी आदमी खोजना मुश्किल है। होनी शुरू होती है। उनके शील से, उनके चरित्र से, उनके | क्योंकि एक कहता है, पाजिटिव है सब, विधायक है सब; और उठने-बैठने से-छोटी-छोटी चीज से प्रकट होती है कि वे अद्वैत | | एक कहता है, निगेटिव है सब, नकारात्मक है सब। लेकिन वह भी को जानकर लौटे हैं। | व्यक्तित्व की एंफेसिस है, वह भी व्यक्तित्व का ही प्रभाव है। जो रात महावीर एक ही करवट सोते हैं, करवट नहीं बदलते। कोई | जानकर वे लौटे हैं, वह करीब-करीब ऐसा है जैसे कि कोई गिलास पूछता है महावीर से कि आप रातभर एक ही करवट क्यों सोते हैं? | | आधा भरा रखा हो और दो आदमी उसे देखकर आए हों। और एक तो वे कहते हैं कि कहीं करवट बदलूं और कोई कीड़ा-मकोड़ा आदमी आकर कहे कि गिलास आधा खाली है, और एक आदमी दबकर दुख पाए। इसलिए एक ही करवट, दि लीस्ट जो पासिबल कहे कि झूठ, गिलास आधा भरा है। एक खाली पर जोर दे और है, बिलकुल कम से कम जो संभव है, वह यह। एक करवट तो | एक भरे पर जोर दे। और विवाद निश्चित हो जाने वाला है, क्योंकि सोना ही पड़ेगा, तो एक करवट ही सोए रहते हैं। रातभर पैर भी भरा और खाली बड़े विपरीत शब्द हैं। बिलकुल हो जाने वाला है। नहीं हिलाते कि रात के अंधेरे में कोई दब जाए, कोई दुख पाए। बर्नार्ड शा के संबंध में मैंने सुना है कि वह अमेरिका गया अब इस व्यक्ति की अद्वैत की जो अनुभूति है, वह अहिंसा से बहुत-बहुत निमंत्रणों के बाद। तब वह कहता रहा कि अमेरिका प्रकट हो रही है। यह यही कह रहा है कि एक ही है। क्योंकि जब बड़ा नासमझ, ईडियाटिक मुल्क है; मैं जाता ही नहीं, ऐसे मूढ़ों के तक कीड़ा-मकोड़ा मैं ही नहीं हूं, तब तक उसके लिए इतनी चिंता | बीच जाकर मैं क्या करूंगा। इधर वह गाली देता रहा, उधर पैदा नहीं होती। लेकिन यह महावीर का अपना ढंग है, यह उनके अमेरिका में आकर्षण बढ़ता गया। जो गाली देता है, उसके प्रति व्यक्तित्व से आ रहा है। आकर्षण तो बढ़ ही जाता है। बहुत निमंत्रण थे, तो बर्नार्ड शा गया। - मीरा नाच रही है। उसने जो जाना है, वह उसके भीतर नाच की | जिस जगह उसे उतारा गया, वहां इतना भीड़-भड़क्का हो गया और तरह अभिव्यक्त हो रहा है। वह नाच ही सकती है। वह जो खुशी, | | इतना खतरा था कि कोई झगड़ा न हो जाए, तो उसे चोरी से पहले वह जो आनंद उसके भीतर भर गया है, अब कोई शब्द उसे प्रकट ही दूसरी जगह उतारकर ले जाया गया। नहीं कर सकते। वह तो उसके घंघरुओं से प्रकट होगा। वह उसी और पहली ही सभा में वह बोला, तो उसने उपद्रव शरू किया। अद्वैत को, पद-धुंघरू-बांध खबर लाएगी। वह पहली ही सभा में बोला, तो उसने कहा कि जहां तक मैं देख अब अगर हम महावीर और मीरा को आमने-सामने करें, तो | पा रहा हूं, यहां मौजूद कम से कम पचास प्रतिशत आदमी हम कहेंगे, इनकी अनुभूतियां अलग होनी चाहिए। कहां बजता | | बिलकुल महामूर्ख हैं-सभा में उसने कहा-यहां मैं देख रहा हूं, हआ घंघर, कहां रात भी करवट न लेता हआ आदमी। कहां नाचती तो कम से कम फिफ्टी परसेंट आदमी बिलकल महामढ हैं। जो हुई मीरा के न मालूम कितने पैर पृथ्वी पर पड़े और कहां महावीर अध्यक्ष था, वह घबड़ा गया और लोग चिल्लाने लगे कि शर्म! कि एक-एक पैर को सम्हालकर रखते हैं, फूंककर रखते हैं। वर्षा शर्म! वापस लो अपने शब्द! अध्यक्ष ने कहा कि आप शुरू से ही Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pm अर्जुन का जीवन शिखर-युद्ध के ही माध्यम से HAI उपद्रव की बात कह दिए। किसी तरह लोगों को समझाइए! बड़ा कोई अज्ञानी नहीं है। तो बर्नार्ड शा ने कहा कि नहीं! नहीं! मैं क्या कहना चाह रहा था और फिर भी मैं आपसे कहता हूं कि दोनों एक ही बात कहते और मुझसे बड़ी गलती हो गई। मैं कह रहा था कि जहां तक दिखाई हैं। फिर भी मैं आपसे कहता हूं कि वक्तव्य विरोधी हैं, अनुभूति पड़ता है, यहां उपस्थित पचास प्रतिशत लोग बहुत बुद्धिमान मालूम | विरोधी जरा भी नहीं है। फिर क्यों ऐसे वक्तव्य हैं? पड़ते हैं। और लोगों ने तालियां बजाईं कि यह बात ठीक कही गई शब्दों के अर्थ उस परम अनुभूति में बहुत निजी और प्राइवेट हो है। और बर्नार्ड शा ने झुककर अध्यक्ष से कहा कि कन्फर्म हो गया | जाते हैं। एक तो हमारी कामन मार्केट की, बाजार की भाषा है, जहां कि पचास परसेंट यहां बिलकुल गधे हैं। सब शब्द कामन हैं। अगर हम कहते हैं मकान, तो वही मतलब लेकिन इन दो वक्तव्यों में बड़ा फर्क मालूम पड़ता है। बात वही | होता है, जो आपका है। वैसे गहरे में फर्क होता है। लेकिन ऊपर है। शंकर और बुद्ध के बीच भी ऐसा ही मामला है। से काम चलने लायक बराबर होता है। जब मैं कहता हूं मकान, तो बुद्ध को नकारात्मक शब्द प्रिय है। उसके कारण हैं उनके | मुझे मेरा मकान खयाल में होता है और आपको अपना मकान व्यक्तित्व में, साइकोलाजिकल कारण हैं। बुद्ध आ रहे हैं समृद्ध घर खयाल में होता है। अगर हम दोनों मकान की तस्वीर खींचें, तो से, जहां सब पाजिटिव था। महल था, राज्य था, धन था, स्त्रियां फर्क पड़ जाएगा। थीं—सब था। इतना ज्यादा था सब कि बुद्ध के लिए पाजिटिव __ जब मैं कहता हूं कुत्ता, तो मेरा अपना अनुभव है कुत्तों का, वही शब्द में कोई रस नहीं रह गया। इतना सब भरा था कि अब बुद्ध के | | होता है उस शब्द में। आपका अपना अनुभव है, वही होता है। हो लिए रस खाली होने में है। सकता है, कुत्तों से मैंने जो जाना हो, वह प्रीतिपूर्ण हो; और आपने शंकर एक गरीब ब्राह्मण के लडके हैं. जहां कछ भी नहीं है। सिवाय कत्तों से बचपन से डर के अलावा कछ भी न जाना हो। जब एक भिखारी घर से आ रहे हैं. जहां कछ भी नहीं था। जहां झोपडा भी गली से निकले हों, तभी कत्ता भौंका हो। तो जब कत्ता शब्द था, जिसमें कुछ भी नहीं था। शंकर का रस नहीं में नहीं हो सकता, हम बोलते हैं, तो शब्द बिलकुल सामान्य होता है; लेकिन अगर नहीं तो बहुत देखी। शंकर का रस है में है, पाजिटिव में है। | भीतर हम खोजने जाएं, तो आपका कुत्ता और होगा, मेरा कुत्ता और तो शंकर के लिए ब्रह्म जब प्रकट होगा, तो वह होगा—सब है। होगा। लेकिन कामचलाऊ दुनिया है शब्दों की, वहां चल जाता है। और बुद्ध के लिए जब ब्रह्म प्रकट होगा, तो ऐसा होगा-सब वहां चल जाता है। खाली है। यह साइकोलाजिकल टाइप का फर्क है। इसमें अनुभूति ___ जैसे-जैसे गहरी अनुभूति में उतरते हैं जो कि बाजार में नहीं का जरा भी फर्क नहीं है। है, जो कि एकांत में है-वहां मुश्किल बढ़नी शुरू हो जाती है। शंकर और बुद्ध तो बहुत दूर हैं। बुद्ध के वक्त ही महावीर हैं। | जब महावीर कहते हैं आत्मा, तो उनका अपना निजी अर्थ है। यह एक ही साथ, एक ही इलाके में हैं। और कभी-कभी तो ऐसा हुआ | बिलकुल प्राइवेट लैंग्वेज है। महावीर का मतलब होता है आत्मा कि एक ही गांव में दोनों थे। तो बिलकुल कंटेंप्रेरी हैं। टाइप में भी से, जहां अहंकार नहीं है। अहंकार को छोड़कर जो भीतर शेष रह बहुत फर्क नहीं होना चाहिए, क्योंकि महावीर भी शाही घर से आते जाता है, वही आत्मा है। और तब वे कहते हैं कि आत्मा को जान हैं, बुद्ध भी शाही घर से आते हैं। दोनों साथ-साथ हैं। एक बार तो | लेना ज्ञान है। और आत्मा को जान लेने का मार्ग अहंकार का ऐसा हुआ कि एक गांव में आधी धर्मशाला में महावीर ठहरे थे, | | विसर्जन है। अगर हम अहंकार को शून्य कर दें स्वयं से, तो जो आधी में बुद्ध ठहरे थे। फिर भी बातचीत नहीं हो सकी; फिर भी बचता है, महावीर के लिए आत्मा है। मिलना नहीं हुआ। बुद्ध आत्मा से अहंकार का ही मतलब लेते हैं। वे कहते हैं, जहां और बातें बड़ी विपरीत हैं। क्योंकि महावीर कहते हैं, आत्मा को | | तक मैं का स्वर है, और आत्मा का मतलब है मैं, वहां तक अहंकार जान लेना ही ज्ञान है। और बुद्ध कहते हैं, जो आत्मा को मानता है, . | है। तो बुद्ध जहां-जहां आत्मा कहते हैं, वहां-वहां उनका मतलब उससे बड़ा अज्ञानी नहीं है। अब और क्या विरोध हो सकता है! ता है अहंकार। तलवारें सीधी खिंची हैं। महावीर कहते हैं, आत्मा को जान लेना ही बुद्ध ने जिस शब्द का उपयोग किया है आत्मा के लिए, वह है ज्ञान है। और बुद्ध कहते हैं, आत्मा? आत्मा को मानने वाले से अत्ता। अत्ता बहुत बढ़िया शब्द है। आत्मा में भी वह बात नहीं है, 173 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m गीता दर्शन भाग-1 4 जो अत्ता में है पाली के। अत्ता का मतलब ही होता है, दि एनफोर्ल्ड धर्मों के बीच सारा विवाद भाषा का विवाद है, सत्य का विवाद नहीं ईगो। अत्ता शब्द के स्वर में और दबाव में भी वह बात है—मैं। | है। और जो लोग भाषा के लिए विवाद कर रहे हैं, कम से कम बुद्ध कहते हैं, जहां-जहां अत्ता है, जहां-जहां मैं है, वहां-वहां | | धार्मिक तो नहीं हैं, शब्द-शास्त्री होंगे, लिंग्विस्ट्स होंगे। मगर वे अज्ञान है। और जो आदमी अत्ता को मानता है, आत्मा को मानता | शब्द-शास्त्री अपने को धार्मिक समझ लेते हैं, तब बड़ी कठिनाई है, वह अज्ञानी है। लेकिन बुद्ध भी कहते हैं कि जो अत्ता को छोड़ | हो जाती है। देता है, तब जो शेष रह जाता है, वही ज्ञान है। इसीलिए बुद्ध को लोग कहते हैं अनात्मवादी, और महावीर को कहते हैं आत्मवादी। और वे दोनों एक ही बात कह रहे हैं, वहां वाद सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयो। का कोई उपाय नहीं है। वाद शब्दों तक है। वाद अभिव्यक्ति तक ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ।। ३८।। है। वाद एक्सप्रेशन है, एक्सपीरिएंस नहीं। यदि तुझे स्वर्ग तथा राज्य की इच्छा न हो, तो भी लेकिन बड़ी कठिनाई है। बड़ी कठिनाई है, हमारे पास तो शब्द सुख-दुख, लाभ-हानि और जय-पराजय को समान आते हैं। और शब्द भी पंडितों के द्वारा आते हैं। शब्द भी शास्त्रीयता समझकर, उसके उपरांत युद्ध के लिए तैयार हो। इस प्रकार के मार्ग से गुजरकर आते हैं। शब्द ही रह जाते हैं। और अक्सर ऐसा युद्ध को करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा। नहीं हो पाता कि हम अनुभूति से खोजने जाएं कि महावीर कहते हैं कि अहंकार छोड़ दो, तो जो बचता है, आत्मा है-हम अहंकार छोड़कर देखें। बुद्ध कहते हैं कि आत्मा के भाव को ही छोड़ दो, तब 1 ख और दुख को समान समझकर, लाभ और हानि जो शेष रह जाता है, वही समाधि है—वह भी करके देखें। तब राको समान समझकर, जय और पराजय को समान आपको पता चलेगा, बड़ा पागलपन हुआ। ये तो दोनों एक ही जगह | ० समझकर, युद्ध में प्रवृत्त होने पर पाप नहीं लगेगा। पहुंचा देते हैं। लेकिन इतनी किसी को सुविधा नहीं है। कष्ण का यह वक्तव्य बहत केटेगोरिकल है. बहत निर्णायक है। हम शब्दकोश से सुनते हैं, दर्शनशास्त्र में पढ़ते हैं। बौद्ध पंडित | पाप और पुण्य को थोड़ा समझना पड़े। हैं, जैन पंडित हैं, हिंदू पंडित हैं, उनके पास शब्दों के सिवाय कुछ साधारणतः हम समझते हैं कि पाप एक कृत्य है और पुण्य भी भी नहीं है। वे उन शब्दों की व्याख्याएं करते चले जाते हैं। फिर | | एक कृत्य है। लेकिन यहां कृष्ण कह रहे हैं कि पाप और पुण्य कृत्य प्रत्येक निजी शब्द के पास–निजी कह रहा हूं, क्योंकि इतना नहीं हैं, भाव हैं। अगर पाप और पुण्य कृत्य हैं, एक्ट हैं, तो इससे एकांत अनुभव है महावीर और बुद्ध और शंकर का कि मामला क्या फर्क पड़ता है कि मैं लाभ-हानि को बराबर समझू या न प्राइवेट ही है, वह बहुत पब्लिक नहीं है-उस निजी शब्द के समझू? अगर मैं आपकी हत्या कर दूं, लाभ-हानि बराबर समझू आस-पास फिर व्याख्याओं का जाल बुनता चला जाता है। फिर | | या न समझू, आपकी हत्या के कृत्य में कौन-सा फर्क पड़ जाएगा? जाल इतना बड़ा हो जाता है कि महावीर के आस-पास जो जाल | | अगर मैं एक घर में चोरी करूं लाभ-हानि को बराबर समझकर, खड़ा हआ वह, बद्ध के आस-पास जो जाल खडा हआ वह, शंकर तो यह पाप नहीं होगा; और लाभ-हानि को बराबर न समझं, तो के आस-पास जो जाल खड़ा हुआ वह, वे इतने दुश्मन हो जाते हैं | यह पाप होगा? तब इसका मतलब यह हुआ कि पाप और पुण्य हजार दो हजार साल की यात्रा में कि वह जो बीच में मूल शब्द था का कृत्य से, एक्ट से कोई संबंध नहीं है, बल्कि व्यक्ति के भाव और शब्द के भी मूल में जो अनुभूति थी, वह कहीं की कहीं खो | से संबंध है। यह तो बहुत विचारने की बात है। जाती है, उसका फिर कोई भी पता नहीं रहता। __ हम सब तो पाप और पुण्य को कृत्य से बांधकर चलते हैं। हम इसलिए अड़चन है। अन्यथा अनुभूति कभी भी भिन्न नहीं है। | कहते हैं, बहुत बुरा काम किया। हम कहते हैं, बहुत अच्छा काम अभिव्यक्ति भिन्न हो सकती है, होती है, एक होने की संभावना भी | | किया। कृष्ण तो इस पूरी की पूरी व्यवस्था को तोड़े डालते हैं। वे नहीं है। जिस दिन मनुष्य यह जान पाएगा, उस दिन धर्मों के बीच कहते हैं, काम अच्छे और बरे होते ही नहीं, करने वाला अच्छा और विवाद नहीं है। और जितना जल्दी जान ले, उतना शुभ है। क्योंकि बुरा होता है। नाट दि एक्ट, बट दि एक्टर, कृत्य नहीं कर्ता! जो 174 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm+ अर्जुन का जीवन शिखर-युद्ध के ही माध्यम से HAIR होता है वह नहीं, जिससे होता है वह! जो किया था, वह अच्छा था, कि असाधु ने जो किया था, वह लेकिन मनुष्य की सारी नीति कृत्य पर निर्भर है। कहती है, यह अच्छा था! काम बुरा है और यह काम अच्छा है। अच्छे काम करो और बुरे ___ मैं अभी पश्चिम के एक विचारक का एक हैरानी से भरा हुआ काम मत करो। कौन-सा काम बुरा है? कौन-सा काम अच्छा है? वक्तव्य पढ़ रहा था। उसने यह पूछा है कि अगर एक आदमी दूसरे क्योंकि कोई भी काम एटामिक नहीं है, आणविक नहीं है; काम | महायुद्ध के पहले हिटलर को गोली मार दे, तो यह कृत्य अच्छा है एक श्रृंखला है। समझें उदाहरण से। | या बुरा? बात तो ठीक पूछता है। अगर एक आदमी दूसरे महायुद्ध आप रास्ते से गुजर रहे हैं, एक आदमी आत्महत्या कर रहा है। | के पहले हिटलर को गोली मार दे, तो यह कृत्य शुभ है या अशुभ? आप उसे बचाएं या न बचाएं? स्वभावतः, आप कहेंगे कि | क्योंकि यह आदमी करोड़ों आदमियों को मरने से बचा रहा है, बड़ी आत्महत्या करने वाले को बचाना चाहिए, कृत्य अच्छा है। लेकिन | बर्बादी को रोक रहा है। लेकिन इस आदमी को सजा होती और आप उसे बचा लेते हैं और कल वह पंद्रह आदमियों की हत्या कर | सारी दुनिया में इसके कृत्य का विरोध होता कि इसने गलत काम देता है। आप नहीं बचाते, तो पंद्रह आदमी बचते थे। आपने | किया है। बचाया, तो पंद्रह आदमी मरे। कृत्य आपका अच्छा था या बुरा? तो जो लोग कृत्य से सोचते हैं और हम सभी लोग सोचते हैं, कृत्य एक सीरीज है अंतहीन। आप समाप्त हो जाएंगे, आपका दुनिया के समस्त नीतिशास्त्र कृत्य पर जोर देते हैं कि यह ठीक है कृत्य समाप्त नहीं होगा, वह चलता रहेगा। आप मर जाएंगे, और और यह गलत है। आपने जो किया था, वह चलता रहेगा। कृष्ण इससे उलटी बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं कि यह सवाल ___आपने एक बेटा पैदा किया। यह बेटा पैदा करना अच्छा है या नहीं है कि तुमने जो किया है, वह ठीक है या गलत। गहरे में सवाल बुरा? यह बेटा कल हिटलर बन सकता है। यह एक करोड़ | दूसरा है, और वह सवाल यह है कि तुम कौन हो? तुम क्या हो? आदमियों को मार डाल सकता है। लेकिन यह बेटा कल हिटलर तुम्हारी मनोदशा क्या है? इस पर सब निर्भर है। बनकर एक करोड़ आदमियों को मार डाले, तो भी कृत्य अच्छा है मेरे देखे भी, कृत्य पर आधारित जो नीति है, बहुत बचकानी है, या बुरा ? क्योंकि वे एक करोड़ आदमी क्या करते अगर बचते, इस चाइल्डिश है। लेकिन हम सभी ऐसा सोचते हैं। हम सभी ऐसा पर सब निर्भर होगा। लेकिन यह श्रृंखला तो अनंत होगी। सोचते हैं। __ कृत्य इंडिविजुअल नहीं है। कृत्य के पास कोई आणविक | । कृष्ण कह रहे हैं, व्यक्ति की भावदशा क्या है ? और वे एक सूत्र इंतजाम नहीं है; वह तो बड़ी श्रृंखला की एक कड़ी है। बस, एक | दे रहे हैं कि अगर लाभ और हानि बराबर है, अगर सुख और दुख कड़ी है और आगे श्रृंखला अंतहीन है। आप चले जाएंगे और कृत्य | समान हैं, अगर जय और पराजय में कोई अंतर नहीं, तो तू जो भी जारी रहेगा। जैसे कि हमने पत्थर फेंका एक झील में, पत्थर डूब | करेगा, उसमें कोई पाप नहीं है। क्या करेगा, इसकी वे कोई शर्त ही गया। लेकिन पत्थर का झील से जो संघात हुआ था, वह जो लहर | | नहीं रखते। कहते हैं, फिर तू जो भी करेगा, उसमें कोई पाप नहीं है। उठी थी-पत्थर तो डूबकर झील में बैठ गया लेकिन वह जो | | विचारणीय है, और गहरी है बात। क्योंकि कृष्ण यह कह रहे हैं संघात हुआ था, जो लहर उठ गई थी, वह उठ गई। अब वह लहर | | कि दूसरे को चोट पहुंचाने की बात तभी तक होती है, जब तक लाभ चल पड़ी। अब वह लहर और लहरों को, और लहरों को, और | और हानि में अंतर होता है। जिसे लाभ और हानि में अंतर ही नहीं लहरों को, उठाती रहेगी। पत्थर कभी का शांत होकर बैठ गया और | है....शर्त बड़ी मुश्किल है। क्योंकि लाभ-हानि में अंतर न हो, यह लहर अनंत चलती रहेगी, अनंत तटों को छूती रहेगी। करीब-करीब बड़ी गहरी से गहरी उपलब्धि है। कृत्य ऐसा ही है। ऐसा व्यक्ति, जिसे लाभ और हानि में अंतर नहीं है, क्या ऐसा __ आप करते हैं, आप तो बाहर हो जाते हैं करके, कृत्य चल पड़ता | | कोई भी कृत्य कर सकता है, जिसे हम पाप कहते हैं! जिसे जय न-सा कृत्य ठीक है, जब तक हम पूरे विश्व का और पराजय समान हो गई हों, जिसे असफलता और सफलता अंत न पा लें, तब तक तय नहीं हो सकता। जब तक कि सब सृष्टि खेल हो गए हों, जो दोनों को एक-सा स्वागत, स्वीकार देता हो, समाहित न हो जाए, तब तक तय करना मुश्किल है कि महात्मा ने जिसकी दोनों के प्रति समान उपेक्षा या समान स्वीकृति हो, क्या है। इ 175 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ STA गीता दर्शन भाग-1 AM ऐसा व्यक्ति गलत कर सकता है? | वह आपकी दुकान पर आए और हीरे-जवाहरात उठा ले; और कृष्ण का जोर व्यक्ति पर है, कृत्य पर नहीं। और व्यक्ति के पीछे अदृश्य है, पुलिस उसे पकड़ न पाए, समाज उसे अनैतिक कह न जो शर्त है, वह बहुत बड़ी है। वह शर्त यह है कि उसे द्वंद्व समान पाए। वह किसी के घर में रात घुस जाए; दिखाई न पड़े, अदृश्य हो दिखाई पड़ने लगे, उसे प्रकाश और अंधेरा समान दिखाई पड़ने सके। तो प्लेटो ने यह पूछा है कि क्या ऐसा नैतिक आदमी खोजना लगे। यह तो बड़ी ही गहरी समाधि की अवस्था में संभव है। संभव है, जिसके हाथ में अदृश्य होने का ताबीज हो और जो नैतिक ___ इसलिए ऊपर से तो वक्तव्य ऐसा दिखता है कि कृष्ण अर्जुन को | रह जाए? बड़ा कठिन मालूम पड़ता है ऐसा आदमी खोजना। बड़ी स्वच्छंद छूट दे रहे हैं; क्योंकि अब वह कुछ भी कर सकता __ आप भी अगर सोचें कि आपको ताबीज मिल गया, एक पांच है। ऊपर से ऐसा लगता है, इससे तो स्वच्छंदता फलित होगी, अब | मिनट के लिए सोचें कि हाथ में ताबीज है, अब क्या करिएगा! तुम कुछ भी कर सकते हो। लेकिन कृष्ण अर्जुन को गहरे से गहरे | | आपका मन फौरन रास्ते बताएगा कि यह-यह करो-पड़ोस वाले रूपांतरण और ट्रांसफार्मेशन में ले जा रहे हैं, स्वच्छंदता में नहीं। की पत्नी को ले भागो, फलां आदमी की कार ले भागो, फलां की __ असल में जिस व्यक्ति को जय और पराजय समान हैं, वह कभी दुकान में घुस जाओ-फौरन आपका मन आपको सब रास्ते बता भी स्वच्छंद नहीं हो सकता है। उपाय नहीं है, जरूरत नहीं है, | देगा। अभी मिला नहीं ताबीज आपको, लेकिन ताबीज मिल जाए, प्रयोजन नहीं है। लाभ के लिए ही आदमी पाप में प्रवत्त होता है। इसका खयाल भी आपको फौरन बता देगा कि आप क्या-क्या कर हानि से बचने के लिए ही आदमी पाप में प्रवृत्त होता है। | सकते हो-जो कि आप नहीं कर पा रहे हो, क्योंकि अनैतिक होने एक आदमी असत्य बोलता है। दनिया में कोई भी आदमी में हानि मालम पड रही है। और कोई कारण नहीं है। इस जगत में असत्य के लिए असत्य नहीं बोलता है, लाभ के लिए असत्य | जो हमें नैतिक और अनैतिक लोग दिखाई पड़ते हैं, उनके नैतिक बोलता है। अगर दुनिया में सत्य बोलने से लाभ होने लगे, तो और अनैनिक होने का निर्णायक सूत्र लाभ और हानि है। असत्य बोलने वाला मिलेगा ही नहीं। तब बड़ी मुश्किल से खोजना | - कृष्ण नीति को बड़े दूसरे तल पर ले जा रहे हैं, बिलकुल अलग पड़ेगा। कोई त्यागी, महात्यागी असत्य बोले, बात अलग। कोई | डायमेंशन में। वे यह कह रहे हैं, यह सवाल ही नहीं है। इसीलिए बड़ा संकल्पवान तय ही कर ले कि असत्य बोलूंगा, तो बात तो जो शक्तिशाली होता है, वह नीति-अनीति की फिक्र नहीं . लग। लेकिन अगर सत्य के साथ लाभ होता हो, तो असत्य करता। इसलिए अगर चाणक्य से पळे या मैक्यावेली से पछे, तो बोलने वाला नहीं मिलेगा। तब तो इसका मतलब यह हुआ कि | | वे कहेंगे, नीति का कोई मतलब नहीं होता, नीति सिर्फ कमजोरों का असत्य कोई नहीं बोलता, लाभ ही असत्य का मार्ग लेता है। हानि | | बचाव है। शक्तिशाली तो कोई नीति की फिक्र नहीं करता, क्योंकि से बचना ही असत्य का मार्ग लेता है। आदमी चोरी के लिए चोरी | | उसे अनीति से कोई हानि नहीं हो सकती। सिर्फ कमजोर नीति की नहीं करता. लाभ के लिए चोरी करता है। कोई दनिया में चोरी के | फिक्र करता है. क्योंकि अनीति से हानि हो सकती है। मैक्यावेली लिए चोरी नहीं करता। तो सुझाव देता है कि अगर तुम्हारे पास शक्ति है, तो शक्ति का आज तक दुनिया में किसी ने भी कोई पाप लाभ के अतिरिक्त | मतलब ही यह है कि तुम अनैतिक होने के लिए स्वतंत्र हो। अगर और किसी कारण से नहीं किया; या हानि से बचने के लिए किया, कमजोर हो, तो उसका मतलब इतना ही है कि तुम्हें नैतिक होने की दोनों एक ही बात है। पाप भी—और मजे की बात है, पुण्य | मजबूरी है। भी-पुण्य भी आदमी लाभ के लिए करता है या हानि से बचने के नीति और अनीति के गहरे में लाभ-हानि पकड़ में आती हैं। लिए करता है। दुनिया रोज अनैतिक होती जा रही है, ऐसा हमें लगता है। कुल प्लेटो ने एक छोटी-सी कहानी लिखी है। और कहानी है एक | कारण इतना है कि दुनिया में इतने लोग शक्तिशाली कभी नहीं थे, नैतिक प्रश्न उठाने के लिए। कहानी है कि एक आदमी को यदि कोई | जितने आज हैं। कुल कारण इतना है। दुनिया अनैतिक होती हुई ऐसी तरकीब मिल जाए, कोई ऐसा ताबीज मिल जाए, कि वह | दिखाई पड़ती है, क्योंकि दुनिया में इतना धन-इतने अधिक लोगों इनविजिबल हो सके, अदृश्य हो सके–जब चाहे तब अदृश्य हो | | के पास कभी भी नहीं था। जिनके पास था, वे सदा अनैतिक थे। सके तो प्लेटो पूछता है कि क्या ऐसा आदमी नैतिक हो सकेगा? | दुनिया अनैतिक होती मालूम पड़ती है, क्योंकि अतीत की दुनिया में IA Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 अर्जुन का जीवन शिखर-युद्ध के ही माध्यम से राजाओं-महाराजाओं के हाथ में ताकत थी। नई दुनिया लोकतंत्र है,। । यह पुण्य और पाप का बहुत ही नया आयाम है। कृत्य से नहीं, वहां एक-एक व्यक्ति के पास शक्ति वितरित कर दी गई है। अब व्यक्ति के अंतस्तल में हुई क्रांति से संबंधित है। प्रत्येक व्यक्ति शक्ति के मामले में ज्यादा समर्थ है, जितना कभी | भी नहीं था। दुनिया अनैतिक होती मालूम पड़ती है, क्योंकि इतने | अधिक लोग शिक्षित कभी नहीं थे और शिक्षा एक शक्ति है। जो | । प्रश्नः भगवान श्री, कुछ मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि लोग शिक्षित थे, उनके नैतिक होने का कभी भरोसा नहीं था। । जैसे भूख, निद्रा, काम आदि स्वाभाविक वृत्तियां हैं, जितनी शिक्षा बढ़ेगी, उतनी अनीति बढ़ जाएगी; जितनी समृद्धि | वैसे ही क्रोध करना भी मानव की स्वाभाविक वृत्ति बढ़ेगी, उतनी अनीति बढ़ जाएगी; जितनी शक्ति बढ़ेगी, उतनी है। यदि ऐसा है, तो जगत में युद्ध भी स्वाभाविक ही अनीति बढ़ जाएगी। मजा यह है कि नीति और अनीति के बहुत | है। जब तक जगत, तब तक युद्ध। क्या युद्ध कभी गहरे में लाभ-हानि ही बैठी है। अटक भी सकती है? इसलिए कृष्ण का यह वचन बड़े गहरे इंप्लिकेशंस का है। वे अर्जन से कहते हैं कि जब तक तो लाभ और हानि में भेद है. तब | तक तू जो भी करेगा, वह पाप है। और जिस दिन तुझे लाभ-हानि वाभाविक किसी बात को कह देना, उसके होने की में कोई भेद नहीं है, उस दिन तू निश्चित हो। फिर तू जो भी करेगा, । अनिवार्यता को सिद्ध कर देना नहीं है। जो भी हमें वह पाप नहीं है। स्वाभाविक मालूम पड़ता है, वह सभी एक तल पर इसलिए सवाल नहीं है यह कि हम चुने कि क्या करणीय है और | स्वाभाविक है, लेकिन तल के परिवर्तन के साथ बदल जाता है। क्या करणीय नहीं है। असली सवाल और गहरे में है और वह यह जैसा मनुष्य है, वैसे मनुष्य के लिए क्रोध बिलकुल स्वाभाविक है। है कि क्या मेरे चित्त में लाभ और हानि का प्रभाव पड़ता है? अगर | लेकिन मनुष्य बुद्ध जैसा मनुष्य भी हो जाता है, और तब क्रोध पड़ता है, तो मैं मंदिर भी बनाऊं तो पाप होगा, उसके बहुत गहरे में | बिलकुल अस्वाभाविक हो जाता है। स्वाभाविक और अस्वाभाविक लाभ-हानि ही होगी। अगर मैं पुण्य भी करूं, तो सिर्फ दिखाई | | व्यक्ति की चेतना के प्रत्येक तल पर बदलते जाते हैं। पड़ेगा, पुण्य हो रहा है; पीछे पाप ही होगा। और सब पुण्य करने ___ एक आदमी शराब पीकर रास्ते पर चल रहा है, तो नाली में गिर के लिए पहले पाप करना जरूरी होता है। मंदिर भी बनाना हो, तो | जाना बिलकुल स्वाभाविक है। लेकिन एक आदमी बिना शराब भी मंदिर बनाने के लायक तो धन इकट्ठा करना ही होता है। | पीए सड़क पर चल रहा है, उसका नाली में गिर जाना बिलकुल सब पुण्यों के लिए पाप करना जरूरी होता है, क्योंकि कोई पुण्य अस्वाभाविक है। लेकिन शराब पीए आदमी में और गैर शराब पीए बिना लाभ के नहीं हो सकते। दान के पहले भी चोरी करनी पड़ती आदमी में आदमियत का कोई भी फर्क नहीं है। फर्क है चेतना का। है। असल में जितना बड़ा चोर, उतना बड़ा दानी हो सकता है। आदमियत का कोई भी फर्क नहीं है। शराब पीया आदमी भी वैसा असल में बड़ा दानी सिर्फ अतीत का चोर है। आज का चोर कल | ही आदमी है, जैसा नहीं शराब पीया हुआ आदमी आदमी है। का दानी हो सकता है। क्योंकि चोरी करके भी करिएगा क्या? एक | | अंतर कहां है? अंतर चेतना का है। शराब पीए हए आदमी के सीमा आ जाती है सेच्युरेशन की, जहां चोरी से फिर कोई लाभ नहीं | | पास उतनी चेतना नहीं है, जो नाली में गिरने से बचा सके। गैर मिलता। फिर उसके बाद दान करने से लाभ मिलना शुरू होता है। | शराब पीए आदमी के पास उतनी चेतना है, जो नाली में गिरने से कृष्ण का वक्तव्य बहुत अदभुत है। वे यह कहते हैं कि तू लाभ | बचाती है। अगर हम क्रोध में गिर जाते हैं, तो वह भी हमारी मूर्छा और हानि का जब तक भेद कर पा रहा है, तब तक तू कितने ही के कारण। और बुद्ध अगर क्रोध में नहीं गिरते, तो वह भी उनकी पुण्य की बातें कर, लेकिन तू जो भी करेगा वह पाप है। और अगर | अमूर्छा के कारण। वह भी फर्क चेतना का ही है। उस फर्क में भी तू यह समझ ले कि लाभ-हानि में कोई फर्क नहीं, जय-पराजय में | | वही फर्क काम कर रहा है, जो शराबी के साथ कर रहा है। हां, कोई फर्क नहीं, जीवन-मृत्यु में कोई फर्क नहीं, तो फिर तू जो भी | | फर्क भीतरी है, इसलिए एकदम से दिखाई नहीं पड़ता। करे, वह पुण्य है। जब आप क्रोध में होते हैं, तब आपके एड्रिनल ग्लैंड्स आपके Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m+ गीता दर्शन भाग-1 AM भीतर शराब छोड़ देते हैं। जब आप क्रोध में होते हैं, तो आपके | बननी शुरू हो जाती है। तब उसके व्यक्तित्व में रूपांतरण, शरीर में...बहुत से मादक रस इकट्ठे हैं आपके शरीर में। अगर वे ट्रांसफार्मेशन के नए द्वार खुलते हैं। तब वह सामान्य मनुष्य से ग्लैंड्स काट दी जाएं, फिर आप क्रोध करके बताएं तो समझा जाए! | ऊपर उठना शुरू होता है। सुपरमैन उसके भीतर पैदा होना शुरू पावलव ने बहुत प्रयोग किए हैं रूस में कुत्तों की उन ग्लैंड्स को होता है, वह अतिमानव होना शुरू हो जाता है। काटकर, जिनकी वजह से कुत्ते भौंकते हैं और भौंकते ही रहते हैं। मनुष्य के लिए क्या स्वाभाविक है, यह इस पर निर्भर करता है और लड़ते ही रहते हैं। बड़ा जानदार कुत्ता है, तीर है बिलकुल, | | कि उसकी चेतना का तल क्या है। प्रत्येक तल पर स्वभाव जरा-सी बात और जूझ जाएगा। उसकी भी ग्लैंड काट देने के बाद, | भिन्न-भिन्न होगा। एक बच्चे के लिए जो स्वाभाविक है, जवान के उसको कितना ही उकसाओ, वह कुछ भी नहीं करता। फिर वह | लिए स्वाभाविक नहीं रह जाता। और एक जवान के लिए जो बैठा रह जाएगा। स्वाभाविक है, बूढ़े के लिए स्वाभाविक नहीं रह जाता। बीमार खतरा भी है इस प्रयोग में। क्योंकि आज नहीं कल, कोई हुकूमत | आदमी के लिए जो स्वाभाविक है. वह स्वस्थ के लिए स्वाभाविक आदमियों के ग्लैंड्स भी काटेगी। जिस हुकूमत को भी विद्रोह और नहीं रह जाता। क्रांति से बचना है, आज नहीं कल, बायोलाजिस्ट की सहायता वह तो स्वभाव कोई फिक्स्ड एनटाइटी नहीं है। स्वभाव कोई ऐसी लेगी। कोई कठिनाई नहीं है। रूस जैसे मुल्क में, जहां हर बच्चे को | | बात नहीं है कि कोई थिर चीज है। यही खूबी है मनुष्य की। एक नर्सरी में पैदा होना है, वहां पैदा होने के साथ ही ग्लैंड्स समाप्त की | पत्थर का स्वभाव थिर है, पत्थर का स्वभाव बिलकुल थिर है। जा सकती हैं। या उन ग्लैंड्स के एंटीडोट्स का इंजेक्शन दिया जा | | पानी का स्वभाव बिलकुल थिर है। इसलिए हम विज्ञान की सकता है। | किताब में लिख सकते हैं कि पानी का यह स्वभाव है, अग्नि का तब आपको पता चलेगा कि स्वाभाविक बिलकुल नहीं है। यह स्वभाव है। स्वाभाविक इसलिए है कि शरीर के साथ अनंत यात्रा में जरूरी रहा मनष्य की खबी ही यही है कि उसका स्वभाव उस पर ही निर्भर है। और शरीर के साथ बहुत-सी चीजें जो कल जरूरी थीं, अब है। और वह अपने स्वभाव को हजार आयाम दे सकता है और जरूरी नहीं रह गई हैं, लेकिन खिंच रही हैं। | विकास कर सकता है। हां, एक स्वभाव जन्म के साथ सबको ' जिस स्थिति में मनुष्य है, अगर हम उसको परम स्थिति मान | | मिलता है। कुछ लोग उसी पर रुक जाते हैं, उसी को स्वभाव का लें, तब तो बिलकुल स्वाभाविक है। लेकिन वह परम स्थिति नहीं | | अंत मान लेते हैं, तब दूसरी बात है। है; उसमें बदलाहट हो सकती है। उसमें बदलाहट दो तरह से हो ___ कभी आपने शायद खयाल न किया हो; अगर एक हीरे को रख सकती है। दें और पास में कोयले के टुकड़े को रख दें, तो आपको कभी शरीर के द्वारा भी बदलाहट हो सकती है। लेकिन शरीर के द्वारा | खयाल न आएगा कि हीरा कोयला ही है। हीरे और कोयले में जो बदलाहट होगी, वह मनुष्य की आत्मा का विकास नहीं, पतन | | बुनियादी तत्व के आधार पर कोई भी भेद नहीं है। असल में कोयला बनेगी। क्योंकि जो आदमी क्रोध कर नहीं सकेगा, इसलिए नहीं ही हजारों-लाखों वर्ष जमीन में दबा रहकर हीरा बन जाता है। करता है, वह आदमी इंपोटेंट हो जाएगा। उस आदमी का कोई लेकिन हीरे और कोयले का स्वभाव एक है? जरा भी एक नहीं है। गौरव नहीं होगा। उसके व्यक्तित्व में चमक नहीं आएगी। उसकी | | कहां कोयला, कहां हीरा! लेकिन बनता है हीरा कोयले से ही; वह आंखों में शान नहीं आएगी। अक्रोध की शांति भी नहीं आएगी, | कोयले की ही आखिरी यात्रा है।। क्योंकि क्रोध कर ही नहीं सकता। जो आदमी बुरा हो ही नहीं तो जहां मनुष्य अपने को पाता है, कोयले जैसा है। और जहां सकता, उसके भले होने का कोई भी अर्थ नहीं होता। वह सिर्फ बुद्ध जैसे, महावीर जैसे, कृष्ण जैसे व्यक्ति अपने को पहुंचाते हैं, असमर्थ होता है, दीन होता है। | हीरे जैसे हैं। फर्क स्वभाव का नहीं है, फर्क विकास का है। लेकिन जो आदमी क्रोध कर सकता है और नहीं करता है, | प्राथमिक स्वभाव हम सबको एक जैसा मिला है-क्रोध है, उसकी चेतना रूपांतरित हो जाती है। क्रोध कर सकता है और नहीं काम है, लोभ है। लेकिन यह अंत नहीं है, प्रारंभ है। और इस करता है, तो वह जो क्रोध की शक्ति है, वह अक्रोध की शक्ति प्रारंभ को ही अगर हम अंत समझ लें, तो यात्रा बंद हो जाती है। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ → अर्जुन का जीवन शिखर - युद्ध के ही माध्यम से 4. और हुई है जैसा कि आपने पूछा है, मनोवैज्ञानिक कहते हैं, यह तो स्वभाव है। लेकिन यह कहकर वे कुछ इस तरह की बात दुनिया में पैदा करवाते हैं कि जैसे यह अंत है। इसलिए पश्चिम में मनोविज्ञान के कुछ परिणाम हुए हैं। हिंदुस्तान में मनोविज्ञान ने एक लाभ लिया और मनुष्य को विकास दिया। और पश्चिम के सौ डेढ़ सौ वर्ष के मनोविज्ञान ने मनुष्य को पतन दिया, विकास नहीं दिया। क्योंकि मनोवैज्ञानिक ने कहा, यह तो स्वभाव है। आदमी क्रोध तो करेगा ही, क्रोध तो स्वभाव है। आदमी कामुक तो होगा ही, कामुकता तो स्वभाव है। इसका परिणाम क्या हुआ ? इसका परिणाम यह हुआ कि जो प्रारंभ बिंदु था, वह अंतिम मंजिल बन गया । और तब प्रत्येक आदमी ने कहा, क्रोध तो मैं करूंगा ही, यह मेरा स्वभाव है। आदमी क्रोध करेगा ही। निश्चित ही, इसके फल हुए हैं। वे फल पश्चिम में दिखाई पड़ रहे हैं। वे फल ये हुए कि आज कोई भी व्यक्ति अपने को किसी भी कृत्य के लिए जिम्मेवार, रिस्पांसिबल नहीं मानता। क्योंकि वह कहता है, यह स्वभाव है। एक आदमी गालियां बक रहा है सड़क पर, तो आप उससे यह नहीं कह सकते कि तुम यह क्या कर रहे हो ? वह कहता है, यह स्वभाव है। एक आदमी चोरी कर रहा है, आप उससे यह नहीं कह सकते कि तुम गलत कर रहे हो। वह कहता है, मैं क्या कर सकता हूं, यह स्वभाव है। पश्चिम के मनोविज्ञान ने अगर बड़े से बड़ा खतरा लाया है, तो आदमी को रिस्पांसिबिलिटी से मुक्त कर दिया। दायित्व कुछ उसका है नहीं। वह कहता है, यह स्वभाव है। और जो भी हो रहा है...। तो पश्चिम में मार्क्स और फ्रायड, इन दो के तालमेल से एक अदभुत स्थिति पैदा हो गई है। मार्क्स ने कह दिया कि जो भी हो रहा है, उसके लिए जिम्मेवार समाज है। और फ्रायड ने कह दिया कि जो भी हो रहा है, उसके लिए जिम्मेवार प्रकृति है। आदमी बाहर हो गया। अगर एक आदमी चोरी कर रहा है, तो जिम्मेवार समाज है। अगर एक आदमी हत्या कर रहा है, जिम्मेवार समाज है। ऐसा मार्क्स ने कह दिया, व्यक्ति के ऊपर कोई जिम्मेवारी नहीं है, सोशल रिस्पांसिबिलिटी है। इसलिए अगर व्यक्ति को बदलना है, तो समाज को बदलो । और जब तक समाज नहीं बदलता, तब तक व्यक्ति जैसा है वैसा रहेगा। इसकी हम उसे लाइसेंस देते हैं। व्यक्ति बड़ा प्रफुल्लित हुआ। हजारों साल की जो चिंता थी, उसके दिमाग से गिर गई। ये कृष्ण ने, महावीर ने, बुद्ध ने आदमी को बड़ी भारी चिंता, बड़ी एंग्जाइटी दे दी थी— दे दी थी कि तुम जिम्मेवार हो । चिंता गिर गई । व्यक्ति बड़ा निश्चित हुआ। लेकिन उस निश्चितता में व्यक्ति सिर्फ वही रह गया, जो कोयला था । उससे बाहर की यात्रा बंद हो गई। निश्चित ही, कोयले को हीरा बनना हो, तो चिंता से गुजरना पड़ेगा। लाखों साल की लंबी यात्रा है! फिर फ्रायड ने लोगों को कह दिया कि समाज भी बदल डालो, तो भी कुछ होने वाला नहीं है। क्योंकि रूस में क्रोध कम हो गया ? कि रूस में अहंकार कम हो गया ? कि रूस का नागरिक किसी भी तरह से आदमियत के तल पर बदल गया है ? कुछ भी नहीं बदला। फ्रायड ने कहा, समाज वगैरह के बदलने का सवाल नहीं है। जिम्मेवार स्वभाव है, नेचर है। जब तक नेचर को न बदल डालो, तब तक कुछ भी नहीं हो सकता। पर नेचर को कैसे बदलोगे ? स्वभाव को कैसे बदलोगे ? इसलिए आदमी जैसा है वैसा रहेगा। निश्चित मन से उसे जैसा है. वैसा रहना चाहिए ! यह बदलाहट, यह क्रांति, यह भीतरी रूपांतरण, यह धर्म, यह योग, यह समाधि, ये सब बकवास हैं। फ्रायड ने कहा, आदमी जैसा है वैसा ही रहेगा। नाहक की चिंता में | आदमी को डालकर परेशान किया हुआ है। वह जैसा है, है । फ्रायड के इस कहने का परिणाम पश्चिम में एक्सप्लोसिव हुआ। आज हिप्पी हैं, बीटनिक हैं, प्रवोस हैं, और दूसरे तरह के सारे लोग हैं, वे यही कह रहे हैं कि यह स्वभाव है। और फ्रायड ने गारंटी दी है कि यह स्वभाव है, और आदमी वही रहेगा जो है । आदमी एक पशु है। थोड़ी-सी बुद्धि है उसके पास, इसलिए बुद्धि से अपने को परेशानी में डाल लेता है । बुद्धि को भी छोड़ दे, तो कोई परेशानी नहीं है। आदमी फ्रायड ने - अगर फ्रायड को समझें, तो वह यह कहता है, तुम्हारी बुद्धि ही तुम्हारी परेशानी है। उसी की वजह से | तुम झंझट में पड़ जाते हो। जो है, वह है । यह बुद्धि उस पर सोच-विचार करके कहने लगती है, ऐसा नहीं होना चाहिए, वैसा | नहीं होना चाहिए। इससे तुम चिंता पैदा करते हो, पागल हुए जाते हो । छोड़ो यह चिंता ! जो हो, उसके लिए राजी हो जाओ। ठीक है, निश्चितता आ जाएगी, लेकिन कोयले की निश्चितता होगी। पशु निश्चित है। अगर फ्रायड को मानकर पूरा का पूरा चला जाए, तो आदमी पशु की तरफ गिरता जाएगा — गिरा है। फ्रायड जो कहता है, वह सच है, लेकिन अधूरा सच है। और अधूरे सच 179 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1-m झूठ से भी खतरनाक होते हैं। खतरनाक है। शायद मनुष्य के ऊपर इससे बड़े खतरे के बादल यह सच है कि आदमी में क्रोध है, और यह स्वभाव है। और कभी भी नहीं आए थे, जितने बड़े खतरे के बादल इस बात से आए यह भी सच है कि आदमी में क्रोध से विकसित होने की संभावना हैं कि जो भी है, वह है। यह तो होगा ही, यह तो बिलकुल है, वह भी उसका स्वभाव है। यह सच है कि क्रोध है। और यह स्वाभाविक है। भी सच है कि क्रोध से मुक्त होने की आकांक्षा है, वह भी स्वभाव | | मैं आपसे कहना चाहता हूं कि मैं भी कहता हूं कि बिलकुल है। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसमें क्रोध है और क्रोध से स्वाभाविक है। मनोविज्ञान से मेरी गहरी सहमतियां हैं, लेकिन मुक्त होने की आकांक्षा नहीं है। तो क्रोध स्वभाव है, और क्रोध से असहमतियां भी हैं। मैं मानता हं, मनोविज्ञान जहां तक जाता है, मुक्त होने की आकांक्षा? वह स्वभाव नहीं है? ऐसा आदमी बहुत ठीक है। लेकिन उसके आगे भी यात्रा-पथ है। जहां तक जाता खोजना मुश्किल है, जो अपने को अतिक्रमण नहीं करना चाहता, है, बिलकुल ठीक। लेकिन जहां से इनकार करता है, वहां बिलकुल जो अपने से ऊपर नहीं जाना चाहता। जो है, वह स्वभाव है। जो | | गलत है। फ्रायड जहां तक जाते हैं, बिलकुल ठीक, वहां तक कृष्ण होना चाहता है, वह भी स्वभाव है। और बुद्ध भी इनकार नहीं करते। लेकिन कृष्ण और बुद्ध कहते हैं, और निश्चित ही, जो होना चाहता है, उसके लिए, जो है उसको | | यह अंत नहीं है, यह बिलकुल प्रारंभ है। और इस प्रारंभ का ऐसा रूपांतरित करना पड़ता है। उसकी विधियां हैं। उस विधि का नाम | | उपयोग करना है कि अंत भी फलित हो सके। ही धर्म है। अगर मनुष्य जैसा है, वैसा ही है, तब धर्म की कोई | ___ जड़ स्वभाव है, लेकिन फूल तक भी पहुंचना है। अन्यथा जड़ें अर्थवत्ता नहीं है, मीनिंगलेस है। बड़ी कुरूप होती हैं; गंदी होती हैं; अंधेरे में दबी होती हैं; नीचे इसलिए अगर पश्चिम में धर्म का सारा मूल्य खो गया, तो उसके | | अंधेरे रास्तों में, जमीन में फैली होती हैं। स्वाभाविक हैं, बिलकुल खोने का बहुत गहरा कारण यही है कि पश्चिम के मनोविज्ञान ने | | जरूरी हैं, लेकिन जड़ें फूल नहीं हैं। और अगर जड़ों पर कोई वृक्ष आदमी को कहा कि यह तो स्वभाव है। ऐसा होगा ही। | रुक जाए और कोई फ्रायड वृक्ष को समझा दे कि पागल, यही तेरा एक मित्र मेरे पास आए, यही अभी परसों। उन्होंने कहा कि मैं स्वभाव है। और वृक्ष रुक जाए और कहे, क्या करेंगे अब आकाश बहुत परेशान था, नींद मुझे नहीं आती थी। नींद खो गई थी, इससे में उठकर, जड़ें ही अपना स्वभाव है, तो फिर फूल नहीं आएंगे। चिंतित था। मनोवैज्ञानिक के पास गया, तो मनोवैज्ञानिक ने कहा कि और मजा यह है कि जड़ें इसीलिए हैं कि फूल आएं। और फूल यह तो बिलकुल ठीक है। मनोवैज्ञानिक ने पूछा कि सेक्स के बाबत और जड़ में कितना विरोध है! कहां फूल-आकाश में खिले हुए, तुम्हारी क्या स्थिति है? तो मनोवैज्ञानिक ने उनसे कहा कि तुम । सूर्य की रोशनी में नाचते हुए! और कहां जड़ें-अंधेरे में दबी हुई! हस्तमैथुन, मस्टरबेशन शुरू कर दो। उन्होंने कहा कि कैसी बात विरोध है बड़ा, सामंजस्य भी है बड़ा, क्योंकि फूल बिना जड़ों के कहते हैं? तो उन्होंने कहा, यह तो स्वभाव है। यह तो आदमी को | नहीं हो सकते। करना ही पड़ता है! जब मनोवैज्ञानिक कहता हो, वे राजी हो गए। | यह भी आखिरी बात मैं आपसे कहना चाहता हूं कि फूल बिना कि उसी मनोवैज्ञानिक | जड़ों के नहीं हो सकते; हालांकि जड़ें बिना फल के हो सकती हैं। ने कहा कि अब तुम्हें इलेक्ट्रिक शॉक की जरूरत है। अब तुम यह जीवन का एक बहत बड़ा दर्भाग्य है कि यहां बिजली के शॉक्स लो। अब जब मनोवैज्ञानिक कह रहा है। और श्रेष्ठ के बिना हो सकता है; लेकिन यहां जो श्रेष्ठ है, वह निम्न के हम तो अथारिटी के ऐसे दीवाने हैं, ऐसे पागल हैं। और जो चीज बिना नहीं होता। एक मंदिर पर स्वर्ण के शिखर रखने हों, तो नींव जब अथारिटी बन जाए! कभी मंदिर का पुरोहित अथारिटी था, तो भरनी ही पड़ती है। नींव के बिना स्वर्ण-शिखर नहीं होते; लेकिन वह जो कह दे, वह सत्य था। अब वह पौरोहित्य जो है मंदिर का, स्वर्ण-शिखर के बिना नींव हो सकती है-नींव भरें और छोड़ दें। वह मनोवैज्ञानिक के हाथ में आया जा रहा है। अब वह जो कह दे, | जो निम्न है, वह श्रेष्ठ के बिना भी हो सकता है। लेकिन जो श्रेष्ठ वह सत्य है। तो बिजली के शॉक ले लिए। सब तरह से व्यक्तित्व | है, वह निम्न के बिना नहीं हो सकता। इसलिए अगर निम्न को हमने अस्तव्यस्त हो गया। स्वभाव समझा, नियति समझी, डेस्टिनी समझी, तो जड़ें ही रह स्वभाव की आड़ में आदमी की पशुता को बचाने की चेष्टा | जाती हैं हाथ में। फिर दो साल । वह | 180 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ im+ अर्जुन का जीवन शिखर-युद्ध के ही माध्यम से - नहीं, जड़ें हैं ही इसलिए कि फूल तक पहुंचे। मनुष्य का जो स्वभाव आज दिखाई पड़ता है, वह है ही इसलिए कि वह परमात्मा तक पहुंचे। क्रोध है इसलिए कि क्रोध की जड़ किसी दिन अक्रोध का फूल बने। काम है इसलिए, सेक्स है इसलिए कि सेक्स की ऊर्जा और काम की ऊर्जा किसी दिन ब्रह्मचर्य का फूल बने। और जब तक नहीं बन जाती, तब तक मनुष्य को बेचैन होना ही चाहिए; जब तक नहीं बन जाती, तब तक मनुष्य को चिंतित होना ही चाहिए; जब तक नहीं बन जाती, तब तक मनुष्य को संताप में, पीड़ा में, संघर्ष में होना ही चाहिए। जल्दी ली गई शांति खतरनाक है, क्योंकि वह प्रारंभ को ही अंत बना सकती है। शांति जरूर मिलती है, लेकिन अंत आ जाए, मंजिल आ जाए, तब तक यात्रा जारी रखनी जरूरी है। दो तरह की शांतियां हैं। एक तो हम जहां हैं, वहीं बैठ जाएं, तो यात्रा का कष्ट बंद हो जाता है। एक और शांति भी है-जिस दिन यात्रा पूरी होती है और मंजिल आती है। हम बैठ जाएं और इसी को मंजिल मान लें, तो भी शांति मिलती है। और मंजिल आ जाए और हम बैठे, तब भी शांति मिलती है। लेकिन दोनों शांतियों में बड़ा फर्क है। एक पशु की शांति है, एक परमात्मा की शांति है। 181 Page #212 --------------------------------------------------------------------------  Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 1-2 बारहवां प्रवचन निष्काम कर्म और अखंड मन की कीमिया Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग- 14 एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धियोंगे त्विमां शृणु । बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि । । ३९ ८ ८ हे पार्थ, यह सब तेरे लिए सांख्य (ज्ञानयोग) के विषय में कहा गया और इसी को अब (निष्काम कर्म) योग के विषय में सुन कि जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू, कर्मों के बंधन को अच्छी तरह से नाश करेगा। अ नंत हैं सत्य तक पहुंचने के मार्ग । अनंत हैं प्रभु के मंदिर के द्वार | होंगे ही अनंत, क्योंकि अनंत तक पहुंचने के लिए अनंत ही मार्ग हो सकते हैं। जो भी एकांत को पकड़ लेते हैं— जो भी सोचते हैं, एक ही द्वार है, एक ही मार्ग है - वे भी पहुंच जाते हैं। लेकिन जो भी पहुंच जाते हैं, वे कभी नहीं कह पाते कि एक ही मार्ग है, एक ही द्वार है। एक का आग्रह सिर्फ उनका ही है, जो नहीं पहुंचे हैं; जो पहुंच गए हैं, वे अनाग्रही हैं। कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, अब तक जो मैंने तुझसे कहा, वह सांख्य की दृष्टि थी। सांख्य की दृष्टि गहरी से गहरी ज्ञान की दृष्टि है। सांख्य का जो मार्ग है, वह परम ज्ञान का मार्ग है। इसे थोड़ा समझ लें, तो फिर आगे दूसरे मार्ग समझना आसान हो जाएगा। पर कृष्ण ने क्यों सांख्य की ही पहले बात कर ली ! सांख्य की इसलिए पहले बात कर ली कि अगर सांख्य काम में आ जाए, तो फिर और कोई आवश्यकता नहीं है। सांख्य काम में न आ सके, तो ही फिर कोई और आवश्यकता है। जापान में झेन साधना की एक पद्धति है । आज पश्चिम में झेन का बहुत प्रभाव है। आज का जो भी विचारशील वर्ग है जगत का, पूरे जगत की इंटेलिजेंसिया, वह झेन में उत्सुक है। और झेन सांख्य काही एक रूप है। सांख्य का कहना यही है कि जानना ही काफी है, करना कुछ भी नहीं है; नालेज इज़ इनफ, जानना पर्याप्त है। इस जगत की जो पीड़ा है और बंधन है, वह न जानने से ज्यादा नहीं है। अज्ञान के अतिरिक्त और कोई वास्तविक बंधन नहीं है। कोई जंजीर नहीं है, जिसे तोड़नी है। न ही कोई कारागृह है, जिसे मिटाना है। न ही कोई जगह है, जिससे मुक्त होना है। सिर्फ जानना है। जानना है कि मैं कौन हूं? जानना है कि जो चारों तरफ फैला है, वह क्या है? सिर्फ अंडरस्टैंडिंग, सिर्फ जानना। जो लोग कृष्णमूर्ति से परिचित हैं, उन्हें यह स्मरण में ले लेना उपयोगी होगा कि कृष्णमूर्ति का सारा विचार सांख्य है। लेकिन सांख्य को समझना कठिन है। जैसे एक आदमी दुख में पड़ा है, हम उससे कहें कि केवल जान | लेना है कि दुख क्या है और तू बाहर हो जाएगा। वह आदमी | कहेगा, जानता तो मैं भलीभांति हूं कि दुख है। जानने से कुछ नहीं होता; मुझे इलाज चाहिए, औषधि चाहिए। कुछ करो कि मेरा दुख चला जाए। एक आदमी, जो वस्तुतः चिंतित और परेशान है, विक्षिप्त है, पागल है, उससे हम कहें कि सिर्फ जानना काफी है और तू पागलपन के बाहर आ जाएगा। वह आदमी कहेगा; जानता तो मैं | काफी हूं; जानने को अब और क्या बचा है! लेकिन जानने से | पागलपन नहीं मिटता। कुछ और करो! जानने के अलावा भी कुछ और जरूरी है। कृष्ण ने अर्जुन को सबसे पहले सांख्य की दृष्टि कही, क्योंकि यदि सांख्य काम में आ जाए तो किसी और बात के कहने की कोई | जरूरत नहीं है। न काम में आए, तो फिर किसी और बात के कहने की जरूरत पड़ सकती है। सुकरात का बहुत ही कीमती वचन है, जिसमें उसने कहा है, नालेज इज़ वर्च्यू, ज्ञान ही सदगुण है। वह कहता था, जान लेना ही ठीक हो जाना है। उससे लोग पूछते थे कि हम भलीभांति जानते हैं कि चोरी बुरी है, लेकिन चोरी छूटती नहीं! तो सुकरात कहता, तुम जानते ही नहीं कि चोरी क्या है। अगर तुम जान लो कि चोरी क्या है, तो छोड़ने के लिए कुछ भी न करना होगा। हम जानते हैं, क्रोध बुरा है; हम जानते हैं, भय बुरा है; हम जानते हैं, काम बुरा है, वासना बुरी है, लोभ बुरा है, मद-मत्सर सब बुरा है; सब जानते हैं। सांख्य या सुकरात या कृष्णमूर्ति, वे सब कहेंगे : नहीं, जानते नहीं हो । सुना है कि क्रोध बुरा है, जाना | नहीं है। किसी और ने कहा है कि क्रोध बुरा है, स्वयं जाना नहीं है। और जानना कभी भी उधार और बारोड नहीं होता। जानना सदा स्वयं का होता है। एक बच्चे ने सुना है आग में हाथ डालने से हाथ जल जाता है, और एक बच्चे ने आग में हाथ डालकर देखा है कि हाथ जल जाता है। इन दोनों बातों में जमीन-आसमान का फर्क है। दोनों के वाक्य एक से हैं। जिसने सिर्फ सुना है, वह भी कहता है, मैं जानता है दोनों बातों में। 184 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Om निष्काम कर्म और अखंड मन की कीमिया र हूं कि आग में हाथ डालने से हाथ जल जाता है। और जिसने आग गांव है। शायद वह जान ले। में हाथ डालकर जाना है, वह भी कहता है, मैं जानता हूं कि आग फिर उसे ले गए। स्टेशनों पर उसे उतारकर खड़ा कर देते, वह में हाथ डालने से हाथ जल जाता है। देखता रह जाता; कुछ याद न आता। फिर तो जो ले गए थे घुमाने, इन दोनों के वचन एक-से हैं, लेकिन इन दोनों की मनःस्थिति वे भी थक गए। एक छोटे स्टेशन पर, जिस पर उतरकर देखने का एक-सी नहीं है। और जिसने सिर्फ सुना है, वह कभी हाथ डाल इरादा भी नहीं है, गाड़ी खड़ी है, चलने को है। उस आदमी ने खिड़की सकता है। और जिसने जाना है, वह कभी हाथ नहीं डाल सकता | से झांककर देखा और उसने कहा, मेरा गांव! उतरा, बताना ही भूल है। और जिसने सिर्फ सुना है, वह कभी हाथ डालकर कहेगा कि | गया, कि जो साथ थे उनको बता दे। भागा, सड़क पर आ गया। जानता तो मैं था कि हाथ डालने से हाथ जल जाता है, फिर मैंने | चिल्लाया, मेरा घर! दौड़ा, गली में पहुंचा। दरवाजे के सामने खड़े हाथ क्यों डाला? वह जानने में भूल कर रहा है। दूसरे से मिला | | होकर कहा, मेरी मां! लौटकर पीछे देखा, साथी पीछे भागकर आए हुआ जानना, जानना नहीं हो सकता। | हैं। उनसे बोला, यह रहा मेरा नाम। याद आ गया। जिस जानने की सांख्य बात करता है, जिस नोइंग की सांख्य सांख्य कहता है, आत्मज्ञान सिर्फ रिमेंबरेंस है, सिर्फ स्मरण है। बात करता है, वह वह जानना है, जो उधार नहीं है। इस जानने से कुछ खोया नहीं है, कुछ मिटा नहीं है, कुछ गया नहीं है, कुछ नया क्या हो जाएगा? एक छोटी-सी कहानी से बात समझाने की | बना नहीं है, सिर्फ स्मृति खो गई है। और जिसे हम जानने जा रहे कोशिश करूं। हैं, अगर वह नया जानना है, तब तो फिर कुछ और करना पड़ेगा। दूसरे महायुद्ध में ऐसा हुआ कि एक आदमी युद्ध-स्थल पर लेकिन अगर वह भूला हुआ ही है, जिसे पुनः जानना है, तब कुछ आहत हो गया। जब होश में आया बेहोशी से, तो पता चला कि करने की जरूरत नहीं है, जान लेना ही काफी है उसे सब स्मरण भल गया है. वह अपना सब अतीत भल चका है। तो कष्ण ने कहा कि अभी जो मैंने तझसे कहा अर्जन. वह सांख्य उसे यह भी पता नहीं है कि उसका नाम क्या है! कठिनाई न आती, | की दृष्टि थी। इस पूरे वक्त कृष्ण ने सिर्फ स्मरण दिलाने की क्योंकि सेना में नाम की कोई जरूरत नहीं होती। लेकिन उसका कोशिश की, कि आत्मा अमर है; न उसका जन्म है, न उसकी मृत्यु नंबर भी खो गया युद्ध के स्थल पर। है। स्मरण दिलाया कि अव्यक्त था, अव्यक्त होगा, बीच में व्यक्त सेना में तो आदमी नंबर से जाना जाता है, सेना में नाम से नहीं | का थोड़ा-सा खेल है। स्मरण दिलाया कि जो तुझे दिखाई पड़ते हैं, जाना जाता। सुविधा है नंबर से जानने में। और जब पता चलता है। | वे पहले भी थे, आगे भी होंगे। स्मरण दिलाया कि जिन्हें तू मारने कि ग्यारह नंबर आज मर गया, तो कोई तकलीफ नहीं होती। | के भय से भयभीत हो रहा है, उन्हें मारा नहीं जा सकता है। क्योंकि नंबर के न बाप होते, न मां होती, न बेटा होता। नंबर का | ___ इस पूरे समय कृष्ण क्या कर रहे हैं? कृष्ण अर्जुन को, जैसे उस कोई भी नहीं होता। नंबर मर जाता है, मर जाता है। तख्ती पर सूचना | | सिपाही को घुमाया जा रहा है इंग्लैंड में, ऐसे उसे किसी विचार के लग जाती है कि इतने नंबर गिर गए। किसी को कहीं कोई पीड़ा नहीं लोक में घुमा रहे हैं कि शायद कोई विचार-कण, कोई स्मति चोट होती। नंबर रिप्लेस हो जाते हैं। दूसरा नंबर ग्यारह नंबर उसकी | कर जाए और वह कहे कि ठीक, यही है। ऐसा ही है। लेकिन ऐसा जगह आ जाता है। किसी आदमी को रिप्लेस करना मुश्किल है,। वह नहीं कह पाता। लेकिन नंबर को रख देना नंबर की जगह कोई कठिन नहीं है। यह वह शिथिल गात, अपने गांडीव को रखे, उदास मन, वैसा ही मिलिटरी तो नंबर से चलती है। दफ्तर में नाम होते हैं, रजिस्टर में। हताश, विषाद से घिरा बैठा है। वह कृष्ण की बातें सुनता है। वह लेकिन उसका नंबर भी खो गया है। उसे नाम याद नहीं रहा। उसे पूरे इंग्लैंड में घुमा दिए—हर स्टेशन, हर जगह। कहीं भी उसे अब वह कौन है ? अब क्या करें? उसे कहां भेजें? उसका घर कहां स्मरण नहीं आता कि वह दौड़कर कहे, कि यह रहा मैं; ठीक है, है? उसके मां-बाप कहां हैं? बहुत कोशिश की, खोज-बीन की, | बात अब बंद करो, पहचान आ गई; रिकग्नीशन हुआ, प्रत्यभिज्ञा कुछ पता नहीं चल सका। फिर आखिर किसी ने सुझाव दिया कि हई, स्मरण आ गया है। ऐसा वह कहता नहीं। वह बैठा है। वह एक ही रास्ता है कि उसे इंग्लैंड के गांव-गांव में घुमाया जाए। | रीढ़ भी नहीं उठाता; वह सीधा भी नहीं बैठता। उसे कुछ भी स्मरण शायद कहीं उसे देखकर याद आ जाए कि यह मेरा घर है, यह मेरा | नहीं आ रहा है। | 185] Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + गीता दर्शन भाग- 14 इसलिए कृष्ण उससे कहते हैं कि अब मैं तुझसे कर्मयोग की बात कहता हूं। सांख्ययोग श्रेष्ठतम योग है। अब मैं तुझसे कर्मयोग की बात करता हूं। वे जो जानने से ही नहीं जान सकते, जिन्हें कुछ करना ही पड़ेगा, जो बिना कुछ किए स्मरण ला ही नहीं सकतेअब मैं तुझसे कर्मयोग की बात कहता हूं। प्रश्नः भगवान श्री, झेन बुद्धिज्म में, जैसे कि अद्वैत वेदांत में ब्रह्म आता है, तो झेन बुद्धिज्म में तो कुछ ऐसा है नहीं, तो आप साम्यता जो बता रहे हैं, उसकी स्पष्टता करें। और दूसरी बात यह है कि वेस्टर्न फिलासफर्स सांख्य का कभी पुरस्कार करते हैं, तो इसलिए कि सांख्य निरीश्वरवादी है। लेकिन कोई-कोई विद्वान ऐसा कहते हैं कि सांख्य निरीश्वरवादी नहीं है। तो यह भी है। तो वेस्टर्न फिलासफर्स निरीश्वरवादी है, इसलिए सांख्य का स्वीकार करते हैं? और झेन और सांख्य दोनों में ब्रह्म तत्व का स्थान क्या हो सकता है? झेन और सांख्य के बीच जो साथ मैंने कहा, उस साम्य है ज्ञान की प्रधानता । झेन कहता है, करने को कुछ भी नहीं है; और जो करेगा, वह व्यर्थ ही भटकेगा । झेन तो यहां तक कहता है कि तुमने खोजा कि तुम भटके। खोजो ही मत, खड़े हो जाओ और जान लो । क्योंकि तुम वही हो, जिसे तुम खोज रहे हो। झेन कहता है, जिसने प्रयास किया, वह मुश्किल में पड़ेगा। क्योंकि जिसे हमें पाना है, वह प्रयास से पाने की बात नहीं है। केवल अप्रयास में, एफर्टलेसनेस में जानने की बात है। झेन कहता है, पा सकते हैं श्रम से उसे, जो हमारा नहीं है। पा सकते हैं श्रम से उसे, जो हमें मिला हुआ नहीं है। धन पाना हो तो बिना श्रम के नहीं मिलेगा; धन पाने के लिए श्रम करना होगा। धन हमारा कोई स्वभाव नहीं है। एक आदमी को दूसरे के घर जाना हो, तो रास्ता चलना पड़ेगा, क्योंकि दूसरे का घर अपना घर नहीं है। लेकिन एक आदमी अपने घर में बैठा हो और पूछता हो कि मुझे मेरे घर जाना है, मैं किस रास्ते से जाऊं? तो झेन कहता है, जाना ही मत, अन्यथा घर से दूर निकल जाओगे। एक छोटी-सी कहानी मुझे याद आती है, जो झेन फकीर कहते हैं। वे कहते हैं, एक आदमी ने शराब पी ली। शराब पीकर आधी रात अपने घर पहुंचा। हाथ-पैर डोलते हैं, आंखों को ठीक दिखाई नहीं पड़ता। ऐसे भी अंधेरा है, भीतर नशा है, बाहर अंधेरा है। टटोल-टटालकर किसी तरह अपने दरवाजे तक पहुंच गया है। और फिर थक गया है। बहुत देर से भटक रहा है। फिर जोर-जोर से चिल्लाने लगा कि कोई मुझे मेरे घर पहुंचा दो । मेरी मां राह |देखती होगी। पास-पड़ोस के लोग उठ आए। और उन्होंने कहा, पागल तो | नहीं हो गए हो ! तुम अपने ही घर के सामने खड़े हो, अपने ही घर की सीढ़ियों पर। यही तुम्हारा घर है। लेकिन वह आदमी इतना परेशानी में चिल्ला रहा है कि मुझे मेरे घर पहुंचा दो, मुझे मेरे घर जाना है, मेरी बूढ़ी मां राह देखती होगी, कि सुने कौन ! सुनने के | लिए भी तो चुप होना जरूरी है। वह आदमी चिल्ला रहा है। पास-पड़ोस के लोग उससे कह रहे हैं, यही तुम्हारा घर है। लेकिन यही तुम्हारा घर है—यह भीतर कैसे प्रवेश करे ? वह आदमी तो भीतर चिल्ला रहा है, मेरा घर कहां है? शोरगुल सुनकर उसकी बूढ़ी मां भी उठ आई, जिसकी तलाश में वह है । उसने दरवाजा खोला, उसने उसके सिर पर हाथ रखा और कहा, . | बेटा तुझे क्या हो गया है ! उसने उसके ही पैर पकड़ लिए और उसने कहा कि मेरी बूढ़ी मां राह देखती होगी; मुझे रास्ता बताओ कि मेरा घर कहां है? तो पास-पड़ोस में कोई मजाक करने वाले लोग एक बैलगाड़ी लेकर आ गए और उन्होंने कहा कि बैठो, हम तुम्हें तुम्हारे घर पहुंचा देते हैं। वह आदमी बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने कहा कि यह भला आदमी है। ये सारे लोग मुझे घर पहुंचाने का कोई उपाय ही नहीं करते! कोई उपाय नहीं करता, न कोई बैलगाड़ी लाता, न कोई | घोड़ा लाता, न मेरा कोई हाथ पकड़ता। तुम एक भले आदमी हो। उसने उसके पैर पड़े। वह आदमी हंसता रहा। उसे बैलगाड़ी में बिठाया, दस-बारह चक्कर लगाए घर के, फिर उसे द्वार के सामने उतारा। फिर वह कहने लगा, धन्यवाद ! बड़ी कृपा की, मुझे घर पहुंचा दिया। 186 अब कृष्ण अर्जुन से कोशिश कर चुके पहली वाली कि यही तेरा घर है। अब नहीं मानता, तो बैलगाड़ी जोतते हैं। वे कहते हैं, कर्मयोग में चल । अब तू चक्कर लगा। अब तू दस-पांच चक्कर Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - निष्काम कर्म और अखंड मन की कीमिया - लगा ले, फिर ही तुझे खयाल में आ सकता है कि पहुंचा। बिना और कहा, यहां भोजन करते हैं। ले गया स्नानगृहों में कि यहां स्नान चले तू स्वयं तक भी नहीं पहुंच सकता है। करते हैं भिक्षु। ले गया जगह-जगह। सम्राट थकने लगा। उसने झेन कहता है कि जिसे हम खोज रहे हैं, वह वहीं है जहां हम हैं; कहा कि छोड़ो भी, ये सब छोटी-छोटी जगह तो ठीक हैं, वह जो इंचभर का फासला नहीं है। इसलिए जाओगे कहां? खोजोगे कैसे? | बीच में स्वर्ण-शिखरों से मंडित मंदिर है, वहां क्या करते हो? वहां श्रम क्या करोगे? असल में श्रम करके हम पराए को पा सकते हैं, | ले चलो। मैं वह देखने को बड़ा आतुर हूं। स्वयं को नहीं। स्वयं तो सब श्रम के पहले उपलब्ध है। लेकिन न मालूम क्या हो कि जैसे ही सम्राट उस बीच में उठे तो झेन और सांख्य का जो साम्य मैंने कहा, वह इसलिए कहा | | शिखर वाले मंदिर की बात करे, बांकेई एकदम बहरा हो जाए, वह कि सांख्य भी कर्म को व्यर्थ मानता है, कोई अर्थ नहीं है कर्म का। | सुने ही न। एक दफा सम्राट ने सोचा कि शायद चूक गया, खयाल झेन भी कर्म को व्यर्थ मानता है, कोई अर्थ नहीं कर्म का। क्योंकि | | में नहीं आया। फिर दुबारा जोर से कहा कि और सब बातें तो तुम जिसे जानना है, वह सब कर्मों के पहले ही मिला हुआ है, ठीक से सुन लेते हो! यह स्नानगृह देखने मैं नहीं आया, यह आलरेडी एचीव्ड। भोजनालय देखने में नहीं आया, उस मंदिर में क्या करते हो? तो जो अड़चन है, जो कठिनाई है, जो समझ में हमें नहीं आती, | लेकिन बांकेई एकदम चुप हो गया, वह सुनता ही नहीं। फिर घुमाने वह इस तरह की है कि कोई चीज जो हमें मिली हुई नहीं है, उसे | लगा-यहां यह होता है, यहां यह होता है। पाना है, यह एक बात है। और कोई चीज जो हमें मिली ही है, उसे आखिर वापस द्वार पर लौट आए, उस बीच के मंदिर में बांकेई सिर्फ जानना है, यह बिलकुल दूसरी बात है। यदि आत्मा भीतर है नहीं ले गया। सम्राट घोड़े पर बैठने लगा और उसने कहा, या तो मैं ही, तो कहां खोजना है? और अगर मैं ब्रह्म हूं ही, तो क्या करना पागल हूं या तुम पागल हो। जिस जगह को मैं देखने आया था, तुमने है? करने से क्या संबंध है? करने से क्या होगा? | दिखाई ही नहीं। तुम आदमी कैसे हो? और मैं बार-बार कहता है कि . नहीं; न-करने में उतरना होगा, नान-एक्शन में उतरना होगा, उस मंदिर में ले चलो, वहां क्या करते हैं? तुम एकदम बहरे हो जाते अकर्म में उतरना होगा। छोड़ देना होगा करना-वरना और थोड़ी देर हो। सब बात सुनते हो, इसी बात में बहरे हो जाते हो! रुककर उसे देखना होगा, जो करने के पीछे खड़ा है, जो सब करने बांकेई ने कहा, आप नहीं मानते तो मुझे उत्तर देना पड़ेगा। आपने का आधार है, फिर भी करने के बाहर है। कहा, वहां-वहां ले चलो, जहां-जहां भिक्षु कुछ करते हैं, तो मैं एक और झेन कहानी मुझे याद आती है कि झेन में कोई पांच सौ | | वहां-वहां ले गया। वह जो बीच में मंदिर है, वहां भिक्षु कुछ भी वर्ष पहले, एक बहुत अदभुत फकीर हुआ, बांकेई। जापान का नहीं करते। वहां सिर्फ भिक्षु भिक्षु होते हैं। वह हमारा ध्यान मंदिर सम्राट उसके दर्शन को गया। बड़ी चर्चा सुनी, बड़ी प्रशंसा सुनी, है, मेडिटेशन सेंटर है। वहां हम कुछ करते नहीं, सिर्फ होते हैं। वहां तो गया। सुना उसने कि दूर-दूर पहाड़ पर फैली हुई मोनेस्ट्री है, | डूइंग नहीं है, वहां बीइंग है। वहां करने का मामला नहीं है। वहां आश्रम है। कोई पांच सौ भिक्षु वहां साधना में रत हैं। तो गया। | | जब करने से हम थक जाते हैं और सिर्फ होने का आनंद लेना चाहते बांकेई से उसने कहा, एक-एक जगह मुझे दिखाओ तुम्हारे आश्रम | | हैं, तो हम वहां भीतर जाते हैं। अब मेरी मजबूरी थी, आपने कहा की, मैं काफी समय लेकर आया हूं। मुझे बताओ कि तुम | था, क्या करते हैं, वहां ले चलो। कहां-कहां क्या-क्या करते हो? मैं सब जानना चाहता हूं। अगर मैं उस भवन में ले जाता, आप पूछते कि भिक्षु यहां क्या __ आश्रम के दूर-दूर तक फैले हुए मकान हैं। कहीं भिक्षु रहते हैं, | करते हैं, तो मैं क्या कहता? और नहीं करने की बात आप समझ कहीं भोजन करते हैं, कहीं सोते हैं, कहीं स्नान करते हैं, कहीं सकते, इसकी मुझे आशा नहीं है। अगर मैं कहता, ध्यान करते हैं, अध्ययन करते हैं-कहीं कुछ, कहीं कुछ। बीच में, आश्रम के सारे | तो भी गलती होती, क्योंकि ध्यान कोई करना नहीं है, ध्यान कोई विस्तार के बीच एक बड़ा भवन है, स्वर्ण-शिखरों से मंडित एक | एक्शन नहीं है। अगर मैं कहता, प्रार्थना करते हैं, तो भी गलती मंदिर है। होती; क्योंकि प्रार्थना कभी कोई कर नहीं सकता, वह कोई एक्ट बांकेई ने कहा, भिक्षु जहां-जहां जो-जो करते हैं, वह मैं आपको नहीं है, भाव है। तो मैं मुश्किल में पड़ गया, इसलिए मुझे मजबूरी दिखाता हूं। फिर वह ले चला। सम्राट को ले गया भोजनालय में | | में बहरा हो जाना पड़ा। फिर मैंने सोचा, बजाय गलत बोलने के Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 गीता दर्शन भाग-1 AM यही उचित है कि आप मुझे पागल या बहरा समझकर चले जाएं। तिब्बत में वह करना बन गया, रिचुअल बन गया। चीन में झेन कहता है, ध्यान अर्थात न-करना। इस न-करने में ही वह | जाकर उसने करने के लिए स्वीकृति दे दी कि ऐसा-ऐसा करो। जाना जाता है, जो है। सांख्य और झेन का इस वजह से साम्य है। थाईलैंड में वह करना बन गया, लंका में करना बन गया। वह झेन बात नहीं करता ब्रह्म की। क्योंकि झेन का कहना यह है कि जब कर्मयोग बना। जब तक वह सांख्य रहा शुद्ध, तब तक उसकी जड़ें तक ध्यान नहीं, जब तक ज्ञान नहीं, तब तक ब्रह्म की बात व्यर्थ | फैलनी मुश्किल हो गईं। है। और जब ज्ञान हुआ, ध्यान हुआ, तब भी ब्रह्म की बात व्यर्थ | थोड़े से लोगों की ही पकड़ में आ सकती है शुद्ध सांख्य की बात। है। क्योंकि जिसे हमने नहीं जाना, उसकी बात क्या करें! और जिसे इसलिए श्रेष्ठतम विचार सांख्य ने दिया, लेकिन सांख्य को मानने हमने जान लिया, उसकी बात की क्या जरूरत है! इसलिए झेन चुप | वाला आदमी हिंदुस्तान में खोजे से नहीं मिलेगा। सब तरह के, हजार है, वह मौन है; वह ब्रह्म की बात नहीं करता। तरह के मानने वाले आदमी मिल जाएंगे, सांख्य को मानने वाला लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि ब्रह्म नहीं जानता। यह तो | आदमी नहीं मिलेगा। सांख्य के लिए समर्पित एक मंदिर नहीं है। निर्भर करेगा व्यक्तियों पर। सांख्य बात करता है, इसी आशा में कि सांख्य के जन्मदाता के लिए समर्पित एक मूर्ति नहीं है। शायद उसकी चर्चा-उसकी चर्चा से उसे जाना नहीं जा सकता, असल में जो एब्सोल्यूट ट्रथ की बात करेंगे, उनको राजी होना लेकिन उसकी चर्चा शायद किसी के मन में छिपी हुई प्यास पर चोट | चाहिए कि आम जनता तक उनकी खबर मुश्किल से पहुंचेगी। जो बन जाए। शायद उसकी चर्चा किसी के मन में चल रही आकांक्षा पूर्ण सत्य की बात करेंगे, उनको राजी रहना चाहिए कि उनकी बात को मार्ग दे दे। शायद उसकी चर्चा ऊंट के लिए आखिरी तिनका | बहुत आकाश में घूमती रहेगी। जमीन तक उतारना बहुत मुश्किल सिद्ध हो जाए। कोई बिलकुल बैठने को ही था ऊंट, एक तिनका | है। क्योंकि यहां जमीन पर सिर्फ अशुद्ध सत्य उतरते हैं। यहां जमीन और-एक तिनके से कहीं ऊंट बैठा है! लेकिन शायद किसी | पर जिस सत्य को भी पैर जमाने हों, उसे जमीन के साथ समझौता बैठते ऊंट को तिनका सिद्ध हो जाए, वह बैठ जाए। करना पड़ता है। इसलिए सांख्य बात करता है। लेकिन कैसे मिलेगा वह? कुछ कृष्ण ने पहले नानकंप्रोमाइजिंग सांख्य की बात की। कहा कि करने से? नहीं; जानने से। जानना और करना, डूइंग और नोइंग का | मैं तुझे सांख्य की बुद्धि बताता हूं। लेकिन देखा कि अर्जुन के भीतर । जो फर्क है, उस मामले में झेन और सांख्य बिलकुल समान हैं। और | उसकी जड़ें नहीं पहुंच सकतीं। इसलिए दूसरे, सेकेंडरी वे कहते हैं, जगत में जितने भी परम ज्ञानी हुए हैं, उन सब परम ज्ञानियों की बातों | अब मैं तुझसे कर्मयोग की बात कहता हूं। में सांख्य तो होगा ही। सांख्य से बचा नहीं जा सकता। सांख्य तो __ और एक बात और पूछी है कि पश्चिम में क्या सांख्य की चर्चा होगा ही। यह हो सकता है कि किसी की चर्चा में शुद्ध सांख्य हो। | जिन दार्शनिकों ने की है, उनका कारण यही तो नहीं है कि सांख्य तब ऐसा आदमी बहुत कम लोगों के काम का रह जाएगा। | निरीश्वरवादी है? जैसे बुद्ध। बुद्ध की चर्चा शुद्ध सांख्य है। इसलिए हिंदुस्तान से ___ असल में जो भी ब्रह्मवादी है, वह ईश्वरवादी हो नहीं सकता। बुद्ध के पैर उखड़ गए। क्योंकि सिर्फ जानना, सिर्फ जानना, सिर्फ | जो भी ब्रह्मवादी है, वह ईश्वरवादी हो नहीं सकता। अगर वह ईश्वर जानना! करना कुछ भी नहीं! वह जो इतना बड़ा जगत है, जहां सब | | को जगह भी देगा, तो वह माया के भीतर ही होगी जगह, बाहर नहीं करने वाले इकट्ठे हैं, वे कहते हैं कि कुछ तो करने को बताओ, कुछ | | हो सकती। वह इलूजन के भीतर ही होगी। या तो वह कह देगा, पाने को बताओ! बुद्ध कहते हैं, न कुछ पाने को है, न कुछ करने | | कोई ईश्वर नहीं है, ब्रह्म पर्याप्त है, अव्यक्त पर्याप्त है। या अगर को। झेन जो है, वह बुद्धिज्म की शाखा है। वह शुद्धतम बुद्ध का | | समझौता किया उसने आपसे, तो वह कहेगा, ईश्वर है; वह भी विचार है। लेकिन हिंदुस्तान के बाहर बुद्ध के पैर जम गए-चीन | अव्यक्त का एक रूप है, लेकिन माया के घेरे के भीतर। वह सिर्फ में, बर्मा में, थाईलैंड में, तिब्बत में। क्योंकि जो अशुद्धि करने के आपसे समझौता कर रहा है। लिए बुद्ध का विचार हिंदुस्तान में राजी नहीं हुआ, तो यहां उसके | सांख्य के जो मौलिक सूत्र हैं, वे शुद्धतम हैं। उनमें ईश्वर की पैर उखड़ गए, तो वही समझौता उसे करना पड़ा, जो यहां करने को | | कोई जगह नहीं है। ईश्वर का मतलब समझ लेना आप, ब्रह्म का राजी नहीं हुआ। | फर्क समझ लेना। 188 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ → निष्काम कर्म और अखंड मन की कीमिया ईश्वर का मतलब है, दि क्रिएटर, सृजन करने वाला । ब्रह्म का अर्थ है, शुद्धतम जीवन की ऊर्जा । ईश्वर के पहले भी ब्रह्म है। ईश्वर भी बनते और मिटते हैं, ईश्वर भी आते और जाते हैं। ईश्वर हमारी धारणाएं हैं। इसे ऐसा समझें कि मैं एक अंधेरी रात में चल रहा हूं। दूर, दो-चार मील दूर कुछ दिखाई पड़ता है । लगता है कि कोई पुलिस वाला खड़ा है। और मीलभर चलकर आता हूं पास, तो दिखाई पड़ता है, पुलिस वाला नहीं है, कोई झाड़ का ठूंठ है। और मीलभर चलकर आता हूं, तो पाता हूं, झाड़ का ठूंठ भी नहीं है, स्वतंत्रता का स्मारक है । जो है, वह वही है । और पता नहीं मीलभर बाद चलकर पता क्या चले! जो है, वह तो वही है। मैं आगे आता जा रहा हूं। जो लोग ब्रह्म की यात्रा पर निकलते हैं, यात्रा के अंत पर जिसे पाते हैं, वह ब्रह्म है। और यात्रा पास आती जाती है, पास आती जाती है, उस पास आते जाते में जिसे पाते हैं, वह ईश्वर है । ईश्वर ब्रह्म दर से देखा गया कंसेप्शन है, धारणा है। हम सोच ही नहीं सकते ब्रह्म को। जब हम सोचते हैं, तब हम ईश्वर बना लेते हैं। निर्गुण को हम सोच ही नहीं सकते, जब सोचते हैं तो सगुण बना लेते हैं । निराकार को हम सोच नहीं सकते, जब सोचते हैं तो उसे भी आकार दे देते हैं। ब्रह्म मनुष्य के मन से जब देखा जाता है, तब ईश्वर निर्मित होता है । यह ईश्वर मनुष्य का निर्माण है। जैसे-जैसे आगे जाएगा, विचार छोड़ेगा, छोड़ेगा और निर्विचार होगा, उस दिन पाएगा, ईश्वर भी खो गया। अब जो शेष रह जाता है निराकार, निर्गुण, वही ब्रह्म है। तो शुद्धतम सूत्र में तो सांख्य राजी नहीं है। क्योंकि सांख्य कहता है, बीच के मुकाम बनाने नहीं हैं। लेकिन सांख्य की भी बाद में एक दूसरी धारा फूटी। निरीश्वर सांख्य तो था ही, लेकिन वह भी हवा में खोने लगा, तो सेश्वर सांख्य भी निर्मित हुआ । कुछ लोगों ने समझौते किए और सांख्य में भी ईश्वर को जोड़ा। और कहा कि काम नहीं चलेगा, क्योंकि आदमी ब्रह्म को पकड़ नहीं पाता, उसके लिए बीच की मंजिलें बनानी पड़ेंगी। और न ही पकड़ पाए, इससे तो अच्छा है कि चार कदम चले और ईश्वर को पकड़े। फिर ईश्वर छुड़ा लेंगे। चलने को ही जो राजी न हो, उसे चार कदम चलाओ। चार कदम चलने के बाद कहेंगे कि यह जो तुम्हें दिखाई पड़ता था, गलत दिखाई पड़ता था, इसे छोड़ो। और चार कदम चलो। हो सकता है, बीच में कई ईश्वर के मंदिर खड़े करने पढ़ें- इससे पहले कि ब्रह्म का अव्यक्त, ब्रह्म का निराकार मंदिर प्रकट हो । पश्चिम में जो सांख्य का प्रभाव है, वह निरीश्वरवादी होने की वजह से नहीं है। पश्चिम में भी जो बुद्धिमान, विचारशील आदमी पैदा हुआ है, वह भी जानता है कि बात तो सिर्फ ज्ञान की ही है, सिर्फ जान लेने की ही है। अगर हमें समझ में न आए, तो वह हमारी मजबूरी है, लेकिन बात केवल जान लेने की है। अगर इकहार्ट से पूछें, या प्लेटिनस से पूछें, या बोहेम से पूछें, तो पश्चिम में भी जो आदमी जानता है, वह कहेगा, बात तो यही है कि सिर्फ जान लेना है, और कुछ भी नहीं करना है। जरा हिले करने के लिए कि चूक हुई। क्योंकि करना बिना हिले न होगा। करेंगे तो हिलना ही पड़ेगा। और वह जो अकंप है, वह हम जरा भी हिले कि खोया । उसी की तरह अकंप हो जाना पड़ेगा। जैसे दीए की लौ किसी बंद घर में – जहां हवा के झोंके न आते हों-अकंप जलती है। ऐसे ही अकर्म में व्यक्ति की चेतना अकंप हो जाती है; अकर्म में, नान- एक्शन में अकंप हो जाती है। और जैसे ही व्यक्ति की चेतना अकंप होती है, विराट की चेतना से एक हो जाती है। पश्चिम में भी प्रभाव सांख्य का है। और मैं मानता हूं कि जैसे-जैसे मनुष्य की बुद्धि और विकसित होगी, सांख्य और भी प्रभावी होता चला जाएगा। भारत में उतना प्रभाव सांख्य का नहीं | है | भारत में प्रभाव योग का है, जो कि बिलकुल ही दूसरी, उलटी बात है। योग कहता है, कुछ करना पड़ेगा । योग मनुष्य की निम्नतम बुद्धि से चलता है। सांख्य मनुष्य की श्रेष्ठतम बुद्धि से चलता है। स्वभावतः, जो श्रेष्ठतम से शुरू करेगा, वह आखिर तक नहीं आ पाएगा। और अक्सर ऐसा होता है कि जो आखिरी से शुरू करेगा, वह चाहे तो श्रेष्ठतम तक पहुंच जाए। सांख्य शुद्धतम ज्ञान है, योग शुद्धतम क्रिया है। और अगर हम सारी दुनिया के चिंतन को दो हिस्सों में बांटना चाहें, तो सांख्य और | योग दो शब्द काफी हैं। जिनका भी करने पर भरोसा है, उनको योग में; और जिनको न करने पर भरोसा है, सिर्फ जानने पर भरोसा है, उनको सांख्य में। असल में जगत में सांख्य और योग के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। बाकी सब इन दो केटेगरी में कहीं न कहीं खड़े होंगे। चाहे दुनिया के किसी कोने में कोई चिंतन पैदा हुआ हो जीवन के प्रति, बस दो ही विभाजन में बांटा जा सकता है। 189 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Om गीता दर्शन भाग-1-m असल में पूरब और पश्चिम की फिलासफी बांटनी बंद करनी | | ही नहीं है। पांच का तो सुनिश्चित नुकसान हुआ है। चाहिए; जैन, हिंदू, मुसलमान की फिलासफी बांटनी बंद करनी | | अब यह सकाम बुद्धि है, यह सदा असफल होती है; सदा चाहिए; सिर्फ दो विभाजन किए जाने चाहिए, योग और सांख्य। | असफल होती है। लाभ हो, तो भी हानि होती है सकाम बुद्धि में। योग पर वे आस्थाएं, जो कहती हैं, कुछ करने से होगा। सांख्य पर क्योंकि अपेक्षा का कोई अंत नहीं है। जो भी मिलता है, सदा छोटा वे आस्थाएं, जो कहती हैं, कुछ न करने से ही होता है। पड़ता है। जो भी सफलता मिलती है, वह भी किसी बड़ी असफलता के सामने फीकी लगती है। कुछ भी मिल जाए, तो भी तृप्ति नहीं है। कुछ भी मिल जाए, तो भी संतोष की कहीं कोई नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते । झलक नहीं आती। सकाम कर्म असफल होने को बाध्य है। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ।। ४०।। असफलता में नहीं है उसका राज, उसका राज सकाम होने में है। इस निष्काम कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश अब कृष्ण कहते हैं, निष्काम कर्म का छोटा-सा भी कृत्य सफल नहीं है, और उलटा फलस्वरूप दोष भी नहीं होता है, ही होता है। होगा ही, क्योंकि असफलता का कोई उपाय नहीं है। इसलिए इस निष्काम कर्मयोगरूप धर्म का थोड़ा भी साधन, जब निष्काम है, तो अपेक्षारहित है। इसलिए जो भी मिल जाए, वह जन्म-मृत्यरूप महान भय से उद्धार कर देता है। भी बहुत है। क्योंकि कोई अपेक्षा नहीं थी, जिससे उसको छोटा बताया जा सके। कहानी सुनी है हम सबने कि अकबर ने एक लकीर खींच दी थी कष्ण कह रहे हैं कि निष्काम कर्म का कोई भी कदम व्यर्थ दरबार में अपने, और कहा था अपने दरबारियों को कि बिना छुए १० नहीं जाता है। इसे समझना जरूरी है। निष्काम कर्म का इसे छोटा कर दो। वे सब हार गए थे और फिर बीरबल ने एक बड़ी ८ छोटा-सा प्रयास भी व्यर्थ नहीं जाता है। लेकिन इससे | लकीर उसके पास खींच दी। उसे छुआ नहीं, काटा नहीं, पोंछा उलटी बात भी समझ लेनी चाहिए। सकाम कर्म का बड़े से बड़ा नहीं, सिर्फ एक बड़ी लकीर पास खींच दी। और वह लकीर एकदम प्रयास भी व्यर्थ ही जाता है। छोटी हो गई। एक घर में मैं अभी ठहरा था। चिंतित थे, जिनके घर रुका था। । अपेक्षा की बड़ी लकीर जिनके मन में खिंची है, सफलता की रात नींद नहीं आती थी, तो मैंने पूछा, बात क्या है? उन्होंने कहा, सभी लकीरें छोटी पड़ती हैं। अपेक्षा एंडलेस है-वह जितनी बड़ी क्या बताएं, बड़ी मुसीबत टूट पड़ी है, पांच लाख का नुकसान हो खींची थी बीरबल ने, वह कुछ बड़ी नहीं थी-अपेक्षा की जो गया। स्वभावतः, पांच लाख का नुकसान लगा हो, तो बड़ी लकीर है, उसका कोई अंत ही नहीं है। वह दोनों छोरों पर अनंत मुसीबत टूट ही गई है। मैंने उनकी पत्नी को पूछा, क्या हो गया? | | है। जो लोग ब्रह्म को जानते हैं, वे ब्रह्म को अनंत कहते हैं। लेकिन कैसे नुकसान लग गया पांच लाख का? उनकी पत्नी ने कहा, आप | जिन्होंने ब्रह्म को नहीं जाना, वे भी एक अनंत चीज को जानते हैं। इनकी बातों में मत पड़ जाना। पांच लाख का नुकसान नहीं लगा वह अपेक्षा है, एक्सपेक्टेशन है। उस अनंत अपेक्षा के पास खींची है, पांच लाख का लाभ हुआ है! गई कोई भी सफलता सदा छोटी पड़ती है। मैं तो बहुत मुश्किल में पड़ गया। मैंने कहा कि क्या कहती हो! लेकिन कृष्ण कह रहे हैं कि अपेक्षा की लकीर मिटा दो। निष्काम उसने कहा, बिलकुल ठीक कहती हूं। उनको दस लाख के लाभ कर्म का अर्थ यही है-अपेक्षारहित, फल की आकांक्षारहित, की आशा थी, पांच लाख का ही लाभ हुआ है, इसलिए उनको पांच कामनारहित। स्वभावतः, बड़ी होशियारी की बात उन्होंने कही है। लाख का नुकसान हो गया है। नींद हराम है, दवाएं चल रही हैं, | वे कह रहे हैं कि अगर अपेक्षा की लकीर मिटा दो, तो फिर ब्लड-प्रेशर बढ़ा हुआ है। कोई उपाय नहीं है उनको समझाने का छोटा-सा भी कर्म तृप्ति ही लाता है। क्योंकि कितना ही छोटा हो, कि पांच लाख का लाभ हुआ है! | तो भी बड़ा ही होता है, क्योंकि तौलने के लिए कोई नीचे लकीर ___ मैंने उनसे पूछा। तो उन्होंने कहा कि वह पांच लाख क्या, दस नहीं होती। इसलिए निष्कामकर्मी कभी भी विषाद को उपलब्ध नहीं लाख होने ही वाले थे। पंद्रह भी हो सकते थे। पांच का कोई सवाल होता है। सिर्फ सकामकर्मी विषाद को उपलब्ध होता है। फ्रस्ट्रेशन | 1901 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HTRA निष्काम कर्म और अखंड मन की कीमिया - जो है, वह सकाम कर्म की छाया है। निष्काम कर्म की कोई छाया हुई, अपेक्षाएं एकदम विस्तार लेने लगती हैं। शिक्षित आदमी को नहीं बनती, कोई विषाद नहीं बनता। शांत करना मुश्किल है। मैं नहीं कहता कि शिक्षित नहीं करना ___ इसलिए एक बहुत मज़े की बात ध्यान में ले लेनी जरूरी है, चाहिए; यह मैं नहीं कह रहा हूं। शिक्षित आदमी को शांत करना गरीब आदमी ज्यादा विषाद को उपलब्ध नहीं होता, अमीर आदमी मुश्किल है। अभी तक तो कोई उपाय नहीं खोजा जा सका। ज्यादा विषाद को उपलब्ध होता है। होना नहीं चाहिए ऐसा। एक बहुत बड़े विचारक ने तो एक किताब लिखी है, कंपल्सरी बिलकुल नियम को तोड़कर चलती हुई बात मालूम पड़ती है। गरीब मिसएजुकेशन। जिसको हम अनिवार्य शिक्षा कहते हैं, वह उसको समाज ज्यादा परेशान नहीं होते, अमीर समाज बहुत परेशान हो अनिवार्य कुशिक्षा...। क्योंकि अगर अंततः आदमी सिर्फ दुखी जाते हैं। क्या कारण होगा? और अशांत ही होता हो, तो अ, ब, स, द सीख लेने से भी क्या असल में गरीब आदमी अनंत अपेक्षा की हिम्मत नहीं जुटा | हो जाने वाला है! अगर समृद्धि सिर्फ विषाद ही लाती हो, तो ऐसी पाता। वह जानता है अपनी सीमा को। वह जानता है कि क्या हो समृद्धि से दरिद्रता बेहतर मालूम पड़ सकती है। सकता है, क्या नहीं हो सकता है। अपने वश के बाहर है बात, वह | लेकिन राज क्या है? सीक्रेट सिर्फ इतना-सा है, समृद्धि से कोई अनंत अपेक्षा की रेखा नहीं बनाता। इसलिए फ्रस्ट्रेशन को उपलब्ध | लेना-देना नहीं है, अगर अपेक्षा की धारा बहुत ज्यादा न हो, तो नहीं होता। इसलिए विषाद को उपलब्ध नहीं होता। अमीर आदमी, | समृद्ध आदमी भी शांत हो सकता है। और अगर अपेक्षा की धारा जिसके पास सुविधा है, संपन्नता है, अपेक्षा की रेखा को अनंत गुना बहुत बड़ी हो, तो दरिद्र भी अशांत हो जाएगा। अगर अपेक्षा शून्य बड़ा करने की हिम्मत जुटा लेता है। बस, उसी के साथ विषाद | हो, तो शिक्षित भी शांत हो सकता है। अगर अपेक्षा विराट हो, तो उत्पन्न हो जाता है। अशिक्षित भी अशांत हो जाता है। प्रश्न शिक्षित-अशिक्षित, धन . पाल गुडमेन ने अमेरिका के संबंध में एक किताब लिखी है, और दरिद्रता का नहीं है। प्रश्न सदा ही गहरे में अपेक्षा का है, ग्रोइंग अप एब्सर्ड। उसमें उसने एक बहुत मजे की बात कही है। एक्सपेक्टेशन का है। उसने कहा है कि मनुष्य जाति ने जिन-जिन सुविधाओं की आकांक्षा | तो वह कृष्ण कह रहे हैं कि निष्काम कर्म की तुझसे मैं बात कहता की थी, वे सब पूरी हो गई हैं अमेरिका में। मनुष्य जाति ने जो-जो हूं और इसलिए कहता हूं, क्योंकि निष्काम कर्म को करने वाला सपने देखे थे, उनसे भी आगे अमेरिका में सफलता मिल गई। व्यक्ति कभी भी असफलता को उपलब्ध नहीं होता है। यह पहली लेकिन अमेरिका में जो आदमी है, आज उससे दुखी आदमी बस्तर बात। और दूसरी बात वे यह कह रहे हैं कि निष्काम कर्म में के जंगल में भी नहीं है। क्या, हो क्या गया? यह एब्सर्डिटी कहां | | छोटा-सा भी विघ्न, छोटी-सी भी बाधा नहीं आती। क्यों नहीं से आई? यह अजीब बात है कि जो-जो आदमी करोड़ों साल से | आती? निष्काम कर्म में ऐसी क्या कीमिया है, क्या केमिस्ट्री है कि अपेक्षा कर रहा था, वह सब फलित हो गई है। सब सपने पूरे हो | बाधा नहीं आती, कोई प्रत्यवाय पैदा नहीं होता! गए हैं। यह क्या हो गया लेकिन? हुआ क्या? है। बाधा भी तो अपेक्षा के कारण ही दिखाई पड़ती है। जिसकी हुआ यह कि सब शक्ति हाथ में होने पर अपेक्षाएं एकदम अनंत | | अपेक्षा नहीं है, उसे बाधा भी कैसे दिखाई पड़ेगी? गंगा बहती है हो गईं। इसलिए जो भी पास में है, एकदम छोटा पड़ गया। बस्तर | | सागर की तरफ, अगर वह पहले से एक नक्शा बना ले और पक्का के आदिवासी की बहुत बड़ी अपेक्षा की सामर्थ्य नहीं है, जो भी | कर ले कि इस-इस रास्ते से जाना है, तो हजार बाधाएं आएंगी रास्ते हाथ में है, काफी बड़ा है। में। क्योंकि कहीं किसी ने मकान बना लिया होगा गंगा से बिना इसलिए दुनिया में गरीब आदमी कभी बगावत नहीं करते। गरीब पूछे, कहीं कोई पहाड़ खड़ा हो गया होगा गंगा से बिना पूछे, कहीं आदमी अपेक्षा ही नहीं करते कि बगावत कर सकें। दुनिया में | चढ़ाई होगी गंगा से बिना पूछे। और नक्शा वह पहले बना ले, तो बगावत शुरू होती है, जब गरीब आदमी के पास अपेक्षाएं दिखाई फिर बाधाएं हजार आएंगी। और यह भी हो सकता है कि बाधाओं पड़ने लगती हैं निकट; तब उपद्रव शुरू होता है। दुनिया में से लड़-लड़कर गंगा इतनी मुश्किल में पड़ जाए कि सागर तक अशिक्षित आदमी बगावत नहीं करते, क्योंकि अपेक्षा बांध नहीं | - कभी पहुंच ही न पाए। पाते। शिक्षित आदमी उपद्रव शुरू करते हैं। क्योंकि जैसे ही शिक्षा | | लेकिन गंगा बिना ही नक्शे के, बिना प्लानिंग के चल पड़ती है। 191 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 रास्ता पहले से अपेक्षा में न होने से, जो भी मार्ग मिल जाता है, नष्काम कर्म का अल्प आचरण भी बड़े-बड़े भयों से वही रास्ता है। बाधा का कोई प्रश्न ही नहीं है। अगर पहाड़ रास्ते में IUI बचाता है। बड़े-बड़े भय क्या हैं? बड़े-बड़े भय यही पड़ता है, तो किनारे से गंगा बह जाती है। पहाड़ से रास्ता बनाना हैं-असफलता तो नहीं मिलेगी! विषाद तो हाथ नहीं किसको था, जिससे पहाड़ बाधा बने! आएगा। दुख तो पल्ले नहीं पड़ेगा। कोई बाधा तो न आ जाएगी। जो लोग भी भविष्य की अपेक्षा को सुनिश्चित करके चलते हैं, | निराशा तो नहीं मिलेगी! बड़े-बड़े भय यही हैं। कृष्ण कह रहे हैं, अपने हाथ से बाधाएं खड़ी करते हैं। क्योंकि भविष्य आपका | | सूत्र के अंतिम हिस्से में, कि निष्काम कर्म का थोड़ा-सा भी अकेला नहीं है। किस पहाड़ ने बीच में खड़े होने की पहले से आचरण, अंशमात्र आचरण भी, रत्तीभर आचरण भी, पहाड जैसे योजना कर रखी होगी, आपको कुछ पता नहीं है। भयों से मनुष्य को मुक्ति दिला देता है। जो भविष्य को निश्चित करके नहीं चलता, जो अभी कर्म करता __ असल में जब तक विपरीत दशा को न समझ लें, खयाल में नहीं है और कल कर्म का क्या फल होगा, इसकी कोई फिक्स्ड, इसकी आएगा। जरा-सी अपेक्षा पहाड़ों जैसे भय को निर्मित कर देती है। कोई सुनिश्चित धारणा नहीं बनाता, उसके मार्ग में बाधा आएगी| जरा-सी कामना, पहाड़ों जैसे दुखों का निर्माण कर देती है। कैसे? असल में उसके लिए तो जो भी मार्ग होगा, वही मार्ग है। जरा-सी इच्छा पर जोर, जरा-सा आग्रह कि ऐसा ही हो, सारे जीवन और जो भी मार्ग मिलेगा, उसी के लिए परमात्मा को धन्यवाद है। को अस्तव्यस्त कर जाता है। जिसने भी कहा, ऐसा ही हो, वह दुख उसको बाधा मिल ही नहीं सकती। पाएगा ही। ऐसा होता ही नहीं। जिसने भी कहा. ऐसा ही होगा. तो इसलिए कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, निष्काम कर्म की यात्रा पर | ही मैं सुखी हो सकता हूं, उसने अपने नर्क का इंतजाम स्वयं ही कर जरा-सा भी प्रत्यवाय नहीं है, जरा-सी भी बाधा नहीं है, जरा-सा लिया। वह आर्किटेक्ट है अपने नर्क का खुद ही; उसने सब भी हिंडरेंस है ही नहीं। पर बड़ी होशियारी की, बड़ी कलात्मक बात | व्यवस्था अपने लिए कर ली है। है, बहुत आर्टिस्टिक बात है। एकदम से खयाल में नहीं आएगी। | हम जितने दुख झेल रहे हैं, कभी आपने सोचा कि कितनी छोटी एकदम से खयाल में नहीं आएगी कि बाधा क्यों नहीं है? क्या | | अपेक्षाओं पर खड़े हैं! कितनी छोटी अपेक्षाओं पर! नहीं देखा कभी। निष्काम कर्म करने वाले आदमी को बाधा नहीं बची? हम जो दुख झेल रहे हैं, कितनी छोटी अपेक्षाओं पर खड़े हैं! . बाधाएं सब अपनी जगह हैं, लेकिन निष्काम कर्म करने वाले ___ एक आदमी रास्ते से निकल रहा है। आपने सदा उसको आदमी ने बाधाओं को स्वीकार करना बंद कर दिया। स्वीकृति होती नमस्कार किया था, आज आप नमस्कार नहीं करते हैं, ये दो हाथ थी अपेक्षाओं से, उनके प्रतिकूल होने से। अब कुछ भी प्रतिकूल ऊपर नहीं उठे आज। उसकी नींद हराम है, वह परेशान है, उसे नहीं है। निष्काम कर्म की धारणा में बहने वाले आदमी को सभी बुखार चढ़ आया है। अब वह सोचने लगा कि क्या हो गया, कोई कुछ अनुकूल है। इसका यह मतलब नहीं है कि सभी कुछ अनुकूल बदनामी हो गई, इज्जत हाथ से चली गई, प्रतिष्ठ है। असल में जो भी है. वह अनकल ही है. क्योंकि प्रतिकल को गई। जिस आदमी ने सदा नमस्कार की. उसने नमस्कार नहीं किया। तय करने का उसके पास कोई भी तराजू नहीं है। न बाधा है, न क्या होगा? क्या नहीं होगा? अब उसको कैसे बदला चुकाना, और विफलता है। सब बाधाएं, सब विफलताएं सकाम मन की | क्या नहीं करना—वह हजार-हजार चक्करों में पड़ गया है। इस निर्मितियां हैं। आदमी के ये दो हाथों का न उठना, हो सकता है उसकी जिंदगी के सारे भवन को उदासी से भर जाए। पति घर आया है और उसने कहा, पानी लाओ। और पत्नी नहीं प्रश्नः भगवान श्री, श्लोक के उत्तरार्द्ध में- लाई दो क्षण। सब दुख हो गया! पति घर से बाहर निकला; राह स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात-इस धर्म चलती किसी स्त्री को उसने आंख उठाकर देख लिया: पत्नी के प्राण का अति अल्प आचरण भी बड़े भय से बचाता है, अंत हो गए। पत्नी मरने जैसी हालत में हो गई; जीने का कोई अर्थ इसे भी समझाएं। नहीं रहा, जीना बिलकुल बेकार है! हम अगर अपने दुखों के पहाड़ को देखें, तो बड़ी क्षुद्र अपेक्षाएं Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SN निष्काम कर्म और अखंड मन की कीमिया - उनके पीछे खड़ी मिलती हैं। यहीं से समझना उचित होगा। क्योंकि प्रश्नः भगवान श्री, क्या निष्काम भावना से हमारी निष्काम कर्म का तो अंश भी हमें पता नहीं, लेकिन सकाम कर्म के | प्रगति नहीं रुक जाती है? काफी अंश हमें पता हैं। यहीं से समझना उचित होगा। उसके विपरीत निष्काम कर्म की स्थिति है। कितनी क्षुद्र अपेक्षाएं कितने विराट दुख को पैदा करती चली जाती हैं! 17 छ रहे हैं कि निष्काम भावना से हमारी प्रगति नहीं रुक यह जो इतना बड़ा महाभारत हुआ, जानते हैं कितनी क्षुद्र-सी प जाती है? घटना से शुरू हुआ? इतना बड़ा यह युद्ध, यह इतनी-सी क्षुद्र on प्रगति का क्या मतलब होता है? अगर प्रगति से घटना से शुरू हुआ! बहुत ही क्षुद्र घटना से, मजाक से, एक जोक। मतलब हो कि बहुत धन हो, बड़ा मकान हो, जायदाद हो, जमीन दुनिया के सभी युद्ध मजाक से शुरू होते हैं। हो, तो शायद–तो शायद-थोड़ी रुकावट पड़ सकती है। लेकिन दुर्योधन आया है। और पांडवों ने एक मकान बनाया है। और अगर प्रगति से अर्थ है, शांति हो, आनंद हो, प्रेम हो, जीवन में अंधे के बेटे की वे मजाक कर रहे हैं। उसमें उन्होंने आईने लगाए प्रकाश हो, ज्ञान हो, तो रुकावट नहीं पड़ती, बड़ी गति मिलती है। हुए हैं। और इस तरह से लगाए हुए हैं कि दुर्योधन को, जहां इसलिए आपकी प्रगति का क्या मतलब है, इस पर निर्भर करेगा। दरवाजा नहीं है, वहां दरवाजा दिखाई पड़ जाता है; जहां पानी है, प्रगति से आपका क्या मतलब है? अगर प्रगति से यही मतलब वहां पानी दिखाई नहीं पड़ता। उसका दीवार से सिर टकरा जाता है, है जो बाहर इकट्ठा होता है, तब तो शायद थोड़ी बाधा पड़ सकती पानी में गिर पड़ता है। द्रौपदी हंसती है। वह हंसी सारे महाभारत के है। लेकिन बाहर सब कुछ भी मिल जाए–सारा जगत, सारी युद्ध का मूल है। उस हंसी का बदला फिर द्रौपदी को नंगा करके संपदा-और भीतर एक भी किरण शांति की न फूटे, तो मैं तुमसे चुकाया जाता है। फिर यह बदला चलता है। बड़ी ही क्षुद्र-सी कहता हूं कि अगर कोई तुम्हें शांति की एक किरण देने को राजी हो घटना, जस्ट ए जोक, एक मजाक, लेकिन बहुत महंगा पड़ा है। जाए और कहे कि छोड़ दो यह सब राज्य और यह सब धन और मजाक बढ़ता ही चला गया। फिर उसके कोई आर-पार न रहे और | यह सब दौलत, तो तुम छोड़ पाओगे। छोड़ सकोगे। एक छोटी-सी उसने इस पूरे मुल्क को मथ डाला। शांति की लहर भी इस जगत के पूरे साम्राज्य के समतुल नहीं है। एक स्त्री का हंसना! एक घर में चचेरे भाइयों की आपसी लेकिन हम प्रगति से एक ही मतलब लेते हैं। लेकिन इसका यह मजाक! कभी सोचा भी न होगा कि हंसी इतनी महंगी पड़ सकती | | भी मतलब नहीं है कि मैं ऐसा कह रहा हूं कि जो निष्काम कर्म में है। लेकिन उन्हें पता नहीं कि दुर्योधन की भी अपेक्षाएं हैं। चोट | गति करेगा, अनिवार्य रूप से दीन और दरिद्र हो जाएगा। यह मैं अपेक्षाओं को लग गई। चोट अपेक्षाओं को लग गई। दुर्योधन ने | नहीं कह रहा हूं। क्योंकि मन शांत हो, तो दरिद्र होने की कोई सोचा भी नहीं था कि उस पर हंसा जाएगा निमंत्रण देकर। उसने अनिवार्यता नहीं है। क्योंकि शांत मन जिस दिशा में भी काम सोचा भी नहीं था कि उसका इस तरह मखौल और मजाक उड़ाया करेगा, ज्यादा कुशल होगा। धन भी कमाएगा, तो भी ज्यादा कुशल जाएगा। वह आया होगा सम्मान लेने; मिला मजाक। उपद्रव शुरू होगा। हां, एक फर्क पड़ेगा कि धन कमाने का अर्थ चोरी नहीं हो हो गया। सकेगा। शांत मन के लिए धन कमाने का अर्थ धन कमाना ही फिर उस उपद्रव के भयंकर परिणाम हुए। जिन परिणामों से मैं होगा, चोरी नहीं। धन निर्मित करना होगा। नहीं सोचता हूं कि आज तक भी भारत पूरी तरह मुक्त हो पाया है। - शांत मन हो, तो आदमी जो भी करेगा, कुशल हो जाता है। वह महाभारत में जो घटित हुआ था, उसके परिणाम की प्रतिध्वनि उसके मित्र ज्यादा होंगे, उसकी कुशलता ज्यादा होगी, उसके पास आज भी भारत के प्राणों में चलती है। शक्ति ज्यादा होगी, समझ ज्यादा होगी। इसलिए ऐसा नहीं कह रहा जगत में बड़े छोटे-से, छोटे-से कारण सब कुछ करते हैं। हूं कि वैसा आदमी अनिवार्य रूप से दरिद्र होगा। भीतरी तो समृद्धि सकाम का हमें पता है, निष्काम का हमें कुछ पता नहीं है। होगी ही, लेकिन भीतरी समृद्धि बाहरी समृद्धि को लाने का भी निष्काम कृत्य को भी ठीक ऐसे ही समझें, इसकी उलटी दिशा में। | आधार बनती है, लेकिन गौण होगी। भीतरी समृद्धि के बचते, जरा-सा निष्काम भाव, और बड़े-बड़े भय जीवन के दूर हो जाते हैं। भीतरी समृद्धि के रहते हुए मिलती होगी–नाट एट दि कास्ट, 193/ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1 40m कीमत न चुकानी पड़ती होगी भीतरी समृद्धि की तो बाहरी | | बड़े पद पर हैं। वे मुझसे पूछने आए कि हम शिक्षित तो कर रहे हैं समृद्धि भी आएगी। हां, सिर्फ उसी जगह बाधा पड़ेगी, जहां बाहरी | लोगों को, लेकिन बेईमानी, झूठ, दगा, फरेब, सब बढ़ता चला समृद्धि कहेगी कि भीतरी शांति और आनंद खोओ, तो मैं मिल जाता है! हम अपने बच्चों को बेईमानी, दगा, फरेब, झूठ से कैसे सकती हैं। तो वैसा निष्कामकर्मी कहेगा कि मत मिलो, यही तम्हारी रोकें? तो मैंने उनसे पूछा कि दूसरों के बच्चों की पहले छोड़ दें। कृपा है। जाओ। क्योंकि दूसरों के बच्चों को दगा, फरेब से रोकने को कोई भी तैयार प्रगति का क्या अर्थ है, इस पर सब निर्भर करता है। अगर सिर्फ हो जाता है। मैं आपके बच्चों की बात करना चाहता हूं। दूसरों के दौड़ना ही प्रगति है-कहीं भी दौड़ना, बिना कहीं पहुंचे तब बात बच्चों को दगा, फरेब से रोकने में कौन सी कठिनाई है। दूसरे का अलग है। लेकिन कहीं अगर पहुंचना प्रगति है, तो फिर बात बेटा संन्यासी हो जाए, तो सब मुहल्ले के लोग उसको स्वागतबिलकुल अलग होगी। अगर आप यह कहते हों कि एक आदमी धन्यवाद देने आते हैं। उनका बेटा हो, तब पता चलता है! पागल है और हम उससे कहें कि तुम्हारे दिमाग का इलाज किए देते मैंने उनसे पूछा, दूसरों के बच्चों की बात छोड़ दें। आपके भी हैं। और वह कहे, दिमाग का इलाज तो आप कर देंगे, लेकिन इससे | | लड़के हैं। उन्होंने कहा, हैं। लेकिन वे कुछ डरे हुए मालूम पड़े, मेरी प्रगति में बाधा तो नहीं पड़ेगी? क्योंकि अभी मैं जितनी तेजी | जैसे ही मैंने कहा कि आपके बच्चों की सीधी बात की जाए। मैंने से दौड़ता हूं, कोई दूसरा नहीं दौड़ पाता। हम कहेंगे, बाधा पड़ेगी। | उनसे पूछा कि मैं आपसे यह पूछता हूं, आप अपने बच्चों को दगा, अभी तुम्हारी जैसी तेजी से कोई भी नहीं दौड़ पाता, लेकिन तुम | | फरेब, झूठ, खुशामद, बेईमानी-ये जो हजार बीमारियां इस समय इतनी तेजी से दौड़कर भी कहीं नहीं पहुंचते और धीमे चलने वाले मुल्क में हैं-इन सब से छुटकारा दिलाना चाहते हैं? उन्होंने बड़े लोग भी पहुंच जाते हैं। बस, इतना ही खयाल हो, तो बात समझ डरते से मन से कहा कि हां, दिलाना चाहता हूं। लेकिन मैंने कहा, में आ सकती है। आप इतने कमजोर मन से कह रहे हैं हां, कि मैं फिर से पूछता हूं, थोड़ी हिम्मत जुटाकर कहिए। उन्होंने कहा कि नहीं-नहीं, मैं तो दिलाना ही चाहता हूं। व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन। ___ मैंने कहा, लेकिन आप हिम्मत नहीं जुटाते। आप जितनी ताकत बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् । । ४१।।।। | से पहले मुझसे बोले कि सब बर्बाद हुआ जा रहा है, हम मुल्कभर हे अर्जुन, इस कल्याणमार्ग में निश्चयात्मक-बुद्धि एक ही है। | के बच्चों को कैसे ईमानदारी सिखाएं! उतने जोर से आप अब नहीं और अज्ञानी (सकामी) पुरुषों की बुद्धियां बहुत भेदों वाली | कहते। उन्होंने कहा कि आपने मेरा कमजोर हिस्सा छू दिया है। अनंत होती हैं। आपने मेरी नस पकड़ ली है। मैंने कहा कि नस पकड़कर ही बात हो सकती है, अन्यथा तो कोई बात होती नहीं। इस मुल्क में हर आदमी बिना नस पकड़े बात करता रहता है, तो कोई मतलब ही 1 नुष्य का मन एक हो सकता है, अनेक हो सकता है। नहीं होता है। तो मैं नस ही पकड़ना चाहता हूं। ___ मनुष्य का चित्त अखंड हो सकता है, खंड-खंड हो तो उन्होंने कहा कि नहीं, इतनी हिम्मत से तो नहीं कह सकता। सकता है। मनुष्य की बुद्धि स्वविरोधी खंडों में बंटी हुई। मैंने कहा, क्यों नहीं कह सकते? तो उन्होंने कहा कि मैं जानता हूं। हो सकती है, विभाजित हो सकती है, अविभाजित भी हो सकती इतना तो मैं चाहता हूं कि जितने ऊंचे पद तक मैं उठा, कम से कम है। साधारणतः विषयी चित्त, इच्छाओं से भरे चित्त की अवस्था एक मेरा लड़का भी उठे। और यह भी मैं जानता हूं कि अगर वह पूरा मन की नहीं होती है, अनेक मन की होती है; पोलीसाइकिक, | | ईमानदार हो, नैतिक हो, तो नहीं उठ सकता। तो फिर मैंने कहा, दो बहुचित्त होते हैं। और ऐसा ही नहीं कि बहुचित्त होते हैं, एक चित्त मन हैं आपके। दो में से एक साफ तय करिए-या तो कहिए कि के विपरीत दूसरा चित्त भी होता है। लड़का सड़क पर भीख मांगे, इसके लिए मैं राजी हूं, लेकिन __ मैं कुछ दिन पहले दिल्ली में था। एक मित्र, बड़े शिक्षाशास्त्री बेईमानी नहीं। और या फिर कहिए कि लड़का बेईमान हो, मुझे कोई श्वविद्यालय के पहले कुलपति थे, फिर अब और भी मतलब नहीं; लड़का शिक्षा मंत्रालय में होना चाहिए। एजुकेशन 194 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - निष्काम कर्म और अखंड मन की कीमिया पर मिनिस्ट्री में पहुंचे बिना हमें कोई चैन नहीं है। बेईमानी से हमें कोई | | मिली! जैसे कि मिलना कोई आपका अधिकार था। बाहर हो जाओ मतलब नहीं। साफ बात कहिए। और नहीं तो आप अपने लड़के | दरवाजे के। में भी डबल माइंड पैदा कर देंगे। उन्होंने कहा, आप कैसे आदमी हैं! मैं शांति खोजने आया हूं। वह लड़का भी समझ जाएगा कि बाप चाहता है कि शिक्षामंत्री मैंने कहा, अशांति खोजने कहां गए थे? अशांति खोजने किस होने तक पहुंचो। और देखता है कि शिक्षामंत्री होने तक की यात्रा, आश्रम में गए थे, यह मुझे पहले बता दो। कहा, कहीं नहीं गया सीढ़ी दर सीढ़ी बेईमानी और चोरी की यात्रा है। दूसरी तरफ बाप | | था। तो मैंने कहा, जब तुम अशांति तक पैदा करने में कुशल हो, कहता है कि ईमानदार बनो। और ईमानदार की इस जगत में हालत तो शांति भी पैदा कर सकते हो। मेरी क्या जरूरत है? जिस रास्ते ठीक वैसी है, जैसी कि नाइबर ने एक किताब लिखी है, मारल मैन से अशांत हुए हो, उसी रास्ते से वापस लौट पड़ो तो शांत हो इन इम्मारल सोसाइटी-नैतिक आदमी अनैतिक समाज में। सड़क जाओगे। मैं कहां आता हूं बीच में? अशांति के वक्त मुझसे तुमने पर भीख मांगने की तैयारी होनी ही चाहिए। यद्यपि नैतिक होकर कोई सलाह न ली थी, शांति के वक्त तुम मुझसे सलाह लेने चले सड़क पर भीख मांगने में जितना आनंद है, उतना अनैतिक होकर | आए हो! मैंने पूछा कि शांति की बात बंद। अगर मेरे पास रुकना सम्राट हो जाने में भी नहीं है। लेकिन वह दसरी बात है। है. तो अशांति की चर्चा करो कि अशांत कैसे हए हो? क्या है ये दोनों बातें लड़के के दिमाग में होंगी, तो लड़के के दो मन हो | | अशांति, उसकी मुझसे बात करो। अशांति तुम्हारी स्पष्ट हो जाए, जाएंगे। तब तो वह यही कर सकता है ज्यादा से ज्यादा, कि उसको | तो शांति पाना जरा भी कठिन नहीं है। कोई इंतजाम भीतरी करना पड़ेगा। कोई कोएलिशन गवर्नमेंट तो | वे दो दिन मेरे पास थे। उनकी अशांति फिर धीरे-धीरे उन्होंने भीतर बनानी पड़ेगी न! इन सब उपद्रवी विरोधी तत्वों के बीच कोई खोलनी शुरू की। वही थी, जो हम सब की है। एक ही लड़का है तो समझौता करके, कोई संविद सरकार निर्मित करनी पड़ेगी! तो | उनका। बहुत पैसा कमाया। ठेकेदारी थी। एक ही लड़का है। उस फिर यही होगा कि जब बाहर दिखाना हो तो ईमानदारी दिखाओ लड़के ने एक लड़की से शादी कर ली, जिससे वे नहीं चाहते थे कि और जब भीतर करना हो तो बेईमानी करो। क्योंकि मंत्री के पद तक | शादी करे। तलवार लेकर खड़े हो गए दरवाजे पर-लाश बिछा पहुंचना ही है और ईमानदारी बड़ी अच्छी चीज है, उसको भी दूंगा; बाहर निकल जाओ! लड़का बाहर निकल गया। अब दिखाना ही है। मुसीबत है। अब मौत करीब आ रही है। अब किस मुंह से लड़के __ चित्त हमारा बंट जाता है अनेक खंडों में, और विपरीत आकांक्षाएं को वापस बुलाएं, तलवार दिखाकर निकाला था। और मौत पास एक साथ पकड़ लेती हैं। और अनंत इच्छाएं एक साथ जब मन को आ रही है। और जिंदगीभर जिस पैसे को हजार तरह की चोरी और पकड़ती हैं, तो अनंत खंड हो जाते हैं। और एक ही साथ हम सब बेईमानी से कमाया, उसका कोई मालिक भी नहीं रह जाता और इच्छाओं को करते चले जाते हैं। एक आदमी कहता है, मुझे शांति हाथ से सब छूटा जा रहा है! चाहिए, और साथ ही कहता है, मुझे प्रतिष्ठा चाहिए। उसे कभी | | तो मैंने उनसे पूछा, वह लड़की खराब थी, जिसने तुम्हारे लड़के खयाल में नहीं आता कि वह क्या कह रहा है! से शादी की है? उन्होंने कहा, नहीं, लड़की तो बिलकुल अच्छी है, ___ एक मित्र मेरे पास आए। आते ही से मुझसे बोले कि मैं अरविंद | लेकिन मेरी इच्छा के खिलाफ...। आश्रम हो आया, रमण आश्रम हो आया, शिवानंद के आश्रम हो __तुम्हारी इच्छा से तुम शादी करो, तुम्हारा लड़का क्यों करने आया, सब आश्रम छान डाले, कहीं शांति नहीं मिलती है। अभी मैं | | लगा? अशांत होने के रास्ते खड़े कर रहे हो। फिर जब उसने शादी पांडिचेरी से सीधा चला आ रहा हूं। किसी ने आपका नाम ले दिया, अपनी इच्छा से की और तुमने उसे घर से बाहर निकाल दिया, तो तो मैंने कहा आपके पास भी जाकर शांति—तो मुझे शांति दें। अब परेशान क्यों हो रहे हो? बात समाप्त हो गई। उसने तो आकर तो मैंने कहा कि इसके पहले कि तुम मुझसे भी निराश होओ, । नहीं कहा कि घर में वापस लो। एकदम उलटे लौटो और वापस हो जाओ। मैं तुम्हें शांति नहीं दूंगा। - कहने लगे, यही तो अशांति है। वह एक दफा आकर माफी मांग और तुम कुछ इस तरह कह रहे हो कि जैसे अरविंद आश्रम ने तुम्हें | ले, अंदर आ जाए। शांति देने का कोई ठेका ले रखा है। सब जगह हो आया, कहीं नहीं नहीं मानी, ठीक है। जब उसने आपकी बात नहीं मानी, तो ठीक [195/ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m गीता दर्शन भाग-1 AM है। बात खतम हो गई। अब आप क्यों परेशान हैं? चाहिए...। कोई बीस-बाइस बातों की फेहरिस्त तैयार की। उसमें तो इस धन का क्या होगा? सब आ गया, जो आदमी चाह सकता है। जो भी चाह चाह सकती मैंने कहा, धन का सबके मर जाने के बाद क्या होता है? और है, वह सब आ गया। जो भी विषय की मांग हो सकती है, वह सब तुम्हें क्या फिक्र है? तुम मर जाओगे, धन का जो होगा, वह होगा। | आ गया। जो भी कामना निर्मित कर सकती है, वे सब सपने आ कहा कि नहीं, मेरे ही लड़के के पास मेरा धन होना चाहिए। तो | गए। पर न मालूम, पूरी फेहरिस्त को बार-बार पढ़ता है, कि इसमें मैंने कहा, फिर मेरे लड़के के पास मेरी ही पसंद की औरत होनी | | और कुछ तो नहीं जोड़ा जाना है; क्योंकि वह जीवनभर का नक्शा चाहिए, यह खयाल छोड़ो। तुम्हारा लड़का धन छोड़ने को राजी है बनाना है। अपने प्रेम के लिए, तुम भी कुछ छोड़ने को राजी होओ। सब खोज लेता है, कुछ जोड़ने को बचता नहीं। सब आ गया, दो दिन मेरे पास थे, सारी बात हुई। देखा कि सब हजार तरह | | फिर भी, समथिंग इज़ मिसिंग। कुछ ऐसा लगता है कि कोई कड़ी की उलटी-सीधी इच्छाएं मन को पकड़े हुए हैं, तो चित्त अशांत हो खो रही है। क्यों लगता है ऐसा? क्योंकि रात सोते वक्त उसने गया है। हम सब का मन ऐसा ही अशांत है। | सोचा कि मैं देखू कि सब मुझे समझ लो कि मिल गया, जो-जो कृष्ण कह रहे हैं कि विषय-आसक्त चित्त-चूंकि विषय बहुत मैंने फेहरिस्त पर लिखा है, सब मिल गया हो जाएगा सब ठीक? विपरीत हैं—एक ही साथ विपरीत विषयों की आकांक्षा करके तो मन खाली-खाली लगता है। मन में ऐसा उत्त विक्षिप्त होता रहता है और खंड-खंड में टूट जाता है। जो व्यक्ति आश्वासन से भरा, निश्चय से भरा, कि हां, यह सब मिल जाए, निष्काम कर्म की तरफ यात्रा करता है, अनिवार्यरूपेण-क्योंकि जो फेहरिस्त पर लिखा है, तो बस, सब मिल जाएगा। नहीं, ऐसा कामना गिरती है. तो कामना से बने हए खंड गिरते हैं। जो व्यक्ति | निश्चय नहीं आता; ऐसी निश्चयात्मक लहर नहीं आती भीतर। अपेक्षारहित जीवन में प्रवेश करता है, चूंकि अपेक्षा गिरती है, तो गांव में एक बूढ़े फकीर के पास वह गया। उसने कहा कि इसलिए अपेक्षाओं से निर्मित खंड गिरते हैं। उसके भीतर | इस गांव में सबसे ज्यादा बूढ़े तुम हो, सबसे ज्यादा जिंदगी तुमने एकचित्तता, यूनिसाइकिकनेस, उसके भीतर एक मन पैदा होना देखी है। और तुमने जिंदगी गृहस्थ की ही नहीं देखी, संन्यासी की शुरू होता है। | भी देखी है। तुमसे बड़ा अनुभवी कोई भी नहीं है। तो मैं यह __ और जहां एक मन है. वहां जीवन का सब कुछ है-शांति भी. फेहरिस्त लाया है, जरा इसमें कुछ जोड़ना हो तो बता दो। सुख भी, आनंद भी। जहां एक मन है, वहां सब कुछ है-शक्ति | उस बूढ़े ने पूरी फेहरिस्त पढ़ी, फिर वह हंसा और उसने कलम भी, संगीत भी, सौंदर्य भी। जहां एक मन है, उस एक मन के पीछे | उठाकर वह पूरी फेहरिस्त काट दी। और पूरी फेहरिस्त के ऊपर जीवन में जो भी है, वह सब चला आता है। और जहां अनेक मन बड़े-बड़े अक्षरों में तीन शब्द लिख दिए, पीस आफ माइंड, मन हैं, तो पास में भी जो है, वह भी सब बिखर जाता है और खो जाता | की शांति। उसने कहा, बाकी ये सब तुम फिक्र छोड़ो; तुम यह एक है। लेकिन हम सब पारे की तरह हैं-खंड-खंड. टटे हए. बिखरे चीज पा लो. तो यह बाकी सब मिल सकता है। और यदि तमने हुए। खुद ही इतने खंडों में टूटे हैं, कि कैसे शांति हो सकती है! | बाकी सब भी पा लिया, तो भी ये जो तीन शब्द मैंने लिखे, ये तुम्हें जोसुआ लिएबमेन ने अपने संस्मरण लिखे हैं। संस्मरण की | कभी मिलने वाले नहीं हैं। और आखिर में निर्णय यही होगा कि यह किताब को जो नाम दिया है, वह बहुत अच्छा है। और किताब के पीस आफ माइंड, यह मन की शांति मिली या नहीं? पहले ही हिस्से में उसने जो उल्लेख किया है, वह कीमती है। कहा तो लिएबमेन ने अपनी आत्मकथा लिखी है, उसको नाम दिया कि जवान था, विश्वविद्यालय से पढ़कर लौटा था, तो मेरे मन में है, पीस आफ माइंड। किताब को नाम दिया. मन की शांति। और हुआ कि अब जीवन का एक नक्शा बना लूं कि जीवन में क्या-क्या | लिखा कि उस दिन तो मुझे लगा कि यह बूढ़े ने सब फेहरिस्त खराब पाना है! स्वभावतः, जीवन का एक नक्शा हो, तो जीवन को कर दी। कितनी मेहनत से बनाकर लाया हूं और इस आदमी ने सब सुव्यवस्थित चलाया जा सके। काट-पीट कर दिया। जंची नहीं बात कुछ उसकी। लेकिन जिंदगी तो उसने एक फेहरिस्त बनाई। उस फेहरिस्त में लिखा कि धन के अंत में लिएबमेन कहता है कि आज मैं जानता हूं कि उस बूढ़े चाहिए, सुंदर पत्नी चाहिए, यश चाहिए, सम्मान चाहिए, सदाचार ने फेहरिस्त काटी थी, तो ठीक ही किया था। उसने फाड़कर क्यों न 196 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निष्काम कर्म और अखंड मन की कीमिया - फेंक दी! बेकार। आज जीवन के अंत में वे ही तीन शब्द पास घूम | | पूरा ही मन राजी होता तो फिर क्या था! मेजारिटी माइंड से लिया रहे हैं। काश, उस दिन मैं समझ जाता कि मन की शांति ही सब था, बहुमत से लिया था। कुछ है, तो शायद आज तक पाया भी जा सकता था। लेकिन | - मन कोई पार्लियामेंट नहीं है कि जिसमें आप बहुमत से पक्ष लें। जिंदगी उसी फेहरिस्त को पूरा करने में बीत जाती है सबकी। | मन कोई पार्लियामेंट नहीं है, कोई संसद नहीं है। और अगर संसद कृष्ण कह रहे हैं, यह जो विषयों की दौड़ है चित्त की, यह सिर्फ | | भी है, तो वैसी ही संसद है, जैसी दिल्ली में है। उसमें कुछ पक्का अशांति को...। अशांति का अर्थ ही सिर्फ एक है, बहुत-बहुत नहीं है कि जो अभी आपके पक्ष में गवाही दे रहा था, वह दो दिन दिशाओं में दौड़ता हुआ मन, अर्थात अशांति। न दौड़ता हुआ | बाद विपक्ष में गवाही देगा; उसका कुछ पक्का नहीं है। आप रातभर मन, अर्थात शांति। कृष्ण कहते हैं, निष्काम कर्म की जो भाव-दशा सोकर सुबह उठोगे और पाओगे कि माइनारिटी में हो; मेजारिटी है, वह एक मन और शांति को पैदा करती है। और जहां एक मन | | हाथ से खिसक गई है। है, वहीं निश्चयात्मक बुद्धि है, दि डेफिनीटिव इंटलेक्ट, दि | | कृष्ण कुछ और बात कह रहे हैं। वे यह नहीं कह रहे हैं कि तुम डेफिनीटिव इंटेलिजेंस। | निश्चय करो। वे यह कह रहे हैं, जो निष्काम कर्म की यात्रा पर इसको आखिरी बात समझ लें। तो जहां एक मन है. वहां निकलता है. उसे निश्चयात्मक बद्धि उपलब्ध हो जाती है। क्योंकि अनिश्चय नहीं है। अनिश्चय होगा कहां? अनिश्चय के लिए कम | उसके पास एक ही मन रह जाता है। विषयों में जो भटकता नहीं, से कम दो मन चाहिए। जहां एक मन है, वहां निश्चय है। | जो अपेक्षा नहीं करता, जो कामना की व्यर्थता को समझ लेता है, __इसलिए आमतौर से आदमी लेकिन क्या करता है? वह कहता | | जो भविष्य के लिए आतुरता से फल की मांग नहीं करता, जो क्षण है कि निश्चयात्मक बुद्धि चाहिए, तो वह कहता है, जोड़-तोड़ | में और वर्तमान में जीता है-वैसे व्यक्ति को एक मन उपलब्ध करके निश्चय कर लो। दबा दो मन को और छाती पर बैठ जाओ, | होता है। एक मन निश्चयात्मक हो जाता है, उसे करना नहीं पड़ता। और निश्चय कर लो कि बस, निश्चय कर लिया। लेकिन जब वह शेष कल सुबह बात करेंगे। निश्चय कर रहा है जोर से, तभी उसको पता है कि भीतर विपरीत स्वर कह रहे हैं कि यह तुम क्या कर रहे हो? यह ठीक नहीं है। वह आदमी कसम ले रहा है कि ब्रह्मचर्य साधूंगा, निश्चय करता हूं। लेकिन निश्चय किसके खिलाफ कर रहे हो? जिसके खिलाफ निश्चय कर रहे हो, वह भीतर बैठा है। ___ मैं एक बूढ़े आदमी से मिला। उस बूढ़े आदमी ने कहा कि मैंने अपनी जिंदगी में तीन बार ब्रह्मचर्य का व्रत लिया है। तो मैंने पूछा कि चौथी बार क्यों नहीं लिया? बूढ़ा आदमी ईमानदार था। बूढ़े आदमी कम ही ईमानदार होते हैं, क्योंकि जिंदगी इतनी बेईमानी सिखा देती है कि जिसका कोई हिसाब नहीं। बच्चे साधारणतः ईमानदार होते हैं। बेईमान बच्चा खोजना मुश्किल है। बूढ़े साधारणतः बेईमान होते हैं। ईमानदार बूढ़ा खोजना मुश्किल है। पर वह बूढ़ा ईमानदार आदमी था। उसने कहा कि आप ठीक कहते हैं। आप ठीक कहते हैं, मैंने चौथी बार इसीलिए नहीं लिया कि तीन बार की असफलता ने हिम्मत ही तुड़वा दी। फिर हिम्मत भी नहीं रही कि चौथी बार ले सकूँ। पर मैंने कहा, तुमने व्रत किसके खिलाफ लिया था? अपने ही खिलाफ-कहीं व्रत पूरे होते हैं? ज़ब तुमने व्रत लिया था, तब तुम्हारा पूरा मन राजी था? उसने कहा, 197 Page #228 --------------------------------------------------------------------------  Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 1-2 तेरहवां प्रवचन काम, द्वंद्व और शास्त्र से-निष्काम, निर्द्वद्ध और स्वानुभव की ओर Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ im गीता दर्शन भाग-1 AM यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः। परलोक में, यहां जो थोड़ा छोड़ता है, बहुत पाता है। तो उस थोड़े वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।। ४२ ।। | को छोड़ना बहुत कठिन नहीं है। वह बार्गेन है, वह सौदा है। हम कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।। सभी छोड़ते हैं, पाने के लिए हम सभी छोड़ते हैं। पाने के लिए कुछ क्रियाविशेषबहुला भोगैश्वर्यगति प्रति ।। ४३ ।। भी छोड़ा जा सकता है। हे अर्जुन, जो सकामी पुरुष केवल फल श्रुति में प्रीति रखने लेकिन पाने के लिए जो छोड़ना है, वह निष्काम नहीं है। वह वाले, स्वर्ग को ही परम श्रेष्ठ मानने वाले, इससे बढ़कर | पाना चाहे परलोक में हो, वह पाना चाहे भविष्य में हो, वह पाना कुछ नहीं है-ऐसे कहने वाले हैं, वे अविवेकीजन जन्मरूप | चाहे धर्म के सिक्कों में हो, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता है। पाने कर्मफल को देने वाली और भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के । | की आकांक्षा को आधार बनाकर जो छोड़ना है, वही कामना है, लिए बहुत-सी क्रियाओं के विस्तार वाली इस प्रकार की । वही कामग्रस्त चित्त है। वैसा चित्त कर्मयोग को उपलब्ध नहीं होता। जिस दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहते हैं। यहां कहा जाए पृथ्वी पर स्त्रियों को छोड़ दो, क्योंकि स्वर्ग में भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्। अप्सराएं उपलब्ध हैं, यहां कहा जाए पृथ्वी पर शराब छोड़ दो, व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते । । ४४ ।। । | क्योंकि बहिश्त में शराब के चश्मे बह रहे हैं, तो इस छोड़ने में कोई उस वाणी द्वारा हरे हए चित्त वाले, तथा भोग और ऐश्वर्य में भी छोड़ना नहीं है। यह केवल कामना को नए रूप में, नए लोक आसक्ति वाले, उन पुरुषों के अंतःकरण में निश्चयात्मक | में, नए आयाम में पुनः पकड़ लेना है। यह प्रलोभन ही है। . बुद्धि नहीं होती है। इसलिए जो व्यक्ति भी, कहीं भी, किसी भी रूप में पाने की आकांक्षा से कुछ करता है, वह कर्मयोग को उपलब्ध नहीं हो सकता है। क्योंकि कर्मयोग का मौलिक आधार, कामनारहित, फल क र्मयोग की बात करते हुए कृष्ण ने अर्जुन को कहा है की कामनारहित कर्म है। कठिन है बहुत। क्योंकि साधारणतः हम पा कि वे सारे लोग, जो सुख, कामना, विषय और | सोचेंगे कि फिर कर्म होगा ही कैसे? हम तो कर्म करते ही इसलिए वासना से उत्प्रेरित हैं, जो स्वर्ग से ऊपर जगत में कुछ | हैं कि कुछ पाने को है, कोई लक्ष्य, कोई फल। हम तो चलते ही भी नहीं देख पाते हैं. जिनका धार्मिक चिंतन, मनन और अध्ययन भी विषय-प्रेरित ही होता है, जो संसार में तो सुख की मांग करते हैं कि पीछे कुछ होने को है। अगर पता चले कि नहीं, आगे की ही हैं, जो परलोक में भी सुख की ही मांग किए चले जाते हैं, जिनके | | कोई कामना नहीं, तब तो फिर हम हिलेंगे भी नहीं, करेंगे भी नहीं। परलोक की दृष्टि भी वासना का ही विस्तार है, ऐसे व्यक्ति | कर्म होगा कैसे? निष्काम-कर्म की गहराई को समझने में असमर्थ हैं। गीता के संबंध में और कृष्ण के संदेश के संबंध में जिन लोगों कर्मयोग को अगर एक संक्षिप्त से गणित के सूत्र में कहें, तो ने भी चिंतन किया है, उनके लिए जो बड़े से बड़ा मनोवैज्ञानिक कहना होगा, कर्म - कामना = कर्मयोग। जहां कर्म से कामना ऋण | सवाल है, उलझाव है, वह यही है कि कृष्ण कहते हैं, कर्म कर दी जाती है, तब जो शेष रह जाता है, वही कर्मयोग है। लेकिन | वासनारहित, कामनारहित! तो कर्म होगा कैसे? क्योंकि कर्म का कामना को शेष करने का अर्थ केवल सांसारिक कामना को शेष | | मोटिवेशन, कर्म की प्रेरणा कहां से उत्पन्न होती है? कर्म की प्रेरणा • कर देना नहीं है, कामना मात्र को शेष कर देना है। इस बात को | तो कामना से ही उत्पन्न होती है। कुछ हम चाहते हैं, इसलिए कुछ थोड़ा गहरे में समझ लेना जरूरी है। हम करते हैं। चाह पहले, करना पीछे। विषय पहले, कर्म पीछे। संसार की कामना को शेष कर देना बहुत कठिन नहीं है, कामना | | आकांक्षा पहले, फिर छाया की तरह हमारा कर्म आता है। अगर मात्र को शेष करना असली तपश्चर्या है। संसार की कामना तो शेष | | हम छोड़ दें चाहना, डिजायर, इच्छा, विषय, तो कर्म आएगा कैसे? की जा सकती है। अगर परलोक की कामना का प्रलोभन दिया मोटिवेशन नहीं होगा। जाए, तो संसार की कामना छोड़ने में कोई भी कठिनाई नहीं है। अगर हम पश्चिम के मनोविज्ञान से भी पछे-जो कि मोटिवेशन अगर किसी से कहा जाए, इस पृथ्वी पर धन छोड़ो, क्योंकि पर बहुत काम कर रहा है—कर्म की प्रेरणा क्या है? तो पश्चिम के तो श्वास भाइसलिए लत Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम, द्वंद्व और शास्त्र से - निष्काम, निर्द्वद्व और स्वानुभव की ओर 4 पूरे मनोवैज्ञानिक एक स्वर से कहते हैं कि बिना कामना के कर्म नहीं सकता है। कृष्ण का मनोविज्ञान आधुनिक मनोविज्ञान से बिलकुल उलटी बात कह रहा है । वे यह कह रहे हैं कि कर्म जब तक कामना से बंधा है, तब तक सिवाय दुख और अंधकार के कहीं भी नहीं ले जाता है। जिस दिन कर्म कामना से मुक्त होता है – परलोक की कामना से भी, स्वर्ग की कामना से भी – जिस दिन कर्म शुद्ध होता है, प्योर एक्ट हो जाता है, जिसमें कोई चाह की जरा भी अशुद्धि नहीं होती, उस दिन ही कर्म निष्काम है और योग बन जाता है। और वैसा कर्म स्वयं में मुक्ति है। वैसे कर्म के लिए किसी मोक्ष की आगे कोई जरूरत नहीं है। वैसे कर्म का कोई मोक्ष भविष्य में नहीं है। वैसा कर्म अभी और यहीं, हियर एंड नाउ मुक्ति है । वैसा कर्म मुक्ति है। वैसे कर्म का मुक्ति फल नहीं है, वैसे कर्म की निजता ही मुक्ति है। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है, क्योंकि आगे बार-बार, उसके इर्द-गिर्द बात घूमेगी। और कृष्ण के संदेश की बुनियाद में वह बात छिषी है। क्या कर्म हो सकता है बिना कामना के ? क्या बिना चाह के हम कुछ कर सकते हैं? तो फिर प्रेरणा कहां से उपलब्ध होगी ? वह स्रोत कहां से आएगा, वह शक्ति कहां से आएगी, जो हमें खींचे और कर्म में संयुक्त करे ? - जिस जगत में हम जीते हैं और जिस कर्मों के जाल से हम अब तक परिचित रहे हैं, उसमें शायद ही एकाध ऐसा कर्म हो जो अनमोटिवेटेड हो – शायद ही। अगर कभी ऐसा कोई कर्म भी दिखाई पड़ता हो, जो अनमोटिवेटेड मालूम होता है, जिसमें आगे कोई मोटिव, जिसमें आगे कोई पाने की आकांक्षा होती, उसमें भी थोड़ा भीतर खोजेंगे, तो मिल जाएगी। रास्ते पर आप चल रहे हैं। आपके आगे कोई है, उसका छाता गिर गया। आप उठाकर दे देते हैं - अनमोटिवेटेड । उठाते वक्त आप यह भी नहीं. सोचते कि क्या फल, क्या उपलब्धि, क्या मिलेगा? नहीं, यह सोच नहीं होता। छाता गिरा, आपने उठाया, दे दिया । दिखाई पड़ता है, अनमोटिवेटेड है। क्योंकि न घर से सोचकर चले थे कि किसी का छाता गिरेगा, तो उठाएंगे। छाता गिरा, उसके एक क्षण पहले तक छाता उठाने की कोई भी योजना मन में न थी। छाता गिरने और छाता उठाने के बीच भी कोई चाह दिखाई नहीं पड़ती है। लेकिन फिर भी, मनोविज्ञान कहेगा, अनकांशस मोटिवेशन है। अगर छाता के बाद वह आदमी धन्यवाद न दे, तो दुख होगा। छाता दबा ले और चल पड़े, तो आप चौकन्ने से खड़े रह जाएंगे कि कैसा आदमी है, धन्यवाद भी नहीं ! अगर पीछे इतना भी स्मरण आता है कि कैसा आदमी है, धन्यवाद भी नहीं ! तो मोटिवेशन हो गया। सचेतन नहीं था, आपने सोचा नहीं था, लेकिन मन के किसी गहरे तल पर छिपा था। अब पीछे से हम कह सकते हैं कि धन्यवाद पाने के लिए छाता उठाया? आप कहेंगे, नहीं, धन्यवाद का तो कोई विचार ही न था; यह तो पीछे पता चला। लेकिन जो नहीं था, वह पीछे भी पता नहीं चल सकता है। जो बीज में न छिपा हो, वह प्रकट भी नहीं हो सकता है। जो अव्यक्त न रहा हो, वह व्यक्त भी नहीं हो सकता है। कहीं छिपा था, किसी अनकांशस, किसी अचेतन के तल पर दबा था, राह देखता था । नहीं, सचेतन कोई कामना नहीं थी, लेकिन अचेतन कामना थी। जीवन में ऐसे कुछ क्षण हमें मालूम पड़ते हैं, जहां लगता है, अनमोटिवेटेड, निष्काम कोई कृत्य घटित हो गया है। लेकिन उसे भी पीछे से लौटकर देखें, तो लगता है, कामना कहीं छिपी थी। इसलिए पश्चिम का मनोविज्ञान कहेगा कि चाहे दिखाई पड़े और चाहे न दिखाई पड़े, जहां भी कर्म है, वहां कामना है; इतना ही फर्क हो सकता है कि वह चेतन है या अचेतन है । लेकिन कृष्ण कहते हैं, ऐसा कर्म हो सकता है, जहां कामना नहीं हो। यह वक्तव्य बहुत महत्वपूर्ण है। इसे समझने के लिए दो-चार ओर से हम यात्रा करेंगे। एक छोटी-सी कहानी से आपको कहना चाहूंगा। क्योंकि जो हमारी जिंदगी में परिचित नहीं है, उसे हमें | किसी और की जिंदगी में झांकना पड़े। और हमारी जिंदगी ही इति | नहीं है। हमें किसी और जिंदगी में झांकना पड़े, देखना पड़े कि क्या यह संभव है ? इज़ इट पासिबल ? पहले तो यही देख लें कि क्या यह संभव है? अगर संभावना दिखाई पड़े, तो शायद कल सत्य भी हो सकती है। अकबर एक दिन तानसेन को कहा है, तुम्हारे संगीत को सुनता हूं, तो मन में ऐसा खयाल उठता है कि तुम जैसा बजाने वाला | शायद ही पृथ्वी पर हो ! आगे भी कभी होगा, यह भी भरोसा नहीं आता। क्योंकि इससे ऊंचाई और क्या हो सकेगी, इसकी धारणा भी नहीं बनती है। तुम शिखर हो । लेकिन कल रात जब तुम्हें विदा किया था, सोने गया था, तो मुझे खयाल आया, हो सकता है, तुमने भी किसी से सीखा हो, कोई तुम्हारा गुरु हो । तो मैं आज तुमसे | पूछता हूं कि तुम्हारा कोई गुरु है ? तुमने किसी से सीखा है ? 201 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm गीता दर्शन भाग-1 4m तो तानसेन ने कहा, मैं कुछ भी नहीं हूं गुरु के सामने; जिससे | सदा अधूरा हूं, अंश हूं। अगर बिना बजाए भी मुझे वह मिल जाए सीखा है, उसके चरणों की धूल भी नहीं हूं। इसलिए वह खयाल | जो बजाने से मिलता है, तो बजाने को फेंककर उसे पा लूंगा। मन से छोड़ दें। शिखर! भूमि पर भी नहीं हूं। लेकिन आपने मुझे | बजाना मेरे लिए साधन है, साध्य नहीं है। साध्य कहीं और ही जाना है, इसलिए आपको शिखर मालूम पड़ता हूं। ऊंट जब | है-भविष्य में, धन में, यश में, प्रतिष्ठा में—साध्य कहीं और है, पहाड़ के करीब आता है, तब उसे पता चलता है, अन्यथा वह | | संगीत सिर्फ साधन है। साधन कभी आत्मा नहीं बन पाती; साध्य पहाड़ होता ही है। पर, तानसेन ने कहा कि मैं गुरु के चरणों में बैठा | | में ही आत्मा अटकी होती है। अगर साध्य बिना साधन के मिल हूं; मैं कुछ भी नहीं हूं। कभी उनके चरणों में बैठने की योग्यता भी | | जाए, तो साधन को छोड़ दूं अभी। लेकिन नहीं मिलता साधन के हो जाए, तो समझूगा बहुत कुछ पा लिया। बिना, इसलिए साधन को खींचता हूं। लेकिन दृष्टि और प्राण और तो अकबर ने कहा, तुम्हारे गुरु जीवित हों तो तत्क्षण, अभी और | | आकांक्षा और सब घूमता है साध्य के निकट। लेकिन जिनको आप आज उन्हें ले आओ, मैं सुनना चाहूंगा। पर तानसेन ने कहा, यही सुनकर आ रहे हैं, संगीत उनके लिए कुछ पाने का साधन नहीं है। कठिनाई है। जीवित वे हैं, लेकिन उन्हें लाया नहीं जा सकता। आगे कुछ भी नहीं है, जिसे पाने को वे बजा रहे हैं। बल्कि पीछे __ अकबर ने कहा, जो भी भेंट करनी हो, तैयारी है। जो भी! जो | | कुछ है, जिससे उनका संगीत फूट रहा है और बज रहा है। कुछ पा भी इच्छा हो, देंगे। तुम जो कहो, वही देंगे। तानसेन ने कहा, वही | | लिया है, कुछ भर गया है, वह बह रहा है। कोई अनुभूति, कोई कठिनाई है, क्योंकि उन्हें कुछ लेने को राजी नहीं किया जा सकता। सत्य, कोई परमात्मा प्राणों में भर गया है। अब वह बह रहा है, क्योंकि वह कुछ लेने का प्रश्न ही नहीं है। अकबर ने कहा, कुछ ओवर फ्लोइंग है। लेने का प्रश्न नहीं है! तो क्या उपाय किया जाए? तानसेन ने कहा, अकबर बार-बार पूछने लगा, किसलिए? किसलिए? । कोई उपाय नहीं, आपको ही चलना पड़े। तो उन्होंने कहा, मैं अभी स्वभावतः, हम भी पूछते हैं, किसलिए? पर तानसेन ने कहा, चलने को तैयार हूं। तानसेन ने कहा, अभी चलने से तो कोई सार | नदियां किसलिए बह रही हैं? फूल किसलिए खिल रहे हैं? सूर्य नहीं है। क्योंकि कहने से वे बजाएंगे, ऐसा नहीं है। जब वे बजाते किसलिए निकल रहा है? हैं, तब कोई सुन ले, बात और है। तो मैं पता लगाता हूं कि वे कब किसलिए, मनुष्य की बुद्धि ने पैदा किया है। सारा जगत ओवर बजाते हैं। तब हम चलेंगे। फ्लोइंग है, आदमी को छोड़कर। सारा जगत आगे के लिए नहीं जी पता चला–हरिदास फकीर उसके गुरु थे, यमुना के किनारे रहा है, सारा जगत भीतर से जी रहा है। फूल खिल रहा है, खिलने रहते थे—पता चला, रात तीन बजे उठकर वे बजाते हैं, नाचते हैं। में ही आनंद है। सूर्य निकल रहा है, निकलने में ही आनंद है। हवाएं तो शायद ही दुनिया के किसी अकबर की हैसियत के सम्राट ने तीन बह रही हैं, बहने में ही आनंद है। आकाश है, होने में ही आनंद बजे रात चोरी से किसी संगीतज्ञ को सुना हो। अकबर और तानसेन | है। आनंद आगे नहीं, अभी है, यहीं है। चोरी से झोपडी के बाहर ठंडी रात में छिपकर बैठे रहे। परे समय और जो हो रहा है, वह भीतर की ऊर्जा से अकारण बहाव अकबर की आंखों से आंसू बहते रहे। एक शब्द बोला नहीं। | है-अनमोटिवेटेड एक्ट। जिस पर कि कृष्ण का सारा कर्मयोग संगीत बंद हआ। वापस होने लगे। सुबह फूटने लगी। राह में खड़ा होगा। वह जीवन को भविष्य की तरफ से पकड़ना नहीं, वह भी तानसेन से अकबर बोला नहीं। महल के द्वार पर तानसेन से जीवन को आकांक्षा की तरफ से खींचना नहीं, वरन व्यक्ति के इतना ही कहा, अब तक सोचता था कि तुम जैसा कोई भी नहीं बजा | भीतर छिपा जो अव्यक्त है, उसकी ओवर फ्लोइंग, उसका ऊपर सकता। अब सोचता हूं कि तुम हो कहां! लेकिन क्या बात है? तुम | से बह जाना है। कृत्य, जिस दिन आपके जीवन-ऊर्जा की ओवर अपने गुरु जैसा क्यों नहीं बजा सकते हो? फ्लोइंग है, ऊपर से बह जाना है, उस दिन निष्काम है। और जब तानसेन ने कहा, बात तो बहुत साफ है। मैं कुछ पाने के लिए तक भविष्य के लिए किसी कारण से बहना है, तब तक सकाम है। बजाता हूं, और मेरे गुरु ने कुछ पा लिया है, इसलिए बजाते हैं। मेरे | सकाम कर्म योग नहीं है, निष्काम कर्म योग है। बजाने के आगे कुछ लक्ष्य है, जो मुझे मिले, उसमें मेरे प्राण हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह कामना भविष्य की, स्वर्ग इसलिए बजाने में मेरे प्राण पूरे कभी नहीं हो सकते। बजाने में मैं | की, मोक्ष की, परमात्मा की—इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर 202 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम, द्वंद्व और शास्त्र से – निष्काम, निर्द्वद्व और स्वानुभव की ओर 4 एक व्यक्ति मंदिर में भजन गा रहा है, और इस भजन में भी इतनी कामना है कि ईश्वर को पा लूं, तो यह भजन व्यर्थ हो गया, यह भजन योग न रहा । ईश्वर को पाने की कामना भी कामना ही है। और कामना से कभी ईश्वर पाया नहीं जाता। ईश्वर तो निष्कामना में उपलब्ध है। अगर भजन में इतनी भी कामना है कि ईश्वर को पा लूं तो भजन व्यर्थ हुआ। अगर प्रार्थना में इतनी भी मांग है कि तेरे दर्शन हो जाएं, तो प्रार्थना व्यर्थ हो गई। लेकिन प्रार्थना अनमोटिवेटेड है; नहीं किसी को पाने के लिए, वरन भीतर के भाव से जन्मी है और अपने में पूरी है, अपने में पूरी है — आगे कुछ द्वार नहीं खोज रही है - तो प्रार्थना है। और उसी क्षण में प्रार्थना सफल है, जिस क्षण प्रार्थना निष्काम है। प्रत्येक कर्म प्रार्थना बन जाता है, अगर निष्काम बन जाए। और प्रत्येक प्रार्थना बंधन बन जाती है, अगर सकाम बन जाए। लेकिन हम जैसे दुकान चलाते हैं, वैसे ही पूजा भी करते हैं। दुकान भी मोटिवेटेड होती है, पूजा भी। दुकान कुछ पाने को होता है, पूजा में भी । पाप भी करते हैं, तो भी कुछ पाने को करते हैं । | पुण्य भी करते हैं, तो कुछ पाने को करते हैं। और कृष्ण कह रहे हैं कि पाने के लिए करना ही अधर्म है। पाने की आकांक्षा के बिना जो कृत्य का फूल खिलता है - दि फ्लावरिंग आफ दि प्योर एक्ट - शुद्ध कर्म जब खिलता है बिना किसी कारण के... । इस संबंध में इमेनुअल कांट का नाम लेना जरूरी है। जर्मनी में कांट ने करीब-करीब कृष्ण से मिलती-जुलती बात कही है। उसने कहा कि अगर कर्तव्य में जरा-सी भी आकांक्षा है, तो कर्तव्य पाप हो गया । जरा-सी भी ! कर्तव्य तभी कर्तव्य है, जब बिलकुल शुद्ध है, उसमें कोई आकांक्षा नहीं है। यह हमें कठिन पड़ेगा। क्योंकि हमारी जिंदगी में ऐसा कोई कर्म नहीं है, जिससे हमारी पहचान हो, जिससे हम समझ पाएं। लेकिन ऐसे कर्म के लिए द्वार खोले जा सकते हैं। मैंने कहा, रास्ते पर एक आदमी है, उसका छाता गिर गया है। आप छाता उठाएं, दे दें, और छाता उठाकर देते समय भीतर देखते रहें कि कोई मांग तो नहीं उठती है! सिर्फ देखते रहें। छाता उठाकर दें और अपने रास्ते पर चल पड़ें और भीतर देखते रहें कि कोई मांग तो नहीं उठती धन्यवाद की भी ! उठेगी; लेकिन देखते रहें, दो-चार कृत्यों में देखते रहें और अचानक पाएंगे, क्या पागलपन है। गिर जाएगी। दिन में जो आदमी एक कृत्य भी अनमोटिवेटेड कर ले, वह कृष्ण की गीता को समझ पा सकता है। एक कृत्य भी चौबीस घंटे में अनमोटिवेटेड कर ले, जिसमें कि कुछ न हो, चेतन-अचेतन कोई मांग न हो— बस किया और हट गए और चले गए - तो कृष्ण की गीता को, और कृष्ण के कर्मयोग को समझने का मार्ग खुल जाएगा। रोज गीता न पढ़ें, चलेगा। लेकिन एक कृत्य चौबीस घंटे में ऐसा खिल जाए, जिसमें हमारी कोई भी कामना नहीं है; बस, जिसमें करना ही पर्याप्त है और हम बाहर हो गए और चल पड़े। कठिन नहीं है। अगर थोड़ी खोज-बीन करें, तो बहुत कठिन नहीं है । छोटी-छोटी, छोटी-छोटी घटनाओं में उसकी झलक मिल सकती है। और यह जो कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, वह पूरा का पूरा | प्रयोगात्मक है । होगा ही । यह कोई गुरुकुल में बैठकर, किसी वृक्ष के तले, किसी आश्रम में हुई चर्चा नहीं है। यह युद्ध के स्थल पर, जहां सघन कर्म प्रतीक्षा कर रहा है, वहां हुई चर्चा है। यह चर्चा किसी शांत वट वृक्ष के नीचे बैठकर कोई तत्व चर्चा नहीं है, यह कोरी तत्व - चर्चा नहीं है । यह सघन कर्म के बीच, ठीक युद्ध के क्षण में - युद्ध से ज्यादा सघन कृत्य और क्या होगा - वहां हुई यह | चर्चा है | और अर्जुन से कृष्ण कह रहे हैं कि अगर स्वर्ग तक की भी कामना मन में है— किसी भी विषय की तो सब व्यर्थ हो जाता है। 2 कर्मयोग का सार, कर्म ऋण कामना है। काम से कामना गई ... । हमने तो काम शब्द ही रखा हुआ है कर्म के लिए। क्योंकि काम कामना से ही बनता है। हम तो कहते हैं, काम वही है, जो कामना चलता है। 203 लेकिन कृष्ण कहते हैं, काम से अगर कामना घट जाए तो कर्मयोग। तो फिर साधारण कर्म नहीं रह जाता है वह, योग बन जाता है। और योग बन जाए, तो न पाप है, न पुण्य है; न बंधन है, न मुक्ति है— दोनों के बाहर है व्यक्ति । त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ।। ४५ ।। हे अर्जुन, सब वेद तीनों गुणों के कार्य रूप संसार को विषय करने वाले, अर्थात प्रकाश करने वाले हैं, इसलिए असंसारी, अर्थात निष्कामी और सुख-दुःखादि Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m गीता दर्शन भाग-1-m द्वंद्वों से रहित, नित्य वस्तु में स्थित तथा योगक्षेम को लगाव है, उसके खिलाफ हम चुन रहे हैं, तो ज्यादा से ज्यादा हम न चाहने वाला और आत्मवान हो। | दमन कर सकते हैं, सप्रेशन कर सकते हैं। और कुछ होने वाला नहीं है; दब जाएगा। जिसे हमने इनकार किया, वह हमारे अचेतन | में उतर जाएगा। और जिसे हमने स्वीकार किया, वह हमारा चेतन 1 ग और द्वेष से मुक्त, द्वंद्व से रहित और शून्य। राग | बन जाएगा। I और द्वेष से मुक्त, दो में से एक पर होना सदा आसान | हमारा मन, जिसे अस्वीकार करता है, उसे अंधेरे में ढकेल देता है। राग में होना आसान है, विराग में भी होना आसान | है। हमारे सबके मन के गोडाउन हैं। घर में जो चीज बेकार हो जाती है। विराग द्वेष है। धन को पकड़ना आसान है, धन को त्यागना | है, उसे हम कबाड़खाने में डाल देते हैं। ऐसे ही चेतन मन जिसे आसान है। पकड़ना राग है, त्यागना द्वेष है। राग और द्वेष दोनों से | इनकार कर देता है, उसे अचेतन में डाल देता है। जिसे स्वीकार कर मुक्त हो जाओ, शून्य हो जाओ, रिक्त हो जाओ, तो जिसे महावीर | लेता है, उसे चेतन में ले आता है। चेतन मन हमारा बैठकखाना है। ने वीतरागता कहा है, उसे उपलब्ध होता है व्यक्ति। लेकिन किसी भी आदमी का घर बैठकखाने में नहीं होता। द्वंद्व में चुनाव आसान है, चुनावरहित होना कठिन है। च्वाइस बैठकखानों में सिर्फ मेहमानों का स्वागत किया जाता है, उसमें कोई आसान है, च्वाइसलेसनेस कठिन है। कहें मन को कि इसे चुनते | रहता नहीं। असली घर बैठकखाने के बाद शुरू होता है। हैं, तो मन कहता है-ठीक। कहें मन को, इसके विपरीत चुनते हैं, बैठकखाना घर का हिस्सा नहीं है, तो भी चलेगा। कह सकते हैं कि तो भी मन कहता है-ठीक। चुनो जरूर! क्योंकि जहां तक चुनाव | बैठकखाना घर का हिस्सा नहीं है। क्योंकि घर वाले बैठकखाने में है, वहां तक मन जी सकता है। चुनाव कोई भी हो, इससे फर्क नहीं नहीं रहते, बैठकखाने में सिर्फ अतिथियों का स्वागत होता है। पड़ता-घर चुनो, जंगल चुनो; मित्रता चुनो, शत्रुता चुनो; धन बैठकखाना सिर्फ फेस है, बैठकखाना सिर्फ एक चेहरा है, दिखावा चुनो, धन-विरोध चुनो; कुछ भी चुनो, प्रेम चुनो, घृणा चुनो; क्रोध है घर का, असली घर नहीं है। बैठकखाना एक डिसेप्शन है, एक चुनो, क्षमा चुनो; कुछ भी चुनो-च्वाइस हो, तो मन जीता है। धोखा है, जिसमें बाहर से आए लोगों को धोखा दिया जाता है कि लेकिन कुछ भी मत चुनो, तो मन तत्काल-तत्काल-गिर जाता | यह है हमारा घर। हालांकि उसमें कोई रहता नहीं, न उसमें कोई है। मन के आधार गिर जाते हैं। च्वाइस मन का आधार है, चुनाव | | सोता, न उसमें कोई खाता, न उसमें कोई पीता। उसमें कोई नहीं मन का प्राण है। रहता, वह घर है ही नहीं। वह सिर्फ घर का धोखा है। बैठकखाने इसलिए जब तक चुनाव चलता है जीवन में, तब तक आप | के बाद घर शुरू होता है। कितना ही चुनाव बदलते रहें, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता है। | चेतन मन हमारा, जगत के दिखावे के लिए बैठकखाना है। संसार छोड़ें, मोक्ष चुनें; पदार्थ छोड़ें, परमात्मा चुनें; पाप छोड़ें, | उससे हम दूसरों से मिलते-जुलते हैं। लेकिन उसके गहरे में हमारा पुण्य चुनें-कुछ भी चुनें। यह सवाल नहीं है कि आप क्या चुनते | असली जीवन शुरू होता है। जब भी हम चुनाव करते हैं, तो चुनाव हैं, सवाल गहरे में यह है कि क्या आप चुनते हैं? अगर चुनते हैं, से कोई चीज मिटती नहीं। चुनाव से सिर्फ बैठकखाने की चीजें घर अगर च्वाइस है, तो द्वंद्व रहेगा। क्योंकि किसी को छोड़ते हैं और के भीतर चली जाती हैं। चुनाव से, सिर्फ जिसे हम चुनते हैं, उसे किसी को चुनते हैं। बैठकखाने में लगा देते हैं। वह हमारा डेकोरेशन है। यह भी समझ लेना जरूरी है कि जिसे छोड़ते हैं, उसे परा कभी इसलिए दिनभर जो आदमी धन को इनकार करता है. कहता है नहीं छोड़ पा सकते हैं। क्योंकि जिसे छोड़ना पड़ता है, उसकी मन कि नहीं, मैं त्याग को चुना हूं, रात सपने में धन को इकट्ठा करता में गहरी पकड़ होती है। नहीं तो छोड़ना क्यों पड़ेगा? अगर एक | है। जो दिनभर कामवासना से लड़ता है, रात सपने में कामवासना आदमी के मन में धन की कोई पकड़ न हो, तो वह धन का त्याग | से घिर जाता है। जो दिनभर उपवास करता है, रात राजमहलों में कैसे करेगा? त्याग के लिए पकड़ अनिवार्य है। अगर एक आदमी | निमंत्रित हो जाता है भोजन के लिए। की कामवासना में, सेक्स में रुचि न हो, लगाव न हो, आकर्षण | सपने में एसर्ट करता है वह जो भीतर छिपा है। वह कहता है, न हो, तो वह ब्रह्मचर्य कैसे चुनेगा? और जिसमें आकर्षण है, बहुत हो गया दिनभर अब चुनाव, अब हम प्रतीक्षा कर रहे हैं 1204 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m- काम, द्वंद्व और शास्त्र से निष्काम, निर्द्वद्व और स्वानुभव की ओर HAM दिनभर से भीतर, अब हमसे भी मिलो। वह जाता नहीं है, वह सिर्फ | कांफ्लिक्ट क्या है? दबा रहता है। द्वंद्व एक ही है, चेतन और अचेतन का द्वंद्व है। आपने कसम ली और एक मजे की बात है कि जो भीतर दबा है, वह शक्ति-संपन्न | है, क्रोध नहीं करेंगे। कसम आपकी चेतन मन में, कांशस माइंड में होता जाता है। और जो बैठकखाने में है, वह धीरे-धीरे निर्बल होता | रहेगी। और क्रोध की ताकतें अचेतन मन में रहेंगी। कल कोई गाली जाता है। और जल्दी ही वह वक्त आ जाता है कि जिसे हमने दबाया | देगा, अचेतन मन कहेगा, करो क्रोध! और चेतन मन कहेगा, कसम है, वह अपनी उदघोषणा करता है; विस्फोट होता है। वह निकल | खाई है कि क्रोध नहीं करना है। और द्वंद्व खड़ा होगा। लड़ोगे भीतर। पड़ता है बाहर। और ध्यान रहे, जब भी लड़ाई होगी, तो अचेतन जीतेगा। __ अच्छे से अच्छे आदमी को, जिसकी जिंदगी बिलकुल बढ़िया, | | इमरजेंसी में हमेशा अचेतन जीतेगा। बेकाम समय में चेतन जीतता सुंदर, स्मूथ, समतल भूमि पर चलती है, उसे भी शराब पिला दें, तो | हुआ दिखाई पड़ेगा, काम के समय में अचेतन जीतेगा। क्यों? पता चलेगा, उसके भीतर क्या-क्या छिपा है! सब निकलने लगेगा। क्योंकि मनोविज्ञान की अधिकतम खोजें इस नतीजे पर पहुंची हैं कि शराब किसी आदमी में कुछ पैदा नहीं करती। शराब सिर्फ बैठकखाने | चेतन मन हमारे मन का एक हिस्सा है। अगर हम मन के दस हिस्से और घर का फासला तोड़ देती है, दरवाजा खोल देती है। करें, तो एक हिस्सा चेतन और नौ हिस्सा अचेतन है। नौगुनी ताकत अभी पश्चिम में एक फकीर था गरजिएफ। उसके पास जो भी है उसकी। साधक आता, तो पंद्रह दिन तो उसको शराब में डुबाता। कैसा | तो वह जो नौगुनी ताकत वाला मन है, वह प्रतीक्षा करता है कि पागल आदमी होगा? नहीं, समझदार था। क्योंकि वह यह कहता | कोई हर्जा नहीं। सुबह जब गीता का पाठ करते हो तब कोई फिक्र है कि जब तक मैं उसे न देख लूं, जिसे तुमने दबाया है, तब तक | नहीं, कसम खाओ कि क्रोध नहीं करेंगे। मंदिर जब जाते हो, तब मैं तुम्हारे साथ कुछ भी काम नहीं कर सकता। क्योंकि तुम क्या कह | कोई फिक्र नहीं, मंदिर कोई जिंदगी है! कहो कि क्रोध नहीं करेंगे। रहे हो, वह भरोसे का नहीं है। तुम्हारे भीतर क्या पड़ा है, वही जान | | देख लेंगे दुकान पर! देख लेंगे घर में! जब मौका आएगा असली, लेना जरूरी है। तब एकदम चेतन हट जाता है और अचेतन हमला बोल देता है। तो एकदम शराब पिलाता पंद्रह दिन; इतना डुबा देता शराब में। ___ इसीलिए तो हम कहते हैं, क्रोध करने के बाद आदमी कहता है फिर उस आदमी का असली चेहरा खोजता कि भीतर कौन-कौन | कि पता नहीं कैसे मैंने क्रोध कर लिया! मेरे बावजूद-इंस्पाइट छिपा है, किस-किस को दबाया है! तुम्हारी च्वाइस ने क्या-क्या | आफ मी-मेरे बावजूद क्रोध हो गया। लेकिन आपके बावजूद किया है, इसे जानना जरूरी है, तभी रूपांतरण हो सकता है। | क्रोध कैसे हो सकता है ? निश्चित ही, आपने अपने ही किसी गहरे कई लोग तो भाग जाते कि हम यह बरदाश्त नहीं कर सकते। हिस्से को इतना दबाया है कि उसको आप दूसरा समझने लगे हैं, लेकिन गुरजिएफ कहता कि पंद्रह दिन तो जब तक मैं तुम्हें शराब कि वह और है। वह हमला बोल देता है। जब वक्त आता है, वह में न डुबा लूं, जब तक मैं तुम्हारे भीतरी घर में न झांक लूं कि तुमने हमला बोल देता है। क्या-क्या दबा रखा है, तब तक मैं तुमसे बात भी नहीं करूंगा। यह जो द्वंद्व है, यह जो कांफ्लिक्ट है, यही मनुष्य का नरक है। क्योंकि तुम जो कहते हो, उसको सुनकर अगर मैं तुम्हारे साथ | द्वंद्व नरक है। कांफ्लिक्ट के अतिरिक्त और कोई नरक नहीं है। और मेहनत करूं, तो मेहनत व्यर्थ चली जाएगी। क्योंकि तुम जो कहते हम इसको बढ़ाए चले जाते हैं। जितना हम चुनते जाते हैं, बढ़ाए हो, पक्का नहीं है कि तुम वही हो, भीतर तुम कुछ और हो सकते | चले जाते हैं। हो। और अंतिम निष्कर्ष पर, तुम्हारे जो भीतर पड़ा है, वही तो कृष्ण इस सूत्र में कहते हैं, राग और द्वेष से-द्वंद्व से, निर्णायक है। कांफ्लिक्ट से-जो बाहर हो जाता है, जो चुनाव के बाहर हो जाता इसलिए कृष्ण कहते हैं, चुनना मत। क्योंकि चुनाव किया कि | है, वही जीवन के परम सत्य को जान पाता है। और जो द्वंद्व के भीतर गया वह; जिसे तुमने छोड़ा, दबाया, वह अंदर गया। और | भीतर घिरा रहता है, वह सिर्फ जीवन के नरक को ही जान पाता है। जिसे तुमने उभारा और स्वीकारा, वह ऊपर आया। बस, इससे | इस द्वंद्व-अतीत वीतरागता में ही निष्काम कर्म का फूल खिल ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। द्वंद्व बना ही रहेगा। और द्वंद्व क्या है? | सकता है। या निष्काम कर्म की भूमिका हो, तो यह द्वंद्वरहित, 205 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 गीता दर्शन भाग-1-m राग-द्वेषरहित, यह शून्य-चेतना फलित हो सकती है। | भी नहीं आती है कि किसकी तस्वीर है। कुछ पता भी नहीं चलता चेतना जब शून्य होती है, तभी शुद्ध होती है। यह शून्य का कृष्ण | कि क्या है। एक नाइटमेयरिश, एक दुख-स्वप्न जैसा चित्त हो का कहना! चेतना जब शून्य होती है, तभी शुद्ध होती है; जब शुद्ध जाता है। होती है, तब शून्य ही होती है। दर्पण तो फिर भी बेहतर है। एक तस्वीर बनती है, मिट जाती है, करीब-करीब ऐसा समझें कि एक दर्पण है। दर्पण कब शुद्धतम तब दूसरी बनती है। हमारा चित्त ऐसा दर्पण है, जो तस्वीरों को होता है? जब दर्पण में कुछ भी नहीं प्रतिफलित होता, जब दर्पण में पकड़ता ही चला जाता है; इकट्ठा करता चला जाता है; तस्वीरें ही कोई तस्वीर नहीं बनती। जब तक दर्पण में तस्वीर बनती है, तब तस्वीरें रह जाती हैं। तक कुछ फारेन, कुछ विजातीय दर्पण पर छाया रहता है। जब तक उर्दू के किसी कवि की एक पंक्ति है, जिसमें उसने कहा है कि दर्पण पर कोई तस्वीर बनती है, तब तक दर्पण सिर्फ दर्पण नहीं मरने के बाद घर से बस कुछ तस्वीरें ही निकली हैं। मरने के बाद होता, कुछ और भी होता है। एक तस्वीर निकलती है, दूसरी बन | हमारे घर से भी कुछ तस्वीरों के सिवाय निकलने को कुछ और नहीं जाती है। दूसरी निकलती है, तीसरी बन जाती है। दर्पण पर कुछ | है। जिंदगीभर तस्वीरों के संग्रह के अतिरिक्त हमारा कोई और कृत्य बहता रहता है। लेकिन जब कोई तस्वीर नहीं बनती, जब दर्पण नहीं है। सिर्फ दर्पण ही होता है, तब शून्य होता है। | कृष्ण कहते हैं, शून्य, निद्वंद्व चित्त...। छोड़ो तस्वीरों को, जानो चेतना सिर्फ दर्पण है। जब तक उस पर कोई तस्वीर बनती रहती | दर्पण को। मत करो चुनाव, क्योंकि चुनाव किया कि पकड़ा। है-कभी राग की, कभी विराग की; कभी मित्रता की, कभी शत्रुता | पकड़ो ही मत, नो क्लिगिंग। रह जाओ वही, जो हो। उस शून्य क्षण की; कभी बाएं की, कभी दाएं की-कोई न कोई तस्वीर बनती | में जो जाना जाता है, वही जीवन का परम सत्य है, परम ज्ञान है। रहती है, तो चेतना अशुद्ध होती है। लेकिन अगर कोई तस्वीर नहीं बनती, चेतना द्वंद्व के बाहर, चुनाव के बाहर होती है, तो शून्य हो जाती है। शून्य चेतना में क्या बनता है? जब दर्पण शून्य होता है, | प्रश्नः भगवान श्री, इस श्लोक में यह वार्तिक मिला, तब दर्पण ही रह जाता है। जब चेतना शून्य होती है, तो सिर्फ चैतन्य बहुत यथार्थ है। मगर एक मश्किल पड जाती है कि ही रह जाती है। त्रैगुण्यविषया वेदा। इसमें गीता सर्व वेद पर आक्षेप वह जो चैतन्य की शून्य प्रतीति है, वही ब्रह्म का अनुभव है। वह करती है कि वे त्रैगुण्य विषय से युक्त हैं! और दूसरा, जो शुद्ध चैतन्य की अनुभूति है, वही मुक्ति का अनुभव है। शून्य उत्तरार्ध में निर्योगक्षेम आत्मवान, तो आत्मवान होना और ब्रह्म, एक ही अनुभव के दो छोर हैं। इधर शून्य हुए, उधर ब्रह्म | न होना एक आंतरिक भाव है, तो श्रीकृष्ण उसको हुए। इधर दर्पण पर तस्वीरें बननी बंद हुई कि उधर भीतर से ब्रह्म | | योगक्षेम प्रवृत्ति की बाह्य घटना से क्यों जोड़ते हुए का उदय हुआ। ब्रह्म के दर्पण पर तस्वीरों का जमाव ही संसार है। दिखते हैं? मात्र आत्मवान होने से योगक्षेम की हम असल में दर्पण की तरह व्यवहार ही नहीं करते। हम तो | समस्या हल हो सकेगी? कैमरे की फिल्म की तरह व्यवहार करते हैं। कैमरे की फिल्म प्रतिबिंब को ऐसा पकड़ लेती है कि छोड़ती ही नहीं। फिल्म मिट जाती है, तस्वीर ही हो जाती है। कष्ण कहते हैं, समस्त वेद सगुण से, तीन गुणों से भरे अगर हम कोई ऐसा कैमरा बना सकें, बना सकते हैं, जिसमें कि | पृ० हैं, निर्गुण नहीं हैं। शब्द निर्गुण नहीं हो सकता; वेद ही एक तस्वीर के ऊपर दूसरी और दूसरी के ऊपर तीसरी ली जा सके। ८ नहीं, कृष्ण का शब्द भी निर्गुण नहीं हो सकता। और एक फिल्म पर अगर हजार तस्वीरें, लाख तस्वीरें ली जा सकें, तो जब वे कहते हैं समस्त वेद, तो उसका मतलब है समस्त शास्त्र, जो स्थिति उस फिल्म की होगी, वैसी स्थिति हमारे चित्त की है। उसका मतलब है समस्त वचन, उसका मतलब है समस्त ज्ञान, जो तस्वीरों पर तस्वीरें, तस्वीरों पर तस्वीरें इकट्ठी हो जाती हैं। कहा गया, वह कभी भी तीन गुणों के बाहर नहीं हो सकता। कनफ्यूजन के सिवाय कुछ नहीं शेष रहता। कोई शकल पहचान में | इसे ऐसा समझें कि जो भी अभिव्यक्त है, वह गुण के बाहर नहीं 206 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम, द्वंद्व और शास्त्र से - निष्काम, निर्द्वद्व और स्वानुभव की ओर 4 हो सकता। सिर्फ अव्यक्त, अनभिव्यक्त, अनमैनिफेस्टेड निर्गुण हो सकता है, व्यक्त तो सदा ही सगुण होगा। असल में व्यक्त होने के लिए गुण का सहारा लेना पड़ता है। व्यक्त होने के लिए गुण की रूपरेखा लेनी पड़ती है। व्यक्त होने के लिए गुण का माध्यम चुनना पड़ता है। जैसे ही कुछ व्यक्त होगा कि गुण की सीमा में प्रवेश कर जाएगा। वेद का अर्थ है, व्यक्त ज्ञान; वेद का अर्थ है, शब्द में सत्य । जब सत्य को शब्द में रखेंगे, तब सत्य की असीमता शेष न रह जाएगी, वह सीमित हो जाएगा। कितना ही बड़ा शब्द हो, तो भी सत्य को पूरा न घेर पाएगा, क्योंकि सत्य को पूरा घेरा नहीं जा सकता। कितनी ही बड़ी प्रतिमा हो, तो भी परमात्मा को पूरा न घेर पाएगी, क्योंकि परमात्मा को पूरा घेरा नहीं जा सकता। सब शब्द, सब व्यक्त सीमा बनाते हैं। गुणों की सीमा बनाते हैं। गुण से ही व्यक्त होगा। एक बीज में वृक्ष निर्गुण हो सकता है, निराकार हो सकता है । है, अभी कोई आकार नहीं है। लेकिन जब बीज फूटेगा और प्रकट होगा, तो वृक्ष आकार ले लेगा । . तो जहां वे कह रहे हैं वेद के संबंध में, वह समस्त वक्तव्य के संबंध में कही गई बात है । उसमें गीता भी समाहित हो गई है। तो ऐसा नहीं है कि गीता वेद की कोई उपेक्षा कर रही है। वेद में भी ऐसे वचन हैं, जो कहेंगे, शब्द से उसे नहीं कहा जा सकता। समस्त शास्त्रों की गहरी से गहरी कठिनाई यही है कि शास्त्र उसी को कहने की चेष्टा में संलग्न हैं, जो नहीं कहा जा सकता है। शास्त्र उसी को बताने में संलग्न हैं, जिसे बताने के लिए कोई उपाय नहीं है। शास्त्र उसी दिशा में इंगित कर रहे हैं, जो अदिशा है, जो दिशा नहीं है, नो-डायमेंशन है। अगर मुझे वृक्ष बताना हो, तो मैं इशारा कर दूं कि वह रहा। अगर मुझे तारा बताना हो, तो बता दूं कि वह रहा। लेकिन अगर मुझे परमात्मा बताना हो, तो अंगुली से नहीं बताया जा सकता, मुट्ठी बांधकर बताना पड़ेगा और कहना पड़ेगा, यह रहा । क्योंकि अंगुली तो समव्हेयर, कहीं बताएगी; और जो एवरीव्हेयर है, उसे अंगुली से नहीं बताया जा सकता। अंगुली से बताने में भूल हो जाने वाली है, क्योंकि अंगुली तो कहीं इशारा करती है उसको, बाकी जगह भी तो वही है। नानक गए मक्का। सो गए रात। पुजारी बहुत नाराज हुए। नानक को पकड़ा और कहा कि बड़े मूढ़ मालूम पड़ते हो ! पवित्र मंदिर की तरफ, परमात्मा की तरफ पैर करके सोते हो? तो नानक ने कहा कि मैं बड़ी मुसीबत में था; मैं भी बहुत सोचा, कोई उपाय नहीं मिला। तुम्हीं को मैं स्वतंत्रता देता हूं, तुम मेरे पैर उस तरफ कर दो, जहां परमात्मा न हो। वे पुजारी मुश्किल में पड़े होंगे। पुजारी हमेशा नानक जैसे आदमी से मिल जाए, तो मुश्किल में पड़ता है। क्योंकि पुजारी को धर्म का कोई पता नहीं होता। पुजारी को धर्म का कोई पता ही नहीं होता। उसे मंदिर का पता होता है। मंदिर की सीमा है। मुश्किल में डाल दिया। वही सवाल है नानक का। नानक कहते हैं, मेरे पैर उस तरफ कर दो, जहां परमात्मा न हो, मैं राजी । कहां करें पैर ? कहीं भी करेंगे, परमात्मा तो होगा। मंदिर नहीं होगा, काबा नहीं होगा, परमात्मा तो होगा। तो फिर काबा में जो परमात्मा है, वह उसी परमात्मा से समतुल नहीं हो सकता, जो सब जगह है। तो काबा का परमात्मा सगुण हो जाएगा। मंदिर का परमात्मा सगुण हो जाएगा। शब्द का परमात्मा सगुण हो जाएगा। शास्त्र का परमात्मा सगुण हो जाएगा। बोला, कहा, प्रकट हुआ सगुण हुआ। कृष्ण जो बोल रहे हैं, वह भी सगुण हो जाता है; बोलते ही सगुण हो जाता है। वेद की निंदा नहीं है वह, वेद की सीमा का निर्देश है। शब्द की निंदा नहीं है वह, शब्द की सीमा का निर्देश है। वचन की निंदा नहीं है वह, वचन की सीमा का निर्देश है। और वह निर्देश करना जरूरी है। लेकिन कितना ही निर्देश करो, आदमी बहरा है। अगर कृष्ण की बात सुन ले कि वेद में जो है, वह सब त्रिगुण के भीतर है, तो वह कहेगा, छोड़ो वेद को, गीता को पकड़ो। क्योंकि वेद में तो निर्गुण निराकार नहीं है, छोड़ो ! छोटा हो गया वेद, गीता को पकड़ो। लेकिन समझ ही नहीं पाया वह । अगर कृष्ण कहीं देखते होंगे, तो वे हंसते होंगे कि तुमने फिर दूसरा वेद बना लिया। यह सवाल | वेद का नहीं है, यह सवाल व्यक्त की सीमा का है। और दूसरी बात पूछी है कि अगर आत्मस्थिति को सीधा ही स्वीकार कर लिया जाए, तो उसे योगक्षेम से क्यों जोड़ते हैं? जोड़ते नहीं हैं, जुड़ी है। सिर्फ कहते हैं। जोड़ते नहीं हैं, जुड़ी है। जैसे एक दीया जले, तो दीया तो अपने में ही जलता है। अगर आस-पास कोई चीज न हो दिखाई पड़ने को, तो भी जलता है। दीए का जलना, दीए का प्रकाश से भरना, किन्हीं प्रकाशित चीजों पर निर्भर नहीं होता। लेकिन दीया जलता है, तो चीजें प्रकाशित होती 207 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1 AM हैं। जो भी आस-पास होगा, वह प्रकाशित होगा। पद्य में कहते हैं। पद्य हमारे गद्य की असमर्थता है। जब प्रोज़ में नहीं और बड़े मजे की बात है कि आपने कभी भी प्रकाश नहीं देखा कह पाते, तो पोएट्री निर्मित करते हैं। और जीवन में जो-जो गहरा है अब तक, सिर्फ प्रकाशित चीजें देखी हैं। प्रकाश नहीं देखा है है, वह गद्य में नहीं कहा जा सकता, इसलिए जीवन का सब गहरा किसी ने भी आज तक, सिर्फ प्रकाशित चीजें देखी हैं। प्रकाशित पद्य में, पोएट्री में कहा जाता है। चीजों की वजह से आप अनुमान करते हैं कि प्रकाश है। आप ___ यह पोएटिक एक्सप्रेशन है किसी अनुभूति का, मोहम्मद जहां सोचेंगे कि मैं क्या बात कह रहा हूं! हम सब ने प्रकाश देखा है। | भी जाते, वहां छाया पहुंच जाती। मोहम्मद जहां भी जाते, वहां फिर से सोचना, प्रकाश कभी किसी ने देखा ही नहीं। आस-पास के लोगों को ऐसा लगता जैसे रेगिस्तान, मरुस्थल के यह वृक्ष दिखता है सूरज की रोशनी में चमकता हुआ, इसलिए आदमी को लगेगा कि जैसे ऊपर कोई बादल आ गया हो और सब आप कहते हैं, सूरज की रोशनी है। फिर अंधेरा आ जाता है और | छाया हो गई हो। मोहम्मद जहां होते, वहां योगक्षेम फलित होता। वृक्ष नहीं दिखता है; आप कहते हैं, रोशनी गई। लेकिन आपने महावीर के बाबत कहा गया है कि महावीर अगर रास्ते से रोशनी नहीं देखी है। देखें आकाश की तरफ, चीजें दिखाई पड़ेंगी, चलते, तो कांटे अमर सीधे पड़े होते, तो उलटे हो जाते। कोई कांटा रोशनी कहीं दिखाई नहीं पड़ेगी। जहां भी है, जो भी दिखाई पड़ रहा | फिक्र नहीं करेगा; संभावना कम दिखाई पड़ती है। है, वह प्रकाशित है, प्रकाश नहीं। लेकिन जिन्होंने यह लिखा है, उन्होंने कुछ अनुभव किया है। कृष्ण के कहने का कारण है। वे कहते हैं, जब कोई शून्य | | महावीर के आस-पास सीधे कांटे भी उलटे हो जाएं–कांटे नहीं, आत्मस्थिति को उपलब्ध होता है, तो योगक्षेम फलित होते हैं। पर कांटापन। जिंदगी में बहुत कांटे हैं, बहुत तरह के कांटे हैं। रास्तों आपको योगक्षेम ही दिखाई पडेंगे। आपको आत्मस्थिति दिखाई पर बहत कांटे हैं। और महावीर के पास जो लोग आए हों, उन्हें नहीं पड़ेगी। उस आत्मस्थिति के पास जो घटना घटती है योगक्षेम | अचानक लगा हो कि अब तक जो कांटे सीधे चुभ रहे थे, वे की, वही दिखाई पड़ेगी। जब कोई व्यक्ति आनंद को उपलब्ध होता | एकदम उलटे हो गए, नहीं चुभ रहे हैं; योगक्षेम फलित हुआ हो, है, तो आपको उसके भीतर की स्थिति दिखाई नहीं पड़ेगी; उसके तो कविता कैसे कहे? आदमी कैसे कहे? आदमी कहता है कि ऐसा चारों तरफ सब आनंद से भर जाएगा, वही दिखाई पड़ेगा। जब कोई हो जाता है। लेकिन भूल होती है हमें। हमें तो यही दिखाई पड़ता । भीतर ज्ञान को उपलब्ध होता है, तो आपको उसके ज्ञान की स्थिति | | है। हम महावीर को पहचानेंगे भी कैसे कि वे महावीर हैं? हम कैसे दिखाई नहीं पड़ेगी, लेकिन उसके चारों तरफ ज्ञान की घटनाएं घटने पहचानेंगे कि बुद्ध बुद्ध हैं? लगेंगी, वही आपको दिखाई पड़ेगा। भीतर तो शुद्ध अस्तित्व ही रह | | तो बुद्ध के लिए हमने कहानियां गढ़ी हैं कि बुद्ध जिस गांव से जाएगा आत्मा का, लेकिन योगक्षेम उसके कांसिक्वेंसेस होंगे। । | निकलते हैं, वहां केशर की वर्षा हो जाती है। हो नहीं सकती, उस जैसे दीया जलेगा, और चीजें चमकने लगेंगी। चीजें न हों तो भी | केशर की नहीं, जो बाजार में बिकती है। लेकिन जिन लोगों के गांव दीया जल सकता है, लेकिन तब आपको दिखाई नहीं पड़ सकता | | से बुद्ध गुजरे हैं, उनको जरूर केशर की सुगंध जैसा, केशर है। अर्जुन आत्मवान होगा, यह उसकी भीतरी घटना है। अर्जुन का जैसा—उनके पास जो कीमती से कीमती शब्द रहा होगा-उसकी आत्मवान होना, चारों तरफ योगक्षेम के फूल खिला देगा; यह प्रतीति हुई, उसका एहसास हुआ है। कुछ बरसा है उस गांव में उसकी बाहरी घटना है। इसलिए वे दोनों का स्मरण करते हैं। और जरूर। और आदमी की भाषा में कोई और शब्द नहीं होगा, तो कहा हम कैसे पहचानेंगे जो बाहर खड़े हैं? वे आत्मवान को नहीं | | है, केशर बरस गई है। पहचानेंगे, योगक्षेम को पहचानेंगे। जब भीतर जीवन प्रकाशित होता है, तो बाहर भी प्रकाश की मोहम्मद के बाबत कहा जाता है कि मोहम्मद जहां भी चलते, किरणें लोगों को छूती हैं। वे जब लोगों को छूती हैं, तो योगक्षेम तो उनके ऊपर आकाश में एक बदली चलती साथ. छाया करती फलित होता है। हुई। कठिन मालूम पड़ती है बात। मोहम्मद जहां भी जाएं, तो उनके इसलिए कृष्ण कहते हैं और ठीक कहते हैं। कहना चाहिए। कहना ऊपर एक बदली चले और छाया करे! लेकिन आदमी के पास शब्द | | जरूरी है। क्योंकि एक व्यक्ति के जीवन में भी जब आत्मा की कमजोर हैं, इसलिए जो चीज गद्य में नहीं कही जा सकती, उसे हम घटना घटती है, तो उसके प्रकाश का वर्तुल दूर-दूर लोक-लोकांतर 208 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Om काम, द्वंद्व और शास्त्र से—निष्काम, निर्द्वद्व और स्वानुभव की ओर - तक फैल जाता है। और एक व्यक्ति के भीतर भी जो स्वर बजता | जिनके पास थोड़ा संवेदन से भरा हुआ मन है, जो रिस्पांसिव हैं, है आत्मा का, तो उसकी स्वरलहरी दूसरों के प्राणों को भी झंकार | वे ही पकड़ पाते हैं। से भर जाती है। और एक व्यक्ति के जीवन में जब आनंद फलित उसमें जो पकड़ में आता है, उसको कृष्ण कह रहे हैं योगक्षेम। होता है, तो दूसरों के जीवन में भी आनंद के फूल थोड़े-से जरूर | वे जो पकड़ पाते हैं, उनको पता लगता है, सब बदल गया। हवा बरस जाते हैं। | और हो गई, आकाश और हो गया, सब और हो गया। यह जो सब इसलिए अर्जुन को तो कहते हैं, तू आत्मवान हो जाएगा, | और हो जाने का अनुभव है, इस अनुभव को कृष्ण कह रहे हैं शक्ति-संपन्न हो जाएगा। लेकिन जब शक्ति-संपन्न होगा कोई, योगक्षेम। उसे स्मरण दिलाना उचित है। भीतर आत्मवान होगा कोई, तो इसे एक और दूसरी तरफ से देखने एक बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है कि वे कह रहे हैं, तू की कोशिश करें। शक्ति-संपन्न हो जाएगा। जब कोई व्यक्ति आत्महीन होता है, जब कोई व्यक्ति अपनी __ असल में मनुष्य तब तक शक्ति-संपन्न होता ही नहीं, जब तक आत्मा को खो देता है, तो कभी आपने खयाल किया है कि उसके | स्वयं होता है, तब तक वह शक्ति-विपन्न ही होता है। असल में आस-पास दुख, पीड़ा का जन्म होना शुरू हो जाता है! जब कोई | स्वयं होना, अहंकार-केंद्रित होना, दीन होने की रामबाण व्यवस्था एक व्यक्ति अपनी आत्मा को खोता है, तो अपने आस-पास दुख | है। जितना मैं अहंकार से भरा हूं, जितना मैं हूं, उतना ही मैं दीन हूं। का एक वर्तुल पैदा कर लेता है! निर्भर करेगा कि कितनी उसने | | जितना मेरा अहंकार छूटता और मैं आत्मवान होता हूं, जितना ही आत्मा खोई है। मैं मिटता, उतना ही मैं सर्व से एक होता हूं। तब शक्ति मेरी नहीं, __ अगर एक हिटलर जैसा आदमी पृथ्वी पर पैदा हो, तो विराट | ब्रह्म की हो जाती है। तब मेरे हाथ मुझसे नहीं चलते, ब्रह्म से चलते दुख का वर्तुल चारों ओर फलित होता है। योगक्षेम का पता ही नहीं हैं। तब मेरी वाणी मुझसे नहीं बोलती, ब्रह्म से बोलती है। तब मेरा चलता, सब खो जाता है। उससे उलटा घटित होने लगता है। उठना-बैठना मेरा नहीं, उसका ही हो जाता है। अकल्याण और अमंगल चारों ओर फैल जाता है। फैलेगा। चंगेज स्वभावतः, उससे बड़ी और शक्ति-संपन्नता क्या होगी? जिस खां जैसा आदमी पैदा होता है, तो जहां से गुजर जाता है, वहां केशर दिन व्यक्ति अपने को समर्पित कर देता सर्व के लिए, उस दिन सर्व नहीं बरसती, सिर्फ खून! सिर्फ खून ही बहता है। की सारी शक्ति उसकी अपनी हो जाती है। उस दिन होता है वह बरे आदमियों को हम भलीभांति पहचानते हैं। उनके आस-पास शक्ति-संपन्न। जो घटनाएं घटती हैं, उन्हें भी पहचानते हैं। स्वभावतः, बुरे आदमी शक्ति यहां पावर का प्रतीक नहीं है। शक्ति उन अर्थों में नहीं, के आस-पास जो घटना घटती है, वह बहुत मैटीरियल होती है, जैसे किसी पद पर पहुंचकर कोई आदमी शक्तिशाली हो जाता है; बहुत भौतिक होती है, दिखाई पड़ती है। कि कोई आदमी कल तक सड़क पर था, फिर मिनिस्टर हो गया, चंगेज खां निकले आपके गांव से, तो मुश्किल है कि आप न तो शक्तिशाली हो गया। यह शक्ति व्यक्ति में नहीं होती, यह देख पाएं। क्योंकि घटनाएं बहुत भौतिक, मैटीरियल घटेंगी। चंगेज | शक्ति पद में होती है। इसको कुर्सी से नीचे उतारो, यह फिर विपन्न खां जिस गांव से निकलता, उस गांव के सारे बच्चों को कटवा | हो जाता है। यह शक्ति इसमें होती ही नहीं, यह इसके कुर्सी पर डालता। भालों पर बच्चों के सिर लगवा देता। और जब चंगेज खां | | बैठने से होती है। से किसी ने पूछा कि तुम क्या कर रहे हो? दस-दस हजार बच्चे ___ कभी सर्कस में, कार्निवाल में आपने इलेक्ट्रिक चेयर देखी हो, भालों पर लटके हैं! तो चंगेज खां ने हंसकर कहा कि लोगों को | कुर्सी जो इलेक्ट्रिफाइड होती है। उस पर एक लड़की या लड़के को पता होना चाहिए कि चंगेज खां निकल रहा है। बिठा रखते हैं। वह लड़का भी इलेक्ट्रिफाइड हो जाता है। फिर उस बुद्ध भी निकलते हैं किसी गांव से, कृष्ण भी निकलते हैं किसी | लड़के को छुएं, तो शॉक लगता है। वह लड़के का शॉक नहीं है, गांव से, जीसस भी निकलते हैं किसी गांव से-घटनाएं | कुर्सी का शॉक है। लड़के को कुर्सी से बाहर उतारें, गया। मोरारजी इम्मैटीरियल घटती हैं, घटनाएं मैटीरियल नहीं होती। इसलिए | भाई कुर्सी पर और मोरारजी भाई कुर्सी के बाहर। इलेक्ट्रिफाइड जिनके पास थोड़ी संवेदनशील चेतना है, वे ही पकड़ पाते हैं। चेयर! सर्कस है! मगर वह जो कुर्सी पर बैठा हुआ लड़का या 209 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ am गीता दर्शन भाग-1 - लड़की है, जब आपको शॉक लगता है, तो उसकी शान देखें। वह का विसर्जन। तो निश्चित ही योगक्षेम फलित होता है। समझता है कि शायद मैं शॉक मार रहा हूं। कुर्सी के शॉक हैं। लेकिन आइडेंटिफाइड हो जाता है आदमी। पावर नहीं मतलब है कृष्ण की शक्ति का। कृष्ण की शक्ति का यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके। मतलब है, एनर्जी, ऊर्जा; जो पद से नहीं आती। असल में जो तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः । । ४६ ।। पद-मात्र छोड़ने से आती है। क्योंकि मनुष्य का, सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त अहंकार पद को खोजता है। जो अहंकार को ही छोड़ देता है. होने पर, छोटे जलाशय में जितना प्रयोजन रहता है, अच्छी उसके सब पद खो जाते हैं। उसके पास कोई पद नहीं रह जाता। प्रकार ब्रह्म को जानने वाले ब्राह्मण का भी सब वेदों में वह शून्य हो जाता है। उस शून्य में विराट गूंजने लगता है। उस उतना ही प्रयोजन रहता है। शून्य में विराट उतर आता है। उस शून्य में विराट के लिए द्वार मिल जाता है। तब वह एनर्जी है, पावर नहीं। तब वह ऊर्जा है, शक्ति है, उधार नहीं है। तब वह व्यक्ति मिटा और अव्यक्ति हो गया। कष्ण कह रहे हैं कि जैसे छोटे-छोटे नदी-तालाब हैं, तब व्यक्ति नहीं है, परमात्मा है। और ऐसी स्थिति से वापस लौटना | yा कुएं-पोखर हैं, झरने हैं, इन झरनों में नहाने से जो नहीं होता। ८ आनंद होता है, जो शुचिता मिलती है, ऐसी शुचिता ___ध्यान रखें, पावर से वापस लौटना होता है। पद से वापस तो सागर में नहाने से मिल ही जाती है अनेक गुना होकर। शब्दों के लौटना होता है, धन से वापस लौटना होता है। जो शक्ति भी किसी | | पोखर में, शास्त्रों के पोखर में जो मिलता है, उससे अनेक गुना ज्ञान कारण से मिलती है और अहंकार की खोज से मिलती है, उससे | | के सागर में मिल ही जाता है। वेद में जो मिलेगा-संहिता में, लौटना होता है। लेकिन जो शक्ति अहंकार को खोकर मिलती है, शास्त्र में, शब्द में वह ज्ञानी को ज्ञान में तो अनंत गुना होकर वह प्वाइंट आफ नो रिटर्न है, उससे वापस लौटना नहीं होता है। मिल ही जाता है। इसलिए एक बार व्यक्ति परमात्मा की शक्ति को जान लेता है, | । इसमें दो बातें ध्यान रखने जैसी हैं। एक तो यह कि जो सीमा में एक हो जाता है, वह सदा के लिए शक्ति-संपन्न हो जाता है। शायद मिलता है, वह असीम में मिल ही जाता है। इसलिए असीम के लिए यह कहना ठीक नहीं है कि शक्ति-संपन्न हो जाता है, उचित यही सीमित को छोड़ने में भय की कोई भी आवश्यकता नहीं है। अगर होगा कहना कि वह शक्ति-संपन्नता हो जाता है। शक्ति-संपन्न हो | ज्ञान के लिए वेद को छोड़ना हो, तो कोई चिंता की बात नहीं है। जाता है, तो ऐसा खयाल बनता है कि वह भी बचता है। नहीं, यह | सत्य के लिए शब्द को छोड़ना हो, तो कोई चिंता की बात नहीं है। कहना ठीक नहीं है कि वह शक्ति-संपन्न हो जाता है, यही कहना | अनुभव के लिए शास्त्र को छोड़ना हो, तो कोई चिंता की बात नहीं ठीक है कि वह शक्ति हो जाता है। और ऐसी शक्ति अगर पद की | है—पहली बात। क्योंकि जो मिलता है यहां, उससे अनंत गुना है, धन की है, तो योगक्षेम फलित नहीं होंगे। ऐसी शक्ति अगर वहां मिल ही जाता है। परमात्मा की है, तो योगक्षेम फलित होंगे। दूसरी बात, सागर में जो मिलता है, ज्ञान में जो मिलता है, ___ इसलिए भी योगक्षेम की बात कर लेनी उचित है। क्योंकि ऐसी असीम में जो मिलता है, उस असीम में मिलने वाले को सीमित के शक्तियां भी हैं, जिनसे योगक्षेम से उलटा फलित होता है। लिए छोड़ना बहुत खतरनाक है। अपने घर के कुएं के लिए सागर पावर-पालिटिक्स है सारी दुनिया में। जब भी कोई आदमी | | को छोड़ना बहुत खतरनाक है। माना कि घर का कुआं है, अपना पोलिटिकली पावरफुल होने की यात्रा करता है, तो योगक्षेम फलित | | है, बचपन से जाना, परिचित है, फिर भी कुआं है। घरों में कुएं से नहीं होता है। उससे उलटा ही फलित होता है। अमंगल ही फलित | ज्यादा सागर हो भी नहीं सकते। सागरों तक जाना हो तो घरों को होता है। दुख ही फलित होता है। छोड़ना पड़ता है। घरों में कुएं ही हो सकते हैं। तो शक्ति का यह स्मरण रहे. भेद खयाल में रहे. शक्ति का अर्थ __ हम सबके अपने-अपने घर हैं, अपने-अपने वेद हैं, अपनेपावर नहीं, एनर्जी। शक्ति का अर्थ अहंकार की खोज नहीं, अहंकार अपने शास्त्र हैं, अपने-अपने धर्म हैं, अपने-अपने संप्रदाय हैं, Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m+ काम, द्वंद्व और शास्त्र से निष्काम, निद्वंद्व और स्वानुभव की ओर HAR अपने-अपने मोहग्रस्त शब्द हैं। हम सबके अपने-अपने-कोई है, लेकिन अपना। मुसलमान है, कोई हिंदू है, कोई ईसाई है-सबके अपने वेद हैं। ___ मैं अपनी आंख से देख रहा हूं, यह ज्ञान है। मैं अंधा हूं, आप कोई इस मूर्ति का पूजक, कोई उस मूर्ति का पूजक; कोई इस मंत्र | | देखते हैं और मुझे कहते हैं, यह शास्त्र है। नहीं कि आप गलत का भक्त, कोई उस मंत्र का भक्त है। सबके अपने-अपने कुएं हैं। | कहते हैं। ऐसा नहीं कि आप गलत ही कहते हैं। लेकिन आप कहते कृष्ण यहां कह रहे हैं, इनके लिए सागर को छोड़ना खतरनाक | | हैं, आप देखते हैं। आप जो आंख से करते हैं, वह मैं कान से कर है। हां, इससे उलटा, वाइस-वरसा हो सकता है। सागर के लिए | | रहा हूं। फर्क पड़ने वाला है। कान आंख का काम नहीं कर सकता। इनको छोड़ने में कोई भी हर्ज नहीं है। क्योंकि जो इनमें मिलेगा. वह । इसलिए शास्त्र के जो पराने नाम हैं. वे बहत बढिया हैं। श्रति. अनंत गुना होकर सागर में मिल ही जाता है। | सुना हुआ देखा हुआ नहीं। स्मृति, सुना हुआ, स्मरण किया इसलिए वह व्यक्ति अभागा है, जो अपने घर के कुएं के हुआ, याद किया हुआ, मेमोराइज्ड-जाना हुआ नहीं। सब शास्त्र लिए—बाइबिल, कुरान, वेद, गीता...गीता भी! गीता का कृष्ण | | श्रुति और स्मृति हैं। किसी ने जाना और कहा। हमने जाना नहीं और ने उल्लेख नहीं किया, कैसे करते! क्योंकि जो वे कह रहे थे, वही सुना। जो उसकी आंख से हुआ, वह हमारे कान से हुआ। शास्त्र गीता बनने वाला था। गीता तब तक थी नहीं। मैं उल्लेख करता हूं, कान से आते हैं, सत्य आंख से आता है। सत्य दर्शन है, शास्त्र गीता भी! जो इनमें मिलता है, इससे अनंत गुना होकर ज्ञान में मिल श्रुति हैं। ही जाता है। इसलिए जो इनके कारण ज्ञान के लिए रुकावट बनाए, | | दूसरे का अनुभव, कुछ भी उपाय करूं मैं, मेरा अनुभव नहीं है। इनके पक्ष में ज्ञान को छोड़े, वह अभागा है। लेकिन जो ज्ञान के हां, दूसरे का अनुभव उपयोगी हो सकता है। इसी अर्थ में उपयोगी लिए इन सबको छोड़ दे, वह सौभाग्यशाली है। क्योंकि जो इनमें हो सकता है-इस अर्थ में नहीं कि मैं उस पर भरोसा का लूं, मिलेगा, वह ज्ञान में मिल ही जाने वाला है। विश्वास कर लूं, अंधश्रद्धालु हो जाऊं; इस अर्थ में तो दुरुपयोग . लेकिन क्या मतलब है? ज्ञान का और वेद का, ज्ञान का और | | ही हो जाएगा; हिन्डेंस बनेगा, बाधा बनेगा-इस अर्थ में उपयोगी शास्त्र का फासला क्या है? भेद क्या है? हो सकता है कि दूसरे ने जो जाना है, उसे जानने की संभावना का गहरा फासला है। जो जानते हैं, उन्हें बहुत स्पष्ट दिखाई पड़ता द्वार मेरे लिए भी खुलता है। जो दूसरे को हो सका है, वह मेरे लिए है। जो नहीं जानते हैं, उन्हें दिखाई पड़ना बहुत मुश्किल हो जाता भी हो सकता है, इसका आश्वासन मिलता है। जो दूसरे के लिए है। क्योंकि किन्हीं भी दो चीजों का फासला जानने के लिए दोनों | हो सका, वह क्यों मेरे लिए नहीं हो सकेगा, इसकी प्रेरणा। जो दूसरे चीजों को जानना जरूरी है। जो एक ही चीज को जानता है, दूसरे | के लिए हो सका, वह मेरे भीतर छिपी हुई प्यास को जगाने का को जानता ही नहीं, फासला कैसे निर्मित करे? कैसे तय करे? कारण हो सकता है। लेकिन बस इतना ही। जानना तो मुझे ही ___ हम शास्त्र को ही जानते हैं, इसलिए हम जो फासले निर्मित करते | पड़ेगा। जानना मुझे ही पड़ेगा, जीना मुझे ही पड़ेगा, उस सागर-तट हैं, ज्यादा से ज्यादा दो शास्त्रों के बीच करते हैं। हम कहते हैं, कुरान | तक मुझे ही पहुंचना पड़ेगा। कि बाइबिल, वेद कि गीता, कि महावीर कि बुद्ध, कि जीसस कि | | एक और मजे की बात है कि घर में जो कुएं हैं, वे बनाए हुए जरथुस्त्र। हम जो फासले तय करते हैं, वे फासले ज्ञान और शास्त्र होते हैं, सागर बनाया हुआ नहीं होता। आपके पिता ने बनाया होगा के बीच नहीं होते, शास्त्र और शास्त्र के बीच होते हैं। क्योंकि हम घर का कुआं, उनके पिता ने बनाया होगा, किसी ने बनाया होगा। शास्त्रों को जानते हैं। असली फासला शास्त्र और शास्त्र के बीच जिसने बनाया होगा, उसे एक सीक्रेट का पता है, उसे एक राज का नहीं है, असली फासला शास्त्रों और ज्ञान के बीच है। उस दिशा में पता है कि कहीं से भी जमीन को तोड़ो, सागर मिल जाता है। कुआं थोड़ी-सी सूचक बातें खयाल ले लेनी चाहिए। है क्या? जस्ट ए होल, सिर्फ एक छेद है। आप यह मत समझना ज्ञान वह है, जो कभी भी, कभी भी अनुभव के बिना नहीं होता | कि पानी कुआं है। पानी तो सागर ही है, कुआं तो सिर्फ उस सागर है। ज्ञान यानी अनुभव, और अनुभव तो सदा अपना ही होता है, | | में झांकने का आपके आंगन में उपाय है। सागर तो है ही नीचे फैला दूसरे का नहीं होता। अनुभव यानी अपना। शास्त्र भी अनुभव है, | | हुआ। वही है। जहां भी जल है, वहीं सागर है। हां, आपके आंगन लेकिन दूसरे का। शास्त्र भी ज्ञान है, लेकिन दूसरे का। ज्ञान भी ज्ञान | | में एक छेद खोद लेते हैं आप। कुएं से पानी नहीं खोदते, कुएं से 21] Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m गीता दर्शन भाग-1 - सिर्फ मिट्टी अलग करते हैं, परत तोड़ देते हैं, एक छेद हो जाता है; अपने ही घर में सागर को झांकने का उपाय हो जाता है। लेकिन कुआं बनाया हुआ है। और अगर कुआं इसकी खबर लाए-रिमेंबरेंस-कि सागर भी है और सागर की यात्रा करवा दे, तब तो कुआं सहयोगी हो जाता है। और अगर कुआं ही सागर बन जाए और हम सोचें कि यही रहा सागर, तो फिर सागर की, असीम की यात्रा नहीं हो पाती; फिर हम कुएं के किनारे ही बैठे समाप्त होते हैं। शास्त्र कुएं हैं। जो जानते हैं, खोदते हैं। और शब्द की सीमा में छेद बनाते हैं। जो कहा जा सकता है, उसकी सीमा में छेद बनाते हैं। और अनकहे की थोड़ी-सी झलक, थोड़ा-सा दर्शन करवाते हैं। इस आशा में कि इसको देखकर अनंत की यात्रा पर कोई निकलेगा। इसलिए नहीं कि इसे देखकर कोई बैठ जाएगा और तृप्त हो जाएगा। कुआं सागर है, सीमा में बंधा। सागर कुआं है, असीम में मुक्त। शास्त्र ज्ञान है, सीमा में बंधा। ज्ञान शास्त्र है, असीम में मुक्त। तो कृष्ण जब वेद की, शब्द की बात कर रहे हैं, तो निंदा नहीं है. सिर्फ निर्देश है। और निर्देश स्मरण में रखने योग्य है। अभी इतना ही। फिर सांझ बात करेंगे। 212 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 1-2 चौदहवां प्रवचन फलाकांक्षारहित कर्म, जीवंत समता और परम पद Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm गीता दर्शन भाग-1 AM ॥याा कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । | भी होगी, सूरज भी उगेगा, हम भी होंगे, लेकिन वचन को पूरा करने मा कर्मफलहेतुर्भूमा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ।। ४७ ।। | की आकांक्षा होगी? जरूरी नहीं है। एक छोटी-सी कहानी कहूं। इससे तेरा कर्म करने मात्र में ही अधिकार होवे, फल में सुना है मैंने कि चीन में एक सम्राट ने अपने मुख्य वजीर को, कभी नहीं, और तू कमों के फल की वासना वाला भी मत | बड़े वजीर को फांसी की सजा दे दी। कुछ नाराजगी थी। लेकिन हो तथा तेरी कर्म न करने में भी प्रीति न होवे। | नियम था उस राज्य का कि फांसी के एक दिन पहले स्वयं सम्राट फांसी पर लटकने वाले कैदी से मिले, और उसकी कोई आखिरी आकांक्षा हो तो पूरी कर दे। निश्चित ही, आखिरी आकांक्षा जीवन क र्मयोग का आधार-सूत्रः अधिकार है कर्म में, फल में को बचाने की नहीं हो सकती थी। वह बंदिश थी। उतनी भर पर नहीं; करने की स्वतंत्रता है, पाने की नहीं। क्योंकि आकांक्षा नहीं हो सकती थी। करना एक व्यक्ति से निकलता है, और फल समष्टि सम्राट पहुंचा कल सुबह फांसी होगी—आज संध्या, और से निकलता है। मैं जो करता हूं, वह मुझसे बहता है; लेकिन जो अपने वजीर से पूछा कि क्या तुम्हारी इच्छा है? पूरी करूं! क्योंकि होता है, उसमें समस्त का हाथ है। करने की धारा तो व्यक्ति की | कल तुम्हारा अंतिम दिन है। वजीर एकदम दरवाजे के बाहर की तरफ है, लेकिन फल का सार समष्टि का है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, | | देखकर रोने लगा। सम्राट ने कहा, तुम और रोते हो? कभी मैं करने का अधिकार है तुम्हारा, फल की आकांक्षा अनधिकृत है। | | कल्पना भी नहीं कर सकता, तुम्हारी आंखें और आंसुओं से भरी! लेकिन हम उलटे चलते हैं, फल की आकांक्षा पहले और कर्म | बहुत बहादुर आदमी था। नाराज सम्राट कितना ही हो, उसकी पीछे। हम बैलगाड़ी को आगे और बैलों को पीछे बांधते हैं। कृष्ण बहादुरी पर कभी शक न था। तुम और रोते हो! क्या मौत से डरते कह रहे हैं, कर्म पहले, फल पीछे आता है-लाया नहीं जाता। | हो? उस वजीर ने कहा, मौत! मौत से नहीं रोता, रोता किसी और लाने की कोई सामर्थ्य मनुष्य की नहीं है; करने की सामर्थ्य मनुष्य | | बात से हूं। सम्राट ने कहा, बोलो, मैं पूरा कर दूं। वजीर ने कहा, की है। क्यों? ऐसा क्यों है? क्योंकि मैं अकेला नहीं हूं, विराट है। नहीं, वह पूरा नहीं हो सकेगा, इसलिए जाने दें। सम्राट जिद्द पर मैं सोचता हूं, कल सुबह उलूंगा, आपसे मिलूंगा। लेकिन कल अड़ गया कि क्यों नहीं हो सकेगा? आखिरी इच्छा मुझे पूरी ही . सुबह सूरज भी उगेगा? कल सुबह भी होगी? जरूरी नहीं है कि | करनी है। कल सुबह हो ही। मेरे हाथ में नहीं है कि कल सूरज उगे ही। एक तो उस वजीर ने कहा, नहीं मानते हैं तो सुन लें, कि आप जिस दिन तो ऐसा जरूर आएगा कि सूरज डूबेगा और उगेगा नहीं। वह घोड़े पर बैठकर आए हैं, उसे देखकर रोता हूं। सम्राट ने कहा, पागल दिन कल भी हो सकता है। | हो गए ? उस घोड़े को देखकर रोने जैसा क्या है? वजीर ने कहा, मैंने वैज्ञानिक कहते हैं कि अब यह सूरज चार हजार साल से ज्यादा | | एक कला सीखी थी; तीस वर्ष लगाए उस कला को सीखने में। वह नहीं चलेगा। इसकी उम्र चुकती है। यह भी बूढ़ा हो गया है। इसकी | कला थी कि घोड़ों को आकाश में उड़ना सिखाया जा सकता है, किरणें भी बिखर चुकी हैं। रोज बिखरती जा रही हैं न मालूम | | लेकिन एक विशेष जाति के घोड़े को। उसे खोजता रहा, वह नहीं कितने अरबों वर्षों से! अब उसके भीतर की भट्ठी चुक रही है, अब मिला। और कल सुबह मैं मर रहा हूं, जो सामने घोड़ा खड़ा है, वह उसका ईंधन चुक रहा है। चार हजार साल हमारे लिए बहुत बड़े हैं, उसी जाति का है, जिस पर आप सवार होकर आए हैं। सूरज के लिए ना-कुछ। चार हजार साल में सूरज ठंडा पड़ | सम्राट के मन को लोभ पकड़ा। आकाश में घोड़ा उड़ सके, तो जाएगा-किसी भी दिन। जिस दिन ठंडा पड़ जाएगा, उस दिन | | उस सम्राट की कीर्ति का कोई अंत न रहे पृथ्वी पर। उसने कहा, उगेगा नहीं; उस दिन सुबह नहीं होगी। उसकी पहली रात भी लोगों | | फिक्र छोड़ो मौत की! कितने दिन लगेंगे, घोड़ा आकाश में उड़ना ने वचन दिए होंगे कि कल सुबह आते हैं—निश्चित। | सीख सके? कितना समय लगेगा? उस वजीर ने कहा, एक वर्ष। लेकिन छोड़ें! सूरज चार हजार साल बाद डूबेगा और नहीं सम्राट ने कहा, बहुत ज्यादा समय नहीं है। अगर घोड़ा उड़ सका उगेगा। हमारा क्या पक्का भरोसा है कि कल सुबह हम ही उगेंगे! | तो ठीक, अन्यथा मौत एक साल बाद। फांसी एक साल बाद भी कल सुबह होगी, पर हम होंगे? जरूरी नहीं है। और कल सुबह लग सकती है, अगर घोड़ा नहीं उड़ा। अगर उड़ा तो फांसी से भी 214 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IY फलाकांक्षारहित कर्म, जीवंत समता और परम पद - बच जाओगे, आधा राज्य भी तुम्हें भेंट कर दूंगा। | जितना फलाकांक्षा से मुक्त चित्त, उतना ही पूर्णकर्मी होता है। . वजीर घोड़े पर बैठकर घर आ गया। पत्नी-बच्चे रो रहे थे, | क्योंकि उसके पास कर्म ही बचता है, फल तो होता नहीं, जिसमें बिलख रहे थे। आखिरी सत थी। घर आए वजीर को देखकर सब बंटवारा कर सके। सारी चेतना, सारा मन, सारी शक्ति, सब कुछ चकित हुए। कहा, कैसे आ गए? वजीर ने कहानी बताई। पत्नी और इसी क्षण, अभी कर्म पर लग जाती है। जोर से रोने लगी। उसने कहा, तुम पागल तो नहीं हो? क्योंकि मैं | स्वभावतः, जिसका सब कुछ कर्म पर लग जाता है, उसके फल भलीभांति जानती हूं, तुम कोई कला नहीं जानते, जिससे घोड़ा उड़ना | के आने की संभावना बढ़ जाती है। स्वभावतः, जिसका सब कुछ सीख सके। व्यर्थ ही झूठ बोले। अब यह साल तो हमें मौत से भी | कर्म पर नहीं लगता, उसके फल के आने की संभावना कम हो बदतर हो जाएगा। और अगर मांगा ही था समय. तो इतनी कंजसी | जाती है। क्या की? बीस, पच्चीस, तीस वर्ष मांग सकते थे। एक वर्ष तो ऐसे ___ इसलिए तीसरा सूत्र आपसे कहता हूं कि जो जितनी फलाकांक्षा चुक जाएगा कि अभी आया अभी गया, रोते-रोते चुक जाएगा।। | से भरा है, उतनी ही फल के आने की उम्मीद कम है। और जिसने उस वजीर ने कहा, फिक्र मत कर; एक वर्ष बहुत लंबी बात है। जितनी फल की आकांक्षा छोड़ दी है, उतनी ही फल के आने की शायद, शायद बुद्धिमानी के बुनियादी सूत्र का उसे पता था। और उम्मीद ज्यादा है। यह जगत बहुत उलटा है। और परमात्मा का ऐसा ही हुआ। वर्ष बड़ा लंबा शुरू हुआ। पत्नी ने कहा, कैसा गणित साधारण गणित नहीं है, बहुत असाधारण गणित है। लंबा! अभी चुक जाएगा। वजीर ने कहा, क्या भरोसा है कि मैं बचूं ___ जीसस का एक वचन है कि जो बचाएगा, उससे छीन लिया वर्ष में? क्या भरोसा है, घोड़ा बचे? क्या भरोसा है, राजा बचे? | जाएगा। जो दे देगा, उसे सब कुछ दे दिया जाएगा। जीसस ने कहा बहुत-सी कंडीशंस पूरी हों, तब वर्ष पूरा होगा। और ऐसा हुआ कि | है, जो अपने को बचाता है, व्यर्थ ही अपने को खोता है। क्योंकि नवजार बचा, न घोड़ा बचा, न राजा बचा। वह वर्ष के पहले तीनों उसे परमात्मा के गणित का पता नहीं है। जो अपने को खोता है, ही मर गए। वह पूरे परमात्मा को ही पा लेता है। कल की कोई भी अपेक्षा नहीं की जा सकती। फल सदा कल है, | तो जब कर्म का अधिकार है और फल की आकांक्षा व्यर्थ है, फल सदा भविष्य में है। कर्म सदा अभी है, यहीं। कर्म किया जा | ऐसा कृष्ण कहते हैं, तो यह मत समझ लेना कि फल मिलता नहीं; सकता है। कर्म वर्तमान है, फल भविष्य है। इसलिए भविष्य के | ऐसा भी मत समझ लेना कि फल का कोई मार्ग नहीं है। कर्म ही लिए आशा बांधनी, निराशा बांधनी है। कर्म अभी किया जा सकता | फल का मार्ग है; आकांक्षा, फल की आकांक्षा, फल का मार्ग नहीं है, अधिकार है। वर्तमान में हम हैं। भविष्य में हम होंगे, यह भी | है। इसलिए कृष्ण जो कहते हैं, उससे फल की अधिकतम, तय नहीं। भविष्य में क्या होगा, कुछ भी तय नहीं। हम अपनी ओर आप्टिमम संभावना है मिलने की। और हम जो करते हैं, उससे से कर लें, इतना काफी है। हम मांगें न, हम अपेक्षा न रखें, हम फल के खोने की मैक्सिमम, अधिकतम संभावना है और लघुतम, फल की प्रतीक्षा न करें, हम कर्म करें और फल प्रभु पर छोड़ मिनिमम मिलने की संभावना है। दें-यही बुद्धिमानी का गहरे से गहरा सूत्र है। जो फल की सारी ही चिंता छोड़ देता है, अगर धर्म की भाषा में इस संबंध में यह बहुत मजेदार बात है कि जो लोग जितनी ज्यादा | कहें, तो कहना होगा, परमात्मा उसके फल की चिंता कर लेता है। फल की आकांक्षा करते हैं, उतना ही कम कर्म करते हैं। असल में असल में छोड़ने का भरोसा इतना बड़ा है, छोड़ने का संकल्प इतना फल की आकांक्षा में इतनी शक्ति लग जाती है कि कर्म करने योग्य बड़ा है, छोड़ने की श्रद्धा इतनी बड़ी है कि अगर इतनी बड़ी श्रद्धा बचती नहीं। असल में फल की आकांक्षा में मन इतना उलझ जाता के लिए भी परमात्मा से कोई प्रत्युत्तर नहीं है, तो फिर परमात्मा नहीं है, भविष्य की यात्रा पर इतना निकल जाता है कि वर्तमान में होता | हो सकता है। इतनी बड़ी श्रद्धा के लिए कि कोई कर्म करता है ही नहीं। असल में फल की आकांक्षा में चित्त ऐसा रस से भर जाता और फल की बात ही नहीं करता, कर्म करता है और सो जाता है है कि कर्म विरस हो जाता है, रसहीन हो जाता है। | और फल का स्वप्न भी नहीं देखता-इतनी बड़ी श्रद्धा से भरे हुए इसलिए यह बहुत मजे का दूसरा सूत्र आपसे कहता हूं कि चित्त को भी अगर फल न मिलता हो, तो फिर परमात्मा के होने का जितना फलाकांक्षा से भरा चित्त, उतना ही कर्महीन होता है। और कोई कारण नहीं है। इतनी श्रद्धा से भरे चित्त के चारों ओर से समस्त 215] Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ im गीता दर्शन भाग-1 - शक्तियां दौड़ पड़ती हैं। छोड़ा था। उनकी तरफ से कोई कोर-कसर न थी। लेकिन हम सभी और जब आप फलाकांक्षा करते हैं, तब आपको पता है, आप | | कर्म करने वालों को, अज्ञात भी बीच में उतर आता है, इसका कभी अश्रद्धा कर रहे हैं। शायद इसको कभी सोचा न हो कि फलाकांक्षा कोई पता नहीं है। वह जो कष्ण की कथा है. वह अज्ञात के उतरने अश्रद्धा, गहरी से गहरी अनास्था, और गहरी से गहरी नास्तिकता की कथा है। अज्ञात के भी हाथ हैं, जो हमें दिखाई नहीं पड़ते। है। जब आप कहते हैं, फल भी मिले, तो आप यह कह रहे हैं कि । हम ही नहीं हैं इस पृथ्वी पर। मैं अकेला नहीं हूं। मेरी अकेली अकेले कर्म से निश्चय नहीं है फल का; मुझे फल की आकांक्षा भी | आकांक्षा नहीं है, अनंत आकांक्षाएं हैं। और अनंत की भी आकांक्षा करनी पड़ेगी। आप कहते हैं, दो और दो चार जोड़ता तो हूं, जुड़कर | है। और उन सब के गणित पर अंततः तय होगा कि क्या हुआ। चार हों भी। इसका मतलब यह है कि दो और दो जुड़कर चार होते | अकेला दुर्योधन ही नहीं है नग्न करने में, द्रौपदी भी तो है जो नग्न हैं, ऐसे नियम की कोई भी श्रद्धा नहीं है। हों भी, न भी हों! की जा रही है। द्रौपदी की भी तो चेतना है, द्रौपदी का भी तो जितना अश्रद्धालु चित्त है, उतना फलातुर होता है। जितना श्रद्धा अस्तित्व है। और अन्याय होगा यह कि द्रौपदी वस्तु की तरह प्रयोग से परिपर्ण चित्त है, उतना फल को फेंक देता है जाने समष्टि की जाए। उसके पास भी चेतना है और व्यक्ति है: उसके पास भी जाने जगत, जाने विश्व की चेतना। मेरा काम पूरा हुआ, अब शेष | संकल्प है। साधारण स्त्री नहीं है द्रौपदी। काम उसका है। सच तो यह है कि द्रौपदी के मुकाबले की स्त्री पूरे विश्व के फल की आकांक्षा वही छोड़ सकता है, जो इतना स्वयं पर, स्वयं | इतिहास में दूसरी नहीं है। कठिन लगेगी बात। क्योंकि याद आती के कर्म पर श्रद्धा से भरा है। और स्वभावतः जो इतनी श्रद्धा से भरा | है सीता की, याद आती है सावित्री की। और भी बहुत यादें हैं। फिर है, उसका कर्म पूर्ण हो जाता है, टोटल हो जाता है-टोटल एक्ट। | भी मैं कहता हूं, द्रौपदी का कोई मुकाबला ही नहीं है। द्रौपदी बहुत और जब कर्म पूर्ण होता है, तो फल सुनिश्चित है। लेकिन जब चित्त | ही अद्वितीय है। उसमें सीता की मिठास तो है ही, उसमें क्लियोपेट्रा बंटा होता है फल के लिए और कर्म के लिए, तब जिस मात्रा में | का नमक भी है। उसमें क्लियोपेट्रा का सौंदर्य तो है ही, उसमें गार्गी फल की आकांक्षा ज्यादा है, कर्म का फल उतना ही अनिश्चित है। | का तर्क भी है। असल में पूरे.महाभारत की धुरी द्रौपदी है। वह सारा सुबह एक मित्र आए। उन्होंने एक बहुत बढ़िया सवाल उठाया। युद्ध उसके आस-पास हुआ है। मैं तो चला गया। शायद परसों मैंने कहीं कहा कि एक छोटे-से | । लेकिन चूंकि पुरुष कथाएं लिखते हैं, इसलिए कथाओं में मजाक से महाभारत पैदा हुआ। एक छोटे-से व्यंग्य से द्रौपदी के, पुरुष-पात्र बहुत उभरकर दिखाई पड़ते हैं। असल में दुनिया की महाभारत पैदा हुआ। छोटा-सा व्यंग्य द्रौपदी का ही, दुर्योधन के | कोई महाकथा स्त्री की धुरी के बिना नहीं चलती। सब महाकथाएं मन में तीर की तरह चुभ गया और द्रौपदी नग्न की गई, ऐसा मैंने | | स्त्री की धुरी पर घटित होती हैं। वह बड़ी रामायण सीता की धुरी कहा। मैं तो चला गया। उन मित्र के मन में बहुत तूफान आ गया | | पर घटित हुई है; उसमें केंद्र में सीता है। राम और रावण तो ट्राएंगल होगा। हमारे मन भी तो बहुत छोटे-छोटे प्यालियों जैसे हैं, जिनमें के दो छोर हैं; धुरी पर सीता है। बहत छोटे-से हवा के झोंके से तफान आ जाता है-चाय की ये कौरव और पांडव और यह सारा परा महाभारत और यह सारा प्याली से ज्यादा नहीं! तूफान आ गया होगा। मैं तो चला गया, मंच युद्ध द्रौपदी की धुरी पर घटा है। उस युग की और सारे युगों की पर वे चढ़ आए होंगे। उन्होंने कहा, तद्दन खोटी बात छे, बिलकुल | | सुंदरतम स्त्री है वह। नहीं, आश्चर्य नहीं है कि दुर्योधन ने भी उसे झूठी बात है; द्रौपदी कभी नग्न नहीं की गई। | चाहा हो। असल में, उस युग में कौन पुरुष होगा जिसने उसे न द्रौपदी नग्न की गई; हुई नहीं—यह दूसरी बात है। द्रौपदी पूरी | | चाहा हो! उसका अस्तित्व उसके प्रति चाह पैदा करने वाला था। तरह नग्न की गई; हुई नहीं—यह बिलकुल दूसरी बात है। करने | दुर्योधन ने भी उसे चाहा है और फिर वह चली गई अर्जुन के हाथ। वालों ने कोई कोर-कसर न छोड़ी थी। करने वालों ने सारी ताकत __ और यह भी बड़े मजे की बात है कि द्रौपदी को पांच भाइयों में लगा दी थी। लेकिन फल आया नहीं, किए हुए के अनुकूल नहीं बांटना पड़ा। कहानी बड़ी सरल है, उतनी सरल घटना नहीं हो आया फल—यह दूसरी बात है। सकती। कहानी तो इतनी ही सरल है कि अर्जुन ने आकर बाहर से असल में, जो द्रौपदी को नग्न करना चाहते थे, उन्होंने क्या रख कहा कि मां देखो, हम क्या ले आए हैं! और मां ने कहा, जो भी 216 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - फलाकांक्षारहित कर्म, जीवंत समता और परम पद - ले आए हो, वह पांचों भाई बांट लो। लेकिन इतनी सरल घटना हो | | तरफ जो स्त्री खड़ी है हंसने वाली, वह कोई साधारण स्त्री नहीं है। नहीं सकती। क्योंकि जब बाद में मां को भी तो पता चला होगा कि | उसका भी अपना संकल्प है, अपना विल है। उसकी भी अपनी यह मामला वस्तु का नहीं, स्त्री का है। यह कैसे बांटी जा सकती सामर्थ्य है; उसकी भी अपनी श्रद्धा है; उसका भी अपना होना है। है! तो कौन-सी कठिनाई थी कि कुंती कह देती कि भूल हुई। मुझे उसकी उस श्रद्धा में, वह जो कथा है, वह कथा तो काव्य है कि क्या पता कि तुम पत्नी ले आए हो! कृष्ण उसकी साड़ी को बढ़ाए चले जाते हैं। लेकिन मतलब सिर्फ नहीं, लेकिन मैं जानता हूं कि जो संघर्ष दुर्योधन और अर्जुन के | इतना है कि जिसके पास अपना संकल्प है, उसे परमात्मा का सारा बीच होता, वह संघर्ष पांच भाइयों के बीच भी हो सकता था। द्रौपदी | | संकल्प तत्काल उपलब्ध हो जाता है। तो अगर परमात्मा के हाथ ऐसी थी; वे पांच भाई भी कट-मर सकते थे उसके लिए। उसे बांट उसे मिल जाते हैं, तो कोई आश्चर्य नहीं। देना ही सुगमतम राजनीति थी। वह घर भी कट सकता था। वह तो मैंने कहा, और मैं फिर से कहता हूं, द्रौपदी नग्न की गई, महायुद्ध, जो पीछे कौरवों-पांडवों में हुआ, वह पांडवों-पांडवों में लेकिन हुई नहीं। नग्न करना बहुत आसान है, उसका हो जाना बहुत भी हो सकता था। और बात है। बीच में अज्ञात विधि आ गई, बीच में अज्ञात कारण इसलिए कहानी मेरे लिए उतनी सरल नहीं है। कहानी बहुत आ गए। दुर्योधन ने जो चाहा, वह हुआ नहीं। कर्म का अधिकार प्रतीकात्मक है और गहरी है। वह यह खबर देती है कि स्त्री वह | था, फल का अधिकार नहीं था। ऐसी थी कि पांच भाई भी लड़ जाते। इतनी गुणी थी, साधारण नहीं यह द्रौपदी बहुत अनूठी है। यह पूरा युद्ध हो गया। भीष्म पड़े हैं थी, असाधारण थी। उसको नग्न करना आसान बात नहीं थी, आग शय्या पर-बाणों की शय्या पर और कृष्ण कहते हैं पांडवों को से खेलना था। तो अकेला दुर्योधन नहीं है कि नग्न कर ले। द्रौपदी | कि पूछ लो धर्म का राज! और वह द्रौपदी हंसती है। उसकी हंसी भी है। पूरे महाभारत पर छाई है। वह हंसती है कि इनसे पूछते हैं धर्म का - और ध्यान रहे, बहत बातें हैं इसमें, जो खयाल में ले लेने जैसी रहस्य! जब मैं नग्न की जा रही थी, तब ये सिर झुकाए बैठे थे। हैं। जब तक कोई स्त्री स्वयं नग्न न होना चाहे, तब तक इस जगत | उसका व्यंग्य गहरा है। वह स्त्री बहुत असाधारण है। में कोई पुरुष किसी स्त्री को नग्न नहीं कर सकता है, नहीं कर पाता काश! हिंदुस्तान की स्त्रियों ने सीता को आदर्श न बनाकर द्रौपदी है। वस्त्र उतार भी ले, तो भी नग्न नहीं कर सकता है। नग्न होना | को आदर्श बनाया होता, तो हिंदुस्तान की स्त्री की शान और होती। बड़ी घटना है वस्त्र उतरने से, निर्वस्त्र होने से नग्न होना बहुत भिन्न लेकिन नहीं, द्रौपदी खो गई है। उसका कोई पता नहीं है। खो घटना है। निर्वस्त्र करना बहुत कठिन बात नहीं है, कोई भी कर गई। एक तो पांच पतियों की पत्नी है, इसलिए मन को पीड़ा होती सकता है, लेकिन नग्न करना बहुत दूसरी बात है। नग्न तो कोई है। लेकिन एक पति की पत्नी होना भी कितना मुश्किल है, उसका स्त्री तभी होती है, जब वह किसी के प्रति खुलती है स्वयं। अन्यथा | | पता नहीं है। और जो पांच पतियों को निभा सकी है, वह साधारण नहीं होती; वह ढंकी ही रह जाती है। उसके वस्त्र छीने जा सकते | स्त्री नहीं है, असाधारण है, सुपर ह्यूमन है। सीता भी अतिमानवीय हैं, लेकिन वस्त्र छीनना स्त्री को नग्न करना नहीं है। यह भी। है, लेकिन टू ह्यूमन के अर्थों में। और द्रौपदी भी अतिमानवीय है, और यह भी कि द्रौपदी जैसी स्त्री को नहीं पा सका दुर्योधन।। लेकिन सुपर ह्यूमन के अर्थों में। उसके व्यंग्य तीखे पड़ गए उसके मन पर। बड़ा हारा हुआ है। हारे | पूरे भारत के इतिहास में द्रौपदी को सिर्फ एक आदमी ने प्रशंसा हुए व्यक्ति-जैसे कि क्रोध में आई हुई बिल्लियां खंभे नोचने | | दी है। और एक ऐसे आदमी ने जो बिलकुल अनपेक्षित है। पूरे लगती हैं-वैसा करने लगते हैं। और स्त्री के सामने जब भी पुरुष भारत के इतिहास में डाक्टर राम मनोहर लोहिया को छोड़कर किसी हारता है और इससे बड़ी हार पुरुष को कभी नहीं होती। पुरुष | आदमी ने द्रौपदी को सम्मान नहीं दिया है, हैरानी की बात है। मेरा पुरुष से लड़ ले, हार-जीत होती है। लेकिन पुरुष जब स्त्री से हारता | तो लोहिया से प्रेम इस बात से हो गया कि पांच हजार साल के है किसी भी क्षण में, तो इससे बड़ी कोई हार नहीं होती। इतिहास में एक आदमी, जो द्रौपदी को सीता के ऊपर रखने को तो दुर्योधन उस दिन उसे नग्न करने का जितना आयोजन करके | तैयार है। बैठा है, वह सारा आयोजन भी हारे हुए पुरुष-मन का है। और उस | यह जो मैंने कहा, आदमी करता है कर्म फल की अति आकांक्षा 217] Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m+ गीता दर्शन भाग-1 AAK से, कर्म भी नहीं हो पाता और फल की अति आकांक्षा से दुराशा इसे चुन लो, जिसे चुनते हो, उससे विपरीत को छोड़ दो। कृष्ण कहते और निराशा ही हाथ लगती है। कृष्ण ने यह बहुत बहुमूल्य सूत्र | | हैं, चुनो ही मत। दोनों समान हैं, ऐसा जानो। और जब दोनों समान कहा है। इसे हृदय के बहुत कोने में सम्हालकर रख लेने जैसा है। | हैं, तो चुनेंगे कैसे? चुनाव तभी तक हो सकता है, जब असमान हों। करें कर्म, वह हाथ में है; अभी है, यहीं है। फल को छोड़ें। फल | | एक हो श्रेष्ठ, एक हो अश्रेष्ठ; एक में दिखती हो सिद्धि, एक में को छोड़ने का साहस दिखलाएं। कर्म को करने का संकल्प, फल | | दिखती हो असिद्धि; एक में दिखता हो शुभ, एक में दिखता हो को छोड़ने का साहस, फिर कर्म निश्चित ही फल ले आता है।। | अशुभ। कहीं न कहीं कोई तुलना का उपाय हो, कंपेरिजन हो, तभी लेकिन आप उस फल को मत लाएं, वह तो कर्म के पीछे छाया की | | चुनाव है। अगर दोनों ही समान हैं, तो चुनाव कहां? तरह चला आता है। और जिसने छोड़ा भरोसे से, उसके छोड़ने में ___ चौराहे पर खड़े हैं। अगर सभी रास्ते समान हैं, तो जाना कहाँ ? ही, उसके भरोसे में ही, जगत की सारी ऊर्जा सहयोगी हो जाती है। | जाएंगे कैसे? चुनेंगे कैसे? खड़े हो जाएंगे। लेकिन अगर एक जैसे ही हम मांग करते हैं, ऐसा हो, वैसे ही हम जगत-ऊर्जा के | | रास्ता ठीक है और एक गलत, तो जाएंगे, गति होगी। जहां भी विपरीत खड़े हो जाते हैं और शत्रु हो जाते हैं। जैसे ही हम कहते हैं, | असमान दिखा, तत्काल चित्त यात्रा पर निकल जाता है-दि वेरी जो तेरी मर्जी; जो हमें करना था, वह हमने कर लिया, अब तेरी मोमेंट। यहां पता चला कि वह ठीक, पता नहीं चला कि चित्त गया। मर्जी परी हो: हम जगत-ऊर्जा के प्रति मैत्री से भर जाते हैं। और | पता चला कि वह गलत, पता नहीं चला कि चित्त लौटा। पता लगा जगत और हमारे बीच, जीवन-ऊर्जा और हमारे बीच, परमात्मा | प्रीतिकर, पता लगा अप्रीतिकर; पता लगा श्रेयस, पता लगा और हमारे बीच एक हार्मनी, एक संगीत फलित हो जाता है। जैसे | अश्रेयस-यहां पता लगा मन को, कि मन गया। पता लगना ही ही हमने कहा कि नहीं, किया भी मेंने, जो चाहता है वह हो भी. मन के लिए तत्काल रूपांतरण हो जाता है। और समता उसे वैसे ही हम जगत के विपरीत खड़े हो गए हैं। और जगत के विपरीत उपलब्ध होती है, जो बीच में खड़ा हो जाता है। खड़े होकर सिवाय निराशा के, असफलता के कभी कुछ हाथ नहीं | कभी रस्सी पर चलते हुए नट को देखा? नट चुन सकता है, लगता है। इसलिए कर्मयोगी के लिए कर्म ही अधिकार है। फल! | किसी भी ओर गिर सकता है। गिर जाए, झंझट के बाहर हो जाए। फल परमात्मा का प्रसाद है। लेकिन दोनों गिराव के बीच में सम्हालता है। अगर वह झुकता भी. | दिखाई पड़ता है आपको, तो सिर्फ अपने को सम्हालने के लिए, झुकने के लिए नहीं। और आप अगर सम्हले भी दिखते हैं, तो सिर्फ योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय । झुकने के लिए। आप अगर एक क्षण चौरस्ते पर खड़े भी होते हैं, सिध्यसिख्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते । । ४८।। तो चुनने के लिए, कि कौन-से रास्ते से जाऊ! अगर एक क्षण हे धनंजय, आसक्ति को त्यागकर, सिद्धि और असिद्धि में | विचार भी करते हैं, तो चुनाव के लिए, कि क्या ठीक है! क्या करूं, समान बद्धि वाला होकर, योग में स्थित हआ कमों को कर। | क्या न करूं! क्या अच्छा है, क्या बरा है। किससे सफलता यह समत्वभाव ही योग नाम से कहा जाता है। | मिलेगी, किससे असफलता मिलेगी! क्या होगा लाभ, क्या होगी हानि! अगर चिंतन भी करते हैं कभी, तो चुनाव के लिए। नट को देखा है रस्सी पर! झुकता भी दिखता है, लेकिन झुकने 1 मता ही योग है—इक्विलिब्रियम, संतुलन, संगीत। के लिए नहीं। जब वह बाएं झुकता है, तब आपने कभी खयाल रा दो के बीच चुनाव नहीं, दो के बीच समभाव; विरोधों | | किया है, कि बाएं वह तभी झुकता है, जब दाएं गिरने का डर पैदा के बीच चुनाव नहीं, अविरोध; दो अतियों के बीच, होता है। दाएं तब झुकता है, जब बाएं गिरने का डर पैदा होता है। दो पोलेरिटीज के बीच, दो ध्रुवों के बीच पसंद-नापसंद नहीं, | वह दाएं गिरने के डर को बाएं झुककर बैलेंस करता है। बाएं और राग-द्वेष नहीं, साक्षीभाव। समता का अर्थ ठीक से समझ लेना | दाएं के बीच, राइट और लेफ्ट के बीच वह पूरे वक्त अपने को सम जरूरी है, क्योंकि कृष्ण कहते हैं, वही योग है। कर रहा है। समत्व कठिन है बहुत। चुनाव सदा आसान है। मन कहता है, | निश्चित ही, यह समता जड़ नहीं है, जैसा कि पत्थर पड़ा हो। 218 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10- फलाकांक्षारहित कर्म, जीवंत समता और परम पद पर जीवन में भी समता जड़ नहीं है, जैसा पत्थर पड़ा हो। जीवन की भी एक तरह की समता, जड़ समता उपलब्ध होती है। समता भी नट जैसी समता ही है-प्रतिपल जीवित है, सचेतन है, कृष्ण जिस समता की बात कर रहे हैं, वह सचेतन समता की गतिमान है।. .. बात है। उस युद्ध के क्षण में तो बहुत सचेतन होना पड़ेगा न! युद्ध दो तरह की समता हो सकती है। एक आदमी सोया पड़ा है गहरी के क्षण में तो बेहोश नहीं हुआ जा सकता, मारिजुआना और एल सुषुप्ति में, वह भी समता को उपलब्ध है। क्योंकि वहां भी कोई एस डी नहीं लिया जा सकता, न चरस पी जा सकती है। युद्ध के चुनाव नहीं है। लेकिन सुषुप्ति योग नहीं है। एक आदमी शराब क्षण में तो पूरा जागना होगा। पीकर रास्ते पर पड़ा है; उसे भी सिद्धि और असिद्धि में कोई फर्क कभी आपने खयाल किया हो, न किया हो! जितने खतरे का नहीं है। लेकिन शराब पी लेना समता नहीं है, न योग है। यद्यपि | | क्षण होता है, आप उतने ही जागे हुए होते हो। कई लोग शराब पीकर भी योग की भूल में पड़ते हैं। अगर हम यहां बैठे हैं, और यहां जमीन पर मैं एक फीट चौड़ी तो गांजा पीने वाले योगी भी हैं, चरस पीने वाले योगी भी हैं। और सौ फीट लंबी लकड़ी की पट्टी बिछा दूं और आपसे उस पर और आज ही हैं, ऐसा नहीं है, अति प्राचीन हैं। और अभी तो चलने को कहूं, तो कोई गिरेगा उस पट्टी पर से? कोई भी नहीं उनका प्रभाव पश्चिम में बहुत बढ़ता जाता है। अभी तो बस्तियां गिरेगा। बच्चे भी निकल जाएंगे, बूढ़े भी निकल जाएंगे, बीमार भी बस गई हैं अमेरिका में, जहां लोग चरस पी रहे हैं। मैस्कलीन, | निकल जाएंगे; कोई नहीं गिरेगा। लेकिन फिर उस पट्टी को इस लिसर्जिक एसिड, मारिजुआना, सब चल रहा है। वे भी इस | मकान की छत पर और दूसरे मकान की छत पर रख दें। वही पट्टी खयाल में हैं कि जब नशे में धत होते हैं, तो समता सध जाती है, है, एक फीट चौड़ी है। ज्यादा चौड़ी नहीं हो गई, कम चौड़ी नहीं क्योंकि चुनाव नहीं रहता। की. उतनी ही लंबी है। फिर हमसे कहा जाए, चलें इस पर! तब · कृष्ण अर्जुन को ऐसी समता को नहीं कह रहे हैं कि तू बेहोश हो | | कितने लोग चलने को राजी होंगे? जा! बेहोशी में भी चुनाव नहीं रहता, क्योंकि चुनाव करने वाला | गणित और विज्ञान के हिसाब से कुछ भी फर्क नहीं पड़ा है। पट्टी नहीं रहता। लेकिन जब चुनाव करने वाला ही न रहा, तो चुनाव के | वही है, आप भी वही हैं। खतरा क्या है? डर क्या है? और जब न रहने का क्या प्रयोजन है? क्या अर्थ है? क्या उपलब्धि है? आप नीचे निकल गए थे चलकर और नहीं गिरे थे, तो अभी गिर नहीं, चुनाव करने वाला है; चाहे तो चुनाव कर सकता है; नहीं जाएंगे, इसकी संभावना क्या है? करता है। और जब चाहते हुए चुनाव नहीं करता कोई, जानते हुए नहीं, लेकिन आप कहेंगे, अब नहीं चल सकते। क्यों? क्योंकि जब दो विरोधों से अपने को बचा लेता है, बीच में खड़ा हो जाता जमीन पर चलते वक्त जागने की कोई भी जरूरत न थी, सोए-सोए है, तो योग को उपलब्ध होता है, समाधि को उपलब्ध होता है। भी चल सकते थे। अब इस पर जागकर चलना पड़ेगा; खतरा नीचे सुषुप्ति और समाधि में बड़ी समानता है। चाहें तो हम ऐसी खड़ा है। इतना जागकर चलने का भरोसा नहीं है कि सौ फीट तक परिभाषा कर सकते हैं कि सुषुप्ति मूर्छित समाधि है। और ऐसी भी जागे रह सकेंगे। एक-दो फीट चलेंगे, होश खो जाएगा। कोई कि समाधि जाग्रत सुषुप्ति है। बड़ी समानता है। सुषुप्ति में आदमी फिल्मी गाना बीच में आ जाएगा, कुछ और आ जाएगा; जमीन पर प्रकृति की समता को उपलब्ध हो जाता है, समाधि में व्यक्ति | हो जाएंगे। नीचे एक कुत्ता ही भौंक देगा, तो सब समता समाप्त हो परमात्मा की समता को उपलब्ध होता है। जाएगी। तो आप कहेंगे, नहीं, अब नहीं चल सकते। अब क्यों नहीं इसलिए दुनिया में बेहोशी का जो इतना आकर्षण है, उसका चल सकते हैं? अब एक नई जरूरत-खतरे में जागरण चाहिए। मौलिक कारण धर्म है। शराब का जो इतना आकर्षण है, उसका | | मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि युद्ध का इतना आकर्षण भी खतरे का मौलिक कारण धार्मिक इच्छा है। | आकर्षण है। इसलिए कभी आपने खयाल किया, जब दुनिया में __आप कहेंगे, क्या मैं यह कह रहा हूं कि धार्मिक आदमी को | | युद्ध चलता है, तो लोगों के चेहरों की रौनक बढ़ जाती है, घटती शराब पीनी चाहिए? नहीं, मैं यही कह रहा हूं कि धार्मिक आदमी | नहीं। और जो आदमी कभी आठ बजे नहीं उठा था, वह पांच बजे को शराब नहीं पीनी चाहिए, क्योंकि शराब धर्म का सब्स्टीटयूट उठकर रेडियो खोल लेता है। पांच बजे से पूछता है, अखबार कहां बन सकती है। नशा धर्म का परिपूरक बन सकता है। क्योंकि वहां है? जिंदगी में एक पुलक आ जाती है। बात क्या है ? युद्ध के क्षण 219| Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 - में इतनी पुलक? अवेयर। जानें कि एक रास्ता यह और एक रास्ता यह और यह मैं, युद्ध का खतरा हमारी नींद को थोड़ा कम करता है। हम थोड़े | | तीन हैं यहां। यह रही सफलता, यह रही विफलता और यह रहा मैं। जागते हैं। जागने का अपना रस है। इसलिए दस-पंद्रह साल में यह तीसरा मैं जो हूं, इसके प्रति जागें। और जैसे ही इस तीसरे के सोई हुई मनष्यता को एक यद्ध पैदा करना पडता है. क्योंकि और प्रति जागेंगे. जैसे ही यह थर्ड फोर्स, यह तीसरा तत्व नजर में कोई रास्ता नहीं है। और किसी तरह जागने का उपाय नहीं है। और | | आएगा, कि न तो मैं सफलता हूं, न मैं विफलता हूं। विफलता भी जब युद्ध पैदा हो जाता है, तो रौनक छा जाती है। जिंदगी में रस, | मुझ पर आती है, सफलता भी मुझ पर आती है। सफलता भी चली पुलक और गति आ जाती है। जाती है, विफलता भी चली जाती है। सुबह होती है, सूरज खिलता युद्ध के इस क्षण में कृष्ण बेहोशी की बात तो कह ही नहीं सकते है, रोशनी फैलती है। मैं रोशनी में खड़ा हो जाता हूं। फिर सांझ हैं, वह वर्जित है; उसका कोई सवाल ही नहीं उठता है। फिर कृष्ण होती, अंधेरा आता है, फिर अंधेरा मेरे ऊपर छा जाता है। लेकिन जिस समता की बात कर रहे हैं, जिस योग की, वह क्या है? वह न तो मैं प्रकाश हूं, न मैं अंधेरा हूं। न तो मैं दिन हूं, न मैं रात हूं। है, दो के बीच, द्वंद्व के बीच निद्वंद्व, अचुनाव, च्वाइसलेसनेस। | क्योंकि दिन भी मुझ पर आकर निकल जाता है और फिर भी मैं होता कैसे होगा यह? अगर आपने द्वंद्व के बीच निद्वंद्व होना भी चुना, तो | हूं। रात भी मुझ पर होकर निकल जाती है, फिर भी मैं होता हूं। वह भी चुनाव है। | निश्चित ही, रात और दिन से मैं अलग हूं, पृथक हूं, अन्य हूं। इसे समझ लें। यह जरा थोड़ा कठिन पड़ेगा। यह बोध कि मैं भिन्न हूं द्वंद्व से, द्वंद्व को तत्काल गिरा देता है अगर आपने दो द्वंद्व के बीच निद्वंद्व होने को चुना, तो दैट टू इज़ और निर्द्वद्व फूल खिल जाता है। वह समता का फूल योग है। और ए च्वाइस, वह भी एक चुनाव है। निद्वंद्व आप नहीं हो सकते। अब जो समता को उपलब्ध हो जाता है, उसे कुछ भी और उपलब्ध करने आप नए द्वंद्व में जुड़ रहे हैं-द्वंद्व में रहना कि निद्वंद्व रहना। अब | को बाकी नहीं बचता है। यह द्वंद्व है, अब यह काफ्लिक्ट है। अगर आप इसका चुनाव करते | इसलिए कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तू समत्व को उपलब्ध हो। हैं कि निद्वंद्व रहेंगे हम, हम द्वंद्व में नहीं पड़ते, तो यह फिर चुनाव | छोड़ फिक्र सिद्धि की, असिद्धि की; सफलता, असफलता की; ।। अब जरा बारीक और नाजुक बात हो गई। लेकिन निर्बुद्व हिंसा-अहिंसा की; धर्म की, अधर्म की; क्या होगा, क्या नहीं को कोई चुन ही नहीं सकता। निद्वंद्व अचुनाव में खिलता है; वह | होगा; ईदर आर छोड़! तू अपने में खड़ा हो। तू जाग। तू जागकर आपका चुनाव नहीं है। अचुनाव में निर्द्वद्व का फूल खिलता है; | | द्वंद्व को देख। तू समता में प्रवेश कर। क्योंकि समता ही योग है। आप चुन नहीं सकते। तो आपको द्वंद्व और निद्वंद्व में नहीं चुनना है। गीता के इस सूत्र को पढ़कर अनेक लोग मेरे पास आकर कहते हैं कि हम कैसे समतावान हों? यानी मतलब, हम समता को कैसे दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय। चुनें? कृष्ण तो कहते हैं कि समता योग है, तो हम समता को कैसे बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः । । ४९ ।। पा लें? . इस समत्व रूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यंत तुच्छ है, वे समता को चुनने की तैयारी दिखला रहे हैं। कृष्ण कहते हैं, इसलिए हे धनंजय, समत्वबुद्धियोग का आश्रय ग्रहण कर, चुना कि समता खोई। फिर तुमने द्वंद्व बनाया–असमता और क्योंकि फल की वासना वाले अत्यंत दीन हैं। समता का द्वंद्व बना लिया। असमता छोड़नी है, समता चुननी है! इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम द्वंद्व का पेयर कैसा बनाते हो? बादशाह और गुलाम का बनाते हो, कि बेगम और बादशाह का कष्ण कहते हैं, धनंजय, बुद्धियोग को खोजो। मैंने जो बनाते हो—इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आप द्वंद्व बनाए बिना रह अभी कहा, द्वंद्व को छोड़ो, स्वयं को खोजो; उसी को नहीं सकते। और जो द्वंद्व बनाता है, वह समता को उपलब्ध नहीं ८ कृष्ण कहते हैं, बुद्धि को खोजो। क्योंकि स्वयं का जो होता है। फिर कैसे? क्या है रास्ता? पहला परिचय है, वह बुद्धि है। स्वयं का जो पहला परिचय है। रास्ता एक ही है कि द्वंद्व के प्रति जागें; कुछ करें मत, जस्ट बी अपने से परिचित होने चलेंगे, तो द्वार पर ही जिससे परिचय होगा, 220/ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फलाकांक्षारहित कर्म, जीवंत समता और परम पद 4 वह बुद्धि है। स्वयं का द्वार बुद्धि है। और स्वयं के इस द्वार : में से प्रवेश किए बिना कोई भी न आत्मवान होता है, न ज्ञानवान होता है। यह बुद्धि का द्वार है। लेकिन बुद्धि के द्वार पर हमारी दृष्टि नहीं जाती, क्योंकि बुद्धि से हमेशा हम कर्मों के चुनाव का काम करते रहते हैं। बुद्ध के दो उपयोग हो सकते हैं । सब दरवाजों के दो उपयोग होते हैं। प्रत्येक दरवाजे के दो उपयोग हैं। होंगे ही। सब दरवाजे इसीलिए बनाए जाते हैं; उनसे बाहर भी जाया जा सकता है, उनसे भीतर भी जाया जा सकता है। दरवाजे का मतलब ही यह होता है। है ? जो कि उससे बाहर भी जाया जा सकता है, उससे भीतर भी जाया जा सकता है। जिससे भी बाहर जा सकते हैं, उससे ही भीतर भी जा सकते हैं। लेकिन हमने अब तक बुद्धि के दरवाजे का एक ही उपयोग किया है— बाहर जाने का। हमने अब तक उसका एक्जिट का उपयोग किया है, एंट्रेंस का उपयोग नहीं किया। जिस दिन आदमी बुद्धि का एंट्रेंस की तरह, प्रवेश की तरह उपयोग करता है, उसी दिन उसी दिन - जीवन में क्रांति फलित हो जाती है। अर्जुन भी बुद्धि का उपयोग कर रहा है। ऐसा नहीं कि नहीं कर रहा है; कहना चाहिए, जरूरत से ज्यादा ही कर रहा है। इतना ज्यादा कर रहा है कि कृष्ण को भी उसने दिक्कत में डाला हुआ है। बुद्धि का भलीभांति उपयोग कर रहा है। निर्बुद्धि है, बुद्धि काफी है। वह काफी बुद्धि ही उसे कठिनाई में डाले हुए है। निर्बुद्धि वहां और भी बहुत हैं, वे परेशान नहीं हैं। लेकिन बुद्धि का वह एक ही उपयोग जानता है । वह बुद्धि का उपयोग कर रहा है कि यह करूं तो ठीक, कि वह करूं तो ठीक ? ऐसा होगा, तो क्या होगा ? वैसा होगा, तो क्या होगा ? वह बुद्धि का उपयोग कर रहा है बहिर्जगत के संबंध में; वह बुद्धि का उपयोग कर रहा है फलों के लिए; वह बुद्धि का उपयोग कर रहा है कि कल क्या होगा? परसों क्या होगा ? संतति कैसी होगी ? कुल नाश होगा ? क्या होगा ? क्या नहीं होगा? वह बुद्धि का सारा उपयोग कर रहा हैं। सिर्फ एक उपयोग नहीं कर रहा है- भीतर प्रवेश का । कृष्ण उससे कहते हैं, धनंजय, कर्म के संबंध में ही सोचते रहना बड़ी निकृष्ट उपयोगिता है बुद्धि की। उसके संबंध में भी सोचो, जो कर्म के संबंध में सोच रहा है। कर्म को ही देखते रहना, बाहर ही देखते रहना, बुद्धि का अत्यल्प उपयोग है - निकृष्टतम ! अगर इसे ऐसा कहें कि व्यवहार के लिए ही बुद्धि का उपयोग करना – क्या करना, क्या नहीं करना - बुद्धि की क्षमता का | न्यूनतम उपयोग है । और इसलिए हमारी बुद्धि पूरी काम में नहीं आती, क्योंकि उतनी बुद्धि की जरूरत नहीं है। जहां सुई से काम चल जाता है, वहां तलवार की जरूरत ही नहीं पड़ती। अगर वैज्ञानिक से पूछें, तो वह कहता है कि श्रेष्ठतम मनुष्य भी अपनी बुद्धि के पंद्रह प्रतिशत से ज्यादा का उपयोग नहीं करते हैं; कुल पंद्रह प्रतिशत, वह भी श्रेष्ठतम ! श्रेष्ठतम यानी कोई आइंस्टीन या कोई बट्रेंड रसेल । तो जो दुकान पर बैठा है, वह आदमी कितनी करता है? जो दफ्तर में काम कर रहा है, वह आदमी कितनी करता 221 स्कूल में पढ़ा रहा है, वह आदमी कितना काम करता है बुद्धि से ? दो-ढाई परसेंट, इससे ज्यादा नहीं । दो-ढाई परसेंट भी पूरी जिंदगी नहीं करता आदमी उपयोग, केवल अठारह साल की उम्र तक । अठारह साल की उम्र के बाद तो मुश्किल से ही कोई उपयोग करता है। क्योंकि कई बातें बुद्धि सीख लेती है, कामचलाऊ सब बातें बुद्धि सीख लेती है, फिर उन्हीं से काम चलाती रहती है जिंदगीभर । अठारह साल के बाद मुश्किल से आदमी मिलेगा, जिसकी बुद्धि बढ़ती है। आप कहेंगे, गलत । सत्तर साल के आदमी के पास अठारह साल के आदमी से ज्यादा अनुभव होता है। अनुभव ज्यादा होता है, बुद्धि ज्यादा नहीं होती; अठारह साल की ही बुद्धि होती है । उसी बुद्धि से वह उसी चम्मच से वह अनुभव को इकट्ठा करता चला जाता है। चम्मच बड़ी नहीं करता; चम्मच वही रहती है; बस उससे अनुभव को इकट्ठा करता चला जाता है। अनुभव का ढेर बढ़ जाता है उसके पास बाकी चम्मच जो उसकी बुद्धि की होती है,. वह अठारह साल वाली ही होती है। दूसरे महायुद्ध में तो बड़ी कठिनाई हुई । कठिनाई यह हुई कि दूसरे महायुद्ध में अमेरिका को जांच-पड़ताल करनी पड़ी कि जिन सैनिकों को भेजते हैं, उनका आई. क्यू. कितना है, उनका | बुद्धि-माप कितना है। युद्ध में भेज रहे हैं, तो उनकी बुद्धि की जांच भी तो होनी चाहिए ! शरीर की जांच तो हो जाती है कि यह आदमी ताकतवर है, लड़ सकता है, सब ठीक। लेकिन अब युद्ध जो है, वह शरीर से नहीं चल रहा है, मस्कुलर नहीं रह गया है। अब युद्ध बहुत कुछ मानसिक हो गया है। बुद्धि कितनी है ? तो बड़ी हैरानी हुई। युद्ध के मैदान के लिए जो सैनिक भर्ती हो रहे थे, उनकी जांच करने से पता चला कि उन सभी सैनिकों की जो | औसत बुद्धि की उम्र है, वह तेरह साल से ज्यादा की नहीं है। तेरह साल ! उसमें युनिवर्सिटी के ग्रेजुएट हैं, उसमें मैट्रिक से कम Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IIT गीता दर्शन भाग-1 - पढ़ा-लिखा तो कोई भी नहीं है। कहना चाहिए, पढ़े-लिखे से | बंद हो गए हैं। या यह हो सकता है कि आगे संभावना है कि आदमी पढ़ा-लिखा वर्ग है। उसकी उम्र भी उतनी ही है जितनी तेरह साल के मस्तिष्क में और बहुत कुछ पोटेंशियल है, बीजरूप है, जो के बच्चे की होनी चाहिए-बुद्धि की। बड़ी चौंकाने वाली, बड़ी सक्रिय हो और काम करे। घबराने वाली बात है। मगर कारण है। और कारण यह है कि बाहर | - दोनों ही बातें थोड़ी दूर तक सच हैं। ऐसे लोग पृथ्वी पर हो चुके की दुनिया में जरूरत ही नहीं है बुद्धि की इतनी। | हैं, बुद्ध या कृष्ण या कपिल या कणाद, जिन्होंने पूरी-पूरी बुद्धि का इसलिए जब कृष्ण कहते हैं तो बहुत मनोवैज्ञानिक सत्य कह रहे | उपयोग किया। ऐसे लोग भविष्य में भी होंगे, जो इसका पूरा-पूरा हैं वह कि निकृष्टतम उपयोग है कर्म के लिए बुद्धि का। | उपयोग करें। लेकिन बाहर के काम के लिए थोड़ी-सी ही बुद्धि से निकृष्टतम! बुद्धि के योग्य ही नहीं है वह। वह बिना बुद्धि के भी | काम चल जाता है। वह न्यूनतम उपयोग है—निकृष्टतम। हो सकता है। मशीनें आदमी से अच्छा काम कर लेती हैं। __ अर्जुन को कृष्ण कहते हैं, धनंजय, तू बुद्धियोग को उपलब्ध हो। सच तो यह है कि आदमी रोज मशीनों से हारता जा रहा है, और | तू बुद्धि का भीतर जाने के लिए, स्वयं को जानने के लिए, उसे धीरे-धीरे आदमियों को कारखाने, दफ्तर के बाहर होना पड़ेगा। | जानने के लिए जो सब चुनावों के बीच में चुनने वाला है, जो सब की जगह लेती चली जाएंगी। क्योंकि आदमी उतना करने के बीच में करने वाला है. जो सब घटनाओं के बीच में साक्षी अच्छा काम नहीं कर पाता, जितना ज्यादा अच्छा मशीनें कर लेती | है, जो सब घटनाओं के पीछे खड़ा है दूर, देखने वाला द्रष्टा है, हैं। उसका कारण सिर्फ एक ही है कि मशीनों के पास बिलकुल | उसे तू खोज। और जैसे ही उसे तू खोज लेगा, तू समता को उपलब्ध बुद्धि नहीं है। भूल-चूक के लिए भी बुद्धि होनी जरूरी है। गलती | हो जाएगा। फिर ये बाहर की चिंताएं-ऐसा ठीक, वैसा करने के लिए भी बुद्धि होनी जरूरी है। मशीनें गलती करती ही | गलत-तुझे पीड़ित और परेशान नहीं करेंगी। तब तू निश्चित भाव नहीं। करती चली जाती हैं, जो कर रही हैं। से जी सकता है। और वह निश्चितता तेरी समता से आएगी, तेरी हम भी सत्रह-अठारह साल की उम्र होते-होते तक मेकेनिकल | बेहोशी से नहीं। हो जाते हैं। दिमाग सीख जाता है क्या करना है, फिर उसको करता चला जाता है। एक और बुद्धि का महत उपयोग है-बुद्धियोग-बुद्धिमानी बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। नहीं, बुद्धिमत्ता नहीं, इंटलेक्चुअलिज्म नहीं, सिर्फ बौद्धिकता नहीं। तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् । । ५० ।। बुद्धियोग का क्या मतलब है कृष्ण का? बुद्धियोग का मतलब है, बुद्धियुक्त पुरुष पुण्य-पाप दोनों को इस लोक में ही त्याग जिस दिन हम बुद्धि के द्वार का बाहर के जगत के लिए नहीं, बल्कि | देता है अर्थात उनसे लिपायमान नहीं होता। इससे बुद्धियोग स्वयं को जानने की यात्रा के लिए प्रयोग करते हैं। तब सौ प्रतिशत के लिए ही चेष्टा कर। यह बुद्धिरूप योग ही कर्मों में बुद्धि की जरूरत पड़ती है। तब स्वयं-प्रवेश के लिए समस्त कुशलता है अर्थात कर्म बंधन से छूटने का उपाय है। बुद्धिमत्ता पुकारी जाती है। अगर बायोलाजिस्ट से पड़े तो वह कहता है. आदमी की आधी खोपड़ी बिलकुल बेकाम पड़ी है; आधी खोपड़ी का कोई भी हिस्सा ख्यबुद्धि को उपलब्ध व्यक्ति पाप-पुण्य से निवृत्त हो काम नहीं कर रहा है। बड़ी चिंता की बात है जीव-शास्त्र के लिए II जाता है। सांख्यबुद्धि को उपलब्ध व्यक्ति कर्म की कि बात क्या है? इसकी शरीर में जरूरत क्या है ? यह जो सिर का कुशलता को उपलब्ध हो जाता है। और कर्म की बड़ा हिस्सा बेकार पड़ा है, कुछ करता ही नहीं; इसको काट भी दें कुशलता ही, कृष्ण कहते हैं, योग है। तो चल सकता है; आदमी में कोई फर्क नहीं पड़ेगा; पर यह है | इसमें बहुत-सी बातें हैं। एक तो, सांख्यबुद्धि। इसके पहले सूत्र क्यों? क्योंकि प्रकृति कुछ भी व्यर्थ तो बनाती नहीं। या तो यह हो | में मैंने कहा कि बुद्धि का प्रयोग प्रवेश के लिए, बहिर्यात्रा के लिए सकता है कि पहले कभी आदमी पूरी खोपड़ी का उपयोग करता रहा नहीं, अंतर्यात्रा के लिए है। जिस दिन कोई व्यक्ति अपने विचार का हो, फिर भूल-चूक हो गई हो कुछ, आधी खोपड़ी के द्वार-दरवाजे | | उपयोग अंतर्यात्रा के लिए करता है, उस दिन सांख्य को उपलब्ध Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m फलाकांक्षारहित कर्म, जीवंत समता और परम पद - होता है। जिस दिन भीतर पहुंचता है, स्वयं में जब खड़ा हो जाता | बाहर से कोई भी उपाय नहीं है। है-स्टैंडिंग इन वनसेल्फ-जब अपने में ही खड़ा हो जाता है, | लीबनिज हुआ एक बहुत बड़ा गणितज्ञ और विचारक। उसने जब स्वयं में और स्वयं के खड़े होने में रत्तीभर का फासला नहीं | | आदमी के लिए एक शब्द दिया है, मोनोड। वह कहता है, हर होता; जब हम वहीं होते हैं जहां हमारा सब कुछ होना है, जब हम | | आदमी एक बंद मकान है, जिसमें कोई द्वार-दरवाजा-खिड़की भी वही होते हैं जो हम हैं, जब हम ठीक अपने प्राणों की ज्योति के | | नहीं है। मोनोड का मतलब है, विंडोलेस सेल-एक बंद मकान, साथ एक होकर खड़े हो जाते हैं-इसे सांख्यबुद्धि कृष्ण कहते हैं। | जिसमें कोई खिड़की भी नहीं है, जिसमें से घुस जाओ और भीतर मैंने पीछे आपसे कहा कि सांख्य परम ज्ञान है, दि सुप्रीम जाकर जान लो कि क्या हो रहा है! डॉक्ट्रिन। उससे बड़ा कोई सिद्धांत नहीं है। ह्यूबर्ट बेनॉयट ने एक आप प्रेम से भरे हैं। क्या करें कि हम आपके प्रेम को जान लें किताब लिखी है। किताब का नाम है, दि सुप्रीम डॉक्ट्रिन। लेकिन बाहर से? कोई उपाय नहीं है। कोई उपाय नहीं है। निर-उपाय है। उसे सांख्य का कोई पता नहीं है। उसने वह किताब झेन पर लिखी हां, लेकिन कुछ-कुछ जान सकते हैं। पर वह जो जानना है, वह है। लेकिन जो भी लिखा है वह सांख्य है। परम सिद्धांत क्या है? ठीक नहीं है कहना कि ज्ञान है। सांख्य को परम ज्ञान कृष्ण कहते हैं, क्या बात है? ज्ञानों में श्रेष्ठतम तो बड रसेल ने दो शब्द बनाए हैं। एक को वह कहता है ज्ञान सांख्य क्यों है? नालेज, और एक को कहता है एक्वेनटेंस। एक को वह कहता है - दो तरह के ज्ञान हैं। एक ज्ञान, जिससे हम ज्ञेय को जानते हैं। और ज्ञान, और एक को कहता है परिचय। तो दूसरे का हम ज्यादा से एक दूसरा ज्ञान, जिससे हम ज्ञाता को जानते हैं। एक ज्ञान, जिससे ज्यादा परिचय कर सकते हैं, एक्वेनटेंस कर सकते हैं; दूसरे का हम आब्जेक्ट को जानते हैं—वस्तु को, विषय को। और एक ज्ञान, | ज्ञान नहीं हो सकता। और दूसरे का जो परिचय है, उसमें भी इतने जिससे हम सब्जेक्ट को जानते हैं, जानने वाले को ही जानते हैं | | मीडियम हैं बीच में कि वह ठीक है, इसका कभी भरोसा नहीं हो जिससे। ज्ञान दो हैं। पहला ज्ञान साइंस बन जाता है, आब्जेक्टिव सकता है। नालेज। दूसरा ज्ञान सांख्य बन जाता है, सब्जेक्टिव नालेज। आप वहां बैठे हैं बीस गज की दूरी पर। मैंने आपके चेहरे को ___ मैं आपको जान रहा हूं, यह भी एक जानना है। लेकिन मैं | कभी नहीं देखा, हालांकि अभी भी देख रहा हूं। फिर भी आपके आपको कितना ही जानूं, तब भी पूरा न जान पाऊंगा। मैं आपको | चेहरे को नहीं देख रहा हूं। आपके पास से ये प्रकाश की किरणें, कितना ही जानूं, मेरा जानना राउंड अबाउट होगा; मैं आपके आपके चेहरे को लेकर मेरी आंखों के भीतर जा रही हैं। फिर आंखों आस-पास घूमकर जानूंगा, आपके भीतर नहीं जा सकता। अगर | के भीतर ये प्रकाश की किरणें मेरी आंखों के तंतुओं को हिला रही मैं आपके शरीर की चीर-फाड़ भी कर लूं, तो भी बाहर ही जानूंगा, हैं। फिर वे आंखों के तंतु मेरे भीतर जाकर मस्तिष्क के किसी तो भी भीतर नहीं जा सकता। अगर मैं आपके मस्तिष्क के भी रासायनिक द्रव्य में कुछ कर रहे हैं, जिसको अभी वैज्ञानिक भी नहीं टुकड़े-टुकड़े कर लं, तो भी बाहर ही रहूंगा, भीतर नहीं जा सकता। कहते कि क्या कर रहे हैं। वे कहते हैं, समथिंग। अभी पक्का नहीं उन अर्थों में मैं आपके भीतर नहीं जा सकता, जिन अर्थों में आप होता कि वे वहां क्या कर रहे हैं! उनके कुछ करने से मुझे आप अपने भीतर हैं। यह इंपासिबिलिटी है। दिखाई पड़ रहे हैं। पता नहीं, आप वहां हैं भी या नहीं। क्योंकि आपके पैर में दर्द हो रहा है। मैं समझ सकता हूं, क्या हो रहा सपने में भी आप मुझे दिखाई पड़ते हैं और नहीं होते हैं; सुबह पाता है। मेरे पैर में भी दर्द हुआ है। नहीं हुआ है, तो मेरे सिर में दर्द हुआ हूं, नहीं हैं। अभी आप दिखाई पड़ रहे हैं, पता नहीं, हैं या नहीं! है, तो भी मैं अनुमान कर सकता हूं कि आपको क्या हो रहा है। क्योंकि कौन कह सकता है कि जो मैं देख रहा हूं, वह सपना नहीं अगर कुछ भी नहीं हुआ है, तो भी आपके चेहरे को देखकर समझ है! कौन कह सकता है कि जो मैं देख रहा हूं, वह सपना नहीं है! सकता हूं कि कोई पीड़ा हो रही है। लेकिन सच में आपको क्या हो फिर पीलिया का मरीज है, उसे सब चीजें पीली दिखाई पड़ती रहा है, इसे मैं बाहर से ही जान सकता हूं। वह इनफरेंस है, अनुमान हैं। कलर ब्लाइंड लोग होते हैं-दस में से एक होता है, यहां भी है। मैं अनुमान कर रहा हूं कि ऐसा कुछ हो रहा है। लेकिन जैसे कई लोग होंगे—उनको खुद भी पता नहीं होता। कुछ लोग रंगों के आप अपने दर्द को जान रहे हैं, वैसा जानने का मेरे लिए आपके प्रति अंधे होते हैं। कोई किसी रंग के प्रति अंधा होता है। पता नहीं 223 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Om गीता दर्शन भाग-1 AM चलता, बहुत मुश्किल है पता चलना। क्योंकि अभाव का पता | लेकिन खुर्दबीन चाहिए; आदमी के चेहरे पर भी हैं। बड़ी खुर्दबीन चलना बहुत मुश्किल है। से जब देखो तो ऐसा लगता है कि खाई-पहाड़, खाई-पहाड़, ऐसा बर्नार्ड शा हरे रंग के प्रति अंधा था-साठ साल की उम्र में पता | | दिखाई पड़ता है। सत्य क्या है? जो खुर्दबीन से दिखता है वह ? या चला। साठ साल तक उसे पता ही नहीं था कि हरा रंग उसे दिखाई जो खाली आंख से दिखता है वह? अगर सत्य ही होगा, तो ही नहीं पड़ता! उसे हरा और पीला एक-सा दिखाई पड़ता था। कभी खुर्दबीन वाला ही ज्यादा होना चाहिए, खाली आंख की बजाय। कोई मौका ही नहीं आया कि जिसमें जांच-पड़ताल हो जाती। वह उसको वैज्ञानिक बड़े इंतजाम से बनाते हैं। तो साठवीं वर्षगांठ पर किसी ने एक सूट उसे भेंट भेजा। हरे रंग जो हमें दिखाई पड़ रहा है, वह सिर्फ एक्वेनटेंस है, कामचलाऊ, का सूट था। टाई भेजना भूल गया होगा। तो बर्नार्ड शा न सोचा कि | यूटिलिटेरियन! उपयोगी है, सत्य नहीं है। इसलिए दूसरे से हम टाई भी खरीद लाएं, तो पूरा हो जाए। तो बाजार में टाई खरीदने सिर्फ परिचित ही हो सकते हैं। उस परिचय को कभी ज्ञान मत गया; पीले रंग की टाई खरीद लाया। समझ लेना। सेक्रेटरी ने रास्ते में कहा कि आप यह क्या कर रहे हैं, बड़ी इसलिए कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, परम-ज्ञान है सांख्य। सांख्य अजीब मालूम पड़ेगी! पीले रंग की टाई और हरे रंग के कोट पर? | का मतलब है, दूसरे को नहीं, उसे जानो जो तुम हो। क्योंकि उसे बर्नार्ड शा ने कहा, पीला और हरा! क्या दोनों बिलकुल मैच नहीं | ही तुम भीतर से, इंटिमेटली, आंतरिकता से, गहरे में जान सकते करते? दोनों बिलकुल एक जैसे नहीं हैं? उसने कहा कि आप हो। उसको बाहर से जानने की जरूरत नहीं है। उसमें तुम उतर मजाक तो नहीं कर रहे हैं? बर्नार्ड शा आदमी मजाक करने वाला सकते हो, डूब सकते हो, एक हो सकते हो। था। पर उसने कहा कि नहीं, मजाक नहीं कर रहा। तुम क्या कह | ___ इसलिए इस मुल्क में, हमारे मुल्क में तो हम ज्ञान कहते ही सिर्फ रहे हो! ये दोनों अलग हैं? ये दोनों एक ही रंग हैं! तब आंख की | | आत्मज्ञान को हैं। बाकी सब परिचय है। साइंस ज्ञान नहीं है इन जांच करवाई, तो पता चला कि उसकी आंख को हरा रंग दिखाई | अर्थों में। साइंस का जो शब्द है अंग्रेजी में, उसका मतलब होता है ही नहीं पड़ता। वह ब्लाइंड है हरे रंग के प्रति। ज्ञान, उसका मतलब भी टु नो है। साइंस का मतलब अंग्रेजी में तो जो मुझे दिखाई पड़ रहा है, वह सच में है? वैसा ही है जैसा | होता है ज्ञान। लेकिन हम अपने मुल्क में साइंस को ज्ञान नहीं कहते, ' दिखाई पड़ रहा है? कुछ पक्का नहीं है। जो हमें दिखाई पड़ रहा है, हम उसे विज्ञान कहते हैं; हम कहते हैं, विशेष ज्ञान। ज्ञान नहीं, वह सिर्फ एज़म्शन है। हम मानकर चल सकते हैं कि है। एक बड़ी | | स्पेसिफिक नालेज। ज्ञान नहीं, क्योंकि ज्ञान तो है वह जो स्वयं को दूरबीन ले आएं, एक बड़ी खुर्दबीन ले आएं और आपके चेहरे पर जानता है। यह विशेष ज्ञान है, जिससे जिंदगी में काम चलता है। लगाकर देखें। एक स्पेसिफिक नालेज है, एक्वेनटेंस है, परिचय है। ऐसी मजाक मैंने सुनी है। एक वैज्ञानिक ने एक बहुत सुंदर स्त्री | इसलिए हमारा विज्ञान शब्द अंग्रेजी के साइंस शब्द से ज्यादा से विवाह किया। और जाकर अपने मित्रों से, वैज्ञानिकों से कहा मौजूं है, वह ठीक है। क्योंकि वह एक-वि-विशेषता जोड़कर कि बहुत सुंदर स्त्री से प्रेम किया है। उन वैज्ञानिकों ने कहा, ठीक यह कह देता है कि ज्ञान नहीं है, एक तरह का ज्ञान है। एक तरह से देख भी लिया है ? खुर्दबीन लगाई थी कि नहीं? क्योंकि भरोसा का ज्ञान है, ए टाइप आफ नालेज। लेकिन सच में ज्ञान तो एक ही क्या है! उसने कहा, क्या पागलपन की बात करते हो? कहीं स्त्री | है। और वह है उसे जानना, जो सबको जानता है। के सौंदर्य को खुर्दबीन लगाकर देखा जाता है। उन्होंने कहा, तुम ले | | यह भी स्मरण रखना जरूरी है कि जब मैं उसे ही नहीं जानता, आना अपनी सुंदर स्त्री को। | जो सबको जानता है, तो मैं सबको कैसे जान सकता हूं! जब मैं मित्र, सिर्फ मजाक में, मिलाने ले आया। उन सबने एक बड़ी अपने को ही नहीं जानता कि मैं कौन हूं, तो मैं आपको कैसे जान खुर्दबीन रखी, सुंदर स्त्री को दूसरी तरफ बिठाया। उसके पति को सकता हूं कि आप कौन हैं! अभी जब मैंने इस निकटतम सत्य को बुलाया कि जरा यहां से आकर देखो। देखा तो एक चीख निकल | नहीं जाना—दि मोस्ट इंटिमेट, दि नियरेस्ट-जिसमें इंचभर का गई उसके मुंह से। क्योंकि उस तरफ तो खाई-खड्डे के सिवाय कुछ | | फासला नहीं है, उस तक को भी नहीं जान पाया, तो आप तो मुझसे दिखाई नहीं पड़ता था। स्त्री के चेहरे पर इतने खाई-खड्डे! | बहुत दूर हैं, अनंत दूरी पर हैं। और अनंत दूरी पर हैं। कितने ही 1224 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फलाकांक्षारहित कर्म, जीवंत समता और परम पद पास बैठ जाएं, घुटने से घुटना लगा लें, छाती से छाती लगा लें, दूरी अनंत है - इनफिनिट इज़ दि डिस्टेंस । कितने ही करीब बैठ जाएं, दूरी अनंत है। क्योंकि भीतर प्रवेश नहीं हो सकता; फासला बहुत है, उसे पूरा नहीं किया जा सकता। सभी प्रेमियों की तकलीफ यही है। प्रेम की पीड़ा ही यही है कि जिसको पास लेना चाहते हैं, न ले पाएं, तो मन दुखता रहता है कि पास नहीं ले पाए। और पास ले लेते हैं, तो मन दुखता है कि पास तो आ गए, लेकिन फिर भी पास कहां आ पाए ! दूरी बनी ही रही। वे प्रेमी भी दुखी होते हैं, जो दूर रह जाते हैं; और उनसे भी ज्यादा दुखी वे होते हैं, जो निकट आ जाते हैं। क्योंकि कम से कम दूर रहने में एक भरोसा तो रहता है कि अगर पास आ जाते, तो आनंद आ जाता। पास आकर पता चलता है कि डिसइलूजनमेंट हुआ। पास आ ही नहीं सकते। तीस साल पति-पत्नी साथ रहें, पास आते हैं ? विवाह के दिन से दूरी रोज बड़ी होती है, कम नहीं होती । क्योंकि जैसे-जैसे समझ आती है, वैसे-वैसे पता चलता है, पास आने का कोई उपाय नहीं मालूम होता । • हर आदमी एक मोनोड है-अपने में बंद, आईलैंड, कहीं से खुलता ही नहीं। जितने निकट रहते हैं, उतना ही पता चलता है कि परिचय नहीं है, अपरिचित हैं बिलकुल । कोई पहचान हो पाई। मरते दम तक भी पहचान नहीं हो पाती। असल में जो आदमी दूसरे की पहचान को निकला है अपने को बिना जाने, वह गलत है; वह गलत यात्रा कर रहा है, जो कभी सफल नहीं हो सकती। सांख्य स्वयं को जानने वाला ज्ञान है। इसलिए मैं कहता हूं, दि सुप्रीम साइंस, परम ज्ञान। और कृष्ण कहते हैं, धनंजय, अगर तू इस परम ज्ञान को उपलब्ध होता है, तो योग सध गया समझ; फिर कुछ और साधने को नहीं बचता । सब सध गया, जिसने स्वयं को जाना। सब मिल गया, जिसने स्वयं को पाया । सब खुल गया, जिसने स्वयं को खोला। तो अर्जुन से वे कहते हैं, सब मिल जाता है; सब योग सांख्यबुद्धि को उपलब्ध व्यक्ति को उपलब्ध है। और योग कर्म की कुशलता बन जाती है। योग कर्म की कुशलता क्यों है ? व्हाय ? क्यों ? क्यों कहते हैं, योग कर्म की कुशलता है? क्योंकि हम तो योगियों को सिर्फ कर्म से भागते देखते हैं। कृष्ण बड़ी उलटी बात कहते हैं। असल में उलटी बात कहने के लिए कृष्ण जैसी हिम्मत ही चाहिए, नहीं तो उलटी बात कहना बहुत मुश्किल है। लोग सीधी-सीधी बातें कहते रहते हैं। सीधी बातें अक्सर गलत होती हैं। अक्सर गलत होती हैं। क्योंकि सीधी बातें सभी लोग मानते हैं । और सभी लोग सत्य को नहीं मानते हैं। सभी लोग, जो कनवीनिएंट सुविधापूर्ण है, उसको मानते हैं। कृष्ण बड़ी उलटी बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, योगी कर्म की कुशलता को उपलब्ध हो जाता है। योग ही कर्म की कुशलता है। हम तो योगी को भागते देखते हैं। एक ही कुशलता देखते | हैं— भागने की। एक ही एफिशिएंसी है उसके पास, कि वह एकदम रफू हो जाता है कहीं से भी। रफ शब्द तो आप समझते हैं न? कंबल में या शाल में छेद हो जाता है न। उसको रफू करने वाला ठीक कर देता है। छेद एकदम रफू हो जाता है। रफू मतलब, पता ही नहीं चलता कि कहां है। ऐसे ही संन्यासी रफू होना जानता है। बस एक ही कुशलता है— रफू होने की। और तो कोई कुशलता संन्यासी में, योगी में दिखाई नहीं पड़ती। तो फिर ये कृष्ण क्या कहते हैं? ये किस योगी की बात कर रहे हैं? निश्चित ही, ये जिस योगी की बात कर रहे हैं, वह पैदा नहीं | हो पाया है। जिस योगी की ये बात कर रहे हैं, वह योगी चूक गया। | असल में योगी तो वह पैदा हो पाया है, जो अर्जुन को मानता है, कृष्ण को नहीं । अर्जुन भी रफू होने के लिए बड़ी उत्सुकता दिखला रहे हैं। वह भी कहते हैं, रफू करो भगवान ! कहीं से रास्ता दे दो, मैं निकल जाऊं। फिर लौटकर न देखूं । बड़े उपद्रव में | उलझाया हुआ है। यह सब क्या देख रहा हूं। मुझे बाहर निकलने का रास्ता बता दो। कृष्ण उसे बाहर ले जाने का उपाय नहीं, और भी अपने भीतर ले जाने का उपाय बता रहे हैं। इस युद्ध के तो बाहर ले जा नहीं रहे। | वह इस युद्ध के भी बाहर जाना चाहता है। इस युद्ध के तो भीतर ही खड़ा रखे हुए हैं, और उससे उलटा कह रहे हैं कि जरा और भीतर चल - युद्ध से भी भीतर अपने भीतर चल। और अगर तू अपने भीतर चला जाता है, तो फिर भागने की कोई जरूरत नहीं। फिर तू जो भी करेगा, वही कुशल हो जाएगा - तू जो भी करेगा, वही । क्योंकि जो व्यक्ति भीतर शांत है, और जिसके भीतर का दीया | जल गया, और जिसके भीतर प्रकाश है, और जिसके भीतर मृत्यु न रही, और जिसके भीतर अहंकार न रहा, और जिसके भीतर असंतुलन न रहा, और जिसके भीतर सब समता हो गई, और जिसके भीतर सब ठहर गया; सब मौन, सब शांत हो गया — उस व्यक्ति के कर्म में कुशलता न होगी, तो किसके होगी ? अशांत है हृदय, तो कर्म कैसे कुशल हो सकता है? कंपता है, 225 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m+ गीता दर्शन भाग-1 AM डोलता है मन, तो हाथ भी डोलता है। कंपता है, डोलता है चित्त, | | ठीक है, तो बाहर सब ठीक हो जाता है। इसे कृष्ण ने योग की तो कर्म भी डोलता है। सब विकत हो जाता है। क्योंकि भीतर ही! | कशलता कहा है। सब डोल रहा है, भीतर ही कुछ थिर नहीं है। शराबी के पैर जैसे | और यह पृथ्वी तब तक दीनता, दुख और पीड़ा से भरी रहेगी, कंप रहे, ऐसा भीतर सब कंप रहा है। बाहर भी सब कंप जाता है। | जब तक अयोगी कुशलता की कोशिश कर रहे हैं कर्म की; और कंप जाता है, अकुशल हो जाता है। | योगी पलायन की कोशिश कर रहे हैं। जब तक योगी भागेंगे और भीतर जब सब शांत है, सब मौन है, तो अकुशलता आएगी कहां | | अयोगी जमकर खड़े रहेंगे, तब तक यह दुनिया उपद्रव बनी रहे, तो से? अकुशलता आती है-भीतर की अशांति, भीतर के तनाव, आश्चर्य नहीं है। इससे उलटा हो, तो ज्यादा स्वागत योग्य है। टेंशन, एंग्जाइटी, भीतर की चिंता, भीतर के विषाद, भीतर गड़े हैं जो | अयोगी भागें तो भाग जाएं, योगी टिकें और खड़े हों और जीवन कांटे दुख के, पीड़ा के, चिंता के–वे सब कंपा डालते हैं। उनसे जो | | के युद्ध को स्वीकार करें। आह उठती है, वह बाहर सब अकुशल कर जाती है। लेकिन भीतर जीवन के युद्ध में नहीं है प्रश्न। युद्ध भीतर है, वह है कष्ट। द्वंद्व अगर वीणा बजने लगे मौन की, समता की, तो अकुशलता के आने | भीतर है, वह है कष्ट। वहां निद्वता, वहां मौन, वहां शांति, तो का उपाय कहां है? बाहर सब कुशल हो जाता है। फिर तब ऐसा बाहर सब कुशल हो जाता है। आदमी जो भी करता है, वह मिडास जैसा हो जाता है। एक श्लोक और। कहानी है यूनान में कि मिडास जो भी छूता, वह सोने का हो जाता। जो भी छू लेता, वह सोने का हो जाता। मिडास तो बड़ी मुश्किल में पड़ा इससे, क्योंकि सोना पास में न हो तो ही ठीक। थोड़ा कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः । हो, तो भी चल जाए। मिडास जैसा हो जाए, तो मुश्किल हो गई। जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्य नामयम् । । ५१।। क्योंकि सोना न तो खाया जा सकता, न पीया जा सकता। पानी छुए क्योंकि बुद्धियोगयुक्त ज्ञानीजन कमों से उत्पन्न होने वाले मिडास, तो सोना हो जाए; खाना छुए, तो सोना हो जाए। पत्नी उससे फल को त्यागकर, जन्मरूप बंधन से छूटे हुए निर्दोष, दर भागे. बच्चे उससे दर बचें। सभी सोने वालों की पत्नियां और __ अर्थात अमृतमय परमपद को प्राप्त होते हैं। बच्चे दूर भागते हैं। छुएं, तो सोना हो जाएं। मिडास का टच-पत्नी को अगर गले लगा ले प्रेम से, तो वह मरी, सोना हो गई। • तो जहां भी सोने का संस्पर्श है, वहां प्रेम मर जाता है; सब सोना भी ऐसे ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है, जो भी ऐसी हो जाता है, सब पैसा हो जाता है। मिडास तो बड़ी मुश्किल में UII निष्ठा को, ऐसी श्रद्धा को, ऐसे अनुभव को उपलब्ध पड़ा। क्योंकि वह जो छूता था, वह जीवित भी हो, तो मुर्दा सोना हो जाता है जहां द्वंद्व नहीं है, वैसा व्यक्ति जन्म के, हो जाए। मृत्यु के घेरे से मुक्त होकर परमपद को पा लेता है। लेकिन मैं यह कह रहा हूं कि कृष्ण एक और तरह की कीमिया, इसे थोड़ा-सा खोलना पड़ेगा। और तरह की अल्केमी बता रहे हैं। वे यह बता रहे हैं कि भीतर | एक तो, जन्म-मृत्यु से मुक्त हो जाता है, इसका ऐसा मतलब अगर समता है, और भीतर अगर सांख्य है, और भीतर अगर सब नहीं है कि अभी जन्म-मत्य में है। है तो अभी भी नहीं: ऐसा प्रतीत मौन और शांत हो गया है, तो हाथ जो भी छूते हैं, वह कुशल हो | करता है कि है। जन्म-मृत्यु से मुक्त हो जाता है, इसका मतलब जाता है; जो भी करते हैं, वह कुशल हो जाता है। फिर जो होता है, | यह नहीं कि पहले बंधा था और अब मुक्त हो जाता है। नहीं, ऐसा वह सभी सफल है। सफल ही नहीं, कहना चाहिए, सुफल भी है। बंधा तो पहले भी नहीं था, लेकिन मानता था कि बंधा हूं। और अब सुफल और बात है। सफल तो चोर भी होता है, लेकिन सुफल जानता है कि नहीं बंधा हूं। पहला तो यह खयाल ले लेना जरूरी नहीं होता। सफल का तो इतना ही मतलब है कि काम करते हैं, | है। जो घटना घटती है जन्म और मृत्यु से मुक्ति की, वह वास्तविक फल लग जाता है। लेकिन कड़वा लगता है, जहरीला भी लगता | नहीं है, क्योंकि जन्म और मृत्यु ही वास्तविक नहीं हैं। जो घटना है। सुफल का मतलब है, अमृत का फल लगता है। भीतर जब सब | | घटती है, वह एक असत्य का, एक अज्ञान का निराकरण है। 226 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - फलाकांक्षारहित कर्म, जीवंत समता और परम पद 4K जैसे कि मैं एक गणित करता हूं, दो और दो पांच जोड़ लेता हूं। ___ आपने अपने को कभी मरते देखा है? किसी को मरते देखा; मैं कितना ही दो और दो पांच जोड़, दो और दो पांच होते नहीं हैं। सोचा, हम भी मरेंगे। नकल कर ली। फिर रोज कोई न कोई मर रहा जब मैं दो और दो पांच जोड़ रहा हूं, तब भी दो और दो चार ही हैं। है—एक मरा, दो मरे, तीन मरे, चार मरे, पांच मरे। फिर पता चला यानी मेरे जोड़ने से कोई दो और दो पांच नहीं हो जाते। एक कमरे | कि सबको मरना ही पड़ता है। पहले जो भी हुए, सब मरे। तो फिर में कुर्सियां रखी हैं दो और दो, और मैं जोड़कर बाहर आता हूं और पक्का होता जाता है अनुमान, गणित तय होता जाता है कि नहीं, कहता हूं कि पांच हैं, तो भी कमरे में पांच कुर्सियां नहीं हो जातीं। मरना ही है। कमरे में कुर्सियां चार ही होती हैं। भूल जोड़ की है। जोड़ की भूल, ___ मृत्यु है, यह अनुभूत सत्य नहीं है। यह एक्सपीरिएंस्ड ट्रथ नहीं अस्तित्व की भूल नहीं बनती। है कि मृत्यु है। यह अनुमानजन्य, इनफरेंशियल है। यह हमने चारों __तो सांख्य का कहना है कि जो गलती है, वह अस्तित्व में नहीं | | तरफ देख लिया कि ऐसा होता है, इसलिए मृत्यु है। है। जो गलती है, वह हमारी समझ में है। वह जोड़ की भूल है। ___ आपने अपना जन्म देखा? यह बड़े मजे की बात है, आप जन्मे ऐसा नहीं है कि जन्म और मृत्यु हैं। ऐसा हमें दिखाई पड़ रहा है कि और आपको अपने जन्म का भी पता नहीं? छोड़ें, मृत्यु अभी आने हैं। हमारे दिखाई पड़ने से हो नहीं जाती। वाली है, भविष्य में है, इसलिए भविष्य का अभी हम कैसे पक्का फिर कल मुझे पता चलता है कि नहीं, दो और दो पांच नहीं होते, | करें! लेकिन जन्म तो कम से कम अतीत में है। आप जन्मे हैं। दो और दो चार होते हैं। मैं फिर लौटकर कमरे में जाता हूं और मैं | | आपको जन्म का भी पता नहीं है कि आप जन्मे हैं! बड़ी मजेदार देखता हूं कि ठीक, दो और दो चार ही हैं। और मैं बाहर आकर बात है। मृत्यु का न पता हो, समझ में आता है। क्योंकि मृत्यु अभी कहता हूं कि जब गणित ठीक आ जाता है किसी को, तो कुर्सियां भविष्य है, पता नहीं होगी कि नहीं होगी। लेकिन जन्म तो हो चुका पांच नहीं रह जाती, चार हो जाती हैं। ऐसा ही-ठीक ऐसा | | है। पर आपको जन्म का भी कोई पता नहीं। और आप ही जन्मे और ही-ऐसा ही समझना है। जो भूल है, वह ज्ञान की भूल है, इरर | | आपको ही अपने जन्म का पता नहीं है! आफ नोइंग। वह भूल एक्झिस्टेंशियल नहीं है, अस्तित्वगत नहीं ___ असल में आपको अपना ही पता नहीं है, जन्म वगैरह का पता है। क्योंकि अस्तित्वगत अगर भूल हो, तो सिर्फ जानने से नहीं मिट | | कैसे हो! इतनी बड़ी घटना जन्म की घट गई, और आपको पता नहीं सकती है। है! असल में आपको जीवन की किसी घटना का-गहरी घटना अगर कुर्सियां पांच ही हो गई हों, तो फिर मैं दो और दो चार कर का कोई भी पता नहीं है। आपको तो जो सिखा दिया गया है, लूं, इससे चार नहीं हो जातीं। कुर्सियां दो और दो चार होने से चार | वही पता है। स्कूल में गणित सिखा दिया गया, मां-बाप ने भाषा तभी हो सकती हैं, जब वे चार रही ही हों उस समय भी, जब मैं सिखा दी, फिर धर्म-मंदिर में धर्म की किताब सिखा दी, फिर किसी पांच गिनता था। वह मेरे गिनने की भूल थी। . ने हिंदू-मुसलमान सिखा दिया, फिर किसी ने कुछ और सिखा - जीवन और मरण आत्मा का होता नहीं, प्रतीत होता है, एपियरेंस दिया-वह सब सीखकर खड़े हो गए हैं। मगर आपको जिंदगी का है, दिखाई पड़ता है, गणित की भूल है। मैंने पीछे आपसे बात कही, | कुछ भी गहरा अनुभव नहीं है, जन्म तक का कोई अनुभव नहीं है! इसे थोड़ा और आगे ले जाना जरूरी है। हम दूसरे को मरते देख लेते तो ध्यान रहे, जब जन्म से गुजरकर आपको जन्म का अनुभव हैं, तो सोचते हैं, मैं भी मरूंगा। यह इमिटेटिव मिसअंडरस्टैंडिंग है। नहीं मिला, तो पक्का समझना कि मृत्यु से भी आप गुजर जाओगे और चूंकि जिंदगी में हम सब इमिटेशन से सीखते हैं, नकल से | | और आपको अनुभव नहीं मिलेगा। क्योंकि वह भी इतनी ही गहरी सीखते हैं, तो मृत्यु भी नकल से सीख लेते हैं। यह नकल है। नकल | घटना है, जितनी जन्म है। वह दरवाजा वही है; जन्म से आप आए चोरी है बिलकुल। जैसे कि बच्चे स्कूल में दूसरे की कापी में से | थे, मृत्यु से आप लौटेंगे-दि सेम डोर। दरवाजा अलग नहीं है; उतारकर उत्तर लिख लेते हैं। उनको हम चोर कहते हैं। हम सब चोर | | दरवाजा वही है। इधर आए थे, उधर जाएंगे। और दरवाजे को हैं, जिंदगी में हमारे अधिकतम अनुभव चोरी के हैं। मृत्यु जैसा बड़ा | | देखने की आपकी आदत नहीं है। आंख बंद करके निकल जाते अनुभव भी चुराया हुआ है। किसी को मरते देखा, कहा कि अब हम | हैं। अभी निकल आए हैं आंख बंद करके, अब फिर आंख बंद भी मरेंगे। करके निकल जाएंगे। 227 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1-4m तो ये जन्म और मृत्यु...जन्म भी, लोग हमसे कहते हैं कि | | जगह बनानी पड़ती है। आदमी के लिए कोई जगह नहीं बनाता; आपका हआ। वह भी कथन है। मत्य भी हम देखते हैं कि होती है, जैसा दिखाई पड़ता है. उसके लिए जगह बनानी पडती है। वह अनुमान है। जन्म किसी ने बताया, मृत्यु का अनुमान हमने __पर जैसे ही पास आया और जैसे ही उसने ऊपर आंख उठाई, तो किया है। लेकिन न हमें जन्म का कोई पता है, न हमें मृत्यु का कोई | देखा कि एक कीमती चश्मा लगाए हुए है। उसने कहा कि जाओ, पता है। तो ये जन्म और मृत्यु होते हैं, ये बड़े इमिटेटिव कनक्लूजंस | नंबर एक; चपरासी को कहा कि नंबर एक। चपरासी भीतर भागा हैं; ये नकल से ली गई निष्पत्तियां हैं। गया। वह बूढ़ा पास आकर खड़ा हुआ। जब उसने सिर ऊंचा सांख्य कहता है कि काश। तम एक बार जन्म लो जानते हए। किया-झकी है कमर उसकी-तो देखा. गले ने में सोने की चेन है। काश! तुम एक बार मरो जानते हुए। फिर तुम दुबारा न कहोगे कि | तब तक मोढ़ा लिए चपरासी आता था। उसने कहा, रुक-रुक! जन्म और मरण होता है। और अभी मृत्यु को तो देर है, और जन्म नंबर दो ला। तब तक उस बूढ़े ने कोट उठाकर घड़ी देखी। तब तक हो चुका, लेकिन जीवित अभी आप हैं। सांख्य कहता है, अगर तुम चपरासी नंबर दो लाता था। मजिस्ट्रेट ने कहा, रुक-रुक...। जीवित रहो जानते हुए, तो भी छुटकारा हो जाएगा। छुटकारे का | ___ उस बूढ़े ने कहा, मैं बूढ़ा आदमी हूं, जो आखिरी नंबर हो, वही मतलब ही इतना है कि वह जो भ्रांति हो रही है, विचार से जो बुला लो। क्योंकि अभी और भी बहुत बातें हैं। तुम्हें शायद पता निष्कर्ष लिया जा रहा है, वह गलत सिद्ध होता है। नहीं कि सरकार ने मुझे राय बहादुर की पदवी दी है। और तुम्हें तो जो सांख्यबुद्धि को उपलब्ध हो जाते हैं, कृष्ण कहते हैं, | शायद यह भी पता नहीं कि मैं यहां आया ही इसलिए हूं कि कुछ अर्जुन, वे जन्म-मृत्यु से मुक्त हो जाते हैं। ठीक होता कहना कि वे | लाख रुपया सरकार को दान करना चाहता हूं। नंबर आखिरी कुर्सी कहते कि वे जन्म-मृत्यु की गलती से मुक्त हो जाते हैं। परमपद को जो हो, तू बुला ले। बार-बार चपरासी को दिक्कत दे रहे हो। और उपलब्ध होते हैं। मैं बूढ़ा आदमी हूं। परमपद कहां है? जब भी हम परमपद की बात सोचते हैं, तो हमारे पद जो हैं, वे जमीन से ऊंचे उठते हैं। ऐसा ऊपर उठते तो कहीं ऊपर आकाश में खयाल आता है। क्योंकि पद जो हैं हमारे, जाते हैं सिंहासन। तो उसी सिंहासन के आखिरी छोर पर कहीं वे जमीन से जितने ऊंचे होते जाते हैं, उतने बड़े होते जाते हैं। आकाश में परमपद हमारे खयाल में है, कि परमपद जो है, वह कहीं पट्टाभि सीतारमैया ने एक संस्मरण लिखा है। लिखा है कि समव्हेअर अप, ऊपर है। मद्रास में एक मजिस्ट्रेट था अंग्रेज। वह अपनी अदालत में एक ही जिस परमपद की कृष्ण बात कर रहे हैं, वह समव्हेअर इनकुर्सी रखता था, खुद के बैठने के लिए। बाकी कुर्सियां थीं, लेकिन ऊपर की बात नहीं है वह; वह कहीं भीतर-उस जगह, जिसके वह बगल के कमरे में रखता था। नंबर डाल रखे थे। क्योंकि वह | और भीतर नहीं जाया जा सकता; उस जगह, जो आंतरिकता का कहता था, आदमी देखकर कुर्सी देनी चाहिए। तो एक नंबर का एक अंत है। जो इनरमोस्ट कोर, वह जो भीतरी से भीतरी जगह है, वह मोढ़ा था छोटा-सा, बिलकुल गरीब आदमी आ जाए—बहुत जो भीतरी से भीतरी मंदिर है चेतना का, वहीं परमपद है। सांख्य गरीब आ जाए, तब तो खड़े-खड़े चल जाए–बाकी थोड़ा, को उपलब्ध व्यक्ति उस परम मंदिर में प्रविष्ट हो जाते हैं। जिसको एकदम गरीब न भी कहा जा सके, उसको नंबर एक का | शेष फिर कल। मोढ़ा। फिर नंबर दो का मोढ़ा, फिर नंबर तीन की कुर्सी, फिर चार की-ऐसे सात नंबर की कुर्सियां थीं। एक दिन एक आदमी आया-पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा है कि एक दिन बड़ी मुश्किल हो गई। एक बड़ा धोखे से भरा आदमी आ गया। आदमी आया तो मजिस्ट्रेट ने देखा उसको, तो सोचा कि खड़े-खड़े चल जाएगा। सोचना पड़ता है, कौन आदमी आया! आपको भी सोचना पड़ता है, कहां बिठाएं! क्या करें! क्या न करें! आदमी देखकर 228 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 1-2 पंद्रहवां प्रवचन मोह-मुक्ति, आत्म-तृप्ति और प्रज्ञा की थिरता Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 AM यदा ते मोहकलिलं बुद्धि तितरिष्यति । स्वभावतः, उसके जीवनभर की सारी संपदा नष्ट हुई जा रही है। तदा गन्तासि निवेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ।। ५२।।। | जिसे उसने जीवन समझा है, वही नष्ट हुआ जा रहा है। जिसके और हे अर्जुन, जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को | आधार पर वह खड़ा था, वह आधार गिरा जा रहा है। जिसके बिलकुल तर जाएगी, तब तू सुनने योग्य और सुने हुए के आधार पर उसके मैं में शक्ति थी, बल था; जिसके आधार पर वह वैराग्य को प्राप्त होगा। कुछ था, समबडी था, वह सब बिखरा जा रहा है। जान सोलिज ने एक किताब लिखी है, अरेस्ट्रोस। उसमें कुछ कीमती वचन लिखे हैं। उसमें एक कीमती वचन है, नोबड़ी वांट्स + हरूपी कालिमा से जब बुद्धि जागेगी, तब वैराग्य | टु बी नोबडी। नोबडी वांट्स टु बी नोबडी। ठीक-ठीक अनुवाद । फलित होता है। मोहरूपी कालिमा से! मनुष्य के | मुश्किल है। कोई भी नहीं चाहता कि ना-कुछ हो। सभी चाहते हैं, आस-पास कौन-सा अंधकार है? समबडी हों, कुछ हों। एक तो वह अंधकार है, जो दीयों के जलाने से मिट जाता है।। उसकी समबडीनेस बिखरी जा रही है, उस आदमी की। वह कुछ धर्म से उस अंधकार का कोई भी संबंध नहीं है। वह हो तो भी कोई | था इस मकान के होने से। और जिनका भी कुछ होना किसी और फर्क नहीं पड़ता है, नहीं हो तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। फिर चीज के होने पर निर्भर है, किसी दिन ऐसा ही रुदन, ऐसी ही पीड़ा धर्म किस अंधकार को मिटाने के लिए चेष्टारत है? | उन्हें घेर लेती है। क्योंकि वे सब जो बाहर की संपदा पर टिके हैं, एक और भी अंधकार है, जो मनुष्य के शरीर को नहीं घेरता, किसी दिन बिखरते हैं, क्योंकि बाहर कछ भी टिकने वाला नहीं है। वरन मनुष्य की चेतना को घेर लेता है। एक और भी अंधकार है, वह उसी के मकान में आग लग गई हो, ऐसा नहीं, सभी के बाहर जो मनुष्य की आत्मा के चारों तरफ घिर जाता है। उस अंधकार को | के मकानों में आग लग जाती है। असल में बाहर जो भी है, वह कृष्ण कह रहे हैं, मोहरूपी कालिमा। तो अंधकार और मोह इन दो आग पर चढ़ा हुआ ही है। शब्दों को थोड़ा गहरे में समझना उपयोगी है। तो छाती पीटता है, रोता है। स्वाभाविक है। फिर पड़ोस में से अंधकार का लक्षण क्या है? अंधकार का लक्षण है कि दिखाई कोई दौडा हआ आता है और कहता है. व्यर्थ रो रहे हो तम। तम्हारे नहीं पड़ता जहां, जहां देखना खो जाता है, जहां देखना संभव नहीं लड़के ने मकान तो कल बेच दिया। उसका बयाना भी हो गया है। हो पाता, जहां आंखों पर परदा पड़ जाता है-एक। दूसरा, जहां क्या तुम्हें पता नहीं? बस, आंसू तिरोहित हो गए। उस आदमी का दिखाई न पड़ने से कोई मार्ग नहीं मालूम पड़ता, कहां जाएं! क्या छाती पीटना बंद हो गया। जहां रोना था, वहां वह हंसने लगा, करें! तीसरा, जहां दिखाई न पड़ने से प्रतिपल किसी भी चीज से | मुस्कुराने लगा। सब एकदम बदल गया। टकरा जाने की संभावना हो जाती है। अंधकार हमारी दृष्टि का खो अभी भी आग लगी है, मकान जल रहा है; वैसा ही जैसा जाना है। क्षणभर पहले जलता था। फर्क कहां पड़ गया? मकान अब मेरा मोह में भी ऐसा ही घटित होता है। इसलिए मोह को अंधकार | | नहीं रहा, अपना नहीं रहा। मोह का जो जोड़ था मकान से, वह टूट कहने की सार्थकता है। मोह में जो हम करते हैं, मोह में जो हम होते गया है। अब भी मकान में आग है, लेकिन अब आंख में आंसू हैं, मोह में जैसे हम चलते हैं, मोह में जो भी हमसे निकलता है, नहीं हैं। आंख में जो आंसू थे, वे मकान के जलने की वजह से थे? वह ठीक ऐसा ही है, जैसे अंधेरे में कोई टटोलता हो। नहीं कुछ | | वह मकान अब भी जल रहा है। आंख में जो आंसू थे, वे मेरे के पता होता, क्या कर रहे हैं! नहीं कुछ पता होता, क्या हो रहा है! | जलने की वजह से थे। मेरा अब नहीं जल रहा है, आंखें साफ हो नहीं कुछ पता होता, कौन-सा रास्ता है! कौन-सा मार्ग है! आंखें | | गई हैं। अब आंसुओं की परत आंख पर नहीं है। अब उस आदमी नहीं होती हैं। मोह अंधा है। और मोह का अंधापन आध्यात्मिक | को ठीक-ठीक दिखाई पड़ रहा है। अभी उसे कुछ भी दिखाई नहीं अंधापन है, स्प्रिचुअल ब्लाइंडनेस है। पड़ रहा था। सुना है मैंने, एक आदमी के मकान में आग लग गई है। भीड़ | उधर आग की लपटें थीं, तो इधर आंख में भी तो आंसू थे, सब इकट्ठी है। वह आदमी छाती पीटकर रो रहा है, चिल्ला रहा है। धुंधला था, सब अंधेरा था। अब तक उसके हाथ-पैर कंपते थे, 230 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ymमोह-मुक्ति, आत्म-तृप्ति और प्रज्ञा की थिरता -AIR अब हाथ-पैर का कंपन चला गया। अब वह आदमी ठीक वैसा ही | | अंधकार हो जाता है। जितना सघन मैं, उतनी डार्कनेस, उतना हो गया है, जैसे और लोग हैं। और कह रहा है, ठीक; जो हो गया, निबिड़ अंधकार चारों ओर फैलता चला जाता है। जो आदमी मैं में ठीक है। | ही जीता है, वह अंधकार में जीता है-मोह-निशा में। तभी उसका लड़का दौड़ा हुआ आता है। और वह कहता है, | तो कृष्ण कहते हैं, इस मोह की कालिमा से जो मुक्त हो जाता बात तो हुई थी, लेकिन बयाना नहीं हो पाया। बेचने की बात चली है, वैसा व्यक्ति वैराग्य को उपलब्ध होता है। लेकिन कृष्ण जिसे थी, लेकिन हो नहीं पाया। और अब इस जले हुए मकान को कौन | वैराग्य कहते हैं, हम आमतौर से उसे वैराग्य नहीं कहते हैं। इसलिए खरीदने वाला है! इस बात को भी ठीक से समझ लेना जरूरी है। फिर आंसू वापस लौट आए; फिर छाती पीटना शुरू हो गया। | हम तो वैराग्य जिसे कहते हैं. वह राग की विपरीतता को कहते मकान अब भी वैसा ही जल रहा है! मकान को कुछ भी पता नहीं | | हैं। विपरीत राग को कहते हैं वैराग्य, हम जिसे वैराग्य कहते हैं। चला कि इस बीच सब बदल गया है। सब फिर बदल गया है। मोह | मकान मेरा है, ऐसा जानना राग है-हमारी बुद्धि में। मकान मेरा फिर लौट आया है। आंखें फिर अंधी हो गई हैं। फिर मेरा जलने नहीं है, ऐसा जानना वैराग्य है-हमारी बुद्धि में। लेकिन मेरा है या लगा है। मेरा नहीं है, ये दोनों एक ही चीज के दो छोर हैं। कृष्ण इसे वैराग्य इस जीवन में मोह ही जलता है, मोह ही चिंतित होता है, मोह | नहीं कहते। यह विपरीत राग है। यह राग से मुक्ति नहीं है। नहीं, ही तनाव से भरता है, मोह ही संताप को उपलब्ध होता है, मोह ही | मेरा नहीं है। भटकाता है, मोह ही गिराता है। मोह ही जीवन का दुख है। | • रामतीर्थ अमेरिका से वापस लौटे, टेहरी गढ़वाल में मेहमान थे। इसे कृष्ण मोह कह रहे हैं। बुद्ध ने इसे तृष्णा कहा है, तनहा कहा उनकी पत्नी मिलने आई। खिड़की से देखा पत्नी को आते हुए, तो है। इसे कोई और नाम दें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इसके भीतरी | | खिड़की बंद करके द्वार बंद कर लिया। एक मित्र साथ ठहरे हुए थे, रहस्य में एक गुण है, और वह यह कि जो मेरा नहीं है, वह मेरा | सरदार पूर्ण सिंह। उन्होंने कहा, दरवाजा क्यों बंद करते हैं? क्योंकि मालूम होने लगता है। मोह की जो हिप्नोसिस है, मोह का जो | मैंने आपको किसी भी स्त्री के लिए कभी दरवाजा बंद करते नहीं सम्मोहन है, वहां जो मेरा नहीं है, वह मेरा मालूम होने लगता है; | देखा! पूर्ण सिंह जानते हैं कि जो आ रही है, उनकी पत्नी है-या और जो मेरा है, उसका कुछ पता ही नहीं चलता। थी। रामतीर्थ ने कहा, वह मेरी कोई भी नहीं है। पर पूर्ण सिंह ने मोह के अंधकार का जो गुणधर्म है, वह यह है कि जो मेरा नहीं | कहा कि और भी जो स्त्रियां आती हैं, वे भी आपकी कोई नहीं हैं। तुम होता है। और जो मेरा है, वह मेरा नहीं मालूम | लेकिन उन और कोई नहीं स्त्रियों के लिए कभी द्वार बंद नहीं किया! होता है। एक रिवर्सन, एक विपर्यय हो जाता है। चीजें सब उलटी | नहीं, यह स्त्री जरूर आपकी कोई है—विशेष आयोजन करते हैं, हो जाती हैं। द्वार बंद करते हैं। रामतीर्थ ने कहा, वह मेरी पत्नी थी, लेकिन मेरी मकान मेरा कैसे हो सकता है? मैं नहीं था, तब भी था। मैं नहीं | कोई पत्नी नहीं है। पूर्ण सिंह ने कहा, अगर वह पत्नी नहीं है, तो रहूंगा, तब भी रहेगा। जमीन मेरी कैसे हो सकती है? मैं नहीं था, | उसके साथ वैसा ही.व्यवहार करें, जैसा किसी भी स्त्री के साथ तब भी थी। मैं नहीं रहूंगा, तब भी होगी। और जमीन को बिलकुल करते हैं। द्वार खोलें! पता नहीं है कि मेरी है। और मेरा मोह एक सम्मोहन का जाल फैला यह व्यवहार विशेष है; यह विपरीत राग का व्यवहार है। एक लेता है मेरा बेटा है, मेरी पत्नी है, मेरे पिता हैं, मेरा धर्म है, मेरा | भ्रम था कि मेरी पत्नी है, अब एक भ्रम है कि मेरी पत्नी नहीं है। धर्मग्रंथ है, मेरा मंदिर है, मेरी मस्जिद है—मैं के आस-पास एक | लेकिन अगर पहला भ्रम गलत था, तो दूसरा भ्रम सही कैसे हो बड़ा जाल खड़ा हो जाता है। वह जो मैं का फैलाव है, वही मोह | सकता है? वह पहले पर ही खड़ा है; वह पहले का ही एक्सटेंशन का अंधकार है। है; वह उसी का विस्तार है। असल में मैं जो है, उसे ठीक ऐसा समझें कि वह अंधेरे का दीया | पहला भ्रम तो हमारी समझ में आ जाता है। दूसरा भ्रम विरागी है। जैसे दीए से रोशनी गिरती है, ऐसे मैं से अंधकार गिरता है। जैसे | का भ्रम है–संन्यासी का, त्यागी का-वह जरा हमारी समझ में दीया जलता है, तो प्रकाश हो जाता है; ऐसे मैं जलता है, तो | | मुश्किल से आता है। लेकिन साफ है बात कि यह पत्नी विशेष है, पस्तारहा |231 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 AM यह साधारण नहीं है। इस स्त्री के प्रति रामतीर्थ की कोई दृष्टि है। बड़े मजे की बात है कि हमारी भाषा बन ही नहीं सकती विपरीत किसी दिन रामतीर्थ ने इस स्त्री के लिए उठकर द्वार खोला होता. के बिना। क्योंकि बिना विपरीत के हम परिभाषा नहीं कर सकते. अब उठकर द्वार बंद कर रहे हैं। लेकिन इस स्त्री के लिए उठते | | डेफिनीशन नहीं कर सकते। अगर कोई आपसे पूछे कि अंधेरा यानी जरूर हैं। किसी दिन द्वार खोलने उठे होते, अपनी पत्नी है; आज | क्या? तो आप कहते हैं, जो प्रकाश नहीं है। बड़ी सर्कुलर द्वार बंद करने उठे हैं, अपनी पत्नी नहीं है। लेकिन द्वार तक रामतीर्थ डेफिनीशन है। कोई पूछे, प्रकाश यानी क्या? तो आप कहते हैं, जो को उठना पड़ता है; वैराग्य नहीं है। अंधेरा नहीं है। न आपको अंधेरे का पता है कि क्या है, न प्रकाश पूर्ण सिंह ने कहा कि अगर आप द्वार नहीं खोलते हैं, तो मैं | | का पता है कि क्या है। अंधेरे को जब पूछते हैं, क्या है? तो कह नमस्कार करता हूं। मेरे लिए आपका सब ब्रह्मज्ञान व्यर्थ हो गया। | देते हैं, प्रकाश नहीं है। और जब पूछते हैं, प्रकाश क्या है? तो कह मैं जाता हूं। यह कैसा ब्रह्मज्ञान है। क्योंकि किसी स्त्री से आपने नहीं देते हैं, अंधेरा नहीं है। यह कोई परिभाषा हुई? यह कोई डेफिनीशन कहा अब तक रुकने के लिए। सभी स्त्रियों में ब्रह्म दिखाई पड़ा। हुई? परिभाषा तो तभी हो सकती है, जब कम से कम एक का तो आज इस स्त्री में कौन-सा कसूर हो गया है कि ब्रह्म नहीं है! पता हो! रामतीर्थ को भी चुभी बात; खयाल में पड़ी। द्वार तो खोल दिया। मैंने सुना है, एक आदमी एक अजनबी गांव में गया। उसने पूछा लेकिन विचारशील व्यक्ति थे। यह तो दिखाई पड़ गया कि वैराग्य | | कि अ नाम का आदमी कहां रहता है? तो लोगों ने कहा, ब नाम फलित नहीं हुआ है। क्योंकि वैराग्य का अर्थ ही यह है कि जहां न के आदमी के पड़ोस में। पर उसने कहा, मुझे ब का भी कोई पता राग रहा हो, न विराग रहा हो। वैराग्य भी न रहा हो, वहीं वैराग्य नहीं, ब कहां रहता है? उन्होंने कहा, अ के पड़ोस में। पर उसने है। मोह की निशा पूरी ही खो गई हो। मेरा खो गया हो, मेरा नहीं | | कहा कि इससे कुछ हल नहीं होता, क्योंकि न मुझे अका पता है, है, यह भी खो गया हो। जहां वैराग्य भी नहीं है, वहीं वैराग्य है। | नब का पता है। मुझे ठीक-ठीक बताओ, अकहां रहता है ? उन्होंने रामतीर्थ को भी दिखाई तो पड़ गया। समझ में तो आ गया। उसी कहा, ब के पड़ोस में। लेकिन ब कहां रहता है? उन्होंने कहा, अ दिन उन्होंने गेरुए वस्त्र छोड़ दिए। यह जानकर आपको हैरानी होगी। के पड़ोस में। कि रामतीर्थ ने जिस दिन जल-समाधि ली, उस दिन वे गेरुए वस्त्र | आदमी से पूछो, चेतना क्या है? वह कहता है, पदार्थ नहीं। ' नहीं पहने हुए थे। उस दिन उन्होंने साधारण वस्त्र पहन लिए थे। उससे पूछो, पदार्थ क्या है? वह कहता है, चेतना नहीं। माइंड क्या क्योंकि यह उनको भी यह साफ हो गया था कि यह वैराग्य नहीं है। है? मैटर नहीं। मैटर क्या है? माइंड नहीं। बड़े से बड़ा दार्शनिक वैराग्य का अर्थ, जहां न राग रह गया, न विराग रह गया। न | भी इसको परिभाषा कहता है, इसको डेफिनीशन कहता है। यह जहां किसी चीज का आकर्षण है, न विकर्षण है; न अट्रैक्शन है, | | डेफिनीशन हुई ? धोखा हुआ, डिसेप्शन हुआ—परिभाषा न हुई। न पिल्शन है। जहां न किसी चीज के प्रति खिंचाव है, न विपरीत | क्योंकि इसमें से एक का भी पता नहीं है। भागना है। न जहां किसी चीज का बुलावा है, न विरोध है। जहां | लेकिन आदमी को कुछ भी पता नहीं है, काम तो चलाना व्यक्ति थिर हुआ, सम हुआ; जहां पक्ष और विपक्ष एक से हो गए, | | पड़ेगा। इसलिए आदमी बेईमान शब्दों को रखकर काम चलाता है। वहां वैराग्य फलित होता है। | उसके सब शब्द डिसेप्टिव हैं। उसके किसी शब्द में कोई भी अर्थ लेकिन इसे विराग क्यों कहते हैं? वैराग्य क्यों कहते हैं? क्योंकि | नहीं है। क्योंकि अपने शब्द में वह जिस शब्द से अर्थ बताता है, जहां वैराग्य भी नहीं है, वहां वैराग्य क्यों कहते हैं? कोई उपाय नहीं उस शब्द में भी उसको कोई अर्थ नहीं है। उसकी सब परिभाषाएं है। शब्द की मजबूरी है, और कोई बात नहीं है। आदमी के पास सर्कुलर हैं, वर्तुलाकार हैं। वह कहता है, बाएं यानी क्या! वह सभी शब्द द्वंद्वात्मक हैं, डायलेक्टिकल हैं। आदमी की भाषा में कहता है, दाएं जो नहीं है। और दाएं ? वह कहता है, बाएं नहीं। ऐसा शब्द नहीं है जो नान-डायलेक्टिकल हो, द्वंद्वात्मक न हो। | लेकिन इनमें से किसी का पता है कि बायां क्या है? मनुष्य ने जो भाषा बनाई है, वह मन से बनाई है। मन द्वंद्व है। यह आदमी की भाषा डायलेक्टिकल है। डायलेक्टिकल का इसलिए मनुष्य जो भी भाषा बनाता है, उसमें विपरीत शब्दों में भाषा | | मतलब यह कि जब आप पूछे अक्या, तो वह ब की बात करता को निर्मित करता है। | है; जब पूछे ब क्या, तो वह अकी बात करने लगता है। इससे भ्रम 232 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m मोह-मुक्ति, आत्म-तृप्ति और प्रज्ञा की थिरता + पैदा होता है कि सब पता है। पता कुछ भी नहीं है; सिर्फ शब्द पता को बनाता है। वह कहीं भी घर को बना लेगा। वह झाड़ के नीचे हैं। लेकिन बिना शब्दों के काम नहीं चल सकता। राग है तो विराग | बैठेंगे, तो मेरा हो जाएगा। महल होगा, तो मेरा होगा। लंगोटी है। लेकिन तीसरा शब्द कहां से लाएं? और तीसरा शब्द ही सत्य | होगी, तो मेरी हो जाएगी। और मेरे को कोई दिक्कत नहीं आती कि है। वह कहां से लाएं? बड़ा मकान हो कि छोटा हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरे का महावीर कहते हैं, वीतराग। लेकिन उससे भी कोई फर्क नहीं | | आयतन कितना है, इससे मेरे के होने में कोई फर्क नहीं पड़ता। पड़ता। वीतराग का भी मतलब राग के पार हो जाना, बियांड | | मेरा, आयतन पर निर्भर नहीं है। अटैचमेंट होता है। विराग का भी मतलब वही होता है कि राग के । इसे ऐसा समझें, एक आदमी दो लाख रुपए की चोरी करे और बाहर हो जाना। कोई फर्क नहीं पड़ता। हम कोई भी शब्द बनाएंगे. एक आदमी दो पैसे की चोरी करे, तो क्या आप समर वह किसी शब्द के विपरीत होगा। वह तीसरा नहीं होता, वह हमेशा | पैसे की चोरी छोटी चोरी है और दो लाख रुपए की चोरी बड़ी चोरी दूसरा ही होता है। और सत्य तीसरा है। इसलिए दूसरे शब्द को | | है? आयतन बड़ा है, चोरी बराबर है। दो लाख की चोरी उतनी ही कामचलाऊ रूप से उपयोग करते हैं। कृष्ण भी कामचलाऊ उपयोग | | चोरी है, जितनी दो पैसे की चोरी है। क्योंकि चोरी करने में जो भी कर रहे हैं। | घटना घटती है, वह,दो पैसे में भी घट जाती है, दो लाख में भी घट इसलिए वैराग्य का अर्थ राग की विपरीतता मत समझ लेना। जाती है। चोर तो आदमी हो ही जाता है दो पैसे में उतना ही, जितना वैराग्य का अर्थ है, द्वंद्व के पार, राग और विराग के पार जो हो गया, | दो लाख में। हां, अदालत दो पैसे के चोर को छोटा चोर कहे, दो जिसे न अब कोई चीज आकर्षित करती है, न विकर्षित करती है। लाख के चोर को बड़ा चोर कहे, सजा कम-ज्यादा करे, वह बात क्योंकि विकर्षण आकर्षण का ही शीर्षासन है। क्योंकि विकर्षण | | अलग है। क्योंकि अदालत को चोरी से मतलब नहीं है, दो लाख आकर्षण का ही शीर्षासन है। वह सिर के बल खड़ा हो गया से मतलब है। अदालत क्वांटिटी पर जीती है। आकर्षण है। और मोह की अंध-निशा टे तो। शर्त साफ है। धर्म का क्वांटिटी से. परिमाण से कोई संबंध नहीं। वैराग्य को कौन उपलब्ध होता है? मोह की अंध-निशा टूटे तो, क्वालिटी से संबंध है, गुण से संबंध है। धर्म कहेगा, दो पैसे की मोह की कालिमा बिखरे तो। | चोरी या दो लाख की चोरी, बराबर चोरी है। इसमें कोई फर्क नहीं। लेकिन हम क्या करते हैं? हम मोह की कालिमा नहीं तोड़ते, | | गणित में होगा फर्क, धर्म में कोई भी फर्क नहीं है। धर्म के लिए मोह के खिलाफ अमोह को साधने लगते हैं। हम मोह की कालिमा | चोरी हो गई। आदमी चोर है। नहीं तोड़ते, मोह के खिलाफ, विरोध में अमोह को साधने लगते | सच तो यह है कि धर्म को और थोड़ा गहरे में उतरें, तो अगर दो हैं। हम कहते हैं. घर में मोह है. तो घर छोड़ दो. जंगल चले जाएं। लाख अ ख की लेकिन जिस आदमी में मोह था, आदमी में था कि घर में था? | चोरी और चोरी करने के विचार में भी कोई फर्क हो सकता है? धर्म अगर घर में मोह था, तो आदमी चला जाए तो मोह के बाहर हो के लिए कोई फर्क नहीं है। चोरी की या चोरी करने का विचार जाएगा। अगर घर मोह था। लेकिन घर को कोई भी मोह नहीं है | किया, कोई अंतर नहीं है, बात घटित हो गई। हम जो करते हैं, वह आपसे, मोह आपको है घर से। और आप भाग रहे हैं और घर वहीं भी हमारे जीवन का हिस्सा हो जाता है। जो हम करने की सोचते का वहीं है। आप जहां भी जाएंगे, मोह वहीं पहुंच जाएगा। वह हैं, वह भी हमारे जीवन का हिस्सा हो जाता है। आपके साथ चलेगा, वह आपकी छाया है। फिर आश्रम से मोह हो यह जान सोलिज की जिस किताब का मैंने नाम लिया, जाएगा-मेरा आश्रम। क्या फर्क पड़ता है? मेरा घर, मेरा अरेस्ट्रोस, उसमें उसका एक वचन और है कि आदमी अपने कर्मों आश्रम-क्या फर्क पड़ता है ? मेरा बेटा, मेरा शिष्य - क्या फर्क से ही नहीं बंधता–सिर्फ कर्मों से नहीं बंधता–बल्कि जो उसने पड़ता है? मोह नया इंतजाम कर लेगा, मोह नई गृहस्थी बसा लेगा। करना चाहा और नहीं किया, उससे भी बंध जाता है। यह बड़ी मजेदार बात है कि गृह का अर्थ घर से नहीं है। गृह का हम सिर्फ चोरी से ही नहीं बंधते-की गई चोरी से नहीं की अर्थ उस मोह से है, जो घर को बसा लेता है, दैट व्हिच बिल्ट्स | | गई चोरी से, सोची गई चोरी से भी उतने ही बंध जाते हैं। की गई दि होम। होम से मतलब नहीं है गृह का; उससे मतलब है, जो घर चोरी से दूसरे को भी पता चलता है, न की गई चोरी से जगत को जोगी 233 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + गीता दर्शन भाग-1 4 पता नहीं चलता, लेकिन परमात्मा को पूरा पता चलता है। क्योंकि परमात्मा से हमारे संबंध भाव के हैं, कृत्य के नहीं करने के नहीं | हैं हमारे संबंध परमात्मा से, करने के संबंध जगत से हैं, समाज से हैं, बाहर से हैं। होने के संबंध हैं हमारे परमात्मा से - बीइंग के, डूइंग के नहीं। और होने में क्या फर्क पड़ता है? मैंने चोरी की कल्पना की या मैंने चोरी की, इससे होने में कोई फर्क नहीं पड़ता, चोर मैं हो गया। परमात्मा की तरफ तो चोरी की खबर पहुंच गई कि यह आदमी चोर है। हां, जगत तक खबर नहीं पहुंची। जगत तक खबर पहुंचने में देर लगेगी। जगत तक खबर पहुंचने में चोरी का विचार ही नहीं, चोरी को हाथ का भी सहयोग लेना होगा। जगत तक पहुंचने में भाव ही नहीं, पौदगलिक कृत्य, मैटीरियल एक्ट भी करना होगा। इससे चोरी बढ़ती नहीं, सिर्फ चोरी प्रकट होती है; अनमैनिफेस्ट चोरी मैनिफेस्ट होती है; अव्यक्त चोरी व्यक्त होती है। बस और कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन अव्यक्त चोरी उतनी ही चोरी है, जितनी व्यक्त चोरी है, जहां तक धर्म का संबंध है। तो यह सवाल नहीं है कि आपके पास कितना बड़ा मकान है, कि मकान नहीं है, झोपड़ा है। यह सवाल नहीं है कि आपके पास करोड़ों रुपए हैं, कि कौड़ियां हैं। यह सवाल नहीं है। सवाल यह है कि आपके पास मेरा कहने का भाव है या नहीं है। वही मेरे का भाव मोह की निशा है, मोह का अंधकार है। जब तक आप कह सकते हैं मेरा, चाहे यह मेरा किसी भी चीज से जुड़ता हो मेरा धर्म – फर्क नहीं पड़ता, मोह की निशा जारी है। आप कह सकते हैं: हिंदू, मुसलमान मेरा; कुरान, बाइबिल, गीता मेरी; मंदिर-मस्जिद मेरा । हम अजीब लोग हैं। सारी दुनिया के धर्म चिल्लाते हैं कि जिसे परमात्मा को पाना हो, उसे मेरे को छोड़ना पड़ेगा। और हम इतने कुशल हैं कि हम परमात्मा को भी मेरा बना लेते हैं कि मेरा ! वह परमात्मा तेरा, यह परमात्मा मेरा । मैंने सुना है कि किसी गांव में एक बहुत मजेदार घटना घटी। गणेशोत्सव था और गणेश का जुलूस निकल रहा था। लेकिन पूरे गांव के लोगों के हर मोहल्ले के गणेश होते थे। अब गणेश हर मोहल्ले के होते, कोई ब्राह्मणों का गणेश होता, कोई भंगियों का गणेश होता, कोई चमारों का गणेश होता, कोई लोहारों का, कोई तेलियों का। लेकिन नियम था, डिसिप्लिन थी गणेशों की भी एक । और वह यह थी कि ब्राह्मणों का गणेश पहले चलता, फिर उसके बाद किसी का, फिर किसी का; ऐसी प्रोसेशन में व्यवस्था थी। लेकिन एक वर्ष ऐसा हुआ कि ब्राह्मणों के गणेश जरा समय से देर से पहुंचे। ब्राह्मणों के गणेश थे; समय में जरा देर दिखानी ही चाहिए! आदमी के बड़े होने का पता ही चलता है कि वह समय से | जरा देर से पहुंचे। जितना बड़ा नेता, उतनी देर से पहुंचता है। जरा | देर से पहुंचे ब्राह्मणों के गणेश, और तेलियों के गणेश जरा पहले पहुंच गए। गरीब गणेश थे, वह जरा पहले पहुंच गए, समय से पहुंच गए कि कहीं जुलूस न निकल जाए। क्योंकि तेलियों के गणेश के लिए कोई जुलूस रुकेगा नहीं। उनको तो समय पर पहुंचना ही चाहिए, वे समय पर पहुंचे। फिर समय से बहुत देर हो गई, जुलूस निकालना जरूरी था, रात हुई जाती थी, तो तेलियों के गणेश ही आगे हो गए। पीछे से आए | ब्राह्मणों के गणेश ! तो ब्राह्मणों ने कहा, हटाओ तेलियों के गणेश को! तेलियों का गणेश और आगे? यह कभी नहीं हो सकता। बेचारे तेलियों के गणेश को पीछे हटना पड़ा। हिंदू के भी देवता हैं, मुसलमान के भी। हिंदुओं में भी हिंदुओं हजार देवता हैं। एक देवता भी तेलियों और ब्राह्मणों का होकर, अलग हो जाता है। भगवान मेरे को छोड़ने से मिलता है। और हम इतने कुशल हैं कि भगवान को भी मेरे की सीमाओं में बांधकर खड़ा कर देते हैं। मंदिर जलता है, तो किसी मुसलमान को पीड़ा नहीं . होती; खुशी होती है। मस्जिद जलती है, तो किसी हिंदू को पीड़ा नहीं होती; खुशी होती है। और हर हालत में भगवान ही जलता है। लेकिन मेरे की वजह से दिखाई नहीं पड़ता । मेरा अंधा कर जाता है। वह मेरा अंधकार है। किसी भी तरह के मेरे का भाव मोह की निशा है। इसके प्रति जागना है, भागना नहीं है। भागे कि मैं की विपरीतता शुरू हुई, कि फिर मैं कहीं और निर्माण होगा। फिर वह वहां जाकर अपने को निर्मित कर लेगा । | मैं जो है, बड़ी क्रिएटिव फोर्स है, मैं जो है, बड़ी सृजनात्मक शक्ति है। वास्तविक नहीं, स्वप्न का सृजन करती है, ड्रीम क्रिएटिंग । स्वप्न का निर्माण करती है, लेकिन करती है। बहुत हिप्नोटिक है। | जहां भी खड़ी हो जाती है, वहां एक संसार बन जाता है। सच तो यह है कि मेरे के कारण ही संसार है। जिस दिन मेरा नहीं है, उस दिन संसार कहीं भी नहीं है। मेरे के कारण ही गृह है, गृहस्थी है। जिस दिन मेरा नहीं है, उस दिन कहीं कोई गृह नहीं है, कहीं कोई गृहस्थी नहीं है। संन्यासी वह नहीं है, जो घर छोड़कर 234 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ymm मोह-मुक्ति, आत्म-तृप्ति और प्रज्ञा की थिरता - भाग गया; संन्यासी वह है, जिसके भीतर घर को बनाने वाला आदमी था, जिसका कोई हिसाब नहीं। और एक दिन तो खुश्चेव बिखर गया। जिसके भीतर से वह निर्माण करने वाली मोह की जो | | से उसने कहा कि अब तक तो मैं दूसरों से डरता था, अब तो मैं तंद्रा थी, वह खो गई है। अपने से भी डरने लगा हूं। डर भारी था। इसे कृष्ण कहते हैं, इस मोह की निशा को जो छोड़ देता है और | स्टैलिन कभी भी भोजन नहीं कर सकता था सीधा, जब तक कि जिसकी बुद्धि वैराग्य को उपलब्ध हो जाती है, उसके जीवन में, | दो-चार को खिलाकर न देख ले। अपनी लड़की पर भी भरोसा नहीं उसके जीवन में फलित होता है-कहें उसे मोक्ष, कहें उसे ज्ञान, | था, कि जो खाना बना है, उसमें जहर तो नहीं है! खुश्चेव ने लिखा कहें उसे आनंद, कहें उसे परमात्मा, कहें उसे ब्रह्म, इससे कोई फर्क | है, हम सब को उसका भोजन पहले चखना पड़ता था। हम भी नहीं पड़ता। वे सिर्फ नामों के भेद हैं। कंपते हुए चखते थे कि जिससे स्टैलिन घबड़ा रहा है, लौहपुरुष, वह हमको चखना पड़ रहा है! लेकिन मजबूरी थी। पहले चार को भोजन करवा लेता सामने बिठाकर। जब देख लेता कि चारों जिंदा श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला। हैं, तब भोजन करता। भोजन करना भी निश्चितता न रही। समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।। ५३ ।। घर से बाहर नहीं जाता था। समझा तो यह जाता है कि उसने एक और जब तेरी अनेक प्रकार के सिद्धांतों को सुनने से | डबल आदमी रख छोड़ा था, अपनी शकल का एक आदमी और विचलित हुई बुद्धि परमात्मा के स्वरूप में अचल और स्थिर | | रख छोड़ा था, जो सामूहिक जलसों में सम्मिलित होता था। हिटलर ___ठहर जाएगी, तब तू समत्वरूप योग को प्राप्त होगा। । | ने भी एक डबल रख छोड़ा था। सामूहिक जलसे में कहां-कब | गोली लग जाएगी! सब इंतजाम है, फिर भी डर है। इंतजाम भारी था। स्टैलिन और हिटलर के पास जैसा इंतजाम था, ऐसा पृथ्वी पर + सी बुद्धि है, निश्चल नहीं है। जैसी बुद्धि है, दृढ़ नहीं | | किसी आदमी के पास कभी नहीं रहा। एक-एक आदमी की तलाशी - है। जैसी बुद्धि है, वेवरिंग, कंपित, कंपती हुई, | | ले ली जाती थी। हजारों सैनिकों के बीच में थे। सब तरह का लहराती हुई है। जैसी बुद्धि है वह ऐसी है, जैसे तूफान | | इंतजाम था। लेकिन फिर भी आखिरी इंतजाम यह था कि जो आदमी. और आंधी में दीए की ज्योति होती है। एक क्षण भी एक जगह नहीं; | सलामी ले रहा है जनता की, वह असली स्टैलिन नहीं है। वह एक एक क्षण में भी अनेक जगह। क्षण के शुरू में कहीं होती है, तो | | नकली अभिनेता है, जो स्टैलिन का काम कर रहा है। स्टैलिन तो क्षण के अंत में कहीं। एक क्षण को भी आश्वस्त नहीं कि बचेगी, | | अपने घर में बैठा हुआ देख रहा है, खबर सुन रहा है कि क्या हो बुझती-जलती मालूम पड़ती है। झोंके हवा के-और ज्योति अब | रहा है। गई, अब गई, ऐसी ही होती रहती है। कैसी विडंबना है कि स्टैलिन और हिटलर जैसे आदमी इसी यश कीर्कगार्ड ने मनुष्य को कहा है, ए ट्रेंबलिंग, एक कंपन। पूरे | को पाने के लिए इतना श्रम करते हैं! और फिर कोई अभिनेता समय-जन्म से लेकर मृत्यु तक-एक कंपन, जहां सब कंप रहा नमस्कार लेता है जाकर। पत्नी को भी कमरे में सला नहीं सकते। है, जहां सब भूकंप है। जहां भीतर कोई थिरता नहीं, कोई दृढ़ता | क्योंकि रात कब गरदन दबा देगी, कुछ पता नहीं। नहीं। जो हम बाहर से चेहरे बनाए हुए हैं, वे झूठे हैं। हमारे बाहर खूब स्टील के आदमी हैं! तो घास-फूस का आदमी कैसा होता के चेहरे ऐसे लगते हैं, बड़े अकंप हैं। सचाई वैसी नहीं है; भीतर | | है? भूसे से भरा आदमी कैसा होता है? और अगर स्टैलिन इतने सब कंपता हुआ है। बहादुर से बहादुर आदमी भीतर भय से कंप भूसे से भरे हैं, तो हमारी क्या हालत होगी? हम तो स्टैलिन नहीं रहा है। बहादुर से बहादुर आदमी भीतर भय से कंप रहा है। | हैं, हम तो स्टील के आदमी नहीं हैं। स्टील के आदमी की यह स्टैलिन था। नाम ही उसको स्टैलिन इसलिए दिया-मैन आफ | | हालत हो, तो हमारी क्या हालत होगी? स्टील, लौहपुरुष। नाम नहीं है उसका असली वह, दिया हुआ नाम | | नहीं, एक चेहरा, एक मास्क, एक मुखौटा है, जो ऊपर से है-लौहपुरुष, स्टैलिन, स्टील का आदमी। लेकिन खुश्चेव ने बिलकुल थिर है। भीतर असली चेहरा पूरे वक्त कंप रहा है। वहां अभी संस्मरण लिखे हैं। तो उसमें लिखा है कि वह इतना भयभीत | | कंपन ही चल रहा है। वहां बहादुर से बहादुर आदमी भीतर भयभीत 2351 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Im गीता दर्शन भाग-1 AM है। वहां तथाकथित ज्ञानी से ज्ञानी, भीतर गहरे में अज्ञान से कंप | कि लेनिन की इस महत्वाकांक्षा में उसके पैरों का छोटा होना ही रहा है। यहां वह कह रहा है कि मुझे पता है, ब्रह्म है। और वहां | कारण था, वह हीनता ही उसको पीड़ित कर रही थी। पैर बहुत छोटे 'भीतर वह जान रहा है, मुझे कुछ भी पता नहीं। यह भी पता नहीं है | थे, साधारण कुर्सी पर भी लटक जाते थे, जमीन पर नहीं पहुंचते थे। कि मैं भी हूं। बाहर वह दिखला रहा है अधिकार, कि मुझे मालूम | बर्नार्ड शा ने मजाक में कहा है कि छोटे पैर से क्या फर्क! छोटा है। भीतर उसे कुछ भी मालूम नहीं है। भीतर अज्ञान खाए जा रहा | हो पैर कि बड़ा हो, जमीन पर आदमी खड़ा हो, तो सभी के पैर है। बाहर से वह कह रहा है, आत्मा अमर है। और भीतर मौत मुंह | जमीन पर पहुंच जाते हैं। क्या फर्क पड़ता है छोटे-बड़े पैर से? बाए मालूम पड़ती है। जमीन पर खड़ा हो, तो सभी के पैर जमीन पर पहुंच जाते हैं। ऐसी जो हमारी बुद्धि है, जो दृढ़ नहीं है। लेकिन दृढ़ का क्या | __ वह तो ठीक है। लेकिन छोटे पैर से फर्क पड़ता है; आदमी कुर्सी मतलब है? फिर वही कठिनाई है शब्दों की। दृढ़ का क्या मतलब पर पहुंच जाता है। क्योंकि जब तक कुर्सी पर नहीं पहुंच जाता, तब है? जिसको हम दृढ़ आदमी कहते हैं, क्या उसके भीतर कंपन नहीं | तक उसके प्राण पीड़ित होते रहते हैं कि पैर छोटे हैं, पैर छोटे हैं, होता? असल में जितनी दृढ़ता आदमी बाहर से दिखाता है, उतना | पैर छोटे हैं। वही पीड़ा उसको विपरीत यात्रा पर ले जाती है। ही भीतर कंपित होता है। असल में दृढ़ता जो है, वह सेफ्टी मेजर तो एडलर से अगर पूछे कि दृढ़ता का क्या मतलब है? तो है, वह भीतर के कंपन को झुठलाने के लिए आयोजन है। | एडलर और कृष्ण के मतलब में फर्क है; वह मैं समझाना चाहता एडलर ने इस संबंध में बड़ी मेहनत की है। शायद मनुष्य जाति हूं। एडलर कहेगा, दृढ़ता का मतलब कि आदमी वीकलिंग है, के इतिहास में इस दिशा में एडलर की खोज सर्वाधिक कीमती है। | भीतर कमजोर है। आदमी भीतर कमजोर है, इसलिए. बाहर से एडलर कहता है कि एक बड़ी अजीब घटना आदमी के साथ घटती दृढ़ता आरोपित कर रहा है। आदमी भीतर घास-फूस का है, है कि आदमी जो भीतर होता है, उससे ठीक उलटा बाहर आयोजन इसलिए बाहर से स्टैलिन है। आदमी भीतर से कुछ नहीं है, इसलिए करता है, दि एग्जेक्ट कानट्रेरी, ठीक उलटा आयोजन करता है। बाहर से सब कुछ बनने की कोशिश में लगा है। क्या कृष्ण भी इसी जितना मनुष्य भीतर हीनता से पीड़ित होता है, उतना बाहर श्रेष्ठता | दृढ़ता की बात कर रहे हैं? अगर इसी दृढ़ता की बात कर रहे हैं, का आयोजन करता है। तो दो कौड़ी की है। सभी राजनीतिज्ञ इनफीरिअरिटी कांप्लेक्स से पीड़ित होते हैं। नहीं, इस दृढ़ता की वे बात नहीं कर रहे हैं। एक और दृढ़ता है, होंगे ही. अन्यथा राजनीतिज्ञ होना मश्किल है। राजनीतिज्ञ होने के जो भीतर की कमजोरी को दबाने से उपलब्ध नहीं होती, जो भीतर लिए जरूरी है कि भीतर हीनता का भाव हो कि मैं कुछ भी नहीं हूं। के चित्त के विपरीत आयोजन करने से उपलब्ध नहीं होती, बल्कि तभी आदमी दौड़कर सिद्ध करता है कि देखो, मैं कुछ हूं। यह भीतर के कंपित चित्त के विदा हो जाने से उपलब्ध होती है। आपको कम सिद्ध करता है, अपने को ज्यादा सिद्ध करता दो तरह की दृढ़ताएं हैं। एक दृढ़ता वह है, जिसमें मेरे भीतर है-अपने सामने कि नहीं, गलत थी वह बात कि मैं कुछ नहीं कमजोरी तो मौजूद रहती है, और उसकी छाती पर सवार होकर मैं हूं। देखो, मैं कुछ हूं। दृढ़ हो जाता हूं। और एक ऐसी दृढ़ता है, जो मेरी कमजोरी बिखर एडलर का कहना है कि बड़े से बड़े जो संगीतज्ञ हुए हैं जगत में, | | जाती है, विलीन हो जाती है, उसके अभाव में जो मेरे भीतर छूट वे वे ही लोग हैं, जिनके बचपन में कान कमजोर होते हैं। कमजोर जाती है। लेकिन उसे हम क्या कहें? उसे दृढ़ता कहना ठीक नहीं कान का आदमी संगीतज्ञ हो जाता है। कमजोर आंख के आदमी इता पहले वाली ही है। वह एडलर चित्रकार हो जाते हैं। | ठीक कहता है। उसे हम क्या कहें, जो कमजोरी के विसर्जन पर लेनिन कुर्सी पर बैठता था, तो उसके पैर जमीन नहीं छूते थे। पैर बचती है? बहुत छोटे थे, ऊपर का हिस्सा बहुत बड़ा था। लेकिन बड़ी से बड़ी । एक तो स्वास्थ्य वह है, जो भीतर बीमारी को दबाकर प्रकट होता कुर्सी पर वह आदमी बैठ सका। उसने सिद्ध करके बता दिया कि है। और एक स्वास्थ्य वह है, जो बीमारी के अभाव पर, एब्सेंस में तुम्हारे पैर अगर जमीन को छूते हैं, तो कोई बात नहीं, कोई फिक्र प्रकट होता है। लेकिन जो बीमारी के अभाव में प्रकट होता है, उस नहीं, हम कुर्सी को आसमान से छूकर बताए देते हैं। एडलर कहेगा स्वास्थ्य को हम क्या कहें? क्योंकि हम एक ही तरह के स्वास्थ्य है. क्योंकि के सच तो यह 2361 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मोह-मुक्ति, आत्म-तृप्ति और प्रज्ञा की थिरता -AM से परिचित हैं, जो बीमारी को दबाकर उपलब्ध होता है। दबाने की | ब्लैक-बोर्ड, उतने अक्षर साफ दिखाई पड़ते हैं। प्रक्रिया को इसलिए हम दवा कहते हैं। दवाई–दबाने वाली। जितना हीन आदमी, उतनी श्रेष्ठता दिखाई पड़ती है। जितना जिससे हम बीमारी को दबाते रहते हैं, उसको हम दवा कहते हैं। | | श्रेष्ठ आदमी, उतनी श्रेष्ठता सफेद दीवार पर सफेद अक्षरों जैसी लेकिन एक और स्वास्थ्य है, जो बीमारी का अभाव है-दबाव | लीन हो जाती है, दिखाई नहीं पड़ती है। कंट्रास्ट में, विरोध में नहीं, सप्रेशन नहीं-एब्सेंस। लेकिन अगर हम मेडिकल साइंस से | दिखाई पड़ती है। पूछने जाएं, तो वह कहेगी कि नहीं, हम ऐसे किसी स्वास्थ्य को | अगर आपको पता चलता है कि मैं स्वस्थ हूं, तो समझना कि नहीं जानते हैं, जो बीमारी का अभाव है। हम तो ऐसे ही स्वास्थ्य | बीमारी कहीं दबी है। अगर आपको पता चलता है, मैं ज्ञानी हूं, तो को जानते हैं, जो बीमारी से लड़कर उपलब्ध होता है। समझना कि अज्ञान कहीं दबा है। अगर आपको पता चलता है कि इसलिए अगर आप किसी चिकित्सक से जाकर कहें कि मुझे मैं दृढ़ चित्तवान हूं, तो समझना कि भीतर भूसा कहीं भरा है। अगर स्वस्थ होना है, तो वह कहेगा, हम कुछ रास्ता नहीं बता सकते हैं। पता ही नहीं चलता...। हमसे तो यह पूछो कि कौन-सी बीमारी है, उसे अलग करना है, इसलिए उपनिषद कहते हैं कि जो कहता है, मैं जानता हूं, उसे मिटाना है, तो हम रास्ता बता सकते हैं। | समझना कि नहीं जानता है। इसलिए उपनिषद एक अदभुत वचन इसलिए आज तक दुनिया की कोई भी मेडिकल साइंस, चाहे कहते हैं। शायद इससे ज्यादा करेजियस स्टेटमेंट, इससे ज्यादा वह आयुर्वेद हो और चाहे वह एलोपैथी हो और चाहे होमियोपैथी साहसी वक्तव्य पथ्वी पर कभी नहीं दिया गया है। उपनिषद कहते हो और चाहे यूनानी हो और चाहे कोई और हो, कोई भी पैथी हो, हैं कि ज्ञानी को क्या कहें! अज्ञानी तो भटक ही जाते हैं अंधकार में, वह अब तक स्वास्थ्य की परिभाषा नहीं कर पाई, सिर्फ बीमारियों ज्ञानी महा-अंधकार में भटक जाते हैं, ग्रेटर डार्कनेस। अज्ञानी तो की परिभाषा कर पाई है। उससे पूछो कि स्वास्थ्य क्या है ? तो वह भटकते ही हैं अंधकार में, ज्ञानी महा-अंधकार में भटक जाते हैं। कहेगी, हमें पता नहीं। हमसे पूछो कि बीमारियां क्या हैं, तो हम | | किन ज्ञानियों की बात कर रहा है उपनिषद? उन ज्ञानियों की बात बता सकते हैं, टी.बी. का मतलब यह, कैंसर का मतलब यह, फ्लू कर रहा है, जिन्हें ज्ञान का पता है कि ज्ञान है। का मतलब यह। लेकिन स्वास्थ्य का क्या मतलब है ? स्वास्थ्य का | जिन्हें दृढ़ता का पता है, वे दृढ़ नहीं हैं। कृष्ण जिस दृढ़ता की हमें कोई पता नहीं है। बात कह रहे हैं, उसे एडलर की दृढ़ता से बिलकुल भिन्न जान लेना। हीनता को दंबाकर एक श्रेष्ठता प्रकट होती है, यह श्रेष्ठता सदा | | कृष्ण का मनोविज्ञान बहुत और है। वह विपरीत पर खड़ा हुआ नहीं ही नीचे की हीनता पर कंपती रहती है। सदा भयभीत, सदा अपने | है। क्योंकि जो विपरीत पर खड़ा हुआ मकान है, किसी भी दिन गिर को सिद्ध करने को आतुर, सदा अपने को तर्क देने को चेष्टारत, जाएगा; उसका कोई भरोसा नहीं है। जो प्रतिकूल पर ही निर्मित है, सदा संदिग्ध, सदा भीतर से भयग्रस्त। वह अपने शत्रु पर ही आधार बनाए है। स्वभावतः, अपने ही शत्रु और एक ऐसी भी श्रेष्ठता है-असंदिग्ध, अपने को सिद्ध करने के कंधे पर हाथ रखकर जो बलशाली हुआ है, वह कितनी देर को आतुर नहीं, अपने को प्रमाणित करने के लिए चेष्टारत नहीं, बलशाली रहेगा? जो अपने ही विपरीत को अपनी बुनियाद में जिसे अपने होने का पता ही नहीं। । । आधारशिला के पत्थर बनाया है, उसके शिखर कितनी देर तक अब ध्यान रहे, जिस दृढ़ता का आपको पता है, वह एडलर आकाश में, सूर्य की रोशनी में उन्नत रहेंगे? कितनी देर तक? वाली दढता होगी। और जिस दढता का आपको पता ही नहीं है. नहीं यह नहीं हो सकता ज्यादा देर। और जितनी देर ये शिखर वह कृष्ण वाली दृढ़ता होगी। जिस दृढ़ता का पता है...पता चलेगा | ऊपर उन्नत दिखाई भी पड़ेंगे, उतनी देर नीचे बुनियाद में पूरे समय कैसे? पता हमेशा कंट्रास्ट में चलता है। स्कूल में शिक्षक लिखता | संघर्ष है, पूरे समय द्वंद्व है, पूरे समय प्राणों में कंपन है, वेवरिंग है, है सफेद खड़िया से काले ब्लैक-बोर्ड पर। सफेद दीवार पर भी | ट्रेंबलिंग है। वहां कंपन चलता ही रहेगा, वहां भय हिलता ही रहेगा, लिख सकता है, लिख जाएगा, पता नहीं चलेगा। लेकिन काले | वहां पानी की धार कंपती ही रहेगी। यह रेत पर बनाया हुआ मकान ब्लैक-बोर्ड पर लिखता है; लिखता है, दिखाई पड़ता है। काले पर | है। रेत पर भी नहीं, पानी पर बनाया हुआ मकान है। यह अब गिरा, लिखता ही इसीलिए है कि दिखाई पड़ सके। जितना काला | अब गिरा, अब गिरा-भीतर आप जानते ही रहेंगे; अब गिरा, 237 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1 AM अब गिरा, अब गिरा-भीतर आप डरते ही रहेंगे। जितना भीतर | | है जिसके ज्ञान की ज्योति थिर हो गई? वह कौन है जिसकी चेतना डरेंगे, उतनी बाहर दृढ़ता दिखलाएंगे-अपने को धोखा देने के | का दीया अकंप है? वह कौन है जिसे समाधिस्थ कहते हैं ? उसकी लिए, दूसरों को धोखा देने के लिए। | भाषा क्या है? वह उठता कैसे है? वह चलता कैसे है? वह बोलता लेकिन कृष्ण जिस दृढ़ता की बात कर रहे हैं, वह प्रवंचना नहीं कैसे है? उसका होना क्या है? उसका व्यवहार क्या है? उसे हम है, वह रूपांतरण है। लेकिन वह कब फलित होता है? वह तभी कैसे पहचानें? फलित होता है, वह तभी फलित होता है, जब चित्त राग और विराग | दो बातें वह पूछ रहा है। एक तो वह यह पूछ रहा है, प्रज्ञा का से, जब बुद्धि चुनाव से, और जब मन विषयों के बीच कंपन को | स्थिर हो जाना, स्थित हो जाना, ठहर जाना क्या है? लेकिन वह छोड़कर अकंप हो जाता है, जब मन इच्छाओं के बीच कंपन को | घटना तो बहुत आंतरिक है। वह घटना तो शायद स्वयं पर ही छोड़कर अनिच्छा को उपलब्ध हो जाता है। अनिच्छा का मतलब | घटेगी, तभी पता चलेगा। वह शायद कृष्ण भी नहीं बता पाएंगे कि विपरीत इच्छा नहीं, इच्छा के अभाव को उपलब्ध हो जाता है। तब क्या है। इसलिए अर्जुन तत्काल-और इसमें अर्जुन बहुत ही वे कहते हैं कि अर्जुन, ऐसी अकंप चित्त की दशा में जीवन की बुद्धिमानी का सबूत देता है। एक बहुत इंटेलिजेंट, बहुत ही विचार संपदा की उपलब्धि है। तब चित्त दृढ़ है। तब चित्त पानी पर नहीं, | का, विवेक का सबूत देता है। प्रश्न के पहले हिस्से में पूछता है कि चट्टानों पर है। और तब आकाश में शिखर उठ सकता है। और तब प्रज्ञा का थिर हो जाना क्या है कृष्ण ? लेकिन जैसे किसी अनजान पताका, जीवन की, अस्तित्व की ऊंचाइयों में फहरा सकती है। | मार्ग से उसको भी एहसास होता है कि प्रश्न शायद अति-प्रश्न है, शायद प्रश्न का उत्तर नहीं हो सकता है। क्योंकि घटना इतनी आंतरिक है कि शायद बाहर से न बताई जा सके। अर्जुन उवाच — इसलिए ठीक प्रश्न के दूसरे हिस्से में वह यह पूछता है कि बताएं स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव। यह भी कि बोलता कैसे है वह, जिसकी प्रज्ञा थिर हो गई ? जो स्थितीः किं प्रभाषेत किमासीत ब्रजेत किम् ।। ५४ ।। | समाधि को उपलब्ध हुआ, समाधिस्थ है, वह बोलता कैसे? इस प्रकार भगवान के वचनों को सुनकर अर्जुन ने पूछाः | डोलता कैसे? चलता कैसे? उठता कैसे? उसका व्यवहार क्या है?' हे केशव, समाधि में स्थित स्थिर प्रज्ञा वाले पुरुष का क्या | इस दूसरे प्रश्न में वह यह पूछता है कि बाहर से भी अगर हम लक्षण है और स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, जानना चाहें, तो वह कैसा है? भीतर से जानना चाहें, तो क्या है? कैसे बैठता है, कैसे चलता है? | वह घटना क्या है? वह हैपनिंग क्या है? जिसको समाधिस्थ कहते हैं, वह घटना क्या है? यह भीतर से। लेकिन अगर यह न भी हो सके, तो जब किसी व्यक्ति में वैसी घटना घट जाती है, तो उसके 27 र्जुन पहली बार, अब तक अर्जुन का जो वर्तुल- बाहर क्या-क्या फलित होता है? उस घटना के चारों तरफ जो ा व्यक्तित्व था, उससे उठकर प्रश्न पूछ रहा है। पहली परिणाम होते हैं, वे क्या हैं? बार। अब तक जो भी उसने पूछा था, वह पुराना | यह प्रश्न पहला प्रश्न है, जिसने कृष्ण को आनंदित किया होगा। आदमी पूछ रहा था, वह पुराना अर्जुन पूछ रहा था। पहली बार | यह पहला प्रश्न है, जिसने कृष्ण के हृदय को पुलकित कर दिया उसके प्रश्न ने कृष्ण को छूने की कोशिश की है—पहली बार। इस होगा। अब तक के जो भी प्रश्न थे, अत्यंत रोगग्रस्त चित्त से उठे वचन से पहली बार वह कृष्ण के निकट आ रहा है। पहली बार प्रश्न थे। अब तक जो प्रश्न थे, वे अर्जुन के जस्टीफिकेशन के लिए अर्जुन अर्जुन की तरह नहीं पूछ रहा है, पहली बार अर्जुन कृष्ण के | थे। वह जो चाहता था, उसके ही समर्थन के लिए थे। अब तक जो निकट होकर पूछ रहा है। पहली बार कृष्ण अर्जुन के भीतर प्रविष्ट | प्रश्न थे, उनमें अर्जुन ने चाहा था कि कृष्ण, वह जैसा है, वैसे ही हुए प्रतीत होते हैं। अर्जुन के लिए कोई कंसोलेशन, कोई सांत्वना बन जाएं। यह सवाल गहरा है। वह पछता है. स्थितप्रज्ञ किसे कहते हैं? अब यह पहला प्रश्न है, जिससे अर्जन उस मोह को छोड़ता है किसे कहते हैं, जिसकी प्रज्ञा स्थिर हो गई? वह कौन है? वह कौन | कि मैं जैसा हूं, वैसे के लिए सांत्वना हो। यह पहला प्रश्न है जिससे 238 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm मोह-मुक्ति, आत्म-तृप्ति और प्रज्ञा की थिरता -am वह पूछता है कि चलो, अब मैं उसको ही जान, जैसे आदमी के हो सकते। सिर्फ बुद्धिहीन संगत हो सकते हैं। बुद्धिमान के उत्तर लिए तुम कहते हो, जैसे आदमी को तुम चाहते हो। जिस मनुष्य के असंगत होंगे ही। क्योंकि हर उत्तर किसी को दिया गया है; कोई आस-पास तुम्हारे इशारे हैं, अब मैं उसको ही जानने के लिए आतुर उत्तर सभी को नहीं दिया गया है। हूं। छोडूं उसे, जो अब तक मैंने पकड़ रखा था। आनंद ने बुद्ध से कहा कि मुझे परेशानी में डाल दिया। रात सोते __इस प्रश्न से अर्जुन की वास्तविक जिज्ञासा शुरू होती है। अब | समय मुझे नींद न आएगी, पहले मेरा उत्तर दो! सही क्या है ? इन तक अर्जुन जिज्ञासा नहीं कर रहा था। अब तक अर्जुन कृष्ण को | तीनों में कौन-सी बात ठीक है? या कि चौथी बात ठीक है? ऐसी जगह नहीं रख रहा था, जहां से उनसे उसे कुछ सीखना, बुद्ध ने कहा, तुझे क्या मतलब! जिनसे मैंने बात की थी, उनसे जानना है। अब तक अर्जुन कृष्ण का उपयोग एक जस्टीफिकेशन, | मतलब पूरा हो गया। तेरा न सवाल था, न तेरे लिए जवाब है। तूने एक रेशनलाइजेशन, एक युक्तियुक्त हो सके उसका अपना ही | | पूछा नहीं था, तूने सुना क्यों? उसने कहा, और मजा करते हैं आप! खयाल, उसके लिए कर रहा था। | मेरे पास कान हैं, मैं बहरा नहीं हूं। मैं पास ही मौजूद था। सुनाई इसे समझ लेना उचित है, तो आगे-आगे समझ और स्पष्ट हो मुझे पड़ गया। तो बुद्ध ने कहा, जो दूसरे के लिए कहा गया हो, सकेगी। उसे सुनना उचित नहीं है। तुझे क्या जरूरत थी? पर उसने कहा, हम अक्सर जब प्रश्न पूछते हैं, तो जरूरी नहीं कि वह प्रश्न | | जरूरत थी या नहीं, मुझे सुनाई पड़ गया और मैं बेचैन हूं। तीन उत्तर जिज्ञासा से आता हो। सौ में निन्यानबे मौके पर प्रश्न जिज्ञासा से | एक दिन में! आप कहना क्या चाहते हैं? नहीं आता। सौ में निन्यानबे मौके पर प्रश्न सिर्फ किसी कनफर्मेशन बुद्ध ने कहा, मैंने तीन उत्तर नहीं दिए। मैंने तो उत्तर एक ही दिया के लिए, किसी दूसरे के प्रमाण को अपने साथ जोड़ लेने के लिए। | है कि मैं तुम्हें कन्फर्म न करूंगा। मैं तुम्हारी हां में हां न भरूंगा। आता है। | मैंने तो उत्तर एक ही दिया है दिनभर। सुबह जो आदमी आया था, बुद्ध एक दिन एक गांव में प्रविष्ट हुए। एक आदमी ने पूछा, वह चाहता था कि मैं कह दूं कि हां, ईश्वर है, ताकि जिस ईश्वर ईश्वर है? बुद्ध ने कहा, नहीं, कहीं नहीं है, कभी नहीं था, कभी | को वह मानता है, उसको मेरा भी सहारा मिल जाए। ताकि वह नहीं होगा। स्वभावतः, वह आदमी कंप गया। कंप गया। उसने आश्वस्त हो जाए कि चलो, मैं ठीक हूं, बुद्ध भी यही कहते हैं। वह कहा, क्या कहते हैं आप? ईश्वर नहीं है? बुद्ध ने कहा, बिलकुल सिर्फ मेरा उपयोग करना चाहता था। वह मुझसे सीखने नहीं आया नहीं है। सब जगह खोज डाला; मैं कहता हूं, नहीं है। था। वह मुझसे जानने नहीं आया था। वह जानता ही था, वह सीखा फिर दोपहर एक आदमी उस गांव में आया और उसने पूछा कि | ही हुआ था। वह सिर्फ मेरा और साथ चाहता था, वह सिर्फ एक जहां तक मैं सोचता हूं, ईश्वर नहीं है। आपका क्या खयाल है? सर्टिफिकेट और चाहता था, एक प्रमाणपत्र और चाहता था कि जो बुद्ध ने कहा, ईश्वर नहीं है? ईश्वर ही है। उसके अतिरिक्त और मैं कहता हूं, वही बुद्ध भी कहते हैं! मैं ठीक हूं, क्योंकि बुद्ध भी कुछ भी नहीं है। उस आदमी ने कहा, क्या कहते हैं! मैं तो यह यही कहते हैं! वह सिर्फ अपने अहंकार के लिए एक युक्ति और सोचकर आया कि बुद्ध नास्तिक हैं। खोज रहा था। वह बुद्ध का भी अपने अहंकार के लिए शोषण कर सांझ को एक और आदमी आया और उस आदमी ने बुद्ध से कहा | रहा था। कि मुझे कुछ भी पता नहीं है कि ईश्वर है या नहीं। आप क्या कहते ___ दोपहर जो आदमी आया था, वह नास्तिक था। वह भी आश्वस्त हैं? बुद्ध ने कहा, मैं भी कुछ न कहूंगा। मैं भी चुप रहूंगा। उसने कहा | | था कि उसे पक्का पता है। उसकी कोई जिज्ञासा न थी। जिन्हें पक्का कि नहीं-नहीं, कुछ तो कहें! बुद्ध ने कहा कि मैं कुछ न कहूंगा। | पता है, उनकी कोई जिज्ञासा नहीं होती। जिन्हें पक्का ही पता है, इन तीन को तो छोड़ दें, कठिनाई में पड़ गया बुद्ध का भिक्षु | | उन्हें जिज्ञासा कैसे हो सकती है? और मजा यह है कि जिन्हें पक्का आनंद। वह तीनों समय साथ था, सुबह भी, दोपहर भी, सांझ भी। | पता है, वे भी जिज्ञासा करते हैं। तब उनका पक्का पता बहुत कच्चे उसका कष्ट हम समझ सकते हैं। सोचा न था कभी कि बुद्ध और । | पते पर खड़ा है। पर वह कच्चा पता बहुत नीचे है। पक्का ऊपर है, ऐसे इनकंसिस्टेंट, इतने असंगत कि सुबह कुछ, दोपहर कुछ, सांझ | | कच्चा नीचे है। इसलिए वह कच्चा उनको धक्के देता रहता है कि कुछ। लेकिन कंसिस्टेंट सिर्फ बुद्धओं के सिवाय और कोई भी नहीं | | और पक्का कर लो, और पक्का कर लो। पक्का नहीं है, पता कुछ 239 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-14 भी नहीं है, लेकिन भ्रम है कि पता है। अर्जुन अभी ऐसे बोलता रहा, इस प्रश्न के पहले तक, जैसे उसे पता है कि क्या ठीक है, क्या गलत है! चाहता था इतना कि कृष्ण और हामी भर दें, गवाह बन जाएं, तो कल वह जगत को कह सके कि मैं ही नहीं भागा था, कृष्ण ने भी कहा था। मैंने ही युद्ध नहीं छोड़ा था, कृष्ण से पूछो ! रिस्पांसिबिलिटी बांटना चाहता था, दायित्व बांटना चाहता था । ध्यान रहे, जो दायित्व बांटना चाहता है, उसके भीतर कंपन है। पक्का उसको भी नहीं है, इसीलिए तो दूसरे का सहारा चाहता है। लेकिन यह बताना भी नहीं चाहता कि मुझे पता नहीं है । यह अहंकार भी नहीं छोड़ना चाहता कि मुझे पता नहीं है। अर्जुन पूरे समय ऐसे बोल रहा है कि जैसे उसे भलीभांति पता है। धर्म क्या है, अधर्म क्या है ! श्रेयस क्या है, अश्रेयस क्या है ! जगत का किससे लाभ होगा, किससे नहीं होगा ! मरेगा कोई, नहीं मरेगा! सब उसे पता है। पता बिलकुल नहीं है; लेकिन अहंकार कहता है, पता है। इसी अहंकार में वह एक टेक कृष्ण की भी लगवा लेना चाहता था। तुम भी बन जाओ उस लंगड़े की बैसाखी, यही वह चाहता था। कृष्ण जैसे लोग किसी की बैसाखी नहीं बनते। क्योंकि किसी लंगड़े की बैसाखी बनना, उसको लंगड़ा बनाए रखने के लिए व्यवस्था है। कृष्ण जैसे लोग तो सब बैसाखियां छीन लेते हैं। वे लंगड़े को पैर देना चाहते हैं, बैसाखी नहीं देना चाहते। इसलिए कृष्ण ने अभी इस बीच उसकी सब बैसाखियां छीन लीं, जो उसके पास थीं, वे भी । अब वह पहली दफा, पहली बार कृष्ण से जिज्ञासा कर रहा है, जिसमें अपने लिए समर्थन नहीं मांग रहा है। अब वह उन्हीं से पूछ रहा है कि समाधिस्थ कौन है कृष्ण ? किसे हम कहते हैं कि उसकी प्रज्ञा ठहर गई? और जब किसी की प्रज्ञा ठहर जाती है, तो उसका आचरण क्या है? और जब किसी के अंतस में ज्योति ठहर जाती है, तो उसके बाहर के आचरण पर क्या परिणाम होते हैं? मुझे उस संबंध में बताएं। अब वह पहली बार हंबल है, पहली बार विनीत है। और जहां विनय है, वहीं जिज्ञासा है। और जहां विनय है, वहां ज्ञान का द्वार खुलता है। जहां अपने अज्ञान का बोध है, वहीं से मनुष्य ज्ञान की तरफ यात्रा शुरू करता है। इस वचन में कृष्ण ज्ञानी और अर्जुन अज्ञानी, ऐसी अर्जुन की प्रतीति पहली बार स्पष्ट है। इसके पहले अर्जुन भी ज्ञानी है। कृष्ण भी होंगे, नंबर दो के नंबर एक वह खुद था अब तक। बड़ा कठिन है, दूसरे आदमी को नंबर एक रखना बड़ा कठिन है। मैंने सुना है, गांधी गोलमेज- कांफ्रेंस के लिए गए लंदन। तो उनका एक भक्त बर्नार्ड शा को मिलने गया । और बर्नार्ड शा को कहा उस भक्त ने कि गांधी जी को आप महात्मा मानते हैं या नहीं? भक्तों को बड़ी चिंता होती है कि उनके महात्मा को कोई दूसरा महात्मा मानता है कि नहीं! खुद ही संदेह होता है भीतर, इसलिए दूसरे से भी पक्की गारंटी करवाना चाहते हैं। अब बर्नार्ड शा से पूछने जाने की क्या जरूरत है भक्त को ? इसको खुद ही शक रहा होगा । सोचा, चलो, बर्नार्ड शा से पूछ लें। और सोचा होगा यह भी कि शिष्टाचारवश भी कम से कम बर्नार्ड शा कुछ ऐसा तो कह नहीं सकता कि नहीं हैं। लेकिन बर्नार्ड शा जैसे लोग शिष्टाचार नहीं पालते, सत्याचार पालते हैं। और सत्याचार बड़ी और बात है। और शिष्टाचार तो सब दिखावा है। बर्नार्ड शा ने कहा, महात्मा हैं तुम्हारे गांधी, बिलकुल हैं, लेकिन नंबर दो के हैं। भक्त ने कहा, नंबर दो के ? नंबर एक का महात्मा कौन है ? बर्नार्ड शा ने कहा, मैं ! बर्नार्ड शा ने कहा, मैं झूठ न बोल सकूंगा। मैं अपने से ऊपर किसी को रख ही नहीं सकता हूं। ऐसी मेरी स्पष्ट प्रतीति है । भक्त तो बहुत घबड़ा गया कि कैसा अहंकारी आदमी है। लेकिन बर्नार्ड शा बड़ा ईमानदार आदमी है। नंबर एक कोई भी अपने को | रखता है। वह जो कहता है, चरणों की धूल हूं, वह भी नंबर एक ही रखता है अपने को। यह चरणों की धूल वगैरह सब शिष्टाचार है। बर्नार्ड शा ने कहा, सचाई यह है कि ज्यादा से ज्यादा नंबर दो रख सकता हूं तुम्हारे महात्मा । नंबर एक तो तय ही है। उसकी कोई बात ही मत करो। उसमें कोई शक - शुबहा नहीं है मुझे। मैं नंबर एक हूं। व्यंग्य कर रहा था गहरा पूरी मनुष्य जाति पर। और कभी-कभी ऐसा होता है कि बहुत बुद्धिमान जो नहीं कह पाते, वह व्यंग्य करने वाले कह जाते हैं। 240 अरबी में एक कहावत है कि परमात्मा जब भी किसी आदमी को | बनाता है, तो दुनिया में धक्का देने के पहले उसके कान में एक | मजाक कर देता है। उससे कह देता है, तुझसे अच्छा आदमी कभी भी नहीं बनाया । बस उस मजाक में सभी आदमी जीते हैं। जिंदगीभर कान में वह गूंजती रहती है परमात्मा की बात कि मुझसे अच्छा कोई भी नहीं! मगर वह दिल में ही रखनी पड़ती है, क्योंकि Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मोह-मुक्ति, आत्म-तृप्ति और प्रज्ञा की थिरता - बाकी को भी यही कह दिया है उसने। उसको अगर जोर से कहिए, | उसके ढांचे के अभाव में भी, एक गहरी आंतरिक व्यवस्था होती है, तो झगड़े के सिवाय कुछ हो नहीं सकता। इसलिए मन में | | एक इनर डिसिप्लिन होती है। ऊपर तो कोई ढांचा नहीं होता। अपने-अपने हर आदमी समझता है। दूसरे से शिष्टाचार की बातें अब जैसे इतना तो कहा ही जा सकता है कि उसका जीवन करता है, मन में सत्य को जानता है, कि सत्य मुझे पता है। सहज-स्फूर्त होता है, स्पांटेनियस होता है। यह भी सूचना हो गई। अभी जो भी प्रश्न पूछे जा रहे थे कृष्ण से, कृष्ण भी समझते हैं यह भी सूचना हो गई। बुद्ध सुबह कुछ कहते हैं, दोपहर कुछ कहते कि उनमें अर्जुन अभी तक नंबर एक है। इस पूरे बीच उसके नंबर | | हैं, सांझ कुछ कहते हैं। पैटर्न नहीं है, फिर भी पैटर्न है। ढांचा नहीं एक को गिराने की उन्होंने सब तरफ से कोशिश की है। और उसको | | है। सुबह जो कहा था, वही दोपहर नहीं दोहराया। चाहा है कि वह समझे कि स्थिति क्या है! व्यर्थ ही अपने को नंबर बुद्ध जैसे व्यक्ति मरकर नहीं जीते हैं, जीकर ही जीते हैं। सुबह एक न माने। क्योंकि नंबर एक को केवल वही उपलब्ध होता है, | जो कहा था, उसको सिर्फ वही दोहराएगा, जो दोपहर तक मरा हुआ जिसको अपने नंबर एक होने का कोई पता नहीं रह जाता। वह हो | है। जो दोपहर तक जीया है, वह फिर से उत्तर देगा, फिर रिस्पांड जाता है। जिसको पता रहता है, वह कभी नहीं हो पाता। पहली दफे करेगा। उसका उत्तर सदा नया होगा। नए का मतलब यह है कि वह अर्जुन विनम्र हुआ है। अब उसकी हंबल इंक्वायरी शुरू होती है। पुराने उत्तर को दोहराएगा नहीं। आप पूछेगे, फिर उत्तर उसमें अब वह पूछता है कि बताओ कृष्ण! और इस पूछने में बड़ी प्रतिध्वनित होगा। वह जो भी हो! । विनम्रता है। लेकिन इन तीन अलग-अलग घटनाओं में, इन तीन असंगतियों में, इस इनकंसिस्टेंसी में भी एक भीतरी कंसिस्टेंसी है। सुबह भी बुद्ध सहज उत्तर देते हैं, दोपहर भी, सांझ भी। सुबह भी देख लेते प्रश्नः भगवान श्री, जैसा कि आपने बताया, | | हैं कि वह आदमी सिर्फ प्रमाण चाह रहा है, दोपहर भी देख लेते हैं स्थितप्रज्ञता एक आंतरिक घटना है। और स्थितप्रज्ञ | कि प्रमाण चाह रहा है, सांझ भी देख लेते हैं कि प्रमाण चाह रहा पुरुष जो जीवन जीता है, वह कोई पैटर्न में तो जीता है। सुबह भी उसे डगमगा देते, दोपहर भी डगमगा देते, सांझ भी नहीं है, कोई निश्चित पैटर्न बनाकर नहीं जीता है। डगमगा देते। जैसे कि बुद्ध के तीनों उत्तर अलग रहे। तो बाहर से | बुद्ध के ऊपर कोई मृत ढांचा नहीं है, लेकिन एक जीवंत धारा भी हम कैसे निश्चित कर पाएं कि वह स्थितप्रज्ञ है? | है। पर उस जीवंत-धारा के संबंध में कुछ इशारे किए जा सकते हैं। जैसे एक इशारा यही किया जा सकता है कि स्थितप्रज्ञ का जीवन सहज-स्फूर्त, तत्क्षण-स्फूर्त, स्पांटेनियस है। इसलिए दो स्थितप्रज्ञ क पूछते हैं। जिस व्यक्ति के भीतर जीवन में सत्य की | | के जीवनों को ऊपर से बिलकुल अलग-अलग होते हुए भी, भीतर किरणें फैल जाती हैं, सत्य का सूर्य जगता है, और की एकता को जांचा जा सकता है, पहचाना जा सकता है। जिसकी आंतरिक चेतना जागृति को, पूर्ण जागृति को | जैसा मैंने पीछे कहा, तो कई मित्रों ने मुझे पूछा कि ऐसा कैसे हो उपलब्ध हो जाती है, उसका जीवन स्पांटेनियस हो जाता है, सहज | | सकता है! मैंने कहा कि महावीर और बुद्ध एक बार एक ही गांव हो जाता है, सहज-स्फूर्त हो जाता है। उसके जीवन में किसी पैटर्न | | में एक ही धर्मशाला में ठहरे। अब एक ही धर्मशाला में दो को, किसी ढांचे को खोजना मुश्किल है। उसके जीवन में कोई | | स्थितप्रज्ञ—ऐसा कम होता है। एक ही बार पृथ्वी पर दो स्थितप्रज्ञ बंधी-बंधाई रेखाएं नहीं होती। उस व्यक्ति का जीवन रेल की | मुश्किल से होते हैं। एक ही धर्मशाला में, एक ही गांव में बहुत पटरियों पर दौड़ता हुआ जीवन नहीं होता; गंगा की तरह भागता | रेयर फिनामिनन, बड़ी अदभुत घटना है। तो मुझसे मित्रों ने पूछा हुआ, स्वतंत्रता से भरा जीवन होता है। वहां कोई रेल की पटरियां | | कि क्या इतने अहंकारी रहे होंगे कि मिले नहीं? नहीं होती बंधी हई, कि जिन पर ही चलता है वैसा व्यक्ति। | हमको ऐसा ही सूझता है एकदम से। क्योंकि हम जब नहीं लेकिन फिर भी कुछ बातें कही जा सकती हैं। क्योंकि उसके मिलते किसी से, तो सिर्फ अहंकार के कारण नहीं मिलते। और नो-पैटर्न में भी एक बहुत गहरा पैटर्न होता है। उसके न-ढांचे में भी, हमारे पास कोई कारण नहीं होता। क्यों मिलें हम? लेकिन हमको [24] Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1 AM यह पता ही नहीं होता कि अहंकार न बचा हो, तो मिलना कैसे हो दोनों बिलकुल एक जैसे हैं। दोनों बिलकुल एक जैसे हैं। सकता है। क्योंकि मिलने वाला भी अहंकार है, न मिलने वाला भी एक और मित्र ने इस संबंध में मुझे चिट्ठी लिखकर भेजी है कि अहंकार है। हमें खयाल में नहीं आती वह बात। | आप कहते हैं कि महावीर और बुद्ध जो कहते हैं, वह बिलकुल एक मिले कौन? होना तो चाहिए न कोई—मिलने के लिए भी, न है। तो क्या बुद्ध और महावीर को दिखाई नहीं पड़ा यह कि एक है? मिलने के लिए भी। बुद्ध हैं कहां! महावीर हैं कहां! किससे मिलना बिलकुल दिखाई पड़ता था। बिलकुल दिखाई पड़ता था। तो है? कोई पराया बचा है, जिससे मिलना है? बुद्ध अगर बचे होते, उन्होंने पूछा है कि अगर दिखाई पड़ता था, तो उन्होंने कह क्यों नहीं तो चले जाते महावीर से मिलने, या इनकार करते मिलने से। दिया कि एक है! यह बड़े मजे की बात है कि न मिले, न इनकार किया मिलने से। उन्होंने नहीं कहा, आप पर कृपा करके। क्योंकि अगर बद्ध और वह हुआ ही नहीं, बस, इट डिडन्ट हैपेन-बस, यह हुआ ही नहीं। | महावीर कह दें कि बिलकुल एक है, तो आप सिर्फ कनफ्यूज्ड होंगे इसका कोई उपाय ही नहीं है। क्योंकि कौन मिले? किससे मिले? | | और कुछ भी नहीं हो सकता; आप सिर्फ विभ्रमित होंगे, और कुछ मिलने के लिए भी अहंकार चाहिए। और फिर किसलिए मिले? | भी नहीं हो सकता। कोई कारण चाहिए। इसलिए महावीर कहे चले जाते हैं कि जो मैं कह रहा हूं, वही हां, अगर अहंकार होता, तो शायद एक ही धर्मशाला में ठहरने ठीक है। जो बुद्ध...बेकार है। यह जो मैं कह रहा हूं, यही ठीक से भी इनकार कर देते। कहते कि वहां हम नहीं ठहरते। ठहर गए। | है। आप इतने कमजोर चित्त हैं कि अगर महावीर इतने अतिशय से अगर कोई पकड़कर ले जाता, तो चले जाते। रुकते भी नहीं, रोकते | न बोलें, तो आपके चित्त पर कोई परिणाम ही होने वाला नहीं है। भी नहीं कि नहीं जाते। कोई पकड़कर नहीं ले गया। किसी ने दोनों | | क्योंकि आप इतने कमजोर हैं कि अगर महावीर को आप देखें कि को खींचा नहीं। वह कहें, यह भी ठीक, वह भी ठीक; यह भी ठीक, वह भी ठीक, । असल में दोनों के आस-पास अहंकारियों का इतना बड़ा जाल | सभी ठीक, तो आप भाग खड़े होंगे। आप तो खुद ही कमजोर हैं। रहा होगा कि उसने दीवार का काम किया होगा। दोनों के | आप तो चले ही जाएंगे कि जब सभी ठीक है, तो फिर ठीक है, हम आस-पास अहंकारियों का इतना जाल रहा होगा कि उसने सख्त | | भी ठीक हैं। आप उससे जो निष्कर्ष निकालेंगे, वह यह कि फिर प्राचीर का काम किया होगा। अगर कोशिश भी चली होगी, तो | | हम भी ठीक! फिर हम जाते हैं। भक्तों ने न चलने दी होगी-मिलने की। ऐसा कैसे हो सकता है! ___ अगर महावीर को ज्ञानियों के बीच में बोलना पड़े, तो महावीर अगर बुद्ध के भक्तों ने महावीर के भक्तों से कहा होगा कि मिलाने कहेंगे, सभी ठीक। अगर बुद्ध को ज्ञानियों के बीच में बोलना पड़े, महावीर को ले आओ, तो उन्होंने कहा होगा, हम ले आएं? तुम ले बुद्ध कहेंगे, सभी ठीक। अगर ज्ञानियों के बीच में बोलना पड़े, तो आओ अपने बुद्ध को, मिलाना हो तो। उन्होंने कहा होगा, यह कैसे बुद्ध बोलेंगे ही नहीं, महावीर बोलेंगे ही नहीं। इतना भी नहीं कहेंगे हो सकता है कि बुद्ध को हम लेकर आएं! बुद्ध नहीं आ सकते। कि सभी ठीक। लेकिन बोलना पड़ता है अज्ञानियों के बीच में। मगर यह बातचीत भक्तों में चली होगी। यह उनमें चली होगी, जो | | ये बुद्ध और महावीर की पीड़ा आपको पता नहीं है। बोलना चारों तरफ घेरकर खड़े हैं। वे सदा खड़े हैं। | पड़ता है उनके बीच में, जिन्हें कुछ भी पता नहीं है। उनके लिए इस . इस दुनिया में बुद्ध, महावीर, कृष्ण और मोहम्मद और ईसा के | तरह के एब्सोल्यूट स्टेटमेंट, इस तरह के निरपेक्ष वचन कि सभी बीच कोई दीवार नहीं है; दीवार है, भक्तों के कारण; वे जो घेरकर ठीक, सिर्फ व्यर्थ होंगे, अर्थहीन होंगे। उनके लिए कहना पड़ता है, खड़े हैं। भयंकर दीवार है। हां, बुद्ध अगर तोड़ना चाहते, तो दीवार | | यही ठीक। और इतने जोर से कहना पड़ता है कि महावीर के को तोड़ सकते थे। लेकिन तोड़ने का भी कोई कारण नहीं है। महावीर व्यक्तित्व का वजन और गरिमा और महिमा, उस यही ठीक के अगर चाहते कि मिलना है, तो मिल सकते थे। लेकिन महावीर और बीच जुड़ जाए, तो शायद आप दो कदम उठाएं। बुद्ध चाह से नहीं जीते; एकदम डिजायरलेस, अचाह से जीते हैं। हां, महावीर भलीभांति जानते हैं कि जिस दिन आप पहुंचेंगे, मिलना हो जाता, तो हो जाता। नहीं हुआ, तो नहीं हुआ। राह पर जान लेंगे, सभी ठीक। लेकिन वह उस दिन के लिए छोड़ दिया चलते मिल जाते, तो मिल जाते। नहीं मिले, तो नहीं मिले। मगर जाता है। उसके लिए कोई अभी चिंता करने की जरूरत नहीं है। 242 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ yam मोह-मुक्ति, आत्म-तृप्ति और प्रज्ञा की थिरता +m पहाड़ पर आप चल रहे हैं। मैं अपने रास्ते को कहता हूं, यही| यह जो...ऊपर से ढांचे नहीं दिखाई पड़ेंगे, लेकिन अगर बहुत ठीक। आप कहते हैं, उस रास्ते के बाबत क्या खयाल है, वह जो गहरे में खोज-बीन की, तो बहुत जीवंत पैटर्न, लिविंग पैटर्न होंगे। वहां से जा रहा है? मैं कहता हूं, बिलकुल गलत! जब मैं कहता | पैटर्न भी डेड और लिविंग हो सकते हैं। हूं, बिलकुल गलत, तो मेरा मतलब यह नहीं होता कि वह एक चित्रकार एक चित्र बनाता है, वह डेड होता है। लेकिन बिलकुल गलत। मैं भलीभांति जानता हूं, उससे भी लोग पहुंचे हैं। | एक चित्र प्रकृति बनाती है, वह लिविंग होता है। एक चित्रकार भी लेकिन हजार रास्ते जा रहे हैं पहाड़ पर। और आप चल सकते हैं | एक वृक्ष बनाता है, लेकिन वह मरा होता है। एक वृक्ष प्रकृति भी सिर्फ एक पर, हजार पर नहीं। और अगर आपको हजार ही ठीक बनाती है, लेकिन वह जीवंत होता है। वह प्रतिपल बदल रहा है। दिखाई पड़ जाएं, तो संभावना यह नहीं है कि आप हजार पर चलें, | कुछ पत्ते गिर रहे, कुछ आ रहे, कुछ जा रहे, कुछ फूट रहे, हवाएं संभावना यही है कि आप एक पर भी न चलें। दो कदम एक पर हिला रही हैं। चलें, फिर दो कदम दूसरे पर चलें, फिर दो कदम तीसरे पर चलें। एक सूर्य सुबह उगता है, और एक वानगाग भी सूर्योदय का जैसा आपका चित्त है डांवाडोल, वह रास्ते बदलता रहे और आप | चित्र बनाता है। लेकिन वानगाग के सूर्योदय का चित्र ठहरा हुआ पहाड़ के नीचे ही भटकते रहें। है, स्टैटिक, स्टैगनेंट है। सुबह का सूरज कभी नहीं ठहरता है; __ हजार रास्ते भी पहुंच जाते हैं पहाड़ पर, लेकिन हजार रास्तों से उगता ही चला जाता है, कहीं नहीं ठहरता। इतना उगता चला जाता चलकर कोई भी नहीं पहुंचता। अनंत रास्ते पहुंचते हैं परमात्मा तक, | है कि डूब जाता है, एक क्षण नहीं ठहरता है। लेकिन अनंत रास्तों से कोई भी नहीं पहुंचता। पहुंचने वाले सदा | । जिंदगी में जो पैटर्न हैं, वे सब जीवित हैं। वे ऐसे ही हैं जैसे किसी एक ही रास्ते से पहुंचते हैं। वृक्ष के नीचे खड़े हो जाएं। पत्तों से छनकर धूप की किरणें आती .तो महावीर जिस रास्ते पर खड़े हैं, उचित है कि वे कहें, इसी | हैं। वृक्ष में हवाएं दौड़ती हैं, नीचे छाया और धूप का एक जाल बन रास्ते से पहुंच जाओगे, आ जाओ। और जरूरी है कि आपको इस जाता है। वह प्रतिपल कंपता रहता है, बदलता रहता है-प्रतिपल। रास्ते पर चलने के लिए भरोसा और निष्ठा आ सके, वे कहें कि | स्थितप्रज्ञ की प्रज्ञा तो स्थिर होती है, लेकिन उसके जीवन का बाकी कोई रास्ता नहीं पहुंचाता है। | पैटर्न बिलकुल जीवंत होता है, वह प्रतिपल बदलता रहता है। महावीर को आपकी वजह से भी असत्य बोलने पड़ते हैं। और | कृष्ण से ज्यादा बदलता हुआ व्यक्ति खोजना मुश्किल है। नहीं बुद्ध को भी आपकी वजह से असत्य बोलने पड़ते हैं। मनुष्य के | | तो हम सोच ही नहीं सकते कि एक ही आदमी बांसुरी भी बजाए ऊपर जो अनुकंपा है ज्ञानियों की, उसकी वजह से उन्हें ढेर असत्य | | और एक ही आदमी सुदर्शन चक्र लेकर भी खड़ा हो जाए। और बोलने पड़ते हैं। लेकिन इस भरोसे में वे असत्य बोले जाते हैं कि | एक ही आदमी गोपियों के साथ नाचे भी, और इतना कोमल, और आप एक से भी चढ़कर जब शिखर पर पहुंच जाएंगे, तब आप खुद | वही आदमी युद्ध के लिए इतना सख्त हो जाए। और वही आदमी ही देख लेंगे कि सभी रास्ते यहीं ले आए हैं। | नदी में स्नान करती स्त्रियों के कपड़े लेकर वृक्ष पर चढ़ जाए, और _अब जैसे पूछा है कि क्या ढांचा होगा? ढांचा कोई नहीं होगा। | वही आदमी नग्न होती द्रौपदी के लिए वस्त्र बढ़ाता रहे, बढ़ा दे। लेकिन जैसे यह बातः कृष्ण भी कहेंगे कि इस रास्ते से चलो, बद्ध यह एक ही आदमी इतने बदलता पैटन भी कहेंगे कि इस रास्ते से चलो, महावीर भी कहेंगे कि इस रास्ते से | जिन्होंने कृष्ण को गोपियों के वस्त्र उठाकर वृक्ष पर बैठते देखा चलो, शंकर भी कहेंगे कि इस रास्ते से चलो। और अगर झंझट बनी | होगा, क्या वे सोच सकते थे कभी कि किसी नग्न होती स्त्री के यह और शंकर से किसी ने पूछा, बुद्ध के रास्ते के बाबत क्या खयाल वस्त्र बढ़ाएगा? यह आदमी! भूलकर ऐसा नहीं सोच सकते थे। है? तो वे कहेंगे, बिलकुल गलत। और बुद्ध से अगर किसी ने पूछा | कोई सोच सकता था कि यह आदमी, जी मोर के पंख बांधकर और कि महावीर के रास्ते के बाबत क्या खयाल है? तो बुद्ध कहेंगे, | | स्त्रियों के बीच नाचता है, यह आदमी कभी युद्ध के लिए जगत की बिलकुल गलत। और महावीर से किसी ने पूछा कि बुद्ध के रास्ते के सबसे मुखर वाणी बन जाएगा? कोई सोच भी नहीं सकता था। मोर बाबत क्या खयाल है? तो महावीर कहेंगे, भटकना हो तो बिलकुल के पंखों से और युद्धों का कोई संबंध है, कोई संगति है? ठीक। इस मामले में तो बिलकुल एक ही बात होगी। लेकिन यह मृत आदमी नहीं है, मोर के पंख इसे बांधते नहीं। 2431 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m+ गीता दर्शन भाग-1 AM यह मृत आदमी नहीं है, बांसुरी की धुन इसे बांधती नहीं। यह मृत कोई छोड़ दे, तो अच्छा नहीं लगता, क्योंकि अकेले में हम अपने आदमी नहीं है, यह जीवित आदमी है। | ही साथ रह जाते हैं। हमें कोई दूसरा चाहिए, कंपनी चाहिए, साथ __ और जीवित आदमी का मतलब ही है, रिस्पांसिव। जगत जो भी चाहिए। तभी हमें अच्छा लगता है, जब कोई और हो। स्थिति ला देगा, उसमें उत्तर देगा और उत्तर रेडीमेड नहीं होंगे। | और बड़े मजे की बात है कि दो आदमियों को साथ होकर अच्छा स्थितप्रज्ञ के उत्तर कभी भी रेडीमेड नहीं हैं, तैयार नहीं हैं। उन पर | लगता है और इन दोनों आदमियों को ही अकेले में बुरा लगता है। सैमसन की सील नहीं होती, वे रेडीमेड कपड़े नहीं हैं। बने-बनाए | जो अपने साथ ही आनंदित नहीं है, वह दूसरे को आनंद दे पाएगा? नहीं हैं कि बस कोई भी पहन ले। वह प्रतिपल, प्रतिपल जीवन को | और जो अपने को भी इस योग्य नहीं मानता कि खुद को आनंद दे दिए गए उत्तर से, प्रतिपल जीवन के प्रति हुई संवेदना से, सब कुछ | पाए, वह दूसरे को आनंद कैसे दे पा सकता है? करीब-करीब निकलता है। इसलिए एक अनुशासन नहीं है ऊपर, लेकिन भीतर | हमारी हालत ऐसी है कि जैसे भिखारी रास्ते पर मिल जाएं और एक गहरा अनुशासन है। एक-दूसरे के सामने भिक्षा-पात्र फैला दें। दोनों भिखारी! और एक बात और। जिनके जीवन में ऊपर अनुशासन होता है, | मैंने सुना है, एक गांव में दो ज्योतिषी रहते थे। सुबह दोनों उनके जीवन में ऊपर अनुशासन इसलिए होता है कि उन्हें इनर | निकलते थे, तो एक-दूसरे को अपना हाथ दिखा देते थे कि आज डिसिप्लिन का भरोसा नहीं है। उनके भीतर कोई डिसिप्लिन नहीं | | कैसा धंधा चलेगा! है। जिन्हें भीतर के अनुशासन का कोई भरोसा नहीं है, वे ऊपर से | | हम सब स्वयं से बिलकुल राजी नहीं हैं। एक क्षण अकेलापन अनुशासन बांधकर चलते हैं। लेकिन जिनके भीतर के अनुशासन | भारी हो जाता है। जितना हम अपने से ऊब जाते हैं, उतना हम का जिन्हें भरोसा है, वे ऊपर से बिलकुल स्वतंत्र होकर चलते हैं। | किसी से नहीं ऊबते। रेडियो खोलो, अखबार उठाओ, मित्र के पास कोई डर ही नहीं है। कोई डर ही नहीं है। वे तैयार होकर नहीं जीते; | जाओ, होटल में जाओ, सिनेमा में जाओ, नाच देखो, मंदिर में वे जीते हैं, क्योंकि वे तैयार हैं। जो भी स्थिति आएगी, उसमें उत्तर | | जाओ-कहीं न कहीं जाओ, अपने साथ मत रहो। अपने साथ उनसे आएगा। उस उत्तर के लिए पहले से तैयार होने की कोई भी बड़ा...। जरूरत नहीं है। कृष्ण पहला सूत्र देते हैं, स्वयं से संतुष्ट, स्वयं से तृप्त। . स्वभावतः, जो अपने से तृप्त नहीं है, उसकी चेतना सदा दूसरे की तरफ बहती रहेगी, उसकी चेतना सदा दूसरे की तरफ कंपती रहेगी। श्री भगवानुवाच असल में जहां हमारा संतोष है, वहीं हमारी चेतना की ज्योति ढल प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्यार्थ मनोगतान् । जाती है। मिलता है वहां या नहीं, यह दूसरी बात है। लेकिन जहां आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रजस्तदोच्यते ।। ५५ ।। हमें संतोष दिखाई पड़ता है, हमारे प्राणों की धारा उसी तरफ बहने उसके उपरांत श्री कृष्ण भगवान बोले : हे अर्जुन, जिस काल लगती है। में यह पुरुष मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को त्याग देता | तो हम चौबीस घंटे बहते रहते हैं यहां-वहां। एक जगह को है, उस काल में आत्मा से ही आत्मा में संतुष्ट हुआ, | छोड़कर अपने में होने को छोड़कर-हमारा होना सब तरफ स्थिर प्रज्ञा वाला कहा जाता है। डांवाडोल होता है। फिर जिसके पास भी बैठ जाते हैं, थोड़ी देर में वह भी उबा देता है। मित्र से भी ऊब जाते हैं, प्रेमी से भी ऊब जाते | है, क्लब से भी ऊब जाते हैं, खेल से भी ऊब जाते हैं, ताश से भी मतरूप से संतुष्ट-टु बी कंटेंट विद वनसेल्फ-इसे ऊब जाते हैं। तो फिर विषय बदलने पड़ते हैं। फिर दौड़ शुरू होती रप पहला स्थितप्रज्ञ का लक्षण कृष्ण कहते हैं। हम कभी | | है-जल्दी बदलो-नए सेंसेशन की, नई संवेदना की। सब पुराना भी स्वयं से संतुष्ट नहीं हैं। अगर हमारा कोई भी पड़ता जाता है-नया लाओ, नया लाओ, नया लाओ। उसमें हम लक्षण कहा जा सके, तो वह है, स्वयं से असंतुष्ट। हमारे जीवन दौड़ते चले जाते हैं। की पूरी धारा ही स्वयं से असंतुष्ट होने की धारा है। अकेले में हमें , लेकिन कभी यह नहीं देखते कि जब मैं अपने से ही असंतुष्ट 244 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Om मोह-मुक्ति, आत्म-तृप्ति और प्रज्ञा की थिरता - हूं, तो मैं कहां संतुष्ट हो सकूँगा? जब मैं भीतर ही बीमार हूं, तो मैं | होशियार है कि इसके पहले कि एक जगह से तंबू उखड़ें, वह दूसरी किसी के भी साथ होकर कैसे स्वस्थ हो सकूँगा? जब दुख मेरे जगह खूटियां गाड़ चुका होता है। भीतर ही है, तब किसी और का सख मझे कैसे भर पाएगा? और हम सब इसको समझ लेते हैं। अगर पत्नी देखती है कि हां, थोड़ी देर के लिए धोखा हो सकता है। लोग मरघट ले जाते पति थोड़ी कम उत्सुकता ले रहा है, तो वह किसी बहुत गहरे हैं किसी को, कंधे पर रखकर उसकी अर्थी को, तो रास्ते में कंधा इंसटिंक्टिव आधार पर समझ जाती है कि खूटियां किसी और स्त्री बदल लेते हैं। एक कंधा दुखने लगता है, तो दूसरे कंधे पर अर्थी पर गड़नी शुरू हो गई होंगी। तत्काल! तत्काल कोई उसे गहरे में कर लेते हैं। लेकिन अर्थी का वजन कम होता है? नहीं, दुखा हुआ बता जाता है, कहीं खूटियां और गड़नी शुरू हो गई हैं। और सौ में कंधा थोड़ी राहत पा लेता है। नए कंधे पर थोड़ी देर भ्रम होता है कि नन्यानबे मौके पर बात सही होती है। सही इसलिए होती है कि सौ ठीक है। फिर दसरा कंधा दखने लगता है। सिर्फ वजन के टांसफर | में निन्यानबे मौके पर आदमी स्थितप्रज्ञ नहीं हो जाता। और मन से कुछ अंतर पड़ता है? नहीं कोई अंतर पड़ता। अपने पर वजन | बिना टियां गाड़े जी नहीं सकता। है, तो कंधे बदलने से कुछ न होगा। और भीतर दुख है, तो साथी ___ हां, एक मौके पर गलत होती है। कभी किसी बुद्ध के मौके पर बदलने से कुछ न होगा। और भीतर दुख है, तो जगह बदलने से | | गलत हो जाती है। यशोधरा ने भी सोची होगी पहली बात तो यही कुछ न होगा। कि कुछ गड़बड़ है। जरूर कोई दूसरी स्त्री बीच में आ गई, अन्यथा .. दूसरे में संतोष खोजना ही प्रज्ञा की अस्थिरता है, स्वयं में संतोष | | भाग कैसे सकते थे! पा लेना ही प्रज्ञा की स्थिरता है। लेकिन स्वयं में संतोष वही पा इसलिए बुद्ध जब बारह साल बाद घर लौटे, तो यशोधरा बहुत सकता है, जो-दूसरे में संतोष नहीं मिलता है-इस सत्य को | | नाराज थी, बड़ी क्रुद्ध थी। क्योंकि वह यह सोच ही नहीं सकती कि अनुभव करता है। जब तक यह भ्रम बना रहता है कि मिल मन ने कहीं खंटियां ही न गाड़ी हों, खंटियां ही उखाड़ दी हों सब जाएगा-इसमें नहीं मिलता तो दूसरे में मिल जाएगा, दूसरे में नहीं | तरफ से। और फिर भी बड़े मजे की बात है कि एक स्त्री को इसमें मिलता तो तीसरे में मिल जाएगा–जब तक यह भ्रम बना रहेगा, | | ही ज्यादा सुख मिलेगा कि कोई किसी दूसरी स्त्री पर खूटियां गाड़ तब तक जन्मों-जन्मों तक प्रज्ञा अस्थिर रहेगी। जब तक यह | ले। इसमें ही ज्यादा पीड़ा होगी कि अब खूटियां गाड़ी ही नहीं हैं। इलूजन, जब तक यह भ्रम पीछा करेगा कि कोई बात नहीं, इस स्त्री | क्योंकि यह बिलकुल समझ के बाहर मामला हो जाता है। में सुख नहीं मिला, दूसरी में मिल सकता है; इस पुरुष में सुख नहीं कृष्ण से अर्जुन ने जो बात पूछी है, उसके लिए पहला उत्तर मिला. दसरे में मिल सकता है. इस मकान में सख नहीं मिला. बहत ही गहरा है. मौलिक है. आधारभत है। जब तक चित्त सोचता दूसरे में मिल सकता है; इस कार में सुख नहीं मिला, दूसरी कार है कि कहीं और सुख मिल सकता है, तब तक चित्त स्वयं से में मिल सकता है जब तक यह भ्रम बना रहेगा कि बदलाहट में असंतुष्ट है। जब तक चित्त स्वयं से असंतुष्ट है, तब तक दूसरे की मिल सकता है, तब तक प्रज्ञा डोलती ही रहेगी, कंपित होती ही आकांक्षा, दूसरे की अभीप्सा उसकी चेतना को कंपित करती रहेगी, रहेगी। यह विषयों की आकांक्षा, यह भ्रामक दूर के ढोल का| | दूसरा उसे खींचता रहेगा। और उसके दीए की लौ दूसरे की तरफ सुहावनापन, यह चित्त को कंपाता ही रहेगा। दौड़ती रहेगी, तो थिर नहीं हो सकती। जैसे ही-दूसरे में सुख नहीं लेकिन आदमी बहुत अदभुत है। अगर उसका सबसे अदभुत | है-इसका बोध स्पष्ट हो जाता है, जैसे ही दूसरे पर खूटियां कोई रहस्य है, तो वह यही है कि वह अपने को धोखा देने में अनंत गाड़ना मन बंद कर देता है, वैसे ही सहज चेतना अपने में थिर हो रूप से समर्थ है। इनफिनिट उसकी सामर्थ्य है धोखा देने की। एक जाती है। स्थिरधी की घटना घट जाती है। चीज से धोखा टूट जाए, टूट ही नहीं पाता कि उसके पहले वह | बायरन ने शादी की। मुश्किल से शादी की। कोई साठ स्त्रियों अपने धोखे का दूसरा इंतजाम कर लेता है। से उसके संबंध थे। हमें लगेगा, कैसा पुरुष था। लेकिन अगर हमें बर्नार्ड शा ने कहीं कहा है, कि कैसा मजेदार है मन! एक जगह | लगता है, तो हम धोखा दे रहे हैं। असल में ऐसा पुरुष खोजना भ्रम के तंबू उखड़ नहीं पाते कि मन तत्काल दूसरी जगह खूटियां | | कठिन है जो साठ स्त्रियों से भी तृप्त हो जाए। यह दूसरी बात है कि गाड़कर इंतजाम शुरू कर देता है। सच तो यह है कि मन इतना समाज का भय है, हिम्मत नहीं जुटती, व्यवस्था है, कानून है, और 245 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm गीता दर्शन भाग-1 AM फिर उपद्रव हैं बहुत। लेकिन बायरन को एक स्त्री ने मजबूर कर दिया शादी के लिए। उसने कहा, पहले शादी, फिर कुछ और। पहले शादी, अन्यथा हाथ भी मत छूना। शादी की। चर्च में घंटियां बज रही हैं, मोमबत्तियां जली हैं, मित्र विदा हो रहे हैं, शादी करके बायरन उतर रहा है सीढ़ियों पर अपनी नव-वधू का हाथ हाथ में लिए हुए। और तभी सड़क से एक स्त्री जाती हुई दिखाई पड़ती है। और उसका हाथ छूट गया। और उसकी पत्नी ने चौंककर देखा, और बायरन वहां नहीं है। शरीर से ही है, मन उसका उस स्त्री के पीछे चला गया है। उसकी पत्नी ने कहा, क्या कर रहे हैं आप? बायरन ने कहा, अरे, तुम हो? लेकिन जैसे ही तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में आया, तुम मेरे लिए अचानक व्यर्थ हो गई हो। मेरा मन एक क्षण को उस स्त्री के पीछे चला गया। और मैं कामना करने लगा कि काश! वह स्त्री मिल जाए। ईमानदार आदमी है। नहीं तो पहले ही दिन विवाहित स्त्री से इतनी हिम्मत बहुत मुश्किल है कहने की। साठ साल के बाद भी मुश्किल पड़ती है कहना। पहला दिन, पहला दिन भी नहीं, अभी सीढ़ियां ही उतर रहा है चर्च की। वह स्त्री तो चौंककर खड़ी हो गई। लेकिन बायरन ने कहा कि जो सच है वही मैंने तुमसे कहा है। ऐसा ही है सच हम सब के बाबत। कभी आपने सोचा है कि जिस कार के लिए आप दीवाने थे और कई रात नहीं सोए थे, वह पोर्च में आकर खड़ी हो गई है। फिर! फिर कल दसरी कोई कार सड़क पर चमकती हुई निकलती है और उसकी चमक आंखों में समा जाती है। फिर वही पीड़ा है। जिस मकान के लिए आप दीवाने थे कि पता नहीं उसके भीतर पहुंचकर कौन-से स्वर्ग में प्रवेश हो जाएगा। उसमें प्रवेश हो गया है। और प्रवेश होते ही मकान भल गया और कोई स्वर्ग नहीं मिला। और फिर स्वर्ग कहीं और दिखाई पड़ने लगा। मृग-मरीचिका है। सदा सुख कहीं और है और चित्त दौड़ता रहता है। कृष्ण कहते हैं, जब सुख यहीं है भीतर, अपने में, तभी प्रज्ञा की स्थिरता उपलब्ध होती है। अभी इतना ही। फिर सांझ। |246 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 1-2 सोलहवां प्रवचन विषय-त्याग नहींरस-विसर्जन मार्ग है Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ am गीता दर्शन भाग-1 AM दुःखेष्वनुद्धिग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । | कांटे में आटा लगा लेता है। आटे को लटका देता है पानी में। कोई वीतरागभयक्रोधः स्थितधीमुनिरुच्यते ।। ५६ ।। | मछली कांटे को पकड़ने को न आएगी। कोई मछली क्यों कांटे को तथा दुखों की प्राप्ति में उद्वेगरहित है मन जिसका और सुखों | | पकड़ेगी? लेकिन आटे को तो कोई भी मछली पकड़ना चाहती है। की प्राप्ति में दूर हो गई है स्पृहा जिसकी, तथा नष्ट हो गए | मछली सदा आटा ही पकड़ती है, लेकिन आटे के पकड़े जाने में है-राग, भय और क्रोध जिसके, ऐसा मुनि स्थिर-बुद्धि | मछली कांटे में पकड़ी जाती है। आटा धोखा सिद्ध होता है, कहा जाता है। आवरण सिद्ध होता है; कांटा भीतर का सत्य सिद्ध होता है। सुख आटे से ज्यादा नहीं है। हर सुख के आटे में दुख का कांटा | है। और सुख भी तभी तक मालूम पड़ता है, जब तक आटा दर है 1 माधिस्थ कौन है? स्थितधी कौन है? कौन है जिसकी | | और मछली के मुंह में नहीं है तभी तक! मुंह में आते ही तो कांटा स प्रज्ञा थिर हुई? कौन है जो चंचल चित्त के पार हुआ? | | मालूम पड़ना शुरू हो जाता है। अर्जुन ने उसके लक्षण पूछे हैं। कृष्ण इस सूत्र में कह | | तो सुख सिर्फ दिखाई पड़ता है, मिलता सदा दुख है। और जिसने रहे हैं, दुख आने पर जो उद्विग्न नहीं होता...। | सुख चाहा हो, उसे दुख मिल जाए, वह उद्विग्न न हो! तो फिर दुख आने पर कौन उद्विग्न नहीं होता है? दुख आने पर सिर्फ | | उद्विग्न और कौन होगा? जिसने सुख मांगा हो और देख आ जाए, वही उद्विग्न नहीं होता, जिसने सुख की कोई स्पृहा न की हो, जिसने जिसने जीवन मांगा हो और मृत्यु आ जाए, जिसने सिंहासन मांगे सुख चाहा न हो। जिसने सुख चाहा हो, वह दुख आने पर उद्विग्न हों और सूली आ जाए-वह उद्विग्न नहीं होगा? उद्विग्न होगा ही। होगा ही। जो चाहा हो और न मिले, तो उद्विग्नता होगी ही। सुख | अपेक्षा के प्रतिकूल उद्विग्नता निर्मित होती है। की चाह जहां है, वहां दुख की पीड़ा भी होगी ही। जिसे सुख के | और भी एक बात समझ लेने जैसी है कि असल में जो सुख मांग फूल चाहिए, उसे दुख के कांटों के लिए तैयार होना ही पड़ता है। | रहा है, वह भी उद्विग्नता मांग रहा है। शायद इसका कभी खयाल इसलिए पहली बात कहते हैं, दुख आने पर जो उद्विग्न नहीं | न किया हो। खयाल तो हम जीवन में किसी चीज का नहीं करते। होता। और दूसरी बात कहते हैं, सुख की जिसे स्पहा नहीं है, सुख आंख बंद करके जीते हैं। अन्यथा कृष्ण को कहने की जरूरत न रह की जिसे आकांक्षा नहीं है। जाए। हमें ही दिखाई पड़ सकता है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सुख की आकांक्षा है, तो दुख सुख भी एक उद्विग्नता है। सुख भी एक उत्तेजना है। हां, की उद्विग्नता होगी। सुख की आकांक्षा नहीं है, तो दुख असमर्थ है | प्रीतिकर उत्तेजना है। है तो आंदोलन ही, मन थिर नहीं होता सुख में फिर उद्विग्न करने में। भी, कंपता है। इसलिए कभी अगर बड़ा सुख मिल जाए, तो दुख दुख को तो कोई भी नहीं चाहता है, दुख आता है। सुख को सभी से भी बदतर सिद्ध हो सकता है। कभी आटा भी बहुत आ जाए चाहते हैं। इसलिए दुख को आने का एक ही रास्ता है, सुख की मछली के मुंह में, तो कांटे तक नहीं पहुंचती; आटा ही मार डालता आड़ में; और तो कोई रास्ता भी नहीं है। दुख को तो कोई बुलाता | है, कांटे तक पहुंचने की जरूरत नहीं रह जाती। नहीं, निमंत्रण नहीं देता। दुख को तो कोई कहता नहीं कि आओ। एक आदमी को लाटरी मिल जाती है और हृदय की गति दुख का अतिथि द्वार पर आए, तो कोई भी द्वार बंद कर लेता है। एकदम से बंद हो जाती है। लाख रुपया! हृदय चले भी तो कैसे दुख का तो कोई स्वागत नहीं करता। फिर भी दुख आता तो है। तो चले! इतने जोर से चल नहीं सकता, जितने जोर से लाख रुपये दुख कहां से आता है? के सुख में चलना चाहिए। इतने जोर से नहीं चल सकता है, दुख, सुख की आड़ में आता है; वही है मार्ग। अगर बहुत ठीक | इसलिए बंद हो जाता है। बड़ी उत्तेजना की जरूरत थी। हृदय नहीं से समझें, तो दुख सुख की ही छाया है। और भी गहरे में समझें, | | | चाहिए था, लोहे का फेफड़ा चाहिए था, तो लाख रुपये की तो जो ऊपर से सुख दिखाई पड़ता है, वह भीतर से दुख सिद्ध होता उत्तेजना में भी धड़कता रहता। लाख रुपये अचानक मिल जाएं, है। कहें कि सुख केवल दिखावा है, दुख स्थिति है। .. तो सुख भी भारी पड़ जाता है। जैसे एक आदमी मछली मार रहा है नदी के किनारे बैठकर, तो | खयाल में ले लेना जरूरी है कि सुख भी उत्तेजना है; उसकी भी 1248 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ im+ विषय-त्याग नहीं-रस-विसर्जन मार्ग है +4 मात्राएं हैं। कुछ मात्राओं को हम सह पाते हैं। आमतौर से सुख की तक टूट सकती है। तार टूट सकते हैं। मात्रा किसी को मारती नहीं, क्योंकि मात्रा से ज्यादा सुख आमतौर | । सुख भी उत्तेजना है—प्रीतिकर। अपने आप में तो सिर्फ उत्तेजना से उतरता नहीं। है। हमारे मनोभाव में प्रीतिकर है, क्योंकि हमने उसे चाहा है। यह बहुत मजे की बात है कि मात्रा से ज्यादा दुख आदमी को इसलिए एक और बात ध्यान में रख लेनी जरूरी है कि सब सुख नहीं मार पाता, लेकिन मात्रा से ज्यादा सुख मार डालता है। दुख | कनवर्टिबल हैं, दुख बन सकते हैं। और सब दुख सुख बन सकते को सहना बहुत आसान है, सुख को सहना बहुत मुश्किल है। सुख हैं। कुल सवाल इतना है कि चाह है। चाह का फर्क हो जाना चाहिए। मिलता नहीं है, इसलिए हमें पता नहीं है। दख को सहना बहत एक आदमी पहली दफा शराब पीता है. तो प्रीतिकर नहीं होता आसान है, सुख को सहना बहुत मुश्किल है। क्यों? क्योंकि दुख | स्वाद। स्वाद तिक्त ही होता है, अप्रीतिकर ही होता है। इसलिए के बाहर सुख की सदा आशा बनी रहती है। उस उत्तेजना के बाहर | टेस्ट डेवलप करना होता है। शराब पीने वाले को स्वाद विकसित निकलने की आशा बनी रहती है। उसे सहा जा सकता है। करना पड़ता है। फिर-फिर पीता है—मित्रों की शान में, लोगों की सुख के बाहर कोई आशा नहीं रह जाती; मिला कि आप ठप्प | तारीफ में, कि मैं कोई कमजोर तो नहीं हूं-पीता है, अभ्यास हो हुए, बंद हुए। मिलता नहीं है, यह बात दूसरी है। आप जो चाहते | | जाता है। फिर वह तिक्त स्वाद भी प्रीतिकर लगने लगता है। हैं, वह तत्काल मिल जाए, तो आपके हृदय की गति वहीं बंद हो | | सिगरेट कोई पहली दफा पीता है, तो खांसी ही आती है, जाएगी। क्योंकि सुख में ओपनिंग नहीं है, दुख में ओपनिंग है। दुख तकलीफ ही होती है। फिर सिगरेट के साथ जुड़ी है अकड़, सिगरेट में द्वार है, आगे सुख की आशा है, जिससे जी सकते हैं। सुख अगर | के साथ जुड़ा है अहंकार, सिगरेट के साथ शान के प्रतीक जुड़े हैं। पूरा मिल जाए, तो आगे फिर कोई आशा नहीं है, जीने का उपाय | उस शान के लिए आदमी उस दुख को झेलता है और अभ्यासी हो नहीं रह जाता। सुख भी एक गहरी उत्तेजना है। जाता है। फिर वह सिगरेट का गंदा स्वाद-धुएं में कोई और - मैंने सुना है, एक आदमी को लाटरी मिल गई है। उसकी पत्नी | अच्छा स्वाद हो भी नहीं सकता–प्रीतिकर लगने लगता है, सुख बहुत चिंतित और परेशान है, घबड़ा गई है। उस आदमी के हाथ में | | हो जाता है। दुख का भी अभ्यास सुख बना सकता है। और सुख कभी सौ रुपये नहीं आए. इकटे पांच लाख रुपये। पास में चर्च है। के अभ्यास से भी दख निकल आता है। वह पादरी के पास गई है और उसने प्रार्थना की, पांच लाख की आए हैं आप मेरे पास, मैंने गले आपको लगा लिया; बहुत लाटरी मिल गई है, पति दफ्तर से लौटते होंगे। क्लर्क हैं, सौ रुपये प्रीतिकर लगा है क्षणभर को। लेकिन मिनिट होने लगा, अब आप से ज्यादा कभी देखे नहीं हैं हाथ में, पांच लाख! उन्हें किसी तरह घबड़ा रहे हैं। दो मिनिट होने लगे, अब आप छूटना चाहते हैं। तीन इस सुख से बचाओ। कहीं कुछ हानि न हो जाए! मिनिट हो गए, अब आप कहते हैं, छोड़िए भी। चार मिनिट हो पादरी ने कहा, घबड़ाओ मत, एकदम से सुख पड़े तो खतरा हो गए, अब आप घबड़ाते हैं कि कहीं मैं पागल तो नहीं हूं! पांच सकता है, इंस्टालमेंट में पड़े तो खतरा नहीं हो सकता। हम आते | मिनिट हो गए, अब आप पुलिस वाले को चिल्लाते हैं! हैं; हम खंड-खंड सुख देने का इंतजाम करते हैं। यह हुआ क्या? पहले क्षण में कह रहे थे, हृदय से मिलकर बड़ा मान था; आ गया, बैठ गया। पति घर लौटा। पादरी आनंद मिला है। पांच मिनिट में आनंद खो गया! अगर मिला था, ने सोचा, पांच लाख इकट्ठा कहना ठीक नहीं, पचास हजार से शुरू | तो पांच मिनिट में हजार गुना हो जाना चाहिए था। जब एक सेकेंड करो। तो उसने पति को कहा कि सुना तुमने, पचास हजार लाटरी | में इतना मिला, तो दूसरे में और ज्यादा, तीसरे में और ज्यादा। नहीं, में मिले हैं। फिर आंखों की तरफ देखा कि इतना पचा जाए तो फिर वह पहले सेकेंड में भी मिला नहीं था, सिर्फ सोचा गया था। दूसरे और पचास हजार की बात करूं! लेकिन उस आदमी ने कहा, सच! | सेकेंड में समझ बढ़ी, तीसरे में समझ और बढ़ी—पाया कि कुछ अगर पचास हजार मुझे मिले हैं, यह सच है, तो पच्चीस हजार चर्च | भी नहीं है। जिन हाथों को हम हाथों में लेने को तरसते हैं, थोड़ी देर को दान देता है। पादरी का हार्ट-फेल हो गया। पच्चीस हजार। पांच | में सिवाय पसीने के उनसे कछ भी नहीं निकलता है। पैसे कोई चर्च को देता नहीं था। | सब सुख की उत्तेजनाएं परिचित होने पर दुख हो जाती हैं; सब सुख का आघात अगर आकस्मिक हो, तीव्र हो, तो जीवनधारा दुख की उत्तेजनाएं परिचित होने पर सुख बन सकती हैं। सुख और पादरी बदिमान 1249 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 AM दुख कनवर्टिबल हैं, एक-दूसरे में बदल सकते हैं। इसलिए बहुत थोड़ी-बहुत तो बची ही होगी; राख के नीचे दबी होगी। साधु ने गहरे में दोनों एक ही हैं, दो नहीं हैं। क्योंकि बदलाहट उन्हीं में हो कहा, आदमी कैसे हो? मैं कहता हूं, नहीं है आग। उस आदमी ने सकती है, जो एक ही हों। सिर्फ हमारे मनोभाव में फर्क पड़ता है, कहा, जरा कुरेदकर तो देखें, शायद कहीं कोई चिनगारी पड़ी ही हो! चीज वही है, उसमें कोई अंतर नहीं पड़ता है। साधु का हाथ अपने चिमटे पर चला गया। उसने कहा, तू आदमी इसलिए कृष्ण ने दो सूत्र कहे। पहला कि दुख में जो उद्विग्न न है कि जानवर? मैं कहता हूं, नहीं है कोई आग। उस आदमी ने हो, दुख में जो अनुद्विग्नमना हो; दूसरा-सुख की जिसे स्पृहा न कहा, बाबा जी, अब तो चिनगारी ही नहीं, लपट बन गई है। हो, जो सुख की आकांक्षा और मांग किए न बैठा हो। तीसरी वह जिस आग की बात कर रहा है, वह क्रोध है। वह जिस राख बात-क्रोध, भय जिसमें न हों। की बात कर रहा है, वह ऊपर का दमन है। एक छोटी-सी चर्चा, यहां एक बात बहत ठीक से ध्यान में ले लें. क्योंकि उसके ध्यान पता नहीं उस राख में आग थी या नहीं. लेकिन साध में काफी आग में न होने से सारे मुल्क में बड़ी नासमझी है। कृष्ण कह रहे हैं कि थी, वह निकल आई। जरा-सी चोट और वह निकल आई। उस जिसमें क्रोध और भय न हों, वह समाधिस्थ है। वे यह नहीं कह | आदमी ने कहा, मैंने भी यही सुना था कि राख ही राख बची है, रहे हैं कि जो क्रोध और भय को छोड़ दे, वह समाधिस्थ हो जाता | आग नहीं बची है। यही देखने आया था। लेकिन आग काफी बची है-वे यह नहीं कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं, जो समाधिस्थ है,। | है। राख ऊपर का ही धोखा है, भीतर आग है। उसमें क्रोध और भय नहीं पाए जाते हैं। इन दोनों बातों में गहरा फर्क क्रोध से जो लड़ेगा, वह ज्यादा से ज्यादा क्रोध को भीतर दबाने है। क्रोध और भय जो छोड़ दे, वह समाधिस्थ हो जाता है—ऐसा में समर्थ हो सकता है। भय से जो लड़ेगा, वह ज्यादा.से ज्यादा वे नहीं कह रहे हैं। जो समाधिस्थ हो जाता है, उसका क्रोध और निर्भय होने में समर्थ हो सकता है, अभय होने में नहीं। निर्भय का भय छूट जाता है—ऐसा वे कह रहे हैं। | इतना ही मतलब है कि भय को भीतर दबा दिया है। भय आता भी आप कहेंगे. इसमें क्या फर्क पडता है? ये दोनों एक ही बात हैं। है तो कोई फिक्र नहीं हम डटे ही रहते हैं। अभय का मतलब बहत ये दोनों एक बात नहीं हैं। ये बहुत फासले पर हैं, विपरीत बातें और है। अभय का मतलब है, भय का अभाव। निर्भय का अर्थ, हैं। जिस आदमी ने सोचा कि क्रोध और भय छोड़ने से समाधि मिल | भय के बावजूद भी डटे रहने की हिम्मत। अभय का मतलब, जाती है, वह क्रोध और भय को छोड़ने में ही लगा रहेगा, समाधि | फियरलेसनेस। निर्भय का मतलब, ब्रेवरी। बड़े से बड़ा बहादुर को कभी नहीं पा सकता। और जिस आदमी ने सोचा कि क्रोध और | आदमी भी भयभीत होता है, अभय नहीं होता। अभय होने का भय को छोड़ने से समाधि मिल जाती है, वह क्रोध और भय से | मतलब, भय है ही नहीं; निर्भय होने का भी उपाय नहीं है। भय बचा लड़ेगा। और क्रोध से लड़कर आदमी क्रोध के बाहर नहीं होता। ही नहीं है। भय से लड़कर आदमी भय के बाहर नहीं होता। भय से लड़कर जो आदमी लक्षण को...लक्षण हैं ये। ये कृष्ण लक्षण गिना रहे आदमी और सूक्ष्म भयों में उतर जाता है। क्रोध से लड़कर आदमी हैं; काजेज नहीं, कांसिक्वेंसेज गिना रहे हैं। ये कारण नहीं गिना रहे और सूक्ष्म तलों पर क्रोधी हो जाता है। हैं, लक्षण गिना रहे हैं कि अगर क्रोध न हो, अगर भय न हो, तो मैंने एक कहानी सुनी है। मैंने सुना है कि एक आदमी की ख्याति ऐसा आदमी स्थितधी है। हो गई कि उसने क्रोध पर विजय पा ली है। उसका एक मित्र उसके लेकिन हम आमतौर से उलटा कर लेते हैं। हम कह सकते हैं कि परीक्षण के लिए गया। सुबह थी, सर्दी थी अभी, लेकिन सूरज उग | | एक आदमी का शरीर अगर गरम न हो, तो उस आदमी को बुखार आया था। शायद साधु चार बजे रात से उठ आया होगा। आग | नहीं है। ठीक, इसमें कोई अड़चन नहीं मालूम पड़ती है। एक जलाकर आग तापता था। फिर आग भी बुझ गई थी, फिर राख ही | आदमी का शरीर गरम न हो, तो उसे बुखार नहीं है। लेकिन एक रह गई थी। अब भी साधु बैठा था। मित्र आया, उसने पास आकर | | आदमी का शरीर गरम हो, तो उसके शरीर को ठंडा करने से बुखार नमस्कार किया और कहा कि थोड़ी-बहुत आग बची या नहीं? | | नहीं जाता; पानी डालने से बुखार नहीं जाता। बुखार अगर पानी कहा, नहीं; देखते नहीं, अंधे हो? कोई आग नहीं है, राख डालकर मिटाने की कोशिश की, तो बीमारी के जाने की उम्मीद ही राख है। वह आदमी हंसा। उसने कहा कि नहीं बाबा जी. | | कम, बीमार के जाने की उम्मीद ज्यादा है। 250/ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PM विषय-त्याग नहीं-रस-विसर्जन मार्ग है - नहीं, शरीर पर बुखार जब देखता है चिकित्सक, टेंपरेचर देखता | लेते हैं। दबाने से एक खतरा है। वह खतरा यह है कि समाधि तो है, तो यह जानने के लिए देखता है कि बीमारी कितनी है भीतर, | | भीतर फलित नहीं होती, दबे हुए क्रोध और भय के कारण हमें पता जिससे इतना उत्ताप बाहर है। उत्ताप सिर्फ लक्षण है। उत्ताप बीमारी भी नहीं चलता कि भीतर समाधि नहीं है। हम लक्षणों में धोखा दे नहीं है। शरीर कहीं भीतर गहन संघर्ष में पड़ा है, उस संघर्ष के लेते हैं। कारण उत्तप्त हो गया है। शरीर के सेल, शरीर के कोष्ठ कहीं लड़ __मैंने गुरजिएफ का नाम बीच में लिया था। और मैंने कहा कि रहे हैं भीतर दुश्मनों की तरह। कहीं भीतर कोई लड़ाई जारी है। कोई | | गुरजिएफ के कोई पास आता, तो वह शराब पिलाता। वह न केवल कीटाणु भीतर घुस गए हैं, जो शरीर के कीटाणुओं से लड़ रहे हैं। शराब पिलाता, बल्कि जब कोई आदमी साधना के लिए उसके पास शरीर के रक्षक और शरीर के शत्रुओं के बीच कहीं गहरा संघर्ष है। आता, तो वह अजीब-अजीब तरह के टेंपटेशन पैदा करता। वह उस संघर्ष की वजह से सारा शरीर उत्तप्त हो गया है। उत्तप्त होना अजीब सिचुएशंस, स्थितियां पैदा करता। वह एक आदमी को इस सिर्फ लक्षणा है, सिम्पटम है, बीमारी नहीं है। और अगर गरम होने हालत में ला देता कि उसको पता ही न चले कि उसको क्रोध को ही कोई बीमारी समझ ले, तो ठंडा करना इलाज है। तो पानी | दिलाया जा रहा है, उसका पूरा क्रोध जगवा देता। वह ऐसी हालत डालें। बुखार तो नहीं, बीमार चला जाएगा। | पैदा कर देता कि वह आदमी बिलकुल पागल होकर क्रुद्ध हो जाए। नहीं. इतना ही समझें कि बखार है. तो भीतर बीमारी है। अब और जब वह पूरे क्रोध में आ जाता, तब वह उस आदमी को कहता बीमारी को अलग करें। और बीमारी अलग हुई, यह तब ज़ानें, जब | कि जरा जागकर देख कि कितना क्रोध है तेरे भीतर! जब तू आया शरीर पर बुखार न रह जाए। तो चिकित्सक कहता है, जब शरीर | था तब इतना क्रोध नहीं था। लेकिन तू यह मत समझना कि यह पर गरमी नहीं है तब आदमी स्वस्थ है। लेकिन शरीर पर गरमी क्रोध अभी आ गया है। यह था तब भी, लेकिन भीतर दबा था, घंटाने का उपाय स्वास्थ्य की विधि नहीं है। अब प्रकट हुआ है। इसे पहचान ले, क्योंकि यही लक्षण है। कृष्ण जब कह रहे हैं कि भय नहीं रह जाता, क्रोध नहीं रह जाता, हमें पता ही नहीं चलता कि हमारे भीतर कितना दबा है। आमतौर तो समझना कि क्रोध और भय टेंपरेचर हैं। जो बीमार आदमी के, से हम समझते हैं कि कभी-कभी कोई हमें क्रोधित करवा देता है। डिजीज्ड माइंड के, भीतर जिसका मन आपस में लड़ रहा है, कलह यह बड़ी झूठी समझ है। कोई दुनिया में किसी को क्रोधित नहीं से भरा है-कलहग्रस्त मन में क्रोध का बुखार होता है। कलहग्रस्त करवा सकता, जब तक कि भीतर क्रोध मौजूद न हो। दूसरे लोग मन में कमजोरी आ जाती है। स्वयं से लड़कर आदमी टूट जाता है, | तो केवल निमित्त बन सकते हैं, खूटियां बन सकते हैं; कोट आपका अपनी शक्ति को खोता है और इसलिए भयभीत हो जाता है। क्रोध ही टंगता है, कोट खूटी का नहीं होता। आपके पास कोट होता है, और भय, स्वयं जब आदमी मन में संघर्ष में पड़ा होता है, तब | तो आप टांग देते हैं। आप यह नहीं कह सकते कि इस खूटी ने कोट लक्षणाएं हैं। वे खबर देती हैं कि आदमी भीतर बीमार है, चित्त रुग्ण | टंगवा लिया। कोट तो था ही-चाहे हाथ पर टांगते, चाहे सांकल है। बस, इतनी ही खबर। और जब क्रोध और भय नहीं होते, तब | पर टांगते, चाहे खीली पर टांगते, चाहे कंधे पर टांगते-कहीं न खबर मिलती है कि भीतर चित्त स्वस्थ है। चित्त का स्वास्थ्य समाधि कहीं टांगते। कोट तो था ही आपके पास; खूटी ने सिर्फ रास्ता है. अंतर-स्वास्थ्य समाधि है। दिया. आपका कोट टांग लिया। खंटी जिम्मेवार नहीं है. जिम्मेवार इस भेद को इसलिए आपसे कहना चाहा कि आप क्रोध और आप ही हैं। खूटी सिर्फ निमित्त है। भय से मत लड़ने लग जाना। क्रोध और भय को देखना, जानना, एक आदमी मुझे गाली देता है। आग भड़क उठती है, क्रोध आ पहचानना। उनकी पहचान से पता चलेगा कि भीतर समाधि नहीं | जाता है। तो मैं कहता हूं, इस आदमी ने क्रोध पैदा करवा दिया। है। फिर समाधि लाने के उपाय अलग ही हैं। समाधि लाने के उपाय | यह आदमी क्रोध पैदा करवा सकता है? तो मैं आदमी हूं कि मशीन करना। समाधि आ जाएगी. तो क्रोध और भय चले जाएंगे। हं. कि इसने बटन दबाई और क्रोध पैदा हो गया। टेंपरेचर कहेगा कि नहीं, थर्मामीटर बताएगा कि नहीं। जब क्रोध नहीं, क्रोध मेरे भीतर उबल रहा है; यह आदमी सिर्फ निमित्त है। और भय मालूम न पड़ें, तब समझना कि समाधि फलित हुई है। और ऐसा मत कहिए कि यह आदमी मुझको खोज रहा है। लेकिन हम इससे उलटा कर लेते हैं, क्रोध और भय को दबा | असलियत तो यह है कि मैं इस आदमी को खोज रहा हूं। अगर यह 251| Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ im गीता दर्शन भाग-1-AM न मिले, तो मैं मुसीबत में पड़ जाऊंगा। यह मिल जाता है, तो मैं | अर्जुन कि ऐसा व्यक्ति समाधिस्थ है। हल्का हो जाता हूं, अनबर्डन्ड हो जाता हूं, बोझ उतर जाता है। जैसे एक कुएं में हम बालटी डालते हैं। फिर बालटी में पानी भरकर आ जाता है। लेकिन कुएं में पानी तो होना चाहिए न! बालटी | | प्रश्नः भगवान श्री, स्थितप्रज्ञ के गुण-लक्षण कहते खाली कुएं से पानी नहीं ला सकती, सूखे कुएं से पानी नहीं ला हुए आपने यह तो विशदता की कि उसकी सेंसिटिविटी सकती। खड़खड़ाकर लौट आएगी। कह देगी, नहीं है। दूसरे ब्लंट नहीं होती। तो स्थितप्रज्ञ मनुष्य सुख में आदमी की गाली ज्यादा से ज्यादा बालटी बन सकती है मेरे भीतर। विगतस्पृह रहेगा और दुख में अनुद्विग्नमन रहेगा। तो लेकिन क्रोध वहां होना चाहिए, तब उस बालटी में भरकर बाहर इसमें एक बाधा पड़ जाती है। अगर वह सुख को आ जाएगा। सुख की भांति और कष्ट को कष्ट की भांति न ले, सब भरा है भीतर। दबा-दबाकर बैठे हैं। बहुत कागजी दबाव तो उसकी संवेदना को झूमन, मानवीय कैसे कहें? है, बड़ा दबाव नहीं है। जरा खरोंच दो, अभी उभर पड़ेगा। लेकिन स्थितप्रज्ञ होना क्या सुपर ह्यूमन फिनामिनन है? उसे देखना जरूरी है। तो कृष्ण की इस बात से यह मत समझ लेना कि क्रोध को दबा लिया, भय को दबा लिया, तो निश्चित हो गए, समाधिस्थ हो गए, जिसकी प्रज्ञा जागी, थिर हुई, अकंप हुई, क्या उसे कष्ट स्थितधी हो गए! इतना सस्ता मामला नहीं है। दबाने की बजाय क्रोध IUI का पता नहीं चलेगा? को उभारकर ही देखना। और जब कोई गाली दे, तो अपने भीतर अब यहां एक नया शब्द बीच में आया है, जो अभी देखना, कितना उभरता है! और जब कोई गाली दे, तो उसे धन्यवाद | | चर्चा में नहीं था। सुख था, दुख था, कष्ट नहीं था। इनके फासले देना कि तेरी बड़ी कृपा! तू अगर बालटी न लाता, तो अपने कुएं की को समझना जरूरी होगा। खबर ही न मिलती। ऐसा कभी-कभी बालटी ले आना। कष्ट तथ्य है, दुख व्याख्या है। पैर में कांटा चुभता है, तो चुभन कबीर ने कहा है, निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय। तथ्य है, फैक्ट है, स्थितप्रज्ञ को भी होगी। स्थितप्रज्ञ मर नहीं गया साधुओं से कबीर ने कहा है कि साधुओ! अपने निंदक को है कि पैर में कांटा चुभे तो पता नहीं चले। पता चलेगा। शायद आंगन-कुटी छवाकर अपने पड़ोस में ही बसा लो, कि जैसे ही तुम आपसे ज्यादा पता चलेगा। क्योंकि उसकी प्रज्ञा ज्यादा शांत है, बाहर निकलो, वह बालटी डाल दे और तुम्हारे भीतर जो पड़ा है, | | ज्यादा संवेदनशील है। उसकी अनुभूति की क्षमता आपसे गहरी वह तुम्हें दिखाई पड़ जाए। क्योंकि उसे तुम देख लो, उसे तुम | | और घनी है। उसका बोध, उसकी सेंसिटिविटी आपसे प्रगाढ़ है, पहचान लो, तो तुम्हें अपनी असली स्थिति का बोध हो। और जिसे | | अनंत गुना प्रगाढ़ है। शायद आपको जो कांटा चुभा है, इस तरह अपनी असली स्थिति का बोध नहीं है, वह अपनी परम स्थिति को | कभी पता ही नहीं चला होगा, जैसा उसको पता चलेगा। क्योंकि कभी प्राप्त नहीं हो सकता है। जो अपनी वास्तविक, यथार्थ स्थिति | | पता चलना ध्यान की क्षमता पर निर्भर होता है। को जानता है आज के क्षण में, वह अपनी परम स्थिति को, परम | | एक युवक खेल रहा है हाकी मैदान में। पैर पर चोट लग गई है स्वभाव को भी उपलब्ध करने की यात्रा पर निकल सकता है। | हाकी की। खून बह रहा है अंगूठे से। नाखून टूट गया है। उसे कुछ क्रोध और भय इंगित हैं, सूचक हैं, सिंबालिक हैं, सिंप्टमैटिक पता नहीं है। सारे देखने वाले देख रहे हैं कि पैर से खून टपक रहा हैं। उनसे डायग्नोसिस कर लेना। उनसे अपना निदान कर लेना कि है। वह दौड़ रहा है, और खून की बिंदुओं की कतार बन जाती है। ये हैं, तो मेरे भीतर समाधि नहीं है। लेकिन इनको दबाकर मत सोच | फिर खेल खत्म हुआ और वह पैर पकड़कर बैठ गया है। और वह लेना कि इनको दबाने से समाधि हो जाती है। नहीं, समाधि आएगी कह रहा है कि कब यह चोट लग गई? मुझे कुछ पता नहीं है! क्या तो ये नहीं हो जाएंगे। इनके दबाने से समाधि फलित नहीं होगी। हुआ? चोट लगी और पता नहीं चला! . __ इसलिए कृष्ण ने बहुत ठीक सूत्र कहे, दुख उद्विग्न न करे, सुख ___ असल में जब चोट लगी, तब उसकी अटेंशन कहीं और थी, की आकांक्षा न हो, क्रोध उत्तप्त न करे, भय कंपाए नहीं. तो जानना | ध्यान कहीं और था। और ध्यान के बिना पता नहीं चल सकता। 2521 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-त्याग नहीं — रस - विसर्जन मार्ग है 4 अंगूठे तक पहुंचने के लिए ध्यान उसके पास था ही नहीं। ध्यान एंगेज्ड था, आकुपाइड था, पूरा का पूरा संलग्न था खेल में। अभी ध्यान के पास सुविधा न थी कि अंगूठे तक जाए। तो अंगूठा पड़ा रहा, चिल्लाता रहा कि चोट लगी है, चोट लगी है। लेकिन कहीं कोई सुनवाई न थी। सुनने वाला मौजूद नहीं था। सुनने वाला उस यात्रा पर जाने को राजी नहीं था, जहां अंगूठा है। सुनने वाला अभी कहीं और था, व्यस्त था । फिर खेल बंद हुआ; व्यस्तता समाप्त हुई। सुनने वाला, ध्यान, अटेंशन वापस आया। अब फुर्सत थी । वह पैर की तरफ भी गया। वहां पता चला कि खून बह रहा है, चोट लग गई है, दर्द है। 1 तो स्थितप्रज्ञ की प्रज्ञा तो पूरे समय अव्यस्त है, अनआकुपाइड है । जिस व्यक्ति का चित्त बिलकुल शांत है, उसकी चेतना हमेशा अव्यस्त है। उसकी चेतना कहीं भी उलझी नहीं है, सदा अपने में है। तो उसके पैर में अगर कांटा गड़ेगा, तो अनंत गुना अनुभव उसे होगा, जितना हमें होता है। कष्ट तथ्य है, वह जानेगा कि पैर में कष्ट है। लेकिन पैर में कष्ट उसका, मुझमें दुख है, ऐसी व्याख्या नहीं बनेगा। पैर का कष्ट एक घटना है— बाहर, दूर, अलग। ध्यान रहे, कष्ट और हमारे बीच सदा फासला है, दुख और हमारे बीच फासला नहीं है। जब हम कष्ट से आइडेंटिफाइड होते हैं, जब कष्ट ही मैं हो जाता हूं, तब कष्ट दुख बनता है। वह कहेगा, पैर में चोट है, पैर में कांटा गड़ रहा है। वह उपाय करेगा कि कांटे को निकाले; पैर के लिए इंतजाम करे। लेकिन इससे उद्विग्न नहीं है। अब यह भी बड़े मजे की बात है कि अगर पैर में कष्ट है, तो उद्विग्न होने से कम नहीं होगा। जितना उद्विग्न आदमी होगा, उतना कम करने के उपाय कम कर सकेगा। जितना अनुद्विग्न आदमी होगा, उतने शीघ्र उपाय कर सकेगा। मैं एक गांव में ठहरा था। मेरे पड़ोस के मकान में आग लग गई। एक बहुत मजेदार दृश्य देखने को मिला। तीन मंजिल मकान है। पूरे मकान पर टीन ही टीन छाए हुए हैं। दूसरे मंजिल पर आग लगी। बीड़ी के पत्ते रखे हुए हैं। मकान मालिक इतना उद्विग्न हो गया कि वह तीसरी मंजिल पर चढ़ गया, जहां उसकी टंकी है पानी । और उसने टंकी से बालटियां लेकर पानी फेंकना शुरू कर दिया तीसरी मंजिल से । सारा मकान टीन से छाया हुआ है। टीन आग की तरह लाल तप रहे हैं। वह पानी उन टीनों पर गिरे और वह पानी जाकर नीचे खड़े लोगों पर गिरे, जो घर से बच्चों को निकाल रहे हैं, सामान निकाल रहे हैं। जिस पर वह पानी गिर जाए, वही चीखकर भागे कि मार डाला ! फिर कोई उसके पास आने को तैयार न हुआ। भीड़ खड़ी है, सारे लोग नीचे से चिल्ला रहे हैं, तुम यह क्या पागलपन कर रहे हो! पानी डालना बंद करो, नहीं तो तुम्हारे बच्चे अंदर मर जाएंगे। तुम्हारे घर से एक चीज न निकाली जा सकेगी। | लेकिन वह आदमी बस इतना ही चिल्ला रहा है, बचाओ ! आग लग गई! बचाओ ! आग लग गई ! और पानी डालता चला जा रहा है। उस आदमी ने - आग ने नहीं-उस पूरे मकान को जलवा दिया। क्योंकि एक आदमी भी बुझाने की स्थिति में भीतर नहीं जा सका। एक बच्चा भी मरा, आग से नहीं, उसके पानी से । उस तक |पहुंचने का भी कोई उपाय न रहा कि कैसे उस तक कोई चढ़कर | जाए ! उसका पानी इतने जोर से आता था कि कौन वहां चढ़कर जाए! बांसों से लोगों ने दूसरे मकानों पर चढ़कर उस पर चोट की कि भाई साहब! यह क्या कर रहे हो ? वह बांस को ऐसा अलग कर दे और कहे कि बचाओ ! आग लगी है! और पानी डालता रहा। यह उद्विग्न चित्त आत्मघाती हो जाता है। अनुद्विग्न चित्त, जो उचित है, वह करता है । कष्ट हो सिर्फ, दुख न हो, तो उद्विग्न नहीं होते आप, सिर्फ कष्ट के बोध से भरे होते हैं। दुख मानसिक व्याख्या है, कष्ट तथ्य है। ठीक ऐसे ही अकष्ट तथ्य है, सुख मानसिक व्याख्या है। स्थितप्रज्ञ कष्ट और अकष्ट को भलीभांति जानता है। कांटों पर लिटाइए, तो उसे पता चलता है कि कांटे हैं; और गद्दी पर बिठाइए, | तो उसे पता चलता है कि गद्दी है। लेकिन गद्दी पर बैठने की वह आकांक्षा नहीं बांध लेता, गद्दी पर बैठकर वह पागल नहीं हो जाता, गद्दी से वह एक नहीं हो जाता। गद्दी सुख बनती, मानसिक व्याख्या नहीं बनती, एक भौतिक तथ्य होती है। कांटे भी एक भौतिक तथ्य होते हैं। स्थिती अनुभव में, अनुभूति में, तथ्यों के जानने में पूरी तरह संवेदनशील होता है। लेकिन व्याख्या जो हम करते हैं, वह नहीं करता है । मृत्यु उसकी भी आती है। हम दुखी होते हैं, वह दुखी नहीं होता। वह मृत्यु को देखता मृत्यु आती है। बुढ़ापा उसका भी आता है। ऐसा नहीं कि उसे पता नहीं चलता कि अब बुढ़ापा आ | गया। लेकिन वह बुढ़ापे को देखता है कि जीवन का एक तथ्य है और आता है। वह जवानी को जाते देखता, बुढ़ापे को आते देखता। बुढ़ापे के कष्ट होंगे, शरीर जीर्ण - जर्जर होगा। लेकिन शरीर होगा, स्थितधी को ऐसा नहीं लगता कि मैं हो रहा हूं। लेकिन जब हम बूढ़े 253 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ yam गीता दर्शन भाग-1 - होते हैं, तो ऐसा नहीं लगता कि शरीर बूढ़ा हो रहा है, ऐसा लगता | देखने का अवसर तुमने जुटा दिया। तुम भी देख लोगे, हम भी देख है कि मैं बूढ़ा हो रहा हूं। लेंगे कि कष्ट दुख बनता है या नहीं बनता है। हमारे प्रत्येक तथ्य में हमारा मैं तत्काल समाविष्ट हो जाता है। कष्ट-अकष्ट अलग बात है, सुख और दुख बिलकुल अलग जीवन का कोई तथ्य हमारे मैं की व्याख्या के बाहर नहीं छूटता। हम | बात है। सुख और दुख मनुष्य की व्याख्या है। इसलिए जब आप प्रत्येक तथ्य को तत्काल व्याख्या, इंटरप्रिटेशन बना लेते हैं।। | पूछ रहे हैं कि क्या ऐसा आदमी सुपर ह्यूमन हो जाएगा? स्थितप्रज्ञ की कोई व्याख्या नहीं है। वह अ को अ कहता है, ब को निश्चित ही। सुपर ह्यूमन इन अर्थों में नहीं कि उसे कांटे नहीं ब कहता है। वह कहीं भी अपने को जोड़ नहीं लेता है। और चूंकि | चुभंगे। इन अर्थों में भी अतिमानवीय नहीं कि उसे बीमारी होगी, तो जोड़ता नहीं, इसलिए सदा बाहर खड़े होकर हंस सकता है। पीड़ा नहीं होगी। अतिमानवीय इन अर्थों में नहीं कि मौत आएगी, मैंने सुना है, इपिक्टेटस यूनान में, जिसको कृष्ण समाधिस्थ | | बुढ़ापा आएगा, तो वह बूढ़ा नहीं होगा। नहीं, अतिमानवीय इन कहें, ऐसा एक व्यक्ति हुआ। वह कहता था, मुझे मार डालो तो भी | | अर्थों में कि वह व्याख्या जो मनुष्य की करने की आदत है, नहीं मैं हंसता रहूंगा, मुझे काट डालो तो भी मैं हंसता रहूंगा। सम्राट ने | | करेगा। वह मनुष्य की व्याख्या करने की आदत के बाहर होगा। इन उसे पकड़ बुलाया और कहा कि छोड़ो ये बातें। हम बातें नहीं | | अर्थों में वह अतिमानव है, सुपरमैन है। मानते, हम कृत्य मानते हैं। दो पहलवान बुलवाए, जंजीरें बांधकर इपिक्टेटस को डाल दिया और कहा कि इसका एक पैर उखाड़ो। उन पहलवानों ने उसका एक पैर उखाड़ने के लिए पैर मोड़ा। यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । इपिक्टेटस ने कहा कि बिलकुल ठीक, जरा और। अभी तुम जितना नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। ५७।। कर रहे हो, इससे सिर्फ कष्ट हो रहा है, पैर टूटेगा नहीं। जरा और, ___ यदा संहरते चायं कूमोऽङ्गानीव सर्वशः।। बस जरा और कि टूट जाएगा! इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। ५८।। सम्राट ने कहा, तू पागल तो नहीं है! अपने ही पैर को तोड़ने | और जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ तथा की तरकीब बता रहा है! इपिक्टेटस ने कहा कि मुझे ज्यादा ठीक अशुभ वस्तुओं को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष से पता चल रहा है, उन बेचारों को क्या पता चलेगा! दूसरे का करता है, उसकी प्रज्ञा स्थिर है। पैर मरोड़ रहे हैं। मैं इधर भीतर जान रहा हूं कि तकलीफ बढ़ती | और कछुआ अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही यह जा रही है, तकलीफ बढ़ती जा रही है, बढ़ती जा रही है। अब ठीक | पुरुष जब सब ओर से अपनी इंद्रियों को इंद्रियों के विषयों वह जगह है, जहां हड़ी ट जाएगी। पर सम्राट ने कहा. तेरा पैर से समेट लेता है, तब उसकी प्रज्ञा स्थिर होती है। हम तोड़ रहे हैं। इपिक्टेटस ने कहा कि अगर मुझे तोड़ रहे होते, तो बात और होती। मेरे पैर को ही तोड़ रहे हैं न? तो मेरे पैर को आप नहीं तोड़ेंगे, ह र्ष में, विषाद में, अनुकूल में, प्रतिकूल में भेद नहीं। तो कल मौत तोड़ देगी। और आप तो सिर्फ पैर ही तोड़ रहे हैं, e लेकिन यह अभेद कब फलित होगा? कृष्ण कहते हैं, फुटकर, मौत होलसेल तोड़ देगी, सभी कुछ टूट जाएगा। एक पैर जैसे कछुआ अपने अंगों को कभी भी भीतर सिकोड तोड़ रहे हैं, दूसरा तो बचा है। इपिक्टेटस से हम भीतर कह रहे हैं लेता है, जैसे कछुआ अपने अंगों को सिकोड़ना जानता है, ऐसा ही कि देखो बेटे, एक ही टूट रहा है, अभी दूसरा बचा है। अभी तुम | समाधिस्थ पुरुष विषयों से अपनी इंद्रियों को सिकोड़ना जानता है। इसको ही तुड़वा दो ठीक से। थोड़ी नाजुक बात है, थोड़ी डेलिकेट बात है। . फिर यह भी हम अनुभव कर रहे हैं-उसने कहा कि जितनी | यहां इंद्रियों को सिकोड़ना...योग की दृष्टि में इंद्रियों के दो देर लगेगी टूटने में, उतनी देर कष्ट होगा। तुम्हारा प्रयोग भी न हो। | रूप हैं। एक इंद्रिय का वह रूप जो हमें बाहर से दिखाई पड़ता है, पाएगा, हमारा प्रयोग भी न हो पाएगा। आज मौका आ गया है। कहें इंद्रिय का शरीर। एक इंद्रिय का वह रूप जो हमें दिखाई नहीं कहा हमने सदा है कि कोई तोड़ डाले हमें, तो कुछ न होगा। आज | | पड़ता है, लेकिन इंद्रिय का प्राण है, कहें इंद्रिय का प्राण या आत्मा 254 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-त्याग नहीं — रस - विसर्जन मार्ग है 4 इंद्रिय की। एक मेरी आंख है। इंस्ट्रूमेंट है आंख का । इस आंख के संबंध में चिकित्सक आंख का सब कुछ बता सकता है। आंख को काट-पीट करके, सर्जरी करके, एक-एक रग-रेशे की खबर ले आ सकता है। लेकिन यह सिर्फ आंख शरीर है आंख का । वस्तुतः यह इंद्रिय नहीं है। सिर्फ इंद्रिय की बाह्य रूप - आकृति है । इंद्रिय तो | और है। इस आंख के पीछे देखने की जो वासना है, देखने की जो आकांक्षा है, वह इंद्रिय है, वह प्राण है। उसका किसी चिकित्सक को आंख के काटने-पीटने से कुछ पता नहीं चल सकता। प्रत्येक इंद्रिय का शरीर है और प्रत्येक इंद्रिय का प्राण है। आंख सिर्फ देखने का काम ही नहीं करती, देखने की आकांक्षा, देखने का रस भी उसके पीछे छिपा है। देखने की वासना भी उसके पीछे हिलोरें लेती है। वही वासना असली इंद्रिय है। कृष्ण को समझने के लिए समस्त इंद्रियों के इन दो हिस्सों को समझ लेना जरूरी है। अन्यथा आदमी आंख फोड़ने लग जाए। इंद्रियां सिकोड़ने का क्या मतलब - आंख फोड़ लें? इंद्रियां सिकोड़ने का क्या मतलब - कान फोड़ लें? इंद्रियां सिकोड़ने का क्या मतलब - जीभ काट डालें ? और आप सोचते हों कि नहीं, ऐसा तो कोई भी नहीं समझता, तो गलत सोचते हैं। जमीन पर अधिक लोगों ने ऐसा ही सोचा है। ऐसा ही सोचा है। ऐसे साधु हुए हैं, जिन्होंने आंखें फोड़ी हैं। ऐसे साधु हुए हैं, जिन्होंने कान फोड़े हैं। ऐसे साधु हुए हैं, जिन्होंने पैर काट डाले हैं। ऐसे साधु हुए हैं, जिन्होंने जननेंद्रियां काट डाली हैं। मध्ययुग में योरोप में एक बहुत बड़ा ईसाइयों का संप्रदाय था, जिसने लाखों लोगों की जननेंद्रियां कटवा डालीं। स्त्रियों के स्तन कटवा डाले; पुरुषों की जननेंद्रियां कटवा डालीं। लेकिन क्या आंख के फूट जाने से देखने की वासना फूट जाती है ? क्या जननेंद्रिय के कट जाने से काम की वासना कट जाती है ? तब तो सभी बूढ़े कामवासना के बाहर हो जाएं! नहीं, इंद्रिय कट जाने से सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम कट जाता है । और अभिव्यक्त होने की जो प्रबल वासना थी भीतर, वह और विक्षिप्त होकर दौड़ने लगती है। मार्ग न मिलने से वह और पागल हो जाती है, द्वार न मिलने से और विक्षिप्त हो जाती है। हां, दूसरों को पता चलना बंद हो जाता है। वह वासना प्रेत बन जाती है, उसके पास शरीर नहीं रह जाता। कृष्ण जिस इंद्रिय को सिकोड़ने की बात कर रहे हैं, और कछुए से जो उदाहरण दे रहे हैं; कछुए के उदाहरण को बहुत मत खींच लेना । गीता पर टीका लिखने वालों ने बहुत खींचा है। आदमी कछुआ नहीं है। कोई उदाहरण पूरे नहीं होते । सब उदाहरण सिर्फ सूचक होते हैं— जस्ट ए इंडिकेशन – एक इशारा, जिससे बात समझ में आ जाए, बस । जैसे कछुआ अपनी इंद्रियों को सिकोड़ लेता है, ऐसा ही स्थितप्रज्ञ, वे जो भीतर की रस इंद्रियां हैं, उन्हें सिकोड़ लेता है। लेकिन रस इंद्रियों का जो बाह्य शरीर है, उसे सिकोड़ने का कोई मतलब नहीं है। उसे सिकोड़ने का मतलब तो सिर्फ मरना है। और उसे काटकर भीतर का रस नहीं कटता । हां, भीतर का रस कट जाए, तो वह इंद्रिय शुद्ध इंस्ट्रूमेंट रह जाती है-वासना का नहीं, सिर्फ व्यवहार का । आंख तब देखती है बिना देखने की वासना के । तब जो आंख के सामने आ जाता है, वह देखा जाता है। लेकिन तब आंख कुछ आंख के सामने आ जाए, इसकी आकांक्षा से पीड़ित नहीं होती है। तब जो भोजन सामने आ जाता है, वह कर लिया जाता है। तब जीभ उस भोजन को करने में सहयोग देती है, लार छोड़ती है। लेकिन जो भोजन सामने नहीं है, जीभ फिर उसके लिए लार नहीं टपकाती है । फिर जो कान में पड़ जाता है, वह सुन लिया जाता है। लेकिन फिर कान तड़पते नहीं हैं किसी को सुनने के लिए। नहीं, तब इंद्रियां सिर्फ व्यवहार के माध्यम रह जाती हैं। ध्यान रहे, जब इंद्रियां व्यवहार के माध्यम रहती हैं, तब वे केवल बाहर से सेंस डेटा इकट्ठा करती हैं, बस । जब इंद्रियां सिर्फ व्यवहार का माध्यम होती हैं, तो बाहर के जगत से तथ्यों की सूचना भीतर देती हैं। और जब इंद्रियां वासना के माध्यम बनती हैं, तब वासनाओं को बाहर ले जाकर विषयों से जोड़ने के उपयोग में लाई जाती हैं। ये दोनों अलग-अलग फंक्शन हैं, ये दोनों अलग-अलग काम हैं। यह तो आंख का काम है कि वह बताए कि सामने दरख्त है। यह आंख का काम है कि वह बताए कि सामने पत्थर है। यह आंख का काम है कि वह खबर दे कि सामने क्या है। लेकिन जब आंख वासना से भरती है, तो बहुत मजेदार है। ' तुलसीदास भागे हैं पत्नी को खोजने । उस वक्त उनकी आंख फंक्शनल नहीं है, उस वक्त सांप को वे रस्सी समझ लेते हैं। आंख अपना फंक्शन नहीं कर पा रही है। वासना इतनी तीव्र है, रस्सी को ही देखना चाहती है। इसलिए सांप को भी रस्सी देख लेती है। रस्सी ही चाहती है उस वक्त, एक क्षण चैन नहीं है। सामने के दरवाजे से जाएंगे, उचित नहीं; अभी पत्नी को आए देर भी नहीं हुई, वे 255 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1- गीता दर्शन भाग-1 AM पीछे-पीछे ही चले आए हैं। क्योंकि लैला के सौंदर्य को देखने के लिए मजनू की आंख चाहिए। नदी पार करते हैं, तो एक मुरदे की लाश को लकड़ी समझकर | मजनू के पास कौन-सी आंख है? कोई और तरह की आंख है ? सहारा लेकर नदी पार कर जाते हैं। आंख अपना फंक्शनल काम | आंख तो ऐसी ही है, जैसी मेरी है, आपकी है, उस राजा के पास नहीं कर पा रही है। आंख जो करने के लिए बनी है, वह नहीं कर | थी। आंख तो जैसी सब की है वैसी उसकी भी है। लेकिन आंख पा रही है कि लाश है। न, मन कह रहा है, कहां लाश! मन को | वासनाग्रस्त है। आंख आंख का काम नहीं कर रही है, पीछे जो लाश से कोई लेना-देना नहीं है। मन को पहंचना है उस पार। उस आंख की वासना की इंद्रिय है, वह हावी है। आंख वही देख पार भी नहीं पहुंचना है, वह जो पत्नी चली गई है, उस तक पहुंचना है, जो वासना दिखाना चाह रही है। है। अब मन बिलकुल आंखों का उपयोग नहीं कर रहा है। आंखें ___ इस भीतर की अंतर-इंद्रिय को सिकोड़ लेने की बात हैबिलकुल अंधी हो गई हैं। लाश का सहारा लेकर, लकड़ी | अंतर-इंद्रिय को, दिस इनर इंस्टमेंट, यह जो भीतर है हमारे। समझकर, पार हो जाते हैं। सांप को पकड़कर छत पर चढ़ जाते हैं। इस फासले को ठीक से हमें समझ लेना चाहिए। जब हाथ से मैं अब यहां अगर हम ठीक से समझें, तो आंख का जो व्यवहार जमीन छूता हूं, तब मेरा हाथ क्या वही काम करता है! जब हाथ से है, जिसके लिए आंख है, वह नहीं हो रहा है। बल्कि आंख के पीछे | मैं पत्थर छूता हूं, तब भी वही करता है! जब हाथ से मैं किसी उसको जो वासना है, वह वासना आंख पर हावी है। आंख वासना से | छूता हूं जिसको मैं छूना चाहता हूं, तब हाथ वही काम करता है? आब्सेस्ड है। वासनाग्रस्त आंख अंधी हो जाती है। वह वही देखती नहीं, हाथ के काम में फर्क पड़ गया है। जब मैं जमीन को छूता है. जो देखना चाहती है: वह नहीं देखती. जो है। है, तो सिर्फ छूता हूं। कोई वासना नहीं है वह, सिर्फ स्पर्श है, एक कृष्ण जब कहते हैं, कछुए की तरह इंद्रियों को सिकोड़ लेता है। | भौतिक घटना है, एक मानसिक आरोपण नहीं। लेकिन जब मैं स्थितधी, तो मतलब यह नहीं है कि आंखें फोड़ लेता है, कि आंखें | | किसी को प्रेम करता हूं और उसके हाथ को छूता हूं, तब सिर्फ बंद कर लेता है। मतलब इतना ही है कि आंखों से सिर्फ आंखों का | | भौतिक घटना है? ही काम लेता है। सिर्फ देखता ही है आंखों से; वही देखता है, जो नहीं, तब एक मानसिक घटना भी है। हाथ सिर्फ छू ही नहीं रहा है। कानों से वही सुनता है, जो है। हाथों से वही छूता है, जो है।। | है, हाथ कुछ और भी कर रहा है। हाथ कोई सपना भी देख रहा है। विषयों पर वासना को आरोपित नहीं करता। विषयों पर वासना के हाथ किसी ड्रीम में उतर रहा है। हाथ अपने स्पर्श करने के ही सपनों के भवन नहीं बनाता। विषयों को आपूरित नहीं कर देता। अकेले काम को नहीं कर रहा है, स्पर्श के आस-पास काव्य भी सुना है मैंने कि मजनू को उसके गांव के राजा ने बुलाया और | बुन रहा है, कविता भी गढ़ रहा है। कहा, तू बिलकुल पागल है, साधारण-सी स्त्री है लैला। | वह भीतरी, वह जो भीतरी हाथ है, जो यह कर रहा है, इस भीतरी आपको भी खयाल न हो. क्योंकि मजन इतना लैला-लैला हाथ के सिकोड लेने की बात कष्ण कह रहे हैं कि स्थितधी चिल्लाया है कि ऐसा खयाल पैदा हो गया है कि लैला कोई बहुत | अंतर-इंद्रियों को ऐसे ही सिकोड़ लेता है, जैसे कछुआ बहिर-इंद्रियों सुंदर स्त्री रही होगी। लैला बहुत साधारण स्त्री है। | को सिकोड़ लेता है। सम्राट ने बुलाकर कहा कि तू पागल है। बहुत साधारण-सी स्त्री | | लेकिन आदमी को बहिर-इंद्रियां सिकोड़नी नहीं हैं। बहिर-इंद्रियां है, उसके पीछे तू दीवाना है? उससे अच्छी स्त्रियां मैं तुझे बुलाए परमात्मा की बड़ी से बड़ी देन हैं। उनके कारण ही जगत का विराट देता है; कोई भी चुन ले। सम्राट ने नगर की बारह सुंदरतम | हम तक उतरता है, उनके द्वार से ही हम परिचित होते हैं प्रकाश से। लड़कियों को लाकर खड़ा कर दिया। मजनू पर उसे दया आ गई। उनके द्वार से ही आकाश से, उनके द्वार से ही फूलों से, उनके द्वार मजनू हंसने लगा। उसने कहा कि कहां लैला और कहां ये | से ही मनुष्य के सौंदर्य से, उनके द्वार से ही जगत में जो भी है, उससे स्त्रियां! आपका दिमाग तो ठीक है? लैला के चरणों में भी तो ये कोई हम परिचित होते हैं। नहीं बैठ सकतीं! सम्राट ने कहा, दिमाग मेरा ठीक है कि तेरा ठीक नहीं, इंद्रियां तो द्वार हैं। लेकिन इन द्वार से सिर्फ जो बाहर है, है! मजनू ने कहा, कुछ भी हो, दिमाग से लेना-देना क्या है! लेकिन वह भीतर जाए, तब तक ये द्वार विक्षिप्त नहीं हैं। और जब भीतर एक बात आपसे कहे देता हूं, अब दोबारा यह बात मत उठाना। | | का मन इन द्वार से बाहर जाकर हमले करने लगता है, और चीजों 256 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विषय-त्याग नहीं-रस-विसर्जन मार्ग है +HIK पर आरोपित होने लगता है, और आग्रह निर्मित करने लगता है, | | कितनी बार आपने सपने देखे, वह सब ग्राफ बता देता है। अब तो और कल्पनाएं सजाने लगता है, और सपने निर्माण करने लगता धीरे-धीरे, धीरे-धीरे समझ में आ रहा है कि किस तरह का सपना है, तब, तब हम एक जाल में खो जाते हैं, जो जाल बाहर की इंद्रियों | | देखा! ग्राफ से वह भी पता चलने लगा है। क्योंकि जब आप का नहीं है, अंतर-इंद्रियों का है। | सेक्सुअल सपना देखते हैं, जब आप कामुक सपना देखते ___ अंतर-इंद्रियों को सिकोड़ लेता है स्थितधी। कैसे सिकोड़ लेता हैं और सौ में से कम से कम पचास सपने कामुक होते हैं सभी होगा? क्योंकि बहिर-इंद्रियों को सिकोड़ना तो बहुत आसान समझ | | के, साधारणतः सभी के; जो असाधारण हैं, उनके जरा और ज्यादा में आता है। यह हाथ फैला है, इसको सिकोड़ लिया। इसके लिए | | परसेंटेज में होते हैं; पचास प्रतिशत कामुक सपने-तब तो आंख कोई स्थितप्रज्ञ होने की जरूरत नहीं है। कछुआ स्थितप्रज्ञ नहीं है, ही नहीं, जननेंद्रिय भी तत्काल प्रभावित हो जाती है। उस पर भी नहीं तो सभी आदमी कछुए हो जाएं और स्थितप्रज्ञ हो जाएं। । | मशीन लगाई जा सकती है, वह भी खबर कर देती है ग्राफ पर। लेकिन बहुत लोगों ने कछुआ बनने की कोशिश की है। कई ___ अब कोई भी नहीं है, आप बिलकुल अकेले हैं अपने सपने में। साधु, संन्यासी, साधक, त्यागी, योगी, कछुआ बनने की कोशिश | न कोई विषय है, न कोई स्त्री है, न कोई पुरुष है, न कोई भोजन में लगे रहे हैं कि कैसे इंद्रियों को सिकोड़ लें। कछुआ बनने से कोई है-कुछ भी नहीं है। निपट अकेले हैं, सब इंद्रियां बंद हैं। फिर हल नहीं है। कछुआ तो सिर्फ एक प्रतीक था, और अच्छा प्रतीक | | यह भीतर कौन गति कर रहा है? ये अंतर-इंद्रियां हैं, जो भीतर गति था। शायद कृष्ण जिस दुनिया में थे, इससे अच्छा प्रतीक और कोई | | कर रही हैं। और इनकी भीतरी गति के कारण इनकी बहिर-इंद्रिय मिल नहीं सकता था। आज भी नहीं है। आज भी हम खोजें कोई | | भी प्रभावित हो जाती है। काट डालें पूरे आदमी को, तो भी कोई दूसरा सब्स्टीटयूट, तो बहुत मुश्किल है। कछुआ बिलकुल ठीक | | फर्क नहीं पड़ेगा। पता नहीं चलेगा बस, सब भीतर-भीतर धुआं से बात कह जाता है-ऐसा कुछ, भीतर के जगत में। लेकिन वह | | होकर घूमने लगेगा। अक्सर सज्जन आदमियों के भीतर सब धुआं भीतर के जगत में होगा कैसे? | हो जाता है, भीतर घूमने लगता है। बुरे आदमी जो बाहर कर लेते बाहर की इंद्रियां सिकोड़ना बहुत आसान है। आंखें फोड़ लेना हैं, अच्छे आदमी भीतर करते रहते हैं। धर्म की दृष्टि से कोई भी कितना आसान है, लेकिन देखने का रस छोड़ना कितना कठिन है! | फर्क नहीं है। सच तो यह है कि आंखें फोड़ लो, तभी पहली दफा पता चलता है। इन भीतर की इंद्रियों को कैसे सिकोड़ेंगे? एक छोटा-सा सूत्र, कि देखने का रस कितना है! रात आंख तो बंद हो जाती है, लेकिन फिर हम दूसरा श्लोक लें। बहुत छोटा-सा सूत्र है भीतर की इंद्रियों सपने तो बंद नहीं होते। और दिनभर जो नहीं देखा, वह भी रात में | को सिकोड़ने का। दिखाई पड़ता है। आंख फोड़ लेंगे, तो क्या होगा? इतना ही होगा ___ एक दिन बुद्ध बैठे हैं ऐसे ही किसी सांझ; बहुत लोग उन्हें सुनने कि सपने चौबीस घंटे चलने लगेंगे। और क्या होगा? | आ गए हैं। एक आदमी सामने ही बैठा हुआ पैर का अंगूठा हिला सपनों पर बहुत खोजबीन हुई है। जब आप रात सपना देखते हैं, रहा है। बुद्ध ने बोलते बीच में उस आदमी से कहा कि क्यों भाई, तो अब तो बाहर से भी पता चल जाता है कि आप सपना देख रहे | यह पैर का अंगूठा क्यों हिलाते हो? वह आदमी भी चौंका, और हैं कि नहीं। अब तो यंत्र बन गए हैं, जो आपकी आंखों पर लगा | लोग भी चौंके, कि कहां बात चलती थी, कहां उस आदमी के पैर दिए जाते हैं रात में, और रातभर अंकित करते रहते हैं कि इस का अंगूठा! बुद्ध ने कहा, यह पैर का अंगूठा क्यों हिल रहा है? आदमी ने कब सपना देखा, कब नहीं देखा। क्योंकि जब आप | उस आदमी का तत्काल अंगूठा रुक गया। उस आदमी ने कहा, सपना देखते हैं, तब बंद आंख में भी आंख तेजी से चलने लगती | | आप भी कैसी बातें देख लेते हैं! छोड़िए भी। बुद्ध ने कहा, नहीं, है। बंद आंख है, देखने को कुछ नहीं है वहां, लेकिन आंख तेजी | | छोडूंगा नहीं। जानना ही चाहता हूं, अंगूठा क्यों हिलता था? तुम्हारे से चलने लगती है। उसके मूवमेंट्स रैपिड हो जाते हैं। इतनी तेजी इतने सवालों के जवाब मैंने दिए, आज पहली दफे मैंने सवाल पूछा • से आंख चलने लगती है, जैसे सच में वह देख रही है अब। है; मुझे उत्तर दो। उस आदमी ने कहा, अब आप पूछते हैं, तो __ तो वह उसकी आंख की गति ऊपर से पकड़ ली जाती है, वह मुश्किल में डालते हैं। सच बात यह है कि मुझे पता ही नहीं था कि ग्राफ बन जाता है कि आंख कब कितनी तेजी से चली। रात में पैर का अंगूठा हिल रहा है; और जैसे ही पता चला, रुक गया। तो 1257 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m गीता दर्शन भाग-1-m बुद्ध ने कहा, जो अंतर-कंपन हैं, वे पता चलते ही रुक जाते हैं। | | तपस्वी भी मानता है कि जो करूंगा वह शरीर से। भोगी भी मानता अंतर-कंपन जो हैं, वे पता चलते ही रुक जाते हैं। है कि शरीर ही द्वार है सुख का, त्यागी भी मानता है कि शरीर ही तो भीतर की इंद्रियों को सिकोड़ना नहीं पड़ता, सिर्फ इसका पता द्वार है सुख का। सुख की धारणाएं उनकी अलग हैं। भोगी शरीर चलना कि भीतर इंद्रिय है और गति कर रही है, इसका बोध ही | से ही विषयों तक पहुंचने की कोशिश करता है, त्यागी शरीर से ही उनका सिकुड़ना हो जाता है—दि वेरी अवेयरनेस। जैसे ही पता विषयों से छूटने की कोशिश करता है। लेकिन शरीर ओरिएंटेशन चला कि यह भीतर काम की वासना उठी, कुछ करें मत, सिर्फ | है, शरीर ही आधार है दोनों का। और दोनों बड़े देहाभिमानी हैं, देखें। आंख बंद कर लें और देखें, यह भीतर काम की वासना उठी। | बाडी-सेंट्रिक हैं, शरीर-केंद्रित हैं। दोनों की दृष्टि शारीरिक है। यह काम की वासना चली जननेंद्रिय के केंद्रों की तरफ सिर्फ इस तथ्य को पहले समझें, फिर दूसरा हिस्सा खयाल में लाया देखें। दो सेकेंड से ज्यादा नहीं, और आप अचानक पाएंगे, सिकुड़ | जा सकता है। दोनों की स्थिति शारीरिक है। एक आदमी सोचता गई। यह क्रोध उठा, चला यह बाहर की इंद्रियों को पकड़ने। सिर्फ | है, शरीर से इंद्रियों को तृप्त कर लें। सारा जगत सोचता है। देखें; आंख बंद कर लें और देखें; और आप पाएंगे, वापस लौट - मुझसे कोई पूछता था कि चार्वाक का कोई संप्रदाय क्यों न बना? गया। यह किसी को देखने की इच्छा जगी और आंख तड़पी। देखें, उसके शास्त्र क्यों न बचे? उसके मंदिर क्यों न निर्मित हुए? उसका चली भीतर की इंद्रिय बाहर की इंद्रिय को पकड़ने। देखें-सिर्फ कोई पंथ, उसका कोई संप्रदाय क्यों नहीं है? देखें और आप पाएंगे कि वापस लौट गई। तो मैंने उस आदमी को कहा कि शायद तुम सोचते हो कि उसके भीतर की इंद्रियां इतनी संकोचशील हैं कि जरा-सी भी चेतना पास अनुयायी कम हैं इसलिए, तो गलत सोचते हो। असल में नहीं सह पातीं। उनके लिए अचेतना जरूरी माध्यम है-मूर्छा। संप्रदाय सिर्फ माइनर ग्रुप्स के बनते हैं; मेजर ग्रुप का संप्रदाय नहीं इसलिए जो अपने भीतर की इंद्रियों के प्रति जागने लगता है, उसकी बनता। जो अल्पमतीय होते हैं, उनका संप्रदाय बनता है; जो भीतर की इंद्रियां सिकुड़ने लगती हैं, अपने आप सिकुड़ने लगती | बहुमतीय होते हैं, वे बिना संप्रदाय के जीते हैं। बहुमत को संप्रदाय हैं। बाहर की इंद्रियां बाहर पड़ी रह जाती हैं, भीतर की इंद्रियां बनाने की जरूरत नहीं होती। बहुमत को संप्रदाय बनाने की क्या सिकड़कर अंदर चली जाती हैं। ऐसी स्थिति व्यक्ति की समाधिस्थ | जरूरत है? अल्पमत संप्रदाय बनाता है। करोड़ आदमी हैं, दस स्थिति बन जाती है। आदमी एक मत के होंगे, तो संप्रदाय बनाएंगे, बाकी क्यों बनाएंगे? | चार्वाक का संप्रदाय इसीलिए नहीं बना कि सारी पृथ्वी चार्वाक की है। सब चार्वाक हैं, नाम कुछ भी रखे हों। विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । इसलिए चार्वाक शब्द बड़ा अच्छा है, वह बना है चारु-वाक रसवर्ज रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ।। ५९।। से, जो वचन सभी को प्रिय लगते हैं। चार्वाक का मतलब, जो बातें यद्यपि इंद्रियों द्वारा विषयों को न ग्रहण करने वाले सभी को प्रीतिकर हैं। चार्वाक का एक दूसरा नाम है, लोकायत। देहाभिमानी तपस्वी पुरुष के भी विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, | लोकायत का मतलब है, लोक को मान्य, जो सबको मान्य है। बड़ी परंतु रस निवृत्त नहीं होता। परंतु इस पुरुष का रस भी अजीब बात है। जो सबको मान्य है, ऐसा विचार लोकायत है। जो परमात्मा को साक्षात करके निवृत्त हो जाता है। सबको प्रीतिकर है, मधुर है, ऐसा विचार चार्वाक है। नहीं, कोई मंदिर नहीं, कोई संप्रदाय नहीं बना, क्योंकि सभी उसके साथ हैं। क्या, चार्वाक कहता क्या है? वह कहता यह है कि सब सुख - हाभिमानी तपस्वी के...। ऐंद्रिक हैं। इंद्रिय के अतिरिक्त कोई सुख नहीं है। सुख यानी ऐंद्रिक " तपस्वी और देहाभिमानी? असल में देहाभिमान दो| | | होना। सुख चाहिए तो इंद्रिय से ही मिलेगा। हां, वह कहता है, यह तरह का हो सकता है—भोगी का, तपस्वी का। बात सच है कि दुख भी इंद्रिय से मिलते हैं। यह बिलकुल ठीक ही लेकिन दोनों की स्थिति देहाभिमान की है, बाडी ओरिएंटेशन की है, जहां से सुख मिलेगा, वहीं से दुख भी मिलेगा। लेकिन वह है। क्योंकि भोगी भी मानता है कि जो करूंगा वह शरीर से, और कहता है, कोई भी पागल भूसे के कारण गेहूं को नहीं फेंक देता। 258 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-त्याग नहीं-रस-विसर्जन मार्ग है - कोई भी पागल कांटों के कारण फूल को नहीं छोड़ देता। तो दुख | तो कृष्ण कहते हैं, ऐसा व्यक्ति ज्यादा से ज्यादा विषयों को छोड़ के कारण सुख को छोड़ने की कोई भी जरूरत नहीं है। बुद्धिमान सकता है, लेकिन रस से मुक्त नहीं होता। अब आंख फोड़ डालेंगे, दुख को कम करता और सुख को बढ़ाता चला जाता है। लेकिन तो दिखाई पड़ने वाले आब्जेक्ट से तो मुक्त हो ही जाएंगे। जब सब सुख ऐंद्रिक हैं। दिखाई ही नहीं पड़ेगा, तो दिखाई पड़ने वाला विषय तो खो ही क्या इस बात पर आपको कभी भी शक हुआ है कि सब सुख जाएगा। जब कान ही न होंगे, तो वीणा तो खो ही जाएगी, सुनाई ऐंद्रिक हैं? अगर शक नहीं हुआ, तो कृष्ण को समझना बहुत पड़ने वाला विषय तो खो ही जाएगा। लेकिन क्या रस खो जाएगा? मश्किल हो जाएगा। हम सब का भी भरोसा यही है कि सब सख | रस, विषय से अलग बात है। विषय बाहर है, रस भीतर है, ऐंद्रिक हैं। हमने कोई सुख जाना भी नहीं है, जो इंद्रिय के बाहर जाना | इंद्रियां बीच में हैं। इंद्रियां सेतु हैं; ब्रिजेज हैं; रस और विषय के हो। स्वाद जाना है, संगीत जाना है, दृश्य देखे हैं, गंध सूंघी है, | बीच में बना हुआ सेतु हैं। रस को ले जाती हैं विषय तक, विषय सौंदर्य देखा है-जो भी, वह सब इंद्रियों से देखा है। वह सब को लाती हैं रस तक। इंद्रियां बीच के द्वार, मार्ग, पैसेज हैं। इंद्रिय ऐंद्रिक हैं। इंद्रिय के अतिरिक्त हमने और कुछ जाना नहीं है। हम | तोड़ दें; तो ठीक है, विषय से रस का संबंध टूट जाएगा। लेकिन इंद्रियों के अनुभव का ही जोड़ हैं। रस तो नहीं टूट जाएगा। रस भीतर निर्मित रह जाएगा-अपनी इसीलिए तो हमें आत्मा का कोई पता नहीं चलता। क्योंकि इंद्रिय | | जगह तड़पता, अपनी जगह कूदता, विषयों की मांग करता, लेकिन का अनुभव ही जिसकी सारी संपदा है, वह शरीर के ऊपर किसी विषयों तक पहुंचने में असमर्थ, इंपोटेंट; क्लीव हो जाएगा रस। भी तत्व को नहीं जान सकता है। यह तो हमारी स्थिति है। यह हमारी सत्व खो देगा, द्वार खो देगा, मार्ग खो देगा, विक्षिप्त हो जाएगा, देहाभिमानी भोगी की स्थिति है। लेकिन भीतर घूमने लगेगा। अब वह रस भीतर कल्पना के विषय · फिर अगर कभी कोई देहाभिमानी भोगी देह को भोगते-भोगते निर्मित करेगा। क्योंकि जब वास्तविक विषय नहीं मिलते, जब ऊब जाता है...। हर चीज को भोगते-भोगते ऊब आ जाती है। एक्चुअल आब्जेक्ट्स नहीं मिलते, तब चित्त कल्पित विषय निर्मित सभी चीजों से चित्त ऊब जाता है। अगर स्वर्ग में भी बिठा दिया | करना शुरू कर देता है। जाए आपको, तो ऊब जाएगा। ऐसा मत सोचना कि स्वर्ग में बैठे दिनभर उपवास करके देखें, तो रात सपने में पता चल जाता है, हुए लोग जम्हाई नहीं लेते, लेते हैं। वहां भी ऊब जाएंगे। | कि दिनभर किया उपवास तो रातभर सपने में भोजन करना पड़ता बड रसेल ने तो कहीं मजाक में कहा है कि मैं स्वर्ग से बहुत | है। रस भीतर विषय निर्मित करने लगता है। वह कहता है, कोई डरता हूं। सबसे बड़ा डर यह है कि इटरनल है स्वर्ग; फिर वहां से | फिक्र नहीं। बाहर नहीं मिला, भीतर कर लेते हैं। लौटना नहीं है। उसने कहा, इससे बहुत डर लगता है। दूसरा, उसने | असल में, रस इतना प्रबल है कि अगर विषय न हों, तो वह कहा कि वहां सुख ही सुख है, सुख ही सुख है, तो फिर ऊब नहीं काल्पनिक विषयों को निर्मित कर लेता है। सेतु टूट जाए, तो भीतर जाएंगे सुख से? मिठास भी उबा देती है; बीच-बीच में नमकीन की ही विषय बना लेता है; आटो इरोटिक हो जाता है। दूसरे की जरूरत जरूरत पड़ जाती है। सुख भी उबा देता है; बीच-बीच में दुख की ही नहीं रह जाती, वह आत्ममैथुन में रत हो जाता है। अपने ही रस भी जरूरत पड़ जाती है। सब एकरसता मोनोटोनस हो जाती है और | को अपना ही विषय बनाकर भीतर ही जीने लगता है। पागल, उबा देती है। कितना ही सुंदर संगीत हो, बजता रहे, बजता रहे, तो | विक्षिप्त, न्यूरोटिक हो जाता है। फिर सिर्फ नींद ही ला सकता है, और कुछ नहीं कर सकता। कृष्ण जो कह रहे हैं कि विषय तो टूट जाएंगे, छूट जाएंगे तो देहाभिमानी भोगी ऊब जाता है, इंद्रियों के सुखों से ऊब जाता | देहाभिमानी त्यागी के, लेकिन रस नहीं छूटेंगे। और असली सवाल है, तो वह इंद्रियों की शत्रुता करने लगता है। वह देहाभिमानी भोगी | विषयों का नहीं है, असली सवाल रसों का है। असली सवाल की जगह देहाभिमानी त्यागी बन जाता है। फिर जिस-जिस इंद्रिय | इसका नहीं है कि बाहर कोई बड़ा मकान है; असली सवाल इसका से उसने सुख पाया है, उस-उस इंद्रिय को सताता है। और कहता | है कि मेरे भीतर बड़े मकान की चाह है। असली सवाल यह नहीं है है, अब इससे विपरीत चलकर सुख पा लेंगे। लेकिन मानता है | कि बाहर सौंदर्य है; असली सवाल यह है कि मेरे भीतर सौंदर्य की इंद्रिय को ही आधार अब भी। मालकियत की आकांक्षा है। असली सवाल यह नहीं है कि बाहर 259 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mगीता दर्शन भाग-1 AM फूल है; असली सवाल यह है कि मेरे हाथ में फूल को तोड़ने की। पुलिस में रिपोर्ट लिखाने भागेगा। यह क्या हो रहा है? ये कृष्ण हिंसा है। असली सवाल फूल नहीं है, रहे फूल; अगर मेरे हाथ में | | और नाच रहे हैं? कृष्ण को समझ पाना उसे मुश्किल हो जाएगा। तोड़ने की हिंसा नहीं है, तो मैं निकल जाऊंगा फूल के पास से। | उसके खयाल में भी नहीं आ सकता कि किसी व्यक्ति के रस अगर फूल कभी कहता नहीं कि आओ, तोड़ो। फूल बुलाता नहीं, फूल | | भीतर सिकुड़ गए हों, तो बाहर के विषयों से कोई भी सेतु नहीं निमंत्रण नहीं देता, मैं ही जाता हूं। बनता। सेतु बनाने वाला ही खो गया है। तब न कोई भागना है, न रस! कीमती क्या है, विषय या रस? अगर विषय कीमती है, तो कोई चाहना है। तपश्चर्या बहुत मैटीरियल होगी, शारीरिक होगी, फिजिकल होगी। इसलिए कृष्ण के जीवन में अदभुत घटनाएं घटती हैं। जिस और अगर रस, तो फिर तपश्चर्या मनोवैज्ञानिक होगी; फिर | वृंदावन में वे नाचे हैं, उस वृंदावन को जब छोड़कर चले गए हैं, तपश्चर्या आंतरिक होगी। और मैंने जैसा कहा कि कृष्ण गहरे | तो लौटकर भी नहीं देखा है। वासनाग्रस्त चित्त होता, तो छोड़कर मनोवैज्ञानिक हैं, इसलिए साधक के इस मामले में भी वह जो जाना बहुत मुश्किल पड़ता। वासनाग्रस्त चित्त होता, तो स्मृतियां फिजिकल, वह जो भौतिक साधक है, उसकी गहरी व्यंगना और बड़ी पीड़ा देतीं। वासनाग्रस्त चित्त होता, तो लौट-लौटकर वृंदावन गहरी मजाक कर रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि उसके विषय छूट मन को घेरता, सपनों में आता। जाते हैं, रस नहीं छूटता। और देहाभिमानी कहकर जितनी कड़ी नहीं, वृंदावन जैसे था ही नहीं गया। जैसे पृथ्वी के नक्शे पर आलोचना हो सकती है, उतनी उन्होंने कर दी है। देहाभिमानी | अब नहीं है। जिन्होंने वृंदावन में उनके आस-पास नृत्य करके तपस्वी! अब देहाभिमानी और तपस्वी कहते हैं। उनको प्रेम किया था, उनकी पीड़ा का अंत नहीं है। वहां रस भी रहा नहीं, देह को मानने वाला तपस्वी...। उसको भी तपस्वी कह रहे | | होगा। इसलिए उनका मन तो वृंदावन और द्वारिका के बीच ब्रिज हैं, क्योंकि तपश्चर्या तो बहुत करता है—व्यर्थ करता है, करता बनाने की चेष्टा में लगा ही है, सेतु बनाना ही चाहता है। लेकिन बहुत है। असफल होता है, चेष्टा बहुत करता है। श्रम में कमी नहीं | कृष्ण को? कृष्ण को जैसे कोई बात ही नहीं है, सब समाप्त हो है, दिशा गलत है। रस भीतर रह जाएंगे। और अगर सारे विषय गया। जहां थे, वहां थे। जहां नहीं हैं, वहां नहीं हैं। वृंदावन नहीं है। बाहर से छोड़ दिए जाएं और सारे रस भीतर रह जाएं, तो इससे सिर्फ | वह नक्शे से गिर गया। रस न हो भीतर, तो ही यह संभव है। रस । साइकोसिस, विक्षिप्तता पैदा होती है, विमक्तता पैदा नहीं होती। | भीतर हो, तो यह कतई संभव नहीं है। समाधिस्थ व्यक्ति के विषय नहीं, रस छूट जाते हैं। और जिस खूबी है यह कि जितना रस, वासना से भरा हुआ व्यक्ति हो, दिन रस छूटते हैं, उस दिन विषय विषय नहीं रह जाते। क्योंकि वे उतना विषय के निकट होने पर पीड़ित नहीं होता, जितना दूर होने विषय इसीलिए मालूम पड़ते थे कि रस उनको विषय बनाते थे। पर पीड़ित होता है। जिसे हम चाहते हैं, वह पास रहे, तो उसकी जिस दिन रस छूट जाते हैं, उस दिन विषय वस्तुएं रह जाते हैं, | याद नहीं आती है। जिसे हम चाहते हैं, वह दूर हो, तभी उसकी याद विषय नहीं-थिंग्स। क्योंकि उनसे अब कोई रस का संबंध नहीं | | आती है। जिसे हम चाहते हैं, वह पास हो, तब तो भूलना बहुत रह जाता। आसान है। जिसे हम चाहते हैं, जब वह पास न हो, तब भूलना समाधिस्थ व्यक्ति रसों के विसर्जन में उत्सुक है, विषयों के | बहुत कठिन है। त्याग में नहीं। त्याग हो जाता है, यह दूसरी बात है। लेकिन असली | | लेकिन कृष्ण उलटे हैं। जो पास है, उसे वे परी तरह याद रखते सवाल आंतरिक रसों के विसर्जन का है। इसलिए यह लक्षण भी वे | | हैं। हम, जो पास है, उसे बिलकुल भूल जाते हैं; जो दूर है, उसे गिनाते हैं कि समाधिस्थ व्यक्ति रसों से मुक्त हो जाता है, विषयों | पूरी तरह याद रखते हैं। कृष्ण, जो पास है, उसे पूरी तरह याद रखते की उसे जरा भी चिंता नहीं है। | हैं। वह उनकी चेतना में पूरा का पूरा है। उसी से तो भ्रम पैदा होता यह ध्यान में ले लेना जरूरी है, क्योंकि यही कृष्ण के ऊपर बड़े | है। उसी से तो प्रत्येक को लगता है कि इतनी अटेंशन मुझे दी, इतना से बड़ा आक्षेप रहा है। क्योंकि कृष्ण को आम्र-कुंजों में नाचते | ध्यान मेरी तरफ दिया; फिर मुझे इस तरह भूल गए, तो बड़ी देखकर बड़ी कठिनाई पड़ेगी देहाभिमानी तपस्वी को, कि यह क्या | | गैर-वफादारी है। हो रहा है। उसकी पीड़ा का अंत न रहेगा। उसका वश चले तो वह उसे पता नहीं है कि कृष्ण जहां हैं, वहीं उनका पूरा ध्यान है। वे 12601 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विषय-त्याग नहीं-रस-विसर्जन मार्ग है - जहां हैं, वहां पूरे हैं; उनकी उपस्थिति पूरी है। पत्थर को भी देखते वह दूसरा यह है कि इंद्रियां मैकेनिकल हैबिट्स हैं, यांत्रिक आदतें हैं, तो पूरे ध्यान से देखते हैं। पत्थर भूल में नहीं पड़ता, यह बात | हैं। और आपने जन्मों-जन्मों में जिस इंद्रिय की जो आदत बनाई है, दूसरी है। लेकिन आदमी को देख लेते हैं, तो भूल में पड़ जाता है। जो कंडीशनिंग की है उसकी, जब आप बदलते हैं तो उसे कुछ भी स्त्री को देख लेते हैं, तो और भी भूल में पड़ जाती है। फिर वह | | पता नहीं होता कि आप बदल गए हैं। वह अपनी पुरानी आदत को तड़पती है, रोती है, चिल्लाती है। उसे पता नहीं है कि कृष्ण गए, तो | | दोहराए चली जाती है। इंद्रियां यंत्र हैं, उन्हें कुछ पता नहीं होता। गए। वहां भीतर कोई सेतु नहीं बनता, वहां भीतर कोई रस नहीं है। | आपने एक ग्रामोफोन पर रिकार्ड चढ़ा दिया। रिकार्ड गाए चला ___ इस तथ्य को न समझे जाने से कृष्ण के संबंध में भारी भूल हुई | जा रहा है। आधा गीत हो गया, अब आपका मन बिलकुल सुनने है। जिस स्थितधी की वे बात कर रहे हैं, वैसी थिरता चेतना की को नहीं है, लेकिन रिकार्ड गाए चला जा रहा है। अब रिकार्ड को स्वयं उनमें पूरी तरह फलित हुई है। कोई भी पता नहीं है कि अब आपका मन सुनने का नहीं है। रिकार्ड को पता हो भी नहीं सकता। रिकार्ड तो सिर्फ यंत्र की तरह चल रहा है। लेकिन उठकर आप रिकार्ड को बंद कर देते हैं, क्योंकि रिकार्ड यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः । | को कभी आपने अपना हिस्सा नहीं समझा। इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।। ६० ।। | ___ इंद्रियों के यंत्र के साथ एक दूसरी आइडेंटिटी है कि आप इंद्रियों और हे अर्जुन, इसलिए यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के भी | || को अपना ही समझते हैं। इसलिए इंद्रियां जब चलती चली जाती मन को यह प्रमथन स्वभाव वाली इंद्रियां हैं, तो अपना ही समझने के कारण आप भी उनके पीछे चल पड़ते बलात्कार से हर लेती है। हैं। आप उनको यंत्र की तरह बंद नहीं कर पाते। तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः । ___ अब एक आदमी है; उसे सिगरेट पीने की यांत्रिक आदत पड़ वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। ६१।। गई है, या शराब पीने की। कसम खाता है, नहीं पीऊंगा। निर्णय इसलिए मनुष्य को चाहिए कि उन संपूर्ण इंद्रियों को वश में | करता है, नहीं पीऊंगा। लेकिन उसकी इंद्रियों को कोई पता नहीं; करके समाहित चित्त हुआ, मेरे परायण स्थित होवे।। | उनके पास बिल्ट-इन-प्रोसेस हो गई है। तीस साल से वह पी रहा क्योंकि, जिस पुरुष के इंद्रियां वश में होती है, | है, चालीस साल से वह पी रहा है। इंद्रियों का एक नियमित ढांचा __ उसकी ही प्रज्ञा स्थिर होती है। हो गया है कि हर आधे घंटे में सिगरेट चाहिए। हर आधे घंटे पर यंत्र की घंटी बज जाती है, सिगरेट लाओ। तो आदमी कहता है, | तलब! तलब लग गई है। तलब वगैरह क्या लगेगी। वह कहता है, 5 क चेतावनी कृष्ण देते हैं, वह यह कि इंद्रियां भी | | सिगरेट पुकारती है। सिगरेट क्या पुकारेगी! ए व्यक्ति को खींचती हैं विषयों की ओर। इस बात को । नहीं, चालीस-पचास वर्ष का यांत्रिक जाल है इंद्रियों का। हर थोड़ा गहरे में समझना आवश्यक है। इंद्रियां भी आधे घंटे पर सिगरेट मिलती रही है, इंद्रियों के पास व्यवस्था हो व्यक्ति को खींचती हैं विषयों की ओर। साधक को भी इंद्रियां गिरा | | गई है। उनके पास बिल्ट-इन-प्रोग्रेम है। उनके पास चौबीस घंटे देती हैं। की योजना है कि जब आधा घंटा हो जाए, तब आपको खबर कर इंद्रियां कैसे गिराएंगी? क्या इंद्रियों के पास अपनी कोई व्यक्ति | | दें कि अब सिगरेट चाहिए। पूरा शरीर! और इंद्रियों के साथ पूरा की आत्मा से अलग शक्ति है? क्या इंद्रियों के पास अपनी कोई | शरीर है। अलग ऊर्जा है? क्या इंद्रियां इतनी बलवान हैं स्वतंत्र रूप से कि | तो जब सिगरेट चाहिए, तब शरीर के अनेक अंगों से यह खबर व्यक्ति की आत्मा को गिराएंगी? | आएगी कि सिगरेट चाहिए। होंठ कुछ पकड़ने को आतुर हो जाएंगे, नहीं, इस कारण नहीं। इंद्रियों के पास कोई भी शक्ति नहीं है। | फेफड़े कुछ खींचने को आतुर हो जाएंगे, खून निकोटिन लेने के इंद्रियां व्यक्ति से स्वतंत्र अस्तित्ववान भी नहीं हैं। लेकिन फिर भी लिए प्यासा हो जाएगा, नाक कुछ छोड़ने को आतुर हो जाएगी। मन इंद्रियां गिरा सकती हैं, गिराने का कारण बहुत दूसरा है। किसी चीज में व्यस्त होने को आतुर हो जाएगा। यह इकहरी घटना 261 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MO+ गीता दर्शन भाग-1 AM नहीं है, कांप्लेक्स है, इसमें पूरा शरीर संयुक्त है। और पूरा शरीर गया बल, साधक का ही इंद्रियों को दिया गया अभ्यास, साधक की इंतजार करने लगेगा कि लाओ। सब तरफ से दबाव पड़ने लगेगा ही इंद्रियों को दी गई कंडीशनिंग, संस्कार...। कि लाओ। और संस्कार बड़ी प्रबल चीज है। हम सब संस्कार से जीते हैं। चालीस-पचास साल का दबाव है। और आपने जो निर्णय | | हम चेतना से नहीं जीते, हम जीते संस्कार से हैं। संस्कार बड़ी प्रबल लिया है सिगरेट न पीने का, वह सिर्फ चेतन मन से लिया है। और | चीज है। इतनी प्रबल चीज है कि जब संस्कार की सारी स्थिति भी यह दबाव चालीस साल का अचेतन मन के गहरे कोनों तक पहंच | चली जाती है, अकेला संस्कार रह जाता है, तो अकेला संस्कार भी गया है। इसकी बड़ी ताकत है। और मन जल्दी बदलने को राजी। काम करता रहता है। नहीं होता, क्योंकि अगर मन जल्दी बदलने को राजी हो, पूरा मन, | मैंने सुना है, विलियम जेम्स एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक तो आदमी जिंदा नहीं रह सकता। इसलिए मन को बहुत | अमेरिका में हुआ। वह संस्कार पर बड़ा काम कर रहा था। असल आर्थोडाक्सी दिखलानी पड़ती है। मन को पूरी कोशिश करनी पड़ती | | में जो मनोविज्ञान संस्कार पर काम नहीं करता, वह मनोविज्ञान बन है कि जो चीज चालीस साल सीखी है, वह एक सेकेंड में छोड़ोगे! | ही नहीं सकता। क्योंकि बहुत गहरी पकड़ तो मनुष्य की कंडीशनिंग तब तो जिंदगी बहुत मुश्किल में पड़ जाए। की है। सारी पकड़ तो वहां है, जहां आदमी जकड़ा हुआ है; जहां एक आदमी चालीस साल एक स्त्री को प्रेम करता रहा, जरा-सा | अवश, हेल्पलेस हो जाता है। तो वह कंडीशनिंग पर काम कर रहा गुस्सा आता है, कहता है, छोड़ देंगे! लेकिन कोई छोड़ता-वोड़ता है। वह एक दिन होटल में बैठा हुआ है, एक मित्र से बात कर रहा नहीं, क्योंकि वह चालीस साल जो पकड़ा है, उसका वजन ज्यादा | है। और उसने कहा कि इतना अजीब जाल है संस्कार का मनुष्य है। और अगर ऐसा छोड़ना होने लगे, तो जिंदगी एकदम | का कि जिसका कोई हिसाब नहीं है। अस्तव्यस्त हो जाए। इसलिए मन कहता है, जिसको चालीस साल | तभी उसने देखा कि सामने पहले महायुद्ध का रिटायर हुआ पकड़ा है, कम से कम चालीस साल छोड़ो। | मिलिट्री का एक कैप्टन चला जा रहा है। अंडों की एक टोकरी लिए फिर मन के भी संकल्प के क्षण हैं और संकल्पहीनता के क्षण |हए है। उसे सझा कि ठीक उदाहरण है। विलियम जेम्स ने होटल हैं। मन कभी एक ही स्थिति में नहीं होता। कभी वह संकल्प के | के भीतर से चिल्लाकर जोर से कहा, अटेंशन। वह मिलिट्री का . शिखर पर होता है, तब ऐसा लगता है कि दुनिया की कोई ताकत | | आदमी अंडे छोड़कर अटेंशन खड़ा हो गया। सारे अंडे जमीन पर नहीं रोक सकती। कभी वह विषाद के गड्ढे में होता है, तब ऐसा गिर पड़े। रिटायर हुए भी वर्षों हो गए उसे। लेकिन अटेंशन ने लगता है, कोई जरा-सा धक्का दे जाएगा तो मर जाऊंगा। | बिलकुल बंदूक के ट्रिगर की तरह काम किया। गोली चल गई। तो जब वह संकल्प के शिखर पर होता है, तब वह कहता है, | वह आदमी बहुत नाराज हुआ कि तुम किस तरह के आदमी हो, ठीक है, छोड़ देंगे। घंटेभर बाद जब विषाद में उतर जाता है, वह | | यह कोई मजाक है? सारे अंडे फूट गए! लेकिन विलियम जेम्स ने कहता है, क्या छोड़ना है! कैसे छोड़ सकते हैं! नहीं छूट सकती है, | | कहा, तुमसे किसने कहा कि तुम अटेंशन हो जाओ। हमें अटेंशन अपने वश की बात नहीं है। इस जन्म में नहीं हो सकता है। यह | | कहने का हक है। तुमसे ही कहा, यह तुमने कैसे समझा? और कहता जाता है भीतर, हाथ तब तक सिगरेट को खोल लेते हैं, हाथ | तुमसे भी कहा, तो तुम्हें होने की मजबूरी किसने कही कि तुम हो तब तक मुंह में लगा देते हैं, दूसरा हाथ माचिस जला देता है। जब | जाओ! उस आदमी ने कहा, यह सवाल कहां है, यह कोई सोचने तक वह भीतर यह सोच ही रहा है, नहीं हो सकता, तब तक शरीर | | की बात है! ये पैर वर्षों तक अटेंशन सुने हैं और अटेंशन हुए हैं। पीना ही शुरू कर देता है। तब वह जागकर देखता है, क्या हो गया | इसमें कोई गैप ही नहीं है बीच में। उधर अटेंशन, इधर अटेंशन यह? यह तो फिर सिगरेट पी ली? नहीं, यह नहीं हो सकता है! घटित होता है। तब निर्णय पक्का हो जाता है कि यह हो ही नहीं सकता है। करीब-करीब, वह जो कृष्ण कह रहे हैं, वह एक बहुत इसलिए कृष्ण कहते हैं कि इंद्रियां खींच-खींचकर गिरा देती हैं। मनोवैज्ञानिक सत्य है, कि आदमी की इंद्रियां, उसकी कंडीशनिंग | और एक जन्म की नहीं, अनेक जन्मों की। हमने वही-वही. इंद्रियां क्या गिराएंगी! साधक का ही अतीत में इंद्रियों को दिया वही-वही किया है। हम वही-वही करते रहे हैं। हम उसी जाल में साधक को। 262] Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ im+ विषय-त्याग नहीं-रस-विसर्जन मार्ग है - घूमते रहे हैं। हम रोज एनफोर्समेंट कर रहे हैं। हमने जो किया है, | लेकिन आमतौर से तो प्रार्थना न करने से दुख मिलता है, करने उसको हम रोज बल दे रहे हैं। और फिर जब हम निर्णय लेते हैं | से आनंद नहीं मिलता। यह बड़े मजे की बात है, न करने से दुख कभी, तो हम इसका कोई खयाल ही नहीं करते कि जिन इंद्रियों के | मिलता है। वह दुख हैबिचुअल है, वह वैसा ही है जैसा सिगरेट खिलाफ हम निर्णय ले रहे हैं, उनका बल कितना है! उसकी कोई का। उसमें कोई बहुत फर्क नहीं है। रोज करते हैं, रोज आदतें कहती तौल नहीं करते कभी। बिना तौले निर्णय ले लेते हैं। फिर पराजय | | हैं, करो। नहीं किया, तो जगह खाली छूट जाती है। दिनभर वह के सिवाय हाथ में कुछ भी नहीं लगता। खाली जगह भीतर ठक-ठक करती रहती है कि आज प्रार्थना नहीं तो जो साधक सीधा इंद्रियों को बदलने में लग जाएगा और | की! फिर काम किया-आज प्रार्थना नहीं की! अब बड़ी मुश्किल जल्दी निर्णय लेगा, वह खतरे में पड़ेगा ही। इंद्रियां उसे रोज-रोज हो गई। सिगरेट भी हो तो अभी जला लो और पी लो। अब सुबह पटकेंगी। उसकी ही इंद्रियां। मजा तो यही है, किसी और की हों, | तो कल आएगी। तो भी कोई बात है। अपनी ही इंद्रियां! लेकिन फिर क्या रास्ता है? अनकंडीशनिंग! जैसे-जैसे बांधा है, वैसे-वैसे खोलना भी क्योंकि कंडीशनिंग तो बहुत पुरानी है। संस्कार बहुत पुराने हैं, पड़ता है। जैसे-जैसे आदत बनाई है, वैसे-वैसे आदत बिखरानी भी जन्मों-जन्मों के हैं। अनंत जन्मों के हैं। सब इतना सख्ती से मजबूत पड़ती है। इंद्रियों को निर्मित किया है, उनको अनिर्मित भी करना हो गया है कि जैसे एक लोहे की जैकेट हमारे चारों तरफ कसी हो, होता है। जिसमें से हिलना-डुलना भी संभव नहीं है। लोहा है चारों तरफ इस अनिर्मित करने के लिए कृष्ण एक बहुत अदभुत सुझाव देते आदतों का। कैसे होगा? हैं। वे इस सूत्र में कहते हैं कि जो ज्ञानी पुरुष है, वह सारा बोझ तब तक न होगा, जब तक हम इंद्रियों को बिलकुल ध्यान में ही | अपने ही ऊपर नहीं ले लेता। न लें और निर्णय अलग किए चले जाएं, उनका ध्यान ही न लें। ___ असल में ज्ञानी पुरुष, ठीक से समझो, तो बोझ अपने ऊपर लेता इसकी फिक्र ही न करें कि चालीस साल मैंने सिगरेट पी, और निर्णय | ही नहीं। वह बोझ बहुत कुछ तो परमात्मा पर छोड़ देता है। सच तो लेलें एक क्षण में कि अब सिगरेट नहीं पीऊंगा, तो कभी नहीं होगा। | यह है कि वह पूरा ही बोझ परमात्मा पर छोड़ देता है। और जो एक क्षण के निर्णय चालीस साल की आदतों के मुकाबले नहीं टिकने पुरानी आदतें हमला करती हैं, उनको वह पिछले कर्मों का फल वाले। क्षण का निर्णय क्षणिक है। टूट जाएगा। इंद्रियां पटक देंगी मानकर साक्षीभाव से झेलता है। उनसे कोई दुख भी नहीं लेता। वापस उसी जगह। फिर क्या करना होगा? कहता है कि ठीक। कल मैंने किया था, इसलिए ऐसा हुआ। असल में जिन इंद्रियों के साथ हमने जो किया है, उनको | बुद्ध एक गांव से निकलते। कुछ लोग गाली देते। वे हंसकर अनकंडीशंड करना होता है। उनको संस्कारमुक्त करना होता है। | आगे बढ़ जाते। फिर कोई भिक्षु उनसे पूछता, उन्होंने गाली दी, जिनकी हमने कंडीशनिंग की है, जब उनको संस्कारित किया है, तो | | आपने उत्तर नहीं दिए ? बुद्ध कहते, कभी मैंने उनको गाली दी होंगी, उनको गैर-संस्कारित करना होता है। और गैर-संस्कारित इंद्रियां | वे उत्तर दे गए हैं। अब और आगे का सिलसिला क्या जारी रखना! सहयोगी हो जाती हैं। क्योंकि इंद्रियों को कोई मतलब नहीं है कि आप जरूर मैंने उन्हें कभी गाली दी होंगी, नहीं तो वे क्यों कष्ट करते? सिगरेट पीओ, कि शराब पीओ। कोई मतलब नहीं है। सिगरेट पीने अकारण तो कुछ भी घटित नहीं होता है। कभी मैंने गाली दी होंगी, जैसी दूसरी अच्छी चीजें भी इंद्रियां वैसे ही पकड़ लेती हैं। उत्तर बाकी रह गया था, अब वे उत्तर दे गए हैं। अब मैं उनको फिर ___ एक आदमी रोज भजन करता है, प्रार्थना करता है सुबह। एक गाली दं, फिर आगे का सिलसिला होता है। सौदा पट गया। दिन नहीं करता है, तो दिनभर तकलीफ मालूम पड़ती है। इससे यह लेन-देन हो गया। अब मैं खुश हूं। अब आगे उनसे कुछ लेना-देना मत समझ लेना आप कि यह तकलीफ कुछ इसलिए मालूम पड़ | न रहा। अब मैं आगे चलता हूं। रही है कि प्रार्थना में उनको बडा आनंद मिल रहा था। क्योंकि ___ कृष्ण कहते हैं, ऐसा व्यक्ति, जो हमले होते हैं, उन हमलों को जिसको प्रार्थना में आनंद मिल गया, उसके तो चौबीस घंटे आनंद अतीत कर्मों की श्रृंखला मानता है। और उनको साक्षीभाव से और से भर जाते हैं। जिसको एक बार भी प्रार्थना में आनंद मिल गया, | शांतभाव से झेल लेता है। और जो संघर्ष है, समाधिस्थ होने की उसकी तो बात ही और है। जो यात्रा है, उसमें वह परमात्मा को, प्रभु को, जीवन-तत्व को, 263 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ am गीता दर्शन भाग-1-m जीवन-ऊर्जा को सहयोगी बनाता है। वह इतना नहीं कहता कि मैं | महीने सब चलाना था। नहीं माने। तो भोजन तो किसी तरह चला ही लड़ लूंगा, मैं ही कर लूंगा। | थोड़ा-थोड़ा देकर, लेकिन सिगरेट सबसे पहले चुक गई। क्योंकि कभी इस तत्व को थोड़ा-सा समझ लें और प्रयोग करके देखें। | कोई सिगरेट कम करने को राजी न था। सिगरेट मैं पीता हूं, तो मैं सोचता हूं, मैं ही सिगरेट छोडूंगा। लेकिन | फिर एक बड़ा खतरा आया। और वह खतरा यह आया कि मेरा सिगरेट पीने वाला पचास साल पुराना है और मेरा सिगरेट लोगों ने नावों की रस्सियां काट-काटकर सिगरेट बनाकर पीना छोड़ने वाला मैं एक क्षण का है। तो मेरा सिगरेट छोड़ने वाला मैं | शुरू कर दिया। तब तो जो जहाज का कप्तान था, उसने कहा कि हार जाएगा। लेकिन मैं कहता हूं, सिगरेट पीने वाला पचास साल | तुम क्या कर रहे हो यह? अगर नावों की रस्सियां कट गईं, तो फिर पुराना है, इंद्रियों की आदत मजबूत है, हमला बार-बार होगा; | तीन महीने के बाद भी छुटकारा नहीं है। क्योंकि फिर ये नावें चलेंगी आज का एक क्षण का मैं तो बहुत कमजोर हूं-मैं परमात्मा पर | कैसे? पर लोगों ने कहा कि तीन महीना! तीन महीने के बाद छोड़ता हूं, तू ही मुझे सिगरेट पीना छुड़ा दे। छटकारा होगा कि नहीं होगा. यह कछ भी पक्का नहीं है। सिगरेट यह भी अहंकार नहीं लेता हूं कि मैं छोडूंगा। क्योंकि जो यह अभी चाहिए। और हम बिना सिगरेट के तीन महीने बचेंगे, यह अहंकार लेगा कि मैं छोडूंगा, तो वह अहंकार कहां जाएगा जिसने | कहां पक्का है ? और तीन महीने तड़पना और रस्सियां बंधी हैं पास पचास साल कहा है कि मैं पीता हूं। उस अहंकार के मुकाबले यह | में जिनको पीया जा सकता है। सिगरेट तो नहीं होतीं, लेकिन फिर छोड़ने वाला अहंकार छोटा पड़ेगा और हारेगा। इस छोड़ने वाले भी धुआं तो निकाला ही जा सकता है। तो नहीं, असंभव है। बहुत अहंकार को परमात्मा के चरणों में रखना जरूरी है। इसे कह देना | समझाया, तो रात चोरी से रस्सियां कटने लगीं। जरूरी है कि तू सम्हाल। सिगरेट मैंने पी, अब छोड़ना चाहता हूं। फिर जब वह नाव लौटी, तो उसके कप्तान ने जो वक्तव्य लेकिन अकेला बहुत कमजोर हूं। तू साथ देना। जब मैं सिगरेट | दिया, उसने कहा कि सबसे कठिन कठिनाई जो तीन महीने में पीऊं, तब तू साथ देना। आई, वह यह थी कि लोग सिगरेट की जगह रस्सियां पी गए, और जब सिगरेट पीने का वापस जोर आए, तब यह मत सोचना | कपड़े जलाकर पी गए, किताबें जलाकर पी गए। जो भी मिला, कि अब क्या करूं और क्या न करूं! तब बजाय सिगरेट के उसको पीते चले गए। पक्ष-विपक्ष में सोचने के परमात्मा के समर्पण की तरफ ध्यान देना। एक आदमी अखबार में पढ़ रहा था। एक स्टुअर्ट पैरी नाम का ध्यान देना कि अब वह सिगरेट फिर पुकार रही है, अब तू सम्हाल! | आदमी अखबार में यह पढ़ रहा था। पढ़कर उसे खयाल आया और जैसे ही परमात्मा का स्मरण और समर्पण का स्मरण, जैसे ही | वह भी चेन स्मोकर था, जब पढ़ रहा था, तब सिगरेट पी ही रहा विराट के प्रति समर्पण का स्मरण, कि ऊर्जा इतनी हो जाती है, था-उसे खयाल आया कि मेरी भी यही हालत होती क्या? क्या अनंत की ऊर्जा हो जाती है, कि पचास साल क्या पचास जन्मों की | मैं भी रस्सी पी जाता? उसने कहा कि नहीं, मैं कैसे रस्सी पी सकता आदत भी कमजोर हो जाती है। टूट जाती है। था? आप भी कहेंगे कि मैं कैसे रस्सी पी सकता था? पर उसने एक छोटी-सी घटना, उससे आपको स्मरण आ जाए। कोई | कहा कि वहां भी तीस-चालीस लोग थे, कोई हिम्मत न जुटा पाया, उन्नीस सौ दस में एक वैज्ञानिकों का अन्वेषक-मंडल उत्तरी ध्रुव पर | सबने पी! क्या मैं भी पी जाता! यात्रा पर गया। उत्तरी ध्रुव में तीन महीने तक वे लोग फंस गए बर्फ | उसकी आधी जली हुई सिगरेट थी। उसने ऐश-ट्रे पर नीचे रख में और लौट न सके। भोजन चुक गया। बड़ी मुश्किल थी, बड़ी दी और उसने कहा कि परमात्मा, अब तू सम्हाल। अब यह सिगरेट कठिनाई थी। | आधी रखी है नीचे। और अब मैं इसे उसी दिन उठाऊंगा, जिस दिन लेकिन सबसे बड़ी कठिनाई तब हुई, जब सिगरेट चुक गई। मेरा तुझ पर भरोसा खो जाए। और जब मैं इसे उठाने लगे, तो मेरी लोग कम रोटी लेने को राजी थे, लेकिन कम सिगरेट लेने को राजी | | तो कोई ताकत नहीं है, क्योंकि मैं अपने को अच्छी तरह जानता हूं, नहीं थे। लोग कम पानी पीने को राजी थे, लेकिन कम सिगरेट लेने कि मैं तो एक सिगरेट से दूसरी सिगरेट जलाता हूं। मैं अपने को को राजी नहीं थे। लेकिन कोई उपाय न था। नावें फंसी थीं बर्फ में। भलीभांति जानता हूं, जैसा मैं आज तक रहा हूं, मैं भलीभांति और तीन महीने से पहले निकलने की संभावना न थी। और तीन जानता हूं कि यह सिगरेट नीचे नहीं रह सकती, मैं इसे उठा ही 264 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Om विषय-त्याग नहीं-रस-विसर्जन मार्ग है -m लूंगा। मैं अपनी कमजोरी से परिचित हूं। मेरे भीतर मुझे कोई सुरक्षा का उपाय नहीं है। मेरे भीतर मेरे परिचय में मेरे पास कोई संकल्प नहीं है जो मैं सिगरेट से बच सकू। लेकिन मेरे मन को पीड़ा भी बहुत है। और मैं यह भी नहीं सोच पा सकता कि इतना कमजोर, इतना दीन हूं कि सिगरेट भी नहीं छोड़ सकूँगा, तो फिर मैं और क्या छोड़ सकता हूं। मैं तेरे ऊपर छोड़ता हूं। अब तू ही खयाल रखना। जब तू ही साथ छोड़ देगा, तो ही सिगरेट उठाऊंगा। हां! उठाने के पहले एक दफे तेरी तरफ आंख उठा लूंगा! फिर तीस साल बीत गए। उस आदमी ने उन्नीस सौ चालीस में वक्तव्य दिया है कि तीस साल बीत गए-सिगरेट आधी वहीं रखी है। जब भी उठाने का स्टअर्ट पैरी का मन होता है. तभी ऊपर की तरफ देखता हूं कि क्या इरादे हैं? सिगरेट वहां रह जाती है, पैरी यहां रह जाते हैं। तीस साल हो गए, अभी उठाई नहीं। और अब तीस साल काफी वक्त है, स्टुअर्ट पैरी ने कहा, अब मैं कह सकता हूं कि जो भरोसा, जो ट्रस्ट मैंने परमात्मा पर किया था, वह पूरा हुआ है। "तो कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि स्थितप्रज्ञ छोड़ देता है। उस गहरी साधना में लगा व्यक्ति, संयम की उस यात्रा पर निकला व्यक्ति अपने पर ही भरोसा नहीं रख लेता, वह परम तत्व पर भी छोड़ देता है, समर्पण कर देता है। वह समर्पण ही असंयम के क्षणों में, कमजोरी के क्षणों में सहारा बनता है। वह हेल्पलेसनेस ही, वह निरुपाय दशा ही–यह जान लेना कि मैं कमजोर हूं-बड़ी शक्ति सिद्ध होती है। और यह मानते रहना कि मैं बड़ा शक्तिशाली हूं, बड़ी कमजोरी सिद्ध होती है। इंद्रियां गिरा देती हैं उस संयमी को, जो अहंकारी भी है। इंद्रियां नहीं गिरा पातीं उस संयमी को, जो अहंकारी नहीं है, विनम्र है। जो अपनी कमजोरियों को स्वीकार करता है। जो उनको दबाता नहीं, जो उनको झुठलाता नहीं, लेकिन जो परमात्मा के हाथों में उनको भी समर्पित कर देता है। ऐसा संयमी व्यक्ति धीरे-धीरे रसों से, इंद्रियों के दबाव से, अतीत के किए गए संस्कारों के प्रभाव से, आदतों से, यांत्रिकता से-सभी से मुक्त हो जाता है। और तभी स्थितप्रज्ञ की स्थिति में आगमन शुरू होता है। तभी वह स्वयं में थिर हो पाता है। आज इतना ही। शेष कल सुबह। 265 Page #296 --------------------------------------------------------------------------  Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 1-2 सत्रहवां प्रवचन मन के अधोगमन और ऊर्ध्वगमन की सीढ़ियां Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 AM ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते। | सुंदर बलिष्ठ पुरुष को; आंख में एक कौंध और व्यक्ति निकल संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।। ६२ ।। | जाता है। वह जो सुंदर स्त्री या सुंदर पुरुष या सुंदर कार या सुंदर विषयों को चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में | भवन दिखाई पड़ा है-तत्क्षण भीतर खोजने की जरूरत है-जैसे आसक्ति हो जाती है। और आसक्ति से उन विषयों की | ही वह दिखाई पड़ा है, क्या आपको सिर्फ दिखाई ही पड़ा है, सिर्फ कामना उत्पन्न होती है। और कामना में विघ्न पड़ने से | आपने देखा ही, या देखने के साथ ही मन के किसी कोने में चाह क्रोध उत्पन्न होता है। | ने भी जन्म लिया! सिर्फ देखा ही या चाहा भी! दिखाई पड़ी है एक क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविनमः ।। | सुंदर स्त्री, देखी ही या भीतर कोई और भी कंपन उठा–चाह का स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।। ६३ ।। | भी. मांग का भी. पा लेने का भी. पजेस करने का भी। क्रोध से मोह उत्पन्न होता है। और मोह से स्मरणशक्ति अगर सिर्फ देखा, तो बात आई और गई हो गई। सिर्फ भ्रमित हो जाती है। और स्मरणशक्ति के प्रमित हो जाने से | बहिर-इंद्रियों ने भाग लिया। आंख ने देखा, मन ने खबर की, कोई बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है। और बुद्धि के | जाता है। लेकिन चाहा भी, तो जो देखा, वहीं बात समाप्त नहीं हो. नाश होने से यह पुरुष अपने श्रेय साधन से गिर जाता है। | गई। मन में वर्तुल शुरू हो गए, मन में लहरें शुरू हो गईं। देखने तक बात समाप्त नहीं हुई; भीतर चाह ने भी जन्म लिया, मांग भी उठी। आप कहेंगे, नहीं, मांगा नहीं, चाहा नहीं; देखा, सिर्फ इतना हुआ या नुष्य के मन की भी अपनी शृंखलाएं हैं। मनुष्य के मन | मन में कि सुंदर है। इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है। 01 के भी ऊर्ध्वगमन और अधोगमन के नियम हैं। मनुष्य __ इतना भी मन में उठा कि सुंदर है, तो चाह ने अपने अंकुर फैलाने ___ के मन का अपना विज्ञान है। यहां मनुष्य के मन का । | शुरू कर दिए। क्योंकि सुंदर का कोई और मतलब नहीं होता। सुंदर अधोगमन कैसे होता है, कैसे वह पतन के मार्ग पर एक-एक सीढ़ी । | का इतना ही मतलब होता है, जिसे चाहा जा सकता है। सुंदर का उतरता है, कृष्ण उन सीढ़ियों का पूरा ब्योरा दे रहे हैं। और कोई मतलब नहीं होता। असुंदर का इतना ही मतलब होता है, सूक्ष्मतम होता है प्रारंभ, स्थूलतम हो जाता है अंत। मन के बहुत | | जिसे नहीं चाहा जा सकता। गहरे में उठती है लहर, फैलती है, और पूरे मन को ही नहीं, पूरे सुंदर है, इस वक्तव्य में चाह कहीं दिखाई नहीं पड़ती, यह आचरण को, पूरे व्यक्तित्व को ग्रसित कर लेती है। सूक्ष्म उठी इस वक्तव्य बड़ा निर्दोष मालूम पड़ता है। यह वक्तव्य सिर्फ स्टेटमेंट लहर को इसके स्थूल तक पहुंचने की जो पूरी प्रक्रिया है, जो उसे आफ फैक्ट मालूम पड़ता है। नहीं, लेकिन यह सिर्फ तथ्य का पहचान लेता है. वह उससे बच भी सकता है, वह उसके पार भी वक्तव्य नहीं है। इसमें आप संयक्त हो गए। क्योंकि चीजें अपने जा सकता है। आप में न सुंदर हैं, न असुंदर हैं; चीजें सिर्फ हैं। आपने व्याख्या कहां से मन का पतन शुरू होता है? कहां से मन संसार-उन्मुख डाल दी। होता है? कहां से मन स्वयं को खोना शुरू करता है? . एक स्त्री निकली है राह से; वह सिर्फ है। सुंदर और असुंदर तो कृष्ण ने कहा है कि विषय के चिंतन से, वासना के विचार से। | देखने वाले की व्याख्या है। सुंदर-असुंदर उसमें कुछ भी नहीं है। जो पहला वर्तुल, जहां से पकड़ा जा सकता है, वह है विचार का | व्याख्याएं बदलती हैं, तो सौंदर्य बदल जाते हैं। चीन में चपटी नाक वर्तुल-सूक्ष्मतम, जहां से हम पकड़ सकते हैं। विषय की इच्छा, | सुंदर हो सकती है, भारत में नहीं हो सकती। चीन में उठे हुए गाल विषय का विचार, भोग की कामना उठती है मन में। विषय का संग | की हड्डियां सुंदर हैं, भारत में नहीं हैं। अफ्रीका में चौड़े ओंठ सुंदर हैं करने की आकांक्षा जगती है मन में। वह पहली लहर है, जहां से सब | और स्त्रियां पत्थर लटकाकर अपने ओंठों को चौड़ा करती हैं। सारी शुरू होता है। काम की जो बीज-स्थिति है, वह विषय का विचार | दुनिया में कहीं चौड़े ओंठ सुंदर नहीं हैं, पतले ओंठ सुंदर हैं। वे है। संग की कामना पैदा होती है, भोग की कामना पैदा होती है। | हमारी व्याख्याएं हैं, वे हमारी सांस्कृतिक व्याख्याएं हैं। एक समाज राह पर देखते हैं भागती एक कार को। चमकती हुई, आंखों में | | ने क्या व्याख्या पकड़ी है, इस पर निर्भर करता है। फिर फैशन बदल कौंधकर निकल जाती है। देखते हैं एक सुंदर स्त्री को; देखते हैं एक | | जाते हैं, सौंदर्य बदल जाता है। तथ्य वही के वही रहते हैं। 268| Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन के अधोगमन और ऊर्ध्वगमन की सीढ़ियां अफ्रीका में जो स्त्री पागल कर सकती है पुरुषों को, वही भारत में सिर्फ पागलों को आकर्षित कर सकती है। क्या हो गया ! स्त्री वही है, तथ्य वही है, लेकिन व्याख्या करने वाले दूसरे हैं। जब हम कहते हैं, सुंदर है, तभी हम सम्मिलित हो गए, तभी तथ्य नहीं रहा। बुद्ध एक वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे हैं। रात है पूर्णिमा की। गांव से कुछ मनचले युवक एक वेश्या को लेकर पूर्णिमा की रात मनाने आ गए हैं। उन्होंने वेश्या को नग्न कर लिया है, उसके वस्त्र छीन लिए हैं। वे सब शराब में मदहोश हो गए हैं, वे सब नाच-कूद रहे हैं। उनको बेहोश हुआ देखकर वेश्या भाग निकली। थोड़ा होश आया, तो देखा, जिसके लिए नाचते थे, वह बीच में नहीं हैं। खोजने निकले। जंगल है, किससे पूछें? आधी रात है । फिर उस वृक्ष के पास आए, जहां बुद्ध बैठे हैं। तो उन्होंने कहा, यह भिक्षु यहां बैठा है, यही तो रास्ता है एक जाने का। अभी तक कोई दोराहा भी नहीं आया। वह स्त्री जरूर यहीं से गुजरी होगी । तो उन्होंने बुद्ध को कहा कि सुनो भिक्षु, यहां से कोई एक नग्न सुंदर युवती भागती हुई निकली है ? देखी है? बुद्ध ने कहा, कोई निकला जरूर, लेकिन युवती थी या युवक, कहना मुश्किल है। क्योंकि व्याख्या करने की मेरी कोई इच्छा नहीं। कोई निकला है जरूर, सुंदर था या असुंदर, कहना मुश्किल है। क्योंकि जब अपनी चाह न रही, तो किसे सुंदर कहें, किसे असुंदर कहें ! सौंदर्य चुनाव है, सौंदर्य निर्णय है। असल में जैसे ही सुंदर कहा, मन के किसी कोने पर बनना शुरू हो गया भाव - कि मिले। सौंदर्य पसंदगी की शुरुआत है। वह वक्तव्य सिर्फ तथ्य का नहीं, वह वक्तव्य वासना का है। वासना छा गई है तथ्य पर; वह कहती है, सुंदर है। हम साधारणतया कहेंगे कि नहीं, सुंदर कहने से कोई मतलब नहीं होता। सुंदर है । जब पहला मन का विषयों में गमन शुरू होता है, तो अति सूक्ष्म है। वह ऐसे ही शुरू होता है: सुंदर है, असुंदर है; प्रीतिकर है, अप्रीतिकर है; अच्छा लगता है, बुरा लगता है। चाह जब पैदा होती है पहले, तो पसंद और नापसंद के रूप में झलकती है, फिर बढ़ती है। अभी बीज है, अभी पहचानना बहुत मुश्किल है। अभी कोई कृष्ण, कोई बुद्ध पहचान सकेगा । हम तो तब पहचानेंगे, जब वृक्ष हो जाएगा। लेकिन बीज से मुक्त हुआ जा सकता है, वृक्ष से मुक्त होना अति कठिन है। जितनी बढ़ जाएगी वासना भीतर गहरी और प्रगाढ़ और जड़ों को फैला देगी, उतना ही उससे छूटना कठिन होता जाएगा। जब अभी वासना सिर्फ बीज है, जब उसमें कोई जड़ें नहीं हैं अभी अभी जब उसने चित्त की भूमि में कहीं जड़ों को फैलाकर भूमि को पकड़कर कस नहीं लिया है, तब तक बहुत आसान है। बीज फेंके जा सकते हैं, वृक्षों को काटना और उखाड़ना पड़ता है। और मजा यह है कि वृक्ष काटने से भी कटते हों, ऐसा नहीं है। | अक्सर तो काटने से सिर्फ कलम होती है। एक शाखा कटती है और चार शाखाएं निकल आती हैं। जड़ों तक काट डालने से भी | जड़ें नए अंकुर और नई कोंपलें छोड़ जाती हैं और एक वृक्ष के अनेक वृक्ष भी हो जाते हैं। और जड़ों को उखाड़ना बहुत कठिन है, क्योंकि जड़ें मनुष्य के मन के अचेतन गर्भों में फैल जाती हैं। उन तक पहुंचना भी मुश्किल हो जाता है। इसलिए कृष्ण का यह सूत्र साधक के लिए बहुत समझ लेने जैसा है। इस पर पूरा ही, मन के रूपांतरण की पूरी काजेलिटी, पूरा कारण, उसका राज छिपा है। तथ्य तभी तक तथ्य है, जब तक आपने व्याख्या नहीं की है। बुद्ध ने कहा, निकला कोई जरूर। यह व्याख्या नहीं है, निकला है। | कोई। युवक था कि युवती, कहना कठिन है। क्योंकि – बुद्ध ने | कहा- जब तक मेरे भीतर पुरुष बहुत लालायित था, तब तक बाहर खोज चलती थी, कौन स्त्री, कौन पुरुष ! 269 स्त्री और पुरुष भी, तथ्य होते हुए भी, हमारी व्याख्या के कारण ही वह तथ्य दिखाई पड़ता है। अब यह बड़े मजे की बात है। हम जिंदगी में सब भूल जाते हैं । एक आदमी मुझे आज मिले। मैं भूल जाता हूं कि उसका नाम क्या है दस साल बाद; भूल जाता हूं, जाति क्या है, धर्म क्या है, चेहरा कैसा था, आंखें कैसी थीं, कितना पढ़ा-लिखा था - सब भूल जाता हूं। एक बात नहीं भूल पाता कि स्त्री था कि पुरुष था। यह बड़े मजे की बात है। कभी आप भूले हैं किसी के बाबत कि मुझे पक्का याद नहीं आता कि वह जो मिला था, स्त्री थी या पुरुष था? सब भूल जाते हैं— नाम, शकल, चेहरा, जाति, धर्म – कई बार यह भी शक होता है कि वह मिला था कि नहीं मिला था, यह भी भूल सकते हैं। लेकिन वह स्त्री थी या पुरुष, यह नहीं भूल सकते हैं। जरूर और सब पहचान यह स्त्री और पुरुष की पहचान आपके किसी गहरे मन ने की है, जहां से भूल नहीं होती । अगर एक हवाई जहाज आपके गांव में गिर पड़े, समझें कोई अंतरिक्ष यान गिर पड़े, कोई दूसरे ग्रह के यात्री का जहाज आपके Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3m गीता दर्शन भाग-1 - गांव में गिर पड़े, उसमें से पायलट को आप बाहर निकालें, तो जो आपको ही पता चलता है। बहुत मौकों पर तो आपको भी पता नहीं पहली जिज्ञासा उठेगी, वह यह कि वह स्त्री है या पुरुष! पहली चलता। बहुत मौकों पर तो यह इतना अचेतन होता है कि आपको जिज्ञासा कि वह स्त्री है या पुरुष! फिर दूसरी जिज्ञासाएं उठेगी। | भी पता नहीं चलता। दूसरों को तो पता चलता ही नहीं, खुद आप निश्चित ही, स्त्री और पुरुष होना एक बायोलाजिकल फैक्ट है, | भी चूक जाते हैं। यह भीतर चलता रहता है और आप कहीं और एक जैविक तथ्य है। स्त्री और पुरुष के शरीर में फर्क है। लेकिन चलते रहते हैं। लेकिन कैसे यह शुरू हो रहा है? यह फर्क इतना प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़े, इसकी अनिवार्यता उसमें तथ्य हैं जगत में, फिक्शंस वहां नहीं हैं, फैक्ट्स हैं। कल्पनाएं नहीं है। इसकी अनिवार्यता हमारे मन की चाह में है। | मनुष्य डालता है। सुंदर है–यात्रा शुरू हुई। सुंदर है, तो चाह है। रास्ते से आप निकलते हैं, वृक्ष लगे हैं। आपने शायद ही कभी चाह है, तो भोग है। अब चिंतन शुरू हुआ। अब वासना चिंतन देखा हो कि सभी वृक्ष एक जैसे हरे नहीं हैं। हरेपन में भी हजार तरह बनेगी। चिंतन को कहें, काल्पनिक संग पैदा हुआ। जब काल्पनिक के हरेपन हैं। हरा कोई एक रंग नहीं है, हरा भी हजार रंग है। लेकिन | संग पैदा होगा, तो क्रिया भी आएगी, काम भी आएगा। और कृष्ण आपको नहीं दिखाई पड़ेंगे। एक चित्रकार निकले, तो उसे दिखाई | कहते हैं, काम आएगा, तो क्रोध भी आएगा। क्यों? काम आएगा, पड़ेगा, हजार रंग के हरे रंग हैं। दो हरे रंग एक-से हरे रंग नहीं हैं। तो क्रोध क्यों आ जाएगा? ये सामने दस वृक्ष हैं, दस तरह के हरे हैं। आपको नहीं दिखाई ___ असल में जो कामी नहीं है, वह क्रोधी नहीं हो सकता। क्रोध पड़ेगा। इन वृक्षों के नीचे से आप रोज निकलते हैं। इनका दस तरह काम का ही एक और ऊपर गया चरण है। क्रोध क्यों आता है? का हरा होना प्राकृतिक तथ्य है। लेकिन आपके भीतर चित्रकार | क्रोध का क्या गहरा रूप है? क्रोध आता ही तब है, जब काम में चाहिए, तब वह दिखाई पड़ेगा। उसकी खोज भी आपके भीतर कोई बाधा पड़ती है, अन्यथा क्रोध नहीं आता। जब भी आपकी चाह में चीज खोजती हो, तो ही दिखाई पड़ेगी, अन्यथा दिखाई नहीं पड़ेगी। | कोई बाधा डालता है-जो आप चाहते हैं, उसमें बाधा डालता चित्रकार को दिखाई पड़ेगा कि रंग ही रंग हैं, हरे रंग भी कई रंग हैं। है-तभी क्रोध आता है। जो आप चाहते हैं, अगर वह होता चला स्त्री और पुरुष जैविक तथ्य है। लेकिन आपको इतना प्रगाढ़ जाए, तो क्रोध कभी नहीं आएगा। होकर दिखाई पड़ता है, यह जैविक तथ्य नहीं है, यह मानसिक तथ्य समझें आप कल्पवृक्ष के नीचे बैठे हैं, तो कल्पवृक्ष के नीचे क्रोध है, यह साइकोलाजिकल तथ्य है। इसमें कुछ न कुछ आपने जोड़ना | नहीं आ सकता, अगर कल्पवृक्ष नकली न हो। कल्पवृक्ष असली शुरू कर दिया। इसमें आपने कुछ डालना शुरू कर दिया। है, तो क्रोध नहीं आ सकता। क्योंकि क्रोध का उपाय नहीं है। आपने थोड़ा-सा आप भी इसमें प्रवेश कर गए; फिर चिंतन शुरू होगा। | चाहा कि यह सुंदर स्त्री मिले; मिल गई। आपने चाहा, यह मकान यह तो हैपनिंग हुई, रास्ते पर स्त्री दिखी, पुरुष दिखा। फिर | मिले; मिल गया। आपने चाहा, यह धन मिले; मिल गया। आपने आपने कहा, सुंदर है, फिर आपकी यात्रा शुरू हुई चित्त की; अब | चाहा, सिंहासन मिले; मिल गया। आपने चाहा नहीं कि मिला नहीं, चिंतन होगा। सुंदर है, तो पीछे से चाह, पीछे से चाह चली आएगी। तो क्रोध के लिए जगह कहां है! चाह आएगी, तो भोग-कामना में ही, मन में ही, स्वप्न में ही | | क्रोध आता है, चाहा और नहीं मिले के बीच में जो गैप है, उस प्रतिमाएं निर्मित होनी शुरू हो जाएंगी। | गैप का नाम, उस अंतराल का नाम क्रोध है। चाहा और नहीं मिला, अगर किसी दिन हम आदमी की खोपड़ी में विंडो बना | अटक गई चाह, रुक गई चाह, हिन्डर्ड डिजायर, चाह के बीच में सके–बना सकेंगे, अब तो सर्जन्स कहते हैं, बहुत कठिनाई नहीं | अड़ गया पत्थर, चाह के बीच में पड़ गई बाधा, क्रोध के वर्तुल को है; मनोवैज्ञानिक भी कहते हैं, बहुत कठिनाई नहीं है-अगर हम | पैदा कर जाती है। आदमी की खोपड़ी में एक कांच की खिड़की बना सके, जो कि हम | नदी भाग रही है सागर की तरफ, आ गया एक पत्थर बीच में, बना ही लेंगे, तब आपको मुसीबत पता चलेगी। अगर बाहर से भी | तो सब खड़बड़ हो जाता है। आवाज हो जाती है। पत्थर न हो तो आपकी खोपड़ी में झांका जा सके कि भीतर क्या-क्या हो रहा है! | नदी में आवाज नहीं होती। नदी आवाज नहीं करती, पत्थर के साथ एक स्त्री जा रही है, तत्काल आपके मन के भीतर बहुत कुछ टकराकर आवाज हो जाती है। होना शुरू हो गया है। यह होना किसी को पता नहीं चलता, | अगर काम की नदी बहती रहे और कोई बाधा न हो. तो क्रोध Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न के अधोगमन और ऊर्ध्वगमन की सीढ़ियां - कभी पैदा न होगा। लेकिन काम की नदी बहती है और बाधाओं के है, तो भी आप दो हैं और दो होना भी काफी बड़ी बाधा है। और पत्थर चारों ओर खड़े हैं। वे खड़े ही हैं। कोई आपके काम को क्रोध रोज-रोज जन्मेगा; जरा-जरा सी बात में जन्मेगा। रोकने के लिए नहीं खडे हैं वे. वे खडे ही थे। आपके काम ने वहां - आप सबह पांच बजे उठना चाहते हैं और आपकी स्त्री सबह छ: से बहना शुरू किया। बजे उठना चाहती है। बस, इतना भी काफी है। कोई पुलिस, ___ अब एक स्त्री सुंदर मुझे दिखाई पड़ी; मैंने उसे चाहना शुरू | अदालत, कानून और राज्य की जरूरत नहीं है क्रोध के लिए. इतनी किया। अब हजार पत्थर हैं। उस स्त्री का पति भी है, वह भी पत्थर ही बाधा काफी है। छोटी-छोटी अड़चनें चाह में खड़ी होती हैं और है। उस स्त्री का पिता भी है, वह भी पत्थर है। उस स्त्री का भाई भी | बाधा खड़ी हो जाती है। वह दूसरा व्यक्ति भी व्यक्ति है, मशीन है, वह भी पत्थर है। कानून भी है, अदालत भी है, पुलिस भी नहीं है। उसकी भी अपनी चिंतना है, अपना सोचना है, अपना ढंग है-वे भी पत्थर हैं। और ये कोई भी न हों, तो कम से कम वह है। और दो चिंतन एकदम पैरेलल नहीं हो पाते; हो नहीं सकते। स्त्री भी तो है। मैंने चाहा इसलिए वह चाहे. यह तो जरूरी नहीं है। सिर्फ दो मशीनें समानांतर हो सकती हैं, दो व्यक्ति कभी समानांतर मेरी चाह कोई उसके लिए नियम और कानून तो नहीं है। वह स्त्री नहीं हो सकते। तो है ही; इस जगत में हम सारे पत्थर हटा दें, तो भी वह स्त्री तो है | - असल में दो व्यक्तियों का साथ रहना उपद्रव है। न रहना भी ही। और फिर अगर वह स्त्री भी राजी हो, तो भी पत्थर नहीं रहेंगे, | | उपद्रव है, क्योंकि चाह है। साथ न रहें, तो पूरी नहीं हो सकती। ऐसा नहीं है। साथ रहें, तो भी पूरी नहीं हो पाती है। यहां थोड़े और गहरे उतरना पड़ेगा। ___ तो वे जितनी अड़चनें हैं, वे सब काम में अड़चनें, पत्थर बन अगर ऐसा भी हम कर लें जैसा कि समाजशास्त्री सोचते हैं, जाती हैं और क्रोध को जन्माती हैं। कामी क्रोधी हो जाता है। जैसा कि समाजवादी सोचते हैं कि सारे पत्थर अलग कर दें; जैसा अगर कृष्ण ने कहा है कि स्थितप्रज्ञ को क्रोध नहीं होता, तो कि हिप्पी और बीटनिक और प्रवोस सोचते हैं कि सारे पत्थर अलग उसका कारण यही है कि स्थितप्रज्ञ को काम नहीं होता; वह निष्काम कर दो-कानून अलग करो, पुलिस अलग करो-जहां-जहां | है। ये नेसेसरी स्टेप्स हैं, ये अनिवार्य सीढ़ियां हैं, जो एक के पीछे पत्थर है, वह अलग कर दो, क्योंकि व्यर्थ ही उनसे क्रोध पैदा होता चली आती हैं। और एक को लाएं, तो दूसरे को लाना पड़ता है। है और मनुष्य दुखी होता है। सब पत्थर अलग कर दो। तो भी एक | वह दूसरा उससे इतना बंधा है कि वह एक को लाते वक्त ही उसके स्त्री को पचीस पुरुष नहीं चाह लेंगे, एक पुरुष को पचीस स्त्रियां | साथ छाया की तरह भीतर प्रवेश कर जाता है। आपको मैंने निमंत्रण नहीं चाह लेंगी, इसका क्या उपाय है? दिया, आपकी छाया भी मेरे घर में आ जाती है। आपकी छाया को ___ असल में कानून और व्यवस्था इसीलिए बनानी पड़ी कि | मैंने कभी निमंत्रण नहीं दिया था, पर वह आपके साथ ही है, वह अव्यवस्था इससे भी बदतर हो जाएगी। यह बदतर है काफी, लेकिन भीतर चली आती है। अव्यवस्था इससे भी बदतर हो जाएगी। यह चुनाव रिलेटिव है। यह ___ काम के पीछे आता है क्रोध। अगर चित्त में क्रोध हो, तो जरा बदतर है काफी कि हर जगह चाह के बीच में उपद्रव खड़ा है, लेकिन | | भीतर खोजने से पता चलेगा, कहीं काम है। अटका हुआ काम अगर सारे उपद्रव हटा लो, तो महाउपद्रव खड़ा हो जाएगा। अभी | क्रोध है। रुका हुआ काम क्रोध है। बाधा डाला गया काम क्रोध है। एक ही पति है उसका खड़ा। पति की व्यवस्था को हटा दो, तो हजार | क्रोध का सांप फुफकारता तभी है, तभी वह फन फैलाता है, जब पति नहीं खड़े हो जाएंगे, इसका क्या उपाय है रोकने का ? अभी एक मार्ग में कोई अडचन आ जाती है और द्वार नहीं मिलता है। जब ही पत्नी उस पति के ऊपर पहरा दे रही है। हटा दो उसे, तो हजार कोई रोकता है, कोई अटकाता है...। पत्नियां नहीं पहरा देंगी, इसकी क्या गारंटी है? फिर हम अकेले नहीं हैं इस जगत में। विराट यह जगत है। सभी फिर हम कल्पना भी कर लें कि सब हटा दिया जाए और ऐसा की कामनाएं एक-दूसरे की कामनाओं को क्रिस-क्रास कर जाती भी कुछ हो जाए कि बाहर से कोई बाधा नहीं आती, तो भीतरी हैं; तो सब जगह अटकाव हो जाता है। मैं कुछ चाहता हूं, लेकिन बाधाएं हैं, जो और भी बड़ी बाधाएं हैं। क्योंकि जिस स्त्री को आप साढ़े तीन अरब लोग और हैं पृथ्वी पर, वे कुछ चाहते हैं। फिर चाहते हैं, जो स्त्री आपको चाहती है, बीच में और कोई बाधा नहीं| अदृश्य परमात्मा है, फिर अदृश्य जीव-जंतु हैं, फिर अदृश्य 271] Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1 AM देवी-देवता हैं, फिर अदृश्य वृक्ष, पशु-पक्षी सब हैं, उन सब की | एक बूढ़े वजीर ने नई सजा खोज ली। आप भी न सोच सकेंगे कि चाहें हैं। अगर हम अपने ऊपर देख सकें, तो हमें पता चले कि पूरा | नई सजा क्या हो सकती थी। आकाश, पूरा व्योम अनंत चाहों से क्रिस-क्रास है। अनंत चाहें नई सजा यह थी कि दोनों को नग्न करके, एक-दूसरे के चेहरों एक-दूसरे को काट रही हैं। एक-एक चाह पर करोड़-करोड़ चाहों | | को आमने-सामने करके, दोनों को एक खंभे से बांध दिया गया। का कटाव है। वह कटाव क्रोध पैदा करता है; करेगा ही। जहां भी | | कभी सोचा भी नहीं होगा किसी ने! एक दिन, दो दिन, एक-दूसरे वासना कटी कि पीड़ा हुई। जैसे किसी ने रग काट दी हो और खून के शरीर से बास आने लगी, मल-मूत्र छूटने लगा। तीन दिन, बहने लगे। वासना की रग कटती है, तो क्रोध का खून बहता है। | एक-दूसरे के चेहरे को देखने की भी इच्छा न रही। चार दिन, कृष्ण कहते हैं, काम से क्रोध पैदा होता है। एक-दूसरे पर भारी घृणा पैदा होने लगी। पांच दिन, नींद नहीं, क्रोध, क्रोध बहुत ही...। मनुष्य के अस्तित्व में, जैसा मनुष्य | | मल-मूत्र, गंदगी; और बंधे हैं दोनों एक साथ—यही चाहते थे! है, बड़ी गहरी आधारशिलाएं उसकी रखी हैं। है क्या क्रोध, अपने पंद्रह दिन, दोनों पागल हो गए कि एक-दूसरे की गर्दन काट दें। में? शक्ति, एनर्जी! तृप्ति के लिए काम के मार्ग से जाती थी, और नादिर रोज आकर देखता कि कहो प्रेमियो, इच्छा पूरी कर लेकिन मार्ग अवरुद्ध पाकर शक्ति उद्विग्न हो गई है। चाहा था कुछ, दी न! मिला दिया न दोनों को! और ऐसा मिलाया है कि छूट भी उस चाह की पगडंडी से प्राणों की ऊर्जा बहनी थी; आ गया है नहीं सकते। जंजीरें बंधी हैं। पंद्रह दिन बाद जब उन दोनों को छोड़ा, पत्थर, अटक गया सब। शक्ति अपने पर लौट पड़ी है। सब भीतर तो कथा है कि उन्होंने लौटकर एक-दूसरे को जिंदगी में न दुबारा क्रुद्ध हो गया है। लौटा हुआ काम, काम के मार्ग से जाती हुई ऊर्जा | | देखा और न बोले। जो भागे एक-दूसरे से, तो फिर लौटकर कभी अवरुद्ध होकर विद्रोह से भर गई है, विक्षिप्त हो गई है, इनसेन हो | नहीं देखा! गई है। इसलिए क्रोध है। क्या हुआ? मोह पैदा होने का उपाय न रहा। अमोह पैदा हो जैसे-जैसे क्रोध बढ़ता है, वैसे-वैसे मोह बढ़ता है। क्यों? जिसे गया। करीब-करीब जिसको हम विवाह कहते हैं, वह भी हम चाहते हैं और नहीं पा पाते, उसके प्रति मोह और गहरा हो जाता | | नादिरशाह का बहुत छोटे पैमाने पर प्रयोग है-बड़े छोटे पैमाने है। मिल जाए, तो मोह कम हो जाता है। न मिले. तो मोह बढ़ जाता | पर। किसी बहुत होशियार आदमी ने कोई गहरी ईजाद की है। मैरिज है। जो नहीं मिलता, उसी के प्रति मोह होता है; जो मिलता है, | मोह को नहीं जमने देती, मोह को मार डालती है। असल में मोह, उसके प्रति मोह नहीं रह जाता। क्रोध मोह को जन्म दे जाता है। मोह | जो नहीं मिलता, उसके लिए पैदा होता है। का मतलब क्या है? इसलिए कृष्ण की इनसाइट, उनकी अंतर्दृष्टि गहरी है। वे कहते __मैंने सुना है कि नादिरशाह ने एक दफे एक बहुत गहरा मजाक | | हैं, क्रोध से मोह पैदा होता है अर्जुन! क्योंकि क्रोध का मतलब ही किया। गहरा कहना चाहिए। और कभी-कभी पाप में गहरे गए | यह है कि जिसे चाहा था, वह नहीं मिल सका, इसलिए क्रोध लोगों की बुद्धि भी पुण्य में गहरे गए लोगों की बुद्धि जैसी ही गहरी | आया। नहीं मिल सका, इसलिए मिलने की और आकांक्षा हो जाती है—उलटी होती है, लेकिन गहरी हो जाती है। आएगी। नहीं मिल सका, इसलिए पाने का और पागलपन आएगा। नादिरशाह किसी स्त्री के प्रति लोलुप है, लेकिन वह स्त्री उसके नहीं मिल सका, इसलिए मन और-और विक्षिप्त हो जाएगा और प्रति बिलकुल ही अनासक्त है, पर नादिरशाह के एक सैनिक के मांग करेगा। प्रति पागल है। स्वभावतः, नादिर के लिए बर्दाश्त करना मुश्किल ___जापान में वेश्याओं का एक वर्ग है-गेसा गर्ल्स। उनकी जो हो गया। पकड़वा भिजवाया दोनों को। पूछा अपने वजीरों से कि ट्रेनिंग है, उस ट्रेनिंग का एक हिस्सा है-दुनिया में सभी वेश्याओं कोई नई सजा खोजो, जो कभी न दी गई हो। | की ट्रेनिंग का हिस्सा है। वेश्याएं पत्नियों से ज्यादा होशियार हैं। ऐसी कोई सजा है, जो कभी न दी गई हो! सब सजाएं चुक गई। गेसा गर्ल्स को सिखाया जाता है कि कभी इतनी मत मिल जाना हैं। वजीर बड़ी मुश्किल में पड़े। नई-नई सजाएं खोजकर लाते, किसी को कि अमोह पैदा हो जाए। बस, मिलना और न मिलना, लेकिन नादिर कहता कि यह हो चुका; यह कई बार दी जा चुकी इनके बीच सदा खेल को चलाते रहना। पास बुलाना किसी को और है। हम ही दे चुके हैं। दूसरे दे चुके हैं। नई चाहिए! और सच में ही दूर हो जाना। कोई निकट आ पाए कि सरक जाना। बुलाना भर, Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SIY मन के अधोगमन और ऊर्ध्वगमन की सीढ़ियां मिल ही मत जाना, क्योंकि मिल ही गए कि मोह नष्ट हो जाता है। कि अब कल्पना करने को भी कुछ नहीं बचा है। स्त्री पूरी दिखाई वेश्याएं भी जानती हैं कृष्ण के राज को; उनको भी पता है। | पड़ जाती है और चित्त में कोई बिजली नहीं कौंधती। अब यह बड़े मजे की बात है। खयाल में आती है, आपसे कहता नग्न स्त्री उतनी आकर्षक नहीं है, नग्न पुरुष उतना आकर्षक नहीं हूं। स्त्रियां थीं पृथ्वी की बूंघट में दबी, अंधेरे में छिपी। पति भी नहीं | है। और स्त्रियां पुरुषों से ज्यादा होशियार हैं, इसलिए कोई स्त्री नग्न देख पाता था सूरज की रोशनी में। कभी खुले में बात भी नहीं कर | | पुरुष में कभी उत्सुकता नहीं लेती। गहरे से गहरे प्रेम के क्षण में पाता था। अपनी पत्नी से भी बात चोरी से ही होती थी, रात के अंधेरे | स्त्रियां आंख बंद कर लेती हैं कि पुरुष दिखाई ही न पड़े। स्त्रियां में, वह भी खुसुर-फुसुर। क्योंकि सारा बड़ा परिवार होता था, कोई | ज्यादा होशियार हैं, शायद इसटिंक्टिवली वे प्रकृति के ज्यादा करीब सुन न ले! आकर्षण गहरा था, मोह जिंदगीभर चलता था। हैं और राजों से परिचित हैं। स्त्री उघड़ी, परदा गया—अच्छा हुआ, स्त्री के लिए बहुत कृष्ण कहते हैं, क्रोध से मोह पैदा होता है। क्योंकि क्रोध से बाधा अच्छा हुआ-सूरज की रोशनी आई। लेकिन साथ ही मोह क्षीण | पैदा होती है। जहां भी बाधा है, वहां आकर्षण खड़ा हो जाता है। हुआ। स्त्री और पुरुष आज कम मोहग्रस्त हैं। आज स्त्री उतनी । अब यह बड़े मजे की बात है कि जिन लोगों ने बाधाएं खड़ी की आकर्षक नहीं है, जितनी सदा थी। और यूरोप और अमेरिका में | हैं, वे ही आकर्षण के लिए जिम्मेदार हैं। ईसाइयत ने पाप को इतना और भी अनाकर्षक हो गई है। क्योंकि चेहरा ही नहीं उघड़ा, पूरा | आकर्षक बना दिया, क्योंकि पाप के लिए इतनी बाधाएं खड़ी की। शरीर भी उघड़ा। आज यूरोप और अमेरिका के समुद्र-तट पर स्त्री | | धर्मों ने सेक्स को बहुत आकर्षक बना दिया, क्योंकि उसके लिए करीब-करीब नग्न है, पास से चलने वाला रुककर भी तो नहीं | बहुत बाधाएं खड़ी की। देखता; पास से गुजरने वाला ठहरकर भी तो नहीं देखता कि नग्न ___ आमतौर से लोग समझते हैं कि फिल्में हैं, नग्न-चित्र हैं, स्त्री है। नग्न-अश्लील तस्वीरें हैं—ये लोगों को कामुक बना रही हैं। कृष्ण कभी आपने देखा, बुरके में ढकी औरत जाती हो, तो पूरी सड़क यह नहीं कह सकते कि कामुक बना रही हैं। कृष्ण कहेंगे कि यह उत्सुक हो जाती है। ढके का आकर्षण है, क्योंकि ढके में बाधा है। लोगों का तो सारा मोह खराब कर देंगी। क्योंकि लोगों के लिए जहां बाधा है, वहां मोह है। जहां बाधा नहीं है, वहां मोह नहीं है। | अनाकर्षक हो जाएगी, जो चीज परिचित हो जाती है। जिसमें बाधा स्त्री और पुरुष का आकर्षण जितना सेक्सुअल है, जितना नहीं है, वह अनाकर्षक हो जाती है। कामुक है, उससे ज्यादा सोशल है, कल्चरल है। जितना ज्यादा ___ अगर कृष्ण से हम पूछे मनोविज्ञान का सत्य, तो वह यह है कि काम से पैदा हुआ है, उतना काम में डाली गई सामाजिक बाधाओं अगर दुनिया में स्त्री-पुरुष के आकर्षण को बढ़ाना हो, तो नग्न से पैदा हुआ है। तस्वीरें बंद करो, अश्लील तस्वीरें बंद करो, स्त्री को नग्न मत करो। अब मैं मानता हूं कि आज नहीं कल, पचास साल के भीतर, ढांको; बाधाएं खड़ी करो; स्त्री-पुरुष को एकदम मिल जाने की सारी दुनिया में बूंघट वापस लौट सकता है। आज कहना बहुत सुविधा मत बनाओ; असुविधाएं खड़ी करो-अगर मोह पैदा मुश्किल मालूम पड़ता है, यह भविष्यवाणी करता हूं, पचास साल करना है। में धूंघट वापस लौट आएगा। क्योंकि स्त्री-पुरुष इतनी अनाकर्षक । अगर कृष्ण से हम पूछे, तो कृष्ण वह जवाब नहीं देंगे, जो हालत में जी न सकेंगे। वे आकर्षण फिर पैदा करना चाहेंगे। आने | हिंदुस्तान के सब साधु दे रहे हैं। वे कह रहे हैं कि फिल्मों में चुंबन वाले पचास वर्षों में स्त्रियों के वस्त्र फिर बड़े होंगे, फिर उनका | न हो। चुंबन हुआ, तो लोग कामुक हो जाएंगे। गलत हैं। उन्हें शरीर ढकेगा। | बिलकुल मनोविज्ञान का कोई भी पता नहीं। कृष्ण को ज्यादा पता बटैंड रसेल ने लिखा है कि जब वह बच्चा था, तो विक्टोरियन | | है। वह कृष्ण कह रहे हैं कि अगर बाधा बिलकुल नहीं है, तो मोह युग समाप्त हो रहा था। और स्त्रियों के पैर का अंगूठा भी देखना | बिलकुल गिर जाएगा। अगर चीजें बिलकुल साफ हैं, तो आकर्षण मुश्किल था। घाघरा ऐसा होता था, जो जमीन छूता था। तो बर्दैड | खो देती हैं। निषेध में निमंत्रण है। जहां ढका है, वहां उघाड़ने का रसेल ने लिखा है कि अगर किसी स्त्री के पैर का अंगूठा भी दिख मन है। जहां बाधा है! जाता था, तो चित्त में बिजली कौंध जाती थी। और उसने लिखा है। अब मेरी अपनी समझ यही है कि पुरानी मनुष्य की संस्कृति स्त्री | 273| Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Smm गीता दर्शन भाग-1 AM और पुरुष के बीच ज्यादा आकर्षण को जन्माती थी। पुरानी संस्कृति ने नई अवस्था पा ली। में तलाक मुश्किल था। आकर्षण भारी था। अपनी ही पत्नी से | ___ क्रोध तक सिर्फ मन गरम है, मोह पर भाप बन जाता है। नई मिलना कहां हो पाता था! कितनी बाधाएं थीं! संयुक्त परिवार बड़ी अवस्था शुरू हो गई मन की, ए न्यू स्टेट; क्वालिटेटिव चेंज हो बाधा का काम करता था। आकर्षण जीवनभर खिंचता था। गया, गुणात्मक अंतर हो गया। क्रोध तक गुणात्मक अंतर नहीं है, जीवनभर ही नहीं, स्त्री और पुरुष चाहते थे कि मरकर भी यही स्त्री, | | परिमाणात्मक अंतर है, क्वांटिटेटिव चेंज हो रहा है सिर्फ। इसलिए यही पुरुष मिल जाए। तलाक जन्म के साथ भी करने का मन नहीं क्रोध से वापस लौट जाना आसान है, मोह से वापस लौट जाना था। जन्मों-जन्मों तक एक को ही पा लेने का आकर्षण था। राज | बहुत मुश्किल हो जाता है। कहां है ? राज इसी सूत्र में है, बाधाएं बहुत थीं। इसलिए मोह को कृष्ण कहते हैं कि उससे स्मृति भ्रष्ट हो जाती __ क्रोध सबसे बड़ी बाधा है। असल में क्रोध बाधा से ही पैदा है। क्योंकि चित्त भाप-भाप हो जाता है। लौटना बहुत कठिन है। हुआ चित्त-विकार है। तो मोह पैदा हो जाता है। और जहां मोह अब उसको ठंडा करना बहुत कठिन है। अब ईंधन हटाने से कुछ पैदा होता है, वहां स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति मोह से भ्रष्ट न होगा। और फिर मोह के तत्व को ठीक से समझें, तो पता चलेगा क्यों हो जाती है? कि स्मृति क्यों मोह नष्ट करता है। आमतौर से हम सोचते होंगे काम से भ्रष्ट होनी चाहिए स्मति। | मनष्य के मन में स्मति का जो काम है. मोह का उससे विपरीत काम से भ्रष्ट नहीं होती, क्योंकि काम प्राकृतिक तथ्य है। आमतौर काम है। स्मृति तथ्यगत है। स्मृति का मतलब ही यही है कि जो से हमें सोचना चाहिए, क्रोध से भ्रष्ट हो जाती है स्मृति। लेकिन | जाना, उसे वैसा ही याद रखना जैसा जाना। मेमोरी का मतलब ही क्रोध से भी नहीं होती। क्योंकि क्रोध सिर्फ काम के मार्ग में पड़ी इतना है। राइट मेमोरी, ठीक स्मृति का मतलब इतना ही है कि हम अड़चन से पैदा होता है। क्रोध प्रोजेक्टिव नहीं है। यह समझना अपनी तरफ से कुछ नहीं जोड़ते, जो है, उसको ही स्मरण रखते हैं। पड़ेगा। क्रोध का कोई सम्मोहन नहीं है। क्रोध केवल प्रतिकार है, | | उसमें हमारा कोई जोड़ नहीं होता। प्रक्षेप नहीं। क्रोध किसी दूसरे का प्रतिकार है, किसी बाधा को हटाने | - मोह कहना चाहिए क्रिएटिव है, सृजनात्मक है। वह वही नहीं की चेष्टा है। बाधा हट जाए, क्रोध खो जाएगा। | देखता, जो है; वह वह प्रोजेक्ट करता है, निर्माण करता है, जो , मोह क्रोध से भी सबल है। मोह प्रोजेक्टिव है; मोह अंधा कर | चाहता है कि हो। मोह स्वप्न-निर्माता है। मोह सम्मोहक है, देता है। क्रोध पागल करता है, मोह अंधा कर देता है। मोह कहता हिप्नोटिक है। मोह अपने हिप्नोटिज्म का जाल फैला देता है। वह है, कुछ भी हो! सब बाधाओं को भूलकर मोह पागल होकर जिसे बिलकुल अंधा होकर वही देखने लगता है, जो देखना चाहता है। पाना चाहता है, उसके पीछे दौड़ पड़ता है। क्रोध बाधाओं को इसलिए अक्सर हम कहते हैं कि जब कोई मोहग्रस्त होता है, अलग करने की कोशिश करता है, काफी रिअलिस्टिक है; क्रोध | कोई प्रेम में पागल हो जाता है, तो फिर उसे तथ्य दिखाई नहीं पड़ते। बहुत यथार्थ है। लेकिन मोह कहता है, बाधाएं! कोई बाधाएं नहीं | | वह आग में चल सकता है, वह पहाड़ों से कूद सकता है। उसे फिर हैं, छलांग लगाएंगे, दौड़कर निकल जाएंगे। कुछ दिखाई नहीं पड़ता। फिर वह रिअलिस्ट नहीं रह जाता, वह मोह अंधा कर देता है। और जब चित्त अंधा होता है, तभी स्मृति सोम्नाबलिस्ट हो जाता है; वह नींद में चलने लगता है। उसका क्षीण होती है। हां, मोह तक आने के लिए काम और क्रोध जरूरी | चलना फिर नींद में चलना है। हैं। लेकिन मोह कहना चाहिए परिपाक है। मोह हमारे चित्त के | __इसलिए प्रेमी को मनुष्य हमेशा से पागल कहता रहा है। और विकार की सौ डिग्री अवस्था है, जहां से भाप बनना शुरू होता है।। | प्रेम को सदा से अंधा कहता रहा है। ठीक होगा कि प्रेम की जगह निन्यानबे डिग्री तक भी पानी भाप नहीं बनता, गरम ही रहता है। हम मोह का उपयोग करें। ठीक शब्द मोह है। मोह अंधा है, ब्लाइंड और गरम रहने में एक खूबी है कि अभी चाहे, नीचे से अगर ईंधन ___ है। प्रेम बड़ी और बात है। निकाल लिया जाए, तो फिर ठंडा हो सकता है। लेकिन सौ डिग्री प्रेम को मोह के साथ एक कर लेने से गहरा, भारी नुकसान हुआ पर पहुंचकर भाप बन जाएगा। फिर आप ईंधन निकालो या कुछ है। प्रेम एक बहुत ही और बात है। प्रेम तो उसी के जीवन में घटित करो, भाप सिर्फ ईंधन निकालने से फिर ठंडी नहीं हो सकती। पानी होता है, जिसके जीवन में मोह नहीं होता। लेकिन हम प्रेम को ही 274 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन के अधोगमन और ऊर्ध्वगमन की सीढ़ियां -AAR मोह और मोह को प्रेम कहते रहे हैं। प्रोजेक्टर आपने देखा होगा। सिनेमागृह में परदा होता है। परदे प्रेम तो बुद्ध और कृष्ण जैसे लोगों के जीवन में होता है। हमारे पर चित्र होते हैं। लेकिन आपकी पीठ के पीछे दीवाल के उस पार जीवन में प्रेम होता ही नहीं है। जिनके जीवन में मोह है, उनके जीवन छिपा हुआ प्रोजेक्टर होता है, मशीन होती है, जो चित्रों को परदे पर में प्रेम नहीं हो सकता। क्योंकि मोह मांगता है, प्रेम देता है। | फेंकती है। चित्र उस मशीन में छिपे होते हैं, परदे पर नहीं होते हैं। बिलकुल अलग अवस्थाएं हैं। उनकी हम आगे थोड़ी बात कर परदे पर चित्रों का सिर्फ भ्रम पैदा होता है। चित्र होते हैं मशीन में सकेंगे। लेकिन मोह को समझने के लिए उपयोगी है। | छिपे. प्रोजेक्टर में फेंकने वाले में। और वहां से चित्र फेंके जाते प्रेम उस चित्त में फलित होता है, जिसमें कोई काम नहीं रह हैं, लेकिन दिखाई पड़ते हैं परदे पर। होते हैं प्रोजेक्टर में, दिखाई जाता, जिसमें कोई वासना नहीं रह जाती। क्योंकि दे वही सकता पड़ते हैं परदे पर। है, जो मांगता नहीं। वासना मांगती है। वासना कहती है, मिलना मोह प्रोजेक्टर है। होता है हमारे भीतर, दिखाई पड़ता है परदे चाहिए, यह मिलना चाहिए, यह मिलना चाहिए। प्रेम कहता है, | पर। जब मैं किसी स्त्री के प्रेम में पड़ जाता हूं, तो जो चेहरा मुझे अब कोई मांग न रही, हम कोई भिखारी नहीं हैं। वासना भिखारी | | दिखाई पड़ता है, वह उस स्त्री का नहीं होता, वह मेरे प्रोजेक्टर का है, प्रेम सम्राट है। प्रेम कहता है, जो हमारे पास है, ले जाओ। जो | होता है। वह होता है मेरे भीतर, दिखाई पड़ता है वहां। स्त्री सिर्फ हमारे पास है, ले जाओ; अब हमें तो कोई जरूरत न रही, अब परदा होती है। क्योंकि जिनको उस स्त्री से मोह नहीं है, उनको वहां हमारी कोई मांग न रही। अब तुम्हें जो भी लेना है, ले जाओ। प्रेम | वैसा चेहरा नहीं दिखाई पड़ता, जैसा मुझे दिखाई पड़ता है। मुझे दान है। वासना भिक्षावृत्ति है, मांग है। उसके पसीने में भी सुगंध आने लगती है; उसके पसीने में भी ___ इसलिए वासना में कलह है; प्रेम में कोई कलह नहीं है। ले गुलाब खिलने लगते हैं। किसी को नहीं खिलते। कुछ दिन बाद मुझे जाओ तो ठीक, म ले जाओ तो ठीक। लेकिन मांगने वाला यह नहीं भी नहीं खिलेंगे-जब मोह गिरेगा और प्रोजेक्टर बंद हो जाएगा कह सकता कि दे दो तो ठीक, न दो तो ठीक। देने वाला कह सकता और परदा दिखाई पड़ेगा। तब मैं कहूंगा, अरे! क्या हुआ? गुलाब है कि ले जाओ तो ठीक, न ले जाओ तो ठीक। क्योंकि देने में कोई के फूल कहां गए? वे गुलाब के फूल विदा हो जाएंगे। वे गुलाब अंतर ही नहीं पड़ता, नहीं ले जाते, तो मत ले जाओ। मांग में अंतर के फूल वहां थे ही नहीं। वे गुलाब के फूल मैंने आरोपित किए थे, पड़ता है। नहीं दोगे, तो प्राण छटपटाते हैं। क्योंकि फिर अधूरा रह प्रोजेक्ट किए थे; वह मेरा प्रक्षेप था। जाएगा भीतर कुछ, पूरा नहीं हो पाएगा। धन में धन के पागल को जो दिखाई पड़ता है, वह धन में होता मोह पैदा होता है वासना की अंतिम कड़ी में, और प्रेम पैदा होता नहीं, प्रोजेक्टेड होता है। धन में क्या होगा! लेकिन धन के पागल है निर्वासना की अंतिम कड़ी में। कहना चाहिए, जिस तरह मोह से को देखा है आपने। वह रुपए को किस मोह से पकड़ता है, जैसे स्मृति नष्ट होती है, उसी तरह से प्रेम से स्मृति पुष्ट होती है। पर | किसी जीवंत चीज को पकड़ रहा हो! वह रुपए को किस प्रेम से उसकी अलग बात करेंगे। अभी उससे कोई लेना-देना नहीं है। । | सम्हालता है, जैसे उसका हृदय हो! वह तिजोरी को कैसे आहिस्ता मोह सीढ़ियों का नीचे उतरा हुआ सोपान है, पायदान है, जहां से खोलता है! वह तिजोरी को कैसे देखता है, जैसे उसकी आत्मा आदमी पागल होने के करीब पहुंचता है। प्रेम सीढ़ियों का ऊपरी वहां बंद है! वह रात सोता भी है, तो तिजोरी का ही चिंतन घूमता पायदान है, जहां आदमी विमुक्त होने के करीब पहुंचता है। है। रात सपने भी आते हैं, तो रुपयों के ही ढेर बढ़ते चले जाते हैं। और विमक्त होने के करीब। मोह के बाद वह जिस जगत में जी रहा है, उसका हमें कछ भी पता नहीं है कि विक्षिप्तता है, प्रेम के बाद विमुक्ति है। | उसका प्रोजेक्शन क्या हो रहा है! वह क्या प्रोजेक्ट कर रहा है! यह जो मोह पैदा हुआ, यह स्मृति को नष्ट कर देता है। क्यों? | ___ मैंने सुना है, एक आदमी एक गांव में बहुत धनपति है। फिर क्योंकि स्मृति अब रिकार्ड नहीं कर पाती कि क्या है। स्मृति का काम | | गांव में लोग मरने लगे, अकाल पड़ा। तो लोगों ने उससे कहा, सिर्फ रिकार्डिंग का है कि वह वही रिकार्ड कर ले, जो है; तथ्य को | | इतना धन है तुम्हारे पास, इतना धान्य है तुम्हारे पास, लोग मर रहे अंकित कर ले। लेकिन मोह के कारण तथ्य दिखाई नहीं पड़ता। हैं, ऐसे क्षण पर रोको मत-बांटो। तो उस आदमी ने कहा, जिसे मोह के कारण हम एक जाल अपनी तरफ से प्रोजेक्ट करते हैं। तुम बांटने के लिए कह रहे हो, वह अगर बंट जाए तो मैं मर जाऊं।' 275 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm गीता दर्शन भाग-1 44 तो लोग मर रहे हैं.माना, लेकिन मैं मरना नहीं चाहता! यह तुम भी | । फिर लोगों ने कहा, लेकिन तुम मर जाओगे, तो यह धन पड़ा जानो। और लोग मर रहे हैं, तो दूसरे पैदा हो जाएंगे। लेकिन जो रह जाएगा। इतने दिन बचाया है, फिर इसका क्या होगा? उसने धन मैंने इकट्ठा किया है, वह दूसरा कहां से आ सकता है? लोग कहा कि क्या तुम सोचते हो, मैं धन को पड़ा रहने दूंगा! मैं साथ बड़े चकित हुए। कभी न सोचा था! ले जाऊंगा। लोगों ने कहा, अब तक सुना नहीं कि कोई धन को लेकिन उन्हें पता नहीं कि लोग उस आदमी के लिए छायाओं की | साथ ले गया हो! उसने कहा, सुन लेना, जब मैं ले जाऊंगा, तब तरह झूठे हैं; धन आत्मा की तरह सच्चा है। लोग हैं ही नहीं उसकी | तुम्हें पता चल जाएगा। जीवन-परिधि में। उसके मन के घेरे में लोगों का कोई अस्तित्व नहीं मोहग्रस्त मन की स्मृति खो जाती है; सोच-विचार खो जाता है; है। वे प्रतिबिंब हैं। आते हैं, जाते हैं। धन बहुत वास्तविक है। | सहज विवेक खो जाता है। वह कह रहा है, मैं धन को भी साथ ले फिर उसकी पत्नी भी बीमार पड़ गई। गांवभर में लोग मर रहे हैं, जाऊंगा! मोहग्रस्त आदमी कहता है, छोडूंगा ही नहीं, प्राण में समा बीमारियां फैल गईं। उसकी पत्नी बीमार पड़ गई, तो लोगों ने कहा, लूंगा। अपना-अपना मोह! कम से कम अपनी पत्नी को दिखाने के लिए वैद्य को बुला लो! एक मुख्यमंत्री को मैं जानता हूं एक प्रदेश के। जो मरने के एक उसने कहा, पत्नी फिर भी मिल सकती है। लेकिन धन फिर भी | साल पहले मुझसे ही कहे कि अब एक ही इच्छा है कि मुख्यमंत्री मिलेगा, इसका आश्वासन है? रहते हुए मरूं। मौत करीब दिखने लगी थी। बहुत बीमार थे। कहा जिसके मन में धन का मोह है, हम नहीं समझ पाते उसकी भाषा। | कि बस अब एक ही इच्छा है कि मुख्यमंत्री रहते हुए मरूं। मैंने जैसे अर्जुन पूछ रहा है कि स्थितधी कैसी भाषा बोलता है? ऐसे ही | | कहा, मरने का उतना भय नहीं, जितना मुख्यमंत्री पद के छूटने का मोहग्रस्त कैसी भाषा बोलता है, वह भी हम नहीं समझ सकते। भय है। मरते हुए भी कम से कम मुख्यमंत्री पद तो साथ चला जाए। मोहग्रस्त कैसे उठता, कैसे बैठता, हमारी पकड़ में नहीं आता। हां, मरे तो मख्यमंत्री थे: साथ ले गए। अपने-अपने मोह को देखेंगे, तो पकड़ में आ सकता है। सबके उस आदमी ने कहा, ले जाऊंगा साथ। और सच में एक रात मोह हैं। दूसरे का मोह हमारी समझ में नहीं आता, हमारा मोह ही उसने कोशिश की। मोहग्रस्त आदमी कोई भी कोशिश कर सकता हमारी समझ में आता है। | है। उसकी स्मृति खो जाती है, उसका विवेक खो जाता है। रात उसने कहा, पत्नी दूसरी मिल जाएगी। पत्नी मर गई। फिर तो उसने देखा कि शायद सुबह नहीं होगी। तो आधी रात वह उठा। वह खुद भी मरने के करीब आ गया। बीमारियां उसे भी पकड़ लीं। | उसने अपने सारे हीरे-जवाहरात, जो भी कीमती था, वह एक बोरी लोगों ने कहा, अब तो कम से कम अपने पर कृपा करो। अब तो में बंद किया। लेकर नदी के किनारे पहुंचा। उसने सोचा कि अपने तुम्हीं मरने के करीब हो। उसने कहा, धन न बचे और मैं बच जाऊं, | बोरे को कमर से बांधकर नदी में कूद जाऊं। आखिरी चेष्टा कि ऐसे बचने से तो मर जाना ही बेहतर है। वह तो बड़ा दुखद है, वह | साथ ले जाऊं! लेकिन नदी गहरी है और अगर किनारे कूद पड़े, तो तो बड़ा भयप्रद है कि धन न बचे और मैं बच जाऊं। कल्पना ही | लाश तो किनारे लगी रह जाएगी। वह हीरे-जवाहरातों से भरा हुआ नहीं कर सकता धन के बिना मेरे होने की। हां, मेरे न होने की बोरा किनारे रह जाएगा। न मालूम कोई उसे उठा ले! कल्पना कर सकता हूं। लेकिन धन के बिना मेरे होने की कल्पना तो उसने नाविकों को जगाया। कहता हूं नाविकों को, एक नहीं कर सकता। नाविक के जगाने से काम चल जाता। पर नाविकों को जगाया, मोहग्रस्त आदमी ऐसी ही भाषा बोलता है। वह कहता है, यह क्योंकि वह आदमी ठहराए बिना नहीं कर सकता था काम; उसे स्त्री मुझे न मिली, तो मैं मर जाऊंगा। इस स्त्री के बिना होने की मैं | जाना था बीच नदी में। उसने मांझियों को जगाया और कहा कि कल्पना नहीं कर सकता। हां, अपने न होने की कल्पना कर सकता सबसे कम में कौन ले जा सकता है? सबसे कम में! और वह हूं। वही मोह, वह कहता है, ऐसा नहीं होगा...अगर मंत्री पद नहीं आदमी मरने जा रहा है। यह सब धन लेकर डूब जाने वाला है। तो मिला, तो मर जाऊंगा। मंत्री पद के बिना अपने होने की कल्पना सबसे कम में कौन ले जा सकता है! ठहराया उसने। सबसे कम, नहीं कर सकता। हां, अपने न होने की कल्पना कर सकता है। छोटी से छोटी अशर्फी में जो राजी था, उस मल्लाह के साथ वह मोहग्रस्त की यही भाषा है। नदी में उतरा। 276 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ymm मन के अधोगमन और ऊर्ध्वगमन की सीढ़ियां - और आखिर जब बीच मझधार में पहुंच गया, तो उसने उस पहले अतीत नष्ट हो जाएगा, फिर वर्तमान, फिर भविष्य। पहले मल्लाह से कहा कि क्या एक मरते हुए आदमी की आखिरी इच्छा इतिहास विकृत हो जाएगा, फिर जीवन, और फिर संभावना। पूरी न करोगे? उसने कहा, क्या मतलब? कैसी आखिरी इच्छा? तो कृष्ण एक-एक कदम, ठीक वैज्ञानिक कदम की बात कर रहे हैं, उसने कहा कि अगर तुम वह अशर्फी न मांगो, तो मैं शांति से मर | स्मृति नष्ट हो जाती है अर्जुन, फिर बुद्धि का नाश हो जाता है। . जाऊं। पर एक मरते हुए आदमी की आखिरी इच्छा! इतनी दुष्टता | बुद्धि क्या है? और कृष्ण जिन अर्थों में बुद्धि का उपयोग करते करोगे कि एक मरते हुए आदमी की आखिरी इच्छा पूरी न करो? | | हैं, वह क्या है? कृष्ण इंटलेक्ट के अर्थों में बुद्धि का उपयोग नहीं गरीब मल्लाह उस मरते हुए आदमी की आखिरी इच्छा पूरी करते। इंटेलिजेंस के अर्थों में बुद्धि का उपयोग करते हैं। इसमें किया। वह धनपति शांति से कूद गया। ऐसे ही हम सब कूद जाते | | आपको...भाषाकोश में तो दोनों शब्दों का एक ही मतलब है। हैं, अपने-अपने मोह से भरी हुई मृत्यु में। मोह स्मृति को नष्ट कर | | आप कहेंगे, बुद्धि, इंटलेक्ट और इंटेलिजेंस में क्या फर्क है? । देता है, विचार को छुड़ा देता है। बुद्धि का वह रूप जो एक्चुअलाइज हो गया है, इंटलेक्ट है। जहां स्मृति नष्ट होती है, कृष्ण कहते हैं, वहां बुद्धि भी नष्ट हो | | बुद्धि का वह रूप जो वास्तविक हो गया है, जिसका आप प्रयोग जाती है। कर चुके, जो सक्रिय हो गया है, वह इंटलेक्ट है। कहें, बुद्धिमानी स्मृति और बुद्धि में फर्क है। स्मृति बुद्धि नहीं है, स्मृति बुद्धि की है। जो बुद्धि का रूप अभी भी निष्क्रिय पड़ा है, जो अभी सक्रिय एक फैकल्टी है। स्मृति केवल बुद्धि का, कहना चाहिए, कोषागार नहीं हुआ, जो अभी पोटेंशियल में पड़ा है, बीज में पड़ा है, अभी है। स्मृति, कहना चाहिए, बुद्धि का संग्रहालय है, रिजर्वायर है। रूपाकृत नहीं हुआ, रूपायित नहीं हुआ, जो अभी साकार नहीं कहना चाहिए, स्मृति बुद्धि का अतीत है। बुद्धि ने जो-जो जाना है, | | हुआ, जो अभी वास्तविक नहीं हुआ-केवल संभावना है-बुद्धि वह स्मृति में संगृहीत कर दिया है। बुद्धि का अतीत है स्मृति, बुद्धि | । में, इंटेलिजेंस में वह भी सम्मिलित है। दि एक्चुअलाइज्ड नहीं। स्मृति का अर्थ ही है, दि पास्ट, बीता हुआ। | इंटेलिजेंस इज़ इंटलेक्ट। जो वास्तविक बन गई है बुद्धि, वह लेकिन पहले अतीत भ्रष्ट होता है. तब वर्तमान भ्रष्ट होता है. बद्धिमानी है। और जो अभी वास्तविक नहीं बनी. वह भी बद्धि के तब भविष्य भ्रष्ट होता है। पहले उसका बोध क्षीण होता है, जो था। हिस्से में है। फिर उसका बोध क्षीण होता है, जो है। फिर उसका बोध क्षीण हो तो आपकी बुद्धिमानी ही आपकी बुद्धि नहीं है, आपकी बुद्धि जाता है, जो होगा। स्वाभाविक। क्योंकि अतीत सबसे ज्यादा स्पष्ट | आपकी बुद्धिमानी से बड़ी चीज है। अगर आपकी बुद्धिमानी ही है। जो हो चुका है, वह सबसे ज्यादा स्पष्ट है। जो हो रहा है, अभी | आपकी बुद्धि है, तो फिर आपमें विकास का कोई उपाय न बचेगा। धूमिल है। जो नहीं हुआ, अनिश्चित है। बुद्धि की पकड़ सबसे बात खतम हो गई। बुद्धि का वर्तुल बड़ा है। बुद्धिमानी का वर्तुल ज्यादा अतीत पर साफ होती है। बुद्धि के बड़े वर्तुल में छोटा है। वह बुद्धिमानी का वर्तुल बड़ा होता ___ जो हो चुका, वह साफ होगा ही। सब रेखाएं पूरी हो गईं। | जाए, बड़ा होता जाए और किसी दिन बुद्धि के पूरे वर्तुल को छू ले, घटनाएं घट चुकीं। जो होना था, उसने पूरा रूप ले लिया; वह | | तो आदमी स्थितप्रज्ञ हो जाता है। आकृति बन गया। जो हो रहा है, अभी निराकार से आकार में आ __ कृष्ण कहते हैं, बुद्धि विकृत हो जाती है। रहा है। जो होगा, वह अभी निराकार है। जो भविष्य है, वह बुद्धिमानी तो विकृत हो जाती है स्मृति के साथ ही। क्योंकि अव्यक्त है। जो वर्तमान है, वह व्यक्त होने की प्रक्रिया में है। जो | बुद्धिमानी यानी स्मृति; नालेज यानी मेमोरी। नोइंग यानी बुद्धि, अतीत है, वह व्यक्त हो गया है। जानने की क्षमता यानी बुद्धि। जानने की क्षमता जितनी सक्रिय हो इसलिए जब पहला हमला होगा, तो स्मृति पर होगा। क्योंकि | गई, यानी बुद्धिमानी। जो जान लिया, वह बुद्धिमानी; और जो वही सबसे स्पष्ट है। सबसे पहले स्पष्ट डांवाडोल हो जाएगा। और जानने की शक्ति है भीतर, वह बुद्धि। बुद्धि सदा जानने की शक्ति जब स्पष्ट ही डांवाडोल हो जाएगा, तो अस्पष्ट के डांवाडोल होने | | से बड़ी है। जानने की वास्तविकता से बड़ी क्षमता है। में कितनी देर लगेगी! और जब अस्पष्ट ही डांवाडोल हो जाएगा, स्मृति पहले विकृत हो जाती है। स्मृति अर्थात इंटलेक्ट विकृत तो जो अभी निराकार है, उस पर तो सारी ही समझ छूट जाएगी। हो गई। और फिर, कृष्ण कहते हैं, वह जो अव्यक्त में पड़ी बुद्धि 277 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + गीता दर्शन भाग-14 है, उस तक भी डांवाडोल भंवर पहुंचने लगते हैं। वह जो गहरे में छिपी प्रज्ञा है, वह भी कंपित होने लगती है। क्योंकि जब स्मृति की आधारशिलाएं गिर जाती हैं, तो उसके ऊपर अव्यक्त का जो भवन है, शिखर है, वे भी कंपने लगते हैं। वह अंतिम पतन है। और जब बुद्धि- नाश हो जाता है, तो सब खो जाता है। कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, जब बुद्धि - नाश हो जाता है, तो सब खो जाता है। फिर कुछ भी बचता नहीं। वह आदमी की परम दीनता है, बैंक्रप्सी, दिवालियापन है। वहां आदमी बिलकुल दिवालिया हो | जाता है— धन खोकर नहीं, स्वयं को ही खो देता है। फिर उसके पास कुछ बचता ही नहीं। वह बिलकुल ही नकार हो जाता है । ना-कुछ हो जाता है। उसका सब ही खो जाता है। यही दीनता है, यही दरिद्रता है। अगर अध्यात्म के अर्थों में समझें, ऐसी स्थिति स्प्रिचुअल पावर्टी है; ऐसी स्थिति आध्यात्मिक दारिद्र्य है। लेकिन हम भौतिक दारिद्र्य से बहुत डरते हैं, आध्यात्मिक दारिद्र्य से जरा भी नहीं डरते। हम बहुत डरते हैं कि एक पैसा न खो जाए। आत्मा खो जाए- हम नहीं डरते। हम बहुत डरते हैं कि को न खो जाए, कमीज न खो जाए। लेकिन जिसने कोट और कमीज पहना है, वह खो जाए – हमें जरा भी फिक्र नहीं। कोट और कमीज बच जाए, बस बहुत है । वस्तुओं को बचा लेते हैं, स्वयं को खो देते हैं। | खोने की जो प्रक्रिया कृष्ण ने कही, वह बहुत ही मनोवैज्ञानिक है। अभी पश्चिम का मनोविज्ञान या आधुनिक मनोविज्ञान इतने गहरे नहीं जा सका है। जाएगा, कदम उठने शुरू हो गए हैं, लेकिन इतने गहरे नहीं जा सका है। अभी पश्चिम का मनोविज्ञान काम के आस-पास ही भटक रहा है, सेक्स के आस-पास ही भटक रहा है। अभी पश्चिम का चाहे फ्रायड हो और चाहे कोई और हो, अभी पहले वर्तुल पर ही भटक रहे हैं, जहां काम है। अभी उन्हें पता नहीं है कि काम के बाद और गहरे में क्रोध है, क्रोध के बाद और गहरे में मोह है, मोह के और गहरे में स्मृति- नाश है, स्मृति-नाश के और गहरे में बुद्धि का दिवालियापन है, बुद्धि के दिवालियापन के और गहरे में स्वयं का पूर्णतया नकार हो जाना है। रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् । आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ।। ६४ । परंतु, स्वाधीन अंतःकरण वाला पुरुष राग-द्वेष से रहित, अपने वश में की हुई इंद्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ प्रसाद अर्थात अंतःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है। ठी क इसके विपरीत - पतन की जो कहानी थी, ठीक इसके विपरीत - राग-द्वेष से मुक्त, कामना के पार, स्वयं में ठहरा, स्वायत्त । स्वयं को खो चुका; और स्वयं में ठहरा। अभी जो कहानी हमने समझी, अभी जो कथा हमने समझी, अभी जो यात्रा हमने देखी, वह स्वयं को खोने की। और स्वयं को कैसे खोता है सीढ़ी-सीढ़ी आदमी, वह हमने देखा । स्वयं से कैसे रिक्त और शून्य हो जाता है। स्वयं से कैसे बाहर, और बाहर, और दूर हो जाता है। कैसे स्वयं को खोकर पर में ही आयत्त हो जाता है, पर में ही ठहर जाता है। जिसको मैंने कहा, आध्यात्मिक दिवालियापन, स्प्रिचुअल बैंक्रप्सी, उसका मतलब है, पर में आयत्त हुआ पुरुष। यह जो पूरी की पूरी यात्रा थी, पर में आयत्त होने से शुरू हुई थी । देखा था राह पर किसी स्त्री को, देखा था किसी भवन को, देखा था किसी पुरुष को, देखा था चमकता हुआ सोना, देखा था सूरज में झलकता हुआ हीरा - पर, दि अदर, कहीं पर में आकर्षित चित्त पर की खोज पर निकला था। चिंतन किया था, चाह की थी, बाधाएं पाई थीं, क्रोधित . | हुआ था, मोहग्रस्त बना था, स्मृति को खोया था, बुद्धि के नाश को 278 उपलब्ध हुआ था। पर-आयत्त, दूसरे में - दि अदर ओरिएंटेड । मनोविज्ञान जो शब्द उपयोग करेगा, वह है, दि अदर ओरिएंटेड । तो बड़ी मजे की बात है कि कृष्ण ने स्वायत्त, सेल्फ ओरिएंटेड शब्द का उपयोग किया है। पर आयत्त, दूसरे की तरफ बहता हुआ पुरुष, दूसरे को केंद्र मानकर जीता हुआ पुरुष। इस पुरुष शब्द को थोड़ा समझें, तो इस पर आयत्त और स्वायत्त होने को समझा जा सकता है। शायद कभी खयाल न किया हो कि यह पुरुष शब्द क्या है ! सांख्य का शब्द है पुरुष । गांव को हम कहते हैं पुर-नागपुर, | कानपुर — गांव को हम कहते हैं पुर। सांख्य कहता है, पुर के भीतर जो छिपा है, वह पुरुष, पुर में रहने वाला। शरीर है पुर । कहेंगे, इतना छोटा-सा शरीर पुर! बहुत बड़ा है, छोटा नहीं है। बहुत बड़ा है। कानपुर की कितनी आबादी है ? पांच लाख, छः लाख, सात लाख होगी। शरीर की कितनी आबादी है ? सात करोड़ । सात करोड़ जीवाणु रहते हैं शरीर में छोटा पुर नहीं है, सात करोड़ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Om मन के अधोगमन और ऊर्ध्वगमन की सीढ़ियां - जीवित सेल हैं शरीर में। अभी तक दुनिया में कोई पुर इतना बड़ा हैं, उससे करोड़ और अरब गुने बड़े सूर्य हैं। ये जो रात को तारे नहीं है। लंदन की आबादी एक करोड़, टोकियो की सवा करोड़, | दिखाई पड़ते हैं, ये सब सूर्य हैं। छोटे-छोटे दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि कलकत्ता की अस्सी लाख, बंबई की साठ। बहुत दूर हैं। ये छोटे होने की वजह से छोटे नहीं दिखाई पड़ते। ये अभी मनुष्य के शरीर के बराबर पुर पृथ्वी पर बना नहीं है। सात बहुत दूर हैं, इसलिए छोटे दिखाई पड़ते हैं। बहुत बड़े-बड़े महासूर्य करोड़! क्या इससे कोई फर्क पड़ता है कि छोटे-छोटे प्राणी रहते हैं, जिनसे पछे कि हमारा भी एक सूर्य है। तो वे कहेंगे कि है, पर हैं। छोटा कौन है? बड़ा कौन है ? सब रिलेटिव मामला है। आदमी बहुत गरीब है, छोटा है। किसी गिनती में नहीं आता। कोई कोई बहुत बड़ा प्राणी है? हाथी से पूछे, ऊंट से पूछे, तो बहुत छोटा वी.आई.पी. नहीं है! प्राणी है। तो ये ऊंट या हाथी क्या कोई बहुत बड़े प्राणी हैं? पृथ्वी | लेकिन वे महासूर्य, जो इस सूर्य से भी अरबों गुने बड़े हैं, वे भी से पूछे, हिमालय से पूछे...। क्या बहुत बड़े हैं? तो पूरे जगत से पूछे। तो अब तक वैज्ञानिक कहते सोचते होंगे शायद, हिमालय में कोई प्राण नहीं हैं। तो गलत हैं कि चार अरब सूर्यों का हमें पता चला है। मगर वह अंत नहीं है। सोचते हैं। हिमालय अभी भी बढ़ रहा है, अभी भी ग्रोथ है, अभी | उसके पार भी, उसके पार भी, बियांड एंड बियांड-कुछ अंत नहीं भी बड़ा हो रहा है। हिमालय अभी भी जवान है। सतपुड़ा और | है। यहां कौन छोटा, कौन बड़ा! सब छोटा-बड़ा रिलेटिव है। विंध्याचल बूढ़े हैं, अब बढ़ते नहीं हैं। अब सिर्फ थकते हैं और झुक | | आपके शरीर में जो जीवाणु हैं, वे भी छोटे नहीं हैं, आप भी बड़े हैं। हिमालय अभी भी बढ रहा है। हिमालय की उम्र भी बहत नहीं हैं। सात करोड की एक शरीर में बसी हई बस्ती। और आप कम है, सबसे नया पहाड़ है। सब पुराने पहाड़ हैं। विंध्या सबसे | | सोचते हों कि इन सात करोड़ जीवाणुओं को आपका कोई भी पता ज्यादा पुराना पहाड़ है। सबसे पहले पृथ्वी पर विंध्या पैदा हुआ। | है, इनका आपको कोई भी पता है तो नहीं है। आपको इनका पता बूढ़े से बूढ़ा पर्वत है। अब उसकी ग्रोथ बिलकुल रुक गई है। अब नहीं है, इनको आपका पता नहीं है। उनको भी आपका पता नहीं है वह बढ़ता नहीं है। अब वह थक रहा है, टूट रहा है, झुक रहा है, कि आप हैं। आप जब नहीं होंगे इस शरीर में, तब भी उनमें से कमर उसकी आड़ी हो गई है। हमारे पास कहानी है, उसकी कमर बहुत-से जीवाणु जीए चले जाएंगे। मर जाने के बाद भी! आप मरते के आड़े होने की। हैं, वे नहीं मरते। उनमें जो अमीबा हैं, बहुत छोटे हैं, वे तो मरते ही अगस्त्य की कथा है, कि मुनि गए हैं दक्षिण और कह गए हैं कि नहीं। उनकी लाखों साल की उम्र है। अगर उम्र के हिसाब से सोचें, झुका रहना; जब तक मैं लौटूं न। फिर वे नहीं लौटे। कर्म आदमी तो आप छोटे हैं, वे बड़े हैं। के हाथ में है, फल आदमी के हाथ में नहीं है। लौटना मुनि का नहीं कब्रिस्तान में दबे हुए आदमी के भी नाखून और बाल बढ़ते रहते हो सका। फिर वह बेचारा झुका है। पर यह जियोलाजिकल फैक्ट हैं। क्योंकि बाल और नाखून बनाने वाले जो जीवाणु हैं, वे आपके भी है, यह पुराण कथा ही नहीं है। विंध्या झुक गया है और अब | | साथ नहीं मरते। वे अपना काम जारी रखते हैं। उनको पता ही नहीं उसमें विकास नहीं है; बूढ़ा है। हिमालय बच्चा है। पड़ता कि आप मर गए। वे नाखून और बाल को बढ़ाए चले जाते हिमालय से पूछे, ऊंट, हाथी! वह कहेगा, बहुत छोटे प्राणी हैं। हैं। और जब आप मरते हैं, तो सात करोड़ कीटाणुओं की संख्या खुर्दबीन से देखू तब दिखाई पड़ते हैं, नहीं तो नहीं दिखाई पड़ते। | | में कमी नहीं होती है और बढ़ती हो जाती है। आपके मरने से जगह पृथ्वी से पूछे कि हिमालय की कुछ खबर है! वह कहेगी, ऐसे कई खाली हो जाती है और हजारों कीटाण प्रवेश कर जाते हैं। जिसको हिमालय पैदा हुए, आए और गए। सब मेरे बेटे हैं, मुझ में आते | आप सड़ना कहते हैं, डिटेरियोरेशन, वह आपके लिए होगा; नए हैं, समा जाते हैं। धरित्री—वह मां है। लेकिन पृथ्वी कोई बहुत बड़ा कीटाणुओं के लिए तो जीवन है। प्राण रखती है! तो सूरज से पूछे। सूरज साठ लाख गुना बड़ा है यह पुर, इसमें जो बीच में बसा है इस नगर के, वह पुरुष। यह पृथ्वी से। उसे दिखाई भी नहीं पड़ती होगी पृथ्वी। साठ लाख गुने | | पुरुष दो तरह से हो सकता है : पर-आयत्त हो सकता है, स्वायत्त बड़े को कैसे दिखाई पड़ेगी? हो सकता है। जब यह वासनाग्रस्त होता है, तो यह दूसरे को केंद्र ___ पर सूरज कोई बहुत बड़ा है? मत इस खयाल में पड़ना। बहुत | | बनाकर घूमने लगता है। सैटेलाइट हो जाता है। मीडियाकर स्टार है, बहुत मध्यमवर्गीय है। उससे बहुत बड़े सूर्य जैसे चांद है। चांद सैटेलाइट है। वह जमीन को केंद्र बनाकर 279 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Im गीता दर्शन भाग-1 AM घूमता है। जमीन भी सैटेलाइट है, वह सूर्य को केंद्र बनाकर घूमती है। सूर्य भी सैटेलाइट है, वह किसी महासूर्य को केंद्र बनाकर घूमता है। सब अदर ओरिएंटेड हैं। . लेकिन उन्हें माफ किया जा सकता है, क्योंकि उनकी चेतना इतनी नहीं कि वे जान सकें कि क्या अदर और क्या सेल्फ; क्या स्वयं और क्या पर। आदमी को माफ नहीं किया जा सकता, वह जानता है। पति पत्नी का सैटेलाइट है, पत्नी के आस-पास घूम रहा है। कभी छोटा वर्तुल बनाता है, कभी बड़ा वर्तुल बनाता है, लेकिन पत्नी के आस-पास घूम रहा है। पत्नी पति की सैटेलाइट है। वह उसके आस-पास घूम रही है। कोई धन के आस-पास घूम रहा है, कोई काम के आस-पास घूम रहा है, कोई पद के आस-पास घूम रहा है-सैटेलाइट, पर-आयत्त। दूसरा केंद्र है, हम तो सिर्फ परिधि पर घूम रहे हैं—यही दिवालियापन है। लेकिन हम अपने केंद्र स्वयं हैं, किसी के आस-पास नहीं घूम रहे हैं. तो आदमी स्वायत्त है। यही सम्राट होना है। यही स्प्रिचअल रिचनेस है। जिसको जीसस ने किंगडम आफ गाड, परमात्मा का साम्राज्य कहा, उसको कृष्ण कह रहे हैं, स्वायत्त हुआ पुरुष परम आनंद को उपलब्ध हो जाता है। क्योंकि पर-आयत्त हुआ पुरुष परम दुख को उपलब्ध हो जाता है। दुख यानी पर-आयत्त होना, आनंद यानी स्वायत्त होना। ये सब समाधिस्थ व्यक्ति की तरफ ही वे इशारे करते जा रहे हैं अर्जुन को। सब दिशाओं से, अनेक-अनेक जगहों से वे इशारे कर रहे हैं कि समाधिस्थ पुरुष यानी क्या। वह जो सवाल पूछ लिया था अर्जुन ने, हो सकता है, वह खुद भी भूल गया हो कि उसने क्या सवाल पूछा था। लेकिन कृष्ण उसके सवाल को समस्त दिशाओं से ले रहे हैं। कहीं से भी उसकी समझ में आ जाए। तो वे यह कह रहे हैं कि जो स्वयं ही अपना केंद्र बन गया, जिसका अब कोई पर केंद्र नहीं है, ऐसा पुरुष परम ज्ञान को, परम शांति को, परम आनंद को उपलब्ध हो जाता है। अभी इतना। फिर शेष सांझ हम बात करेंगे। 280 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 1-2 अठारहवां प्रवचन विषाद की खाई से ब्राह्मी-स्थिति के शिखर तक Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-14 प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते । प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते । । ६५ ।। उस निर्मलता के होने पर इसके संपूर्ण दुखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले पुरुष की बुद्धि शीघ्र ही अच्छी प्रकार स्थिर हो जाती है। वि क्षेपरहित चित्त में शुद्ध अंतःकरण फलित होता है? या शुद्ध अंतःकरण विक्षेपरहित चित्त बन जाता है ? कृष्ण जो कह रहे हैं, वह हमारी साधारण साधना की समझ के बिलकुल विपरीत है। साधारणतः हम सोचते हैं कि विक्षेप अलग हों, तो अंतःकरण शुद्ध होगा। कृष्ण कह रहे हैं, अंतःकरण शुद्ध हो, तो विक्षेप अलग हो जाते हैं। यह बात ठीक से न समझी जाए, तो बड़ी भ्रांतियां जन्मों-जन्मों के व्यर्थ के चक्कर में ले जा सकती हैं। ठीक से काज और इफेक्ट, क्या कारण बनता है और क्या परिणाम, इसे समझ लेना ही विज्ञान है। बाहर के जगत में भी, भीतर के जगत में भी। जो कार्य-कारण की व्यवस्था को ठीक से नहीं समझ पाता और कार्यों को कारण समझ लेता है और कारणों को कार्य बना लेता है, वह अपने हाथ से ही, अपने हाथ से ही अपने को गलत करता है। वह अपने हाथ से ही अपने को अनबन करता है। किसान गेहूं बोता है, तो फसल आती है। गेहूं के साथ भूसा भी आता है। लेकिन भूसे को अगर बो दिया जाए, तो भूसे के साथ गेहूं नहीं आता। ऐसे किसान सोच सकता है कि जब गेहूं के साथ भूसा आता है, तो उलटा क्यों नहीं हो सकता है। भूसे को बो दें, तो गेहूं साथ आ जाए - वाइस- वरसा क्यों नहीं हो सकता ? लेकिन भूसा बोने से सिर्फ भूसा सड़ जाएगा, गेहूं तो आएगा ही नहीं, हाथ का भूसा भी जाएगा। भूसा आता है गेहूं के साथ, गेहूं भूसे के साथ नहीं आता है। अंतःकरण शुद्ध हो, तो चित्त के विक्षेप सब खो जाते हैं, विक्षिप्तता खो जाती है। लेकिन चित्त की विक्षिप्तता को कोई खोने में लग जाए, तो अंतःकरण तो शुद्ध होता नहीं, चित्त की विक्षिप्तता और बढ़ जाती है। आदमी अशांत है, अगर वह शांत होने की चेष्टा में और लग जाए, तो अशांति सिर्फ दुगुनी हो जाती है। अशांति तो होती ही है, अब शांत न होने की अशांति भी पीड़ा देती है। लेकिन अंतःकरण कैसे शुद्ध हो जाए? पूछा जा सकता है कि अंतःकरण शुद्ध कैसे हो जाएगा? जब तक विचार आ रहे, विक्षेप आ रहे, विक्षिप्तता आ रही, विकृतियां आ रहीं, तब तक अंतःकरण शुद्ध कैसे हो जाएगा ? कृष्ण अंतःकरण शुद्ध होने को पहले रखते हैं, पर वह होगा कैसे ? यहां सांख्य का जो गहरा से गहरा सूत्र है, वह आपको स्मरण दिलाना जरूरी है। सांख्य का गहरा से गहरा सूत्र यह है कि | अंतःकरण शुद्ध है ही । कैसे हो जाएगा, यह पूछता ही वह है, जिसे अंतःकरण का पता नहीं है । जो पूछता है, कैसे हो जाएगा शुद्ध ? उसने एक बात तो मान ली कि अंतःकरण अशुद्ध है। आपने अंतःकरण को कभी जाना है? बिना जाने मान रहे हैं कि | अंतःकरण अशुद्ध है और उसको शुद्ध करने में लगे हैं। अगर अंतःकरण अशुद्ध नहीं है, तो आपके शुद्ध करने की सारी चेष्टा व्यर्थ ही हो रही है। और यह चेष्टा जितनी असफल होगी – सफल तो हो नहीं सकती, क्योंकि जो शुद्ध है, वह शुद्ध किया नहीं जा सकता; लेकिन जो शुद्ध है, उसे शुद्ध करने की चेष्टा असफल होगी - असफलता दुख लाएगी, असफलता विषाद लाएगी, असफलता दीनता-हीनता लाएगी, असफलता हारापन, फ्रस्ट्रेशन लाएगी। और बार-बार असफल होकर आप यह कहेंगे, अंतःकरण शुद्ध नहीं होता, अशुद्धि बहुत गहरी है। आप जो निष्कर्ष निकालेंगे, निष्पत्ति निकालेंगे, वह बिलकुल ही उलटी होगी। एक घर में अंधेरा है। तलवारें लेकर हम घर में घुस जाएं और अंधेरे को बाहर निकालने की कोशिश करें। तलवारें चलाएं, अंधेरे को काटें- पीटें। अंधेरा बाहर नहीं निकलेगा। थक जाएंगे, हार जाएंगे, जिंदगी गंवा देंगे, अंधेरा बाहर नहीं निकलेगा। क्यों ? तो | शायद सारी मेहनत करने के बाद हम बैठकर सोचें कि अंधेरा बहुत शक्तिशाली है, इसलिए बाहर नहीं निकलता। तर्क अनेक बार ऐसे गलत निष्कर्षों में ले जाता है, जो ठीक दिखाई पड़ते हैं; यही उनका खतरा है। अब यह बिलकुल ठीक | दिखाई पड़ता है कि इतनी मेहनत की और अंधेरा नहीं निकला, | इसका मतलब साफ है कि मेहनत कम पड़ रही है, अंधेरा ज्यादा शक्तिशाली है। सचाई उलटी है। अगर अंधेरा शक्तिशाली हो, तब तो किसी तरह निकाला जा सकता है। शक्ति को निकालने के लिए बड़ी शक्ति ईजाद की जा सकती है। अंधेरा है ही नहीं; यही उसकी शक्ति है। वह है ही नहीं, | इसलिए आप उसको शक्ति से निकाल नहीं सकते। वह नान| एक्झिस्टेंशियल है, उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। और जिसका 282 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IITRA विषाद की खाई से ब्राह्मी-स्थिति के शिखर तक पर अस्तित्व नहीं है, उसे तलवार से न काटा जा सकता है, न धक्के से | | चोरियां न कर ले। जाट का लड़का जब चोरी करने जाता है, तो कभी निकाला जा सकता है। असल में अंधेरा सिर्फ एब्सेंस है किसी चीज | | उसके मन में नहीं आता कि बुरा कर रहा है। अंतःकरण उसके पास की, अंधेरा अपने में कुछ भी नहीं है। अंधेरा सिर्फ अनुपस्थिति है | | भी है, आपके पास ही नहीं है। लेकिन सोशल जो बिल्ट-इन आपके प्रकाश की; बस। | भीतर डाली गई धारणा है, वह उसके पास नहीं है। इसलिए आप अंधेरे के साथ सीधा कुछ भी नहीं कर सकते हैं। | मेरे एक मित्र पख्तून इलाके में घूमने गए थे। तो पेशावर में उन्हें और अंधेरे के साथ कुछ भी करना हो, तो प्रकाश के साथ कुछ मित्रों ने कहा कि पख्तून इलाके में जा रहे हैं, जरा सम्हलकर बैठना। करना पड़ता है। प्रकाश जलाएं, तो अंधेरा नहीं होता। प्रकाश | जीप तो ले जा रहे हैं, लेकिन होशियारी रखना। उन्होंने कहा, क्या, बुझाएं, तो अंधेरा हो जाता है। सीधा अंधेरे के साथ कुछ भी नहीं | खतरा क्या है ? हमारे पास कुछ है नहीं लूटने को। उन्होंने कहा कि किया जा सकता है, क्योंकि अंधेरा नहीं है। और जो नहीं है, उसके नहीं, यह खतरा नहीं है। खतरा यह है कि पख्तून लड़के अक्सर साथ जो सीधा कुछ करने में लग जाएगा, वह अपने जीवन को ऐसे सड़कों पर निशाना सीखने के लिए लोगों को गोली मार देते उलझाव में डाल देता है, जिसके बाहर कोई भी मार्ग नहीं होता। वह हैं—निशाना सीखने के लिए; दुश्मन को नहीं! पख्तून लड़के एब्सर्डिटी में पड़ जाता है। निशाना सीखने के लिए सड़क के किनारे से चलती हुई कार में अंतःकरण अगर शुद्ध है, तो अंतःकरण को शुद्ध करने की सब | गोली मारकर देखते हैं कि निशाना लगा कि नहीं। मित्र तो बहत चेष्टा खतरनाक है; अंधेरे को निकालने जैसी चेष्टा है। क्योंकि जो | घबड़ा गए। उन्होंने कहा कि आप क्या कहते हैं, निशाना लगाने के नहीं है अशुद्धि, उसे निकालेंगे कैसे? सांख्य कहता है, अंतःकरण | लिए! तो क्या उनके पास कोई अंतःकरण नहीं है? अशुद्ध नहीं है। और अगर अंतःकरण भी अशुद्ध हो सकता है, तो ___ अंतःकरण तो पख्तून के पास भी है। अंतःकरण किसी की बपौती इस जगत में फिर शुद्धि का कोई उपाय नहीं है। फिर शुद्ध कौन । | नहीं है। लेकिन पख्तून के पास, जिसको हिंसा-अहिंसा का करेगा? क्योंकि जो शुद्ध कर सकता था, वह अशुद्ध हो गया है। सामाजिक बोध कहते हैं, उसे डालने का कोई बचपन से प्रयास नहीं ___ अंतःकरण अशुद्ध नहीं है। अगर ठीक से समझें, तो अंतःकरण किया गया है। ही शुद्धि है—दि वेरी प्योरीफिकेशन, दि वेरी प्योरिटी। अंतःकरण । एक हिंदू को कहें कि चचेरी बहन से शादी कर ले, तो उसका शुद्ध ही है। लेकिन अंतःकरण का हमें कोई पता नहीं है कि क्या है। | अंतःकरण इनकार करता है, मुसलमान का नहीं करता। कारण यह आप किस चीज को अंतःकरण जानते हैं? नहीं है कि मुसलमान के पास अंतःकरण नहीं है। सिर्फ चचेरी बहन अंग्रेजी में एक शब्द है, कांशिएंस। और गीता के जिन्होंने भी से शादी करने की धारणा का भेद है। वह समाज देता है। वह अनुवाद किए हैं, उन्होंने अंतःकरण का अर्थ कांशिएंस किया है। अंतःकरण नहीं है। उससे गलत कोई अनुवाद नहीं हो सकता। कांशिएंस अंतःकरण समाज ने एक इंतजाम किया है, बाहर अदालत बनाई है और नहीं है। कांशिएंस अंतःकरण का धोखा है। इसे थोड़ा समझ लेना भीतर भी एक अदालत बनाई है। समाज ने पुख्ता इंतजाम किया है जरूरी होगा, क्योंकि वह बहुत गहरे, रूट्स में बैठ गई भ्रांति है कि बाहर से वह कहता है कि चोरी करना बुरा है; वहां पुलिस है, सारे जगत में। अदालत है। लेकिन इतना काफी नहीं है, क्योंकि भीतर भी एक जहां भी गीता पढ़ी जाती है, वहां अंतःकरण का अर्थ कांशिएंस पुलिसवाला होना चाहिए, जो पूरे वक्त कहता रहे कि चोरी करना कर लिया जाता है। हम भी अंतःकरण से जो मतलब लेते हैं, वह बुरा है। क्योंकि बाहर के पुलिसवाले को धोखा दिया जा सकता है। क्या है? आप चोरी करने जा रहे हैं। भीतर से कोई कहता है, चोरी | उस हालत में भीतर का पुलिसवाला काम पड़ सकता है। मत करो, चोरी बुरी है। आप कहते हैं, अंतःकरण बोल रहा है। यह कांशिएंस अंग्रेजी का जो शब्द है, उसको हमें कहना चाहिए कांशिएंस है, अंतःकरण नहीं। यह सिर्फ समाज के द्वारा डाली गई | | अंतस-चेतन, अंतःकरण नहीं। सांख्य का अंतःकरण, बात ही और धारणा है, अंतःकरण नहीं। क्योंकि अगर समाज चोरों का हो, तो | है। अंतःकरण को अगर अंग्रेजी में अनुवादित करना हो, तो ऐसा नहीं होगा। ऐसे समाज हैं। | कांशिएंस शब्द नहीं है। अंग्रेजी में कोई शब्द नहीं है ठीक। क्योंकि जाट हैं। तो जाट लड़के की शादी नहीं होती, जब तक वह दो-चार अंतःकरण का मतलब होता है, दि इनरमोस्ट इंस्ट्रमेंट, अंतरतम 283 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 उपकरण, अंतरतम - जहां तक अंतस में जाया जा सकता है भीतर - वह जो आखिरी है भीतर, वही अंतःकरण है। इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब आत्मा नहीं। अब यह बड़े मजे की बात है, अंतःकरण का मतलब आत्मा नहीं है। क्योंकि आत्मा तो वह है, जो बाहर और भीतर दोनों में नहीं है, दोनों के बाहर है। अंतःकरण वह है, आत्मा के निकटतम जो उपकरण है, जिसके द्वारा हम बाहर से जुड़ते हैं। समझ लें कि आत्मा के पास एक दर्पण है, जिसमें आत्मा प्रतिफलित होती है, वह अंतःकरण है, निकटतम । आत्मा में पहुंचने के लिए अंतःकरण आखिरी सीढ़ी है। और अंतःकरण आत्मा के इतने निकट है कि अशुद्ध नहीं हो सकता । आत्मा की यह निकटता उसकी शुद्धि है। यह अंतःकरण कांशिएंस नहीं है, जो हमारे भीतर, जब हम सड़क पर चलते हैं और बाएं न चलकर दाएं चल रहे हों, तो भीतर से कोई कहता है कि दाएं चलना ठीक नहीं है, बाएं चलना ठीक है। यह अंतःकरण नहीं है। यह केवल सामाजिक आंतरिक व्यवस्था है । यह अंतस - चेतन है, जो समाज ने इंतजाम किया है, ताकि आपको व्यवस्था और अनुशासन दिया जा सके। समाज अलग होते हैं, व्यवस्था अलग हो जाती है। अमेरिका में चलते हैं, तो बाएं चलने की जरूरत नहीं है। वहां अंतःकरणजिसको हम अंतःकरण कहते हैं—वह कहता है, दाएं चलो, बाएं मत चलना। क्योंकि नियम बाएं चलने का नहीं है, दाएं चलने का है। सामाजिक व्यवस्था की जो आंतरिक धारणाएं हैं, वे अंतःकरण नहीं हैं। तो अंतःकरण का हमें पता ही नहीं है, इसका मतलब यह हुआ । हम जिसे अंतःकरण समझ रहे हैं, वह बिलकुल ही भ्रांत है। अंतःकरण नैतिक धारणा का नाम नहीं है, अंतःकरण मारैलिटी नहीं है। क्योंकि मारैलिटी हजार तरह की होती हैं, अंतःकरण एक ही तरह का होता है। हिंदू की नैतिकता अलग है, मुसलमान की नैतिकता अलग, जैन की नैतिकता अलग, ईसाई की नैतिकता अलग, अफ्रीकन की अलग, चीनी की अलग। नैतिकताएं हजार हैं, अंतःकरण एक है। अंतःकरण शुद्ध ही है। आत्मा के इतने निकट रहकर कोई चीज अशुद्ध नहीं हो सकती। जितनी दूर होती है आत्मा से, उतनी अशुद्ध की संभावना बढ़ती है। अगर ठीक से समझें, मोर दि डिस्टेंस, मोर दि इंप्योरिटी । जैसे एक दीया जल रहा है यहां दीए की बत्ती जल रही है । बत्ती के बिलकुल पास रोशनी का वर्तुल है, वह शुद्धतम है । फिर बत्ती की रोशनी आगे गई; फिर धूल है, हवा है, और | रोशनी अशुद्ध हुई। फिर और दूर गई, फिर और अशुद्ध हुई; फिर और दूर गई, फिर और अशुद्ध हुई। और थोड़ी दूर जाकर हम देखते | हैं कि रोशनी नहीं है, अंधेरा है। एक-एक कदम रोशनी जा रही है और अंधेरे में डूबती जा रही है। शरीर तक आते-आते सब चीजें अशुद्ध हो जाती हैं; आत्मा तक जाते-जाते सब शुद्ध हो जाती हैं। शरीर के निकटतम इंद्रियां हैं। इंद्रियों के निकटतम अंतस इंद्रियां हैं। अंतस इंद्रियों के निकटतम स्मृति है। स्मृति के निकटतम बुद्धि है - प्रायोगिक । प्रायोगिक, एप्लाइड इंटलेक्ट के निकटतम अप्रायोगिक बुद्धि है। अप्रायोगिक बुद्धि के नीचे अंतःकरण है। अंतःकरण के नीचे आत्मा है। आत्मा के नीचे परमात्मा है। ऐसा अगर खयाल में आ जाए, तो सांख्य कहता है कि अंतःकरण शुद्ध ही है। वह कभी अशुद्ध हुआ नहीं। लेकिन हमने अंतःकरण को जाना नहीं है, इसलिए लोग पूछते, अंतःकरण कैसे शुद्ध हो ? अंतःकरण शुद्ध नहीं किया जा सकता। करेगा कौन? और जो शुद्ध है ही, वह शुद्ध कैसे किया जा सकता है? पर जाना जा सकता है कि शुद्ध है। कैसे जाना जा सकता है? एक ही रास्ता है - पीछे हटें, पीछे हटें, अपने को पीछे हटाएं, ' अपनी चेतना को सिकोड़ें, जैसे कछुआ अपने अंगों को सिकोड़ | लेता है । शरीर को भूलें, इंद्रियों को भूलें । छोड़ें बाहर की परिधि को, और भीतर चलें। अंतस - इंद्रियों को छोड़ें, और भीतर चलें। स्मृति को छोड़ें, और भीतर चलें । भीतर याद आ रही है, शब्द आ रहे हैं, विचार आ रहे हैं, स्मृति आ रही है । छोड़ें; कहें कि यह भी मैं नहीं हूं। कहें कि नेति नेति, यह भी मैं नहीं हूं। हैं भी नहीं, क्योंकि जो देख रहा है भीतर कि यह स्मृति से विचार आ रहा है, वह अन्य है, वह भिन्न है, वह पृथक है। जानें कि यह मैं नहीं हूं। आप मुझे दिखाई पड़ रहे हैं। निश्चित ही, आप मुझे दिखाई पड़ रहे हैं, पक्का हो गया कि मैं आप नहीं हूं। नहीं तो देखेगा कौन | आपको ? देखने वाला और दिखाई पड़ने वाला भिन्न हैं, दृश्य और द्रष्टा भिन्न हैं। | यह सांख्य का मौलिक साधना - सूत्र है, दृश्य और द्रष्टा भिन्न हैं। फिर सांख्य की सारी साधना इसी भिन्नता के ऊपर गहरे उतरती है । फिर सांख्य कहता है, जो भी चीज दिखाई पड़ने लगे, समझना | कि इससे भिन्न हूं। भीतर से देखें, शरीर दिखाई पड़ता है । और 284 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9- विषाद की खाई से ब्राह्मी-स्थिति के शिखर तक mm भीतर देखें, हृदय की धड़कन सुनाई पड़ती है। आप भिन्न हैं। और | के भीतर गए ही नहीं। घर के गर्भ में परम शुद्धि का वास है। उस भीतर देखें, विचार दिखाई पड़ते हैं। आप भिन्न हैं। और भीतर देखें, परम शुद्धि के बीच आत्मा और उस आत्मा के भी बीच परमात्मा और भीतर देखें, समाज की धारणाएं हैं, चित्त पर बहुत सी परतें है। पर वहां गए ही नहीं हम कभी। घर के बाहर घूम रहे हैं। और हैं-वे सब दिखाई पड़ती हैं। और उतरते जाएं। आखिर में उस घर के बाहर की गंदगी है। जगह पहुंच जाते हैं, जहां अंतःकरण है, सब शुद्धतम है। लेकिन एक आदमी घर के बाहर घूम रहा है और सड़क पर गंदगी पड़ी शुद्धतम, वह भी भिन्न है; वह भी अलग है। इसीलिए उसको | है। वह कहता है इस गंदगी को देखकर कि मेरे घर के अंदर भी आत्मा नहीं कहा; उसको भी अंतःकरण कहा। क्योंकि आत्मा उस सब गंदा होगा, उसको मैं कैसे शुद्ध करूं? हम उसे कहते हैं, यह शुद्धतम के भी पार है। शुद्धतम का अनुभव कैसे होगा? आपको | | गंदगी घर के बाहर है। तुम घर के भीतर चलो; वहां कोई गंदगी अशुद्धतम का अनुभव कैसे होता है? नहीं है। तुम इस गंदगी से आब्सेस्ड मत हो जाओ। यह घर के बाहर कोई मुझसे आकर पूछता है, शुद्ध का हम अनुभव कैसे करेंगे? | होने की वजह से है। यहां तक वह शुद्धि की धारा नहीं पहुंच पाती तो उसको मैं कहता हूं कि तुम बगीचे की तरफ चले। अभी बगीचा है, माध्यमों में विकृत हो जाती है, अनेक माध्यमों में विकृत हो जाती नहीं आया, लेकिन ठंडी हवा मालूम होने लगी। तुम्हें कैसे पता चल है। अंदर चलो, भीतर चलो, गो बैक, वापस लौटो। जाता है कि ठीक चल रहे हैं? क्योंकि ठंडी हवा मालूम होने लगी। तो कृष्ण कह रहे हैं, अंतःकरण शुद्ध होता है, ऐसा जिस दिन फिर तुम और बढ़ते हो; सुगंध भी आने लगी; तब तुम जानते हो जाना जाता है, उसी दिन चित्त के सब विक्षेप, चित्त की सारी कि और निकट है बगीचा। अभी बगीचा आ नहीं गया है। शायद विक्षिप्तता खो जाती है—खोनी नहीं पड़ती। अभी दिखाई भी नहीं पड़ रहा हो। और निकट बढ़ते हो, अब इसे ऐसा समझें, एक पहाड़ के किनारे एक खाई में हम बसे हैं। हरियाली दिखाई भी पड़ने लगी। अब बगीचा और निकट आ गया अंधेरा है बहुत। सीलन है। सब गंदा है। पहाड़ को घेरे हुए बादल है। अभी फिर भी हम बगीचे में नहीं पहुंच गए हैं। फिर हम बगीचे घूमते हैं। वे वादी को, खाई को ढक लेते हैं। उनकी वजह से ऊपर के बिलकुल द्वार पर खड़े हो गए। सुगंध है, शीतलता है, हरियाली | | का सूर्य भी दिखाई नहीं पड़ता। उनकी काली छायाएं डोलती हैं है, चारों तरफ शांति और सन्नाटा और एक वेल बीइंग, एक | घाटी में और बड़ी भयानक मालूम होती हैं। स्वास्थ्य का भाव घेर लेता है। और एक आदमी शिखर पर खड़ा है, वह कहता है, तुम पहाड़ ऐसे ही जब कोई भीतर जाता है, तो आत्मा के जितने निकट चढ़ो। लेकिन हम नीचे से पूछते हैं कि इन बादलों से छुटकारा कैसे पहंचता है, उतना ही शांत, उतना ही मौन, उतना ही प्रफल्लित. होगा? ये काली छायाएं सारी घाटी को घेरे हए हैं: इनसे मक्ति कैसे उतना ही प्रसन्न, उतना ही शीतल होने लगता है। जैसे-जैसे भीतर | होगी? वह आदमी कहता है, तुम इनकी फिक्र छोड़ो, तुम पहाड़ चलता है, उतना ही प्रकाशित, उतना ही आलोक से भरने लगता | चढ़ो। तुम उस जगह आ जाओगे, जहां तुम पाओगे कि बदलियां है। जैसे-जैसे भीतर चलने लगता है, कदम-कदम भीतर सरकता | नीचे रह गई हैं और तुम ऊपर हो गए हो। और जिस दिन तुम है, कहता है, यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं। पहचानता | पाओगे कि बदलियां नीचे रह गई हैं और तुम ऊपर हो गए हो, उस है, रिकग्नाइज करता है-यह भी नहीं। यह दृश्य हो गया, तो मैं | दिन बदलियां तुम पर कोई छाया नहीं डालतीं। नहीं हूं। मैं तो वहां तक चलूंगा, जहां सिर्फ द्रष्टा रह जाए। तो द्रष्टा | | बदलियां सिर्फ उन्हीं पर छायाएं डालती हैं, जो बदलियों के नीचे जब अंत में रह जाए, उसके पहले जो मिलता है, वह अंतःकरण है। हैं। बदलियां उन पर छाया नहीं डालती, जो बदलियों के ऊपर हैं। अंतःकरण जो है, वह अंतर्यात्रा का आखिरी पड़ाव है। आखिरी | अगर कभी हवाई जहाज में आप उड़े हैं, तो बदलियां फिर आप पर पड़ाव, मंजिल नहीं। मंजिल उसके बाद है। . छाया नहीं डालतीं। बदलियों का वितान नीचे रह जाता है, आप यह अंतःकरण शुद्ध ही है, इसीलिए सांख्य की बात कठिन है।। ऊपर हो जाते हैं। लेकिन पृथ्वी पर बदलियां बहुत छाया डालती हैं। कोई हमें समझाए कि शुद्ध कैसे हो, तो समझ में आता है। सांख्य | मन के जो विक्षेप हैं, विक्षिप्तताएं हैं, विकार हैं, वे बदलियों कहता है, तुम शद्ध हो ही। तुम कभी गए ही नहीं वहां तक जानने, की तरह हैं। और हम पर छाया डालते हैं, क्योंकि हम घाटियों में जहां शुद्धि है। तुम बाहर ही बाहर घूम रहे हो घर के। तुम कभी घर | जीते हैं। 285/ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 कृष्ण कहते हैं, चलो अंतःकरण की शुद्धि की यात्रा पर। जब तुम अंतःकरण पर पहुंचोगे, तब तुम हंसोगे कि ये बदलियां, जो बड़ी पीड़ित करती थीं, अब ये नीचे छूट गई हैं। अब इनका कोई खयाल भी नहीं आता; अब ये कोई छाया भी नहीं डालतीं । अब इनसे कोई संबंध ही नहीं है। अब सूरज आमने-सामने है। अब बीच में कोई बदलियों का वितान नहीं है, कोई जाल नहीं है। विचार घाटियों के ऊपर बादलों की भांति हैं। जो अंतःकरण तक पहुंचता है, वह शिखर पर पहुंच जाता है। वहां सूर्य का प्रकट प्रकाश है। यह यात्रा है, यह शुद्धि नहीं है। यह यात्रा है, शुद्धि फल है। पता चलता है कि शुद्ध है। कृष्ण कह रहे हैं, अंतःकरण शुद्ध है, वहां चित्त का कोई विक्षेप नहीं है। नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना । न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ।। ६६ ।। अयुक्त पुरुष के अंतःकरण में श्रेष्ठ बुद्धि नहीं होती है और उसके अंतःकरण में भावना भी नहीं होती है और बिना भावना वाले पुरुष को शांति भी नहीं होती है। फिर शांतिरहित पुरुष ! को सुख कैसे हो सकता है ? अ युक्त पुरुष को शांति नहीं । युक्त पुरुष को शांति है। अयुक्त पुरुष क्या ? युक्त पुरुष क्या? अयुक्त पुरुष को भावना नहीं, शांति नहीं, आनंद नहीं। यह युक्त और अयुक्त का क्या अर्थ है ? अयुक्त का अर्थ है, अपने से ही अलग, अपने होने से ही दूर पड़ गया, अपने से ही बाहर पड़ गया, अपने ही टूट गया— स्प्लिट | लेकिन अपने से कोई कैसे टूट सकता है? अपने से कोई कैसे अयुक्त हो सकता है? अपने से टूटना तो असंभव है। अगर हम अपने से ही टूट जाएं, इससे बड़ी असंभव बात कैसे हो सकती है ! क्योंकि अपने का मतलब ही यह होता है कि अगर मैं अपने से ही टूट जाऊं, तो मेरे दो अपने हो गए - एक जिससे मैं टूट गया, और एक जो मैं टूटकर हूं। अपने से टूटना हो नहीं सकता। · और अपने से जुड़ने का भी क्या मतलब, अपने से युक्त होने का भी क्या मतलब, जब टूट ही नहीं सकता हूं! तो फिर बात कहां है ? सच में कोई अपने से टूटता नहीं, लेकिन अपने से टूटता है, ऐसा सोच सकता है, ऐसा विचार सकता है। ऐसे भाव, ऐसे सम्मोहन से भर सकता है कि मैं अपने से टूट गया हूं। आप रात सोए । सपना देखा कि अहमदाबाद में नहीं, कलकत्ते में हूं। कलकत्ते में चले नहीं गए। ऐसे सोए-सोए कलकत्ता जाने | का अभी तक कोई उपाय नहीं है। अपनी खाट पर अहमदाबाद में ही पड़े हैं। लेकिन स्वप्न देख रहे हैं कि कलकत्ता पहुंच गए। सुबह जल्दी काम है अहमदाबाद में। अब चित्त बड़ा घबड़ाया, यह तो कलकत्ता आ गए। सुबह काम है। अब वापस अहमदाबाद जाना है! अब सपने में लोगों से पूछ रहे हैं कि अहमदाबाद कैसे जाएं! | ट्रेन पकड़ें, हवाई जहाज पकड़ें, बैलगाड़ी से जाएं। जल्दी पहुंचना है, सुबह काम है और यह रात गुजरी जाती है। आपकी घबड़ाहट उचित है, अनुचित तो नहीं। अहमदाबाद में काम है; कलकत्ते में हैं। बीच में फासला बड़ा है। सुबह करीब आती जाती है। वाहन खोज रहे हैं। लेकिन क्या अहमदाबाद आने | के लिए वाहन की जरूरत पड़ेगी? क्योंकि अहमदाबाद से आप गए नहीं हैं क्षणभर को भी, इंचभर को भी । न भी मिले वाहन, तो जैसे ही नींद टूटेगी, पाएंगे कि लौट आए। मिल जाए, तो भी पाएंगे कि लौट आए। असल में गए ही नहीं हैं, लौट आना शब्द ठीक नहीं | है | सिर्फ गए के भ्रम में थे। तो जब कृष्ण कहते हैं, अयुक्त और युक्त, तो वास्तविक फर्क नहीं है। कोई अयुक्त तो होता नहीं कभी, सिर्फ अयुक्त होने के भ्रम में होता है, स्वप्न में होता है। सिर्फ एक ड्रीम क्रिएशन है, एक स्वप्न का भाव है कि अपने से अलग हो गया हूं। युक्त पुरुष वह है, जो इस स्वप्न से जाग गया और उसने देखा कि मैं तो अपने से कभी भी अलग नहीं हुआ हूं। अयुक्त पुरुष में भावना नहीं होती। क्यों नहीं होती? भावना से मतलब आप मत समझ लेना आपकी भावना, क्योंकि हम सब अयुक्त पुरुष हैं, हममें भावना बहुत है। इसलिए कृष्ण इस भावना की बात नहीं कर रहे होंगे, जो हममें है। एक आदमी कहता है कि भावना बहुत है । पत्नी मर गई है, रो रहा है। बेटा बीमार पड़ा है, आंसू गिरा रहा है। कहता है, भावना बहुत है। यह भावना नहीं है, यह फीलिंग नहीं है, यह सिर्फ सेंटिमेंटलिटी है। फर्क क्या है? अगर यह भावना नहीं है, सिर्फ 286 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Om विषाद की खाई से ब्राह्मी-स्थिति के शिखर तक + भावना का धोखा है, तो फर्क क्या है? | मत करो; भाग जाओ यहां से; रात मेरी नींद हराम मत कर देना। . एक आदमी रो रहा है अपने बेटे के पास बैठा हुआ—मेरा बेटा फिर रात पेट की तकलीफ से वह लड़का चीखने लगा। तो उसने बीमार है और चिकित्सक कहते हैं, बचेगा नहीं, मर जाएगा। रो रहा | नौकरों से उसे उठवाकर सड़क पर फिंकवा दिया। है; छाती पीट रहा है। उसके प्राणों पर बड़ा संकट है। तभी हवा का | | फिर सुबह वह मर गया। सुबह जब वह जमींदार उठा, तो वह एक झोंका आता है और टेबल से एक कागज उड़कर उसके पैरों | | लड़का मरा हुआ पड़ा था। लोगों की भीड़ इकट्ठी थी। लोग कह रहे पर नीचे गिर जाता है। वह उसे यूं ही उठाकर देख लेता है। पाता है थे, कौन है, क्या है, कुछ पता लगाओ। किसी ने उसके खीसे में कि उसकी पत्नी को लिखा किसी का प्रेम-पत्र है। पता चलता है खोज-बीन की तो चिट्ठी मिल गई। तब तो उन्होंने कहा कि अरे, पत्र को पढ़कर कि बेटा अपना नहीं है, किसी और से पैदा हुआ है। वह जमींदार जिसको खोज रहा है, यह वही है। यह जमींदार को सब भावना विदा हो गई। कोई भावना न रही। दवाई की बोतलें हटा | लिखी गई चिट्ठी-पत्री, यह अखबारों की कटिंग! यह उसका देता है। जहर की बोतलें रख देता है। रात एकांत में गरदन दबा देता | लड़का है। है। वही आदमी जो उसे बचाने के लिए कह रहा था, वही आदमी | वह जमींदार बाहर बैठकर अपना हुक्का पी रहा है। जैसे ही गरदन दबा देता है। उसने सुना कि मेरा लड़का है, एकदम भावना आ गई। अब वह भावना का क्या हुआ? यह कैसी भावना थी? यह भावना नहीं | छाती पीट रहा है, अब वह रो रहा है। अब उस लड़के को-मरे थी। यह मेरे के लिए भावना का मिथ्या भ्रम था। मेरा नहीं, तो बात | को-कमरे के अंदर ले गया है। जिंदा को रात नहीं ले गया। मरे समाप्त हो गई। | को दिन में कमरे के अंदर ले गया। अब उसकी सफाई की जा रही टाल्सटाय ने एक कहानी लिखी है। लिखा है कि एक आदमी | है—मरे पर। मरे को नए कपड़े पहनाए जा रहे हैं! वह जमींदार का का बेटा बहुत दिन से घर के बाहर चला गया। बाप ही क्रोधित हुआ | बेटा है। अब उसको घर ले जाने की तैयारी चल रही है। और रात था, इसलिए चला गया था। फिर बाप बूढ़ा होने लगा। बहुत | उसने कई बार प्रार्थना की, मुझे भीतर आने दो, तो उसको नौकरों परेशान था। अखबारों में खबर निकाली, संदेशवाहक भेजे। फिर | से सड़क पर फिंकवा दिया। यह भावना है? उस बेटे का पत्र आ गया कि मैं आ रहा हूं। आपने बुलाया, तो मैं | नहीं, यह भावना का धोखा है। भावना मेरे-तेरे से बंधी नहीं आता हूं। मैं फला-फलां दिन, फला-फलां ट्रेन से आ जाऊंगा। | होती, भावना भीतर का सहज भाव है। अगर भावना होती, तो उसे स्टेशन दूर है, देहात में रहता है बाप। अपनी बग्घी कसकर वह कमरे के बाहर निकालना मुश्किल होता। अगर भावना होती, तो उसे लेने आया। मालगुजार है, जमींदार है। लेकिन उसके आने पर रात उसके पेट में दर्द है, सर्द रात है, बर्फ पड़ती है, उसे बाहर पता चला कि ट्रेन आ चुकी है। वह सोचता था चार बजे आएगी, बिठाना मुश्किल होता। यह सवाल नहीं है कि वह कौन है। सवाल वह दो बजे आ गई। तो धर्मशाला में ठहरा जाकर। अब अपने बेटे | यह है कि भाव है भीतर! की तलाश करे कि वह कहां गया! ध्यान रहे, भावना स्वयं की स्फुरणा है। दूसरे का सवाल नहीं धर्मशाला में कोई जगह खाली नहीं है। धर्मशाला के मैनेजर को · कि वह कौन है। मर रहा है एक आदमी, नौकरों से फिंकवा दिया उसने कहा कि कोई भी जगह तो खाली करवाओ ही। वह जमींदार उसको उठवाकर! है। तो उसने कहा कि अभी एक कोई भिखमंगा-सा आदमी आकर टाल्सटाय ने जब यह कहानी लिखी, तो उसने अपने संस्मरणों ठहरा है इस कमरे में-उसको निकाल बाहर कर दें? उसने कहा | | में लिखा है कि यह कहानी मेरी एक अर्थों में आटोबायोग्राफी भी कि निकाल बाहर करो। उसे पता नहीं कि वह उसका बेटा है। उसे | | है। यह मेरा आत्मस्मरण भी है। क्योंकि खुद टाल्सटाय शाही निकाल बाहर कर दिया गया। वह अपने कमरे में आराम से...। परिवार का था। उसने आदमी भेजे कि गांव में खोजो। उसने लिखा है, मेरी मां मैं समझता था बहुत भावनाशील है। वह बेटा बाहर सीढ़ियों पर बैठा है। सर्द रात उतरने लगी। उस | लेकिन यह तो मुझे बाद में उदघाटन हुआ कि उसमें भावना जैसी गरीब लड़के ने बार-बार कहा कि मुझे भीतर आ जाने दें, बर्फ पड़ कोई चीज ही नहीं है। क्यों समझता था कि भावना थी? क्योंकि रही है और मुझे बहुत दर्द है पेट में। पर उसने कहा कि यहां गड़बड़ थिएटर में उसके चार-चार रूमाल भीग जाते थे आंसुओं से। जब 287 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ am गीता दर्शन भाग-1 -AAR नाटक चलता और कोई दुख, ट्रेजेडी होती, तो वह ऐसी धुआंधार पूछते हैं! मैं तो पिता हूं, मैं तो पति हूं, मैं तो क्लर्क है, मैं तो मालिक रोती थी कि नौकर रूमाल लिए खड़े रहते-शाही घर की लड़की हूं। लेकिन ये सब फंक्शंस हैं। यह सब दूसरों से जुड़े होना है। थी-तत्काल रूमाल बदलने पड़ते थे। चार-चार, छह-छह, | __ अयुक्त व्यक्ति दूसरों से जुड़ा होता है। जो दूसरों से जुड़ा होता आठ-आठ रूमाल एक नाटक, एक थिएटर में भीग जाते। तो है, उसमें भावना कभी पैदा नहीं होती। क्योंकि भावना तभी पैदा टाल्सटाय ने लिखा है कि मैं उसके बगल में बैठकर देखा करता | होती है, जब कोई अपने से जुड़ता है। जब अपने भीतर के झरनों था, मेरी मां कितनी भावनाशील! से कोई जुड़ता है, तब भावना का स्फुरण होता है। जो दूसरों से लेकिन जब मैं बड़ा हुआ तब मुझे पता चला कि उसकी बग्घी | | जुड़ता है, उसमें भावना नहीं होती–एक। जो दूसरों से जुड़ा होता बाहर छह घोड़ों में जुती खड़ी रहती थी और आज्ञा थी कि कोचवान | है, वह सदा अशांत होता है-दो। क्योंकि शांति का अर्थ ही अपने बग्घी पर ही बैठा रहे। क्योंकि कब उसका मन हो जाए थिएटर से भीतर जो संगीत की अनंत धारा बह रही है, उससे संयुक्त हो जाने जाने का, तो ऐसा न हो कि एक क्षण को भी कोचवान ढूंढ़ना पड़े। के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। बाहर बर्फ पड़ती रहती और अक्सर ऐसा होता कि वह थिएटर में | शांति का अर्थ है, इनर हार्मनी; शांति का अर्थ है, मैं अपने भीतर नाटक देखती, तब तक एक-दो कोचवान मर जाते। उनको फेंक तृप्त हूं, संतुष्ट हूं। अगर सब भी चला जाए, चांद-तारे मिट जाएं, दिया जाता, दूसरा कोचवान तत्काल बिठाकर बग्घी चला दी जाती। आकाश गिर जाए, पृथ्वी चली जाए, शरीर गिर जाए, मन न रहे, वह औरत बाहर आकर देखती कि मुरदे कोचवान को हटाया जा | फिर भी मैं जो हूं, काफी हूं-मोर दैन इनफ–जरूरत से ज्यादा, रहा है और जिंदा आदमी को बिठाया जा रहा है। और वह थिएटर काफी हूं। के लिए रोती रहती, वह थिएटर में जो ट्रेजेडी हो गई! पाम्पेई नगर में, पाम्पेई का जब विस्फोट हुआ, ज्वालामुखी तो टाल्सटाय ने लिखा है कि एक अर्थ में यह कहानी मेरी फूटा, तो सारा गांव भागा। आधी रात थी। गांव में एक फकीर भी आटोबायोग्राफिकल भी है, आत्म-कथ्यात्मक भी है। ऐसा मैंने | | था। कोई अपनी सोने की तिजोरी, कोई अपनी अशर्फियों का अपनी आंख से देखा है। तब मझे पता चला कि भावना कोई और बंडल, कोई फर्नीचर, कोई कुछ, कोई कुछ, जो जो बचा सकता चीज होगी। फिर यह चीज भावना नहीं है। है, लोग लेकर भागे। फकीर भी चला भीड़ में; चला, भागा नहीं। जिसको हम भावना कहते हैं, कृष्ण उसको भावना नहीं कह रहे। भागने के लिए या तो पीछे कुछ होना चाहिए या आगे कुछ होना भावना उठती ही उस व्यक्ति में है, जो अपने से संयुक्त है, जो चाहिए। भागने के लिए या तो पीछे कुछ होना चाहिए, जिससे अपने में युक्त है। युक्त यानी योग को उपलब्ध, युक्त यानी जुड़ भागो; या आगे कुछ होना चाहिए, जिसके लिए भागो। गया जो, संयुक्त। अयुक्त अर्थात वियुक्त–जो अपने से जुड़ा सारा गांव भाग रहा है, फकीर चल रहा है। लोगों ने उसे धक्के हुआ नहीं है। वियुक्त सदा दूसरों से जुड़ा रहता है। युक्त सदा अपने | भी दिए और कहा कि यह कोई चलने का वक्त है! भागो। पर उसने से जुड़ा रहता है। कहा, किससे भागू और किसके लिए भागू? लोगों ने कहा, पागल वियुक्त सदा दूसरों से जुड़ा रहता है। उसके सब लिंक दूसरों से | हो गए हो! यह कोई वक्त चलने का है। कोई टहल रहे हो तुम! होते हैं। वह किसी का पिता है, किसी का पति है, किसी का मित्र | यह कोई तफरीह हो रही है! है. किसी का शत्र है. किसी का बेटा है. किसी का भाई है. किसी उस आदमी ने कहा. लेकिन मैं किससे भागे। मेरे पीछे कछ की बहन है, किसी की पत्नी है। लेकिन खुद कौन है, इसका उसे | नहीं, मेरे आगे कुछ नहीं। लोगों ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा और कोई पता नहीं होता। उसकी अपने बाबत सब जानकारी दूसरों के | उससे कहा कि कुछ बचाकर नहीं लाए! उसने कहा, मेरे सिवाय बाबत जानकारी होता है। पिता है, अर्थात बेटे से कुछ संबंध है। | मेरे पास कुछ भी नहीं है। मैंने कभी कोई चीज बचाई नहीं, इसलिए पति है, यानी पत्नी से कोई संबंध है। उसकी अपने संबंध में सारी | खोने का उपाय नहीं है। मैं अकेला काफी हूं। खबर दूसरों से जुड़े होने की होती है। कोई रो रहा है कि मेरी तिजोरी छूट गई। कोई रो रहा है कि मेरा __ अगर हम उससे पूछे कि नहीं, तू पिता नहीं, भाई नहीं, मित्र यह छूट गया। कोई रो रहा है कि मेरा वह छूट गया। सिर्फ एक नहीं-तू कौन है ? हू आर यू? तो वह कहेगा, कैसा फिजूल सवाल | आदमी उस भीड़ में हंस रहा है। लोग उससे पूछते हैं, तुम हंस क्यों 1288| Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषाद की खाई से ब्राह्मी स्थिति के शिखर तक 4 रहे हो? क्या तुम्हारा कुछ छूटा नहीं ? वह कहता है कि मैं जितना था, उतना यहां भी हूं। मेरा कुछ भी नहीं छूटा है। उस अशांत भीड़ में अकेला वही आदमी है, जिसके पास कुछ भी नहीं है। बाकी सब कुछ न कुछ बचाकर लाए हैं, फिर भी अशांत हैं। और वह आदमी कुछ भी बचाकर नहीं लाया और फिर भी शांत है। बात क्या है? युक्त पुरुष शांत हो जाता है, अयुक्त पुरुष अशांत होता है । ज्ञानी युक्त होकर शांति को उपलब्ध हो जाता है। इंद्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते । तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ।। ६७ ।। तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। ६८ ।। क्योंकि, जल में वायु नाव को जैसे कंपित कर देता है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इंद्रियों के बीच में जिस इंद्रिय के साथ मन रहता है, वह एक ही इंद्रिय इस अयुक्त पुरुष की प्रज्ञा का हरण कर लेती है। इससे हे महाबाहो, जिस पुरुष की इंद्रियां सब प्रकार इंद्रियों के विषयों से वश में की हुई होती हैं, उसकी प्रज्ञा स्थिर होती है। जै से नाव चलती हो और हवा की आंधियों के झोंके उस नाव को डांवाडोल कर देते हैं; आंधियां तेज हों, तो नाव डूब भी जाती है; ऐसे ही कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, जिसके चित्त की शक्ति विषयों की तरफ विक्षिप्त होकर भागती है, उसका मन आंधी बन जाता है, उसका मन तूफान बन जाता है। उस आंधी और तूफान में शांति की, समाधि की, स्वयं की नाव डूब जाती है। लेकिन अगर आंधियां न चलें, तो नाव डगमगाती भी नहीं। अगर आंधियां बिलकुल न चलें, तो नाव के डूबने का उपाय ही नहीं रह जाता। ठीक ऐसे ही मनुष्यं का चित्त जितने ही झंझावात से भर जाता है वासनाओं के, जितने ही जोर से चित्त की ऊर्जा और शक्ति विषयों की तरफ दौड़ने लगती है, वैसे ही जीवन की नाव डगमगाने लगती और डूबने लगती है। ज्ञानी पुरुष इस सत्य को देखकर, इस सत्य को पहचानकर यह चित्त की वासना की आंधियों को नहीं दौड़ाता। क्या मतलब है? रोक लेता है? लेकिन आंधियां अगर रोकी जाएंगी, तो भी आंधियां ही रहेंगी। और दौड़ रही आंधियां शायद कम संघातक हों, रोकी गई आंधियां शायद और भी संघातक हो जाएं। तो क्या ज्ञानी पुरुष आंधियों को रोक लेता है, रिस्ट्रेन करता है? अगर रोकेगा, तो भी आंधियां आंधियां ही रहेंगी और रुकी आंधियों का वेग और भी बढ़ जाएगा। तो क्या करता है ज्ञानी पुरुष ? यह बहुत मजे की और समझने की बात है कि आंधियां रोकनी नहीं पड़तीं, सिर्फ चलानी पड़ती हैं। रोकनी नहीं पड़तीं, सिर्फ चलानी पड़ती हैं। आप न चलाएं, तो रुक जाती हैं। क्योंकि आंधियां कहीं बाहर से नहीं आ रही हैं, आपके ही सहयोग, कोआपरेशन से आ रही हैं। 289 मैं इस हाथ को हिला रहा हूं। इस हाथ को हिलने से मुझे रोकना नहीं पड़ता। जब रोकता हूं, तो उसका कुल मतलब इतना होता है कि अब नहीं हिलाता हूं। कोई हाथ अगर बाहर से हिलाया जा रहा हो, तो मुझे रोकना पड़े। मैं ही हिला रहा हूं, तो रोकने का क्या मतलब होता है ! शब्द में रोकना क्रिया बनती है, उससे भ्रांति पैदा होती है। यथार्थ में, वस्तुतः रोकना नहीं पड़ता, सिर्फ चलाता नहीं हूं कि हाथ रुक जाता है। एक झेन फकीर हुआ, उसका नाम था रिझाई। एक आदमी उसके पास गया और उसने कहा कि मैं कैसे रोकूं? उस फकीर ने कहा, | गलत सवाल मेरे पास पूछा तो ठीक नहीं होगा। यह डंडा देखा है ! रिझाई एक डंडा पास रखता था । और वह दुनिया बहुत कमजोर है, जहां फकीर के पास डंडा होता। कृष्ण कुछ कम डंडे की बात नहीं करते! एक मित्र कल मुझसे कह रहे थे कि मेरी हालत भी अर्जुन जैसी है । आप मुझे सम्हालना! मेरे मन में हुआ कि उनसे कहूं कि अगर कृष्ण जैसा एक दफा तुमसे कह दूं, महामूर्ख! तुम दुबारा लौटकर न आओगे। तुम आओगे ही नहीं । अर्जुन होना भी आसान नहीं है। वह कृष्ण उसको डंडे पर डंडे दिए चले जाते हैं। भागता नहीं है। संदेह है, लेकिन निष्ठा में भी कोई कमी नहीं है। संदेह है, तो सवाल उठाता है। निष्ठा में भी कोई कमी नहीं है, इसलिए भागता भी नहीं है। रिंझाई ने कहा कि देखा है यह डंडा ! झूठे गलत सवाल पूछेगा, सिर तोड़ दूंगा। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 4 उस आदमी ने कहा, क्या कहते हैं आप ! सिर मेरा वैसे ही अपनी वासनाओं से टूटा जा रहा है। आप मुझे कोई तरकीब रोकने की बताएं। रिझाई ने कहा, रोकने की बात नहीं है, मैं तुझसे यह पूछता हूं, किस तरकीब से वासनाओं को चलाता है ? क्योंकि तू ही चलाने वाला है, तो रोकने की तरकीब पूछनी पड़ेगी! एक आदमी दौड़ रहा है और हमसे पूछता है, कैसे रुकें? रुकना पड़ता है! सिर्फ नहीं दौड़ना पड़ता है। रुकना नहीं पड़ता है, सिर्फ नहीं दौड़ना पड़ता है। हां, कोई उसको घसीट रहा हो, कोई उसकी गरदन में बैल की तरह रस्सी बांधकर खींच रहा हो, तब भी कोई सवाल है । कोई उसके पीछे से उसको धक्के दे रहा हो, तब भी कोई सवाल है। न उसे कोई घसीट रहा है, न कोई पीछे से धक्के दे रहा है, वह आदमी दौड़ रहा है। और कहता है, मैं कैसे रुकूं ? तो उसे इतना ही कहना पड़ेगा, तू गलत ही सवाल पूछ रहा है। दौड़ भी तू ही रहा है, कैसे रुकने की बात भी तू ही पूछ रहा है। निश्चित ही तू रुकना नहीं चाहता, इसीलिए पूछ रहा है। जो लोग रुकना नहीं चाहते, वे यही पूछते रहते हैं, कैसे रुकें? इसी में समय गंवाते रहते हैं। वे पूछते हैं, हाऊ टु डू इट ? करना नहीं चाहते हैं। क्योंकि मजा यह है कि वासना को कैसे चलाएं, इसे पूछने आप कभी किसी के पास नहीं गए, बड़े मजे से चला रहे हैं। तो कृष्ण कह रहे हैं कि जो इन आंधियों को नहीं चलाता है— रोक लेता है नहीं- - नहीं चलाता है। हमारा कोआपरेशन मांगती है वासना । आपने कोई ऐसी वासना देखी है, जो आपके बिना सहयोग के इंचभर सरक जाए ! कभी बिना आपके सहयोग के आपके भीतर कोई भी वासना सरकी है इंचभर ! तो फिर जरा लौटकर देखना। जब वासना सरके, तो खड़े हो जाना और कहना कि मेरा सहयोग नहीं, अब तू चल। और आप पाएंगे, वहीं गिर गई वहीं — इंचभर भी नहीं जा सकती। आपका कोआपरेशन चाहिए। एक मेरे मित्र हैं, उनको बड़ा क्रोध आता है। बड़े मंत्र पढ़ते हैं, बड़ी प्रार्थनाएं करते हैं, मंदिर जाते हैं और वहां से और क्रोधी होकर ते हैं। क्रोध नहीं जाता। बस, उनकी वही परेशानी है कि क्रोध! पर मैंने उनसे कहा कि तुम ही क्रोध करते हो कि कोई और करता है ? उन्होंने कहा कि मैं ही करता हूं, लेकिन फिर भी जाता नहीं । कैसे जाए ? मैंने कहा कि अब यह सब छोड़ो। यह कागज मैं तुम्हें लिखकर | देता हूं। कागज लिखकर उन्हें दे दिया। उसमें मैंने बड़े-बड़े अक्षरों | में लिख दिया कि अब मुझे क्रोध आ रहा है। मैंने कहा, इसे खीसे में रखो और जब भी क्रोध आए, तो इसे देखकर पढ़ना और फिर खीसे में रखना, और कुछ मत करना। उन्होंने कहा, इससे क्या होगा? मैं बड़े-बड़े ताबीज भी बांध चुका! मैंने कहा, छोड़ो ताबीज तुम । तुम इसको खीसे में रखो। पंद्रह दिन बाद मेरे पास आना । पंद्रह दिन बाद नहीं, वे पांच ही दिन बाद आ गए। और कहने | लगे कि क्या जादू है ? क्योंकि जैसे ही मैं इसको पढ़ता हूं कि अब मुझे क्रोध आ रहा है, पता नहीं भीतर क्या होता है— गया ! | कोआपरेशन नहीं मिल पाता। एक सेकेंड को कोआपरेशन चूक जाए — गया। फिर तो वे कहने लगे, अब तो खीसे तक अंदर हाथ भी नहीं लगाना पड़ता। इधर हाथ गया कि अक्षर खयाल आए कि अब क्रोध आ रहा है; बस कोई चीज एकदम से बीच में जैसे फ्लाप ! कोई चीज एकदम से गिर जाती है। | वासना सहयोग मांगती है आपका। निर्वासना सिर्फ असहयोग मांगती है। निर्वासना के लिए कुछ करना नहीं है, वासना के लिए जो किया जा रहा है, वही भर नहीं करना है। तो रिझा ने मुट्ठी बांध ली उस आदमी के सामने और कहा कि देख, यह मुट्ठी बंधी है, अब मुझे मुट्ठी को खोलना है। मैं क्या करूं? उस आदमी ने कहा कि क्या फिजूल की बातें पूछते हैं ! बांधिए मत, मुट्ठी खुल जाएगी। बांधिए मत! क्योंकि बांधना पड़ता | है; बांधना एक काम है। खोलना काम नहीं है। बांधने में शक्ति लग रही है, खोलने में कोई शक्ति नहीं लगती। न बांधिए तो मुट्ठी खुली रहती है, बांधिए तो बंधती है। वासना शक्ति मांगती है; न दीजिए शक्ति, तो निर्वासना फलित हो जाती है। ऐसा झंझावात से मुक्त हुआ चित्त स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाता है। | कृष्ण कहते हैं, हे महाबाहो, जो स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाता है, वह सब कुछ पा लेता है। 290 या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी । यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ।। ६९ ।। और हे अर्जुन, संपूर्ण भूत प्राणियों के लिए जो रात्रि है, उसमें भगवत्ता को प्राप्त हुआ संयमी पुरुष जागता है। और जिस Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Om विषाद की खाई से ब्राह्मी-स्थिति के शिखर तक AM नाशवान, क्षणभंगुर सांसारिक सुख में सब भूत प्राणी जागते | मिलाने ले आऊं, तो मिलना पड़ेगा, इनकार न कर सकोगे। तो ये है, तत्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि है। तीन आज्ञाएं देता हूं बड़े भाई की हैसियत से। फिर दीक्षा के बाद तो मैं कुछ कह न सकूँगा। तुम्हारी आज्ञा मेरे सिर पर होगी। बद्ध ने ये वचन दे दिए। फिर आनंद बद्ध के कमरे में ही सोता। जो सबके लिए अंधेरी रात है, वह भी ज्ञानी के लिए, | दो-चार-दस दिन में ही बहुत हैरान हुआ। क्योंकि बुद्ध जिस 1 संयमी के लिए जागरण का क्षण है। जो निद्रा है सबके | | करवट सोते हैं-जहां हाथ रखते हैं, जहां पैर रखते हैं-रात में लिए, वह भी ज्ञानी के लिए जागृति है। यह महावाक्य | इंचभर भी हिलाते नहीं। कभी करवट भी नहीं बदलते। हाथ जहां है। यह साधारण वक्तव्य नहीं है। यह महावक्तव्य है। इसके रखा है, वहीं रखा रहता है पूरी रात। पैर जहां रखा है, वहीं रखा बहुआयामी अर्थ हैं। दो-तीन आयाम समझ लेना जरूरी है। रहता है पूरी रात। तो आनंद ने कहा कि यह क्या मामला है! यह एक तो बिलकुल सीधा, जिसको कहना चाहिए लिटरल जो कैसी नींद है! अर्थ है, वह भी इसका अर्थ है। आमतौर से गीता पर किए गए | दो-चार-दस दिन, रात में कई बार उठकर उसने देखा। देखा कि वार्त्तिक उसके तथ्यगत अर्थ को कभी भी नहीं लेते हैं। जो कि बड़ी वही—वही मुद्रा है, वही आसन है, वही व्यवस्था है-सब वही ही गलत बात है। वे सदा ही उसको मेटाफर बना लेते हैं। वह सिर्फ | | है। दसवें दिन उसने पूछा कि एक सवाल उठ गया है। रात में सोते मेटाफर नहीं है। जब यह बात कही जा रही है कि जो सबके लिए | हो या क्या करते हो? बुद्ध ने कहा, जब से अज्ञान टूटा, तब से निद्रा है, वह भी संयमी और ज्ञानी के लिए जागरण है, तो इसका सिर्फ शरीर सोता है, मैं नहीं सोता हूं। तो अगर करवट, तो मुझे पहला अर्थ बिलकुल शाब्दिक है। जब आप रात सोते हैं, तब भी बदलनी पड़े, मेरे बिना सहयोग के शरीर नहीं बदल सकता। कोई संयमी नहीं सोता है। जरूरत नहीं बदलने की। एक ही करवट से काम चल जाता है। तो .. इसे पहले समझ लेना जरूरी है, क्योंकि इसे कहने की हिम्मत फकीर आदमी को जितने से काम चल जाए, उससे ज्यादा के उपद्रव नहीं जटाई जा सकी है आज तक। सदा उसका अर्थ मोहरूपी निशा में नहीं पडना चाहिए। ऐसे ही चल जाता है काम। हाथ जहां रखता और और सब रूपी बातें कही गई हैं। इसका पहला अर्थ बिलकुल हूं, वहीं रखे रहता हूं। हाथ सो जाता है, मैं नहीं सोता हूं। ही तथ्यगत है। कृष्ण कहते हैं, जो सबके लिए अंधेरी निद्रा है, वह भी ज्ञानी के जब आप-रात सोते हैं, तब भी ज्ञानी नहीं सोता है। इसका क्या लिए जागरण है। मतलब है? बिस्तर पर नहीं लेटता है! इसका क्या मतलब है? आप भी पूरे नहीं सोते हैं। क्योंकि ज्ञान का कोई न कोई कोना तो आंख बंद नहीं करता है। इसका क्या मतलब है? रात विश्राम को | आप में भी जागा रहता है। यहां हम इतने लोग बैठे हैं, सब सो जाएं, उपलब्ध नहीं होता है। नहीं, यह सब करता है, फिर भी नहीं सोता। | रात कोई आदमी आकर चिल्लाए, राम! सबको सुनाई पड़ेगा, है। दो-तीन उदाहरण से इस बात को समझें।। | लेकिन सबको सुनाई नहीं पड़ेगा। जिसका नाम राम है, वह कहेगा, बुद्ध ने आनंद को दीक्षा दी। वह उनका चचेरा भाई था और बड़ा | कौन बुला रहा है? कान सबके हैं, सब सोए हैं। राम शब्द गूंजा है, भाई था। तो दीक्षा लेते वक्त आनंद ने कहा कि दीक्षा के बाद तो | तो सबको सुनाई पड़ा है। लेकिन जो राम है, वह कहता है, कौन तुम गुरु और मैं शिष्य हो जाऊंगा, तो मैं तुमसे फिर कुछ कह न | बुला रहा है? रात में कौन गड़बड़ करता है? सोने नहीं देता! सकूँगा। अभी मैं तुम्हें आज्ञा दे सकता हूं, मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूं। ___ क्या हुआ! जरूर इसके भीतर चेतना का एक कोना इस रात में दीक्षा लेने के पहले मैं तुम्हें दो-तीन आज्ञाएं देता हूं, जो तुम्हें छोटे | भी जागा है; पहरा दे रहा है। पहचानता है कि राम नाम है अपना। भाई की तरह माननी पड़ेंगी। बुद्ध ने कहा, कहो। __मां सोई है रात, तूफान आ जाए बाहर, आंधी आ जाए, बादल आनंद ने कहा, एक तो यह कि मैं चौबीस घंटे तुम्हारे साथ | गरजें, बिजली चमके, उसकी नींद नहीं टूटती। उसका बच्चा रहंगा। रात तम सोओगे जहां, वहीं मैं भी सोऊंगा। दसरा यह कि | | जरा-सा कुनकुन करे, वह फौरन हाथ रख लेती। भीतर कोई हिस्सा जब भी मैं कोई सवाल पूछं, तुम्हें उसी वक्त उत्तर देना पड़ेगा, टाल | जागा हुआ है मां का, वह देख रहा है कि बच्चे को कोई गड़बड़ न न सकोगे। तीसरा यह कि मैं अंधेरी आधी रात में भी किसी को | हो जाए। और बच्चे की गड़बड़ इतनी धीमी है कि मां के एक हिस्से 291| Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2m गीता दर्शन भाग-1 AM को जागा ही रहना होगा। . इसलिए मैं कहता हूं कि जिन लोगों ने गीता के इस महावाक्य आकाश में बिजली चमकती है, बादल गरजते हैं, पानी बरस पर वक्तव्य दिए हैं, उनको खुद का कोई अनुभव नहीं है। अन्यथा रहा है, उसका कुछ सुनाई नहीं पड़ता उसे। लेकिन बच्चे की यह पहला वक्तव्य चूक नहीं सकता था। उनको साफ पता नहीं है जरा-सी आवाज, उसका जरा-सा करवट लेना, उसकी धीमी-सी कि नींद में जागा हुआ हुआ जा सकता है। लेकिन जागे हुए ही सोए पुकार उसे तत्काल जगा देती है। एक हिस्सा उसका भी जागा हुआ हुए आदमियों को नींद में जागने का खयाल भी नहीं उठ सकता है! है। पर एक हिस्सा! जरूरत के वक्त, इमरजेंसी मेजर है वह हमारा। तो वे इसका मेटाफोरिकल अर्थ करते हैं। वह अर्थ ठीक नहीं है। साधारणतः हमारी पूरी चेतना डूबी रहती है अंधेरे में। जो आदमी दिन में जागकर चलेगा, उठेगा, बैठेगा, वह रात में कृष्ण कहते हैं, ज्ञानी पुरुष नींद में भी जागा रहता है। पहला भी जागा हुआ सोएगा। अर्थ, पहले आयाम का अर्थ, वास्तविक निद्रा में भी जागरण है। महावीर ने कहा है-अजीब बात कही है—महावीर ने कहा है, और मैं आपसे कहता हूं कि यह बहुत कठिन नहीं है। जो आदमी | साधुओ! जागकर चलना, जागकर उठना, जागकर बैठना। सब दिन के जागते हिस्से में बारह घंटे जागा हुआ जीएगा, वह रात में | ठीक है। लेकिन आखिर में महावीर कहते हैं, जागकर सोना। जागा हुआ सोता है। आप रास्ते पर चल रहे हैं, जागकर चलें। | पागलपन की बातें कर रहे हैं! तो फिर सोएंगे काहे के लिए! आप खाना खा रहे हैं, जागकर खाएं। आप किसी से बात कर रहे | जागकर सोना, जागते रहना और देखना कि नींद कब आई। हैं, जागकर बोलें। सुन रहे हैं, जागकर सुनें। यह नींद-नींद, ___ आप कितनी दफे सोए हैं, कभी नींद को आते देखा? जिंदगीभर स्लीपी-स्लीपी न हो। यह सब ऐसे ही चल रहा है। | सोए, रोज सोए। आदमी साठ साल जीता है, तो बीस साल सोता एक आदमी खाना खा रहा है। हमें लगता है कि नींद में कैसे | | है। आठ घंटे सोए अगर, तो बीस साल सोने में चले जाते हैं। खाना खा सकता है। लेकिन मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सब लोग | जिंदगी का एक तिहाई सोते हैं। बीस साल सोकर भी कभी आपको नींद में खाना खा रहे हैं। पता है, नींद कब आती है? कैसे आती है? नींद क्या है? इमरसन एक बडा विचारक हुआ। सबह बैठा है। उसकी कैसा अदभुत है यह मामला! बीस साल जिस अनुभव से नौकरानी नाश्ता रख गई। किताब में उलझा है, तो नौकरानी ने बाधा | | गुजरते हैं, उस अनुभव की कोई भी पहचान नहीं है! रोज सोते हैं। . नहीं दी। किताब से छूटेगा, तो नाश्ता कर लेगा। | लेकिन कोई आपसे पूछे कि नींद क्या है? व्हाट इज़ दि स्लीप? उसका एक मित्र मिलने आया है। वह किताब में डूबा है। नाश्ता | | कैसे आती है? आते वक्त क्या उसकी शकल है, क्या उसका रूप पास है। मित्र ने सोचा, इससे बात पीछे कर लेंगे, पहले नाश्ता कर | है? कैसे उतरती है? जैसे सांझ उतरती है अंधकार की, सूरज डूबता लें। मित्र ने नाश्ता कर लिया, प्लेट खाली करके बगल में सरका दी। | है, ऐसा आपके भीतर क्या उतरता है नींद में? फिर इमरसन ने कहा, अरे कब आए? मित्र को देखा, खाली प्लेट | ___ आप कहेंगे कि कुछ पता नहीं है। क्योंकि जब तक जागे रहते को देखा और कहा कि जरा देर से आए. मैं नाश्ता कर चका ह। । हैं. तब तक नींद नहीं आती। जब नींद आ जाती है. इस आदमी ने कभी जागकर नाश्ता किया होगा? नहीं, हमने भी | सो गए होते हैं। नहीं किया है। एक रूटीन है, जिसको हम नींद में भी कर लेते हैं। सुबह उठते हैं रोज। कभी देखा है कि नींद का टूटना क्या है, आदमी साइकिल चलाता है। पैर साइकिल चलाते रहते हैं, आदमी फिनामिनल? नींद कैसे टूटती है? क्या होता है नींद के टूटने में? भीतर कुछ और चलाता रहता है। चलता चला जाता है। नींद है। __आप कहते हैं, कुछ पता नहीं। जब तक नींद नहीं टूटती, तब सड़क के किनारे खड़े हो जाएं, लोगों को जरा चलते देखें। कोई | | तक हम नहीं होते। जब नींद टूट जाती है, तब टूट ही चुकी होती बातचीत करता दिखाई पड़ेगा किसी से, जो मौजद नहीं है। किसी है। कोई हमें पता नहीं। के ओंठ हिल रहे हैं। कोई हाथ से किसी को झिड़क रहा है। कोई | कृष्ण कह रहे हैं, ज्ञानी जागकर सोता है। इशारा कर रहा है। आप बहुत हैरान होंगे कि किससे हो रहा है यह | __ और जिस व्यक्ति ने अपनी नींद को जागकर देख लिया, वही सब! नींद, नींद में चल रहे हैं। जब हम जागे हुए भी सोए हैं, तो | व्यक्ति अपनी मृत्यु को भी जागकर देख सकता है, अन्यथा नहीं सोए हुए जागना बहुत मुश्किल है। देख सकता है। इसलिए इस सूत्र को मैं महावाक्य कहता हूं। 292 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IY विषाद की खाई से ब्राह्मी-स्थिति के शिखर तक + मौत तो कल आएगी, नींद तो आज ही आएगी। रात नींद को | आस-पास, उनके चेहरे के पास एक गोल घेरा बनाया है, यह देखते हुए सोएं। आज, कल, महीना, दो महीना, तीन महीना- | फोटोग्राफिक ट्रिक नहीं है। यह सिर्फ एक मिथ नहीं है। जागे हुए रोज सोते वक्त एक ही प्रार्थना मन में, एक ही भाव मन में आए कि | व्यक्ति के आस-पास प्रकाश का एक उज्ज्वल घेरा चलता है। उसे मैं देखू। जागे रहें, जागे रहें, जागे रहें। देखते रहें, देखते रहें। | और जो लोग भी अपने भीतर के प्रकाश को देखने में समर्थ होते आज चूकेंगे, कल चूकेंगे, परसों चकेंगे। महीना, दो महीना, तीन हैं, वे दूसरे के ऑरा को भी देखने में समर्थ हो जाते हैं। जिन लोगों महीना-अचानक किसी दिन आप पाएंगे कि नींद उतर रही है और | को भीतर अपने प्रकाश दिखाई पडने लगता है. वे उस आदमी के आप देख रहे हैं। और जिस दिन आप नींद को उतरते देख लेंगे, चेहरे के आस-पास प्रकाश के गोल घेरे को तत्काल देख लेते हैं। उस दिन कृष्ण का यह महावाक्य समझ में आएगा: उसके पहले | हां, आपको नहीं दिखता, क्योंकि आपको उस तरह के सूक्ष्म समझ में नहीं आ सकता है। यह इसका वास्तविक अर्थ है। प्रकाश का कोई भी अनुभव नहीं है। इसका जो मेटाफोरिकल अर्थ है, वह भी आपसे कहूं। वह भी | ___ तो जैसे महावीर और बुद्ध और कृष्ण के चेहरे के आस-पास है, लेकिन वह नंबर दो का मूल्य है उसका। नंबर एक का मूल्य एक गोल वर्तुल चलता है जागरण का, रोशनी का, ऐसे ही हम सब इसी का है। वह भी है। लेकिन वह तो और बहुत-सी बातों में भी | | सोए हुए आदमियों के आस-पास एक गोल वर्तुल चलता है कह दिया गया है। उसको कहने के लिए इस वाक्य को कहने की | | अंधकार का, निद्रा का। वह भी आपको दिखाई नहीं पड़ेगा। कोई भी जरूरत न थी। वह दूसरा जो मोह-निशा, उसकी तो बहुत | | क्योंकि उसका पता भी तब चलेगा, जब प्रकाश दिखाई पड़े। तब चर्चा हो गई। वह जो विषयों की नींद है, वह जो वासना की नींद | आपको पता चलेगा कि जिंदगीभर एक अंधेरे का गोल घेरा भी है, तो उसकी तो काफी चर्चा हो गई है। | आपके पास चलता था। पता तो पहले प्रकाश का चलेगा, तभी और कृष्ण जैसे लोग एक शब्द भी व्यर्थ नहीं बोलते हैं। एक शब्द अंधकार का बोध होगा। उसके साथ ही हम पैदा होते हैं। उससे पुनरुक्त नहीं करते हैं। अगर पुनरुक्ति दिखती हो, तो आपकी समझ | इतने निकट और परिचित होते हैं कि वह दिखाई नहीं पड़ता। में भूल और गलती होती है। कृष्ण जैसे लोग, देनेवर रिपीट। क्योंकि | लेकिन मैं देखता हूं कि रास्ते पर दो आदमी चल रहे हों, तो दोनों रिपीट का कोई सवाल नहीं है। दोहराने की कोई जरूरत नहीं है। । | के पास का चलने वाला घेरा अलग होता है। रंगों-रंगों के फर्क क्या आपको पता है कि कौन लोग दोहराते हैं! सिर्फ वे ही लोग | | होते हैं, शेड के फर्क होते हैं। अंधेरे और सफेदी के बीच में बहुत दोहराते हैं, जिनमें आत्मविश्वास की कमी होती है। दूसरा आदमी से ग्रे कलर होते हैं। नहीं दोहराता। जिसने एक बात पूरे विश्वास से कह दी पूरी तरह लेकिन साधारणतः सोए आदमी के पास, सौ में से निन्यानबे जानकर, बात खत्म हो गई। आदमियों के पास नींद का एक वर्तल चलता है. एक स्लीपी वर्तल . तो कृष्ण दोहरा नहीं सकते। इसलिए मैं कहता हूं कि जो आम | चलता है। वैसा आदमी जहां जाता है, उसके साथ उसकी नींद भी व्याख्या की गई है कि जहां कामी आदमी कामवासना में, जाती है। वह जो भी छता है, उसे नींद में छूता है। वह जो भी करता मोह-निद्रा में, विषयों की नींद में, अंधेरे में डूबा रहता है, वहां है, उसे नींद में करता है। वह जो भी बोलता है, नींद में बोलता है। संयमी आदमी जागा रहता है। इसको दोहराने के लिए इस वाक्य कभी आपने सोचा है कि आप अपने वक्तव्यों के लिए कितनी की बहुत जरूरत नहीं है। लेकिन वह अर्थ करें, तो बुरा नहीं है। | बार नहीं पछताए हैं! पछताए हैं। लेकिन कभी आपको पता है कि लेकिन पहला अर्थ पहले समझ लें। आपने ही बोला था-होश में! __ हां, दूसरा अर्थ है। एक तंद्रा का घेरा, कहना चाहिए एक | | पति घर आया है और एक शब्द पत्नी बोल गई है और कलह हिप्नोटिक ऑरा, हमारे व्यक्तित्व में अटका हुआ है। जब आप शुरू हो गई है। और वह जानती है कि यह शब्द रोका जा सकता चलते हैं, तो आपके चारों तरफ नींद का एक घेरा चलता है। जब था। क्योंकि यह शब्द पचीस दफे बोला जा चुका है और इस शब्द जागा हुआ पुरुष चलता है, तब उसके पास भी चारों तरफ एक के आस-पास इसी तरह की कलह पचीस बार हो चुकी है। फिर जागरण का एक घेरा चलता है। यह जो हमने फकीरों—नानक यह आज क्यों बोला गया? नींद में बोल गई, फिर बोल गई। कल और कबीर और राम और कृष्ण और बुद्ध और महावीर के फिर बोलेगी, परसों फिर बोलेगी। वह नींद चलेगी। वह रोज वही 293 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 AM बोलेगी और रोज वही होगा। पति भी रोज वही उत्तर देगा। | है कि क्यों दबा रहे हैं एक्सेलेरेटर को। पता होना चाहिए कि क्यों अगर एक पति-पत्नी को सात दिन ठीक से देख लिया जाए, तो | | दबा रहे हैं, कहां दबा रहे हैं, कितनी भीड़ है, कितने लोग हैं, उनकी पिछली जिंदगी और आगे की सारी जिंदगी की कथा लिखी कितनी कारें दौड़ रही हैं। आपको कुछ पता नहीं है। जा सकती है कि पीछे क्या हुआ और आगे क्या होगा। क्योंकि यही आप एक्सेलेरेटर को नहीं दबा रहे हैं। कोई अपनी पत्नी के सिर होगा। इसकी पुनरुक्ति होती रहेगी। पर पैर दबा रहा है, कोई अपने बेटे के, कोई अपने बाप के, कोई ये नींद में चलते हुए लोग–वही क्रोध, वही काम, वही सब, अपने मालिक के। पता नहीं वह एक्सेलेरेटर किन-किन के लिए वही दुख, वही पीड़ा, वही चिंता-सब वही। रोज उठते हैं और काम कर रहा है। पता नहीं कौन एक्सेलेरेटर उस वक्त बना हुआ वही दोहराते हैं। जैसे सब तय है, बंधी हुई मशीन की तरह। बस, | है। दबाए जा रहे हैं। अब यह आदमी जो नींद में एक्सेलेरेटर दबा रोज अपनी मशीन पर जम जाते हैं और फिर दोहराते हैं। रहा है, इस आदमी को सड़क दिखाई पड़ रही होगी! यह नींद है। यह कृष्ण का दूसरा अर्थ है। जागा हुआ पुरुष जो ___ इसकी हालत ठीक वैसी है, मैंने सुना है, वर्षा हो रही है और भी करता है, वह नींद में करने वाले आदमी जैसा उसका व्यवहार एक आदमी अपनी कार चला रहा है। जोर से वर्षा हो रही है, नहीं है। लेकिन वह आदमी वाइपर नहीं चला रहा है कार के। तो उसकी क्या फर्क पड़ेगा उसके व्यवहार में? तो उन्होंने इंगित दिए हैं कि पत्नी उससे कहती है, क्या कर रहे हो! जैसा कि पत्नियां आमतौर नींद से भरा हुआ आदमी मैं के और अहंकार के आस-पास | से ड्राइवर को गाइड करती रहती हैं। पति चलाता है, पत्नियों जीएगा। उसका सब कुछ अहंकार से भरा होगा। चलवाती हैं। वे पूरे वक्त बताती रहती हैं कि यह करो, यह करो। कभी आपने खयाल किया है, आईने के सामने खड़े होकर जो पूछा, क्यों नहीं चला रहे हैं वाइपर? तो उसने कहा, कोई फायदा तैयारी आप कर रहे हैं, वह आपकी तैयारी है कि अहंकार की तैयारी नहीं है, क्योंकि चश्मा तो मैं घर ही भूल आया हूं। वैसे ही नहीं है! किसकी तैयारी कर रहे हैं? अहंकार की तैयारी कर रहे हैं। बाहर दिखाई पड़ रहा है कुछ। पानी गिर रहा है कि नहीं गिर रहा है, इससे निकलते हैं, तो झाड़-झूड़ के साफ, रीढ़ सीधी कर लेते हैं। आंखें क्या मतलब है! तेज हो जाती हैं। या तो सुरक्षा में लग जाते हैं या आक्रमण में लग अब यह जो आदमी है, वह जो एक्सेलेरेटर को क्रोध में दबा रहा । जाते हैं। चल पड़े, नींद वाला आदमी निकला घर से बाहर, उपद्रव है, वह भी अंधा है। उसको भी कुछ नहीं दिखाई पड़ रहा है कि संभावित है, कि कुछ होगा अब। अब यह कुछ न कुछ करेगा। और बाहर क्या हो रहा है। पचहत्तर प्रतिशत दुर्घटनाएं मानसिक घटनाएं सारे लोग अपने घरों के बाहर निकल रहे हैं। ये कुछ न कुछ करेंगे। हैं। यह नीद है। अमेरिका में अभी कार के एक्सिडेंट्स का जो सर्वे हुआ है, इस नींद में हम उलटा भी करते हैं। वह तीसरा आयाम है। फिर उससे पता चला है कि पचहत्तर प्रतिशत कार की दुर्घटनाएं भौतिक हम आगे बढ़ें। नहीं, मानसिक घटनाएं हैं। पागलपन की बात मालूम होती है न! एक तीसरा अर्थ भी है; नींद का कृत्य हमेशा, जो आप करते हैं कार की दुर्घटना और मानसिक! कार का भी कोई माइंड है, कार और जो होता है, उसका आपको कोई खयाल नहीं होता। जो आप का भी कोई मन है कि कार भी कोई मन से दुर्घटना करती है! कार | करते हैं, उससे ही होता है। लेकिन जब होता है, तब आप पछताते का नहीं है. डाइवर का है. वह जो सारथी बैठे रहते हैं भीतर। । हैं कि यह कैसे हो गया। क्योंकि हमने तो यह कभी न किया था। कभी आपको पता है कि जब आप क्रोध में होते हैं, तो कार का एक स्त्री सज रही है, आईने के सामने सज रही है। अब उसे एक्सेलेरेटर जोर से दबता है-नींद में, होश में नहीं। जल्दी पता नहीं है कि सजकर वह क्या कर रही है। मैं सज रही हूं और आपको कहीं पहुंचना नहीं है। लेकिन चित्त क्रोध से भरा है। किसी कुछ भी नहीं कर रही! लेकिन वह सज-धजकर सड़क पर आ गई चीज को दबाना चाहता है। इसकी फिक्र नहीं कि किसको दबा रहे है। उसने चुस्त कपड़े पहन रखे हैं। अब उसको पता नहीं कि वह हैं। एक्सेलेरेटर को ही दबा रहे हैं। अब एक्सेलेरेटर से कोई झगड़ा धक्का निमंत्रित कर रही है। कोई आदमी धक्का मारेगा। जब वह नहीं है। अब एक्सेलेरेटर को दबाइएगा क्रोध में, तो खतरा पक्का धक्का मारेगा, तब वह कहेगी कि बहुत ज्यादती हो रही है। वह स्त्री है। क्योंकि एक तो नींद में दबाया जा रहा है। आपको पता ही नहीं कहेगी, बहुत ज्यादती हो रही है, अन्याय हो रहा है, अनीति हो रही 294 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विषाद की खाई से ब्राह्मी-स्थिति के शिखर तक पर है। लेकिन सब तैयारी करके आई है वह। पर वह तैयारी नींद में की आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं गई थी, उसे कोई काज-इफेक्ट दिखाई नहीं पड़ता कि ये इतने चुस्त समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्। कपड़े, इतने बेढंगे कपड़े, इतनी सजावट किसी को भी धक्का तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सवें मारने के लिए निमंत्रण है। स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ।। ७०।। और बड़े मजे की बात है, अगर उसको कोई धक्का न दे और | और जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में कोई न देखे, तो भी दुखी लौटेगी कि बेकार गई, सब मेहनत बेकार नाना नदियों के जल उसको चलायमान न करते हुए ही समा गई। किसी ने देखा ही नहीं! सड़क पर कोई इसे न देखे, कोई इसको जाते हैं, वैसे ही जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष के प्रति संपूर्ण भोग ले ही न, कोई अटेंशन न दे, तो यह ज्यादा दुखी लौटेगी। धक्का किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं, दे, तो भी दुखी लौटेगी। क्या हो रहा है यह! वह पुरुष परमशांति को प्राप्त होता है, मैंने सुना है कि एक बच्चे ने अपने बाप को खबर दी कि मैंने पांच न कि भोगों को चाहने वाला। मक्खियां मार डाली हैं। उसके बाप ने कहा, अरे! और उसने कहा विहाय कामान्यः सर्वान्युमांश्चरति निःस्पृहः । कि तीन नर थे, दो मादाएं थीं। उसके बाप ने कहा कि हद कर रहा निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ।। ७१।। है, तूने कैसे पता लगाया? तो उसने कहा कि दो मक्खियां क्योंकि, जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममतारहित आईने-आईने पर ही बैठती थीं। समझ गया कि स्त्रियां होनी चाहिए। __ और अहंकाररहित, स्पृहारहित हुआ बर्तता है, यह जो नींद में सब चल रहा है, इसमें हम ही कारण होते हैं और ...- वह शांति को प्राप्त होता है। जब कार्य आता है, तब हम चौंककर खड़े हो जाते हैं कि यह मैंने एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति । नहीं किया! अगर हम नींद में न हों, तो हम फौरन समझ जाएंगे, स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति । । ७२ ।। यह मेरा किया हुआ है। यह धक्का मेरा बुलाया हुआ है। यह धक्का हे अर्जुन, यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की ब्राह्मी-स्थिति है। ऐसे ही नहीं आ गया है। इस जगत में कुछ भी आकस्मिक नहीं है, इसको प्राप्त होकर वह मोहित नहीं होता है एक्सिडेंटल नहीं है। सब चीजों की हम व्यवस्था करते हैं। लेकिन और अंतकाल में भी इस निष्ठा में स्थिर होकर फिर व्यवस्था जब परी हो जाती है. तब पछताते हैं कि यह क्या हो ब्रह्म-निर्वाण को प्राप्त हो जाता है। गया! यह क्या हो रहा है? यह भी नींद का अर्थ है। संयमी, ज्ञानी इस भांति कभी नहीं सोता; जागा ही रहता है। स्वभावतः, जागकर वह वैसा व्यवहार = पार्थ! जैसे महासागर अनंत-अनंत नदियों को भी नहीं करता, जैसा. सोया आदमी करता है। उसका मैं कभी केंद्र में e अपने में समाकर जरा भी मर्यादा नहीं खोता, इंचभर नहीं होता। मैं सदा नींद के ही केंद्र में होता है। समझ लें कि नींद भी परिवर्तित नहीं होता; जैसे कुछ समाया ही नहीं का केंद्र में है। न-मैं, ईगोलेसनेस, निरअहंकार भाव, जागरण का | | उसमें, ऐसा ही होता है। जैसा पहले था हजारों नदियों के गिरने के, केंद्र है। | ऐसा ही बाद में होता है। ऐसे ही जो व्यक्ति जीवन के समस्त भोग यह बड़े मजे की बात है। इसको अगर हम ऐसा कहें तो | | अपरिवर्तित रूप से, भोगने के पहले जैसा था, भोगने के बाद भी बिलकुल कह सकते हैं कि सोया हुआ आदमी ही होता है, जागा | वैसा ही होता है। जैसे कि भोगा ही न हो, अर्थात जो भोगते हुए भी हुआ आदमी होता नहीं। यह बड़ा उलटा वक्तव्य लगेगा। सोया | न-भोगा बना रहता है, जो भोगते हुए भी भोक्ता नहीं बनता है, हुआ आदमी ही होता है-मैं। जागा हुआ आदमी नहीं होता | जिसमें कोई भी अंतर नहीं आता है, जो जैसा था वैसा ही है; नहीं है-न-मैं। जागरण आदमी के अहंकार का विसर्जन है। निद्रा | | होता, तो जैसा होता, होकर भी वैसा ही है। ऐसा व्यक्ति मुक्ति को, आदमी के अहंकार का संग्रहण है, कनसनट्रेशन है, केंद्रीकरण है। ब्राह्मी-स्थिति को उपलब्ध हो जाता है। कृष्ण कहते हैं, हे पार्थ! तेरी मुक्ति की जिज्ञासा...। बड़ी मजे की बात कहते हैं। क्योंकि अर्जुन ने जिज्ञासा मुक्ति की 295 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9m गीता दर्शन भाग-1 AM नहीं की थी। अर्जुन ने जिज्ञासा मुक्ति की नहीं की थी, अर्जुन ने अगर तू महासागर जैसा हो जाए, जहां सब आए और सब जाए, जिज्ञासा सिर्फ युद्ध से बचने की की थी। लेकिन कृष्ण कहते हैं, हे लेकिन तुझे छुए भी नहीं, स्पर्श भी न करे, अनटच्ड, अस्पर्शित, पार्थ! तेरी मुक्ति की जिज्ञासा, तेरे मोक्ष की खोज के लिए तुझे यह | | तू पीछे वैसा ही रह जाए जैसा था, तो तू ब्राह्मी-स्थिति को उपलब्ध बताता हूं। हो जाता है। ब्राह्मी-स्थिति अर्थात तब तू नहीं रह जाता और ब्रह्म __ अर्जुन ने नहीं की थी मुक्ति की जिज्ञासा, लेकिन अर्जुन ने जो ही रह जाता है। जिज्ञासा की थी, कृष्ण ने उसे इस बीच मक्ति की जिज्ञासा में और जहां मैं नहीं रह जाता, ब्रह्म ही रह जाता है, वहां फिर कोई रूपांतरित किया है। इस पूरी यात्रा में कृष्ण ने अर्जुन की जिज्ञासा | चिंता नहीं, क्योंकि सभी चिंताएं मैं के साथ हैं। जहां मैं नहीं रह को भी रूपांतरित किया है। धीरे-धीरे युद्ध गौण हो गया है। | जाता और ब्रह्म ही रह जाता है, वहां कोई दुख नहीं है, क्योंकि सब धीरे-धीरे युद्ध रहा ही नहीं है। बहुत देर हो गई, जब से युद्ध की | | दुख मैं की उत्पत्तियां हैं। और जहां मैं नहीं रह जाता और ब्रह्म ही बात समाप्त हो गई है। बहुत देर हो गई, जब से अर्जुन भी और हो रह जाता है, वहां कोई मृत्यु नहीं, क्योंकि मैं ही मरता है, जन्म लेता गया है। | है। ब्रह्म की न कोई मृत्यु है, न कोई जन्म है। वह है। अर्जुन शब्द का अर्थ होता है, दैट व्हिच इज़ नाट स्ट्रेट। ऋजु से | __ ऐसा कृष्ण ने इस दूसरे अध्याय की चर्चा में, जिसे गीताकार बनता है वह शब्द। ऋजु का मतलब होता है, सीधा-सरल। अर्जुन | सांख्ययोग कह रहा है, पहले अध्याय को कहा था विषादयोग, का मतलब होता है, तिरछा-इरछा। अर्जुन का मतलब होता है, | दूसरे अध्याय को कह रहा है सांख्ययोग। विषाद के बाद एकदम आड़ा-तिरछा। अर्जुन सीधा-सादा नहीं है, बहुत आड़ा-तिरछा है। | सांख्य! कहां विषाद से घिरा चित्त अर्जुन का और कहां विचार करने वाले सभी लोग आड़े-तिरछे होते हैं। निर्विचार ही | | ब्राह्मी-स्थिति अनंत आनंद से भरी हुई। इस संबंध में एक बात, सीधा होता है। | फिर मैं अपनी बात पूरी करूं। __ अर्जुन की जिज्ञासा को कृष्ण ने बहुत रूपांतरित किया है, | धन्य हैं वे, जो अर्जुन के विषाद को उपलब्ध हो जाएं। क्योंकि ट्रांसफार्म किया है। और ध्यान रहे, साधारणतः मनुष्य धर्म की उतने विषाद में से ही ब्राह्मी-स्थिति तक के शिखर तक उठने की जिज्ञासा शुरू नहीं करता, साधारणतः मनुष्य जिज्ञासा तो संसार की | चुनौती उत्पन्न होती है। कृष्ण ने अर्जुन के विषाद को ठीक से पकड़ । ही शुरू करता है। लेकिन उसकी जिज्ञासा को संसार से मुक्ति और लिया। मोक्ष की तरफ रूपांतरित किया जा सकता है। क्यों? इसलिए नहीं | | अगर अर्जन किसी मनोवैज्ञानिक के पास गया होता. तो कि कृष्ण कर सकते हैं, बल्कि इसलिए कि संसार की जिज्ञासा करने | | मनोवैज्ञानिक क्या करता! चूंकि मैंने यह कहा कि कृष्ण का यह पूरा वाला मनुष्य भी जानता नहीं कि क्या कर रहा है। उसकी गहरी और शास्त्र एक साइकोलाजी है, इसलिए मैं यह भी अंत में आपसे कह मौलिक जिज्ञासा सदा ही मुक्ति की होती है। | दं, अगर मनोवैज्ञानिक के पास अर्जुन गया होता, तो मनोवैज्ञानिक जब कोई धन खोजता है, तब भी बहुत गहरे में वैसा व्यक्ति क्या करता! मनोवैज्ञानिक अर्जुन को एडजस्ट करता। मनोवैज्ञानिक आंतरिक दरिद्रता को मिटाने की चेष्टा में रत होता है-गलत चीज | कहता कि समायोजित हो जा। ऐसा तो युद्ध में होता ही है, सभी से, लेकिन चेष्टा उसकी यही होती है कि दरिद्र न रह जाऊं, | | को ऐसी चिंता पैदा होती है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। तू नाहक दिवालिया न रह जाऊं। जब कोई आदमी पद खोजता है, तब भी | | की एबनार्मल बातों में पड़ रहा है। तू व्यर्थ की विक्षिप्त बातों में पड़ उसकी भीतरी कोशिश, आत्महीनता न रह जाए, उसी की होती रहा है। ऐसे पागल हो जाएगा, न्यूरोसिस हो जाएगी। अर्जुन नहीं है-गलत जगह खोजता है। जब कोई आदमी युद्ध से भागना | | मानता, तो वह कहता कि तू फिर इलेक्ट्रिक शॉक ले ले; इंसुलिन चाहता है, तब भी वह युद्ध से नहीं भागना चाहता, बहुत गहरे में के इंजेक्शन ले ले। संताप से, एंग्विश से, चिंता से ऊपर उठना चाहता है। लेकिन फिर | लेकिन कृष्ण ने उसके विषाद का क्रिएटिव उपयोग किया। भी वह ठीक दिशा में नहीं पहुंचता। | उसके विषाद को स्वीकार किया कि ठीक है। अब इस विषाद को __ इस बात को कहकर कृष्ण बहुत गहरा इंगित दे रहे हैं। वे कह हम ऊपर ले चलते हैं। हम तुझे विषाद के लिए राजी न करेंगे। हम रहे हैं, हे अर्जुन, तेरी मुक्ति की जिज्ञासा के लिए मैंने यह सब कहा। विषाद का ही उपयोग करके तुझे ऊपर ले जाएंगे। 296 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ im विषाद की खाई से ब्राह्मी-स्थिति के शिखर तक AM असल में ज्ञान सदा ही अभिशाप को वरदान बना लेता है। अभिशाप को वरदान न बनाया जा सके, तो वह ज्ञान नहीं। अर्जुन के लिए जो अभिशाप जैसा फलित हुआ था, कृष्ण ने उसे वरदान बनाने की पूरी चेष्टा की है। उसके दुख का भी सृजनात्मक उपयोग किया है। । इसलिए मैं यह कहता हैं कि भविष्य का जो मनोविज्ञान होगा. वह सिर्फ मरीज को किसी तरह मरीजों के समाज में रहने योग्य नहीं बनाएगा, बल्कि मरीज की यह जो बेचैन स्थिति है, इस बेचैन स्थिति को मरीज की पूरी आत्मा के रूपांतरण के लिए उपयोग करेगा। वह क्रिएटिव साइकोलाजी होगी। इसलिए कृष्ण का मनोविज्ञान साधारण मनोविज्ञान नहीं, सृजनात्मक मनोविज्ञान है। यहां हम कोयले को हीरा बनाने की कोशिश करते हैं; यह अल्केमी है। जैसा अल्केमिस्ट कहते रहे हैं कि हम लोअर बेस मेटल को-सस्ती और साधारण धातुओं को-सोना बनाते हैं। पता नहीं उन्होंने कभी बनाया या नहीं बनाया। लेकिन यहां अर्जुन बड़े बेस मेटल की तरह कृष्ण के हाथ में आया था, कोयले की तरह, उस कोयले को हीरा बनाने की उन्होंने बड़ी कोशिश की। धन्य हैं वे, जो अर्जुन के विषाद को उपलब्ध होते हैं। क्योंकि उनकी ही धन्यता ब्राह्मी-स्थिति तक पहुंचने की भी हो सकती है। मेरी बातों को इतने प्रेम और आनंद से सुना, इससे बहुत अनुगृहीत हूं और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें। 297 Page #328 --------------------------------------------------------------------------  Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 3 पहला प्रवचन स्वधर्म की खोज Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m गीता दर्शन भाग-1 AM श्रीमद्भगवद्गीता समझ लेने के लिए जरूरी हैं। अथ तृतीयोऽध्यायः दुनिया में, सारे जगत में मनुष्य जाति ने जितना चिंतन किया है, उसे दो धाराओं में बांटा जा सकता है। सच तो यह है कि बस दो अर्जुन उवाच ही प्रकार के चिंतन पृथ्वी पर हुए हैं, शेष सारे चिंतन कहीं न कहीं ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन । | उन दो श्रृंखलाओं से बंध जाते हैं। एक चिंतन का नाम है सांख्य; तत्कि कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ।।१।। | और दूसरे चिंतन का नाम है योग। बस, दो ही सिस्टम्स हैं सारे अर्जुन ने कहा, हे जनार्दन, यदि कर्मों की अपेक्षा ज्ञान | जगत में। जिन्होंने सांख्य का और योग का नाम भी नहीं सुना आपको श्रेष्ठ मान्य है. तो फिर हे केशव, मुझे भयंकर कर्म है—चाहे अरस्तू, चाहे सुकरात, चाहे अब्राहिम, चाहे इजेकिअल, में क्यों लगाते हैं? चाहे लाओत्से, चाहे कन्फ्युसियस-जिन्हें सांख्य और योग के नाम का भी कोई पता नहीं है, वे भी इन दो में से किसी एक में ही खड़े होंगे। बस, दो ही तरह की निष्ठाएं हो सकती हैं। वन का सत्य कर्म से उपलब्ध है या ज्ञान से? यदि कर्म सांख्य की निष्ठा है कि सत्य सिर्फ ज्ञान से ही जाना जा सकता 1 से उपलब्ध है, तो उसका अर्थ होगा कि वह हमें आज | है, कुछ और करना जरूरी नहीं है। कृत्य की, कर्म की कोई भी नहीं मिला हुआ है, श्रम करने से कल मिल सकता है। | आवश्यकता नहीं है। प्रयास की, प्रयत्न की, श्रम की, साधना की यदि कर्म से उपलब्ध होगा, तो उसका अर्थ है, वह हमारा स्वभाव कोई भी जरूरत नहीं है। क्योंकि जो भी खोया है हमने, वह खोया नहीं है, अर्जित वस्तु है। यदि कर्म से उपलब्ध होगा, तो उसका अर्थ | नहीं, केवल स्मृति खो गई है। याद पर्याप्त है, रिमेंबरिंग पर्याप्त है, उसे हम विश्राम में खो देंगे। जिसे हम कर्म से पाते हैं, उसे है-करने का कोई भी सवाल नहीं है। निष्कर्म में खोया जा सकता है। __ योग की मान्यता है, बिना किए कुछ भी नहीं हो सकेगा। साधना निश्चित ही जीवन का सत्य ऐसी कोई वस्त नहीं है. जो कर्म के बिना नहीं पहंचा जा सकता है। क्योंकि योग का कहना है : करने से मिलेगा। जीवन का सत्य मिला ही हुआ है; उसे हमने कभी अज्ञान को भी काटना पड़ेगा: उसके काटने में भी श्रम करना होगा। खोया नहीं है; उसे हम चाहें तो भी खो नहीं सकते हैं। हमारे प्राणों अज्ञान कुछ ऐसा नहीं है जैसा अंधेरा है कि दीया जलाया और का प्राण वही है। अज्ञान चला गया। अंधेरा कुछ ऐसा है, जैसे एक आदमी जंजीरों फिर हमने खोया क्या है? हमने सिर्फ उसकी स्मृति खोई है, से बंधा पड़ा है। माना कि स्वतंत्रता उसका स्वभाव है, लेकिन उसकी सुरति खोई है। हम केवल, जो है हमारे पास मौजूद, उसे | जंजीरें काटे बिना स्वतंत्रता के स्मरण मात्र से वह मक्त नहीं हो जान नहीं पा रहे हैं। हमारी आंख बंद है; रोशनी मौजूद है। हमारे सकता है। द्वार बंद हैं; सूरज मौजूद है। सूरज को पाने नहीं जाना; द्वार खोले, __ सांख्य मानता है : अज्ञान अंधेरे की भांति है, जंजीरों की भांति सूरज मिला ही हुआ है। | नहीं। इसलिए दीया जलाया कि अंधेरा गया। ज्ञान हुआ कि अज्ञान कृष्ण ने अर्जुन को इस सूत्र के पहले सांख्ययोग की बात कही गया। योग कहता है: अज्ञान का भी अस्तित्व है, उसे भी काटना है। कृष्ण ने कहा, जो पाने जैसा है, वह मिला ही हुआ है। जो जानने | पड़ेगा। जैसा है, वह निकट से भी निकट है। उसे हमने कभी खोया नहीं। दो तरह की निष्ठाएं हैं जगत में सांख्य की और योग की। है। वह हमारा स्वरूप है। तो अर्जुन पूछ रहा है, यदि जो जानने | ___ कृष्ण ने दूसरे अध्याय में अर्जुन को सांख्य की निष्ठा के संबंध योग्य है, जो पाने योग्य है, वह मिला ही हुआ है और यदि जीवन | | में बताया है। उन्होंने कहा है, ज्ञान पर्याप्त है, ज्ञान परम है, की मुक्ति और जीवन का आनंद मात्र ज्ञान पर निर्भर है, तो मुझ | अल्टिमेट है। गरीब को इस महाकर्म में क्यों धक्का दे रहे हैं! साकेटीज ने ठीक ऐसी ही बात यूनान में कही है। साक्रेटीज को कृष्ण ने सांख्य की जो दृष्टि समझाई है, अर्जुन उस सांख्य की हम पश्चिम में सांख्य का व्यवस्थापक कह सकते हैं। साक्रेटीज ने दृष्टि पर नया प्रश्न खड़ा कर रहा है। दो शब्द सांख्य की दृष्टि को कहा है : ज्ञान ही चरित्र है। कुछ और करना नहीं है, जान लेना |300/ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ pm स्वधर्म की खोज - काफी है। जो हम जान लेते हैं, उससे हम मुक्त हो जाते हैं। | कहता है कि कर्म बेकार है, तो अर्जुन कहता है कि सांख्य ठीक है, कृष्णमूर्ति जो भी कहते हैं, वह सांख्य की निष्ठा है। वह निष्ठा | मुझे जाने दो। सांख्य ठीक है, इसलिए अर्जुन नहीं भागता है। अर्जुन यह है कि जानना काफी है। टु नो दि फाल्स एज़ फाल्स इज़ इनफ, | | को भागना है, इसलिए सांख्य ठीक मालूम पड़ता है। और इसे, इसे गलत को गलत जान लेना काफी है, फिर कुछ और करना नहीं अपने मन में भी थोड़ा सोच लेना आवश्यक है। पड़ेगा, वह तत्काल गिर जाएगा। हम भी जिंदगीभर यही करते हैं। जो हमें ठीक मालूम पड़ता है, कुंदकुंद ने समयसार में जो कहा है, वह सांख्य की निष्ठा है। | वह ठीक होता है इसलिए मालूम पड़ता है? सौ में निन्यानबे मौके ज्ञान अपने आप में पूर्ण है; किसी कर्म की कोई जरूरत नहीं है। | पर, जो हमें करना है, हम उसे ठीक बना लेते हैं। हमें हत्या करनी ___ अर्जुन पूछ रहा है कि यदि ऐसा है कि ज्ञान काफी है, तो मुझे इस | है, तो हम हत्या को भी ठीक बना लेते हैं। हमें चोरी करनी है, तो भयंकर युद्ध के कर्म में उतरने के लिए आप क्यों कहते हैं? तो मैं | | हम चोरी को भी ठीक बना लेते हैं। हमें बेईमानी करनी है, तो हम जाऊं, कर्म को छोडूं और ज्ञान में लीन हो जाऊं! यदि ज्ञान ही पाने | बेईमानी को भी ठीक बना लेते हैं। हमें जो करना है, वह पहले है, जैसा है, तो फिर मुझे ज्ञान के मार्ग पर ही जाने दें। और हमारे तर्क केवल हमारे करने के लिए सहारे बनते हैं। अर्जुन भागना चाहता है। और यह बात समझ लेनी जरूरी है कि फ्रायड ने अभी इस सत्य को बहुत ही प्रगाढ़ रूप से स्पष्ट किया हम अपने प्रत्येक काम के लिए तर्क जटा लेते हैं। अर्जन को ज्ञान है। फ्रायड का कहना है कि आदमी में इच्छा पहले है और तर्क सदा से कोई भी प्रयोजन नहीं है। अर्जुन को सांख्य से कोई भी प्रयोजन | पीछे है; वासना पहले है, दर्शन पीछे है। इसलिए वह जो करना नहीं है। अर्जुन को आत्मज्ञान की कोई अभी जिज्ञासा पैदा नहीं हो | | चाहता है, उसके लिए तर्क खोज लेता है। अगर उसे शोषण करना गई है। अर्जुन को प्रयोजन इतनी सी ही बात से है कि सामने वह | | है, तो वह उसके लिए तर्क खोज लेगा। अगर उसे स्वच्छंदता जो युद्ध का विस्तार दिखाई पड़ रहा है, उससे वह भयभीत हो गया चाहिए, तो वह उसके लिए तर्क खोज लेगा। अगर अनैतिकता है, वह डर गया है। लेकिन वह यह स्वीकार करने को राजी नहीं | चाहिए, तो वह उसके लिए तर्क खोज लेगा। आदमी की वासना कि मैं भय के कारण हटना चाहता हूं। पहले है और तर्क केवल वासना को मजबूत करने का, स्वयं के हीहममें से कोई भी कभी स्वीकार नहीं करता कि हम भय के कारण | | सामने वासना को सिद्ध, तर्कयुक्त करने का काम करता है। हटते हैं। अगर हम भय के कारण भी हटते हैं, तो हम और कारण | । इसलिए फ्रायड ने कहा है कि आदमी रेशनल नहीं है। आदमी खोजकर रेशनलाइजेशन करते हैं। अगर हम भय के कारण भी | | बुद्धिमान है नहीं, सिर्फ दिखाई पड़ता है। आदमी उतना ही बुद्धिहीन भागते हैं, तो हम यह मानने को कभी राजी नहीं होते कि हम भय | है, जितने पशु। फर्क इतना है कि पशु अपनी बुद्धिहीनता के लिए के कारण भाग रहे हैं। हम कुछ और कारण खोज लेते हैं। | किसी फिलासफी का आवरण नहीं लेते। पशु अपनी बुद्धिमानी को ___ अर्जुन कह रहा है, यदि ज्ञान बिना कर्म के मिलता है, तो मुझे | सिद्ध करने के लिए कोई प्रयास नहीं करते। वे अपनी बुद्धिहीनता फिर कर्म में धक्का क्यों देते हैं? में जीते हैं और बुद्धिमानी का कोई तर्क का जाल खड़ा नहीं करते। ज्ञान पाने के लिए अगर अर्जुन यह कहे, तो कृष्ण पहले आदमी | आदमी ऐसा पशु है, जो अपनी पशुता के लिए भी परमात्मा तक होंगे, जो उससे राजी हो जाएंगे। लेकिन वह फाल्स जस्टीफिकेशन, | का सहारा खोजने की कोशिश करता है। एक झूठा तर्क खोज रहा है। वह कह रहा है कि मुझे भागना है, मुझे ___ अर्जुन यही कर रहा है। कृष्ण की आंख से बचना मुश्किल है। निष्क्रिय होना है। और आप कहते हैं कि ज्ञान ही काफी है, तो कृपा | । अन्यथा अगर सांख्य की दृष्टि अर्जुन की समझ में आ जाए कि ज्ञान करके मुझे कर्म से भाग जाने दें। उसका जोर कर्म से भागने में है, | | ही काफी है, तो अर्जुन पूछेगा नहीं कृष्ण से एक भी सवाल। बात उसका जोर ज्ञान को पाने में नहीं है। यह फर्क समझ लेना एकदम खतम हो गई; वह उठेगा, नमस्कार करेगा और कहेगा, जाता हूं। जरूरी है. क्योंकि उससे ही कष्ण जो कहेंगे आगे. वह समझा जा झेन फकीरों की मोनेस्टीज में, आश्रम में एक छोटा-सा नियम सकता है। है। जापान में जब भी कोई साधक किसी गुरु के पास ज्ञान सीखने अर्जुन का जोर इस बात पर नहीं है कि ज्ञान पा ले; अर्जुन का आता है, तो गुरु उसे बैठने के लिए एक चटाई दे देता है। और जोर इस बात पर है कि इस कर्म से कैसे बच जाए। अगर सांख्य | | कहता है, जिस दिन बात तुम्हारी समझ में आ जाए, उस दिन अपनी 301 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m- गीता दर्शन भाग-1 चटाई को गोल करके दरवाजे से बाहर निकल जाना। तो मैं समझ | | की जगह, तो जो श्रेष्ठतम है उसके पास, वह अंत में दिखाता। जाऊंगा, बात समाप्त हो गई। और जब तक समझ में न आए, तब निकृष्ट को बेचने की पहले कोशिश चलती। अंत में, जब निकृष्ट तक तुम बाहर चले जाना, चटाई तुम्हारी यहीं पड़ी रहने देना। रोज | खरीदने को ग्राहक राजी न होता, तो वह श्रेष्ठतम दिखाता। लौट आना; अपनी चटाई पर बैठना; पूछना, खोजना। जिस दिन कृष्ण कोई दुकानदार नहीं हैं, वे कुछ बेच नहीं रहे हैं। वे श्रेष्ठतम तुम्हें लगे, बात पूरी हो गई, उस दिन धन्यवाद भी मत देना। क्योंकि | अर्जुन से पहले कह देते हैं कि सांख्य की निष्ठा श्रेष्ठतम है, वह मैं जिस दिन ज्ञान हो जाता है, कौन किसको धन्यवाद दे! कौन गुरु, | तुझे कह देता हूं। अगर उससे बात पूरी हो जाए, तो उसके ऊपर कौन शिष्य? और जिस दिन ज्ञान हो जाता है, उस दिन कौन कहे | फिर कुछ बात करने को नहीं बचती है। कि मझे ज्ञान हो गया, क्योंकि मैं भी तो नहीं बचता है। तो उस दिन दूसरे अध्याय पर गीता खतम हो सकती थी, अगर अर्जुन पात्र तुम अपनी चटाई गोल करके चले जाना, तो मैं समझ लूंगा कि बात होता। लेकिन अर्जुन पात्र सिद्ध नहीं हुआ। कृष्ण को श्रेष्ठ से एक पूरी हो गई। कदम नीचे उतरकर बात शुरू करनी पड़ी। अगर श्रेष्ठतम समझ में अगर अर्जुन को सांख्य समझ में आ गया हो, तो वह चटाई गोल न आए, तो फिर श्रेष्ठ से नीचे समझाने की वे कोशिश करते हैं। करेगा और चला जाएगा। उसकी समझ में कुछ आया नहीं है। हां, | अर्जुन का सवाल बता देता है कि सांख्य उसकी समझ में नहीं पड़ा। उसे एक बात समझ में आई कि मैं जो एस्केप, जो पलायन करना क्योंकि समझ के बाद प्रश्न गिर जाते हैं। इसे भी खयाल में ले लें। चाहता हूं, कृष्ण से ही उसकी दलील मिल रही है। आमतौर से हम सोचते हैं कि समझदार को सब उत्तर मिल जाते कृष्ण कहते हैं, ज्ञान ही काफी है. ऐसी सांख्य की निष्ठा है। और | हैं; गलत है वह बात। समझदार को उत्तर नहीं मिलते, समझदार के सांख्य की निष्ठा परम निष्ठा है। श्रेष्ठतम जो मनुष्य सोच सका है | | प्रश्न गिर जाते हैं। समझदार के पास प्रश्न नहीं बचते। असल में आज तक, वे सांख्य के सार सूत्र हैं। क्योंकि ज्ञान अगर सच में ही | समझदार के पास पूछने वाला ही नहीं बचता है। असल में समझ घटित हो जाए, तो जिंदगी में कुछ भी करने को शेष नहीं रह जाता | | में कोई प्रश्न ही नहीं है। ज्ञान निष्प्रश्न है, क्योंकि ज्ञान में कोई भी है; फिर कुछ भी ज्ञान के प्रतिकूल करना असंभव है। लेकिन तब प्रश्न उठता नहीं। ज्ञान मौन और शून्य है, वहां कोई प्रश्न बनता अर्जुन को पूछने की जरूरत न रहेगी; बात समाप्त हो जाती है। नहीं। ऐसा नहीं कि ज्ञान में सब उत्तर हैं, बल्कि ऐसा कि ज्ञान में लेकिन वह पूछता है कि हे कृष्ण, आप कहते हैं, ज्ञान ही परम है, कोई प्रश्न नहीं हैं। ज्ञान प्रश्नशून्य है। तो फिर द्ध की झंझट में, इस कर्म में क्यों डालते हैं? अगर सांख्य समझ में आता, तो अर्जन के प्रश्न गिर जाते। अगर उसे ज्ञान ही हो जाए, तो युद्ध झंझट न होगी। लेकिन वह वापस अपनी जगह फिर खड़ा हो गया है। अब वह ज्ञानवान को जगत में कोई भी झंझट नहीं रह जाती। इसका यह | सांख्य को ही आधार बनाकर प्रश्न पूछता है। अब ऐसा दिखाने की मतलब नहीं है कि झंझटें समाप्त हो जाती हैं। इसका मतलब सिर्फ कोशिश करता है कि सांख्य मेरी समझ में आ गया, तो अब मैं इतना ही है कि ज्ञानवान को झंझट झंझट नहीं, खेल मालूम पड़ने तुमसे कहता हूं कृष्ण, कि मुझे इस भयंकर युद्ध और कर्म में मत लगती है। अगर उसे ज्ञान हो जाए, तो वह यह न कहेगा कि इस डालो। लेकिन उसका भय अपनी जगह खड़ा है। युद्ध से भागने भयंकर कर्म में मुझे क्यों डालते हैं? क्योंकि जिसे अभी कर्म भयंकर | की वृत्ति अपनी जगह खड़ी है। पलायन अपनी जगह खड़ा है। दिखाई पड़ रहा है, उसे ज्ञान नहीं हुआ। क्योंकि ज्ञान हो जाए तो | जीवन को गंभीरता से लेने की वृत्ति अपनी जगह खड़ी है। कर्म लीला हो जाता है। ज्ञान हो जाए तो कर्म अभिनय, एक्टिग हो सांख्य कहेगा कि जीवन को गंभीरता से लेना व्यर्थ है। क्योंकि जाता है। वह नहीं हुआ है। इसलिए कृष्ण को गीता आगे जारी | जो कहेगा कि ज्ञान ही सब कुछ है, उसके लिए कर्म गंभीर नहीं रह रखनी पड़ेगी। जाते, कर्म खेल हो जाते हैं बच्चों के। सांख्य हम सब को, जो कर्म सच तो यह है कि कृष्ण ने जो श्रेष्ठतम है, वह अर्जुन से पहले | में लीन हैं, जो कर्म में रस से भरे हैं या विरस से भरे हैं, कर्म में कहा। इससे बड़ी भ्रांति पैदा हुई है। सबसे पहले कृष्ण ने सांख्य की भाग रहे हैं या कर्म से भाग रहे हैं-सांख्य की दृष्टि में हम छोटे निष्ठा की बात कही; वह श्रेष्ठतम है। साधारणतः, कोई दूसरा बच्चों की तरह हैं, जो नदी के किनारे रेत के मकान बना रहे हैं, बड़े आदमी होता, तो अंत में कहता। दुकानदार अगर कोई होता कृष्ण कर्म में लीन हैं। और अगर उनके रेत के मकान को धक्का लग 302 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120+ स्वधर्म की खोज -m जाता है, तो बड़े दुखी और बड़े पीड़ित हैं। आप भीतर कर्म कर सकते हैं? कर्म के लिए बहिर्मुख होना जरूरी सांख्य कहता है, कर्म स्वप्न से ज्यादा नहीं है। अगर यह समझ | | है, बाहर जाना जरूरी है। कर्म के लिए अपने से बाहर निकलना में आ जाए, तो कृष्ण के सामने और प्रश्न उठाने की अर्जुन को कोई | पड़ेगा, तो ही कर्म हो सकता है। इसलिए जितना कर्मठ व्यक्ति, जरूरत नहीं है। यह समझ में नहीं आया है। फिर भी नासमझी भी | | उतना अपने से बाहर चला जाता है; चांद-तारों पर चला जाता है; समझदारी के प्रश्न खड़े कर सकती है। और अर्जुन वैसा ही प्रश्न | | भीतर नहीं आ सकता है। खड़ा कर रहा है। योग बहिर्मुखी व्यक्ति के लिए मार्ग है; सांख्य अंतर्मुखी व्यक्ति | के लिए मार्ग है। और इस तरह के, दो तरह के व्यक्ति हैं। इन दो तरह के व्यक्तियों में विरोध है; सांख्य और योग में विरोध नहीं है। प्रश्नः भगवान श्री, सांख्य समझ में तो आई है थोड़ी, इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है। क्योंकि अक्सर लेकिन अनुभूति में नहीं आई है, इसलिए प्रश्न तो | व्यक्तियों का विरोध, शास्त्रों का विरोध मालूम पड़ने लगता है। उठते ही हैं। भगवान श्री, ज्ञाननिष्ठा अर्थात सांख्य, । व्यक्तियों का विरोध शास्त्रों का विरोध मालम पड़ने लगता है. है और कर्मनिष्ठा अर्थात योग क्या अपने-अपने में पूर्ण | नहीं। अब महावीर हैं, बुद्ध हैं, शंकर हैं या नागार्जुन हैं-इनके नहीं हैं? अथवा क्या वे एक-दूसरे के पूरक हैं? और | बीच जो भी विरोध हमें मालूम पड़ते हैं, वे इन व्यक्तियों के विरोध उनमें विरोध दिखाई पड़ने का क्या कारण है? कृपया | | हैं; जिस सत्य, जिस अनुभूति, जिस अलौकिक जगत की वे बात इसे बताएं। कर रहे हैं, वहां कोई विरोध नहीं है। लेकिन जिस मार्ग से वे पहंचे | हैं, वहां भिन्नता है। भिन्नता ही नहीं, विरोध भी है।। अब जैसे एक बहिर्मुखी व्यक्ति है, तो उसके लिए धर्म सेवा पाख्य और योग में विरोध नहीं है; लेकिन सांख्य की बनेगी। अंतर्मुखी व्यक्ति है, उसके लिए धर्म ध्यान बनेगा। ।दिशा जिस व्यक्ति के लिए अनुकूल है, उसके लिए अंतर्मुखी व्यक्ति के लिए सेवा की बात एकदम से समझ में नहीं - योग की दिशा प्रतिकूल है। जिसे योग की दिशा | | आएगी। बहिर्मुखी व्यक्ति के लिए ध्यान की बात एकदम से समझ अनुकूल है, उसे सांख्य की दिशा प्रतिकूल है। सांख्य और योग में | में नहीं आएगी–कि भीतर डूबकर क्या होगा? जो भी है करने का, विरोध नहीं है, लेकिन इस जगत में व्यक्ति दो प्रकार के हैं, | बाहर है। जो भी होने की संभावना है, बाहर है। व्यक्तियों का टाइप दो प्रकार का है। और इसलिए किसी के लिए । ये दो तरह के व्यक्ति हैं, मोटे हिसाब से। आमतौर से कोई भी सांख्य बिलकुल गलत हो सकता है और किसी के लिए योग | - व्यक्ति एकदम एक्सट्रोवर्ट और एकदम इंट्रोवर्ट नहीं होता। ये मोटे बिलकुल सही हो सकता है। और किसी के लिए योग बिलकुल | | विभाजन हैं। हम सब मिश्रण होते हैं—कुछ अंतर्मुखी, कुछ गलत हो सकता है और सांख्य बिलकुल सही हो सकता है। दो बहिर्मुखी। मात्राओं के फर्क होते हैं। कभी होता है कि नब्बे प्रतिशत तरह के व्यक्ति हैं जगत में। | व्यक्ति बहिर्मुखी होता है, दस प्रतिशत अंतर्मुखी होता है। __ अभी गुस्ताव जुंग ने व्यक्तियों के दो मोटे विभाजन किए हैं। । । आमतौर से व्यक्ति मिश्रित होते हैं। ऐसा बहुत कम होता है कि एक को गुस्ताव जुंग कहता है एक्स्ट्रोवर्ट, और दूसरे को कहता है | | | व्यक्ति शुद्ध रूप से अंतर्मुखी हो। क्योंकि शुद्ध रूप से अंतर्मुखी इंट्रोवर्ट। एक वे, जो बहिर्मुखी हैं; एक वे, जो अंतर्मुखी हैं। व्यक्ति एक क्षण भी जी नहीं सकता। भोजन करेगा, तो बाहर जाना ___ जो व्यक्ति अंतर्मुखी हैं, उनके लिए योग जरा भी काम का नहीं पड़ेगा; स्नान करेगा, तो बाहर जाना पड़ेगा। अंतर्मुखी व्यक्ति अगर है। जो व्यक्ति अंतर्मुखी हैं, उनके लिए सांख्य पर्याप्त है। पर्याप्त | | सौ प्रतिशत हो, तो तत्काल मृत्यु घटित हो जाएगी। बहिर्मुखी से ज्यादा है। जो व्यक्ति बहिर्मुखी हैं, सांख्य उनकी पकड़ में ही | | व्यक्ति भी अगर सौ प्रतिशत हो, तो तत्काल मृत्यु हो जाएगी। नहीं आएगा, कर्म ही उनकी पकड़ में आएगा। क्योंकि ध्यान रहे, | क्योंकि निद्रा भी चाहिए, जिसमें भीतर जाना पड़ेगा। विश्राम भी कर्म के लिए बाहर जाना जरूरी है और ज्ञान के लिए भीतर जाना | | चाहिए, जिसमें अपने में डूबना पड़ेगा। काम से छुट्टी, अवकाश जरूरी है। कर्म अगर कोई भीतर करना चाहे, तो नहीं कर सकता। | भी चाहिए; मित्रों, प्रियजनों से बचाव भी चाहिए; अन्यथा उसका |303] Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 अपने अंतर-जीवन के स्रोतों से संबंध टूट जाएगा और वह समाप्त | ___ कृष्ण ने बड़ी ही अंतर्दृष्टि का प्रमाण दिया है। क्योंकि बात वह हो जाएगा। | ब्राह्मण जैसी कर रहा है, इसलिए ब्राह्मण की जो चरम उत्कृष्ट इसलिए यह जो विभाजन है, सैद्धांतिक है। व्यक्ति-व्यक्ति में | | संभावना है—सांख्य-कृष्ण ने सबसे पहले वही कह दी। उन्होंने मात्राओं के फर्क होते हैं। नब्बे प्रतिशत कोई व्यक्ति बहिर्मुखी हो | कहा कि अगर तू सच में ही ब्राह्मण की स्थिति में आ गया है, तो सकता है, दस प्रतिशत अंतर्मुखी हो सकता है। सांख्य की बात पर्याप्त होगी, ज्ञान पर्याप्त होगा। अर्जुन जो है, एक्सट्रोवर्ट है। अर्जुन जो है, बहिर्मुखी व्यक्ति है। उससे कुछ हल नहीं हुआ। अर्जुन वहीं का वहीं रहा, जैसे घड़े इसलिए सांख्य की बात उसकी समझ में पड़नी असंभव है; या पर पानी गिरा और बह गया। दूसरा अध्याय व्यर्थ गया है अर्जुन इतनी थोड़ी-सी पड़ सकती है कि उससे वह नए सवाल उठा सकता पर। अर्जुन पर अगर सार्थक हो जाता, तो गीता वहीं बंद हो जाती, है। लेकिन उससे उसके जीवन का समाधान नहीं हो सकता। क्यों? आगे गीता के चलने का उपाय न था। अर्जुन बहिर्मुखी क्यों है? __ अब कृष्ण को एक-एक कदम नीचे उतरना पड़ेगा। वे एक-एक अर्जन का सारा जीवन क्षत्रिय के शिक्षण का जीवन है। सारा कदम नीचे उतरकर अर्जुन से बात करेंगे। शायद एक सीढ़ी नीचे जीवन कुछ करने और करने में कुशलता पाने में बीता है। सारा | की बात अर्जुन की समझ में आ जाए। इतना तय हो गया कि ब्राह्मण जीवन दूसरे को ध्यान में रखकर बीता है-प्रतियोगिता में, | | वह नहीं है। वह उसका स्वधर्म नहीं है, वह उसका व्यक्तित्व नहीं प्रतिस्पर्धा में, संघर्ष में, युद्ध में। क्षत्रिय, इंट्रोवर्ट आदमी क्षत्रिय | है। सांख्य बेकार गया-सांख्य बेकार है, इसलिए नहीं। अर्जुन पर नहीं हो सकता है। और अगर अंतर्मुखी आदमी क्षत्रिय के घर में भी | बेकार गया, अर्जुन के लिए बेकार है। पैदा हो जाए, तो भी क्षत्रिय नहीं रह सकता। लेकिन कृष्ण के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण था, इसलिए सबसे जैनों के चौबीस तीर्थंकर क्षत्रियों के घर में पैदा हुए, लेकिन क्षत्रिय पहले सांख्य की बात कर ली। नहीं रह सके। वे सब इंट्रोवर्ट हैं। महावीर अंतर्मुखी व्यक्ति हैं। बाहर के जगत में उन्हें कोई अर्थ मालूम नहीं होता है। बुद्ध क्षत्रिय घर में पैदा हुए, लेकिन क्षत्रिय नहीं रह सके। बाहर का वह विस्तार, कर्मों | प्रश्नः भगवान श्री, एक बहुत ही छोटा-सा प्रश्न है, का वह जाल, उन्हें बेमानी मालूम पड़ा, छोड़कर हट गए। आपने अभी-अभी कहा कि व्यक्ति कुछ अंतर्मुखी है अगर ब्राह्मण के घर में भी बहिर्मुखी व्यक्ति पैदा हो जाए-जैसे | | और कुछ बहिर्मुखी है। इसका अर्थ क्या यह है कि परशुराम-तो ब्राह्मण नहीं रह सकता, क्षत्रिय हो जाएगा। क्षत्रिय | व्यक्ति को सांख्य और योग दोनों की साधना अनिवार्यरूपेण बहिर्मुखी होता है। अगर क्षत्रिय होने में उसे सफल | साथ-साथ करनी पड़ेगी? होना है। अर्जुन, कहना चाहिए, क्षत्रिय होने का आदर्श है। क्षत्रिय जैसा हो सकता है, वैसा व्यक्तित्व है। कृष्ण ने उसे सांख्य की निष्ठा कही साधना साथ-साथ नहीं की जा सकती सबसे पहले, क्योंकि अर्जुन बातें ब्राह्मणों जैसी कर रहा है। अर्जुन OI है। दो रास्तों पर कभी भी एक साथ नहीं चला जा आदमी क्षत्रिय जैसा, सवाल ब्राह्मणों जैसे उठा रहा है। युद्ध के सकता है। और जो दो रास्तों पर एक साथ चलेगा, मैदान पर खड़ा है, लेकिन प्रश्न जो पूछ रहा है, वे गुरुकुलों में पूछने वह कहीं भी नहीं पहुंचेगा। चल ही नहीं सकेगा। न दो नावों पर . जैसे हैं। प्रश्न जो पूछा रहा है, वे किसी बुद्ध से, किसी बोधिवृक्ष | | एक साथ सवार हुआ जा सकता है। और जो दो नावों पर एक साथ के नीचे बैठकर, वन के एकांत में पूछने जैसे हैं। लेकिन प्रश्न जो | | सवार होगा, वह सिर्फ डूबेगा; वह कहीं पहुंच नहीं सकता है। पूछ रहा है, वह पूछ रहा है युद्ध के समारंभ के शुरुआत में, जब | जब मैंने कहा कि व्यक्ति में मात्राएं हैं, तो जिस व्यक्ति में जिस कि शंखनाद हो चुका है और योद्धा आमने-सामने आ गए हैं और तत्व की ज्यादा मात्रा है, उसे उसी मार्ग पर जाना होगा। मार्ग तो एक जब अब घड़ीभर की देर नहीं है कि लहू की धारें बह जाएंगी-ऐसे | | ही चुनना होगा। अगर वह बहिर्मुखी है अधिक मात्रा में, तो योग क्षण में वह जिज्ञासाएं जो कर रहा है. वे ब्राह्मण जैसी हैं। | मार्ग है; अगर अंतर्मुखी है अधिक मात्रा में, तो सांख्य मार्ग है। मार्ग 304 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ → स्वधर्म की खोज 4 चुनना ही होगा। दोनों पर नहीं चला जा सकता। और इसीलिए एक बात और आपसे कह दूं । इसीलिए जो व्यक्ति जिस मार्ग से पहुंचेगा, वह बलपूर्वक कहेगा कि मेरा ही। मार्ग ठीक है। उसके कहने में कोई गलती नहीं है, वह पहुंचा है उस मार्ग से। और वह बलपूर्वक यह भी कहेगा कि दूसरे का मार्ग ठीक नहीं है, जानते हुए भी कि दूसरे का मार्ग भी ठीक है। पर ऐसा क्यों कहेगा ? क्योंकि अगर वह ऐसा कहे कि वह मार्ग भी ठीक है, यह मार्ग भी ठीक है, तो जिन लोगों को मार्ग पर चलना है, उनके लिए चुनाव कठिन होता चला जाता है। इसलिए दुनिया में जब से इक्लेक्टिक रिलीजन पैदा हो गए, जैसे थियोसाफी, जिसने कहा कि सब मार्ग ठीक हैं, तो उस मार्ग पर कोई आदमी चला नहीं कभी। हां, लोग किताब पढ़ लिए। जब सब मार्ग ठीक हैं, तो चुनाव मुश्किल हो गया। जब से दुनिया में कुछ ऐसे लोगों ने बात करनी शुरू की कि सभी ठीक है, तब से करीब-करीब मतलब यह हुआ कि सभी बेकार है, कुछ भी ठीक नहीं है। जो अंततः मतलब हुआ। जब हम कहने लगते हैं कि सभी • ठीक है, तो करीब-करीब बात ऐसी हो जाती है कि गलत कुछ भी नहीं है। और अंततः मनुष्य के मन पर जो परिणाम होता है, वह यह होता है कि सभी गलत है। इसलिए सांख्य अनिवार्य रूप से कहेगा कि गलत है कर्म की बात; ज्ञान ही सही और मैं मानता हूं, इसमें करुणा है, इसमें मेटम नहीं है। इस बात को ठीक से समझ लेना है। इसमें कोई रूढ़िवाद नहीं है; इसमें सिर्फ करुणा है। क्योंकि वह जो विराट मनुष्य जाति है, उसे चुनाव करना है। एक- एक आदमी को डिसीजन लेना है - कहां चले ? अगर सभी ठीक है, तो आदमी इनडिसीसिव हो जाता है। वह अनिश्चय में पड़ जाता है। वह सिर्फ खड़ा रह जाता है। अगर चौरस्ते पर आप किसी से पूछें कि कौन-सा रास्ता नदी पहुंचता है? और वह कहे कि सभी रास्ते नदी पहुंचते हैं, तो बहुत संभावना यही है कि आप चौरस्ते पर खड़े रह जाएं और दूसरे आदमी की प्रतीक्षा करें, जो एक रास्ता बता सकता हो। सांख्य कहेगा : ठीक है ज्ञान। योग कहेगा : ठीक है साधना, कर्म, श्रम। उनके कहने में करुणा है। व्यक्तियों को, जिनसे यह बात कही जा रही है, उनके सामने स्पष्ट चुनाव चाहिए। लेकिन एक बात समझ लेनी चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने को तौलकर मार्ग...। | इसलिए गीता एक अर्थ में अदभुत ग्रंथ है। न कुरान इस अर्थ में अदभुत है, न बाइबिल इस अर्थ में अदभुत है, न महावीर के वचन, न बुद्ध के, इस अर्थ में अदभुत हैं। किसी और अर्थ में वे सारी चीजें अदभुत हैं । लेकिन गीता एक विशेष अर्थ में अदभुत है कि उसमें सब तरह के व्यक्तियों के मार्गों की चर्चा हो गई है। उसमें सब तरह की संभावनाओं पर चर्चा हो गई है, क्योंकि अर्जुन पर कृष्ण ने सभी तरह की संभावनाओं की बात की है। एक-एक संभावना बेकार होती गई है, वे दूसरी संभावना की बात करते चले गए हैं। ऐसे अर्जुन के बहाने कृष्ण ने प्रत्येक मनुष्य के लिए संभावना का द्वार |खोल दिया है। 305 लेकिन उससे उलझन भी पैदा हुई। उलझन यह पैदा हुई कि कृष्ण जब सांख्य की बात करते हैं, तो वे कहते हैं, सांख्य परम है। तब वे ऐसे बोलते हैं, जैसे वे सांख्य स्वयं हैं। बोलना ही पड़ेगा। जब वे योग की बात करते हैं, तो लगता है, योग परम है। जब वे भक्ति की बात करते हैं, तो लगता है कि भक्ति परम है। इससे एक उपद्रव जरूर हुआ। वह उपद्रव यह हुआ कि भक्त ने पूरी गीता में से भक्ति निकाल डाली। निकाल ली भक्ति और पूरी गीता पर भक्ति को थोप देने की कोशिश की। रामानुज, वल्लभ, निम्बार्क – सबकी टीकाएं पूरी गीता पर भक्ति को थोप देती हैं । ज्ञानियों ने ज्ञान निकाल लिया और पूरी गीता पर ज्ञान थोपने की कोशिश की— शंकर । कर्मियों ने कर्म निकाल लिया – तिलक— और पूरी गीता पर कर्म को थोपने की कोशिश की। - लेकिन कोई भी इस सत्य को ठीक से नहीं समझ पाया कि गीता समस्त मार्गों का विचार है। और जब एक मार्ग की कृष्ण बात करते हैं, तो उस मार्ग से वे इतने लीन और एक हो जाते हैं कि वे कहते हैं, परम है, यही परम है। जब अर्जुन पर वह व्यर्थ हो जाता है, तब वे दूसरे मार्ग की बात करते हैं। तब वे अर्जुन से फिर कहते हैं, यही परम है, दिस इज़ दि अल्टिमेट, यही सत्य है पूर्ण । क्योंकि अर्जुन को वे फिर चाहते हैं कि इसे चुन ले। और अर्जुन वैसे ही अनिश्चयमना है, अगर कृष्ण भी स्यातवाद में बोलें कि शायद यह ठीक है, शायद वह ठीक है, तो अर्जुन के लिए चुनाव असंभव है। अगर कृष्ण यह कहें कि वह भी ठीक है, यह भी ठीक है; किसी के लिए वह ठीक है, किसी के लिए यह ठीक है; कभी वह ठीक है, कभी यह ठीक है। तो अर्जुन, जो इनडिसीजन में पड़ा है, जो अनिर्णय में पड़ा है, जो चिंता में पड़ा है, जिसे मार्ग नहीं सूझता, | उसके लिए कृष्ण मार्ग नहीं बना सकेंगे, मार्ग नहीं दे सकेंगे। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m+ गीता दर्शन भाग-1 AM इसलिए कृष्ण जब कहते हैं, यही परम है, तो वे अर्जुन की आंख | मुझे उस क्षण में दिखाई ही पड़ता है। ऐसा भी नहीं है कि कल मैं में झांक रहे हैं और देख रहे हैं कि शायद यह उसे ठीक पड़ जाए; | बदल जाऊंगा, तो आप कहें कि कल आप बदल गए तो उस दिन तो उसके लिए यही परम हो जाए। आपने धोखा दिया था? नहीं, तब भी उस क्षण में मैंने ऐसा ही जाना इसलिए गीता विशिष्ट है इस अर्थ में कि अब तक सत्य तक | था और वह मेरे पूरे प्राणों से निकला था कि तुझसे ज्यादा सुंदर और पहुंचने के जितने द्वार हैं, कृष्ण ने उन सबकी बात की है। लेकिन कोई भी नहीं है। उस क्षण के लिए मेरे पूरे प्राणों की पुकार वही थी। वह बात सिंथेटिक नहीं है, वह बात गांधी जी जैसी नहीं है। वह | कृष्ण जैसे लोग क्षणजीवी होते हैं, लिविंग मोमेंट टु मोमेंट। जब बात ऐसी नहीं है कि वह भी ठीक है, यह भी ठीक है। कृष्ण कहते | | वे सांख्य की बात करते हैं, तब वे सांख्य के साथ इस प्रेम में पड़ हैं, जो ठीक है, उसके लिए वह परम रूप से ठीक है, बाकी उसके जाते हैं कि वे कहते हैं, सांख्य परम है। अर्जुन! सांख्य से श्रेष्ठ कुछ लिए सब गलत है। दूसरा किसी के लिए ठीक है, तो वह उसके | | भी नहीं है। और जब वे भक्ति के प्रेम में पड़ जाते हैं क्षणभर के लिए परिपूर्ण रूप से ठीक है-एब्सोल्यूट–निरपेक्ष ठीक है, और बाद, तो वे कहते हैं, अर्जुन! भक्ति ही मार्ग है; उसके अतिरिक्त बाकी उसके लिए सब गलत है। कोई भी मार्ग नहीं है। गीता बडी हिम्मतवर किताब है। और इतनी हिम्मत के लोग कम इसे ध्यान में रखना पडेगा। इसमें कोई तलनात्मक कोई होते हैं, जो अपनी ही बात को जिसे उन्होंने दो क्षण पहले कहा है, | कंपेरेटिव बात नहीं है। जब कृष्ण कहते हैं, सांख्य परम है, या जब दो क्षण बाद कह सकें कि वह बिलकुल गलत है, यह बिलकुल | | मैं कहता हूं किसी स्त्री से कि तुझसे सुंदर और कोई भी नहीं है, तब ठीक है। और दो क्षण बाद इसको भी कह सकें कि यह बिलकुल | | मैं दुनिया की स्त्रियों से उसकी तुलना नहीं कर रहा। असल में मेरे गलत है और अब जो मैं कह रहा हूं वही बिलकुल ठीक है। इतना | लिए वह अतुलनीय हो गई है, इसलिए दुनिया में अब कोई स्त्री असंगत होने का साहस केवल वे ही लोग कर सकते हैं, जो भीतरी | उसके मुकाबले नहीं है। मैं कोई तुलना नहीं कर रहा, मैं कोई कंपेयर रूप से परम संगति को उपलब्ध हो गए हैं, और अन्य लोग नहीं नहीं कर रहा, सारी तस्वीरें रखकर जांच नहीं कर रहा कि इससे कर सकते हैं। संदर कोई स्त्री है या नहीं। न मैंने सारी दनिया की स्त्रियां देखी हैं. यह तो बार-बार खयाल में आएगा आपको कि कृष्ण जब भी | | न जानने का सवाल है। न! इस क्षण में मेरे पूरे प्राणों की आवाज . जो कुछ कहते हैं, एब्सोल्यूट, निरपेक्ष कहते हैं; जब जो कुछ कहते यह है कि तुझसे सुंदर और कोई भी नहीं है। वह सिर्फ मैं यह कह हैं, उसे पूर्णता से कहते हैं। खयाल यही है कि वह इतनी पूर्णता में | | रहा हूं कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। और जहां प्रेम है, वहां परम, ही अर्जुन के लिए चुनाव बन सकता है, अन्यथा चुनाव नहीं बन | एब्सोल्यूट प्रकट होता है। सकता है। और कृष्ण जब सांख्य की बात करते हैं, तो वे सांख्य के साथ इसलिए दनिया में जब से बहत कम हिम्मत के दयाल लोग पैदा उसी तरह प्रेम में हैं, जैसे कोई प्रेमी। और अगर इतने प्रेम में न हों, हो गए हैं जो कहते हैं, यह भी ठीक है, वह भी ठीक है; सब तो गीता में इतने प्राण नहीं हो सकते थे, तब किताब भगवद्गीता ठीक है; और सबकी खिचड़ी बनाने की कोशिश में लगे हुए | नहीं कही जा सकती थी। तब वह भगवान का वचन नहीं कही जा हैं-तब से उन्होंने न हिंदू को ठीक से हिंदू रहने दिया, न मुसलमान | | सकती थी। भगवान का वचन वह इसीलिए कही जा सकी-वह को ठीक से मुसलमान रहने दिया; न अल्लाह के पुकारने में ताकत | इसीलिए गीत गोविंद बन गई-सिर्फ इसीलिए कि प्रतिपल कृष्ण रह गई, न राम को बुलाने में हिम्मत रह गई। अल्ला-ईश्वर तेरे नाम ने जो भी कहा, उसके साथ वे इतने एक हो गए कि रत्तीभर का बिलकुल इम्पोटेंट हो जाता है, बिलकुल मर जाता है; उसमें कोई फासला न रहा। ताकत नहीं रह जाती। उसमें कोई ताकत ही नहीं रह जाती। । सांख्य की बात करते वक्त वे सांख्य हो जाते हैं: भक्ति की बात एक व्यक्ति के लिए उसका निर्णय सदा परम होता है। वह करते वक्त वे भक्त हो जाते हैं; योग की बात करते वक्त वे निर्णय उसी तरह का है कि मैं किसी स्त्री के प्रेम में पड़ जाऊं, तो महायोगी हो जाते हैं। अतीत गिर जाता, भविष्य शेष नहीं रहता, जो उस प्रेम के क्षण में मैं उससे कहता हूं कि तुझसे ज्यादा सुंदर और सामने होता है, उसके साथ वे पूरे एक हो जाते हैं। कोई भी नहीं है। और ऐसा नहीं है कि मैं उसे धोखा दे रहा हूं। ऐसा । इसे खयाल में रखेंगे, तो उनके वचन तुलनात्मक नहीं हैं। एक 306 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ im+ स्वधर्म की खोज - अध्याय की दूसरे अध्याय से तुलना नहीं की गई है। एक श्रृंखला भीतर कुछ न बचे, तो बाहर भी खो जाएगा। क्योंकि बाहर फिर दूसरी श्रृंखला से, एक निष्ठा दूसरी निष्ठा से तौली नहीं गई है। किसका बाहर होगा! उसके लिए एक भीतर चाहिए, भीतर के प्रत्येक निष्ठा अपने में परम है। निश्चित ही, जो भी उस निष्ठा से | | कारण ही वह बाहर है। अगर भीतर ही बचे और बाहर बिलकुल पहुंचता है, उसके लिए उससे श्रेष्ठ कोई निष्ठा नहीं रह जाती। | न बचे, तो उसे भीतर कैसे कहिएगा? वह किसी बाहर की तुलना और अपेक्षा में भीतर है। असल में जैसे आपके कोट का खीसा है। उसका एक हिस्सा भीतर है, जिसमें आप हाथ डालते हैं; और एक प्रश्नः भगवान श्री, बहिर्मुखी व्यक्ति साधना | | हिस्सा उसका बाहर है, जो लटका हुआ है। क्या आप सोच सकते करते-करते अंतर्मुख होता जाए, तो क्या अपना रास्ता हैं कि कभी ऐसा हो जाए कि खीसे का भीतर ही भीतर बचे और जीवन में आगे जाकर उसे बदलना चाहिए? बाहर न बचे! __ आपका घर है। कभी आप सोच सकते हैं कि घर का भीतर ही भीतर बचे और घर का बाहर न बचे! अगर भीतर ही भीतर बचे न हीं; ऐसा होता नहीं। बहिर्मुख व्यक्ति बढ़ते-बढ़ते | और बाहर न बचे, तो भीतर भी न बचेगा। अगर बाहर ही बाहर । सारे ब्रह्म से एक हो जाता है। बहिर्मुख व्यक्ति | बचे और भीतर न बचे, तो बाहर भी न बचेगा। बाहर और भीतर बढ़ते-बढ़ते उस जगह पहुंच जाता है, जहां बाहर कुछ | एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। शेष नहीं रहता। सारे बहिर से उसका एकात्म हो जाता है। जिस दिन इसलिए दो रास्ते हैं। या तो बाहर को गिरा दो या भीतर को गिरा सारे बहिर से उसका एकात्म हो जाता है, उस दिन भीतर भी कुछ | दो। दोनों गिर जाएंगे और तब जो शेष रह जाएगा, जो बाहर और नहीं रह जाता, बाहर भी कुछ नहीं रह जाता। लेकिन वह बाहर के | भीतर दोनों में था, जो बाहर और भीतर दोनों के पार भी था। वह साथ एक होकर स्वयं को और सत्य को पाता है। तब वह कहता| | जो बचेगा, उसे हम ब्रह्म कहें-अगर हमने बाहर से यात्रा की हो। है: ब्रह्म मैं हूं, वह सारे ब्रह्म से एक हो जाता है। पूर्ण मैं हूं, तब या उसे हम शून्य कहें, निर्वाण कहें-अगर हमने भीतर से यात्रा वह पूरे पूर्ण से एक हो जाता है। तब चांद-तारे उसे अपने भीतर की हो। घूमते हुए मालूम पड़ते हैं। जिन लोगों ने परमात्मा को पूर्ण की तरह सोचा है, वे बहिर्यात्रा __ अंतर्मुखी व्यक्ति भीतर डूबते-डूबते इतना भीतर डूब जाता है कि कर रहे हैं। जिन्होंने परमात्मा को शून्य की तरह सोचा है, वे भीतर भी नहीं बचता, शून्य हो जाता है। तब वह कह पाता है, मैं | अंतर्यात्रा कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि योग की साधना करते-करते, हूं ही नहीं। जैसे दीए की लौ बुझ गई और खो गई, ऐसा ही सब | बहिर-साधना करते-करते एक दिन फिर सांख्य की साधना करनी खो गया। पड़ेगी-कोई जरूरत नहीं है! योग ही पहुंचा देगा। बहिर्मुखी व्यक्ति अंततः पूर्ण को पकड़ पाता है। अंतर्मुखी ___ इसे एक और तरह से समझ लें, तो खयाल में आ जाए। एक व्यक्ति अंततः शून्य को पकड़ पाता है। और शून्य और पूर्ण दोनों आदमी दस की संख्या पर खड़ा है। वह दस की संख्या से अगर एक ही अर्थ रखते हैं। लेकिन बहिर्मखी व्यक्ति बाहर की यात्रा ग्यारह और बारह ऐसा बढता चला जाए, तो भी असीम पर पहुंच कर-करके पहुंचता है; अंतर्मुखी व्यक्ति भीतर की यात्रा कर-करके | जाएगा। एक जगह आएगी, जहां सब संख्याएं खो जाएंगी। अगर पहुंचता है। बहिर्मुखी व्यक्ति अंततः अपने अंतस को बिलकुल वह दस से नीचे उतरे नौ, आठ...पीछे लौटता है, तो एक के बाद काटकर फेंक देता है; भीतर कुछ बचता ही नहीं, बाहर ही बचता | शून्य आ जाएगा, जहां सब संख्याएं खो जाएंगी। आप किसी भी है। अंतर्मुखी व्यक्ति बाहर को भूलते-भूलते इतना भूल जाता है कि | | तरफ यात्रा करें, संख्या खोएगी। और जब संख्या खो जाएगी, तो बाहर कुछ बचता ही नहीं है। आपने कहां से यात्रा की थी, इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। जो और बड़े मजे की बात है कि बाहर और भीतर दोनों एक साथ बचेगा-संख्या के बाहर-वह एक ही होने वाला है। बचते हैं। एक नहीं बच सकता दो में से। इसलिए एक खोता है, इसे पाजिटिव और निगेटिव की तरह भी खयाल में ले लेना तो दूसरा तत्काल खो जाता है। अगर आप बाहर ही बाहर बचे और चाहिए। कुछ लोग हैं जिनको विधायक शब्द प्रीतिकर लगते हैं, वे Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1 वे ही लोग हैं, जो बहिर्मुखी हैं। कुछ लोग हैं जिन्हें नकारात्मक, शून्य के साथ। निषेधात्मक शब्द प्रीतिकर लगते हैं, वे वे ही लोग हैं, जो अंतर्मुखी इसे ऐसा भी समझ लें। अगर कोई भाव से भरा हुआ व्यक्ति है, हैं। जैसे बुद्ध। तो बुद्ध को नकारात्मक शब्द बड़े प्रीतिकर लगते हैं। | इमोशनल, भावुक, तो उसे पूर्ण की भाषा स्वीकार होगी। और अगर उन्हें परमात्मा भी प्रकट होगा, तो नहीं के रूप में प्रकट होगा, | अगर कोई बहुत बौद्धिक, बहुत इंटलेक्चुअल व्यक्ति है, तो उसे नथिंगनेस के रूप में प्रकट होगा, शून्य के रूप में प्रकट होगा। | नकार की, इनकार की भाषा स्वीकार होगी। तर्क इनकार करता है, इसलिए बुद्ध ने अपने मोक्ष के लिए जो नाम चुना, वह है। तर्क इलिमिनेट करता है, काटता है-यह भी बेकार, यह भी निर्वाण। अब निर्वाण का मतलब होता है, दीए का बुझ जाना। जैसे | बेकार, यह भी बेकार–फेंकता चला जाता है, उस समय तक जब दीया बुझ जाता है, बस ऐसे ही एक दिन व्यक्ति बुझ जाता है। तब कि फेंकने को कुछ बचता ही नहीं। तब जब कछ फेंकने को नहीं जो रह गया, वह निर्वाण है। कोई बुद्ध से पूछता है कि आपके बचता, तो तर्क भी गिर जाता है। निर्वाण के बाद क्या होगा? तो बुद्ध कहते हैं, दीया बुझ जाता है, ___ कभी आपने देखी है एक दीए की बाती! बाती तेल को जलाती तो फिर क्या होता है? शून्य के साथ एक हो जाता है। तो बुद्ध का है। जब सारे तेल को जला डालती है, फिर खुद जल जाती है। कभी जोर निगेटिव है, नकारात्मक है। वह अंतर्मुखी का जोर है। आपने यह देखा कि बाती को आग की लपट जलाती है, फिर पूरी दुनिया में जब भी अंतर्मुखी बोलेगा, तो नकार की भाषा बोलेगा, बाती जल जाती है, तो लपट भी बुझ जाती है! निगेशन की भाषा बोलेगा-नहीं, नेति-नेति। वह कहेगा, यह भी | | तर्क इनकार करता चला जाता है-यह भी नहीं, यह भी नहीं, नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं। उस जगह पहुंचना है, जहां कुछ | यह भी नहीं। आखिर में जब कुछ भी इनकार करने को नहीं बचता, भी न बचे। लेकिन जहां कुछ भी न बचे, वहीं सब कुछ बचता है। | तो इनकार करने वाला तर्क भी मर जाता है। श्रद्धा स्वीकार करती एक पाजिटिव भाषा है—यह भी, यह भी, यह भी। अगर सब जुड़ चली जाती है—यह भी, यह भी, यह भी। और जब सब स्वीकार जाए, तो जो बचता है, वह भी सब कुछ है। | हो जाता है, तो श्रद्धा की भी कोई जरूरत नहीं रह जाती, वह भी ये दो ही ढंग हैं। इनमें किसी भी तरफ आप चुन सकते हैं यात्रा। | गिर जाती है। और जहां तर्क और श्रद्धा दोनों ही गिर जाते हैं, वहां और ये दोनों ढंग बड़े विरोधी मालूम पड़ते हैं। जहां तक ढंग का | | एक ही मुकाम, एक ही मंजिल, एक ही मंदिर आ जाता है। .. संबंध है, विरोधी हैं। लेकिन जहां तक उपलब्धि का संबंध है, कोई | विरोध नहीं है। वहीं पहुंच जाते हैं शून्य से भी। वहीं पहुंच जाते हैं पूर्ण से भी। वहीं पहुंच जाते हैं नेति-नेति कहकर भी। वहीं पहुंच व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे। जाते हैं सब में परमात्मा को जानकर, देखते, मानकर, सोचते, तदेकंवद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ।। २ ।। अनुभव करते हुए भी। पहुंचना है वहां, जहां द्वैत न बचे। | हे कष्ण. आप मिले हए वचन से मेरी बद्धि को मोहित-सी तो द्वैत दो तरह से शून्य हो सकता है, मिट सकता है, या तो सब करते हैं। इसलिए उस एक बात को निश्चय करके कहिए स्वीकृत हो जाए या सब अस्वीकृत हो जाए। या तो सब बंधन गिर कि जिसमें मैं कल्याण को प्राप्त होऊ।। जाएं और या सब बंधन आत्मा ही हो जाएं, तब भी हो सकता है। या तो बंधन बचें ही नहीं और या फिर बंधन ही सब कुछआत्मा-बन जाएं; तब भी बंधन नहीं बचते। 17 छता है अर्जुन, एक बात निश्चित करके कहिए, ताकि न तो योगी को सांख्य में जाना पड़ता है. न सांख्य को योग में | प मैं इस उलझाव से मुक्त हो जाऊं। लेकिन क्या दूसरे जाना पड़ता है। लेकिन दोनों जहां पहुंच जाते हैं, वह एक ही जगह on की कही बात निश्चय बन सकती है? और क्या दूसरा है। कहीं कोई बदलाहट नहीं करनी पड़ती। वे दोनों ही वहीं ले जाते कितने ही निश्चय से कहे, तो भी भीतर का अनिश्चय गिर सकता हैं। यह प्रत्येक व्यक्ति को अपने भीतर देखने की बात है कि है? कृष्ण ने कम निश्चय से नहीं कही सांख्य की बात। कृष्ण ने पूरे उसकी अपनी रुचि, उसका अपना स्वधर्म, उसका अपना लगाव ही निश्चय से कही है कि यही है मार्ग। लेकिन अर्जुन फिर कहता विधायक के साथ है कि नकारात्मक के साथ है, पूर्ण के साथ कि | है, निश्चय से कहिए। इसका क्या अर्थ हुआ? 308 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. स्वधर्म की खोज -Am इसका अर्थ हुआ कि कृष्ण ने कितने ही निश्चय से कही हो, तो भी मैं निश्चित हूं। क्योंकि जब बचना ही है, तो चिंता कैसी? अर्जुन के व्यक्तित्व से उसका कोई तालमेल नहीं हो पाया। अर्जुन | ___ अब इसको समझें। यह साक्रेटीज इतनी अनिश्चित स्थिति में से के लिए वह कहीं भी निश्चय की ध्वनि भी नहीं पैदा कर पाई। । | भी निश्चय निकाल लेता है। और कृष्ण इतनी निश्चित बात कहते अर्जुन और उसके बीच समानांतर स्थिति रही—पैरेलल। वैसे ही । | हैं। उनका स्टेटमेंट टोटल है, कि सांख्य परम निष्ठा है; ज्ञान पर्याप्त जैसे रेल की दो पटरियां समानांतर होती हैं, चलती हैं जिंदगीभर | | है; स्वयं को जान लेना काफी है, कुछ और करने का कोई अर्थ नहीं साथ, मिलती कहीं भी नहीं हैं। साथ ही साथ होती हैं सदा और है। अर्जुन कहता है, कुछ ऐसी निश्चित बात कहो कि मेरा बहुत दूर फासले पर मिलती हुई मालूम भी होती हैं; लेकिन जब | अनिश्चित मन अनिश्चित न रहे, मेरा विषयों में भागता हुआ यह वहां पहुंची तो पाया जाता है, उतनी ही अलग हैं, मिलती कहीं भी | मन ठहर जाए। अर्जुन यह नहीं समझ पा रहा है कि बातें निश्चित नहीं। पैरेलल लाइन की तरह अर्जुन और कृष्ण के बीच यह लंबा । नहीं होती, चित्त निश्चित होते हैं। सिद्धांत निश्चित नहीं होते, चेतना संवाद चलने वाला है। | निश्चित होती है। सर्टेन्टीज जो हैं, निर्णायक तत्व जो हैं, वे सिद्धांतों ___ अर्जुन कह रहा है, निश्चित कहो कि मेरा भ्रम टूटे, मेरा उलझाव | से नहीं आते, चित्त की स्थिति से आते हैं। मिटे। लेकिन जो चित्त भीतर उलझा हुआ है, वह निश्चित से निश्चित कभी आपने अर्जुन शब्द का अर्थ सोचा है ? बड़ा अर्थपूर्ण है। बात में से भी उलझाव निकाल लेता है। कोई बात निश्चित नहीं हो शब्द है एक-ऋजु। ऋजु का अर्थ होता है : सीधा-सादा, स्ट्रेट। सकती जब तक चित्त उलझा हुआ है, क्योंकि वह हर निश्चय में से अऋजु, अऋजु का अर्थ होता है : टेढ़ा-मेढ़ा, डांवाडोल। अर्जुन अनिश्चय निकाल लेता है। कितनी ही निश्चित बात कही जाए, वह शब्द का अर्थ ही होता है, डोलता हुआ। उसमें से नए दस सवाल उठा लेता है। वे सवाल उसके भीतर से हम सबके भीतर अर्जुन है। वह जो हमारा चित्त है, वह अर्जुन आते हैं, उसके अनिश्चय से आते हैं। और अगर निश्चित चित्त हो, की हालत में होता है। वह सदैव डोलता रहता है। वह कभी कोई तो कितनी ही अनिश्चित बात कही जाए. वह उसमें से निश्चय | निश्चय नहीं कर पाता। वह काम भी कर लेता है अनिश्चय में। निकाल लेता है। हम वही निकाल लेते हैं, जो हमारे भीतर की | काम भी हो जाता है, फिर भी निश्चय नहीं कर पाता। काम भी कर अवस्था होती है। हममें कुछ डाला नहीं जाता; हम वही अपने में चुका होता है, फिर भी तय नहीं कर पाता कि करना था कि नहीं आमंत्रित कर लेते हैं, जो हमारे भीतर तालमेल खाता है। करना था। पूरी जिंदगी अनिश्चय है। साक्रेटीज मर रहा था। तो उसके एक मित्र ने साक्रेटीज से पूछा वह जो अर्जुन है, वह हमारे मन का प्रतीक है, सिंबालिक है। कि आप बड़े निश्चित मालूम पड़ रहे हैं और मृत्यु सामने खड़ी है, | वह इस बात की खबर है कि मन का यह ढंग है। और मन से आप जहर पीसा जा रहा है! आपके निश्चय को देखकर मन डरता है, | कितनी ही निश्चित बात कहें, वह उसमें से नए अनिश्चय मन कंपता है। यह कैसा निश्चय है? मृत्यु सामने है, आप इतने | निकालकर हाजिर हो जाता है। वह कहता है, फिर इसका क्या निश्चितमना क्यों हैं? होगा? फिर इसका क्या होगा? साक्रेटीज ने कहा कि मैं सोचता हूं कि नास्तिक कहते हैं कि एक मित्र कल मुझे मिलने आए। कहने लगे, बड रसेल ऐसा आत्मा बचेगी नहीं, सब मर जाएगा। अगर वे सही हैं, तो चिंता का कहते हैं कि आत्मा नहीं है, तो मेरा क्या होगा? मैंने कहा, बर्टेड कोई भी कारण नहीं। क्योंकि मैं मर ही जाऊंगा, चिंता करने वाला | रसेल कहते हैं, तो उनको चिंता करने दो, तुम क्यों चिंता करते हो? भी कोई बचने वाला नहीं है। आस्तिक कहते हैं कि नहीं मरोगे; शरीर फिर मैंने कहा, बट्रेंड रसेल कहते हैं कि आत्मा नहीं है, लेकिन खुद ही मरेगा, आत्मा बचेगी ही; आत्मा को मारा ही नहीं जा सकता। तो चिंतित नहीं हैं। तुम क्यों चिंतित होते हो? नहीं, उन्होंने कहा कि अगर वे सही हैं, तो मेरे चिंतित होने का कोई भी कारण नहीं। | और ये बुद्ध, महावीर और कृष्ण, ये सब कहते हैं कि आत्मा अमर क्योंकि जब बचूंगा ही, तो चिंता क्या करनी! साक्रेटीज कहता है, | है, इससे बड़ी चिंता होती है। मैंने कहा कि बड रसेल कहते हैं कि मझे मालम नहीं कि नास्तिक ठीक कहते हैं कि आस्तिक ठीक कहते आत्मा नहीं है. तो क्या चिंता होती है? तो चिंता होती है कि मैं हैं। लेकिन अगर नास्तिक ठीक कहते हैं, तो मैं निश्चित हूं। क्योंकि समाप्त हो जाऊंगा। बुद्ध और महावीर कहते हैं कि आत्मा अमर मर ही जाऊंगा, चिंता किसे है। और अगर आस्तिक ठीक कहते हैं, | है, तो क्या चिंता होती है? तो वे कहने लगे, चिंता यह होती है कि | 309 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mगीता दर्शन भाग-1 AM क्या मैं कभी भी समाप्त न होऊंगा। ऐसा ही बना रहंगा! तब भी ध्यान रहे, जब हम दूसरे से पूछते हैं, तो वह केवल इसकी खबर मन घबड़ाता है। होती है कि अब हम अपने से पूछने की हालत में बिलकुल नहीं __ अब बडी मश्किल है। एक साक्रेटीज है. जो कहता है, नास्तिक रहे। अब हालत इतनी बुरी है कि अपने से पूछना बेकार ही है। से भी निश्चय निकाल लेता है, आस्तिक से भी निश्चय निकाल अपने से जो उत्तर आते हैं, सब कनफ्यूजिंग हैं, सब...। लेकिन लेता है। एक ये मित्र हैं, ये बिलकुल एंटीसाक्रेटीज हैं। ये बुद्ध और | यह जिसके भीतर से हम पूछ रहे हैं, जो पूछ रहा है, वही तो सुनेगा महावीर से भी चिंता निकालते हैं, बड रसेल से भी चिंता निकालते | न? वही फिर नए प्रश्न खड़े कर लेता है। अर्जुन करेगा। हैं। ये दोनों विरोधियों से भी चिंता निकाल लेते हैं। तो इसका अर्थ | ऐसे उसकी बड़ी कृपा है, अन्यथा गीता पैदा नहीं हो सकती थी। क्या है? इस अर्थ में भर उसकी कृपा है कि वह उठाता जाएगा प्रश्न और इसका अर्थ यह है, हम वही निकाल लेते हैं, जो हम निकाल | कृष्ण से उत्तर संवेदित होते चले जाएंगे। कृष्ण जैसे लोग कभी कुछ सकते हैं। लेकिन फिर भी हम सोचते हैं कि वह बड रसेल की | | लिखते नहीं। कृष्ण जैसे लोग सिर्फ रिस्पांड करते हैं, प्रतिसंवेदित वजह से मुझे चिंता पैदा हो रही है, महावीर की वजह से चिंता पैदा | | होते हैं। लिखते तो केवल वे ही लोग हैं, जो किसी को कुछ थोपना हो रही है। सच बात यह है कि मैं चिंतित हूँ, अनिश्चित हूं। मैं | चाहते हों। कृष्ण जैसे लोग तो कोई पूछता है, पुकारता है, तो बोल महावीर से भी अनिश्चय निकालता हूं, रसेल से भी अनिश्चय | देते हैं। निकाल लेता हूं। तो अर्जुन खुद तो परेशानी में है, लेकिन अर्जुन से आगे आने अर्जुन कहता है, कुछ ऐसा कहें मुझे कि मैं सारे अनिश्चय के पार | वाले जो और अर्जुन होंगे, उन पर उसकी बड़ी कृपा है। गीता पैदा होकर थिर हो जाऊं। अर्जुन की मांग तो ठीक है; लेकिन साफ-साफ | नहीं हो सकती थी अर्जुन के बिना; अकेले कृष्ण से गीता पैदा नहीं उसे नहीं है कि कारण क्या है। हम सबकी भी यही हालत है। मंदिर | हो सकती थी। अर्जुन पूछता है, तो कृष्ण से उत्तर आता है। कोई में जाते हैं, मस्जिद में जाते हैं, गुरु के पास, साधु के पास-निश्चय नहीं पूछेगा, तो कृष्ण शून्य और मौन रह जाएंगे; कुछ भी उत्तर वहां खोजने कि कहीं निश्चित हो जाए बात। कहीं निश्चित न होगी। | से आने को नहीं है। उनसे कुछ लिया जा सकता है, उनसे कुछ अनिश्चित मन लिए हुए इस जगत में कुछ भी निश्चित नहीं हो | | बुलवाया जा सकता है। और अर्जुन ने वह बुलवाने का काम किया । सकता। अर्जुन को भीतर लिए हुए इस जगत में कुछ भी निश्चित | | है। उसकी जिज्ञासा, उसके प्रश्न, कृष्ण के भीतर से नए उत्तर का नहीं हो सकता। और निश्चित, ऋजु मन हो, तो इस जगत में कुछ जन्म बनते चले जाते हैं। भी अनिश्चित नहीं, सब निश्चित है। चित्त है आधार-शब्द और | सिद्धांत और शास्त्र नहीं, दूसरे के वक्तव्य नहीं। अब कृष्ण से ज्यादा निश्चित आदमी अर्जुन को कहां मिलेगा! श्रीभगवानुवाच मुश्किल है। जन्मों-जन्मों भी अर्जुन खोजे, तो कृष्ण जैसा आदमी लोकस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ । खोज पाना बहुत मुश्किल है। पर उनसे भी वह कह रहा है कि आप ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।। ३ ।। कुछ निश्चित बात कहें, तो शायद मेरा मन निश्चित हो जाए! और इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर भगवान श्री कृष्ण बोले, ध्यान रहे, जो व्यक्ति दूसरे से निर्णय खोजता है, वह अक्सर निर्णय | हे निष्पाप अर्जुन, इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा नहीं उपलब्ध कर पाता। पहले कही गई है। ज्ञानियों की ज्ञानयोग से और योगियों की एक व्यक्ति मेरे पास आए। उन्होंने कहा, मैं संन्यास लेना चाहता निष्काम कर्मयोग से। हूं। आप सलाह दें कि मैं लूं या न लूं? मैंने कहा कि जब तक सलाह मानने की और मांगने की इच्छा रहे, तब तक मत लेना। जिस दिन सारी दुनिया कहे कि मत लो, फिर भी हो कि लेंगे, तभी लेना। कहते हैं कृष्ण, निष्पाप अर्जुन! संबोधन करते हैं, निष्पाप अन्यथा लेकर भी पछताओगे, लेकर भी दुखी होओगे और लोगों से प अर्जुन! क्यों? क्यों? इसे थोड़ा समझना जरूरी है। पूछने जाओगे कि कोई गलती तो नहीं की। संन्यास छोड़ दूं कि रखू! यह एक बहुत मनोवैज्ञानिक संबोधन है। 3101 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m+ स्वधर्म की खोज AIIM मनोविज्ञान कहता है, चित्त में जितना ज्यादा पाप, अपराध और इसलिए सारी दुनिया में धर्मों ने बहुत-बहुत रूप विकसित किए गिल्ट हो, उतना ही इनडिसीजन पैदा होता है। चित्त में जितना पाप | थे। सब रूप विकृत हो जाते हैं, लेकिन इससे उनका मौलिक सत्य हो, जितना अपराध हो, उतना चित्त डांवाडोल होता है। पापी का | नष्ट नहीं होता। चित्त सर्वाधिक डांवाडोल हो जाता है। अपराधी का चित्त भीतर से हम इस देश में कहते थे कि गंगा में स्नान कर आओ, पाप धुल भूकंप से भर जाता है। | जाएंगे। गंगा में कोई पाप नहीं धुल सकते। गंगा के पानी में पाप बड़े मजे की बात है कि कृष्ण से पूछा है अर्जुन ने, कोई निश्चित | धोने की कोई कीमिया, कोई केमिस्ट्री नहीं है। लेकिन एक बात कहें। कष्ण जो उत्तर देते हैं. वह बहत और है। वे निश्चित बात साइकोलाजिकल सत्य है कि अगर कोई आदमी परे भरोसे और का उत्तर नहीं दे रहे हैं। वे पहले अर्जुन को आश्वस्त करते हैं कि निष्ठा से गंगा में नहाकर अनुभव करे कि मैं निष्पाप हुआ, तो वह भीतर निश्चित हो पाए। वे उससे कहते हैं, निष्पाप अर्जुन! लौटकर पाप करना मुश्किल हो जाएगा। डिसकंटिन्युटी हो गई। यह भी समझ लेने जैसा है कि पाप कम सताता है; पाप किया वह जो कल तक पापी था, गंगा में नहाकर बाहर निकला और अब मैंने, यह ज्यादा सताता है। इसलिए जीसस ने रिपेंटेंस और वह दूसरा आदमी है, आइडेंटिटी टूटी। संभावना है कि उसको प्रायश्चित्त की एक बड़ी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया निकाली और कहा | निष्पाप होने का यह जो क्षणभर को भी बोध हुआ है...। कि अपने अपराध को और पाप को जो स्वीकार कर ले, वह पाप | गंगा कुछ भी नहीं करती। लेकिन अगर पूरे मुल्क के कलेक्टिव से मुक्त हो जाता है। सिर्फ स्वीकार करने से! | माइंड में, अगर पूरे मुल्क के अचेतन मन में यह भाव हो कि गंगा ___ पाप के साथ एक मजा है कि पाप को हम छिपाना चाहते हैं। में नहाने से पाप धुलता है, तो गंगा में नहाने वाला निष्पाप होने के अगर इसे और ठीक से समझें, तो कहना होगा कि जिसे हम | | भाव को उपलब्ध होता है। और निष्पाप होने का भाव निश्चय में छिपाना चाहते हैं, वह पाप है। इसलिए जिसे हम प्रकट कर दें, वह ले जाता है, पापी होने का भाव अनिश्चय में ले जाता है। पाप नहीं रह जाता। जिसे हम घोषित कर दें, वह पाप नहीं रह जाता। इसलिए अर्जुन तो पूछता है कि कृष्ण, कुछ ऐसी बात कहो, जो जीसस ने एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया ईसाइयत को दी और वह निश्चित हो और जिससे मेरा डांवाडोलपन मिट जाए। लेकिन कृष्ण यह कि अपने पाप को स्वीकार कर लो और तुम पाप से मुक्त हो कहां से शुरू करते हैं, वह देखने लायक है। कृष्ण कहते हैं, हे जाओगे। ऐसी और भी प्रक्रियाएं सारी पृथ्वी पर पैदा हुईं, जिनमें | निष्पाप अर्जुन! यही किया गया कि व्यक्ति को आश्वासन दिलाया गया कि अब कृष्ण जैसे व्यक्ति के मुंह से जब अर्जुन ने सुना होगा, हे निष्पाप तुम निष्पाप हो। और अगर व्यक्ति को यह भरोसा आ जाए कि वह | अर्जुन! तो गंगा में नहा गया होगा। सारी गंगा उसके ऊपर गिर पड़ी निष्पाप है, तो उसके भविष्य में पाप करने की क्षमता क्षीण होती है। | होगी, जब उसने कृष्ण की आंखों में झांका होगा और देखा होगा कि यह भी बहुत मजे की बात है कि हम वही करते हैं, जो हमारी कृष्ण कहते हैं, हे निष्पाप अर्जुन! और कृष्ण जैसे व्यक्ति जब किसी अपने बाबत इमेज होती है। अगर एक आदमी को पक्का ही पता को ऐसी बात कहते हैं, तो सिर्फ शब्द से नहीं कहते; खयाल रखें! है कि वह चोर है, तो उसे चोरी से बचाना बहुत मुश्किल है। वह उनका सब कुछ कहता है। उनका रो-रोआं, उनकी आंख, उनकी चोरी करेगा ही। वह अपनी प्रतिमा को ही जानता है कि वह चोर श्वास, उनका होना-उनका सब कुछ कहता है, हे निष्पाप अर्जुन! की प्रतिमा है, और तो कुछ उससे हो भी नहीं सकता। इसलिए | । जब कृष्ण की उस गंगा में अर्जुन को निष्पाप होने का क्षणभर अगर हम एक आदमी को चारों तरफ से सुझाव देते रहें कि तुम चोर | | को बोध हुआ होगा। तो जो निश्चय कृष्ण के कोई वचन नहीं दे हो, तो हम अचोर को भी चोर बना सकते हैं। | सकते, वह अर्जुन को निष्पाप होने से मिला होगा। इससे उलटा भी संभव है, घटित होता है। अगर हम चोर को भी | । इसलिए कृष्ण पहले उसे मनोवैज्ञानिक रूप से उसके भीतर के सुझाव दें चारों तरफ से कि तुम चोर नहीं हो, तो हम उसे चोर होने | आंदोलन से मुक्त करते हैं। कहते हैं, हे निष्पाप अर्जुन! और मजे में कठिनाई पैदा करते हैं। अगर दस भले आदमी एक बुरे आदमी | | की बात यह है कि यह कहकर, फिर वे वही कहते हैं कि दो निष्ठाएं को भला मान लें, तो उस बुरे आदमी को भले होने की सुविधा और हैं। वह कह चुके हैं। वह दूसरे अध्याय में कह चुके हैं। लेकिन तब मार्ग मिल जाता है। तक अर्जुन को निष्पाप उन्होंने नहीं कहा था। अर्जुन डांवाडोल था। 31] Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 AM अब वे फिर कहते हैं कि दो तरह की निष्ठाएं हैं अर्जुन! सांख्य की | | निष्पाप? क्यों कहा निष्पाप? मुझ पापी को क्यों कहते हैं? कोई और योग की, कर्म की और ज्ञान की। | मौका नहीं दिया। बात आई और गई, और अर्जुन के मन में सरक एकदम तत्काल। कृष्ण ने तीन बार नहीं कहा कि हे निष्पाप | | गई। अर्जुन, हे निष्पाप अर्जुन, हे निष्पाप अर्जुन। नियम यही था। नियम ___ध्यान रहे, जैसे ही चित्त सोचने लगता है, वैसे ही बात गहरी नहीं यही था। अदालत में शपथ लेते हैं तो तीन बार। इमाइल कुए है | | जाती है। चित्त ने सोचा, उसका मतलब है कि हुक्स में अटक गई। फ्रांस में; अगर वह सुझाव देता है, तो तीन बार। दुनिया के किसी | | चित्त ने सोचा, उसका मतलब है कि ऊपर-ऊपर रह गई, लहरों में भी सम्मोहनशास्त्री और मनोवैज्ञानिक से पूछे, तो वह कहेगा कि | | जकड़ गई-गहरे में कहां जाएगी। विचार तो लहर है। सिर्फ वे ही जितनी बार सुझाव दो, उतना गहरा परिणाम होगा। कृष्ण कुछ | बातें गहरे में जाती हैं, जो बिना सोचे उतर जाती हैं। इसलिए सोचने ज्यादा जानते हैं। कृष्ण कहते हैं एक बार, और छोड़ देते हैं। क्योंकि | का जरा भी मौका नहीं है। और सोचने का मौका दूसरी बात में है, दुबारा कहने का मतलब है, पहली बार कही गई बात झूठ थी क्या! ताकि इसमें सोचा ही न जा सके। जब अदालत में एक आदमी कहता है कि मैं परमात्मा की कसम | । वे कहते हैं, दो निष्ठाएं हैं। एक निष्ठा है ज्ञान की, एक निष्ठा खाकर कहता हूं कि सच बोलूंगा; और फिर दुबारा कहता है कि मैं | है कर्म की। परमात्मा की कसम खाकर कहता हूं कि सच बोलूंगा; तो पहली बात का क्या हुआ! और जिसकी पहली बात झूठ थी, उसकी दूसरी बात का कोई भरोसा है? वह तीन बार भी कहेगा, तो क्या होगा? न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्य पुरुषोऽश्नुते ।. कृष्ण कुए से ज्यादा जानते हैं। कृष्ण एक बार कहते हैं। न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ।। ४ ।। इनोसेंटली-जैसे कि जानकर कहा ही नहीं-हे निष्पाप अर्जुन! | मनुष्य न तो कमों के न करने से निष्कर्मता को प्राप्त होता और बात छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं; एक क्षण ठहरते भी नहीं। है और न कमों को त्यागने मात्र से भगवत् साक्षात्कार रूप शक का मौका भी नहीं देते, हेजिटेशन का मौका भी नहीं देते, सिद्धि को प्राप्त होता है। अर्जुन को विचारने का भी मौका नहीं देते। ऐसा भी नहीं लगता अर्जुन को कि उन्होंने कोई जानकर चेष्टा से कहा हो। बस, ऐसे संबोधन किया और आगे बढ़ गए। क र्मों के न करने से निष्कर्म को मनुष्य प्राप्त नहीं होता है असल में उसका निष्पाप होना, कृष्ण ऐसा मान रहे हैं, जैसे कोई पा और न ही सब कुछ छोड़कर भाग जाने से भगवत् बात ही नहीं है। जैसे उन्होंने कहा हो, हे अर्जुन! और बस, ऐसे ही साक्षात्कार को उपलब्ध होता है। चुपचाप आगे बढ़ गए। जितना साइलेंट सजेशन, उतना गहरा जाता बड़े ही विद्रोही और क्रांतिकारी शब्द हैं। क्या होगा त्यागियों का! है। जितना चुप, जितना इनडायरेक्ट, जितना परोक्ष-चुपचाप | क्या होगा भागने वालों का? भीतर सरक जाता है। जितनी तीव्रता से, जितनी चेष्टा से, जितना । कृष्ण कहते हैं, मात्र कर्म को छोड़कर भाग जाने से कोई निष्कर्म आग्रहपूर्वक-उतना ही व्यर्थ हो जाता है। को उपलब्ध नहीं होता। क्योंकि निष्कर्म कर्म के अभाव से ज्यादा पश्चिम के मनोविज्ञान को बहुत कुछ सीखना है। कुए जब बड़ी बात है। मात्र कर्म का न होना निष्कर्म नहीं है। निष्कर्म और अपने मरीज को कहता है कि तुम बीमार नहीं हो, और जब दुबारा | | भी बड़ी घटना है। कहता है कि तुम बीमार नहीं हो, और जब तिबारा कहता है कि तुम जैसे कि बीमारी का न होना स्वास्थ्य नहीं है; स्वास्थ्य और बड़ी बीमार नहीं हो, तो कृष्ण उस पर हंसेंगे। वे कहेंगे कि तुम तीन बार | घटना है। ऐसा हो सकता है कि आदमी बिलकुल बीमार न हो और कहते हो, तो तीन बार तुम उसे याद दिलाते हो कि बीमार हो, बीमार | | बिलकुल स्वस्थ न हो। सब तरह की जांच-परख कहे कि कोई हो, बीमार हो। | बीमारी नहीं है और आदमी बिलकुल ही स्वस्थ न हो। बीमारी का हे निष्पाप अर्जुन! आगे बढ़ गए वे और कहा कि दो निष्ठाएं हैं। न होना मात्र, स्वास्थ्य नहीं है। और मात्र कर्मों को छोड़कर भाग अर्जुन को मौका भी नहीं दिया कि सोचे-विचारे, पूछे कि कैसा जाने से निष्कर्म उपलब्ध नहीं होता। क्यों? 312 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ im+ स्वधर्म की खोज AM तो निष्कर्म की व्याख्या कृष्ण की समझनी पड़ेगी। क्योंकि | | निष्कर्म को उपलब्ध होता है, वह कर्म को छोड़कर क्यों भागेगा! आमतौर से हम अब तक कर्म के न करने को निष्कर्म समझते रहे | | वह स्वीकार कर लेगा, जो नियति है, जो डेस्टिनी है, जो हो रहा हैं; निष्क्रियता को निष्कर्म समझा है। निष्क्रियता निष्कर्म नहीं है। है, उसे स्वीकार कर लेगा। तब तो आलसी भी निष्कर्म को उपलब्ध हो जाएंगे। तब तो मुरदे दूसरी बात वे कहते हैं कि चीजों को त्यागकर, छोड़कर कोई भी निष्कर्म को उपलब्ध हो जाएंगे। तब तो पत्थर इत्यादि परमात्म-| | अगर सोचता हो कि संसार को त्यागकर परमात्मा का साक्षात्कार साक्षात्कार में ही होंगे। हो जाए, तो जरूरी नहीं है। ऐसा नहीं होता है। परमात्मा का निष्कर्म नहीं, लेकिन कर्म कर्तारहित निष्कर्म बनता है। कर्म, | | साक्षात्कार किसी भी सौदे से नहीं होता है। कि आपने ये-ये चीजें जहां भीतर करने वाला मैं मौजूद नहीं है, निष्कर्म बनता है। निष्कर्म | | छोड़ दी, तो परमात्मा का साक्षात्कार हो जाएगा। कर्म का अभाव नहीं, कर्ता का अभाव है-नाट एब्सेंस आफ ___एक संन्यासी मेरे पास आए थे। वे कहने लगे कि मैंने घर छोड़ डूइंग, बट एब्सेंस आफ दि डुअर, वह जो करने वाला है। | दिया, पत्नी छोड़ दी, बच्चे छोड़ दिए, दुकान छोड़ दी, अभी तक कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से कि अगर तू यह छोड़ दे कि तू कर | | परमात्मा का साक्षात्कार क्यों नहीं हुआ है? तो मैंने कहा, कितनी रहा है, तो तेरा कोई कर्म कर्म नहीं है, सब निष्कर्म हो जाता है। | कीमत थी मकान की, दुकान की, पत्नी की, बच्चों की? हिसाब अगर तू यह पकड़े रहे कि मैं कर रहा हूं, तो तू कर्म से भाग भी जा, | | है? तो उन्होंने कहा, आपका मतलब? मैंने कहा कि पक्का हो जाए तो भागना भी तेरा कर्म बन जाता है। कि कितने मूल्य की चीजें छोड़ी हैं, तो फिर परमात्मा के सामने ___ भागना भी कर्म है, भागना भी तो पड़ेगा। त्यागना भी तो कर्म | शिकायत की जाए कि यह आदमी इतने दाम लग रहा है तुम्हारे लिए है, त्यागना भी तो पड़ेगा। जहां कर्ता मौजूद है, जहां लग रहा है कि और तुम अभी तक छिपे हो! इसने एक मकान छोड़ दिया। मकान मैं कर रहा हूं, वहां कर्म मौजूद है, चाहे वह करना आलस्य ही क्यों | के बदले में परमात्मा? न हो, चाहे वह करना न-करना ही क्यों न हो। लेकिन जहां लग। असल में जहां भी बदले का खयाल है, वहां व्यवसाय है, वहां रहा है कि मेरे करने का कोई सवाल ही नहीं, परमात्मा कर रहा है; | | धर्म नहीं है। त्यागी कहता है, मैंने यह छोड़ दिया और अभी तक जो है, वह कर रहा है, सारा जीवन कर रहा है; जहां मैं एक हवा | नहीं हुआ! लेकिन तुमसे कहा किसने कि छोड़ने से हो जाएगा! में डोलते हए पत्ते की तरह हं. जहां मैं नहीं डोल रहा. हवा डोल रही और जो तमने छोड दिया है. उसका मल्य क्या है? और कल जब है; जहां मैं एक सागर की लहर की तरह हूं, मैं नहीं लहरा रहा, | मौत आएगी, तब तुम क्या करोगे? उसे छोड़ोगे कि पकड़े लिए सागर लहरा रहा है; जहां मेरा मैं नहीं-वहां निष्कर्म है। निष्क्रियता चले जाओगे? मौत आएगी तो वह छूट जाएगा। और तुम नहीं थे, नहीं, निष्कर्म। तब भी वह था। और तुम नहीं रहोगे, तब भी वह होगा। तो तुम कर्म होगा, फिर भी कर्म का जो उत्पात है, वह नहीं होगा। कर्म | | अपने को छोड़ने वाला समझ रहे हो! जो तुम्हारे होने के पहले था होगा, लेकिन कर्म की जो चिंता और संताप है, वह नहीं होगा। कर्म | | और तुम्हारे होने के बाद रहेगा, उसे तुम छोड़ सकते हो? उसकी होगा, लेकिन कर्म के साथ जो विफलता और सफलता का रोग है, | | मालकियत पागलपन है। और ध्यान रहे, त्याग में भी मालकियत वह नहीं होगा। कर्म होगा, लेकिन कर्म के पीछे वह जो| | का खयाल है। और जब एक आदमी कहता है, मैंने त्यागा, तो वह महत्वाकांक्षा का ज्वर है, बुखार है, वह नहीं होगा। कर्म होगा, यह कह रहा है कि मालकियत मेरी थी। सच बात यह है, लेकिन कर्मे के पीछे वह जो फलाकांक्षा की विक्षिप्तता है, वह नहीं मालकियत नहीं है। त्यागेंगे कैसे? होगी। और तब कर्म फूल की तरह आनंददायी हो जाता है; तब उस | कृष्ण कहते हैं, कुछ त्याग देने से परमात्मा का साक्षात्कार नहीं पर कोई वजन नहीं रह जाता; तब कर्म फूल की तरह खिलता है। | हो जाता। . तब करने वाला मौजूद नहीं होता; तब कर्म का आनंद ही और हो | परमात्मा का साक्षात्कार बात ही अलग है। वह त्याग से फलित जाता है; तब वह परमात्मा को समर्पित हो जाता है। नहीं होती है। हां, ऐसा हो सकता है कि परमात्मा के साक्षात्कार से कृष्ण कह रहे हैं कि कर्म को छोड़कर तू अगर भाग गया, तो तू त्याग फलित हो जाए। ऐसा होता है। क्योंकि जब कोई उस विराट यह मत समझना कि तू निष्कर्म को उपलब्ध हो गया है। क्योंकि जो को जान लेता है, तो क्षुद्र को पकड़ने को राजी नहीं रहता। जब 373 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1 किसी को हीरे मिल जाते हैं, तो कंकड़-पत्थर छोड़ता है। त्याग से | अब तीसरा नहीं होगा। क्योंकि अब तो हिटलर भी मर गया, अब परमात्मा मिलता है, ऐसा नहीं; लेकिन परमात्मा से अक्सर त्याग | तो मुसोलिनी भी नहीं है, अब तीसरा किसलिए होगा? लेकिन क्या फलित होता है। क्योंकि परमात्मा महाभोग है, वह परम रस है। फर्क पड़ता है! माओ को पैदा होने से कैसे रोकिएगा? और नामों कृष्ण यहां एक बहुत ही कैटेगोरिकल वक्तव्य, एक बहुत से फर्क पड़ता है! कोई फर्क नहीं पड़ता। नहीं हिटलर, तो माओ निश्चयात्मक वक्तव्य दे रहे हैं। वह वक्तव्य बहुत कीमती है। उस होगा। नहीं माओ, तो कोई और होगा। नहीं कोई और, तो कोई अ वक्तव्य पर पूरे जीवन का यहां से वहां होना निर्भर है। वह वक्तव्य बस होगा। यह है कि कर्म नहीं छोड़ना है। छोड़ा भी नहीं जा सकता। जीते-जी __ युद्ध इतना विराट जाल है कि वह कोई अर्जुन यह सोचता हो कि कर्म को छोड़ने का कोई उपाय भी नहीं है। | मेरे भाग जाने से हट जाएगा, तो बहुत ही ईगोइस्ट है, बहुत संन्यासी भी कर्म करेगा ही! दुकान नहीं चलाएगा, तो भीख | अहंकारी है। सोच रहा है, मेरी वजह से ही यह इतना बड़ा विराट मांगेगा। फर्क क्या पड़ता है ? भीख मांगना कोई कम कर्म है दुकान युद्ध हो रहा है! करने से? उतना ही कर्म है। घर नहीं बनाएगा, आश्रम बनाएगा। सभी को ऐसा खयाल होता है कि सारी दुनिया उन्हीं के कारण घर छोड़कर आश्रम बनाना कोई कम कर्म है? उतना ही कर्म है। चल रही है। सबको यह खयाल होता है। छोटों को, बड़ों को; कर्म से भागा नहीं जा सकता। जब कर्म से भागा ही नहीं जा अनुयायियों को, नेताओं को सबको यह खयाल होता है कि सकता, तो कर्म से भागना सिर्फ हिपोक्रेसी में ले जाएगा, पाखंड में उनसे ही सारी दुनिया चल रही है। वे गए कि एकदम से सब चला ले जाएगा। जो असंभव है, उसे करने की कोशिश पाखंड पैदा जाएगा। लेकिन नेपोलियन चला जाता है, कहीं कोई पत्थर नहीं करती है। अगर अर्जुन भाग भी जाए युद्ध के मैदान को छोड़कर, | हिलता। सिकंदर चले जाते हैं, किसी पत्ते को खबर नहीं होती है। तो करेगा क्या? कुछ तो करेगा। वह जो भी करेगा, वह भी कर्म हिटलर आते हैं, चले जाते हैं; चर्चिल, गांधी, नेहरू, सब आते हैं, है। कर्म से नहीं भागा जा सकता। तो फिर क्या कोई उपाय नहीं है? | खो जाते हैं; जगत चलता चला जाता है। कृष्ण एक नया द्वार, एक नया डायमेंशन, एक नया आयाम कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि तू यह पागलपन छोड़ कि तेरी वजह ते हैं, कर्म जारी रखो, कर्ता से भाग जाओ। कृष्ण से कुछ हो रहा है। वजह बड़ी है। विराट है जाल उसका। उस विराट मनुष्य के व्यक्तित्व में बड़ी गहरी क्रांति की बात कहते हैं। वे कहते | | जाल को ही नियति कहते हैं, डेस्टिनी कहते हैं। जो एक व्यक्ति पर हैं, कर्म जारी रखो। वह असंभव है, उससे जाया नहीं जा सकता; | निर्भर नहीं है। अनंत-अनंत कारणों के जाल पर जो निर्भर है। उससे लेकिन कर्ता से जाया जा सकता है। कर्म को चलने दो, कर्ता को | हो रहा है। इसलिए तू यह पागलपन छोड़ कि तेरे हट जाने से कोई जाने दो। भीतर से कर्ता को छोड़ो, यह छोड़ो कि मैं कर रहा हूं। | | युद्ध नहीं होगा, कि तेरे होने से युद्ध हो रहा है। तू नहीं भी हो, तो भी इसलिए कृष्ण बार-बार गीता में अर्जुन को कहते हैं कि जिन्हें तू | हो जाएगा। क्योंकि तू बहुत छोटा पुर्जा है। तेरे बिना हो सकता है। सोचता है कि तू मारेगा, मैं तुझे कहता हूं कि वे पहले ही मारे जा | | शायद पुर्जा भी नहीं है। क्योंकि जिसने तुझे पुर्जा चुना है, वह किसी चुके हैं। जिन्हें तू सोचता है कि तेरे कारण मरेंगे, तू नासमझ है, तू दूसरे को भी पुर्जा चुन सकता है। और तुझसे तो पूछकर चुना नहीं है मात्र निमित्त है, वे तेरे बिना भी मरेंगे। परे समय वे यह कह रहे हैं। उसने. दसरे को भी बिना पछे चन लेगा। कि तू एक खयाल छोड़ दे कि तू करने वाला है। और अर्जुन की | | कर्ता होने का खयाल अगर गिर जाए और व्यक्ति देखे कि अनंत परेशानी यही है, उसे लग रहा है कि करने वाला मैं हूं। अगर मैं | | नियमों के जाल में जीवन चलता है। एक धारा है, जो बही जा रही भाग जाऊं, तो युद्ध बच जाए। है; उसमें हम तिनकों-से बहते हैं-तिनके। हम बहते हैं, यह ___ यह जरूरी नहीं है। अर्जुन अकेला नहीं है। अर्जुन के भागने से | कहना भी शायद ठीक नहीं। धारा बहती है। हम तो तिनके हैं, हम भी युद्ध बच जाएगा, यह जरूरी नहीं है। युद्ध अनंत कारणों पर | | क्या खाक बहते हैं। धारा बहती है, हम सिर्फ धारा में होते हैं। धारा निर्भर है। पूरब बहती है, तो हम पूरब बहते हैं; धारा पश्चिम बहती है, तो लोग सोचते थे कि पहला महायुद्ध हो गया, अब दूसरा महायुद्ध | हम पश्चिम बहते हैं। नहीं होगा। दूसरा भी हो गया। फिर दूसरे के बाद लोग सोचने लगे, __ कृष्ण का सारा जोर इस बात पर है कि तू यह भूल जा कि तू करने |314 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 900 स्वधर्म की खोज -m वाला है और फिर कर्म को होने दे; और फिर मैं तुझे विश्वास को चलने दे। निष्पाप बताकर उसे, वे जो दूसरी बात कहते हैं, वह दिलाता हूं कि फिर कोई कर्म नहीं छ्ता। निष्पाप में ले जाने वाली है। पहले उसे कहते हैं, तू निष्पाप है। और पाप नहीं छूता, पाप का कर्ता होना छूता है। पुण्य नहीं छूता, फिर वे जो दूसरा वक्तव्य देते हैं, वह समस्त पापों के बाहर ले जाने पुण्य का कर्ता होना छूता है। अगर ठीक से समझें, आध्यात्मिक | वाला है। वे निष्पाप कहकर चप नहीं हो जाते. वे निष्पाप बनाने अर्थों में समझें, तो करने का खयाल एकमात्र पाप है। कर्ता का बोध के लिए राह भी देते हैं। आश्वासन देकर मान नहीं लेते कि बात एकमात्र पाप है। ओरिजिनल सिन अगर किसी चीज को कहें, मूल | समाप्त हो गई। बात सिर्फ शुरू हुई है। और आदमी पूर्ण निष्पाप पाप, तो कर्ता का खयाल कि मैं कर रहा हूं। | उसी दिन होता है, जिस दिन पूर्ण अकर्ता हो जाता है। कर्म नहीं लेकिन सोचने जैसा है। इधर कृष्ण तो कहते हैं अर्जुन को कि बांधते, कर्ता बांध लेता है। कर्म नहीं छोड़ते, कर्ता छूट जाए तो कर्ता एक ही है, परमात्मा। तू छोड़। अठारहवीं सदी के बाद सारी | छूटना हो जाता है। दुनिया में हमने परमात्मा को हटाने की कोशिश की है। कास्मिक "ठीक उसके साथ ही दूसरी बात उन्होंने कही, त्याग नहीं आर्डर से, एक जगत की व्यवस्था से हमने कहा कि तुम रिटायर | साक्षात्कार को ले जाता है। हो जाओ। परमात्मा को कहा कि आप छोड़ो। बहुत दिन हो गए, क्यों नहीं ले जाता है त्याग साक्षात्कार को? नहीं ले जाता आप हटो। आदमी को कर्ता बनने दो! | इसलिए कि हम परमात्मा के सामने सौदे की हालत में खड़े नहीं हो - ध्यान रहे, परमात्मा को अगर हम हटा दें जगत के खयाल | सकते, बारगेनिंग नहीं हो सकती, खरीद-फरोख्त नहीं हो सकती। से—जगत से तो नहीं हटा सकते, अपने खयाल से हटा सकते | त्याग नहीं, समर्पण। हैं-हटा दें, तो आदमी कर्ता हो जाता है। क्या आपने कभी यह इस पर आगे हम बात करेंगे। सोचा कि जिन-जिन समाजों में आदमी कर्ता हो गया और परमात्मा त्यागी कभी समर्पित नहीं होता। त्यागी आदमी कभी समर्पण कर्ता नहीं रहा, वहां मानसिक तनाव अपनी अति पर पहुंच गए हैं। | नहीं करता। वह तो कहता है कि मेरे पास कारण है कि मैंने इतना वहां चिंता भयंकर हो गई है। वहां चित्त एकदम विक्षिप्त होने की : छोड़ा, अब मुझे मिलना चाहिए। समर्पण तो वह करता है, जो हालत में पहंच गया है। क्योंकि सारा बोझ मेरे मैं पर पड़ गया है। | कहता है, मेरे पास तो कुछ भी नहीं है, मैं तो कुछ भी नहीं हं जो दुनिया चल रही है मेरे मैं पर; मैं हो गया है सेंटर। दावा कर सकूँ कि मुझे मिलना चाहिए। मैं तो सिर्फ प्रार्थना कर आज पश्चिम की सारी सभ्यता मैं पर खड़ी है। इसलिए बड़ी | | सकता हूं, मैं तो सिर्फ चरणों में सिर रख सकता हूं। मेरे पास देने पीड़ा है। न रात नींद है, न दिन चैन है। कहीं कोई शांति नहीं; कहीं | को कुछ भी नहीं है। कोई अर्थ नहीं; सब बेबूझ हो गया है। लेकिन एक बात खयाल में ___ समर्पण वह करता है, जिसके खयाल में यह बात आ जाती है नहीं आती है कि जिस दिन से आदमी कर्ता बनने के खयाल में पड़ा | कि मैं असहाय हूं, टोटल हेल्पलेस हूं। मैं बिलकुल, मेरे पास कुछ है, उस दिन से चिंता उसने पुकार ली है। भी नहीं है परमात्मा को देने को। रो सकता हूं, चिल्ला सकता हूं, अर्जुन भी चिंता में पड़ गया है। चिंता पैदा ही कर्ता होने के | पुकार सकता हूं; दे तो कुछ भी नहीं सकता। जो इतना दीन, इतना खयाल से पैदा होती है; कर्म से चिंता नहीं होती। आप कितना ही | | दरिद्र, इतना असहाय, इतना बेसहारा पुकारता है, वह समर्पित हो कर्म करें, कर्म चिंता नहीं लाता। और जरा-सा भी कर्ता बने कि | | जाता है, वह साक्षात्कार को उपलब्ध हो जाता है। चिंता आंनी शुरू हो जाती है। एंग्जाइटी जो है, वह कर्ता की छाया | - त्यागी की तो अकड़ होती है, वह बेसहारा नहीं होता। उसके पास है। अर्जुन बड़ा चिंतित है। उसकी सारी चिंता एक बात से है कि | | तो बैंक बैलेंस होता है त्याग का। कहता है कि यह मेरे पास है, इतना वह सोच रहा है, मैं मारने वाला हूँ, मैं न मारूं तो ये न मरेंगे। मैं | | मैंने छोड़ा है—इतने हाथी, इतने घोड़े, इतने मकान-कहां हो, अगर युद्ध न करूं, तो युद्ध बंद हो जाएगा, शांति छा जाएगी। उसे | | बाहर निकलो! त्याग पूरा कर दिया है, साक्षात्कार होना चाहिए। ऐसा लग रहा है कि वही निर्णायक है। कोई निर्णायक नहीं है, | त्यागी के पास तो दंभ होगा ही। त्यागी कभी दंभ के बाहर नहीं समष्टि निर्णायक है; नियति निर्णायक है। हो पाता। हां, उनकी बात दूसरी है, जिनके दंभ के जाने से त्याग इसलिए कृष्ण उसको कहते हैं कि तू कर्ता को छोड़ और कर्म फलित होता है। पर उनको त्याग का कभी पता नहीं चलता। उनको 315 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm गीता दर्शन भाग-1 - पता ही नहीं चलता कि उन्होंने कुछ त्यागा है। अगर आप उनसे कहें कि आपने कुछ त्यागा है ? तो वे कहेंगे कि कभी था ही नहीं हमारे पास कुछ, हम त्यागेंगे कैसे! अगर उनसे आप कहें, आपने कुछ छोड़ा है ? तो वे कहेंगे, कभी कुछ पकड़ा क्या था? छोड़ेंगे कैसे! खाली हाथ हैं, हमारे पास कुछ है नहीं। हम सिर्फ खाली हाथ ही परमात्मा के चरणों में रखते हैं। और ध्यान रहे, जो भरे हाथ परमात्मा के सामने जाता है, वह खाली हाथ लौट आता है; और जो खाली हाथ जाता है, उसके हाथ भर दिए जाते हैं। आज इतना ही। फिर कल हम बात करेंगे। |316 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 3 दूसरा प्रवचन कर्ता का भ्रम Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 4 न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते ह्यवशः कर्म प्रकृतिजैर्गुणैः । । ५ । । सर्वथा कर्मों का स्वरूप से त्याग हो भी नहीं सकता है, क्योंकि कोई भी पुरुष किसी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता है । निःसंदेह सभी पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए गुणों द्वारा परवश हुए कर्म करते हैं। जी वन ही कर्म है। मृत्यु कर्म का अभाव है। जन्म कर्म का प्रारंभ है, मृत्यु कर्म का अंत है। जीवन में कर्म को रोकना असंभव है। ठीक से समझें, तो जीवन और कर्म पर्यायवाची हैं। एक ही अर्थ है उनका । इसलिए जीते-जी कर्म चलेगा ही। इस संबंध में मनुष्य की कोई स्वतंत्रता नहीं है। सार्त्र ने अपने एक बहुत प्रसिद्ध वचन में कहा है, मैन इज कंडेम्ड टु बी फ्री — आदमी स्वतंत्र होने के लिए परवश है। लेकिन सा को शायद पता नहीं है कि आदमी कुछ बातों में परतंत्र होने के लिए भी परवश है, जैसे कर्म । कर्म के संबंध में जीते-जी छुटकारा असंभव है। जीने की प्रत्येक क्रिया कर्म है। श्वास भी लूंगा, तो भी कर्म होगा। उलूंगा तो भी, बैठूंगा तो भी कर्म होगा। जीना कर्म की प्रोसेस, कर्म की प्रक्रिया काही नाम इसलिए जो लोग सोचते हैं कि जीते-जी कर्मत्याग कर दें, वे सिर्फ असंभव बातें सोच रहे हैं। वह संभव नहीं हो सकता है। संभव इतना ही हो सकता है कि वे एक कर्म को छोड़कर दूसरे कर्म करना शुरू कर दें। जिसे हम गृहस्थ कहते हैं, वह एक तरह के कर्म करता है। और जिसे संन्यासी कहते हैं, वह दूसरे तरह के कर्म करता है। संन्यासी कर्म नहीं छोड़ पाता। इसमें संन्यासी का कोई कसूर नहीं है। जीवन का स्वभाव ऐसा है। इसलिए जो कर्म छोड़ने की असंभव आकांक्षा करेगा, वह पाखंड में और हिपोक्रेसी में गिर जाएगा। इस देश में वैसी दुर्घटना घटी। कृष्ण की बात नहीं सुनी गई । यद्यपि आप कहेंगे, गीता से ज्यादा कुछ भी नहीं पढ़ा गया है। लेकिन साथ ही मैं यह भी कहूंगा कि गीता से कम कुछ भी नहीं समझा गया है। अक्सर ऐसा होता है कि जो बहुत पढ़ा जाता है, उसे हम समझना बंद कर देते हैं। बहुत बार पढ़ने से ऐसा लगता है, बात समझ में आ गई। स्मरण हो जाने से लगता है, समझ में आ गई। स्मृति ही ज्ञान मालूम होने लगती है। गीता कंठस्थ है और पृथ्वी पर सर्वाधिक पढ़ी गई किताबों में से एक है, लेकिन सबसे कम समझी किताबों में से भी एक है। जैसे यही बात, कर्म नहीं छोड़ा जा सकता; फिर भी इस देश का संन्यासी हजारों साल से कर्म छोड़ने की असंभव चेष्टा कर रहा है। कर्म नहीं छूटा, सिर्फ निठल्लापन पैदा हुआ है। कर्म नहीं छूटा, सिर्फ निष्क्रियता पैदा हुई है। और निष्क्रियता का अर्थ है, व्यर्थ कर्मों का जाल, जिनसे कुछ फलित भी नहीं होता। लेकिन कर्म जारी रहते हैं। पाखंड उपलब्ध हुआ है। जो कर्म को छोड़कर भागेगा, उसकी | कर्म की ऊर्जा व्यर्थ के कामों में सक्रिय हो जाती है। | दो तरह से लोग कर्म को छोड़ने की कोशिश करते हैं। दोनों ही एक-सी भ्रांतियां हैं। एक कोशिश संन्यासी ने की है कर्म को छोड़ने की— सब छोड़ दे, कुछ न करे। लेकिन कुछ न करने का मतलब सिर्फ आत्मघात हो सकता है । और आत्मघात भी करना पड़ेगा; वह भी अंतिम कर्म होगा। एक और रास्ता है, जिससे कर्म छोड़ने की आकांक्षा की जाती रही है। वह भी समझ लेना जरूरी है। पूरब ने संन्यासी के रास्ते से कर्मत्याग की कोशिश की है और असफल हुआ है। कृष्ण की बात नहीं सुनी गई। पश्चिम ने दूसरे ढंग से कर्म को छोड़ने की कोशिश की है और वह यह है कि यदि यंत्र सारे काम कर दें, तो आदमी कर्म से मुक्त हो जाए! अगर सारा काम यंत्र कर सके, तो आदमी काम से मुक्त हो जाए, कर्म से मुक्त हो जाए, तो परम आनंद को उपलब्ध हो जाएगा। लेकिन पश्चिम दूसरी मुश्किल में पड़ गया है। और वह मुश्किल यह है कि जितना | कम काम आदमी के हाथ में है, उतना आदमी ज्यादा उपद्रव हाथ | में लेता चला जा रहा है। वह जो कर्म की ऊर्जा है, वह प्रकट होना मांगती है। वह कर्म की ऊर्जा कहीं से प्रकट होगी। 318 इसलिए पश्चिम में छुट्टी के दिन ज्यादा दुर्घटनाएं होंगी, ज्यादा हत्याएं होंगी, ज्यादा चोरियां होंगी, ज्यादा बलात्कार होंगे। क्योंकि छुट्टी के दिन कर्म की ऊर्जा क्या करे? अगर एक महीने के लिए पूरी छुट्टी दे दी जाए पश्चिम को, तो सारी सभ्यता एक महीने में नष्ट हो जाएगी और नीचे गिर जाएगी। इसलिए पश्चिम के विचारक अब परेशान हैं कि आज नहीं कल यंत्र के हाथ में सारा काम चला जाएगा, फिर हम आदमी को कौन-सा काम देंगे! और अगर आदमी को काम न मिला, तो आदमी कुछ तो करेगा ही । और वह कुछ खतरनाक हो सकता है; अगर वह काम का न हुआ, तो आत्मघाती हो सकता है। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m- कर्ता का भ्रम - कृष्ण की बात पश्चिम में भी नहीं सुनी गई। असल में कृष्ण की | असल में जहां पीड़ा है, वहीं बोध टिक जाता है। अगर पैर में कांटा बात किसी ने भी नहीं सुनी कि कर्म से छुटकारा नहीं है, क्योंकि गड़ा है, तो सारा बोध, सारी अटेंशन वहीं, उसी कांटे पर पहंच जाती जीवन और कर्म एक ही चीज के दो नाम हैं। सिर्फ एक बात हो है। अगर शरीर में कहीं भी कोई पीड़ा नहीं है, तो शरीर का बोध मिट सकती है। इसका यह मतलब नहीं है कि हम जैसे जी रहे हैं और जाता है। बाडी कांशसनेस चली जाती है। शरीर का पता ही नहीं जो कर रहे हैं, वैसे ही जीते रहें और वैसे ही करते चले जाएं। अगर चलता है। विदेह हो जाता है आदमी, अगर शरीर स्वस्थ हो। ऐसा कोई समझता है, तो उसे भी कृष्ण की बात सुनाई नहीं पड़ी। ठीक ऐसे ही अगर आत्मा स्वस्थ हो, तो मैं का पता नहीं चलता। कृष्ण यह कह रहे हैं कि कर्म को बदलने की उतनी फिक्र मत | | मैं का पता चलता है तभी तक, जब तक आत्मा बीमार है। इसलिए करो, कर्ता को बदलने की फिक्र करो। असली सवाल यह नहीं है जो आत्मा के तल पर स्वस्थ हो जाते हैं, वे होते तो हैं, लेकिन उन्हें कि क्या तुम कर रहे हो, क्या नहीं कर रहे हो! असली सवाल यह ऐसा नहीं लगता है कि मैं हूं। उन्हें ऐसा ही लगता है—हूं। हूं काफी है कि तुम क्या हो और क्या नहीं हो! असली सवाल डूइंग का नहीं, | | हो जाता है, मैं विदा हो जाता है। बीइंग का है। असली सवाल यह है कि भीतर तुम क्या हो! अगर । वह मैं भी एक कांटे की तरह चुभता है चौबीस घंटे। रास्ते पर तुम भीतर गलत हो, तो तुम जो भी करोगे, उससे गलत फलित | चलते, उठते-बैठते, कोई देखे तो, कोई न देखे तो, वह मैं का कांटा होगा। और अगर तम भीतर सही हो. तो तम जो भी करोगे, उससे चुभता रहता है। उस मैं के घाव से भरे हुए हम कर्ता से घिर जाते हैं। सही फलित होगा। वह अर्जुन भी उसी पीड़ा में पड़ा है। उसका मैं सघन होकर उसे ___ कर्म का प्रश्न नहीं है। वह भीतर जो व्यक्ति है, चेतना है, आत्मा | पीड़ा दे रहा है। वह कह क्या रहा है? वह यह नहीं कहता है, युद्ध है, कर्म उससे ही निकलते हैं, उससे ही फलते-फूलते हैं। उस | में हिंसा होगी, इसलिए मैं युद्ध नहीं करना चाहता हूं। नहीं, वह यह चेतना, उस आत्मा का सवाल है। और वह आत्मा बीमार है एक नहीं कहता। वह कहता है, युद्ध में मेरे लोग मर जाएंगे, इसलिए बहुत बड़ी बीमारी से। लेकिन वह बड़ी बीमारी, हमें लगता है कि मैं युद्ध नहीं करना चाहता हूं। कहता है, मेरे प्रियजन, मेरे संबंधी, हमारा बड़ा स्वास्थ्य है। वह आत्मा बीमार है मैं के भाव से, | | मेरे मित्र दोनों तरफ युद्ध के लिए आतुर खड़े हैं। सब मेरे हैं, और ईगोइज्म से। मैं हूं-यही आत्मा की बीमारी है। मर जाएंगे। कभी शायद आपने खयाल न किया हो, अगर शरीर पूरा स्वस्थ | | कभी आपने सोचा है कि जब मेरा मरता है, तो पीड़ा क्यों होती हो, तो आपको शरीर का पता नहीं चलता। ठीक से समझा जाए, है? क्या इसलिए पीड़ा होती है कि जो मेरा था, वह मर गया! या तो स्वास्थ्य का एक ही प्रमाण होता है कि शरीर का पता न चलता इसलिए पीड़ा होती है कि मेरा होने की वजह से मेरे मैं का एक हो, बाडीलेसनेस हो जाए। आपके सिर में दर्द होता है, तो सिर का हिस्सा था, जो मर गया! ठीक से समझेंगे, तो किसी दूसरे के मरने पता चलता है। अगर सिर में दर्द न हो, तो सिर का पता नहीं से किसी को कभी कोई पीड़ा नहीं होती है। लेकिन मेरा है, तो पीड़ा चलता। और अगर सिर का थोड़ा भी पता चलता हो, तो समझना होती है। क्योंकि जब भी मेरा कोई मरता है, तो मेरे ईगो का एक कि थोड़ा न थोड़ा सिर बीमार है। अगर पैर में पीड़ा हो, तो पैर का हिस्सा, मेरे अहंकार का एक हिस्सा बिखर जाता है भीतर, जो मैंने पता चलता है; पांव में कांटा गड़ा हो, तो पांव का पता चलता है। उसके सहारे सम्हाला था। जहां भी वेदना है, वहीं बोध है। जहां वेदना नहीं, वहां बोध नहीं। ___ इसीलिए तो हम मेरे को बढ़ाते हैं—मेरा मकान हो, मेरी जमीन जहां वेदना है, वहीं चेतना सघन हो जाती है। और जहां वेदना नहीं | | हो, मेरा राज्य हो, मेरा पद हो, मेरी पदवी हो, मेरा ज्ञान हो, मेरे है, वहां चेतना विदा हो जाती है। मित्र हों—जितना मेरा मेरे का विस्तार होता है, उतना मेरा मैं यह वेदना शब्द भी बहुत अदभुत है। इसके दो अर्थ होते हैं। मजबूत और बीच में सघन होकर सिंहासन पर बैठ जाता है। अगर इसका अर्थ ज्ञान भी होता है और दुख भी होता है। हमारे पास शब्द | मेरा सब विदा हो जाए, तो मेरे मैं को खड़े होने के लिए कोई सहारा है, वेद। वेद का अर्थ होता है ज्ञान। वेद से ही वेदना बना है। वेदना | | न रह जाएगा और वह भूमि पर गिरकर टूट जाएगा, बिखर जाएगा। का एक अर्थ तो होता है : ज्ञान, बोध, कांशसनेस; और एक अर्थ | | अर्जुन की पीड़ा क्या है? अर्जुन की पीड़ा यह है कि सब मेरे हैं। होता है : पीड़ा, दुख। यह अकारण अर्थ नहीं होता है इस शब्द का। इसलिए वह बार-बार कहता है कि जिनके लिए राज्य जीता जाता 319 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1-m है, जिनके लिए धन कमाया जाता है, जिनके लिए यश की कामना | रहेगा, लेकिन तब, तब कर्म परमात्मा के हाथ में समर्पित होकर की जाती है, वे सब मेरे मर जाएंगे युद्ध में, तो मैं इस राज्य का, चलता है। तब मेरा कोई भी दायित्व, तब मेरा कोई भी बोझ नहीं इस धन का, इस साम्राज्य का, इस वैभव को पाकर करूंगा भी | । रह जाता। इस बात को ही कृष्ण आगे और स्पष्ट करेंगे। क्या? जब मेरे ही मर जाएंगे...! लेकिन उसे भी साफ नहीं है कि मेरे के मरने का इतना डर मैं के मरने का डर है। जब पत्नी मरती है, तो पति भी एक हिस्सा मर प्रश्न : भगवान श्री, पांचवें श्लोक पर प्रश्न करने के जाता है। उतना ही जितना जड़ा था, उतना ही जितना पत्नी उसके पहले कल की चर्चा के संबंध में तीन छोटे प्रश्न रह भीतर प्रवेश कर गई थी और उसके मैं का हिस्सा बन गई थी। गए हैं। कल आपने कहा कि क्षत्रिय बहिर्मुखी है और एकदम से खयाल में नहीं आता कि हम सब एक-दूसरे से अपने ब्राह्मण अंतर्मुखी है और तदनुरूप उनकी साधना में मैं के लिए भोजन जुटाते हैं। भेद है। कृपया बताएं कि वैश्य और शूद्र को आप एक बच्चा हो रहा है एक मां को। एक स्त्री को बच्चा हो रहा किस चित्त-कोटि में रखेंगे? है। जिस दिन बच्चा पैदा होता है, उस दिन अकेला बच्चा ही पैदा नहीं होता है, उस दिन मां भी पैदा होती है। उसके पहले सिर्फ स्त्री है, बच्चे के जन्म के बाद वह मां है। यह जो मां होना उसमें आया, त्रिय बहिर्मुखता का प्रतीक है, ब्राह्मण अंतर्मुखता का यह बच्चे के होने से आया है। अब उसके मैं में मां होना भी जड़ 1 प्रतीक है। फिर शूद्र और वैश्य किस कोटि में हैं? गया। कल यह बच्चा मर जाए, तो उसका मां होना फिर मरेगा, दो-तीन बातें समझनी होंगी। अब उसके मैं से फिर मां होना गिरेगा। बच्चे का मरना नहीं अंतर्मुखता अगर पूरी खिल जाए, तो ब्राह्मण फलित होता है; अखरता; गहरे में अखरता है, मेरे भीतर कुछ मरता है, मेरे मैं की | अंतर्मुखता अगर खिले ही नहीं, तो शूद्र फलित होता है। बहिर्मुखता कोई संपदा छिनती है, मेरे मैं का कोई आधार टूटता है। | पूरी खिल जाए, तो क्षत्रिय फलित होता है; बहिर्मुखता खिले ही उपनिषदों ने कहा है, कोई किसी दूसरे के लिए दुखी नहीं होता, नहीं, तो वैश्य फलित होता है। इसे ऐसा समझें। एक रेंज है सब अपने लिए दुखी होते हैं। कोई किसी दूसरे के लिए आनंदित अंतर्मुखी का, एक श्रृंखला है, एक सीढ़ी है। अंतर्मुखता की सीढ़ी नहीं होता, सब अपने लिए आनंदित होते हैं। कोई किसी दूसरे के | के पहले पायदान पर जो खड़ा है, वह शूद्र है; और अंतिम पायदान लिए जीता नहीं, सब अपने मैं के लिए जीते हैं। हां, जिन-जिन से | पर जो खड़ा है, वह ब्राह्मण है। बहिर्मुखता भी एक सीढ़ी है। उसके हमारे मैं को सहारा मिलता है, वे अपने मालूम पड़ते हैं; और प्रथम पायदान पर जो खड़ा है, वह वैश्य है; और उसके अंतिम जिन-जिन से हमारे मैं को विरोध मिलता है, वे पराए मालूम पड़ते | | पायदान पर जो खड़ा है, वह क्षत्रिय है। हैं। जो मेरे मैं को आसरा देते हैं, वे मित्र हो जाते हैं; और जो मेरे | | यहां जन्म से क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की मैं बात नहीं कर रहा मैं को खंडित करना चाहते हैं, वे शत्रु हो जाते हैं। | हूं। मैं व्यक्तियों के टाइप की बात कर रहा हूं। ब्राह्मणों में शूद्र पैदा इसलिए जिसका मैं गिर जाता है, उसका मित्र और शत्रु भी पृथ्वी | होते हैं, शूद्रों में ब्राह्मण पैदा होते हैं। क्षत्रियों में वैश्य पैदा हो जाते से विदा हो जाता है। उसका फिर कोई मित्र नहीं और फिर कोई शत्रु | हैं, वैश्यों में क्षत्रिय पैदा हो जाते हैं। यहां मैं जन्मजात वर्ण की बात नहीं। क्योंकि शत्रु और मित्र सभी मैं के आधार पर निर्मित होते हैं। नहीं कर रहा है। यहां मैं वर्ण के मनोवैज्ञानिक तथ्य की बात कर __यह जो कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि कर्म से भागने का कोई रहा हूं। उपाय नहीं, मनुष्य परवश है; कर्म तो करना ही होगा, क्योंकि कर्म | ___ इसलिए यह भी ध्यान में रखने जैसा है कि ब्राह्मण जब भी नाराज जीवन है। इस पर इतना जोर इसीलिए दे रहे हैं कि अर्जुन को दिखाई | होगा किसी पर, तो कहेगा, शूद्र है तू! और क्षत्रिय जब भी नाराज पड़ जाए कि असली बदलाहट, असली म्यूटेशन, असली क्रांति होगा, तो कहेगा, बनिया है तू! कभी सोचा है? क्षत्रिय की कल्पना कर्म में नहीं, कर्ता में करनी है। कर्म नहीं मिटा डालना, कर्ता को में बनिया होना नीचे से नीची बात है। ब्राह्मण की कल्पना में शूद्र विदा कर देना है। वह भीतर से कर्ता विदा हो जाए, तो कर्म चलता | होना नीचे से नीची बात है। क्षत्रिय की कल्पना अपनी ही 320 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ im कर्ता का भ्रम - बहिर्मुखता में जो निम्नतम सीढ़ी देखती है, वह वैश्य की है। अगर सारे लोग विकसित हों, तो जगत में दो ही वर्ण होंगेइसलिए अगर क्षत्रिय पतित हो तो वैश्य हो जाता है; और अगर बहिर्मुखी और अंतर्मुखी। लेकिन जो विकसित नहीं हो पाते, वे भी वैश्य विकसित हो तो क्षत्रिय हो जाता है। | दो वर्ण निर्मित कर जाते हैं। इसलिए चार वर्ण निर्मित हुए : दो, जो इसकी बहुत घटनाएं घटी। और कभी-कभी जब कोई व्यक्ति | विकसित हो जाते हैं; दो, जो विकसित नहीं हो पाते और पीछे छूट समझ नहीं पाता अपने टाइप को, अपने व्यक्तित्व को, अपने जाते हैं। स्वधर्म को, तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है। महावीर क्षत्रिय घर क्षत्रिय की आकांक्षा शक्ति की आकांक्षा है, ब्राह्मण की आकांक्षा में पैदा हुए, लेकिन वे व्यक्ति अंतर्मुखी थे और उनकी यात्रा ब्राह्मण शांति की आकांक्षा है। क्षत्रिय की आकांक्षा शक्ति की है। और अगर की थी। बुद्ध क्षत्रिय घर में पैदा हुए, लेकिन वे व्यक्ति ब्राह्मण थे क्षत्रिय न हो पाए कोई वैश्य रह जाए। तो बहुत भयभीत, डरा हुआ, और उनकी यात्रा ब्राह्मण की थी। इसलिए बुद्ध ने बहुत जगह कहा कायर व्यक्तित्व होता है वैश्य का, लेकिन बीज उसके पास क्षत्रिय है कि मुझसे बड़ा ब्राह्मण और कोई भी नहीं है। लेकिन बुद्ध ने के हैं, इसलिए शक्ति की आकांक्षा भी नहीं छूटती। लेकिन क्षत्रिय ब्राह्मण की परिभाषा और की है। बुद्ध ने कहा, जो ब्रह्म को जाने, होकर शक्ति को पा भी नहीं सकता। इसलिए वैश्य फिर धन के द्वारा वह ब्राह्मण है। शक्ति को खोजता है। वह धन के द्वारा शक्ति को निर्मित करने की बुद्ध और महावीर क्षत्रिय हैं और ब्राह्मण उनका व्यक्तित्व है। कोशिश करता है। लड़ तो नहीं सकता, युद्ध के मैदान पर नहीं हो जन्म से वे क्षत्रिय हैं। जब महावीर जैसा क्षत्रिय ब्राह्मण की यात्रा सकता, हाथ में तलवार नहीं ले सकता, लेकिन तिजोरी तो ली जा पर गया, इंट्रोवर्शन की, अंतर्यात्रा पर गया, सारे बाहर के जगत को | | सकती है और तलवारें खरीदी जा सकती हैं। इसलिए इनडाइरेक्टली छोड़कर भीतर ध्यान और समाधि में डूबा। स्वभावतः, महावीर के | | धन की आकांक्षा, शक्ति की आकांक्षा है—परोक्ष, पीछे के रास्ते आस-पास क्षत्रियों के ही संबंध थे-मित्र थे, प्रियजन थे—वे भी | | से, भयभीत रास्ते से। महावीर से प्रभावित हुए और महावीर के पीछे यात्रा पर गए। यह | ब्राह्मण होने की आकांक्षा शूद्र में भी है। होगी ही। बीज उसके बड़े मजे की बात है कि महावीर के पीछे जो क्षत्रिय यात्रा पर गए, | भीतर है अंतर्मुखता का। अगर वह विकसित हो, तो वह पूर्ण अंत में वे वैश्य होकर रह गए। सारा जैन समाज वैश्यों का हो गया। अंतर्मुखी यात्रा पर निकल जाएगा। अगर विकसित न हो, तो सिर्फ असल में महावीर से प्रभावित होकर जो क्षत्रिय महावीर के पीछे | आलस्य में खड़ा रह जाएगा। बहिर्मुखी हो न पाएगा, अंतर्मुखी गया था, वह इंट्रोवर्ट नहीं था। वह ब्राह्मण हो नहीं सकता था। था | | होगा नहीं। तब बीच में खड़ा रह जाएगा। आलस्य, तमस, प्रमाद तो वह क्षत्रिय, महावीर से प्रभावित होकर पीछे चला गया। ब्राह्मण | उसकी जिंदगी हो जाएगी। बाहर की यात्रा पर जाएगा नहीं, भीतर हो नहीं पाया, क्षत्रिय होना मुश्किल हो गया, वैश्य होने का एकमात्र की यात्रा पर जा सकता था, जा नहीं रहा है। यात्रा ठहर जाएगी। मार्ग रह गया। वह क्षत्रिय होने से नीचे गिरा और वैश्य हो गया। | दोनों यात्राएं ठहर जाएंगी। शूद्र का अर्थ है, प्रमादी। शूद्र का अर्थ ___ यह होने ही वाला था। ब्राह्मण अंतर्मुखता की श्रेष्ठतम स्थिति | है, सोया हुआ। शूद्र का अर्थ है, आलस्य, तमस से घिरा हुआ। है। सभी ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं हैं। अगर ठीक से समझें, तो हम सब | | शूद्र का अर्थ है, जो कुछ भी नहीं कर रहा है; न बाहर जा रहा है, पैदा तो होते हैं या शूद्र की तरह या वैश्य की तरह, विकसित हो | न भीतर जा रहा है; जो प्रमाद में, अंधेरे में सोया रह गया है। सकते हैं ब्राह्मण की तरह या क्षत्रिय की तरह। पैदा तो हम होते हैं | - यह जो मैं कह रहा हूं-यह ध्यान रख लेंगे—यह किसी शूद्र, नीचे पाय दान पर, विकसित हो सकते बीज में तो हम या तो होते किसी ब्राह्मण, किसी वैश्य, किसी क्षत्रिय के लिए नहीं कह रहा है। हैं शूद्र, या होते हैं वैश्य। फिर अगर बीज खिल जाए, तो बन सकते | यह मनोवैज्ञानिक टाइप के लिए कह रहा हूं। हैं क्षत्रिय, या बन सकते हैं ब्राह्मण। ___ इसलिए शूद्र निरंतर ही ब्राह्मण के विपरीत अनुभव करेगा। और मेरे देखे, जन्म से सारे लोग दो तरह के होते हैं-शूद्र और अगर आज सारी दुनिया में और विशेषकर इस मुल्क में, जिसने कि वैश्य। उपलब्धि से, एचीवमेंट से दो तरह के हो जाते हैं ब्राह्मण | | यह टाइप की मनोवैज्ञानिक व्यवस्था सबसे पहले खोजी थी, शूद्र और क्षत्रिय। जो विकसित नहीं हो पाते, वे पिछली दो कोटियों में | | ने ब्राह्मण के खिलाफ बगावत कर दी है। बगावत करने का एक रह जाते हैं। वर्ण तो दो ही हैं। ढंग और भी था; वह ढंग यह था कि शूद्र ब्राह्मण होने की यात्रा पर 321 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m+ गीता दर्शन भाग-1 +m निकल जाए। वह नहीं हो सका। और अब राममोहन राय, गांधी सकते हैं या ब्राह्मण हो सकते हैं। ये पोलेरिटीज हैं, ये ध्रुवताएं हैं। और उन सारे लोगों के आधार पर, जिनकी कोई मनोवैज्ञानिक लेकिन शद्र होना तो प्रकति से ही हो जाता है: ब्राह्मण होना समझ नहीं है, शूद्र एक दूसरी यात्रा पर निकला है। वह कह रहा है। | उपलब्धि है। वैश्य होना प्रकृति से ही हो जाता है; क्षत्रिय होना कि हम ब्राह्मण को भी शूद्र बनाकर रहेंगे। अब हम तो ब्राह्मण नहीं उपलब्धि है। बन सकते। वह बात छोड़ें। लेकिन अब हम ब्राह्मण को भी शूद्र बनाकर रहेंगे। शूद्र ब्राह्मण बने, यह हितकर है। लेकिन वह यात्रा आंतरिक प्रश्नः भगवान श्री, दूसरी बात, कल आपने बताया यात्रा है। लेकिन शूद्र सिर्फ ब्राह्मण को खींचकर शूद्र बनाने की | कि अंतर्मुखी, इंट्रोवर्ट व्यक्ति ज्ञान से शून्यत्व को चेष्टा में लग जाए, तो वह सिर्फ आत्मघाती बात है। शूद्र आतुर है | अर्थात निर्वाण को प्राप्त होता है; उसी तरह बहिर्मुखी, कि ब्राह्मण और उसके बीच का फासला टूट जाए। फासला टूटना एक्सट्रोवर्ट व्यक्ति साधना से पूर्णत्व अर्थात ब्रह्म को चाहिए। लेकिन वह एक मनोवैज्ञानिक साधना है; वह एक प्राप्त करता है। तो फिर गीता के द्वितीय अध्याय के सामाजिक व्यवस्था मात्र नहीं है। अंतिम श्लोक में श्रीकृष्ण ने बताया है, और यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि उसी तरह ब्राह्मण भी | ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति। यह क्या है? क्या यह दोनों का बहुत बेचैन है कि कहीं फासला न टूट जाए। शंकराचार्य पुरी के | समन्वय है? बहुत बेचैन हैं कि कहीं फासला न टूट जाए! कहीं ब्राह्मण और शूद्र का फासला न टूट जाए! यह डर भी इसी बात की सूचना है कि अब ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं है, अन्यथा फासला टूटने से वह डरने समन्वय की जरूरत सत्य को कभी नहीं होती, सिर्फ वाला नहीं था। फासला टूट नहीं सकता। शूद्र बगल में बैठ जाए | असत्यों को होती है। सत्य समन्वित है। ब्रह्म-निर्वाण, ब्राह्मण के, इससे फासला नहीं टूटता। शूद्र ब्राह्मण की थाली में | ऐसे शब्द के प्रयोग का एक ही मतलब होता है कि बैठकर खा ले, इससे फासला नहीं टूटता। अगर ब्राह्मण असली | कुछ लोग जिसे ब्रह्म कहते हैं, कुछ लोग उसी को निर्वाण कहते हैं। है, तो फासला ऐसे टूटता नहीं। लेकिन अगर ब्राह्मण खुद ही शूद्र | जो शून्य से चलते हैं, वे निर्वाण कहते हैं; जो पूर्ण से चलते हैं, वे है, तो फासला तत्काल टूट जाता है। ब्राह्मण डरा हुआ है, क्योंकि | ब्रह्म कहते हैं। लेकिन जिस अनुभूति के लिए ये शब्द प्रयोग किए वह शूद्र हो चुका है करीब-करीब। और शूद्र आतुर है कि ब्राह्मण जा रहे हैं, वह एक ही है। ब्रह्म-निर्वाण, ब्रह्म की अनुभूति और को शूद्र बनाकर रहे। निर्वाण की अनुभूतियों के बीच समन्वय नहीं है, क्योंकि समन्वय यह मैं जो कह रहा है. वह इसलिए कह रहा है, ताकि यह के लिए दो का होना जरूरी है। ब्रह्म-निर्वाण एक ही अनुभूति के खयाल आ सके कि भारत की वर्ण की धारणा के पीछे बड़े लिए दिए गए दो नामों का इकट्ठा उच्चार है। सिर्फ इस बात को मनोवैज्ञानिक खयाल थे। मनोवैज्ञानिक खयाल यह था कि प्रत्येक बताने के लिए कि कुछ लोग उसे निर्वाण कहते हैं और कुछ लोग व्यक्ति ठीक से पहचान ले कि उसका टाइप क्या है, ताकि उसकी | उसे ब्रह्म कहते हैं। लेकिन वह जो है, वह एक ही है। जो लोग आगे जीवन की यात्रा व्यर्थ यहां-वहां न भटक जाए; वह यहां-वहां | विधायक हैं, पाजिटिव हैं, वे उसे ब्रह्म कहते हैं; जो लोग निगेटिव न डोल जाए। वह समझ ले कि वह अंतर्मुखी है कि बहिर्मुखी है, हैं, नकारात्मक हैं, वे उसे निर्वाण कहते हैं। लेकिन वे जिसे कहते और उस यात्रा पर चुपचाप निकल जाए। एक क्षण भी खोने के हैं, वह एक्स, वह अज्ञात, वह एक ही है। योग्य नहीं है। और जीवन का अवसर एक बार खोया जाए, तो न __इसलिए कृष्ण ब्रह्म-निर्वाण दोनों का एक साथ प्रयोग कर रहे मालूम कितने जन्मों के लिए खो जाता है। व्यक्तित्व ठीक से हैं, समन्वय के लिए नहीं, सिर्फ इस बात की सूचना के लिए कि पहचानकर साधना में उतरे, यह जरूरी है। | सत्य एक ही है, जिसे जानने वाले बहुत तरह से कहते हैं। और इसलिए मैंने कहा, अगर आप बहिर्मुखी हैं, तो या तो आप वैश्य बड़े से बड़े जो भेद हो सकते हैं उनके कहने के, वे दो हो सकते हो सकते हैं या क्षत्रिय हो सकते हैं। अंतर्मुखी हैं, तो या शूद्र हो हैं: या तो वे कह दें कि वह शून्य है या वे कह दें कि वह पूर्ण है। 1322 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कर्ता का भ्रम - यह अपनी रुचि की, व्यक्तित्व की बात है। यह अपने देखने के | | फहराएंगे और शास्त्रों से सिद्ध करेंगे कि सत्य बात क्या है। दूसरा ढंग की बात है। असत्य है। और हम जब भी कुछ कहते हैं, तो हम उस संबंध में कम कहते ठीक भी है। जिनको पता न हो. उनके लिए दोनों वक्तव्य हैं जिस संबंध में कह रहे हैं, अपने संबंध में ज्यादा कहते हैं। जब | एकदम कंट्राडिक्टरी हैं। कि गिलास आधा खाली है; खाली है, इस भी हम कुछ कहते हैं, तो वह खबर हमारे बाबत होती है कि हम | | पर ध्यान जाता है। गिलास आधा भरा है; भरा है, इस पर ध्यान किस तरह के व्यक्ति हैं। हमें जो दिखाई पड़ता है, वह गेस्टाल्ट है। | जाता है। एक कहता है, खाली है। एक कहता है, भरा है। और उसमें हम भी जुड़ जाते हैं। | जिन्होंने देखा नहीं, जिन्हें कुछ पता नहीं, वे कहेंगे, इससे ज्यादा अब जैसे उदाहरण के लिए, कहीं एक गिलास में आधा पानी विरोधी वक्तव्य क्या हो सकते हैं! ये दोनों अलग-अलग बातें हैं। भरा रखा हो और एक व्यक्ति कमरे के बाहर आकर कहे कि दो में से कोई एक ही सही हो सकता है। इसलिए निर्णय करो कि गिलास आधा खाली है और दूसरा आदमी बाहर आकर कहे कि सही कौन है। गिलास आधा भरा है। इन दोनों ने दो चीजें नहीं देखीं। इन दोनों ने | | यह निर्णय हजारों साल तक चलेगा और कभी नहीं हो पाएगा। दो चीजें कही भी नहीं। लेकिन फिर भी इन दो व्यक्तियों के देखने | क्योंकि वहां सिर्फ एक ही गिलास है, जो आधा खाली है और का ढंग बिलकुल प्रतिकूल है। आधा भरा है। दो आदमियों ने देखा है। बस, वक्तव्य इसीलिए एक ने देखा कि आधा खाली है। खाली पर उसकी नजर गई है, भिन्न हो गए हैं। भरे पर उसकी नजर नहीं गई। एफेटिकली खाली उसे दिखाई पड़ा। ब्रह्म-निर्वाण दो बातों का समन्वय नहीं है। एक सत्य के लिए है, भरा किनारे पर रहा है। खाली बीच में रहा है, सेंटर में, भरा | उपयोग किए गए दो शब्दों का समवेत प्रयोग है। समन्वय सिर्फ परिधि पर रहा है। खाली ने उसको पकड़ा है; भरे ने उसे नहीं पकड़ा | असत्यों में करना पड़ता है। सत्य में समन्वय नहीं हो सकता, है। दूसरा व्यक्ति कहता है, आधा भरा है। भरा उसके बीच में है | | क्योंकि सत्य एक है। दूसरा है नहीं, जिससे समन्वय करना पड़े। ध्यान के, खाली बाहर है, परिधि पर है। खाली उसे दिखाई नहीं | ___ इसलिए जितने लोग समन्वय की बातें करते हैं, इन्हें सत्य का पड़ा, दिखाई उसे भरा पड़ा है, खाली ने सिर्फ भरे की सीमा बनाई | कोई भी पता नहीं है। सत्य को समन्वय की कोई भी जरूरत नहीं है। भरा है असली, खाली पड़ोस में है, सिर्फ सीमांत है। तो वह | | है। सत्य है ही एक। किससे समन्वय करना है? असत्य से! हां, कह रहा है, आधा भरा है। असत्य से करना हो तो हो सकता है। लेकिन सत्य से असत्य का और गिलास, गिलास से पूछे कि गिलास आधा भरा है या आधा | | समन्वय कैसे होगा? कोई उपाय नहीं है। और दो सत्य नहीं हैं कि खाली है? गिलास कुछ भी नहीं कहेगा। क्योंकि गिलास कहेगा, | | जिनका समन्वय करना हो। हां, एक ही सत्य को बहुत लोगों ने यह विवाद पागलपन का है। मैं दोनों हूं। मैं एक साथ दोनों हूं। देखा है, बहुत शब्दों में कहा है। भेद शब्दों के हैं, सत्यों के नहीं। लेकिन यह दो भी इसलिए कहना पड़ रहा है, क्योंकि दो लोगों ने मुझे देखा है। असल में मैं तो जो हूं, हूं। यहां तक पानी है और यहां से पानी नहीं है। बीच तक पानी है और बीच तक पानी नहीं है। एक प्रश्नः भगवान श्री, कल आपने कहा कि कर्ता तो रेखा है, जहां मेरा आधा खालीपन और आधा भरापन मिलते हैं। | प्रभु है, मनुष्य तो केवल निमित्त-मात्र है। तो कोई दो आदमियों ने दो तरह से देखा है। ये दो आदमी दो तरह से व्यक्ति जब दुष्कर्म की ओर प्रवृत्त होता है, तो क्या कहते हैं। और अगर ये दोनों आदमी बाजार में चले जाएं और ऐसे दुष्कर्म का कर्ता और प्रेरक भी प्रभु है? और कर्तापन लोगों के बीच में पहुंच जाएं जिन्होंने कभी आधी भरी और आधी के अभाव से बुरे कर्म का अभिनय करना कहां तक खाली चीज न देखी हो, तो दो संप्रदाय बन जाएंगे उस बाजार में। उचित है? एक आधे खाली वालों का संप्रदाय होगा, एक आधे भरे वालों का | संप्रदाय होगा। और उनमें भारी विवाद चलेगा; और उनके पंडित बड़ा तर्क करेंगे और विश्वविजय की यात्राएं निकालेंगे और झंडे | अच्छे और बुरे का फासला आदमी का है, परमात्मा का 323 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m- गीता दर्शन भाग-1 AM नहीं है। और जो अच्छे-बुरे में फर्क करता है, उससे कभी न कभी। है कि मैं कर्ता हूं। और मजा यह है कि जब तक कर्ता होता है, तब बुरा होगा; वह बुरे से बच नहीं सकता है। सिर्फ बुरे से वही बच तक अच्छा काम होता नहीं है। अब इस मिस्ट्री को, इस रहस्य को सकता है, जिसने सभी परमात्मा पर छोड़ दिया हो। ठीक से समझ लेना चाहिए। लेकिन हम कहेंगे कि एक आदमी चोरी कर सकता है और कह कर्ता की मौजूदगी, अहंकार की मौजूदगी ही जीवन में पाप का सकता है कि मैं तो निमित्त-मात्र हूं; चोरी मैं नहीं करता हूं, परमात्मा जन्म है। अहंकार की अनुपस्थिति, गैर-मौजूदगी ही जीवन में पुण्य करता है। कहे; अड़चन अभी नहीं है, अड़चन जब घर के लोग की सुगंध का फैलाव है। इसलिए अगर कोई कर्ता रहकर पुण्य भी पकड़कर उसे मारने लगते हैं, तब पता चलेगी। क्योंकि अगर वह करे, तो पाप हो जाता है। कर नहीं सकता, इसीलिए हो जाता है। तब भी यही कहे कि परमात्मा ही मार रहा है और ये घर के लोग | हो ही नहीं सकता। दूसरी बात भी नहीं हो सकती। कोई कर्ता मिट कर्ता नहीं हैं, निमित्त-मात्र हैं, तभी पता चलेगा। | जाए और पाप करे, यह भी नहीं हो सकता। और ध्यान रहे. जो आदमी. कोई दसरा उसे मार रहा हो और हमने जो फर्क किया है पाप और पण्य का, अच्छे और बरे का, फिर भी जानता हो कि परमात्मा ही मार रहा है, निमित्त-मात्र हैं। | वह उन लोगों ने किया है, जिनके पास कर्ता मौजूद है, जिनका दूसरे, ऐसा आदमी चोरी करने जाएगा, इसकी संभावना नहीं है। | अहंकार मौजूद है। और इस अहंकार के मौजूद रहते हमें ऐसा असंभव है, यह बिलकुल असंभव है। | इंतजाम करना पड़ा है कि हम बुरे आदमी को बहुत बुरा कहते हैं, हम बुरा करते ही अहंकार से भरकर हैं। बिना अहंकार के बुरा | ताकि अहंकार को चोट लगे। हम अहंकार से ही बुराई को रोकने हम कर नहीं सकते। और जिस क्षण हम परमात्मा को सब कर्तृत्व की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए बुराई रुक नहीं पाई, सिर्फ अहंकार दे देते हैं, अहंकार छूट जाता है; बुरे को करने की बुनियादी बढ़ा है। सारी मारेलिटी, सारा नीतिशास्त्र क्या करता है? वह इतना आधारशिला गिर जाती है। बुरा करिएगा कैसे? ही करता है कि आपके अहंकार को ही उपयोग में लाता है बुराई से कभी आपने खयाल किया है कि बरे कर्म को करके तो कोई भी रोकने के लिए। अपने को कर्ता नहीं बताना चाहता है। कभी आपने यह खयाल बाप अपने बेटे से कहता है, ऐसा करोगे तो गांव के लोग क्या किया है। एक आदमी चोरी भी करता है, तो वह कहता है, मैंने नहीं कहेंगे? बात गलत है या सही है, यह सवाल नहीं है बड़ा। बड़ा की। फंस जाए, हम सिद्ध कर दें, बात अलग। लेकिन अपनी तरफ सवाल यह है कि गांव के लोग क्या कहेंगे! कोई आदमी किसी के से वह इनकार ही करता चला जाता है कि मैंने नहीं की। बुरे का घर में चोरी करने जाता है, तो सोचता है-यह नहीं कि चोरी बुरी कर्ता तो कोई भी होने को राजी नहीं है। और मजा यह है कि बुरा है-यह कि पकड़ तो न जाऊंगा! अगर पक्का विश्वास दिला बिना कर्ता के होता नहीं है। दिया जाए कि नहीं पकड़े जा सकोगे, तो कितने लोग हैं जो अचोर उलटी बात भी खयाल में ले लें, कोई आदमी दो पैसे दान दे, रह पाएंगे। पुलिस वाला चौरस्ते पर न हो चौबीस घंटे के लिए, तो दो लाख जैसे दान दिया हो, ऐसी खबरें उड़ाना चाहता है! न भी अदालत चौबीस घंटे के लिए छुट्टी पर चली जाएं, कानून चौबीस खबर उड़ा पाए, दो पैसा दान दे, तो भी दो लाख दिया है, इतनी | घंटे के लिए स्थगित कर दिया जाए, कितने भले लोग भले रह अकड़ से चलना तो चाहता ही है। भिखारी भी जानते हैं, अगर आप जाएंगे? और चौबीस घंटे के लिए यह भी तय कर लिया जाए कि अकेले मिल जाएं रास्ते पर, तो उनको भरोसा कम होता है कि दान | | जो बुरा करेगा, उसे सम्मान मिलेगा और जो अच्छा करेगा, उसे मिलेगा। चार आदमी आपके साथ हों, तब उनका भरोसा बढ़ जाता | | अपमान मिलेगा, तब तो और मुश्किल हो जाएगी। है। तब वे आपका पैर पकड़ लेते हैं। तब आप पर भरोसा नहीं नहीं, हम बुरे से नहीं रुके हैं। बुरे से रोकने के लिए भी हमने होता, चार आदमियों की मौजूदगी पर भरोसा होता है। ये चार | | अहंकार का ही उपयोग किया है कि लोग क्या कहेंगे? इज्जत का आदमियों के सामने यह आदमी इतनी दीनता प्रकट न कर पाएगा | | क्या होगा? कुल का क्या होगा? वंश का क्या होगा? प्रतिष्ठा, कि कह दे कि नहीं देते। इसलिए भिखारी को अकेला कोई मिल | सम्मान, आदर-इसका क्या होगा? इससे हम रोके हुए हैं जाए, तो काम नहीं सधता। उसे भीड़ में पकड़ना पड़ता है। आदमी को। अच्छा काम आदमी न भी किया हो, तो भी घोषणा करना चाहता | लेकिन जिस चीज का हम उपयोग कर रहे हैं रोकने के लिए, Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता का भ्रम वही पाप की जड़ है। हम जहर सींचकर ही बुराई मिटाने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए हजारों साल हो गए, बुराई मिटती नहीं है। सिर्फ जहर सिंचता है और बुराई नए रास्तों से निकलकर प्रकट होती है। अच्छे आदमी से भी हम क्या करवाते हैं? उसके भी अहंकार को बल देते हैं। हम कहते हैं, तुम्हारे नाम की तख्ती लगा देंगे मंदिर पर, तुम्हारा संगमरमर पर नाम खोद देंगे। काम अच्छा है, यह सवाल नहीं है; हम तुम्हारे अहंकार के लिए सील - मोहर दे देंगे। अच्छा आदमी भी मंदिर बनाने के लिए मंदिर नहीं बनाता, मंदिर में नाम का पत्थर लगाने के लिए मंदिर बनाता है। अच्छे काम के लिए भी हमें जहर को ही सींचना पड़ता है। इसलिए सब मंदिर, मस्जिद अगर जहरीले हो गए हैं, तो कोई आश्चर्य नहीं है। उनकी जड़ में जहर है, वहां अहंकार खड़ा हुआ है। अच्छाई करवानी हो तो भी अहंकार, बुराई रोकनी हो तो भी अहंकार ! कृष्ण कुछ और ही सूत्र कह रहे हैं; वह बहुत अदभुत है। वह एक अर्थ में, कहें कि धर्म का बुनियादी सूत्र है । वे यह कह रहे हैं कि नीति से काम नहीं चलेगा अर्जुन, क्योंकि नीति तो अहंकार पर ही खड़ी होती है। धर्म से काम चलेगा, क्योंकि धर्म कहता है, छोड़ो तुम मैं को, परमात्मा को करने दो जो कर रहा है, तुम निमित्त मात्र हो जाओ। हमें डर लगता है कि अगर हम निमित्त मात्र हुए, तो अभी चोरी पर निकल जाएंगे। हमें डर लगता है कि अगर हम निमित्त मात्र हुए और हमने कहा कि अब हम कर्ता नहीं हैं, तो हम अभी चोरी पर निकल जाएंगे। | में मैंने सुना है कि एक दफ्तर में एक मैनेजर को एक बुद्धिमानी की बात सूझी। वैसे आमतौर से मैनेजर्स को बुद्धिमानी की बात नहीं सूझती। या ऐसा हो सकता है कि मैनेजर होते-होते तक आदमी को बुद्धि खो देनी पड़ती है। या ऐसा हो सकता है कि मैनेजर तक पहुंचने के लिए बुद्धि बिलकुल ही गैरजरूरी तत्व है, या बांधा है। लेकिन एक मैनेजर को बुद्धिमानी सूझी और उसने अपने दफ्तर एक तख्ती लगा दी। लोग काम नहीं करते थे, टालते थे, पोस्टपोन करते थे, तो उसने एक तख्ती लगा दी। एक वचन किसी संत का लगा दिया। लगा दिया: काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। जो कल करना चाहता था, वह आज कर; जो आज करना चाहता था, वह अभी कर, क्योंकि समय का कोई भरोसा नहीं है कि कल आएगा कि नहीं आएगा। सात दिन बाद उसके मित्रों ने पूछा, तख्ती का क्या परिणाम हुआ? उसने कहा, बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। मेरा सेक्रेटरी टाइपिस्ट को लेकर भाग गया। एकाउंटेंट सारा पैसा लेकर नदारत हो गया। सब गड़बड़ हो गई है। पत्नी का सात दिन से कोई पता नहीं चल रहा है, चपरासी के साथ भाग गई है। दफ्तर में अकेला ही रह गया हूं। क्योंकि उन लोगों ने, जो-जो उन्हें कल करना था, आज ही | कर लिया है; और जो आज करना था, वह अभी कर लिया है। हमें भी ऐसा लगता है कि अगर हम परमात्मा पर सब छोड़ दें, तो फिर तो छूट मिल जाएगी। फिर तो हमें जो भी करना है, वह हम अभी कर लेंगे। हां, अगर उसको करने के लिए ही निमित्त बन रहे हैं, अगर उसे करने के लिए ही परमात्मा को कर्ता बना रहे हैं, तो जरूर ऐसा हो जाएगा। लेकिन जो कुछ करने के लिए निमित्त बन रहा है, वह निमित्त | बन ही नहीं रहा है। और जो कुछ करने के लिए परमात्मा को कर्ता बना रहा है, वह परमात्मा को कर्ता बना ही नहीं रहा है। योजना तो उसकी अपनी ही है, अहंकार तो अपना ही है, परमात्मा का भी शोषण करना चाह रहा है। नहीं, कृष्ण उसके लिए नहीं कह रहे हैं। कृष्ण कह रहे हैं कि अगर तुम परमात्मा में अपने को छोड़ दो, तो छोड़ने के साथ ही अपनी योजनाएं भी छूट जाती हैं; छोड़ने के साथ ही अपनी कामनाएं भी छूट जाती हैं; छोड़ने के साथ ही अपनी वासनाएं भी छूट जाती हैं; छोड़ने के साथ ही अपना भविष्य भी छूट जाता है; | छोड़ने के साथ ही हम ही छूट जाते हैं। फिर हम बचते ही नहीं । फिर जो हो । फिर जो हो ! लेकिन हमें डर लगेगा। क्योंकि जो-जो होने की, हमें करने की इच्छा है, वह फौरन दिखाई पड़ेगी कि यह - यह होगा । तब हम कृष्ण | | को नहीं समझ पा रहे हैं। तब कृष्ण को समझना मुश्किल होगा। जिस दिन कोई व्यक्ति स्वयं को समर्पित करने का साहस जुटाता है और स्वयं को समर्पित करना बड़े से बड़ा साहस है। उससे बड़ा कोई साहस नहीं, कोई एडवेंचर नहीं, उससे बड़ा कोई दुस्साहस नहीं। स्वयं को छोड़ना परमात्मा के चरणों में, आसान | बात नहीं है । और जो आदमी स्वयं को छोड़ सकता है, वह चोरी | नहीं छोड़ पाएगा, यह सोचना भी मुश्किल है। जो स्वयं को ही छोड़ | सकता है, वह चोरी किसके लिए करेगा ? जो स्वयं को छोड़ सकता है, हत्या किसके लिए करेगा? जो स्वयं को छोड़ सकता है, बेईमानी किसके लिए करेगा? उसका कोई उपाय नहीं है। स्वयं को 325 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 4 छोड़ते ही, सब छूट जाता है । फिर जो भी हो - कृष्ण कहते हैं — वह परमात्मा का है। तू निमित्त भर है। निमित्त भर जो है, उसे योजना नहीं बनानी है। निमित्त भर जो है, उसे कामना नहीं करनी है। निमित्त की क्या कामना ? निमित्त की क्या वासना ? कृष्ण का संदेश धार्मिक है, नैतिक नहीं। और नैतिक संदेश भी कोई संदेश होता है ! कामचलाऊ, कनवीनिएंट होता है। अनीति को किसी तरह रोकने का उपाय हम करते रहते हैं। रुकती नहीं। किसी तरह इंतजाम करते रहते हैं, काम चलाते हैं। धर्म का संदेश कामचलाऊ नहीं है। धर्म का संदेश तो जीवन की आमूल क्रांति का संदेश है। जो स्वयं को सब भांति छोड़ देता है, उसके जीवन से सब कुछ गिर जाता है, जो कल तक था। न बुरा, न अच्छा — दोनों गिर जाते हैं। फिर तो परमात्मा ही शेष रह जाता है। फिर जो भी हो, उससे अंतर नहीं पड़ता, वह सभी कुछ परमात्मा के लिए समर्पित है। चौबीस घंटे के लिए भी कभी प्रयोग करके देखें । फिर वासना को उठाना मुश्किल होगा। क्योंकि वासना केवल कर्ता ही उठा सकता है। निमित्त वासना कैसे उठाएगा? फिर यह सोचना मुश्किल होगा कि मैं करोड़ रुपया इकट्ठा कर लूं, क्योंकि मैं हूं कौन? मैं हूं . कहां ? यह करोड़ रुपया इकट्ठा करने की वासना निमित्त मात्र व्यक्ति में नहीं उठ सकती। सारी वासना का आधार, मूल स्रोत अहंकार है । प्रश्नः भगवान श्री, कल की चर्चा पर एक छोटा-सा प्रश्न और आया है। आपने कहा कि तीन बार किसी बात का संकल्प करना कमजोर संकल्प घोषित करता है। आपके ध्यान में संकल्प तीन बार किया जाता है, तो यह क्या है? और ध्यान-साधना से ज्ञान होगा कि ध्यान-साधना स्वयं में कर्म है ? ध्या 'न के प्रयोग में तीन बार संकल्प किया जाता है, वह भी कम पड़ता है। तीन सौ बार किया जाए, तब पूरा पड़े ! क्योंकि आप अर्जुन नहीं हैं। आप अर्जुन नहीं हैं। आपको तीन सौ बार कहने पर भी एक बार सुनाई पड़ जाए बहुत है। तीन बार इसीलिए कहा जाता है कि शायद एकाध बार सुनाई पड़ जाए। बहरों के बीच मेहनत अलग तरह की होती है। कृष्ण भीड़ को नहीं बता रहे हैं। और जब मैं ध्यान करवा रहा . हूं, तो भीड़ को । कृष्ण एक आदमी से बात कर रहे हैं - सीधे, आमने-सामने। जब मैं हजारों लोगों से कुछ बात कर रहा हूं, तो | आमने-सामने कोई भी नहीं है। दिखाई पड़ते हैं आमने-सामने, है कोई भी नहीं। तीन सौ बार भी कहा जाए, तो थोड़ा पड़ेगा। आशा | यही है कि तीन सौ बार कहने में शायद एकाध बार आपको सुनाई पड़ जाए। काम तो एक ही बार में हो जाता है, लेकिन वह एक बार सुनाई पड़ना चाहिए न ! और पूछ रहे हैं कि ध्यान से क्या फलित होगा ? अगर बहिर्मुखी व्यक्तित्व है, तो ध्यान से वह ब्रह्म की यात्रा पर निकल जाता है। अगर अंतर्मुखी व्यक्तित्व है, तो ध्यान से निर्वाण की यात्रा पर निकल जाता है। ध्यान दोनों यात्राओं पर वाहन का काम करता है। इसलिए ध्यान किसी व्यक्ति विशेष के टाइप से संबंधित | नहीं है। ध्यान तो ऐसा है, जैसे कि आप ट्रेन पर पश्चिम जाना चाहें, | तो पश्चिम चले जाएं; और पूर्व जाना चाहें, तो पूर्व चले जाएं। ट्रेन नहीं कहती कि कहां जाएं। ट्रेन कहीं भी जा सकती है। ध्यान सिर्फ एक वाहन है । बहिर्मुखी व्यक्ति अगर ध्यान में उतरे, तो वह ब्रह्म की यात्रा पर, बहिर्यात्रा पर निकल जाएगा, कास्मिक जर्नी पर निकल जाएगा - जहां सारा अखंड जगत उसे अपना ही स्वरूप मालूम होने लगेगा। अगर अंतर्मुखी व्यक्ति ध्यान के वाहन पर सवार हो, तो अंतर्यात्रा पर निकल जाएगा, शून्य में, और शून्य में, और महाशून्य में - जहां सब बबूले फूटकर मिट जाते हैं और | महासागर अस्तित्व का, शून्य का ही शेष रह जाता है। ध्यान दोनों के काम आ सकता है। ध्यान का टाइप से संबंध नहीं है। ध्यान का संबंध यात्रा के वाहन से है ! 326 कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसास्मरन् । इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ।। ६ ।। इसलिए जो मूढबुद्धि पुरुष कर्मेद्रियों को हठ से रोककर इंद्रियों के भोगों का मन से चिंतन करता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दंभी कहा जाता है। ' •दभुत वचन है। कृष्ण कह रहे हैं कि जो मूढ़ व्यक्ति मूढ़ खयाल रखना - जो नासमझ, जो अज्ञानी इंद्रियों अ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 कर्ता का भ्रम - को हठपूर्वक रोककर मन में काम के चिंतन को चलाए चला जाता | मनुष्य को किसी काम में नहीं ले जाती, मन ले जाता है। और जब है, वह दंभ में, पाखंड में, अहंकार में पतित होता है। मूढ़ कहेंगे!| | कोई इंद्रियों को दबाता है, इंद्रियों को रोकता है और मन जब इंद्रियों कह रहे हैं, ऐसा व्यक्ति मूढ़ है, जो इंद्रियों को दमन करता है, सप्रेस | का सहयोग नहीं पाता है, तो पागल होकर भीतर ही उन चीजों की करता है। रचना करने लगता है, जो उसने बाहर चाही थीं। काश! फ्रायड को यह वचन गीता का पढ़ने मिल जाता, तो | __ अगर दिनभर आप भूखे रहे हैं, तो रात सपने में आप राजमहल फ्रायड के मन में धर्म का जो विरोध था, वह न रहता। लेकिन | में आमंत्रित हो जाते हैं। मन ने इंतजाम किया, मन ने कहा कि ठीक फ्रायड को केवल ईसाई दमनवादी संतों के वचन पढ़ने को मिले। | है। मन ने जिस स्त्री, जिस पुरुष के प्रति दिन में अपने को रोका, उसे केवल उन्हीं धार्मिक लोगों की खबर मिली, जिन्होंने जननेंद्रियां | रात सपने में मन नहीं रोक पाता। काट दीं, ताकि कामवासना से मुक्ति हो जाए। फ्रायड को उन । खुद फ्रायड ने अपने एक पत्र में लिखा है-और फ्रायड जानता सूरदासों की खबर मिली, जिन्होंने आंखें फोड़ दी, ताकि कोई है-खुद लिखा है। कोई पैंतालीस साल की उम्र में लिखा गया पत्र सौंदर्य आकर्षित न कर सके। उन विक्षिप्त, न्यूरोटिक लोगों की है। एक मित्र को लिखा है कि आज मैं रास्ते पर चलते वक्त हैरान खबर मिली, जिन्होंने अपने शरीर को कोड़े मारे, लहू बहाया, ताकि हुआ, एक सुंदर स्त्री को देखकर मेरे मन में उसे छूने की इच्छा शरीर कोई मांग न करे। जो रात-रात सोए नहीं, कि कहीं कोई जगी। फिर मैंने सोचा भी कि मैं कैसा पागल है। इस उम्र में। और सपना मन को वासना में न डाल दे। जो भूखे रहे, कि कहीं शरीर फ्रायड जैसा आदमी, जिसने जिंदगीभर सेक्स को समझने की में शक्ति आए, तो कहीं इंद्रियां बगावत न कर दें। शायद मनुष्य जाति के इतिहास में सर्वाधिक कोशिश की है, जो स्वभावतः, अगर फ्रायड को लगा कि इस तरह का सब धर्म | जानता है कि सेक्स क्या है, जो जानता है वासना क्या है। उसने न्यूरोटिक है, पागल है और मनुष्य जाति को विक्षिप्त करने वाला | | लिखा है कि मैंने अपने को रोकना चाहा, लेकिन मैं रोकता भी रहा है, तो आश्चर्य नहीं। लेकिन कृष्ण का एक वचन भी फ्रायड के मन | और मैंने बढ़कर भीड़ में उस स्त्री को छू भी लिया, स्पर्श भी कर की सारी ग्रंथियों को खोल देता। | लिया। आधे मन से रोकता भी रहा, आधे मन से स्पर्श भी कर कृष्ण कह रहे हैं, मूढ़ है वह व्यक्ति— फ्रायड से पांच हजार | | लिया। पछताता भी रहा, कामना भी करता रहा। फ्रायड ने लिखा साल पहले-जो अपनी इंद्रियों को दबाता है। क्योंकि इंद्रियों को | है कि अब भी मेरे भीतर यह संभव है, यह मैंने सोचा न था। दबाने से मन नहीं दबता, बल्कि इंद्रियों को दबाने से मन और प्रबल मरते वक्त तक भी संभव है। मुर्दा भी, अगर थोड़ी-बहुत शक्ति होता है। इसलिए मूढ़ है वह व्यक्ति। क्योंकि इंद्रियों का कोई कसूर बची हो, तो उठकर यही कर सकता है। मुर्दो ने तो कभी नहीं किया, ही नहीं, इंद्रियों का कोई सवाल ही नहीं है। असली सवाल भीतर लेकिन मुर्दो के साथ करने वाले लोग मिल गए हैं। छिपे मन का है। वह मन मांग कर रहा है, इंद्रियां तो केवल उस मन क्लियोपैट्रा जब मरी और उसकी लाश दफना दी गई कब्र में, तो के पीछे चलती हैं। वे तो मन की नौकर-चाकर, मन की सेविकाएं, | उसकी लाश चोरी चली गई। सुंदर स्त्री! पंद्रह दिन बाद उसकी इससे ज्यादा नहीं हैं। लाश मिली और चिकित्सकों ने कहा कि पंद्रह दिन में हजारों लोगों ___ मन कहता है, सौंदर्य देखो, तो आंख सौंदर्य देखती है। और मन ने उसकी लाश से संभोग किया है। लाशों से भी संभोग होता है! कहता है, बंद कर लो आंख, तो आंख बंद हो जाती है। आंख की | अगर लाशें भी उठ आएं, तो वे भी कर सकती हैं। अपनी कोई इच्छा है? आंख ने कभी कहा कि मेरी यह इच्छा है ? __ कृष्ण कह रहे हैं कि बाहर से दबा लोगे इंद्रियों को—इंद्रियों का हाथ ने कभी कहा कि छुओ इसे? मन कहता है, छुओ, तो हाथ | तो कोई कसूर नहीं, इंद्रियों का कोई हाथ नहीं। इररेलेवेंट हैं इंद्रियां, छूने चला जाता है। मन कहता है, मत छुओ, तो हाथ ठहर जाता | | असंगत हैं, उनसे कोई वास्ता ही नहीं है। सवाल है मन का। रोक है और रुक जाता है। इंद्रियों की अपनी कोई इच्छा ही नहीं है। | लोगे इंद्रियों को, न करो भोजन आज, कर लो उपवास। मने, मन लेकिन कितनी इंद्रियों को गालियां दी गई हैं ! इंद्रियों के खिलाफ | | दिनभर भोजन किए चला जाएगा। ऐसे मन दो ही बार भोजन कर कितने वक्तव्य दिए गए हैं। और इंद्रियां बिलकल निष्पाप और लेता उपवास के दिन दिनभर का निर्दोष और इनोसेंट हैं। इंद्रियों का कोई संबंध नहीं है। कोई इंद्रिय | | है, मूढ़ है वह व्यक्ति, जो इस मन को समझे बिना, इस मन को जो मन 327 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m+ गीता दर्शन भाग-1 AM बदले बिना, केवल इंद्रियों के दबाने में लग जाता है। और उसका | | वासनाओं के लिए, जिनको छोड़ दिया था पिछले शरीर में। उसकी परिणाम क्या होगा? उसका परिणाम होगा कि वह दंभी हो जाएगा। यात्रा जारी रहेगी। वह अनंत-अनंत जन्मों तक वही खोजता रहेगा, वह दिखावा करेगा कि देखो, मैंने संयम साध लिया; देखो, मैंने जो उसका मन खोजना चाहता है। संयम पा लिया; देखो, मैं तप को उपलब्ध हुआ; देखो, ऐसा हुआ, दंभ, पाखंड, धोखा–किसको दे रहे हैं हम? दूसरे को? दूसरे ऐसा हुआ। वह बाहर से सब दिखावा करेगा और भीतर, भीतर | को दिया भी जा सके, स्वयं को कैसे देंगे? और इसलिए प्रत्येक बिलकुल उलटा और विपरीत चलेगा। उस व्यक्ति को जो धर्म की दिशा में उत्सुक होता है, ठीक से समझ अगर हम साधुओं के तथाकथित साधुओं के, सो काल्ड लेना चाहिए कि स्वयं को धोखा तो देने नहीं जा रहा है!.सेल्फ साधुओं के; और उनकी ही संख्या बड़ी है, वही हैं निन्यानबे | | डिसेप्शन, आत्मवंचना में तो नहीं पड़ रहा है! कृष्ण उसी के लिए प्रतिशत-अगर उनकी खोपड़ियों को खोल सकें और उनके हृदय | कह रहे हैं—मूढ़! के द्वार खोल सकें, तो उनके भीतर से शैतान निकलते हुए दिखाई | सोचने जैसा है, कृष्ण जैसा आदमी मूढ़ जैसे शब्द का उपयोग पड़ेंगे। अगर हम उनके मस्तिष्क के सेल्स को तोड़ सकें और उनसे | करे! अगर मैं किसी को कह दूं कि तुम मूढ़ हो, तो वह लड़ने खड़ा पूछ सकें कि तुम्हारे भीतर क्या चलता है? तो जो चलता है, वह | हो जाएगा। कृष्ण ने अर्जुन को मूढ़ कहा। उन सब को मूढ़ कहा। बहत घबड़ाने वाला है। ठीक विपरीत है। जो बाहर दिखाई पड़ता एक आगे के सत्र में तो अर्जन को महामढ कहा, कि त बिलकल है, उससे ठीक उलटा भीतर चलता चला जाता है। महामूर्ख है। फिर भी अर्जुन लड़ने खड़ा नहीं हो गया। कृष्ण जो कृष्ण इसे मूढ़ता कह रहे हैं। क्योंकि जो भीतर चलता है, वही | | कह रहे हैं, वह फैक्चुअल है, कंडेमनेटरी नहीं है। कृष्ण जो कह असली है। जो बाहर चलता है, उसका कोई मूल्य नहीं है। धर्म का रहे हैं, वह मूढ़ शब्द का उपयोग किसी की निंदा के लिए नहीं है, दिखावे से, एक्जीबिशन से कोई संबंध नहीं है। धर्म का प्रदर्शन से | | तथ्य की सूचना के लिए है। क्या संबंध है? धर्म का होने से संबंध है। हो सकता है, बाहर कुछ मूढ़ हैं जगत में; कहना पड़ेगा, उन्हें मूढ़ ही कहना पड़ेगा। अगर उलटा भी दिखाई पड़े, तो कोई फिक्र नहीं; भीतर ठीक चलना | सज्जनता और शिष्टाचार के कारण उन्हें कहा जाए कि हे चाहिए। बाहर भोजन भी चले, तो कोई फिक्र नहीं, भीतर उपवास बद्धिमानो। तो बड़ा अहित होगा। लेकिन कृष्ण जैसे हिम्मत के होना चाहिए। लेकिन होता उलटा है। बाहर उपवास चलता है, धार्मिक लोग अब नहीं रह गए। अब तो धार्मिक आदमी के पास भीतर भोजन चलता है। बाहर स्त्री भी पास में बैठी रहे तो कोई हर्ज | कोई भी जाए, तो उसको मूढ़ नहीं कह सकता। धार्मिक आदमी ही नहीं, पुरुष भी पास में बैठा रहे तो कोई हर्ज नहीं, भीतर-भीतर | नहीं रहा। स्वयं के अतिरिक्त और कोई भी नहीं होना चाहिए। लेकिन होता झेन फकीर होते हैं जापान में, तो डंडा पास में रखते हैं। जरा उलटा है। बाहर आदमी मंदिर में बैठा है, मस्जिद में बैठा है, | गलत-सलत पूछा, तो सिर पर एक डंडा भी लगाते हैं। यहां तो गुरुद्वारे में बैठा है; और भीतर उसके गुरुद्वारे में, खुद के गुरुद्वारे में | | किसी से अगर इतना भी कह दो कि गलत पूछ रहे हो, तो वह लड़ने कोई और बैठे हुए हैं; वे चल रहे हैं। को खड़ा हो जाएगा। चूंकि कोई पूछने की जिज्ञासा भी नहीं है और जिंदगी को बदलाहट देनी है, तो बाहर से नहीं दी जा सकती सैकड़ों वर्षों से उस हिम्मतवर धार्मिक आदमी का भी तिरोधान हो जिंदगी को बदलाहट देनी है, तो वह भीतर से ही दी जा सकती है। गया है, जो तथ्य जैसे थे उनको वैसा कहने की हिम्मत रखता था। और जो आदमी बाहर से देने में पड़ जाता है, वह भूल ही जाता है | तो आज किसी को मूढ़ कह दो, तो वह कहेगा कि अरे! उन्होंने मूढ़ कि असली काम भीतर है। सवाल इंद्रियों का नहीं, सवाल मन का कह दिया। तो वह आदमी ठीक नहीं है, जिसने मूढ़ कह दिया। है। सवाल वृत्ति का है; सवाल वासना का है; सवाल शरीर का जरा कृष्ण कह रहे हैं कि मूढ़ हैं वे, जो इंद्रियों को दबाते, दमन करते, भी नहीं है। | रिप्रेस करते और परिणामतः भीतर जिनका चित्त उन्हीं-उन्हीं इसलिए शरीर को कोई कितना ही दबाए और नष्ट करे, मार ही | वासनाओं में परिभ्रमण करता है, तूफान लेता है, आंधियां बन जाता डाले, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। उसकी प्रेतात्मा भटकेगी, | है; ऐसे व्यक्ति दंभ को, पाखंड को पतित हो जाते हैं। और इस उन्हीं वासनाओं में वह नए जन्म लेगा। नए शरीर ग्रहण करेगा उन्हीं जगत में अज्ञान से भी बुरी चीज पाखंड है। इसलिए उन्होंने कहा 328 Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता का भ्रम कि वे मिथ्या आचरण में, मिथ्यात्व में, फाल्सिटी में गिर जाते हैं। इस शब्द को भी ठीक से समझ लेना उचित है। मिथ्या किसे कहें? एक तो होता है सत्य; एक होता है असत्य । मिथ्या क्या है? असत्य ? मिथ्या का अर्थ असत्य नहीं है। मिथ्या का अर्थ है, दोनों बीच में। जो है तो असत्य और सत्य जैसा दिखाई पड़ता है। मिथ्या मिडिल टर्म है। कृष्ण कह रहे हैं - ऐसे लोग असत्य में पड़ते हैं, यह नहीं कह रहे हैं—वे कह रहे हैं, ऐसे लोग मिथ्या में पड़ जाते हैं। मिथ्या का मतलब? दिखाई पड़ते हैं, बिलकुल ठीक हैं; और बिलकुल ठीक होते नहीं हैं। ऐसे धोखे में पड़ जाते हैं। बाहर से दिखाई पड़ते हैं, बिलकुल सफेद हैं; और भीतर बिलकुल काले होते हैं। अगर बाहर भी काले हों, तो वह सत्य होगा; अगर भीतर भी सफेद हों, तो वह सत्य होगा। इसको क्या कहें? यह मिथ्या स्थिति है, यह इल्यूजरी स्थिति है। हम और तरह की शकल बाहर बना लेते हैं और भीतर कुछ और चलता चला जाता है। इस मिथ्या में जो पड़ता है, वह अज्ञानी से भी गलत जगह पहुंच जाता है। क्योंकि अज्ञान में पीड़ा है। गलत का बोध हो और मुझे पता हो कि मैं गलत हूं, तो मैं अपने को बदलने में भी लगता हूं। मुझे पता हो कि मैं बीमार हूं, तो मैं चिकित्सा का इंतजाम करता हूं, मैं चिकित्सक को भी खोजता हूं, मैं निदान भी करवाता हूं। लेकिन मैं हूं बीमार और मैं घोषणा करता हूं कि मैं स्वस्थ हूं, तब कठिनाई और भी गहरी हो जाती है। अब मैं चिकित्सक को भी नहीं खोजता, अब मैं निदान भी नहीं करवाता, अब मैं डाइग्नोसिस्ट के पास भी नहीं फटकता। अब तो मैं स्वस्थ होने की घोषणा किए चला जाता हूं और भीतर बीमार होता चला जाता हूं। भीतर होती है बीमारी, बाहर होता है स्वास्थ्य का दिखावा । तब आदमी सबसे ज्यादा जटिल उलझाव में पड़ जाता है। मिथ्यात्व, मनुष्य के जीवन में सबसे बड़ी जटिलता पैदा कर देता है। तो कृष्ण कहते हैं, ऐसा आदमी अंततः बहुत जटिल और कांप्लेक्स हो जाता है। करता कुछ होता कुछ जानता कुछ, मानता कुछ। दिखलाता कुछ, देखता कुछ। सब उसका अस्तव्यस्त हो जाता है। वह आदमी अपने ही भीतर दो हिस्सों में कट जाता है। मनोविज्ञान की भाषा में कहें तो वैसा आदमी सीजोफ्रेनिक, सिजायड हो जाता है। दो हिस्से हो जाते हैं उसके और दो तरह जीने लगता है— डबल बाइंड । उसके दोनों दाएं-बाएं पैर उलटे चलने लगते हैं। उसकी एक आंख इधर और एक आंख उधर देखने लगती है। उसका सब इनर एलाइनमेंट टूट जाता है। बाईं आंख इस तरफ | देखती है, दाईं आंख उस तरफ देखती है; बायां पैर इस तरफ चलता है, दायां पैर उस तरफ चलता है। सब उसके भीतर की हार्मनी, | उसके भीतर का सामंजस्य, तारतम्य — सब टूट जाता है। ऐसे व्यक्ति को मिथ्या में गिरा हुआ व्यक्ति कहते हैं, जिसका इनर एलाइनमेंट, जिसकी भीतरी ट्यूनिंग, जिसके भीतर का सब सुर संगम अस्तव्यस्त जाता है। जिसके भीतर आग जलती है। और बाहर से जो कंपकंपी दिखाता है कि मुझे सर्दी लग रही है। जिसके भीतर क्रोध जलता है, ओंठ पर मुस्कुराहट होती है कि मैं बड़ा प्रसन्न हूं। जिसके भीतर वासना होती, और बाहर त्याग होता कि मैं संन्यासी हूं। जिसके बाहर-भीतर ऐसा भेद पड़ जाता है, ऐसा व्यक्ति अपने जीवन के अवसर को, जिससे एक महासंगीत उपलब्ध हो सकता था, उसे गंवा देता है और मिथ्या में गिर जाता है । मिथ्या रोग है, सीजोफ्रेनिया । मिथ्या का मतलब, खंड-खंड चित्त, स्वविरोध में बंटा हुआ व्यक्तित्व, डिसइंटिग्रेटेड । कृष्ण क्यों अर्जुन को ऐसा कह रहे हैं? इसकी चर्चा उठाने की | क्या जरूरत है? लेकिन कृष्ण इसे सीधा नहीं कह रहे हैं। वे ऐसा नहीं कह रहे हैं कि अर्जुन, तू मिथ्या हो गया है। वे ऐसा नहीं कह | रहे हैं। कृष्ण बहुत कुशल मनोवैज्ञानिक हैं, जैसा मैंने कल कहा । वे ऐसा नहीं कह रहे हैं कि अर्जुन, तू मिथ्या हो गया है। ऐसा कह | रहे हैं कि ऐसा व्यक्ति मूढ़ है अर्जुन, जो इस भांति मिथ्या में पड़ जाता है। वे अर्जुन को भलीभांति जानते हैं। वह व्यक्तित्व उसका भीतर से एक्सट्रोवर्ट है, बहिर्मुखी है; क्षत्रिय है। तलवार के अतिरिक्त उसने कुछ जाना नहीं। उसकी आत्मा अगर कभी भी चमकेगी, तो तलवार की झलक ही उससे निकलने वाली है। उसके प्राणों को अगर उघाड़ा जाएगा, तो उसके प्राणों में युद्ध का स्वर ही बजने वाला है। उसके प्राणों को अगर खोला जाएगा, तो उसके भीतर से हम एक योद्धा को ही पाएंगे। लेकिन बातें वह पेसिफिस्ट की कर रहा है, बट्रेंड रसेल जैसी कर रहा है। आदमी है वह अर्जुन और बात कर रहा है बर्ट्रेड रसेल जैसी । मिथ्या में पड़ रहा है अर्जुन | अगर यह अर्जुन भाग जाए छोड़कर, तो यह दिक्कत में पड़ेगा। | इसको फिर अपनी इंद्रियों को दबाना पड़ेगा। और इसके मन में यही सब उपद्रव चलेगा। 329 इसलिए कृष्ण बड़े इशारे से सीधा नहीं कह रहे हैं। और बहुत बार सीधी कही गई बात सुनी नहीं जाती। मैंने भी बहुत बार अनुभव Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m+ गीता दर्शन भाग-1 AM किया। कोई व्यक्ति सीधा आ जाता है पूछने, साथ में उसके दो मित्र | काम करता रहेगा; हड्डियां निर्मित होती रहेंगी, पुराने सेल मरते रहेंगे, आ जाते हैं। तो मैं निरंतर जानकर हैरान हुआ हूं कि जो व्यक्ति | | निकलते रहेंगे, नए सेल बनते रहेंगे। रात मैं सोया रहूंगा, क्रिया जारी सीधा सवाल पूछता है, वह कम समझ पाता है; और वे दो लोग | रहेगी। उसको हम कर्म न कह सकेंगे, क्योंकि मैं तो बिलकुल भी जो साथ में चुपचाप बैठे रहते हैं, पूछने नहीं आते, वे ज्यादा नहीं था, अहंकार को तो मौका नहीं था। असल में जिस क्रिया से समझकर जाते हैं। क्योंकि जो आदमी सीधा सवाल पूछता है, वह | हम अहंकार को जोड़ने में सफल हो जाते हैं, उसको कर्म कहने लगते बहत कांशस हो जाता है. बहत ईगो से भर जाता है। उसका सवाल हैं। और जिस क्रिया में हम अहंकार को नहीं जोड़ पाते. उसको हम है। और जब उसे समझाया जा रहा होता है, तब वह समझने की | क्रिया कहते हैं, उसको हम फिर कर्म नहीं कहते। लेकिन गहरे में कोई कोशिश में कम और नए सवाल के चिंतन में ज्यादा होता है। जब भी क्रिया मात्र क्रिया नहीं है: क्रिया भी कर्म है। उससे कहा जा रहा है, तब वह उसके खिलाफ और पक्ष-विपक्ष में | - यह क्यों? ऐसा क्यों? क्योंकि रात जब मैं सो रहा हूं, या मुझे सोचता हुआ होता है। वह पूरा का पूरा डूब नहीं पाता। लेकिन दो | | बेहोश कर दिया गया है-समझ लें कि मुझे मार्फिया दे दिया गया लोग शांत पास बैठे हैं, न उनका सवाल है, न ही उनका कोई | है, अब मैं बिलकुल बेहोश पड़ा हूं तो भी तो खून अपना काम सवाल है, वे बाहर हैं। वे परिधि पर हैं। वे चुपचाप मौजूद हैं, वे करेगा, हड्डियां अपना काम करेंगी, पेट अपना काम करेगा, श्वास आब्जर्वर्स हैं। उनके मन में ज्यादा शीघ्रता से चली जाती है बात।। चलती रहेगी, फेफड़े-फुफ्फस अपना काम करेंगे। सब काम जारी कृष्ण अर्जुन को सीधा नहीं कह रहे हैं कि तू मिथ्या में पड़ रहा | रहेगा। मैं तो बिलकुल बेहोश हूं। तो इसको कैसे कर्म से जोड़ा जा है। क्योंकि हो सकता है, ऐसा कहने से अहंकार मजबूत हो जाए। सकता है? और अर्जुन कहे, मिथ्या में? कभी नहीं; मैं और मिथ्या में! आप | इसलिए जोड़ना पड़ेगा, इसलिए जोड़ना जरूरी है कि मेरे जीने कैसी बात करते हैं? समझाना फिर मुश्किल होता चला जाएगा। की आकांक्षा, लस्ट फार लिविंग, जीवेषणा, मेरी गहरी से गहरी कृष्ण कहते हैं, मिथ्या में पड़ जाता है ऐसा व्यक्ति, जिसकी इंद्रियों | बेहोशी में भी मौजूद है। और मेरी जीवेषणा के कारण ही ये सारी को दबा लेता है जो और भीतर जिसका मन रूपांतरित नहीं होता। तो क्रियाएं चलती हैं। अगर मेरी जीवेषणा छूट जाए, तो स्वस्थ शरीर मन जाता है पश्चिम, इंद्रियां हो जाती हैं पूरब, फिर उसके भीतर का भी इसी वक्त बंद हो जाएगा। अगर मेरे जीने की इच्छा तत्काल छूट' सब संगीत टूट जाता है। ऐसा व्यक्ति रुग्ण, डिसीज्ड हो जाता है। जाए, तो सारी क्रियाएं तत्काल बंद हो जाएंगी। गहरे में, मेरा ही और करीब-करीब सारे लोग ऐसे हैं। इसीलिए जीवन में फिर कोई | अचेतन, मेरा ही अनकांशस मेरी क्रियाओं को भी चला रहा है; मैं आनंद, फिर कोई सुवास, कोई संगीत अनुभव नहीं होता है। ही चला रहा हूं। लेकिन चूंकि अचेतन मन में अहंकार का कोई भाव | नहीं है, इसलिए मैं उनको कर्म नहीं कहता। आप रात सो रहे हैं; गहरी नींद में पड़े हैं। हम इतने लोग हैं यहां, प्रश्नः भगवान श्री, पिछले श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन | हम सारे लोग यहीं सो जाएं। और फिर कोई आदमी जोर से आकर को कहते हैं कि क्षणमात्र भी बिना कर्म किए आदमी | | चिल्लाए, राम! तो हजारों लोगों में कोई नहीं सुनेगा, सब सोए नहीं रह सकता है और सब लोग प्रकृति के गुणों द्वारा | रहेंगे। राम भर करवट लेगा और कहेगा कि कौन रात डिस्टर्ब कर परवश हुए कर्म करते हैं। तो शरीर व इंद्रियों की | | रहा है? कौन परेशान कर रहा है? किसने नाम लिया? प्राकृतिक क्रियाओं को कर्म क्यों कहा गया है? कर्म | इतने लोग सो रहे हैं, किसी ने नहीं सुना। लेकिन जिसका नाम और क्रिया क्या अलग नहीं हैं ? इसे समझाएं। | राम था, चाहे नींद में भी हो, सुन रहा था कि मेरा नाम लिया जा | रहा है; मेरा नाम राम है। नींद के गहरे में भी इतना उसे पता है कि | मैं राम हूं। नींद में भी! म और क्रिया गहरे में अलग नहीं हैं। ऊपर से अलग एक मां है। तूफान चल रहा हो बाहर, आंधी बह रही हो, बर्फ दिखाई पड़ते हैं। अब जैसे मैं सो भी जाऊं, तो भी पड़ रही हो, वर्षा हो रही हो, बिजली कड़क रही हो, उसे पता नहीं शरीर पचाने का काम करता रहेगा, खून बनाने का | चलता। उसका छोटा-सा बच्चा इतनी कड़कती बिजली में, गंजते 330 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13कर्ता का भ्रम +m बादलों के बीच जरा-सा रोता है, करवट लेता है, वह जाग जाती है। अब पूछे कि यह जीवेषणा किसकी है? यह जीवेषणा अगर जरूर कोई मन का हिस्सा पहरा दे रहा है रात के गहरे में भी। तूफान हमारी ही हो, तो शायद कभी-कभी हम चूक भी जाएं। यह को नहीं सुनता, लेकिन बच्चे की आवाज सुनाई पड़ जाती है। जीवेषणा परमात्मा की ही है, अन्यथा हम चूक जाएं कभी-कभी। हिप्नोटिस्ट कहते हैं—जो लोग सम्मोहन की गहरी खोज करते इसलिए जो भी गहरे हिस्से हैं जीवन के, वे हम पर नहीं छोड़े गए हैं, वे कहते हैं कि कितना ही किसी आदमी को सम्मोहित, हैं। वे हमारे कर्म नहीं, हमारी क्रियाएं बन गए हैं। जैसे अगर श्वास हिप्नोटाइज कर दिया जाए, लेकिन उससे भी गहरे में उसकी इच्छा | | लेना आपके ही हाथ में हो कि आप श्वास लें तो लें; न लें तो न के विपरीत काम नहीं करवाया जा सकता है। लें-जैसे पैर का चलना, चलें तो चलें, न चलें तो न चलें-ऐसा __ जैसे एक, एक सती स्त्री को, जिसके मन में एक पुरुष के | अगर श्वास लेना भी आपके हाथ में हो, तो आदमी दिन में अलावा दूसरे पुरुष का कभी कोई खयाल नहीं आया। कठिन है | | दस-बीस दफा मर जाए; जरा चूके और मरे। बहुत, अस्वाभाविक है बहुत, करीब-करीब असंभव है। इसीलिए __तो आपके हाथ में जो बिलकुल व्यर्थ की बातें हैं, जिनके तो सती का मूल्य भी है। अगर बहुत सरल, संभव और स्वाभाविक | हेर-फेर से कोई खास फर्क नहीं पड़ता, वे ही दिखाई पड़ती हैं। होता, तो इतना मूल्य नहीं हो सकता था। अगर उसे हिप्नोटाइज | बाकी सब महत्वपूर्ण गहरी जीवनधारा के हाथ में, परमात्मा के हाथ किया जाए, बेहोश कर दिया जाए, कोई मैक्स कोली या कोई उसे में हैं। वे आपके हाथ में नहीं हैं। नहीं तो आप तो कई दफे भूलबेहोश कर दे परा और गहरी बेहोशी में उससे कहे कि नाचो वह कर जाएं। भल गए. दो मिनट श्वास न ली। दस रुपए का नोट खो नाचे। उससे कहे, दूध दुहो-वह दूध दुहे। उससे कहे कि गया; दस मिनट भूल गए, श्वास न ली; पत्नी गुस्से में आ गई, भागो-वह भागे। लेकिन उससे कहे कि इस पुरुष को आलिंगन | | भूल गए, दो मिनट हृदय न धड़काया-गए। करो—फौरन हिप्नोटिज्म टूट जाएगा, फौरन बेहोशी टूट जाएगी। नहीं, आपके चेतन मन पर वह निर्भर नहीं है, अचेतन पर निर्भर वह स्त्री खड़ी हो जाएगी कि आप क्या बात कह रहे हैं! भागती थी, है। और अचेतन एक तरफ आपसे जुड़ा है और एक तरफ परमात्मा दौड़ती थी, रोती थी, हंसती थी, यह सब करती थी। लेकिन कहा, से जुड़ा है। अचेतन एक तरफ आपसे जुड़ा है और दूसरी तरफ गहरे इस पुरुष का आलिंगन करो। आलिंगन नहीं होगा, सम्मोहन टूट | में परमात्मा से जुड़ा है। जाएगा। क्यों ? इतने गहरे में भी, इतने गहरे में भी, इतने अचेतन इसलिए जब हम कहते हैं, परमात्मा स्रष्टा है, क्रिएटर है, तो में भी, उसकी जो गहरी से गहरी मनोभावना है, वह मौजूद है। नहीं, | उसका यह मतलब नहीं होता, जैसा कि लोग समझ लेते हैं। मानने यह नहीं हो सकता। | वाले भी और न मानने वाले भी, दोनों ही गलत समझते हैं। उसका मनुष्य के भीतर जो भी चल रहा है, उसमें हमारा सहारा है। | यह मतलब नहीं है कि किसी तिथि-तारीख में, किसी मुहूर्त को सहारे का मतलब, हमारी गहरी आकांक्षा है कि हम जीएं, इसलिए | | देखकर परमात्मा ने दुनिया बना दी। उसका यह मतलब नहीं है। नींद में भी जीने का काम चलता है, बेहोशी में भी चलता है। | मानने वाले भी ऐसा ही समझते हैं, विरोध करने वाले भी ऐसा ही __ मैं एक स्त्री को देखने गया, जो नौ महीने से बेहोश है, कोमा में | समझते हैं। वे दोनों ही एक से नासमझ हैं। पड़ी है। और चिकित्सक कह रहे थे कि वह तीन साल तक बेहोश परमात्मा स्रष्टा है, उसका मतलब केवल इतना ही है कि इस पड़ी रहेगी। ठीक नहीं हो सकेगी, लेकिन ऐसी ही बेहोश पड़ी | क्षण भी उसकी शक्ति ही सृजन कर रही है और जीवन को चला रहेगी। ऐसे ही इंजेक्शंस से, दवाएं और भोजन और ये सब दिया | | रही है। इस क्षण भी, अभी भी, वही है। गहरे में वही निर्मित करता जाता रहेगा। कभी मर जाएगी। बड़ी हैरानी की बात है कि वह नौ | है। अगर सागर में लहर उठती है, तो वह उसी की लहर है। अगर महीनों से बेहोश पड़ी है। तो मैंने कहा कि और जब जीने की अब | | हवाओं में आंधी आती है, तो वह उसी की आंधी है। अगर प्राणों कोई लौटने की आशा ही नहीं है, फिर क्या कारण होगा? उन्होंने | | में जीवन आता है, तो वह उसी का जीवन है। अगर मस्तिष्क के कहा, हम कुछ भी नहीं कह सकते। लेकिन मनसविद कहेगा कि | | जड़ सेल्स में बुद्धि चमकती है, तो वह उसी की बुद्धि है। जीने की आकांक्षा अभी भी गहरे में है। जीवेषणा, अचेतन से ऐसा नहीं है कि किसी इतिहास के किसी क्षण में—जैसा ईसाई अचेतन में जीवेषणा अभी भी है। वह जीवेषणा चलाए जा रही है। कहते हैं कि जीसस से चार हजार चार वर्ष पहले-एक तिथि 331 . Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + गीता दर्शन भाग- 1 कैलेंडर में, परमात्मा ने सारी दुनिया बना दी। मामला खतम हो गया; तब से उसकी कोई जरूरत भी नहीं है। एक दफा आर्किटेक्ट मकान बना गया, फिर उसको विदा कर दिया। अब उसको बार-बार, उसकी क्या जरूरत है बीच में लाने की ! वह गया। परमात्मा ऐसा कुछ निर्माण करके चला नहीं गया है। जीवन की सारी प्रक्रिया उसकी ही प्रक्रिया है । एक छोर पर हम यहां चेतन हो गए हैं, तो वहां हमको भ्रम पैदा हुआ है कि हम कर रहे हैं। कृष्ण वही कह रहे हैं कि तू कर रहा है, ऐसा मानना भर छोड़। कर्म तो होता ही रहेगा, क्रिया तो चलती ही रहेगी, तू अपना भ्रम भर बीच से छोड़ दे कि तू कर रहा है। तब तुझे दिखाई पड़ेगा कि तेरे पीछे, तेरे पार, परमात्मा के ही हाथ तेरे हाथों में हैं; परमात्मा की ही आंख तेरी आंख में है; परमात्मा की ही धड़कन तेरी धड़कन में है; परमात्मा की ही श्वास तेरी श्वास में है। तब रोएं - रोएं मैं तू अनुभव करेगा, वही है। अपने ही नहीं, दूसरे के रोएं- रोएं में भी अनुभव करेगा कि वही है। एक बार अहंकार का भ्रम टूटे, एक बार आदमी अहंकार की नींद से जागे, तो पाता है कि मैं तो था ही नहीं। जो था, वह बहुत गहरा है, मुझसे बहुत गहरा है। पहले है, मुझसे बहुत पहले है। बाद भी होगा, मेरे बाद भी । मैं भी उसमें हूं। लेकिन मेरा मैं, लहर को आ गया अहंकार है । लेकिन अहंकार आ जाए, तो भी लहर सागर से अलग नहीं हो जाती, होती तो सागर में ही है। लहर अगर सोचने भी लगे कि मैं उठ रही हूं, तो भी लहर नहीं उठती; उठता तो सागर ही है। और लहर सोचने लगे कि मैं चल रही हूं, तब भी चलती नहीं; चलता तो सागर ही है। और लहर गिरती है और सोचने लगे, मैं गिर रही हूं, तब भी लहर गिरती नहीं है; गिरता तो सागर ही है। और इस पूरे वहम में, इस पूरे भ्रम में जब लहर होती है, तब भी वह होती सागर ही है। इतना ही कृष्ण कह रहे हैं कि तू पीछे देख, गहरे देख, ठीक से देख! करना तेरा नहीं है, करना उसका है। तू नाहक बीच में मैं को खड़ा कर रहा है। उस, उस मैं को जाने दे। तब वह समझता है कि अब मैं सम्राट के सामने ही मौजूद हूं। मजिस्ट्रेट उससे बहुत कहता है कि तुम पैसे चुकाओ, तुम यह क्या बातें करते हो? या तो तुम पागल हो या किस तरह के आदमी हो ? लेकिन वह धन्यवाद ही दिए जाता है, वह कहता है, मेरी खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं। तब वह मजिस्ट्रेट कहता है कि इस आदमी को गधे पर उलटा बिठाकर, इसके गले में एक तख्ती लगाकर कि यह आदमी बहुत चालबाज है, गांव में निकालो। जब उसे गधे पर बिठाया जा रहा है, तो वह सोचता है कि अब मेरा प्रोसेशन, अब मेरी शोभायात्रा निकल रही है। निकलती है। शोभायात्रा। दस - पांच बच्चे भी ढोल-ढमाल पीटते हुए पीछे हो करूं । एक छोटी-सी कहानी और अपनी बात, आज की बात मैं पूरी लेते हैं। लोग हंसते हैं, खिलखिलाते हैं, भीड़ लग जाती है। वह सबको झुक-झुककर नमस्कार करता है। वह कहता कि बड़े आनंद की बात है, परदेशी का इतना स्वांगत ! मैंने सुना है कि एक आदमी परदेश में गया है। वहां की भाषा नहीं जानता, अपरिचित है, किसी को पहचानता नहीं। एक बहुत बड़े महल के द्वार पर खड़ा है। लोग भीतर जा रहे हैं, वह भी उनके पीछे भीतर चला गया है। वहां देखा कि बड़ा साज-सामान है, लोग भोजन के लिए बैठ रहे हैं, तो वह भी बैठ गया है। भूख उसे जोर से लगी है। बैठते ही थाली बहुत - बहुत भोजनों से भरी उसके सामने आ गई, तो उसने भोजन भी कर लिया है। उसने सोचा कि | ऐसा मालूम पड़ता है, सम्राट का महल है और कोई भोज चल रहा है। अतिथि आ-जा रहे हैं। 332 वह उठकर धन्यवाद देने लगा है। जिस आदमी ने भोजन लाकर | रखा है, उसे बहुत झुक-झुककर सलाम करता है। लेकिन वह आदमी उसके सामने बिल बढ़ाता है। वह एक होटल है। वह आदमी उसे बिल देता है कि पैसे चुकाओ। और वह सोचता है कि शायद मेरे धन्यवाद का प्रत्युत्तर दिया जा रहा है ! वह बिल लेकर खीसे में रखकर और फिर धन्यवाद देता है कि बहुत - बहुत खुश हूं कि मेरे जैसे अजनबी आदमी को इतना स्वागत, इतना सम्मान दिया, इतना सुंदर भोजन दिया। मैं अपने देश में जाकर प्रशंसा करूंगा। लेकिन वह बैरा कुछ समझ नहीं पाता, वह उसे पकड़कर मैनेजर के पास ले जाता है। वह आदमी सोचता है कि शायद मेरे धन्यवाद से सम्राट का प्रतिनिधि इतना प्रसन्न हो गया है कि शायद किसी बड़े अधिकारी से मिलने ले जा रहा है। जब वह मैनेजर भी उससे कहता है कि पैसे चुकाओ, तब भी वह यही समझता है कि धन्यवादं का | उत्तर दिया जा रहा है। वह फिर धन्यवाद देता है । तब मैनेजर उसे अदालत में भेज देता है। फिर भीड़ में उसे एक आदमी दिखाई पड़ता है, जो उसके ही देश का है। उसे देखकर वह आनंद से भर जाता है। क्योंकि जब तक अपने देश का कोई देखने वाला न हो, तो मजा भी बहुत नहीं है। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ yam कर्ता का भ्रम + घर जाकर कहेंगे भी, तो कोई भरोसा भी करेगा कि नहीं करेगा! एक आदमी भीड़ में दिखाई पड़ता है, तो वह चिल्लाकर कहता है कि अरे भाई, ये लोग कितना स्वागत कर रहे हैं। लेकिन वह आदमी सिर झुकाकर भीड़ से भाग जाता है। क्योंकि उसे तो पता है कि यह क्या हो रहा है। लेकिन वह गधे पर सवार आदमी समझता है, ईर्ष्या से जला जा रहा है। ईर्ष्या से जला जा रहा है। करीब-करीब अहंकार पर बैठे हुए हम इसी तरह की भ्रांतियों में जीते हैं। उनका जीवन के तथ्य से कोई संबंध नहीं होता, क्योंकि जीवन की भाषा हमें मालूम नहीं है। और हम जो अहंकार की भाषा बोलते हैं, उसका जीवन से कहीं कोई तालमेल नहीं होता। शेष कल। 333 Page #364 --------------------------------------------------------------------------  Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 3 तीसरा प्रवचन परमात्म समर्पित कर्म Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 - यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽनर्जुन । | तो हम प्रतीत होता है कि इंद्रियों के वश में हैं। इस बात को ठीक कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ।।७।। | से समझ लेना जरूरी है। और हे अर्जुन, जो पुरुष मन से इंद्रियों को वश में करके ___ साधारणतः तो ऐसा प्रतीत होता है कि हम इंद्रियों के गुलाम हैं। अनासक्त हुआ कर्मेंद्रियों से कर्मयोग का आचरण करता है, | साधारणतः तो जिंदगी ऐसी ही है, जहां इंद्रियां आगे चलती मालूम वह श्रेष्ठ है। | पड़ती हैं और हम पीछे चलते मालम पड़ते हैं। जब मैं कह रहा है, इंद्रियां आगे चलती मालूम पड़ती हैं, तो उसका मतलब है कि वासनाएं आगे चलती मालूम पड़ती हैं। वासनाएं हमें दिखाई नहीं 17 नुष्य के मन में वासना है, कामना है। उस कामना का पड़ती हैं, जब तक कि वे इंद्रियों में प्रविष्ट न हो जाएं। वासनाएं तब 1 परिणाम सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं है। उस | तक अदृश्य होती हैं, जब तक इंद्रियों पर हावी न हो जाएं। इसलिए वासना से सिवाय विषाद के, फ्रस्ट्रेशन के और कभी | हमें तो इंद्रियां ही दिखाई पड़ती हैं। वासनाओं का जो सूक्ष्मतम रूप कुछ मिलता नहीं है। लगता है, मिलेगा सुख, मिलता है सदा दुख। है, अतींद्रिय, वह हमें दिखाई नहीं पड़ता है। लगता है, मिलेगी शांति, मिलती है सदा अशांति। लगता है, __ आपके मन में कोई भी वासना उठे, तो वासना दिखाई नहीं उपलब्ध होगी स्वतंत्रता, लेकिन आदमी और भी गहरे बंधन में | | पड़ती, जब तक उस वासना से संबंधित इंद्रिय आविष्ट न हो जाए। बंधता चला जाता है। कामना मनुष्य का दुख है, तृष्णा मनुष्य की | | अगर आपके मन में किसी को छूने की वासना उठी है, तो तब तक पीड़ा है। उसका स्पष्ट बोध नहीं होता, जब तक छूने के लिए शरीर आतुर न निश्चित ही, वासना से उठे बिना, वासना के पार हुए बिना, कोई | | हो जाए। जब तक वासना शरीर नहीं लेती, आकार नहीं लेती, जब व्यक्ति कभी आनंद को उपलब्ध नहीं हुआ है। पर इस वासना से | | तक वासना इंद्रियों में गति नहीं बन जाती, तब तक हमें पता नहीं ऊपर उठने के लिए दो काम किए जा सकते हैं; क्योंकि इस वासना | चलता। इसलिए बहुत बार ऐसा होता है कि क्रोध का हमें तभी पता के दो हिस्से हैं। एक तो वासना से भरा हआ चित्त है, मन है; और चलता है, जब हम कर चुके होते हैं। काम का हमें तभी पता होता एक वासना के उपयोग में आने वाली इंद्रियां हैं। जो आदमी ऊपर है, जब वासना हम पर आविष्ट हो गई होती है। हम पजेस्ड हो गए से पकड़ेगा; उसे इंद्रियां पकड़ में आती हैं और वह इंद्रियों की शत्रुता | | होते हैं, तभी पता चलता है। और शायद तब तक लौटना मुश्किल में पड़ जाता है। हो गया होता है, तब तक शायद वापसी असंभव हो गई होती है। कृष्ण ने कहा, वैसा आदमी नासमझ है, अज्ञानी है, मूढ़ है। ना हमारे आगे चलती है और हम छाया की तरह पीछे चलते दूसरी बात अब वे कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, लेकिन वह मनुष्य | | हैं। मनुष्य की गुलामी यही है। और जो मनुष्य ऐसी गुलामी में है, श्रेष्ठ है, जो मन को ही रूपांतरित करके इंद्रियों को वश में कर लेता। | उसे कृष्ण कहेंगे, वह निकृष्ट है, उसे अभी मनुष्य कहे जाने का है। इंद्रियों का वश में होना, इंद्रियों का मर जाना नहीं है। इंद्रियों का | हक नहीं है। मनुष्य का हक तो उसे है, जिसकी वासनाएं उसके वश में होना, इंद्रियों का निर्वीर्य हो जाना नहीं है। इंद्रियों का वश में | पीछे चलती हैं। लेकिन इधर फ्रायड के बाद सारी दुनिया को यह होना, इंद्रियों का अशक्त हो जाना नहीं है। क्योंकि अशक्त को वश समझाया गया है कि वासनाएं कभी पीछे चल ही नहीं सकतीं; में भी किया, तो क्या वश किया? निर्बल को जीत भी लिया, तो वासनाएं आगे ही चलेंगी। और यह भी समझाया गया है कि क्या जीता? वासनाओं को वश में किया ही नहीं जा सकता। आदमी को ही कृष्ण कहते हैं, श्रेष्ठ है वह पुरुष, जो इंद्रियों से लड़ता ही नहीं, वासना के वश में रहना होगा। और यह भी समझाया गया है कि बल्कि मन को ही रूपांतरित करता है और इंद्रियों को वश में कर | | विल पावर या संकल्प की शक्ति की जितनी बातें हैं, वे सब झूठी लेता है। मारता नहीं, लड़ता नहीं, वश में कर लेता है। हैं। आदमी के पास कोई संकल्प नहीं हैं। निश्चित ही, लड़ने की कला बिलकुल ही नासमझी से भरी है। | इसके परिणाम हुए हैं। इसके परिणाम ये हुए हैं कि आदमी ने कहना चाहिए, कला नहीं है, कला का धोखा है। वश में करने की | इंद्रियों की गुलामी को परिपूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया है। आदमी कला बहुत ही भिन्न है। इंद्रियां किसके वश में होती हैं? साधारणतः | | राजी हो गया है कि हम तो वासनाओं के गलाम रहेंगे ही। और जब |336| Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मसमर्पित कर्म 4 गुलाम ही रहना है, तो फिर ठीक तरह से, पूरी तरह से ही गुलाम हो जाना उचित है; जब मालिक होने का कोई उपाय ही नहीं है। शरीरवादी सदा से यही कहते रहे हैं। इस देश में भी शरीरवादी थे। सच तो यह है, अधिक लोग शरीरवादी ही हैं। अधिक लोग चार्वाक से सहमत ही हैं। अधिक लोग मार्क्स से सहमत ही हैं। अधिक लोग फ्रायड से सहमत ही हैं। अधिक लोग इस बात से राजी ही हैं कि हम शरीर से ज्यादा कुछ भी नहीं हैं। इसलिए शरीर की मांग ही हमारी जिंदगी है और शरीर की वासना ही हमारी आत्मा है। इसलिए जहां ले जाएं अंधी इंद्रियां और जहां ले जाएं अंधी वासनाएं, हमें वहीं भागते चले जाना है। आदमी का कोई वश नहीं है। यह बात अगर एक बार कोई मानने को राजी हो जाए, तो वह सदा के लिए अपनी आत्मा खो देता है। क्योंकि आत्मा पैदा ही तब होती है, जब वासना पीछे हो और स्वयं का होना आगे हो । आत्मा का जन्म ही तब होता है, जब वासना छाया बन जाए। जब तक वासना आगे होती है और हम छाया होते हैं, तब तक हममें आत्मा पैदा नहीं होती है। सिर्फ संभावना होती है, पोटेंशियलिटी होती है, एक्चुएलिटी नहीं होती है। तब तक आत्मा हमारे लिए बीज की तरह होती है, वृक्ष की तरह नहीं होती है। कृष्ण कह रहे हैं, वह आदमी श्रेष्ठ है अर्जुन, जो अपनी इंद्रियों को मन के वश में कर लेता है। मन के वश में इंद्रियों को करिएगा कैसे? हमें तो एक ही रास्ता दिखाई पड़ता है कि लड़ो, इंद्रियों को दबा दो, तो इंद्रियां वश में हो जाएंगी। दबाने से कोई इंद्रिय वश में नहीं होती। दबाने से सिर्फ इंद्रियां परवर्ट होती हैं, विकृत होती हैं और सीधी मांगें तिरछी मांगें बन जाती हैं; और हम सीधे न चलकर पीछे के दरवाजों से पहुंचने लगते हैं; और पाखंड फलित होता है। दबाना मार्ग नहीं है । फिर क्या मार्ग है? मनुष्य की वासनाएं तब तक उसे पकड़े रहती हैं, जब तक उसके पास संकल्प, विल न हो, जब तक उसके पास संकल्प जैसी सत्ता का जन्म न हो। इस संकल्प के संबंध में थोड़ा गहरे उतरना आवश्यक है, क्योंकि इसके बिना कोई आदमी कभी वासनाओं पर वश नहीं पा सकता है। संकल्प का क्या अर्थ है ? संकल्प का अर्थ इंद्रियों का दमन नहीं, संकल्प का अर्थ स्वयं के होने का अनुभव है। संकल्प का अर्थ है, स्वयं की मौजूदगी का अनुभव । आपको भूख लगी है, शरीर कहता है कि भूख लगी है; आप कहते हैं कि सुन ली मैंने आवाज, लेकिन अभी अभी मैं भोजन करने को राजी नहीं हूं। और अगर आप पूरे मन से यह बात कह सकें कि अभी मैं भोजन करने को राजी नहीं हूं, तो शरीर तत्काल मांग बंद कर देता है। तत्काल मांग बंद कर देता है। जैसे ही शरीर को पता चल जाए कि आपके पास शरीर से ऊपर भी संकल्प है, वैसे ही शरीर तत्काल मांग बंद कर देता है। आपकी कमजोरी ही शरीर की ताकत बन जाती है। आपकी ताकत ही शरीर की कमजोरी जाती है। लेकिन हम कभी शरीर से भिन्न अपनी कोई घोषणा नहीं करते हैं। कभी छोटे-छोटे प्रयोग करके देखना जरूरी है। बहुत छोटे प्रयोग, जिनमें आप शरीर से भिन्न अपने होने की घोषणा करते हैं। सारे धर्मों ने इस तरह के प्रयोग विकसित किए हैं। लेकिन करीब-करीब सभी प्रयोग नासमझ लोगों के हाथ में पड़कर व्यर्थ हो जाते हैं । उपवास इसी तरह का प्रयोग था, जो मनुष्य के संकल्प को जन्माने के लिए था। आदमी अगर कह सके कि नहीं, भोजन नहीं, पूरे मन से, तो शरीर मांग बंद कर देता है। और जब पहली दफा यह पता चलता है कि शरीर के अतिरिक्त भी मेरी कोई स्थिति है, तो आपके भीतर एक नई ऊर्जा, एक नई शक्ति जन्मने लगती है, अंकुरित होने लगती है। नींद आ रही है और आपने कहा कि नहीं, मैं नहीं सोना चाहता हूं। और अगर यह टोटल है, अगर यह बात पूरी है, अगर यह पूरे मन से कही गई है, तो शरीर तत्काल नींद की आकांक्षा छोड़ | देगा। आप अचानक पाएंगे कि नींद खो गई है और जागरण पूरा आ गया है। लेकिन हम जिंदगी में कभी इसका प्रयोग नहीं करते हैं। हम कभी शरीर से भिन्न होने का कोई भी प्रयोग नहीं करते हैं। शरीर जो कहता है, हम चुपचाप उसको पूरा करते जाते हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि शरीर जो कहे, उसे आप पूरा न करें। | लेकिन कभी-कभी किन्हीं क्षणों में अपने अलग होने का अनुभव भी करना जरूरी है। और एक बार आपको यह अनुभव होने लगे कि आप, शरीर से भिन्न भी आपका कुछ होना है, तो आप हैरान हो जाएंगे, उसी दिन से आपके मन की ताकत आपकी इंद्रियों पर फैलनी शुरू हो जाएगी। | 337 गुरजिएफ, एक अदभुत फकीर, अभी कुछ दिन पहले था। जैसा मैंने पिछली चर्चा में आपसे कहा कि अगर इस युग में हम सांख्य का कोई ठीक-ठीक व्यक्तित्व खोजना चाहें, तो कृष्णमूर्ति हैं। और अगर हम योग का कोई ठीक-ठीक व्यक्तित्व खोजना चाहें, तो वह Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 गुरजिएफ है। गुरजिएफ एक छोटा-सा प्रयोग अपने साधकों को कराता था। बहुत छोटा। कभी आप भी करें, तो बहुत हैरान होंगे और आपको पता चलेगा कि संकल्प का अनुभव क्या है। उस प्रयोग को वह कहता था, स्टाप एक्सरसाइज । वह अपने साधकों को बिठा लेता और वह कहता कि मैं अचानक कहूंगा, स्टाप ! तो तुम जहां हो, वहीं रुक जाना। अगर किसी ने हाथ उठाया था, तो वह हाथ यहीं रुक जाए; अगर किसी की आंख खुली थी, तो वह खुली रह जाए; अगर किसी ने बोलने को ओंठ खोले थे, तो वे खुले रह जाएं; अगर किसी ने चलने के लिए कदम उठाया था एक और एक जमीन पर था, तो वहीं रह जाए। स्टाप ! ठहर जाओ! तो जो जहां है, वह वहीं ठहर जाए; वैसा ही ठहर जाए। और जिन साधकों पर वह दो-तीन महीने प्रयोग करता इस छोटे-से अभ्यास का, उन साधकों को पता चलता कि जैसे ही वे ठहरते हैं, शरीर तो कहता है, पैर नीचे रखो; आंख तो कहती है, पलक झपकाओ; ओंठ तो कहते हैं, बंद कर लो; लेकिन वे रुक गए हैं- -न आंख झपकेंगे, न पैर हटाएंगे, न हाथ हिलाएंगेमूर्ति की तरह रह गए हैं। तीन महीने के थोड़े-से अभ्यास में ही उन्हें पता चलना शुरू होता है कि उनके भीतर कोई एक और भी हैं, जो शरीर को जहां चाहे वहां आज्ञा दे सकता है। - अब कभी आपने अपने शरीर को आज्ञा दी है? कभी भी आपने आदेश दिया है? आपने सिर्फ आदेश लिए हैं; आपने कभी भी आदेश दिया नहीं है। वन वे ट्रैफिक है अभी। शरीर की तरफ से आदेश आते हैं, शरीर की तरफ कोई आदेश जाता नहीं है; कभी नहीं जाता है। उसके परिणाम खतरनाक हैं। उसका बड़े से बड़ा परिणाम है वह यह है कि हमें कल्पना ही मिट गई है कि हमारे भीतर विल जैसी, संकल्प जैसी भी कोई चीज है ! और जिस व्यक्ति के पास संकल्प नहीं है, वह व्यक्ति श्रेष्ठ नहीं हो सकता। संकल्पहीनता ही निकृष्टता है। संकल्पवान होना ही आत्मवान होना है। कृष्ण कह रहे हैं, अर्जुन ! वह मनुष्य श्रेष्ठ है, जो अपनी इंद्रियों पर वश पा लेता है। जो इंद्रियों का मालिक हो जाता है। जो इंद्रियों को आज्ञा दे सकता है। जो कह सकता है, ऐसा करो । हम सिर्फ इंद्रियों से पूछते हैं, क्या करें? हम जिंदगीभर, जन्म से लेकर मृत्यु तक इंद्रियों से पूछते चले जाते हैं, क्या करें? इंद्रियां बताए चली जाती हैं रहम करते चले जाते हैं। इसलिए हम शरीर से ज्यादा कभी कोई अनुभव नहीं कर पाते। आत्म-अनुभव संकल्प से शुरू होता है। और मनुष्य की श्रेष्ठता संकल्प के जन्म के साथ ही यात्रा पर निकलती है। प्रश्नः भगवान श्री कृष्ण यहां मन से इंद्रियों को वश में करने को कह रहे हैं; लेकिन आप तो मन को ही विसर्जित करने को कहते हैं! यह कैसी बात है ? कृ ष्ण भी यही कहेंगे, मन को विसर्जित करने को कहेंगे। लेकिन मन विसर्जित करने के लिए होना भी तो चाहिए! अभी तो मन है ही नहीं । इंद्रियां और इंद्रियों के पीछे दौड़ना हमारा अस्तित्व है । हमारे पास मन जैसी कोई, संकल्प जैसी चीज नहीं है। पहले चरण पर संकल्प पैदा करना पड़ेगा और दूसरे चरण पर संकल्प को भी समर्पित कर देना होगा। लेकिन समर्पित तो वही कर पाएंगे, जिनके पास होगा। जिनके पास नहीं है, वे समर्पित क्या करेंगे! हम एक आदमी से कहते हैं, धन का त्याग कर दो। लेकिन त्याग | के लिए धन तो होना चाहिए न ? जब हम कहते हैं, धन का त्याग कर दो, धन हो ही न, तो त्याग क्या करेगा ? 338 मन आपके पास है या सिर्फ इंद्रियों की आकांक्षाओं के जोड़ का नाम आपने मन समझा हुआ है ? तो जब हमसे कोई कहेगा कि समर्पण कर दो मन को परमात्मा के चरणों में, तो हमारे पास कुछ होता ही नहीं, जिसको हम समर्पण कर दें। हमारे पास केवल दौड़ती | हुई वासनाओं का समूह होता है, जिनको समर्पित नहीं किया जा | सकता। किसी ने कभी कहा है कि वासनाओं को परमात्मा को समर्पित कर दो ? किसी ने कभी नहीं कहा। मन को समर्पित किया जा सकता है। एक इंटिग्रेटेड विल हो, तो समर्पित की जा सकती है । और समर्पण सबसे बड़ा संकल्प है। बड़े से बड़ा, अंतिम संकल्प जो है, वह समर्पण है। समर्पण दूसरे चरण में संभव है। पहले चरण में तो संकल्प ही निर्मित करना पड़ेगा। आत्मा भी तो चाहिए ! परमात्मा के चरणों में नैवेद्य चढ़ाना हो, तो वासनाओं को लेकर पहुंच जाइएगा? आत्मा चाहिए उसके पास चढ़ाने को । आप भी तो होने चाहिए! आप हैं? अगर बहुत खोजेंगे, आप कहीं न पाएंगे कि आप हैं। आप पाएंगे कि यह इच्छा है, वह इच्छा है, यह वासना है, वह वासना है। आप कहां हैं? Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्म समर्पित कर्म 4 डेविड ह्यूम ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मैंने डेल्फी के मंदिर पर लिखा हुआ वचन पढ़ा- नो दाई सेल्फ- अपने को जानो, और तब से मैं अपने भीतर जाकर कोशिश करता हूं कि अपने को जानूं। लेकिन मैं तो स्वयं को कहीं मिलता ही नहीं हूं; जब भी मिलता है भीतर कोई इच्छा मिलती है, कोई विचार मिलता है, कोई वासना मिलती है, कोई कामना मिलती है। मैं तो कभी भीतर मिलता ही नहीं हूं। मैं थक गया खोज खोजकर । जब भी मिलती है— कोई वासना, कोई कामना, कोई इच्छा, कोई विचार, कोई स्वप्न – मैं तो कहीं मिलता ही नहीं हूं। मिलेगा भी नहीं। क्योंकि स्वयं को जानने के पहले वासनाओं के बीच में स्वयं की सत्ता को भी तो अंकुरित करना पड़ेगा। वह ह्यूम ठीक कहता है । आप भी भीतर जाएंगे, तो आत्मा नहीं मिलेगी, विचार मिलेंगे, वासनाएं मिलेंगी, इच्छाएं मिलेंगी। आत्मा ..तो संकल्प के द्वार से ही मिल सकती है। इसलिए निश्चित ही धर्म का पहला चरण है, संकल्प को निर्मित करो, क्रिएट दि विल फोर्स और दूसरा चरण है, निर्मित संकल्प को सरेंडर करो, समर्पण करो। पहला चरण है, आत्मवान बनो; दूसरा चरण है, आत्मा को परमात्मा के चरणों में फूल की तरह चढ़ा । पहला चरण है, आत्मा को पाओ; दूसरा चरण है, परमात्मा को पाओ। आत्मा को पाना हो तो वासनाओं से ऊपर उठना पड़ेगा। और परमात्मा को पाना हो तो आत्मा से भी ऊपर उठना पड़ेगा। आत्मा को पाना हो तो वासनाओं पर वश चाहिए; और परमात्मा को पाना हो तो आत्मा पर भी वश चाहिए। वह लेकिन दूसरा चरण है । वह इसके विपरीत नहीं है। वह इसी का आगे का कदम है। जिसके पास है, वही तो समर्पित कर सकेगा। जीसस का एक बहुत अदभुत वचन है, वह मैं आपको याद दिलाऊं, वह कृष्ण की बात के बहुत करीब है। जीसस ने कहा है, जो अपने को बचाएगा, वह अपने को खो देगा; और जो अपने को खो देगा, वह अपने को बचा लेगा। लेकिन खोने या बचाने के पहले होना भी तो चाहिए। आप हैं ? गुरजिएफ के पास कोई जाता था और पूछता था कि मैं स्वयं को जानना चाहता हूं, तो वह गुरजिएफ कहता था, आप हो ? आर यू? आप भी चौंकेंगे, अगर आप जाएं ऐसे आदमी के पास और वह पूछे, आप हो? तो आप कहेंगे, हूं तो ! लेकिन आपका होना सिर्फ एक जोड़ है। आपमें से सारी वासनाएं निकाल ली जाएं, और सारी इच्छाएं और सारे विचार, तो आप एकदम खो जाएंगे शून्य की 339 भांति | आपके पास ऐसा कोई संकल्प नहीं है, जो विचार के पार हो, वासना से अलग हो, इच्छाओं से भिन्न हो। आपके पास आत्मा का कोई भी अनुभव नहीं है। आप सिर्फ एक जोड़ हैं, एक एक्युमुलेशन, एक संग्रह। इस संग्रह को कहां समर्पित करिएगा ? कौन समर्पित करेगा? समर्पित करने वाला भी भीतर नहीं है। इसलिए कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, पहले तू श्रेष्ठ बन । श्रेष्ठ बनने का अर्थ, पहले तू आत्मवान बन, पहले तू मनस्वी हो, पहले तू संकल्प को उपलब्ध हो। फिर पीछे वे कहेंगे कृष्ण अर्जुन से, सब छोड़ दे और शरण में आ जा। लेकिन छोड़ तो वही सकता है सब, जिसके पास संकल्प हो। लेकिन जो जरा-सा कुछ भी नहीं छोड़ सकता, वह सब कैसे छोड़ सकेगा ! जो एक पैसा नहीं छोड़ सकता, वह स्वयं को कैसे छोड़ सकेगा ! जो एक मकान नहीं छोड़ सकता, वह स्वयं की आत्मा को कैसे छोड़ सकेगा ? स्वयं को | छोड़ने के पहले स्वयं का परिपूर्ण शक्ति से होना जरूरी है। इसलिए संकल्प धर्मों की पहली साधना है; समर्पण अंतिम साधना है । कहें कि धर्म के दो ही कदम हैं। पहले कदम का नाम है, संकल्प, विल; और दूसरे कदम का नाम है, समर्पण, सरेंडर | इन दो कदमों में यात्रा पूरी हो जाती है। जो संकल्प पर रुक जाएंगे, उनको आत्मा का पता चलेगा, लेकिन परमात्मा का कोई पता नहीं चलेगा। जो वासना पर ही रुक जाएंगे, उनको वासना का पता चलेगा, आत्मा का कोई पता नहीं चलेगा। लेकिन जो आत्मा को भी समर्पित कर देंगे, उन्हें परमात्मा का पता चलता है। वह अंतिम घटना है, वह अल्टिमेट है। वह चरम, परम अनुभूति है । और उसके लिए कृष्ण अर्जुन को अ, ब, स से शुरू कर रहे हैं। वे उससे कह रहे हैं, पहले तू संकल्पवान बन। फिर पीछे जब देखेंगे कि उसके भीतर संकल्प पैदा हुआ है, तो वे उससे कहेंगे, अब तू सब छोड़ दे - सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज - अब तू सब छोड़ और मेरी शरण में आ जा । लेकिन शरण में कमजोर लोग कभी नहीं आ सकते। यह सुनकर आपको कठिनाई होगी। आमतौर से कमजोर लोग शरण में जाते हैं। कमजोर आदमी कभी शरण में नहीं जा सकता। कमजोर आदमी | के पास इतनी शक्ति ही नहीं होती कि दूसरे के चरणों में अपने को पूरा समर्पित कर दे। समर्पण बड़ी से बड़ी शक्ति है - बहुत कठिन, | बहुत आरडुअस । आसान बात मत समझ लेना आप समर्पण | आमतौर से लोग समझते हैं कि हम कमजोर हैं, हम तो समर्पण में ही भगवान को पा लेंगे। लेकिन कमजोर समर्पण कर नहीं सकता। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 4 कमजोर इतना कमजोर होता है... कमजोर होता ही नहीं; समर्पण करेगा किसका? हां, वह सिर चरणों में रख देता है। स्वयं को रखना बिलकुल और बात है। सिर रखना, बच्चे भी रख सकते हैं। स्वयं को चरणों में रखना और ही बात है। स्वयं को चरणों में रखने की एक घटना कीर्कगार्ड ने ... ईसाइयत में एक कहानी है। कहानी है कि एक व्यक्ति को परमात्मा ने कहा कि तू अपने इकलौते बेटे को आकर और मेरे मंदिर में गरदन काटकर चढ़ा दे। ऐसी उसे आवाज आई कि वह जाए और अपने बेटे को मंदिर में काटकर चढ़ा दे। वह उठा, उसने अपने बेटे को लिया और मंदिर में पहुंच गया। उसने तलवार पर धार रखी। बेटे की गरदन मंदिर में रखी, तलवार उठाई और गरदन काटने को था, तब आवाज आई कि बस, रुक जा ! मैं तो सिर्फ यही जानना चाहता था कि तू समर्पण की बातें करता है, लेकिन समर्पण के योग्य शक्ति तुझमें है ? बेटे की गरदन काटने में भी लेकिन उतनी शक्ति नहीं पड़ती, जितनी अपनी गरदन काटने में पड़ती है। समर्पण का मतलब है, अपनी ही गरदन चढ़ा देना, सिर झुकाना नहीं। क्योंकि वह तो क्षण झुकाया और उठा लिया। समर्पण का मतलब है, झुके तो झुके रहे, झुके तो झुक गए। समर्पण का मतलब है, अब यह गरदन न उठेगी। समर्पण का मतलब अब हम गए चरणों में; अब वे चरण ही सब कुछ हैं, अब हम नहीं हैं। लेकिन कौन करेगा यह ? यह वही कर सकता है, जिसने पहले संकल्प को संगृहीत कर लिया हो, जिसके भीतर एक इंटिग्रेटेड इंडिविजुएशन घटित हो गया हो, जिसके भीतर आत्मा क्रिस्टलाइज्ड हो गई हो। जिसके भीतर आत्मा निर्मित हो गई हो, वह आदमी आत्मा से आखिरी काम भी कर सकता है कि समर्पण कर दे। इसलिए कृष्ण अर्जुन को पहला पाठ दे रहे हैं। वे कह रहे हैं, श्रेष्ठ पुरुष वह है, जिसका मन वासनाओं पर, इंद्रियों पर वश पा लेता है। नियतं कुरु कर्म त्वं ज्यायो हाकर्मणः । शरीरयात्राऽपि च ते न प्रसिकयेदकर्मणः ।। ८ ।। इसलिए शास्त्र - विधि से नियत किए हुए स्वधर्म कर्म को कर। कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर - निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा। क न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। क्योंकि कर्म न करना, सिर्फ वंचना है, डिसेप्शन है। कर्म तो करना ही पड़ेगा। जो करना ही पड़ेगा, उसे होशपूर्वक करना श्रेष्ठ है। जो करना ही पड़ेगा, उसे जानते हुए करना श्रेष्ठ है। जो करना ही पड़ेगा, उसे स्पष्ट रूप से सामने के द्वार से करना श्रेष्ठ है । जब करना ही पड़ेगा, तो पीछे के द्वार से जाना उचित नहीं । जब करना ही पड़ेगा, तो अनजाने, बेहोशी में, अपने को धोखा देते हुए करना ठीक नहीं। क्योंकि तब करना गलत रास्तों पर ले जा सकता है। जो अनिवार्य है, वह जाग्रत, स्वीकृतिपूर्वक, समग्र चेष्टा से ही किया जाना उचित है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो करना ही है, उसे परिपूर्ण रूप से जानते हुए, होशपूर्वक, स्वधर्म की तरह करना उचित है। और एक दूसरी बात कहते हैं। वे कहते हैं, जो स्वधर्म है, और साथ में एक बात कहते हैं, शास्त्र सम्मत। जो शास्त्र सम्मत स्वधर्म है। शास्त्र का अर्थ है - किताब नहीं - शास्त्र का मौलिक, गहरा अर्थ है, आज तक जिन लोगों ने जाना, उनके द्वारा सम्मत; जो जानते हैं, उनके द्वारा सम्मत; जो पहचानते हैं, उनके द्वारा सम्मत | एक लंबी यात्रा है मनुष्य की चेतना की, उसमें हम सौ-पचास वर्ष के लिए आते हैं और विदा हो जाते हैं। आदमी आता है, विदा हो जाता है, आदमीयत चलती चली जाती है। आदमी के अनुभव हैं करोड़ों वर्ष के, सार है अनुभव का। आदमी ने जाना है, उस | जाने को निचोड़कर रखा है। कृष्ण कह रहे हैं कि वह जो अनादि | से, सदा से जानने वाले लोगों ने जिस बात को कहा है, उससे सम्मत स्वधर्म इसमें दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं। एक तो इस देश में बहुत प्राचीन समय से हमने समाज को चार वर्णों में बांट रखा था। अर्जुन उसमें क्षत्रिय वर्ण से आता है। जन्म से ही हमने समाज को चार हिस्सों में बांट रखा था। कोई हाइरेरकी नहीं थी, कोई ऊंचा - नीचा नहीं था। सिर्फ गुण विभाजन था — वर्टिकल नहीं, हॉरिजांटल। दो तरह के विभाजन होते हैं, एक तो क्षैतिजिक विभाजन होता है कि मैं यहां मंच पर बैठा हूं, मेरे बगल में एक और आदमी बैठा है और | मेरे पीछे एक और आदमी बैठा है। हम तीनों एक ही तल पर बैठे हैं, लेकिन फिर भी तीन हैं, विभाजन हॉरिजांटल है। एक विभाजन होता है कि मैं एक सीढ़ी पर खड़ा हूं, दूसरा उससे ऊंची सीढ़ी पर खड़ा है, तीसरा उससे ऊंची सीढ़ी पर खड़ा है। तब भी विभाजन होता है, तब विभाजन वर्टिकल है। 340 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्म समर्पित कर्म 4 भारत में जो वर्ण का प्राथमिक विभाजन था, हॉरिजांटल था । उसमें शूद्र, ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय एक-दूसरे के ऊपर-नीचे हाइरेरकी में बंटे हुए नहीं थे। समाज में एक ही भूमि पर खड़े हुए चार विभाजन थे। बाद में हॉरिजांटल विभाजन वर्टिकल हो गया, ऊपर-नीचे हो गया। जिस दिन से ऊपर-नीचे हुआ, उस दिन से वर्ण की जो कीमती आधारशिला थी, वह गिर गई और वर्ण का सिद्धांत और वर्ण का मनसशास्त्र शोषण का आधार बन गया। लेकिन कृष्ण के समय तक यह बात घटित न हुई थी। इसलिए कृष्ण कहते हैं कि जो तेरा स्वधर्म जिस वर्ण में तू जन्मा है और जिस वर्ण में तू बड़ा हुआ है और जिस वर्ण की तूने शिक्षा पाई है। और जिस वर्ण की तेरी तैयारी है और जिस वर्ण से तेरा हड्डी, खून, मांस, तेरा मन, तेरे संस्कार, तेरी' कंडीशनिंग हुई है, उस वर्ण को छोड़कर भागने से उस वर्ण के काम को करना ही श्रेयस्कर है। क्यों ? अनेक कारण हैं। दो-तीन गहरे कारणों पर खयाल कर लेना जरूरी है। एक तो प्रत्येक व्यक्ति की अनंत संभावनाएं हैं। लेकिन उन अनंत संभावनाओं में से एक ही संभावना वास्तविक बन सकती है। सभी संभावनाएं वास्तविक नहीं बन सकतीं। एक व्यक्ति जब जन्मता है, तो उसके जीवन की बहुत यात्राएं हो सकती हैं, लेकिन अंततः एक ही यात्रा पर उसे जाना पड़ता है। जीवन की वास्तविकता हमेशा वन डायमेंशनल होती है, एक आयामी होती है; और जीवन की पोटेंशियलिटी मल्टी-डायमेंशनल होती है, जीवन की संभावना अनंत आयामी होती है। हम एक बच्चे को डाक्टर भी बना सकते हैं, वकील भी बना सकते हैं, इंजीनियर भी बना सकते हैं। हम एक बच्चे को बहुत-बहुत रूपों में ढाल सकते हैं। बच्चे में बहुत लोच है, वह अनंत आयामों में जाने की संभावना रखता है। लेकिन जाएगा एक ही आयाम में ।। हम उसे अनंत आयामों में ले जा नहीं सकते। और अगर ले जाएंगे, तो हम सिर्फ उसको विक्षिप्त कर देंगे, पागल कर देंगे । आज विज्ञान इस बात को स्वीकार करता है। वह कहता है, प्रत्येक व्यक्ति के जानने की क्षमता अनंत है। लेकिन जब भी कोई व्यक्ति जानने जाएगा, तो स्पेशलाइजेशन हो जाएगा। अगर एक व्यक्ति जानने निकलेगा, तो वह डाक्टर ही हो पाएगा। अब तो पूरा डाक्टर होना मुश्किल है, क्योंकि डाक्टर की भी बहुत शाखाएं हैं। वह कान का डाक्टर होगा कि आंख का डाक्टर होगा कि हृदय का डाक्टर होगा कि मस्तिष्क का डाक्टर होगा ! ये भी शाखाएं हैं। मैं तो एक मजाक भी सुनी है कि आज से पचास साल बाद एक औरत एक डाक्टर के दरवाजे पर अंदर प्रवेश हुई है और उसने कहा कि मेरी आंख में बड़ी तकलीफ है। डाक्टर उसे भीतर ले गया और फिर पूछा कि कौन-सी आंख में ? बाईं या दाईं ? क्योंकि मैं सिर्फ दाईं आंख का डाक्टर हूं। बाईं आंख का डाक्टर पड़ोस में है। | असल में एक आंख भी इतना बड़ा फिनामिनन है, एक | छोटी-सी आंख इतनी बड़ी घटना है कि उसे एक आदमी पूरी जिंदगी जानना चाहे, तो भी पूरा नहीं जान सकता है। इसलिए स्पेशलाइजेशन हो जाएगा, इसलिए विशेषज्ञ पैदा होगा ही; उससे बचा नहीं जा सकता है । आज पश्चिम में जिस तरह विशेषज्ञ ज्ञान के पैदा हुए हैं कि एक आदमी गणित को, तो गणित को ही जानता है; फिजिक्स के संबंध में वह उतना ही नासमझ है, जितना नासमझ | कोई और आदमी है। और जो आदमी फिजिक्स को जानता है, वह केमिस्ट्री के संबंध में उतना ही अज्ञानी है, जितना गांव का कोई किसान। प्रत्येक व्यक्ति की जानने की एक सीमा है और उस सीमा में उसको यात्रा करनी पड़ती है। और रोज सीमा नैरो होती चली | जाएगी, संकरी होती चली जाएगी। जैसे आज पश्चिम में विज्ञान स्पेशलाइज्ड हुआ, ऐसे ही भारत में हजारों साल पहले हमने चार व्यक्तित्वों को स्पेशलाइज्ड कर दिया था। हमने कहा था, जब कुछ लोग क्षत्रिय ही होना चाहते हैं, तो उचित है कि उन्हें बचपन से ही क्षत्रिय होने का मौका मिले। हमने सोचा कि जब कुछ लोग ब्राह्मण ही हो सकते हैं और क्षत्रिय | नहीं हो सकते, तो उचित है कि उन्हें बचपन के पहले क्षण से ही ब्राह्मण की हवा मिले, ब्राह्मण का वातावरण मिले। उनका एक क्षण भी व्यर्थ न जाए। इसमें एक और गहरी बात आपसे कह दूं, जो कि साधारणतः आपके खयाल में नहीं होगी। और वह यह है कि जब हमने यह बिलकुल तय कर दिया कि जन्म से ही कोई व्यक्ति ब्राह्मण हो जाएगा और कोई व्यक्ति क्षत्रिय हो जाएगा, तब भी हमने यह उपाय रखा था कि कभी अपवाद हो, तो हम व्यक्तियों को दूसरे वर्णों में प्रवेश दे सकते थे। लेकिन वह एक्सेप्शन की बात थी। वह नियम | नहीं था, नियम की जरूरत न थी । कभी-कभी ऐसा होता था कि कोई विश्वामित्र वर्ण बदल लेता था। लेकिन वह अपवाद था, वह नियम नहीं था। साधारणतः जो व्यक्ति जिस दिशा में दीक्षित होता था, जिस दिशा में निर्मित होता था, साधारणतः वह उसी दिशा में आनंदित होता था, उसी दिशा में यात्रा करता था। 341 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + गीता दर्शन भाग-14 कृष्ण भी अर्जुन को कह सकते थे कि तू वर्ण बदल ले, लेकिन कृष्ण बहुत भलीभांति अर्जुन को जानते हैं। वह क्षत्रिय होने के अतिरिक्त कुछ और हो नहीं सकता। उसका रोआं रोआं क्षत्रिय का है, उसकी श्वास- श्वास क्षत्रिय की है। सच तो यह है कि अर्जुन जैसा क्षत्रिय फिर दुबारा हम पैदा नहीं कर पाए। इसके स्वधर्म के बदलने का कोई उपाय नहीं है। इसका व्यक्तित्व वन डायमेंशनल हो गया है। सारी तैयारी उसकी जिस काम के लिए है, उसी को वह छोड़कर भागने की बात कर रहा है। अगर यह संभव हो सके कि आइंस्टीन फिर नए जन्म के साथ ही, | जहां उसका पिछला जन्म समाप्त हुआ था, वहां से उसे जो-जो उसने विकसित किया था, उसको विकास करने का मौका मिल जाए, हम दुनिया में बहुत - बहुत विकास करने की संभावनाएं पैदा कर पाएंगे। लेकिन आइंस्टीन को फिर नया गर्भ खोजना पड़ेगा। हो सकता है, वह एक घर में पैदा हो, जो दुकानदार का घर है । और तब उसकी पिछले जन्म की यात्रा और नई यात्रा में बहुत व्याघात पड़ जाएगा। जब हमने यह तय कर लिया था कि लोग जन्म से ही, चार वर्गों में हमने उन्हें बांट दिया था, हमने आत्माओं को भी जन्म लेने के चयन की सुविधा दे दी थी। यह जरा खयाल में ले लेना जरूरी है और इस पर ही वर्णों का जन्मगत आधार टिका था। आज जो लोग भी वर्ण के विरोध में बात करते हैं, उन्हें इस संबंध का जरा भी कोई पता नहीं है। जैसे ही एक व्यक्ति मरता है, उसकी आत्मा नया जीवन खोजती है। नया जीवन, पिछले जन्मों में उसने जो कुछ किया है, सोचा है, पिछले जन्म में वह जो कुछ बना है, पिछले जन्म में उसकी जो-जो निर्मिति हुई है, उसके आधार पर वह नया गर्भ खोजता है । वर्ण की व्यवस्था ने उस गर्भ खोजने में आत्माओं को बड़ी सुविधा बना दी थी। यह आज हमारी कल्पना में भी आना मुश्किल है कि अनेक जन्मों की श्रृंखला में भी व्यक्ति को हमने चैनेलाइज करने की कोशिश की थी। इसलिए कृष्ण कहते हैं कि शास्त्र सम्मत, वह जो अनंत अनंत दिनों से अनंत अनंत लोगों के द्वारा जाना हुआ विज्ञान है ! तो तेरी आत्मा आज ही कोई क्षत्रिय हो, ऐसा भी नहीं है। क्षत्रिय होना तेरा बहुत जन्मों का स्वधर्म है। उसे लेकर तू पैदा | हुआ है। आज तू अचानक उससे मुकरने की बात करेगा, तो तू सिर्फ एक असफलता बन जाएगा, एक विषाद, एक फ्रस्ट्रेशन | तेरी जिंदगी एक भटकाव हो जाएगी। लेकिन तेरी जिंदगी अनुभव की उस चरम सीमा को, उस पीक एक्सपीरिएंस को नहीं पा सकती, जो तू क्षत्रिय होकर ही पा सकता है। | एक ब्राह्मण मरते ही ब्राह्मण-गर्भ को खोज पाता था। वह सरल था। इतनी कठिन नहीं रह गई थी वह बात; वह बहुत आसान बात हो गई थी। वह उतनी ही आसान बात थी, जैसे हमने दरवाजों पर आंख के स्पेशलिस्ट की तख्ती लगा रखी है, तो बीमार को खोजने में आसानी है। हमने हृदय की जांच करने वाले डाक्टर की तख्ती लगा रखी है, तो बीमार को खोजने में आसानी है। ठीक हमने आत्मा को भी, उसके अपने इंट्रोवर्ट या एक्सट्रोवर्ट होने की जो भी सुविधा और संभावना है, उसके अनुसार गर्भ खोजने के लिए सील लगा रखी थी। इसलिए आमतौर से यह होता था कि ब्राह्मण अनंत-अनंत जन्मों तक ब्राह्मण के गर्भ में प्रवेश कर जाता था। क्षत्रिय अनंत जन्मों तक क्षत्रिय का गर्भ खोज लेता था । इसके परिणाम बहुत कीमती थे। वर्ण के संबंध में जब भी लोग वर्ण के विरोध में या पक्ष में बोलते. हैं, तो उन्हें कोई भी अंदाज नहीं है कि वर्ण के पीछे अनंत जन्मों का विज्ञान है। ध्यान इस बात का है कि हम व्यक्ति की आत्मा को दिशा दे सकें, वह अपने योग्य गर्भ खोज सके, अपने स्वधर्म के अनुकूल घर खोज सके । आज धीरे-धीरे कनफ्यूजन पैदा हुआ है। धीरे-धीरे सारी व्यवस्था टूट गई, क्योंकि सारा विज्ञान खो गया। और आज हालत यह है कि आत्माओं को निर्णय करना अत्यंत कठिन होता चला जाता है कि वे कहां जन्म लें! और जहां भी जन्म लें, वहां से उनकी पिछली यात्रा का तारतम्य ठीक से जुड़ेगा या नहीं जुड़ेगा, यह बिलकुल सांयोगिक हो गई है बात। इसको हमने वैज्ञानिक विधि बनाई थी। इसका मतलब यह हुआ कि हम एक जन्म में ही स्पेशलाइजेशन नहीं देते थे, हम अनंत जन्मों की श्रृंखला में स्पेशलाइजेशन दे देते थे। अगर किसी दिन यह हो सके कि आइंस्टीन फिर एक ऐसे बाप के घर में पैदा हो जाए जो फिजिसिस्ट हो, अगर यह संभव हो सके कि आइंस्टीन फिर एक ऐसी मां को मिल जाए जो गणितज्ञ हो, 342 ऐसे तो नदियां भी बहती हैं, लेकिन जब विज्ञान विकसित होता है, तो हम नहर पैदा कर लेते हैं। नदियां भी बहती हैं, लेकिन नहर सुनियोजित बहती है। वर्ण की व्यवस्था आत्माओं के लिए नहर का काम करती थी । वर्ण की व्यवस्था जिस दिन टूट गई, उस दिन से आत्माएं नदियों की तरह बह रही हैं। अब उनकी यात्रा का कोई सुसम्मत मार्ग नहीं है। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्म समर्पित कर्म 4 इसलिए कृष्ण कहते हैं, शास्त्र सम्मत | शास्त्र सम्मत अर्थात उस दिन तक जानी गई आत्माओं का जो विज्ञान था, उससे सम्मत जो बात है अर्जुन, तू उस स्वधर्म को कर। वही श्रेयस्कर है। और वैसे भी न करने से, सदा करना श्रेयस्कर है, क्योंकि करने से बचने का कोई उपाय नहीं है। प्रश्नः भगवान श्री पिछले श्लोक में आपने कहा, संकल्प की बात की, तो संकल्प में और इंद्रियों के दमन में क्या फर्क है? यह जानना चाहते हैं। सं कल्प में और इंद्रियों के दमन में बुनियादी फर्क है। संकल्प पाजिटिव एक्ट है, विधायक कृत्य है और इंद्रियों का दमन निगेटिव एक्ट है, नकारात्मक कृत्य है। इसे ऐसा समझें, एक आदमी को भूख लगी है। वह भूख को दबा रहा है— नकारात्मक। वह यह नहीं कह रहा है कि मैं खाना नहीं खाऊंगा, भूख अब मत लग। नहीं, वह यह नहीं कह रहा है। मन में तो वह सोच रहा है कि खाना खाना है, भूख लगी है। उसे उभार रहा है और दबा भी रहा है। लेकिन उसका कोई पाजिटिव विल नहीं है कि जो कहे कि नहीं, खाना नहीं खाना है; बात बंद ! ऐसा कोई विधायक कृत्य नहीं है। भूख लगी है, वह उसको दबाए जा रहा है, भूख से लड़ रहा है। लेकिन भूख से अन्यथा उसके पास कोई संकल्प का जन्म नहीं हो रहा है। इसे ऐसा समझें, एक आदमी, अपने भीतर कोई भी कामना उठी है, समझें कि कामवासना उठी है; जिसके प्रति उठी है, उसके साथ काम का संबंध संभव नहीं है । सामाजिक होगी परिस्थिति, और कोई परिस्थिति होगी, संभव नहीं है। वासना को उकसा रहा है और दबा भी रहा है। वासना को उकसा रहा है, अगर संभव हो, तो वासना को पूरा करना चाहेगा। लेकिन संभव नहीं है। असुविधापूर्ण है, खतरनाक है, सुरक्षा नहीं है, मर्यादा के बाहर है, समाज के नियम के विपरीत है, प्रतिष्ठा को धक्का लगेगा, अहंकार के पक्ष में नहीं पड़ता है; पत्नी क्या कहेगी ? पिता क्या कहेगा ? भाई क्या कहेगा? लोग क्या कहेंगे? ये सारी बातें नकारात्मक हैं। इसलिए वह अपनी कामवासना को दबा रहा है। हालांकि साथ में ही वह कामवासना से बंधे हुए चित्रों को भी उभारता चला जा रहा है। रस भी ले रहा है, दबा भी रहा है। इससे विल पैदा नहीं होगी, इससे विल थोड़ी-बहुत होगी, तो वह भी नष्ट हो जाएगी। नहीं, वह आदमी न इसकी फिक्र कर रहा है कि कौन क्या | कहेगा, न वह फिक्र कर रहा है कि पत्नी क्या कहेगी, पति क्या | कहेगा, भाई क्या कहेगा, समाज क्या कहेगा, यह कोई सवाल नहीं | है | वह आदमी यह कह रहा है कि मेरे भीतर ऐसी कोई वासना उठ आए, जिसमें मेरा वश न हो, तो यह गलत है। कोई और डर नहीं है । कोई और कारण नहीं है। सिर्फ मैं अपने भीतर वासनाओं के पीछे नहीं चलना चाहता हूं। मैं मालिक होना चाहता हूं। इसलिए वह कहता है, चुप! तब फिर वह कल्पनाएं नहीं करता, इमेजिनेशन नहीं करता, सेक्सुअल इमेज नहीं पैदा करता, प्रतिमाएं नहीं बनाता, | सपने नहीं देखता । वह कहता है, बस । और यह जो बस है, यह किसी चीज को दबाने में कम लगता है, किसी चीज को जगाने में ज्यादा लगता है। अब वह अपने को जगा रहा है। अब वह कह रहा है कि इतनी ताकत मुझमें होनी चाहिए कि मैं जब कहूं, बस ! बात समाप्त हो जाए। तब उसके भीतर संकल्प पैदा होगा। संकल्प एक क्रिएटिव एक्ट है। संकल्प अपने भीतर किसी नई शक्ति को जगाना है । और दमन अपने भीतर पुरानी वासनाओं की शक्तियों को ही दबाना है। दबाने में पुरानी शक्तियां ही नजर में होंगी, उठाने में नई शक्ति का आविर्भाव होगा। अब इस नई शक्ति के आविर्भाव के लिए, इसीलिए सीधा वासनाओं से प्रयोग करना शुभ नहीं होता। ज्यादा शुभ होता है और तरह की चीजों से करना । जैसे कि आप, सर्दी चल रही है और आप सर्दी में बैठे हैं। और आप अपने भीतर उस शक्ति को जगा रहे हैं, जो इस सर्दी को झेलेगी, | लेकिन भागेगी नहीं। आप कहते हैं, मैं इस सर्दी में घंटेभर बैठूंगा, भागूंगा नहीं। अब इसमें कोई समाज का डर नहीं है, कोई सामाजिक नियम - नैतिकता नहीं है, कोई बात नहीं है । आप कहते हैं, मैं भागूंगा नहीं। एक घंटा मैं सर्दी को झेलने की तैयारी रखकर बैठा हूं और देखूंगा कि मेरे भीतर कोई शक्ति जगती है जो सर्दी को घंटेभर झेल पाए! आप कुछ दबा नहीं रहे हैं, आप कुछ जगा रहे हैं। तिब्बत में तो एक पूरा प्रयोग ही है, जिसको वे हीट योग कहते हैं, जिसको संकल्प से गर्मी पैदा करना कहते हैं । और ल्हासा युनिवर्सिटी में प्रत्येक विद्यार्थी को परीक्षा के साथ वह प्रयोग में से गुजरना पड़ता था। वह परीक्षा भी बड़ी अजीब थी। सर्द बर्फ से भरी रात में विद्यार्थियों को नग्न खड़ा रहना पड़ेगा और उनके शरीर से पसीना चूना चाहिए, तब वे परीक्षा उत्तीर्ण हो सकेंगे। न केवल 343 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SIT गीता दर्शन भाग-1 AM पसीना, क्योंकि पसीना तो सबसे चूजाएगा। वह तो प्रयोग है कि आक्सफोर्ड जाता हूं या कैंब्रिज जाता हूं, तो बड़ा माइक से शोरगुल अगर संकल्पपूर्वक आप कहें कि सर्दी नहीं है और गर्मी है, तो शरीर मचाना पड़ता है कि चुप हो जाओ, चुप हो जाओ। उपकुलपति आ पसीना छोड़ता है। रहे हैं, वाइस चांसलर आ रहे हैं, चुप हो जाओ। फिर भी कोई चुप हिप्नोसिस में किसी को भी छूट जाता है। अगर किसी को बेहोश | | नहीं होता। और जब शुरू-शुरू में युनिवर्सिटी में गया था, तो उसने कर दें, सम्मोहित कर दें और कहें कि तेज धूप पड़ रही है और गर्मी | | लिखा है, जैसे ही भीड़ चुप होने लगती थी विद्यार्थियों की, हम सख्त है, तो उस आदमी के माथे से, शरीर से पसीना बहना शुरू | समझते थे कि वाइस चांसलर आ रहे हैं। जैसे ही चुप्पी छाने लगती हो जाएगा। गर्मी पड़ रही हो, आप पसीने से भरे हों। और | थी, वैसे ही हम समझते थे कि उपकुलपति आ रहे हैं। लोगों का हिप्नोटाइज्ड आदमी बेहोश पड़ा है। हिप्नोटिस्ट उससे कहे कि सर्दी | | चुप हो जाना बताता था कि गुरु आ रहा है। अब चिल्लाना पड़ता बहुत जोर की है, बर्फ पड़ रही है बाहर, और ठंडी हवाएं आ रही | | है कि चुप हो जाओ, क्योंकि गुरु आ रहे हैं। फिर भी कोई चुप नहीं हैं, हाथ-पैर कंप रहे हैं, उस गर्मी की हालत में उसके हाथ-पैर होता। जब चिल्लाना पड़ेगा, तो चुप कौन होगा? कंपने शुरू हो जाएंगे। अगर बेहोशी की, सम्मोहन की हालत में | जब संकल्प होता है भीतर. तो वासनाएं चप हो जाती हैं। जब आपके हाथ में एक साधारण रुपया रख दिया जाए और आपसे संकल्प नहीं होता, तो वासनाओं को जबर्दस्ती चुप करना पड़ता है। कहा जाए कि हाथ पर अंगारा रखा है, तो आप इस तरह चीखकर | वह संकल्प के अभाव के कारण मुखर है। . उसको फेंकेंगे, जैसे हाथ पर अंगारा हो। यहां तक तो ठीक है। पुरानी परिभाषा आपसे कहूं। अब साधारणतः हम कहते हैं, गुरु लेकिन हाथ पर फफोला भी आ जाएगा। क्योंकि जब संकल्प ने | के पैर छूने चाहिए। पुरानी परिभाषा और है। वह यह कहती है कि स्वीकार कर लिया कि अंगारा है, तो शरीर को स्वीकार करना ही | | जिसके चरण के पास पहुंचकर छूना ही पड़े, वह आदमी गुरु है। पड़ता है। अगर हाथ ने मान लिया कि अंगारा है, तो शरीर को | | | अब हम कहते हैं, पिता को आदर करना चाहिए। पुरानी परिभाषा जलना ही पड़ेगा, फफोला उठ ही आएगा। और है। जिसको आदर दिया ही जाता है, वह पिता है। आज नहीं उस युनिवर्सिटी में, ल्हासा युनिवर्सिटी में, तिब्बती लामा जब | | कल हम माताओं को सिखाएंगे कि बच्चों को प्रेम करना ही अपनी पूरी शिक्षा करके बाहर निकलेगा, तो उसे यह भी प्रमाण देना | चाहिए; सिखाएंगे ही, सिखाना ही पड़ेगा। लेकिन बच्चे को जो प्रेम पड़ेगा। यह संकल्प की परीक्षा होगी। पसीना तो सभी को आ | | देती है, वही मां है। करना चाहिए, तो बात ही फिजूल हो गई। जाएगा, लेकिन यह कैसे पता चलेगा कि पहला कौन आया? दूसरा । संकल्प जब भीतर होता है, पाजिटिव शक्ति जब भीतर होती है, कौन आया? तो सबके पास पानी में डुबाए हुए गीले कपड़े रखे | | तो वासनाओं को दबाना नहीं पड़ता। इशारा काफी है। इधर संकल्प रहेंगे। उन कपड़ों को पहनो और शरीर को इतना गरमा लो कि | | खड़ा हुआ, उधर वासना विदा हुई। वासना दबानी पड़ती है, क्योंकि कपड़े सूख जाएं! तो जो जितने कपड़े रातभर में सुखा देगा, वह | | संकल्प भीतर नहीं है। वासनाओं को दबाकर संकल्प पैदा नहीं प्रथम। जो उससे कम सुखा पाएगा, वह द्वितीय। जो उससे कम | | होगा। संकल्प पैदा होगा, तो वासनाओं से छुटकारा होता है। और सुखा पाएगा, वह तृतीय। और अब यह कोई तिब्बत की ही बात उस संकल्प की दिशा में आपको...सिर्फ वासनाओं से मत लड़ते नहीं रह गई है, आज तो पश्चिम की भी बहुत-सी प्रयोगशालाओं | | रहें। क्योंकि एक नियम खयाल में ले लें कि आप जिस चीज से में सम्मोहन के द्वारा यह बात सिद्ध हो चुकी है कि मनुष्य के मन | | लड़ते हैं, उस चीज को आप जरूरत से ज्यादा ध्यान दे देते हैं। और का संकल्प जो स्वीकार कर ले, वही घटित होना शुरू हो जाता है। | जिसको भी ध्यान मिल जाता है, वह मजबूत हो जाता है। तब आपको वासनाओं से लडना न पडेगा। वासनाओं के लिए ध्यान भोजन है। अगर कोई आदमी सेक्स से वासनाओं को दबाना ही इसलिए पड़ता है कि संकल्प पास में नहीं | | लड़ेगा, तो उसका सेक्स बढ़ेगा, कम नहीं होगा। क्योंकि सेक्स पर है। संकल्प पास में होगा, तो दबाना नहीं पड़ेगा। जितना ध्यान दिया जाएगा, उतना ही सेक्स शक्तिशाली होता चला बट्रेंड रसेल ने कहीं अपने एक संस्मरण में लिखा है। बर्दैड जाता है। ध्यान भोजन है। आपने ध्यान दिया कि और शक्ति रसेल तो काफी जिंदा रहा न! बहुत, एक सदी के करीब जिंदा रहा; पकड़ेगी। नहीं, सेक्स की फिक्र छोड़ें। इसलिए हम, हमने जो शब्द तो उसने दुनिया बहुत रंगों में देखी। उसने लिखा है कि अब जब मैं खोजा है, वह है ब्रह्मचर्य। ब्रह्मचर्य का मतलब आपने सोचा है 344 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m+ परमात्म समर्पित कर्म +m कभी! उसका मतलब होता है, ब्रह्म में चर्या, ब्रह्म में डूबना। हम | | विधायक दृष्टि लें। नहीं तो आप ला आफ रिवर्स इफेक्ट में फंस कहते हैं, कामवासना की फिक्र छोड़ो, तुम तो ब्रह्म में डूबने की | जाएंगे। अधिक लोग फंसे हुए हैं। इसलिए जो वे चाहते हैं कि न फिक्र करो। इधर तुम ब्रह्म में डूबोगे, उधर कामवासना विदा होने | हो, रोज-रोज वही होता है। और जब वही होता है, तो संकल्प और लगेगी। कामवासना से लड़े कि मुश्किल में पड़े। फिर वह विदा कमजोर होता है कि इतना तो चाहा कि न हो, फिर भी वही हुआ। नहीं होगी, फिर वह पीछा करेगी। | अब अपने से कुछ भी न हो सकेगा। संकल्प और कमजोर होता और एक ला आफ रिवर्स इफेक्ट का एक नियम है। जिसको | चला जाता है। संकल्प बढ़ता है विधायक मार्ग से। वासनाओं का पीछे पश्चिम में फ्रांस के एक विचारक इमाइल कुए ने खोजा। दबाना नकारात्मक है। यह अंतर है। उसका कहना है, विपरीत परिणाम का नियम। आप जो भी करना चाहते हैं, अगर बहुत ज्यादा कोशिश की, तो उससे विपरीत परिणाम आ जाता है। . यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्म बन्धनः । जैसे एक नया आदमी साइकिल चलाना सीखता है। साठ फीट तदर्थ कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।।९।। चौड़े रास्ते पर साइकिल चलाता है। और किनारे पर मील का पत्थर और हे अर्जुन, बंधन के भय से भी कमों का त्याग करना लगा हे जरा-सी जगह में। नया सिक्खड़ है: एकदम से पत्थर योग्य नहीं है। क्योंकि यज्ञ-कर्म के सिवाय अन्य कर्म में उसको पहले दिखाई पड़ता है। इतना बड़ा रास्ता दिखाई नहीं पड़ता, लगा हआ ही यह मनुष्य कों द्वारा बंधता है। इसलिए है साठ फीट चौड़ा। उसे पत्थर दिखाई पड़ता है कि मरे, अब कहीं यह अर्जुन, आसक्ति से रहित हुआ उस परमेश्वर के निमित्त पत्थर से टकराहट न हो जाए। और जैसे ही उसकी पत्थर से कर्म का भली प्रकार आचरण कर । टकराहट न हो जाए, यह निगेटिव खयाल उसको पकड़ा, रास्ता मिटा और पत्थर ही उसको अब दिखाई पड़ेगा। अब उसकी साइकिल चली पत्थर की तरफ। अब वह घबड़ाया। जितनी 7 क और भी अदभुत बात कृष्ण कहते हैं। वे कहते हैं, साइकिल चली पत्थर की तरफ, उतना वह घबड़ाया; और उतना | । ५ कर्मों के बंधन से बचने के ही निमित्त जो आदमी कर्म उसने ध्यान दिया पत्थर को कि बचना है इस पत्थर से। से भागता है, वह उचित नहीं करता है। वह जो मैं कह लेकिन जिससे बचना है, उस पर ध्यान देना पड़ेगा। और जिस रहा था वही बात, ला आफ रिवर्स इफेक्ट। जो आदमी कर्मों के पर ध्यान देना पड़ेगा, उससे बचना मुश्किल है। वह जाकर बंधन से बचने के लिए ही कर्मों को छोड़कर भागता है, वह उलटे टकराएगा। अंधा आदमी भी साइकिल चलाए, तो सौ में एक मौका | परिणाम को उपलब्ध होगा। वह और बंध जाएगा। और फिर कर्मों है पत्थर से टकराने का। क्योंकि रास्ता साठ फीट चौड़ा है। लेकिन | के बंधन से भागने की जो इच्छा है, वह स्वयं की स्वतंत्रता की यह आंख वाला पत्थर पर पहुंच जाता है एकदम। क्या, मामला | घोषणा नहीं, स्वयं की परतंत्रता की ही घोषणा है। कर्म के बंधन से क्या है ? यह पत्थर पर हिप्नोटाइज्ड होकर जाता है। इसको पत्थर | | कोई भाग भी न सकेगा। क्योंकि कहीं भी जाए, कुछ भी करे, कर्म से बचना है, बस यही इसकी मुश्किल हो जाती है। इसी में उलझ | करना ही पड़ेगा। तब क्या करे आदमी? जाता है। और जो चाहता है कि न हो, चाहने के कारण, वही हो __ कृष्ण कहते हैं, यज्ञरूपी कर्म। कृष्ण कहते हैं, ऐसा कर्म जो प्रभु जाता है। को समर्पित है, ऐसा कर्म जो मैं अपने लिए नहीं कर रहा हूं। आपने अगर तय किया कि क्रोध न करेंगे, तो आपसे क्रोध जल्दी | | परमात्मा ने जीवन दिया, जन्म दिया, जगत दिया, उसने ही कर्म होने लगेगा। नहीं. आप क्रोध की फिक्र छोडें. आप क्षमा करने की | दिया। उसके लिए ही कर रहा है। ऐसे यज्ञरूपी कर्म को जो करता फिक्र करें। आप पाजिटिवली क्षमा की तरफ देखें, क्रोध की फिक्र | है, वह बंधन में नहीं पड़ता है। छोड़ें। आप क्षमा करेंगे, इसकी फिक्र करें। आप क्रोध नहीं करेंगे, | | इसमें दो बातें ध्यान देने योग्य हैं। एक तो सिर्फ बंधन से बचने ऐसी नकारात्मक फिक्र मत करें। आप कामवासना से बचेंगे, ऐसी | के लिए जो भागता है, वह भाग नहीं पाएगा। वह नए बंधनों में घिर नकारात्मक दृष्टि मत लें। आप ब्रह्मचर्य में प्रवेश करेंगे, ऐसी जाएगा। ध्यान रहे, बंधन से बचने के लिए भागने वाला 345 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3m गीता दर्शन भाग-1 -सर शक्तिशाली व्यक्ति नहीं है। भागते सिर्फ कमजोर हैं। शक्तिशाली इसलिए कृष्ण कहते हैं, भागना व्यर्थ है, पलायन व्यर्थ है, भागते नहीं, कमजोर ही भागता है। और जितना भागता है, उतना एस्केप व्यर्थ है। और ध्यान रहे, इस पृथ्वी पर एस्केप के खिलाफ, और कमजोर हो जाता है। भयभीत भागता है। और जो भयभीत है, पलायन के खिलाफ कृष्ण से ज्यादा बड़ी आवाज दूसरी पैदा नहीं वह यहां बंधन में है; जहां भी जाएगा, वहां बंधन में पड़ जाएगा। हुई। पलायन व्यर्थ है, भागना व्यर्थ है। भागकर जाओगे कहां? कमजोर बंधन से बचेगा कैसे! अपने से भागोगे कैसे? सबसे भाग जाओगे, खुद तो साथ ही एक आदमी गृहस्थी में है। वह कहता है, घर बंधन है। बड़े रहोगे। और उस खुद में ही सारी बीमारियां हैं। इसलिए कृष्ण कहते आश्चर्य की बात है। घर कहीं भी नहीं बांधता। दरवाजे खुले हैं। | हैं, कर्म से कोई अगर बंधन से छूटने के लिए भागता है, तो घर कहीं भी लोहे की श्रृंखला नहीं बना हुआ है! घर कहीं पैर में नासमझ है। कर्म में कोई बंधन नहीं है। कर्म मेरा है, यही बंधन है। जंजीर की तरह अटका नहीं है। घर कहीं नहीं बांधता है। लेकिन | | इसलिए अगर कर्म को परमात्मा का है, ऐसा कहने का कोई साहस वह आदमी कहता है, घर बांधता है। तो मैं घर छोड़ दूं। अब जुटा ले, तो कर्म यज्ञ हो जाता है और उसका बंधन गिर जाता है। समझने जैसा जरूरी है कि उसको घर बांधता है ? तब तो घर छोड़ने | । क्यों गिर जाता है? क्योंकि वह फिर मेरा नहीं रह जाता। से वह मुक्त हो जाएगा। लेकिन घर किसको बांधेगा? घर तो सार बात इतनी है कि मेरा ही बंधन है-चा बिलकुल जड़ है। वह न बांधता है, न स्वतंत्र करता है। जब यह हो, चाहे मेरा धन हो, चाहे मेरा बेटा हो, चाहे मेरा धर्म हो, चाहे छोड़कर जाने लगेगा, तब इतना भी नहीं कहेगा कि रुको, कहां जा | | मेरा कर्म हो, चाहे मेरा संन्यास हो—जो भी मेरा है, वह बंधन बन रहे हो? वह इसकी फिक्र ही नहीं करेगा। लेकिन यह कहता है, घर जाएगा। सिर्फ एक तरह का कर्म बंधन नहीं बनता है, ऐसा कर्म जो बांधता है। मेरा नहीं, परमात्मा का है। ऐसे कर्म का नाम यज्ञ है। असल में, यह बात कहीं न कहीं गलत समझ रहा है। यह घर को । यज्ञ बहुत पारिभाषिक शब्द है। इसका अनुवाद दुनिया की किसी अपना मानता है, इससे बंधता है। घर नहीं बांधता। मेरा है घर, मेरे भी भाषा में नहीं हो सकता है। असल में कर्म का एक बिलकुल ही से घर बंधता है। लेकिन मेरा तो इसके पास ही रहेगा। यह घर नया रूप, जिसमें मैं कर्ता नहीं रहता, बल्कि परमात्मा कर्ता होता छोड़कर भाग जाएगा, तब मेरा आश्रम। फिर मेरा आश्रम बांध लेगा। है। कर्म की एक बिलकुल नई अवधारणा, कर्म का एक बिलकुल वह मेरा इसके साथ चला जाएगा। वह मेरा इसकी कमजोरी है। घर नया कंसेप्शन कि जिसमें मैं कर्ता नहीं होता, मैं सिर्फ निमित्त होता तो छूट जाएगा। घर छोड़ने में क्या कठिनाई है! घर जरा भी नहीं हूं और कर्ता परमात्मा होता है। जिसमें मैं सिर्फ बांसुरी बन जाता रोकेगा कि रुकिए! बल्कि प्रसन्न ही होगा कि गए तो अच्छा हुआ, | हूं, गीत परमात्मा का, स्वर उसके। उपद्रव टला! लेकिन आप उस तरकीब को तो साथ ही ले जाएंगे, ___ यज्ञरूपी कर्म बंधन नहीं लाता है। इसलिए कृष्ण अर्जुन से कहते जो गुलामी बनेगी। मेरा आश्रम हो जाएगा, फिर वह बांध लेगा। | हैं, तू कर्म से मत भाग, बल्कि कर्म को यज्ञ बना ले। यज्ञ बना ले पत्नी नहीं बांधती। पत्नी को छोड़कर भाग जाएं। तो क्या | अर्थात उसको तू परमात्मा को समर्पित कर दे। तू कह दे पूरे प्राणों कामवासना पत्नी को छोड़कर भागने के साथ पत्नी के पास छूट से कि मैं सिर्फ निमित्त हूं और तुझे जो करवाना हो, करवा ले। जाएगी? तो पत्नी नहीं थी आपके पास, तब कामवासना नहीं थी? नानक की जिंदगी में एक घटना है, जिस घटना से नानक संत जब यात्रा पर चले जाते हैं, पत्नी नहीं होती है, तब कामवासना नहीं बने। उस दिन से नानक का कर्म यज्ञ हो गया। छोटी-मोटी होती है? और जब पत्नी को छोड़कर चले जाएंगे, तो कामवासना जागीरदारी में वे नौकर हैं। और काम उनका है सिपाहियों को राशन पत्नी के पास छूट जाएगी कि आपके साथ चली जाएगी? वह | बांटना। तो वे दिनभर सुबह से शाम तक गेहूं, दाल, चना, तौलते कामवासना आपके साथ चली जाएगी। और ध्यान रहे. पत्नी तो रहते हैं और सिपाहियों को देते रहते हैं। . पुरानी पड़ गई थी, नई स्त्रियां दिखाई पड़ेंगी जो बिलकुल नई होंगी, पर एक दिन कुछ गड़बड़ हो गई। ऐसी गड़बड़ बड़ी सौभाग्यपूर्ण वह वासना उन नई पर और भी ज्यादा लोलुप होकर बंध जाएगी। है। और जब किसी की जिंदगी में हो जाती है, तो परमात्मा प्रवेश भागता हुआ आदमी यह भूल जाता है कि जिससे वह भाग रहा है, हो जाता है। एक दिन सब अस्तव्यस्त हो गया, सब गणित टूट वह बांधने वाली चीज नहीं है। जो भाग रहा है, वही बंधने वाला है। गया, सब नाप टूट गई। नापने बैठे थे; एक से गिनती शुरू की। | 346 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120+ परमात्म समर्पित कर्म +mm बारह तक सब ठीक चला। लेकिन तेरह की जो गिनती आई, तो प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजा को अचानक उन्हें तेरा से तेरे का खयाल आ गया, उसका, परमात्मा | रचकर कहा कि इस यज्ञ द्वारा तुम वृद्धि को प्राप्त होओ का। बारह तक तो सब ठीक चला, तेरहवें पल्ले को उलटते वक्त और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित कामनाओं को उनको आया खयाल, तेरा। वह जो तेरह शब्द है, वह तेरा। फिर देने वाला होवे। चौदह नहीं निकल सका मुंह से। फिर दूसरा भी पलवा भरा और फिर भी कहा, तेरा। फिर तीसरा भी पलवा भरा...। फिर लोग समझे कि पागल हो गए। भीड़ इकट्ठी हो गई। उन्होंने कहा, यह ग ज्ञपूर्वक कर्म, इसे कहने के ठीक पीछे कृष्ण कहते हैं, क्या कर रहे हो, गिनती आगे नहीं बढ़ेगी? तो नानक ने कहा, 4 सृष्टि के प्रथम क्षण में स्रष्टा ने भी ऐसे ही यज्ञरूपी उसके आगे अब और क्या गिनती हो सकती है। मालिक ने बुलाया कर्म का विस्तार किया है। और कहा, पागल हो गए! नानक ने कहा, अब तक पागल था। इसे भी थोड़ा समझ लेना उपयोगी है। अब बस, इस गिनती के आगे कुछ नहीं है। अब सब तेरा। | हम निरंतर परमात्मा को स्रष्टा कहते हैं। हम निरंतर परमात्मा फिर नौकरी तो छूट ही गई। लेकिन बड़ी नौकरी मिल गई, को बनाने वाला, क्रिएटर कहते हैं। लेकिन बनाना, सृजन, परमात्मा की नौकरी मिल गई। छोटे-मोटे मालिक की नौकरी छुटी, निर्माण किसी भी चीज का-दो ढंग से हो सकता है। अगर परम मालिक की नौकरी मिल गई। और जब भी कोई नानक से परमात्मा भी मैं के भाव से सजन करे, तो वह यज्ञ नहीं रह जाएगा पूछता कि तुम्हारी जिंदगी में यह कहां से आई रोशनी? तो वे कहते, परमात्मा के लिए यह सृजन बिलकुल ईगोलेस, मैं-भाव से रिक्त तेरे, तेरा, उस शब्द से यह रोशनी आई। जब भी कोई पूछता, कहां | | और शून्य है। कहना चाहिए, यह सारी सृष्टि परमात्मा के लिए से आया यह नृत्य? कहां से आया यह संगीत? कहां से यह उठा सहज आविर्भाव है, स्पांटेनियस फ्लावरिंग है। में सृजन करूं, में नाद? तो वे कहते, बस एक दिन स्मरण आ गया कि तू ही है, तेरा | | बनाऊं, ऐसा कहीं कोई भाव नहीं है। हो भी नहीं सकता। क्योंकि ही है, मेरा नहीं है। मैं सिर्फ वहीं पैदा होता है, जहां तु की संभावना हो। परमात्मा के तो जो कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से, वह यही कह रहे हैं कि एक | | लिए कोई भी तू नहीं है, अकेला है। इसलिए मैं का कोई भाव दफा हिम्मत करके, संकल्प करके अगर तू जान पाए कि तेरा नहीं | | परमात्मा में नहीं हो सकता। और जिस दिन हम में भी मैं का कोई है कृत्य, तो फिर कोई बंधन नहीं। क्यों बंधन नहीं? क्योंकि बंधने | | भाव नहीं रह जाता, हम परमात्मा के हिस्से हो जाते हैं। के लिए भी मैं का भाव चाहिए। बंधेगा कौन? मैं तो चाहिए ही, यह सारी सृष्टि परमात्मा के भीतर किसी वासना के कारण नहीं अगर बंधना है। | है, फल नहीं है। यह सारी सृष्टि, कहना चाहिए, परमात्मा का अब यह बड़े मजे की बात है कि मैं अगर नहीं हूं, तो बंधेगा | | स्वभाव है। ऐसे ही जैसे बीज टूटकर अंकुर बन जाता है और जैसे कौन? बंधूंगा कैसे? मैं चाहिए बंधने के लिए और मेरा चाहिए | अंकुर टूटकर वृक्ष बन जाता है और जैसे वृक्ष फूलों से भर जाता बांधने के लिए। ये दो सूत्र खयाल में ले लें। मैं चाहिए बंधने के है, ठीक ऐसे ही परमात्मा के लिए सृष्टि अलग चीज नहीं है। लिए और मेरा चाहिए बांधने के लिए। मैं बनेगा कैदी और मेरा | परमात्मा का स्वभाव है। बनेगा जंजीर। लेकिन जिस दिन कोई व्यक्ति कह पाता है, मैं नहीं, | ___ इसलिए मैं निरंतर एक बात कहना पसंद करता हूं कि हम तू ही; मेरा नहीं, तेरा; उस दिन न तो बंधन बचता है और न बंधने | | परमात्मा को क्रिएटर कहकर थोड़ी-सी गलती करते हैं, स्रष्टा वाला बचता है। ऐसे क्षण में व्यक्ति का जीवन यज्ञ हो जाता है। | कहकर थोड़ी-सी गलती करते हैं। क्योंकि जब हम परमात्मा को यज्ञ मुक्ति है। यज्ञ के भाव से किया गया कर्म स्वतंत्रता है। स्रष्टा कहते हैं, तो हम सृष्टि और स्रष्टा को अलग तोड़ देते हैं। ऐसा नहीं है। ज्यादा उचित होगा कि हम परमात्मा को स्रष्टा न कहकर, सृजन की प्रक्रिया कहें। ज्यादा उचित होगा कि हम क्रिएटर सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। | न कहकर, क्रिएटिविटी कहें। ज्यादा उचित होगा कि हम सृष्टि और अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् । । १०।। स्रष्टा को दो में न तोड़ें, बल्कि एक में ही रखें। वही है। | 347 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 गीता दर्शन भाग-1 -K प्रथम दिन-कहने के लिए प्रथम दिन, बात करने के लिए। | हो गई; जो तेरी मर्जी। प्रथम दिन, अन्यथा सृष्टि के लिए कोई प्रथम दिन नहीं है और कोई | | मेरे देखे, इन दो वाक्यों के बीच में क्रांति घटित हुई। जिस क्षण अंतिम दिन नहीं है-कृष्ण कह रहे हैं, प्रथम दिन जगत का स्रष्टा जीसस ने कहा, यह क्या कर रहा है? उस समय जीसस का मैं जगत को जो जीवन, गति और सृजन देता, वह भी यज्ञ है। और | मौजूद है। अभी कर्म यज्ञ नहीं हुआ। दिखाई पड़ गया जीसस को जिस दिन कोई दूसरा व्यक्ति भी उसी तरह यज्ञरूपी कर्म में संयुक्त कि भूल हो गई। क्योंकि जब कोई कहता है परमात्मा से कि यह हो जाता है, वह भी स्रष्टा का हिस्सा हो जाता है, वह भी उसका | | क्या कर रहा है? तो उसका मतलब यह है कि कुछ गलत कर रहा अंग हो जाता है। | है। उसका मतलब यह है कि जो होना चाहिए था, वह नहीं हो रहा मीरा नाचती है। कोई अगर मीरा को पूछे, तू नाचती है? तो मीरा है। उसका मतलब यह है कि मैं तुझसे ज्यादा समझदार था। मुझसे कहेगी, नहीं, वही नचाता है, वही नाचता है। अगर कोई कबीर को | | भी पूछ लेता, तो यह करने को न कहता! भूल हो रही है ईश्वर से कहे कि तुम कपड़े बुनते हो, किसके लिए? तो कबीर कहते हैं, वही | | कुछ। जब जीसस कहते हैं, यह क्या कर रहा है? गहरी शिकायत बुनता है, उसी के लिए बुनता है। इसलिए कबीर जब कपड़ा बुनते | | है। जीसस अभी कर्म में हैं। अभी यज्ञ नहीं हो पाया। लेकिन एक और गांव की तरफ कपडे बेचने जाते. तो राह पर जो भी मिलता ही क्षण में सारी क्रांति घटित हो गई। उससे कहते कि राम! देखो कितना अच्छा, तुम्हारे लिए बनाया है। तो मैं तो निरंतर कहता हूं कि सूली पर जिस क्षण जीसस ने कहा कहते, राम! बाजार में बैठते, तो ग्राहकों को कहते कि राम, कहां | | कि परमात्मा, यह क्या दिखला रहा है? उस समय तक वे मरियम चले जा रहे हो? कितनी मेहनत की है। ग्राहक भी मश्किल में पड़ते। के बेटे जीसस थे। और एक क्षण बाद एक क्षण, मोमेंट-जैसे उनकी कल्पना में न होता यह कि उन्हें कोई राम पुकारेगा। ही उन्होंने कहा, जो तेरी मर्जी; माफ कर, जो तू चाहे; दाई विल बी और जब कबीर के पास हजारों, सैकड़ों भक्त आने लगे, तो | डन, तेरी इच्छा पूरी हो, उसी क्षण वे क्राइस्ट हो गए। उसी क्षण उन्होंने कहा, बंद करिए आप कपड़ा बुनना। आपको कपड़ा बुनने | | क्रांति घटित हो गई। वे मरियम के बेटे नहीं रहे। उसी क्षण वे की क्या जरूरत है ? तो कबीर ने कहा, जब परमात्मा को अभी | परमात्मा के हिस्से हो गए। उसी क्षण में यज्ञ हो गया कर्म। अब बुनने की जरूरत है, तो मैं बुनने से कैसे बचूं! अभी परमात्मा ही | | अपनी कोई मर्जी न रही; अपनी कोई बात न रही। जो उसकी मर्जी! बुने जा रहा है जीवन को और जगत को। तो मैंने तो अपने को उसी | | परमात्मा इस बड़े सृजन को फैलाकर भी निरंतर यही कह रहा के हाथ में छोड़ दिया है। अब उसी की अंगुलियां मेरी अंगुलियों से | है, इस बड़ी धारा को चलाकर निरंतर यही कह रहा है-पहले बुनती हैं। उसी की आंखें मेरी आंखों से देखती हैं। अब वह चाहेगा, | | दिन, बीच के दिन, आखिरी दिन-एक ही बात है कि हम इस तो बंद हो जाएगा बुनना। और वह चाहेगा, तो जारी रहेगा। अब छोटे-से मैं को बीच में न ले आएं। उस मैं के कारण ही सारा उसकी मरजी। उपद्रव, सारा विघ्न, सारा उत्पात खड़ा हो जाता है। उस मैं के तो कबीर कपड़ा बुनना बंद नहीं करते, कपड़ा बुने चले जाते हैं। | आस-पास ही कर्म बंधन बन जाता है। जैसे परमात्मा मुक्त...। मेरे देखे कबीर ज्यादा गहरे साधु हैं, कपड़ा बुनना जारी रखते हैं। | कभी आपने खयाल किया कि परमात्मा कहीं दिखाई नहीं जो चलता था, चलता है। फर्क पड़ गया लेकिन। यज्ञ हो गया अब | | पड़ता। सृष्टि दिखाई पड़ती है और स्रष्टा दिखाई नहीं पड़ता। कर्म। अब वे कहते हैं, वही बुनता है, उसी के लिए बुनता है। मैं | लेकिन कभी सोचा आपने कि इसका कारण क्या होगा? अनेक हूं ही नहीं। इसलिए ठीक है, जो उसकी मर्जी। लोग कहते हैं, ईश्वर कहां है? असल में जिसका मैं नहीं है, वह जीसस को जिस दिन सूली लगाई गई, उस दिन सूली पर जब दिखाई कहां पडे। असल में जिसको कभी खय उनके हाथ में कीले ठोंके गए, तो एक क्षण को जीसस भी कंप गए। कि मैंने सृष्टि की है, वह दिखाई कहां पड़े! जो किया है, वह दिखाई एक क्षण को जीसस भी डांवाडोल हो गए। एक क्षण को जीसस के पड़ रहा है और करने वाला बिलकुल दिखाई नहीं पड़ रहा है! कर्ता मुंह से निकल गया, हे परमात्मा! यह क्या कर रहा है? यह क्या बिलकुल अदृश्य है और कर्म बिलकुल दृश्य है। दिखला रहा है? शिकायत हो गई। जीसस को खयाल में भी आ ऐसे ही कृष्ण कह रहे हैं कि तू ऐसे कर्म में जूझ जा कि कर्म ही गई। और दूसरे ही वाक्य में उन्होंने कहा, क्षमा कर, माफ कर, भूल दिखाई पड़े और कर्ता बिलकुल दिखाई न पड़े; कर्ता रहे ही न। 348 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m परमात्म समर्पित कर्म AM परमात्मा को देखते हैं, कितना एब्सेंट है! जगत बहुत प्रेजेंट है। उस फकीर ने कहा, यह तो ठीक, लेकिन अब जब तुम दे ही रहे संसार बहुत मौजूद है और परमात्मा बिलकुल गैर-मौजूद है। हो, तो थोड़ी बात और दे दो। और क्या? पहले तो तुमने कुछ भी असल में जिसके पास अहंकार नहीं, वह मौजूद हो भी कैसे सकता न मांगा! उसने कहा, पहले मांगने की कोई जरूरत न थी। लेकिन है! उसके मौजूद होने का कोई उपाय भी तो नहीं है, वह गैर-मौजूद | | एक चीज जहां मिले, वहां चीजों की श्रृंखला शुरू हो जाती है। एक ही हो सकता है। उसकी एब्सेंस ही उसकी प्रेजेंस है; उसकी | | चीज और दे जाओ। वह चीज क्या? अनुपस्थिति ही उसकी मौजूदगी है।.. उस फकीर ने कहा, यह और जोड़ दो इसमें कि इसका मुझे पता मैंने सुना है, एक ईसाई फकीर पर देवता प्रसन्न हो गए—कहानी | | न चले। मुरदा जिंदा हो, हो; लेकिन मुझे पता न चले कि जिंदा हो है और उन्होंने आकर उसके पैर पकड़ लिए, देवताओं ने, उन्होंने | गया। बीमार ठीक हो, हो; लेकिन मुझे पता न चले। क्योंकि अब कहा कि हम तुझे कोई वरदान देने आए हैं। मांग ले, तुझे जो कुछ वापस मेरे मैं को बुलाने की पीड़ा और नर्क में मैं नहीं पड़ना चाहता मांगना हो। तो उस फकीर ने कहा, बड़ी गलती की, बड़ी देर से | | हूं। अब तुम मुझे क्षमा कर दो। यह वरदान खतरनाक है। जब मुरदा आए। जब मेरे पास मांग थी, तब तुम्हारा कोई पता न चला; और जिंदा होगा, तो मुझे पता न चल जाए कि मैंने जिंदा किया है। तो अब जब मेरी कोई मांग नहीं रह गई, तब तुम आए हो! अब तो तुम ऐसा करो कि यह वरदान मुझे मत दो, मेरी छाया को दे दो। कुछ मांगने को नहीं बचा, क्योंकि मांगने वाला ही नहीं बचा। अब मेरी छाया किसी मुरदे पर पड़ जाएगी, वह जिंदा हो जाएगा, तो मुझे तुम व्यर्थ परेशान हो रहे हो। तुम किससे कह रहे हो? उन्होंने कहा, | | पता ही नहीं चलेगा। छाया पीछे पड़ेगी, मुरदा ठीक हो जाएगा, हम तुम से कह रहे हैं! उस फकीर ने कहा, लेकिन मैं तो अब हूं | फूल खिल जाएंगे; मुरझाए हुए पौधे ठीक हो जाएंगे, मैं भागता नहीं; तुम परमात्मा से ही पूछ लेना, अब तो वही है। रहूंगा छाया से। कृपा करके तुम यह वरदान मेरी छाया को दे दो। लेकिन ऐसे आदमी पर देवता और प्रसन्न हो गए। उन्होंने परमात्मा कहीं दिखाई नहीं पड़ता, सिर्फ उसकी छाया बिलकुल उसके पैर ही पकड़ लिए और कहा कि कुछ मांगना ही | | कभी-कभी कहीं-कहीं दिखाई पड़ती है। सिर्फ उसकी छाया। इतना पड़ेगा। उसने कहा, लेकिन अब मांगे कौन? किससे मांगे? और | सारा जगत उसकी छाया से चलता है। अगर मैं मांगंगा, तो वह सबत होगा इस बात का कि परमात्मा पर कृष्ण अर्जन से यही कह रहे हैं, त छाया भर हो जा, इस मैं को मेरा भरोसा नहीं। जो उसे देना होगा, देगा; जो उसे नहीं देना होगा, | जाने दे। तू जी, श्वास ले, कर्म कर। भाग मत। क्योंकि भागने में नहीं देगा। जो उचित होगा, वह होगा। जो उचित नहीं होगा, वह भी तेरा अहंकार तो बना ही रहेगा कि मैं बच निकला, मैं भाग नहीं होगा। असल में जो होगा, वह उचित होगा। और जो नहीं | निकला। मैं हूं। मैंने अपने को बंधन से बचा लिया, कर्म से बचा होगा, वह अनुचित होगा। इसलिए तुम जाओ। तुम गलत आदमी | लिया। तेरा मैं तो जाएगा नहीं; बंधन मौजूद होगा। तू तो इतना ही के पास आ गए हो। भर कर कि मैं को छोड़ दे और यज्ञरूपी कर्म में प्रवृत्त हो जा। जैसे लेकिन उन्होंने कहा कि हम ऐसे आदमी की तलाश में रहते हैं; | | पूरा परमात्मा जगत को यज्ञरूपी कर्म में निर्मित कर रहा है, ऐसे ही जो मांगता है, उसके पास तो हम कभी नहीं जाते। जो नहीं मांगता, | | तू भी उसका एक हिस्सा हो जा, तो तू मुक्त हो जाता है। हम उसके पास आते हैं। जो होता है, उसके पास तो हम कभी नहीं जाते, क्योंकि उसके भीतर जगह ही नहीं होती हमारे आने लायक। जो नहीं हो जाता है, हम उसके भीतर आते हैं। हम आ गए हैं। तुम देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः । जरूर मांगो! उस फकीर ने कहा, अब तुम नहीं मानते, तुम्हें कुछ | परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ।।११।। देना हो तो दे जाओ। मेरा मांगने का कोई सवाल नहीं है। तथा तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो और तो उन्होंने कहा, हम तुम्हें एक वरदान देते हैं कि तुम अगर मुरदे | | वे देवता लोग तुम लोगों की उन्नति करें। इस प्रकार आपस को छु दोगे, तो वह जिंदा हो जाएगा। अगर तुम बीमार पर हाथ रख में कर्तव्य समझकर उन्नति करते हुए परम कल्याण को दोगे, तो वह स्वस्थ हो जाएगा। अगर तुम मुरझाए फूल की तरफ प्राप्त होओगे। देख दोगे, तो वह फिर से खिल जाएगा। 349 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1 AM of तिम श्लोक। कृष्ण कह रहे हैं, इस भांति यज्ञरूपी कर्म काम आपने कोई किया और पीछे आपको लगा होगा, बड़ी हैरानी 1 करते हुए तुम देवताओं के सहयोगी बनो और वे देवता की बात है, इतनी ताकत मुझमें कहां से आ गई कि मैं यह बुरा काम तुम्हारे सहयोगी बनें। इस भांति तुम कर्तव्य को | | कर पाया! यह अनेक लोगों का अनुभव है। उपलब्ध हो सकते हो। __ आप क्रोध में इतना बड़ा पत्थर उठा सकते हो, जितना आप यह देवता शब्द को थोड़ा समझना जरूरी है। इस शब्द से बड़ी | | शांति में नहीं उठा सकते, तब आपको कल्पना भी नहीं हो सकती भ्रांति हुई है। देवता शब्द बहुत पारिभाषिक शब्द है। देवता शब्द | | कि कोई बुरी आत्मा भी आपके लिए सहयोग देती है। जब एक का अर्थ है...इस जगत में जो भी लोग हैं, जो भी आत्माएं हैं, उनके | आदमी किसी की हत्या करने जाता है, तो उसकी साधारण स्थिति मरते ही साधारण व्यक्ति का जन्म तत्काल हो जाता है। उसके लिए | नहीं रह जाती, असाधारण पजेस्ड हो जाता है। और अनेक हत्यारे गर्भ तत्काल उपलब्ध होता है। लेकिन बहुत असाधारण शुभ | अदालतों में यह कहते हैं कि हम मान नहीं सकते कि हमने हत्या आत्मा के लिए तत्काल गर्भ उपलब्ध नहीं होता। उसे प्रतीक्षा करनी | की है, क्योंकि हमें तो खयाल ही नहीं आता कि हम कैसे हत्या कर पड़ती है। उसके योग्य गर्भ के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। बहुत सकते हैं। असल में आपमें हत्या की वत्ति उठे. तो हत्या के लिए बुरी आत्मा, बहुत ही पापी आत्मा के लिए भी गर्भ तत्काल उपलब्ध | | उत्सुक कोई आत्मा आपके ऊपर सवार हो सकती है, आपका नहीं होता। उसे भी बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ती है। साधारण आत्मा | सहयोग कर सकती है। के लिए तत्काल गर्भ उपलब्ध हो जाता है। इसलिए साधारण ठीक इससे उलटा, अर्जुन से कृष्ण कह रहे हैं कि अगर तू एक आदमी इधर मरा और उधर जन्मा। इस जन्म और मृत्यु और मृत्यु | शुभ कर्म में कर्ता को छोड़कर संलग्न होता है, तो अनेक देवताओं और नए जन्म के बीच में बड़ा फासला नहीं होता। कभी क्षणों का | | का सहारा तुझे मिलता है। जब आप कोई अच्छा कर्म करते हैं, तब भी फासला होता है। कभी क्षणों का भी नहीं होता। चौबीस घंटे गर्भ भी आप अकेले नहीं होते। तब भी वे अनेक आत्माएं, जो अच्छा उपलब्ध हैं; तत्काल आत्मा गर्भ में प्रवेश कर जाती है। | करने के लिए आतुर, अभीप्सित होती हैं, तत्काल आपके लेकिन एक श्रेष्ठ आत्मा नए गर्भ में प्रवेश करने के लिए प्रतीक्षा | | आस-पास इकट्ठी और सक्रिय हो जाती हैं। तत्काल आपको उनका में रहती है। इस तरह की श्रेष्ठ आत्माओं का नाम देवता है। निकृष्ट | | सहयोग मिलना शुरू हो जाता है। तत्काल आपके लिए अनंत मार्गों आत्माएं भी प्रतीक्षा में होती हैं। इस तरह की आत्माओं का नाम से शक्ति मिलनी शुरू हो जाती है, जो आपकी नहीं है। .. प्रेतात्माएं हैं। वे जो प्रेत हैं, ऐसी आत्माएं जो बुरा करते-करते मरी | ___ इसलिए अच्छा आदमी भी अकेला नहीं है इस पृथ्वी पर और हैं; लेकिन इतना बुरा करके मरी हैं। अब जैसे कोई हिटलर, कोई बुरा आदमी भी अकेला नहीं है इस पृथ्वी पर, सिर्फ बीच के आदमी एक करोड़ आदमियों की हत्या जिस आदमी के ऊपर है, इसके | | अकेले होते हैं। सिर्फ बीच के आदमी अकेले होते हैं, जो न इतने लिए कोई साधारण मां गर्भ नहीं बन सकती, और न कोई साधारण | | अच्छे होते हैं कि अच्छों से सहयोग पा सकें, न इतने बुरे होते हैं पिता गर्भ बन सकता है। ऐसे आदमी को तो गर्भ के लिए बहुत | | कि बुरों से सहयोग पा सकें। सिर्फ साधारण, बीच के, मीडियाकर, प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। लेकिन इसकी आत्मा इस बीच क्या करेगी? मिडिल क्लास-पैसे के हिसाब से नहीं कह रहा–आत्मा के इसकी आत्मा इस बीच खाली नहीं बैठी रह सकती। भला आदमी | | हिसाब से जो मध्यवर्गीय हैं, उनको, वे भर अकेले होते हैं, वे तो कभी खाली भी बैठ जाए, बुरा आदमी बिलकुल खाली नहीं बैठ | लोनली होते हैं। उनको कोई सहारा-वहारा ज्यादा नहीं मिलता। सकता। कुछ न कुछ करने की कोशिश जारी रहेगी। | और कभी-कभी हो सकता है कि या तो वे बुराई में नीचे उतरें, तब तो जब भी आप कोई बरा कर्म करते हैं, तब तत्काल ऐसी उन्हें सहारा मिले: या भलाई में ऊपर उठे. तब उन्हें सहारा मिले। आत्माओं को आपके द्वारा सहारा मिलता है, जो बुरा करना चाहती लेकिन इस जगत में अच्छे आदमी अकेले नहीं होते, बुरे आदमी हैं। आप वीहिकल बन जाते हो; आप साधन बन जाते हो। जब भी अकेले नहीं होते। आप कोई बुरा कर्म करते हो, तो ऐसी कोई आत्मा अति प्रसन्न होती । जब महावीर जैसा आदमी पृथ्वी पर होता है या बुद्ध जैसा है और आपको सहयोग देती है, जिसे बुरा करना है, लेकिन उसके आदमी पृथ्वी पर होता है, तो चारों ओर से अच्छी आत्माएं इकट्ठी पास शरीर नहीं है। इसलिए कई बार आपको लगा होगा कि बुरा सक्रिय हो जाती हैं। इसलिए जो आपने कहानियां सुनी हैं, वे सिर्फ 1350 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 परमात्म समर्पित कर्म AIR कहानियां नहीं हैं। यह बात सिर्फ कहानी नहीं है कि महावीर के इसलिए बुरा आदमी भी बड़ा शक्तिशाली हो जाता है और अच्छा आगे और पीछे देवता चलते हैं। यह बात कहानी नहीं है कि महावीर | | आदमी भी बड़ा शक्तिशाली हो जाता है। वह शक्ति चारों तरफ की सभा में देवता उपस्थित हैं। यह बात कहानी नहीं है कि जब बुद्ध | अशरीरी आत्माओं से उपलब्ध होनी शुरू होती है। गांव में प्रवेश करते हैं, तो देवता भी गांव में प्रवेश करते हैं। यह | शेष कल। बात, यह बात माइथोलॉजी नहीं है, पुराण नहीं है। इसलिए भी कहता हूं, पुराण नहीं है, क्योंकि अब तो वैज्ञानिक आधारों पर भी सिद्ध हो गया है कि शरीरहीन आत्माएं हैं। उनके चित्र भी, हजारों की तादात में चित्र लिए जा सके हैं। अब तो वैज्ञानिक भी अपनी प्रयोगशाला में चकित और हैरान हैं। अब तो उनकी भी हिम्मत टूट गई है यह कहने की कि भूत-प्रेत नहीं हैं। कोई सोच सकता था कि कैलिफोर्निया या इलेनाइस ऐसी युनिवर्सिटीज में भूत-प्रेत का अध्ययन करने के लिए भी कोई डिपार्टमेंट होगा! पश्चिम के विश्वविद्यालय भी कोई डिपार्टमेंट खोलेंगे, जिसमें भूत-प्रेत का अध्ययन चलता होगा! पचास साल पहले पश्चिम पूर्व पर हंसता था कि सुपरस्टीटस हो। हालांकि पूर्व में अभी भी ऐसे नासमझ हैं, जो पचास साल पुरानी पश्चिम की बात अभी दोहराए चले जा रहे हैं। पचास साल में पश्चिम ने बहुत कुछ समझा है और पीछे लौट आया है। उसके कदम बहुत जगह से वापस लौटे हैं। उसे स्वीकार करना पड़ा है कि मनुष्य के मर जाने के बाद सब समाप्त नहीं हो जाता। स्वीकार कर लेना पड़ा है कि शरीर के बाहर कुछ शेष रह जाता है, जिसके चित्र भी लिए जा सकते हैं। स्वीकार करना पड़ा है कि अशरीरी अस्तित्व संभव है, असंभव नहीं है। और यह छोटे-मोटे लोगों ने नहीं, ओलिवर लाज जैसा नोबल प्राइज विनर गवाही देता है कि प्रेत हैं। सी.डी.ब्राड जैसा वैज्ञानिक चिंतक गवाही देता है कि प्रेत हैं। जे.बी.राइन और मायर्स जैसे जिंदगीभर वैज्ञानिक ढंग से प्रयोग करने वाले लोग कहते हैं कि अब हमारी हिम्मत उतनी नहीं है पूर्व को गलत कहने की, जितनी पचास साल पहले हमारी हिम्मत थी। कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से कि अगर तू अपने कर्ता को भूलकर परमात्मा के दिए कर्म में प्रवृत्त होता है, तो देवताओं का तुझे साथ है, तुझे सहयोग है। और न केवल तू अपना कर्तव्य निभाने में पूर्ण हो पाएगा, बल्कि बहुत से देवता भी, जो अपना कर्तव्य निभाने के लिए आतुर हैं, तेरे माध्यम से वे भी अपने कर्तव्य को निभाने में पूर्ण हो जाएंगे। अकेला नहीं है अच्छा आदमी। अकेला नहीं है बुरा आदमी। 351] Page #382 --------------------------------------------------------------------------  Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 3 चौथा प्रवचन समर्पित जीवन का विज्ञान Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यजमाविताः । | में होता क्या है? इच्छा करने में होता क्या है? जैसे ही हम मांगते तैर्दतानप्रदायभ्यो यो भुक्तेस्तेन एव सः।। १२ ।। | हैं, हमारा हृदय सिकुड़ जाता है मांग के आस-पास, और चेतना यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिवैः । | के द्वार तत्काल बंद हो जाते हैं। मांगें और देखें। भिखारी कभी भी भुजते ते त्वचं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ।। १३ ।।। | फूल की तरह खिला हुआ नहीं होता; हो नहीं सकता। भिखारी सदा तथा यज्ञ द्वारा प्रेरित हुए देवता लोग तुम्हारे लिए, बिना मांगे | | सिकुड़ा हुआ, अपने में बंद, क्लोज्ड। जब भी हम कुछ मांगते हैं, ही प्रिय भोगों को देंगे। उनके द्वारा दिए हुए भोगों को जो । | तो मन एकदम बंद हो जाता है। जब हम कुछ देते हैं, तब मन पुरुष उनके लिए बिना दिए ही भोगता है, खुलता है। दान से तो मन खुलता है और मांग से मन बंद होता है। वह निश्चय चोर है। | तो जब कोई परमात्मा के सामने भी, दिव्य शक्तियों के सामने भी यज्ञ से शेष बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब | मांगने खड़ा हो जाता है, तो उसे पता नहीं कि मांगने के कारण ही पापों से छूटते हैं और जो पापी लोग अपने शरीर पोषण के | उसके हृदय के द्वार बंद हो जाते हैं, वह पाने से वंचित रह जाता है। लिए ही पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं। जीसस का एक और वचन मुझे स्मरण आता है, जिसमें उन्होंने | कहा है, भिखारियों के लिए नहीं, सम्राटों के लिए है। जीसस ने कहा है, जिनके पास है, उन्हें और दे दिया जाएगा; और जिनके 1 ध्यात्मिक विवाद का इस सूत्र को हम जन्मदाता कह | | पास नहीं है, उनसे और भी छीन लिया जाएगा। बड़ी उलटी बात पा सकते हैं। इस सूत्र में दो बातें कही गई हैं। एक तो है। जिनके पास है, उन्हें और भी दे दिया जाएगा; और जिनके पास सबसे पहली बात और बहुत महत्वपूर्ण, यज्ञरूपी कर्म | | नहीं है, उनसे और भी छीन लिया जाएगा। और जब भी आप मांगते से दिव्य शक्तियां प्रसन्न होकर बिना मांगे ही सब कुछ देती हैं। | | हैं, तब आप खबर देते हैं, मेरे पास नहीं है। और जब भी आप देते जीवन के रहस्यात्मक नियमों में से एक नियम यह है कि जो हैं, तब आप खबर देते हैं, मेरे पास है। असल में इस सूत्र का भी मांगा जाएगा, वह नहीं मिलेगा; जो नहीं मांगा जाएगा, वही मिलता | अर्थ यही है कि जो बांटता है, उसे मिल जाएगा; और जो बटोरता है। जिसके पीछे हम दौड़ते हैं, उसे ही खो देते हैं; और जिसको हम है, वह खो देगा। दौड़ना छोड़ देते हैं जिसके पीछे, वह हमारे पीछे छाया की तरह | | भिखारी बटोर रहा है। भिखारी के चित्त की दो-चार बातें और चला आता है। इस नियम को न समझ पाने से जीवन में बड़ा दुख | खयाल में ले लेनी चाहिए, क्योंकि एक अर्थ में हम सब भिखारी और बड़ी पीड़ा है। और साधारण जीवन में शायद कभी हमें ऐसा | हैं। दानी होना बड़ा असंभव है। भिखारी होना बिलकुल आसान भ्रम भी हो जाए कि मांगने से भी कुछ मिल जाता है, लेकिन दिव्य है। लेकिन कठिनाई यही है कि भिखारियों को कभी कुछ नहीं मिल शक्तियों से तो कभी भी मांगने से कुछ नहीं मिलता है। दिव्य पाता और देने वालों को सदा सब कुछ मिल जाता है। शक्तियों के लिए जो अपने हृदय में द्वार खोल देता है, उसे सब | जैसे ही कोई मांगता है-वैसे ही उसका मन तो सिकुड़ता ही है, मिल जाता है, लेकिन बिना मांगे ही। | चित्त के द्वार तो बंद हो ही जाते हैं जैसे ही कोई मांगता है, वैसे जीसस का एक वचन है, जिसमें जीसस ने कहा है, सीक यी | | ही भीतर डर भी समा जाता है कि पता नहीं मिलेगा या नहीं मिलेगा! फ दि किंगडम आफ गॉड, देन आल एल्स शैल बी एडेड अनटु | मांगने वाला कभी निर्भय नहीं हो सकता। मांग के साथ भय, फिअर यू-तुम पहले प्रभु के राज्य को खोज लो और शेष सब फिर तुम्हें | | हमेशा मौजूद होता है। मांगा कि भय खड़ा है। और परमात्मा से अपने आप ही मिल जाएगा। लेकिन हम शेष सबको खोजते हैं, | केवल वे ही जुड़ सकते हैं, जो निर्भय हैं; जो भयभीत हैं, वे नहीं प्रभु के राज्य को नहीं। और शेष सब तो हमें मिलता ही नहीं, प्रभु जुड़ सकते। का राज्य भी खो जाता है। जिसे जीसस ने किंगडम आफ गॉड कहा। ___ जब भी आप मांगेंगे, तभी प्राण कंप जाएंगे और भयभीत हो है, प्रभु का राज्य कहा है, उसे ही कृष्ण दिव्य शक्ति, देवता कह | | जाएंगे और डर पकड़ जाएगा, पता नहीं मिलेगा या नहीं। यह जो | डर है, यह भी मन को बंद कर देगा। और यह जो डर है, यह जैसे ही हम मांगते हैं...मांगने में होता क्या है? कामना करने परमात्मा और स्वयं के बीच फासला पैदा कर देता है। परमात्मा के 354 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Im+ समर्पित जीवन का विज्ञान -AAM पास इसलिए जो मांगने जाता है, वह अपने हाथ से ही खोने का | मुश्किल मालूम होती है। जब तक मैं बाहर रहता हूं, तब तक तो कारण बन जाता है। मांग का खयाल रहता है। जैसे ही मंदिर में प्रविष्ट होता हूं और तीसरी बात भी खयाल रखें, जब भी हम मांगते हैं, तो हम गलत काली की मूर्ति सामने आती है, तो खुद ही सम्राट हो जाता हूं। ही मांगते हैं। हम सही मांग ही नहीं सकते। हम सही इसलिए नहीं | | उनकी मौजूदगी में मांगने का सवाल ही नहीं उठता; गुंजाइश भी मांग सकते कि हमें सही का कुछ पता ही नहीं है। हम सही इसलिए | नहीं रह जाती। तीसरी बार, और तीसरी बार भी यही हुआ। और नहीं मांग सकते कि हम खुद सही नहीं हैं। और यह और मजे की। रामकृष्ण ने कहा, कैसा है तू! विवेकानंद ने कहा कि आप क्यों मेरी बात है कि जो सही है, उसे मांगना नहीं पड़ता है; क्योंकि जो सही | नाहक परीक्षा ले रहे हैं! मैं जानता हूं कि अगर मांग लूं, तो ये द्वार है, उसे तत्काल मिलना शुरू हो जाता है। जो ठीक है, उस पर | मेरे लिए सदा के लिए बंद हो जाएंगे। संपदा बरसने लगती है जीवन के सब रूपों में। जो गलत है, वही | ये द्वार तो उन्हीं के लिए खुले हैं, जो मांगते नहीं हैं। और फिर वंचित रह जाता है; और वही मांगता है। और उसकी मांग भी गलत | जो उसकी मर्जी! जो ठीक है, वही हो रहा है। जो होना चाहिए, वही ही होगी; वह सही मांग नहीं सकता है। गलत आदमी गलत ही | हो रहा है। उससे अन्यथा चाहने का कोई कारण भी नहीं है। मांग सकता है। । कृष्ण इस सूत्र में कहते हैं कि बिना मांगे, बिना मांगे यज्ञ की एक छोटी-सी घटना से आपको समझाऊं। विवेकानंद के पिता भांति जो जीवन को जीता, यज्ञरूपी कर्म में जो प्रविष्ट होता, दिव्य मर गए। कर्ज छोड़ गए बहुत। चुकाने का कोई उपाय नहीं। शक्तियां उसे बिना मांगे सब दे जाती हैं। लेकिन हमें अपने पर खाने-पीने तक की सुविधा नहीं। घर में इतना मुश्किल से जुटा पाते | भरोसा ज्यादा, जरूरत से ज्यादा, खतरनाक भरोसा है। या तो हम कि एक बार एक जन का भोजन हो पाए। और दो थे घर में; मां थी | कोशिश करते हैं, पा लें, तब हमारा कर्म यज्ञरूपी नहीं हो पाता। और विवेकानंद थे। तो मां उन्हें खिला दे और खुद भूखी रह जाए, | और या फिर हम मांगते हैं कि मिल जाए, तब आकांक्षा से दूषित पानी पीकर। तो विवेकानंद उससे कहते कि आज फलां मित्र के घर | हो जाता है और दिव्य शक्तियों से हमारे संबंध टूट जाते हैं। निमंत्रण है, मैं वहां जा रहा है; सिर्फ इसलिए कि वह खाना खा । इसलिए ध्यान रखें, जो प्रार्थना भी मांग के साथ जुड़ी है, वह लेगी। और वे सड़कों पर चक्कर लगाकर वापस बडी खशी से घर प्रार्थना नहीं रह जाती। जिस प्रार्थना में भी रंचमात्र मांग है, वह लौटें और उन भोजन की चर्चा करें, जो उन्होंने किए नहीं हैं। कोई | प्रार्थना प्रार्थना नहीं रह गई। जो प्रार्थना निस्पृह, निपट प्रार्थना है, मित्र के घर निमंत्रण था नहीं। लेकिन यह कितने दिन चलता! | | जिसमें कोई मांग नहीं, सिर्फ धन्यवाद है उसका, जो मिला है। रामकृष्ण को खबर लगी, तो रामकृष्ण ने कहा, तू कैसा पागल | | उसकी मांग नहीं, जो मिलना चाहिए। इसलिए ठीक प्रार्थना सदा है! तू जा और काली से मांग ले। मांग क्यों नहीं लेता है! जो ही धन्यवाद होती है। और गलत प्रार्थना सदा ही मांग होती है। चाहिए, मिल जाएगा; मांग ले। विवेकानंद को रामकृष्ण ने वस्तुतः मंदिर में ठीक आदमी वही है प्रार्थना करने गया, जो धन्यवाद देने धक्का दे दिया मंदिर में कि तू जा और मां से मांग ले। क्षण बीते, गया है कि परमात्मा कितना दिया है! गलत आदमी वह है, जो घड़ी बीती। रामकृष्ण बार-बार झांककर भीतर देखें; विवेकानंद मांगने गया है कि फलां चीज नहीं दी, फलां चीज नहीं दी, यह और खड़े हैं। वे बड़े हैरान हुए कि इतनी-सी बात मांगनी है, इतनी देर! मिलनी चाहिए। मांग प्रार्थना में जहर हो जाती है, धन्यवाद प्रार्थना फिर विवेकानंद लौटे, तो रामकृष्ण ने कहा, मांगा? तो विवेकानंद ने कहा, अरे! काली के सामने पहुंचा, तो मांग की बात ही भूल | | यज्ञरूपी कर्म, धन्यवादपूर्वक परमात्मा जो कर रहा है, जो करा गई! तो रामकृष्ण ने कहा, पागल, भेजा तुझे मांगने को था; फिर रहा है, उसकी परम स्वीकृति, टोटल एक्सेप्टिबिलिटी है। और तब से जा। विवेकानंद फिर गए, और फिर घड़ी बीती, रामकृष्ण दरवाजे | | बड़े रहस्य की बात है कि सब मिल जाता है। सीक यी फर्स्ट दि पर बैठे राह देखते रहे और विवेकानंद फिर वहां से आनंदित लौटे। | किंगडम आफ गॉड, देन आल एल्स शैल बी एडेड अनटु यू, पहले रामकृष्ण ने कहा, लगता है कि मांग पूरी हो गई। मिल गया? मांग खोज लो परमात्मा का राज्य और फिर से चला आता लिया? विवेकानंद ने कहा, कौन-सी मांग? रामकृष्ण ने कहा, तू है। जिसे कभी नहीं मांगा, वह मिल जाता है। जिसे मांग-मांगकर पागल तो नहीं है! तुझे मांगने भेजा था। विवेकानंद ने कहा, बड़ी भी कभी नहीं पाया था, वह बिन मांगें मिल जाता है। यह तो पहला में आमत बन जाता है। 1355 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ yam गीता दर्शन भाग-1 +K हिस्सा, प्रार्थना करते समय खयाल में रखें, मंदिर में प्रवेश करते जीवन में, तो वापस भीड़ में लौट आए। मोहम्मद जब दुखी हैं, तो समय खयाल में रखें, साधु-संत के पास जाते समय खयाल में रखें। | पहाड़ पर; और जब आनंद से भर गए, तो जिंदगी में, बाजार में। और यह भी खयाल में रखें कि जो साधु-संत प्रलोभन देता हो | | जहां भी आनंद घटित होगा, आनंद को बांटना पड़ेगा। वैसे ही जैसे कि आओ, मैं यह दे दंगा, वहां भलकर मत जाना। क्योंकि वहां जब बादल पानी से भर जाते हैं. तो बरसते हैं ऐसे प्रार्थना घटित ही नहीं हो सकती। वहां प्रार्थना असंभव है। और प्राणों में भरता है, तो बरसता है। बरसना ही चाहिए। अगर न चूंकि लोग मांगते हैं, इसलिए साधु देने वाले पैदा हो गए हैं। वे | बरसा, तो रोग बन जाएगा। आपने पैदा किए हैं। आप नौकरी मांगते हैं, तो नौकरी देने वाले इसलिए कृष्ण दूसरा सूत्र कहते हैं कि अर्जुन! जब यज्ञरूपी कर्म साधु हैं। धन मांगते हैं, तो धन देने वाले साधु हैं। स्वास्थ्य मांगते से दिव्य शक्तियां वह सब देने लगें जिसकी कि प्राणों में सदा से हैं, तो स्वास्थ्य देने वाले साधु हैं। राख मांगते हैं, तो राख देने वाले प्यास और मांग रही, लेकिन कभी मिला नहीं और अब बिना मांगे साधु हैं। ताबीज मांगते हैं, तो ताबीज देने वाले साधु हैं। जो-जो | | मिल गया है, तो कंजूस मत हो जाना। उसे रोक मत लेना, उसे बांट बेवकूफी हम मांगते हैं, उसको सप्लाई कोई तो करना चाहिए। | देना। क्योंकि जितना तुम बांटोगे, उतना ही वह बढ़ता चला जाता है। परमात्मा नहीं करता, तो दूसरे लोग करते हैं। लेकिन ध्यान रखें, आनंद का यह नियम अगर खयाल में आ जाए कि बांटने से वहां धर्म का फूल कभी नहीं खिलेगा, वहां प्रार्थना प्राणों से कभी | | बढ़ता है...। कबीर ने कहा है, दोनों हाथ उलीचिए। आनंद को नहीं निकलेगी और गूंजेगी। बाजार है, वह भी बाजार का ही हिस्सा | | ऐसे ही उलीचना चाहिए जैसे नाव चलती हो और पानी नाव में भर है। धर्म का उससे कोई लेना-देना नहीं है। यह पहला सूत्र है। जाए, तब दोनों हाथ आदमी उलीचने लगता है। आनंद को भी ऐसे इस सूत्र का दूसरा हिस्सा है, जिसमें कृष्ण और भी गहरी बात | | ही दोनों हाथ उलीचिए। उसे बांट दीजिए, उसे रोकिए मत। उसे कहते हैं। वे यह कहते हैं कि यज्ञरूपी कर्म से जो मिले, उसे बांट रोका कि वह सड़ा। वही नहीं सड़ेगा, उसे रोकने से वह जो द्वार दो, उसमें दसरों को साझीदार बना लो। क्यों? उसे शेयर करो। खला था-अन-मांगा मिलने का वह भी बंद हो जाएगा। क्यों? यह भी एक नियम है जीवन का-परम नियमों में से | क्योंकि वह द्वार उसी के लिए खुला रह सकता है, जो बिना मांगे एक–कि जितना हम अपने आनंद को बांटते हैं, उतना वह बढ़ता | खुद भी दे। है; और जितना उसे रोकते हैं, उतना सड़ता है। जितना हम अपने | आप जानते हैं कि घर में अगर दो खिड़कियां हों, तो आप एक आनंद में दूसरों को सहभागी बनाते हैं, शेयरिंग करते हैं, उतना वह नहीं खोलते। एक खोलने. से कुछ मतलब नहीं होता। क्रास अनंत गुना होता चला जाता है। और जितना हम कंजूस की तरह | | वेंटिलेशन चाहिए। एक खिड़की खोलते हैं, उससे हवा नहीं आती, अपने आनंद को तिजोरी में बंद कर लेते हैं, आखिर में हम पाते हैं जब तक कि दूसरी खिड़की न खुले, जिससे हवा बाहर जाए। एक कि वहां सिर्फ सड़ांध और बदबू रह गई और कुछ भी नहीं बचा है। खिड़की खोले बैठे रहें, तो कमरे में हवा नहीं आएगी। खिड़की तो आनंद का जीवन विस्तार में है, फैलाव में है। खुली है, लेकिन हवा नहीं आएगी कमरे में। ताजी हवाएं कमरे में और खयाल रखें, जब आप दुख में होते हैं, तो सिकुड़ जाते हैं। नहीं भरेंगी, क्योंकि कमरे से हवाओं को निकलने का कोई मार्ग ही दख में मन करता है कि किसी कोने में दबकर बैठ जाएं कोई मिले नहीं है। इसलिए इसके पहले कि आप हवाओं को निमंत्रित करें. न, कोई देखे न, कोई बात न करे। बहुत दुखी होते हैं, तो मन होता | | उस द्वार को भी खोल दें, जहां से हवाएं आएं और जा भी सकें। है, मर ही जाएं। उसका मतलब यह है कि ऐसे कोने में चले जाएं, __ आनंद भी क्रास वेंटिलेशन है। इधर से परमात्मा की तरफ से जहां से कोई संबंध जिंदगी से न रह जाए। लेकिन जब भी आप | | आनंद मिलना शुरू हो, तो दूसरी तरफ से बांट दें। और जितना आनंद में होते हैं, तब आप कोने में नहीं बैठना चाहते हैं, तब आप | बांटेंगे, उतना ही परमात्मा की तरफ से आनंद बढ़ता चला जाता है। चाहते हैं, मित्र के पास, प्रियजनों के पास जाएं। | जितने रिक्त होंगे, खाली होंगे, उतने भर दिए जाएंगे। कभी आपने खयाल किया कि बुद्ध जब दुखी थे, तो जंगल में | | इसलिए जीसस कहते हैं, जिसके पास भी हिम्मत नहीं है देने गए; और जब आनंद से भर गए, तो शहर में वापस लौट आए! की, वह पाने का पात्र भी नहीं है। जिसमें देने की हिम्मत है, वह महावीर जब दुखी थे, तो पहाड़ों में गए; और जब आनंद भर गया पाने का भी पात्र है। हम सिर्फ पाना चाहते हैं और देना कभी नहीं 356 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9- समर्पित जीवन का विज्ञान -AM चाहते। इसलिए कृष्ण ऐसे आदमी को कहते हैं, वह चोर है। बंद हो जाए, तो सिर्फ डबरा बन जाएगा, गंगा नहीं होगी। उस डबरे कृष्ण ने यह बात जो कही कि वह आदमी चोर है, जो परमात्मा | में गंदगी होगी, बास उठेगी, उसके पास रहना मुश्किल हो जाएगा। से, जीवन से, जगत से जो भी मिल रहा है, उसे रोक लेता है। अपने | गंगा आए और जाए, आती रहे और जाती रहे। रुके न, ठहरे न। तईं, निजी अहंकार के आस-पास, इर्द-गिर्द इकट्ठा कर लेता है, | ऐसे ही जिस दिन कोई व्यक्ति अपने पूरे जीवन को परमात्मा को वह चोर है। धो ने तो बहुत बाद में कहा कि लोग चोर हैं। मार्क्स | समर्पित करके जीता है, उसके जीवन में आनंद की गंगा आती रहती ने तो बहुत बाद में कहा कि लोग चोर हैं। कृष्ण ने सबसे पहले कहा है और बढ़ती रहती है, आती रहती है और बढ़ती रहती है। उसकी कि लोग चोर हैं। अगर वे शेयर नहीं करते, अगर वे बांटते नहीं, | | जिंदगी एक बहाव, एक सरिता की भांति है, जीवित; रुके हुए अगर वे आनंद में दूसरे को साझीदार नहीं बनाते, तो वे चोर हैं। | सरोवर की भांति नहीं, घेरों में बंद नहीं, बहती हुई। लेकिन कृष्ण जब लोगों को चोर कहते हैं, तो बहुत और मतलब | | और कभी आपने खयाल किया कि जब गंगा आती है, कहां से है। और जब मार्क्स और धो लोगों को चोर कहते हैं, तो मतलब लाती है यह गंगा पानी? और कहां ले जाती है? कभी आपने इस और है। और प्रधो लोगों को कहते हैं कि लोग चोर हैं. वर्तल का खयाल किया. इस सर्कल का खयाल किया कि गंगा तो उनका मतलब यह है कि उनकी गरदन दबा दो; छीन लो, जो जहां से लाती है, वहीं लौटा देती है! सागर की तरफ भागी चली उनके पास है; बांट दो, जो उनके पास है। लेकिन कृष्ण जब कहते | जा रही है। सागर में गिरेगी, सूरज की किरणों पर चढ़ेगी, बादलों हैं कि चोर हो तुम, तो वे यह नहीं कहते कि कोई तुम्हारी गरदन दबा | | में उठेगी, हिमालय पर बरसेगी, फिर भागेगी। फिर सागर, फिर दे और छीन ले। वे यह कहते हैं कि तुम ही जानो कि तुम अपने ही | सूरज की किरणों पर चढ़ना, फिर बादल, फिर पहाड़, फिर मैदान, दुश्मन हो। तुम्हें और बहुत मिल सकता था, लेकिन तुम रोककर | फिर सागर। एक वर्तुल है, एक सर्कल है। बैठ गए हो और उसे बड़े मिलने से वंचित रह गए हो। इसे तम बांट जीवन की सभी गतियां सरक्यलर हैं। आनंद की भी वैसी ही दो, ताकि तुम्हें और बड़ा मिलता चला जाए। तम जितना बांट गति है। परमात्मा से ही आता है. परमात्मा में ही जाता है। आप में ने के निरंतर अधिकारी और हकदार होते आए. तत्काल उसे आस-पास जो भी परमात्मा का रूप फैला है. चले जाओगे। उसे बांट दें, ताकि वह सागर तक फिर पहंच जाए। फिर बादलों में और अगर कृष्ण कहते हैं कि ऐसा आदमी गलत कर रहा है, तो उठे, फिर आप में गिरे। अगर आपने कहा कि नहीं, पता नहीं, फिर उनका मतलब यही है कि वह दूसरों के लिए तो गलत कर रहा है, आया कि नहीं आया। रोक लें। बस, उस रोकने से आदमी चोर हो वह ठीक ही है, लेकिन वह गौण है, वह अपने लिए ही गलत कर जाता है। रहा है। वह आदमी आत्मघाती है। उसको एक किरण मिली थी, सब तरह के आनंद में जब भी रोकने का खयाल पैदा होता है, और उसने दरवाजा बंद कर लिया कि कहीं वह निकल न जाए। तभी थेफ्ट, चोरी पैदा हो जाती है। और यह चोरी परमात्मा के एक किरण उतरी आपके घर में, आपने जल्दी से दरवाजा बंद कर खिलाफ है। जहां से आया है, वहां जाने दें। आप से गुजरा, यही लिया कि कहीं वह किरण निकलकर पड़ोसी के घर में न चली क्या कम है! आप से गुजरता रहेगा, यही क्या कम है! और सतत जाए। लेकिन आपको पता नहीं कि जब आप दरवाजा बंद कर रहे गुजरता रहे, यही जीवन की धन्यता है। हैं, तभी वह किरण मर गई! और जिस दरवाजे से वह आई थी, | उसको ही आपने बंद कर दिया। अब आने का भी द्वार बंद हो गया। और किरणें बचती नहीं, आती रहें, तो ही बचती हैं। प्रश्नः भगवान श्री, तेरहवें श्लोक के पहले हिस्से में यह बात भी खयाल में ले लें कि आनंद कोई ऐसी चीज नहीं है। कहा गया है, यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाला कि मिल गया, और मिल गया। आनंद ऐसी चीज है कि आता ही | | श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाता है। कृपया यज्ञ रहे, तो ही रहता है। आनंद एक बहाव है, प्रवाह है, एक धारा है। से बचे हुए अन्न का अर्थ स्पष्ट करें। ऐसा नहीं कि गंगा आ गई, और आ गई। आती ही रहे रोज, तो ही। अगर एक दिन आए और फिर बस आ गई; और दूसरे दिन से धारा सकोगे। 357 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-14 साधारणतः, साधारणतः तो यज्ञ से बचे हुए अन्न को अगर | कभी देते हैं, तो तभी देते हैं, जब वह व्यर्थ होता है हमारे लिए। हम शाब्दिक अर्थों में लें, जैसा कि भूल से लिया जाता | जब वह हमारे लिए किसी अर्थ का नहीं होता और सिर्फ बोझ बनता रहा है, तो जो यज्ञ की प्रक्रिया है, सबको बांट देने के | है, तब हम देते हैं। ठीक है, न देने से तो अच्छा ही है; लेकिन बाद; यज्ञ में जो भी है सबको बांट देने के बाद, जो बच रहा, उसे निकृष्ट दान है। न देने से तो अच्छा है, अदान से तो बेहतर है; लेने वाला श्रेष्ठ पुरुष है। सबको बांट देने के बाद जो बच रहा! | | क्योंकि हो सकता है, किसी के काम पड़ जाए। लेकिन दान से जो ___ जो पहले ही ले ले और फिर जो बच रहे उसे बांट दे, वह निकृष्ट व्यक्तित्व का फूल खिलता है, वह इससे खिलने वाला नहीं है। पुरुष है। घर में मेहमान आए, तो पहले घर के लोग खा लें और क्योंकि आप सिर्फ कचरा फेंक रहे हैं। आप कुछ भी मूल्यवान नहीं फिर मेहमान को जो बच रहे, दे दें, तो वह निकृष्ट परिवार है। दे रहे हैं। देने में आपके भीतर कहीं भी आपको अपने लिए कोई मेहमान को पहले दे दें, फिर जो बच रहे, जो बच रहे; अगर कुछ कटौती नहीं करनी पड़ रही है। देने में आपके भीतर कहीं भी कोई भी न बच रहे, तो उसी को भोजन मानकर सो जाएं, तो वह श्रेष्ठ प्रेम, कहीं भी कोई प्रेम नहीं है। यह अर्थ है। पुरुष है, वह श्रेष्ठ परिवार है। ___ और अगर कोई व्यक्ति इसका स्मरण रखे, तो धीरे-धीरे हैरान सामान्य अर्थ तो यह है। लेकिन और गहरे में जिस यज्ञ का मैं | होगा कि जो हम सोचते हैं कि बचा लेंगे और उससे आनंद पाएंगे, अर्थ कर रहा हूं, ऐसा कर्म, जो परमात्मा को समर्पित है। ऐसे कर्म हमें पता ही नहीं है। एक बार उसे देकर भी देखें और हैरान होंगे कि से जो भी उपलब्ध हो, पहले बांट देना; और जब कोई लेने वाला | चीजें बचाने से उतना आनंद कभी भी नहीं देतीं, जितना देने से दे न बचे, तो जो बच रहे, उसको अपने लिए स्वीकार कर लेना, तो जाती हैं। मगर वह हमें पता नहीं चलता, क्योंकि हमने कभी उसका ऐसा पुरुष श्रेष्ठ है। जो भी मिले, उसे पहले बांट देना। कोई प्रयोग नहीं किया है जीवन में। वह हमारे लिए अपरिचित गली मोहम्मद की जिंदगी में इस सूत्र की सीधी व्याख्या है। और कई | | है, उस रास्ते हम कभी गुजरे नहीं। डा मजेदार....कि कष्ण का सत्र और मोहम्मद के जीवन में इस जीवन में जो भी श्रेष्ठतम अनभव हैं, वे सभी किसी न किसी व्याख्या होती है। जिंदगी इतनी ही रहस्यपूर्ण है। लेकिन हिंदू- | अर्थों में देने से पैदा होते हैं। प्रेम का अनुभव है, वह देने का मुसलमान, जो पागलों के गिरोह हैं, वे नहीं समझ पाते। मोहम्मद | अनुभव है। केवल वे ही लोग प्रेम अनुभव कर पाते हैं, जो दे सकते ने कह रखा था अपनी पत्नी को, अपने परिवार के लोगों को, अपने | | हैं। अन्यथा अनुभव नहीं कर पाते। प्रार्थना का अनुभव है, वह देने मित्रों को, प्रेम करने वालों को कि अगर तुम घर में भोजन बनाओ, का अनुभव है। वे ही लोग अनुभव कर पाते हैं, जो चरणों में अपने तो जहां तक उसकी सुगंध पहुंचे, समझो वहां तक निमंत्रण हो को परमात्मा के दे पाते हैं। एक वैज्ञानिक को एक आनंद की प्रतीति गया। निमंत्रण देने तुम गए नहीं, लेकिन तुम्हारे घर में बने हुए होती है, क्योंकि वह अपने समस्त जीवन को विज्ञान के लिए दे भोजन की सुगंध जहां तक पहुंच गई, वहां तक निमंत्रण हो गया। | पाता है। एक चित्रकार को एक आनंद का अनुभव होता है, क्योंकि उन सबको खबर कर आना कि आ जाओ। | वह अपने समस्त जीवन को कला को दे पाता है। एक संगीतज्ञ को यह जो सुगंध भी पहुंचे, तो निमंत्रण हो जाए! तो पहले उन | | आनंद अनुभव होता है, क्योंकि वह अपना समस्त, सब कुछ सबको खिला देना, फिर बच रहे, तो खुद खा लेना। सारे जीवन के | | संगीत को दे पाता है। जहां भी इस जगत में आनंद का अनुभव है, लिए। जीवन में जो भी मिले, जिसने अपने जीवन को ही यज्ञ बना | वहां पीछे सदा दान खड़ा ही रहता है, चाहे वह दान दिखाई पड़ता लिया, जीवन में जो भी मिले-चाहे ज्ञान, चाहे धन, चाहे अन्न, हो या न दिखाई पड़ता हो। चाहे शक्ति—जो भी जीवन में मिले, उसे पहले बांट देना। और ___ इसलिए कृष्ण कहते हैं, श्रेष्ठ है वह पुरुष, जो पहले बांट देता, जब कोई और लेने वाला न बचे, तो जो आखिरी हिस्सा बच फिर जो बचता है, उसे ही अपना भाग, उसे ही अपना भाग मान जाए-यदि बच जाए तो वह अपने लिए उपयोग कर लेना। | लेता है। जो बच जाता है, उसे ही अपना भाग मान लेता है। लेकिन ऐसा व्यक्तित्व श्रेष्ठ है। सदा ही बहुत बच जाता है उनके पास, जो बहुत देने में समर्थ हैं। ___ लेकिन हमारा सारा व्यक्तित्व निकृष्ट है। अगर कभी हम बांटते और जो बहुत रोकने में समर्थ हैं, उनके पास कभी कुछ भी नहीं हैं, तो तभी बांटते हैं, जब वह हमारे काम का नहीं होता। अगर बचता है। 3581 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Im+ समर्पित जीवन का विज्ञान AM असल में, वे रोकने में इतने समर्थ हैं कि जब खुद को भी देने दुखी आदमी दूसरों को दबाने, सताने के हजार उपाय करने का वक्त आता है, वे नहीं दे पाते। जो आदमी रोकने में इतना समर्थ | लगेगा। और दुख की चर्चा तो करेगा ही, जो भी मिलेगा, उससे है कि कभी किसी को कुछ नहीं दिया, पक्का समझना कि यह दुख की चर्चा करेगा। और अगर आपके चेहरे पर उसकी दुख की आदमी अपने को भी उसमें से नहीं दे पाएगा। इसको देने की आदत चर्चा से कोई कालिमा नहीं आई, तो दुखी होगा। अगर कालिमा ही नहीं है। यह अपने को भी वंचित रख लेगा, दूसरों को भी वंचित आई और आप भी उदास हुए, तो उसका चित्त हलका होगा। दुखी रख देगा। यह सिर्फ चीजों को सम्हाले हुए मर जाएगा। यह पागल | आदमी दुख बांटने की कोशिश करता है। लेकिन दुख बांटा नहीं है, यह विक्षिप्त है, आब्सेस्ड है। जा सकता। और जो बांटता है, उसका भी उसी तरह दुख बढ़ जाता इस तरह के व्यक्ति के लिए वे कह रहे हैं कि ऐसा व्यक्ति श्रेष्ठ है, जैसा आनंद बांटने से आनंद बढ़ जाता है। की, श्रेष्ठत्व की, गरिमापूर्ण जीवन की यात्रा पर नहीं निकल पाता - इसको भी समझ लेना जरूरी है। बांटना बहुत मुश्किल प्रक्रिया है। ऐसे व्यक्ति का जीवन यज्ञ नहीं बन पाता। है। क्यों मुश्किल प्रक्रिया है? इंट्रिजिकली मुश्किल है, आंतरिक स्वभाव से मुश्किल है। आनंद इसलिए बांटा जा सकता है कि दूसरे आनंद लेने को तैयार हैं। दुख लेने को कोई तैयार नहीं है, इसलिए प्रश्नः भगवान श्री, एक मित्र पूछते हैं कि आपने | नहीं बांटा जा सकता। आखिर बांटिएगा न किसी को, तो वह तैयार अभी कहा कि आनंद आदि जो मिले, उसे बांट देना | भी होना चाहिए लेने को! तभी बांट सकते हैं न? बांटने में दूसरा चाहिए। तो उसी तरह क्या दुख को भी बांट देना | भी तो मौजूद है, आप अकेले नहीं हैं। चाहिए? इस पर आपका क्या खयाल है? आनंद बांटा जा सकता है, क्योंकि दूसरे उसे लेने को तैयार हैं। दुख बांटा नहीं जा सकता, क्योंकि कोई उसे लेने को तैयार नहीं है। जिसके दरवाजे पर जाएंगे, वही दरवाजा बंद कर लेगा। आप और 7 ख बांटा नहीं जा सकता। दुख बांटा ही नहीं जा सकता। | दुखी होकर वापस लौटेंगे कि हम गए थे दान करने और दरवाजा 2 जैसे आनंद रोकने से रोका नहीं जा सकता, सिर्फ चेष्टा बंद कर लिया! जिसके भिक्षापात्र में डालेंगे, वह भिक्षापात्र की जा सकती है; दुख बांटा नहीं जा सकता। लेकिन छिपाकर और भाग खड़ा होगा। आप और दुखी होकर लौटेंगे। हम दुख को बांटने की कोशिश करते हैं। और आनंद, जो कि बांटा | दुख बांटा नहीं जा सकता, क्योंकि कोई दुख लेने को तैयार नहीं ही जा सकता है, उसे हम रोकने की कोशिश करते हैं। हम दुख को | है। दुख ऐसे ही इतना ज्यादा है कि अब और आपसे कौन लेने को बांटने की बहुत कोशिश करते हैं। कैसे करते हैं? | तैयार होगा! लोग आनंद लेने को तैयार हैं, क्योंकि लोग दुखी हैं। एक तो दुखी आदमी दूसरों को दुखी करना शुरू कर देता है। | लोग दुख लेने को तैयार नहीं हैं, क्योंकि लोग दुखी पहले से ही हजार तरकीबें निकालता है दूसरे को दुखी करने की। असल में उसे काफी हैं। लेकिन दुख देने की कोशिश चलती है। और देने में किसी को सुखी देखकर बड़ी बेचैनी और तकलीफ होने लगती है। आपका दुख उसी तरह बढ़ेगा, जिस तरह आनंद भी देने में बढ़ता अगर दुनिया सुखी है, तो उसकी पीड़ा हजार गुनी ज्यादा हो जाती है। लेकिन बढ़ने की प्रक्रिया दोनों की अलग होगी, परिणाम एक है; उसका दुख भारी हो जाता है। तो दुखी आदमी दूसरे को दुखी होगा। आनंद इसलिए बढ़ेगा कि जैसे ही आप किसी को आनंद देते करना शुरू कर देता है, दुखी देखने की आकांक्षा शुरू कर देता है, हैं, आपकी आत्मा विस्तीर्ण होती है। असल में दूसरे को आनंद देने दुखी देखकर थोड़ा प्रसन्न होने लगता है। और दुखी आदमी दूसरों की कल्पना करने से भी आप बड़े होते हैं, छोटे नहीं रह जाते। से निरंतर अपने दुख की बात करके भी उनको उदास करना चाहता असल में दूसरे को आनंदित देखना ही आत्मा का फैलाव है। है, दुखी करना चाहता है। व्यवहार भी करता है, अगर एक आदमी बहुत कठिन है। दूसरे के आनंद में आनंदित होना बड़ी कठिन दुखी है, तो वह दूसरों के साथ ज्यादा क्रोधित होगा; अगर आनंदित | | बात है। दूसरे के दुख में दुखी होना उतनी कठिन बात नहीं है, दूसरे है, तो ज्यादा क्रोधित नहीं होगा। आनंदित आदमी क्रोधित हो नहीं | | के आनंद में आनंदित होना बड़ी कठिन बात है। किसी के घर में सकता, दुखी आदमी ही हो सकता है। | आग लग गई है, तो आप दुखी हो पाते हैं; लेकिन आपके बगल 359 Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 14 में किसी ने एक महल खड़ा कर लिया, तो सुखी नहीं हो पाते। किसी की पत्नी मर गई है, तो आप दुखी हो पाते हैं; लेकिन किसी को सुंदर पत्नी मिल गई है, तो आप फिर भी दुखी होते हैं, सुखी नहीं हो पाते। दूसरे के सुख में सुख अनुभव करना बहुत बड़ा आत्मिक फैलाव है। लेकिन इससे भी बड़ा फैलाव तो तब होगा, जब हम दूसरे को आनंद देने में भी समर्थ होंगे। यह तो दूसरे का अपना आनंद है, उसमें हम आनंदित हों, तो भी आत्मा बड़ी होती है; दूसरे को आनंद देना तो और भी बड़ी घटना है। बड़ी, जिसको कहें, एक्सपैंशन आफ कांशसनेस, चेतना का विस्तार है। चेतना का विस्तार होता है आनंद को देने से। और जब चेतना का विस्तार होता है, तो आपका परमात्मा से आनंद लेने का आयतन बढ़ जाता है। जितनी बड़ी आत्मा है आपके पास, उतनी ही परमात्मा की वर्षा आप पर हो सकती है। छोटी-सी आत्मा है, छोटा-सा पात्र है, तो उतनी वर्षा होती है। आत्मा बड़ी हो जाती है, तो उतना बड़ा । जिस दिन किसी के पास पूरे ब्रह्मांड जैसी आत्मा हो जाती है, तो ब्रह्म का सारा आनंद उस पर बरस पड़ता है। पात्रता चाहिए। लेकिन ध्यान रहे, दुख में उलटा होता है। जब आप किसी को दुख देना चाहते हैं, तो आप छोटे हो जाते हैं। आपने कभी दुख दिया हो, तो आपको पता चलेगा, कि एक संकोच का, फिजिकल संकोच का पता चलता है; भीतर कुछ सिकुड़ जाता है। किसी को मारें एक चांटा, तो आपको पता लगेगा कि कोई चीज भीतर सिकुड़ गई है। किसी के घाव पर मलहम पट्टी रखें, और आपकोफिजिकली मैं कह रहा हूं – भौतिक रूप से आपको अनुभव होगा कि भीतर कोई चीज फैल गई, समथिंग एक्सपैंडिंग। रास्ते पर गिर पड़े किसी को उठाएं और भीतर देखें, तो आपको पता लगेगा, कोई चीज बड़ी हो गई। किसी की छाती में छुरा भोंक दें, तो आपको पता लगेगा, भीतर कोई चीज एकदम छोटी हो गई। दुख जब आप दूसरे को देते हैं, तब आप एकदम सिकुड़ जाते हैं। और जितने सिकुड़ उतना ही आनंद पाने में असमर्थ हो जाते हैं। अब यह बड़े मजे की बात है कि आनंद के लिए बड़ा हृदय चाहिए और दुख के लिए छोटा हृदय चाहिए। दुख छोटे हृदय को पात्र बनाता है आनंद बड़े हृदय पात्र बनाता है। दुख चूहों जैसा है, छोटी-छोटी पोलों में प्रवेश करता है। जितना छोटा हृदय होता है, दुख उतने जल्दी प्रवेश करता है। क्योंकि जितना छोटा हृदय रहता है, उतना ही कम प्रकाशित है। वहां प्रकाश मुश्किल है पहुंचना । अंधेरा, गंदगी, वह सब वहां होगी । और जब आप दूसरे को दुख देते चले जाते हैं, तो धीरे-धीरे | हृदय सिकुड़कर पत्थर की भांति कड़ा हो जाता है। हम ऐसे ही नहीं | कहते हैं भाषा में कि फलां आदमी पाषाण हृदय है; हम ऐसे ही नहीं कहते कि पत्थर जैसा उसका हृदय है! क्यों? पत्थर जैसे हृदय में क्या बात होती है? पत्थर में बिलकुल भी जगह नहीं होती प्रवेश की। ठोस, उसमें कहीं से कोई चीज प्रवेश नहीं कर सकती। जितना | हृदय पत्थर जैसा हो जाता है - और दूसरे को दुख देने में पंत्थर जैसा हो ही जाता है। दूसरे को दुख देने के लिए पत्थर जैसा होना | जरूरी है, अन्यथा दूसरे को दुख नहीं दे सकते। और जितने पथरीले हो जाएंगे, उतने ही आनंद को पाने की क्षमता क्षीण हो जाएगी। | दुख है क्या ? आनंद को पाने की जो अक्षमता है, आनंद को पाने की जो इनकैपेसिटी है, जो अपात्रता है, वही दुख है । जितना हम कम आनंद को पा सकते हैं, उतने दुखी हो जाते हैं। और जितना हम दुख बांटते हैं, उतने दुखी होते चले जाते हैं। क्योंकि कोई दुख तो लेता नहीं, दुख लौट लौटकर आ जाता है। हर जगह द्वार बंद | मिलते हैं। और हृदय क्रोधित होता है, और दुख लौट आता है। और हृदय क्रोधित होता है, और हम बांटने जाते हैं, और दरवाजे बंद होते चले जाते हैं। आखिर में दुखी आदमी पाता है, आइलैंड बन गया, अकेला रह गया, लोनली हो गया, कोई नहीं है उसका संगी-साथी | दुख में कोई मित्र होता है ? दुख में कोई संगी-साथी होता है ? दुख में आप अकेले हो जाते हैं। एक पंक्ति: याद आती है बचपन में पढ़ी हुई । एक आंग्ल | कवि की पंक्ति है, रोओ और तुम अकेले रोते हो, वीप एंड यू वीप एलोन; हंसो और सारा जगत तुम्हारे साथ हंसता है, लाफ एंड दि होल वर्ल्ड लाफ्स विद यू | देखें करके : रोओ और तुम अकेले रोते हो, हंसो और सारा जगत तुम्हारे साथ हंसता है। जितना दुखी आदमी, उतना अकेला रह जाता है। जितना आनंदित आदमी, उतना ही सबके साथ एक हो जाता है। इसलिए | दुख बांटा नहीं जा सकता, बांटा जाता है। आनंद बांटा जा सकता है, बांटा नहीं जाता है। आनंद जो बांटता है, उसका आनंद बढ़ | जाता है। दुख जो बांटता है, उसका दुख बढ़ जाता है। 360 अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः । यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ।। १४ ।। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ am समर्पित जीवन का विज्ञान - संपूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं और अन्न की उत्पत्ति क्योंकि प्रकृति मां है अगर, और आदमी उसका दुश्मन है, तो वृष्टि से होती है। और वृष्टि यज्ञ से होती है। और यह यज्ञ | अपनी मां से दोस्ती कितने दिन चलेगी? उस मां से भी दुश्मनी हो __कर्मों से उत्पन्न होने वाला है। ही जाने वाली है। इस सूत्र के लिए मैं यह क्यों कह रहा हूं कि यह समझ लेना जरूरी है ? यह समझ लेना इसलिए जरूरी है कि जब लोग अत्यंत र स सूत्र को समझने के लिए कुछ और बातें भी भूमिका | सरल भाव से भरते हैं और जीवन को और अपने को तोड़कर नहीं र के रूप में समझनी जरूरी हैं। देखते-कोई गल्फ, कोई खाई नहीं देखते-तो फिर उस स्थिति ___ पूर्व और पश्चिम के दृष्टिकोण में एक बुनियादी फर्क | में सब कुछ परिवर्तित होता है और ढंग से। है। और चूंकि आज सारी दुनिया ही पश्चिम के दृष्टिकोण से जैसे कृष्ण कहते हैं, अन्न से बनता है मनुष्य। अन्न से बनता है प्रभावित है-पूर्व भी—इसलिए इस सूत्र को समझना बहुत कठिन मनुष्य। हम कहेंगे, अन्न से? बड़ी मैटीरियलिस्ट, बड़ी भौतिकवादी हो गया है। बात कहते हैं कृष्ण। और कृष्ण जैसे आध्यात्मिक व्यक्ति से ऐसी पूर्व ने सदा ही प्रकृति को और मनुष्य को दुश्मन की तरह नहीं बात! फिर वह पश्चिम का दृष्टिकोण दिक्कत देता है। असल में लिया, मित्र की तरह लिया। प्रकृति को हमने कहा मां, पृथ्वी को पश्चिम कहता है कि यह सब पदार्थ है। पूर्व तो कहता ही नहीं कि हमने कहा माता, आकाश को हमने कहा पिता। यह सिर्फ काव्य पदार्थ कुछ है। पूर्व तो कहता है, सभी परमात्मा है। अन्न भी। अन्न नहीं है, यह एक दृष्टि है, जिसमें हम जीवन को समग्रीभूत एक भी पदार्थ नहीं है, वह भी जीवंत परमात्मा है। परिवार मानते हैं, इस सारे विश्व को एक परिवार मानते हैं। इसलिए कृष्ण जब कहते हैं, अन्न से निर्मित होता है मनुष्य, तो इसलिए हमने कभी प्रकृति को जीतने की भाषा नहीं सोची। कोई इस भूल में न पड़े कि वे वही कह रहे हैं जैसा कि भौतिकवादी कांकरिंग दि नेचर! पश्चिम में प्रकृति और आदमी के बीच कहता है कि बस खाना-पीना, इसी से निर्मित होता है; मिट्टी, बुनियादी शत्रुता की दृष्टि है। इसलिए वे कहते हैं, जीतना है प्रकृति पदार्थ, तत्व, इन्हीं से निर्मित होता है। वे यह नहीं कह रहे हैं। यहां को। अब मां को कोई जीतता नहीं! लेकिन पश्चिम में प्रकृति और मामला बिलकुल उलटा है। यहां वे यह कह रहे हैं कि अन्न से जीवन और जगत और मनष्य के बीच एक शत्रता का भाव निर्मित होता है मनष्य: और जब अन्न से मनष्य निर्मित होता है. तो है-जीतना है, लड़ना है, हराना है। अन्न भी जीवंत है, जीवन है। अन्न भी पदार्थ नहीं है। और अन्न बट्रेंड रसेल की एक किताब है, कांक्वेस्ट आफ नेचर। पश्चिम | आता है वृष्टि से। वह आता है वर्षा से। वर्षा न हो, तो अन्न न हो। का कोई दार्शनिक लिख सकता है, प्रकृति की विजय। लेकिन कोई | यहां वे जोड़ रहे हैं, जीवन और प्रकृति को गहरे में। कणाद, कोई कपिल, कोई महावीर, कोई बुद्ध, कोई कृष्ण, पूर्व का वे कहते हैं, अन्न आता है वर्षा से। और वर्षा कहां से आती है? कोई भी दार्शनिक नहीं कह सकता, प्रकृति की विजय। क्योंकि हम | | अब वर्षा कहां से आती है? कृष्ण कहते हैं, यज्ञ से। वैज्ञानिक प्रकृति के ही तो हिस्से हैं, अंश हैं। उसकी विजय हम कैसे करेंगे? | कहेगा, बेकार की बात कर रहे हैं! वर्षा और यज्ञ से? पागल हैं! वह विजय वैसा ही पागलपन है, जैसे मेरा हाथ सोचे, शरीर की वैज्ञानिक कहेगा, वर्षा! वर्षा यज्ञ से नहीं आती, वर्षा बादलों से विजय कर ले। पागलपन है। मेरा हाथ शरीर की विजय कैसे | | आती है। लेकिन कृष्ण पूछना चाहेंगे कि बादल कहां से आते हैं? करेगा? मेरा हाथ मेरे शरीर का एक हिस्सा है। मेरा हाथ मेरा शरीर | विज्ञान उत्तर देता चला जाएगा, समुद्र से आता है, नदी से आता है। ही है। हाथ लड़ेगा किससे? जीतेगा किससे? जीतने की भाषा ही | | लेकिन अंततः सवाल यह है कि क्या मनुष्य में और आकाश में खतरनाक है। चलने वाले बादलों के बीच कोई आत्मिक संबंध है या नहीं है? लेकिन पश्चिम कांफ्लिक्ट, द्वंद्व की भाषा में सोचता है। वह कृष्ण जब कहते हैं कि वर्षा आती है यज्ञ से, तो वे यह कह रहे सोचता है, प्रकृति और हम दुश्मन हैं। यह बड़े आश्चर्य की बात हैं कि वर्षा और हमारे बीच भी संबंध है। वर्षा हमारे लिए आती है; है। और इसलिए पश्चिम में अगर बेटा बाप का दुश्मन हुआ जा हमारी कामनाओं, हमारी आकांक्षाओं, हमारी भूख, हमारी प्यास रहा है, तो ठीक कोरोलरी है। उसका परिणाम होने वाला है। को पूरा करने आती है। वे यह कह रहे हैं कि हमारी प्रार्थनाएं सुनकर 361] Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Om गीता दर्शन भाग-1 AM आती है। समझने की बात सिर्फ इतनी है कि प्रकृति और मनुष्य के | | हो गई, क्योंकि उन्होंने सारी की सारी प्रकृति को अस्तव्यस्त कर बीच कोई लेन-देन है, कोई कम्यूनिकेशन है या नहीं है? पश्चिम दिया है। कहता है, कोई कम्यूनिकेशन नहीं है; प्रकृति बिलकुल अंधी है; | | पिछली बार तिब्बत में एक गांव में ऐसा हुआ कि डी.डी.टी. उसे मनुष्य से कोई मतलब नहीं है। लेकिन ऐसा दिखाई नहीं पड़ता। | छिड़का गया। तिब्बत के ग्रामीण, उन्होंने बहुत कहा कि मत वैज्ञानिक खोजों से भी दिखाई नहीं पड़ता। दो-चार उदाहरण मैं देना | | छिड़किए, मच्छड़ चलते हैं, कोई हर्जा नहीं; हमारे साथी हैं। और चाहूंगा, ताकि खयाल में बात आ सके। हम भी हैं, वे भी हैं। और हम सदा से साथ रह रहे हैं। ऐसी कोई शायद आपको पता न हो, जब भी युद्ध होते हैं, जब भी युद्ध | ज्यादा अड़चन भी नहीं है। लेकिन एक्सपर्ट तो मान नहीं सकता! होते हैं, तो युद्ध के बाद बच्चे जो पैदा होते हैं, उनमें पुरुष बच्चों | तो उसने डी.डी.टी. छिड़ककर सारे मच्छड़ मार डाले। गांव के बूढ़े की संख्या एकदम से बढ़ जाती है और स्त्री बच्चों की संख्या कम | | प्रधान ने, लामा ने कहा भी कि भई, मच्छड़ तो मर जाएंगे, वह तो हो जाती है। बड़ी हैरानी की बात है। अब वैज्ञानिक मुश्किल में पड़ा | ठीक है। लेकिन मच्छड़ों के साथ, उनके मरने के साथ कोई और है दो युद्धों के बाद। क्योंकि कोई अर्थ समझ में नहीं आता। युद्ध दिक्कत तो हमें खड़ी नहीं हो जाएगी? क्योंकि वे सदा से थे और से क्या मतलब कि पुरुष ज्यादा पैदा हों कि स्त्रियां ज्यादा पैदा हों! | | हमारे जीवन के हिस्से थे; उनके गिरने से कहीं और ईटें तो नहीं गिर युद्ध से क्या संबंध! लेकिन युद्ध के बाद...और आमतौर से सौ | | जाएंगी? लेकिन उन्होंने कहा, क्या पागलपन की बातें करते हैं! लड़कियां पैदा होती हैं, तो एक सौ सोलह लड़के पैदा होते हैं। और | | लेकिन हुआ यही। मच्छड़ तो मरे सो मरे, बिल्लियां भी मर गईं। पंद्रह साल के होते-होते सौ लड़कियां रह जाती हैं और सौ लड़के | | वह डी.डी.टी. में बिल्लियां मर गईं। बिल्लियां मर गई, तो चूहे रह जाते हैं, सोलह लड़के मर जाते हैं। लड़के का शरीर, स्त्री के | | बढ़ गए। चूहे बढ़ गए तो मलेरिया तो गांव के बाहर हुआ, प्लेग शरीर से रेजिस्टेंस में कमजोर है। इसलिए लड़कियां सोलह कम | | गांव के भीतर आ गई। गांव के प्रधान लामा ने कहा कि अब बड़ी पैदा होती हैं; लड़के सोलह ज्यादा पैदा होते हैं; क्योंकि विवाह की | | मुश्किल में हमको डाल दिया! मलेरिया फिर भी ठीक था, यह प्लेग उम्र आते-आते तक बराबर संख्या रह जानी चाहिए। अगर बराबर और मुसीबत है। और फिर मलेरिया से तो हम लड़ ही लेते थे, अब लड़के-लड़कियां पैदा हों, तो लड़के कम पड़ जाएंगे। लेकिन युद्ध | | यह प्लेग हमारे लिए बिलकुल नई घटना है। अब इसके लिए हम ' के बाद अनुपात बहुत हैरानी का हो जाता है, अनुपात एकदम बढ़ क्या करें? जाता है। पुरुष बहुत बड़ी संख्या में पैदा होते हैं। क्योंकि युद्ध पुरुषों तो उन्होंने कहा, ठहरो; एक्सपर्टस ने कहा, ठहरो, हम दूसरा को मार डालता है। | पाउडर लाते हैं, जिससे हम चहों को मार डालेंगे। लेकिन उस बढे ___ अगर प्रकृति और मनुष्य के बीच कोई बहुत आंतरिक संबंध नहीं ने कहा, अब हम तुम्हारी न मानेंगे। क्योंकि पहले ही हमने तुमसे है, तो यह घटना नहीं घटनी चाहिए। अगर आंतरिक संबंध नहीं है, | पूछा था कि मच्छड़ मर जाएं, तो कोई और दिक्कत तो न आएगी! तो इसकी भी कोई जरूरत नहीं है कि कितनी लड़कियां पैदा हों और लेकिन तमने कहा, कोई दिक्कत न आएगी। अब हम तमसे पछते कितने लड़के पैदा हों! कितने ही हों। कभी ऐसा भी हो सकता है कि हैं कि अगर चूहे मर जाएं और प्लेग गांव के बाहर हो, कोई किसी जमाने में पुरुष इतने ज्यादा हो जाएं कि स्त्रियां बहुत कम पड़ महाप्लेग गांव के भीतर आ जाए, तो जिम्मेदार कौन होगा? और जाएं। कभी ऐसा हो सकता है कि स्त्रियां बहुत ज्यादा हो जाएं और अब हम तुम पर भरोसा नहीं कर सकते। पुरुष कम पड़ जाएं। लेकिन ऐसा कभी नहीं होता। जरूर स्त्री और उस एक्सपर्ट ने कहा, फिर तुम क्या करोगे? तो उस बढ़े आदमी पुरुष के पैदा होने के पीछे प्रकृति कोई हार्मनी बनाए रखती है, कोई ने कहा, हम पुरानी व्यवस्था फिर से निर्मित कर देंगे। कैसे करोगे? व्यवस्था बनाए रखती है। जीवन और हम जुड़े हैं, गहरे में जुड़े हैं। | | तो उसने आस-पास के गांवों से बिल्लियां उधार बुलवाईं और गांव अभी एक नई साइंस है, इकोलाजी; अभी नई विकसित होती है। | में छोड़ी। बिल्लियां आईं, चूहे कम हुए, मच्छड़ वापस लौट आए। आज नहीं कल इकोलाजी जब बहुत विकसित हो जाएगी, तो कृष्ण इकोलाजी का मतलब है, जिंदगी एक परिवार है, उस परिवार में का वचन पूरी तरह समझ में आ सकेगा। यह इकोलाजी नया विज्ञान सब चीजें जुड़ी हैं; सब संयुक्त है, एक ज्वाइंट फेमिली है। सड़क है, जो पश्चिम में विकसित हो रहा है; क्योंकि वहां मुश्किल खड़ी के किनारे पड़ा हुआ पत्थर भी आपकी जिंदगी का हिस्सा है। अब 362 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20+ समर्पित जीवन का विज्ञान AAM सारी दुनिया में हमने वृक्ष काट डाले। जब हमने वृक्ष काट डाले, हूं-जो इस मुल्क ने अकेले हिम्मत की है कहने की—वह यह है तब हमको पता चला कि हम मुश्किल में पड़ गए। क्योंकि वृक्ष कट कि अगर हम भी ठंडे हो जाएं, तो सूरज भी कुछ गवां देगा। अब गए, तो बादल अब वर्षा नहीं करते। लेकिन हमें पहले पता नहीं यह जरा कठिन पड़ता है समझना। लेकिन यह भी समझ में आ था कि वृक्ष काटने से बादल वर्षा नहीं करेंगे। हमने कहा, क्या सकेगा। अगर जीवन इंटररिलेटेड है, अगर पति के मरने से पत्नी करना है! जमीन साफ करो। लेकिन वे वृक्ष बादलों को निमंत्रित | में कुछ कम हो जाता है, तो पत्नी के मरने से पति में भी कुछ कम करते थे। अब वे वृक्ष निमंत्रण नहीं भेजते बादलों को। अब बादल | | होगा। अगर सूरज के मिटने से पृथ्वी ठंडी हो जाती है, तो पृथ्वी के चले जाते हैं, उनको कोई रोकता नहीं। ठंडे होने से सूरज में भी कुछ टूटेगा और बिखरेगा। जीवन संयुक्त ___ अभी हमने जब चांद पर पहली दफा अपना अंतरिक्ष यान भेजा, है, जुड़ा हुआ है। तो हमें पता नहीं कि हमने क्या-क्या किया है। वह पता चलने में | । तो जब कृष्ण कहते हैं, अन्न से बनता है मनुष्य, तो वे यह कह शायद पचास वर्ष लगेंगे। क्योंकि पृथ्वी के दो सौ मील के बाद, | | रहे हैं कि पदार्थ और चेतना में कोई बुनियादी भेद नहीं है, दोनों एक जहां हवा समाप्त होती है, वहां एक बड़ी पर्त-अनेक-अनेक ही चीज हैं। पदार्थ से ही बनती है आत्मा। इसका मतलब सिर्फ गैसेस की बनी हुई पर्त, जो सदा से पृथ्वी को घेरे हुए है—उसकी | | इतना है कि पदार्थ भी पदार्थ नहीं है। वह भी छिपी हुई, लेटेंट एक मोटी पर्त, एक दीवार की तरह मोटी पर्त पूरी पृथ्वी को घेरे हुए | आत्मा है। वह भी गुप्त आत्मा है। आप अन्न खाते हैं, वह खून है। उस पर्त के कारण सूरज की वही किरणें पृथ्वी तक आ पाती हैं, | | बनता है, हड्डियां बनता है, चेतना बनता है, होश बनता है, बुद्धि जो जीवन के लिए हितकर हैं। और वे किरणें बाहर रह जाती हैं, जो | | बनता है। निश्चित ही जो अन्न बनता है, वह उसमें छिपा है। वह हितकर नहीं हैं। लेकिन अब वैज्ञानिकों को पता चला है कि जितने भी जीवन है। कहना चाहिए वह भी बिल्ट इन जी जीवन है उसके हमने अंतरिक्ष यान भेजे हैं, जहां-जहां से हमने भेजे हैं, वहां-वहां भीतर, जो आपमें आकर फैल जाता और खिल जाता है। विंडोज पैदा हो गई हैं। जहां-जहां से वह पर्त तोड़कर यान गया है, अन्न आता है वर्षा से, वर्षा आती है यज्ञ से। क्यों? यज्ञ का यहां वहां खिड़कियां पैदा हो गई हैं। उन खिड़कियों से सूरज की वे क्या अर्थ है? किरणें भी भीतर आने लगीं, जो कि जीवन के लिए अत्यंत | । यहां कृष्ण यह कह रहे हैं कि जब मनुष्य अच्छे काम करता है खतरनाक हैं। और जब मनुष्य परमात्मा पर समर्पित होकर जीता है, तो परमात्मा कृष्ण यह कह रहे हैं इस छोटे-से सूत्र में कि जीवन एक संयुक्त | | उसकी फिक्र करता है सब तरफ से। पूरी प्रकृति उसकी चिंता करती घटना है। आकाश में बादल भी चलता है, तो वह भी हमारे प्राणों । है सब तरफ से। बादल वर्षा डालते हैं, वृक्ष फलों से भर जाते हैं, की धड़कन से जुड़ा है। सूरज भी चलता है, तो वह भी हमारे हृदय नदियां बहती हैं, सूरज चमकता है, जीवन में एक मौज और एक के किसी हिस्से से संयुक्त है। अभी सूरज ठंडा हो जाए, तो हम खुशी और एक रंग और एक सुगंध होती है। और जब आदमी बुरा यहीं सब ठंडे हो जाएंगे। दस करोड़ मील दूर है सूरज। हमको पता होना शुरू होता है और आदमी जब अहंकार से भरता है और ही नहीं चलेगा कि कब ठंडा हो गया। क्योंकि वहां से कोई अखबार आदमी कहने लगता है, मैं ही सब कुछ हूं, कोई परमात्मा नहीं, तब भी नहीं निकलता! वहां से कोई सूचना भी नहीं आएगी। पर हमको जीवन सब तरफ से विकृत होना शुरू हो जाता है। यह भी पता नहीं चलेगा कि वह ठंडा हो गया, क्योंकि उसके ठंडे यज्ञ का अर्थ है, परमात्मा को समर्पित लोग, परमात्मा को होने के ठीक आठ मिनट बाद हम भी ठंडे हो जाएंगे। ठीक आठ | समर्पित कर्मी जीवन को ऐसा सामंजस्य, ऐसी हार्मनी देते हैं कि मिनट बाद। आठ मिनट बाद–इसलिए इतनी देर लगेगी-कि | | सारी प्रकृति उनके लिए अपना सब कुछ लुटाने को तैयार हो जाती आठ मिनट तक उसकी पुरानी किरणें हमारे काम आती रहेंगी, जो | | है। अब इसको भी मैं एक छोटा-सा उदाहरण देकर आपके खयाल चल चुकी हैं उसके ठंडे होने के पहले। आठ मिनट बाद हम ठंडे | | में लाना चाहूं, तो आए, शायद आ जाए। हो जाएंगे। आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में एक छोटी-सी प्रयोगशाला है, इससे उलटा भी सच है। अगर सूरज से हम जुड़े हैं और अगर डिलाबार। वहां वे कुछ बहुत गहरे प्रयोग कर रहे हैं। उसमें से एक सूरज के बिना हम ठंडे हो जाएंगे, तब दूसरी बात आपसे कहता प्रयोग मैं आपको याद दिलाना चाहता हूं। वह प्रयोग है कि उन्होंने 363 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 AM दो क्यारियों में बीज बोए। एक-से बीज. एक-सी खाद. एक-सी किसी के पास जाते हैं. तो लगता है कि आलिंगन भर लें. कोई जैसे क्यारी, एक-सा सूरज का रुख। लेकिन एक क्यारी के ऊपर उन्होंने पास बुलाता है; कोई चीज खींचती है, अट्रैक्ट करती है। पॉप म्यूजिक बजाया। पॉप म्यूजिक, जो आज सारी दुनिया की नई । लेकिन ये तो खैर मनोभाव हैं, हो सकता है, कल्पना हो। फ्रांस जेनरेशन का संगीत है। संगीत कम है, विसंगीत ज्यादा है। लेकिन के एक वैज्ञानिक ने एक यंत्र विकसित किया है, जो यंत्र बताता है उसका नाम तो संगीत ही है। तो पॉप म्यूजिक बजाया रोज एक घंटे। कि व्यक्ति से जो तरंगें निकल रही हैं, वे रिपल्सिव हैं या अट्रैक्टिव और दूसरी क्यारी पर क्लासिकल, शास्त्रीय संगीत बजाया- | हैं। उस यंत्र के पास, जैसे आप वजन तौलने की मशीन पर खड़े बिथोवन, मोझर्ट, वेजनर-इनका संगीत बजाया। शास्त्रीय | होते हैं और कांटा घूमकर बताता है, ऐसा ही उस मशीन के सामने सही अर्थों में स्वरों का संगम और सामंजस्य है। खडे हो जाते हैं और कांटा घमकर बताना शरू कर देता है कि इस बड़ी हैरानी का अनुभव हुआ। और यह प्रयोग वैज्ञानिकों के द्वारा व्यक्ति से जो किरणें निकल रही हैं, वे लोगों को दूर हटाने वाली किया गया। होंगी कि पास खींचने वाली होंगी। जिस क्यारी पर पॉप म्यूजिक बजाया गया, उस क्यारी के बीजों आज नहीं कल, जब हम मनुष्य के जीवन में और थोड़ी गहराई ने फूटने से इनकार कर दिया। और जिस क्यारी पर शास्त्रीय संगीत | से समझ पाएंगे, तो हमें इन सत्यों का पता चलेगा। और अगर बजाया गया, उसके बीज जल्दी फूट गए, समय के पहले। आज वर्षा खो गई है, और आज अगर अन्न खो गया है, और आज बामुश्किल पॉप वाली क्यारी के बीज टूटे भी, तो उनमें जो अंकुर | अगर सब कुछ खो गया है, और सब दुर्दिन और दुख से भर गया आए, अर्द्धमृत, पहले से ही मरे हुए। उनमें फूल तो लग ही नहीं। | है, तो उसका कुल कारण इतना ही नहीं है, कुल कारण इतना ही सके। और शास्त्रीय संगीत वाली क्यारी पर, जैसे फूल साधारणतः | नहीं है कि संख्या बढ़ गई है; उसका कुल कारण इतना ही नहीं है उन बीजों से आने चाहिए थे, उससे डेढ़ गुने बड़े फूल आए और कि पृथ्वी की पैदा करने की क्षमता कम हो गई है; उसका कुल डेढ़ गुने ज्यादा बड़ी संख्या में आए। कारण इतना ही नहीं है कि हम वैज्ञानिक खाद नहीं डाल पा रहे हैं। ___ अब डिलाबार लेबोरेटरी के वैज्ञानिकों का कहना है कि संगीत नहीं, उसके और गहरे कारण भी हैं। मनुष्य से जो तरंगें निकलती की जो तरंगें पैदा हुईं, उन्होंने अंतर पैदा किया है। क्या संगीत से | | थीं और सारी प्रकृति से उन तरंगों का जो तालमेल था, वह टूट गया जब तरंगें पैदा होती हैं, तो आदमियों के कर्मों से तरंगें पैदा नहीं होती है; जो इनर हार्मनी थी, वह टूट गई है। मनुष्य ने अपने हाथ से ही हैं? और अगर संगीत से तरंगें पैदा होती हैं, तो क्या आदमी की सब तालमेल तोड़ डाला है। वह अकेला खड़ा हो गया है दुश्मन चेतना, चित्त की अवस्थाओं से तरंगें पैदा नहीं होती हैं? क्या | । की तरह। न बादलों से कोई दोस्ती है, न नदियों से कोई प्रेम है। अहंकार से भरा हुआ आदमी अपने चारों तरफ विसंगीत नहीं। वे लोग आज हमें पागल ही मालूम पड़ते हैं, जो किसी नदी को फैलाता है? क्या अहंकार से शून्य, विनम्र आदमी अपने चारों ओर नमस्कार करते हैं। पागल हैं; नदी को और नमस्कार कर रहे हैं! शास्त्रीय संगीत को नहीं फैलाता है? ऐसे तो पागलपन लगता ही है कि नदी को नमस्कार कर रहे हैं। कृष्ण जब कह रहे हैं, यज्ञ से होती है वर्षा, तो वे यह कह रहे हैं लेकिन जिन लोगों ने पहली बार नदी को नमस्कार किया था, उनके कि जब निरहंकारी लोग इस पृथ्वी पर जीते हैं, तो सारा जीवन उनके भाव का आपको कुछ खयाल है? जिन्होंने पहली बार नदी के लिए सब कुछ करने के लिए तैयार हो जाता है। बादल भी वर्षा करते चरणों में सिर रखा था, उनके भाव का कुछ खयाल है? जरूर हैं, पौधे भी अन्न से भर जाते हैं, अन्न भी प्राण को लेकर आता है। उन्होंने नदी से एक मैत्री, एक हार्मनी का अनुभव किया था। जो और जब व्यक्ति गलत तरंगें अपने चारों ओर फैलाने लगते हैं...। पहाड़ों पर चढ़कर नमस्कार करने गए थे, उनके भाव का कोई और यह भी मैं आपको कहना चाहूं कि आप कहेंगे कि संगीत खयाल है? लेकिन आज की दुनिया में भाव सिर्फ बिना भाव की से व्यक्ति की तरंगों का क्या संबंध? व्यक्ति से कोई तरंगें उठती चीज है; उसका कोई भाव नहीं रह गया है, उसका कोई मूल्य ही हैं? तो आपमें से बहुतों को निरंतर अनुभव हुआ होगा कि जब आप | नहीं है। उसका कोई मूल्य ही नहीं है। भावपूर्ण होना मूर्खतापूर्ण किसी एक व्यक्ति के पास जाते हैं, तो अचानक रिपल्सिव मालूम होना हो गया है। इससे बड़ी हालांकि मूर्खता नहीं हो सकती है। होता है कि हट जाएं; जैसे कि कोई चीज आपको धक्का देती है। यह जो कृष्ण कह रहे हैं, यज्ञपूर्ण कर्मों से, यज्ञपूर्ण प्रार्थनाओं 364 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m+ समर्पित जीवन का विज्ञान -AAM से...। तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप आग जलाकर, उसमें गेहूं उसकी झंकार से झंकृत होता है। जीवन एक इकोलाजी है, एक डालकर वर्षा कर लेंगे। यह मैं नहीं कह रहा हूं। आग जलाकर, गेहूं | | परिवार है। इस बात को खयाल में रखें, तो कृष्ण का वह सूत्र समझ डालकर आप वर्षा कर लेंगे, यह मैं नहीं कह रहा हूं। मैं उससे कहीं में आ सकता है। ज्यादा गहरी बात कह रहा हूं। मैं आपसे यह कह रहा हूं कि यह तभी एक श्लोक और ले लें। संभव हो पाएगा, जब प्रकृति और मनुष्य दुश्मन की तरह नहीं, मित्रों की तरह, प्रेमियों की तरह, एक ही चीज के हिस्से की तरह जीते हैं। तब हमारा पूरा जीवन यज्ञ हो जाता है। और उस क्षण में अगर हम | | प्रश्नः भगवान श्री, एक छोटा-सा सवाल है। कुछ आग जलाकर भी बादलों से बात करते हैं, तो उसका कोई अर्थ होता | | दिन पहले गुजरात में कोटिचंडी यज्ञ को आपने है। आज नहीं हो सकता। उस दिन जब इतने भाव से भरकर अगर | | मूर्खतापूर्ण बताया था। इस पर दो शब्द कहें कि उसके हम यज्ञ की वेदी बनाते हैं और उसके चारों तरफ नाचकर बादलों से | क्या कारण थे? प्रार्थना करते हैं...। लेकिन आज नहीं हो सकता। मैंने सुना है, एक गांव में बहुत दिनों से वर्षा नहीं हुई है। गांव के बाहर यज्ञ हो रहा है। सारे गांव के लोग प्रार्थना करने जा रहे हैं। वा ह तो मैं अभी भी कह रहा हूं। आपके कोई कोटिचंडी एक छोटा बच्चा छाता लगाकर निकल आया घर से, बगल में छाता प यज्ञ काम के नहीं हैं। क्योंकि यज्ञ करने के पीछे जो दबाकर। लोगों ने, बड़े-बूढ़ों ने कहा, पागल! छाता घर फेंककर भाव. जो मनःस्थिति. जो मनष्य चाहिए. वह मौजद आ। वर्षा तो हो नहीं रही है दो साल से, छाते का क्या करेगा? तो | | नहीं है। रिचुअल है-मुरदा, मरा हुआ। इसमें कोई अर्थ नहीं है। उसने कहा कि आप सब लोग यज्ञ में जा रहे हैं, मैंने सोचा कि यज्ञ न भी करें, वह आदमी वापस लौटा लें, जो यज्ञ का अधिकारी आपको भरोसा होगा कि आपकी प्रार्थना सुनी जाएगी। इसलिए मैं | | है, तो बिना कोटिचंडी यज्ञ किए वर्षा शुरू हो सकती है। सवाल छाता लेकर चल रहा हूं। असल में कृत्य का नहीं है, सवाल गहरे में भाव का है। आप क्या आपको ही भरोसा नहीं है, तो जलाओ आग, डालो गेहूं उसमें।। करते हैं, यह सवाल नहीं है। वह करने वाला चित्त कौन है, उसका और जो पास में है, वह और खराब करो। उससे कुछ होने वाला सवाल है। वह तो नहीं है। वह तो बिलकुल नहीं है। नहीं है। . वे जो वहां यज्ञ की वेदी पर जो इकट्ठे हुए हैं, उनका चित्त वह एक छोटा बच्चा भर उस गांव में यज्ञ करने का अधिकारी प्रार्थनापूर्ण जरा भी नहीं है। जब यज्ञ पूरा हो जाए, तब जिन ब्राह्मणों था; बाकी सब पूरा गांव अधिकारी नहीं था। और यह बच्चा अगर ने यज्ञ करवाया उनके झगड़े देखिए जाकर! किसी को फीस कम सच में ही...। लेकिन घर के बड़े-बूढ़ों ने डांटा-डपटा और छाता मिली, किसी को दक्षिणा कम मिली; कोई नीचे बैठ गया, कोई रखवा दिया कि रख छाता, पागल कहीं का। कोई छीन ले, छुड़ा ऊपर बैठ गया। इन लोगों ने यज्ञ करवाया है! कोई दस रुपए की ले, भीड़-भाड़ में टूट जाए। पानी दो साल से नहीं गिर रहा है। गिरफीस पर आया है रोज, कोई पंद्रह रुपए की फीस पर आया है रोज। गया ऐसे पानी! यह एक ही बच्चा यज्ञ का अधिकारी हो सकता इनके द्वारा आप बादलों तक संदेश पहुंचाएंगे? था। और यह एक बच्चा भी अगर पूरे प्राणों से प्रार्थना करे, तो | एक मित्र हैं मेरे। कुछ दिन हुए मिलने आए थे। पूरी जिंदगी बादल भी आ सकते हैं। क्योंकि हम सब जुड़े हैं। हम इतने अलग | उन्होंने जैन साधु-साध्वियों को शिक्षण देने में बिताई। साधुनहीं हैं, जितने बादल और हम दिखाई पड़ते हैं। साध्वियों को धर्म की शिक्षा देते पूरी जिंदगी बीत गई। न मालूम इस जगत में कुछ भी अलग-अलग नहीं है, सब संयुक्त है। | | कितने साधु-साध्वी उन्होंने ट्रेंड किए। मैंने उनसे पूछा कि जिंदगी इस जगत में दूर से दूर का तारा भी मेरे हाथों से जुड़ा है। दूर से दूर हो गई, आप अब तक साधु नहीं बने? उन्होंने कहा कि मेरा काम का तारा भी आपके हाथों से जुड़ा है। अनंत-अनंत दूरी पर जो है, तो सिर्फ साधु-साध्वियों को शिक्षा देने का है। सिखाते क्या हैं? वह भी मेरे शब्दों की ध्वनि से प्रतिध्वनित होता है। अनंत दूरी पर । | सिखाते हैं साधु होना। कि साधु ठीक से कैसे होना! साधु के नियम जो है, वह भी मेरे हृदय की झंकार से झंकृत होता है, मेरा हृदय भी | क्या! साधु की साधना क्या! मैंने कहा, चालीस वर्ष तक दूसरों को 365 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 14 सिखाने के बाद भी अभी तक आपको ऐसा नहीं लगा कि आप साधु हो जाएं, तो जिनको आपने सिखाया उनको लगा होगा? कैसे लगेगा? कभी नहीं लगने वाला है। अब भी कहता हूं, आपके कोटिचंडी यज्ञ नहीं कोई काम करेंगे, क्योंकि यज्ञ करने वाली चेतना नहीं है। वह होनी चाहिए। | वही है अर्थपूर्ण । और वह हो, तो पूरा जीवन ही यज्ञ हो जाता है। और वह हो, तो ये यज्ञ जो आप करते हैं, ये भी सार्थक हो सकते हैं। मैं निरंतर इनके खिलाफ बोलता हूं। कई लोगों को भ्रम पैदा हो जाता है कि शायद मैं यज्ञ के खिलाफ हूं। मैं, और यज्ञ के खिलाफ कैसे हो सकता हूं? लेकिन जिसे आप यज्ञ कह रहे हैं, वह यज्ञ ही नहीं है। वह सिर्फ पाखंड है, दिखावा है, धोखा है, व्यर्थ का जाल है। कभी सार्थक रहा होगा। लेकिन जिन लोगों की वजह से वह सार्थक था, वे लोग अब नहीं हैं। उन लोगों को पैदा करें, फिर सार्थक हो सकता है। मैंने एक छोटी-सी कहानी सुनी है। मैंने सुना है, एक घर में छोटे बच्चे थे। बाप बूढ़ा था। बच्चे छोटे ही थे, तभी बाप मर गया। लेकिन बच्चों ने देखा था कि बाप खाना खाने के बाद, उठकर चौके में से, दीवार पर जाता था। दीवार पर एक आला था। उस आले में कुछ उठाता, कुछ करता था। बच्चे बड़े हुए, तो उन्होंने उस आले को सम्हालकर रखा। बाप कुछ करता नहीं था विशेष । आले में उसने एक सींक रख छोड़ी थी दांत साफ करने के लिए। लड़के बड़े हुए और उन्होंने देखा था कि बाप खाना खाने के बाद रोज आले पर जाता था। अब बाप की याद में वे भी जाने लगे। उनको पता तो नहीं था कि सींक वहां रखी है, उससे दांत साफ करने। अभी उनके दांत भी इस योग्य न थे कि उन्हें साफ करने की जरूरत पड़े। तो उन्होंने सोचा, करना क्या वहां जाकर, तो वे नमस्कार कर लेते थे। फिर बड़े हुए। फिर उन्हें बड़ा ऐसा लगा कि नमस्कार तो करते हैं, आले में कुछ है तो नहीं, सिर्फ एक सींक रखी है। पर उन्होंने सोचा कि बाप गरीब था, पैसे लड़कों ने काफी कमाए, तो उन्होंने सोचा कि हटाओ इस सींक को । उन्होंने एक चंदन की लकड़ी खुदवाकर रख ली। जब लकड़ी ही रखनी है, तो इस सींक को क्या रखना, चंदन की लकड़ी खुदवाकर रख ली। फिर और पैसा कमाया, और बड़े हुए। फिर नया मकान बनाया, तो उन्होंने कहा, वह आला तो बनाना ही पड़ेगा। तो उन्होंने कहा, अब आला क्या बनाना, एक छोटा मंदिर ही बना लो। मंदिर बना लो। चंदन की लकड़ी छोटी पड़ी, मंदिर बड़ा हो गया, तो उन्होंने 366 कहा, एक बड़ा स्तंभ ही बना लो। तो उन्होंने एक सोने का स्तंभ मंदिर के बीच में बनाकर रख दिया। रोज खाना खाकर उसको नमस्कार करके अपने काम पर चले जाते। मैंने सुना है, अब भी उनके घर में वही हो रहा है। आपके घर में भी वही हो रहा है। सभी घरों में वही हो रहा है। कभी जो बातें सार्थक होती हैं, जब वे व्यक्तित्व खो जाते हैं और बोध खो जाते हैं उनके पीछे से, उनकी प्रक्रिया खो जाती है, तब कोरे रिचुअल, डेड रिचुअल, मरे हुए क्रियाकांड शेष रह जाते हैं। फिर हम उनको करते चले जाते हैं। और अगर उन क्रियाकांडों से कुछ नहीं होता, तो भी हम सजग नहीं होते। तो भी हम सजग नहीं होते कि बहुत | मूल बात व्यक्तित्व, मनुष्य की चेतना है। वह चेतना वापस हो, तो यज्ञ आज भी संभव है। लेकिन हम चेतना वापस लौटाने के लिए उत्सुक नहीं हैं, क्योंकि चेतना को वापस लौटाना कठिन काम है। हम यज्ञ करने को | बिलकुल तैयार हैं कि ले जाओ दस रुपया कर डालो। इसमें कुछ बनता - बिगड़ता नहीं है। बहुत से बहुत दस रुपए का नुकसान होगा, करो। यज्ञ करने में उत्सुक हैं, यज्ञ की चेतना में हम उत्सुक नहीं हैं। मेरा जोर इस पर है कि वह यज्ञ करने वाली चेतना हो, तो सारा जीवन ही यज्ञ हो जाता है। फिर यह जो यज्ञ की वेदी बनती है, उस पर जो होता है, उसकी भी सार्थकता हो सकती है। वह हमेशा करने वाले आदमी पर निर्भर है, वह कभी भी की जाने वाली क्रिया पर निर्भर नहीं । कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माऽक्षर समुद्भवम् । तस्मात् सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ।। १५ ।। तथा उस कर्म को तू वेद से उत्पन्न हुआ जान और वेद अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ है। इससे सर्वव्यापी ब्रह्म सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है। से कर्म को तू वेद से उत्पन्न हुआ जान कृष्ण अर्जु को कहते हैं, ऐसे कर्म को तूं वेद से उत्पन्न हुआ जान। वेद शब्द का अर्थ होता है, ज्ञान। वेद शब्द का अर्थ सिर्फ वेद के नाम से चलती हुई संहिताएं नहीं है। जिस दिन हमने यह नासमझी की कि हमने वेद को सीमित किया संहिताओं पर, Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + समर्पित जीवन का विज्ञान 4 चार वेद पर वेद को सीमित किया, उसी दिन भारत के भाग्य में बड़ी से बड़ी दुर्घटना हो गई । वेद है ज्ञान और ज्ञान सतत गतिमान है, डायनेमिक है, स्टैटिक नहीं है। करोड़ों संहिताओं में भी पूरा नहीं होता ज्ञान । अरबों संहिताओं में भी पूरा नहीं होता ज्ञान । संहिताएं सब चुक जाएंगी, तो भी ज्ञान नहीं चुकता, वह अनंत है। ऐसे ज्ञान से उत्पन्न हुआ जान । दो तरह के कर्म हैं। एक अज्ञान से उत्पन्न हुआ कर्म, जो हम करते हैं। एक ज्ञान से उत्पन्न हुआ कर्म, जिसकी कृष्ण सूचना कर रहे हैं। अज्ञान से उत्पन्न हुआ कर्म, कौन-सा कर्म है ? अज्ञान से उत्पन्न हुआ कर्म वह कर्म है, जिसमें कर्ता और अहंकार मौजूद है। जिसमें हम कहते हैं, मैं कर रहा हूं, वह अज्ञान से उत्पन्न हुआ कर्म है। जिसमें मैं कहता हूं, परमात्मा कर रहा है, वह ज्ञान से उत्पन्न हुआ कर्म है। उसमें अहंकार नहीं है। यह भी समझ लें कि अहंकार और अज्ञान संयुक्त घटना है। जहां अज्ञान है, वहीं अहंकार हो सकता है। और जहां अहंकार है, वहीं अज्ञान हो सकता है। ये दोनों अलग-अलग नहीं हो सकते। ऐसा नहीं हो सकता कि अहंकार . चला जाए और अज्ञान रह जाए। और ऐसा भी नहीं हो सकता कि अज्ञान चला जाए और अहंकार रह जाए। अज्ञान और अहंकार संयुक्त घटना है। ज्ञान और निरहंकार संयुक्त घटना है। तो कृष्ण जो कह रहे हैं कि यह ज्ञान से उत्पन्न हुआ कर्म है, यज्ञरूपी कर्म, ज्ञान से उत्पन्न हुआ कर्म है। और ज्ञान परमात्मा उत्पन्न होता है। जो हम यह कहते हैं कि वेद परमात्मा ने रचे, यह सिम्बालिक है। कोई किताब परमात्मा नहीं रचता; रच नहीं सकता । रचने का कोई कारण नहीं है। कोई किताब परमात्मा नहीं रचता, लेकिन • परमात्मा बहुत-सी चेतनाओं में उतरता है, ज्ञान बनता है। जो चेतनाएं भी अपने अहंकार को विदा करने में समर्थ हैं, परमात्मा उनमें उतर आता है। हां, वे चेतनाएं किताब लिखती हैं। इसलिए उन चेतनाओं के द्वारा लिखी गई किताब को अगर हम परमात्मा के द्वारा लिखी हुई किताब कहें, तो एक अर्थ में सही है। इसी अर्थ में सही है कि उन्होंने वही लिखा है, जो परमात्मा ने उनके भीतर उतरकर उन्हें जनाया। अपौरुषेय हैं। वे किताबों के दावेदार, लिखने वाले यह नहीं कह रहे हैं कि हम इनके लेखक हैं। वे इतना कह रहे हैं कि हम सिर्फ मीडियम हैं, माध्यम हैं; लेखक परमात्मा ही है। लेकिन जब भी किसी व्यक्ति के भीतर ज्ञान उतरता है, तो वह परमात्मा से उतरता है। ज्ञान परमात्मा का स्वभाव है, प्रकाश की भांति । अंधेरा अहंकार का स्वभाव है। हम अहंकार से भरे हों, तो जीवन में जो भी कर्म होता है, वह कर्म अज्ञान से ही निकला हुआ कर्म है। और अज्ञान से निकले हुए कर्म की पहचान और परख क्या है? जिस कर्म से बंधन पैदा हो, जिस कर्म से दुख पैदा हो, जिस कर्म से संताप पैदा हो, जिस कर्म से पीड़ा पैदा हो, वह कर्म अज्ञान से निकला हुआ जानना । वह | उसका लक्षण है। जिस कर्म से बंधन पैदा न हो, जिस कर्म से आनंद पैदा हो; जिस कर्म से चिंता न आए, निश्चितता आए; जिस कर्म में गुलामी न हो, मुक्ति हो, उस कर्म को ज्ञान से निकला हुआ कर्म जानना । और ज्ञान से वह तभी निकलेगा, जब अहंकार भीतर न हो। और जब अहंकार नहीं है, तो परमात्मा है। अहंकार की अनुपस्थिति परमात्मा की उपस्थिति बन जाती है। जिस दिन हम मिटते हैं, उसी दिन परमात्मा हमारे भीतर प्रकट हो | जाता है। जब तक हम मजबूती से बने रहते हैं, तब तक परमात्मा को जगह ही नहीं मिलती हमारे भीतर प्रवेश की। मैं एक छोटी-सी कहानी आपसे कहूं, फिर हम अपनी बात पूरी करें। सुना है मैंने, एक झेन फकीर हुआ, बांकेई । टोकियो युनिवर्सिटी का एक प्रोफेसर उससे मिलने गया; दर्शनशास्त्र का अध्यापक था। बांकेई का नाम सुना और सुना कि सत्य उसे पता चल गया है, तो पता लगाने गया। जाकर बैठा। दोपहर थी, थका था, पहाड़ चढ़ा था, झोपड़े तक बांकेई के आते-आते पसीना झर | रहा था। बैठते ही उसने पूछा कि मैं जानने आया हूं, व्हाट इज ट्रुथ ? सत्य क्या है? मैं जानने आया हूं, परमात्मा क्या है? व्हाट इज़ गॉड ? मैं जानने आया हूं, धर्म क्या है? व्हाट इज़ रिलीजन ? 367 बांके ने कहा, जरा धीरे, और जरा आहिस्ता । जरा बैठ जाएं, पसीना बहुत ज्यादा है माथे पर, थक गए हैं; श्वास चढ़ी है, जल्दी न करें। मैं एक कप बना लाऊं चाय का । चाय ले लें, थोड़ा विश्राम कर लें, फिर हम बात करें। और यह भी हो सकता है कि बात करने की जरूरत न पड़े, चाय पीने से ही आप जो पूछने आए हैं, उसका उत्तर भी मिल जाए। प्रोफेसर ठनका, सोचा कि नाहक मेहनत की पहाड़ चढ़ने की। पागल है यह आदमी । कह रहा है, चाय पीने से और उत्तर मिल जाए ! कोई मैंने ऐसा सवाल पूछा है कि चाय पीने से उत्तर मिल जाए? तो चाय तो हम घर ही पी लेते। घर पीते ही हैं। तो इस पहाड़ | पर, इस दुपहरी में, इस श्रम को करने की जरूरत थी ! निढाल होकर बैठ गया। लेकिन सोचा, अब चाय तो पी ही लें और तो कोई आशा Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 - नहीं है। चाय पीकर वापस लौट जाएं। वह बांकेई भीतर से चाय बनाकर लाया। उसने प्रोफेसर के हाथ में कप और प्याली दी। केतली से चाय ढाली। भीतर का बर्तन पूरा भर गया, फिर भी वह चाय ढालता गया। फिर तो नीचे का बर्तन भी पूरा भर गया, फिर भी वह चाय ढालता गया। वह प्रोफेसर चिल्लाया कि रुकिए! मैं तो पहले ही समझ गया कि आपका दिमाग ठीक नहीं मालूम होता। यह चाय नीचे गिर जाएगी, अब एक बूंद चाय रखने की जगह प्याली में नहीं है! बांकेई ने कहा, यही मैं आपसे कहना चाहता था। सत्य, परमात्मा, धर्म-एक बूंद भी जगह तुम्हारे भीतर रखने के लिए है ? इतने-इतने बड़े लोगों को मेहमान बनाना चाहोगे-सत्य, परमात्मा, धर्म! जगह है? स्पेस है भीतर? लेकिन प्याली में एक बूंद जगह नहीं है, तुम्हें दिखाई पड़ता है! और तुम्हारे मन की प्याली में भी एक बूंद जगह नहीं है, यह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता! जाओ, जगह बनाकर आओ। घबड़ाहट में प्रोफेसर चाय भी न पी सका। घबड़ाकर उठ गया। बात तो ठीक मालूम पड़ी। जाने लगा, सीढ़ियां उतरने लगा। सीढ़ियों पर से उसने कहा कि अच्छा, तो जब खाली कर लूंगा, तो आऊंगा। तो बांकेई खिलखिलाकर हंसने लगा। उसने कहा, पागल, जब तू खाली कर लेगा, तो परमात्मा खुद वहां आ जाएगा। तुझे यहां आने की कोई जरूरत नहीं है। जहां अहंकार मिटा, जहां भीतर जगह खाली हुई, इनर स्पेस, वहीं ज्ञान उतर आता है, वहीं प्रभु उतर आता है। ___ यज्ञरूपी कर्म जो करता है, उसके भीतर ज्ञान से कर्म विकसित होते, निकलते। और ज्ञान से निकला हुआ कर्म मुक्तिदायी है। शेष कल बात करेंगे। 368 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 3 पांचवां प्रवचन पूर्व की जीवन-कला : आश्रम प्रणाली Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Im- गीता दर्शन भाग-1 - एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः। का पता तो किसी को भी नहीं चल सकता है। ईश्वर के न होने का अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ।। १६ ।। पता तो तभी चल सकता है, जब कि कुछ भी जानने को शेष न रह यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । जाए। जब तक कुछ भी जानने को शेष है, तब तक कोई आदमी आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते ।। १७ ।। हकदार नहीं कि कहे कि ईश्वर नहीं है। क्योंकि जो शेष है, उसमें - नैव तस्य कृतेनाथों नाकृतेनेह कश्चन । ईश्वर हो सकता है। ईश्वर के न होने का पता इसलिए किसी को न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ।।१८।। भी नहीं चल सकता है। लेकिन ढेर लोग हैं, जो कहेंगे, ईश्वर नहीं हे पार्थ, जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार चलाए हुए | है। बिना पता चले वे क्यों कहते होंगे कि ईश्वर नहीं है? . सृष्टि-चक्र के अनुसार नहीं बर्तता है (अर्थात शास्त्र के असल में, वे चाहते हैं कि ईश्वर न हो। ईश्वर न हो, तो फिर अनुसार कर्मों को नहीं करता है, वह इंद्रियों के सुख को | जीवन के क्रम के साथ बहने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। ईश्वर भोगने वाला पाप-आय पुरुष व्यर्थ हा जीता है। न हो, तो फिर जीवन से लड़ा जा सकता है। ईश्वर हो, तो जीवन परंतु, जो मनुष्य आत्मा ही में प्रीति वाला से लड़ा नहीं जा सकता। ईश्वर हो, तो जीवन के साथ एक ही हुआ और आत्मा ही में तृप्त तथा आत्मा में ही संतुष्ट होवे, जा सकता है। ईश्वर नहीं है, ऐसा कोई अनुभव में किसी के कभी ___ उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है। नहीं आता। लेकिन जो लोग जीवन से लड़ना चाहते हैं, वे ईश्वर क्योंकि, इस संसार में उस पुरुष का किए जाने से भी नहीं है, ऐसा बिना माने लड़ नहीं सकते। इसलिए जीवन से लड़ने कोई प्रयोजन नहीं है और न किए जाने से भी कोई प्रयोजन | वाले सभी शास्त्र, जीवन से लड़ने वाले सभी वाद ईश्वर को नहीं है तथा इसका संपूर्ण भूतों में कुछ भी स्वार्थ का संबंध | इनकार करने से शुरू होते हैं। नहीं है। तो भी उसके द्वारा केवल लोकहितार्थ ___ आश्चर्यजनक लगती है कभी यह बात कि मार्क्स या एंजिल्स ____कर्म किए जाते हैं। या लेनिन या स्टैलिन या माओ, जो लोग जीवन से लड़ने की | धारणा मन में लिए हुए हैं, उनको अपने वाद का प्रारंभ, ईश्वर नहीं है, इस बात से करना पड़ता है। असल में लड़ना हो, तो ईश्वर को 1 ष्टि के क्रम के अनुसार! कृष्ण पहली बात इस सूत्र में अस्वीकार कर देना जरूरी है। ईश्वर से लड़ा नहीं जा सकता; उससे कह रहे हैं, सृष्टि के क्रम के अनुसार...। इसे समझ | | तो सिर्फ प्रेम ही किया जा सकता है; उससे तो प्रार्थना ही की जा ८ लें, तो बाकी बात भी समझ में आ सकेगी। जीवन दो ढंग से जीया जा सकता है। एक तो सष्टि के क्रम के इस सूत्र में जीवन के क्रम के अनुसार का अर्थ है कि सारा जगत प्रतिकूल-विरोध में, बगावत में, विद्रोह में। और एक सृष्टि के हमसे भिन्न नहीं है, हमसे अलग नहीं है। हम उसमें ही पैदा होते हैं क्रम के अनुसार-सहज, सरल, प्रवाह में। एक तो जीवन की धारा | | और उसी में लीन हो जाते हैं। इसलिए जो व्यक्ति भी इस जगत की के प्रतिकूल तैरा जा सकता है और एक धारा में बहा जा सकता है। जीवन-धारा से लड़ता है, वह रुग्ण और डिसीज्ड हो जाता है; वह संक्षिप्त में कहें तो ऐसा कह सकते हैं कि दो तरह के लोग हैं। एक, बीमार हो जाता है। जो व्यक्ति भी परिपूर्ण स्वस्थ होना चाहता है, जो जीवन में धारा से लड़ते हैं, उलटे तैरते हैं। और एक वे, जो धारा | | उसे जीवन के क्रम के साथ बिलकुल एक हो जाना चाहिए। इस के साथ बहते हैं, धारा के साथ एक हो जाते हैं। जीवन के क्रम के आधार पर ही भारत ने जीवन की एक सहज सृष्टि-क्रम के अनुसार दूसरी तरह का व्यक्ति जीता है, जीवन | धारणा विकसित की थी। वह मैं आपको कहना चाहूंगा। की धारा के साथ जीवन से लड़ता हुआ नहीं—जीवन के साथ / वर्ण के संबंध में मैंने कुछ आपसे कहा। आज आश्रम के संबंध बहता हुआ। धार्मिक व्यक्ति का वही लक्षण है। अधार्मिक व्यक्ति में कुछ आपसे कहना चाहूंगा। तभी आप समझ सकेंगे कि सृष्टि का उसके प्रतिकूल लक्षण है। के क्रम के अनुसार का मौलिक अर्थ क्या है। और शास्त्र-सम्मत अधार्मिक व्यक्ति अगर कहता है कि ईश्वर नहीं है, तो इसलिए कर्म करने का अर्थ क्या है। नहीं कि उसे पता चल गया है कि ईश्वर नहीं है। ईश्वर के न होने कृष्ण जब शास्त्र शब्द का प्रयोग करते हैं, तो वे ठीक वैसे ही | सकती है। | 370 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पूर्व की जीवन-कलाः आश्रम प्रणाली - करते हैं, जैसे आज हम साइंस, विज्ञान शब्द का प्रयोग करते हैं। हो पाता। जीवन का एक अनिवार्य नियम है, हम जिसे ठीक से जान अगर आप एलोपैथिक चिकित्सक के पास जाते हैं, तो हम कहेंगे, लेते हैं, उससे मुक्त हो जाते हैं। जिसे हम ठीक से नहीं जानते, आप विज्ञान-सम्मत चिकित्सा करवा रहे हैं। और अगर आप किसी | उससे हम कभी मुक्त नहीं हो पाते। नीमहकीम से इलाज करवाने जाते हैं, तो हम कहेंगे, आप अब यह बड़ी उलटी बात मालूम पड़ेगी कि पच्चीस वर्ष तक हम विज्ञान-सम्मत चिकित्सा नहीं करवा रहे हैं। कृष्ण जब भी कहते हैं व्यक्ति को ब्रह्मचर्य की साधना में से गुजारते थे, ताकि वह शास्त्र-सम्मत, तो कृष्ण का अर्थ शास्त्र से यही है। शास्त्र का अर्थ | | कामवासना से किसी दिन मुक्त हो सके। पच्चीस वर्ष हम उसे भी गहरे में यही है। उस दिन तक जो भी जानी गई साइंस थी, उस | ब्रह्मचर्य साधना में रखते थे, ताकि वह पच्चीस वर्ष काम-उपभोग दिन तक जो भी जाना गया विज्ञान था, उसके द्वारा जो सम्मत कर्म | की गहराई में उतर सके; वह सेक्स की जो गहरी से गहरी हैं, उस कर्म की ओर वे इशारा कर रहे हैं। अनुभूतियां हैं, उनमें जा सके। क्योंकि वही सेक्स के बाहर जा और जितना विज्ञान हम आज जानते हैं, वह एक अर्थ में | सकेगा, जो उसमें गहरा गया है। जो उसमें गहरा नहीं गया है, वह आंशिक है, टोटल नहीं है, खंडित है। हम सिर्फ पदार्थ के संबंध कभी बाहर नहीं जा सकेगा। में विज्ञान को जानते हैं, जीवन के संबंध में हमारे पास अभी कोई आज बूढ़े आदमी भी कामवासना के बाहर नहीं जा पाते हैं। विज्ञान नहीं है। कृष्ण के सामने एक पूर्ण विज्ञान था। पदार्थ और | | क्योंकि कामवासना में जाने के लिए जितनी शक्ति की जरूरत है, जीवन को खंड-खंड में बांटने वाला नहीं, अखंड इकाई में स्वीकार वही हम कभी नहीं जुटा पाते। जितनी प्रगाढ़ और जितनी इंटेंस और करने वाला। उस विज्ञान ने जीवन को चार हिस्सों में बांट दिया था। | तीव्र शक्ति चाहिए कि हम अनुभव कर सकें और अनुभव के बाहर जैसे व्यक्तियों को चार टाइप, प्रकार में बांट दिया था, ऐसे जा सकें। उतनी शक्ति ही कभी इकट्ठी नहीं हो पाती। इसलिए ये एक-एक व्यक्ति की जिंदगी को चार हिस्सों में बांट दिया था। वे पच्चीस वर्ष दोहरे अर्थ के थे। हिस्से जीवन की धारा के साथ थे। एक तो जिन व्यक्तियों को कल संसार के अनुभव में जाना है, पहले हिस्से को हम कहते थे, ब्रह्मचर्य-पच्चीस वर्ष। यदि सौ इंद्रियों के अनुभव में—कृष्ण इस वचन में कहते हैं, इंद्रियों का सुख वर्ष आदमी की उम्र स्वीकार करें, तो पच्चीस वर्ष का काल ब्रह्मचर्य | भोगते हैं जो उनके लिए भी जीवन के क्रम से ही जाना उचित है। आश्रम का था। दूसरे पच्चीस वर्ष गृहस्थ आश्रम के थे, तीसरे जीवन का अगर क्रम खंडित, टूटता, केआटिक हो जाए, अराजक पच्चीस वर्ष वानप्रस्थ आश्रम के थे और चौथे पच्चीस वर्ष संन्यास हो जाए, तो कोई भी जीवन के चरम शिखर को उपलब्ध नहीं होता आश्रम के थे। पहले पच्चीस वर्ष जीवन-प्रभात के हैं, जब कि है। इसलिए पहले पच्चीस वर्ष शक्ति के संचय के। कल फिर ऊर्जा जगती है, शरीर सशक्त होता है, इंद्रियां बलशाली होती हैं, शक्ति के व्यय के क्षण आएंगे। बुद्धि तेजस्वी होती है, जीवन उगता है-सुबह। इस पच्चीस वर्ष कभी आपने सोचा कि कमजोर आदमी कभी भी कामवासना से के जीवन को हमने ब्रह्मचर्य आश्रम कहा था। मुक्त नहीं हो पाता। जितना कमजोर, उतना काम में गिर जाता है। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है। पहले पच्चीस वर्ष संयम के।। | यह उलटी बात लगती है। लेकिन यही सच है। जितना क्यों? क्योंकि जिसके पास शक्ति है, जीवन के भोग में वही उतर | शक्तिशाली, उतना कामवासना के शीघ्र बाहर हो जाता है। इसलिए सकेगा। जो अशक्त है, वह जीवन के भोग से वंचित रह जाएगा। जितने शक्तिशाली युग थे, वे कामुक युग नहीं थे। और जितने जिसके पास जितनी शरीर संपदा, मन की संपदा है, संरक्षित शक्ति । कमजोर युग होते हैं, उतने सेक्सुअल और कामुक युग होते हैं। है, वह जीवन के रस में उतने ही गहरे जा सकेगा। इसलिए पहले | | कामवासना कमजोर करती है और कमजोरी कामवासना को बढ़ाती पच्चीस वर्ष शक्ति-संचय के वर्ष हैं, जीवन की तैयारी के। । है। शक्ति कामवासना से मुक्त करती है और कामवासना से मुक्ति और यह बहुत मजे की बात है कि जो ठीक से भोग सकेगा, वही आती है, तो शक्ति बढ़ती है। ये दोनों जुड़ी हुई बातें हैं। कमजोर ठीक से त्याग को उपलब्ध होता है। कमजोर भोग नहीं पाता, आदमी वासना के बाहर कभी नहीं जा पाता। इसलिए कभी त्याग को उपलब्ध नहीं हो पाता। असल में कमजोर | असल में कमजोर आदमी वासना में ही नहीं जा पाता, सिर्फ जान ही नहीं पाता कि भोग क्या है, इसलिए उसके पार कभी नहीं | वासना का चिंतन करता है। सेरिब्रल, मानसिक हो जाता है उसका Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 सारा काम । शक्ति न होने से मन में ही सोचता है। स्वस्थ युग कामवासना को कभी मन में नहीं ले जाते । अस्वस्थ युग कामवासना को मन में ले जाते हैं। जितना युग अस्वस्थ होता है, उतनी कामवासना काम के केंद्र से हटकर मस्तिष्क के केंद्र पर गतिमान हो जाती है। यह वैसा ही पागलपन है, जैसे कोई आदमी पेट में भोजन न पचाए और मस्तिष्क में पचाने की सोचने लगे । जैसे कोई आदमी पैर से न चले और मस्तिष्क में चलने की योजनाएं, कल्पनाएं और स्वप्न देखता रहे। विक्षिप्त हो जाएगा। मस्तिष्क से चला नहीं जा सकता, मस्तिष्क से सिर्फ सोचा जा सकता है। पैर से सोचा नहीं जा सकता, पैर से सिर्फ चला जा सकता है। मस्तिष्क अपना काम करे, पैर अपना काम करे। लेकिन अगर पैर कमजोर हों, तो आदमी दौड़ने के सपने देखने लगता है। अगर पेट कमजोर हो, तो आदमी भोजन की योजनाएं बनाने लगता है, भोजन नहीं करता । सेक्स कमजोर हो, सेक्स की ऊर्जा कमजोर हो, तो आदमी सेक्स का चिंतन करने लगता है। पच्चीस वर्ष, हमारे पहले पच्चीस वर्ष हमने व्यक्ति के जीवन में शक्ति-संचय के वर्ष निर्मित किए थे। जितनी शक्ति इकट्ठी करनी है, कर लो। क्योंकि जितनी तुम्हारे पास शक्ति होगी, उतने गहरे तुम इंद्रियों के अनुभव में जा सकोगे। और जितने गहरे जाओगे, उतने इंद्रियों से मुक्त हो जाओगे। जब इंद्रियों के सब अनुभव जान लिए जाते हैं, तो आदमी जानता है, उनमें कुछ भी पाने योग्य नहीं है। बात समाप्त हो जाती है। लेकिन हम इंद्रियों के अनुभव को ही उपलब्ध नहीं हो पाते। इसलिए पढ़ते रहते हैं शास्त्र में कि इंद्रियों में कुछ भी नहीं है; और सोचते रहते हैं कि इंद्रियों में ही सब कुछ सुनते रहते हैं, इंद्रियां दुश्मन हैं; और मानते रहते हैं कि इंद्रियों के सिवाय और कुछ भी प्रीतिकर नहीं है । इंद्रियों के खिलाफ प्रवचन सुनते हैं, इंद्रियों के पक्ष में चित्र, फिल्म, उपन्यास, कविता देखते हैं। वही आदमी प्रवचन सुनता है इंद्रियों के विपरीत, सुखों के विपरीत; वही जाकर नाटक देखता है, वही नृत्य देखता है, वही वेश्या के घर भी दिखाई पड़ता है। क्या बात क्या हो गई है ? जीवन के क्रम के साथ व्यक्ति नहीं है। जीवन का पहला क्रम है, शक्ति संचय । और इसमें एक दूसरी बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है। इस ब्रह्मचर्य के पच्चीस वर्ष के आश्रम में हमने एक दूसरी और अत्यधिक गहरी मनोवैज्ञानिक बात जोड़ी थी, जो आज नहीं कल जगत को वापस लौटा लेनी पड़ेगी, अन्यथा जगत का बचना असंभव है। और वह थी कि पच्चीस वर्ष हार्डशिप के, कठिन श्रम का समय था । अब यह बड़े मजे की बात है कि जिस व्यक्ति का बचपन जितना ही श्रम का हो, उसकी शेष जिंदगी उतने ही सुख की होती है। और जिसका बचपन जितना सुख का हो, उसकी शेष जिंदगी उतनी ही विषाद और दुख की होती है। बचपन में जो चटाई पर सोया, बचपन में जिसने रूखी-सूखी रोटी खाई, बचपन में जिसने कुदाली चलाई, लकड़ी चीरी, गाएं चराईं, जिंदगी उसे जो भी देगी, वह | इससे सदा ज्यादा होगा। और सुख सदा तुलना में है, कंपेरिजन में | है। जिंदगी जो भी देगी, वह सदा इससे ज्यादा होगा। आज हम ठीक उलटा पागलपन करते हैं। बाप को जो सुख नहीं है, वह बेटे को मिल जाता है। घर में जो सुख नहीं है, वह हास्टल में, छात्रावास में मिल जाता है। पच्चीस वर्ष बीतते हैं बिलकुल बिना श्रम के, बिना काम के, बिना हार्डशिप के, बिना स्ट्रगल के। और पच्चीस साल के बाद जिंदगी में आता है संघर्ष, आता है श्रम । और फिर इसलिए जो भी मिलता है, वह कोई भी तृप्त नहीं कर पाता। कंपेरेटिव, जो भी मिलता है, वह सब बेकार लगता है। जो भी मिलता है, वह आशाओं के प्रतिकूल लगता है। पच्चीस वर्ष का पहला आश्रम श्रम का, साधना का संकल्प का आश्रम था। इसलिए जिंदगी जो भी देती थी, रूखी-सूखी रोटी भी | देती थी, तो इतनी स्वादिष्ट थी, जिसका कोई हिसाब नहीं | रोटी | अब उतनी स्वादिष्ट नहीं है। सच बात, रोटी तो बहुत स्वादिष्ट है, लेकिन खाने वाला स्वाद लेने की कला भूल गया है। रोटी आज दुनिया में पहले से बहुत ज्यादा स्वादिष्ट है। लेकिन स्वाद लेने वाला पहले से बहुत कमजोर है, स्वाद लेने वाला बिलकुल बीमार है। मकान दुनिया में आज जैसे हैं, ऐसे कभी भी न थे। सम्राटों को, अकबर को और अशोक को जो मकान नहीं थे, वे आज एक | साधारण आदमी को भी मिल सकते हैं, मिल गए हैं। लेकिन आज मकानों में रहने का कोई सुख नहीं है; क्योंकि रहने वाले के पास सुख को तौलने का कोई मापदंड नहीं है, सुख को अनुभव करने की कोई क्षमता नहीं है। पच्चीस वर्ष ब्रह्मचर्य के कठिन श्रम के वर्ष थे। बाद की जिंदगी प्रतिपल पर कम श्रम की होती चली जाती थी। यह ठीक क्रम है। अधिक शक्ति जब है हाथ में, तो अधिक श्रम कर लेना चाहिए। आज बच्चे कम श्रम कर रहे हैं और बूढ़े ज्यादा श्रम कर रहे हैं। यह बिलकुल उलटा क्रम है। बच्चों के पास शक्ति है, बूढ़ों की शक्ति क्षीण हो रही है। लेकिन बूढ़े जुते हैं बैलों की तरह और बच्चे आराम 372 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पूर्व की जीवन-कलाः आश्रम प्रणाली - कर रहे हैं। फिर ये आराम करते बच्चे अगर युनिवर्सिटीज में आग | | जिससे सर्वाधिक आशा रखी जानी चाहिए। लगाएं, अगर ये आराम करते बच्चे पत्थर फेंकें, कांच फोड़ें, तो इस ब्रह्मचर्य के काल में एक तीसरी और प्रक्रिया थी, जो आपको कुछ आश्चर्य नहीं है। इनके पास काम नहीं है। ये बिलकुल बेकाम खयाल दिला दं, वह भी जीवन का हिस्सा थी। इस ब्रह्मचर्य के काल हैं। इन्हें कुछ काम चाहिए। इन्हें कुछ तोड़ने को चाहिए। ये जंगल | में चाहे किसी परिवार से कोई व्यक्ति आए, जीवन साम्यवादी था, की लकड़ी काट लेते थे, तब ये गुरु के झोपड़े पर पत्थर नहीं फेंकते कम्यून का था। गरीब का हो, अमीर का हो, सम्राट का लड़का हो, थे। लकड़ी काटने में ही इनकी इतनी शक्ति लग जाती थी, इतने | कोई भी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। ब्रह्मचर्य के पच्चीस वर्ष हलके हो जाते थे। अब काटने-पीटने, ठोंकने जैसा कुछ भी उनके सहजीवन के वर्ष थे और समान जीवन के वर्ष थे। सम्राट का लड़का हाथ में नहीं है, अब वे पत्थर फेंक रहे हैं। भी लकड़ियां चीरता, वह भी गाय-बैल को चराने जाता, वह भी पहला आश्रम. जब कि व्यक्ति के जीवन में प्रभात है शक्ति का. गोबर से सफाई करता, वह भी गरु के पैर दबाता। ये पच्चीस वर्ष शक्ति के संचय. प्रयोग. क्षमता के विकास का समय है. विश्राम कम्यन के. समानता के वर्ष थे। और इन पच्चीस वर्ष में जो भी हृदय का नहीं। विश्राम का समय धीरे-धीरे आएगा। आखिरी क्षण, में प्रविष्ट हो जाता है, वह जीवनभर साथ रहता है। इसलिए चाहे जिंदगी के सूर्यास्त के समय विश्राम का क्षण होगा। तो हम पचहत्तर | समाज में असमानता दिखाई पड़ती रही हो, व्यक्तियों के चित्तों में साल के बाद आखिरी संन्यास के आश्रम में पूर्ण विश्राम की | कभी असमानता नहीं थी। और समानता की कोई पागल प्यास भी व्यवस्था किए थे—पूर्ण विश्राम। पहला पूर्ण श्रम, अंतिम पूर्ण | | नहीं थी। जिसको स्पर्धा कहें दूसरे से, वह पच्चीस वर्ष में इस अर्थों विश्राम। बीच में दो सीढ़ियां थीं। में पैदा ही नहीं हो पाती थी, क्योंकि सब समान था। इसलिए हमने इस पहले को एक तरफ से और समझ लें, कि व्यक्ति का जो एक नान-कांपिटीटिव, एक स्पर्धामुक्त, महत्वाकांक्षा-शून्य समाज भी विकास है, वह करीब-करीब पच्चीस वर्ष में पूरा हो जाता है। के निर्माण का प्राथमिक आधार रखा था। मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं, और जल्दी पूरा हो जाता है। इसलिए | दूसरा आश्रम था गृहस्थ का। शायद इस पृथ्वी पर इस देश ने विकास इसके पहले कि पूरा हो जाए, व्यक्ति की पूरी | | मनुष्य को जितनी वैज्ञानिकता से स्वीकार किया है, इतनी वैज्ञानिकता पोटेंशियलिटी को जगा लेने की कोशिश की जानी चाहिए। इसके | से किसी ने कभी स्वीकार नहीं किया है। अब कैसी हैरानी की बात पहले कि विकास का क्षण बीत जाए, व्यक्ति के भीतर जो भी | | है कि पच्चीस वर्ष तक हम उसे ब्रह्मचर्य का पाठ देते और पच्चीस शक्ति छिपी है बीजरूप, वह सब वक्षरूप बन जानी चाहिए. वह साल के बाद उसे गहस्थ जीवन में भेज देते-विवाहित, वास्तविक हो जानी चाहिए। इसलिए रत्तीभर विश्राम का मौका कामवासना, इंद्रियों के सुख में प्रवेश का मौका देते। पच्चीस वर्ष में नहीं था। सतत श्रम था। कठोर श्रम था। अथक श्रम ___ कोई कहेगा, यह क्या पागलपन है! पच्चीस वर्ष तक जब था। और इसके दो परिणाम होते थे। एक तो वह व्यक्ति अपनी पूरी | | ब्रह्मचर्य सिखाया, तो अब क्यों उसे भेज रहे हैं? ब्रह्मचर्य उसे शक्तियों को जगाकर जीवन में जाने के योग्य हो जाता। और दूसरा, | सिखाया ही इसलिए कि अब वह तौल भी सकेगा कि आनंद इसके बाद जीवन उसे जो भी देता, वह उसके लिए संतोष और | | ब्रह्मचर्य में है कि वासना में! और जो आनंद उसने ब्रह्मचर्य में आनंद बनता। जाना, वह आनंद वासना से कभी नहीं उसे मिल सकेगा। इसलिए आज की दुनिया में कोई भी चीज संतोष नहीं बन सकती। आज वासना सिर्फ कर्तव्य रह जा लिए वासना कभी भोग की हमारी सारी व्यवस्था ऐसी है कि हर चीज असंतोष ही बनेगी। उसे | | तृष्णा नहीं बनेगी, मात्र कर्तव्य रह जाएगी। और उसके प्राणों का असंतोष बनना ही पड़ेगा। क्योंकि संतोष की एक कला थी, वह | | पंछी निरंतर इसी आशा में रहेगा कि कब पचास वर्ष पूरे हो जाएं जीवन के क्रम के साथ थी। जब वृक्ष पर फूल आते हैं, तभी आने | और मैं ब्रह्मचर्य की दुनिया में वापस लौट जाऊं। इसलिए चाहिए। और जब वृक्ष के पत्ते झड़ते हैं, तभी झड़ने चाहिए। जब | कामवासना का जितना सुख हम सोचते हैं, इतना सुख...! वृक्ष बूढ़ा हो जाए, तब हमें उससे वैसी आशा नहीं रखी चाहिए, जिन लोगों के जीवन में ब्रह्मचर्य की किरण उतरी, उन्हें हैरानी जैसे जब वृक्ष जवान था, तब हमने आशा रखी थी। आज बड़ी | | होती है कि पागल हैं आप! लेकिन आपके पास तुलना का कोई हैरानी की बात है कि आज जवान से हम कोई आशा ही नहीं रखते, उपाय भी तो नहीं है। ब्रह्मचर्य का तो कोई आनंद कभी जाना नहीं, एगी। इस 373 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 -IN इसलिए तौलें किससे! तौलने का कोई उपाय नहीं है। हां, एक ही | अनैतिक है। है भी, क्योंकि बाप भी फिर बचकाना है। बेटा शादी उपाय है। एक आदमी एक स्त्री के साथ संबंधित होता है; नहीं सुख करके आ जाए, वह बच्चे पैदा करे और बाप भी बच्चे पैदा कर रहा पाता, तो सोचता है कि शायद दूसरी स्त्री से संबंधित होने में सुख | | हो उस घर में, बहुत शर्म की बात है। बेटा क्या सोचेगा? बाप मिले। तौलने का एक ही उपाय है, इस स्त्री से नहीं मिलता, तो चाइल्डिश है, बाप बचकाना है, प्रौढ़ नहीं है। अभी तक वासना से. दूसरी से मिले; दूसरी से नहीं मिलता, तीसरी से मिले। इस पुरुष | काम से मुक्त नहीं हो पाया! से नहीं मिलता, दूसरे पुरुष से मिले; दूसरे से नहीं मिलता, तीसरे | इसलिए इस मुल्क का एक खयाल था कि जिस घर में बेटा से मिले। तौलने का और कोई उपाय नहीं है। व्यक्ति बदलो, तो | | विवाहित हो जाए, उसी दिन बाप समझे कि वानप्रस्थ हो गया, मां शायद मिल जाए। लेकिन अवस्था बदलो, तो शायद मिल जाए, समझे कि वानप्रस्थ हो गया। वानप्रस्थ का मतलब समझते हैं? इसकी हमारे मन में कोई कल्पना पैदा नहीं होती। क्योंकि और जिसका मुंह जंगल की तरफ हो गया। अभी जंगल चले नहीं जाना किसी अवस्था का हमें पता ही नहीं है। | है। सिर्फ टुवर्ड्स दि फारेस्ट, अभी सिर्फ मुंह हो गया जंगल की इसलिए वासना के जगत में यात्रा करने के पहले ब्रह्मचर्य का तरफ वानप्रस्थ। जंगल की तरफ प्रस्थान की तैयारी अब उसे कर अनुभव अनिवार्य है, अन्यथा वासना मरने तक, कब्र तक नहीं लेनी है। अभी अगर वह जंगल चला जाए, तो क्रम में बाधा पड़ेगी। छोड़ेगी पीछा। क्योंकि तुलना का कोई उपाय नहीं रह जाएगा। और बच्चे अभी ब्रह्मचर्य के आश्रम से घर लौट रहे हैं। इस बाप ने ब्रह्मचर्य के सुख को, शांति को, आनंद को जिसने जाना; ब्रह्मचर्य | पच्चीस साल में जिंदगी का जो अनुभव लिया है, वह उन बच्चों की शक्ति को, ब्रह्मचर्य की ऊर्जा को, ब्रह्मचर्य के आह्लाद को | | को देना जरूरी है। अन्यथा वह अनुभव उन्हें कहां से मिलेगा। इसने जिसने जाना और ब्रह्मचर्य जिसके प्राणों में नृत्य किया, संगीत बजा | | जिंदगी से जो जाना है, वह बच्चों को संभाल देना जरूरी है। इसने ब्रह्मचर्य का, उसके सामने जब वासना की दुनिया आएगी, तो वह | जिंदगी से जो पाया है, वह बच्चों को सौंप देना जरूरी है। घर की, तौल सकेगा कि बहत फीकी है। फीकी भी कहना बेकार है, उसमें ज्ञान की, अनुभव की सारी चाबियां बच्चों को दे देनी हैं। अब यह कुछ बहुत स्वाद नहीं है। अत्यंत साधारण है। तब वह इसे कर्तव्य | वानप्रस्थ हो जाएगा, बच्चों को देता जाएगा। की भांति निभा पाएगा। ठीक है; जगत, परमात्मा, जीवन का क्रम, । और पचहत्तर साल की उम्र में तो इसके बच्चों के बच्चे जंगल ' ठीक है। वह पैदा किया गया है, वह किसी को पैदा कर जाए। वह | से आने शुरू हो जाएंगे। तब तक इसके बच्चे पचास साल के हो जगह भर दे। लेकिन विक्षिप्त होकर कामवासना उसे पकड़ने वाली | गए होंगे। अब तो वे भी वानप्रस्थ होने के करीब आ गए। अब यह नहीं है। उनसे नमस्कार ले लेगा और जंगल चला जाएगा। अब यह इसलिए इस देश के शास्त्र कह सके कि जो व्यक्ति संतान के | संन्यासी हो जाएगा। यह जीवन की संध्या आ गई। संसार को देखने लिए ही संभोग में उतरता है, वह यद्यपि पुराने अर्थ में ब्रह्मचारी नहीं | की यात्रा पूरी हुई। सुबह हुई, दोपहर हुई, अब सांझ होने लगी। रहा, लेकिन फिर भी ब्रह्मचारी है। संतान के लिए ही जो सूरज लौटने लगा अपने घर वापस। अब ये पच्चीस साल इसके काम-संभोग में उतरता है, वह भी ब्रह्मचारी है, यह इस देश के | | प्रभु-स्मरण के हैं। शास्त्र कह सके। यह कह सके इसीलिए कि कामवासना के लिए | और बड़े मजे की बात, ये पच्चीस साल, ये वानप्रस्थ के बाद सीधा कोई कामवासना में नहीं उतरता, जो एक बार ब्रह्मचर्य को | संन्यास के आश्रम में गया हुआ व्यक्ति ही, जो बच्चे समाज से जान ले। उसके लिए कामवासना सिर्फ कर्तव्य, एक ड्यूटी है, | आएंगे, उनके लिए गुरु का काम कर देगा। और जिस समाज में जिसे निभा देना और मुक्त हो जाना है—पच्चीस वर्ष। पचास वर्ष | || बूढ़े गुरु न हों, उस समाज में गुरु होते ही नहीं। आज विद्यार्थी और की उम्र में उसके बच्चे आश्रम से लौटने के योग्य होने लगेंगे। गुरु के बीच दो-चार साल का भी फासला होता है। कभी-कभी पचास वर्ष में उसके बच्चे आश्रम से लौटने के योग्य होने लगेंगे। नहीं भी होता, और कभी-कभी विद्यार्थी भी उम्र में ज्यादा हो जाता उसके बच्चे पच्चीस वर्ष के होने के करीब आ जाएंगे। | है। अब अगर विद्यार्थी उम्र में ज्यादा हो गुरु से, तो वे संबंध निर्मित इस देश ने एक और गहरी बात खोजी और वह यह कि एक ही | | नहीं हो सकते, जो पचहत्तर साल जीवन की सारी अनुभूतियों को घर में बाप भी संभोग करे और बेटा भी संभोग करे, यह बहुत | लिए गए आदमी के साथ छोटे बच्चों के हो सकते थे। 374 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व की जीवन-कलाः आश्रम प्रणाली - जीवन का शिखर था वह आदमी। उसके रोएं-रोएं में जीवन | | तब तक गुरु-शिष्य का संबंध निर्मित नहीं हो सकता। गुरु-शिष्य अपनी छाप छोड़ गया। उसकी श्वास-श्वास में जीवन अपना | का संबंध सिर्फ इनफार्मेटिव नहीं है, एक्झिस्टेंशियल है। और सिर्फ अनुभव छोड़ गया। उसकी धड़कन-धड़कन में जीवन सारी संपत्ति इस पृथ्वी के इस हिस्से पर ही हमने एक्झिस्टेंशियल, अस्तित्वगत छोड़ गया। उसके चेहरे की झुरी-झुर्रा में जीवन की प्रौढ़ता और | भेद पैदा किया था, कि गुरु होना चाहिए जीवन का अस्त और जीवन का सब कुछ छिपा है। जब छोटे बच्चे जंगल आते और इस | विद्यार्थी होना चाहिए जीवन का उदय। इन दोनों के बीच पचास, पचहत्तर साल, अस्सी साल, सौ साल के बूढ़े के पास बैठते, तो | साठ, सत्तर साल का फासला; साठ साल, सत्तर साल के अनुभव स्वाभाविक था कि उनके मन में आदर और पूज्य का भाव उठता। | का फासला। और सिर्फ अनुभव ज्ञान नहीं देता, अनुभव वासनाओं न इस आदमी में कोई वासना होती, निर्वासना हो जाता। यह पूज्य से भी मुक्ति दिला देता है। और अनुभव, वे सब क्षुद्रताएं जो कल मालूम पड़ता, यह भगवान मालूम पड़ता। | बड़ी महत्वपूर्ण थीं, उनका अंत बन जाता है। और अनुभव, कल तो अगर ये बच्चे कह सके कि गुरु ब्रह्मा, तो आज के गुरु को तक के वे सब विकार-क्रोध, काम, लोभ-उन सबसे छुटकारा नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यह बिलकुल परमात्मा जैसा ही | | बन जाता है। और जब ऐसे व्यक्ति के पास बच्चे इकट्ठे होते, तो लगता, जिसमें वासना विलीन हो गई, जिसकी कोई इच्छा न रही, वे जीवन का दान लेकर वापस लौटते थे, चिर-ऋणी होकर वापस जिसको चीजों पर कोई मोह न रहा; घटनाएं कुछ भी घट जाएं, जो लौटते थे। यह चौथा आश्रम संन्यास का आश्रम था। शास्त्र-सम्मत उनको एक-सा ही लेने लगा; जिसका चित्त अनासक्त हुआ; जो | ऐसी जीवन के क्रम की व्यवस्था थी। सब छोड़े तो, सब बचे तो, न बचे तो, सब बराबर हो गया, ऐसे | ___ कृष्ण कहते हैं अर्जुन से, जो इस भांति शास्त्र-सम्मत जीवन की जीवन के शिखर पर बैठे हुए वृद्ध के पास अगर बच्चे अनुभव | कर्म-व्यवस्था में प्रवेश करता है, अनुकूल जीवन के बहता है, वह करते कि वह परमात्मा है, तो आश्चर्य तो नहीं है। इंद्रियों के सुखों को तो उपलब्ध हो ही जाता है, अंततः आत्मा के लेकिन आज का गुरु सोचे कि उसे कोई परमात्मा माने, तो वह आनंद को भी उपलब्ध हो जाता है। और इस जीवन के क्रम में पागल है। उसे परमात्मा मानने का कारण ही नहीं रह गया है, सारी | | प्रवाहित होकर अंत में जरूर वह ऐसी जगह पहुंच जाता है, जब बुनियाद गिर गई है। और हम कहते ही उसे थे कि गुरु होने के योग्य | करने और न-करने में कोई फर्क नहीं रहता अर्जुन। ही वही हआ. जो सारे जीवन को जानकर आ गया, अन्यथा गुरु | | क्यों, अर्जुन से कृष्ण यह क्यों कह रहे हैं? अर्जुन से वे यह कह नहीं हो सकता था। आज जो गुरु है, वह सिर्फ इनफार्मेटिव है; रहे हैं कि अभी, अभी तू उस जगह नहीं है, जहां से तू संन्यस्त हो उसके पास कुछ सूचनाएं हैं, जो विद्यार्थी के पास नहीं हैं। लेकिन | सके। अभी तू उस जगह नहीं है, जहां से संन्यास फलित हो सके। जहां तक जीवन का, एक्झिस्टेंस का, अस्तित्व का संबंध है, उसमें अभी तू उस जगह नहीं है जीवन के क्रम में, जहां से तू मुक्त हो और विद्यार्थी में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। सके कर्म से। अभी तुझे करने और न-करने में समानता नहीं हो ___ अक्सर ऐसा हो जाता है कि युनिवर्सिटी में लड़के भी उसी | सकती। अभी तू अगर न-करने को चुनेगा, तो भी चुनेगा, वह तेरी लड़की को प्रेम करने लगते हैं और शिक्षक भी। कापिटीटिव हो च्वाइस होगी। लेकिन एक ऐसी घड़ी भी आती है जीवन के प्रवाह जाता है। एक ही लड़की के लिए स्पर्धा हो सकती है कक्षा में। तब | में, जब करना और न-करना बराबर हो जाता है; चुनाव नहीं होता, इस बच्चे के मन में इस गुरु के प्रति कौन-सा आदर हो सकता है? च्वाइसलेस हो जाता है, चुनावरहित हो जाता है।। यह गुरु भी उसी पान की दुकान पर पान खाता है, यह लड़का भी । तो कृष्ण उससे यह कह रहे हैं...पहले उन्होंने जोर दिया कि तू उसी पान की दुकान पर पान खाता है। यह गुरु भी उसी फिल्म को क्षत्रिय है। वह इस मुल्क के द्वारा खोजे गए विज्ञान का एक हिस्सा देखता है, उसी की बगल में बैठकर उसका विद्यार्थी भी देखता है! था-वर्ण। और अब वे एक दूसरे विज्ञान के हिस्से पर जोर दे रहे और जब फिल्म में नंगा चित्र आता है, तो गुरु की भी रीढ़ सीधी हो | हैं—आश्रम। वर्णाश्रम, मनुष्य के जीवन के संबंध में इस मुल्क का जाती है और लड़के की भी रीढ़ सीधी हो जाती है। इन दोनों के बीच बड़ा से बड़ा कांट्रिब्यूशन है, बड़ा से बड़ा दान जो हम जगत को दे कोई जीवनगत भेद नहीं है। | सके हैं, वह वर्ण और आश्रम की धारणा है। लेकिन हमने सोचा यह था कि जब तक जीवनगत भेद न हो, अब वे दूसरी बात कह रहे हैं; अब वे यह कह रहे हैं कि अगर 375 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1-m तू शास्त्र-सम्मत...। इसका यह मतलब नहीं है कि वेद में लिखा | से उसके साथ बह। अपने आप वह घड़ी आ जाती है—जीवन के है, इसलिए। इसका कुल मतलब इतना कि उस दिन तक जितने भी | समस्त कर्मों को करते हुए, अपने को कर्ता भर मत मान और वह समझदार लोग हुए थे, सब ने यही कहा, इसलिए। सब ने निरपवाद | | घड़ी आ जाती है-जिस दिन करना और न-करना, हार और जीत, रूप से यही कहा, इसलिए। जो भी जाना गया है, वह इसकी | जीवन और मृत्यु, सुख और दुख सब बराबर हो जाते हैं। सहमति देता है कि तू ऐसे जीवन के साथ बह और एक दिन वह घड़ी आएगी जिस दिन करना और न-करना बराबर हो जाएगा। लेकिन उसे आने दे, उसके लिए दौड़-धूप मत कर। भागकर उसे | तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचार। . नहीं पाया जा सकता। जिंदगी से बचकर तू उसे नहीं ला सकता। असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः ।। १९ ।। जिंदगी में उतर गहरा और जिंदगी को ही तुझे पार निकालने दे, कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः । जिंदगी ही तुझे पार कर दे। लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ।। २० ।। पानी का एक नियम और फिर हम दूसरा सूत्र लें-अगर इससे तू अनासक्त हुआ निरंतर कर्तव्य-कर्म का अच्छी कभी आप पानी में गिर गए हों और तैरना न जानते हों, या तैरना प्रकार आचरण कर, क्योंकि अनासक्त पुरुष कर्म करता जानते हों और कभी पानी में भंवर पड़ते हैं, उसमें आप फंस गए। हुआ परमात्मा को प्राप्त होता है। हों, तो कृष्ण के इस सूत्र को याद रखना। यह जीवन के भंवर का जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्तिरहित कर्म द्वारा ही परम सूत्र नदी के भंवर में भी काम आता है। अगर नदी के भंवर में फंस सिद्धि को प्राप्त हुए हैं, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखता गए हैं, तो हम साधारणतः क्या करेंगे? लड़ेंगे भंवर से। लड़ेंगे कि | हुआ भी तू कर्म करने को ही योग्य है। डूबेंगे, लड़े कि डूबे। क्योंकि जितने जोर से भंवर से आप लड़ेंगे, आपकी शक्ति कम होगी, भंवर की कम नहीं होगी। और जितनी आपकी कमजोर होगी शक्ति, भंवर की ताकत उतनी ही ज्यादा हो 27 नासक्तिपूर्वक-कृष्ण कह रहे हैं कि इस भांति तु कर्म जाएगी-तुलनात्मक, रिलेटिवली। और थोड़ी देर में आप थक 1 से मत भाग; भागने की मत सोच। न तो वह संभव गए होंगे, भंवर अपनी ताकत में होगा। उतनी ही ताकत में, जितना | है, न उपादेय। संभव भी यही है. उपादेय भी यही कि तब था, जब लड़ाई शुरू हुई। फिर वह आप, कमजोर आदमी को | तू अनासक्त कर्म में प्रवृत्त हो। नीचे डुबा लेगा। इस अनासक्त शब्द को थोड़ा समझें। साधारणतः हमारे जीवन इसलिए जो लोग तैरने का शास्त्र जानते हैं, वे कहते हैं कि में अनासक्त होने का कोई अनभव नहीं होता। इसलिए यह शब्द अगर भंवर में फंस जाओ, तो लड़ना मत। अपनी तरफ से भंवर | बहुत विजातीय, फारेन है। यह हमारे अनुभव में कहीं होता नहीं। में डूब जाना। भंवर के साथ ही डूब जाना। भंवर के साथ खूबी | इसलिए इसे और भी ठीक से समझना पड़ेगा। यह है कि भंवर नदी की सतह पर बड़ा होता है और नीचे छोटा __ हमारे अनुभव में दो शब्द आते हैं, आसक्त और विरक्त; होता जाता है; उसके वर्तुल छोटे होते जाते हैं नीचे। उसका स्क्रू अनासक्त कभी नहीं आता। या तो हम किसी चीज की तरफ छोटा होता जाता है नीचे। ऊपर से निकलना बहुत मुश्किल है। आकर्षित होते हैं और या किसी चीज से विकर्षित होते हैं, या तो नीचे वह इतना छोटा हो जाता है कि उसके भीतर रहना मुश्किल अट्रैक्ट होते हैं या रिपेल्ड होते हैं। सुंदर हुआ कुछ, तो आकर्षित है, आप एकदम बाहर हो जाते हैं। और अगर लड़े, तो बहुत होते हैं; कुरूप हुआ कुछ, तो विकर्षित होते हैं। सुंदर हुआ, तो मुश्किल है। अगर नहीं लड़े, उसके साथ डूब गए, तो खुद भंवर आसक्ति बनती है मन में पाने की। सुंदर नहीं हुआ, तो विरक्ति ही आपको अपने बाहर कर देता है। बनती है मन में छोड़ने की। या तो हम दौड़ते हैं किसी चीज को पाने जीवन का भंवर भी अगर हम उससे लड़ें, तो उलझ जाते हैं। |के लिए और या हम दौड़ते हैं किसी चीज से बचने के लिए। ये दो कृष्ण कहते हैं कि जीवन का, सृष्टि का जो क्रम है, उसके साथ ही हमारे अनुभव हैं। या तो हम किसी चीज की तरफ जाते हैं या किसी बह, जल्दी मत कर। जल्दी हो नहीं सकती; जल्दी मत कर, धैर्य चीज की तरफ से जाते हैं। बाकी अनासक्ति बड़ी और बात है, इन 376 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sim+ पूर्व की जीवन-कलाः आश्रम प्रणाली HAM दोनों से अलग। | करता; यद्यपि जो कर्म आसक्त करता, विरक्त उससे उलटे कर्म अनासक्ति इन दोनों का मध्यबिंदु है, दि मिडिल प्वाइंट। ठीक | | करता। अगर आसक्त धन कमाने का काम करता, तो विरक्त धन इन दोनों के बीच में, जहां न तो अट्रैक्शन काम करता और न | छोड़ने का, त्यागने का काम करता। अगर आसक्त पदों का लोलुप रिपल्सन काम करता है। बहुत अदभुत बिंदु है अनासक्ति का, जहां | | होता और पदों की सीढ़ियां चढ़ने के लिए दीवाना होता, तो विरक्त से न तो हम किसी चीज के लिए आतुर होकर पागल होते हैं और | | पदों से भागने के लिए आतुर और उत्सुक होता, सीढ़ियां उतरने न आतुर होकर बचने के लिए पागल होते हैं। नहीं, जहां हम किसी | को। आसक्त और विरक्त दोनों कर्म में रत होते, लेकिन दोनों के चीज के प्रति कोई रुख ही नहीं लेते; जहां किसी चीज के प्रति हमारी | रत होने का ढंग विपरीत होता, एक-दूसरे की तरफ पीठ किए होते। कोई दुष्टि ही नहीं रहती: हम बस साक्षी ही होते हैं। अनासक्त का अनासक्त क्या करेगा? अर्थ है, विरक्त भी नहीं, आसक्त भी नहीं। अनासक्त न तो आसक्त की तरह कर्म करता और न विरक्त की विरक्त होना बहुत आसान है, आसक्ति का ही दूसरा हिस्सा है, तरह। अनासक्त के कर्म करने की क्वालिटी बदल जाती है। इसे इसलिए। और जिस चीज में भी हमारी आसक्ति होती है, उसमें ही समझ लें। आज नहीं कल हमारी विरक्ति अपने आप हो जाती है। आज एक विरक्त का काम करने का रुख, दिशा बदल जाती है, उलटी हो मकान में बहुत आसक्ति है, कल वह मिल जाएगा, परसों उसमें | जाती है। भीतरी चित्त जरा भी नहीं बदलता, कर्म की दिशा प्रतिकूल रहेंगे, दस दिन बाद भूल जाएगा, आसक्ति खो जाएगी। फिर हो जाती है। अगर आसक्त सीधा खड़ा है, तो विरक्त शीर्षासन धीरे-धीरे विरक्ति आ जाएगी। जिस दिन आपको कोई दूसरा मकान लगाकर खड़ा हो जाता है। और कोई फर्क नहीं होता, भीतर आदमी दिख जाएगा आसक्ति को पकड़ने के लिए, उसी दिन इस मकान वही का वही होता है। क्वालिटी जरा भी नहीं बदलती, गुण जरा से विरक्ति हो जाएगी। जिस चीज से भी हम आकर्षित होते हैं, भी नहीं बदलता, भीतर आदमी वही का वही होता है। किसी न किसी दिन उससे विकर्षित होते हैं। जो चीज भी हमें | | एक आदमी है, उसके सामने रुपया ले जाओ, तो उसके मुंह में खींचती है, किसी दिन हम उससे हटते हैं। आकर्षण और विकर्षण, | | पानी आने लगता है। एक दूसरा आदमी है, उसके पास रुपया ले अट्रैक्शन और रिपल्सन एक ही प्रक्रिया के दो हिस्से हैं। अनासक्ति | जाओ, तो वह आंख बंद कर लेता है और राम-राम जपने लगता इस पूरी प्रक्रिया के पार है, ट्रांसेंडेंट है। इन दोनों प्रक्रियाओं के | | है। ये दोनों एक-से आदमी हैं। रुपया दोनों के लिए सिग्नीफिकेद ऊपर, अलग, अतीत है। है, महत्वपूर्ण है। हां, एक के लिए महत्वपूर्ण है, लार टपकती है। अनासक्त का मतलब कि न हमें अब खींचती है चीज, न हमें | | एक के लिए महत्वपूर्ण है, घबड़ाकर आंख बंद हो जाती है। लेकिन हटाती है; न हमें बुलाती है, न हमें भगाती है। हम खड़े रह गए। | दोनों शीर्षासन एक-दूसरे के प्रति कर रहे हैं। लेकिन रुपए के बुद्ध ने इस अनासक्ति के लिए उपेक्षा शब्द का प्रयोग किया है। मामले में दोनों का गुणधर्म एक है। दोनों रुपए में बहुत उत्सुक अर्थ यही है, न इस तरफ, न उस तरफ; दोनों तरफ से उपेक्षा है। हैं—एक पक्ष में, एक विपक्ष में; एक मित्र की तरह, एक शत्रु की न आसक्ति, न विरक्ति, दोनों तरफ से इंडिफरेंस है। न तो धन | | तरह-लेकिन रुपये के प्रति उपेक्षा नहीं है। खींचता, न धन भगाता। कृष्ण ने अनासक्ति का प्रयोग किया है, | | एक है, जो स्त्री के पीछे भागता; एक है कि स्त्री दिखी कि महावीर ने वीतराग शब्द का प्रयोग किया है। राग, विराग, | भागा। इन दोनों में बुनियादी गुणात्मक फर्क नहीं है। इनके कृत्य में वीतराग। महावीर ने वीतराग शब्द का प्रयोग किया है, जहां न राग फर्क है दिशा का। इनके चित्त में फर्क नहीं है। इनके चित्त का बिंदु, हो, न विराग हो, वीतराग हो। दोनों के पार हो जाए। बुद्ध कहते | इनके चित्त का आब्जेक्ट, इनके चित्त का विषय एक ही है, वही हैं, जहां न आकर्षण, न जहां विकर्षण; उपेक्षा हो, इंडिफरेंस हो; कामवासना है। एक पक्ष में, एक विपक्ष में। दोनों बराबर हो जाएं। कृष्ण कहते हैं, अनासक्ति, जहां न आसक्ति . ___ अनासक्त का गुणधर्म बदलता है। अनासक्त दोनों काम कर हो, न विरक्ति हो; दोनों ही न रह जाएं। सकता है। जो विरक्त करता है, वह भी कर सकता है: जो लेकिन आसक्त भी कर्म करता और विरक्त भी कर्म करता। आसक्त करता है. वह भी कर सकता है। लेकिन करने वाला चित्त अनासक्त क्या करेगा? आसक्त भी कर्म करता, विरक्त भी कर्म बिलकुल और ढंग का होता है। उस चित्त का क्या फर्क है, वह 377 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-14 खयाल में ले लें। न तो आसक्त साक्षी हो सकता है, विटनेस हो सकता है, न विरक्त साक्षी हो सकता है, क्योंकि दोनों का राग है। राग शब्द आपने कभी खयाल किया कि इसका क्या मतलब होता है ? इसका मतलब होता है, रंग, कलर। राग का मतलब होता है, रंग। दोनों के चित्त रंगे हुए हैं उसी से, जिस पर उनकी नजर है। आसक्त का चित्त रंगा हुआ है रुपए से मित्र की तरह । विरक्त का चित्त रंगा हुआ है रुपए से शत्रु की तरह। अनासक्त का चित्त रंगा हुआ नहीं है। रुपया उस पर कोई प्रतिबिंब ही नहीं बनाता; रुपया उसको रंगता ही नहीं। रुपया वहां और अनासक्त यहां। उन दोनों के बीच डिस्टेंस होता है। अर्थात अनासक्त साक्षी होता है। वह देखता है कि यह स्त्री है, यह रुपया है; बात खतम हो गई। मैं मैं हूं; यह रुपया है; यह मकान है; यह स्त्री है; यह पुरुष है। बुद्ध एक जंगल में बैठे हैं। रात है पूर्णिमा की। गांव से कुछ मनचले युवक एक वेश्या को लेकर चले आए हैं। पूर्णिमा की रात, झील का तट । उन्होंने आकर खूब शराब पी ली। उस वेश्या को नग्न कर दिया, उसके वस्त्र छिपा दिए। जब वे शराब में काफी बेहोश हो गए, तो वह वेश्या निकल भागी। लेकिन नग्न, कपड़े तो उसे मिले नहीं । जब आधी रात बीते उन्हें थोड़ा होश आया, तब उन्हें खयाल हुआ कि हम जिसको मानकर कि है, राग-रंग कर रहे हैं, वह नदारद है । वे उस वेश्या को मानकर बातें किए जा रहे थे, गीत गाए जा रहे थे, नाचे चले जा रहे थे! आधी रात गए उन्हें पता चला कि हम बड़ी भूल में पड़े हैं, वह स्त्री तो नदारद है। वह यहां है नहीं। बड़ी मुश्किल में पड़े, अब उसे कहां खोजें! निकले। थोड़ी ही दूर एक वृक्ष के नीचे बुद्ध बैठे हैं। रात है, पूर्णिमा का चांद है। वह देख रहे हैं चांद को । यहां तक रास्ता एक ही है, इसलिए स्त्री यहां से तो निकली ही है। तो उन्होंने जाकर हिलाया और कहा कि सुनो, एक नग्न स्त्री, सुंदर वेश्या यहां से भागती हुई गई है, जरूर तुमने देखी होगी । बुद्ध ने कहा, तुम मुझे बड़ी मुश्किल में डालते हो, क्योंकि आदमी को वही दिखाई पड़ता है, जो वह देखना चाहता है। उन्होंने कहा, अंधे तो हो नहीं। आंख तो है ही। यहां से एक सुंदर स्त्री निकली है, हजारों की भीड़ में भी दिखाई पड़ जाए, ऐसी स्त्री है। यहां तो जंगल का सन्नाटा है। उन्होंने कहा, कोई निकला जरूर कोई निकला जरूर, क्योंकि मैं देखता था चांद को, तो कोई छाया बीच से गुजरी। लेकिन स्त्री थी या पुरुष था, कहना मुश्किल है। क्योंकि जब तक मेरा पुरुष बहुत आतुर था स्त्रियों के लिए, तभी तक फर्क भी कर पाता था। | अब फर्क करने का कोई कारण भी तो नहीं रहा है। और सुंदर थी या असुंदर, यह तो और भी कठिन सवाल है। क्योंकि जब से अपने | को जाना, तब से न कुछ सुंदर रहा, न कुछ असुंदर रहा। चीजें जैसी हैं, हैं । कुछ को लोग सुंदर कहते, कुछ को लोग असुंदर कहते । वह उनकी अपनी पसंदगियों के ढंग हैं। क्योंकि एक ही चीज को कोई सुंदर कहता है और कोई असुंदर कहता है। जब से अपनी कोई पसंदगी ही न रही, कोई नापसंदगी न रही, तो न कुछ सुंदर रहा, न कुछ असुंदर रहा। उन्होंने कहा, हम भी कहां के पागल से उलझ गए हैं। हम खोजें। | इस आदमी से कुछ सहारा न मिलेगा। बुद्ध खूब हंसने लगे और | उन्होंने कहा, कब तक उसे खोजते रहोगे ? अच्छा हो कि इतनी अच्छी रात है, अपने को ही खोजो। और वह मिल भी जाएगी, तो | क्या मिलेगा? अपने को खोज लो, तो शायद कुछ मिल भी जाए। पता नहीं, उन्होंने सुना या नहीं सुना ! नहीं सुना होगा। आदमी बहुत बहरा है । दिखाई पड़ता है, सुनता हुआ, सुनता नहीं है। | दिखाई पड़ता है, देखता हुआ, देखता नहीं है। दिखाई पड़ता है, | समझता हुआ, समझता नहीं है। यह जो बुद्ध ने कहा, यह अनासक्त की चित्तदशा का गुण है। देखते हुए भी भेद नहीं करता, क्या सुंदर है, क्या असुंदर है। करते हुआ भी भेद नहीं करता, जीते हुए भी भेद नहीं करता, क्या पकडूं, क्या छोडूं ! क्या लाभ है, क्या हानि है ! साक्षी की तरह, एक विटनेस की तरह, एक गवाह की तरह जिंदगी में चलता है। राम अमेरिका गए। एक जगह से निकल रहे थे, कुछ लोगों ने पत्थर फेंके और गालियां दीं। लौटकर - बहुत हंसते हुए वापस लौटे - मित्रों से कहने लगे, आज तो बड़ा मजा आ गया। राम को | आज बड़ी गालियां पड़ीं! कुछ लोगों ने पत्थर भी मारे । पिटोगे, गालियां खाओगे। लोग कहने लगे, किस की बात कर रहे हैं आप ! | तो उन्होंने कहा, इस राम की बात कर रहा हूं। इस राम की, अपनी छाती की तरफ हाथ करके कहा, इस राम की बात कर रहा हूं। आज इन पर काफी गालियां पड़ीं, आज इन पर काफी पत्थर पड़े। लोगों ने कहा, आप पर ही पड़े न ? राम ने कहा, नहीं, हम तो देखते थे। हम पर पड़े नहीं, हम देखते थे। हम साक्षी थे, हम सिर्फ गवाह थे। | हमने देखा कि पड़ रहे हैं। हमने देखा कि गालियां दी जा रही हैं। | तीन थे वहां गाली देने वाले थे; जिसको गाली दी जा रही थीं, वह था; और एक और भी था, मैं भी था वहां, जो देख रहा था। 378 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पूर्व की जीवन-कलाः आश्रम प्रणाली - अनासक्त का यह गुणधर्म है। अनासक्त देखता है जिंदगी को; | और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो ऊपर होता है, वह हमें न इस तरफ भागता, न उस तरफ भागता। और परमात्मा जो ले | | दिखाई पड़ता है; जो नीचे होता है, वह छिप जाता है। थोड़ी देर माता है जिंदगी में, उसमें से चुपचाप साक्षी की भांति गुजर जाता बाद, जब एक पहल से ऊब जाते हैं और उलटते हैं, तब दूसरा है। इसलिए कष्ण ने उल्लेख किया जनक का। और कष्ण जब पहल दिखाई पड़ता है। उल्लेख करें, तो सोचने जैसा है। कृष्ण ने उल्लेख किया जनक का लेकिन कृष्ण कह रहे हैं, तेरा तो मंगल होगा ही, लोकमंगल भी कि जनक जैसे ज्ञानी। और अर्जुन तू तो इतना ज्ञानी नहीं है। उनका | होगा। लोकमंगल क्या होगा? सबका मंगल क्या होगा? मतलब साफ है। वे यह कह रहे हैं कि तू तो इतना ज्ञानी नहीं है कि | असल में जो आसक्त हैं, वे भी; और जो विरक्त हैं, वे भी, तू वैराग्य की बात करे। जनक जैसा ज्ञानी भी छोड़ने को, भागने को | जगत को आनंद के मार्ग पर ले जाने वाले नहीं बनते। नहीं बनते हैं आतुर न हुआ! जनक जैसा ज्ञानी चुपचाप वहीं जीए चला गया, | | दो कारणों से। एक तो जो स्वयं ही आनंद के मार्ग पर नहीं है, उसके जहां था। जीवन से किसी को भी आनंद नहीं मिल सकता। क्योंकि हम वही तो क्या था सूत्र जनक का? सूत्र था, अनासक्तियोग। सूत्र था, दे सकते हैं, जो हमारे पास है। हम वह नहीं दे सकते, जो हमारे जहां हमें दो दिखाई पड़ते हैं, वहां तीसरा भी दिखाई पड़ने लगे, दि पास नहीं है। दूसरा, जो व्यक्ति जितना आसक्त या विरक्त होकर थर्ड फोर्स। दो तो हमें सदा दिखाई पड़ते हैं, तीसरा दिखाई नहीं कर्म में लगता है, उतना ही तनाव, उतना ही टेंस उसका व्यक्तित्व पड़ता है। विरक्त को भी दो दिखाई पड़ते हैं। आसक्त को भी दो | होता है। दिखाई पड़ते हैं-मैं, और वह, जिस पर मैं आसक्त हूं। विरक्त | | और ध्यान रहे, हम करीब-करीब ऐसे ही हैं, जैसे कोई पानी में को भी दो दिखाई पड़ते हैं-मैं, और वह, जिससे मैं विरक्त हूं। | एक पत्थर फेंके। झील है, एक पत्थर फेंक दिया। तो पत्थर तो झील अनासक्त को तीन दिखाई पड़ते हैं-वह जो आकर्षण का केंद्र है | | में थोड़ी देर में नीचे बैठ जाता है तलहटी में, भूमि में बैठ जाता है। या विकर्षण का, और वह जो आकर्षित हो रहा या विकर्षित हो रहा, | | लेकिन पत्थर से उठी लहरें फैलती चली जाती हैं; दूर अनंत किनारों और एक और भी, जो दोनों को देख रहा है। तक फैलती चली जाती हैं। ठीक वैसे ही, जब भी हमारे चित्त में यह जो दोनों को देख रहा है-अर्जुन से कृष्ण कहते हैं-तू | जरा-सा तनाव उठता है, तो हम मनुष्य के जीवन के सरोवर में तरंगें इसी में प्रतिष्ठित हो जा। इसमें तेरा हित तो है ही, तेरा मंगल तो है। पैदा करते हैं। फिर चाहे हमारा तनाव चला भी जाए, वे तरंगें फैलती ही, इसमें लोकमंगल भी है। क्यों, इसमें क्या लोकमंगल है? यह चली जाती हैं। वे न मालम कितने लोगों को स्पर्श करती हैं और न तो मेरी समझ में पड़ता है, आपकी भी समझ में पड़ता है कि अर्जुन | | मालूम कितने लोगों के जीवन में अमंगल बन जाती हैं। का मंगल है। अनासक्त कोई हो जाए, तो जीवन के परम आनंद | | सिर्फ अनासक्त व्यक्ति के भीतर से तनाव की, चिंता की, दुख के द्वार खुल जाते हैं। आसक्त भी दुखी होता है, विरक्त भी दुखी की, पीड़ा की विकृत तरंगें नहीं उठती हैं। सिर्फ अनासक्त व्यक्ति होता है। आसक्त भी सुखी होता है, विरक्त भी सुखी होता है। बुद्ध से जो तरंगें उठती हैं, वे सदा मंगलकारी हैं। इसलिए लोकमंगल ने कहा है, जिसे हम प्रेम करते हैं, वह आ जाए, तो सुख देता है; है। लोकमंगल यहां बहुत ही गहरे अर्थों में कहा है। जिसे हम घृणा करते हैं, वह चला जाए, तो सुख देता है। जिसे हम हम चौबीस घंटे अपने चारों तरफ रेडिएट कर रहे हैं। जो भी घृणा करते हैं, वह आ जाए, तो दुख देता है, जिसे हम प्रेम करते | | हमारे भीतर है, वह रेडिएट हो रहा है, वह विकीर्णित हो रहा है, हैं, वह चला जाए, तो दुख देता है। फर्क क्या है? बुद्ध ने पूछा है। उसकी किरणें हमारे चारों तरफ फैल रही हैं। हर आदमी अपने चारों दोनों ही दोनों काम करते हैं। हां, किसी के आने से सुख होता है, | | ओर प्रतिपल उसी तरह लहरें उठा रहा है, जैसे पत्थर फेंका गया किसी के जाने से। किसी के जाने से सुख होता है, किसी के आने | | झील में उठाता है। हम कल समाप्त हो जाएंगे। लेकिन हमारे द्वारा से–बस इतना ही फर्क है। | उठाई गई लहरें अनंत हैं; वे कभी समाप्त न होंगी; वे चलती ही मित्र भी सुख देते हैं, मित्र भी दुख देते हैं। शत्रु भी सुख देते हैं, | | रहेंगी; वे कभी दूर तारों के निवासियों को भी छुएंगी। अब वैज्ञानिक शत्रु भी दुख देते हैं। असल में जो भी सुख देता है, वह दुख भी | कहते हैं, कोई पचास हजार तारों पर जीवन है। अभी तक उन्होंने देगा। और जो भी दुख देता है, वह सुख भी देगा। क्योंकि सुख | कोई चार अरब तारे खोज निकाले हैं। जीवन वहां समाप्त नहीं होता 379 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + गीता दर्शन भाग-14 मालूम पड़ता, हमारी सामर्थ्य चुक जाती है— उसके आगे, उसके आगे, उसके आगे । एक-एक व्यक्ति से जो तरंग उठती है, वह उठती ही चली जाती है। व्यक्ति कभी का समाप्त हो जाएगा, उसके द्वारा उठाई गई तरंगें अनंतकाल तक उठती रहती हैं— अनादि, अनंत । कृष्ण कह रहे हैं कि जो अनासक्त चित्त है, उसके भीतर जो गुण परिवर्तन होता है, उससे जो तरंगें उठती हैं, वे बिलकुल बिना जाने, परोक्ष, चुपचाप लोगों के जीवन में मंगल की वर्षा कर जाती हैं। तो तू लोकमंगल के लिए भी अनासक्त हो जा। अपने लिए तो अनासक्त होना उचित ही है, आनंदपूर्ण ही है, औरों के लिए भी आनंदपूर्ण है। इसलिए जैसे जनक और सब जानने वालों ने जीवन से भागने की कोई चेष्टा न की, तू भी मत भाग। भागने से कभी कोई कहीं पहुंचा भी नहीं है। भागने से कभी कोई रूपांतरित भी नहीं हुआ है। भागने से कभी कोई क्रांति भी घटित नहीं होती। क्योंकि भागते केवल वे ही हैं, जो नहीं जानते हैं। जो जानते हैं, वे भागते नहीं हैं, रूपांतरित करते हैं, स्वयं को बदल डालते हैं। विरक्ति भागना है आसक्ति से। और एक बात और इस संबंध में, फिर हम दूसरा सूत्र लें। जो आदमी आसक्ति में जीएगा, उसके मन में सदा ही विरक्ति के खयाल आते रहेंगे, आते ही रहेंगे। क्योंकि जिंदगी पोलर है, ध्रुवीय है। यहां हर चीज का दूसरा ध्रुव है। यहां बिजली का अगर पाजिटिव पोल है, तो निगेटिव पोल भी है। यहां अगर अंधेरा है, तो उजाला भी है। यहां अगर सर्दी है, तो गर्मी भी है। यहां अगर जन्म है, तो मृत्यु भी है। यहां जीवन में हर चीज का दूसरा विरोधी हिस्सा है। तो जो व्यक्ति आसक्ति में जीएगा, उसको जिंदगी में हजारों बार विरक्ति के दौरे पड़ते रहेंगे, उसको विरक्ति का फिट आता रहेगा। आप सबको आता है। कभी ऐसा लगता है, सब बेकार है, सब छोड़ दो। घड़ीभर बाद दौरा चला जाता है, सब सार्थक, फिर सबमें लग जाता है। - जो लोग विरक्त हो जाते हैं, उनको आसक्ति के दौरे पड़ते रहते हैं, उनको भी पड़ते रहते हैं, उनको भी फिट आते हैं। जो आश्रम में बैठ जाते हैं, उनको भी एकदम से खयाल आ जाता है, सारी दुनिया सिनेमागृह में बैठी होगी और हम यहां बैठे हैं! जो मंदिर में बैठते हैं, उनको भी खयाल आ जाता है कि पड़ोसी दुकान पर पहुंच गया होगा, हम यहां क्या कर रहे हैं? जो आसक्त है, उसकी जिंदगी में विरक्ति बीच-बीच में प्रवेश करती रहेगी। जो विरक्त है, उसकी जिंदगी में आसक्ति बीच-बीच में प्रवेश करती रहेगी। असल में जिस हिस्से को हमने दबाया और छोड़ा है, वह असर्ट करता रहेगा, वह हमला करता रहेगा। वह कहेगा, मैं भी हूं, मुझे भी थोड़ा ध्यान दो। लेकिन सिर्फ अनासक्त व्यक्ति ऐसा है, जिसकी जिंदगी में दौरे नहीं पड़ते। क्योंकि न वहां विरक्ति है, न वहां आसक्ति है, इसलिए दौरे पड़ने का कोई उपाय नहीं है। दौरा विपरीत का पड़ता है। वहां अब कोई विपरीत ही नहीं है; नान- पोलर है। अब इसको समझ लेना आप। अनासक्ति जो है, नान - पोलर है, अध्रुवीय है। इसलिए अनासक्त जो हुआ, वह ध्रुवीय जगत के बाहर हो जाता है— जहां ऋण और धन चलता है, जहां स्त्री और पुरुष चलते हैं, जहां हानि और लाभ चलता है। वे जितने द्वंद्व हैं, सब ध्रुवीय हैं, पोलर हैं। जो व्यक्ति अनासक्त हुआ, वह अद्वैत में | प्रवेश कर जाता है; क्योंकि अनासक्ति नान- पोलर है। ब्रह्म में केवल वे ही प्रवेश करते हैं, जो अनासक्त हैं। जो आसक्त हैं या विरक्त हैं, वे द्वैत में ही भटकते रहते हैं। असल में जिसने भी पक्ष लिया, विपक्ष लिया, वह पोलर में गया, वह ध्रुवीय जगत में प्रवेश कर गया; वह ब्रह्म को कभी स्पर्श नहीं कर पाता। | ब्रह्म को वही स्पर्श करता है, जो दो की जगह एक में उठता है । आसक्ति और विरक्ति दोनों से उठना पड़े। और इन दोनों सें उठने की जो स्थिति है, वह कर्म में साक्षी बन जाना है। 380 प्रश्नः भगवान श्री, अनासक्त कर्म साधना है या सिद्धि का सहज प्रतिफलन है? इसे स्पष्ट करें। म नुष्य के पास जितने शब्द हैं, वे सभी शब्द कुछ बताते हैं, कुछ समझाते हैं, और कुछ नासमझी भी पैदा कर देते हैं, और कुछ उलझा भी देते हैं। अब जैसे एक रास्ता है, मंजिल तक पहुंचता है। जो आदमी रास्ते पर है, वह एक अर्थ में मंजिल से जुड़ गया, क्योंकि रास्ता मंजिल से जुड़ा है। जो आदमी रास्ते पर एक कदम चला, वह मंजिल पर भी एक कदम पहुंच गया, क्योंकि रास्ता मंजिल से जुड़ा है। लेकिन एक अर्थ में | अभी मंजिल पर कहां पहुंचा? अभी तो सिर्फ रास्ते पर है, अभी तो | बहुत चलना है। अगर सौ कदम मंजिल दूर है, तो निन्यानबे कदम Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TA पूर्व की जीवन-कला : आश्रम प्रणाली -m भी चल ले, तो भी रास्ते पर ही है। अभी मंजिल पर कहां पहुंचा? है। वह खड़ा नहीं है, वह चल रहा है। न तो वह नीचे की भूमि पर अभी तो रास्ते पर ही है। अभी मंजिल कहां आई? तो एक अर्थ में है, न अभी ऊपर पहुंच गया है। अभी वह गिर सकता है वापस; तो निन्यानबे कदम पर खड़ा हुआ आदमी भी रास्ते पर है, मंजिल अभी वह सीढ़ियों पर ही रुक सकता है; अभी वह पहुंच भी सकता पर नहीं है। और एक अर्थ में पहले कदम पर खड़ा हुआ आदमी | है। सब संभावनाएं खुली हैं। भी मंजिल पर है, क्योंकि एक कदम तो मंजिल पा ही ली। एक अनासक्ति का प्राथमिक कदम तो साधना का होगा, अंतिम कदम तो कम हुआ। कदम सिद्धि का होगा। लेकिन पहचान क्या होगी? जब तक तो साधना और सिद्धि. रास्ते और मंजिल की तरह हैं. आपको स्मरण रखना पडे अनासक्ति का, तब तक साधना है: और अनासक्ति दोनों है। जब आप शुरू करेंगे, तब वह साधना है; और | जब स्मरण की कोई जरूरत न रह जाए, तब सिद्धि है। जब तक जब पूर्ण होगी, तब वह सिद्धि है। जब आप शुरू करेंगे, पहला | आपको खयाल रखना पड़े कि अनासक्त रहना है, तब तक साधना कदम रखेंगे, तब तो साधना ही है, तब तो साधना ही रहेगी वह। है। जब आपको खयाल न रखना पड़े, आप कैसे भी रहें, चूकेंगे, भूलेंगे, भटकेंगे, गिरेंगे। कभी चित्त विरक्त हो जाएगा, अनासक्ति ही पाएं, तब समझना सिद्धि है। कभी आसक्त हो जाएगा। फिर संभलेंगे, फिर पहचानेंगे कि यह तो एक जापानी गुड्डा देखा होगा आपने; बाजार में मिलता है; उसे विरक्ति हो गई, यह तो आसक्ति हो गई। खरीदकर रख लेना चाहिए। दारुमा डाल्स कहलाते हैं वे गुड्डे। नीचे . और ध्यान रहे. आसक्ति उतना धोखा न देगी अनासक्ति का. चौडे होते हैं और उनके पैरों में सीसा भरा होता है। कैसे ही फेंको जितना विरक्ति देती है। क्योंकि विरक्ति में ऐसा लगता है, यह तो उसको, वह सदा पालथी मारकर बैठ जाता है सिद्धासन में। कहीं भी अनासक्ति हो गई। विरक्ति जल्दी धोखा देती है। आसक्ति तो | पटको, कुछ भी करो; वह वापस अपनी जगह बैठ जाता है। यह इतना धोखा नहीं देती; क्योंकि आसक्ति हमारा अनुभव है। विरक्ति सिद्ध है। यह दारुमा डाल जो है न, यह सिद्ध है। इसको तुम कुछ अपरिचित है। तो अनेक लोग वैराग्य को ही अनासक्त-भाव समझ | भी करो, यह अपनी पालथी मारकर अपनी जगह बैठ जाता है। लेते हैं। धोखे पड़ेंगे, भूल होगी, कई दफा लगेगा कि पहुंचे-पहुंचे यह दारुमा शब्द बड़ा अदभुत है। हिंदुस्तान से एक फकीर चौदह और एकदम फिसल जाएंगे और पाएंगे कि वहीं खड़े हैं; पोलेरिटी सौ साल पहले चीन गया, उसका नाम था बोधिधर्म। वह एक में वापस आ गए, ध्रुव में वापस गिर गए। अनासक्त व्यक्ति था; थोड़े से फूलों में से एक, जो मनुष्य जाति में अनासक्ति का पहला कदम तो साधना ही बनेगा। साधना का खिले। बोधिधर्म का जापानी नाम दारुमा है। बोधिधर्म को देखकर मतलब, अभी आश्वस्त नहीं हुए कि पहुंच गए; चल रहे हैं। वह गुड़िया बनाई गई। क्योंकि बोधिधर्म को कुछ भी करो—सोता लेकिन चलना ही तो पहुंचने के लिए पहला चरण है। जो चलेगा | है, तो अनासक्त; जागता है, तो अनासक्त; कुछ भी करे, नहीं, वह तो पहुंचेगा ही नहीं। चलना तो पड़ेगा ही। लेकिन चलना अनासक्त-उसको कहीं से पटको, कुछ भी करो, वह वापस ही पहुंच जाना नहीं है। यह भी खयाल रख लेना जरूरी है। जिस अपनी अनासक्ति में ही रहता है। इसलिए फिर यह गुड़िया बनाई दिन चलने का अंत होगा, उस दिन पहुंचना होगा। अब इसमें बड़ी गई। यह दारुमा डाल जो है, यह एक बहुत बड़े सिद्धपुरुष के रूप उलटी बातें कह रहा हूं मैं। जो चलेगा, वही पहुंच सकता है। जो | में बनाई गई। चलता ही रहेगा, वह कभी नहीं पहुंचेगा। जो नहीं चलेगा, वह कभी वह गुड़िया अपने घर में रखनी चाहिए। उसे लुढ़काकर देखते नहीं पहुंचेगा और जो नहीं-चलने में पहुंच जाता है, वही पहुंच गया | रहना चाहिए। वह वापस अपनी पोजीशन में आ जाती है। आप है। लेकिन यह बिलकुल अलग-अलग तल पर बात है, लेवल्स कुछ भी उपाय करें, उसकी पोजीशन नहीं मिटा सकते। जब अलग हैं। आपको अपने भीतर ऐसा लगे, कुछ भी हो जाए-दुख आए, नीचे खड़ा है एक आदमी सीढ़ियों के, वह भी खड़ा है। सीढ़ियां सुख आए, सफलता, असफलता, कोई जीए, कोई मरे, तूफान टूट पार करके जो आदमी छत पर खड़ा हो गया है, वह भी खड़ा है। जाए, बैंक्रप्ट हो जाएं, दिवालिया हो जाएं, मौत आ जाए-कुछ दोनों सीढ़ियों पर नहीं हैं। लेकिन एक सीढ़ियों के नीचे है, एक | भी हो जाए, आपके भीतर का दारुमा डाल जो है, आपकी चेतना सीढ़ियों के ऊपर है। जो सीढ़ियों के बीच में है, वह दोनों जगह नहीं जो है, वह हमेशा सिद्धासन लगाकर बैठी रहती है, उसमें कोई फर्क 1381 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m गीता दर्शन भाग-1 - नहीं पड़ता है, तब आप जानना कि सिद्धि हो गई है। जब तक ऐसा | ही किए जा रहे हैं। हम कपड़े वैसे पहन लेते हैं, जैसे दूसरे लोग न हो जाए, जब तक स्मरण रखना पड़े, जब तक होश रखना पड़े, | पहने हैं। हम मकान वैसा बना लेते हैं, जैसा दूसरे लोगों ने बनाया और अगर होश चूके, तो या तो आसक्ति आ जाए या विरक्ति आ | | है। हम पर्दे वैसे लटका लेते हैं, जैसा पड़ोसियों ने लटकाया है। जाए, तब तक जानना कि साधना है। हम कार वैसी खरीद लेते हैं, जैसी पड़ोसी लोग खरीदते हैं। | अमेरिका में तो कारों की वजह से मुहल्ले तक जाने जाते हैं। क्योंकि एक मुहल्ले में लोग एक-सी ही कारें खरीद लेते हैं, तो यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः । शेवरलेट नेबरहुड हो जाती है, शेवरलेट वालों का मुहल्ला। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते । । २१ ।। आदमी एक-दूसरे को देखकर करने लगता है। श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी | तो कृष्ण एक और गहरी बात इसमें कह रहे हैं। वे अर्जन से कह उस-उस के ही अनुसार बर्तते हैं। वह पुरुष जो कुछ प्रमाण रहे हैं कि तू उन पुरुषों में से है, जिन पर लाखों लोगों की नजर होती कर देता है, लोग भी उसके अनुसार बर्तते हैं। है। तू जो करेगा, वही वे लोग भी करेंगे। अगर तू जीवन से भाग गया, तो वे भी भाग जाएंगे। और हो सकता है कि तेरे लिए जीवन से भागना बड़ा प्रामाणिक हो, तो भी वे लाखों लोग बिलकुल OF तिम श्लोक की बात और कर लें; बहुत कीमती बात | गैर-प्रामाणिक ढंग से जीवन से भाग जाएंगे। 1 इसमें कृष्ण ने कही है। मनुष्य के चित्त का एक बहुत जब बुद्ध ने संन्यास लिया, तो बुद्ध का संन्यास तो बहुत बुनियादी लक्षण इमिटेशन है, नकल है। सौ में से आथेंटिक है। बुद्ध का संन्यास तो उनके प्राणों की पूरी की पूरी निन्यानबे आदमी आथेंटिक नहीं होते, प्रामाणिक नहीं होते, प्यास और पुकार है। लेकिन लाखों लोग बुद्ध के पीछे संन्यासी इमिटेटिव होते हैं, सिर्फ नकल कर रहे होते हैं। सौ में से निन्यानबे हुए। उतने लाखों लोग बुद्ध की हैसियत के नहीं हैं। महावीर ने लोग वही नहीं होते, जो उन्हें होना चाहिए; वही होते हैं, जो वे अपने जब संन्यास लिया, तो महावीर तो, महावीर के लिए संन्यास चारों तरफ लोगों को देखते हैं कि लोग हैं। छोटे बच्चे नकल करते नियति है, डेस्टिनी है; उससे अन्यथा नहीं हो सकता। लेकिन हैं, अनुकरण करते हैं; सब कुछ नकल से ही छोटे बच्चे सीखते | महावीर के पीछे लाखों लोग संन्यासी हुए। वे सारे लाखों लोग हैं। लेकिन हममें से बहुत कम लोग हैं, जो छोटे बच्चों की सीमा | महावीर की हैसियत के नहीं हैं। पार कर पाते हैं। हममें से अधिक लोग जीवनभर ही छोटे बच्चे रह लेकिन फिर भी मैं कहूंगा कि अगर नकल ही करनी है, तो फिल्म जाते हैं। हम सिर्फ नकल ही करते हैं। हम देख लेते हैं, वही करने स्टार की बजाय संन्यासी की ही करनी बेहतर है-अगर नकल ही लगते हैं। करनी है। और नकल ही करनी है, तो फिर बेहतर है कि महावीर अगर आज से हम हजार साल पहले भारत के गांव में जाते, तो की नकल ही हो जाए। क्यों? क्योंकि अच्छे की नकल शायद कभी बच्चे ओंकार की ध्वनि करते मिलते। ऐसा नहीं कि बच्चे कोई बहुत | स्वयं के अच्छे का द्वार भी बन जाए। जैसे कि बुरे की नकल पवित्र थे। अभी उसी गांव में जाएं, बच्चे फिल्मी गाना गाते मिलते निश्चय ही कभी बुरे के आगमन का द्वार बन जाती है। हैं। ऐसा नहीं कि बच्चे अपवित्र हो गए हैं। नहीं, बच्चे तो वही करते मैं बुरे के लिए निश्चित कहता हूं और अच्छे के लिए शायद हैं, जो चारों तरफ हो रहा है। जो बच्चे ओंकार की ध्वनि कर रहे थे, कहता हूं। क्यों? क्योंकि अच्छा चढ़ाई है और बुरा ढलान है। वे कोई बहुत पवित्र थे, ऐसा नहीं है। लेकिन ओंकार की ध्वनि से ढलान बहुत निश्चित बन जाती है। उसमें कुछ भी नहीं करना पवित्रता के आने का द्वार खुलता था। और जो बच्चे फिल्म का गीत पड़ता; सिर्फ छोड़ दिया और उतर जाते हैं। चढ़ाई पर कुछ करना गा रहे हैं, वे कोई अपवित्र हैं, ऐसा नहीं है। लेकिन फिल्म के गीत पड़ता है श्रम। लेकिन अगर नकल में भी चढ़े, अगर कोई कैलाश से पवित्रता का द्वार बंद होता है। लेकिन वे तो इमिटेट कर रहे हैं। पर किसी के पीछे नकल में भी चढ़ गया, तो भी कैलाश पर तो बच्चों की तो बात छोड़ दें। हम जानते हैं कि बच्चे तो नकल | पहुंच ही जाएगा। और कैलाश पर पहुंचकर जो घटित होगा, वह करेंगे, लेकिन कभी आपने सोचा कि आप इस उम्र तक भी नकल । सारी नकलें तोड़ देगा और उसके प्रामाणिक व्यक्तित्व के भी प्रकट 1382] Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पूर्व की जीवन-कलाः आश्रम प्रणाली -AM होने का क्षण आ सकता है। ढलते हैं। हां, तब बाप नहीं ढालता, तब सड़क की होटल ढाल कृष्ण यह कह रहे हैं कि और हजारों-लाखों लोग अर्जुन, तुझे | देती है; तब मां नहीं ढालती, लेकिन फिल्म अभिनेत्री ढाल देती है; देखकर जीते हैं। अर्जुन साधारण व्यक्ति नहीं है। अर्जुन असाधारण | तब गीता नहीं ढालती, लेकिन सुबह का अखबार ढाल देता है। व्यक्तियों में से है। उस सदी के असाधारण लोगों में से है। अर्जुन और हम किसी बच्चे को जिंदगी के सारे इंप्रेशन से, प्रभावों से मुक्त को लोग देखेंगे। अर्जुन जो करेगा, वह अनेकों के लिए प्रमाण हो | कैसे रख सकते हैं? पचास साल में मनोवैज्ञानिकों ने जो कहा, तो जाएगा। अर्जुन जैसा जीएगा, वैसा करोड़ों के लिए अनुकरणीय हो सारी दुनिया के मां-बाप, कम से कम शिक्षित मां-बाप, बहुत डर जाएगा। तो कृष्ण कहते हैं, तुझे देखकर जो लाखों लोग जीते हैं, | गए। जितनी जिस मुल्क में शिक्षा बढ़ी, मां-बाप बहुत डर गए। अगर तू भागता है, वे भी जीवन से भाग जाएंगे। अगर तू पलायन एक जमाना था कि बच्चे घर में घुसते थे, तो डरते हुए घुसते थे। करता है, वे भी पलायन कर जाएंगे। अगर तू विरक्त होता है, वे आज अमेरिका में बाप घर में घुसता है, तो बच्चों से डरा हुआ घुसता भी विरक्त हो जाएंगे। है कि कोई मनोवैज्ञानिक भल न हो जाए कि कहीं बच्चा बिगडन तो अर्जुन, उचित ही है कि तू अनासक्त हो जा, तो शायद उनमें जाए, न्यूरोटिक न हो जाए, कहीं पागल न हो जाए, कहीं दिमाग भी अनासक्ति का खयाल पहुंचे। तेरी अनासक्ति की सुगंध उनके | | खराब न हो जाए, कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए, तो बाप डरा हुआ भी नासापुटों को पकड़ ले। तेरी अनासक्ति का संगीत, हो सकता घुसता है घर में! मां डरती है अपने बच्चों से कुछ कहने में कि कहीं है, उनके भी हृदय के किसी कोने की वीणा को झंकृत कर दे। तेरी | कोई ऐसी चीज न पैदा हो जाए कि कांप्लेक्स पैदा हो जाए दिमाग में, अनासक्ति का आनंद, हो सकता है, उनके भीतर भी अनासक्ति के | ग्रंथि हो जाए; कहीं बीमार न हो जाए। सब डरे हुए हैं। फूल के खिलने की संभावना बन जाए। तो तू उन पर ध्यान रख। लेकिन इससे हुआ क्या? अठारहवीं सदी और उन्नीसवीं सदी में यह सिर्फ तेरा ही सवाल नहीं है। क्योंकि तू सामान्यजन नहीं है, तू | जो बच्चे थे, उनसे बेहतर बच्चे हम पैदा नहीं कर पाए। बच्चे तो असामान्य है; तुझे देखकर न मालूम कितने लोग चलते, उठते और ढाले ही गए, लेकिन मां-बाप जो कि बहुत प्रेम से ढालते, मां-बाप बैठते हैं। तू उनका भी खयाल कर। और अगर तू अनासक्त हो | जो कि बहुत केअर और कंसर्न से ढालते, उन्होंने नहीं ढाला। सके, तो उन सबके लिए भी तेरा जीवन मंगलदायी हो सकता है। | | लेकिन बाजार ढाल रहा है उनको, अखबार ढाल रहे हैं, पत्रिकाएं इस संबंध में दो बातें अंत में आपसे और कहूं। इधर पिछले | ढाल रही हैं, डिटेक्टिव्स ढाल रहे हैं, फिल्में ढाल रही हैं। पचास-साठ वर्षों में पश्चिम के मनोवैज्ञानिकों ने कुछ इस तरह की | सारी दुनिया, आज दुनिया का बाजार, एक जमाना था कि नब्बे भ्रांति पैदा की-उनको भी अब भ्रांति मालूम पड़ने लगी जिसमें | | प्रतिशत स्त्रियों से चलता था। आज दुनिया का बाजार पचास उन्होंने मां-बाप को, शिक्षकों को, सबको समझाया कि बच्चों को | | प्रतिशत बच्चों से चल रहा है। और बच्चों को परसुएड किया जा इमिटेशन से बचाओ। यह बात थोड़ी दूर तक सच थी। और थोड़ी | रहा है। क्योंकि कोई भी नई चीज पकड़ानी है, तो पिता को पकड़ाना दूर तक जो बातें सच होती हैं, कभी-कभी खतरनाक होती हैं, | जरा मुश्किल पड़ती है; बच्चे को पकड़ाना आसान पड़ती है; वह क्योंकि थोड़ी दूर के बाद वे सच नहीं होतीं। इसमें थोड़ी दूर तक | जल्दी पकड़ लेता है। और उसके घर में कोई शिष्ट, कोई बात सच थी कि बच्चों को हम ढालें न, उनको पैटर्नाइज न करें। अनुशासन नहीं है, इसलिए वह बाहर से जो भी सीखने मिलता है, उनको ऐसा न करें कि एक ढांचा दे दें और जबर्दस्ती ढालकर रख | | उसे सीख लेता है। अगर आज सारी दुनिया में बच्चे बगावती हैं, दें। तो पश्चिम के मनोवैज्ञानिकों ने बहत जोर से जोर दिया कि तो उसका कल कारण इतना है केआटिक हैं. अराजक हैं. तो बच्चों को ढालो मत; बच्चों को कोई दिशा मत दो; बच्चों को कोई | | उसका कुल कारण इतना है कि हम उनके लिए कोई भी आधार, डिसिप्लिन, कोई अनुशासन मत दो; क्योंकि उससे बच्चों की | कोई भी अनुशासन, कोई भी दृष्टि, कोई भी दिशा देने में समर्थ आत्मा का जो प्रामाणिक रूप है, वह प्रकट नहीं हो सकेगा। बच्चे नहीं रहे हैं। और मां-बाप डरते हैं कि कहीं बच्चे उनकी नकल न इमिटेटिव हो जाएंगे। करने लगे। कृष्णमूर्ति ने भी इस पर भारी जोर दिया। लेकिन यह बात थोड़ी | | लेकिन बच्चे नकल करेंगे ही। कभी लाख में एकाध बच्चा होता दूर तक ही सच है। क्योंकि अगर बच्चे न ढाले जाएं, तो भी बच्चे | है, जो नकल नहीं करता और खुद जीता है। लेकिन वह कभी होता | 383| Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm गीता दर्शन भाग-1 - है, वह अपवाद है; उसका कोई हिसाब नहीं रखा जा सकता। अधिकतर बच्चे तो नकल करके ही जीएंगे। बाप डरता है कि कहीं मेरी नकल न कर ले। मां डरती है कि लड़की कहीं मेरी नकल न कर ले, नहीं तो बिगड़ जाए, क्योंकि सारा मनोविज्ञान कह रहा है कि बिगाड़ मत देना। और मजा यह है कि वे बच्चे तो नकल करेंगे ही। तब वे किसी की भी नकल करते हैं। और वह नकल जो परिणाम ला रही है, वह हमारे सामने है। कृष्ण ने जब यह कहा अर्जुन से, तो उस कहने का प्रयोजन इतना ही है कि तेरे ऊपर न मालूम कितने लोगों की आंखें हैं। तू ऐसा कुछ कर, तू कुछ ऐसा जी कि उनकी जिंदगी में तेरा अनुशासन, मार्ग, प्रकाश, ज्योति बन सके। उनका जीवन तेरे कारण अंधकारपूर्ण न हो जाए। इससे लोकमंगल सिद्ध होता है। शेष कल बात करेंगे। 384 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 3 छठवां प्रवचन वर्ण व्यवस्था की वैज्ञानिक पुनर्स्थापना Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-14 न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन । नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ।। २२ ।। यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।। २३ ।। उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् । संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ।। २४ ।। इसलिए हे अर्जुन, यद्यपि मुझे तीनों लोकों में कुछ भी कर्तव्य नहीं है तथा किंचित भी प्राप्त होने योग्य वस्तु अप्राप्त नहीं है, तो भी मैं कर्म में ही बर्तता हूं। क्योंकि यदि मैं सावधान हुआ कर्म में न बर्त, तो हे अर्जुन, सब प्रकार से मनुष्य मेरे बर्ताव के अनुसार बर्तने लग जाएं। तथा यदि मैं कर्म न करूं, तो ये सब लोग भ्रष्ट हो जाएं और मैं वर्णसंकर का करने वाला होऊं तथा इस सारी प्रजा का हनन करूं अर्थात इनको मारने वाला बनूं। स नाई के पर्वत पर मोजेज को परमात्मा का दर्शन हुआ और उस दर्शन में परमात्मा के दस आदेश, टेन कमांडमेंट्स भी मिले। फिर मोजेज सनाई के पर्वत से नीचे उतरे। लेकिन जब वे पर्वत पर गए थे, तो मोजेज थे; और जब पर्वत से नीचे उतरे, तो परमात्मा हो गए। पर्वत से नीचे आकर उन्होंने अपने लोगों से जो वचन कहा, यहूदी इतिहास में वह सदा ही विचारणीय बना रहा। मोजेज ने नीचे उतरकर लोगों से कहा कि नाउ आई गिव यू दि ला, मैं तुम्हें धर्म देता हूं। परमात्मा और मूसा एक हो गए, मोजेज एक हो गए। जिसने भी परमात्मा को जाना, वह परमात्मा से एक हो जाता है। मोजेज कहना चाहिए था, परमात्मा के मुझे दर्शन हुए; उन्होंने मुझे धर्म का नियम दिया, वह मैं परमात्मा की तरफ से तुम्हें देता हूं। लेकिन मोजेज ने कहा, मैं तुम्हें धर्म देता हूं। एक हसीद फकीर से उसके शिष्य पूछ रहे थे कि मोजेज का ऐसा कहना अनुचित नहीं है क्या? क्या यह अनधिकारपूर्ण नहीं है? क्या मोजेज का इस तरह का वक्तव्य अहंकार से भरा हुआ नहीं है ? तो उस हसीद फकीर ने एक छोटी-सी कहानी कही, वह आपसे कहना चाहूं । उस हसीद फकीर ने कहा, एक बहुत बड़ा व्यापारी, एक बहुत बड़ा व्यवसायी तीर्थयात्रा को जाना चाहता था। दूर था उसका तीर्थ, संभावना वर्षों के लग जाने की थी। अकेला था घर में। उसके बड़े व्यवसाय को संभालने वाला कोई भी न था। उसने एक आदमी को नौकर की तरह नियुक्त किया। नौकर के हाथ में सारा कारोबार सौंप दिया और खुद दुकान के पीछे के कमरे में बैठने लगा । एक वर्ष बीत गया, लेकिन उसे ऐसा नहीं लगा कि अभी | तीर्थयात्रा पर जाने का समय परिपक्व हुआ है। अनेक बार वह पीछे के कमरे में से बैठा हुआ नौकर की बातचीत ग्राहकों से सुनता। नौकर अक्सर कहता, दि मास्टर विल नाट गिव यू दिस थिंग एट | दिस प्राइस, मालिक इस कीमत पर चीज नहीं देगा। दूसरा वर्ष शुरू हो गया। वह पीछे के कमरे में ही रहता और फिर नौकर को सुनता रहता। लेकिन दूसरे वर्ष उसे थोड़ी आशा बंधी। नौकर ने ग्राहकों से कहना शुरू कर दिया, वी विल नाट गिव यू दिस थिंग एट दिस प्राइस, हम इस कीमत पर चीज नहीं दे सकते। लेकिन तब भी मालिक ने सोचा कि अभी ठीक समय नहीं आया कि मैं यात्रा पर निकल जाऊं। तीसरा वर्ष लग गया। और एक दिन मालिक को | लगा कि ठीक समय आ गया, क्योंकि नौकर ने ग्राहकों से कहा, आई विल नाट गिव यू दिस थिंग एट दिस प्राइस, मैं तुम्हें इस | कीमत पर चीज नहीं दूंगा। मालिक ने अपनी पत्नी से कहा कि अब | बेफिक्र रहो । अब मैं यात्रा पर जा सकता हूं। अब नौकर में और मुझमें कोई फासला नहीं रहा। अब हमारे बीच की दीवाल टूट गई है। अब नौकर मेरी वाणी बोल रहा है। अब मैं ही बोल रहा हूं। अब बेफिक्र हुआ जा सकता है। उस हसीद फकीर ने यह छोटी-सी कहानी कही थी, यह आपसे मैं कहता हूं, इस सूत्र को समझाने के पहले। 386 कृष्ण जब ऐसा कहते हैं कि मुझे अब कुछ भी ऐसा नहीं है जो पाने योग्य हो, क्योंकि मैंने सब पा लिया; अब कुछ भी ऐसा नहीं है जो मेरे लिए करने योग्य हो, क्योंकि सब किया जा चुका; जो पाना था, वह पा लिया गया; जो करना था, वह कर लिया गया; अब कर्म मेरे लिए कर्तव्य नहीं है; तो यहां कृष्ण नहीं बोल रहे हैं, परमात्मा ही बोल रहा है। और इतने साहस से सिर्फ वही बोल सकता है, जो परमात्मा के साथ बिलकुल एक हो गया है। राम इतने साहस से नहीं बोलते। इसलिए राम को हम पूर्ण अवतार नहीं कह सके । कृष्ण ही इस साहस से बोलते हैं। और इतना बड़ा साहस सिर्फ निरहंकारी को ही उपलब्ध होता है। अहंकारी तो सदा भयभीत रहता है। सच तो यह है कि भय को हम अपने अहंकार से छिपाए रखते हैं। अहंकारी सदा डांवाडोल रहता Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ON वर्ण व्यवस्था की वैज्ञानिक पुनर्स्थापना - है। लेकिन कृष्ण जब बोलते हैं, तो वे यह कह रहे हैं कि मैं, कुछ | | पर अगर हम बैठ गए, जिन पर अगर हम रुक गए, जिन पर अगर भी करने योग्य नहीं है, फिर भी किए चला जाता हूं; और कुछ भी | हम ठहर गए, तो हम पदार्थ के ही घेरे में बंद रह जाएंगे और पाने योग्य नहीं है, फिर भी दौड़ता हूं और चलता हूं। क्यों? | | परमात्मा के प्रकाश को कभी उपलब्ध न हो पाएंगे। इसलिए कि चारों ओर जो लोग हैं, मैं चाहूं तो सब छोड़ सकता हूं | इसलिए कृष्ण कहते हैं, मैं जिसे कि सब कुछ मिल गया, मैं करना, मैं चाहूं तो सब छोड़ सकता हूं पाना; लेकिन तब मुझे जिसने कि सब कुछ पा लिया, जिसके लिए अब कोई आकांक्षा देखकर वे बहुत से लोग, जिन्हें अभी पाने को बहुत कुछ शेष है, | | शेष नहीं रही, जिसके लिए अब कोई भविष्य नहीं है...। खयाल पाना छोड़ देंगे; और जिन्हें अभी करने को बहुत कुछ शेष है, करना | रहे, भविष्य निर्मित होता है आकांक्षाओं से, कल निर्मित होता है छोड़ देंगे। वासनाओं से। कल हम निर्माण करते हैं इसलिए कि आज बहुत इस बात को थोड़ा गहरे देखना जरूरी है। असल में जिसे अभी कुछ है, जो पाने को शेष रह गया। कृष्ण जैसे व्यक्ति के लिए कोई परमात्मा नहीं मिला, उसे बहुत कुछ पाने को शेष है। सच तो यह भविष्य नहीं है। सब कुछ अभी है, यहीं है। रुक जाना चाहिए। है कि जिसे परमात्मा नहीं मिला, उसे सभी कुछ पाने को शेष है। लेकिन बड़े मजे की बात है, कृष्ण जैसा व्यक्ति नहीं रुकता और उसने अभी जो भी पाया है, उसका कोई भी मूल्य नहीं है। और जिसे हम रुक जाते हैं। जिन्हें नहीं रुकना चाहिए, वे रुक जाते हैं; जिसे अभी मुक्ति नहीं मिली और जिसने आत्मा की स्वतंत्रता को अनुभव रुक जाना चाहिए, वह नहीं रुकता है। हम नासमझ रुकने वालों के नहीं किया, अभी उसे बहुत कुछ करने को शेष है। असल में अभी लिए, ठहर जाने वालों के लिए, पड़ाव को मंजिल, गलत रास्ते को तक उसने जो कुछ भी किया है, उससे वह कहीं भी नहीं पहुंचा है। सही रास्ता समझ लेने वालों के लिए कृष्ण जैसे व्यक्ति को करुणा लेकिन कृष्ण जैसा व्यक्ति, जिसके पाने की यात्रा पूरी हुई, करने से ही चलते रहना पड़ता है। की यात्रा पूरी हुई, जो मंजिल पर खड़ा है, अगर वह भी बैठ जाए, इसलिए कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से कि तू रुकेगा, तू ठहरेगा, तो तो हम रास्तों पर ही बैठ जाएंगे। खतरनाक है। खतरनाक दो कारणों से है। खुद अर्जुन के लिए भी हम तो बैठना ही चाहते हैं। हम तो उत्सुक हैं कि बैठने के लिए खतरनाक है। अर्जुन भी अभी वहां नहीं पहुंच गया है, जो मंजिल बहाना मिल जाए। हम तो आतुर हैं कि हमें कोई कारण मिल जाए है। अभी श्रम अपेक्षित है। अभी संकल्प की जरूरत है। अभी और हम यात्रा बंद कर दें। हम यात्रा बड़े बेमन से कर रहे हैं। हम साधना आवश्यक है। अभी कदम उठाने हैं, सीढ़ियां चढ़नी हैं। चल भी रहे हैं तो ऐसे जैसे कि बोझ की भांति चलाए जा रहे हैं। अभी मंदिर आ नहीं गया और प्रतिमा दूर है। अर्जुन के लिए भी जिंदगी हमारी कोई मौज का गीत नहीं, और जिंदगी हमारा कोई नृत्य | रुक जाना खतरनाक है। और अर्जुन के लिए खतरनाक है ही, पर नहीं है। जिंदगी हमारी वैसी है, जैसे बैल चलते हैं गाड़ी में जुते हुए, | वह एक ही व्यक्ति के लिए खतरनाक है। अर्जुन को देखकर पीछे ऐसे हम जिंदगी में जुते हुए चलते हैं। हम तो कभी भी आतुर हैं कि चलने वाले बहुत से लोग रुक जाएंगे। जब अर्जुन जैसा व्यक्ति मौका मिले और हम रुकें। | रुके, तो वे रुक जाएंगे। लेकिन अगर हम रुक जाएं, तो हम परमात्मा को पाने से ही रुक कृष्ण की सारी सक्रियता करुणा है। करुणा उन पर, जो अभी जाएंगे। क्योंकि अभी जो पाने योग्य है, वह पाया नहीं गया; अभी अपनी मंजिल पर नहीं पहुंच गए हैं। उनके लिए कृष्ण दौड़ते रहेंगे जो जानने योग्य है. वह जाना नहीं गया। और जानने योग्य क्या है? कि उनमें भी गति आती रहे। उनके लिए कष्ण खोजते रहेंगे उसको जानने योग्य वही है, जिसको जान लेने के बाद फिर कुछ जानने को जिसे उन्होंने पा ही लिया है, ताकि वे भी खोज में लगे रहें। उनके शेष नहीं रह जाता है। और पाने योग्य क्या है? पाने योग्य वही है लिए कृष्ण श्रम करते रहेंगे उसके लिए, जो कि उनके हाथ में है, कि जिसको पा लेने के बाद फिर पाने की आकांक्षा ही तिरोहित हो। ताकि वे भी श्रम करते रहें, जिनके कि हाथ में अभी नहीं है। जाती है। मंजिल वही है, जिसके आगे फिर कोई रास्ता ही नहीं होता। इस सत्य को अगर हम ठीक से देख पाएं, तभी हम बुद्ध, जिस मंजिल के आगे रास्ता है, वह मंजिल नहीं है, पड़ाव है। | महावीर, कृष्ण या क्राइस्ट की सक्रियता को समझ पाएंगे। उनकी हम तो अभी पड़ाव पर भी नहीं हैं, रास्तों पर हैं। शायद ठीक | | सक्रियता और हमारी सक्रियता में एक बुनियादी भेद है। वे कुछ रास्तों पर भी नहीं हैं, गलत रास्तों पर हैं। ऐसे रास्तों पर हैं, जिन | | पाने के बाद भी सक्रिय हैं और हम कुछ पाने के पहले सक्रिय हैं। 387 Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-14 एक-सा ही लगेगा। हम और वे रास्ते पर चलते हुए एक-से ही मालूम पड़ेंगे, लेकिन हम एक-से नहीं हैं। इस तरह के व्यक्तियों को ही हमने अवतार कहा है। इसलिए अवतार शब्द के संबंध में दो बातें खयाल में ले लें। अवतार हम उस व्यक्ति को कहते हैं, जिसे पाने को कुछ भी शेष नहीं रहा, फिर भी पाने वालों के बीच में खड़ा है। अवतार हम उस व्यक्ति को कहते हैं, जिसे जानने को कुछ शेष नहीं रहा, फिर भी जानने वालों की पाठशाला में बैठा हुआ है। अवतार हम उसे कहते हैं, जिसके लिए जिंदगी में अब लेने योग्य कुछ भी नहीं है, फिर भी जिंदगी के घनेपन में खड़ा है। अवतार का कुल अर्थ इतना ही है कि जो पहुंच चुका, वह भी रास्ते पर है। बुद्ध के जीवन में एक उल्लेख है । उल्लेख है कि बुद्ध का निर्वाण हुआ। कहानी है बहुत मधुर, बहुत मीठी। फिर भी सत्य, कहानी की तरह नहीं, उसके अभिप्राय की तरह । बुद्ध का निर्वाण हो गया और निर्वाण के बाद की कथा है कि वे मोक्ष के द्वार पर खड़े हैं। द्वारपाल ने दरवाजे खोल दिए हैं, लेकिन बुद्ध द्वार से प्रवेश नहीं करते। द्वारपाल कहता है, भीतर आएं, स्वागत है । और मोक्ष प्रतीक्षा करता है आपकी बहुत दिनों से। चालीस वर्ष पहले बुद्ध को आ जाना चाहिए था, क्योंकि मरने के चालीस वर्ष पहले यात्रा पूरी हो गई थी। मरने के चालीस वर्ष पहले ही जो पाना था, पा लिया गया; और जो जानना था, वह जान लिया गया था। लेकिन चालीस वर्ष कहां थे? चालीस वर्ष से मोक्ष प्रतीक्षा करता है कि आएं। द्वार चालीस वर्ष से खुले हैं। लेकिन बुद्ध कहते हैं, अभी भी मैं प्रवेश नहीं करूंगा । द्वार को अभी और बहुत दिन तक खुले रहना पड़ेगा। वह द्वारपाल कहता है, क्या कह रहे हैं आप ! लोग द्वार खटखटाते हैं, तब भी मोक्ष के द्वार नहीं खुलते। लोग छाती पीटते हैं, तो भी मोक्ष के द्वार नहीं खुलते। लोग गिड़गिड़ाते हैं, तो भी मोक्ष के द्वार नहीं खुलते। मोक्ष द्वार खुले हैं और आप रुके हैं बाहर! प्रवेश करें, रुकते क्यों हैं ? तो बुद्ध कहते हैं कि जब तक एक आदमी भी मेरे पीछे मोक्ष के बिना रह गया है, तब तक मैं प्रवेश नहीं कर सकता हूं। मैं अंतिम आदमी हो सकता हूं, जो मोक्ष में प्रवेश करेगा। महायान बौद्ध धर्म के फकीर कहते हैं, बुद्ध अब भी मोक्ष के द्वार पर खड़े हैं। द्वार खुले हैं और बुद्ध द्वार पर ही खड़े हैं। अब भी खड़े हैं। जब तक अंतिम आदमी प्रवेश न कर जाए, तब तक वे खड़े ही रहने वाले हैं। कहानी है। अभिप्राय गहरा है और सत्य है। कृष्ण यही कह रहे हैं। अर्जुन को वे एक बात स्मरण दिलाना चाहते हैं और वह यह कि अपने लिए ही कर्म करना काफी नहीं है। असली कर्म तो उसी दिन शुरू होता है, जिस दिन वह दूसरे के लिए शुरू होता है। अपने लिए ही जीना पर्याप्त नहीं है । असली जिंदगी तो उसी दिन शुरू होती है, जिस दिन वह दूसरे के लिए शुरू होती है। ध्यान रहे, जो सिर्फ अपने लिए, खुद के कुछ पाने के लिए जीता | है, वह बोझ से ही जीएगा, बर्डनसम ही होगी उसकी जिंदगी - एक | बोझ, एक भार। लेकिन जिस दिन व्यक्ति अपने लिए सब पा चुका | होता, सब जान चुका होता, फिर भी जीता है, तब जिंदगी निर्भार, | वेटलेस हो जाती है। तब जिंदगी से ग्रेविटेशन, जमीन की कशिश खो जाती है; और आकाश का प्रसाद, प्रभु की ग्रेस बरसनी शुरू है। हम जमीन से बंधे हुए जीते हैं, हम जिंदगी के बोझ से भरे हुए जीते हैं। जो भी अपने लिए जी रहा है, वह जमीन के बोझ से भरा | हुआ जीएगा। अपने लिए जीने से ज्यादा बड़ा कष्ट दूसरा नहीं है। इस साधारण जिंदगी में भी वे ही क्षण हमारे आनंद के होते हैं, जब हम थोड़ी देर के लिए दूसरे के लिए जीते हैं। मां जब अपने बेटे के लिए जी लेती है, तब आनंद से भर जाती है। मित्र जब अपने मित्र के लिए जी लेता है, तो आनंद से भर जाता है। क्षणभर को भी अगर हम दूसरे के लिए जीते हैं, तभी हमारे जीवन में आनंद होता है। कृष्ण कह रहे हैं, जिसने सब पा लिया, वह दूसरे के लिए ही जीता है, अपने लिए जीने का तो कोई कारण ही शेष नहीं रह जाता। | और तब आनंद की अनंत वर्षा उसके ऊपर हो जाती है। अर्जुन को | वे कह रहे हैं कि तू अपने लिए ही मत सोच । केवल अपने लिए ही | मत सोच - अपने लिए सोच, क्योंकि तेरे लिए भी अभी यात्रा बाकी है - लेकिन उनके लिए भी सोच, जिनके लिए बहुत यात्रा बाकी है और जो अभी जीवन के अंधेरे पथों पर हैं और जिन्हें | मंजिल का कोई भी प्रकाश दिखाई नहीं पड़ा है। 388 प्रश्नः भगवान श्री, कल की चर्चा पर दो छोटे प्रश्न हैं। एक मित्र पूछते हैं कि आपने वर्ण व्यवस्था के बारे में जो कहा, क्या आज वह व्यवस्था आज की स्थिति में उचित है उसे लाना ? और दूसरा प्रश्न है कि आश्रमों की चर्चा आपने की और उम्र का भी विभाजन Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ण व्यवस्था की वैज्ञानिक पुनर्स्थापना किया। संन्यास चौथी अवस्था में आता है, तो मित्र पूछते हैं कि आप बहुत छोटी उम्र के लोगों को भी संन्यास की दीक्षा दे रहे हैं, तो क्या वह उचित है ? स मय बदल जाता है, परिस्थिति बदल जाती है, लेकिन जीवन के मूल सत्य नहीं बदलते हैं। और जो उन मूल सत्यों को अस्वीकार करता है, वह केवल कष्ट में, दुख और चिंता में पड़ता है। सब कुछ बदल जाता है, लेकिन जीवन के जो आधार - सत्य हैं, वे नहीं बदलते हैं। वर्ण और आश्रम की व्यवस्था किसी समाज विशेष और किसी परिस्थिति विशेष के नियम पर निर्मित नहीं थी । वर्णाश्रम की व्यवस्था मनुष्य के चित्त के ही नियमों पर निर्भर थी। और आज भी उतने ही उपयोग की है, जितनी कभी हो सकती थी और कल भी उतने ही उपयोग की रहेगी। इसका यह मतलब नहीं है कि वर्ण व्यवस्था के नाम पर जो चल रहा है, वह उपयोगी है। जो चल रहा है, वह तो वर्ण व्यवस्था नहीं है। जो चल रहा है, वह तो वर्ण व्यवस्था के नाम पर रोग है, बीमारी है। असल में सभी ढांचे सड़ जाते हैं। सत्य नहीं सड़ते, ढांचे सड़ जाते हैं। और अगर सत्यों को बचाना हो, तो सड़े हुए ढांचों को रोज अलंग करने का साहस रखना चाहिए। जो ढांचा निर्मित हुआ था, वह तो सड़ गया; उसके प्राण तो कभी के खो गए, उसकी आत्मा तो कभी की लोप हो गई; सिर्फ देह रह गई है। और उस देह में हजार तरह की सड़ांध पैदा होगी, क्योंकि आत्मा के साथ ही उस देह में सड़ांध पैदा नहीं हो सकती थी। दो बातें वर्ण के संबंध में। एक तो, जिस दिन वर्ण हाइरेरिकल गया, , जिस दिन वर्ण नीचे-ऊंचे का भेद करने लगा, उसी दिन सड़ांध शुरू हो गई। वर्ण के सत्य में नीचे-ऊंचे का भेद नहीं था; वर्ण के सत्य में व्यक्तित्व भेद था। शूद्र ब्राह्मण से नीचा नहीं है, ब्राह्मण शूद्र से ऊंचा नहीं है। क्षत्रिय शूद्र से ऊंचा नहीं है, वैश्य ब्राह्मण सें नीचा नहीं है। नीचे-ऊंचे की बात खतरनाक सिद्ध हुई । शूद्र शूद्र है, ब्राह्मण ब्राह्मण है। यह टाइप की बात है। जैसे कि समझें, एक आदमी पांच फीट का है और एक आदमी छह फीट का है। तो पांच फीट का आदमी छह फीट के आदमी से नहीं है। पांच फीट का आदमी पांच फीट का आदमी है, छह फीट का आदमी छह फीट का आदमी है। एक आदमी काला है, एक आदमी गोरा है। काला आदमी गोरे आदमी से नीचा नहीं है। काला आदमी काला है, गोरा आदमी गोरा है। पिगमेंट का फर्क है, चमड़ी में थोड़े-से रंग का फर्क है। मुश्किल से दो, तीन, चार आने के दाम का फर्क है। और चमड़ी के फर्क से कोई आदमी में फर्क नहीं होता । गोरे की चमड़ी में भी आज नहीं कल, तीन - चार आने का पिगमेंट काला डाला जा सकेगा, तो वह काली हो जाएगी। काले की चमड़ी गोरी हो जाएगी। गोरा गोरा है, काला काला है; ऊंचे-नीचे का फासला जरा भी नहीं है। एक आदमी के पास थोड़ी ज्यादा बुद्धि है, एक आदमी के पास थोड़ी कम बुद्धि है। ऊंचे-नीचे का फिर भी कोई कारण नहीं है। कोई कारण नहीं है। जैसे पिगमेंट का फर्क है, ऐसे ही बुद्धि की मात्रा का फर्क है । है फर्क । | वर्ण की व्यवस्था में फर्क, डिफरेंस की स्वीकृति थी, वेल्युएशन नहीं था, मूल्यांकन नहीं था। और उचित है कि स्वीकृति हो, क्योंकि |जिस दिन स्वीकृति खो जाती है, उस दिन उपद्रव, उत्पात शुरू होता | है। अब आज वर्ण टिकेगा नहीं। क्योंकि सड़ी हुई वर्ण की व्यवस्था, कोई लाख उपाय करे, टिक नहीं सकती। लेकिन वर्ण लौटेगा। यह व्यवस्था तो मरेगी, लेकिन वर्ण लौटेगा। जितना मनुष्य के संबंध में वैज्ञानिक चिंतन बढ़ेगा आने वाली सदी में, वर्ण की व्यवस्था वापस लौट आएगी। हिंदुओं की वर्ण की | व्यवस्था नहीं लौटेगी। वह तो गई, वह मर गई। वर्ण की व्यवस्था लौट आएगी और अब और ज्यादा वैज्ञानिक होकर लौटेगी। क्योंकि जितना मनुष्य के संबंध में समझदारी बढ़ रही है, जितना | मनोविज्ञान विकसित हो रहा है, उतनी बात साफ होती जा रही है | कि चार तरह के लोग हैं । उनको इनकार करने का कोई उपाय नहीं | है । और हम कुछ भी उपाय करें, हम सारे लोगों को सिर्फ एक ही तरह से एक वर्ण का बना सकते हैं। और वह यह कि हम लोगों की | आत्मा को बिलकुल नष्ट कर दें और लोगों को बिलकुल मशीनें बना दें। वर्ण की व्यवस्था उसी दिन असत्य होगी, जिस दिन आदमी मशीन हो जाएगा, आदमी नहीं होगा; उसके पहले असत्य नहीं हो सकती। मशीनें एक-सी हो सकती हैं। फोर्ड की कारें हैं, तो लाख कारें एक-सी हो सकती हैं। रत्तीभर फर्क खोजा नहीं जा सकता। एक ढांचे में ढलती हैं, एक-सी हो सकती हैं। कारें इसीलिए एक-सी हो सकती हैं, क्योंकि उनके पास कोई आत्मा नहीं है। हां, आत्मा होगी, तो व्यक्ति एक-से कभी नहीं हो सकते। आत्मा का अर्थ ही भेद है। व्यक्तित्व का अर्थ ही अंतर है, डिफरेंस है। आपके पास व्यक्तित्व है, उसका मतलब ही यही है कि आप दूसरे व्यक्तियों से 389 Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Om गीता दर्शन भाग-1 AM कहीं न कहीं भिन्न हैं। अगर आप बिलकुल भिन्न नहीं हैं, तो | सौंदर्य भी है जगत में, रंग-बिरंगापन भी है जगत में। व्यक्तित्व नहीं है, आत्मा नहीं है। मनुष्य के पास जब तक आत्मा | वर्ण की व्यवस्था इस रंग-बिरंगेपन को, इस वैविध्य को है, तब तक वर्ण का सत्य झुठलाया नहीं जा सकता है। हम इनकार | | अंगीकार करती है। ऊंच-नीच की बात गलत है। और जो लोग कर सकते हैं। ऊंच-नीच बनाए रखने के लिए वर्ण की व्यवस्था का समर्थन कर एक आदमी कह सकता है कि हम ग्रेविटेशन को नहीं मानते, | | रहे हैं, वे लोग खतरनाक हैं। लेकिन मैं वह बात नहीं कह रहा हूं। जमीन की कशिश को नहीं मानते। मत मानिए! इससे सिर्फ आपकी | मैं कुछ और ही बात कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं, आदमी चार टांग टटेगी। इससे ग्रेविटेशन का सत्य गलत नहीं होता। एक प्रकार के हैं। हम चाहे मानें और चाहे हम न मानें। . आदमी कह सकता है कि हम आक्सीजन के सत्य को नहीं मानते; आज अमेरिका में तो कोई वर्ण व्यवस्था नहीं है। लेकिन सभी हम श्वास लेंगे नहीं। तो ठीक है, मत लीजिए। इससे सिर्फ आप | | लोग वैज्ञानिक नहीं हैं। और वैज्ञानिक शुद्ध ब्राह्मण है। आइंस्टीन मरेंगे, आक्सीजन नहीं मरती। जीवन के नियम को इनकार किया में और ब्राह्मण में कोई भी फर्क नहीं है। आज पश्चिम का वैज्ञानिक जा सकता है, लेकिन इससे जीवन का नियम नष्ट नहीं होता, सिर्फ ठीक वही है, जैसा ब्राह्मण था। सारी खोज उसकी सत्य की है, और हम नष्ट होते हैं। सत्य की खोज के लिए वह सब तकलीफें झेलने को राजी है। हां, जीवन के नियम पर हम झूठी व्यवस्थाएं भी खड़ी कर सकते | | लेकिन सभी लोग सत्य की खोज के लिए उत्सुक नहीं हैं। राकफेलर हैं। और तब झूठी व्यवस्थाओं के कारण जीवन का नियम भी ब्राह्मण नहीं है। और न मार्गन ब्राह्मण है। और न रथचाइल्ड ब्राह्मण बदनाम हो जाता है। हमने जो हाइरेरिकल व्यवस्था निर्मित की है। वे वैश्य हैं शुद्धतम, शुद्धतम वैश्य हैं। धन ही उनकी खोज है। ऊंचे-नीचे की, उससे बदनामी पैदा हुई; उससे वर्ण की व्यवस्था धन ही उनकी आकांक्षा है, धन ही सब कुछ है। लेकिन एक बहुत दूषित हुई। उससे वर्ण की व्यवस्था गंदी हुई, कंडेम्ड हुई। आज वह बड़ा वर्ग है सारी पृथ्वी पर, जो लड़ने के लिए उत्सुक और आतुर कंडेम्ड है. लेकिन वर्ण का सत्य कभी भी कंडेम्ड नहीं है। है। उसकी लड़ाई के ढंग भले बदल जाएं, लेकिन वह लड़ने क और मैं आपसे कहना चाहूंगा कि यह पहली सदी है, जब लिए उत्सुक और आतुर है। पश्चिम के मनोविज्ञान ने पुनः इस बात को साफ करना शुरू कर नीत्से ने कहा है कि जब कभी मैं रास्ते पर सिपाहियों की संगीने दिया है कि दो व्यक्तियों के बीच पूरी समानता, पूरी एकता, पूरा धूप में चमकती हुई देखता हूं, और जब कभी मैं सैनिकों के जूतों एक-सा पन कभी भी सिद्ध नहीं किया जा सकता। और दुर्भाग्य का | की आवाज सड़क पर लयबद्ध सुनता हूं, तो मुझे लगता है, इससे होगा वह दिन, जिस दिन विज्ञान सब आदमियों को बराबर कर श्रेष्ठ कोई भी संगीत नहीं है। अब यह जो नीत्से है, इसको मोजार्ट देगा, क्योंकि उसी दिन आदमी की आत्मा नष्ट हो जाएगी। | बेकार है, बीथोवन बेकार है; इसके लिए वीणा बेकार है। यह इसलिए वर्ण के सत्य में कहीं भी अंतर नहीं पड़ा है; पड़ेगा भी कहता है, जब चमकती हुई संगीनें सुबह के सूरज में दिखाई पड़ती नहीं; पड़ना भी नहीं चाहिए; पड़ने भी नहीं देना। लड़ना भी पड़ेगा । हैं, तो उनकी चमक में जो गीत है, इससे सुंदर कोई गीत नहीं है। आज नहीं कल आदमी को, कि हम अलग हैं, भिन्न हैं, और हमारी | और जब सैनिक रास्ते पर चलते हैं, और उनके जूतों की लयबद्ध भिन्नता कायम रहनी चाहिए। हालांकि राजनीति भिन्नता को तोड़ आवाज में जो भाव है, वह किसी संगीत में नहीं है। यह आदमी जो डालने की पूरी चेष्टा में लगी है। | भाषा बोल रहा है, वह ब्राह्मण की नहीं है। यह आदमी जो भाषा सब भिन्नता टूट जाए और आदमी मशीन जैसा व्यवहार करे, तो बोल रहा है, वह शूद्र की नहीं है। यह आदमी जो भाषा बोल रहा राजनीतिज्ञों के लिए बड़ी सरल और सुलभ हो जाएगी बात। तब है, वह क्षत्रिय की है। यह रहेगा। इस आदमी को हम इनकार करेंगे, डिक्टेटोरियल हुआ जा सकता है, तब तानाशाही लाई जा सकती । तो यह बदला लेगा। है, तब टोटेलिटेरियन हुआ जा सकता है। तब व्यक्तियों की कोई किसी आदमी को इनकार नहीं किया जा सकता। प्रत्येक आदमी चिंता करने की जरूरत नहीं है, व्यक्ति हैं ही नहीं। लेकिन जब तक को उसके टाइप के फुलफिलमेंट के लिए, उसके व्यक्तित्व के रूप व्यक्ति भिन्न हैं, तभी तक लोकतंत्र है जगत में। जब तक व्यक्तियों के अनुसार, अनुकूल, समाज में सुविधा होनी चाहिए। शूद्र भी हैं। में आत्मा है, तभी तक रस भी है जगत में, वैविध्य भी है जगत में, कई दफा शूद्र अगर दूसरे घर में पैदा हो जाए, तो बहाने खोजकर 3901 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OM वर्ण व्यवस्था की वैज्ञानिक पुनर्स्थापना - Am शूद्र हो जाता है। बहाने खोजकर शूद्र हो जाता है। अगर वह ब्राह्मण के पैर दबाने से ब्रह्म कैसे मिल जाएगा! शूद्र की कल्पना के बाहर के घर में पैदा हो जाए, तो वह कहेगा कि नहीं, ब्रह्म की खोज से है कि आंख बंद करके शून्य में उतर जाने से ब्रह्म कैसे मिल क्या होगा? मैं तो कोढ़ी की सेवा करूंगा! वह कहेगा, ध्यान-व्यान | जाएगा! क्षत्रिय की कल्पना के बाहर है कि बिना लड़े जब कुछ भी से कुछ भी नहीं होगा। धर्म यानी सर्विस, सेवा! नहीं मिलता, तो ब्रह्म कैसे मिल जाएगा! वैश्य की कल्पना के बाहर __ अगर इस मुल्क के धर्मों में हम खोज करने जाएं, तो इस मुल्क है कि जब धन के बिना कुछ भी नहीं मिलता, तो धर्म कैसे मिल का धर्म मौलिक रूप से ब्राह्मणों ने निर्मित किया। इसलिए इस जाएगा! वैश्य अगर पहुंचेगा भी धर्म के पास, तो धन से ही मुल्क के धर्म में सेवा नहीं आ सकी, सर्विस का कंसेप्ट नहीं आया। पहुंचेगा। ये टाइप हैं। और जब मैं यह कह रहा हूं कि व्यक्तियों के इस मुल्क के धर्म ने सेवा की बात ही नहीं की कभी, क्योंकि वह टाइप का सवाल है...। मौलिक रूप से ब्राह्मण ने उसको निर्मित किया था। वह एक वर्ण वर्ण की धारणा समाज के बीच नीच-ऊंच का प्रश्न नहीं है। वर्ण के द्वारा निर्मित था, उसकी दृष्टि उसमें प्रवेश कर गई। की धारणा समाज के बीच व्यक्ति वैभिन्य का प्रश्न है। और इसलिए __इसलिए पहली दफे जब क्रिश्चिएनिटी से हिंदू और जैन और दुनिया में चार तरह के लोग सदा रहेंगे और चार तरह के धर्मों की बौद्धों की टक्कर आई, तो बहुत मुश्किल में पड़ गए वे। क्योंकि धारणा सदा रहेगी। हां, इन चार से मिल-जुलकर भी बहुत-सी क्रिश्चिएनिटी जिस घर से आई थी, जीसस एक बढ़ई के बेटे थे। वे धारणाएं बन जाएंगी, लेकिन वे मिश्रित होंगी। लेकिन चार शुद्ध स्वर एक शूद्र परिवार से आते हैं। जन्म उनका एक घुड़साल में होता है। धर्मों के सदा पृथ्वी पर रहेंगे, जब तक आदमी के पास आत्मा है। जिंदगी के जो उनके बचपन का काल है, वह बिलकुल ही समाज और वह समाज स्वस्थ समाज होगा, जो इस भेद को इनकार न का जो चौथा वर्ग है, उसके बीच व्यतीत हुआ है। इसलिए जीसस करे-क्योंकि इनकार करने से नियम नहीं मिटता, सिर्फ समाज को ने जब धर्म निर्मित किया, तो उस धर्म में सर्विस मौलिक तत्व बना। नुकसान होता है जो इस भेद को स्वीकार कर ले।। इसलिए सारी दुनिया में ईसाई के लिए सेवा धर्म का श्रेष्ठतम रूप है।। अब उलटी हालतें होती हैं न! अगर रामकृष्ण मिशन में कोई ध्यान नहीं, मेडिटेशन नहीं, सर्विस! ब्रह्म का चिंतन नहीं, पड़ोसी की | | आदमी संन्यासी हो जाए, तो वे उससे कहेंगे, सेवा करो। वह टाइप सेवा! और इसलिए ईसाइयत ने सारी दुनिया में जो ब्राह्मण से उत्पन्न अगर ब्राह्मण का है, तो मुश्किल में पड़ जाएगा। उसकी कल्पना धर्म थे, उन सबको कंडेम्ड कर दिया। के बाहर होगा, कैसी सेवा! सेवा से क्या होगा? लेकिन अगर कोई बुद्ध और महावीर पैदा तो हुए क्षत्रिय घरों में, लेकिन उनके पास सेवाभावी व्यक्ति बुद्ध का अनापानसती योग साधने लगे-कि बुद्धि ब्राह्मण की थी। और यह भी जानकर आपको हैरानी होगी कि सिर्फ श्वास पर ध्यान करो तो वह सेवाभावी व्यक्ति कहेगा, यह महावीर क्षत्रिय घर से आए, लेकिन महावीर का जो धर्म निर्मित क्या पागलपन है! नानसेंस। श्वास पर ध्यान करने से क्या होगा? किया, वह जिन गणधरों ने किया, वे ग्यारह के ग्यारह ब्राह्मण थे। कुछ करके दिखाओ! लोग गरीब हैं, लोग भूखे हैं, लोग बीमार हैं। महावीर ने जो बातें कहीं, उनको जिन्होंने संगृहीत किया, वे ग्यारह उनकी सेवा करो। ही ब्राह्मण थे। महावीर के ग्यारह जो बड़े शिष्य हैं-ग्यारह बड़े ये व्यक्तियों के भेद हैं। और अगर इन भेदों को हम वैज्ञानिक शिष्य, जिन्होंने महावीर के सारे धर्मशास्त्र निर्मित किए–वे ग्यारह | | रूप से साफ-साफ न समझ लें, तो बड़ी कठिनाई होती है। लेकिन के ग्यारह ब्राह्मण थे। इसलिए कोई उपाय न था कि हिंदुस्तान का | | हमारा युग भेद को तोड़ रहा है, कई तरह से तोड़ रहा है। जैसे कोई भी धर्म सेवा पर जोर दे सके। उदाहरण के लिए आपको कहूं। स्त्री और पुरुष का बायोलाजिकल हां, विवेकानंद ने जोर दिया, क्योंकि विवेकानंद शूद्र परिवार से | | भेद है, ब्राह्मण और क्षत्रिय का साइकोलाजिकल भेद है। शूद्र और आते हैं, कायस्थ हैं। इसलिए विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन को | वैश्य का मनोवैज्ञानिक भेद है, स्त्री और पुरुष का जैविक भेद है। ठीक क्रिश्चियन मिशनरी के ढंग पर निर्मित किया। हिंदुस्तान में | लेकिन हमने भेद तोड़ने का तय कर रखा है। हम भेद को इनकार सेवा के शब्द को लाने वाला आदमी विवेकानंद है। फिर गांधी ने | करने को उत्सुक हैं। तो हमने पहले वर्णों को तोड़ने की कोशिश जोर दिया। की सारी दुनिया में। एक तो सारी दुनिया में वर्ण बहुत स्पष्ट नहीं यह टाइप की बात है। ब्राह्मण की कल्पना के बाहर है कि शूद्र थे, सिर्फ इसी मुल्क में थे। हमने उनको तोड़ने की कोशिश की। 391 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Om गीता दर्शन भाग-1 AM हमने करीब-करीब उनको जराजीर्ण कर दिया। अब एक दूसरा | इकतारा रस दे सकता है अगर और वाद्यों के साथ बजता हो। जैविक भेद है स्त्री-पुरुष का, उसको भी तोड़ने की कोशिश की जा | अकेले ही बजता रहे, तो घबड़ाहट हो जाती है। रही है। मैंने एक घटना सुनी है, कि एक सज्जन वीणा बजाते हैं। लेकिन तो एक बहुत मजेदार घटना घट रही है। वह घटना यह घट रही | | बस वे एक तार को और एक ही जगह दबाए चले जाते हैं। महीनों है कि लडकियां यरोप और अमेरिका में लड़कों के कपड़े पहन रही हो गए। उनकी पत्नी, उनके बच्चे बहत घबड़ा गए हैं। और एक हैं और लड़के लड़कियों जैसे बाल बढ़ा रहे हैं। दोनों करीब आ रहे दिन उनके पड़ोसियों ने भी सबने हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि आप हैं। बायोलाजिकल भेद तोड़ने की कोशिश चल रही है। लेकिन | क्या कर रहे हैं। हमने औरों को भी बजाते देखा है, लेकिन हाथ इससे क्या होगा? इससे क्या भेद टूट जाएगा? इससे भेद नहीं | | चलता है, अलग तार छुए जाते हैं, अलग दबाव दिया जाता है। टूटेगा; सिर्फ लड़कियां कम लड़कियां हो जाएंगी, और लड़के कम यह क्या पागलपन है कि एक ही जगह उंगली को दबाए हैं आप! लड़के हो जाएंगे; और दोनों के बीच जो फासले से, भेद से, जो और अब महीनों हो गए, वहीं दबाए चले जा रहे हैं! हम घबड़ा गए रस पैदा होता था, वह क्षीण हो जाएगा। इसलिए आज यूरोप और | हैं। उन सज्जन ने कहा कि तुम्हें पता नहीं, दूसरे लोग ठीक स्थान अमेरिका में लड़के और लड़की के बीच से रोमांस विदा हो गया खोज रहे हैं; मुझे मिल गया है! वे वहीं अपना सब...। इसलिए है, रोमांस नहीं है। हो नहीं सकता। वह भेद पर निर्भर है। कितना वे लोग इधर-उधर हाथ फैलाते हैं। मुझे कोई जरूरत न रही। मैं भेद है, उतना रस है। जितना भेद टटा, उतना रस टट जाता है। मंजिल पर आ गया है। अब मैं उसी को बजाता रहेगा। . हम सब तरह के भेद तोड़ने को पागल लोग हैं। भेद रहने ही लेकिन यह आदमी तो पागल है, पड़ोस के लोगों को भी पागल चाहिए। उसका मतलब लेकिन यह नहीं कि स्त्री छोटी है और पुरुष | कर देगा। बड़ा है। वह गलत बात है। भेद के आधार पर ऊंचाई-नीचाई तय जीवन एक संगीत है, लेकिन संगीत अर्थात एक आर्केस्ट्रा। करना गलत बात है। सब भेद हॉरिजांटल हैं। कोई भेद वर्टिकल | उसमें बहुत विभिन्न स्वर चाहिए। उसमें क्षत्रिय की चमक भी नहीं है। न तो पुरुष ऊंचा है और न तो स्त्री ऊंची है। लेकिन इसका | चाहिए; उसमें शूद्र की सेवा भी चाहिए। उसमें ब्राह्मण का तेज भी यह मतलब नहीं है कि पुरुष और स्त्री एक हैं। पुरुष अलग है, स्त्री चाहिए; उसमें वैश्य की खोज भी चाहिए। उसमें सब चाहिए। और अलग है। ऊंचा-नीचा कोई भी नहीं है। लेकिन भेद स्पष्ट है और | इनमें ऊपर-नीचे कोई भी नहीं है। और यह सत्य आज भी असत्य भेद स्पष्ट रहना चाहिए। नहीं हो गया और कल भी असत्य नहीं हो जाने वाला है। __ और स्त्री को पूरी कोशिश करनी चाहिए कि वह कितनी स्त्रैण दूसरी बात पूछी है कि मैंने कहा कि जीवन का एक क्रम है और हो सके, और पुरुष को पूरी कोशिश करनी चाहिए कि वह कितना | संन्यास उसमें अंतिम अवस्था है...। पुरुष हो सके। और स्त्री जितनी ज्यादा स्त्री, पुरुष जितना ज्यादा लेकिन यह क्रम टूट गया। और अभी तो ब्रह्मचर्य भी अंतिम पुरुष, उन दोनों के बीच के जीवन का रस उतना ही गहरा होगा, | | अवस्था नहीं है। ब्रह्मचर्य पहली अवस्था थी उस क्रम में, यह क्रम आकर्षण उतना ही गहरा होगा। उन दोनों के बीच प्रेम के प्रवाह की टूट गया। अब तो ब्रह्मचर्य अंतिम अवस्था भी नहीं है! पहले की धारा उतनी ही तीव्र होगी। जितना कम पुरुष और जितनी कम स्त्री, | | तो बात ही छोड़ दें। मरते क्षण तक आदमी ब्रह्मचर्य की अवस्था में तो स्त्री नंबर दो का पुरुष हो जाती है और पुरुष नंबर दो की स्त्री हो | नहीं पहुंचता। तो अब तो संन्यास तो कब्र के आगे ही कहीं कोई जाता है। और वे दोनों करीब तो बहत आ जाते हैं, लेकिन उनके अवस्था हो सकती है। और जब बढे ब्रह्मचर्य को उपलब्ध न होते बीच की पोलैरिटी टूट जाती है, और उनके बीच का रस टूट जाता | हों, तो मैं कहता हूं, बच्चों को भी हिम्मत करके संन्यासी होना है। आज पहली दफे पश्चिम में स्त्री और पुरुष के बीच का जो चाहिए, जस्ट टु बैलेंस, संतुलन बनाए रखने को। जब बूढ़े भी रस-संगीत था, वह टूट गया है। ब्रह्मचर्य को उपलब्ध न होते हों, तो बच्चों को भी संन्यासी होने का वर्ण मनोवैज्ञानिक भेद हैं। और समाज में उनसे भी रस-संगीत | साहस करना चाहिए। तो शायद बूढ़ों को भी शर्म आनी शुरू हो, पैदा होता है। एकसुरा समाज ऐसा ही है जैसा इकतारा बजता है। | अन्यथा बूढ़ों को शर्म आने वाली नहीं है। एक तो इसलिए। इकतारे का भी थोड़ा रस तो है, लेकिन उबाने वाला है। और और दूसरा इसलिए भी कि जीवन का जो क्रम है, उस क्रम में 392 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 वर्ण व्यवस्था की वैज्ञानिक पुनर्स्थापना -AIR बहुत-सी बातें इंप्लाइड हैं, उसमें बहुत-सी बातें अंतर्गर्भित हैं। जैसे वृद्धावस्था में संन्यस्त हो जाएंगे, तो हमारी प्रतीक्षा व्यर्थ होने वाली महावीर ने अंतिम अवस्था में संन्यास नहीं लिया, बुद्ध ने अंतिम है। उसके कई कारण हैं। वृद्धावस्था में संन्यास तभी फलित हो अवस्था में संन्यास नहीं लिया। क्योंकि जिनके जीवन की पिछले सकता है, जब तीन आश्रम पहले गजरे हों, अन्यथा फलित नहीं हो जन्म की यात्रा, वहां पहुंच गई, जहां से इस जन्म में शुरू से ही | सकता। आप कहें कि वृक्ष में फूल आएंगे वसंत में। लेकिन वसंत संन्यास हो सकता है, वे पचहत्तर वर्ष तक प्रतीक्षा करें, यह बेमानी | | में फूल तभी आ सकते हैं, जब बीज बोए गए हों, जब खाद डाली है। यही जन्म सब कुछ नहीं है। हम इस जन्म में कोरे कागज, | गई हो, जब वर्षा में पानी भी पड़ा हो और गर्मी में धूप भी मिली टेबुलारेसा की तरह पैदा नहीं होते हैं, जैसा कि रूसो और सारे लोग | हो। न गर्मी में धूप आई, न वर्षा में पानी गिरा, न बीज बोए गए, मानते हैं। गलत मानते हैं। हम कोरे कागजकी तरह पैदा नहीं होते। न माली ने खाद दिया और वसंत में फूल की प्रतीक्षा कर रहे हैं! हम सब बिल्ट-इन-प्रोग्रैम लेकर पैदा होते हैं। हमने पिछले जन्म | ___चौथा आश्रम संन्यास फलित होता था, यदि तीन आश्रम में जो भी किया, जाना, सोचा, समझा है, वह सब हमारे साथ | | नियमबद्ध रूप से पहले गुजरे हों, अन्यथा फलित नहीं होगा। जन्मता है। इसलिए जीवन के साधारण क्रम में यह बात सच है कि ब्रह्मचर्य बीता हो पच्चीस वर्ष का, गार्हस्थ्य बीता हो पच्चीस वर्ष आदमी चौथी अवस्था में संन्यास को उपलब्ध हो, लेकिन जो लोग | का, वानप्रस्थ बीता हो पच्चीस वर्ष का, तब अनिवार्यरूपेण, पिछले जन्म से संन्यास का गहरा अनुभव लेकर आए हों, या गणित के हल की तरह, चौथे आश्रम का चरण उठता था। जीवन के रस से पूरी तरह डिसइल्यूजंड होकर आए हों, उनके लिए | आज तो कठिनाई है। आज तो तीन चरण का कोई उपाय नहीं कोई भी कारण नहीं है। लेकिन वे सदा अपवाद होंगे। | रहा। तो अब दो ही उपाय हैं। एक तो उपाय यह है कि हम संन्यास __इसलिए बुद्ध और महावीर ने अपवाद के लिए मार्ग खोजा। | के सुंदरतम फूल को-जिससे सुंदर फूल जीवन में दूसरा नहीं कभी-कभी नियम भी बंधन बन जाते हैं, उसके लिए हमें अपवाद खिलता-मुरझा जाने दें, उसे खिलने ही न दें। और या फिर हिम्मत छोड़ना पड़ता है। आइंस्टीन को अगर हम गणित उसी ढंग से | करें और जहां भी संभव हो सके, जिस स्थिति में भी संभव हो सके, सिखाएं, जिस ढंग से हम सबको सिखाते हैं, तो हम आइंस्टीन की | | संन्यास के फूल को खिलाने की कोशिश करें। शक्ति को जाया करेंगे। अगर हम मोजार्ट को संगीत उसी तरह ___ इसका यह मतलब नहीं है कि सारे लोग संन्यासी हो सकते हैं। सिखाएं, जिस तरह हम सबको सिखाते हैं, तो हम उसकी शक्ति असल में जिसके मन में भी आकांक्षा पैदा होती है संन्यास की, को बहत जाया करेंगे। मोजार्ट ने तीन साल की उम्र में संगीत में वह उसके प्राण उसे सचना दे रहे हैं कि उसके पिछले जन्मों में कुछ स्थिति पा ली, जो कि कोई भी आदमी अभ्यास करके तीस साल अर्जित है, जो संन्यास बन सकता है। में नहीं पा सकता है। तब मोजार्ट के लिए हमें अपवाद बनाना __ फिर मैं यह कहता हूं कि बुरे काम को करके सफल हो जाना पड़ेगा। बीथोवन ने सात साल में संगीत में वह स्थिति पा ली, जो | | भी बुरा है; अच्छे काम को करके असफल हो जाना भी बुरा नहीं कि संगीतज्ञ सत्तर साल की उम्र में नहीं पा सकते अभ्यास करके। है। एक आदमी चोरी करके सफल भी हो जाए, तो बुरा है; और तो बीथोवन के लिए हमें अलग नियम बनाना पड़ेगा। इनके लिए | एक आदमी संन्यासी होकर असफल भी हो जाए, तो बुरा नहीं है। हमें नियम वही नहीं देने पड़ेंगे। | अच्छे की तरफ आकांक्षा और प्रयास भी बहुत बड़ी घटना है। इसलिए हर नियम के अपवाद तो होते ही हैं। और अपवाद से और अच्छे के मार्ग पर हार जाना भी जीत है और बुरे के मार्ग पर नियम टूटता नहीं, सिर्फ सिद्ध होता है। एक्सेप्शन प्रूव्स दि रूल। जीत जाना भी हार है। और आज हारेंगे, तो कल जीतेंगे। इस जन्म वह जो अपवाद है, वह सिद्ध करता है कि अपवाद है, इसलिए शेष में हारेंगे, तो अगले जन्म में जीतेंगे। लेकिन प्रयास, आकांक्षा, सबके लिए नियम प्रतिकूल है। तो ऐसा नहीं है कि भारत में बचपन अभीप्सा होनी चाहिए। से संन्यास लेने वाले लोग न थे, वे थे, लेकिन वे अपवाद थे। फिर चौथे चरण में जो संन्यास आता था, उसकी व्याख्या और आज तो अपवाद को नियम बनाना पड़ेगा। क्यों बनाना बिलकुल अलग थी; और जिसे मैं संन्यास कहता हूं, उसकी पड़ेगा? वह इसलिए बनाना पड़ेगा, कि आज तो चीजें इतनी रुग्ण | | व्याख्या को मजबूरी में अलग करना पड़ा है—मजबूरी में, स्मरण और अस्तव्यस्त हो गई हैं कि अगर हम प्रतीक्षा करें कि लोग रखें। चौथे चरण में जो संन्यास आता था, वह पूरे जीवन से ऐसे 393 Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1-m अलग हो जाना था, जैसे पका हुआ फल वृक्ष से अलग हो जाता लोग रोक रहे थे, तभी विदा हो जाए; जब घर के लोग रोते हों, तभी है, जैसे सूखा पत्ता वृक्ष से गिर जाता है। न वृक्ष को खबर मिलती | | विदा हो जाए; जब घर के लोग कहते हों कि रुकें, अभी मत जाएं, है, न सूखे पत्ते को पता चलता, कब अलग हो गए। वह बहुत | तभी विदा हो जाए। यही ठीक क्षण है। वह अपने पीछे एक मधुर नेचरल रिनंसिएशन था। उसके कारण हैं। स्मृति छोड़ जाए। वह मधुर स्मृति घर के लोगों के लिए ज्यादा अभी भी पचहत्तर साल का बूढ़ा घर से टूट जाता है-अभी | प्रीतिकर होगी, बजाय आपकी कठिन मौजूदगी के।। भी। लेकिन न तो बूढ़ा टूटना चाहता है...। अभी भी पचहत्तर साल लेकिन वह चौथा चरण था। तीन चरण जिसने पूरे किए हों, और का बूढ़ा घर में बोझ हो जाता है। कोई कहता नहीं, सब अनुभव | | जिसने ब्रह्मचर्य का आनंद लिया हो, और जिसने काम का दुख करते हैं। बेटे की आंख से पता चलता है, बहू की आंख से पता | भोगा हो, और जिसने वानप्रस्थ होने की, वन की तरफ मुख रखने चलता है, घर के बच्चों से पता चलता है कि अब इस बूढ़े को विदा | | की अभीप्सा और प्रार्थना में क्षण बिताए हों, वह चौथे चरण में होना चाहिए। कोई कहता नहीं; शिष्टाचार कहने नहीं देता; लेकिन | अपने आप चुपचाप-चुपचाप-विदा हो जाता है। अशिष्ट आचरण सब कुछ प्रकट कर देता है। टूट जाता है, टूट ही नीत्से ने कहीं लिखा है, राइपननेस इज़ आल, पक जाना सब जाता है। लेकिन बूढ़ा भी हटने को राजी नहीं। वह भी पैर जमाकर कुछ है। लेकिन अब तो कोई नहीं पकता। पका हुआ आदमी भी जमा रहता है। और जितना हटाने के आंखों में इशारे दिखाई पड़ते | लोगों को धोखा देना चाहता है कि मैं अभी कच्चा हूं। हैं, वह उतने ही जोर से जमने की कोशिश करता है। बहुत बेहूदा मैंने सुना है कि एक स्कूल में शिक्षक बच्चों से पूछ रहा था कि है, एब्सर्ड है। एक व्यक्ति उन्नीस सौ में पैदा हुआ, तो उन्नीस सौ पचास में उसकी असल में वक्त है हर चीज का, जब जुड़े होना चाहिए, और जब | उम्र कितनी होगी? तो एक बच्चे ने खड़े होकर पूछा कि वह स्त्री है टूट जाना चाहिए। वक्त है, जब स्वागत है; और वक्त है, जब | कि पुरुष ? क्योंकि अगर पुरुष होगा, तो पचास साल का हो गया अलविदा भी है। समय का जिसे बोध नहीं होता, वह आदमी | | होगा। और अगर स्त्री होगी, तो कहना मुश्किल है कि कितने साल नासमझ है। पचहत्तर साल की उम्र ठीक वक्त है, क्योंकि तीसरी, | की हुई हो। तीस की भी हो सकती है, चालीस की भी हो सकती चौथी पीढ़ी जीने को तैयार हो गई है। और जब चौथी पीढ़ी जीने को है, पच्चीस की भी हो सकती है। तैयार हो गई, तो आप कट चुके जीवन की धारा से। अब जो नए लेकिन जो स्त्री पर लागू होता था, अब वह पुरुष पर भी लागू बच्चे घर में आ रहे हैं, उनसे आपका कोई भी तो संबंध नहीं है। | है। अब उसमें कोई फर्क नहीं है। पका हुआ भी कच्चे होने का आप उनके लिए करीब-करीब प्रेत हो चुके, घोस्ट हो चुके। अब | धोखा देना चाहता है। बूढ़ा आदमी भी नई जवान लड़कियों से आपका होना सिर्फ बाधा है। आपकी मौजूदगी सिर्फ जगह घेरती | | राग-रंग रचाना चाहता है। इसलिए नहीं कि नई लड़की बहुत है। आपकी बातें सिर्फ कठिन मालूम पड़ती हैं। आपका होना ही | | प्रीतिकर लगती है, बल्कि इसलिए कि वह अपने को धोखा देना बोझ हो गया है। उचित है कि हट जाएं; वैज्ञानिक है कि हट जाएं। चाहता है कि मैं अभी लड़का ही हूं। लेकिन नहीं, आप कहां हटकर जाएं ? खयाल ही भूल गया है। | मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बूढ़े लोग कम उम्र की स्त्रियों में खयाल इसलिए भूल गया है कि तीन चरण पूरे नहीं हुए। अन्यथा | । इसीलिए उत्सुक होते हैं कि वे भुलाना चाहते हैं कि हम बूढ़े हैं। बच्चे हटाते, उसके पहले आप हट जाते। और जो पिता बच्चों के | और अगर कम उम्र की स्त्रियां उनमें उत्सुक हो जाएं, तो वे भूल हटाने के पहले हट जाता है, वह कभी अपना आदर नहीं खोता है,। | जाते हैं कि वे बूढ़े हैं। अगर बटैंड रसेल अस्सी साल की उम्र में कभी अपना आदर नहीं खोता। जो मेहमान विदा करने के पहले बीस साल की लड़की से शादी करता है, तो इसका असली कारण विदा हो जाता है, वह सदा स्वागतपूर्ण विदा पाता है। जो मेहमान | | यह नहीं है कि बीस साल की लड़की बहुत आकर्षक है। अस्सी डटा ही रहता है जब तक कि घर के लोग पुलिस को न बुला लाएं, | | साल के बूढ़े को आकर्षक नहीं रह जानी चाहिए। और साधारण तब फिर सब अशोभन हो जाता है। इससे घर के लोगों को भी बूढ़े को नहीं, बड रसेल की हैसियत के बूढ़े को। मारे मुल्क में तकलीफ होती है, अतिथि को भी तकलीफ होती है और आतिथ्य | | अगर दो हजार साल पहले बड रसेल पैदा हुआ होता, तो अस्सी का भाव भी नष्ट होता है। ठीक समझदार आदमी वह है कि जब साल की उम्र में वह महर्षि हो जाता। लेकिन इंग्लैंड में वह अस्सी 394 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + वर्ण व्यवस्था की वैज्ञानिक पुनर्स्थापना 4 साल की उम्र में बीस साल की लड़की से शादी रचाने का उपाय करता है। वह धोखा दे रहा है अपने को। अभी भी मानने का मन होता है कि मैं बीस ही साल का हूं। और अगर बीस साल की लड़की उत्सुक हो जाए, तो धोखा पूरा हो जाता है, सेल्फ डिसेप्शन पूरा हो जाता है। क्योंकि बीस साल की लड़की उत्सुक ही नहीं हो सकती न अस्सी साल के बूढ़े में! वह अस्सी साल का बूढ़ा भी मान लेता है कि अभी दो-चार ही साल बीते हैं बीस साल | यह जो मनोदशा है, इस मनोदशा में संन्यास की नई ही धारणा का मेरा खयाल है। अब हमें संन्यास के लिए चौथे चरण की प्रतीक्षा करनी कठिन है। आना चाहिए वह वक्त, जब हम प्रतीक्षा कर सकें। लेकिन वह तभी होगा, जब आश्रम की व्यवस्था पृथ्वी पर लौटे। उसे लौटाने के लिए श्रम में लगना जरूरी है। लेकिन जब तक वह नहीं होता, तब तक हमें संन्यास की एक नई धारणा पर, कहना चाहिए ट्रांजिटरी कंसेप्शन पर, एक संक्रमण की धारणा पर काम करना पड़ेगा। और वह यह कि जो जहां है, वृक्ष से टूटने की तो कोशिश न करे, क्योंकि पका फल ही टूटता है। लेकिन कच्चा फल भी वृक्ष पर रेहते हुए अनासक्त सकता है। जब पका हुआ फल कच्चे होने का धोखा दे सकता कच्चा फल पके होने का अनुभव क्यों नहीं कर सकता है? इसलिए जो जहां है, वह वहीं संन्यस्त हो जाए । संन्यास की धारणा जीवन छोड़कर भागने वाली नहीं है। मेरे संन्यास की धारणा वानप्रस्थ के करीब है। मेरे संन्यास की धारणा वानप्रस्थ के करीब है। और मैं मानता हूं, वानप्रस्थी ही नहीं हैं, तो संन्यासी कहां से पैदा होंगे! तो मैं जिसको अभी संन्यास कह रहा हूं, ठीक से समझें तो वानप्रस्थी । वानप्रस्थी का मतलब यह है कि वह घर में है, लेकिन रुख उसका मंदिर की तरफ है। दुकान पर है, लेकिन ध्यान उसका मंदिर की तरफ है। काम में लगा है, लेकिन ध्यान किसी दिन काम से मुक्त हो जाने की तरफ है। राग में है, रंग में है, फिर भी साक्षी की तरफ उसका ध्यान दौड़ रहा है। उसकी सुरति परमात्मा में लगी है। इसके स्मरण का नाम मैं अभी संन्यास कहता हूं। यह संन्यास की बड़ी प्राथमिक धारणा है। लेकिन मैं मानता हूं कि जैसी आज समाज की स्थिति है, उसमें यह प्राथमिक संन्यास ही फलित हो जाए, तो हम अंतिम संन्यास की भी आशा कर सकते हैं। बीज हो जाए, तो वृक्ष की भी आशा कर सकते हैं। इसलिए जो जहां है, उसे मैं वहीं संन्यासी होने को कहता हूं- - घर में, दुकान 395 पर, बाजार में - जो जहां है, वहीं संन्यासी होने को कहता हूं, सब करते हुए। लेकिन सब करते हुए भी संन्यासी होने की जो धारणा है, संकल्प है, वह सबसे तोड़ देगा और साक्षी पैदा होने लगेगा। आज नहीं कल, यह वानप्रस्थ जीवन संन्यस्त जीवन में रूपांतरित हो जाए, ऐसी आकांक्षा और आशा की जा सकती है। सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत। कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ।। २५ ।। इसलिए हे भारत, कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जैसे कर्म करते हैं, वैसे ही अनासक्त हुआ विद्वान (भी) लोकशिक्षा को चाहता हुआ कर्म करे | र्म में आसक्त अज्ञानीजन जैसा कर्म करते हैं, ठीक क वैसा ही अनासक्त व्यक्ति भी कर्म करे । कर्म में जो आसक्त है, वह तो करता ही है, लेकिन करता है आसक्ति के कारण। इसीलिए हमें कठिन होती है यह बात समझनी कि अनासक्त होकर कर्म कैसे करेंगे! फिर कारण क्या होगा ? अभी तो धन इकट्ठा करना है। आनंद मालूम होता है धन में, इसलिए धन | इकट्ठा करते हैं, अभी तो बड़ा मकान अहंकार को तृप्ति देता है, इसलिए बड़ा मकान बनाते हैं। अभी तो दौड़ते हैं, धूपते हैं, विक्षिप्त होकर श्रम करते हैं, क्योंकि आसक्ति है भीतर। लेकिन अनासक्त हो जाएंगे, आसक्ति नहीं होगी, तो फिर कैसे दौड़ेंगे? फिर कैसे भागेंगे? फिर कैसे श्रम करेंगे ? तो कृष्ण यहां दो बातें कहते हैं। एक तो वे यह कहते हैं कि ठीक वैसा ही कर्म करें, जैसा आसक्त व्यक्ति कर्म करता है। अंतर कर्म में न करें, अंतर आसक्ति में करें। क्या होगा इससे ? इससे जीवन एक अभिनय हो जाएगा। एक अभिनेता भी तो कर्म करता है। राम की सीता खो जाती है। राम जंगल में चिल्लाते हैं, रोते हैं, | पुकारते हैं, सीता ! सीता कहां है? वृक्षों पकड़कर सिर पीटते हैं, सीता कहां है? फिर रामलीला में बना हुआ राम भी, सीता खो जाती है, तो चिल्लाता है। राम से जरा ज्यादा ही आवाज में | चिल्लाता है ! क्योंकि राम के लिए कोई आडिएंस वहां नहीं थी, कोई देखने वाला, सुनने वाला नहीं था। धीमे चिल्लाए होंगे, तो भी चला होगा; जोर से चिल्लाए होंगे, तो भी चला होगा । लेकिन Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ yam गीता दर्शन भाग-1 AM अभिनेता जोर से चिल्लाता है। राम एक-दो दफे ही कहे होंगे, तो | मंच के बाहर। इसका पता न था मंडली को। और यह भी खयाल भी चल गया होगा। अभिनेता को बहुत बार चिल्लाना पड़ता है, | | न था कि उपद्रव हो जाएगा। उपद्रव हो गया। क्योंकि जब स्वयंवर पूरी प्रक्रिया करनी पड़ती है। अगर एक कोने में राम और एक कोने | रचा और लोग चिल्लाने लगे कि रावण, त लंका जा, लंका में आग में अभिनेता खड़ा किया जाए, तो शायद अभिनेता ही प्रतियोगिता लगी है। रावण ने कहा, आज न जाऊंगा। बड़ी मुश्किल खड़ी हो में जीत जाए! उसके भी कारण हैं, क्योंकि राम को तो एक ही दफे, | गई। रावण उठा और उसने उठाया धनुष-बाण और तोड़कर रख बिना रिहर्सल के, ऐसा मौका आया। अभिनेता के लिए रिहर्सल | दिया। और उसने कहा जनक से कि निकाल सीता कहां है? के काफी मौके मिले। फिर अभिनेता वर्षों से कर रहा है राम का ___ वह तो जनक थोड़ा समझदार आदमी था। उसने अपने नौकरों पार्ट अदा। लेकिन अभिनेता और राम में वही फर्क है, जो कृष्ण | से कहा, भृत्यो, यह तुम मेरे बच्चों के खेलने का धनुष-बाण उठा कह रहे हैं। अभिनेता कर्म तो पूरा कर रहा है, लेकिन आसक्ति | लाए, शिवजी का धनुष कहां है? परदा गिराया, रावण को निकाल कोई भी नहीं है। बाहर किया! दूसरे आदमी को रावण बनाया। तब पीछे पता चला कर्म हो सकता है बिना आसक्ति के। अभिनय से समझें। | कि वे प्रेमी थे। ऐसे तो शादी नहीं हो सकती थी. उसने सोचा कि इसलिए हम कृष्ण के जीवन को लीला कहते हैं और राम के जीवन यहीं हो जाए! भूल गया कि हम रावण का पार्ट करने आए हैं। को चरित्र कहते हैं। राम का जीवन लीला नहीं है। राम बहुत गंभीर | अभिनय में भी ऐसा हो जाता है। इससे उलटा भी हो सकता है। हैं. बहत सीरियस हैं। एक-एक चीज तौलते हैं. नापते हैं। खेल नहीं जीवन में भी अभिनय हो सकता है। है जिंदगी; जिंदगी एक काम है, वहां रत्ती-रत्ती हिसाब है। कृष्ण की | अज्ञानीजन आसक्त होकर, मोहग्रस्त होकर, जैसे कर्म में डूबे जिंदगी एक अभिनय है, वहां कुछ हिसाब नहीं है। वहां खेल है। | हुए दिखाई पड़ते हैं, कृष्ण कहते हैं, तू भी उसी तरह डूब। फर्क वहां जो वे कर रहे हैं, कर रहे हैं पूरी तरह, और फिर भी भीतर जैसे | डूबने में मत कर, फर्क डूबने वाले में कर। फर्क कर्म में मत कर, कोई दूर, अलूफ खड़ा हुआ है। इसलिए कृष्ण के जीवन को हम | | फर्क कर्ता में कर। फर्क बाहर मत कर, फर्क भीतर कर। कहते हैं लीला, चरित्र नहीं। चरित्र में बड़ा गंभीर होना पड़ता है। | कृष्ण का सारा जोर, वह जो इनर रियलिटी है, वह जो भीतर का चरित्र में जो हम कर रहे हैं, उससे संयुक्त होना पड़ता है। लीला में | सत्य है, उसको रूपांतरित करने का है। उसको बदल डाल! वहां जो हम कर रहे हैं, उससे वियुक्त होना पड़ता है। कृष्ण अगर रोएं | तू बस अभिनेता हो जा। लेकिन अर्जुन तो पूछेगा न, कि अभिनेता भी, तो भरोसा मत करना। और कृष्ण अगर हंसें भी, तो भरोसा मत | भी क्यों हो जाऊं? क्योंकि अभिनेता अभी अर्जुन हो नहीं गया। करना। और कृष्ण प्रेम भी करें, तो भरोसा मत करना। और कृष्ण | इसलिए बेचारे कृष्ण को मजबूरी में, इन कंपल्शन, एक कारण सुदर्शन लेकर लड़ने भी खड़े हो जाएं, तो भरोसा मत करना। | बताना पड़ता है। और वह कारण यह कि लोकमंगल के कारण, क्योंकि यह आदमी सब कृत्यों के बाहर ही खड़ा है। इसके लिए | लोक के मंगल के लिए। पूरी पृथ्वी एक नाटक के मंच से ज्यादा नहीं है। वस्तुतः इस कारण की भी कोई जरूरत नहीं है। और अगर कृष्ण वही वे अर्जुन से कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, कर तो तू ठीक वैसा | कृष्ण की ही हैसियत से बात करते होते, दूसरा आदमी भी कृष्ण की ही, पूरी कुशलता से, जैसा अज्ञानीजन आसक्त होकर कर्म करते | | हैसियत का आदमी होता, तो यह शर्त न जोड़ी गई होती। क्योंकि हैं। लेकिन हो अनासक्त। अर्थात तू अभिनय कर। तू यह मत सोच | अनासक्त व्यक्ति का कर्म अनकंडीशनल है। जब सारा लोक ही कि तू युद्ध कर रहा है। तू यही सोच कि अभिनय कर रहा है। तू | लीला है, तो लोकमंगल की बात भी बेमानी है। लेकिन कृष्ण को यह मत सोच कि तू लोगों को मार रहा है और लोग मर रहे हैं। तू | जोड़नी पड़ती है यह शर्त। जिससे वे बात कर रहे हैं, वह पूछेगा, यही सोच कि तू अभिनय कर रहा है। लेकिन हम अभिनय में भी | | फिर भी कोई कारण तो हो? कि अभिनय भी बेकार करें? जहां कोई कभी-कभी इतने उलझ जाते हैं-अभिनय में भी–कि वह भी देखने ही न आया हो, वहां अभिनय क्या करें? तो कृष्ण कहते हैं, कर्म मालूम पड़ने लगता है। दर्शकों के आनंद के लिए त अभिनय कर। मैंने सुना है कि एक बार रामलीला में ऐसा हो गया। जो रावण यह जो दूसरी बात वे कह रहे हैं कि लोकमंगल के लिए, इस बना था और जो स्त्री सीता बनी थी, वे दोनों एक-दूसरे के प्रेमी थे, | बात को कृष्ण बहुत मजबूरी में कह रहे हैं। यह मजबूरी अर्जुन की 396 Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 वर्ण व्यवस्था की वैज्ञानिक पुनर्स्थापना - समझ के कारण पैदा हुई है। अर्जुन समझ ही नहीं सकता कि बिना कृष्ण को उस कांटे पर थोड़ा आटा भी लगाना पड़ता है। वह कारण भी कोई कर्म हो सकता है, अकारण भी, अनकान्ड, | | आटा लोकमंगल का है। तो शायद अर्जुन लोकमंगल के लिए...। अनकंडीशनल. बेशर्त। कि जहां कोई वजह नहीं है. तो वहां क्यों। क्यों? लेकिन अगर अर्जुन की जगह ब्राह्मण होता, तो लोकमंगल काम करूं? हम भी पूछेगे, हम भी कहेंगे कि यह तो बिलकुल काम नहीं करता शब्द। क्षत्रिय को काम कर सकता है। क्षत्रिय को पागल का काम हो जाएगा। जब कोई भी कारण नहीं है, तो काम काम कर सकता है। अगर बुद्ध से कृष्ण ने कहा होता कि करें ही क्यों? हमारा वही आसक्त मन पूछ रहा है। आसक्त मन लोकमंगल के लिए रुके रहो राजमहल में, वे कहते, कोई कहता है, कारण हो, तो काम करो। कारण न हो, तो मत करो। यह लोकमंगल नहीं है। जब तक आत्मा का मंगल नहीं हुआ, तब तक हमारे आसक्त मन की शर्त है। यह हमारा आसक्त मन या तो लोकमंगल हो कैसे सकता है? बुद्ध स्पष्ट कह देते कि बंद करो कहता है कि लोभ हो, तो काम करो; लोभ न हो, तो मत करो, । गीता, हम जाते हैं! विश्राम करो। यह आसक्त मन का तर्क है। वह आदमी ब्राह्मण है। उस आदमी पर कृष्ण की गीता काम न __ अर्जुन तो आसक्त है। अभी वह अनासक्त हुआ नहीं। कृष्ण को करती उस तरह से, जिस तरह से अर्जन पर काम कर सकती है। उसको ध्यान में रखकर एक बात और कहनी पड़ती है। अन्यथा असल में कृष्ण ने फिर यह गीता कही ही न होती। यह गीता एड्रेस्ड इतना कहना काफी है कि जैसे अज्ञानी आसक्तजन कर्म करते हैं, है। यह अर्जुन के लिए, क्षत्रिय व्यक्तित्व के लिए है। इस पर पता ऐसा ही तू अनासक्त होकर कर। अभिनेता हो जा। लेकिन इतना लिखा है। इसलिए वे कहते हैं, लोकमंगल के लिए। क्योंकि क्षत्रिय अर्जुन के लिए काफी नहीं होगा। अर्जुन के लिए थोड़ा-सा कारण के मन में, लोग क्या कहते हैं, इसका बड़ा भाव है। शक्ति के चाहिए। तो कृष्ण कहते हैं, दूसरों के हित के लिए! दूसरों के हित आकांक्षी के मन में, लोग क्या कहते हैं, लोगों का क्या होता है, के लिए तू कर। क्यों? इतना झूठ भी क्यों? है वह झूठ। झूठ इस इसका बड़ा भाव है। क्षत्रिय अपने पर पीछे, लोगों की आं अर्थों में ऐसा नहीं है कि दूसरों का हित नहीं होगा; ध्यान रखें, पहले देखता है। लोगों की आंखों में देखकर ही वह अपनी चमक दूसरों का हित होगा, उस अर्थ में झूठ नहीं है-झूठ इस अर्थों में | पहचानता है। कि अनासक्त कर्म के लिए इतनी शर्त भी उचित नहीं है। इसलिए कृष्ण बार-बार अर्जुन को कहते हैं, लोकमंगल के ___ इसलिए मैं आपसे कहना चाहूंगा कि कृष्ण, बुद्ध और महावीर | लिए। ऐसा नहीं है कि लोकमंगल नहीं होगा, लोकमंगल होगा। के सभी वचन पूर्ण सत्य नहीं हैं; उनमें थोड़ा असत्य आता है। उनके लेकिन वह गौण है, वह हो जाएगा; वह बाइप्रोडक्ट है। लेकिन कारण, जिनसे वे बोले गए हैं। क्योंकि पूर्ण सत्य अर्जुन नहीं समझ कृष्ण को जोर देना पड़ता है लोकमंगल के लिए, क्योंकि वे जानते सकता। पूर्ण सत्य बुद्ध के सुनने वाले नहीं समझ सकते। पूर्ण सत्य हैं, सामने जो बैठा है, शायद लोगों के मंगल के लिए ही रुक जाए। बोलना हो, तो असत्य मिश्रित होता है। और अगर पूर्ण सत्य ही | शायद लोगों की आंखों में उसके लिए जो भाव बनेगा, उसके लिए बोलना हो और असत्य मिश्रित न करना हो, तो चुप रह जाना पड़ता | | रुक जाए। क्षत्रिय है। यद्यपि रुक जाए, तो कृष्ण धीरे-धीरे उसे उस है, बोलना नहीं पड़ता। इन दो के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। अनासक्ति पर ले जाएंगे, जहां आटा निकल जाता है और कांटा ही इस दूसरे हिस्से में अर्जुन को कारण बताया जा रहा है। वह | रह जाता है। एक-एक कदम, एक-एक कदम बढ़ना होगा। और कारण वैसे ही है जैसे हम मछलियों के लिए, पकड़ने के लिए आटा कृष्ण एक-एक कदम ही बढ़ रहे हैं। और आटे के भीतर कांटा लगाकर डाल देते हैं। मछली कांटा नहीं पकड़ेगी, भाग खड़ी होगी। अर्जुन भी शुद्ध अनासक्त कर्म नहीं पकड़ सकता। वह कहेगा, फिर करें ही क्यों? यही तो मैं कह रहा न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम् । हूं माधव! वह कहेगा, यही तो मैं कह रहा हूं कृष्ण! कि जब जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् । । २६ । । अनासक्ति ही है, तो मैं जाता हूं। कर्म क्यों करूं? यही तो मैं कह | तथा ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि कमों में आसक्ति वाले रहा हूं! आप भी यही कह रहे हैं, तो मुझे जाने दें। इस युद्ध से | अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न बचाएं, इस भयंकर कर्म में मुझे न जोतें। करे, किंतु स्वयं परमात्मा के स्वरूप में स्थित हुआ 397 Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और सब कर्मों को अच्छी प्रकार करता हुआ उनसे भी वैसा ही करावे । गीता दर्शन भाग - 14 य हसू बहुमूल्य है। बहुत-सी दिशाओं से इसे समझना हितकर है। ज्ञानीजन को चाहिए कि अज्ञानियों के मन कर्म के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न न करे। ज्ञानीजन को चाहिए कि अज्ञानीजनों के जीवन में उत्पात न हो जाए, इसका ध्यान रखे। ज्ञानी की स्थिति वस्तुतः बहुत नाजुक । नाजुक उसी तरह, जैसे किसी पागलखाने में उस आदमी की होती है, जो पागल नहीं है। पागलखाने में पागल इतनी नाजुक स्थिति में नहीं होते, जितनी नाजुक स्थिति में वह आदमी होता है, जो पागल नहीं होता है। मैं अपने एक मित्र को जानता हूं, जो पागल हो गए थे। घर से भाग गए। चोरी, और-और न मालूम क्या - क्या पागलपन किया। अपना नाम-पता भी भूल गए। फिर किसी अदालत ने उन्हें डेढ़ साल की सजा दे दी और लाहौर के पागलखाने में बंद करवा दिया। छह महीने तक तो वे पूरे पागल थे। किसी दिन भूल-चूक से पागलखाने के अधिकारियों की, फिनाइल का पूरा डब्बा मिल गया, वे उसको पी गए। फिनाइल पी जाने से कुछ हुआ - कभी ऐसा हो जाता है— कि उनको इतने कै दस्त हुए कि उनक पागलपन कै- दस्त में निकल गया। पांच-सात दिन के बाद वे बिलकुल स्वस्थ हो गए। पागल न रहे। में तो वे मुझे कहते थे कि मुझे सालभर फिर गैर-पागल हालत में पागलों के बीच बितानी पड़ी। और वह जो कष्ट मैंने देखा जिंदगी में, उसका कोई हिसाब नहीं। जब तक पागल था, मुझे कष्ट का कोई पता ही नहीं था। क्योंकि जो दूसरे कर रहे थे, वही मैं भी कर रहा था। सब लाजिकल मालूम होता था । सब ठीक मालूम होता था। अगर कोई मेरा सिर हिला देता था, पैर खींच लेता था, कुछ गड़बड़ नहीं मालूम होती थी, सब ठीक मालूम होता था । जब मैं ठीक हो गया, तब उपद्रव शुरू हुआ। क्योंकि अब मैं दूसरे के पैर नहीं खींच सकता था, लेकिन दूसरे तो मेरे खींचे ही चले जा रहे थे। और जितना ही मैं अधिकारियों से कहता कि मैं बिलकुल ठीक हूं, तो वे कहते, यह तो सभी पागल कहते हैं। अगर न कहूं कि मैं बिलकुल ठीक हूं, तो कोई सुनने वाला नहीं है; अगर कहूं, तो भी • कोई सुनने वाला नहीं। क्योंकि वे कहते, यह तो सभी पागल कहते हैं। कौन पागल है, जो मानता है कि मैं पागल हूं! एक साल पागलखाने में गैर- पागल को बितानी पड़ी। ज्ञानी की हालत करीब-करीब अज्ञानियों के बीच ऐसी ही डेलिकेट, ऐसी ही नाजुक हो जाती है। अगर ज्ञानी अपने ज्ञान के अनुसार आचरण करे, तो अनेक अज्ञानियों के लिए भटकने का कारण बन सकता है। अगर ज्ञानी अपने शुद्ध आचरण में जीए, तो अनंत अज्ञानियों के लिए और गहन अंधकार में, गहन नर्क में गिरने का कारण बन सकता है। अगर ज्ञानी अपने शुद्ध ज्ञान की बात भी कहे, तो अनेक अज्ञानियों के जीवन को अस्तव्यस्त कर देगा। ज्ञानी कैसे आचरण करे; क्या कहे, क्या न कहे; कैसे उठे, कैसे बैठे; क्या बोले, क्या न बोले - यह बड़ा नाजुक मामला है। और कई बार जब ज्ञानी इतना स्मरण नहीं रखता, तो नुकसान पहुंचता है। बहुत बार पहुंचा है। क्योंकि ज्ञानी जहां से बोलता है, वहां से वह अज्ञानी के चित्त में प्रकाश का द्वार खोले, यह जरूरी नहीं है। जरूरी नहीं है कि उसकी वाणी, उसका आचरण सूर्य का द्वार बन जाए अज्ञानी के जीवन में। यह भी हो सकता है कि अज्ञानी का जो टिमटिमाता दीया था, जिसकी रोशनी में वह किसी तरह टटोलकर | जी लेता था, वह भी बुझ जाए। इतना तो निश्चित है कि जिसने सूर्य को देखा, वह कहेगा, बुझा दो दीयों को, इनसे क्या होने वाला है। इतना तो निश्चित है, जिसने | अनासक्त कर्म को अनुभव किया, वह कहेगा, पागलपन कर रहे हो तुम। लेकिन पागलपन कह देने से कुछ पागलपन नहीं होता । और पागल एक चीज को छोड़कर दूसरे को पकड़ ले, तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता; अंतर जरा भी नहीं आता। वह आदमी वही का वही रह जाता है। सिर्फ रूप, आकार बदल जाते हैं। ..इसलिए कृष्ण यहां एक बहुत महत्वपूर्ण सूत्र कह रहे हैं। शायद इस सदी के लिए और भी ज्यादा महत्वपूर्ण, क्योंकि इस सदी का सारा उपद्रव अज्ञानियों के कारण कम और ज्ञानियों के कारण ज्यादा है। फ्रायड ने कुछ सत्य उपलब्ध किए, ये सत्य नए नहीं हैं। ये सत्य पतंजलि को भी पता हैं; ये सत्य मौलिक नहीं हैं। ये सत्य गौतम बुद्ध को भी पता हैं; ये सत्य कोई बहुत नूतन आविष्कार नहीं हैं। जिन्होंने भी जीवन की गहराई में प्रवेश किया है, उन्हें इनका सदा ही पता रहा है। लेकिन फिर भी ये सत्य इस भांति कभी नहीं कहे गए थे, जिस भांति फ्रायड ने कहे हैं। फ्रायड को कृष्ण के इस सूत्र का कोई पता नहीं है। इसलिए इन सत्यों से लाभ नहीं हुआ, हानि | हुई है। इसलिए इन सत्यों से मंगल नहीं हुआ, अमंगल हुआ है। कृष्णमूर्ति जो कहते हैं, वह कृष्ण को भलीभांति पता था, बुद्ध 398 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ण व्यवस्था की वैज्ञानिक पुनर्स्थापना AM को भी पता था, महावीर को भी पता था, लाओत्से को भी पता था, | हैं, वे झूठ नहीं हैं, वे सच हैं। उनकी सचाई में रत्तीभर फर्क नहीं है। क्राइस्ट को भी पता था। लेकिन क्राइस्ट, लाओत्से, बुद्ध और | | लेकिन उन्हें बुद्धिमानी से नहीं कहा गया है। जानते हैं; जो जानते महावीर और कृष्ण ने इस भांति नहीं कहा, जिस भांति वे कहते हैं।। | हैं, वह ठीक जानते हैं। लेकिन जिनसे कहा जा रहा है, उन्हें ठीक इसलिए बद. क्राइस्ट और महावीर से तो लोगों के जीवन में मंगल से नहीं जानते। आदमी से गलत छडा लेना बहत आसान है, जरा फलित हुआ; कृष्णमूर्ति की बातों से मंगल फलित नहीं हुआ है, भी कठिन नहीं है। किसी चीज को भी गलत सिद्ध कर देना बहुत नहीं हो सकता है। इसलिए नहीं कि जो कहा जा रहा है वह गलत आसान है, जरा भी कठिन नहीं है। लेकिन सही का पदार्पण, सही है, बल्कि इसलिए कि वह जिनसे कहा जा रहा है, उनको बिना का आगमन और अवतरण बहुत कठिन है। समझे कहा जा रहा है। कृष्ण यही कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि अर्जुन, अनासक्त इसलिए चालीस-चालीस वर्ष से कृष्णमूर्ति को लोग बैठकर | | व्यक्ति को अज्ञानियों पर ध्यान रखकर जीना चाहिए। ऐसा न हो कि सुन रहे हैं। उससे कृष्णमूर्ति उनकी समझ में नहीं आए, सिर्फ अनासक्त व्यक्ति छोड़कर भाग जाए, तो अज्ञानी भी छोड़कर भाग महावीर, बुद्ध और कृष्ण उनकी समझ के बाहर हो गए हैं। उससे | जाएं। अनासक्त छोड़कर भागेगा, तो उसका कोई भी अहित नहीं है। सूरज उनकी जिंदगी में नहीं उतरा, सिर्फ जो उनके पास छोटे-मोटे | | लेकिन अज्ञानी छोड़कर भाग जाएंगे, तो बहुत अहित है। क्योंकि दीए थे, वे भी उन्होंने बुझा दिए हैं। और अब अगर उनसे कोई दीयों | अज्ञान में छोड़कर वे जहां भागेंगे, वहां फिर कर्म घेर लेगा। उससे की बात करे, तो वे सूरज की बात करते हैं। और सूरज उनकी | | कोई अंतर नहीं पड़ने वाला है। दुकान छोड़कर मंदिर में जाएगा जिंदगी में नहीं है। अब अगर उनसे कोई साधना की बात करे, तो | अज्ञानी, तो मंदिर में नहीं पहुंचेगा, सिर्फ मंदिर को दुकान बना देगा। वे कहते हैं, साधना से क्या होगा? साधना से कुछ नहीं हो सकता। | कोई फर्क नहीं पड़ेगा। खाते-बही पढ़ते-पढ़ते एकदम से गीता और बिना साधना की उनकी जिंदगी में कुछ भी नहीं हुआ है! अब | पढ़ेगा, तो गीता नहीं पढ़ेगा, गीता में भी खाते-बही ही पढ़ेगा। अगर उनसे कोई उपाय की बात करे कि इस उपाय से मन शांत | अज्ञानी सत्यों का भी दुरुपयोग कर सकता है, करता है। सत्यों होगा, आनंदित होगा, तो वे कहेंगे, उपाय से कंडीशनिंग हो जाती | का भी दुरुपयोग हो सकता है और असत्यों का भी सदुपयोग हो है, संस्कार हो जाते हैं। उपाय से कुछ भी नहीं हो सकता, इससे तो | | सकता है। ज्ञानी छोड़ दे सब। अज्ञानी भी छोड़ना चाहता है, लेकिन कंडीशनिंग हो जाएगी। और नान-कंडीशनिंग उनकी हुई नहीं है | - छोड़ना चाहने के कारण बिलकुल अलग हैं। ज्ञानी इसलिए छोड़ सुन-सुनकर। सूरज उतरा नहीं! जिन दीयों से सूरज के अभाव में देता है कि पकड़ना, न पकड़ना, बराबर हो गया। चीजें छूट जाती काम चल सकता था, वे भी बुझा दिए गए हैं। सूरज निकल आए, | हैं, दे जस्ट विदर अवे। अज्ञानी छोड़ता है; चीजें छूटती नहीं, चेष्टा फिर तो दीए अपने से ही बुझ जाते हैं, बुझाने नहीं पड़ते। और जलते | करके छोड़ देता है। जिस चीज को भी चेष्टा करके छोड़ा जाता है, भी रहें, तो दिखाई नहीं पड़ते। उनका कोई अर्थ ही नहीं रह जाता, उसमें पीछे घाव छूट जाता है। वे व्यर्थ हो जाते हैं। लेकिन सूरज न निकले, तो छोटे-से दीए भी | जैसे कच्चे पत्ते को कोई वृक्ष से तोड़ लेता है, कच्ची डाल को काम करते हैं। | कोई वृक्ष से तोड़ लेता है, तो पीछे घाव छूट जाता है। पका पत्ता भी बुद्ध और महावीर में ज्यादा करुणा है, कृष्णमूर्ति के बजाय। | टूटता है, लेकिन कोई घाव नहीं छूटता। पके पत्ते को सम्हलकर कृष्ण और क्राइस्ट में ज्यादा करुणा है, कृष्णमूर्ति के बजाय। करुणा | छूटना चाहिए, कच्चे पत्तों को टूटने का खयाल न आ जाए। कच्चे इस अर्थों में कि वे निपट सत्य को निपट सत्य की तरह नहीं कह दे | पत्ते भी टूटने के लिए आतुर हो सकते हैं। पके पत्ते का आनंद देखेंगे रहे हैं, आप पर भी ध्यान है कि जिससे कह रहे हैं, उस पर क्या हवाओं में उड़ते हुए और खुद को पाएंगे बंधा हुआ। और पका पत्ता होगा। सवाल यही महत्वपूर्ण नहीं है कि मैं कह दूं सत्य को। सवाल हवाओं की छाती पर सवार होकर आकाश में उठने लगेगा, और यह भी महत्वपूर्ण है, परिणाम क्या है? इससे होगा क्या? उससे पका पत्ता पूर्व और पश्चिम दौड़ने लगेगा, और पके पत्ते की जो होगा, वह ज्यादा महत्वपूर्ण है, बजाय मेरे कह देने के। क्योंकि स्वतंत्रता-वृक्ष से टूटकर, मुक्त होकर-कच्चे पत्तों को भी अंततः मैं कह इसलिए रहा हं कि कछ हो. और वह मंगलदायी हो। | आकर्षित कर सकती है। वे भी टटना चाह सकते हैं। वे भी कह फ्रायड ने, डार्विन ने, कृष्णमूर्ति ने सारे जगत में जो बातें कही | सकते हैं, हम भी क्यों बंधे रहें इस वृक्ष से! टूटे। लेकिन तब पीछे 1399 Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1 4K कृष्ण व वृक्ष में भी घाव छूट जाता और कच्चे पत्ते में भी घाव छूट जाता। है कि भूलकर संन्यास मत ले लेना। क्योंकि संन्यास की जो धारणा और घाव खतरनाक है। निर्मित हुई हमारे देश में, वह धारणा कच्चे पत्तों के टूटे होने की ___ इसलिए ध्यान रखें, पका पत्ता जब वृक्ष से गिरता है, तो सड़ता | | धारणा थी। तो डर लगता है कि अगर पति संन्यासी हुआ, तो क्या नहीं। कच्चा पत्ता जब वृक्ष से गिरता है, तो सड़ता है। पका पत्ता होगा? सब बरबाद हो जाएगा। पत्नी संन्यासिनी हो गई, तो क्या सड़ेगा क्या! सड़ने के बाहर हो गया पककर। कच्चा पत्ता जब भी होगा? सब बरबाद हो जाएगा। टूटेगा तो सड़ेगा। अभी कच्चा ही था; अभी पका कहां था? अभी बुद्ध और महावीर के अनजाने ही कच्चे पत्ते टूटे। और कच्चे तो सड़ेगा। और ध्यान रखें, पकना एक बात है, और सड़ना पत्ते टूटे, तो पीछे घाव छूट गए। वे घाव अब तक भी मनस, हमारे बिलकुल दूसरी बात है। समाज के मानस में भर नहीं गए हैं। अभी भी दूसरे का बेटा कच्चा आदमी वैसा ही होता है, जैसे कच्ची लकड़ी को हम ईंधन संन्यासी हो, तो हम फूल चढ़ा आते हैं उसके चरणों में खुद का बना लें। तो आग तो कम जलती है, धुआं ही ज्यादा निकलता है। | बेटा संन्यासी होने लगे, तो प्राण कंपते हैं। खुद का बेटा चोर हो पकी लकड़ी भी ईंधन बनती है, लेकिन तब धुआं नहीं निकलता, | जाए, तो भी चलेगा; संन्यासी हो जाए, तो नहीं चलता है। डाकू हो आग जलती है। जो व्यक्ति जानकर जीवन से छूट जाता है सहज, जाए, तो भी चलेगा। कम से कम घर में तो रहेगा। दो साल सजा वह पकी लकड़ी की तरह ईंधन बन जाता है, उसमें धुआं नहीं होता। काटेगा, वापस आ जाएगा। संन्यासी हो जाए, तो गया; फिर कभी कच्चे व्यक्ति अगर छूट जाते हैं पक्के लोगों को देखकर, तो आग | वापस नहीं लौटता। इसलिए इस देश में संन्यास को हमने इतना पैदा नहीं होती. सिर्फ धुआं ही धुआं पैदा होता है। और लोगों की आदर भी दिया, उतने ही हम भयभीत भी हैं भीतर; डरे हुए भी हैं; आंखें भर जलती हैं, भोजन नहीं पकता है। घबड़ाए हुए भी हैं। यह घबड़ाहट उन ज्ञानियों के कारण पैदा हो नी को बहुत ही...तलवार की धार पर जाती है. जो अज्ञानियों का बिना ध्यान लिए वर्तन करते हैं। . चलना होता है। उसे ध्यान रखना होता है अपने ज्ञान का भी, चारों - तो कृष्ण कहते हैं कि तू ऐसा बर्त कि तेरे कारण किसी अज्ञानी तरफ घिरे हुए अज्ञानियों का भी। इसलिए ऐसा उसे बर्तना चाहिए के सहज जीवन की श्रद्धा में कोई बाधा न पड़ जाए। हां, ऐसी कि वह किसी अज्ञानी के कर्म की श्रद्धा को चोट न बन जाए; वह | | कोशिश जरूर कर कि तेरी सुगंध, तेरे अनासक्ति की सुवास, ' उसके कर्म के भाव को आघात न बन जाए; वह उसके जीवन के | उनके जीवन में भी धीरे-धीरे अनासक्ति की सुवास बने, लिए आशीर्वाद की जगह अभिशाप न बन जाए। अनासक्ति की सुगंध बने और वे भी जीवन में रहते हुए अनासक्ति बन गए बहुत दफा ज्ञानी अभिशाप! और अगर ज्ञान के प्रति | | को उपलब्ध हो सकें। तो शुभ है, तो मंगल है, अन्यथा अनेक बार इतना भय आ गया है, तो उसका कारण यही है। बुद्ध को देखकर | | मंगल के नाम पर अमंगल हो जाता है। लाखों लोग घर छोड़कर चले गए। चंगेज खां ने भी लाखों घरों को आखिरी श्लोक। बरबाद किया। लेकिन चंगेज खां को इतिहास दोषी ठहराएगा, बुद्ध को नहीं ठहराएगा। हजारों स्त्रियां रोती, तड़पती-पीटती रह गईं। हजारों बच्चे अनाथ हो गए पिता के रहते। हजारों स्त्रियां पतियों के प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। रहते विधवा हो गईं। हजारों घरों के दीए बुझ गए। कृष्ण यही कह अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते । । २७ ।। रहे हैं...। और इसके दुष्परिणाम घातक हुए और लंबे हुए। इसका (वास्तव में) संपूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किए हुए हैं, सबसे घातक परिणाम यह हुआ कि संन्यास में एक तरह का भय (तो भी) अहंकार से मोहित हुए अंतःकरण वाला पुरुष, समाहित हो गया। मैं कर्ता हूं, ऐसे मान लेता है। अब अगर मेरे पास कोई आता है और मेरा संन्यास बिलकुल और है; अभिशाप की तरह नहीं है, वरदान की तरह है तो वह कहता है, मेरी पत्नी खिलाफ है। क्योंकि पत्नी संन्यासी के खिलाफ 1 मस्त कर्म प्रकृति के गुणों के द्वारा किए हुए हैं। लेकिन होगी ही। पत्नी अगर आती है, तो वह कहती है, मेरा पति खिलाफ | 1 अज्ञान से, अहंकार से भरा हुआ पुरुष, मैं कर्ता हूं, 4001 Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm वर्ण व्यवस्था की वैज्ञानिक पुनर्स्थापना HIM ऐसा मान लेता है। दो बातें हैं। खले, तो पूरी तस्वीर ऊपर दिखाई पड़े। अकेला होना मश्किल हो सच ही, सब कुछ किया हुआ है प्रकृति का। जिसे आप कहते गया, अपनी ही तस्वीर पीछा करे! आधी रात तक जद्दोजहद की, हैं, मैं करता हूं, वह भी प्रकृति का किया हुआ है। जिसे आप कहते | | लड़ाई की कि कोई तरह जीत जाऊं उस गद्दी से, जीत नहीं हो सकी। हैं, मैं चुनता हूं, वह भी प्रकृति का चुना हुआ है। आप कहते हैं कि | | फिर नीचे फर्श पर सो गया और नींद आ गई। सुबह मित्र आए। कोई चेहरा मुझे प्रीतिकर लगता है, चुनता हूं इस चेहरे को, विवाह | | मुझे फर्श पर देखा, तो दुखी हुए। और कहा कि कुछ अड़चन हुई करता हूं। लेकिन कभी आपने सोचा कि यह चेहरा आपको | | आपको? इंतजाम ठीक नहीं कर पाए ? मैंने कहा, ज्यादा कर दिया! प्रीतिकर क्यों लगता है? अंधा है चुनाव! क्या कारण हैं इसके | फर्श पर बड़ा सुख मिला। तालमेल पड़ गया। गद्दी आपकी जरा प्रीतिकर लगने का? यह आंख, यह नाक, यह चेहरा, प्रीतिकर क्यों | | ज्यादा गद्दी थी; अभ्यास नहीं था, तालमेल नहीं हो सका। लगता है ? बस, लगता है। कुछ और कह सकेंगे, क्यों लगता है ? | | जिसे हम सुख कहते हैं, वह भी तालमेल है। जिसे हम दुख शायद कहें कि आंख काली है। लेकिन काली आंख क्यों प्रीतिकर कहते हैं, वह भी तालमेल है या तालमेल का अभाव है। लेकिन मैं लगती है? यह आंख आपकी आंख में प्रीतिकर लगती है। यह | | सुखी होता हूं, मैं दुखी होता है, वह भ्रांति है। सिर्फ मेरे भीतर जो आपकी प्रकृति और इस आंख की प्रकृति के बीच हुआ तालमेल प्रकृति है और मेरे बाहर जो प्रकृति है, उसके बीच संबंध निर्मित है। इसमें आप कहां हैं? होते हैं। जन्म भी एक संबंध है, मृत्यु भी एक संबंध है। लेकिन मैं आप कहते हैं, यह चीज मुझे बड़ी स्वादिष्ट लगती है। कभी | कहता हूं, मैं जन्मा; और मैं कहता हूं, मैं मरा। और जवानी भी एक आपने सोचा कि स्वादिष्ट लगती है, आपको? लेकिन बुखार चढ़ संबंध है, मेरे भीतर की प्रकृति और बाहर की प्रकृति के बीच। और जाता है, और फिर स्वादिष्ट नहीं लगती। सिर्फ आपकी जीभ पर | | बुढ़ापा भी एक संबंध है। लेकिन मैं कहता हूं, मैं जवान हुआ और प्रकृति के रसों का और भोजन के रसों का तालमेल है। आप नाहक | मैं बूढ़ा हुआ। हार भी एक संबंध है, मेरी प्रकृति के बीच और बाहर बीच में पड़ जाते हैं। आप नाहक हर जगह बीच में खड़े हो जाते हैं। | की प्रकृति के बीच। जीत भी एक संबंध है, मेरी प्रकृति के बीच और आप कहते हैं, मुझे जीने की इच्छा है। लेकिन आपको जीने की | | बाहर की प्रकृति के बीच। लेकिन मैं हारता हूं, मैं जीतता हूंइच्छा है या आप ही जीने की इच्छा के एक अंग हैं? एक आदमी | अकारण, व्यर्थ। कहता है, मैं आत्महत्या कर रहा हूं। यह आदमी स्वयं आत्महत्या - कृष्ण कह रहे हैं, ज्ञानी पुरुष इस अहंकार, इस अज्ञान, इस भ्रम कर रहा है कि जीवन के सारे गुण उस जगह आ गए हैं, जहां से बच जाता है कि मैं कर्ता हूं, और देखता है, प्रकृति करती है। आत्महत्या घटित होती है? यदि हम कर्मों में गहरे उतरकर देखें, | और जैसे ही खयाल आता है कि प्रकृति करती है, कि सब सुख-दुख और अहंकार में भी, तो अहंकार एक भ्रांति है। जीवन कर रहा है, | खो जाते हैं। और जैसे ही खयाल आता है कि प्रकृति के गुणधर्मों सब कुछ जीवन कर रहा है। सुख-दुख, जो आपको सुखद लगता का फैलाव सब कुछ है, हम उसमें ही उठी हुई एक लहर से ज्यादा है, वह भी प्रकृति का गुणधर्म है। जो आपको दुखद लगता है, वह | नहीं, उसके ही एक अंश-वैसे ही जीवन से आसक्ति-विरक्ति भी प्रकृति का गुणधर्म है। खो जाती है, और आदमी अनासक्त, वीतराग, ज्ञान को उपलब्ध मैं एक राजमहल में मेहमान था। पहली ही दफा राजमहल में हो जाता है। अर्जुन से वे कह रहे हैं कि तू लड़ रहा है, ऐसा मत मेहमान हुआ, तो बड़ी मुश्किल में पड़ गया, रातभर सो न सका। सोच, प्रकृति लड़ रही है। ऐसी मुश्किल मुझे कभी न आई थी। ऐसे सुख का कोई अभ्यास न ___ कौरवों की एक प्रकृति है, एक गुणधर्म है; पांडवों की एक था। सुख का भी अभ्यास चाहिए, अन्यथा दुख बन जाता है। | प्रकृति है, एक गुणधर्म है। तालमेल नहीं है। संघर्ष हो रहा है। जैसे क्योंकि तालमेल, कोई हार्मनी नहीं बन पाती। जिनका अतिथि था, सागर की लहर आती और तट से टकराती। लेकिन हम कभी ऐसा उनके पास जो श्रेष्ठतम. जो भी श्रेष्ठतम था. उन्होंने इंतजाम किया नहीं कहते कि सागर की लहर तट से लड़ रही है। लेकिन अगर था। गद्दी ऐसी थी कि मैं पूरा ही उसमें डूब जाऊं। करवट लूं, तो लहर को होश आ जाए और लहर चेतन हो जाए, तो लहर तैयारी मुसीबत; फिर नींद खुल जाए। एक तो नींद लगनी ही मुश्किल। करके आएगी कि लड़ना है तट से। और तट तैयारी रखेगा कि ऊपर मसहरी पर पूरा आईना था। अंदर ही पंखे थे। जरा आंख | लड़ना है लहर से। अभी दोनों को कोई होश नहीं है, इसलिए कोई 401 Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 AM लड़ाई नहीं है। लहर तट से टकराती, बिखरती, तट भी टूटता | पर पैर पड़ा, गिर गए। उनके हाथ में नहीं, कि हंसी बिखर गई। रहता। दोनों गुणधर्म चलते रहते हैं। कहीं कोई जीतता नहीं, कहीं और आप अब दुखी होकर चले जा रहे हैं। अब कल आप जरूर कोई हारता नहीं। आदमी, आदमियों की लहरें जब लड़ती हैं, तो | | उनके रास्ते पर छिलके बिछाएंगे। जरूर कल उनको गिराकर हंसना, हम लड़ते हैं, प्रकृति को भूलकर। चाहेंगे। अब आप जाल में पड़ते हैं, अब आप व्यर्थ के जाल में कृष्ण के हिसाब से धर्म और अधर्म की लड़ाई है। कृष्ण के | पड़ते हैं। वह जाल अहंकार स्पर्शित होने से हुआ है। हिसाब से प्रकृति के बीच ही उठी हुई दो लहरों का संघर्ष है। इसमें कृष्ण इतना ही कहते हैं कि ज्ञानी करता है कर्म, लेकिन कर्ता अर्जुन नाहक ही...। हां, अर्जुन लहर के ऊपर है, एक लहर के | नहीं बनता है। बस जो कर्ता नहीं बनता, वह जीवन के परम सत्य ऊपर है; इसलिए भ्रम में हो सकता है कि मैं लड़ रहा हूं। इस भ्रम को उपलब्ध हो जाता है। में हो सकता है कि मैं हारूंगा, मैं जीतंगा। इस भ्रम में हो सकता है शेष रात बात करेंगे। कि मैं मारूंगा, मिटूंगा। वह सिर्फ लहर के ऊपर है, जैसे समुद्र की लहर के ऊपर झाग होती है। झाग भी अकड़ उठे, अगर उसको होश आ जाए। लहर के ऊपर होती है। जैसे कि सम्राटों के सिर पर | राजमुकुट होते हैं, ऐसे ही लहर पर झाग होती है। अर्जुन भी झाग है एक लहर की, वह दुर्योधन भी झाग है एक लहर की। दोनों लहरें | टकराएंगी और प्रकृति निर्णय करती रहेगी कि क्या होना है। जिस दिन कोई व्यक्ति जीवन को अहंकार से मुक्त करके देख पाता. उसी दिन हार-जीत. सख-दख. सब खो जाते हैं। ज्ञानी तब कर्म करता और कर्ता नहीं बनता है। ज्ञानी तब सब कुछ होता और फिर भी भीतर से कुछ भी नहीं होता है। तब ज्ञानी जवान होता और जवान नहीं होता, भीतर वही रहता है, जो बचपन में था। और बूढ़ा होता और बूढ़ा नहीं होता है, भीतर वही रहता है, जो जवानी में था। और मरता है और नहीं मरता, भीतर वही रहता है, जो जीवन में था। तब ज्ञानी भीतर अस्पर्शित, अनटच्ड। लेकिन स्पर्शित हो जाते हैं हम अहंकार के कारण। अहंकार बहुत सेंसिटिव है; छुआ नहीं कि दुखा नहीं। छुओ और दुखा। बस, अहंकार ही सारा स्पर्श ले लेता है। रास्ते पर आप जा रहे हैं, कोई हंस देता है। और आपका अहंकार स्पर्श ले लेता है; दुखी होने लगे। बड़ी मुश्किल है। एक लहर हंसती है, उसे हंसने दें। और एक लहर को हक है कि दूसरी लहर को देखकर हंसे। आप क्यों परेशान हैं? नहीं, लेकिन आप परेशान न होते, अगर आपने जाना होता कि प्रकृति ऐसी है। आप गिर पड़े हैं। केले के छिलके पर पैर फिसल गया और चार लोग हंस दिए हैं। बिलकुल ठीक है; इसमें कहीं कोई गड़बड़ नहीं है। जैसे छिलके के ऊपर पैर पड़ता है, आप गिर जाते हैं, वैसे ही उनके ऊपर आपके गिरने की घटना पड़ती है और हंसी फूट जाती है। यह सब प्रकृति का गुणधर्म है। आपके हाथ में नहीं है, छिलके 402 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 3 सातवां प्रवचन अहंकार का भ्रम Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sim+ गीता दर्शन भाग-1 AM तस्वविसु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः । बर्नार्ड शा जैसे बुद्धिमान आदमी से ऐसी बात की आशा नहीं हो गुणा गुणेषु वर्तन्ते इति मत्वा न सज्जते ।। २८।। | सकती थी। तो किसी आदमी ने सभा में खड़े होकर पूछा कि आप परंतु हे महाबाहो, गुण-विभाग और कर्म-विभाग को जानने क्या कह रहे हैं! अब तो सिद्ध हो चुका है कि जमीन ही सूरज के वाला ज्ञानी पुरुष, संपूर्ण गुण गुणों में ही बर्तते हैं, ऐसा चक्कर लगाती है। आपके पास क्या प्रमाण है ? बर्नार्ड शा ने कहा, मानकर आसक्त नहीं होता है। मुझे प्रमाण की जरूरत नहीं। इतना ही प्रमाण काफी है कि बर्नार्ड शा जिस जमीन पर रहता है, वह जमीन किसी का चक्कर नहीं लगा सकती। सूरज ही चक्कर लगाता है। H वन को दो प्रकार से देखा जा सकता है। एक तो, जैसे सारा मनुष्य का अहंकार सोचता है कि वही केंद्र पर है और सब UIT जीवन का केंद्र हम हैं, मैं हूं और सारा जीवन परिधि | कुछ। अज्ञानी की यह दृष्टि है, सेंटर जो है जगत का, वह मैं हूं। __ है। कील मैं हूं और सारा जीवन परिधि है। अज्ञान की | | जैसे गाड़ी का चाक घूमता है कील पर, ऐसे कील मैं हूं; और सब यही मनोदशा है। अज्ञानी केंद्र पर होता है, सारा जगत उसकी | कछ, विराट मेरे ही आस-पास घूम रहा है। परिधि पर घूमता है। सब कुछ उसके लिए हो रहा है और सब कुछ | ज्ञानी की मनोदशा इससे बिलकुल उलटी है। ज्ञानी कहता है, उससे हो रहा है। न तो वह यह देख पाता है कि प्रकृति के गुण काम केंद्र हो कहीं भी, हम परिधि पर हैं, यह भी परमात्मा की बहुत कृपा करते हैं, न वह यह देख पाता है कि परमात्मा की समग्रता कर्म | | है। केंद्र तो हम नहीं हैं। ज्ञानी कहता है, केंद्र मैं नहीं हूं। केंद्र अगर करती है। जो कुछ भी हो रहा है, वही करता है। उसकी स्थिति ठीक | | होगा, तो परमात्मा होगा। हम तो परिधि पर उठी हुई लहरों से ज्यादा वैसी होती है, जैसे मैंने एक कहानी सुनी है कि छिपकली राजमहल | | नहीं हैं। कोई उठाता है, उठ आते हैं। कोई गिराता है, गिर जाते हैं। की दीवार पर छत से लटकी है और भयभीत है कि अगर वह छत कोई करवाता है, कर लेते हैं। कोई रोक देता है, रुक ज जाते हैं। किसी से हट जाए, तो कहीं छत गिर न जाए! वही संभाले हुए है! का इशारा जिंदगी बन जाती है; किसी का इशारा मौत ले आती है। कुछ ही समय पहले, कोपरनिकस के पहले, आज से कुल तीन न हमें जन्म का कोई पता है, न हमें मृत्यु का कोई पता है। न हमें सौ वर्ष पहले आदमी सोचता था कि जमीन केंद्र है सारे यूनिवर्स | पता है कि श्वास क्यों भीतर जाती है और क्यों बाहर लौट जाती है। का, सारे विश्व का। चांद-तारे जमीन के आस-पास घूमते हैं। नहीं, हमें कोई भी पता नहीं है कि हम क्यों हैं, कहां से हैं, कहां के सूरज जमीन का चक्कर लगाता है। दिखाई भी पड़ता है। सुबह | लिए हैं। उगता है, सांझ डूबता है। कोपरनिकस ने एक बड़ी क्रांति उपस्थित | | तो ज्ञानी कहता है, विराट का कर्म है और मैं तो उस कर्मों की कर दी आदमी के मन के लिए, जब उसने कहा कि बात बिलकुल लहरों पर एक तिनके से ज्यादा नहीं हूं। इसलिए कर्म मेरा नहीं, कर्म उलटी है: सरज जमीन के चक्कर नहीं लगाता. जमीन ही सरज के विराट का है। और जो भी फलित हो रहा है—हार या जीत, सुख चक्कर लगाती है। बहुत धक्का पहुंचा। धक्का इस बात से नहीं | | या दुख, प्रेम या घृणा, युद्ध या शांति—जो भी घटित हो रहा है पहुंचा कि हमें कोई फर्क पड़ता है कि चक्कर कौन लगाता है, सूरज | | | जगत में, वह प्रकृति के गुणों से घटित हो रहा है। ऐसा जो व्यक्ति लगाता है कि जमीन लगाती है। हमें क्या फर्क पड़ता है? नहीं, । जान लेता है, उसके जीवन में अनासक्ति फलित हो जाती है। उसके धक्का इस बात से पहुंचा कि आदमी जिस जमीन पर रहता है, वह | | जीवन में फिर आसक्ति का जहर नहीं रह जाता है। फिर आसक्ति जमीन भी चक्कर लगाती है! मैं जिस जमीन पर रहता हूं, वह जमीन | की बीमारी नहीं रह जाती है। भी चक्कर लगाती है सूरज का! ___ एक घटना मैंने सुनी है। मैंने सुना है, एक झेन फकीर हुआ, आदमी ने हजारों वर्ष अपने अहंकार के आस-पास सारे विश्व | रिझाई। वह एक गांव के रास्ते से गुजरता था। एक आदमी पीछे से को चक्कर लगवाया। कोपरनिकस का मजाक उड़ाते हुए और | | आया, उसे लकड़ी से चोट की और भाग गया। लेकिन चोट करने आदमी का मजाक उड़ाते हुए बर्नार्ड शा ने एक बार कहा था कि में उसके हाथ से लकड़ी छूट गई और जमीन पर नीचे गिर गई। कोपरनिकस की बात गलत है। यह बात झूठ है कि जमीन सूरज | रिझाई लकड़ी उठाकर पीछे दौड़ा कि मेरे भाई, अपनी लकड़ी तो का चक्कर लगाती है। सूरज ही जमीन का चक्कर लगाता है। लेते जाओ। पास एक दुकान के मालिक ने कहा, पागल हो गए 1404 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ST- अहंकार का भ्रम - हो? वह आदमी तुम्हें लकड़ी मारकर गया और तुम उसकी लकड़ी | समझ लेता है, वह आदमी अनासक्त हो जाता है। लौटाने की चिंता कर रहे हो! रिझाई ने कहा, एक दिन मैं एक वृक्ष | बद्ध एक गांव में ठहरे हैं अंतिम दिन. जहां उनकी बाद में के नीचे लेटा हुआ था। वृक्ष से एक शाखा मेरे ऊपर गिर पड़ी। तब मृत्यु हुई—एक गरीब आदमी ने उन्हें भोजन पर बुलाया। बिहार के मैंने वृक्ष को कुछ भी नहीं कहा। आज इस आदमी के हाथ से | | गरीब सब्जी तो नहीं जुटा पाते थे। अब भी नहीं जुटा पाते हैं। तो लकड़ी मेरे ऊपर गिर पड़ी है, मैं इस आदमी को क्यों कुछ कहूं! | कुकुरमुत्ता बरसात में पैदा हो जाता है-वृक्षों पर, पत्थरों पर, नहीं समझा वह दुकानदार। उसने कहा, पागल हो! वृक्ष से शाखा | जमीन में-छतरी, उसको ही काटकर रख लेते हैं। फिर उसे सुखा का गिरना और बात है। इस आदमी से लकड़ी तुम्हारे ऊपर गिरना लेते हैं। फिर उसी की सब्जी बना लेते हैं। गरीब था आदमी। उसके वही बात नहीं है। घर में कोई सब्जी न थी। लेकिन बुद्ध को निमंत्रण कर आया, तो रिझाई कहने लगा, एक बार मैं नाव खे रहा था। एक खाली नाव | कुकुरमुत्ते की सब्जी बनाई। कुकुरमुत्ता कभी-कभी विषाक्त हो आकर मेरी नाव से टकरा गई। मैंने कुछ भी न कहा। और एक बार | जाता है, पायजनस हो जाता है। कहीं भी उगता है; अक्सर गंदी ऐसा हुआ कि मैं किसी और के साथ नाव में बैठा था। और एक जगहों में उगता है। नाव, जिसमें कोई आदमी सवार था और चलाता था, आकर टकरा | वह सूखा कुकुरमुत्ता विषाक्त था। बुद्ध ने चखा, तो वह कड़वा गई। तो वह जो नाव चला रहा था मेरी, वह गालियां बकने लगा। | था। लेकिन वह गरीब पंखा झल रहा था, और उसकी आंखों से मैंने उससे कहा, अगर नाव खाली होती, तब तुम गाली बकते या | आनंद के आंसू बह रहे थे। तो बुद्ध ने कुछ कहा न, वे खाते चले न बकते? तो उस आदमी ने कहा, खाली नाव को क्यों गाली गए। वह कड़वा जहर था। लौटे तो बेहोश हो गए। चिकित्सकों ने बकता! रिझाई ने कहा, गौर से देखो; नाव भी एक हिस्सा है इस कहा कि बचना मुश्किल है। खून में जहर फैल गया है। उस आदमी विराट की लीला का। वह आदमी जो बैठा है, वह भी एक हिस्सा | ने बेचारे ने कहा कि आपने कहा क्यों नहीं कि कड़वा है! है। नाव को माफ कर देते हो, आदमी पर इतने कठोर क्यों हो? - बुद्ध ने कहा, देखा मैंने तुम्हारे आंखों के आंसुओं को, उनके द वह दकानदार फिर भी नहीं समझा होगा। हममें से कोई आनंद को देखा मैंने ककरमत्ते के कडवेपन को। देखा मैंने मेरे खन भी नहीं समझ पाता है। में फैलते हुए जहर को। देखा मैंने मेरी आती हुई मौत को। फिर मैंने एक आदमी क्रोध से भर जाता है और किसी को लकड़ी मार कहा, मौत तो रोकी नहीं जा सकती, आज नहीं कल आ ही जाएगी। देता है। इस मारने में प्रकृति के गुण ही काम कर रहे हैं। एक आदमी कुकुरमुत्ता कड़वा है, इसमें नाराजगी क्या! जहर मिल गया होगा। शराब पीए होता है और आपको गाली दे देता है; तब आप बुरा | तुम इतने आनंदित हो कि जो मृत्यु आने ही वाली है, जो रोकी न नहीं मानते; अदालत भी माफ कर सकती है उसे, क्योंकि वह शराब जा सकेगी, आज-कल आ ही जाएगी, उस छोटी-सी घटना के पीए था। लेकिन अगर एक आदमी शराब पीए, तो हम माफ कर लिए तुम्हारी खुशी को छीनने वाला क्यों मैं बनूं? कहूं कि कड़वा देते हैं; और एक आदमी के शरीर में क्रोध के समय ऐड्रीनल नामक है, तो तुम्हारी खुशी कड़वी हो जाए। और सब चीजें अपने गुण से ग्रंथि से विष छूट जाता है, तब हम उसे माफ नहीं करते। हो रही हैं : जहर कड़वा है; भोजन कराने वाला आनंदित है; भोजन ___ जब एक आदमी क्रोध में होता है, तो होता क्या है ? उसके खून | | करने वाला भी आनंदित है। बुद्ध ने कहा, मैं पूरा आनंदित हूं। जहर में विष छूट जाता है। उसके भीतर की ग्रंथियों से रस-स्राव हो जाता | मुझे नहीं मार पाएगा। जहर जिसे मार सकता है, उसे मार लेगा। है। वह आदमी उसी हालत में आ जाता है, जैसा शराबी आता है। | जहर का जो गुण है, वह शरीर के जो गुण हैं, उन पर काम कर फर्क इतना ही है, शराबी ऊपर से शराब लेता है, इस आदमी को | जाएगा। मैं देखने वाला हूं, मैं मरने वाला नहीं हूं। भीतर से शराब आ जाती है। अब जिस आदमी के खून में जहर छूट __ लेकिन बुद्ध की मृत्यु हो गई। मृत्यु के पहले बुद्ध ने अपने गया है, अगर वह घूसा बांधकर मारने को टूट पड़ता है, तो इसमें | | भिक्षुओं को बुलाकर कहा कि जाओ गांव में डुंडी पीट दो, सारे इस आदमी पर नाराज होने की बात क्या है! यह इस आदमी के गांव में खबर कर दो कि जिस आदमी ने बुद्ध को अंतिम भोजन भीतर जो घटित प्रकृति का गुण, उसका परिणाम है। दिया, वह परम पण्यशाली है। भिक्षओं ने कहा. आप क्या कहते कृष्ण यह कह रहे हैं कि जो आदमी जीवन के इस रहस्य को हैं! वह आदमी हत्यारा है। बुद्ध ने कहा, तुम्हें पता नहीं है; 405 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ymगीता दर्शन भाग-1 कभी-कभी हजारों-लाखों वर्षों में बुद्ध जैसा व्यक्ति पैदा होता है। | है, उसे होने दे और तू उस होने के बाहर अनासक्त खड़ा हो जा। उसको जो मां पहली दफे भोजन देती है, वह भी धन्यभागी है। और | यदि तू अनासक्त खड़ा हो सकता है, तो फिर युद्ध ही शांति है। जो आदमी उसे अंतिम भोजन देता है, वह भी कम धन्यभागी नहीं | | और अगर तू अनासक्त खड़ा नहीं हो सकता, तो शांति भी युद्ध बन है। इस आदमी ने मुझे अंतिम भोजन दिया, यह बहुत धन्यभागी है। जाती है। और भिक्षु तो चले गए; आनंद रुका रहा। आनंद ने बुद्ध से कहा कि मेरा मन नहीं होता; आप यह क्या कह रहे हैं! बुद्ध ने कहा, आनंद तू समझता नहीं। जहर ने अपना काम किया, उस आदमी ने | | प्रश्नः भगवान श्री, अहंकाररूपी भ्रम से आसक्ति अपना काम किया। मैं बुद्ध हूं, मुझे मेरे गुणधर्म के अनुसार काम | पैदा होती है, तो कृपया अहंकार की उत्पत्ति को करने दो, अन्यथा लोग क्या कहेंगे। और अगर मैं यह कहकर न | अधिक स्पष्ट करें। जाऊं और मर जाऊं, तो मुझे खयाल है कि तुम मिलकर कहीं उसकी हत्या न कर दो! कहीं उसके घर में आग न लगा दो। अगर तुमने यह भी न किया, तो वह जन्मों-जन्मों के लिए नाहक श हंकाररूपी भ्रम से आसक्ति उत्पन्न होती है, अहंकार अपमानित और निंदित तो हो ही जाएगा। 21 कैसे उत्पन्न होता है? दो-तीन बातें समझ लेनी एक और छोटी बात कहूं। उमास्वाति ने उल्लेख किया है एक ___ उपयोगी हैं। पहली बात तो अहंकार कभी उत्पन्न नहीं फकीर का, एक साधु का कि वह पानी में उतरा। एक बिच्छू पानी | | होता, सिर्फ प्रतीत होता है। उत्पन्न कभी नहीं होता, सिर्फ प्रतीत में डूब रहा है। उसने उसे हाथ में ले लिया। लेकिन बिच्छू जोर से | | होता है। जैसे रस्सी पड़ी हो और सांप प्रतीत हो। उत्पन्न कभी नहीं डंक मारता है। हाथ कंप जाता है, बिच्छू गिर जाता है। वह फिर । | होता, सिर्फ प्रतीत होता है। लगता है कि है, होता नहीं। अहंकार बिच्छू को उठाता है। किनारे खड़ा एक आदमी कहता है कि तुम | | भी लगता है कि है, है नहीं। पागल तो नहीं हो! वह बिच्छ्, जो तुम्हें काट रहा है और जहर से | जैसे हम लकड़ी को पानी में डालें और लकड़ी तिरछी दिखाई भरे दे रहा है, तुम उसे बचाने की कोशिश क्यों कर रहे हो? पड़ती है—होती नहीं, जस्ट एपियर्स-बस प्रतीत होती है। बाहर वह फकीर कहता है कि बिच्छू अपना गुणधर्म निभा रहा है, मैं | | निकालें, सीधी पाते हैं। फिर पानी में डालें, फिर तिरछी दिखाई अपना गुणधर्म न निभाऊं, तो परमात्मा के सामने बिच्छू जीत पड़ती है। और हजार दफे देख लें और पानी में डालें, अब आपको जाएगा और मैं हार जाऊंगा। मैं साधु हूं, बचाना मेरा गुणधर्म है।। | भलीभांति पता है कि लकड़ी तिरछी नहीं है, फिर भी लकड़ी तिरछी वह बिच्छू है, काटना उसका गुणधर्म है। वह अपना काम पूरा कर | | दिखाई पड़ती है। ठीक ऐसे ही अहंकार दिखाई पड़ता है, पैदा नहीं रहा है, तुम मुझे मेरा काम पूरा क्यों नहीं करने देते हो! होता। इस बात को तो पहले खयाल में ले लें। क्योंकि अगर कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से, जो व्यक्ति, जीवन गुणों के अनुसार | अहंकार पैदा हो जाए, तब उससे छुटकारा बहुत मुश्किल है। अगर वर्तित हो रहा है और कर्म भी महाप्रकृति की विराट लीला के हिस्से | दिखाई ही पड़ता हो, तो समझ से ही उससे छुटकारा हो सकता है। हैं, ऐसा जान लेता है, वह कर्म में अनासक्त हो जाता है। ऐसे | फिर चाहे वह दिखाई ही पड़ता रहे, तो भी छुटकारा हो जाता है। व्यक्ति को दुख नहीं व्यापता; ऐसे व्यक्ति को सुख नहीं व्यापता। | अहंकार कैसे दिखाई पड़ता है, अहंकार के दिखाई पड़ने का जन्म ऐसे व्यक्ति को सफलता-असफलता समान हो जाती है। ऐसे | कैसे होता है, यह मैं जरूर कहना चाहूंगा। व्यक्ति को यश-अपयश एक ही अर्थ रखते हैं। ऐसे व्यक्ति को पहली बात। एक बच्चा पैदा होता है। हम उसे एक नाम देते जीवन-मृत्यु में भी कोई फर्क नहीं रह जाता है। और ऐसी चित्तदशा | हैं-अ, ब, स। कोई बच्चा नाम लेकर पैदा नहीं होता। किसी में ही परमात्मा का, सत्य का, आनंद का अवतरण है। बच्चे का कोई नाम नहीं होता। सब बच्चे अनाम, नेमलेस पैदा होते इसलिए वे कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, तू भाग मत। तू इस भांति | | हैं। लेकिन बिना नाम के काम चलना मुश्किल है। अगर आप बर्त, समझ कि जो हो रहा है, हो रहा है। तू उसके बीच में अपने | | सबके नाम छीन लिए जाएं, तो बड़ी कठिनाई पैदा हो जाएगी। और को भारी मत बना, अपने को बीच में बोझिल मत बना। जो हो रहा | मजा यह है कि नाम बिलकुल झठा है। फिर भी उस झूठ से काम 406 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + अहंकार का भ्रम HAM चलता है। अगर नाम छीन लिए जाएं, तो सचाई तो यही है कि नाम | एकदम से बंद नहीं हो सकता। एकदम से बंद हो जाए, तो खतरा किसी का कोई भी नहीं है। सब बिना नाम के हैं। लेकिन बड़ी | भी है; धीरे-धीरे, धीरे-धीरे उतरेगा। जैसे धीरे-धीरे चढ़ा, वैसे कठिनाई हो जाएगी। जिस जगत में हम जीते हैं संबंधों के, जिस धीरे-धीरे उतरेगा। अब आप भलीभांति जानते हैं कि बड़ी अजीब माया के जगत में हम जीते हैं, उस जगत में झूठे नाम बड़े काम के | बात है--सपना और हृदय को धड़का जाता है! हृदय बहुत सच हैं। और कोई चीज काम की हो. इसीलिए सच नहीं हो जाती। और है और सपना बिलकल झठ है। कोई चीज काम में न आती हो, इसीलिए झूठ नहीं हो जाती। नाम जिंदगीभर काम देता है। लेकिन आपका नाम दूसरों के लिए यूटिलिटी और ट्रथ में फर्क है; उपयोगिता और सत्य में फर्क है।। काम देता है, आपके लिए काम नहीं देता। तो आपको स्वयं को बहुत-सी झूठी चीजें उपयोगी होती हैं। बुलाने के लिए भी तो कोई इशारा चाहिए, वह इशारा मैं, ईगो, घर में मिठाई रखी है और बच्चे को हम कह देते हैं, भूत है, अहंकार है। तो दो तरह के नाम हैं। एक नाम जो मेरा दूसरों के भीतर मत जाना। भूत होता नहीं, मिठाई होती है; लेकिन बच्चा | बुलाने के लिए है—वह मेरा नाम; और एक जो मैं स्वयं अपने को भीतर नहीं जाता। भूत का होना काम करता है, यूटिलिटेरियन है, बुलाऊंगा-मैं। अन्यथा बड़ी मुश्किल हो जाएगी कि मैं कौन हूं। उपयोगिता तो सिद्ध हो जाती है। और बच्चे को अगर समझाते कि और अगर मैं अपना नाम बुलाऊं, तो आपको समझने में मुश्किल मिठाई के खाने से क्या-क्या दोष हैं, और मिठाई के खाने से | | होगी कि मैं किसके बाबत कह रहा हूं, अपने बाबत या दूसरों के क्या-क्या हानियां हैं, और मिठाई के खाने से क्या-क्या बीमारियां | बाबत। इसलिए मैं सबके लिए काम कर जाता है। प्रत्येक व्यक्ति होंगी, तो वे सब बेकार थीं। वे सच थीं, लेकिन वे कारगर नहीं थीं। अपने लिए मैं कहता है, वह कामन नेम है खुद के लिए। और दूसरे बच्चे के लिए तो बिलकुल अर्थ की नहीं थीं। भूत काम कर जाता के लिए, उपयोग के लिए एक नाम है। इसलिए हो भी सकता है, है; बच्चा कमरे के भीतर नहीं जा पाता। जो भूत नहीं है, वह मिठाई आप अपना नाम कभी भूल जाएं, लेकिन मैं को आप कभी नहीं और बच्चे के बीच खड़ा हो जाता है। उपयोगी है। भूल सकते। क्योंकि आपका नाम दूसरे लोग उपयोग करते हैं, वह नाम बिलकुल नहीं है, लेकिन आपके और जगत के बीच एक | उनको याद रहता है। आप तो सिर्फ मैं का ही उपयोग करते हैं। लेबल की जरूरत है, अन्यथा मुश्किल और कठिनाई हो जाती। ___ मैंने सुना है, पहले महायुद्ध में अमेरिका में पहली बार राशनिंग एक भत खडा हम कर देते हैं कि इसका नाम राम. इसका नाम हई। और एडिसन, एक बडा वैज्ञानिक, उसको भी अपना कृष्ण, इसका नाम अर्जुन, इसका नाम यह, उसका नाम वह। नाम राशनकार्ड लेकर और राशन के लिए क्यू में खड़ा होना पड़ा। एक झूठ है। लेकिन नाम गहरे उतर जाता है। और इतना गहरे उतर लेकिन एडिसन बहुत बड़ा वैज्ञानिक था। कोई एक हजार उसने जाता है कि आपको नींद में भी पता होता है कि आपका नाम क्या आविष्कार किए। शायद पृथ्वी पर किसी दूसरे आदमी ने इतने है, बेहोशी में भी पता होता है कि आपका नाम क्या है! जो नहीं है, | आविष्कार नहीं किए। गहन से गहन प्रतिभा का मनुष्य था। सैकड़ों वह भी पता होता है। आपके नाम को कोई गाली दे दे, तो खून में | लोग उसे आदर देते थे। तो कोई उसका नाम तो कभी लेता नहीं जहर दौड़ जाता है। अब नाम बिलकुल झूठ है, लेकिन खून में था। तीस साल से उसने अपना नाम नहीं सुना था सीधा, कि किसी दौड़ने वाला जहर बिलकुल सच है। | ने कहा हो, एडिसन। कोई उसको प्रोफेसर कहता, कोई उसको कुछ यह करीब-करीब ऐसे होता है जैसे सपने में आप डर गए और | कहता। लेकिन नाम तो उसका कोई सीधा नहीं लेता था। क्यू में एक जंगली जानवर ने आपकी छाती पर पंजा रख दिया। अब नींद खड़ा है। उसका कार्ड लगा हुआ है राशन का। खुल गई। अब पता चल गया कि सपना है, लेकिन पसीना अभी । जब उसके कार्ड का नंबर आया और क्यू में वह सामने आया, भी बहे चला जाता है और छाती अभी भी धड़के चली जाती है। तो कार्ड वाले क्लर्क ने चश्मा ऊपर उठाकर आवाज लगाई कि अब मालूम है कि सपना था, कोई जंगली जानवर नहीं है। अपने | थामस अल्वा एडिसन कौन है? वे सज्जन खड़े ही रहे, एडिसन घर में सोए हुए हैं। दरवाजा बंद है, कहीं कोई नहीं दिखाई पड़ता, | खड़े ही रहे। फिर उसने दुबारा कहा कि भई, यह कौन आदमी है बिजली जल रही है, लेकिन अभी धड़कन जारी है। वक्त लगेगा, एडिसन, आगे आओ। तब क्य में से किसी ने झांककर देखा और मोमेंटम पकड़ गया। हृदय धड़कने लगा। धड़केगा थोड़ी देर। उसने कहा कि मालूम होता है, जो आदमी सामने खड़ा है, वह 1407 Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 4 एडिसन है; मैंने अखबार में तस्वीर देखी है; लेकिन वह तो चुप ही खड़ा है! आदमी क्यू के बाहर आया और उसने कहा, महाशय ! जहां तक हमें याद आता है, आपकी शकल एडिसन से मिलती-जुलती है। उसने कहा कि हो न हो यह मेरा ही नाम होना चाहिए। । लेकिन सच बात यह है कि तीस साल से मुझे किसी ने कभी पुकारा नहीं, तो मुझे खयाल में नहीं रहा। लेकिन परिचित मालूम पड़ता है, नाम मेरा ही होना चाहिए ! खुद के बुलाने के लिए मैं, दूसरों के बुलाने के लिए नाम। एक ही मैं से काम चल जाता है। नाम अनेक रखने पड़ते हैं, क्योंकि दूसरे बुलाएंगे। यह मैं बचपन से ही बच्चे को स्मरण हम दिलाना शुरू करते हैं। लेकिन साइकोलाजिस्ट कहते हैं कि बच्चे को पहले मैं का पता नहीं चलता, पहले तू का पता चलता है। बच्चे को पहले मैं का पता नहीं चलता। इसलिए छोटे बच्चे अक्सर कहते हैं कि इसको भूख लगी है; वे यह नहीं कहते कि मुझे भूख लगी है। मुझे का अभी बोध नहीं होता। वे कहते हैं, इसको भूख लगी है। या पेट बता देते हैं कि यहां भूख लगी है। मैं का बोध बच्चे को बाद में आता है, तू का बोध पहले आता है, क्योंकि तू पहले दिखाई पड़ता है चारों तरफ | बच्चे को अपना पूरा शरीर भी अपना है, यह भी बहुत बाद में पता चलता है। छोटे बच्चे अगर अपना अंगूठा चूसते हैं, तो आप समझते हैं कि वे अपना अंगूठा चूस रहे हैं। मनोवैज्ञानिक, खासकर जिन्होंने बच्चों पर प्रयोग किया है— जीनपियागेट, जिंदगीभर जिसने बच्चों के अध्ययन में लगाई है - वह कहता है, बच्चों को पता नहीं होता कि अपना अंगूठा चूस रहे हैं। वे तो कोई और ही चीज समझकर चूसते रहते हैं । उनको यह पता नहीं होता कि यह उनका अंगूठा है। जिस दिन पता चल जाएगा, उनका अंगूठा है, उस दिन तो वे भी नहीं चूसेंगे। शरीर भी पूरा अपना है, इसका भी बच्चे को पता नहीं होता । बच्चे को सपने में और जागने में भी फर्क नहीं होता। सुबह जब उठता है, तो सपने के लिए रोता है कि मेरा खिलौना कहां गया, जो सपने में उसके पास था। बच्चे को अभी मैं का भी पता नहीं होता। मैं का बोध उसे तू को देखकर पैदा होता है। चारों तरफ और लोग हैं, और धीरे - धीरे उसे पता चलता है कि मैं अलग हूं, मेरा हाथ अलग है, मेरा मुंह अलग, मेरे पैर अलग; मैं उठता हूं तो अलग, दूसरे उठते हैं तो अलग। धीरे-धीरे यह चारों तरफ जो जगत है, इससे वह अपने को आइसोलेट करना सीखता है कि मैं अलग हूं। फिर उसके मैं का जन्म होना शुरू होता है। वह प्रयोग करना शुरू करता है, मुझे भूख लगी है। कभी आप खयाल करें। जब भी आपको भूख लगती है, तब अगर ठीक से गौर से देखें, तो आपको पता चलता है कि भूख लगी है; आपको भूख कभी नहीं लगती। पता चलता है, भूख लगी है, | पेट में लगी है। पता चलता है, पैर में चोट लगी है, दर्द हो रहा है। | लेकिन आप कहते हैं, मुझे भूख लगी है। बहुत गौर से देखें और | बहुत ठीक से अगर ठीक भाषा का प्रयोग करें, तो आपको कहना | चाहिए, पता चलता है कि पेट में भूख लगी है। फैक्चुअल, अगर तथ्यगत सूचना चाहें, तो आपको कहना चाहिए, पता चलता है कि पैर में चोट लगी है। पता ही चलता है। लेकिन अगर ऐसा कहेंगे, तो पागल समझे जाएंगे। जिंदगी की उपयोगिता मैं के आस-पास खड़ी है। पर कभी हम भूल जाते हैं धीरे-धीरे कि यह मैं एक कामचलाऊ शब्द है, यह सत्य नहीं है। यह कामचलाऊ शब्द है, यह सत्य नहीं है । और धीरे-धीरे इस कामचलाऊ शब्द को हम सत्य मानकर जीने लगते हैं। फिर हम विभाजन कर हैं। विभाजन वैसा ही जैसे आप कहते हैं कि यह मेरा आंगन है ! आपका आंगन है, बिलकुल सच है, लेकिन पृथ्वी बंटती नहीं। आपका आंगन भला हो, लेकिन पृथ्वी अनबंटी है। पड़ोसी के आंगन और आपके आंगन के बीच में पृथ्वी में कोई दरारं नहीं पड़ती। आपके मकान और पड़ोसी के मकान के बीच में पृथ्वी टूटती नहीं । न हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच में कोई खाई है, और न हिंदुस्तान और चीन के बीच में पृथ्वी टूटती है। पृथ्वी है। लेकिन कामचलाऊ शब्द है कि मेरा देश। तो ऐसा लगता है कि मेरा देश कहीं टूट जाता है और दूसरे का देश वहां से शुरू होता है और बीच में कोई खाई है । कहीं कोई खाई नहीं है । मेरा देश एक | राजनैतिक शब्द है, जो खतरनाक सिद्ध होता है, अगर आपने | समझा कि यह जीवन का शब्द बन गया। है। मैं एक मनोवैज्ञानिक उपयोगिता है। लेकिन आप सोचते हैं, मैं | का मतलब है, जहां मैं समाप्त होता हूं, वहां मैं बिलकुल समाप्त होता हूं और दूसरे शुरू होते हैं। आप कहीं समाप्त नहीं होते । अगर हम विज्ञान से भी पूछें, तो विज्ञान भी कहेगा, आप कहीं समाप्त नहीं होते। दस करोड़ मील दूर जो सूरज है, वह अगर ठंडा हो जाए, तो मैं ठंडा हो जाऊं। तो मैं और सूरज अलग-अलग हैं? अगर अलग-अलग हैं, तो सूरज हो जाए ठंडा, मैं क्यों ठंडा होऊं ! सूरज और मैं कहीं जुड़े हैं। तभी तो सूरज ठंडा हो, तो मैं 408 Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 अहंकार का भ्रम - ठंडा हो जाऊं। अभी हवाओं में आक्सीजन है, कल न रह जाए, प्रकृतेर्गुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसुः । तो मैं समाप्त। यह मेरे भीतर जलता हुआ दीया बुझा! तो फिर इन तानकृत्स्नविदोमन्दान्कृत्स्नविनविचालयेत् ।। २९ ।। हवाओं से मैं अलग हूं? और प्रकृति के गुणों से मोहित हुए पुरुष गुण और कर्मों में एक क्षण को अलग नहीं हैं। आप जो श्वास ले रहे हैं, वह आसक्त होते हैं। उन अच्छी प्रकार न समझने वाले मूखों आपसे हवा का जोड़ है। आप प्रतिपल जुड़े हुए हैं। आप हवा में को, अच्छी प्रकार जानने वाला ज्ञानी पुरुष ही जी रहे हैं. जैसे मछली पानी में सागर में जी रही है। सागर न चलायमान न करे। रह जाए, तो मछली नहीं है। ऐसे ही आप भी हवा के सागर में जी रहे हैं। हवा न रह जाए, तो आप भी नहीं हैं। लेकिन आप कहते हैं, मैं अलग हूं। अगर आप अलग हैं, तो ठीक है, एक पांच मिनट व हुत कीमती सूत्र कृष्ण इसमें कह रहे हैं। वे कह रहे हैं. श्वास न लें और जीकर देखें। तब आपको पता चलेगा कि यह मैं ५ प्रकृति के गुणों से मोहित हुए...। उपयोगी तो था, सत्य नहीं है। इस मोहित शब्द को थोड़ा गहरे में समझना जरूरी है। हवा भी मुझसे जुड़ी है। अभी जो श्वास आपके पास थी थोड़ी | मोहित हुए अर्थात सम्मोहित हुए, हिप्नोटाइज्ड। सुना होगा आपने देर पहले, अब वह मेरे पास है। और मैं कह भी नहीं पाया कि मेरे | कि सिंह के सामने शिकार जब जाता है, तो भाग नहीं पाता, पास है, कि वह किसी और के पास चली गई। वह श्वास किसकी सम्मोहित हो जाता है, हिप्नोटाइज्ड हो जाता है, खड़ा रह जाता है; थी? आपके खून में जो अणु दौड़ रहे हैं, वे अभी आपके पास हैं, | | भूल ही जाता है कि भागना है। सिंह की आंखों में देखता हुआ कल किसी वृक्ष में थे, परसों किसी नदी में, उसके पहले किसी अवरुद्ध हो जाता है, मैग्नेटाइज्ड हो जाता है, रुक ही जाता है। बादल में थे। किसके हैं वे? आपके शरीर में जो हड्डी है, वह न भागना ही भूल जाता है। यह भी भूल जाता है कि मृत्यु सामने खड़ी मालूम कितने लोगों के शरीर की हड्डी बन चुकी है और अभी न | | है। अजगर के बाबत तो कहा जाता है कि शिकार अपने आप खिंचा मालूम कितने लोगों के शरीर की हड्डी बनेगी। उस पर जल्दी से | हुआ उसके पास चला आता है। आकाश में उड़ता हुआ पक्षी खिंचता अपना कब्जा मत कर लेना। वह आपकी क्या है? आपके पास जो हुआ चला आता है; कोई परवश, कोई खींचे चला जाता है। आंख है, वे आंख के अणु और न मालूम किन-किन आंखों के संस्कृत का यह शब्द है, पशु। इसका मतलब इतना ही होता है अणु बन चुके हैं। पूरी जिंदगी इकट्ठी है। कि जो पाश में बंधा हुआ खिंचा चला आता है, उसे पशु कहते हैं। जब कृष्ण कहते हैं यह कि अज्ञानीजन अपने को अहंकार में | | जैसे एक गाय को हमने बांध लिया रस्सी में और खींचे चले आ बांधकर व्यर्थ फंस जाते हैं, तो उसका मतलब केवल इतना है। | रहे हैं। गाय पाश में बंधी हुई खिंची चली आती है। ऐसे ही प्रत्येक इसका मतलब यह नहीं है कि कष्ण मैं का उपयोग न करेंगे। कष्ण व्यक्ति प्रकति के गणों में खिंचा हआ पश की तरह वर्तन करता है. भी उपयोग करेंगे, उपयोग तो करना ही पड़ेगा। लेकिन उपयोग को | मोहित हो जाता है, हिप्नोटाइज्ड हो जाता है। इसमें दो-तीन बातें कोई सत्य न मान ले। उपयोग तो करना ही पड़ेगा, लेकिन उपयोग | हिप्नोटिज्म की खयाल में लें, तो खयाल में आ सकेगा। को कोई पकड़कर यह न समझ ले कि वही सत्य है। बस, इतना एक चेहरा सुंदर लगता है आपको, खिंचे चले जाते हैं। लेकिन स्मरण रहे, तो जीवन से आसक्ति कम होनी शुरू हो जाती है। कभी आपने सोचा है कि चेहरे में क्या सौंदर्य हो सकता है! आप क्योंकि आसक्ति वहीं है, जहां मैं है। मेरा वहीं है, जहां मैं है। अगर | | कहेंगे, होता है, बिलकुल होता है। लेकिन फिर आपको सम्मोहन मुझे यह पता चल जाए कि मेरी जैसी कोई सत्ता ही नहीं है, सब | के संबंध में बहुत पता नहीं है। मेरे एक मित्र, जिनको सुंदर चेहरों इकट्ठा है, तो मैं किस चीज को मेरा कहूं और किस चीज को पराया | | पर बड़ा ही आकर्षण था। उनसे मैंने कहा, आकर्षण है क्या सुंदर कहूं! फिर कोई चीज अपनी नहीं, कोई चीज पराई नहीं; सब उसकी चेहरों में? उन्होंने कहा, है। फिर भी मैंने कहा, क्या है? नाक थोड़ी है, सब प्रभु की है। ऐसी मनोदशा में आसक्ति विलीन हो जाती है। | लंबी होती है कि थोड़ी छोटी होती है, तो आपके हृदय की धड़कन | में क्यों फर्क पड़ता है? आंख थोड़ी बड़ी होती है कि छोटी होती है, | कि चेहरा थोड़ा अनुपात में होता है कि गैर-अनुपात में होता है, 409 Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ yam+ गीता दर्शन भाग-1 AM इससे आपके भीतर क्या होता है? उन्होंने कहा, होता है। आप | | पसीना आ गया। घबड़ा गए और कहने लगे, मैंने यह क्या किया? सौंदर्य को नहीं मानते? यह हुआ क्या? मैंने कहा, ठीक ऐसे ही स्त्री और पुरुष सुंदर मालूम तो मैंने उन्हें सम्मोहित करके बेहोश किया। जब वे बेहोश हो || हो रहे हैं। ठीक ऐसे ही। वह प्रकृति के द्वारा डाला गया मोह है, वह गए, तो पास में पड़े हुए तकिए को मैंने उनके पास रखा और मैंने | | प्रकृति के द्वारा डाली गई हिप्नोसिस है। वह हमारे अचेतन में कहा, यह तकिया इतना संदर है, जितनी कोई स्त्री आपने कभी नहीं जन्मों-जन्मों से डाला गया, बांधा गया वासना का बीज है। वह देखी है। इसे पास में लो, आलिंगन करो, चूमो, प्यार करो। उन्होंने | | काम कर रहा है। वह काम करता है, फिर वह जुड़ जाता है। वह तकिए को पास में लिया, खूब प्रेम किया। फिर मैंने उनसे कहा कि | | चीजों से भी जुड़ जाता है। जब तुम होश में आ जाओगे, आधा घंटे बाद, फिर तुममें प्रेम की | | कृष्ण कह रहे हैं, प्रकृति के गुणों से मोहित हुआ पुरुष...। लहर आएगी और इस तकिए को तुम फिर छाती से लगाओगे।। वही दुख है, वही पीड़ा है सब की। हम किन-किन चीजों से पोस्ट-हिप्नोटिक सजेशन! आधा घंटे बाद होश में आने के बाद, | | मोहित होते हैं, जरा खयाल करना, तो बड़ी हैरानी होगी। अगर आधा घंटे बाद तुम विवश हो जाओगे, तुम्हारे बस में न रहेगा, बस | | चित्र देखें, फिल्म देखें, पेंटिंग्स देखें, कविताएं उठाएं, नाटक पढ़ें, तुम उठाओगे तकिए को, छाती से लगाओगे और चूमोगे। | उपन्यास देखें; अगर सारी मनुष्य जाति का पूरा का पूरा साहित्य, फिर वे होश में आ गए। फिर हम सब बैठकर गपशप करने | जिसको हम बड़ा भारी साहित्य कहते हैं, उसे उठाकर देखें, तो बड़ी लगे। फिर सब ठीक बात हो गई। घड़ी मैं देख रहा हूं। तकिया हैरानी होगी। कुछ चीजों से आब्सेशन आदमी को पैदा हो गया है, उनके पास में पड़ा है। उसे उठाकर मैंने आलमारी में बंद कर दिया। | पागल की तरह। और किसी को खयाल में नहीं है कि क्या हो गया उनकी आंखें देख रहा हूं। पच्चीस मिनट, तीस मिनट और बेचैनी है। और कभी खयाल में नहीं आता कि प्रकृति के गुण इस भांति उनकी शुरू हुई। जो लोग भी बैठे थे, वे भी देख रहे हैं कि अब वे | मोहित कर सकते हैं! बेचैन हो गए हैं। वे बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। अब वे ठीक उसी | ___ अब स्त्रियों के स्तन सारी मनुष्य जाति को पीड़ित किए हुए हैं। हालत में हैं, जैसी हालत में कामुकता से भरा हुआ आदमी हो जाता | | सारे चित्र, सारी तस्वीरें, कविताएं, साहित्य, उन्हीं से भरा हुआ है। है। लेकिन तकिए के प्रति कोई कामुकता होती है? उठे। सब कवि, सब चित्रकार पागल मालूम पड़ते हैं। स्त्री के स्तन में मैंने कहा, कहां जा रहे हैं? उन्होंने कहा कि जरा वह तकिया मुझे | क्या है? लेकिन छोटे बच्चे की पहली पहचान स्तन से होती है। देखना है, क्योंकि मुझे वह बहुत पसंद पड़ा, उसी तरह का तकिया | पहला प्रेम और पहला ज्ञान स्तन से जुड़ता है। पहला एसोसिएशन, मैं भी बाजार से खरीदना चाहता हूं। अब वे रेशनलाइज कर रहे हैं। | उसके दिमाग में पहला इंप्रेशन स्तन का बनता है। फिर वह उनको भी पता नहीं है। अब वे तर्क दे रहे हैं। मैंने कहा, छोड़ो भी, जिंदगीभर पीछा करता है। वह सम्मोहित हो गया। अब वह बूढ़ा मैं तुम्हें यहीं बताए देता हूं कि तकिया कहां से लिया गया है। वहां | हो गया, अभी भी वह स्तन से सम्मोहित है। से तुम तकिया ले लेना। उन्होंने कहा कि नहीं, जरा मैं देखना ही | ___ यह बचपन में पड़ी पहली छाप है। इसको बायोलाजिस्ट कहते चाहता हूं। उनकी चाल देखने जैसी थी; जैसे भौंरा फूल के पास | हैं, यह ट्रॉमेटिक इंप्रेशन है। वे कहते हैं, चूंकि बच्चे के चित्त पर जाता है, बस वैसे ही वे आलमारी खोलकर। लेकिन सब हम बैठे | सबसे पहली छाप मां के स्तन की पडती है. इसलिए बढापे के मरते हैं। तकिए को उठाकर देखते हैं उसे, उनकी आंखें, उनके हाथ। वह दम तक स्तन पीछा करता है। और कुछ भी नहीं। बस, सम्मोहित तकिया बड़ा जीवित हो गया है, क्योंकि अनकांशस में सम्मोहित | हो गया आदमी; फिर बड़े से बड़ा कालिदास हो, कि भवभूति हो, कर रहा है। तकिया उन्हें खींच रहा है, क्योंकि तकिया सुंदर है, यह | | कि पिकासो हो, कि कोई भी हो, बड़े से बड़ा चित्रकार, बड़े से बड़ा भाव गहरे अचेतन में उनके प्रवेश कर गया है। | कवि, बस वह उसी में उलझा हुआ है। आश्चर्यजनक है। एक क्षण उन्होंने हमारी तरफ देखा, फिर जैसे बेहोश आदमी, । लेकिन कृष्ण कहते हैं, प्रकृति के गुण को न समझने से और फिर वे हमारी फिक्र भूल गए, फिर उन्होंने तकिए को छाती से | | उनसे सम्मोहित हो जाने से, हिप्नोटाइज्ड हो जाने से आदमी अज्ञान लगाकर चूमना शुरू कर दिया। हमने कहा भी कि यह क्या में, मोह में, आसक्ति में, दुख में पड़ता है। और पागलपन कर रहे हो! पर वे पागलपन कर चुके थे। फिर बैठ गए। हुआ जगत है। ये सभी इसी तरह...मनोवैज्ञानिक फेटिश शब्द का 4101 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9- अहंकार का भ्रम - प्रयोग करते हैं। वे कहते हैं, आदमी अंगों से प्रभावित हो तो हो, हैं। अब मेरे बस के बाहर है। क्यों? क्योंकि ये मेरे प्रियजन हैं। यह वस्त्रों से, वस्तुओं से, उन तक से प्रभावित और पागल हो जाता मेरा भी आब्सेशन है। यह मेरा भी सम्मोहन है। कौन मेरा है? कौन है। उन सबसे भी उसके संबंध जुड़ जाते हैं और उनके पीछे भी वह पराया है? उसी तरह मोहित होकर घूमने लगता है। यह जो स्थिति है चित्त की, | बिल्ली से भय है नेपोलियन को; छह महीने का हो गया वह। इस स्थिति से जो नहीं जागेगा, वह कभी धर्म के सत्य को नहीं जान | अब उसकी स्थिति न रही कि वह लड़ ले। हारा पहली दफा उसी सकता। वह सिर्फ प्रकृति के गुणों में ही भटकता रहेगा। दिन। और संभावना बहुत है कि नेल्सन ने नहीं हराया, बिल्लियों रंग मोहित करते हैं। अब रंगों में क्या हो सकता है? लेकिन भारी | ने हराया। नेल्सन की हैसियत न थी इतनी। नेपोलियन बड़ा अदभुत मोहित करते हैं। किसी को एक रंग अच्छा लगता है, तो वह दीवाना | | आदमी था। लेकिन ऐसा अदभुत आदमी भी हिप्नोटाइज्ड है। हम हो जाता है। उसको पागल किया जा सकता है, उसी रंग के साथ। सब ऐसे ही, हम सब ऐसे ही जी रहे हैं। कार हआ वानगाग. वह पीले रंग से आब्सेस्ड था। यह अर्जन को क्या हो गया। इतना बहादर आदमी. जिसे कभी पीला रंग देखे, तो पागल हो जाए। धूप में खड़ा रहे, सूरज की धूप सवाल न उठे, अचानक युद्ध के मैदान पर खड़ा होकर इतना में खड़ा रहे, क्योंकि पीली धूप बरसे। जहां पीले फूल खिल जाएं, | | शिथिल, इतना निर्वीर्य क्यों हुआ जा रहा है? हुआ जा रहा है, फिर वह घर के भीतर न आ सकता था। एक साल आरलिस की | क्योंकि बचपन से जिन्हें अपना जाना, आज उनसे ही लड़ने की धूप में खड़े होकर वह पीले रंग को देखता रहा। और इतनी धूप में नौबत है। बचपन से जिन्हें मेरा माना, आज उनसे ही लड़ने की खड़े होने की वजह से पागल हुआ, दिमाग विक्षिप्त हो गया। नौबत है। बचपन से कोई भाई था, कोई बंधु था, कोई महापिता थे, लेकिन पीला रंग उसके लिए पागलपन था। जरूर कहीं बचपन में कोई कोई था, कोई ससुर था, कोई रिश्तेदार था, कोई मित्र था, कोई कोई ट्रॉमेटिक एक्सपीरिएंस, बचपन में कभी कोई ऐसी घटना घट गुरु थे, वे सब सामने खड़े हैं। वह सब मेरा घिरकर सामने खड़ा गई, जिससे वह पीले रंग से बिलकुल आब्सेस्ड हो गया। है। और उस मेरे पर हाथ उठाने की हिम्मत अब उसको नहीं होती नेपोलियन इतना बड़ा हिम्मत का आदमी, शेर से लड़ जाए. है। ऐसा नहीं है कि वह कोई अहिंसक हो गया है। ऐसा कुछ भी लेकिन बिल्ली से डरे। सिंहों से जूझ जाए, लेकिन बिल्ली को देख नहीं है। अगर ये मेरे न होते, तो वह युद्ध में इनको जड़-मूल से ले, तो पूंछ दबाकर भाग जाए। क्या हो गया? छह महीने का | काटकर रख देता। उसका हाथ ठहरता भी नहीं। उसकी श्वास था-क्योंकि नेपोलियन जैसे आदमी की जिंदगी उपलब्ध है, | रुकती भी नहीं। वह इनको काटने में सब्जी काटने जैसा व्यवहार इसलिए जानने में आसानी है-छह महीने का था, पालने पर सोया | | करता। लेकिन कहां कठिनाई आ गई है? वह मेरा उसका था, एक जंगली बिलाव ने उसकी छाती पर पैर रख दिया। छह | | आब्सेशन है। वह मेरा उसका सम्मोहन बन गया है। महीने का बच्चा, जंगली बिलाव, छाती पर पैर-चित्र बैठ गया | कष्ण कह रहे हैं. प्रकति में गण हैं. अर्जन। और आदमी उनसे गहरे, अनकांशस में उतर गया। फिर नेपोलियन बड़ा हो गया। सब मोहित होकर जीता है। साधारण आदमी उनसे मोहित होकर जीता बात भूल गई। लेकिन बिल्ली दिखे कि नेपोलियन फिर छह महीने | | है। वही मोह उसे अंधेरे में घेरे रखता है और वही मोह उसे अंधेरे का हो जाए। बिल्ली दिखी कि वे रिग्रेस किए, वे वापस छह महीने | | में धक्का दिए चला जाता है। ज्ञानी पुरुष को एक तो अपने इस के हुए। | सम्मोहन से मुक्त हो जाना चाहिए। और कहते हैं मनोवैज्ञानिक कि नेल्सन से जिस युद्ध में | ज्ञानी पुरुष का अर्थ है, डिहिप्नोटाइज्ड, जिसको अब कोई चीज नेपोलियन हारा, उसमें नेल्सन सत्तर बिल्लियां युद्ध के मैदान में सम्मोहित नहीं करती। रुपया उसके सामने रखें, तो उसे वही दिखाई साथ बांधकर ले गया था। बिल्लियां सामने थीं, फौज पीछे थी। पड़ता है, जो है। लेकिन रुपए से जो सम्मोहित होता है, उसे रुपया और जब नेपोलियन ने बिल्लियां देखीं, अपने पास के साथी को नहीं दिखाई पड़ता। उसे न मालूम क्या-क्या दिखाई पड़ने लगता कहा, अब मेरा बस काम नहीं कर सकता, अब मैं कुछ भी नहीं | | है! वह शेखचिल्ली की कहानियों में चला जाता है। उसे रुपए में कर सकता, मेरी सूझ-बूझ खोती है। जैसे अर्जुन ने कृष्ण से कहा | | दिखाई पड़ता है कि अब एक से दस हो जाएंगे, दस से हजार हो न कि मेरा गांडीव ढीला पड़ा जाता है। मेरे गात शिथिल हुए जाते जाएंगे, हजार से करोड़ हो जाएंगे और सारी दुनिया ही जीत लूंगा Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sim गीता दर्शन भाग-1 - और न मालूम क्या-क्या उस रुपए में स्वप्न उठने लगते हैं। उस ___ मयि सर्वाणिकर्माणि संन्यास्याध्यात्मचेतसा । एक पड़े हुए रुपए में हजार स्वप्न पैदा होने लगते हैं। लेकिन जिसे निराशीनिर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ।। ३०।। सम्मोहन नहीं है, उसे रुपए का ठीकरा ही दिखाई पड़ता है। इसलिए हे अर्जुन, तू अध्यात्म चेतसा हो संपूर्ण कर्मों को उपयोगिता है, वह भी दिखाई पड़ती है। लेकिन कोई सपना पैदा मुझमें समर्पण करके आशारहित एवं ममतारहित होकर नहीं होता। सम्मोहन सपने का उदभावक है। हिप्नोटाइज्ड, संतापरहित हुआ युद्ध कर। मोहग्रस्त चित्त ही कल्पनाओं में, सपनों में भटकता है, आकांक्षाओं में, महत्वाकांक्षाओं में भटकता है। __ कृष्ण कहते हैं, ज्ञानी पुरुष स्वयं भी इससे जाग जाता है और कष्ण कहते हैं, तू सब कुछ मुझमें समर्पित करके, ऐसा व्यवहार नहीं करता कि वे अज्ञानी, जो सम्मोहन में भरे जी रहे y आशा और ममता से मुक्त होकर, विगतज्वर होकर, हैं, उनके जीवन में अस्तव्यस्त होने का कारण बन जाए। इसका यह - सब तरह के बुखारों से ऊपर उठकर-बियांड मतलब नहीं है कि वह उनके सम्मोहन तोडने का प्रयास नहीं करता। फीवरिशनेस-तू कर्म कर। उनके सम्मोहन तोड़ने का प्रयास किया जा सकता है, लेकिन इसमें दो-तीन बातें समझने की हैं। एक, सब मुझमें समर्पित सम्मोहित हालत में उनके जीवन की धुरी को अस्तव्यस्त करना करके! यहां कृष्ण जब भी कहें, जब भी कहते हैं, सब मुझमें खतरे से खाली नहीं है। समर्पित करके, तो यह कृष्ण नाम के व्यक्ति के लिए कही गई बातें यह क्यों कह रहे हैं? वे यह इसलिए कह रहे हैं कि अगर तुझे नहीं हैं। जब भी कृष्ण कहते हैं, सब मुझमें समर्पित करके, तो यहां यह भी पता चल गया कि युद्ध व्यर्थ है, तो भी ये युद्ध के लिए वे मुझसे, मैं से समग्र परमात्मा का ही अर्थ लेते हैं। यहां व्यक्ति तत्पर खड़े लोगों में से किसी को भी पता नहीं है कि युद्ध व्यर्थ है। | कृष्ण से कोई प्रयोजन नहीं है। वे व्यक्ति हैं भी नहीं। क्योंकि जिसने अगर तू यहां से भागता है, तो सिर्फ कायर समझा जाएगा। अगर | भी जान लिया कि मेरे पास कोई अहंकार नहीं है, वह व्यक्ति नहीं तुझे यह भी पता चल गया कि युद्ध व्यर्थ है, तो यहां इकट्ठे हुए युद्ध | परमात्मा ही है। जिसने भी जान लिया, मैं बूंद नहीं सागर हूं, वह के लिए तैयार लोगों में से किसी को पता नहीं है कि युद्ध व्यर्थ है। | परमात्मा ही है। यहां जब कृष्ण कहते हैं, सब मुझमें समर्पित करके, तेरे भाग जाने पर भी युद्ध होगा, युद्ध नहीं रुक सकता है। अगर | | सब-कर्म भी, कर्म का फल भी, कर्म की प्रेरणा भी, कर्म का तुझे पता भी चल गया कि युद्ध व्यर्थ है और तू चला भी जाए, भाग | परिणाम भी सब, सब मुझमें समर्पित करके तू युद्ध में उतर। भी जाए, तो केवल जिस धर्म और जिस सत्य के लिए तू लड़ रहा | | कठिन है बहुत। समर्पण से ज्यादा कठिन शायद और कुछ भी नहीं था, उसकी पराजय हो सकती है। है। यह समर्पण, सरेंडर संभव हो सके, इसलिए वे दो बातें और युद्ध तो होगा ही। युद्ध नहीं रुक सकता। ये जो चारों तरफ खड़े | | कहते हैं, विगतज्वर होकर, बियांड फीवरिशनेस। हुए लोग हैं, ये पूरी तरह युद्ध से सम्मोहित होकर आकर खड़े हैं। | हम सब बुखार से भरे हैं। बहुत तरह के बुखार हैं। तरह-तरह इनको कुछ भी पता नहीं है, इनको कुछ भी बोध नहीं है। इन के बुखार हैं। क्रोध का बुखार है, काम का बुखार है, लोभ का अज्ञानियों के बीच, इन प्रकृति के गुणों से सम्मोहित पागलों के बीच | बुखार है। इनको बुखार क्यों कह रहे हैं, इनको ज्वर क्यों कहते हैं तू ऐसा व्यवहार कर, जानते हुए भी, देखते हुए भी ऐसा व्यवहार कृष्ण ? ज्वर हैं। असल में जिस चीज से भी शरीर का उत्ताप बढ़ कर कि इन सबके जीवन की व्यवस्था व्यर्थ ही अस्तव्यस्त न हो जाए, वे सभी ज्वर हैं। मेडिकली भी, चिकित्साशास्त्र के खयाल से जाए। और अकेला तू भागकर भी कुछ कर नहीं सकता है। हां, भी। क्रोध में भी शरीर का उत्ताप बढ़ जाता है। खयाल किया है इतना ही कर तू कि अगर तुझे होश आया है, तो तू इतना ही समझ आपने! क्रोध में भी आपका ब्लडप्रेशर बढ़ जाता है, रक्तचाप बढ़ ले कि जिंदगी में सुख-दुख, हार-पराजय सब समान है। वह जाता है। क्रोध में हृदय तेजी से धड़कता है, श्वास जोर से चलती परमात्मा के हाथ में है। तू कर्ता नहीं है। तू बिना कर्ता हुए कर्म में है, शरीर उत्तप्त होकर गर्म हो जाता है। कभी-कभी तो क्रोध में मृत्यु उतर जा। भी घटित होती है। अगर कोई आदमी पूरी तरह क्रोधित हो जाए, | तो जलकर राख हो जा सकता है, मर ही सकता है। पूरे तो हम नहीं 412 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहंकार का भ्रम मरते, क्योंकि पूरा हम कभी क्रोध नहीं करते, लेकिन थोड़ा तो मरते ही हैं, इंच-इंच मरते हैं। नहीं पूरे मरते, लेकिन जब हम क्रोध करते हैं, तभी उम्र क्षीण होती है, तत्क्षण क्षीण होती है। कुछ हमारे भीतर जल जाता है और सूख जाता है। जीवन की कोई लहर मर और जीवन की कोई हरियाली सूख जाती है। क्रोध करें और देखें कि ज्वर है क्रोध । कृष्ण यहां बड़ी ही वैज्ञानिक भाषा का उपयोग कर रहे हैं। कभी खयाल किया है कि जब भी सेक्स, कामवासना मन को पकड़ती है, तो शरीर ज्वरग्रस्त हो जाता है, फीवरिश हो जाता है ! हृदय की धड़कन बढ़ जाती, रक्तचाप बढ़ जाता, खून की गति बढ़ जाती, श्वास बढ़ जाती, शरीर का ताप बढ़ जाता। प्रत्येक कामवासना में ग्रस्त क्षण में शरीर ज्वरग्रस्त हो जाता है। और अगर बहुत जोर से कामवासना पकड़े, तो पसीना अनिवार्य है, वैसे ही जैसे कि ज्वर में आ जाता है। और अगर और जोर से कामवासना पकड़े, तो मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि शरीर पर, सारे शरीर पर चमड़ी पर लाल चकत्ते फैल जाते हैं। स्त्रियों के बहुत जल्दी, क्योंकि उनकी चमड़ी ज्यादा कोमल, ज्यादा डेलिकेट है। लाल चकत्ते पूरे शरीर पर फैल जाते हैं। पुरुषों के शरीर पर भी फैल जाते हैं। कृष्ण जब कह रहे हैं कि ज्वर से मुक्त हुए बिना कोई समर्पण नहीं कर सकता। क्यों? विगतज्वर ही समर्पण कर सकता है, जिसके जीवन में कोई ज्वर नहीं रहा। अब यह बड़े मजे की बात है, अगर जीवन में ज्वर न रहे, तो अहंकार नहीं रहता, क्योंकि अहंकार के लिए ज्वर भोजन है । जितना जीवन में क्रोध हो, लोभ हो, काम हो, उतना ही अहंकार होता है। और अहंकार समर्पण में बाधा है। अहंकार ही एकमात्र बाधा है, जो समर्पण नहीं करने देती । और अक्सर ऐसा होता है कि मंदिर में परमात्मा की मूर्ति के सामने जब आप सिर रख देते हैं, तब सिर तो जमीन पर होता है, अहंकार वापस पीछे ही खड़ा रहता है, वह नहीं झुकता । कभी खयाल करना, जब आप मंदिर में झुकें, तो आप देखना कि सिर ती रखा है पत्थर पर और अहंकार पीछे अकड़ा हुआ खड़ा है। वह दूसरे काम कर रहा है। वह देख रहा है कि कोई देखने वाला भी है या नहीं। वह देख रहा है कि मंदिर में कोई आ रहा है कि नहीं। जरा लोग देख लें और गांव में खबर पहुंच जाए कि यह आदमी बड़ा धार्मिक है। वह यह देख रहा है; वह अपने काम में लीन है; वह अपने काम में लगा हुआ है। अहंकार सघन होगा, डेंस होगा। और सघन होता जाएगा, जितना ज्वर होगा जीवन में। और चौबीस घंटे ज्वर के अतिरिक्त क्या है हमारे जीवन में! हां, बीच-बीच में छोटे-छोटे वक्त रहते हैं, जिनको हम कह सकते हैं, शांति के वक्त | लेकिन वे होते नहीं हैं शांति के । वह सिर्फ दूसरे ज्वर की तैयारी का समय होता है। तैयारी के लिए वक्त लगता है न! आदमी दिनभर, चौबीस घंटे क्रोध नहीं कर सकता, असंभव है। घंटेभर क्रोध करे, तो तीन घंटे विश्राम चाहिए। तीन घंटे विश्राम करके फिर ताजा होना चाहिए, तब फिर क्रोध कर सकता है। तो बीच-बीच में जिनको हम शांति के क्षण कहते हैं, वे विगतज्वर होने के नहीं हैं, वे केवल बीच में विश्राम के और पुनः तैयारी के क्षण हैं। इसलिए आप एक और बात खयाल करेंगे कि हर आदमी के क्रोध के दौर होते हैं, पीरियड्स होते हैं। और अगर आप डायरी रखें, तो आप अपने पीरियड पकड़ लेंगे, उसी तरह जैसे रोज आदमी जिस वक्त पर सोता है, उसी वक्त पर नींद आती है। रोज भूख लगती है वक्त पर । अगर आप एक महीनेभर डायरी रखें, तो आप बहुत हैरान हो जाएंगे कि आपके क्रोध का भी पीरियड है, जो वक्त पर लौटता है। हमेशा लौट आता है। आपके सेक्स का भी वक्त है, जो हमेशा लौट आता है। लेकिन अगर आप डायरी रखें, तो आपको खयाल रहे कि ठीक इसका भी एक कैलेंडर है, इसके भी आवागमन का एक वर्तुल है। पूरी जिंदगी हमारी एक ज्वरों के वर्तुल में घूमती रहती है। कभी क्रोध, कभी काम, कभी लोभ, कभी कुछ, कभी कुछ। उसी में हम जीते और रिक्त होते चले जाते हैं। इनसे जो विगत हो जाए, इनके पार हो जाए, वही व्यक्ति समर्पण को उपलब्ध हो सकता है। क्योंकि इनके जो पार हो जाए, उसके पास अहंकार बचता ही नहीं। इसलिए समर्पण अपने आप हो जाता है। यहां एक बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है कि समर्पण आप | कर नहीं सकते हैं, समर्पण सदा होता है। आपका किया हुआ समर्पण, समर्पण नहीं होगा, क्योंकि करने वाला मौजूद है। और | करने वाला ही तो बाधा है, वही तो समर्पण नहीं होने देता। इसलिए अगर कोई कहे कि मैं परमात्मा को समर्पित करता हूं, तभी समझना कि समर्पण हुआ नहीं। क्योंकि कल यह आदमी कहेगा कि वापस लेता हूं, तो परमात्मा क्या कर सकता है। वापस ले लो। नहीं, एक आदमी जब कहे कि अब कोई उपाय ही नहीं है, मैं परमात्मा को | समर्पित हूं, तब अब वापस लेने वाला नहीं बचा। इसलिए कभी कोई मैं के रहते समर्पण नहीं कर सकता। अगर ठीक से समझें, तो 413 Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m गीता दर्शन भाग-1 AM मैं का न रह जाना ही समर्पण है। और मैं कब नहीं रहेगा? जब ज्वर जिस दिन आप इन्हें बीमारी की तरह पहचानेंगे, उसी दिन छुटकारा नहीं रहेंगे। शुरू हो जाएगा। दि वेरी रिकग्नीशन, इस बात की प्रत्यभिज्ञा कि ये इसे ऐसा भी समझ लें कि ज्वरों के जोड़ का नाम मैं है। तो अभी | बीमारियां हैं, आपको इनमें जाने से रोकने लगेगी। और जब क्रोध मैंने आपसे कहा कि मैं एक भ्रम है। लेकिन भ्रम भी काम करता है, | आएगा, तब आपको लगेगा कि बीमारी आती है। हाथ ढीले पड़ क्योंकि ये ज्वर बड़े सत्य हैं और भ्रम इन ज्वरों के रथ पर सवार हो जाएंगे, भीतर कोई चीज रुक जाएगी। लेकिन क्रोध बीमारी नहीं है, जाता है। ये ज्वर बड़े सत्य हैं। ये काम, क्रोध, लोभ बड़े सत्य हैं। हमारी अकड़ है। हम सोचते हैं, क्रोध नहीं रहेगा, तो रीढ़ ही टूट इनका शारीरिक अर्थ भी है, इनका मानसिक अर्थ भी है। ये | | जाएगी। हम सोचते हैं, क्रोध नहीं रहेगा, तो कौन हमारी फिक्र साइकोसोमेटिक हैं। ये शरीर और मन दोनों में इनका सत्य है। इनके | करेगा। हम सोचते हैं, क्रोध नहीं रहेगा, तो जीवन की गति और ऊपर अहंकार सवारी करता है। और इनको जब तक हम विसर्जित | जीवन का मोटिवेशन और जीवन की प्रेरणा सब चली जाएगी। हम न कर दें, तब तक अहंकार रथ के नीचे नहीं उतरता। इनको कैसे कहते हैं, लोभ नहीं रहेगा, तो फिर हम क्या करेंगे! हमें पता ही नहीं विसर्जित करें? ये ज्वर कैसे चले जाएं? है कि हम क्या कह रहे हैं! __ पहली तो बात यह है, इन्हें हमने कभी ज्वर की तरह, बीमारी की लोभ की वजह से हम कुछ भी नहीं कर पाते। क्रोध की वजह से तरह देखा नहीं। और जिस चीज को हम बीमारी की तरह न देखें | हम कछ भी नहीं कर पाते। काम की वजह से हम कछ भी नहीं कर उसे हम कभी विसर्जित नहीं कर सकते। कोई आदमी टी.बी. नहीं | पाते। हमारी सारी शक्ति तो इन्हीं छिद्रों में बह जाती है। बहुत बचाना चाहता और कोई आदमी कैंसर नहीं बचाना चाहता। क्योंकि | दीन-हीन भीतर जो थोड़ी-बहुत शक्ति बचती है, उससे हम किसी उनको हम बीमारियों की तरह पहचानते हैं। लेकिन क्रोध, लोभ, | | तरह जिंदगी घसीट पाते हैं। हमारी जिंदगी आनंद नहीं बन सकती, मोह, काम, इन्हें हम बीमारियों की तरह नहीं पहचानते। इसलिए | | क्योंकि आनंद सदा ओवर फ्लोइंग एनर्जी है। आनंद सदा ही ऊपर हम इन्हें बचाना चाहते हैं। हम कहते हैं कि बिना क्रोध के चलेगा| | से बह गई शक्ति है, ओवर फ्लोइंग, जैसे नदी में बाढ़ आ जाए और कैसा? कोई आदमी नहीं कहता कि बिना टी.बी. के चलेगा कैसे? | | किनारे टूट जाएं और नदी चारों तरफ नाचती हुई बहने लगती है। नहीं, वह कहता है, टी.बी. हो गई, तो चलेगा ही नहीं। टी.बी. किसी पौधे में फूल तब तक नहीं आते, जब तक पौधे में जरूरत एकदम अलग करो। अभी हम शरीर की बीमारियां तो पहचानने से ज्यादा शक्ति न हो। अगर पौधे में जरूरत से ज्यादा शक्ति आती लगे हैं। लेकिन मन की बीमारियां हम अभी तक नहीं पहचान पाए। है, तो ओवरफ्लो हो जाते हैं उसके रंग, फल बन जाते हैं। कोई पक्षी और ध्यान रहे, अगर कोई आपके शरीर की बीमारियों की तरफ | | तब तक गीत नहीं गाता, जब तक उसके पास जरूरत से ज्यादा इशारा करे, तो आप कभी नाराज नहीं होते; लेकिन अगर आपके शक्ति न हो। जब जरूरत से ज्यादा शक्ति होती है, तो पक्षी गीत मन की बीमारियों की तरफ कोई इशारा करे, तो आप लड़ने को | गाता है, मोर नाचता है। लेकिन आदमी की जिंदगी में सब नाच, तैयार हो जाते हैं। कोई आदमी कहे कि देखिए, आपके पैर में घाव | | सब आनंद, सब खो गया है। कारण? मोर हमसे ज्यादा होशियार हो गया है, तो आप उससे लड़ते नहीं कि तुमने हमारा अपमान हैं? कोयल हमसे ज्यादा बुद्धिमान हैं? फूल हमसे ज्यादा वैज्ञानिक कर दिया कि हमारे पैर में घाव बता दिया। आप धन्यवाद देते हैं हैं? नदियां हमसे ज्यादा प्रज्ञावान हैं ? कि तुम्हारी बड़ी कृपा कि तुमने याद दिला दी। लेकिन कोई आदमी | नहीं, एक ही बात की भूल हो रही है। हम अपने को जरूरत से कहे कि बड़े लोभी हो, तो लकड़ी लेकर खड़े हो जाते हैं कि आप ज्यादा बुद्धिमान समझे हुए हैं और अपनी बुद्धिमानी में न मालूम क्या कह रहे हैं! असल में मन की बीमारी को हम बीमारी स्वीकार | कितने प्रकार की मूढ़ताओं को पाल रखा है। बीमारियों को भी हम नहीं करते। मन की बीमारी को तो हम समझते हैं कि कोई बड़ी स्वास्थ्य समझे बैठे हैं। दुश्मनों को मित्र समझते हैं। कांटों को फूल धरोहर है, उसे बचाना है; उसे बचा-बचाकर रखना है, उसे समझ लेते हैं, फिर छाती से लगा लेते हैं। फिर वे गड़ते हैं, चभते सम्हाल-सम्हालकर रखना है। हैं. घाव कर देते हैं। और इन सारे ज्वरों में हमारी इतनी शक्ति व्यर्थ कृष्ण कह रहे हैं, ये सब ज्वर हैं। ही व्यय हो जाती है कि ओवरफ्लो करने के लिए, फूल बनने के इन्हें, पहली तो शर्त यह है कि बीमारी की तरह पहचानें। और | लिए कभी कोई शक्ति शेष नहीं बचती। इसलिए जिंदगी में आनंद, 414 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m- अहंकार का भ्रम - ब्लिस कभी दिखाई नहीं पड़ता। जिंदगी एक उदास कहानी है। आदमी चाहिए। यह कहता है, ठीक है, उसके हाथ में है। वह शेक्सपियर ने कहीं कहा है, ए टेल टोल्ड बाय एन ईडियट, फुल जानेगा, हम क्या सलाह दें? और जब हाथ में तलवार उसके है, आफ फ्यूरी एंड न्वायज सिग्नीफाइंग नथिंग। एक मूर्ख के द्वारा कही | तो उसकी मर्जी; अगर गरदन ही काटनी है, तो काट ले। इसी में हुई कहानी है जिंदगी। शोरगुल बहुत, मतलब कुछ भी नहीं। बस, कुछ हित होगा, तो यही सही। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक बड़ा शोरगुल, जैसे भारी कुछ होने जा शक्तिशाली ही समर्पण करता है, अहंकारी सदा कमजोर होता रहा है। अंत में हाथ कुछ भी नहीं है। कहानी लंबी, दृश्य बहुत | है। लेकिन हम कहेंगे, गलत। अहंकारी कमजोर! अहंकार तो बड़ा बदलते हैं, निष्कर्ष कोई भी नहीं, निष्पत्ति कोई भी नहीं। आखिर में | बलशाली मालूम पड़ता है। खबर आती है, वह आदमी मर गया। और कहानी सदा बीच में ही | यहां आपसे एक और मनोवैज्ञानिक सत्य कहूं। एडलर ने इस टूट जाती है। सदी में कुछ गहरे मनोवैज्ञानिक सत्यों की शोध की है। उसमें एक कहीं कुछ भूल हो रही है। वह भूल यह हो रही है कि जीवन की सत्य यह भी है कि जितना हीन आदमी होता है, उतना ही अहंकारी ऊर्जा, लाइफ एनर्जी ज्वर से बह रही है, बीमारियों से बह रही है। होता है। जितना इनफीरिआरिटी से पीड़ित आदमी होता है, उतना इसलिए जीवन का संगीत, और जीवन के फूल वंचित ही रह जाते अहंकारी होता है। क्योंकि जिसके पास शक्ति होती है, उसे हैं, उन्हें शक्ति ही नहीं मिल पाती है। इसलिए आपसे यह भी कहना अहंकार की कोई जरूरत ही नहीं होती। उसकी शक्ति दिखती ही चाहता हूं, इस सूत्र में कृष्ण के यह भी खयाल कर लें कि वे कह | है; उसकी घोषणा की कोई जरूरत नहीं होती। उसके लिए रहे हैं, विगतज्वर होकर अर्जुन, तू मुझकों समर्पित हो। समर्पित | बैंड-बाजे बजाकर कोई खबर नहीं करनी पड़ती। वह होती ही है। वही हो सकता है, जो परम शक्तिशाली है। कमजोर कभी समर्पित | सूरज कोई खबर नहीं करता कि मैं आता हूं। आ जाता है और नहीं होता। समर्पण बड़ा भारी आत्मबल है। सारी दुनिया जानती है कि आ गया। फूल खिलने लगते हैं और पक्षी मैंने सुना है, एक युवक ने विवाह किया था नया-नया। और | गीत गाने लगते हैं और लोगों की नींद टूट जाती है। वृक्ष उठ जाते अपनी पत्नी को लेकर वह दूर देश की यात्रा पर गया, नाव में। | हैं, हवाएं बहने लगती हैं, सागर की लहरें उठने लगती हैं। सब परानी कहानी है। तफान आ गया और नाव डोलने-डगमगाने लगी तरफ पता चल जाता है कि आ गया। उसका आना ही काफी है। और सारे यात्री कंपने-थर्राने लगे। कोई प्रार्थना करने लगा, कोई | लेकिन कोई नकली सूरज अगर आ जाए, जिसके पास भीतर कोई हाथ जोड़ने लगा, कोई भगवान को बुलाने लगा, कोई मनौती मनाने ताकत न हो, तो सामने वह बैंड मास्टरों को लाएगा, चोट करो, लगा। लेकिन वह युवक बैठा हुआ है। उसकी पत्नी ने कहा, क्या खबर करो कि मैं आता हूं। क्योंकि खुद के आने से तो कोई खबर कर रहे हो तुम! कुछ प्रार्थना नहीं करोगे? कोई उपाय नहीं करोगे? नहीं हो सकती। तुम जरा भी भयभीत नहीं मालूम होते! नाव खतरे में है। यह जो हमारा अहंकार है, यह भीतर की कमजोरी को छिपाता उस युवक ने अपनी तलवार म्यान के बाहर निकालकर उस है; यह सामने से इंतजाम करता है। पता है इसे कि भीतर मैं कमजोर नई-नई दुल्हन के कंधे पर रख दी। चमकती हुई तलवार, गरदन हूं। सीधा तो मेरा कोई भी पता नहीं चलेगा। हां, मिनिस्टर हो जाऊं, पास में है। जरा और गरदन अलग। लेकिन वह युवती हंसती रही। | तो पता चल सकता है। कुर्सी पर बैठ जाऊं, तो पता चल सकता उस युवक ने पूछा, तुझे भय नहीं लगता? तो उस युवती ने कहा, है। धन मेरे पास हो, तो पता चल सकता है। बड़ा मकान मेरे पास जब तुम्हारे हाथ में तलवार हो, तो मुझे भय कैसा? उस युवक ने | हो, तो पता चल सकता है। ऐसे मेरा तो कोई पता नहीं चलेगा। कहा, छोड़! जब परमात्मा के हाथ में सब कुछ है, तो मुझे भय | कुछ हो, जिसके सहारे मैं घोषणा कर सकूँ कि मैं हूं। मैं समबडी कैसा? तलवार म्यान के भीतर रख ली। जब परमात्मा के हाथ में हूं, नोबडी नहीं हूं। मैं ना-कुछ नहीं हूं, कुछ हूं। लेकिन कुछ हूं सब कुछ है, तो मुझे भय कैसा? अगर भीतर, तब तो कोई जरूरत नहीं है। महावीर नंगे भी खड़े हो लेकिन सब कमजोर प्रार्थनाएं कर रहे हैं; वे प्रार्थनाएं करने वाले | | जाएं, तो भी पता चलता है कि वे हैं। बुद्ध भिक्षा का पात्र लेकर भी मालूम पड़ते हैं कि भक्त हैं बड़े, धार्मिक हैं। यह आदमी धार्मिक गांव में निकल जाएं, तो भी पता चलता है कि वे हैं। है। इतना भरोसा! लेकिन इतने भरोसे के लिए बड़ा बलशाली बुद्ध एक गांव में गए। उस गांव के सम्राट ने अपने वजीर से 415/ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm गीता दर्शन भाग-1 AM पूछा कि मेरी पत्नी कहती है कि बुद्ध के स्वागत के लिए मुझे भी . वही राजी हो सकता है, जो इतना निर्भार है कि अब कोई भार उसके जाना चाहिए। लेकिन क्या यह उचित है? मैं सम्राट, वह एक | | लिए भार नहीं बन सकता है। दूसरों को सहारा देने के लिए वही भिखारी, उसे आना होगा आ जाएगा। आजकल का कोई मंत्री कह सकता है, जिसे अब खुद किसी तरह के सहारे की कोई भी होता, तो वह कहता, धन्य महाराज! आप बिलकुल ठीक कहते हैं। | जरूरत नहीं रह गई है। कृष्ण बड़ी सबलता से कहते हैं। इतनी लेकिन उस मंत्री ने इतना सुना, कागज उठाया, कलम उठाया; तो | | सबलता से बहुत मुश्किल से कभी कहा गया है। और अब, अब सम्राट ने पूछा, क्या करते हो? उसने कहा, मेरा इस्तीफा स्वीकार | | इतने सबल आदमी खोजना बहुत मुश्किल होता चला जाता है, जो करें। उसने कहा, कोई बात नहीं हुई, इस्तीफा किस बात का? तो कहें कि छोड़, तू सब मुझ पर छोड़ दे। यह तभी वे कह पाते हैं, उसने कहा कि नहीं, ऐसी जगह एक क्षण रुकना कठिन है। क्योंकि | जब कि परमात्मा से तादात्म्य इतना गहरा है कि मुझ पर क्या छूटता जिस दिन सिर्फ अहंकार आत्मा के सामने अपने को श्रेष्ठ समझेगा, | | है, परमात्मा पर छूटता है। कृष्ण बीच में हैं ही नहीं। उस दिन से बड़ा दुर्भाग्य नहीं हो सकता है। आपको जाना पड़ेगा। अर्जुन भी तभी छोड़ सकता है, जब उसके सारे ज्वरों के बाहर क्योंकि बुद्ध भिक्षा का पात्र लिए हुए भी भिखारी नहीं हैं, सम्राट हो जाए। तब तक नहीं छोड़ सकता है, तब तक उसे एक-एक ज्वर हैं। और तुम सम्राट होते हुए भी भिखारी हो। तुम्हारे पास कुछ नहीं | | पकड़ेगा। वह एक-एक सवाल उठाएगा। उसकी हर बीमारी के है। तुम से अगर सब छीन लिया जाए, तो तुम ना-कुछ हो जाओगे। अपने सवाल हैं, अपनी जिज्ञासाएं हैं। और गीता अर्जुन की बुद्ध ने सब छोड़ दिया है, फिर भी वे सब कुछ हैं। एक-एक बीमारी का उत्तर है। अनेक-अनेक मार्गों से वह कृष्ण से असल में जो सब कुछ है, वही सब कुछ छोड़ पाता है। जो कुछ | | वही-वही पूछेगा। वह कृष्ण से उत्तर नहीं चाह रहा है, वह कृष्ण से भी नहीं है, वह छोड़ेगा कैसे? मार्ग नहीं चाह रहा है। क्योंकि मार्ग इससे सरल और क्या हो सकता अहंकार बहुत दीनता को छिपाए रहता है भीतर। वह हमेशा | | है कि कृष्ण कहते हैं, छोड़ मुझ पर। इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स का बचाव है। वह हीनग्रंथि का इंतजाम एक महिला मेरे पास आई, अभी कोई आठ-दस दिन पहले। है, सुरक्षा का, सेफ्टी मेजर है। तो अहंकारी निर्बल होता है। निर्बल | वह मुझे कहने लगी कि संतों के हाथ में तो सब कुछ है। आप सब अहंकारी होता है। सबल, आत्मबल से भरा हुआ, अहंकारी नहीं | | कुछ कर दें मेरे लिए। मैंने कहा, राजी। तू क्या करने का इरादा होता। और आत्मबल से भरा हुआ व्यक्ति ही समर्पण कर सकता | रखती है ? उसने कहा, हमसे क्या हो सकता है। मैंने उसको कहा, है। क्योंकि समर्पण शक्ति की सबसे बड़ी घोषणा है। यह बात बड़ी | राजी। तू अपने को छोड़ने की हिम्मत रखती है? छोटी उम्र नहीं; कंट्राडिक्टरी मालूम होगी। संकल्प समर्पण का सबसे बड़ा संकल्प सत्तर साल उम्र होगी। बढी स्त्री है। अब कछ छोडने को बचा भी है। इससे बड़ा कोई विल पावर नहीं है जगत में कि कोई आदमी | नहीं है, सिर्फ मौत है आगे। न, उसने कहा कि मैं घर अपने लड़के कह सके कि मैंने छोड़ा, सब छोड़ा। से, बहू से पूछकर आपको कुछ कहूंगी। लेकिन बोली कि संत तो कृष्ण जब अर्जुन से कहते हैं, तू सब मुझ पर छोड़ दे। सब- सभी कर सकते हैं, आप कर ही दें। संत क्या नहीं कर सकते! छोड़ अपनी सब बीमारियों को, छोड़ आकांक्षाओं को, छोड़ बड़ा मजेदार है सब मामला। संत निश्चित ही सब कुछ कर ममताओं को, छोड़ आशाओं को, छोड़ अपेक्षाओं को-सब छोड़ सकते हैं, लेकिन सिर्फ उन्हीं के लिए, जो सब कुछ छोड़ने की दे, मुझ पर छोड़ दे। इसमें दो मजेदार बात हैं। अगर अर्जुन बहुत | हिम्मत रखते हैं। तत्काल हो जाता है सब कुछ। संत को कुछ करना हो, तो छोड़ सकता है। लेकिन कृष्ण बहुत सबल आदमी नहीं पड़ता, संत तो सिर्फ वीहिकल बन जाता है, सिर्फ परमात्मा के हैं। छोड़ना भी सबल के लिए संभव है और किसी को इस भांति | | लिए साधन हो जाता है। छोड़ने के लिए कहना भी सबल के लिए संभव है। निर्बल के लिए कृष्ण कहते हैं, छोड़ मुझ पर। दुनिया बहुत बदल गई है। दुनिया संभव नहीं है। बहुत बदल गई है। कृष्ण कहते हैं, छोड़ मुझ पर। अर्जुन छोड़ने की कृष्ण कितनी सहजता से कहते हैं, छोड़ सब मेरे ऊपर! दूसरे हिम्मत नहीं जुटा पाता। आज तो हालत और उलटी है। आज तो की बीमारियां लेने को केवल वही राजी हो सकता है, जिसे अब कोई कहेगा नहीं किसी से कि छोड़ मुझ पर। क्योंकि हम समझेंगे बीमार होने की कोई संभावना नहीं है। दूसरों के भार लेने को केवल कि पता नहीं बैंक बैलेंस छुड़ा लेगा, कि पता नहीं क्या मतलब है। 416 Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अहंकार का भ्रम - फिर दुबारा आएंगे ही नहीं वहां। क्योंकि हम तो संतों के पास लेने | | तब अगर तेरों से लड़ने का कोई मौका मिल जाए, तो मेरों की लड़ाई जाते हैं, देने तो नहीं जाते। यह किस तरह का संत है! | एकदम बंद हो जाती है। गुरजिएफ था अभी। कोई उससे सवाल पूछता, तो वह कहता, आपने देखा, चीन का हमला हो गया हिंदुस्तान पर। तो फिर, सौ रुपए पहले रख दो। लोग कहते, आप कैसे संत हैं? हम तो | फिर हिंदुस्तान में हिंदी बोलने वाले, गैर-हिंदी बोलने वाले का कोई सवाल पूछते हैं, आप सौ रुपए! तो गुरजिएफ कहता कि मैं बहुत झगड़ा नहीं। फिर हिंदू-मुसलमान का कोई झगड़ा नहीं। फिर सस्ते में तुम्हें जवाब दे रहा हूं। | मैसूर-महाराष्ट्र का कोई झगड़ा नहीं। फिर मद्रास इसका-उसका, ये कृष्ण बड़ा महंगा जवाब हैं। वे कह रहे हैं, तू छोड़ दे सब। कोई झगड़ा नहीं। सब झगड़े शांत, मेरों से लड़ाई बंद। क्योंकि तेरों सौ रुपए नहीं, सब। तू अपने को ही छोड़ दे। वे अर्जुन से कह रहे से लड़ाई शुरू हो गई। हैं, तू सब छोड़ दे मुझ पर—सारी आशा, सारी आकांक्षा, सारी लड़ने में कोई दिक्कत नहीं, लेकिन मेरों से लड़ने में बड़ी ममता-मैं तैयार हूं। लेकिन अर्जुन तैयार नहीं है। कठिनाई होती है। हां, जब कोई तेरे मिलते ही नहीं, तो मजबूरी में अर्जुन की हालत वैसी है, जैसे कभी-कभी ऐसा होता है न कि मेरों से लड़ते हैं। इसलिए सारी दुनिया में तेरों से लड़ाई खोजी जाती ट्रेन में कभी कोई देहाती आदमी आ जाता, तो सिर पर बिस्तर है; चौबीस घंटे खोजी जाती है। नहीं तो मेरों से लड़ाई हो जाएगी। रखकर बैठ जाता है। इस खयाल में कि ट्रेन पर कहीं ज्यादा वजन | अभी मेरे एक मित्र की पत्नी मेरे पीछे पड़ी थी कि मेरे पति को न पड़े। तो वह खुद बैठे रहते हैं, सिर पर बिस्तर रखे रहते हैं। हम समझा दें कि वे अलग हो जाएं मां-बाप से। मैंने मित्र को बुलाकर सब भी ऐसा ही करते हैं। हम सोचते हैं, कहीं परमात्मा पर ज्यादा | पूछा कि लगता तो है कि इतना उपद्रव चलता है, तो अलग हो वजन न पड़ जाए, इसलिए अपना वजन खुद ही रखे रहते हैं। सब | जाओ। लेकिन एक ही बात मुझे पूछनी है कि अभी तो तुम्हारी पत्नी वजन परमात्मा पर है, आपका भी, आपके वजन का भी। और जब तुम्हारे मां-बाप से लड़ लेती है, तुम्हें पक्का भरोसा है कि उनसे उसी पर है, और जब टेन चल ही रही है, तो नाहक सिर पर क्यों छटकर तमसे नहीं लडेगी? मैंने कहा, जहां तक बोझ रखे हुए हैं! लड़ेगी। क्योंकि करेगी क्या? वह तेरों से लड़ाई बंद हो जाएगी, तो वे कृष्ण इतना ही कहते हैं कि बिस्तर नीचे रख, मुझ पर छोड़ और पास सरक आएगी। दे, तू आराम से बैठ। तू नाहक इतना बोझ क्यों लिए हुए है? तू | इसलिए संयुक्त परिवार थे, तो पति-पत्नियों में कलह नहीं थी। इतनी चिंता में क्यों पड़ता है कि क्या होगा युद्ध से? कौन मरेगा, आपको मालूम है, संयुक्त परिवार थे, तो पति-पत्नी में कभी कलह कौन बचेगा? इतने लोग मर जाएंगे, फिर क्या होगा? समाज का | नहीं थी। जिस दिन से संयुक्त परिवार टूटा, उस दिन से पति-पत्नी क्या होगा? राज्य का क्या होगा? तू इतनी सारी चिंताएं अपने सिर की कलह बहुत गहरी हो गई। पति-पत्नी बच नहीं सकते, वे भी पर क्यों लेता है? तू छोड़ दे मेरे ऊपर। टूटेंगे। संयुक्त परिवार में बड़ा हिस्सा चलता रहता था, अपनों को __ अर्जुन को चिंता है भी नहीं वह सब। हम कभी भी नहीं पहचान बचाकर लड़ाई चलती रहती थी। दूसरे काफी थे, उनसे लड़ाई हो पाते कि हम सब तरह से रेशनलाइजेशंस करते रहते हैं। अर्जन जाती थी। अब कोई बचे ही नहीं। अब वे दोनों ही बचे हैं सिर्फ भागना चाहता है। वह अपनों से लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पति-पत्नी। अब वे लड़ेंगे ही। इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि पा रहा है, इसलिए सब तर्क खोज रहा है। वह तर्क का एक जाल | पति-पत्नी, सांझ अकेली न बीत जाए, इससे डरे रहते हैं। किसी खड़ा कर रहा है। वह कह रहा है, यह तकलीफ होगी, यह तकलीफ | | मित्र को बुला लो, किसी मित्र के घर चले जाओ। कोई तीसरा होगी, यह तकलीफ होगी। कुल मामला इतना है कि तकलीफों से | | मौजूद रहे, तो थोड़ा, तो सांझ सरलता से बीत जाती है। उसे कोई मतलब नहीं है। मतलब उसे सिर्फ इतना है कि मेरों से यह जो कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं, तू सब छोड़ दे मुझ पर, फिर कैसे लडूं? यह उसका मैं जो है, वह मेरों से लड़ने के लिए तैयार तेरे लिए कुछ करने को नहीं बचता। मैं करूंगा, तू वाहन हो जा। नहीं हो पाता। किसी का मैं नहीं तैयार हो पाता। मेरों से हम कभी धर्म की एक ही पुकार है कि आप सिर्फ वाहन हो जाएं और लड़ने को तैयार नहीं होते। और इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि परमात्मा को करने दें। आप कर्ता न बनें, परमात्मा पर कर्तृत्व छोड़ अगर मेरों से लड़ने की हालत आ जाए, तो बड़ी कठिनाई होती है, दें सब और आप इंस्ट्रमेंट, साधन मात्र रह जाएं। कबीर ने कहा है 417 Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Im गीता दर्शन भाग-1 कि जब से मैंने जाना, तब से गीत मेरे नहीं रहे। मैं तो सिर्फ बांसुरी | वाले। चारों तरफ हैं। लेकिन अहंकार से बड़ा परसुएडर और कोई हूं। मैं तो सिर्फ बांस की पोंगरी हूं, गीत परमात्मा के हैं। जो भी जान | | भी नहीं है। अहंकार बड़ी तरकीब से फुसलाता है। वह जो लेता है, वह बांस की पोंगरी रह जाता है। स्वर परमात्मा के, गीत कहलवाना चाहता है, जो वह खुद कहना चाहता है, वह दूसरे से परमात्मा का, हम केवल मार्ग रह जाते हैं। कहलवाता है। अगर आप किसी स्त्री से कहलवाना चाहते हैं कि __ कृष्ण कहते हैं अर्जुन से, तू बस मार्ग बन जा। मुझे मार्ग दे; जो | आप बड़े सुंदर हैं, तो आप खुद मत कह देना जाकर कि मैं बड़ा मुझे करना है, होने दे। मुझे से मतलब, परमात्मा को जो करना है, सुंदर हूं, नहीं तो मुश्किल में पड़ जाएंगे। नहीं, आप कहेंगे कि तुम वह होने दे। बड़ी सुंदर हो; तुमसे सुंदर कोई भी नहीं; और फिर प्रतीक्षा करना। __ और कृष्ण क्यों इतने आश्वस्त ढंग से अर्जुन से कह सके? | फिर वह स्त्री जरूर कहेगी कि आपसे सुंदर कोई भी नहीं है। अर्जुन को शक नहीं आता कि ये कृष्ण अपने को परमात्मा क्यों __ यह म्यूचुअल ग्रेटिफिकेशन है, यह एक-दूसरे के अहंकार की बनाए चले जा रहे हैं! अनेकों को शक आता है। जब भी कोई गीता तृप्ति है। आप उन्हें बड़ा बनाओ, वे आपको बड़ा बनाते हैं। एक पढ़ता है, तो अगर भक्त पढ़ता है, तब तो उसे कुछ पता नहीं | नेता दूसरे नेता को बड़ा बनाता है, दूसरा नेता दूसरे को। एक चलता; लेकिन अगर कोई विचार करके पढ़ता है, तो उसे खयाल महात्मा दूसरे महात्मा को, दूसरा महात्मा दूसरे को। एक-दूसरे को आता है कि कृष्ण क्यों ऐसा कहते हैं कि मैं, मुझ पर छोड़ दे। बड़े | बड़ा बनाते चले जाओ। इस तरह परोक्ष, इनडाइरेक्ट, अहंकार अहंकारी मालूम होते हैं। मुझे अनेक लोगों ने कहा कि कृष्ण का | अपने रास्ते खोजता है। अहंकार भारी मालूम पड़ता है। वे कहते हैं, मुझ पर सब छोड़ दे। कृष्ण अदभुत निरहंकारी व्यक्ति हैं। वे कहते हैं, छोड़ मुझ पर। एक तरफ अर्जुन से कहते हैं, अहंकार छोड़; और एक तरफ कहते वे इतनी सरलता से कहते हैं कि अहंकार का कहीं लेशमात्र मालूम हैं, मुझ पर सब छोड़! तो यह अहंकार नहीं है? | नहीं पड़ता। अहंकार कभी इतना सरल होता ही नहीं। अहंकार मैंने उनसे कहा कि कष्ण इतनी सरलता से कहते हैं कि मझ पर | हमेशा तिरछा चलता है। कृष्ण की इतनी सहजता...वे यह भी नहीं सब छोड़ कि अहंकार नहीं हो सकता। अहंकार कभी सीधा नहीं | कहते कि मैं भगवान हूं, इसलिए छोड़ मुझ पर। क्योंकि वह भी कहता कि मुझ पर सब छोड़। अहंकार सदा तरकीब से जीता है। | इनडाइरेक्ट हो जाएगा। वे अगर यह भी कहें कि मैं भगवान हूं, अहंकार कहता है कि मैं तो आपके पैर की धूल हूं। जरा आंख में छोड़ मुझ पर। ऐसा भी वे नहीं कहते। वे कहते हैं, छोड़ मुझ पर। देखें, तब पता चलेगा। इधर हाथ पैर में झुके होते हैं, उधर आंखें कोई कारण भी नहीं देते। कोई परोक्ष उपाय भी नहीं करते। सीधा आकाश में चढ़ी होती हैं। अहंकार कहता है, मैं तो कुछ भी नहीं। कहते हैं कि छोड़ मुझ पर। यह सरलता ही उनके निरहंकार होने की लेकिन अगर आपने मान लिया कि आप बिलकुल ठीक कह रहे | घोषणा है। इतना अत्यधिक सीधापन, स्ट्रेट फारवर्डनेस उनके हैं, बिलकुल सच कह रहे हैं कि कुछ भी नहीं, तो बड़ा दुखी होता निरहंकार होने का सबूत है। और जब वे कहते हैं, छोड़ मुझ पर, है। नहीं, जब अहंकार कहता है, मैं कुछ भी नहीं, तो वह सुनना तो हमारे सामने वे मौजूद नहीं हैं, इसलिए बड़ी कठिनाई होती है। चाहता है कि आप कहो कि आप भी कैसी बात कर रहे हैं! आप दुनिया में जो भी महत्वपूर्ण सत्य आज तक प्रकट हुए हैं, वे तो सब कुछ हैं। तब वह प्रसन्न होता है। लिखे नहीं गए, बोले गए हैं। इस बात को खयाल में रखना। दुनिया अहंकार कभी सीधा नहीं बोलता। उसका कारण है। अहंकार | का कोई पैगंबर, कोई तीर्थंकर लेखक नहीं था। और दुनिया का इसलिए सीधा नहीं बोलता कि सीधा अहंकार दूसरे के अहंकार को | कोई अवतार लेखक नहीं था। यह स्मरण रखना। चाहे बाइबिल, चोट पहुंचाता है। और दूसरे के अहंकार को चोट पहुंचाकर आप | और चाहे कुरान, और चाहे गीता, और चाहे बुद्ध और चाहे कभी अपने अहंकार की तृप्ति नहीं कर सकते। इसलिए जो कनिंग महावीर के वचन, और चाहे लाओत्से-ये सब वचन बोले गए अहंकार है, जो चालाक अहंकार है-और सब अहंकार चालाक हैं, ये लिखे नहीं गए हैं। और इनके मुकाबले लेखक कभी भी कुछ हैं—वे तरकीब से अपनी तृप्ति करते हैं। वे दूसरे के अहंकार को | नहीं पहुंच पाता, कहीं नहीं पहुंच पाता। उसका कारण है। बोले गए परसुएड करते हैं। शब्द में एक लिविंग क्वालिटी है। वान पेकाई ने एक किताब लिखी है, दि परसुएडर्स, फुसलाने जब अर्जुन से कृष्ण ने बोला होगा, तो सिर्फ शब्द नहीं था। हमारे 018 Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IT अहंकार का भ्रम AM कृष्ण जरूर इस क्षण में एक द्वार बन गए होंगे। नहीं तो अर्जुन भी सवाल उठाता, उठाता ही। अर्जुन छोटा सवाल उठाने वाला नहीं है। द्वार बन गए होंगे। और अर्जुन ने अनुभव किया होगा कि जो कह रहा है, वह मेरा सारथी नहीं है; जो कह रहा है, वह मेरा सखा नहीं है; जो कह रहा है, वह स्वयं परमात्मा है। ऐसी प्रतीति में अगर अर्जुन को कठिनाई लगी होगी, तो वह कृष्ण के भगवान होने की नहीं, वह अपने समर्पण के सामर्थ्य न होने की कठिनाई लगी होगी। वही लगी है। उस पर हम आगे कल बात करेंगे। आज इतना ही। सामने सिर्फ शब्द है। जब कृष्ण ने अर्जुन से कहा होगा कि छोड़ मुझ पर, तो कृष्ण की आंखें, और कृष्ण के हाथ, और कृष्ण की सुगंध, और कृष्ण की मौजूदगी ने, सब ने अर्जुन को घेर लिया | होगा। कृष्ण की उपस्थिति अर्जुन को चारों तरफ से लपेट ली होगी। कृष्ण के प्रेम, और कृष्ण के आनंद, और कृष्ण के प्रकाश ने अर्जुन को सब तरफ से भर लिया होगा। नहीं तो अर्जुन भी पूछता कि आप भी क्या बात करते हैं! सारथी होकर मेरे और मुझसे कहते हैं, आपके चरणों में सब छोड़ दूं? नहीं, अर्जुन यह कहने का उपाय भी नहीं पाया होगा। पाया ही नहीं। अर्जुन को यह प्रश्न भी नहीं उठा, क्योंकि कृष्ण की मौजूदगी ने ये सब प्रश्न गिरा दिए होंगे। कृष्ण की मौजूदगी अर्जुन को वहां-वहां छू गई होगी, जहां-जहां प्राण के अंतराल में छिपे हुए स्वर हैं, जहां-जहां प्राण की गहराइयां हैं-वहां-वहां। और इसलिए अर्जुन को शक भी नहीं उठता कि यह कहीं अहंकार तो नहीं पूछ रहा। है मुझसे कि इसके चरणों में मैं छोड़ दूं। अहंकार वहां मौजूद ही नहीं | था; वहां कृष्ण की पूरी प्रतिभा, पूरी आभा मौजूद थी। बुद्ध के चरणों में लोग आते हैं और बुद्ध के चरणों में लोग सिर रखते हैं। और बद्ध के पास आकर त्रिरत्न की घोषणा करते हैं। वे कहते हैं, बुद्धं शरणं गच्छामि। एक दिन एक आदमी आया और उसने बुद्ध से कहा, आप तो कहते हैं, किसी की शरण मत जाओ। आप तो कहते हैं. किसी की शरण मत जाओ. और आपकी ही शरण में लोग आकर आपके सामने ही कहते हैं, बुद्धं शरणं गच्छामि, मैं बुद्ध की शरण जाता हूं। आप रोकते क्यों नहीं? बुद्ध ने कहा, जो रोक सकता था, वह अब मेरे भीतर कहां है? जो रोक सकता था, वह अब मेरे भीतर कहां है? और किसने तुमसे कहा कि वे मेरी शरण जाते हैं! मेरी शरण वे जाते नहीं, क्योंकि मैं तो बचा नहीं। शायद मेरे द्वारा वे किसी और की शरण जाते होंगे, जो बचा है। मैं तो सिर्फ एक दरवाजा हूं-जस्ट ए डोर, जस्ट ए विंडो-एक खिड़की, एक दरवाजा।। इस खिड़की पर आप हाथ रखकर मकान के भीतर के मालिक को नमस्कार करते हैं। खिड़की क्यों रोके? खिड़की क्यों कहे कि अरे-अरे! यह क्या कर रहे हैं? मत करिए नमस्कार मुझे। लेकिन आप उसको कर ही नहीं रहे हैं। बुद्ध कहते हैं, मुझे वे नमस्कार करते ही नहीं, मेरी शरण वे जाते नहीं, मैं तो हूं नहीं। एक द्वार है, जहां से वे किसी को निवेदन करते हैं। ण मत जाओ; और आपकी ही 419 Page #450 --------------------------------------------------------------------------  Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 3 आठवां प्रवचन श्रद्धा है द्वार Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः । श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्तेऽपिकर्मभिः ।। ३१ । । ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् । सर्व ज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ।। ३२ ।। सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि । प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ।। ३३ ।। और हे अर्जुन जो कोई भी मनुष्य दोषबुद्धि से रहित और श्रद्धा से युक्त हुए सदा ही मेरे इस मत के अनुसार बर्तते हैं, वे पुरुष संपूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं। और जो दोषदृष्टि वाले मूर्ख लोग इस मेरे मत के अनुसार नहीं बर्तते हैं, उन संपूर्ण ज्ञानों में भ्रमित चित्त वालों को तू कल्याण मार्ग से भ्रष्ट हुए ही जान। क्योंकि सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव से परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा! ष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि जो मैंने कहा है, श्रद्धापूर्ण हृदय से उसे अंगीकार करके जो जीता और कर्म करता है, वह समस्त कर्मों से मुक्त हो जाता है, वह समस् कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है। कृ श्रद्धा शब्द को थोड़ा समझेंगे, तो इस सूत्र के हृदय के द्वार खुल जाएंगे। श्रद्धा शब्द के आस-पास बड़ी भ्रांतियां हैं। सबसे बड़ी भ्रांति तो यह है कि श्रद्धा का अर्थ लोग करते हैं, विश्वास, बिलीफ; या कुछ लोग श्रद्धा का अर्थ करते हैं, फेथ, अंधविश्वास। दोनों ही अर्थ गलत हैं। क्यों ? जो भी विश्वास करता है, उसके भीतर अविश्वास सदा ही मौजूद होता है। असल में अविश्वासी के अतिरिक्त और कोई विश्वास करता ही नहीं है। यह उलटी लगेगी बात। लेकिन विश्वास की जरूरत ही इसलिए पड़ती है कि भीतर अविश्वास है। जैसे बीमार को दवा की जरूरत पड़ती है, ऐसे अविश्वासी चित्त को विश्वास की जरूरत पड़ती है। भीतर है संदेह, भीतर है अविश्वास, उसे दबाने के लिए विश्वास, बिलीफ को हम पकड़ते हैं। श्रद्धा विश्वास नहीं है। भीतर अविश्वास हो और उसे दबाने के लिए कुछ पकड़ा हो, तो उसका नाम विश्वास है । और भीतर अविश्वास न रह जाए, शून्य हो जाए, तब जो शेष रह जाती है, वह श्रद्धा है। भीतर अविश्वास हो... एक आदमी को विश्वास न हो कि ईश्वर है और विश्वास करे, जैसा कि अधिक लोग किए हुए हैं, विश्वास बिलकुल नहीं है, लेकिन किए हुए हैं। विश्वास भी नहीं है, अविश्वास करने की हिम्मत भी नहीं है। भीतर अविश्वास है गहरे में, ऊपर से विश्वास के वस्त्र ओढ़े हुए हैं। ऐसी बिलीफ, | ऐसा विश्वास स्किनडीप, चमड़ी से ज्यादा गहरा नहीं होता । जरा | जोर से खरोंचो, भीतर का अविश्वास बाहर निकल आता है। श्रद्धा का ऐसा अर्थ नहीं है। श्रद्धा बहुत ही कीमती शब्द है। श्रद्धा का अर्थ है, जहां से अविश्वास नष्ट हो गया - विश्वास आ गया नहीं। श्रद्धा का अर्थ है, जहां अविश्वास नहीं रहा । जब भीतर कोई अविश्वास नहीं होता, तब श्रद्धा फलित होती है। कहें, श्रद्धा अविश्वास का अभाव है। एब्सेंस आफ डिसबिलीफ, प्रेजेंस आफ बिलीफ नहीं, विश्वास की उपस्थिति नहीं, अविश्वास की अनुपस्थिति। इसलिए कोई आदमी कितना ही विश्वास करे, कभी श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होता। उसके भीतर अविश्वास खड़ा ही रहता है और कांटे की तरह चुभता ही रहता है। अब एक आदमी कहे चला जाता है, आत्मा अमर है; और फिर | भी मरने से डरता चला जाता है। एक तरफ कहता है, आत्मा अमर है, दूसरी तरफ मरने से भयभीत होता है। यह कैसा विश्वास है ? | इसके पीछे अविश्वास खड़ा है। कहता है, आत्मा अमर है, और डरता है मरने से। अगर आत्मा अमर है, तो मरने का डर ? मरने का डर बेमानी है। अब यह कैसे आश्चर्य की बात है ! लेकिन अगर ठीक से देखेंगे, तो आश्चर्य नहीं मालूम पड़ेगा । में निन्यानबे मौकों पर संभावना यही है कि चूंकि मरने का डर है, इसलिए आत्मा अमर है, इस विश्वास को किए चले जाते हैं। डर है भीतर कि मर न जाएं, तो आत्मा अमर हैं, इस पाठ को | रोज-रोज पढ़े चले जाते हैं; दोहराए चले जाते हैं, आत्मा अमर है; समझाए चले जाते हैं अपने को, आत्मा अमर है। और भीतर जिसे | दबाने के लिए आप कह रहे हैं, आत्मा अमर है, वह मिटता नहीं । वह भय और गहरे में सरकता चला जाता है। हमारे सारे विश्वास ऐसे ही हैं। 422 कृष्ण भी कह सकते थे, विश्वासपूर्वक जो मेरी बात को मानता है, वह कर्म से मुक्त हो जाता है। उन्होंने वह नहीं कहा। यद्यपि गीता के अर्थ करने वाले वही अर्थ किए चले जाते हैं। वे लोगों को यही समझाए चले जाते हैं, विश्वास करो । कृष्ण कह रहे हैं, श्रद्धा, विश्वास नहीं । विश्वास दो कौड़ी की चीज है। श्रद्धा की कोई Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + श्रद्धा है द्वार - कीमत ही आंकनी मुश्किल है। उदाहरण के लिए थोड़ा समझाऊं। | | सब अविश्वास भीतर किसी कोने में मौजूद प्रतीक्षा कर रहे हैं। विवेकानंद खोजते थे कि परमात्मा है या नहीं है। खबर श्रद्धा का अर्थ है, ऐसा हृदय जहां विरोध में कोई भी स्वर नहीं है। मिली-रवींद्रनाथ के दादा महर्षि थे-खबर मिली कि महर्षि गांव | जहां जो है, वह पूरी तरह से है, जिसके विपरीत कुछ है ही नहीं। में आए हैं। नाव पर, बजरे में वे साधना करते हैं। रात. आधी रात | जिससे अन्य का कोई अस्तित्व नहीं है। जिससे भिन्न का कोई किसी मित्र ने कहा बारह बजे। आपसे कहा होता, तो आप कहते, | | सवाल नहीं है। जो है, है; पूरा है, टोटल है। श्रद्धा का अर्थ है, सुबह उठकर चल पड़ेंगे; सुबह मिल लेंगे। पर विवेकानंद आधी | | हृदय की समग्रता। रात ही गंगा पार करके बजरे पर चढ़ गए। धक्का दिया, दरवाजा | कृष्ण कह रहे हैं कि श्रद्धापूर्वक, हृदय की समग्रता से, जिसके खुल गया। महर्षि ध्यान कर रहे थे। ध्यान उचट गया। विवेकानंद | भीतर विपरीत कुछ स्वर ही नहीं है, जिसके भीतर अविश्वास की ने जाकर कोट का कालर पकड़ लिया और कहा, ईश्वर है? | रेखा भी नहीं है, वही व्यक्ति इस मार्ग पर चलकर कर्मों को क्षीण ___ अब ऐसे जिज्ञासाएं नहीं की जातीं! ये कोई शिष्ट बातें नहीं हैं। करके मुक्त हो जाता है। लेकिन जो परमात्मा के लिए दीवाने हैं, वे शिष्टाचार के लिए नहीं - तो पहला फर्क विश्वास और श्रद्धा में ठीक से समझ लें। और रुक पाते हैं। कोई भी दीवाना नहीं रुक पाता है। महर्षि ने कहा, बैठो | | आपके पास जो हो, उसे जरा ठीक से देख लें। वह विश्वास है या भी, यह भी कोई ढंग है! अंधेरी रात, पानी से तर-बतर, नदी में | | श्रद्धा है? और ध्यान रहे, अविश्वासी तो कभी श्रद्धा पर पहुंच भी तैरकर आया हुआ युवक, आकर गर्दन पकड़ ले और कहे, ईश्वर | सकता है, विश्वासी कभी नहीं पहुंच पाता है। उसके कारण हैं। जिस है? महर्षि ने कहा, बैठो भी। पर विवेकानंद ने कहा कि नहीं, | आदमी के हाथ में कुछ भी नहीं है, कंकड़-पत्थर भी नहीं हैं, वह जवाब मिल गया। आपकी झिझक ने कह दिया कि आपको पता | आदमी हीरों की खोज कर सकता है। लेकिन जिस आदमी ने नहीं है। अन्यथा मैं पूछता हूं, ईश्वर है? और आप देखते हैं कि मेरे | कंकड़-पत्थर के रंगीन टुकड़ों को समझा हो हीरे-जवाहरात और उन कपडे पानी में भीगे हुए हैं। और मैं पछता हं. ईश्वर है? और आप पर मट्टी बांधे रहे. वह कभी हीरों की खोज पर ही नहीं निकलता है। देखते हैं कि आधी रात है। मैंने नहीं देखी, जो अभी खोज रहा है। अविश्वासी तो किसी दिन श्रद्धा को पा सकता है। उसके कारण तो जिसको मिल गया है, वह क्या खाक देखेगा कि आधी रात है! | हैं। क्योंकि अविश्वास में जीना असंभव है, इंपासिबल है। कूद पड़े वापस। महर्षि ने बहुत बुलाया कि युवक, ठहर! जवाब | अविश्वास आग है, जलाती है, पीड़ा देती है, चुभाती है; अंगारे लेकर जा। विवेकानंद ने पानी से कहा कि जवाब मिल गया। | हैं उसमें। अविश्वास में कोई भी खड़ा नहीं रह सकता। उसे आज झिझक ने सब कह दिया कि अभी कुछ पता नहीं है। नहीं कल या तो श्रद्धा में प्रवेश करना पड़ेगा या विश्वास में प्रवेश फिर यही विवेकानंद कुछ महीनों के बाद रामकृष्ण के पास गए। करना पड़ेगा। भक्त इकट्ठे थे; बीच में घुसकर जाकर उनके पास खड़े होकर कहा, ध्यान रहे, श्रद्धा का विरोध अविश्वास से नहीं है; श्रद्धा का ईश्वर है? उसी तरह जैसे उस दिन रात महर्षि को पकड़कर कहा | | विरोध विश्वास से है। बिलीफ करने वाले लोग कभी भी श्रद्धा को था, ईश्वर है? रामकृष्ण ने यह नहीं कहा कि है या नहीं। रामकृष्ण | उपलब्ध नहीं होते हैं। यह बहुत उलटी-सी बात लगेगी। क्योंकि ने जवाब में ही जवाब दिया और कहा, तुझे जानना है ? विवेकानंद | हम तो सोचते हैं, पहले विश्वास करेंगे, फिर धीरे-धीरे श्रद्धा आ ने लिखा है कि वे आंखें, रामकृष्ण का वह कहना कि तुझे जानना | जाएगी। ऐसा कभी नहीं होता। क्योंकि जिसने विश्वास कर लिया, है ? फिक्र छोड़ इसकी कि है या नहीं। तुझे जानना है, यह बता, तो वह झूठी श्रद्धा में पड़ जाता है। और झूठे सिक्के असली सिक्कों मैं तैयार हूं। विवेकानंद ने लिखा है कि मैंने महर्षि को दिक्कत में | | के मार्ग में अवरोध बन जाते हैं। आप ठीक से जांच कर लेना कि डाल दिया था। रामकृष्ण ने मुझे दिक्कत में डाल दिया। मैंने यह | | आपके पास जो है, वह विश्वास है कि श्रद्धा है। सोचा ही न था कि कोई इतने जोर से पकड़कर कहेगा कि तेरी तैयारी और ध्यान रहे, विश्वास सदा मिलता है दूसरों से, श्रद्धा सदा है, देखना है, जानना है? यह मत पूछ। मैं दिखाने को तैयार हूं। | आती है स्वयं से। एक आदमी हिंदू है, यह विश्वास है, श्रद्धा नहीं; रामकृष्ण एक श्रद्धा से बोल रहे हैं, जहां सब अविश्वास गिर | | क्योंकि अगर वह मुसलमान के घर में रखकर बड़ा किया गया गए हैं। महर्षि देवेंद्रनाथ बोलते भी, तो विश्वास से बोलते, जहां होता, तो मुसलमान होता। एक आदमी मुसलमान है, यह विश्वास Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1 AM है, श्रद्धा नहीं; क्योंकि वह ईसाई के घर में रखकर बड़ा किया गया | भी फर्क नहीं पड़ता है। बिना विश्वास के जीना मुश्किल है। होता, तो ईसाई होता। और एक आदमी आस्तिक है; यह विश्वास | | अविश्वास इतनी तकलीफ पैदा कर देता है कि आपको श्रद्धा की है, श्रद्धा नहीं। वह रूस में अगर पैदा हुआ होता, तो नास्तिक हो यात्रा करनी ही पड़ेगी। लेकिन आप विश्वास...। गया होता। जो हमें बाहर से मिल जाता है, वह विश्वास है। जो | | इसे थोड़ा दो-चार आयाम से देखना पड़े। और धार्मिक चित्त को हमारे भीतर से जन्मता है, वह श्रद्धा है। | इसे समझ लेना बहुत ही आधारभूत है। ___ इसलिए और तीसरी बात, विश्वास हमेशा मुर्दा होता है, डेड। विश्वास और अविश्वास दोनों ही तर्क से जीते हैं। विश्वास भी, श्रद्धा सदा जीवंत होती है, लिविंग। और मुर्दे आपको डुबा सकते | | अविश्वास भी, दोनों का भोजन तर्क है। नास्तिक तर्क देता है, हैं, पार नहीं करवा सकते। मरे हुए विश्वास सिर्फ डुबा सकते हैं, ईश्वर नहीं है। आस्तिक तर्क देता है, ईश्वर है। लेकिन दोनों तर्क पार नहीं करवा सकते। और मरे हुए विश्वास जंजीर बन सकते हैं,। देते हैं और दोनों का तर्क पर भरोसा है। सेंट एनसैन के आपने मुक्ति नहीं बन सकते। और मरे हुए विश्वास बांध सकते हैं, खोल | | ईश्वर के लिए प्रमाण सुने होंगे। सारी दुनिया के आस्तिकों ने, नहीं सकते। इसलिए कृष्ण जब कह रहे हैं, श्रद्धापूर्वक, तो ईश्वर है, इसके प्रमाण दिए हैं। नास्तिकों ने प्रमाणों का खंडन किया विश्वास को बिलकुल काट डालना; विश्वास से कुछ लेना-देना है कि ईश्वर नहीं है। विश्वास, अविश्वास दोनों ही तर्क से चलते कृष्ण का नहीं है। विश्वास–जिनके पास श्रद्धा नहीं है, वे अपने हैं। और श्रद्धा, श्रद्धा इस अनुभूति का नाम है कि तर्क ना-काफी को श्रद्धा का धोखा देते हैं विश्वास से। जैसे आपके पास असली है, नाट इनफ। तर्क पर्याप्त नहीं है, इस प्रतीति से श्रद्धा की शुरुआत मोती नहीं हैं, तो इमिटेशन के मोती गले में डालकर घूम लेते हैं। होती है। जिस मनुष्य को जीवन में गहरे देखकर ऐसा दिखाई पड़ता किसी को धोखा नहीं होता। मोती को तो धोखा होता ही नहीं। है कि तर्क की सीमा है और जीवन तर्क की सीमा के आगे भी है। उसको तो पता ही है! आपको भी धोखा नहीं होता। आपको भी | | जिस व्यक्ति को ऐसा दिखाई पड़ता है कि तर्क थोड़ी दूर तक चलता पता है। और जिनको आप धोखा दे रहे हैं, उनको धोखा देने से कोई है और फिर नहीं चलता। जिसे अनुभव होता है कि जीवन में बहुत प्रयोजन नहीं है। उनको कोई प्रयोजन नहीं है। विश्वास आरोपित | कुछ है जो तर्क के बाहर पड़ जाता है, जो तर्क में नहीं है। जीवन है, श्रद्धा जन्मती है। यह फर्क है। | खुद तर्क के बाहर है। जीवन खुद अतर्व्य है, इल्लाजिकल है। आप दूसरी बात, अगर श्रद्धा जन्मती है, तो आ कैसे जाएगी? विश्वास | न होते, तो आप किसी से भी नहीं कह सकते थे कि मैं क्यों नहीं तो उधार लिया जा सकता है, बारोड हो सकता है। सब बारोड है। हूं? आप हैं, तो आप किसी से पूछ नहीं सकते कि मैं क्यों हूं? कोई बाप से, कोई गुरु से, कोई कहीं से, कोई कहीं से उधार ले लेता | | जिंदगी बिलकुल अतर्क्ष्य है। जिंदगी के पास कोई तर्क नहीं है। है, विश्वास बना लेता है। बिना विश्वास के जीना बहुत मुश्किल है। | हैं तो हैं, नहीं हैं तो नहीं हैं। प्रेम अतर्व्य है, प्रार्थना भी अतर्व्य है। मुश्किल इसीलिए है कि अविश्वास में जीना मुश्किल है। जीवन में जो भी गहरा और महत्वपूर्ण है, वह तर्क से समझ में आता और इसलिए एक अदभुत घटना घटती है कि नास्तिक को हम | नहीं, पकड़ में आता नहीं, तर्क चुक जाता है और जीवन बाहर रह अविश्वासी कहते हैं। कहना नहीं चाहिए। नास्तिक पक्का विश्वासी | जाता है। ऐसे अनुभव से पहली बार श्रद्धा की ओर कदम उठते हैं। होता है ईश्वर के न होने में। नास्तिक भी अविश्वास में नहीं जीता, | | कैसे पता चलता है कि जीवन अतळ है? कैसे पता चलता है कि नकारात्मक, निगेटिव बिलीफ में जीता है। उसका भी पक्का बुद्धि थक जाती है और जीवन नहीं चुकता? आदमी कितना सोचता विश्वास होता है और वह भी लड़ने-मारने को तैयार हो जाता है। है, कितना सोचता है, फिर कहीं नहीं पहुंचता। सिद्धांत हाथ में आ अगर आप कहो कि ईश्वर है, तो उसके ईश्वर नहीं होने की धारणा | जाते हैं कोरे, राख; अनुभव कोई भी हाथ में नहीं आता। सब गणित को चोट लगे, तो वह भी लड़ने को तैयार हो जाता है। | हार जाते हैं; कुछ अनजाना पीछे शेष रह जाता है; अननोन सदा ही नास्तिक के अपने विश्वास हैं। आस्तिक से उलटे हैं, यह दूसरी | | पीछे शेष रह जाता है। जो हम जानते हैं, वह बहुत क्षुद्र है। जो हमारे बात है, पर उसके अपने विश्वास हैं। उनके बिना वह भी नहीं जानने के क्षद्र को घेरे हए है अनजाना, वह बहत विराट है। जीता। कम्युनिस्ट भी नहीं जीता बिना विश्वासों के। हां, उसके अठारहवीं सदी का वैज्ञानिक सोचता था कि सौ वर्ष में वह विश्वास और तरह के हैं। यह बिलकुल दूसरी बात है, इससे कोई घटना घट जाएगी कि दुनिया में जानने को कुछ भी शेष नहीं रहेगा। | 424 Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PM श्रद्धा है द्वार HAM उसे पक्का विश्वास था विज्ञान पर। सौ साल पहले वैज्ञानिक को | उठता है, क्यों बनाई! एक विश्वास हुआ कि सवाल खड़ा हुआ, पक्का विश्वास था विज्ञान पर, कि हम सब जान लेंगे, जो भी | क्यों बनाई! फिर दूसरा सवाल उठता है कि ऐसी क्यों बनाई, जिसमें अनजाना है, जान लिया जाएगा। आज वैज्ञानिक कहता है कि जो | इतना दुख है! फिर तीसरा सवाल उठता है कि जब वही बनाने वाला हमने जाना, वह तो कुछ नहीं, लेकिन जितना हमने जानने की | है, तो इस सब दुख को क्यों नहीं मिटा देता! फिर सवाल उठते चले कोशिश की, उससे हजार गुना अनजाना प्रकट हो गया है। एक इंच | जाते हैं। आपने तय किया कि ईश्वर ने दुनिया नहीं बनाई। तब फिर हम जानते हैं, हजार इंच और खुल जाते हैं, जो अनजाने हैं। एक | सवाल उठता है, फिर कैसे बनी? तो फिर वैज्ञानिक खोजता है कि सवाल हल होता है, हजार सवाल खड़े हो जाते हैं। और अब | नेबुला, और अणु, और परमाणु और उन सबसे दुनिया बनती है। वैज्ञानिक हिम्मत बांधकर नहीं कह पाता कि हम कभी भी सब जान | लेकिन वे अणु-परमाणु कहां से आते हैं? और तब सवालों की लेंगे। अब वह इतना ही कह पाता है कि हम जो भी जानेंगे, वह यात्रा फिर शुरू हो जाती है। हर विश्वास सवालों की यात्रा पर ले उसके मुकाबले ना-कुछ होगा, जो अनजाना छूट जाएगा। विज्ञान जाता है। लेकिन रहस्य का बोध सवालों को गिरा देता है और सौ साल में हारा। दार्शनिक हजारों साल कोशिश करके हार गए। मिस्ट्री में, रहस्य में डुबा देता है। और जब कोई व्यक्ति रहस्य में और उन्होंने कहा, कुछ है, जो विचार के बाहर छूट जाता है। इस डूबता है, तो श्रद्धा अंकुरित होती है। बात की प्रतीति कि कछ है. जो विचार के बाहर छट जाता है. श्रद्धा जैसे बीज को अगर पत्थर पर रख दें, तो कभी अंकुर न आएगा। के जन्म का पहला अंकुर है। जीसस कहा करते थे कि मैं एक मुट्ठीभर बीज फेंक दूं अंधेरे में; क्या आपको जीवन रहस्य मालूम पड़ता है, मिस्ट्री? तो आपकी | कुछ पत्थर पर गिरें, कुछ रास्ते पर गिरें, कुछ खेत की मेड़ पर गिरें, जिंदगी में श्रद्धा पैदा हो सकती है। और ध्यान रखें, विश्वासी को | कुछ खेत के बीच की भूमि में गिर जाएं। जो पत्थर पर गिरेंगे, वे जिंदगी मिस्ट्री नहीं मालूम पड़ती है। उसके लिए तो सब खुला हुआ | पड़े ही रहेंगे, वे कभी अंकुरित न होंगे। जो रास्ते पर गिरेंगे, वे मामला है। सब गणित साफ है। वह कहता है, यहां स्वर्ग है, यहां | | अंकुरित होना भी चाहेंगे, रास्ता उन्हें अंकुरित होने के लिए सहायता नर्क है; यहां मोक्ष है, यहां भगवान बैठा हुआ है। यहां यह हो रहा | भी देगा। तो इसके पहले कि वे अंकुरित हों, किन्हीं के पैर उनकी है, वहां वह हो रहा है। सब नक्शा साफ है। विश्वासी के पास पूरा | संभावनाओं को नष्ट कर जाएंगे। खेत की मेड़ पर जो बीज गिरेंगे, गणित है, परामैप है,सब सिद्धांत हैं. सब साफ है। विश्वासी कभी वे अंकरित हो जाएंगे। लेकिन मेड से लोग कभी न कभी गजरते भी रहस्य में नहीं होता। जो आदमी रहस्य में होता है, वह श्रद्धा में | हैं, वे भी बच न सकेंगे। खेत के ठीक बीच में जो बीज पड़ गए हैं, जा सकता है। मिस्ट्री श्रद्धा का द्वार है। तर्क, गणित, प्रमाण | वे अंकुरित भी होंगे, बड़े भी होंगे, फूल को उपलब्ध भी होंगे। विश्वासों के द्वार हैं। उनसे हम विश्वास निर्मित कर लेते हैं। क्या श्रद्धा का बीज जब रहस्य की भूमि में गिरता है, तभी अंकुरित आपको जिंदगी में रहस्य मालूम होता है? क्या आपको लगता है | होता है। रहस्य की भूमि में श्रद्धा अंकुरित होती है। और श्रद्धावान कि हम कुछ भी नहीं जानते? तो आपकी जिंदगी में श्रद्धा पैदा हो ही-और ध्यान रहे, श्रद्धावान से मेरा मतलब कभी भी भूलकर सकती है। विश्वास करने वाला नहीं है-श्रद्धावान अर्थात वह जो जीवन को कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, जो श्रद्धापूर्वक अर्थात जो जीवन के | रहस्य की भांति अनुभव करता है। ऐसा व्यक्ति, कृष्ण कहते हैं, रहस्य को अंगीकार करता है...। अगर मेरे मार्ग पर आ जाए...और ऐसा व्यक्ति सदा ही पूरा का और जो जीवन के रहस्य को अंगीकार करता है, उसके पास | | पूरा आ जाता है। क्योंकि रहस्य खंड-खंड नहीं बनाता, तर्क संदेह का उपाय नहीं बचता। यह भी समझ लेना जरूरी है। आप में | खंड-खंड बनाता है। संदेह तभी तक उठते हैं, जब तक आप विश्वास को पकड़ते हैं, यह भी खयाल में ले लें कि तर्क एनालिटिक है; तर्क तोड़ता है; क्योंकि सब संदेह विश्वास के खिलाफ उठते हैं। जिस आदमी का तर्क चल ही नहीं सकता तोड़े बिना। तर्क प्रिज्म की तरह है। जैसे कोई विश्वास नहीं, उसके भीतर कोई संदेह भी नहीं पैदा होता। कि कांच के प्रिज्म में से हम सूरज की किरण निकालें, तो सात संदेह पैदा होते हैं विश्वास के खिलाफ। टुकड़ों में टूट जाती है। ऐसे ही तर्क के प्रिज्म से कुछ भी निकले, आपने विश्वास किया कि परमात्मा ने दुनिया बनाई, तब सवाल तो खंड-खंड हो जाता है। तर्क तोड़ता है, एनालिटिक है। श्रद्धा 425 Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 AM जोड़ती है, सिंथेटिक है। सब जुड़ जाता है, एक हो जाता है, जैसे | पकड़े हुए है, जैसे कि बाप परमात्मा है, सब उसे मालूम है। किरणें प्रिज्म से वापस लौट गईं और एक हो गईं। एक बेटा आया है और अपनी मां की गोद में सिर रखकर सो रहस्य टोटल है। विश्वास हमेशा पार्शियल है। आप कभी पूरा | गया है-ट्रस्ट! जैसे मां की गोद सारे दुखों के बाहर है, सारी विश्वास नहीं कर सकते। लेकिन आप कभी अधूरे रहस्य में नहीं | | चिंताओं के बाहर है। मां नहीं है बाहर चिंताओं के, मां नहीं है बाहर हो सकते। यह आपने कभी खयाल किया. आप यह नहीं कह दखों के. मां परेशानियों में हो सकती है। लेकिन जो छोटा-सा सकते कि मैं थोड़ा-थोड़ा रहस्य अनुभव कर रहा हूं! रहस्य जब भी |बेटा, दिनभर थका-मांदा बाहर से खेलकर लौट आया है, वह मां अनुभव होता है, तो पूरा अनुभव होता है। रहस्य कभी थोड़ा-थोड़ा की गोद में सिर रखकर सो गया निश्चित, उसे परमात्मा की गोद अनुभव नहीं होता। मिस्ट्री कभी थोड़ी-थोड़ी अनुभव नहीं होती है, | मिल गई-ट्रस्ट। मां को नहीं है, बेटे को है। और इसलिए बेटे के पूरी अनुभव होती है। या तो होती है अनुभव या नहीं होती। लेकिन लिए मां की गोद परमात्मा का स्थान बन सकती है। खुद मां को जब भी होती है, तो पूरी अनुभव होती है। नहीं है वह अनुभव। वह ट्रस्ट ने उस गोद को इतना शांत, और विश्वास सदा थोड़ा-थोड़ा होता है, इसलिए हिस्सा मन का कटा इतने आनंद से भर दिया है। रहता है। रहस्य का अनुभव मन को इकट्ठा कर देता है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो इतनी श्रद्धा से, जैसे कि छोटा बेटा बाप का जितना सरल चित्त व्यक्ति हो, उतने रहस्य को अनुभव कर पाता | हाथ पकड़ ले और बेटा मां की गोद में सिर रखकर सो जाए और है। छोटे बच्चे इसीलिए, उनकी आंखों में, उनके उठने-बैठने, समझे कि अब दुनिया में कोई खतरा नहीं है, कोई इनसिक्योरिटी उनके खेलने में परमात्मा की झलक कहीं-कहीं से दिखाई पड़ती है। नहीं है, अब दुनिया में कोई मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता, अब क्योंकि सारा जीवन रहस्य है। तितलियां उड़ रही हैं, और उनके बात खतम हो गई, अब वह निश्चित सो गया है, अब कोई चिंता लिए हीरे-जवाहरात उड़ रहे हैं। पत्थर खिसक रहे हैं, और उनके नहीं है-इस भांति जो मेरी बात को मानकर चलता है, वह सब लिए स्वर्ग का आनंद उतर रहा है। नदी बह रही है, और उनके लिए कर्मों से मुक्त हो जाता है। द्वार खुला है कुबेर के खजाने का। सब रहस्य है। लेकिन मेरी बात को मानकर चलता है। क्या कृष्ण का मतलब जेकब बोहमे ने कहा है कि जब मैं पहली दफे रहस्य के अनभव यह है कि जो किसी और की बात को मानकर चलता है. वह मक्त को उपलब्ध हुआ, तब मैंने कहा कि मैं भी क्या पागल था! यह नहीं होता? ऐसा मतलब लगाया जाता है; लगाएंगे ही। अनुयायी तो बचपन को ही फिर से पा लेना है। यह तो मैं फिर से बच्चा हो तो ऐसे अर्थ लगाएंगे ही। वे कहेंगे कि देखो, कृष्ण ने कहा है कि गया हूं। मेरी बात को मानकर जो चलता है, तो बाइबिल की बात मत जीसस से किसी ने पछा कि कौन लोग तम्हारे स्वर्ग के राज्य को मानना, नहीं तो भटक जाओगे; कुरान की बात मत मानना, नहीं पाने के अधिकारी होंगे? तो उन्होंने कहा, वे जो बच्चों की भांति | | तो भटक जाओगे। कृष्ण ने साफ कहा है कि जो मेरी बात मानकर फिर से हो जाएंगे। चलता है श्रद्धापूर्वक, वह कर्मों के जाल से मुक्त हो जाता है। इतनी तो बच्चे श्रद्धालु होते हैं। बूढ़े ज्यादा से ज्यादा विश्वासी हो | साफ बात और क्या? अब किसी और की मत मान लेनासकते हैं, बच्चे श्रद्धालु होते हैं। महावीर की मत मानना, बुद्ध की मत मानना। कभी देखा है, बच्चे को बाप का हाथ पकड़े हुए? बाप का हाथ | लेकिन यह बिलकुल गलत अर्थ है। कृष्ण के भीतर से जो कह पकड़कर बच्चा चलता है। उसका हाथ बाप के हाथ को पकड़े हुए, | रहा है कि मेरी बात मानकर जो चलता है, वह पहुंच जाता है, वही देखा है कभी! कितना ट्रस्ट, बाप के हाथ को छोटा-सा बच्चा | बुद्ध के भीतर से कहता है कि मेरी बात मानकर जो चलता है, वह पकड़े हुए, कितना भरोसा! बाप को खुद इतना भरोसा नहीं है कि | पहुंच जाता है। वही क्राइस्ट के भीतर से कहता है कि जो मेरी बात हाथ को संभाल पाएगा कि नहीं संभाल पाएगा; रास्ते का पता है मानकर चलता है, वह पहुंच जाता है। वही मोहम्मद के भीतर से या नहीं है! उसको खुद भी पता नहीं है कुछ भी। लेकिन बेटा उसके कहता है कि जो मेरी बात मानकर चलता है, वह पहुंच जाता है। हाथ को इतने ट्रस्ट...। श्रद्धा के लिए अगर अंग्रेजी में ठीक शब्द | वह जिस मैं की बात चल रही है, वह एक ही है। ये दरवाजे पच्चीस है, तो वह ट्रस्ट है-बिलीफ नहीं, फेथ नहीं-ट्रस्ट। बेटा हाथ | हैं, वह आवाज एक की है। इसलिए इस भ्रांति में मत पड़ना कि जो 426 Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m+ श्रद्धा है द्वार - गीता की बात मानकर चलता है, वही पहुंच जाता है। कुरान की भी पानी वोल्गा से कह रहा है कि मुझे पीयोगे, तो प्यास से मुक्त हो माने तो पहुंच जाएगा, बाइबिल की भी माने तो पहुंच जाएगा। | | जाओगे। गंगा और वोल्गा का फर्क पानी का फर्क नहीं है। गंगा असली सवाल कुरान और बाइबिल का नहीं है, असली सवाल और वोल्गा का फर्क सिर्फ तटों का फर्क है, पानी का फर्क नहीं है। श्रद्धापूर्ण हृदय का है। इसमें एम्फेसिस में फर्क करना चाहता हूं। कृष्ण के तट अलग हैं, बुद्ध के तट अलग हैं। लेकिन जो जल असली सवाल श्रद्धापूर्ण हृदय का है। अगर उतनी ही श्रद्धापूर्ण की धार उनसे बहती है, वह एक ही परमात्मा की है। इसे स्मरण हृदय से कोई जीसस का हाथ पकड ले. तो वहां से भी पहुंच जाता | रखेंगे, तो यह बात ठीक से खयाल में आ सकती है। है। कोई मोहम्मद का हाथ पकड़ ले, तो वहां से भी पहुंच जाता है। असली सवाल यह है कि श्रद्धापूर्ण हृदय, अनासक्त कर्म करता हुआ कर्म के बाहर पहुंच जाता है। और मेरी बात, कृष्ण की बात | प्रश्नः भगवान श्री, आखिरी का श्लोक है, उसका नहीं है। मेरी बात, परमात्मा की बात है। , अर्थ है, सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात कृष्ण सिर्फ झरोखा हैं, जिससे परमात्मा झांका है अर्जुन के | | अपने स्वभाव से परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान सामने। कभी वह मोहम्मद से झांकता है, कभी वह मूसा से झांकता भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है, फिर है। हजार-हजार झरोखों से वह झांकता है। और जब भी झांकता | इसमें किसी का हठ क्या करेगा! इसका अर्थ भी है, तब उसकी आवाज इतनी ही आथेंटिक होती है। वह कहता है, | स्पष्ट करें। मेरी बात मानोगे, तो पहुंच जाओगे। और इससे बड़ा विवाद दुनिया में पैदा होता है। क्योंकि कोई कहते हैं, यह मोहम्मद ने कहा; कोई कहते हैं, यह कृष्ण ने कहा; कोई कहते हैं, क्राइस्ट ने कहा। फिर कष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं समर्पण के लिए, सरेंडर इन तीनों में झगड़ा होता है कि किसकी मानें! वे कहते हैं कि हमारे y० के लिए। वही मूल सूत्र है, जहां से व्यक्ति अपने को गुरु ने कहा है, मेरी। जीसस ने कहा है, मैं हूं मार्ग, मैं हूं द्वार, जो C कोडता और परमात्मा को पाता है। तो वे उस समर्पण मुझ पर चलेगा वह पहुंच जाएगा। आई एम दि वे। आई एम दि के लिए कह रहे हैं कि प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति के गुणों के परवश ट्रथ, मैं हूं सत्य। मैं हूं द्वार। आओ, मुझ पर चलोगे, तो पहुंच | | कर्म करता है, ज्ञानी भी, अज्ञानी भी। और किसी का हठ इसमें कुछ जाओगे। अब वह जीसस का मानने वाला जरूर कहेगा ईसाई कि भी नहीं कर सकता है। जैसे, अज्ञानी भी मरता है, ज्ञानी भी मरता इतना साफ कहा है, और तुम कहां भटक रहे हो? राम को मानोगे, है और किसी का हठ इसमें कुछ भी नहीं कर सकता है। क्योंकि कृष्ण को मानोगे, बुद्ध को मानोगे, भटक जाओगे, नर्क में पड़ोगे। शरीर का गुणधर्म है कि जो पैदा हुआ, वह मरेगा। असल में जिस लेकिन बड़ी भूल हो गई है। पूरी मनुष्यता से भूल हो गई है। यह दिन पैदा हुआ, उसी दिन मरना शुरू हो गया है। जिसका एक छोर जो भीतर से कह रहा है, आई एम दि वे, यह वही है, जो कृष्ण से है, उसका दूसरा छोर भी है। इधर जन्म एक छोर है, मृत्यु दूसरा कह रहा है, अर्जुन, मेरी बात मान, तो कर्म से मुक्त हो जाएगा। छोर है। ज्ञानी भी मरता है, अज्ञानी भी मरता है। और अगर कोई यह एक ही जीवन-धारा का अनेक-अनेक झरोखों से झांकना है। हठ करे कि मैं न मरूंगा, तो वह पागल है। हठ से कुछ भी न होगा। समझें कि गंगा के पास गए और गंगा ने कहा, मेरा लेकिन एक सवाल उठ सकता है कि अगर ज्ञानी भी मरता है, पानी पीयोंगे, तो प्यास से मुक्त हो जाओगे। फिर वोल्गा के किनारे | अज्ञानी भी मरता है; और अगर ज्ञानी भी परवश होकर जीता है और गए और वोल्गा ने कहा, मेरा पानी पीयोगे, तो प्यास से मुक्त हो | | अज्ञानी भी परवश होकर जीता है, तो फिर दोनों में फर्क क्या है? जाओगे। तुमने कहा कि यह तो बड़ा कंट्राडिक्टरी मामला है। गंगा फर्क है, और बड़ा फर्क है। अज्ञानी हठपूर्वक प्रकृति के गुणों से भी यही कहती है, वोल्गा भी यही कहती है; हम किसकी मानें? | लड़ता हुआ जीता है। हारता है, पर लड़ता जरूर है। ज्ञानी जानकर हम तो गंगा को मानने वाले हैं, हम वोल्गा का पानी न पीएंगे। हम कि प्रकृति के गुण काम करते हैं, लड़ता नहीं, इसलिए हारता भी तो गंगा का ही पानी पी नहीं और साक्षीभाव से जीता है। मत्य दोनों की होती है. ज्ञानी की ने कहा था कि मुझे पीयोगे, तो प्यास से मुक्त हो जाओगे, वही | भी, अज्ञानी की भी। अज्ञानी कोशिश करते हुए मरता है कि मैं न समयों गंगा से जिस पानी Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-14 मरूं, ज्ञानी बांहें फैलाकर आलिंगन करता हुआ मरता है कि मृत्यु स्वाभाविक है। इसलिए अज्ञानी मरने की पीड़ा भोगता है; ज्ञानी मरने की कोई पीड़ा नहीं भोगता । अज्ञानी मरने से भयभीत, कांपता हुआ मरता है; ज्ञानी आनंद से पुलकित, नए द्वार से नए जीवन में प्रवेश करता है। दोनों मरते हैं। प्रकृति के क्रम के अनुसार, प्रकृति के गुण के अनुसार दोनों के जीवन में सब कुछ वही घटता है। अज्ञानी भी जवान होता है प्रकृति गुणों से; ज्ञानी भी जवान होता है। अज्ञानी समझ लेता है कि मैं जवान हूं और ज्ञानी समझता है कि जवानी एक फेज़ है, यात्रा का एक पड़ाव है, आया और गया। फिर अज्ञानी जवानी छूटती तो दुखी होता, पीड़ित होता, परेशान होता । ज्ञानी- - छूटती है, तो जैसे सांझ सूरज डूब जाता है, ऐसी जवानी डूब जाती है, वह आगे बढ़ जाता है। ज्ञानी और अज्ञानी में जो फर्क है, वह इतना ही है कि अज्ञानी जो होने ही वाला है, उससे भी व्यर्थ लड़कर परेशान होता है। ज्ञानी जो होने ही वाला है, उसे सहज स्वीकार करके परेशान नहीं होता है। प्रकृति के गुण दोनों पर एक-सा काम करते हैं; उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। प्रकृति ज्ञानी और अज्ञानी को नहीं देखती, प्रकृति का अपना कर्म है, अपनी व्यवस्था है, अपने गुणधर्मों की यात्रा है। प्रकृति वैसी ही चलती रहती है। वह कभी नहीं देखती; देखने का कोई सवाल भी नहीं है। कृष्ण यह कह रहे हैं, इसलिए हठधर्मी व्यर्थ है। क्यों वे अर्जुन से कह रहे हैं? अर्जुन थोड़ी हठधर्मी पर उतारू है। वह कहता है। कि मैं यह क्षत्रिय - वत्रिय होना छोड़कर भागता हूं। मैं युद्ध बंद करता हूं। यह मैं नहीं करूंगा। वह कहता है कि मैं लोगों को नहीं। मारूंगा। कृष्ण यह कह रहे हैं कि मरना जिसे है, वह मरता है; तू नाहक हठधर्मी करता है कि तू नहीं मारेगा, या तू मारेगा; ये दोनों ही हठधर्मियां हैं। जो मरता है, वह मरता है; जो नहीं मरता, वह नहीं मरता है। कृष्ण का गणित बहुत साफ है । वे यह कह रहे हैं कि तू इसमें व्यर्थ हठधर्मी न कर । तू सिर्फ एक पात्र हो जा इस अभिनय का और जो परमात्मा से तेरे ऊपर गिरता है, उसे होने दे। और जो प्रकृति होता है, उसे होने दे। तू इसमें बीच में मत आ, तू अपने को मत ला । ज्ञानी और अज्ञानी में उतना ही फर्क है। घटनाएं वही घटती हैं, रुख अलग हो जाता है; कोण देखने का अलग हो जाता है। बीमारी आ जाती है, तो अज्ञानी छाती पीटकर रोता है कि बीमारी आ गई। 428 ज्ञानी स्वीकार कर लेता है कि बीमारी आ गई। शरीर का धर्म है कि वह बीमार होगा, नहीं तो मरेगा कैसे! नहीं तो वृद्ध कैसे होगा ! शरीर एक बड़ा संस्थान है, एक संघात है, उसमें करोड़ों जीवाणुओं का जोड़ है। उतनी बड़ी मशीनरी चलेगी, खराब भी होगी, ओवर ऑयलिंग की भी जरूरत होगी; रिपेयरिंग भी होगी; वह सब होगा। इतनी बड़ी मशीन अभी पृथ्वी पर दूसरी कोई नहीं | है, जितनी आदमी के पास है। इतनी कांप्लेक्स, इतनी जटिल मशीन भी कोई नहीं है, जितनी अभी आदमी है। आप कोई छोटी-मोटी घटना नहीं हैं। वह तो आपको कुछ करना नहीं पड़ता, इसलिए आपको कुछ पता नहीं चलता कि कितनी बड़ी मशीन काम कर रही है चौबीस घंटे, अहर्निश । मां के पेट में जिस दिन पहले दिन गर्भाधान हुआ था, उस दिन से काम शुरू हुआ; और जब तक लोग चिता पर न चढ़ा देंगे, तब तक जारी रहेगा । चिता पर इसलिए कह रहा हूं कि जिनको हम कब्र में गड़ाते हैं, तो गड़ाने के बाद भी बहुत दिन तक काम जारी रहता है मशीन का । आत्मा तो जा चुकी होती है। मुर्दों के भी नाखून बढ़ जाते हैं, बाल बढ़ जाते हैं कब्र में। मशीन काम ही करती रहती है, मोमेंटम पकड़ जाती है। जैसे कि कोई साइकिल चलाता है, तो घर आने के दस-बीस कदम पहले ही पैडल मारना बंद कर देता है, फिर भी साइकिल चली ही जाती है। यात्री उछलकर उतर भी जाए नीचे, तो साइकिल अकेली ही दस-बीस कदम चली जाती है। मोमेंटम, पुरानी चलने की गति पकड़ जाती है। मुरदे कब्र में अपने नाखून बढ़ा लेते हैं, बाल बढ़ा लेते हैं, वह मशीन काम करती चली जाती है। उन्हें पता ही नहीं लगता एकदम से मशीन को कि मालिक जा चुका है, पता लगते-लगते ही पता लगता है। इसलिए मैंने कहा, चिता तक। जब तक कि हम जला ही नहीं देते, मशीन काम करती चली जाती है, अहर्निश । बहुत आटोमेटिक है, स्वचालित है। फिर उसके अपने गुणधर्म हैं, वे आते रहेंगे। | अज्ञानी हर चीज से परेशान होता है, यह क्यों हो गया ? और कभी-कभी तो ऐसा होता है कि न हो, तो भी परेशान होता है कि ऐसा क्यों नहीं हुआ ? हो गया, तब तो ठीक ही है; नहीं हुआ, तो भी परेशान होता है। एक मेरे मित्र हैं। उनको दमा का दौर पड़ता है, तो परेशान होते हैं । और किसी दिन नहीं पड़ता, तो भी परेशान होते हैं। वे मुझसे कहते हैं कि आज दौर नहीं पड़ा, क्या बात है? उन्हें इससे भी घबड़ाहट लगती है। यह भी एक जीवन का क्रम हो गया उनके कि Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm श्रद्धा है द्वार - दौर पड़ना चाहिए। न पड़े, तो भी बेचैनी होती है कि कुछ गड़बड़ है। | कहा, मैं राजी हूं। लेकिन तुमसे मैं यह पूछता हूं कि अगर मेरी मौत दुख आता है, तो परेशानी होती है; नहीं आता है, तो परेशानी | कल आएगी, तो उसके बाहर तुम निकाल पाओगे कि नहीं? उन होती है। सुख आता है, तो परेशानी होती है; नहीं आता है, तो | मित्रों ने कहा, मौत के बाहर हम कैसे निकाल पाएंगे। तो साक्रेटीज परेशानी होती है। अज्ञानी हर चीज को परेशानी बनाने की कला | ने कहा, फिर क्यों परेशान होते हो? इतनी परेशानी भी क्या! अगर जानता है, हठधर्मी जानता है। हठधर्मी कला है जिंदगी को परेशानी | मरना ही है, और मरना है ही, दिन दो दिन से क्या फर्क पड़ेगा। बनाने की। अगर जिंदगी को परेशानी बनाना है, तो हर चीज में हठ लेकिन दो दिन के लिए मुझे चोर क्यों बनाते हो! नाहक की हठधर्मी किए चले जाइए; जब जो हो, उसके खिलाफ लड़िए; और जब जो क्यों? ठीक है, मौत आती है, तो आ जाए। न हो, उसके खिलाफ भी लड़िए। और फिर आपकी पूरी जिंदगी | | फिर जहर पीस रहा है जो आदमी साक्रेटीज को देने के लिए। एक संताप, एक एंग्विश, एक नर्क बन जाएगी; बन ही गई है। । छह बजे जहर देना है, लेकिन सवा छह बज गया, तो साक्रेटीज कृष्ण कह रहे हैं, इस हठधर्मी में कुछ भी सार नहीं है अर्जुन, | | खुद उठकर बाहर आया और उससे पूछा, बड़ी देर कर रहे हो! जान कि जो होता है, होता है। जो होता है, होता है-ऐसा जान। | उसने कहा, तुम पागल तो नहीं हो! मैं तो तुम्हारी वजह से ही देर जीसस को जिस रात पकड़ा गया और लोग उन्हें सूली पर चढ़ाने कर रहा हूं कि थोड़ी देर और जी लो। साक्रेटीज ने कहा कि पागल के लिए ले जाने लगे। तो जीसस को सांझ कुछ लोगों ने खबर दी | | हो, कितनी देर जिला पाओगे! जब मौत आनी ही है, तो ठीक है; थी। खबर दी थी कि आप पकड़े जाएंगे, रात खतरा है, भाग जाएं। सूरज के रहते आ जाए, तो जरा मैं भी देख लूं कि मौत कैसी होती तो जीसस ने कहा, जो होने वाला है, होगा। फिर वे वहीं गैथस्मेन है। तू अंधेरा किए दे रहा है। के बगीचे में रुके रहे। फिर भी रात मित्रों ने कहा, अभी भी कुछ देर | | यह गैर-हठधर्मी का व्यक्तित्व ही ज्ञान का व्यक्तित्व है। नहीं हुई, अभी भी हम निकल सकते हैं। लेकिन जीसस ने कहा, जो तो कृष्ण कह रहे हैं, तू हठधर्मी मत कर। उतनी ही बात कह रहे होने ही वाला है, उससे कब कौन निकल पाया है! फिर दुश्मनों की हैं। और हठधर्मी कर, तो समर्पण न कर सकेगा। और हठधर्मी न आवाज सुनाई पड़ने लगी, मशालें दिखाई पड़ने लगीं कि लोग उन्हें कर, तो समर्पण कर सकता है। समर्पण वही कर सकता है, जो खोज रहे हैं। लोगों ने, शिष्यों ने, मित्रों ने कहा, देखते हैं, मशालें हठधर्मी नहीं करता है। वह आदमी समर्पण कभी नहीं कर सकता अंधेरे में दिखाई पड़ती हैं। मालूम होता है, वे आते हैं। तो जीसस ने है, जो हठधर्मी करता है। कहा, अगर उन्हें पहुंचना ही है, तो रास्ता जरूर उन्हें मिल जाएगा। अब यह, यह ज्ञानी का लक्षण है। साक्रेटीज को जहर दिया जा रहा है। अदालत ने साक्रेटीज से प्रश्नः भगवान श्री, एक मित्र पूछते हैं, कृष्ण जिस कहा कि तुम एथेंस छोड़कर चले जाओ, तो हम तुम्हें मुक्त कर श्रद्धा की बात करते हैं, वह श्रद्धा अंधश्रद्धा भी हो सकते हैं, जहर नहीं देंगे। साक्रेटीज से कहा कि अगर तुम एथेंस में सकती है। कृष्ण ने विवेक शब्द का उपयोग क्यों नहीं भी रहो और सत्य बोलना बंद कर दो, तो हम तुम्हें मुक्त कर दें और किया, जो श्रद्धा से कहीं ज्यादा सार्थक शब्द है? जहर न दें। साक्रेटीज ने कहा, मैं कछ भी नहीं कह सकता। सत्य कृपया इसे स्पष्ट करें। बोला जाना होगा, तो बोला जाएगा; और नहीं बोला जाना होगा, तो नहीं बोला जाएगा। मैं वायदा कल के लिए कैसे करूं? मुझे पक्का नहीं कि कल होगा भी कि नहीं होगा! तो मैं कैसे प्रामिस कर OT द्धा कभी भी अंधश्रद्धा नहीं हो सकती, सिर्फ विश्वास सकता हूं? मैं वायदा कैसे कर सकता हूं? तुम अपने जहर का 1 ही अंधविश्वास हो सकता है। सच तो यह है कि इंतजाम कर लो। मैं कोई वायदा नहीं कर सकता। कल का क्या विश्वास अंधविश्वास होता ही है। श्रद्धा कभी अंधी पता, क्या होगा? जो होगा, मैं राजी हूं। नहीं हो सकती है। नहीं हो सकने का कारण है। नहीं हो सकने का फिर मित्रों ने कहा कि यह तो बड़ी गलत बात है। हम रिश्वतखोरी कारण है। कारण यह है कि श्रद्धा मनुष्य के समग्र व्यक्तित्व की करके और आपको जेल से निकाले ले जाते हैं रात में। साक्रेटीज ने एकता है, पूर्ण व्यक्तित्व की एकता है। जैसा मैंने कहा, इंटिग्रेटेड 4291 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 AM माइंड का नाम श्रद्धा है; एकजुट हुए मन का नाम श्रद्धा है। और परमात्मा में छोड़ देते हैं, तब आप और परमात्मा संयुक्त होकर जो अगर इकट्ठा मन ही आपका अंधा है, तो फिर आपकी आंख का अनुभव घटित होता है, वह श्रद्धा है। विवेक व्यक्ति निर्भर है, श्रद्धा कोई उपाय नहीं, क्योंकि कोई जगह और बची नहीं। श्रद्धा का अर्थ | समष्टि निर्भर है। विवेक बूंद का है, श्रद्धा सागर की है। बूंद जब है, पूरा, आप में जो भी चेतना है, वह पूरी है। तो अगर पूरी चेतना | | तक अपने बलबूते जीती है, तब तक विवेक है। ठीक जीए तो विवेक भी आंख न बने, तो फिर और क्या आंख बन सकेगा। | और गलत जीए तो अविवेक। लेकिन बूंद जब जीती ही नहीं अपनी __ जितनी चेतना इकट्ठी होती है, उतनी आंख बन जाती है। चेतना | | तरफ से, सागर में अपने को छोड़ देती है और कहती है, सागर का जितनी इकट्ठी, योगस्थ होती है, उतनी देखने वाली, दर्शन के योग्य | | जीवन ही अब मेरा जीवन है, तब श्रद्धा है। हो जाती है। इसलिए हमने सत्य के अनुभव को दर्शन कहा। श्रद्धा बहुत विराट है। विवेक बहुत सीमित है। आपकी सीमा क्योंकि जब चेतना पूरी जागकर एक हो जाती है, तो पूरी आंख बन विवेक की सीमा है, आपकी सीमा श्रद्धा की सीमा नहीं है। इसलिए जाती है और देखती है सत्य को। इसलिए हमने सत्य के साक्षात्कार श्रद्धा असीम है और विवेक सीमित है। विवेक फाइनाइट है और की बात कही है, दिखाई पड़ता है। श्रद्धा इनफाइनाइट है। विवेक में आप ही हैं, भूल-चूक हो सकती श्रद्धा कभी भी अंधी नहीं हो सकती। और अगर अंधी हो, तो | है। क्योंकि आप सर्वज्ञ नहीं हैं, इसलिए विवेक में सदा गलती हो जानना कि वह विश्वास है। वही मैं फर्क कर रहा हूं। विश्वास अंधा | | सकती है। श्रद्धा में गलती का कोई उपाय ही नहीं है, क्योंकि आपने होता है, अविश्वास भी अंधा होता है। आमतौर से लोग समझते | | परमात्मा पर ही छोड़ दिया। और अगर परमात्मा से ही गलती होती हैं, विश्वास अंधा होता है। हम कहते हैं, ब्लाइंड बिलीफ, लेकिन | | है, तो फिर अब गलती से बचने की कोई जरूरत भी नहीं है, कोई ब्लाइंड डिसबिलीफ जैसा शब्द हम आमतौर से उपयोग नहीं करते। कारण भी नहीं है। फिर बचिएगा भी कैसे? हम कहते हैं, अंधा विश्वास, लेकिन अंधा अविश्वास! कभी विवेक भटक सकता है, श्रद्धा कभी नहीं भटकती। विवेक चूक खयाल किया आपने? अंधा अविश्वास भी होता है। | सकता है, श्रद्धा अचूक है। क्योंकि विवेक आपका ही है आखिर, एक नास्तिक कहता है, मैं ईश्वर को नहीं मानता। यह आंख | श्रद्धा सिर्फ आपकी नहीं है। श्रद्धा का मतलब ही है कि अपने से वाला अविश्वास है ? इस नास्तिक ने ईश्वर को जाना है? खोजा अब न होगा; अपने हाथ नहीं पहुंच पाते उतनी दूर, जहां सत्य है; है? सब जगह देख ली है, जहां-जहां हो सकता था, फिर कह रहा | अपनी छलांग नहीं लग पाती उस खाई में, जहां परमात्मा है; अपने है कि नहीं है? नहीं, यह कह रहा है कि नहीं, यह बात नहीं है। | से न होगा। जिस क्षण इस हेल्पलेस, इस असहाय स्थिति का चंकि आप ईश्वर को सिद्ध नहीं कर पाते, इसलिए हम कहते हैं कि अनुभव होता है कि हमारी सीमा है, हमसे न होगा, उसी क्षण श्रद्धा नहीं है। कोई सिद्ध न कर पाए, तो भी सिद्ध नहीं होता कि नहीं है। | जगती है। तब हम कहते हैं, अब तू ही कर, अब मुझसे तो नहीं इतना ही सिद्ध होता है कि है, यह सिद्ध नहीं हो पा रहा है। होता; अब मैं नहीं चल पाता, अब तू ही चला; अब मेरे हाथ काम अविश्वास भी अंधा होता है, विश्वास भी अंधा होता है। लेकिन नहीं करते, अब तू ही हाथ पकड़; अब मेरे पैर नहीं उठते, अब तू जो व्यक्ति न विश्वास में होता, न अविश्वास में होता, उसको ही उठा तो उठा। जिस क्षण व्यक्ति का थक पहली बार आंख मिलती है। | उसी थकान से आविर्भाव होता है उस श्रद्धा का, जो विराट से एक लेकिन खयाल में मुझे आया कि आप क्या चाहते हैं। आपने | कर देती है। कहा, विवेक शब्द और ऊपर है। विवेक बहुत बड़ा शब्द नहीं है। और ध्यान रहे, विवेक में बहुत ___नहीं, बहुत ऊपर नहीं है। विवेक और श्रद्धा में कुछ बुनियादी गहरे विचार छिपा है। वह, कहें कि विचार का सार अंश है, कहें अंतर है। वह मैं आपको खयाल दिला दूं। कि बहुत विचार का निचोड़ है, कहें कि जैसे बहुत फूलों को विवेक व्यक्ति की घटना है—आपकी। आप ही सोच- निचोड़कर कोई इत्र बना ले, ऐसा बहुतं विचारों को निचोड़कर कोई विचारकर, खोज-बीनकर जो तय कर लेते हैं, वह विवेक है। आप इत्र बना ले, तो उसका नाम विवेक है। लेकिन श्रद्धा निर्विचार है। ही। लेकिन श्रद्धा आपकी घटना नहीं है। आप खोज-बीनकर, वह किसी विचार का इत्र नहीं है। वह किन्हीं फूलों का इत्र नहीं है। सोच-विचारकर भी पाते हैं कि नहीं पाया जाता और अपने को वह हमारा अनुभव ही नहीं है। हमारे अनुभव की असमर्थता है। सब, उसी क्षण |4304 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m श्रद्धा है द्वार पर इसलिए श्रद्धा बहुत बड़ा शब्द है। हैं कि अब किसी आदमी पर भरोसा नहीं करना; यह अविवेक है। पर यह मैं जरूर कहूंगा कि श्रद्धा तक वे ही पहुंचते हैं, जो सच तो यह है कि जिस आदमी ने आज आपको धोखा दिया, वह विवेकवान हैं; वे नहीं पहुंचते, जो विवेकहीन हैं। इतना कहूंगा। | भी कल धोखा देगा, यह जरूरी नहीं है। आदमी बदल जाते हैं। और इतना ही उपयोग है विवेक का। विवेकहीन श्रद्धा तक कभी और आपको एक आदमी ने धोखा दिया और सारी मनुष्यता पर से नहीं पहंचते। विवेकहीन अश्रद्धा तक पहुंच जाते हैं। विवेकवान | आपका विश्वास उठ गया! बड़ी अविवेक की बात है। बड़ी श्रद्धा तक पहुंच जाते हैं। क्या मतलब मेरा? विवेकहीन अश्रद्धा | विवेकहीन बात है। एक जगह ठोकर लग गई, तब सारी दुनिया में तक पहुंच जाते हैं। मैंने अभी आपको कहा कि श्रद्धा का मैं अर्थ | ठोकर लगेगी, यह निर्णय ले लिया! करता हूं, ट्रस्ट, भरोसा। भरोसा-सहज, सरल। अश्रद्धा का अर्थ | ___ एक दिन ऐसा हुआ कि मैं एक ट्रेन में सवार था। एक स्टेशन करता हूं, गैर-भरोसा-कठिन, जटिल—किसी का भी नहीं; | पर रुकी बहुत देर तक। एक आदमी भीख मांगने खिड़की पर आया परमात्मा तो दूर है, किसी का भी नहीं, भरोसा ही नहीं। अंततः | और उसने कहा कि मैं बड़ी मुसीबत में हूं। मैंने कहा, तुम मुसीबत अपना भरोसा भी नहीं। | मत बताओ, क्योंकि मुसीबत बताने में तुम्हारा भी समय जाया एक आदमी को मैं जानता हूं, मेरे गांव में मेरे घर के सामने रहते | | होगा, मेरा भी। तुम मुझे यह कहो कि मैं क्या कर सकता हूं? उसने थे। ताला लगाते हैं, दस कदम फिर लौटकर आकर ताला हिलाकर | मेरी तरफ देखा, उसको शक हुआ, क्योंकि बिना मुसीबत बताए देखते हैं। फिर जाते हैं, फिर देखते हैं कि किसी ने देखा तो नहीं | किसी को फंसाया नहीं जा सकता। क्योंकि जब वह पूरी मुसीबत एक दफे लौटा हुआ! फिर लौटते हैं, फिर हिलाकर देखते हैं। एक | बता ले और पांच मिनट आप सुन लें, तो फिर इनकार करने में दिन मैं छत पर बैठा देख रहा था। दो बार मैंने देखा, मैंने सोचा, | | कठिनाई हो जाती है। तो उसने कहा कि नहीं, मेरी मुसीबत...। तीसरी बार भी यह आदमी जरूर लौटेगा। क्योंकि जब दो बार में | मैंने कहा कि तुम मुसीबत की बात ही मत करो। तुम मुझे यह भरोसा नहीं आया कि ताला लगा है कि नहीं, तो तीसरी बार में कैसे | | कहो कि क्या कर सकता हूं? उसने बड़ी हिम्मत जुटाकर कहा कि आएगा! लेकिन उस आदमी ने भी मुझे देख लिया। तो ठीक जगह, एक रुपया दे दें। मैंने कहा, तुम एक रुपया लो। इतनी सरलता से जहां से वह लौटता था, उस जगह जाकर उसके पैर थोड़े-से | | छूटती है बात! तुम नाहक मुसीबत मुझे बताओ, मैं तुम्हारी मुसीबत डगमगाए। मैंने कहा, लौट आओ। उसने कहा कि मैं आपके ही सुनूं। तुम यह रुपया लो और जाओ। वह आदमी बड़ी बेचैनी में डर से तो लौट नहीं रहा। तो मैंने कहा कि यहां मेरे पास आओ। गया। उसने बार-बार रुपए को देखा भी होगा, फिर लौटकर मुझे बात क्या है? उसने कहा, मुझे भरोसा ही नहीं होता। ऐसा लगता भी देखा कि यह आदमी भरोसे का नहीं मालूम पड़ता। क्या गड़बड़ है कि पता नहीं भूल-चूक से खुला ही न रह गया हो! और पता है! कुछ मैंने कहा ही नहीं, कोई मुसीबत नहीं सुनी। होता तो ऐसा नहीं कि मैंने हिलाकर देखा भी है या नहीं देखा! | है कि मुसीबत पूरी बताओ, तब भी कोई कुछ नहीं देता। और उसने अब वह आदमी इतनी दफे देख चुका है हिलाकर कि शक हो सोचा कि यह आदमी...! जाना बिलकुल स्वाभाविक है। अब यह जो आदमी है, यह अश्रद्धा | पांच सात मिनट बाद वह वापस आया। टोपी लगाए था, वह को उपलब्ध हुआ। यह अश्रद्धा टोटल हो गई। यह पत्नी पर भरोसा | | उतारकर रख आया। उसने आकर फिर खिड़की पर कहा कि मैं बड़ी नहीं कर सकता, बेटे पर भरोसा नहीं कर सकता, मित्र पर भरोसा | | मुसीबत में हूं। मैंने कहा, मुसीबत की बात ही मत करो। तुम मुझे नहीं कर सकता। यह अपने ही हाथों पर भरोसा नहीं कर सकता। | यह बताओ कि तुम्हें मैं क्या कर सकता हूं? उसने मुझे पूरी आंख यह अपनी ही बुद्धि पर भरोसा नहीं कर सकता। इसका सब भरोसा | | से देखा कि मैं पागल तो नहीं हूं! उसने बड़ी हिम्मत जुटाई, उसने खो गया। अब ऐसा अश्रद्धावान जीते जी मर गया। पर यह इतनी | | सोचा कि ऐसा नहीं हो सकता कि यह आदमी भूल ही गया हो, अश्रद्धा कैसे आई होगी? यह अविवेक के कारण आई है। | सिर्फ टोपी अलग कर लेने से। और वही की वही बात। उसने बहुत अविवेक का क्या मतलब? अविवेक का मतलब, विवेक का | | हिम्मत जुटाकर कहा कि मुझे दो रुपए...! मैंने कहा, तुम यह दो गलत उपयोग किया है इसने। | रुपए लो। वह फिर मुझे बार-बार लौटता हुआ देखे, रुपए देखे। अगर आपको एक आदमी ने धोखा दे दिया, तो आप समझते दो-तीन मिनट बाद वह फिर आ गया। कोट पहने था, उसको 431 Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Om गीता दर्शन भाग-1-m भी उतार आया। खिड़की पर आया। मैंने उससे पहले ही कहा कि और श्रद्धा की अपनी आंख है। लेकिन वह आंख तर्क जैसी नहीं तू शुरू ही मत कर कि तू मुसीबत बता। उसने कहा, आप आदमी है, वह आंख प्रेम जैसी है। वह आंख चीर-फाड़ करने वाली नहीं कैसे हो? मैं वही आदमी हूं, आपको समझ नहीं आ रहा है! मैंने है, वह आंख छेद देने वाली नहीं है। आंखों में भी फर्क होता है। कहा, मैं तो यह समझ रहा हूं कि तुम नहीं समझ रहे हो कि मैं वही जब कभी कोई आपको प्रेम से देखता है. तो आंख और होती है। आदमी हूं। मैं तो इस खयाल में हूं। वह मेरे तीन रुपए वापस लौटाने वह आपको चीरती-फाड़ती नहीं, सर्जरी नहीं करती है वह आंख। लगा। उसने कहा कि रुपए रख लो आप। रुपए मैं नहीं लूंगा। रुपए आपके भीतर कहीं घाव हों, तो उनको जोड़ देती है और मलहम तुम ले जाओ। रुपए तुमने कमाए हैं, तुमने मेहनत पूरी की है। वह | कर जाती है। कभी प्रेम की आंख फाड़ती नहीं, काटती नहीं, रुपए रखकर छोड़ गया दरवाजे पर। उसने कहा, रुपए मैं नहीं | विश्लेषण नहीं करती। प्रेम की आंख आपको जोड़ जाती है, फांकों लूंगा। मैंने कहा, बात क्या है? रुपए क्यों नहीं लेते? उसने कहा को इकट्ठा कर जाती है। आपके भीतर घाव हों, तो पूर जाती है। प्रेम कि जिस आदमी ने मुझ पर इतना भरोसा किया, उसे मैं इस तरह की आंख आपको इंटिग्रेट कर जाती है। लेकिन घृणा की आंख? धोखा नहीं दे सकता हूं। घृणा की आंख आपको टुकड़े-टुकड़े कर जाती है, छार-छार काट एक आदमी धोखा दे जाए, सारी दुनिया ने धोखा दे दिया हमें। देती है। अब हम सबसे सम्हले हुए बैठे हैं। हालांकि बचाने को पास में कुछ __ हमारे पास एक शब्द है, लुच्चा। लुच्चा हम कहते हैं बुरे आदमी भी नहीं है। सम्हले हुए बैठे हैं! को। आपने कभी सोचा कि लुच्चा का मतलब क्या होता है? ___ अविवेक अश्रद्धा पर ले जाता है। धीरे-धीरे सब तरफ अश्रद्धा लुच्चा संस्कृत के लोचन शब्द से बना है, आंख से। जिसकी आंख हो जाती है। विवेक श्रद्धा पर ले जाता है। और धीरे-धीरे सब तरफ चीर-फाड़ कर देती है किसी के भीतर जाकर, वह लुच्चा। लुच्चा श्रद्धा हो जाती है। अविवेक वहां पहुंचा देता है, जहां सिवाय धोखे का मतलब होता है, इस तरह देखने वाला आदमी कि उसकी आंख के और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। और विवेक वहां पहुंचा देता | भीतर छुरी की तरह प्रवेश कर जाती है। उसकी आंख छुरी की तरह है, जहां सिवाय भरोसे के और कुछ दिखाई नहीं पड़ता है। काम करती है। तो लुच्चे को पहचानने का और कोई रास्ता नहीं है, तो मैं समझता हूं कि विवेक का मूल्य है, बट एज ए मीन्स, एक सिवाय आंख के, आंख से। हम क्रिटिक को आलोचक कहते हैं। तरह। श्रद्धा तक पहुंचा दे, यही उसका मूल्य है। लेकिन वह भी आंख से बनता है। आलोचक, वह भी लोचन से ही बनता विवेक श्रद्धा से बड़ा शब्द नहीं है। श्रद्धा बड़ी गहरी अनुभूति है। | | है। आलोचक उसे कहते हैं, जो बड़ी खोज-बीन करके देखता है __इस जगत में इससे बड़ा कोई आनंद नहीं है कि मुझे समग्र भरोसा | |कि कहां क्या है। आ जाए कि सब परमात्मा है। इस जगत में इससे बड़ी कोई । | आंखें बहुत तरह की हैं। तर्क की भी अपनी आंख है, उसी से निश्चितता नहीं है कि मुझे स्मरण आ जाए कि सब तरफ मैं ही हूं। विज्ञान का जन्म होता है। श्रद्धा की अपनी आंख है, उसी से धर्म इस जगत में इससे बड़ी कोई अनुभूति नहीं है कि सब हाथ मेरे, सब का जन्म होता है। श्रद्धा तर्क की नजरों में अंधी हो सकती है। श्रद्धा आंखें मेरी, सब पैर मेरे। ऐसी प्रतीति का नाम श्रद्धा है। जिस दिन की नजरों में तर्क बिलकुल विक्षिप्त है; अंधा ही नहीं, पागल भी। कोई पराया दिखाई ही नहीं पड़ता है कहीं, उसी दिन परमात्मा दिखाई | | लेकिन वह बड़े अलग कोणों पर खड़े होकर जीवन को देखना है। पड़ता है। उसी को हम समर्पण कह सकते हैं। हां, जिसने तर्क से ही दुनिया को देखा, वह कहेगा, श्रद्धा अंधी कष्ण समर्पण की ही बात समझा रहे हैं। विवेक समर्पण तक ले होती है। लेकिन जिसने श्रद्धा के और ऊंचे पर्वत शिखर से देखा, जाए, तो काफी है। लेकिन विवेक स्वयं समर्पण नहीं बनता। वह कहेगा, तर्क विक्षिप्त है। विवेक सिर्फ बता सकता है कि तुम असमर्थ हो अपने में। बस, और ध्यान रहे, श्रद्धा तक कोई भी नहीं पहंचता, जो तर्क से न इतना निगेटिव काम कर सकता है कि वह कह दे कि तम न पा गजरा हो। और जो श्रद्धा पर पहुंच जाए. वह कभी तर्क पर नहीं सकोगे सत्य को। बस इतना। इतना भी पता चल जाए, तो विवेक | पहुंचता। इसलिए श्रद्धा वाले को तर्क और श्रद्धा दोनों का अनुभव ने काम पूरा कर दिया। अब आप छलांग लगा सकते हैं, वहां, जहां होता है, तर्क वाले को सिर्फ तर्क का अनुभव होता है। और जिसको परम श्रद्धा है। | एक का अनुभव हो, उसकी बात बहुत भरोसे की नहीं होती। 432 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mश्रद्धा है द्वार - जिसको दोनों का अनुभव है, उसकी बात ही भरोसे की होती है। - अध्यात्म-चेतना तीसरे तरह की है। न तो वह सत्य को उघाड़ती और न सत्य को ढांकती, वह सत्य के साथ स्वयं को लीन करती है। विज्ञान उघाड़ता, कला ढांकती। धर्म एक हो जाता। अध्यात्म, प्रश्नः भगवान श्री, अगले श्लोक में जाने के पहले सत्य क्या है, इसे नहीं जानना चाहता; सत्य कैसा होना चाहिए, इसे एक छोटा-सा प्रश्न और। श्लोक क्रमांक तीस में | | नहीं बनाना चाहता; अध्यात्म स्वयं ही सत्य हो जाना चाहता है। कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि अध्यात्म चेतसा होकर | | अध्यात्म की जिज्ञासा संघर्ष की नहीं, अध्यात्म की जिज्ञासा संवारने संपूर्ण कर्मों को मुझे समर्पित करके तू युद्ध कर। कृपया | | की नहीं, अध्यात्म की जिज्ञासा तल्लीनता की है, लीन हो जाने की अध्यात्म चेतसा होकर, इसका अर्थ पुनः स्पष्ट करें। है। सत्य जो है, उसी में डूब जाना चाहता है। वह जैसा भी हो–सुंदर-असुंदर-सत्य जैसा भी है, अध्यात्म उसमें डूब जाना चाहता है। विज्ञान दुश्मन की तरह व्यवहार करता। कला मित्र की 11 नुष्य के पास तीन प्रकार की चेतनाएं हो सकती हैं, थ्री | तरह व्यवहार करती। अध्यात्म भेद ही नहीं रखता मित्र और शत्रु UI टाइप्स आफ कांशसनेस। एक विज्ञान चेतना, एक का, अभेद व्यवहार करता है। कला चेतना और एक अध्यात्म चेतना। मनुष्य तीन ___ कृष्ण कहते हैं अर्जुन से कि तू अध्यात्म चेतसा होकर, चेतनाओं से जीवन के सत्य से संबंधित हो सकता है. तीन ढंग. तीन | आध्यात्मिक चेतन संपन्न होकर समर्पण को उपलब्ध हो। एप्रोच। एक विज्ञान की एप्रोच है, एक अध्यात्म की या धर्म की और ___ठीक ही कहते हैं। क्योंकि अध्यात्म चेतन ही समर्पण कर सकता एक कला या आर्ट की। ठीक है, इन तीनों का अंतर समझ लेना है। विज्ञान कभी समर्पण नहीं करता। विज्ञान समर्पण कर दे, तो जरूरी भी है। अध्यात्म चेतस, स्प्रिचुअल कांशसनेस क्या है? | बेकार हो गया। अगर एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में समर्पण कर दे, विज्ञान की चेतना अन्वेषण करती है; सत्य क्या है, इसकी खोज तो विज्ञान खतम। विज्ञान लड़ता है, प्रकृति को समर्पित करवाने की करती है। विज्ञान-चेतना सत्य क्या है, इसकी खोज करती है, कोशिश करता है; खुद समर्पण कभी नहीं करता। वैज्ञानिक योद्धा अन्वेषण करती है, डिस्कवर करती है। जो ढंका है, उसे उघाड़ती की तरह जूझता है। और प्रकृति से कहता है, तू समर्पण कर, अपने है, निर्वस्त्र करती है, तथ्य को नग्न करती है। कला-चेतना, आर्ट रहस्यों को उघाड़, अपने वस्त्रों को अलग कर, अपने तथ्यों को कांशसनेस, जो है, उसे सजाती और संवारती है; उघाड़ती नहीं, प्रकट कर, मेरे सामने समर्पित हो। विज्ञान योद्धा की तरह, प्रकृति ढांकती है-आभूषणों से, वस्त्रों से, रंगों से, कविताओं से, लयों को शत्रु की भांति लेकर जीतने की कोशिश करता है। से, छंदों से। विज्ञान उघाड़ता, नग्न तथ्य को खोजता, नैकेड टूथ, ___ कला लड़ती नहीं, प्रकृति को फुसलाती है, परसुएड करती है। क्या है? विज्ञान तथ्य के साथ दुश्मन की भांति लड़ता है, वह कहती है, जो भी है, कोई फिक्र नहीं। लेकिन हमारा मन चाहता कांफ्लिक्ट, जूझता है; सत्य को जीतने की कोशिश करता है, है, ऐसा हो। उमर खय्याम ने गीत गाया है, कि अगर मेरा बस चले, कांकरिंग। कला सत्य को ढांकती, जहां-जहां कुरूप है, असुंदर है, तो सारी दुनिया को मिटाकर फिर अपने मन की दुनिया ढंग से बना वहां-वहां संदर का निर्माण करती. तथ्यों को स्वप्न बनाती. जिंदगीलं। कवि वही करता है। नहीं बस चलता यहां तो कविता में बना के सीधे-सादे रंगों को रंगीन करती, काव्य देती, फिक्शन देती। | लेता है। चित्रकार वही करता है। सुंदर नहीं मिलता ऐसा पृथ्वी पर काव्य संजोता-संवारता, तथ्य जो है, उसे उघाड़ता नहीं, ढांकता, कोई, तो एक मूर्ति बना लेता है। कला संवारती है, ढांकती है, डेकोरेट करता, डेकोरेटिव है। इसलिए विज्ञान कई दफा ऐसे तथ्य शृंगार करती है-प्रेयस बन जाए जगत, जीवन प्रिय हो जाए, बस। उघाड़ लेता है, जो बड़े संघातक सिद्ध होते हैं। और कला कई बार अध्यात्म न मित्र है, न शत्रु। अध्यात्म कहता है, जो है, उसके जीवन की ऐसी अभद्रताओं को ढांक जाती है, जो अप्रीतिकर हो | | साथ मैं एक होना चाहता हूं। कला सृजन करती, विज्ञान अन्वेषण सकती थीं। | करता, धर्म समर्पण करता। कला क्रिएटिव है, विज्ञान इनवेंटिव है, अध्यात्म चेतस, कृष्ण कहते हैं, अध्यात्म चेतस होकर तू धर्म सरेंडरिंग है। इसलिए कृष्ण कहते हैं कि तू अध्यात्म चेतस हो, समर्पण कर। तो ही समर्पण को उपलब्ध हो सकता है। 433 Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक आखिरी सूत्र और ले लें। गीता दर्शन भाग-1 इन्द्रियस्येन्द्रियस्थार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ । तयोर्न वशमागच्छेत्तौ हास्य परिपन्थिनौ ।। ३४ ।। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि इंद्रिय इंद्रिय के अर्थ में अर्थात सभी इंद्रियों के भोगों में स्थित जो राग और द्वेष हैं, उन दोनों के वश में न होवे। क्योंकि वे दोनों ही कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महाशत्रु हैं। वन के सारे अनुभव द्वंद्व के अनुभव हैं। जीवन का सारा विस्तार ही द्वंद्व और द्वैत, डुएलिटी का पोलर, ध्रुवीय विस्तार है। यहां कुछ भी नहीं है ऐसा, जिसके विपरीत न हो। यहां कुछ भी नहीं है ऐसा, जिसका प्रतिकूल न हो। यहां कुछ भी नहीं है ऐसा, जिससे उलटा न हो। जगत का सारा अस्तित्व पोलर है, ध्रुवीय है। ठीक वैसे ही जैसे एक आर्किटेक्ट, एक वस्तु शिल्पकार, एक भवन निर्माता द्वार बनाता है। तो कभी आपने देखा, द्वार पर वह कोई सहारे नहीं लेता। सिर्फ उलटी ईंटों को गोलाई में जोड़ देता है। सिर्फ ईंटों को उलटा और गोलाई में जोड़ देता है और आर्च बन जाता है। वह सारा भवन, भवन का सारा वजन उस गोलाई पर टिक जाता है। कभी आपने खयाल किया कि बात क्या है? उन उलटी ईंटों का जो तनाव है, टेंशन है; वे उलटी ईंटें एक-दूसरे को दबाती हैं, पूरे भवन के वजन को उठा ती हैं। अगर एक-सी ईंटें लगा दी जाएं, एक कोने से दूसरे कोने तक एक ही रुख वाली ईंटें लगा दी जाएं, तो भवन तत्काल गिर जाएगा, बन ही नहीं सकता । जीवन का सारा भवन उलटी ईंटों पर टिका हुआ है। यहां सुख की भी ईंट है और दुख की भी ईंट है। यहां राग की भी ईंट है और विराग की भी ईंट है। यहां प्रेम की भी ईंट है और घृणा की भी ईंट है। और ध्यान रहे, इस जगत में अकेली प्रेम की ईंट पर भवन निर्मित नहीं हो सकता, घृणा की ईंट भी उतनी ही जरूरी है। यहां मित्र भी उतना ही जरूरी है, शत्रु भी उतना ही जरूरी है। यहां सब उलटी चीजें जरूरी हैं। क्योंकि उलटे के तनाव पर ही जीवन खड़ा होता है। यह बिजली जल रही है, उसमें निगेटिव और पाजिटिव के पोल जरूरी हैं। अगर वह एक ही पोल हो, तो अभी अंधकार हो जाए। | ये हम इतने पुरुष - स्त्रियां यहां बैठे हुए हैं, स्त्री और पुरुष के अस्तित्व के लिए स्त्री और पुरुष का विरोध और जरूरी है। वह जिस दिन समाप्त हो जाए, उस दिन सब समाप्त हो जाए। द्वैर्भर है। कृष्ण कहते हैं अर्जुन से, इंद्रियों के सब अनुभव द्वंद्वग्रस्त हैं। वहां सुख आता है, तो पीछे दुख आता है। वहां सुख आता है, तो दुख को निमंत्रण देकर ही आता है। वहां दुख आता है, तो जल्दी मत करना, धैर्य मत खोना, पीछे सुख आता ही होगा। जैसे लहर के पीछे ढलान आता है, और जैसे पहाड़ के पीछे खाई आती है, ऐसे ही प्रत्येक अनुभव के पीछे विपरीत अनुभव आता है। आ ही रहा है। जब लहर आ रही है सागर की, तो समझें कि पीछे लहर का गड्डा भी आ रहा है! क्योंकि बिना उस | गड्ढे के लहर नहीं हो सकती। और जब पहाड़ देखें, उत्तुंग शिखर आकाश को छूता, जान लेना कि पास ही खाई भी है, खड्ड भी पाताल को छूती । दोनों के बिना दोनों नहीं हो सकते। जब वृक्ष आकाश में उठता है छूने को तारों को, तो उसकी जड़ें नीचे जमीन में उतर जाती हैं पाताल को छूने को । अगर जड़ें नीचे न जाएं, तो वृक्ष ऊपर नहीं जा सकता । सारा जीवन विरोध पर खड़ा है। इसलिए एक बहुत अदभुत घटना मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि घटती है। हम उलटा काम करते हैं। हम सदा यह कोशिश करते हैं कि दो में से एक बच जाए, जो | हो नहीं सकता। हम इस कोशिश में लगते हैं कि मकान ऐसा बनाएं कि इकतरफा, एक रुख वाली ईंटों पर भवन खड़ा हो जाए। दबेंगे उसी के नीचे और मरेंगे। ऐसा भवन खड़ा नहीं हो सकता। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो आदमी घृणा नहीं कर सकता, वह आदमी प्रेम भी नहीं कर सकता। हालांकि सब हमें समझाते हैं कि प्रेम करो, घृणा मत करो। लेकिन जो आदमी घृणा नहीं कर सकता, वह प्रेम भी नहीं कर सकता। सब हमें समझाते हैं कि किसी को शत्रु मत मानो, सबको मित्र मानो। लेकिन जो आदमी शत्रु नहीं बना सकता, वह आदमी मित्र भी नहीं बना सकता। है जीवन का ऐसा ही कठोर सत्य । जो आदमी क्रोध नहीं कर सकता, वह क्षमा भी नहीं कर सकता। हालांकि हम कहते हैं, क्षमा करो, क्रोध मत करो। | लेकिन क्रोध न करोगे, तो क्षमा क्या खाक ? किसको ? और कैसे ? और किस प्रकार ? जीवन वैपरीत्य पर निर्भर है। यह हमें खयाल में न आए, तो हम एक को बचाने की कोशिश में लग जाते हैं। अज्ञानी एक को बचाने 434 Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + श्रद्धा है द्वार 4 कोशिश करता है। ज्ञानी क्या करेगा? या तो ज्ञानी दोनों को छोड़ दे – दोनों को छोड़ दे, तो तत्क्षण जीवन के बाहर हो जाएगा, जीवन के भीतर नहीं रह सकता। या दोनों को एक साथ स्वीकार कर ले। कृष्ण दूसरी सलाह दे रहे हैं। वे कह रहे हैं, तू दोनों को एक साथ स्वीकार कर ले। यहां सुख भी है, यहां दुख भी है। जन्म भी है, मृत्यु भी है। इंद्रियां अच्छा भी लाती हैं, बुरा भी लाती हैं। इंद्रियां प्रीतिकर को भी जन्माती हैं, अप्रीतिकर को भी जन्माती हैं । इंद्रियां सुख का भी आधार बनतीं और दुख का भी आधार बनतीं। ज्ञानी इन दोनों के जोड़ को, अनिवार्य जोड़ को जानकर दोनों में रहते हुए भी दोनों के बाहर हो जाता है, साक्षी हो जाता है। समझता है कि ठीक है; सुख आया तो ठीक है; दुख आया तो ठीक है। क्योंकि वह जानता है कि वे दोनों ही आ सकते हैं। इसलिए वह इस भूल में नहीं पड़ता कि एक को बचा लूं और दूसरे को छोड़ दूं। वह इस उपद्रव में नहीं पड़ता है। अज्ञानी उसी उपद्रव में पड़ता है और बेचैन हो जाता है। ज्ञानी चैन में होता है, बेचैन नहीं होता। इसका यह मतलब नहीं कि ज्ञानी पर दुख नहीं आते। ज्ञानी पर दुख आते हैं, लेकिन ज्ञानी दुखी नहीं होता। इसका यह मतलब नहीं कि ज्ञानी पर सुख नहीं आते। ज्ञानी पर सुख आते हैं, लेकिन ज्ञानी सुखी नहीं होता। किस अर्थ में सुखी नहीं होता? इस अर्थ में सुखी नहीं होता कि जो भी आता है, वह उससे अपना तादात्म्य, अपनी आइडेंटिटी नहीं करता है। सुख आता है, तो वह कहता है, ठीक है; सुख भी आया, वह भी चला जाएगा। दुख आता है, वह कहता है, ठीक है; दुख भी आया, वह भी चला जाएगा। और मैं, जिस पर दुख और सुख आते हैं, दोनों से अलग हूं। ऐसा पृथकत्व, ऐसा भेद - अपने अलग होने के अनुभव को वह कभी भी नहीं छोड़ता और खोता । - वह जानता है, सुबह आई, सांझ आई; प्रकाश आया, अंधेरा आया तो न तो वह कहता है कि मैं अंधेरा हो गया और न वह कहता है कि मैं प्रकाश हो गया। न वह कहता है कि मैं दुख गया, न वह कहता है कि मैं सुख हो गया। वह कहता है, मुझ पर दुख आया, मुझ पर सुख आया, मुझ पर आया, मैं नहीं हो गया हूं। मैं अलग खड़ा हूं। मैं देख रहा हूं, यह सुख आ रहा है। सागर के तट पर बैठे, यह आई लहर, डुबा गई और यह गई लहर। आप लहर हो जाएं, तो मुश्किल में पड़ जाएंगे। आप लहर नहीं होते। लेकिन जिंदगी के सागर में लहरें आती हैं और आप लहर ही हो जाते हैं। आप कहते हैं, मैं दुखी हो गया। इतना ही कहिए कि दुख की लहर आ गई। भीग गए हैं बिलकुल, चारों तरफ दुख की लहर ने घेर लिया है। डूब गए हैं बिलकुल । लेकिन हैं तो अलग ही । यह | रहा दुख, यह रहा मैं सुख आए, एकदम सुखी हो जाते हैं। दीवाने हो जाते हैं। पैर जमीन पर नहीं पड़ते। आंखें यहां-वहां देखती नहीं, आकाश में अटक जाती हैं। हृदय ऐसे धड़कने लगता है कि पता नहीं कब बंद हो जाए। सुख हो जाते हैं। न, सुख की लहर आई है, ठीक है, आ जाने दें, डुबाने दें, जाने दें। तब समझें कि सागर है जीवन का। आता है सुख, आता है दुख; मित्र आते हैं, शत्रु आते हैं; सम्मान-अपमान, गाली आती, प्रशंसा आती। कभी कोई फूलमालाएं डाल जाता, कभी कोई पत्थर फेंक जाता। जीवन में दोनों आते रहते हैं। ज्ञानी दोनों को देखकर अपने को तीसरा जानता है। ऐसा अनासक्त हुआ व्यक्ति, कृष्ण कहते हैं, जीवन के समस्त | बंधन से, जीवन के सारे कारागृह से मुक्त हो जाता है। शेष कल बात करेंगे। 435 Page #466 --------------------------------------------------------------------------  Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AM अध्याय 3 नौवां प्रवचन परधर्म, स्वधर्म और धर्म Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m+ गीता दर्शन भाग-1 AM श्रेयान्स्वधमों विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । जाए। गुलाब का फूल कमल होने की कोशिश में पड़ जाए, तो स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।। ३५।। | जैसी बेचैनी में गुलाब का फूल पड़ जाएगा। और बेचैनी दोहरी अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से, होगी। एक तो गुलाब का फूल कमल का फूल कितना ही हो गुणरहित भी, अपना धर्म अति उत्तम है। चाहे, हो नहीं सकता है; असफलता सुनिश्चित है। गुलाब का फूल अपने धर्म में मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म | कुछ भी चाहे, तो कमल का फूल नहीं हो सकता। न कमल का भय को देने वाला है। फूल कुछ चाहे, तो गुलाब का फूल हो सकता है। वह असंभव है। | स्वभाव के प्रतिकूल होने की कोशिश भर हो सकती है, होना नहीं हो सकता। 11 त्येक व्यक्ति की अपनी निजता, अपनी इंडिविजुएलिटी | ___ इसलिए गुलाब का फूल कमल का फूल होना चाहे, तो कमल प्र है। प्रत्येक व्यक्ति का कुछ अपना निज है; वही उसकी | | का फूल तो कभी न हो सकेगा, इसलिए विफलता, फ्रस्ट्रेशन, हार, आत्मा है। उस निजता में ही जीना आनंद है और उस | हीनता उसके मन में घूमती रहेगी। और दूसरी उससे भी बड़ी निजता से च्युत हो जाना, भटक जाना ही दुख है। दुर्घटना घटेगी कि उसकी शक्ति कमल होने में नष्ट हो जाएगी और कृष्ण के इस सूत्र में दो बातें कृष्ण ने कही हैं। एक, स्वधर्म में | वह गुलाब भी कभी न हो सकेगा। क्योंकि गुलाब होने के लिए जो मर जाना भी श्रेयस्कर है। स्वधर्म में भूल-चूक से भटक जाना भी | शक्ति चाहिए थी, वह कमल होने में लगी है। कमल हो नहीं श्रेयस्कर है। स्वधर्म में असफल हो जाना भी श्रेयस्कर है, बजाय | | सकता; गुलाब हो नहीं सकेगा, जो हो सकता था, क्योंकि शक्ति परधर्म में सफल हो जाने के। सीमित है। उचित है कि गुलाब का फूल गुलाब का फूल हो जाए। स्वधर्म क्या है? और परधर्म क्या है? प्रत्येक व्यक्ति का स्वधर्म | | और गुलाब का फूल चाहे छोटा भी हो जाए, तो भी हर्ज नहीं। न है। और किन्हीं दो व्यक्तियों का एक स्वधर्म नहीं है। पिता का धर्म | हो बड़ा फूल कमल का, गुलाब का फूल छोटा भी हो जाए, तो भी भी बेटे का धर्म नहीं है। गुरु का धर्म भी शिष्य का धर्म नहीं है। हर्ज नहीं है। और अगर न भी हो पाए, गुलाब होने की कोशिश भी यहां धर्म से अर्थ है, स्वभाव, प्रकृति, अंतःप्रकृति। प्रत्येक व्यक्ति | कर ले, तो भी एक तृप्ति है; कि जो मैं हो सकता था, उसके होने की अपनी अंतःप्रकृति है, लेकिन है बीज की तरह बंद, अविकसित, | की मैंने पूरी कोशिश की। उस असफलता में भी एक सफलता है पोटेंशियल है। और जब तक बीज अपने में बंद है, तब तक बेचैन | कि मैंने वह होने की पूरी कोशिश कर ली, कुछ बचा नहीं रखा था, है। जब तक बीज अपने में बंद है और खिल न सके, फूट न सके, कुछ छोड़ नहीं रखा था। अंकुर न बन सके, और फूल बनकर बिखर न सके जगत सत्ता में, लेकिन जो गुलाब कमल होना चाहे, वह सफल तो हो नहीं तब तक बेचैनी रहेगी। जिस दिन बीज अंकुरित होकर वृक्ष बन | सकता। अगर किसी तरह धोखा देने में सफल हो जाए, आत्मवंचना जाता है, फूल खिल जाते हैं, उस दिन परमात्मा के चरणों में वह | में, सेल्फ डिसेप्शन में सफल हो जाए, सपना देख ले कि मैं कमल अपनी निजता को समर्पित कर देता है। फूल के खिले हुए होने में | | हो गया...सपने ही देख सकता है, परधर्म में कभी हो नहीं सकता। जो आनंद है, वैसा ही आनंद स्वयं में जो छिपा है, उसके खिलने सपना देख सकता है कि मैं हो गया। भ्रम में पड़ सकता है कि मैं हो में भी है। और परमात्मा के चरणों में एक ही नैवेद्य, एक ही फूल | गया। तो वैसी सपने की सफलता से वह छोटा-सा गुलाब हो जाना, चढ़ाया जा सकता है, वह है स्वयं की निजता का खिला हुआ | असफल, बेहतर है। क्योंकि एक तृप्ति का रस सत्य से मिलता है, फूल-फ्लावरिंग आफ इंडिविजुएलिटी। और कुछ हमारे पास | स्वप्न से नहीं मिलता है। चढ़ाने को भी नहीं है। कृष्ण ने यहां बहुत बीज-मंत्र कहा है। अर्जुन को वे कह रहे हैं जब तक हमारे भीतर का फूल पूरी तरह न खिल पाए, तब तक | कि स्वधर्म में-जो तेरा धर्म हो उसकी तू खोज कर। पहले तू हम संताप, दुख, बेचैनी, तनाव में जीएंगे। इसलिए जो व्यक्ति | | इसको खोज कि त क्या हो सकता है। तू अभी दूसरी बातें मत खोज परधर्म को ओढ़ने की कोशिश करेगा, वह वैसी ही मुश्किल में पड़ कि तेरे वह होने से क्या होगा। सबसे पहले तू यह खोज कि तू क्या जाएगा, जैसे चमेली का वृक्ष चंपा के फूल लाने की कोशिश में पड़ हो सकता है। तू जो हो सकता है, उसका पहले निर्णय ले ले। और 14381 Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm परधर्म, स्वधर्म और धर्म 4AR फिर वही होने में लग जा। और सारी चिंताओं को छोड़ दे। तो ही | की क्षमता असीम है। अक्सर बुढ़ापे में कवि अपनी पुरानी तू किसी दिन संतृप्ति के अंतिम मुकाम तक पहुंच सकता है। | कविताओं को फिर-फिर लिखने लगते हैं। चित्रकार चुक जाते हैं परधर्म लेकिन हम ओढ़ लेते हैं। इसके दो कारण हैं। एक तो | | और फिर उन्हीं चित्रों को पेंट करने लगते हैं, जिनको वे कई दफा स्वधर्म तब तक हमें पूरी तरह पता नहीं चलता, जब तक कि फूल कर चुके। थोड़ा बहुत हेर-फेर, और फिर वही पेंट करते हैं। आदमी खिल न जाए। गुलाब को भी पता नहीं चलता तब तक कि उसमें | की सीमाएं हैं। से क्या खिलेगा, जब तक गुलाब खिल न जाए। तो बड़ी कठिनाई खलील जिब्रान ने अपनी पहली किताब, प्रोफेट, इक्कीस साल है, स्वधर्म क्या है! मर जाते हैं और पता नहीं चलता; जीवन हाथ | की उम्र में लिखी, बस चुक गया। फिर बहुत किताबें लिखीं, लेकिन से निकल जाता है और पता नहीं चलता कि मैं क्या होने को पैदा वे सब पुनरुक्तियां हैं। फिर प्रोफेट के आगे कोई बात नहीं कह हुआ था! परमात्मा ने किस मिशन पर भेजा था! कौन-सी यात्रा पर सका। इक्कीस साल में मर गया, एक अर्थ में। एक अर्थ में, भेजा था। मुझे क्या होने को भेजा था! मैं किस बात का दूत होकर खलील जिब्रान इक्कीस साल में मर जाए, तो कोई बड़ी हानि होने पृथ्वी पर आया था, इसका मरते दम तक पता नहीं चलता। वाली नहीं थी। जो वह दे सकता था, दिया जा चुका था, चुक गया। न पता चलने में सबसे बड़ी जो बाधा है, वह यह है कि चारों ___ अगर पिकासो के चित्र उठाकर देखें, तो पुनरुक्ति ही है फिर। तरफ से परधर्म के प्रलोभन मौजूद हैं, जो कि पता नहीं चलने देते फिर वही-वही दोहरता रहता है। फिर आदमी जुगाली करता है, कि स्वधर्म क्या है। गुलाब तो खिला नहीं है, अभी उसे पता नहीं । | जैसे भैंस घास खा लेती है और जुगाली करती रहती है। अंदर जो है, लेकिन बगल में कोई कमल खिला है, कोई चमेली खिली है, | | डाल लिया, उसी को निकालकर फिर चबा लेती है। कोई चंपा खिली है। वे खिले हुए हैं, उनकी सुगंध पकड़ जाती है, | - लेकिन परमात्मा जुगाली नहीं करता, अनंत है उसकी उनका रूप पकड़ जाता है, उनका आकर्षण, उनकी नकल पकड़ सृजनशीलता, इनफिनिट क्रिएटिविटी। जो एक दफा बनाया, जाती है और मन होता है कि मैं भी यही हो जाऊं। महावीर के पास | | बनाया। उस माडल को फिर नहीं दोहराता। लेकिन हमारा मन होता से गुजरेंगे, तो मन होगा कि मैं भी महावीर हो जाऊं। खिला फूल | | है कि किसी को देखकर हम आकर्षित हो जाते हैं कि ऐसे हो जाएं। है वहां। बुद्ध के पास से गुजरेंगे, तो मन होगा, कैसे मैं बुद्ध हो | | बस, भूल की यात्रा शुरू हो गई। जाऊं! क्राइस्ट दिखाई पड़ जाएंगे, तो प्राण आतुर हो जाएंगे कि | ___ परधर्म लुभाता है, क्योंकि परधर्म खिला हुआ दिखाई पड़ता है। ऐसा ही मैं कब हो जाऊं! कृष्ण दिखाई पड़ जाएंगे, तो प्राण नाचने | स्वधर्म का पता नहीं चलता, क्योंकि वह भविष्य में है। परधर्म लगेंगे और कहेंगे, कृष्ण कैसे हो जाऊं! अभी है, पड़ोस में खिला है; वह आकर्षित करता है कि मैं भी खुद का तो पता नहीं कि मैं क्या हो सकता हूं; लेकिन आस-पास ऐसा हो जाऊं। खिले हुए फूल दिखाई पड़ सकते हैं। और उनमें भटकाव है। क्योंकि | कृष्ण जब कहते हैं कि स्वधर्म में हार जाना भी बेहतर है, परधर्म कृष्ण, इस पृथ्वी पर कृष्ण के सिवाय और कोई दूसरा नहीं हो सकता | | में सफल हो जाने के बजाए, तो वे यह कह रहे हैं कि परधर्म से है। उस दिन नहीं, आज भी नहीं, कल भी नहीं, कभी नहीं। परमात्मा सावधान। परधर्म भयावह है। इससे बड़ी फिअरफुल कोई चीज पुनरुक्ति करता ही नहीं है, रिपिटीशन करता ही नहीं है। परमात्मा नहीं है जगत में, परधर्म से। दूसरे को अपना आदर्श बना लेने से बहुत मौलिक सर्जक है। उसने अब तक दुबारा एक आदमी पैदा नहीं बड़ी और कोई खतरनाक बात नहीं है, सबसे ज्यादा इससे भयभीत किया। हजारों साल बीत गए कृष्ण को हुए, दूसरा कृष्ण पैदा नहीं होना। लेकिन हम इससे कभी भयभीत नहीं हैं। हम तो अपने बच्चों हुआ। हजारों साल बुद्ध को हो गए, दूसरा बुद्ध पैदा नहीं हुआ। को कहते हैं कि विवेकानंद जैसे हो जाओ, रामकृष्ण जैसे हो जाओ, हालांकि लाखों लोगों ने कोशिश की है बुद्ध होने की, लेकिन कोई बुद्ध जैसे हो जाओ, मोहम्मद जैसे हो जाओ। जैसे कि परमात्मा बुद्ध नहीं हुआ। और हजारों लोगों ने आकांक्षा की है क्राइस्ट होने चुक गया हो, कि मोहम्मद को बनाकर अब कुछ और अच्छा नहीं की, लेकिन कहां कोई क्राइस्ट होता है! बस, एक बार। | हो सकता है, कि कृष्ण को बनाकर अब कुछ होने का उपाय नहीं ___ इस पृथ्वी पर पुनरुक्ति नहीं है। पुनरुक्ति तो सिर्फ वे ही करते | | रहा है। जैसे परमात्मा हार गया और अब आपके लिए सिर्फ हैं, जिनके सृजन की क्षमता सीमित होती है। परमात्मा की सृजन रिपिटीशन के लिए भेजा है, पुनरुक्ति के लिए, डिट्टो आपको 1439 Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ im गीता दर्शन भाग-1 AM लगाकर भेज दिया है कि बस हो जाओ किसी के जैसे। जैसे कार्बन | | अज्ञात में छलांग लगाने, जहां कोई नहीं गया है। कापी होने का ही आपका अधिकार है। इसलिए परधर्म आकर्षक मालूम पड़ता है। क्योंकि परधर्म में नहीं. परमात्मा चकता नहीं है। कष्ण के इस सत्र में बडे कीमती सिक्योरिटी मालम पडती है। नक्शा मिलता है न परधर्म में। हमें अर्थ हैं, भयावह है परधर्म। अगर भयभीत ही होना है, तो मौत से | | पता है, बुद्ध ने क्या-क्या किया है। तो ठीक वैसे ही पालथी मारकर भयभीत मत होना। कृष्ण नहीं कहेंगे कि मौत से डरो। जो आदमी | | हम भी कुछ करें, तो नक्शा हमारे पास होता है। हमें पता है, कृष्ण कहता है, मौत से मत डरो, वह आदमी कहता है, परधर्म से डरो! ने क्या किया। तो ठीक है, हम भी एक बांसुरी खरीद लाएं और मौत से भी ज्यादा खतरनाक है परधर्म! क्यों? क्योंकि परधर्म | | किसी झाड़ के नीचे खड़े होकर बजाएं। नक्शे हैं पास में। परधर्म स्युसाइडल है। जिस आदमी ने दूसरे के धर्म को स्वीकार कर लिया, | में नक्शा है, स्वधर्म अनचार्टर्ड है। कोई नक्शा नहीं, कोई उसने आत्महत्या कर ली। उसने अपनी आत्मा को तो मार ही डाला, | कुतुबनुमा नहीं, कोई रास्ता बताने वाला नहीं। क्योंकि आप ही अब वह दूसरे की आत्मा की कापी ही बनने की कोशिश में रहेगा। पहली दफा उस यात्रा पर जा रहे हैं, जो आपका स्वधर्म है। इसलिए और कोई कितनी ही कोशिश करे, आवरण ही बदल सकता है। | आदमी डरकर दूसरे के रास्ते पर चला जाता है। बंधे-बंधाए रास्ते, भीतर की आत्मा तो जो है अपनी, वही है। वह कभी दूसरे की नहीं | | तैयार पगडंडियां, राजपथ लुभाते हैं कि बंधा हुआ रास्ता है, लोग हो सकती। भयावह है मृत्यु से भी ज्यादा परधर्म, क्योंकि आत्मघात | उस पर जा चुके हैं पहले भी, मैं भी इस पर चला जाऊं। है। आत्मघात जिसे हम कहते हैं, उससे भी ज्यादा भयावह है। __ लेकिन ध्यान रहे, दूसरे के रास्ते से कोई अपनी मंजिल पर नहीं क्योंकि जिसे हम आत्मघात कहते हैं, उसमें सिर्फ शरीर मरता है, | | पहुंच सकता है। जब रास्ता दूसरे का, तो मंजिल भी दूसरे की। और और जिसे कृष्ण भयावह कह रहे हैं, उसमें आत्मा को ही हम | | दूसरे की मंजिल पर पहुंच जाने से बेहतर, अपनी मंजिल को खोजने दबाकर मार डालते हैं, आत्मा को ही घोंट डालते हैं। | में भटक जाना है। क्योंकि भटकना भी सीख बन जाती है। और दूसरे के धर्म से सावधान होने की जरूरत है और स्वधर्म पर | भूल भी सुधारी जा सकती है। और भूल से, आदमी भूल करने से दृष्टि लगाने की जरूरत है। इस बात की खोज करने की जरूरत है | | बचता है। भूल ज्ञान है। अपनी खोज में भटकना और गिरना भी कि मैं क्या होने को हूं? मैं क्या हो सकता हूं? मेरे भीतर छिपा बीज | उचित। दूसरे की खोज में अगर बिलकुल राजपथ है, तो भी व्यर्थ, क्या मांगता है? और साहसपूर्वक उस यात्रा पर निकलने की क्योंकि वह आपके मंदिर तक नहीं पहुंचता। जरूरत है। स्वधर्म दुस्साहस है। अज्ञात दुस्साहस है। अनजान, अपरिचित, इसलिए धर्म सबसे बड़ा दुस्साहसिक काम है, सबसे बड़ा | | यहां रास्ता बना-बनाया नहीं है। यहां तो चलना और रास्ता बनाना, एडवेंचर है। न तो चांद पर जाना इतना दुस्साहसिक है, न एवरेस्ट एक ही बात के दो ढंग हैं कहने के। यहां तो चल पर चढ़ना इतना दुस्साहसिक है, न प्रशांत महासागर की गहराइयों | है। एक बीहड़ जंगल में आप चलते हैं और रास्ता बनता है। जितना में डूब जाना इतना दुस्साहसिक है, न ज्वालामुखी में उतर जाने में | | चलते हैं, उतना ही बनता है। बेकार है। क्योंकि रास्ता होना चाहिए इतना दुस्साहस है, जितना दुस्साहस स्वधर्म की यात्रा पर निकलने | | चलने के पहले, तो उसका कोई सहारा मिलता है। आप चलते हैं में है। क्यों? क्योंकि भला चाहे एवरेस्ट पर कोई न पहुंचा हो, | | जंगल में, लताएं टूट जाती हैं, वृक्षों को हटा लेते हैं, जगह साफ लेकिन बहुत लोगों ने पहुंचने की कोशिश की है। भला कोई ऊपर | | कर लेते हैं, लेकिन उससे कोई हल नहीं होता। आगे फिर रास्ता तक तेनसिंह और हिलेरी के पहले न पहुंचा हो, लेकिन आदमी के | बनाना पड़ता है। चरण-चिह्न काफी दूर तक, एप्रॉक्सिमेटली करीब-करीब पहुंच | स्वधर्म में चलना ही मार्ग का निर्माण है। इसलिए भटकन तो गए हैं। यात्री जा चुके उस रास्ते पर। चाहे प्रशांत महासागर में कोई | निश्चित है। लेकिन भटकन से जो भयभीत है, वह कहीं परधर्म की इतना गहरे न गया हो, लेकिन लोग जा चुके हैं। लोग निर्णायक सुरक्षापूर्ण, सिक्योर्ड यात्रा पर निकल गया, तो कृष्ण कहते हैं, वह रास्ता छोड़ गए हैं। लेकिन स्वधर्म की यात्रा पर, आपके पहले और भी भयपूर्ण है। क्योंकि यहां तुम भटक सकते थे, लेकिन वहां धर्म की यात्रा पर कोई भी नहीं गया, बिलकुल अननोन तुम पहुंच ही नहीं सकते हो। भटकने वाला पहुंच सकता है। है; एक इंच कोई नहीं गया। आप ही जाएंगे पहली बार एकदम भटकता वही है, जो ठीक रास्ते पर होता है। 440 Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + परधर्म, स्वधर्म और धर्म +m जरा इसे समझ लेना उचित होगा। भटकता वही है, जो ठीक तो जीवनभर पाएगा कि किसी मुसीबत में पड़ा है; कैसे छुटकारा रास्ते पर होता है, क्योंकि तभी उसे भटकाव का पता चलता है कि हो इस मुसीबत से! जो कवि हो सकता था, वह गणितज्ञ हो जाए, भटक गया। लेकिन जो बिलकुल गलत रास्ते पर होता है, वह कभी | तो कठिनाई खड़ी होने वाली है; बहुत कठिनाई खड़ी हो जाने वाली नहीं भटकता, क्योंकि भटकने के लिए कोई मापदंड ही नहीं होता। है। क्योंकि इन दोनों के जीवन को देखने के ढंग ही भिन्न हैं। इन दूसरे के रास्ते पर आप कभी नहीं भटकेंगे; रास्ता मजबूती से दोनों के सोचने की प्रक्रिया अलग है। इनके पास आंखें एक-सी दिखाई पड़ेगा; कोई चल चुका है। आप लकीर पीटते हुए चले | | दिखाई पड़ती हैं, एक-सी हैं नहीं। जाएं। लेकिन स्वधर्म के रास्ते पर भटकाव का डर है, साहस की ___ मैंने सुना है, एक जेलखाने में दो आदमी एक ही दिन बंद किए जरूरत है। गए। सांझ, पूर्णिमा की रात, चांद निकला है। दोनों सीखचों को इसलिए मैं कहता हूं, धर्म बहुत जोखिम है। और उसी जोखिम पकड़कर खड़े हैं। एक के चेहरे पर इतना आह्लाद है कि जैसे उसे की वजह से, उसी रिस्क की वजह से हम दूसरे का धर्म चुन लेते | स्वर्ग का खजाना मिल गया हो, जेल के सीखचों के भीतर! दूसरे के हैं। बेटा बाप का चुन लेता है, शिष्य गुरु का चुन लेता है, चेहरे पर ऐसा क्रोध है कि अगर उसका बस चले, तो सब आग लगा पीढ़ियां-दर-पीढ़ियां एक-दूसरे के पीछे चलती चली जाती हैं। कोई | दे, जैसे नर्क में खड़ा हो। तो उस दूसरे आदमी ने पास खड़े आदमी इसकी फिक्र नहीं करता कि दूसरे का धर्म मेरा धर्म नहीं हो सकता | से कहा, इतने प्रसन्न दिखाई पड़ रहे हो, पागल तो नहीं हो! यह है। मैं एक स्वभाव लेकर आया हूं, जिसका अपना स्वर है, जिसका जेलखाना है; इतनी प्रसन्नता? और सामने देखते हो, डबरा भरा हुआ अपना संगीत है, जिसकी अपनी सुगंध है, जिसका अपना जीने का | है, गंदगी फैली हुई है; बास आ रही है; मच्छड़-कीड़े घूम रहे हैं। ढंग है। उस ढंग को मुझे विकसित करना होगा। कहां बंद किया हुआ है हमें लाकर! उस दूसरे आदमी ने कहा, तुमने · कृष्ण बहुत जोर देकर अर्जुन से कहते हैं, तू ठीक से पहचान ले, | कहा तो मुझे याद आया कि जेल के भीतर हूं, अन्यथा मैं पूर्णिमा के तेरा स्वधर्म क्या है। और अर्जुन अगर आंख बंद करे और जरा चांद के पास पहुंच गया था। मुझे पता ही नहीं था कि मैं जेल के भीतर ध्यान करे, तो वह कह सकता है कि उसका स्वधर्म क्या है। हम | हूं। और तुम कहते हो तो मुझे दिखाई पड़ता है कि सामने डबरा है, कभी आंख बंद नहीं करते, नहीं तो हम भी कह सकते हैं कि हमारा अन्यथा पूर्णिमा का चांद जब ऊपर उठा हो, तो डबरे सिर्फ पागल स्वधर्म क्या है। हम कभी खयाल नहीं करते कि हमारा स्वधर्म क्या देखते हैं. डबरे को देखने की फर्सत कहां? आंख कहां? है। और इसीलिए कोई चीज हमें तृप्त नहीं करती है। जहां भी जाते | ये दोनों आदमी एक ही साथ खड़े हैं, एक ही जेलखाने में। इन हैं, वहीं अतृप्ति। दोनों के पास एक-सी आंखें हैं, लेकिन एक-सा स्वधर्म नहीं है; आज सारी दुनिया उदास है और लोग कहते हैं, जीवन अर्थहीन । स्वधर्म बिलकुल भिन्न है। अब वह आदमी कहता है, मुझे पता ही है। अर्थहीन नहीं है जीवन, सिर्फ स्वधर्म खो गया है। इसलिए नहीं था कि मैं जेलखाने में हूं। जब पूर्णिमा का चांद निकला हो, तो अर्थहीनता है। दूसरे के काम में अर्थ नहीं मिलता। अब एक आदमी कैसे पता हो सकता है कि जेलखाने में हूं। वह दूसरा आदमी जो गणित कर सकता है, वह कविता कर रहा है! अर्थहीन हो कहेगा, पागल हो गए हो! जब जेलखाने में हो, तो पूर्णिमा का चांद जाएगी कविता। सिर्फ बोझ मालूम पड़ेगा कि इससे तो मर जाना निकल ही कैसे सकता है? ठीक है न! जब जेलखाने में बंद है बेहतर है। यह कहां का नारकीय काम मिल गया। अब जो गणित आदमी, तो पूर्णिमा का चांद निकलता है कहीं जेलखानों में! कर सकता है, वह कविता कर रहा है। गणित और बात है, | | जेलखानों में कभी पूर्णिमा नहीं होती, वहां अमावस ही रहती है। बिलकुल और। उसका काव्य से कोई लेना-देना नहीं है। काव्य में | | पर ये दो आदमी, इनके देखने के दो ढंग। और दो ढंग ही होते, तो दो और दो पांच भी हो सकते हैं, तीन भी हो सकते हैं। गणित में | भी ठीक था। जितने आदमी उतने ढंग हैं। दो और दो चार ही होते हैं। वहां इतनी सुविधा नहीं है, इतनी लोच | स्वधर्म का मतलब है, पृथ्वी पर जितनी आत्माएं हैं, उतने धर्म नहीं है। गणित बहुत सख्त है। काव्य बहुत लोचपूर्ण, फ्लेक्सिबल | | हैं, उतने स्वभाव हैं। दो कंकड़ भी एक जैसे खोजना मुश्किल हैं, है। काव्य तो एक बहाव है। गणित एक बहाव नहीं है। | दो आदमी तो खोजना बहुत ही मुश्किल है। सारी पृथ्वी को छान अब जो गणितज्ञ हो सकता था, वह कवि होकर अगर बैठ जाए, डालें, तो दो कंकड़ भी नहीं मिल सकते, जो बिलकुल एक जैसे 441 Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1 हों। आदमी बड़ी घटना है। कंकड़ों तक के संबंध में परमात्मा खुशी कैसे मिले? सच बात यह है कि खुशी सिर्फ स्वधर्म के व्यक्तित्व देता है, तो आदमी के संबंध में तो देता ही है। फलफिलमेंट से मिलती है और किसी तरह मिलती नहीं है। बाकी इसलिए कृष्ण कहते हैं, खोज, पीछे देख, लौटकर देख, तू क्या सब समझाने की तरकीबें हैं, कन्सोलेशंस हैं। सिर्फ आदमी को हो सकता है! अर्जुन को कृष्ण, अर्जुन से भी ज्यादा बेहतर ढंग से | | आनंद उसी दिन मिलता है, जिस दिन उसके भीतर का बीज पूरा जानते हैं। कृष्ण की आंखें अर्जुन को आर-पार देख पाती हैं। | खिल जाता है और फूल बन जाता है। उस दिन वह परमात्मा के अब पश्चिम में मनोविज्ञान कह रहा है कि प्रत्येक नर्सरी स्कूल | चरणों में समर्पित कर पाता है। उस दिन वह धन्यभागी हो जाता है। में, किंडरगार्टन में, प्रत्येक प्राइमरी स्कूल में मनोवैज्ञानिक होने | | उस दिन वह कह पाता है, प्रभु तेरी अनुकंपा है, तेरी कृपा है; चाहिए, जो प्रत्येक बच्चे का एप्टिट्यड-अगर कृष्ण की भाषा में धन्यभागी हं कि तने मझे पथ्वी पर भेजा है। अन्यथा जिंदगीभर वह कहें, तो स्वधर्म-उस बच्चे का झुकाव पता लगाएं। और | | कहता रहता है कि मेरे साथ अन्याय हुआ है; मुझे क्यों पैदा किया मनोवैज्ञानिक कहे कि इस बच्चे का यह झुकाव है, तो बाप उस | | है? क्या वजह है मुझे सताने की? मुझे क्यों न उठा लिया जाए? बच्चे का कुछ भी कहे कि इसको डाक्टर बनाना है, अगर कामू ने अपनी एक किताब का प्रारंभ एक बहुत अजीब शब्द से मनोवैज्ञानिक कहे कि चित्रकार, तो बाप की नहीं चलनी चाहिए। | किया है। लिखा है, दि ओनली मेटाफिजिकल प्राब्लम बिफोर सरकार कहे कि इसे डाक्टर बनाना है, तो सरकार की नहीं चलनी ह्यूमन काइंड इज़ स्युसाइड-मनुष्य जाति के सामने एक ही चाहिए। सरकार कितना ही कहे कि हमें डाक्टरों की जरूरत है, हमें | धार्मिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक प्रश्न है, सवाल है और वह है, पेंटर की जरूरत नहीं है, तो भी नहीं चलनी चाहिए। क्योंकि यह आत्महत्या। कि हम आत्महत्या क्यों न कर लें? रहने का क्या आदमी डाक्टर हो ही नहीं सकता। हां, डाक्टर की डिग्री इसे मिल प्रयोजन है? क्या अभिप्राय है? क्या अर्थ है? ठीक कहता है वह। सकती है, लेकिन यह डाक्टर हो नहीं सकता। इसके पास । एक ओर कहां हम कृष्ण को देखते हैं बांसुरी बजाते, नाचते; चिकित्सक का एप्टिटयूड नहीं है। इसके पास वह गुणधर्म नहीं है। कहां एक ओर हम दुख-पीड़ा से भरे हुए लोग! कहां एक ओर बुद्ध इसलिए पश्चिम का मनोवैज्ञानिक इस सत्य को समझने के कहते हैं, परम शांति है; कहां एक ओर हम कहते हैं, शांति परिचित करीब आ गया है। और वह कहता है, अब तक बच्चों के साथ | नहीं है, कोई पहचान नहीं है। कहां एक ओर क्राइस्ट कहते हैं, प्रभु ज्यादती हो रही है। कभी बाप तय कर लेता है कि बेटे को क्या | का राज्य; और कहां हम एक ओर, जहां सिवाय नर्क के और कुछ बनाना है, कभी मां तय कर लेती है, कभी कोई तय कर लेता है। | भी दिखाई नहीं पड़ता है। या तो ये सब पागल हैं, या हम चूक गए कभी समाज तय कर देता है कि इंजीनियर की ज्यादा जरूरत है। | हैं कहीं। जहां ये नहीं चूके हैं, वहां हम चूक गए हैं। चूक गए हैं, कभी बाजार तय कर देता है। मार्केट वेल्यू होती है—डाक्टर की | स्वधर्म से चूक गए हैं। ज्यादा है, इंजीनियर की ज्यादा है, कभी किसी की ज्यादा है-इन | | इसलिए मैं भी दोहराता हूं, स्वधर्म में असफल हो जाना भी सब से तय हो जाता है। सिर्फ एक व्यक्ति, जिसे तय किया जाना श्रेयस्कर, परधर्म में सफल हो जाना भी अश्रेयस्कर। स्वधर्म में मर चाहिए था, वह भर तय नहीं करता है। वह उस व्यक्ति की | | जाना भी उचित, परधर्म में अनंतकाल तक जीना भी नर्क। स्वधर्म अंतरात्मा से कभी नहीं खोजा जाता है कि यह आदमी क्या होने को | में एक क्षण भी जो जी ले, वह मुक्ति को अनुभव कर लेता है। एक है। बाजार तय कर देगा, मां-बाप तय कर देंगे, हवा तय कर देगी, | क्षण भी अगर मैं पूरी तरह वही हो जाऊं, जो परमात्मा ने चाहा है फैशन तय कर देगी कि क्या होना है। कि मैं होऊ, बस, उससे ज्यादा प्राणों की और कोई प्यास नहीं है। स्वभावतः मनुष्य विजड़ित हो गया है, क्योंकि कोई मनुष्य वह नहीं हो पाता है, जो हो सकता है। और जब कभी भी हम करोड़ों लोगों में एकाध आदमी वही हो जाता है, जो होने को पैदा हुआ था, प्रश्नः भगवान श्री, आप कहते हैं, धर्म एक है, तो उसका आनंद और है, उसका नृत्य और है, उसका गीत और है। | समाधि एक है, परमात्मा एक है, लेकिन स्वधर्म उसकी जिंदगी में जो खुशी है; फिर हम तड़पते हैं कि यह खुशी | अनेक हैं। तो इन दोनों में कैसे तालमेल बैठे, इसे हमको कैसे मिले? कौन-सा मंत्र पढ़ें, कौन-सा ग्रंथ पढ़ें, यह | स्पष्ट करें। 442 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Om परधर्म, स्वधर्म और धर्म -AIM से ही, जैसे सरिताएं बहुत हैं और सागर एक है। ऐसे तू सब धर्म-वर्म छोड़। अब तू मुझमें आ जा। ही, जैसे वर्षा की बूंदें बहुत हैं, वर्षा एक है। ऐसे ही, हम गंगा से नहीं कह सकते कि तू यमुना के रास्ते पर चल। हम जैसे गुलाब अलग है, कमल अलग है, लेकिन | | यमुना से नहीं कह सकते कि तू सिंधु के रास्ते पर चल। हम सिंधु फ्लावरिंग एक है. फल हो जाना एक है. खिल जाना एक है। स्वधर्म | से नहीं कह सकते कि तू ब्रह्मपुत्र के रास्ते पर चल। लेकिन फिर अलग-अलग हैं, धर्म अलग नहीं है। और जिस दिन स्वधर्म की, | सागर के किनारे पहुंचेंगी वे, और सागर कहेगा, आ जाओ, सब मैं अपने स्वधर्म की पूर्ति करता हूं और आप अपने स्वधर्म की पूर्ति | अपने रास्तों को छोड़ो और मुझमें आ जाओ। चलेंगी अपने रास्ते करते हैं, तो जिस मंदिर पर हम पहुंच जाते हैं, वह एक है। लेकिन | पर, फिर एक दिन रास्ते भी छोड़ देने पड़ते हैं। जिस दिन मंजिल रास्ते अलग हैं। जिस रास्ते आप पहुंचते हैं, वह मेरा रास्ता नहीं है। | मिल जाती है, उस दिन रास्ता छोड़ देना पड़ता है। मंजिल मिलकर जिस रास्ते मैं पहुंचता हूं, वह आपका रास्ता नहीं है। | जो रास्ते को पकड़े रहे, वह पागल है। परमात्मा सामने आ जाए एक कवि भी अपने गीत को गाकर उसी आनंद को उपलब्ध हो | और स्व को पकड़े रहे, वह पागल है। लेकिन परमात्मा सामने न जाता है, जो एक गणितज्ञ अपने सवाल को हल करके होता है। हो और कोई पर को पकड़ ले परमात्मा की जगह, वह भी पागल लेकिन सवाल अलग और कविता अलग। एक चित्रकार भी अपने है। पर, परमात्मा नहीं है। दि अदर, पर परमात्मा नहीं है।। चित्र को बनाकर उसी आनंद को उपलब्ध हो जाता है, जैसे एक __स्व को, तब तक तो स्व ही सब कुछ है। जब तक परमात्मा नहीं नृत्यकार नाचकर होता है। लेकिन नाचना अलग, चित्रकारी | मिलता, तब तक आत्मा ही सब कुछ है; तब तक आत्मा की ही अलग, वह आनंद एक है। स्वधर्म जहां पहुंचा देता है, वह मंजिल फिक्र करें। जब तक सागर नहीं मिलता, तब तक नदी अपने रास्ते एक है। को पकड़े रहे। और जिस दिन सागर मिले, नाचे और लीन हो जाए। 'जैसे पहाड़ पर हम चढ़ते हों अपने-अपने रास्तों से और सब उस दिन सब रास्ते छोड़ दे. तट तोड दे। फिर उस दिन मोह न करे शिखर पर पहुंच जाएं। वह शिखर पर पहुंच जाना एक, उस शिखर कि इन तटों ने इतने दिन साथ दिया, अब कैसे छोडूं! फिर उस दिन पर हवाएं, और सूरज, और आकाश, और उड़ते हुए बादल, वे चिंता न करे कि जिन रास्तों ने यहां तक पहुंचाया, उन्हें कैसे छोडूं! एक हैं; लेकिन जिन रास्तों से हम आए, वे सब अलग। रास्तों ने यहां तक पहुंचाया ही इसलिए कि अब यहां उन्हें छोड़ दो। दो आदमी एक रास्ते से नहीं पहुंचते शिखर तक, क्योंकि दो बस, रास्ते समाप्त हुए। धर्म वहां मिलता है, जहां स्वधर्म लीन हो आदमी एक जगह नहीं खड़े हैं। एक जगह खड़े भी नहीं हो सकते। जाता है। जो जहां खड़ा है, वहीं से तो यात्रा शुरू करेगा। अब मैं यहां बैठा | तीन बातें हुईं-परधर्म, स्वधर्म, धर्म। हम परधर्म में जीते हैं। हूं, आप सब अगर मेरी तरफ चलना शुरू करें, तो आप वहीं से | अर्जुन परधर्म के लिए लालायित हो रहा है। है क्षत्रिय, एप्टिटयूड शुरू करेंगे न जहां आप बैठे हैं! और आप अपनी जगह अकेले ही | | उसका वही है। अगर मनोवैज्ञानिक कहते, तो वे कहते कि तू कुछ बैठे हैं। आपकी जगह और कोई नहीं बैठा हुआ है। दूसरे जहां बैठे | और नहीं कर सकता। तेरी आत्मा निखरेगी तेरी तलवार की चमक हैं, वहां से चलेंगे। दिशाएं अलग होंगी, ढंग चलने के अलग होंगे, के साथ। तू जागेगा उसी क्षण में, जहां प्राण दांव पर होंगे। तू कोई चलने की शक्तियां अलग होंगी, चलने के इरादे अलग होंगे, | आंख बंद करके ध्यान करने वाला आदमी नहीं है। तुझे ध्यान पहुंचने के खयाल अलग होंगे। पहुंच जाएंगे एक जगह। जैसे सब | लगेगा, लेकिन लगेगा युद्ध की प्रखरता में, इंटेंसिटी में। वहां तू सरिताएं सागर में पहुंच जाती हैं, ऐसे ही सब स्वधर्म महाधर्म में | लीन हो जाएगा। वहां तू भूल जाएगा। तू ऐसा बैठकर सुबह और पहंच जाते हैं। वह धर्म एक है। लेकिन वह धर्म उस दिन मिलता | ध्यान नहीं कर सकता कि मैं शरीर नहीं हूं। नहीं, जब तलवारें है, जिस दिन स्व मिट जाता है। चमकेंगी धूप में और दांव पर सब कुछ होगा, तब तू भूल जाएगा अर्जुन से अभी कृष्ण उस धर्म की बात नहीं कर रहे हैं। उसकी | कि तू शरीर है, तब तुझे पता भी नहीं रहेगा कि तू शरीर है। तू भी भी बात करेंगे। तब वे अर्जुन से कहेंगे, सर्वधर्मान् परित्यज्य...। | जानेगा कि शरीर नहीं हूं। लेकिन वह तलवार के दांव पर होगा। वे उसकी भी बात करेंगे। वे कहेंगे, अब तू सब धर्म छोड़ दे। अभी | | वह यहां घर में बैठकर माला पकड़कर तुझसे होने वाला नहीं है। वे कह रहे हैं, स्वधर्म पकड़ ले। यही कृष्ण अर्जुन से कहेंगे, अब | वह तेरा एप्टिटयूड नहीं है, वह तेरा स्वधर्म नहीं है। तो अभी तू 443 Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ yam गीता दर्शन भाग-1 - परधर्म पकड़ने की मत सोच। धर्म की खोज में जाने वाला आदमी दूसरे से हटता है, चुपचाप बडे मजे की बात है, जो परधर्म को पकड ले. वह परमात्मा तक हट जाता है। न पर रहे-न रहे बांस. न बजे बांसरी—न पर रहे. कभी नहीं पहुंच सकता। परधर्म पकड़ने वाला तो स्वधर्म तक ही | | न पर को पकड़ने का प्रलोभन रहे। हट जाता है छोड़कर चुपचाप। नहीं पहुंचता, परमात्मा तक पहुंचने का तो सवाल ही नहीं उठता। | लेकिन जिस आदमी को अधर्म करना है, वह आदमी भीड़ खोजता पहले परधर्म छोड़, स्वधर्म पकड़। फिर घड़ी आएगी वह | है। वह आदमी कभी अकेलापन नहीं खोजता। क्योंकि अधर्म करने भी-उसकी हम बात करेंगे जब कृष्ण कहेंगे, अब स्वधर्म भी | के लिए दूसरा बिलकुल जरूरी है। छोड़, अब परमात्मा में लीन हो जा। पर को छोड़ पहले, फिर स्व | यह बड़े मजे की बात है कि शांत तो आप अकेले भी हो सकते को भी छोड़ देना, तब सर्व उपलब्ध होता है। पर को छोड़कर स्व, हैं, अशांत के लिए दूसरा बिलकुल जरूरी है। यह बड़े मजे की बात स्व को छोड़कर सर्व। उसके आगे फिर कुछ छोड़ने-पकड़ने को है कि आनंदित तो आप अकेले भी हो सकते हैं, लेकिन दुखी होने नहीं रह जाता। के लिए दूसरा बहुत जरूरी है। यह बड़े मजे की बात है कि पवित्रता स्वधर्म परधर्म के विपरीत है। और धर्म जो है, वह अधर्म के में तो आप अकेले भी हो सकते हैं, लेकिन पाप में उतरने के लिए विपरीत है। स्वधर्म परधर्म के विपरीत है, धर्म जो है वह अधर्म के दूसरा बिलकुल जरूरी है। ब्रह्मचर्य में तो आप अकेले भी हो सकते विपरीत है। परधर्म से यात्रा स्वधर्म तक, स्वधर्म से यात्रा धर्म तक। हैं, लेकिन कामुकता के लिए दूसरा बिलकुल जरूरी है। त्याग तो जो आदमी स्वधर्म को लेकर चलेगा, एक दिन धर्म में पहुंच | आप अकेले भी कर सकते हैं, लेकिन भोग के लिए दूसरा बिलकुल जाएगा; और जो आदमी परधर्म को पकड़कर चलेगा, एक दिन जरूरी है। इसे खयाल ले लें। अधर्म में पहुंच जाएगा। परधर्म का आखिरी कदम अधर्म होगा। एक ईसाई पैरेबल है, ईसाई कहानी है ओल्ड टेस्टामेंट में। ईदन क्योंकि परधर्म को पकड़ने वाले की निजता खो जाती है, उसकी के बगीचे में अदम और ईव को परमात्मा ने बनाया। कहानी है, आत्मा खो जाती है। और जिस दिन आत्मा खो जाती है, उसी दिन | | लेकिन एक बात देखने जैसी है, इसलिए आपसे कहता हूं। और अधर्म घर कर लेता है। खुद का दीया तो बुझ गया, अब अंधेरा घर परमात्मा ने कहा कि यह एक वृक्ष है, इसके फल मत खाना। यह में प्रवेश कर जाएगा। जिसका स्वधर्म जागता है, वह अधर्म में | ज्ञान का वृक्ष है, इसके फल खाए कि तुम स्वर्ग के दरवाजे के बाहर कभी नहीं गिर पाता। स्वधर्म बढ़ते-बढ़ते, ज्योति बढ़ते-बढ़ते एक कर दिए जाओगे। बड़ी अजीब बात! बड़ी अजीब बात! अज्ञान का दिन सूर्य के साथ एक हो जाती है। उस दिन वह धर्म को उपलब्ध । कोई फल खाए और स्वर्ग के बाहर कर दिया जाए, समझ में आता हो जाता है। | है। ज्ञान का कोई फल खाए और स्वर्ग के दरवाजे के बाहर कर तो ये चार बातें खयाल में ले लें। हमारे सामने अभी विकल्प है, | | दिया जाए, समझ में आने में कठिनाई होती है। लेकिन साफ या तो स्वधर्म, या परधर्म। अगर अधर्म तक जाना हो, तो परधर्म | परमात्मा ने कहा कि यह ज्ञान का वृक्ष है, इसके फल खाए तो स्वर्ग का रास्ता उपयोगी है, हितकर है, सहयोगी है। अगर धर्म तक जाना के बाहर कर दिए जाओगे। हो, तो स्वधर्म का रास्ता हितकर है, सहयोगी है। अधर्म तक हम सांप ने आकर ईव को, स्त्री को कहा कि त पागल है, इस धोखे दूसरे के द्वारा पहुंचते हैं। में मत पड़ना। परमात्मा खुद इसी वृक्ष के फल खाकर परमात्मा है। इस संबंध में एक छोटी-सी कहानी आपको कहूं। अधर्म तक और पागल, कहीं ज्ञान के फल खाकर कोई स्वर्ग खोता है! ज्ञान सदा ही हम वाया दि अदर, दूसरे के द्वारा पहुंचते हैं। और धर्म तक के फल से ही स्वर्ग मिलता है। तुम्हें पता ही नहीं है कुछ। खा लो हम सदा ही वाया दि सेल्फ, स्व के द्वारा पहुंचते हैं। और परमात्मा जैसे हो जाओ। ईव ने अदम को समझाया कि इस इसलिए धर्म पर जाने वाला आदमी एकांत में चला जाता है, फल को खा ही लेना चाहिए। इसमें जरूर कोई राज है, जरूर कोई ताकि दूसरे न हों, जहां दूसरे न हों, दूसरे का चित्र भी न बने। | रहस्य है। और जब परमात्मा ने रोका, तो मतलब गहरा है। और इसलिए धर्म की खोज में बद्ध जंगल चले जाते हैं, महावीर पहाड़ों परमात्मा ज्ञान के फल खाने से रोके, तो हमारा दोस्त नहीं दुश्मन पर चले जाते हैं, मोहम्मद पहाड़ चढ़ जाते हैं, मूसा सनाई के पर्वत है। ज्ञान का फल! पर खो जाते हैं। अदम को भी बात जंची, जैसा कि सदा ही स्त्रियों की बातें परुषों 444 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm परधर्म, स्वधर्म और धर्म - को जंच जाती हैं। यानी उसी दिन ईदन के बगीचे में ऐसी भूल हुई श्री भगवानुवाच हो, ऐसा नहीं, हर बगीचे में और हर घर में यही भूल होती है। जंच | काम एष कोध एष रजोगुणसमुद्भवः । ही जाती है। क्योंकि स्त्री परसुएड करने में बहुत कुशल है। महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ।। ३७।। उसने फुसलाया अदम को। अदम ने फल खा लिया, और इस पर अर्जुन ने पूछा कि हे कृष्ण, फिर यह पुरुष तत्काल स्वर्ग के दरवाजे के बाहर निकाल दिए गए। परमात्मा ने बलात्कार से लगाए हुए के सदृश, न चाहता हुआ भी, कहा, अदम, तूने फल क्यों खाया? उसने कहा, मैं क्या करूं! किससे प्रेरा हुआ पाप का आचरण करता है? दूसरे ने मुझे फुसलाया, ईव ने मुझे फुसलाया। ईव से कहा कि तूने श्री कृष्ण भगवान बोले, हे अर्जुन, रजोगुण से उत्पन्न हुआ इसे क्यों फुसलाया? तो उसने कहा, दूसरे ने मुझे फुसलाया, सांप | यह काम क्रोध ही है; यही महाअशन अर्थात अग्नि के ने मुझे फुसलाया। सदृश, भोगों से तृप्त न होने वाला और बड़ा पापी है। ईसाई कहानी कहती है कि दूसरे के मार्ग से पाप आता है। इस इस विषय में इसको ही तू वैरी जान । कहानी में दो-तीन बातें हैं। दसरे के मार्ग से। और इसमें एक और | बात खयाल करने की है। और वह यह कि ज्ञान के फल ने आदमी को स्वर्ग के बाहर क्यों कर दिया? क्योंकि जैसे ही अदम ने फल 27 र्जुन ने एक बहुत ही गहरा सवाल कृष्ण से पूछा। खाया और जैसे ही ईव ने फल खाया उस ट्री आफ नालेज का, ज्ञान JI अर्जुन ने कहा, फिर अगर सब कुछ परमात्मा ही कर के वृक्ष का, वैसे ही अदम को पता चला कि मैं नंगा हूं, ईव को रहा है, अगर सब कुछ प्रकृति के गुणधर्म से ही हो पता चला कि मैं नग्न हूं, उसने जल्दी से पत्ते रखकर अपनी नग्नता | | रहा है, अगर सब कुछ सहज ही प्रवाहित है और अगर व्यक्ति ढांक ली। परमात्मा ने कहा कि तुमने ज्ञान तो पा लिया, लेकिन | जिम्मेवार नहीं है, तो फिर पाप कर्म न चाहते हुए भी कि करे, सरलता खो दी। और सरलता में ही स्वर्ग है, कांशसनेस में नहीं, | | आदमी बलात पाप कर्म क्यों कर लेता है? कौन करवा देता है? ज्ञान में नहीं, सरलता में। अब तक तुम बच्चों जैसे सरल थे। नग्न | | अगर परमात्मा ही चला रहा है सब कुछ और मैं भी नहीं चाहता कि थे, तो तुम्हें पता न था कि तुम नग्न हो। अब तुम बच्चों जैसे सरल | बुरा कर्म करूं, और परमात्मा चला रहा है सब कुछ, फिर भी मैं न रहे। अब तुम चालाक हो गए, अब तुम कनिंग हो गए, अब तुम | | बुरे कर्म में प्रवृत्त हो जाता है, तो बलात मुझे कौन बुरे कर्म में धक्का कैलकुलेटिंग हो गए, अब तुम हिसाब लगाने लगे कि नग्न हैं; | दे देता है? ऐसा है, वैसा है। अब तुम सवाल उठाओगे, अब तुम सवालों में ___ गहरा सवाल है। कहना चाहिए कि मनुष्य जाति में जो गहरे से उलझोगे और गिरोगे। गहरे सवाल उठाए गए हैं, उनमें से एक है। सभी धर्मों के ___ ज्ञान का फल इसलिए, जो ज्ञान इसलिए सरलता को नष्ट कर | | सामने–चाहे हिब्रू, चाहे ईसाई, चाहे मोहमडन, चाहे हिंदू, चाहे दे, वह धोखा है, ज्ञान नहीं है। नाम ही उसका ज्ञान है। जो ज्ञान | जैन-गहरे से गहरा सवाल यह उठा है कि अगर परमात्मा ही चला सरलता को वापस लौटा दे, वही ज्ञान है। और दूसरे के मार्ग से | | रहा है और हम भी नहीं चाहते...। और फिर आप तो कहते हैं कि ज्ञान नहीं आता, अज्ञान आता है। और दूसरे के मार्ग से धर्म नहीं | हमारे चाहने से कुछ होता नहीं। हम चाहें भी, तो भी परमात्मा जो आता, अधर्म आता है। धर्म का मार्ग स्वयं के भीतर है। वह गंगोत्री | | चाहता है, उससे अन्यथा नहीं हो सकता। और हम चाहते भी नहीं स्वयं के भीतर है जहां से ज्ञान की, धर्म की गंगा जन्मती है और | कि बुरा कर्म करें और परमात्मा तो चाहेगा क्यों कि बुरा कर्म हो! एक दिन सर्व के सागर में लीन हो जाती है। फिर कौन हमें धक्के देता है और बलात बुरे कर्म करवा लेता है ? फ्राम व्हेयर इज़ ईविल? यह बुराई कहां से आती है? ___ अलग-अलग चिंतकों ने अलग-अलग उत्तर खोजे हैं जो बहुत अर्जुन उवाच गहरे नहीं गए, उन्होंने कहा, शैतान है, वह करवा लेता है। उत्तर अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः । खोजना जरूरी था, लेकिन यह कोई बहुत गहरा उत्तर नहीं है। वे अनिच्छन्नपि वाष्र्णेय बलादिव नियोजितः ।। ३६ ।। कहते हैं, डेविल है, एक पापात्मा है, वह सब करवा लेती है। लेकिन 1445] Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m+ गीता दर्शन भाग-1 AM यह उत्तर बहुत गहरा नहीं है, क्योंकि अर्जुन को अगर यह उत्तर दिया तक। फिर वह गिरेगा कैसे? कुछ अवरोध हो, कोई हो जो रोकता जाए, तो अर्जुन कहेगा, वह परमात्मा उस पापात्मा पर कुछ नहीं कर | हो। आप भी पृथ्वी पर नहीं हो सकेंगे। कभी के हम उड़ गए होते। पाता? वह परमात्मा उस शैतान को कुछ नहीं कर पाता? तो क्या वह | | वह जमीन खींच रही है, तमस, ग्रेविटेशन का भार हमें रोके हुए है। शैतान परमात्मा से भी ज्यादा शक्तिशाली है? और अगर शैतान | अभी जो अंतरिक्ष यात्री अंतरिक्ष यात्रा पर गए, उनकी बड़ी से परमात्मा से ज्यादा शक्तिशाली है, तो मुझे परमात्मा के चक्कर में | बड़ी कठिनाइयों में एक कठिनाई यह है कि जैसे ही जमीन के क्यों उलझाते हो, मैं शैतान को ही नमस्कार करूं! ग्रेविटेशन के बाहर होते हैं दो सौ मील के पार, वैसे ही कशिश __ अनेक चिंतकों ने दूसरा एक तत्व खोजने की कोशिश की है। समाप्त हो जाती है, तो आदमी गुब्बारे जैसा हो जाता है, जैसे गैस कि एक दसरा भी है परमात्मा के अलावा, जो लोगों को पाप में भरा गब्बारा उडने लगता है। तो अगर बेल्ट न बंधा हो की से. धक्के दे रहा है। लेकिन यह उत्तर न तो मनोवैज्ञानिक है, न बहुत | तो आप यान की कुर्सी से तत्काल उठकर यान के टप्पर से गुब्बारे गहरा है। इससे तो केवल वे ही राजी हो सकते हैं, जो किसी भी | की तरह टकराने लगेंगे। फिर नीचे भी उतर नहीं सकते, कोई ताकत चीज के लिए राजी हो सकते हैं। इस उत्तर से और कोई राजी नहीं | काम नहीं करती नीचे उतरने के लिए। चांद पर यही कठिनाई है, हो सकता। क्योंकि तमस चांद का कम है, आठ गुना कम है। इसलिए चांद पर इसलिए कृष्ण ऐसा उत्तर नहीं देते हैं। कृष्ण बहुत मनोवैज्ञानिक अगर हम मकान बनाएंगे, तो चोर आठ गुना ऊंची छलांग लगा उत्तर देते हैं। वे यह कहते हैं, प्रकृति के तीन गुण हैं, रजस, तमस | सकता है। फुटबाल को वहां चोट मारेगा खिलाड़ी, तो यहां जमीन और सत्व। उनका उत्तर बहुत वैज्ञानिक है। वे कहते हैं, प्रकृति | | पर जितनी ऊंची जाती है, उससे आठ गुनी ऊंची चली जाएगी। त्रिगुणा है। । यह जो तमस का अर्थ है इनरशिया, अवरोधक शक्ति। अब बड़े और मैं आपको यह कहूं कि यह तीन गुणों की बात जब कृष्ण | मजे की बात है कि अगर अवरोधक शक्ति न हो, तो गति भी ने कही थी, तब बड़े वैज्ञानिक आधार रखती थी। लेकिन कृष्ण के | | असंभव है। गति भी इसीलिए संभव है कि अवरोधक शक्ति का बाद पिछले पांच हजार सालों में जितने लोगों ने कही, उनको इसके | | उपयोग कर पाते हैं। आपकी कार में जैसे ब्रेक न हों, फिर गति भी विज्ञान का कुछ बोध नहीं था। दोहराते रहे। लेकिन अभी पश्चिम | | संभव नहीं है, आप पक्का समझ लेना। फिर कार चलनी भी संभव में पिछले बीस साल में विज्ञान ने फिर कहा कि प्रकृति त्रिगुणा है। नहीं है। इसका मतलब यह नहीं कि नहीं चल सकती। चल गई, जिस दिन हम आधुनिक सदी में परमाणु का विश्लेषण कर सके, | | बस एक ही दफा चल गई। उसमें वह ब्रेक भी चाहिए, जो परमाणु को तोड़ सके, उस दिन बड़े चकित होकर हमें पता चला | अवरोधक है। एक्सीलेरेटर ही काफी नहीं है, उसमें अवरोधक...। कि परमाणु तीन हिस्सों में टूट जाता है। पदार्थ का जो अंतिम | जीवन एकदम विस्फोट हो जाए, अगर उसमें रोकने वाली परमाण है. वह तीन हिस्सों में टट जाता है. इलेक्टान. न्यटान और | | ताकत न हो। इनरशिया, तमस जो है, वह रोकने वाली ताकत है। प्रोटान में टूट जाता है। और वैज्ञानिक कहते हैं कि इन तीन के बिना | रजस जो है, वह गति की मूवमेंट की ताकत है। ये उलटी ताकते परमाणु नहीं बन सकता। और इन तीन के जो गुणधर्म हैं, वे वही | | हैं। तमस रोकता, रजस गति देता। शक्ति है, एनर्जी है। सत्व तीसरा गुणधर्म हैं, जो सत, रज और तम के हैं। ये तीन जो काम करते हैं, | कोण है। जैसे कि हम एक ट्राएंगल बनाएं, दो कोण नीचे हों और वे वही काम करते हैं, जो हम बहुत पुराने दिनों से सत, रज और | एक ऊपर हो। सत्व इन दोनों के ऊपर है, कहें कि इन दोनों का तम शब्दों से लाते थे। | बैलेंस है, संतुलन है। सत्व बैलेंसिंग है, वह संतुलन है। अगर गति उसमें तमस जो है, इनरशिया, वह अवरोध का तत्व है, स्थिरता | | भी हो, रोकने वाला भी हो, लेकिन संतुलन न हो...। का तत्व है। अगर तमस न हो, तो जगत में कोई भी चीज स्थिर नहीं | जैसे एक कार है, उसमें एक्सीलेरेटर भी है और ब्रेक भी है, रह सकती। आप एक पत्थर उठाकर फेंकते हैं। अगर जगत में कोई | | लेकिन ड्राइवर नहीं है। वह जो ड्राइवर है, वह पूरे वक्त बैलेंसिंग तमस न हो, कोई ग्रेविटेशन न हो, रोकने वाली कोई ताकत, | है। जब जरूरत होती है, तो ब्रेक पर पैर ले जाता है; जब जरूरत अवरोधक न हो, तो फिर पत्थर कभी भी गिरेगा नहीं। फिर आपने | | होती है, तो एक्सीलेरेटर पर पैर ले जाता है। वह पूरे वक्त बैलेंस फेंक दिया, फेंक दिया; फिर वह चलता ही रहेगा, अनंत काल | | कर रहा है। सत्व जो है, वह बैलेंसिंग है। 446 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परधर्म, स्वधर्म और धर्म 4 ये तीन तत्व हैं, जिनको भारत ने ऐसे नाम दिए थे। पश्चिम जिनको इलेक्ट्रान, प्रोटान, न्यूट्रान कहे, कोई और नाम दे, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। एक बात बहुत अनिवार्य रूप से सिद्ध हो गई है कि जीवन का अंतिम विश्लेषण तीन शक्तियों पर टूटता है। इसलिए हमने इन तीन शक्तियों को ये कई तरह से नाम दिए जो लोग वैज्ञानिक ढंग से सोचते थे, उन्होंने रजस, तमस, सत्व ऐसे नाम दिए । जो लोग मेटाफोरिकल, काव्यात्मक ढंग से सोचते थे, उन्होंने कहा, ब्रह्मा, विष्णु, महेश। उनका भी काम वही है। वे तीन नाम भी यही काम करते हैं। उसमें ब्रह्मा सर्जक शक्ति हैं, विष्णु सस्टेनिंग, संभालने वाले और शिव विनाश करने वाले । उन तीन के बिना भी नहीं हो सकता। ये जो इलेक्ट्रान, न्यूट्रान और प्रोटान हैं, ये भी ये तीन काम करते हैं। उसमें जो इलेक्ट्रान है, वह निगेटिव है । वह ठीक शिव जैसा है, निगेट करता है, तोड़ता है, नष्ट करता है । उसमें जो प्रोटान है, वह ब्रह्मा जैसा है, पाजिटिव है, इसलिए प्रोटान उसका नाम है। वह विधायक है, वह निर्माण करता है। और उसमें जो न्यूट्रान है, वह न निगेटिव है, न पाजिटिव है। वह सस्टेनिंग है, वह बीच में है, बैलेंसिंग है। कृष्ण कहते हैं कि मनुष्य के भीतर- भी घटित होता है, बाहर और भीतर - वह इन तीन शक्तियों का खेल है। इन तीन शक्तियों के अनुसार सब घटित होता है। आदमी धकाया जाता, रोका जाता, जन्माया जाता, मरण को उपलब्ध होता, हंसी को उपलब्ध होता, रोने को उपलब्ध होता - वह इन सारी तीन शक्तियों का काम है। ये तीन शक्तियां अपना काम करती रहती हैं। ये परमात्मा के तीन रूप जीवन को सृजन देते रहते हैं। अर्जुन पूछता है, फिर नहीं भी हम करना चाहते, फिर कौन करवा लेता है? आप तो चाहते हैं कि जमीन पर न गिरें, लेकिन जरा पैर फिसला कि गिर जाते हैं। कोई शैतान गिरा देता है ? कोई शैतान नहीं गिरा देता ; ग्रेविटेशन अपना काम करता है। आप नहीं गिरना चाहते, माना, स्वीकृत कि आप नहीं गिरना चाहते, लेकिन उलटे-सीधे चलेंगे, तो गिरेंगे। आप नहीं गिरना चाहते थे, तो भी गिरेंगे। पैर पर पलस्तर लगेगा। आप डाक्टर से कहेंगे, मैं नहीं गिरना चाहता था और परमात्मा तो टांग तोड़ता नहीं किसी की, क्यों तोड़ेगा? इतना बुरा तो नहीं हो सकता कि अकारण मुझ भले आदमी की, जो गिरना भी नहीं चाहता, उसकी टांग तोड़ दे। लेकिन मेरी टांग क्यों टूट गई? तो डाक्टर वही उत्तर देगा, जो कृष्ण ने दिया। डाक्टर कहेगा, ग्रेविटेशन की वजह से। जमीन में गुरुत्वाकर्षण है, आप कृपा करके सम्हलकर चलें । उलटे-सीधे चलेंगे, तो ग्रेविटेशन टांग तोड़ देगी। क्योंकि प्रत्येक शक्ति अगर हम उसके अनुकूल न चलें, तो नुकसान पहुंचाने वाली हो जाती है। | अगर अनुकूल चलें, तो नुकसान पहुंचाने वाली नहीं होती। प्रत्येक शक्ति का उपयोग अनुकूल और प्रतिकूल हो सकता है। अब मनुष्य के भीतर कौन - सी शक्तियां हैं, जो उसे बलात - जैसे कि एक आदमी नहीं गिरना चाहता है और गिर जाता है और टांग टूट | जाती है। और एक आदमी क्रोध नहीं करना चाहता है और क्रोध हो जाता है और खोपड़ी खुल जाती है। या दूसरे की खुल जाती है या | खुद की खुल जाती है। क्या, कौन कर जाता है यह सब ? परमात्मा ? क्या प्रयोजन है ! और परमात्मा ऐसे काम करे, तो परमात्मा हम उसे कैसे कहेंगे? कोई कहेगा, शैतान । कृष्ण नहीं कहते । कृष्ण कहते हैं, सिर्फ जीवन की शक्तियां काम कर रही हैं। परमात्मा मनुष्य के भीतर क्रोध है। वह भी अनिवार्य तत्व है। कहें कि वह हमारे भीतर निगेटिव फोर्स है, क्रोध विनाश की शक्ति है हमारे भीतर। प्रेम हमारे भीतर निर्माण की शक्ति है । और विवेक हमारे भीतर बैलेंसिंग फोर्स है। जो आदमी विवेक को छोड़कर सारी शक्ति क्रोध में लगा देगा, वह बलात नर्क की तरफ चलने लगेगा; नहीं चाहेगा, तो भी जाएगा। जो सारी शक्ति प्रेम की ओर लगा देगा, वह बलात स्वर्ग की ओर जाने लगेगा, चाहे चाहे और चाहे न चाहे । उसके जीवन में सुख उतरने लगेगा। और जो आदमी बैलेंस कर लेगा और समझ लेगा कि दुख और सुख और दोनों के बीच में अलग, वह आदमी मुक्ति और मोक्ष की दिशा में यात्रा कर जाएगा। इसलिए हमारे पास तीन शब्द और समझ लेने जैसे हैं, स्वर्ग, नर्क और मोक्ष | स्वर्ग में वह जाता है, जो अपने भीतर की विधायक शक्तियों के अनुकूल चलता है। नर्क में वह जाता है, जो अपने भीतर विनाशक शक्तियों के अनुकूल चलता है। मोक्ष में वह जाता है, जो दोनों के अनुकूल नहीं चलता है; दोनों को संतुलित करके दोनों को ट्रांसेंड कर जाता है, परे हो जाता है, अतीत हो जाता है। कृष्ण कह रहे हैं, शक्तियां हैं और इन तीन शक्तियों के बिना जीवन नहीं हो सकता है। इसलिए अर्जुन, कौन तुझे धक्का देता है, ऐसा मत पूछ| यह समझ कि धक्का तेरे भीतर से कैसे निर्मित होता है। क्रोध, काम, अहंकार, अगर उनके प्रति तू अतिशय से झुक जाता है, तो जो तू नहीं चाहता वह तुझे करना पड़ता है। कभी आपने देखा, कामवासना मन को पकड़ ले – ऐसा कहना | ठीक नहीं है कि कामवासना मन को पकड़ ले, कहना यही ठीक 447 Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 होगा कि जब आप कामवासना को मन को पकड़ लेने देते हैं, आप जब पकड़ लेने देते हैं...। और ध्यान रहे, कामवासना आपके बिना पकड़ाए आपको नहीं पकड़ती है। हां, एक सीमा होती है हर चीज की, उसके पार मुश्किल हो जाता है रोकना। एक सीमा होती है। जगह-जगह हमने कार की ट्रैफिक पर लिखा हुआ है कि यहां पांच मील रफ्तार। क्यों? क्योंकि वहां इतने ज्यादा लोग गुजर रहे हैं कि अगर तीस मील रफ्तार हो, तो रोकना समय पर मुश्किल है। पांच मील हो, तो समय पर रोकना आसान है। जहां लोग कम गुजर रहे हैं, वहां सत्तर मील भी हो, तो कोई हर्ज नहीं। वहां समय पर सत्तर मील भी रोकना आसान है। हर चीज की एक सीमा है। फ्रायड, सिग्मंड फ्रायड एक कहानी कहा करता था। वह कहा करता था कि एक छोटे से गांव में एक गरीब म्युनिसिपल कमेटी गांव का कचरा ढोने के लिए एक घोड़ा खरीदा, एक घोड़ागाड़ी के लिए। लेकिन गरीब थी म्युनिसिपैलिटी और कहते हैं, गांव बड़ा बुद्धिमान था । बुद्धिमान था, ऐसा कहें; या लोगों में ऐसी मजाक प्रचलित थी कि गांव बहुत बुद्धिमान है, गांव को ऐसा खयाल था कि बहुत बुद्धिमान है। हालांकि वह जो भी करता था, वह बहुत बुद्धिहीनता के काम होते थे । म्युनिसिपल ने एक घोड़ा खरीदा। लेकिन घोड़े को घास, दाना, पानी इतना महंगा पड़ने लगा कि म्युनिसिपल के बजट पर भारी हुआ। गरीब, छोटी-सी म्युनिसिपल थी। कमेटी बुलाई गई। उन्होंने तय किया कि क्या किया जाए ! उन्होंने कहा कि आधा राशन करके देखा जाए घोड़े के लिए। अगर आधे में काम चल जाए तो ठीक, नहीं फिर थोड़ा बढ़ा देंगे। आधा राशन किया, लेकिन काम बिलकुल ठीक चल गया। घोड़ा आधे राशन पर भी जिंदा रहा। तब तो उन्होंने कहा कि हम पागल हैं, जो इसको इतना दें। और आधा करके देखें। उन्होंने और आधा किया। घोड़ा फिर भी जिंदा रहा और फिर भी काम करता रहा! उन्होंने कहा, हम बिलकुल पागल हैं। इसे और आधा करें। और भी आधा कर दिया। घोड़ा मुश्किल में रहा, लेकिन फिर भी किसी तरह काम करता रहा । म्युनिसिपल कमेटी ने कहा कि हम बिलकुल नासमझी कर रहे हैं, अब राशन बिलकुल बंद कर दें। राशन बिलकुल बंद कर दिया। जो होना था, वही हुआ। घोड़ा मर गया। एक सीमा थी, जहां तक घोड़ा कम राशन पर भी काम किया; फिर एक सीमा आई, जहां से काम नहीं कर सका। हमारी प्रत्येक वृत्ति की सीमाएं हैं, जहां तक हम उन्हें रोक सकते 448 हैं, और जहां से फिर हम उन्हें नहीं रोक सकते। एक विचार मेरे मन में उठा, शब्द बना मेरे भीतर। अभी मैं आपको न कहूं, तो रोक सकता हूं। फिर मेरे मुंह से शब्द निकल गया; अब इस शब्द को वापस नहीं ला सकता। एक सीमा थी, एक जगह थी; मेरे भीतर विचार भी था, शब्द भी था, ओंठ पर भी आ गया था, फिर भी मैं रोक सकता हूं। फिर एक सीमा के बाहर बात हो गई, मैंने आपसे बोल दिया, अब मैं इसे वापस नहीं लौटा सकता। अब कोई उपाय इसे वापस लौटाने का नहीं है। एक जगह थी, जहां से यह वापस लौट जाता। क्रोध, एक जगह है, जहां से वापस लौट सकता है। लेकिन जब | उस जगह के बाहर निकल जाता है, उसके बाद वापस नहीं लौटता। . काम, एक जगह है, जहां से वापस लौट सकता है। जब उसके आगे चला जाता है, तो फिर वापस नहीं लौट सकता। और ध्यान रहे, बड़े मजे की बात यह है कि उस सीमा तक, जहां तक काम वापस लौट सकता है, उस समय तक आप उसको सहयोग देते हैं। और जब वह वापस नहीं लौटता, तब आप चिल्लाते हैं कि कौन मुझे धकाए जा रहा है परवश! कौन मुझे बलात काम करवा रहा है ! इसे ठीक से भीतर समझेंगे, तो खयाल में आ जाएगा। एक | जगह है, जहां तक हर वृत्ति आपके हाथ में होती है। लेकिन जब आप उसे इतना उकसाते हैं कि आप का पूरा शरीर और पूरा यंत्र उसको पकड़ लेता है, फिर आपकी बुद्धि के बाहर हो जाता है। फिर आप कहते हैं कि नहीं-नहीं। और फिर भी घटना घटकर रहती है। तब आप कहते हैं, कौन बलात करवाए चला जाता है, जब कि हम नहीं करते हैं! कोई नहीं करवाता, शक्तियां करती हैं। लेकिन करवाने का अंतिम निर्णय गहरे में आपका ही कोआपरेशन है, आपका ही सहयोग है। कृष्ण इतना ही कह रहे हैं कि कोई बैठा नहीं है पार, तुम्हें क्रोध में, काम में, युद्ध में, लड़ाई-झगड़े में ले जाने को । प्रकृति के नियम हैं। अगर उन नियमों को तुम समझ लेते हो और समता को, | संतुलन को उपलब्ध होते हो; अनासक्ति को, साक्षीभाव को उपलब्ध होते हो; विवेक को, श्रद्धा को उपलब्ध होते हो, तो फिर तुम्हें कोई फिक्र करने की जरूरत नहीं है, फिर जो भी होगा परमात्मा पर। लेकिन जब तक तुम ऐसी समता को और अनासक्ति को उपलब्ध नहीं होते, भीतर तुम आसक्ति को पालते चले जाते हो, बारूद में चिनगारी डालते चले जाते हो, फिर जब आग भड़ककर | मकान को पकड़ लेती है, तब तुम कहते हो, मैं तो चाहता नहीं था Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m परधर्म, स्वधर्म और धर्म - कि आग लगे, लेकिन यह आग लग गई है। बारूद का नियम है, क्या कर दिया। वह बुढ़िया नीचे गिर पड़ी। तब उसे पता चला, यह धर्म है, वह आग लगा देगी। तुमने चिनगारी फेंकी, चिनगारी का धर्म | | तो मैंने हत्या कर दी! तब वह भागा। और तब वह रातभर अपने है कि वह आग पकड़ा देगी। और जब बारूद भड़क उठेगी, तब तुम बिस्तर में सोचता है कि मैं उसकी हत्या कैसे कर दिया! परवश। छाती पीटोगे और चिल्लाओगे कि यह तो मैं नहीं चाहता था। जो अर्जुन कह रहा है कि जैसे बलात कोई धक्का दे...। तो वह कभी आपने देखा, एक आदमी हत्या कर देता है...दोस्तोवस्की कहता है, कौन मेरे ऊपर सवार हो गया! कोई भूत, कोई प्रेत! क्या का एक बहत कीमती उपन्यास है, क्राइम एंड पनिशमेंट। उसमें हआ? मैंने हत्या क्यों कर दी? किसने मझसे हत्या करवा दी? यह रोसकोलनिकोव नाम का एक पात्र है। वह रोज अपने सामने उसकी | | कौन शैतान मेरे पीछे पड़ा है? मकान मालकिन जो है, उसके मकान की बुढ़िया जो मालकिन कोई उसके पीछे नहीं पड़ा है। दो साल तक उसने सोचा, तैयारी है-वह कोई सत्तर साल की बूढ़ी औरत है-वह गिरवी रखने का | | की। दो साल तक उसने शक्तियों को रस दिया, दो साल तक हाथ काम करती है और लोगों से खींचकर ब्याज चूसती है। मरने के | | भींचे, दो साल तक मन में क्रोध का जहर फैलाया। वह सब तैयार करीब है, लेकिन रत्तीभर दया नहीं करती। कोई नहीं है उसका: बहत हो गया। धन है। तो रोसकोलनिकोव-एक विद्यार्थी है-वह देखता रहता बीज बोते वक्त किसको पता चलता है कि वृक्ष निकलेगा? बीज अपनी खिड़की से। गरीब आदमी गिड़गिड़ाते हैं, रोते हैं, चिल्लाते | | बोते वक्त किसको पता चलता है कि इतना बड़ा वृक्ष पैदा होगा? हैं, लेकिन कुछ भी नहीं। उनके कपड़े भी उतरवा लिए जाते हैं; कोई फिर बलात वृक्ष पैदा हो जाता है। और बीज हम ही बोते हैं। बीज दया नहीं, कोई ममता नहीं। कई बार उसके मन में होता है, इस छोटा होता है, दिखाई भी नहीं पड़ता है। मन में क्रोध के बीज बोते बुढ़िया को कोई मार क्यों नहीं डालता? इसके होने की कोई जरूरत हैं, काम के बीज बोते हैं, फिर शक्तियां पकड़ लेती हैं। फिर वे तीन ही क्या है? यह मर भी जाए, तो हर्ज क्या है? यह मर जाए, तो शक्तियां अपना काम शुरू कर देती हैं। आपने बीज बोया, जमीन सैकड़ों लोग जो उसके चक्कर में फंसे हैं, वे मुक्त हो जाएं। काम शुरू कर देती है, पानी काम शुरू कर देता है, रोशनी काम गरीब किसान, गरीब मजदूर, गरीब लोग, विधवा औरतें, | | शुरू कर देती है। सूरज की किरणें आकर बीज को बड़ा करने बीमार आदमी, वे सब उससे ब्याज पर रुपया ले लेते हैं। फिर वह लगती हैं। कभी चुकता नहीं। उनकी चीजें भी चुक जाती हैं और उन पर __ आप हैरान होंगे कि जमीन बहुत कम काम करती है। अभी एक अदालत में मकदमे भी चलते हैं. सजाएं भी हो जाती हैं। रोज यही वैज्ञानिक ने प्रयोग किया नाप-तौलकर प्रयोग किया। एक बट काम। वह कई बार सोचता है, कोई इसकी गरदन क्यों नहीं दबा | वृक्ष को लगाया एक गमले में, बड़े गमले में, नाप-तौलकर देता! और बहुत बार उसके हाथ खुद भिंच जाते हैं कि गरदन दबा | बिलकुल। इतनी मिट्टी, इतना गमले का वजन, इतने वृक्ष के बीज दूं। फिर वह सोचता है कि मुझे क्या मतलब? और मैं क्यों दबाऊं? | का वजन, सब नाप-तौलकर लगाया। फिर वृक्ष बहुत बड़ा हो और मेरा क्या बिगाड़ा है? फिर वह बात भूल जाता है। फिर ऐसे | गया। फिर उसने वृक्ष पूरा का पूरा निकाल लिया और फिर नापा। वर्षों चलता रहा। तो जितना कोई दो सौ सेर का गमला उसने रखा था, उसमें केवल फिर एक दिन उसे भी फीस भरनी है और घर से पैसे नहीं आए। चार सेर की कमी हुई। चार सेर कुल! और वृक्ष को नापा-तौला, तो वह अपनी घड़ी रखने उस बुढ़िया के पास गया। सांझ का वक्त | | तो वह तो कोई दो सौ अस्सी सेर निकला वृक्ष। और कुल चार सेर है, उसने घड़ी बुढ़िया को दी। बुढ़िया ठीक से देख नहीं सकती, की कमी हुई मिट्टी में। और उस वैज्ञानिक का खयाल है कि वे चार सत्तर साल उसकी उम्र है। वह खिड़की के पास घड़ी को ले जाकर | | सेर भी वृक्ष ने नहीं लिए। वह भी, हवा भी आती है, तूफान भी देखती है रोशनी में कि ठीक है या नहीं; कितने पैसे दिए जा सकते | | आता है, मिट्टी उड़ भी जाती है; पानी में बह भी जाती है। चार सेर! हैं। अचानक बस रोसकोलनिकोव को क्या हुआ कि उसने जाकर | | इतना बड़ा वृक्ष कहां से आ गया? सूरज भी दे रहा है, हवाएं भी दे उसकी गरदन दबा दी। उसे पता ही नहीं चला, कब यह हुआ। | रही हैं, पानी भी दे रहा है, जमीन भी दे रही है, चारों तरफ से पूरा गरदन जब दब गई और जब उसके हाथ में उसकी नसें उभर आईं, कास्मास उसको दे रहा है। और खून उसके मुंह से गिरने लगा, तब वह घबड़ाया कि यह मैंने | एक छोटे-से बीज को आपने बो दिया, फिर सारी दुनिया की 449 Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 AM . ताकत उसको दे रही है और वह बड़ा हो रहा है। आपने इधर क्रोध | | जाए, उससे पेंट करता। और जब उससे कोई पूछता, किसलिए? का बीज बोया, सारी दुनिया से क्रोध को साथ देने वाली | | तो वह कहता, बस, बना लेने में आनंद है। ताकतें–तमस की, इनरशिया की ताकतें-आपकी तरफ बहनी परमात्मा उद्देश्य से जगत को नहीं बना रहा है; बना लेने में शुरू हो जाएंगी। आपने प्रेम बोया, सारी तरफ से दुनिया से शुभ आनंद है; बनाना ही आनंद है। आगे-पीछे कुछ भी उद्देश्य नहीं, शक्तियां आपकी तरफ बहनी शुरू हो जाएंगी। आपने साक्षीभाव परपजलेस। और ध्यान रहे, आनंद हमेशा ही परपजलेस होता है। निर्मित किया, दुनिया की सारी ताकतें आपके लिए बैलेंस में हो | एक मां अपने बेटे को बड़ा कर रही है, उससे पूछे, किसलिए? जाएंगी। कोई आपकी तरफ नहीं बहेगा, कोई आपके बाहर नहीं | अगर वह कहे कि बाद में नौकरी करवानी है, तो समझना मां नहीं बहेगा; सब चीजें सम हो जाएंगी; ठहर जाएंगी। है, कोई फैक्टरी है। अगर मां है, तो वह कहेगी, किसलिए? कैसा कृष्ण कहते हैं, न तो कोई शैतान, न कोई परमात्मा; ये तीन गलत सवाल पूछते हो! बस, मेरा आनंद है। शक्तियां हैं अर्जुन। और तू जिसका बीज बो देता है अपने भीतर, | परमात्मा के लिए सृष्टि आनंद है, उसका आनंद-कृत्य है; वही शक्ति सक्रिय होकर काम करने लगती है। | इसलिए उद्देश्य तो कोई नहीं है। हां, लेकिन यह सवाल फिर भी | संगत है कि वह आदमी में तमस क्यों रखता है? असल में हम तमस शब्द को सदा ही गलत अर्थों में लेते रहे हैं। प्रश्न: भगवान श्री, तीनों गुणों से चलने वाली सृष्टि | | हम समझते हैं, तमस कोई बुरी चीज है। तमस बुरी नहीं है, तमस ईश्वर ने बनाई। तमस गुण मनुष्य की प्रकृति में ईश्वर | अपने आप में बुरी चीज नहीं है। हां, तमस में ही पूरी तरह भर जाना ने दिया, उसके पीछे क्या उद्देश्य ईश्वर का है? | बुरा है। तमस अपने आप में बुरा नहीं है, जहर भी अपने आप में | बुरा नहीं है; और कभी तो बीमारी में दवा का काम करता है। हम कहें कि जहर क्यों बनाया परमात्मा ने! एक आदमी जहर खाकर = श्वर का कोई उद्देश्य नहीं होता। उद्देश्य की भाषा सदा | | मर जाए। आप कहेंगे कि जिम्मेदार परमात्मा है। जहर क्यों र मनुष्य की है। उद्देश्य तो उसका होता है, जिसे भविष्य बनाया? न बनाता परमात्मा, न यह आदमी खाता। । ____ में कुछ पाना हो। जैसे एक आदमी, एक कुम्हार एक लेकिन जहर अपने आप में किसी को मारता नहीं। जहर तो घड़ा बनाता है। उसका उद्देश्य होता है कि बाजार में बेचना है या | जिला भी सकता है। लेकिन इस आदमी ने जहर ही जहर खा लिया, उसका उद्देश्य होता है कि घर का पानी भरना। फिर एक वानगाग तो मर गया। अमृत भी खा लो ज्यादा मात्रा में, तो मौत घटित हो चित्र बनाता है। वानगाग से कोई पूछता है कि यह चित्र तुमने किस | सकती है। अमृत भी मात्रा में ही खाना, अगर मिल जाए! एक तो उद्देश्य से बनाया है ? तो वह कहता है, कोई उद्देश्य नहीं है। बनाना मिलता नहीं, क्योंकि डर यही है कि जहर तो बहुत कम लोग खाते ही मेरा आनंद है। आप कहेंगे, बाजार में बिक सकता है। वानगाग हैं, अमृत अगर मिल जाए, तो बिना मात्रा में बहुत लोग खा जाएंगे। का एक चित्र नहीं बिका, एक चित्र जिंदा रहते नहीं बिका। आप | शायद इसीलिए नहीं मिलता है। क्योंकि रोकेंगे कैसे फिर अमृत कह सकते हैं कि कोई प्रतिष्ठा मिलती होगी, कोई सम्मान करता | | मिल जाए, तो आप अपने को कि अब कहां रुकें, खाते ही चले होगा कि बड़े चित्रकार हो। किसी ने प्रतिष्ठा नहीं की, किसी ने | जाएंगे। अमृत से मौत आ जाएगी। सम्मान नहीं किया। आप कहते होंगे कि बड़ा धन वाला आदमी रहा ___ जीवन में नियम हैं। कोई नियम बुरा नहीं, कोई नियम भला नहीं, होगा, पैसा पास में रहा होगा, फुर्सत रही होगी, तो कुछ न कुछ | अनिवार्य हैं। बिना तमस के, बिना इनरशिया के जगत अस्तित्व में करता रहा होगा। नहीं, वानगाग बहुत गरीब आदमी था। और | | नहीं हो सकता। उसके अस्तित्व में होने के लिए कोई अवरोधक उसका भाई उसे इतना ही पैसा देता था, जिसमें सात दिन की सिर्फ | शक्ति चाहिए। लेकिन अगर कोई आदमी सिर्फ अवरोधक शक्ति रोटी चल जाए रूखी-सूखी। न रंग के लिए पैसे, न कागज के पर ही निर्भर रह जाए, तो भी खतरा हो जाएगा, क्योंकि दूसरी दो लिए, न कैनवास के लिए। तो वह सप्ताह में चार दिन खाना खाता शक्तियां भी चाहिए। और श्रेष्ठतम स्वास्थ्य की स्थिति वह है, जहां और तीन दिन उपवास करता। और तीन दिन में उपवास में जो बच तीनों शक्तियां बैलेंस करती हैं, संतुलित होती हैं। उसी क्षण में 14501 Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परधर्म, स्वधर्म और धर्म आदमी तीनों के बाहर निकल जाता है और परमात्मा को अनुभव कर पाता है। जब तक आदमी इधर-उधर डोलता है...। कभी आपने देखा है न को, रस्सी पर चलता है, कभी थिर नहीं रहता। आप कहें कि थिर क्यों नहीं रहता ? थिर रहे- थिर रहे, तो फौरन गिरे और मर जाए । थिर क्यों नहीं रहता है नट? नट पूरे वक्त बैलेंस करता रहता है । और जब आपको दिखता है, अब बाएं झुक रहा हैं, तो आप गलती में मत पड़ जाना। बाएं झुकता ही तब है, जब दाएं गिरने का डर पैदा होता है। दाएं तब झुकता है, जब बाएं गिरने का डर पैदा होता है। वह बैलेंस कर रहा है पूरे वक्त। जब दाएं गिरने का डर पैदा होता है, वह वजन को बाएं ले जाता है, ताकि बैलेंस हो जाए। जब दाएं से बच जाता है, बाएं गिरने का डर पैदा होता है, तब उलटी तरफ बैलेंस ले जाता है कि बच जाए। और प्रकृति नीचे काम कर रही है। नट अगर बैलेंस न करे, तो जमीन पर गिरे, हड्डी - पसली टूट जाए। फिर प्रकृति से यह नहीं कह सकता कि तूने मेरी हड्डी-पसली तोड़ी ! प्रकृति कहेगी, हमें कोई मतलब नहीं; तुम अपनी रस्सी पर बैलेंस करते रहो, हमें कोई मतलब नहीं। तीन जो गुण हैं, इनमें जो बैलेंस कर लेता है, वह व्यक्ति धर्म को उपलब्ध हो जाता है। नहीं बैलेंस कर पाता, तो गिरता है, हड्डी-पसली टूट जाती है। फिर हम कहते हैं, किसने बलात गिरा दिया! किसी ने नहीं गिराया, आप बैलेंस नहीं कर पाए। कृष्ण का पूरा योग समतायोग है, दि योग आफ बैलेंस । बस, नट की तरह पूरे वक्त जिंदगी एक बैलेंस है, एक संतुलन है; सदा, सदा संतुलन है। ज्यादा खा लिया, तो उपवास करो; ज्यादा उपवास कर लिया, तो ग्लूकोस के इंजेक्शन लो ! बस, बैलेंस पूरे वक्त। . पूरे समय जिंदगी एक बहुत बारीक संतुलन है, डेलिकेट बैलेंस है। उसमें जरा इधर-उधर हुए कि आप गए। प्रकृति अपना काम करती रहेगी। वह नीचे खड़ी है। वह कह रही है कि नट, जब तक तुम बैलेंस करो, रहो ऊपर, जब न कर पाओ, नीचे आ जाओ । हम तैयार हैं। अनिवार्य तत्व हैं तीन, उससे कम नहीं हो सकते। तीन के बिना सृष्टि खो जाएगी, इसलिए वे हैं। लेकिन तमस में आप गिरें, इसलिए नहीं। आप तमस के द्वारा रजस को साधते रहें। जब तमस बढ़ जाए, रजस की तरफ झुक जाएं। जब रजस बढ़ जाए, तमस की तरफ झुक जाएं। दोनों को साधते रहें। और जब दोनों बिलकुल सध जाएं, तो आपकी वर्टिकल यात्रा सत्व की तरफ शुरू होगी । फिर तीनों के बीच साधना पड़ेगा। वह और भी गहरी कीमिया है। दो के बीच साधना बहुत आसान है। दो के बीच साधेंगे, तो सत्व में उठ जाएंगे। साधु उसे कहते हैं, जो सत्व में पहुंच गया है, जिसने दो को साध | लिया। जो तमस और रजस के बीच संतुलित हो गया, उसका नाम साधु है। जो रजस, तमस और सत्व तीनों के बीच सध गया, उसका नाम संत है। वह बहुत अलग बात है। जब तीनों के बीच कोई साधता है, तो सेंटर पर पहुंच जाता है ट्राएंगल के। वह सेंटर ही द्वार है ट्राएंगल का तीन शक्तियों के बीच में वह स्पेस है, खाली | जगह है, जहां से व्यक्ति परमात्मा में, ब्रह्म में प्रवेश कर जाता है। | लेकिन यह धीरे-धीरे हम बात करेंगे, तो खयाल में आएगी। पहले साधु बनें, दो के बीच साधें। फिर संत बनें, तीन के बीच साधें। और जिस दिन तीन के बीच सधा, उस दिन बनना बंद हो | जाता है, उसी दिन परमात्मा में प्रवेश हो जाता है। उस दिन प्रकृति |के तीनों गुणों के बाहर आदमी हो जाता है। इसलिए प्रकृति है त्रिगुणा और परमात्मा है त्रिगुणातीत, वह तीनों के बाहर है। शेष कल बात करेंगे। 451 Page #482 --------------------------------------------------------------------------  Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 3 दसवां प्रवचन वासना की धूल, चेतना का दर्पण Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AA गीता दर्शन भाग-1 , धूमेनावियते वह्निर्यथादों मत्लेन च। और सिर्फ वही खोया, जो मेरे पास था ही नहीं, लेकिन मुझे मालूम यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् । । ३८।। | पड़ता था कि मेरे पास है। जो नहीं था, उसे खो दिया है; और जो आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा। | था, उसे पा लिया है। कामरूपेण कौन्तेय दुष्यूरेणानलेन च ।। ३९।। जैसे धएं में आग ढंकी हो. तो आग पाना नहीं होती. केवल जैसे धुएं से अग्नि और मल से दर्पण ढंक जाता है (तथा) | धुआं अलग हो जाए, तो आग प्रकट हो जाती है। जैसे सूरज जैसे स्निग्ध झिल्ली से गर्भ ढंका हुआ है, वैसे ही उस काम | बदलियों से ढंका हो, तो सूरज पाना नहीं होता; सिर्फ बदलियां हट के द्वारा यह ज्ञान ढंका हुआ है। जाएं, तो सूरज प्रकट हो जाता है। जैसे बीज ढंका है, वृक्ष पाना और हे अर्जुन! इस अग्नि (सदृश) न पूर्ण होने वाले नहीं है। वृक्ष बीज में है ही, अप्रकट है, छिपा है, कल प्रकट हो कामरूप ज्ञानियों के नित्य वैरी से ज्ञान ढंका हुआ है। जाएगा। ऐसे ही ज्ञान सिर्फ अप्रकट है, कल प्रकट हो जाएगा। इसके दो अर्थ हैं। इसका एक अर्थ तो यह है कि अज्ञानी भी उतने ही ज्ञान से भरा है, जितना परमज्ञानी। फर्क अज्ञानी और ज्ञानी में . कष्ण ने कहा है, जैसे धुएं से अग्नि ढंकी हो, ऐसे ही | | अगर हम ठीक से समझें, तो अज्ञानी के पास ज्ञानी से कुछ थोड़ा qp काम से ज्ञान ढंका है। जैसे बीज अपनी खोल से ढंका | ज्यादा होता है. ध ज्यादा होता है। आग तो उतनी ही होती है. ___ होता है, ऐसे ही मनुष्य की चेतना उसकी वासना से | जितनी ज्ञानी के पास होती है; अज्ञानी के पास कुछ और ज्यादा भी ढंकी होती है। जैसे गर्भ झिल्ली में बंद और ढंका होता है, ऐसे ही | होता है, धुआं भी होता है। सूरज तो उतना ही होता है जितना ज्ञानी मनुष्य की आत्मा उसकी कामना से ढंकी होती है। इस सूत्र को ठीक | | के पास होता है; अज्ञानी के पास काली बदलियां भी होती हैं। अगर से समझ लेना उपयोगी है। इस तरह सोचें, तो अज्ञानी के पास ज्ञानी से कुछ ज्यादा होता है। पहले तो यह समझ लेना जरूरी है कि ज्ञान स्वभाव है—मौजूद, | | और जिस दिन ज्ञान उपलब्ध होता है, उस दिन यह जो ज्यादा है, अभी और यहीं। ज्ञान कोई उपलब्धि नहीं है, कोई एचीवमेंट नहीं | | यही खोता है, यही आवरण टूटकर गिर जाता है। और जो भीतर है। ज्ञान कोई ऐसी बात नहीं है, जो आज हमारे पास नहीं है और छिपा है, वह प्रकट हो जाता है। कल हम पा लेंगे। क्योंकि अध्यात्म मानता है कि जो हमारे पास तो पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि अज्ञानी से नहीं है, उसे हम कभी नहीं पा सकेंगे। अध्यात्म की समझ है कि | अज्ञानी मनुष्य के भीतर ज्ञान पूरी तरह मौजूद है; अंधेरे से अंधेरे में जो हमारे पास है, हम केवल उसे ही पा सकते हैं। यह बड़ी उलटी | | भी, गहन अंधकार में भी परमात्मा पूरी तरह मौजूद है। कोई कितना बात मालूम पड़ती है। जो हमारे पास है, उसे ही हम केवल पा| ही भटक गया हो, कितना ही भटक जाए, तो भी ज्ञान से नहीं भटक सकते हैं; और जो हमारे पास नहीं है, हम उसे कभी भी नहीं पा सकता, वह उसके भीतर मौजूद है। हम कहीं भी चले जाएं और सकते हैं। इसे ऐसा कहें कि जो हम हैं, अंततः वही हमें मिलता है | | हम कैसे भी पापी हो जाएं और कितने भी अज्ञानी और कितना ही और जो हम नहीं हैं, हमारे लाख उपाय, दौड़-धूप हमें वहां नहीं | अंधेरा और जिंदगी कितने ही धुएं में घिर जाए, तो भी हमारे भीतर पहुंचाते, वह नहीं उपलब्ध होता, जो हम नहीं हैं। | जो है, वह नहीं खोता है। उसके खोने का कोई उपाय नहीं है। बद्ध को जिस दिन ज्ञान हआ. लोग उनके पास आए और उन्होंने लोग मेरे पास आ हैं कि ईश्वर को खोजना है। पूछा, आपको क्या मिला? तो बुद्ध ने कहा, यह मत पूछो; यह तो उनसे मैं पूछता हूं, तुमने खोया कब? इसका मुझे सब पूछो कि मैंने क्या खोया! वे लोग हैरान हुए; उन्होंने कहा, इतनी | | हिसाब-किताब दे दो, तो मैं तुम्हें खोजने का रास्ता भी बता दूं। तपश्चर्या, इतनी साधना, इतनी खोज क्या खोने के लिए करते थे| ईश्वर ऐसे तत्व का नाम है, जिसे हम खोना भी चाहें, तो नहीं खो या पाने के लिए? बुद्ध ने कहा, कोशिश तो पाने के लिए की थी, | सकते हैं। खोने का जिसे उपाय ही नहीं है, उसका नाम स्वभाव है, लेकिन अब जब पाया, तो कहता हूं कि सिर्फ खोया, पाया कुछ भी उसका नाम स्वरूप है। आग उत्ताप नहीं खो सकती, वह उसका नहीं। नहीं उनकी समझ में आया होगा। उन्होंने कहा, हमें ठीक से | | स्वभाव है। मनुष्य ज्ञान नहीं खो सकता, यह उसका स्वभाव है। समझाएं! तो बुद्ध ने कहा, वही पाया जो मुझे मिला ही हुआ था; | | लेकिन फिर भी अज्ञान तो है। तो अज्ञान को हम क्या समझें? 454 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1000+ वासना की धूल, चेतना का दर्पण 4 अज्ञान से दो मतलब हो सकते हैं। ज्ञान का अभाव मतलब हो सकता है अज्ञान से, एब्सेंस आफ नोइंग । कृष्ण का यह मतलब नहीं है। अज्ञान ज्ञान का अभाव नहीं है, अज्ञान ज्ञान का ढंका होना है। अज्ञान ज्ञान का अभाव नहीं है, अज्ञान सिर्फ ज्ञान का अप्रकट होना है। यह भी बहुत मजे की बात है कि धुआं वहीं प्रकट हो सकता है, जहां आग हो। धुआं वहां प्रकट नहीं हो सकता, जहां आग न हो। अज्ञान भी वहीं प्रकट हो सकता है, जहां ज्ञान हो । अज्ञान भी वहां प्रकट नहीं हो सकता, जहां ज्ञान न हो। इसलिए तर्कशास्त्री से अगर पूछेंगे, नैयायिक से अगर पूछेंगे, तो वह कहेगा, जहां-जहां धुआं है, वहां-वहां आग है। हम धुआं देखकर ही कह देते हैं कि आग जरूर होगी। दूसरी मजे की बात यह है कि धुआं तो बिना आग के कभी नहीं होता, लेकिन आग कभी बिना धुएं के हो सकती है, होती है । असल में धुएं का संबंध आग से इतना ही है कि आग बिना ईंधन के नहीं होती। और ईंधन अगर गीला है, तो धुआं होता है; और अगर सूखा है, तो धुआं नहीं होता। लेकिन धुआं बिना आग नहीं हो सकता, ईंधन कितना ही गीला हो। ईंधन अगर सूखा हो, तो आग बिना धुएं के हो सकती है, दमकता हुआ अंगारा बिलकुल बिना धुएं के होता है। अज्ञान के अस्तित्व के लिए पीछे ज्ञान जरूरी है, इसलिए अज्ञान ज्ञान का अभाव नहीं है, एब्सेंस नहीं है, अनुपस्थिति नहीं है। अज्ञान भी बताता है कि भीतर ज्ञान मौजूद है। अन्यथा अज्ञान भी संभव नहीं है, अज्ञान भी नहीं हो सकता है। अज्ञान सिर्फ आवरण की खबर देता है। और आवरण सदा उसकी भी खबर देता है, जो भीतर मौजूद है। बीज सिर्फ आवरण की खबर देता है, अंडे के ऊपर की खोल सिर्फ आवरण की खबर देती है। साथ में यह भी खबर देती है कि भीतर वह भी मौजूद है, जो आवरण नहीं है। इसलिए अज्ञानी को हताश होने की कोई भी जरूरत नहीं है। अज्ञानी को निराश होने की कोई भी जरूरत है। और ज्ञानी को भी अहंकारी हो जाने की कोई जरूरत नहीं है। अगर हिसाब रखा जाए, तो अज्ञानी के पास ज्ञानी से सदा ज्यादा है। यह ज्ञानी को अहंकारी होने की कोई भी जरूरत नहीं है। अज्ञानी को निराश होने की कोई भी जरूरत नहीं है। जो ज्ञानी में प्रकट हुआ है, वह अज्ञानी प्रकट है। जो अप्रकट है, वह प्रकट हो सकता है। वह अप्रकट क्यों है? क्या कारण है? क्या बाधा है ? कृष्ण कहते हैं, धुआं जैसे आग को घेरता है, वैसे ही वासना मन को हुए है। वासना को समझना जरूरी है, अन्यथा आत्मा को हम न समझ पाएंगे। वासना को समझना जरूरी है, अन्यथा अज्ञान को हम न समझ पाएंगे। वासना समझना जरूरी है, अन्यथा का ज्ञान प्रकट होना असंभव है। अब अगर हम ठीक से समझें, तो ज्ञान में अज्ञान बाधा नहीं बन रहा है; ठीक से समझें, तो ज्ञान में वासना | बाधा बन रही है। क्योंकि वासना ही गीला ईंधन है, जिससे कि | धुआं उठता है; वासनामुक्त आदमी सूखे ईंधन की भांति है। मैंने सुना है, फरीद के जीवन में एक छोटा-सा उल्लेख है। एक आदमी आया है और फरीद से पूछने लगा, कि मैंने सुना है कि मंसूर के हाथ-पैर काट डाले गए और उसे दुख न हुआ, यह कैसे हो सकता है ? और मैंने सुना है कि जीसस को फांसी लगाई गई और जीसस परमात्मा से कहते रहे, इन सबको माफ कर देना, क्योंकि ये लोग जानते नहीं हैं कि क्या कर रहे हैं। यह कैसे हो सकता है? यह असंभव है। सूली लगाई जाए, हाथ-पैर काटे जाएं, खीले ठोंके जाएं, गरदन काटी जाए - यह संभव नहीं है, पीड़ा तो | होगी ही, दुख तो होगा ही। मुझे ये सब कहानियां मालूम पड़ती हैं। फरीद हंसने लगा। उसके पास एक नारियल पड़ा था, कोई भक्त चढ़ा गया था। उसने उसे उठाकर दे दिया और कहा, जाओ, देखते | हो इस नारियल को, इसे ठीक से तोड़ लाओ; खोल अलग कर देना, गिरी अलग कर लाना और गिरी को साबित बचा लाना। उस आदमी ने कहा, माफ करें, यह न होगा। नारियल कच्चा है । गिरी और खोल जुड़े हुए हैं। अभी मैं खोल तोडूंगा, तो गिरी भी टूट जाएगी। फरीद ने कहा, छोड़ो, दूसरा नारियल ले जाओ। यह सूखा नारियल है, इसकी तो गिरी और खोल अलग कर लाओगे ! उस आदमी ने कहा, बिलकुल कर लाऊंगा। फरीद ने कहा, अब जाने की जरूरत नहीं है, नारियल को यहीं | रख दो। मैं तुमसे यह पूछता हूं कि सूखे नारियल की गिरी और खोल को तुम बचा लाओगे, अलग कर लाओगे; खोल टूट जाएगी, गिरी बच जाएगी। क्यों? उस आदमी ने कहा, यह भी कोई पूछने की बात है ? सूखे नारियल की गिरी और खोल अलग-अलग हो गई हैं। कच्चे नारियल की जुड़ी हैं। फरीद ने | कहा, बस अब जाओ; तुम्हारे सवाल का जवाब मैंने दिया है। | जीसस या मंसूर जैसे लोगों का नारियल सूखा नारियल है। तो शरीर को कोई चोट पहुंचाता है तो शरीर टूटता है; लेकिन आत्मा तक चोट नहीं पहुंचती है, आत्मा तक घाव नहीं बनता। हम सब कच्चे 455 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mmm गीता दर्शन भाग-1 - नारियल हैं; शरीर पर चोट लगी नहीं कि आत्मा तक चोट पहुंच | इसलिए कृष्ण कहते हैं, उसे ज्ञान उपलब्ध नहीं हो पाता। जाती है। जुड़ा है सब। जैसे आप अपने दरवाजे पर खड़े हैं और रास्ते पर चलते लोगों वासना कच्चा ईंधन है। गीली लकड़ी है। क्या मतलब है मेरा? | | को देख रहे हैं, तो फिर घर के लोगों को न देखे पाएंगे। सच तो वासना को देखने के दो-तीन प्रकार हैं। एक तो वासना की मान्यता यह है कि अगर रास्ते पर चलते लोगों को देखने में बहुत लीन हो है कि जो मुझे चाहिए, वह मेरे पास नहीं है। वासना का आधार है | | गए, तो अपने को भूल ही जाएंगे। असल में दूसरे को देखने में कि जो मुझे चाहिए, वह मेरे पास नहीं है; जो भी चाहिए, वह नहीं | ध्यान दूसरे पर चला जाता है, स्वयं से च्युत हो जाता है। है। वासना का स्वरूप सदा यही है कि जो भी चाहिए, वह मेरे पास | वासना पर लगा हुआ ध्यान आत्मा से च्युत हो जाता है। आत्मा नहीं है। ऐसा नहीं कि कल वह चीज मिल जाएगी तो वासना मर | | भीतर खड़ी है, मौजूद है, सदा तैयार है। आओ कभी भी, द्वार खुले जाएगी, सिर्फ वासना उस चीज से सरककर किसी दूसरी चीज पर | | हैं। लेकिन वासना की यात्रा पर निकला आदमी जन्मों-जन्मों लग जाएगी। दस हजार रुपए नहीं हैं, तो वासना कहती है कि दस भटकता है और वहां नहीं आता है। वह खोजता ही चला जाता है। हजार रुपए चाहिए। दस हजार रुपए होते हैं, तो वासना कहती है वह खोजता ही चला जाता है। और जहां तक पहंचता है, वासना कि दस लाख चाहिए। दस लाख होते हैं, तो वासना कहती है कि आगे के स्वप्न बना लेती है। क्षितिज की तरह है वासना। हॅराइजन दस करोड़ चाहिए। दिखाई पड़ता है आकाश का। लगता है, थोड़ी ही दूर, दस मील एण्ड कार्नेगी अमेरिका का एक अरबपति मरा। जब मरा, तो वह |दूर आकाश जमीन को छू रहा है। कहीं भी छूता नहीं। मन कहता दस अरब रुपए छोड़कर मरा। मरने के दो दिन पहले उसका जीवन | है, बस पास ही है; जरा दौडूं और पहुंच जाऊं। पहुंचे.आप, दौड़ें लिखने वाले एक व्यक्ति ने उससे पूछा कि आप तो तृप्त होंगे! | आप। पहुंच भी जाएंगे दस मील, लेकिन पाएंगे कि आकाश अब आपसे बड़ा अरबपति पृथ्वी पर कोई दूसरा नहीं है; आपने तो | | भी छूता है, लेकिन अब दस मील आगे छूता है। और दस मील जिंदगी में जो पाना चाहा था, वह पा लिया है। एण्ड कार्नेगी ने गुस्से चलें। पहुंच जाएंगे दस मील, फिर भी पाएंगे, आकाश फिर भी से उसको कहा, चुप रहो, बकवास बंद करो। जो मैंने पाना चाहा | छूता है, आगे दस मील छूता है। आकाश सदा ही आगे दस मील था, वह मैंने कहां पाया है? मेरे इरादे सौ अरब रुपए छोड़ने के थे। | छूता है। कहीं छूता नहीं; सिर्फ छूता हुआ प्रतीत होता है। दौड़ते रहें; लेकिन क्या आप सोचते हैं, सौ अरब रुपए एण्डू कार्नेगी के | | पूरी पृथ्वी का चक्कर लगा लें, आकाश कहीं छूता हुआ नहीं पास होते, तो बात हल हो जाती? क्योंकि जिसकी दस अरब से | | मिलेगा। लेकिन सदा मालूम पड़ेगा कि बस, जरा और आगे, और हल न हुई, उसकी सौ अरब से भी हल न होती। हां, सौ अरब होते, | छुआ, और छुआ। बस, यह तो छू रहा है! दौड़ाता सदा रहेगा, तो इरादे और आगे बढ़ जाते, हजार अरब पर हो जाते, लाख अरब कभी छूता हुआ मिलेगा नहीं। पर हो जाते। वासना आकाश छूती हुई क्षितिज की रेखा जैसी है। सदा लगती वासना, जो नहीं है, उसकी मांग है। इसलिए एक अर्थ में समझें, | | है, बस अब पूरी हुई—एक वर्ष और, दो वर्ष और, दस वर्ष और, तो वासना सदा ही रिक्त है, सदा खाली है। सदा रिक्त, सदा | यह कारखाना और, यह मकान और, यह दुकान और–बस पूरा खाली, सदा एंप्टी, कभी भरती नहीं। भर नहीं सकती। उसका | हुआ जाता है, क्षितिज की रेखा आई जाती है, आकाश छू लेगा। स्वभाव यही है कि जो नहीं है, वह। और कुछ तो नहीं होगा ही। | पहुंच जाते हैं वहां, पाते हैं कि रिक्त, खाली हाथ वैसे ही खड़े हैं, कुछ तो नहीं होगा ही। वह, जो नहीं है, वासना वहीं लगी रहती है। | जैसे दस साल पहले थे, पचास साल पहले थे और आकाश अभी और चूंकि वासना जो नहीं है, वहां लगी रहती है, इसलिए आत्मा, | | भी थोड़े आगे छू रहा है। वासना अभी भी थोड़े आगे कह रही है, जो है, वह हमें प्रकट नहीं हो पाती। हमारा सारा चित्त उस पर | थोड़े और चल आओ, तो तृप्ति हो जाएगी। अटका रहता है, जो नहीं है। हम उसको कैसे देख पाएं, जो है। | इसलिए आदमी बढ़ता चला जाता है। और तब एक चीज से आत्मा अभी है, यहीं है; और वासना कल है, कहीं है। वासना सदा वंचित रह जाता है, जो उसे मिली हुई थी, जो उसके पास ही थी, भविष्य में है, आत्मा सदा वर्तमान में है। इसलिए जिस आदमी का | | जो कि परमात्मा की उसे भेंट थी, गिफ्ट थी, जो कि परमात्मा ने उसे मन वासना में भटक रहा है, वह आत्मा तक नहीं पहुंच पाता। | दी थी, उस चीज से भर वंचित रह जाता है। और जो वासनाएं उसे 456 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वासना की धूल, चेतना का दर्पण - दे नहीं सकतीं, कभी नहीं दे सकतीं, उन्हीं की दौड़ में वह दौड़ता | उसके साथी, जो उसे घुमा रहे थे, वे उसके पीछे भागे। उसे कहा चला जाता है। इस दौड़ के धुएं में खो जाता है ज्ञान; इस दौड़ में | कि रुको भाई! वह नहीं रुका। वह तो स्टेशन पार कर गया। वह छिप जाता है वह, जो है। इस दौड़ में भूल जाता है वह, जो सदा | तो अपनी गली में पहुंच गया। वह तो अपने घर के सामने पहुंच से साथ है; और स्मरण आता है उसका, जो कभी साथ नहीं हो गया। उसने कहा, वह रहा मेरे पिता का घर। वह रही मेरी तख्ती, सकता है। जो घर के सामने लगी है। विस्मरण टूट गया; स्मरण लौट आया। वासना ही अज्ञान है. डिजायरिंग इज इग्नोरेंस। ठीक से समझें. परमात्मा पुनःस्मरण है, रिमेंबरिंग है। वह हमारे भीतर बैठा है। तो अज्ञान कुछ और नहीं है। वासना में दौड़ा हुआ चित्त आत्मा को | | हम एक दुर्घटनाग्रस्त स्थिति में हो गए हैं। हमारा एक्सिडेंट, हमारी उपलब्ध नहीं हो पाता है। यह विस्मरण बन जाता है। वासना का दुर्घटना यह है कि जो नहीं है, उसने हमें आकर्षित कर लिया है। स्मरण आत्मा का विस्मरण है। इच्छा के पीछे ध्यान का जाना, स्वयं | | इसका कारण है कि जो होता है, उसका आकर्षण नहीं होता है; जो से ध्यान का चूक जाना है। और ध्यान हमेशा वन डायमेंशनल है। नहीं है, उसमें आकर्षण होता है। जो पास है, उसे हम भूल जाते हैं; ध्यान एक आयामी है। अगर आप इच्छा के पीछे चले गए, तो वह | | जो दूर है, उसे हम याद करते हैं। कभी आपने खयाल किया, मित्र पीछे नहीं लौट सकता। कोई उपाय नहीं है। हां, इच्छा जाए, विदा पास हो, तो याद नहीं आती; मित्र दूर हो, तो याद आती है। प्रियजन हो, धुआं न हो, तो वह अपने पर लौट आए। इसलिए कृष्ण इस | | बगल में बैठा हो, तो भूल जाता है; अखबार पढ़ते रहते हैं। और सूत्र में कहते हैं कि ज्ञान कोई खोता नहीं, लेकिन ज्ञान विस्मरण हो | प्रियजन दूर चला जाए, तो अखबार क्या गीता भी नहीं पढ़ी जाती; जाता है। फारगेटफुलनेस, खोना नहीं है, सिर्फ विस्मृति है। बंद करके रख देते हैं; उसकी याद आती है। दूर है कोई चीज, तो मैंने सुना है, पिछले महायुद्ध में एक आदमी चोट खाकर गिर. | याद आती है; नहीं है पास, तो याद आती है। पास है, बिलकुल पड़ा और भूल गया नाम, पिता का नाम, घर का पता। कठिनाई न | पास है, तो याद भूल जाती है। पड़ती, कठिनाई न पड़ती, अगर उसका नंबर भी रह गया होता। और परमात्मा से ज्यादा पास हमारे और कोई भी नहीं है। लेकिन युद्ध के मैदान में कहीं उसका नंबर भी गिर गया और वह मोहम्मद ने कहा है, गले की नस-जो कट जाए, तो जीवन चला बेहोश उठाकर लाया गया। नंबर होता, तो पता चल जाता। नंबर | | जाए-उससे भी पास है परमात्मा। श्वास–जो बंद हो जाए, तो भी नहीं था और उस आदमी को होश आया, उसे पता भी नहीं था प्राण निकल जाएं-मोहम्मद ने कहा है, उससे भी पास है कि मैं कौन हूं! उसे रिटायर्ड भी कर दिया गया, लेकिन उसे कहां | परमात्मा। श्वास से भी जो पास है, उसे अगर हम भूल गए, तो पहुंचाया जाए! उसे अपना कोई पता ही नहीं। कोई आश्चर्य नहीं, स्वाभाविक है। फिर किसी मनोवैज्ञानिक ने सुझाव दिया कि उसे इंग्लैंड के अज्ञान बिलकुल स्वाभाविक है, लेकिन तोड़ा जा सकता है, गांव-गांव में घुमाया जाए, ट्रेन से ले जाया जाए। हो सकता है, | | अनिवार्य नहीं है। स्वाभाविक है, अनिवार्य नहीं है। प्राकृतिक है, किसी स्टेशन को देखकर उसे याद आ जाए कि यह मेरा गांव है। | मंगलदायी नहीं है। भूल गए, यह ठीक, लेकिन इस भूल से सारा क्योंकि गांव खोया तो नहीं है, सिर्फ विस्मरण हो गया है। गांव तो | जीवन दुख और पीड़ा और नर्क से भर जाता है। हमारी सारी पीड़ा अपनी जगह होगा और यह आदमी अपनी जगह है। और गांव | एक ही है बुनियाद में, गहरे में, केंद्र पर कि हम उसे भूल गए हैं, अपनी जगह है और यह आदमी अपनी जगह है। सब अपनी जगह जो हमारे भीतर बैठा है। है, लेकिन बीच की स्मृति का धागा टूट गया है, शायद जुड़ जाए। | कृष्ण कहते हैं, जैसे धुएं से आग छिपी है, ऐसे ही तुम भी छिपे उसे गांव-गांव ले जाया गया। बड़े-बड़े नगरों में ले जाया गया। हो अपनी ही वासना से। लेकिन वह बस खड़ा हो जाता, उसे कुछ याद न आता। फिर एक ___ कभी आपने खयाल किया कि यह धुआं बड़ा कीमती शब्द है। जगह तो ट्रेन रुकनी नहीं थी, किसी कारण से छोटी स्टेशन पर रुकी | | कुछ और शब्द भी प्रयोग किया जा सकता था, लेकिन धुआं थी, उस आदमी ने खिड़की से झांककर देखा। फिर वह | | कितना हवाई है, ठोस नहीं है जरा भी। जरा भी ठोस नहीं है, हाथ मनोवैज्ञानिकों को बताने के लिए नहीं रुका, जो उसके साथ थे, | | हिलाएं, तो चोट भी नहीं लगती धुएं को। तलवार चलाएं, तो धुआं दरवाजा खोलकर भागा। उसने कहा, मेरा गांव! मनोवैज्ञानिक, | | कट भी नहीं सकता। धक्के देकर हटाएं, तो आप ही हट जाएंगे, 1457 Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m+ गीता दर्शन भाग-1 AM धुआं वहीं का वहीं रह जाएगा। कितना ना-कुछ, जस्ट लाइक जम जाती है आदमी की चेतना पर।। नथिंग। धुएं का इसलिए उपयोग किया है कि बिलकुल ना-कुछ है, | चेतना को दर्पण कहना बहुत सार्थक है। चेतना है ही दर्पण। सब्सटेंशियल जरा भी नहीं, तत्व कुछ भी नहीं है; धुआं-धुआं है। | | लेकिन हमारे पास चेतना दर्पण की तरह काम नहीं करती। धूल वासना भी ऐसी ही धुआं-धुआं है। तत्व कुछ भी नहीं है, सिर्फ | बहुत है। कुछ नहीं दिखाई पड़ता। अपनी ही शक्ल नहीं दिखाई धुआं-धुआं है। हाथ से हटाएं, हटती नहीं; तलवार से काटें, कटती पड़ती अपनी ही चेतना में, तो और क्या दिखाई पड़ेगा! कुछ नहीं नहीं; फिर भी है। और उसे छिपा लेती है, जो बहुत वास्तविक है। दिखाई पड़ता। अंधे की तरह टटोलकर चलना पड़ता है। वह दर्पण, अब आग से ज्यादा वास्तविक क्या होगा! आग किसी को भी जला | जिसमें सत्य दिखाई पड़ सकता है, जिसमें परमात्मा दिखाई पड़ दे और धुएं को नहीं जला पाती! आग किसी को भी राख कर दे, | | सकता है, जिसमें स्वयं की झलक का प्रतिबिंब बन जाता, कुछ नहीं और धुएं को राख नहीं कर पाती। अगर धुआं होता कुछ, तो आग दिखाई पड़ता, सिर्फ धूल ही धूल है। और हम उस धूल को बढ़ाए उसको जला देती। वह ना-कुछ है, इसलिए जला भी नहीं पाती। | चले जाते हैं। धीरे-धीरे हम बिलकुल अंधे हो जाते हैं, एक और धुआं उसे घेर लेता है। ऐसे ही मनुष्य के भीतर के ज्ञान को स्प्रिचुअल ब्लाइंडनेस। उसकी वासना घेर लेती है। वासना अगर कुछ होती, तो ज्ञान काट एक अंधापन तो आंख का है। जरूरी नहीं कि आंख का अंधा भी देता, लेकिन बिलकुल धुआं-धुआं है। आदमी भीतर से अंधा हो। जरूरी नहीं कि आंख का ठीक आदमी कभी आपने अगर खयाल किया होगा अपने चित्त का, जब वह | भीतर से अंधा न हो। एक और अंधापन भी है, जो भीतर के दर्पण वासना से भरता है, तो आपको फौरन पता लगेगा कि जैसे | पर धूल के जम जाने से पैदा हो जाता है। हम तो दर्पण की तरह धुआं-धुआं चारों ओर घिर गया। कभी कामवासना से जब मन भर | व्यवहार ही नहीं करते। एक तो हमें पता ही नहीं चलता कि हमारे जाता है, तो ऐसा ही लगता है, जैसे सुबह, सर्दी की सुबह आप | भीतर कोई दर्पण है, जिसमें सत्य का प्रतिफलन हो सके! दर्पण का बाहर निकले हों और चारों ओर धुआं-धुआं है। कुछ दिखाई नहीं | | पता कब चलता है? जब दर्पण रिफ्लेक्ट करता है, तभी पता चलता पड़ता, अंधापन घेर लेता है, फिर भी बढ़े जाते हैं। कोई चीज, जहां है। अगर आपके पास दर्पण है, उसमें तस्वीर नहीं नहीं बढ़ना चाहिए, ऐसा भी लगता है, फिर भी बढ़े जाते हैं। कोई | नहीं बनता, तो उसे कौन दर्पण कहेगा? भीतर से पुकारता भी है कि अंधेरे में जा रहे हो, गलत में जा रहे | आपने कभी खयाल किया कि आपके भीतर सत्य का आज तक हो, फिर भी बढ़े जाते हैं। कोई प्रतिबिंब नहीं बना! जरूर कहीं न कहीं आपके भीतर दर्पण कृष्ण ने दूसरा एक प्रतीक लिया है, जैसे दर्पण पर धूल जम जैसी चीज खो गई है। वे जो जानते हैं, वे तो कहते हैं, वे तो कहते जाए, दर्पण पर मल जम जाए। दर्पण है, धूल जम गई है। धूल | हैं कि दिल के आईने में है तस्वीरे-यार, वह तो यहां हृदय के दर्पण जमने से दर्पण जरा भी नहीं बिगड़ता है, जरा भी नहीं। दर्पण का | में उस प्रेमी की तस्वीर है; जब जरा गरदन झुकाई देख ली। बाकी कुछ भी नहीं बिगड़ता। और दर्पण इंचभर भी कम दर्पण नहीं होता | | हम कितनी ही गरदन झुकाएं, कुछ दिखाई नहीं पड़ता। अपनी है धल के जमने से. दि मिरर रिमेंस दि मिरर: कोई फर्क नहीं पड़ता। गरदन भी नहीं दिखाई पड़ती, तस्वी बहत मश्किल है। धूल कितनी ही पर्त-पर्त जम जाए कि दर्पण बिलकुल खो जाए, तो | उस प्रेमी की तस्वीर दिखाई पड़नी तो बहुत मुश्किल है। धूल है। भी दर्पण नहीं खोता। उसकी मिरर-लाइक क्वालिटी पूरी की पूरी | - धूल क्यों कहते हैं? धुआं क्यों कहते हैं, मैंने कहा। धूल क्यों बनी रहती है। उसमें कुछ फर्क नहीं पड़ता। धूल के पहाड़ जमा दें | | कहते हैं? और कृष्ण जैसा आदमी जब एक भी शब्द का प्रयोग दर्पण के ऊपर, छोटे-से दर्पण पर एवरेस्ट रख दें धूल का, तो भी | करता है, तो यों ही नहीं करता। कृष्ण जैसे लोग टेलीग्राफिक होते दर्पण का जो दर्पणपन है, मिरर-लाइक जो उसका गुण है, वह नहीं | हैं; एक-एक शब्द बड़ी मुश्किल से उपयोग करते हैं। खोता। वह अपनी जगह है। और जब भी धूल हट जाएगी, दर्पण | जैसे टेलीग्राफ आफिस आप चले जाते हैं, तो एक-एक शब्द दर्पण है। और जब धूल थी दर्पण पर, तब भी दर्पण दर्पण था, कुछ | को काटते हैं कि कहीं ज्यादा न हो जाए, ज्यादा दाम न लग जाएं। खोया नहीं था। इसलिए दूसरा प्रतीक भी कृष्ण का बहुत कीमती आठ अक्षर, पहले दस, अब आठ से ही काम चलाना पड़ता है; है। वे कहते हैं, जैसे धूल जम जाती है दर्पण पर, ऐसे ही वासना आठ में ही काम हो जाता है। लेकिन कभी आपने खयाल किया कि 458 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वासना की धूल, चेतना का दर्पण - आठ सौ शब्दों की चिट्ठी जो काम नहीं करती, वह आठ अक्षर का | और बड़े मजे की बात है कि वासना तृप्त न हो, तो भी चित्त तार काम कर जाता है। असल में जितने बेकार शब्द अलग हो जाते | | पीड़ित और परेशान होता है; और जो चाहा था वह मिल जाए, तो हैं, उतना ही इंटेंस, उतना ही गहरा भाव प्रकट हो जाता है। भी चित्त फ्रस्ट्रेट होता है, तो भी पीछे विषाद छूट जाता है। कृष्ण जैसे लोग टेलीग्राफिक हैं, एक भी शब्द का ऐसे ही उपयोग | कामवासना तृप्त न हो, तो मन कामवासना के चित्रों की दुर्गंध से नहीं कर लेते। जब वे कहते हैं धूल की भांति वासना को, तो कुछ। | भर जाता है। और कामवासना तृप्त होने का मौका आ जाए, तो बात है। उन्होंने तो ठीक शब्द मल प्रयोग किया है। मल और भी, | पीछे सिवाय हारे हुए, दुर्गंध से पराजित व्यक्तित्व के कुछ भी नहीं धूल से भी कठिन शब्द है। मल में गंदी धूल का भाव है, सिर्फ धूल छूटता। दोनों ही स्थितियों में चेतना धूमिल होती है और चेतना पर का नहीं। गंदगी से भर गया। धूल ही नहीं सिर्फ, गंदगी भी। गंदगी की पर्त जम जाती है। वासना में गंदगी क्या है? दुर्गध क्या है? बहुत दुर्गंध है। और लेकिन गंदगी की पर्त पता नहीं चलती, क्योंकि धीरे-धीरे हम वह दुर्गंध इस बात से आती है कि एक तो वासना कभी भी दूसरे | गंदगी के आदी हो जाते हैं। दुर्गंध मालूम नहीं पड़ती! नासापुट राजी का गुलाम हुए बिना पूरी नहीं होती और जीवन में सारी दुर्गंध | हो जाते हैं, कंडीशनिंग हो जाती है। तो ऐसा भी हो सकता है कि परतंत्रता से आती है। जीवन की सारी दुर्गंध परतंत्रता से आती है | हमें दुर्गंध नहीं, सुगंध मालूम पड़ने लगे। ऐसा भी हो जाता है। ऐसा और जिंदगी की सारी सुगंध स्वतंत्रता से आती है। जितना स्वतंत्र | भी हो जाता है कि जो दुर्गंध निरंतर हम उसके आदी हो गए हैं, मन, उतना ही सुवास से भरा होता है। और जितना परतंत्र मन, | कंडीशनिंग हो गई है, तो हमें लगता है कि बड़ी सुगंध आ रही है। उतनी दुर्गंध से भर जाता है। और वासना परतंत्र बनाती है। ऐसा ही हो भी गया है। और जिस दिन दुर्गंध सुगंध मालूम होने अगर आप एक स्त्री पर मोहित हैं, तो एक गुलामी आ जाएगी। लगती है, उस दिन तो जैसे फिर छुटकारा बहुत मुश्किल है। जिस अंगर आप एक पुरुष पर मोहित हैं, तो एक गुलामी आ जाएगी। | आदमी को कारागृह निवास मालूम पड़ने लगे, घर मालूम पड़ने अगर आप धन के दीवाने हैं, तो धन की गुलामी आ जाएगी। अगर | लगे, फिर तो छुटकारा बहुत मुश्किल है। जिस आदमी को सूली आप पद के दीवाने हैं, तो जाकर दिल्ली में देखें! एक दफे दिल्ली | | सिंहासन मालूम पड़ने लगे, आप उसे उतारना भी चाहें सूली से, में सबको पकड़ लिया जाए और एक पागलखाना बना दिया जाए, | तो वह नाराज हो कि भाई हम सिंहासन पर बैठे हैं, आप हमें उतारने तो मुल्क बहुत शांति में हो जाए। अलग-अलग पागलखाने खोलने | की बात करते हैं! तुम भी आ जाओ। की जरूरत नहीं, पूरी दिल्ली घेरकर पागलखाना बना देना चाहिए। | तो अगर हम जीसस पर, कृष्ण और क्राइस्ट पर, और बुद्ध और या पार्लियामेंट को ही पकड़ लिया जाए, तो भी काफी है। कुर्सी! मोहम्मद पर अगर नाराज हो जाते हैं, तो नाराज होने का कारण है। तो आदमी ऐसा गलाम हो जाता है. ऐसा गिडगिडाता है. ऐसी लार हम अपनी दर्गध में बडे मस्त हैं. तम नाहक . टपकाता है, ऐसे हाथ जोड़ता है, ऐसे पैर पड़ता है, और क्या-क्या | डिस्टर्ब करते हो। हम बड़े मजे में हैं। गोबर का कीड़ा है, वह गोबर नहीं करता-वह सब करने को राजी हो जाता है। एक गुलामी है, | | में ही मजे में है। आप उसे गोबर से हटाएं, तो वह बड़ी नाराजगी एक दासता है। से फिर गोबर की तरफ चला जाता है। उसके लिए गोबर नहीं है, जहां भी वासना है, वहां गुलामी होगी। जो पैसे का पागल है, उसके लिए जीवन है! उसको देखा है आपने कि रुपए को कैसा, कैसा मोहित, कैसा | खयाल शायद हमें न आए कि जहां हम जी रहे हैं, वह दुर्गंध है। मंत्रमुग्ध देखता है! रात सपने में भी गिनता रहता है। पैसा छिन लेकिन दुर्गंध तो है ही, चाहे हम कितने ही कंडीशंड हो जाएं। फिर जाए, तो उसके प्राण चले जाएं। उसका प्राण पैसे में होता है। पैसा | | हम कैसे पहचानें कि वह दुर्गंध है ? हम एक ही बात पहचान सकते बच जाए, तो उसकी आत्मा बच जाती है। वासना दुर्गंध लाती है, | | हैं, जिससे दुख मिलता हो, हम उसे पहचान सकते हैं। अगर सुगंध क्योंकि वासना परतंत्रता लाती है। और इसलिए वासना से भरा | | है वासना, तो दुख नहीं मिलना चाहिए। लेकिन दुख मिलता है, हुआ आदमी कभी सुगंधित नहीं होता। उसके चारों तरफ वह सुगंध दुख ही दुख मिलता है, फिर भी हम कहे चले जाते हैं, सुगंध। नहीं दिखाई पड़ती, जो किसी महावीर, किसी बुद्ध, किसी कृष्ण के | | कृष्ण कहते हैं, दुर्गंधयुक्त मल से ढंक जाए जैसे दर्पण। दर्पण आस-पास दिखाई पड़ती है। कहते हैं। 459 Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1 AM दर्पण के साथ एक और बात समझ लेनी जरूरी है। दर्पण पर, | अब वह सूरज है, न वह आकाश है, न जमीन है; सब बदल चुका। आपने कभी खयाल किया कि दर्पण के सामने आइए, तो आपकी | चौबीस घंटे में गंगा बहुत बह गई। तू किससे माफी मांगता है! न जाती है और हट जाइए, तो तस्वीर मिट जाती है। यह लेकिन वह कहने लगा, नहीं, मुझे माफ कर दें। बुद्ध ने कहा, तूने दर्पण की खूबी है। यही उसकी क्वालिटी है, यही उसका गुण है।। | थूका ही नहीं। मालूम होता है, तू जो थूक गया था, चौबीस घंटे फोटो कैमरे के भीतर भी फिल्म होती है। वह उस पर भी तस्वीर | उसको दोहराता भी रहा है, उसकी जुगाली करता रहा है। बनती है, लेकिन मिटती नहीं; बन गई, तो बन गई। एक्सपोजर हो ___ हम सब ऐसे ही जीते हैं। यहां कोई हम में दर्पण जैसा नहीं है। गया, तो हो गया। एक दफे बनती है, फिर तस्वीर को पकड़ लेती | दर्पण जैसा व्यक्ति ही अनासक्त हो सकता है, क्योंकि तब चीजें है कैमरे की फिल्म, फिर छोड़ती नहीं। आती हैं और चली जाती हैं। दर्पण जैसा कहने का कारण है। सिर्फ जो व्यक्ति धुएं से और | वही कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि तू दर्पण जैसे ज्ञान को दुर्गंधयुक्त मल से मुक्त होता है और जिसका चित्त शद्ध दर्पण हो | उपलब्ध हो जा। हटा धूल को, जिस धूल के कारण चित्र पकड़ जाते जाता है, उसकी स्थिति ऐसी हो जाती है-उसके सामने जो आता | | हैं। हटा धुएं को, जिस धुएं के कारण तुझे दिखाई नहीं पड़ता कि है, उसकी तस्वीर बन जाती है; जो हट जाता है, दर्पण कोरा और | | तेरे भीतर जो ज्योति है ज्ञान की, वह क्या है। अपने दर्पण को उसकी खाली और मुक्त हो जाता है। मित्र आया, तो खुशी; और चला | पूरी शुद्धता में, पूरी प्योरिटी में ले आ, ताकि चीजें आएं और मिटें गया, तो भूल गए। परिवार के लोग रहे, तो आनंद; नहीं रहे, तो | और जाएं और तेरे ऊपर कोई प्रभाव न छूट जाए, कोई इंप्रेशन, कोई बात समाप्त-दर्पण जैसा। फिर कोई चीज पकड़ती नहीं, | प्रभाव तेरे ऊपर पकड़ न जाए, तू खाली...। ' एक्सपोजर होता ही नहीं। चीजें आती हैं, चली जाती हैं, और दर्पण ___ कबीर ने कहा न, ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया, खूब जतन अपनी शुद्धता में जीता है। से ओढ़ी कबीरा; बहुत जतन से ओढ़ी चादर और फिर ज्यों की त्यों दर्पण को अशद्ध नहीं किया जा सकता। फोटो के कैमरे की जो धरि दीन्हीं। जरा भी दाग नहीं लगाया। दर्पण जैसी हो चादर, तभी फिल्म है, उसको अशुद्ध किया जा सकता है, वह अशुद्ध होने के | हो सकता है ऐसा। अगर चादर दर्पण जैसी न हो, तो दाग लग ही लिए ही है। वही उसकी खूबी है कि वह फौरन तस्वीर को पकड़ लेती जाएगा। जिस चादर की बात कबीर कह रहे हैं, वह कृष्ण के दर्पण है और बेकार हो जाती है। दर्पण बेकार नहीं होता। लेकिन हम जिस | की ही बात है। अगर चित्त दर्पण जैसा है, तो कितनां ही ओढ़े, कोई चित्त से जीते हैं, उसमें हमारी हालत दर्पण जैसी कम और फोटो की दाग नहीं लगता। दर्पण पर दाग लगता ही नहीं। दर्पण कुछ पकड़ता फिल्म जैसी ज्यादा है। जो भी पकड़ जाता है, वह पकड़ जाता है, | ही नहीं। सब चीजें आती हैं और चली जाती हैं, और दर्पण अपने फिर वह छूटता नहीं। एक्सपोजर हो जाता है, छूटता ही नहीं। कल | खालीपन में, अपनी शून्यता में, अपनी निर्मलता में, अपनी शुद्धता किसी ने गाली दी थी, वह अभी तक नहीं छूटी; चौबीस घंटे बीत | में रह जाता है। गए, वह गूंज रही है, वह चल रही है। देने वाला हो सकता है, भूल | लेकिन शुद्धता दर्पण की तो तब हो न, जब उसके ऊपर धूल गया हो; देने वाला हो सकता है, अब माफी मांग रहा हो मन में; देने | अशुद्धि की न जमे। दर्पण शुद्ध तो तब हो न, जब मैं स्वयं रहूं, मेरे वाला हो सकता है, अब हो ही न इस दुनिया में लेकिन वह गाली | | ऊपर दूसरे न जम जाएं। दर्पण तो शुद्ध तब हो न, जब मैं जो हूं, गूंजती है। हो सकता है वह आज गूंजे, कल गूंजे; हो सकता है कब्र | | वही रहूं; उसकी आकांक्षा न करूं, जो मैं नहीं हूं। दर्पण तो शुद्ध में आप उसे अपने साथ ले जाएं और वह गूंजती ही रहे। एक्सपोजर | | तभी हो सकता है न, जब वर्तमान का क्षण पर्याप्त हो और जब हो गया, दर्पण जैसा नहीं रह्य आपका चित्त। भविष्य की कामनाएं न पकड़ें और अतीत की स्मृतियां न पकड़ें, एक सुबह बुद्ध के ऊपर एक आदमी थूक गया और दूसरे दिन | तभी मन का दर्पण शुद्ध हो सकता है। माफी मांगने आया। तो बुद्ध ने कहा, पागल, गंगा का बहुत पानी । ऐसे शुद्ध दर्पण को कृष्ण कहते हैं, ज्ञान। और ऐसा ज्ञान मुक्ति बह चका है। कहां की बातें कर रहा है। इतिहासों को मत उखाड.| गड़े मुरदों को मत उखाड़; बात खत्म हो गई। अब न तो मैं वह हूं, जिस पर तू थूक गया था; न अब तू वह है, जो थूक गया था; न 4601 Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 वासना की धूल, चेतना का दर्पण - प्रश्नः भगवान श्री, आप कहते हैं कि खाद की दुर्गंध | | जिसका दुरुपयोग, अशुभ उपयोग न हो सके। उपयोग सदा हम पर ही फल की सुगंध बनती है और काम-ऊर्जा ही निर्भर है। आत्म-ऊज किन यहां काम को ज्ञानियों | हम वासना का शत्र की तरह व्यवहार कर सकते हैं। हम करते का नित्य वैरी कहकर उसके प्रति निंदाभाव क्यों | हैं। हम वासना से करते क्या हैं? हम वासना से सिर्फ अपने को व्यक्त किया गया है? | थकाते हैं। हम वासना से सिर्फ अपने को गंवाते हैं। हम वासना से सिर्फ अपने को चुकाते हैं। हम वासना से सिर्फ छेद-छेद से जैसे पानी रीतता चला जाए किसी घड़े से, ऐसे हम अपने जीवन को नहीं , निंदाभाव नहीं है। वैरी कहकर सिर्फ एक तथ्य की | रिताते हैं। हम और वासना से करते क्या हैं? वासना हमारे लिए OL सूचना दी गई है। और जब मैं कहता हूं कि खाद की | | शक्ति का, ऊर्जा का, परमात्मा की उपलब्धि का द्वार नहीं बनती दुर्गंध ही फूल की सुगंध बनती है, तब मैं यह नहीं कह | है। वासना हमारे लिए ऊर्जा का, शक्ति का, प्रभु का, आत्मा का रहा हं कि खाद में दर्गध नहीं होती। खाद में दर्गध तो होती ही है। खोने का मार्ग बनती है। वासना का रूपांतरण हो सकता है। और आप घर में खाद ही रख लें लाकर, तो फूलों की सुगंध पैदा | ___ इसलिए कृष्ण जब वैरी कह रहे हैं, तो उनका प्रयोजन निंदा का नहीं हो जाती। सिर्फ दुर्गध ही बढ़ेगी; खाद सड़ेगा और दुर्गंध | | नहीं है। और जब मैं मित्र कहता हूं, तो मेरा प्रयोजन भी प्रशंसा का बढ़ेगी। जो आदमी खाद को घर में रखकर बैठ जाता है, उसके | नहीं है। फिर से दोहराऊ-जब कृष्ण कहते हैं, वासना शत्रु है, तो लिए खाद वैरी है। लेकिन जो आदमी खाद को बगिया में डालकर, उनका प्रयोजन निंदा का नहीं है; और जब मैं कहता है, वासना मित्र मिट्टी में मिलाकर, बीजों के साथ बिछा देता है, उसके लिए खाद | है, तो मेरा प्रयोजन प्रशंसा का नहीं है। कृष्ण आधी बात कह रहे हैं मित्र हो जाता है। और ध्यान रहे, वैरी का होना वैरी, कोई उसकी | | कि शत्रु है और सूचना दे रहे हैं कि उसे शत्रु ही मत बनाए रखना। नियति नहीं हैं, वह मित्र भी हो सकता है। जो वैरी हो सकता है, | मैं भी आधी बात कह रहा हूं कि मित्र है और सूचना दे रहा हूं कि वह मित्र भी हो सकता है। जो मित्र हो सकता है. वह वैरी भी हो उसे मित्र बना लेना है। सकता है। शत्रु मित्र बनाए जा सकते हैं; दुर्गधे सुगंधे बनाई जा सकती हैं; यहां कृष्ण सिर्फ इतना ही कह रहे हैं कि जिसकी वासना धुआं | धुआं आग की तरफ ले जाने वाला बन सकता है और धुआं आग बनकर उसके चित्त को घेर लेती है, उसकी वासना उसकी ही दुश्मन | से दूर ले जाने वाला भी बन सकता है। यह हम पर निर्भर करता है हो जाती है। लेकिन जो इस धएं से अपनी अग्नि को पहचानता है कि हम वासना का क्या उपयोग करते हैं। वासना विनाशक हो कि अग्नि भी भीतर होनी चाहिए, क्योंकि धुआं बाहर है। और सकती है और वासना सृजनात्मक भी हो सकती है। वासना ही • जहां-जहां धुआं है वहां-वहां अग्नि है, बिना अग्नि के धुआं नहीं हो | | मनुष्य को वहां पहुंचा सकती है, जहां परमात्मा का मंदिर है। और सकता। जो इस वासना के धुएं को देखकर भीतर की अग्नि के वासना ही वहां भी पहुंचा सकती है, जहां परमात्मा की तरफ पीठ स्मरण से भर जाता और धुएं को हटाकर अग्नि को उपलब्ध होता भी हो जाती है। दोनों ही हो सकता है। है, उसके लिए वासना शत्रु नहीं रह जाती, मित्र हो जाती है। लेकिन | हमने तुलसीदास की कहानी पढ़ी है; सभी को पता है। वासना कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि वैरी है। वैरी का मतलब केवल इतना | | शत्रु थी—कृष्ण के अर्थों में—वैरी थी। पत्नी गई है मायके, तो ही है कि अभी तू जिस स्थिति में खड़ा है, वहां तूने अपनी वासना | | रुक नहीं सके। पागल की तरह, विक्षिप्त की तरह, अंधे की तरह को वैरी की स्थिति में ही बांध रखा है। वह तेरी मित्र नहीं बन पाएगी। | भागे। आंखें देखती नहीं, कान सुनते नहीं, हाथ छूते नहीं! वर्षा है, इस जगत में जो भी चीज हानि पहुंचा सकती है, वह लाभ पहुंचा बाढ़ है, कूद पड़ते हैं। लगता है कि कोई लकड़ी बहती है, उसका सकती है। रास्ते पर पड़ा हुआ पत्थर रुकावट भी बनता है, | सहरा ले लेते हैं। लकड़ी नहीं है वहां, सिर्फ एक मुरदा बह रहा है! समझदारों के लिए सीढ़ी भी बन जाता है। उसी पर चढ़कर वे और उसी का सहारा लेकर नदी पार कर जाते हैं। मुरदा नहीं दिखाई ऊपर उठ जाते हैं। जिंदगी में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसका शुभ पड़ता, दिखाई पड़ता है लकड़ी है। वासना अंधी है। आधी रात उपयोग न हो सके। और जिंदगी में ऐसा भी कुछ भी नहीं है, | पहुंच गए हैं घर पर, द्वार खुलवाने की हिम्मत नहीं पड़ती। वासना 461 Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1 AM सदा कमजोर है, वासना सदा भयभीत है। जहां भय है, वहां वासना सीढ़ी भी वही होती है, सिर्फ रुख बदल जाता है। चढ़ते वक्त ऊपर है। जहां वासना है, वहां भय है। सिर्फ अभय वही होता है, जो | की तरफ नजर होती है, उतरते वक्त नीचे की तरफ नजर होती है। वासना में नहीं है। चोरी से घर के पीछे से चढ़ते हैं। लगता है रस्सी | नहीं, कृष्ण जब वैरी कह रहे हैं वासना को, तो निंदा नहीं कर लटकी है, सांप लटकता है वर्षा का। दिखाई नहीं पड़ता, | | रहे हैं, सिर्फ सूचना दे रहे हैं अर्जुन को कि वासना वैरी बन सकती हिप्नोटाइज्ड हैं, सम्मोहित हैं। है, बन जाती है। सौ में निन्यानबे मौकों पर वैरी ही होती है। और जो देखना चाहते हैं, वही दिखाई पड़ता है वासना में; वह नहीं जब मैं कहता हूं कि वासना मित्र है, तो मैं कह रहा हूं कि सौ में दिखाई पड़ता है, जो है। जो देखना चाहते हैं, वही दिखाई पड़ता | निन्यानबे मौकों पर वासना वैरी होती है, लेकिन सौ में निन्यानबे है। अभी रस्सी चाहिए चढ़ने के लिए, इसलिए सांप रस्सी दिखाई मौके पर भी वासना मित्र बन सकती है। मैं संभावना की बात कह पड़ता है। अभी पार होने के लिए लकड़ी चाहिए, तो मुरदा लकड़ी | रहा हूं, कृष्ण वास्तविकता की बात कह रहे हैं। कृष्ण कह रहे हैं, दिखाई पड़ता है। वासना में वही दिखाई पड़ता है, जो आप देखना | जो है; मैं कह रहा हूं वह, जो हो सकता है। और जो है, वह चाहते हैं; वह नहीं दिखाई पड़ता, जो है। आत्मा में वही दिखाई | | इसीलिए कह रहे हैं, ताकि वह हो सके, जो होना चाहिए। अन्यथा पड़ता है, जो है; वह नहीं दिखाई पड़ता, जो आप देखना चाहते हैं। | जो है, उसको कहने का कोई भी प्रयोजन नहीं है। इसलिए आत्मा तो सत्य को देखती है, वासना अपने खुद के झूठे सत्य निर्मित करती है, प्रोजेक्ट करती है। अब यह सांप नहीं दिखाई पड़ा, रस्सी दिखाई पड़ी। प्रोजेक्शन हो गया। रस्सी चाहिए थी, चढ़ प्रश्नः भगवान श्री, अभी आपने कहा कि.वासना, गए। अधिक वासना का अर्थ है, परमात्मा से अधिक दूरी; पत्नी ने एक बात कही कि जितना मेरे लिए दौड़ते हैं, काश, | और दूसरी जगह आप कहते हैं कि वासना की चरम इतना राम के लिए दौडे। बस. वासना मित्र हो गई। उसी दिन से | | ऊंचाइयों पर ही रूपांतरण होता है। कृपया इसे स्पष्ट मित्र हो गई, उसी घड़ी, उसी क्षण। इस क्षण के पहले तक शत्रु थी। करें। यात्रा बदल गई, रुख बदल गया, मुंह फिर गया। कल तक जहां पीठ थी, उस तरफ आंखें हो गईं; और कल तक जहां आंखें थीं, वहां पीठ हो गई। रास्ता वही है, लेकिन यात्रा बदल गई। निश्चय ही, जितने दूर होते हैं हम, वासना में जितने आप यहां तक आए हैं। जिस रास्ते से आए हैं. उसी रास्ते से IUI गहरे होते हैं, उतने परमात्मा से दूर होते हैं। लेकिन वापस लौटेंगे। रास्ता वही है, लेकिन अभी मेरी तरफ आते थे, तो गहराइयों का भी अंत है। और जब कोई व्यक्ति आंखें मेरी तरफ थीं; अब घर की तरफ जाएंगे, तो घर की तरफ | | वासना की चरम सीमा पर पहुंच जाता है, तो उसके आगे वासना आंखें होंगी। अभी आए थे, तो घर की तरफ पीठ थी। | नहीं है फिर। जिस दिन कोई वासना के आखिरी छोर को छु लेता वासना ही रास्ता है परमात्मा से दर जाने का भी और परमात्मा | | है, उस दिन ऐसा आदमी है वह, जो पूरी पृथ्वी का चक्कर लगा के पास आने का भी। वासना में ज्यादा जाइए, तो दूर चले जाएंगे। | आया और अब भलीभांति जानता है कि क्षितिज आकाश को कहीं वासना में कम से कम जाइए-लौटते आइए, लौटते आइए-तो | भी नहीं छूता। उस दिन रूपांतरण, उस दिन परमात्मा की तरफ परमात्मा में आ जाएंगे। जिस दिन वासना पूर्ण होगी, उस दिन लौटना शुरू होता है। परमात्मा से डिस्टेंस एब्सोल्यूट होगा। जिस दिन वासना शून्य ___ इसलिए जब मैं कहता हूं कि वासना पूरी है, तो परमात्मा से पूरी होगी, उस दिन परमात्मा से नो डिस्टेंस पूर्ण होगा। उस दिन | दूरी है, तब मैं यह नहीं कह रहा हूं कि लौटना असंभव है। सच तो निकटता पूरी हो जाएगी, जिस दिन वासना नहीं होगी। जिस दिन | यह है कि पूरी दूरी से ही लौटना आसान होता है, बीच से लौटना वासना ही वासना होगी, उस दिन दूरी पूर्ण हो जाएगी। रास्ता वही आसान नहीं होता। इसलिए हम अक्सर देखते हैं कि पापी शीघ्रता होता है। सीढ़ी वही होती है, जो ऊपर ले जाती है मकान के। सीढ़ी | से संतत्व को उपलब्ध हो जाते हैं। मीडियाकर, मध्यवर्गीय चित्त के वही होती है, जो नीचे लाती है मकान के। आप भी वही होते हैं, लोग शीघ्रता से संतत्व को उपलब्ध नहीं होते। कोई वाल्मीकि 462 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वासना की धूल, चेतना का दर्पण - शीघ्रता से...। पाप की आखिरी गहराई छ ली। और जब कृष्ण ऐसे कर सकता है-साहस है। आदमी से कहेंगे कि पाप वैरी है, तो वाल्मीकि जितना ठीक से हममें तो पापी होने का भी साहस नहीं होता, पुण्यात्मा होने का समझ सकता है, उतना अर्जुन नहीं समझ सकता। क्योंकि अर्जुन | | साहस तो जरा दूर की बात है। अगर हम पापी नहीं होते, तो उसका ने वासना को उस गहराई तक छुआ भी नहीं है, जहां उसका वैरीपन | | कारण यह नहीं होता कि हम पुण्यात्मा हैं; उसका कुल कारण इतना पूरा प्रकट हो जाए। वाल्मीकि जानता है अनुभव से, कृष्ण जो कहते | होता है कि पापी होने का भी साहस नहीं है। अगर आदमी चोरी नहीं हैं, वाल्मीकि जानता है अपनी पीड़ा से, वह कहेगा कि ठीक है। करता, तो उसकी वजह यह नहीं कि वह अचोर है, सौ में निन्यानबे वाल्मीकि के पूरे प्राण से निकलेगा, हां, यही है सच कि वासना | मौकों पर वजह इतनी ही होती है कि चोर के लिए जितनी हिम्मत दुख और पीड़ा और नरक है। और उसके नरक को वह जानता है, चाहिए, उतनी भी उसमें नहीं है। चोर तो वह है ही, सिर्फ हिम्मत नहीं उसका लौटना शीघ्रता से होता है। है, इसलिए एक्ट नहीं कर पाता; विचार ही करता रहता है। सोचता तो जब मैं कहता हूं कि दूरी पूर्ण है परमात्मा से, तभी छलांग का | ही रहता है, कर नहीं पाता। सोचता ही सोचता रहता है। क्षण भी है। वह मैं नहीं कह रहा है कि छलांग नहीं लग सकती। वाल्मीकि जैसे लोग हिम्मतवर हैं। और जब वे पाप में छलांग कोई आदमी इतनी वासना में नहीं हो सकता कि वहां से लौट न लगा सकते हैं बेशर्त, तो किसी दिन अगर उनको पता चल जाए कि सके, क्योंकि कोई आदमी किसी रास्ते पर इतना आगे नहीं जा पाप का रास्ता समाप्त हुआ, तो परमात्मा में वे छलांग नहीं लगा सकता कि उसी रास्ते से वापस न आ सके। हां, अगर | सकेंगे! इतनी ही बेशर्त छलांग परमात्मा में भी लगा देते हैं। छलांग कल-डि-सेक आ जाए, रास्ते का अंत आ जाए, वहां से रास्ता ही की हिम्मत जिसको पाप में भी है. उसको परमात्मा में न होगी। जो खत्म हो जाए, आगे खड़ हो अनंत और कोई रास्ता न हो. तो नर्क में कूद सकता है, उसके सामने स्वर्ग आ जाए, तो नहीं कूदेगा! लौटना ज्यादा तीव्रता से होता है कि व्यर्थ हो गया यह रास्ता। लेकिन हम, हम कोई हिम्मत नहीं जुटा पाते। इसलिए बीच के लेकिन बीच में जो लोग होते हैं, उन्हें आगे रास्ता दिखाई पड़ता | आदमियों की कठिनाई है; वे दोनों बातें मानते रहते हैं। इधर रोज है। उन्हें लगता है, अभी तो रास्ता शेष है। आप कहते हैं कि नर्क | गीता भी पढ़ लेते हैं और कहते हैं कि वासना वैरी है, और दिन-रात है, लेकिन हम आखिर तक जाकर तो देख लें। क्योंकि अब तक वासना को सोचकर सोचते भी हैं कि होता है। कहते तो हैं कष्ण. तो मन ने कहा कि स्वर्ग आगे है। आप कहते हैं, पीछे है! मन तो पता नहीं, चित्त तो यही कहता है कि वासना ही मित्र है। इसलिए कहता है, आगे है। वासना तो कहती है, और थोड़ा, और थोड़ा, फिर सुबह गीता पढ़ लेते हैं, फिर चौबीस घंटे वासना में जीते हैं, बस एक मील का पत्थर और पूरा करो। और वासना कभी भी पूरी फिर सुबह गीता पढ़ लेते हैं। फिर उनकी यह नियमित आदत हो बात नहीं कहती, हमेशा इंस्टालमेंट में कहती है। इतना और कर जाती है। वासना में भी जीते हैं, वासना के खिलाफ पढ़कर अपने • लो, बस इतने में तो देर नहीं, थोड़ी-सी तो बात रह गई है। मन को भी हलका कर लेते हैं। दस-पांच कदम और, और मंजिल आ रही है। अब यहां से लौट | यह बड़ी तरकीब है चालाक, कनिंग! इस भांति वे दोहरा काम रहे हो! पागल हो! कहते होंगे कृष्ण। पता नहीं, यह आदमी झूठ | करते हैं। इस भांति वे वासना में भी जीते रहते हैं और अपने मन कहता हो; पता नहीं, यह आदमी धोखा देता हो; पता नहीं; इस | को भी समझाते रहते हैं कि मैं कोई बुरा आदमी नहीं हूं, रोज गीता आदमी की बात कहां तक सच है! पढ़ता हूं, वासना वैरी है। आदमी तो अच्छा हूं, जरा समय नहीं अर्जुन को दिक्कत होती है समझने में, वाल्मीकि को दिक्कत | | आया; अभी प्रभु की कृपा नहीं है; अभी पिछले जन्मों के कर्म बाधा नहीं होगी। वाल्मीकि कहेगा, ठीक कहते हो! आगे रास्ता कहां है! | डाल रहे हैं; अभी स्थिति नहीं बनी, इस तरह समझाते। गीता तो अब तो सब मील के पत्थर खत्म हुए। तो वाल्मीकि जैसा आदमी | रोज पढ़ता ही है, इसलिए अपने अहंकार को भी भीतर बचाए रखते क्षण में, क्षण में, सडेन क्रांति से गुजर जाता है। अनेक लोग मुझसे | | हैं कि मैं जानता हूं कि वासना वैरी है। और अपने चित्त को भी पूछते हैं कि वाल्मीकि जैसे पापी, और इतने बड़े संत कैसे हो सकते चलाए रखते हैं वासना में। ऐसे वे दो नावों पर सवार होते हैं। कहीं है। तो मैं उनसे कहता हं कि जो आदमी इतना पापी होने की हिम्मत नहीं पहंचते। न पाप के अंत पर पहंचते, न पुण्य के अंत पर कर सकता है, वह आदमी उतनी ही मात्रा में संत होने की हिम्मत | | पहुंचते। सदा ही उनकी दो नावें बीच में ही भटकती रहती हैं। अनंत 14631 Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-1 AM जन्म ऐसे बीत सकते हैं। दूसरे से पूछा, तुम कितने दिन रुकोगे? उसने कहा, मैं तो सिर्फ तीन अगर कोई आदमी साहस से वासना में ही चला जाए, तो आज | सप्ताह रुकूँगा। वैटिकन के पोप ने कहा, तुम काफी फ्रांस देख नहीं कल वासना के बाहर आना पड़ेगा। सिर्फ परमात्मा के बाहर | लोगे। तीसरे से पूछा, तुम कितने दिन रुकोगे? उसने कहा, मैं तो आने का उपाय नहीं है, बाकी तो कहीं से भी बाहर आना पड़ेगा। | सिर्फ एक सप्ताह के लिए आया हूं। वैटिकन के पोप ने कहा कि क्योंकि जिस दिन पता चलेगा कि व्यर्थ है, उसी दिन लौटना शुरू तुम पूरा फ्रांस देख लोगे। तीनों चकित हुए। उन्होंने कहा, आप क्या हो जाएगा। उस दिन फिर कृष्ण की बात उधार नहीं मालूम पड़ेगी, कहते हैं। मैं छः महीना रुकुंगा, मुझसे कहते हैं कि थोड़ा-बहुत देख आथेंटिक, प्रामाणिक हो जाएगी। प्राणों की, अपने ही प्राणों से आई लोगे। तीन सप्ताह वाले से कहते हैं, काफी देख लोगे। एक सप्ताह हुई मालूम पड़ेगी। उस दिन गवाही दे सकेगा वाल्मीकि कि ठीक | वाले से कहते हैं, पूरा देख लोगे! वैटिकन के पोप ने कहा कि कहते हो तुम, मैं भी दस्तखत करता हूं, मैं भी गवाह हूं, विटनेस | जिंदगी का मेरा अनुभव यही है कि जिसके पास लगता है कि बहुत हूं कि यही बात है। सिर्फ नर्क के और कुछ भी नहीं आता। समय है, वह उतना आराम कर लेता है। जिसके पास लगता है कि इसलिए जब में कहता हूं कि वासना की पूर्णता पर ही रूपांतरण समय कम है, वह शीघ्रता से दौड़-धूप कर लेता है। जो चीज होता है, तो मेरी दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है। वासना की लगती है कि कभी भी मिल जाएगी. उसे हम कभी नहीं पाते। और पूर्णता पर आप परमात्मा से सर्वाधिक दूर होते हैं, लेकिन वासना | जो चीज लगती है कि अब आखिरी घड़ी आ गई, जहां से छूटी तो की पूर्णता पर, चरम स्थिति में रूपांतरण की संभावना भी सर्वाधिक सदा को छूट जाएगी, हम दौड़ पड़ते हैं। होती है। असल में जो परमात्मा से सर्वाधिक दूर है, वही शायद | इसलिए अगर कभी पापी अपने पाप की चरम सीमा से परमात्मा परमात्मा की सर्वाधिक कमी भी अनुभव कर पाता है। और जो | की गोद में सीधा पहुंच जाता है, तो बहुत चकित होने की जरूरत परमात्मा से सर्वाधिक दूर है, वही शायद दौड़कर परमात्मा की गोद | नहीं है। वह दौड़ पाता है। उसे लगता है, आ गई आखिरी जगह, में भी गिर पाता है। जिनको लगता है कि हम तो पास ही हैं मंदिर | यहां से एक कदम और कि मैं सदा के लिए खो जाऊंगा; फिर के पड़ोस में वे सोचते हैं. कभी भी हो लेंगे। ऐसी कोई जल्दी भी लौटने की कोई जगह न रह जाएगी। लौट पडता है। आपको नहीं क्या है? पड़ोस में ही मंदिर है, कभी भी मंदिर में चले जाएंगे। | लगता है। आपको लगता है, रास्ता साफ सुथरा है; बिलकुल आदमी हम भले हैं, ऐसा परमात्मा की तरफ दौड़ने की जरूरत भी | | मेटल रोड है; मजे से चले जा रहे हैं। गति अच्छी है। और फिर क्या है? कभी भी, कभी भी। | भगवान पास है। भले आदमी हैं, दान भी देते हैं, गीता भी पढ़ते एक अंग्रेज लेखक ने एक छोटी-सी किताब लिखी है। उस हैं, मस्जिद भी जाते हैं, मंदिर भी जाते हैं. साध-संत को नमस्कार किताब में उसने लिखा है कि लंदन में दूसरे यात्री आते हैं सारी | भी करते हैं, और क्या चाहिए! कभी भी चले जाएंगे। पास है। दुनिया से, तो लंदन का टावर देख लेते हैं; पर लंदन में ऐसे लाखों नहीं। इसलिए पाप की पीड़ा मनुष्य को परमात्मा के पास पहुंचा लोग हैं, जिन्होंने लंदन का टावर नहीं देखा है। नहीं देखा इसलिए | देती है और पुण्य का अहंकार मनुष्य को परमात्मा से दूर कर देता है। कि देख लेंगे कभी भी। रोज उसी के पास से दफ्तर के लिए जाते हैं, देख लेंगे कभी भी! इतने पास है, ऐसा अहसास जो है-देख लेंगे। पेकिंग से आदमी आता है, देख लेता है। टोकियो से आता इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते । है, देख लेता है। बंबई से आता है, देख लेता है। लंदन का निवासी एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् । । ४० ।। टावर के सामने ही रहता है, पत्थर फेंके तो टावर पर पहुंच जाए, तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ । लेकिन वह नहीं पहुंचता। वह सोचता है, देख लेंगे। पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् । । ४१ ।। वैटिकन के पोप से एक दफा एक अमेरिकी यात्री मिलने आया। इंद्रियां, मन (और) बुद्धि इसके वासस्थान कहे जाते हैं तीन मित्र साथ ही आए। वैटिकन के पोप ने पूछा कि फ्रांस में कितने (और) यह (काम) इनके द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित दिन रुकने का इरादा है? एक अमेरिकन ने कहा, छः महीने। करके (इस) जीवात्मा को मोहित करता है। वैटिकन के पोप ने कहा कि तुम थोड़ा-बहुत फ्रांस जरूर देख लोगे। | इसलिए, हे अर्जुन! तू पहले इंद्रियों को वश में करके ज्ञान 464 Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Im वासना की धूल, चेतना का दर्पण +m और विज्ञान को नाश करने वाले इस (काम) पापी को जाता है, तब अंकुर पैदा होता है और वृक्ष बनता है। निश्चयपूर्वक मार। इंद्रियों को मारना, दो पत्थरों के बीच में बीज को दबाकर मार डालने जैसी बात समझी है कुछ लोगों ने। और उसके कारण एक बहुत ही न्यूरोटिक एसेटिसिज्म, एक बहुत विक्षिप्त, पागल कष्ण कहते हैं, अर्जुन! इंद्रियां, मन, यही काम के, त्यागवाद पैदा हुआ; जो कहता है, तोड़ दो, मिटा दो! लेकिन जिसे पृ० वासना के मूल स्रोत हैं। इन्हीं के द्वारा वासना का | तुम मिटा रहे हो, उसमें कुछ छिपा है। उसे तो मुक्त कर लो। अगर - सम्मोहन उठता है और जीवात्मा को घेर लेता है। यही | वह मुक्त न हुआ, तो तुम भी मिट जाओगे। उसमें तुम भी मिटोगे, हैं स्रोत, जहां से विषाक्त झरने फैलते हैं और जीवन को भटका | | क्योंकि इंद्रियों में कुछ छिपा है, जो हमारा है। मन में कुछ छिपा है, जाते हैं। तू पहले इन पर वश को उपलब्ध हो, तू इन्हें मार डाल। | जो हमारा है। मन को तोड़ना है, लेकिन मन में जो ऊर्जा है, वह कृष्ण सख्त से सख्त शब्द का उपयोग करते हैं। वे कहते हैं, तू इन्हें आत्मा तक पहुंचा देनी है। इंद्रियों को तोड़ना है, लेकिन इंद्रियों में मार डाल, तू इन्हें समाप्त कर दे। जो छिपा है रस, वह आत्मा तक वापस लौटा देना है। इसलिए इस शब्द के कारण बड़ी भ्रांति पैदा हुई है। इंद्रियों को, मन को | | मारने का मतलब ट्रांसफार्मेशन है, मारने का मतलब रूपांतरण है। मार डाल-इससे अनेक लोगों को ऐसा लगा कि इंद्रियां काट | असल में रूपांतरण ही ठीक अर्थ में मृत्यु है। डालो, आंखें फोड़ डालो, टांगें तोड़ दो। न रहेंगे पैर, जब पैर ही न | अब यह बड़े मजे की बात है। अगर आप बीज को दो पत्थरों से रहेंगे, तो भागोगे कैसे वासना के लिए! | भी कुचल डालें, तब भी बीज होता है, कुचला हुआ होता है। लेकिन उन्हें पता नहीं कि वासना बिना पैर के भागती है, वासना | लेकिन जब एक बीज टूटकर वृक्ष बनता है, तो कहीं भी नहीं होता। के लिए पैरों की कोई जरूरत नहीं है। लंगड़े भी वासना में उतनी ही | | कुचला हुआ भी नहीं होता। खयाल किया आपने! जब एक बीज तेजी से भागते हैं, जितने तेज से तेज भागने वाले भाग सकते हैं। | वृक्ष बनता है, तो फिर खोजने जाइए कि बीज कहां है, फिर कहीं फोड़ दो आंखों को, लेकिन अंधे भी वासना में उसी तरह देखते हैं, नहीं मिलेगा। लेकिन दो पत्थरों के बीच में दबाकर कुचल दिया, जैसे आंख वाले देखते हैं। बल्कि सच तो यह है, आंख बंद करके तो कुचला हुआ मिलेगा। और कुचली हुई इंद्रियां और भी कुरूप वासना जितनी सुंदर होकर दिखाई पड़ती है, खुली आंख से कभी | जीवन को पैदा कर देती हैं। बहुत परवर्टेड हो जाती हैं। दिखाई नहीं पड़ती। इसलिए जो बहुत खुली आंख से देखता है, वह तीन शब्द आपको कहना चाहूंगा। एक शब्द है प्रकृति। अगर तो कभी वासना से ऊब भी जाता है। लेकिन जो आंख बंद करके | | प्रकृति को कुचला, तो जो पैदा होता है, उसका नाम है विकृति। ही देखता है, वह तो कभी नहीं ऊबता है। | और अगर प्रकृति को रूपांतरित किया, तो जो पैदा होता है, उसका __ इंद्रियों को मार डाल अर्जुन, इस वचन से बड़े ही गलत अर्थ | | नाम है संस्कृति। प्रकृति अगर कुरूप हो जाए, कुचल दी जाए, तो लिए गए हैं। क्योंकि मारने की बात नहीं समझी जा सकी। हम तो विकृत हो जाती है, परवर्ट हो जाती है। और प्रकृति अगर रूपांतरित मारने से एक ही मतलब समझते हैं कि किसी चीज को तोड़ डालो। हो जाए, ट्रांसफार्म हो जाए, सब्लिमेट हो जाए, तो संस्कृति पैदा जैसे कि एक बीज है। बीज को मारना दो तरह से हो सकता है। | होती है। एक, जैसा हम समझते हैं। बीज को मार डालो. तो हम कहेंगे. दो। तो इंद्रियों और मन को अर्जुन से जब वे कहते हैं, मार डाल। तो पत्थरों के बीच में दबाकर तोड़ दो, मर जाएगा। लेकिन यह बीज | | कृष्ण के मुंह में ये शब्द वह अर्थ नहीं रखते, जो अर्थ त्यागवादियों का मारना बहुत कुशलतापूर्ण न हुआ। क्योंकि उसमें तो वह भी मर के मुंह में हो जाता है। क्योंकि कृष्ण इंद्रियों के कहीं भी विरोधी नहीं गया, जो वृक्ष हो सकता था। बीज को मारने की कुशलता तो तब हैं। कृष्ण से, इंद्रियों का कम विरोधी आदमी खोजना मुश्किल है। है, कि बीज मरे और वृक्ष हो जाए। नहीं तो बीज को मारने से क्या | | कृष्ण रोते हुए, उदास, मुरदा आदमी नहीं हैं। फायदा होगा? निश्चित ही, जब वृक्ष पैदा होता है, तो बीज मरता | ___ कृष्ण से ज्यादा नाचता हुआ, कृष्ण से ज्यादा हंसता हुआ है। बीज न मरे, तो वृक्ष पैदा नहीं होता। बीज को मरना पड़ता है, व्यक्तित्व पृथ्वी पर खोजना मुश्किल है। इसलिए कृष्ण कहीं मिट जाना पड़ता है। राख, धूल हो जाता है, मिट्टी में मिलकर खो इंद्रियों को कुचलने के लिए कह रहे हों, यह तो असंभव है; यह |465 Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm गीता दर्शन भाग-1 - इंट्रिंजिकली इंपासिबल है। यह कृष्ण के व्यक्तित्व में बात आ ही | | मरती हैं, मारने से कोई इंद्रिय कभी नहीं मरती। इसलिए मैं कहता नहीं सकती। जो आदमी बांसरी बजा रहा है. जो आदमी रात है कि रूपांतरण के लिए यह वक्तव्य है। मार चांद-तारों के नीचे नाच रहा है, इस आदमी के मुंह से इंद्रियों को | | को। और जिस इंद्रिय को मारेंगे, वही इंद्रिय सबसे ज्यादा सशक्त कुचलने की बात समझ में नहीं आती। यह मोर-मुकुट लगाकर | | हो जाएगी। सच तो यह है कि जो इंद्रिय मरती है, उसी इंद्रिय पर खड़ा हुआ आदमी, यह प्रेम से भरपूर व्यक्तित्व, यह जीवन को | | सारी इंद्रियों की शक्ति दौड़कर लग जाती है। नियम है हमारे शरीर उसकी सर्वांगता में स्वीकार करने वाला चित्त, यह मारने की बात! का एक कि शरीर का जो हिस्सा हम कमजोर कर लेते हैं, पूरा शरीर इसके मारने की बात का मतलब कुछ और है। नहीं तो, यह उसे सहारा देने लगता है। देना ही चाहिए। कमजोर को सहारा निरंतर अर्थ लिया गया है। मिलना ही चाहिए। और अर्थ हम वही ले लेते हैं, जो हम लेना चाहते हैं। इंद्रियां | | शरीर की जिस इंद्रिय से आप लड़ेंगे और कमजोर करेंगे, पूरा दुख में ले जाती हैं, यह सच है। इसलिए जो दुख में ले जाता है, | शरीर उस इंद्रिय को सहायता देगा और वही इंद्रिय आपके भीतर सब उसको हम मार डालें वायलेंटली, यह हमारा मन होता है। जो दुख | कुछ हो जाएगी। यानी ऐसा हो जाएगा कि अगर आप कामवासना में ले जाता है, काट डालो। आंख रूप पर मोहित करती है, फोड़ से लड़े, तो आपके भीतर कामवासना की इंद्रिय ही आपका व्यक्तित्व दो। कान संगीत में डांवाडोल होते हैं, फोड़ दो। लग सकता है | हो जाएगी। सब कुछ वही हो जाएगी। अगर आप लोभ से लड़े, तर्कयुक्त। ठीक है, जो दुख में ले जाता है, उसे मिटा दो। लेकिन | क्रोध से लड़े, ईर्ष्या से लड़े-जिससे भी आप लड़े-तो उसका जो हमें पता नहीं कि जो दुख में ले जाता है, उसमें भी हमारी ऊर्जा छिपी | | केंद्र आपके भीतर है, वही सबसे ज्यादा सेंसिटिव, संवेदनशील हो है; जो दुख में ले जाता है, उसमें भी हम छिपे हैं। उस छिपे हुए को | | जाएगा और आप उसी में घिरे हुए जीएंगे। भी अगर हमने कुचल दिया, तो हम ही कुचल जाएंगे। ___ मैंने अभी एक...थियोडर रैक; एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक ने इसलिए त्यागी-तपस्वी-तथाकथित, दि सोकाल्ड-जिसको | अपने संस्मरण लिखे। उसने एक बहुत अदभुत बात लिखी है। उसने पता नहीं है, वह आमतौर से खुद के साथ हिंसा करता रहता है। लिखा है, योरोप में ऐसे छोटे-छोटे द्वीप हैं। एक छोटा द्वीप है, जिस कहीं कोई रूपांतरण नहीं होता है, सिर्फ हिंसा होती है। और अगर | | पर अब तक किसी स्त्री ने पैर नहीं रखा। क्योंकि वह कैथोलिक हम दूसरे के साथ हिंसा करें, तो हम अदालत में पहुंचा दिए जाएं। | मोनेस्ट्री है; कैथोलिक ईसाइयों के साधु सिर्फ उस द्वीप पर रहते हैं। और अपने साथ करें...तो अभी तक दुनिया में इतना न्याय नहीं है छोटा-सा दस-बारह मील के घेरे का द्वीप है। पिछले पांच सौ वर्ष कि हम उस आदमी को अदालत में पहुंचाएं, जो अपने साथ हिंसा | से एक भी स्त्री उस पर पैर नहीं रख सकी है, क्योंकि स्त्री को मनाही करता है। है उस द्वीप पर आने की। और उस द्वीप पर जो पुरुष एक दफा उतर ___ अब यह बड़े मजे की बात है! आपकी छाती पर छुरा रख दं, तो | | जाता है साधना के लिए, वह फिर जिंदा हालत में वहां से नहीं लौट अदालत। और अपनी छाती पर छुरा रख लूं, तो सम्मान है! सकता। पांच सौ वर्ष से शुद्ध पुरुषों का समाज है। पागलपन है। छुरा दोनों हालत में छाती पर रखा जाता है। इससे | लेकिन थियोडर रैक ने लिखा है कि एक बड़ी अजीब बात वहां क्या फर्क पड़ता है कि वह किसकी छाती है। आंखें आपकी फोड़ | दिखाई पड़ती है और वह यह कि उस द्वीप के जो भी निवासी हैं, दूं, तो मुझे सम्मान मिलना चाहिए न, क्योंकि मैंने आपकी इंद्रियां जो भी साधु वहां तपश्चर्या कर रहे हैं, उनके स्वप्न जितने स्त्रियों मारने में सहायता दी! आत्मज्ञान का रास्ता दे रहा है। लेकिन कोई | | से भरे हुए हैं, उतने दुनिया में किसी भी, पृथ्वी के किसी कोने में राजी न होगा। लेकिन अपनी फोड़ लूं, तो आप ही मेरे पैर छूने किसी के भी स्वप्न उतने भरे हुए नहीं हैं। और इससे भी बड़े मजे आएंगे कि यह आदमी परम तपस्वी है, इसने आंखें फोड़ ली! की बात लिखी है और वह यह, वह यह लिखी है कि उन पुरुषों में लेकिन अगर आपकी आंखें फोड़ना अपराध है, तो मेरी आंखें से कुछ पुरुष स्त्रियों जैसे चलते हैं और स्त्रियों जैसे बोलते हैं। फोड़ना कैसे पुण्य हो जाएगा? | उसमें उसने कारण खोजा है कि जिंदगी पोलर है। अगर स्त्रियां - इंद्रियों के विरोध में यह वक्तव्य नहीं है, इंद्रियों के रूपांतरण के | | बिलकुल न होंगी, तो कुछ पुरुष स्त्रियों का एक्ट करने लगेंगे और लिए यह वक्तव्य है। और मजा यह है कि रूपांतरण से ही इंद्रियां कुछ पुरुष उन स्त्रीरूपी पुरुषों के साथ प्रेम के एक्ट करने लगेंगे। 466 Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वासना की धूल, चेतना का दर्पण - होमो-सेक्सुअल सोसाइटी वहां पैदा हो जाएगी। वहां पुरुष पुरुष | | भीतर हम दो तरह के भाव रख सकते हैं, या तो भोक्ता का, कर्ता के साथ ही स्त्री-पुरुष जैसा व्यवहार करने लगेंगे। | का, या साक्षी का। कर्ता भोक्ता होता है। ___ अब उस द्वीप की तकलीफ हम समझ सकते हैं कि तकलीफ __ मैं एक छोटी-सी कहानी आपसे कहूं, फिर दूसरा सूत्र हम ले लें। क्या है। उन्होंने एक इंद्रिय को मार डालने की कोशिश की। परिणाम मैंने सुना है, कृष्ण के गांव के बाहर एक तपस्वी का आगमन जो होना था वही हुआ है, इंद्रिय नहीं मरी, सिर्फ विषाक्त हो गई, | हुआ। कृष्ण के परिवार की महिलाओं ने कहा कि हम जाएं और विकृत हो गई, कुरूप हो गई। और उसने और दूसरे उपद्रव के रास्ते तपस्वी को भोजन पहुंचा दें। लेकिन वर्षा और नदी तीव्र पूर पर और खोज लिए। मनुष्य जाति की अधिकतम विकृति और परवर्शन तपस्वी पार। उन स्त्रियों ने कहा, हम जाएं तो जरूर, लेकिन नाव इंद्रियों को काट डालने और मार डालने के खयाल से पैदा हुआ है। लगती नहीं, नदी कैसे पार करेंगे? खतरनाक है पूर, तपस्वी भूखा लेकिन कृष्ण का वह मतलब नहीं है। कृष्ण का मतलब है, | और उस पार वृक्ष के नीचे बैठा है। भोजन पहुंचाना जरूरी है। क्या रूपांतरण। और रूपांतरण ही वस्तुतः इंद्रियों की मृत्यु है। यह सूत्र, कोई तरकीब है? कृष्ण ने कहा, नदी से कहना, अगर तपस्वी रूपांतरण ही इंद्रियों को वश में करना है। इंद्रियां मार डालें, तो फिर जीवनभर का उपवासा हो, तो नदी राह दे दे। भरोसा तो न हुआ, वश में करने की कोई जरूरत नहीं रह जाती है। पर कृष्ण कहते थे, तो उन्होंने कहा, एक कोशिश कर लेनी चाहिए। अगर बाप अपने बेटे को मार डाले और फिर कहे कि बेटा मेरे जाकर नदी से कहा कि नदी, राह दे दे, अगर तपस्वी उस पार वश में है, ओबिडिएंट है, बेकार की बात करता है। मरा हुआ बेटा | | जीवनभर का उपवासा हो। भरोसा तो न हुआ, लेकिन जब नदी ने तो ओबिडिएंट होता ही है। और अक्सर ऐसा होता है कि राह दे दी, तो कोई उपाय न रहा! स्त्रियां पार हुईं। बहुत भोजन ओबिडिएंट बेटे मरे हुए बेटे होते हैं। अक्सर। क्योंकि उनको | बनाकर ले गई थीं। सोचती थीं कि एक व्यक्ति के लिए इतने भोजन ओबिडिएंट बनाने में करीब-करीब मार डाला जाता है। लेकिन मरे | | की तो जरूरत भी नहीं, लेकिन फिर भी कृष्ण के घर से भोजन आता हुए बेटे के आज्ञाकारी होने का क्या अर्थ? बेटा होना चाहिए जिंदा, | | हो, तो थोड़ा-बहुत ले जाना अशोभन था, बहुत ले गई थीं, जिंदा से जिंदा, और फिर आज्ञाकारी, तब पिता का कुछ अर्थ है, | | सौ-पचास लोग भोजन कर सकें। लेकिन चकित हुईं, भरोसा तो अन्यथा कोई अर्थ नहीं। मरे-मराए विद्यार्थी को बिठाकर गुरु अगर | न आया, वह एक तपस्वी ही पूरा भोजन कर गया। अकड़ता रहे और मरे हुए विद्यार्थी घिराव न करें, तो ठीक है। जिंदा फिर लौटीं। नदी ने तो रास्ता बंद कर दिया था, नदी तो फिर बही होने चाहिए-पूरे जिंदा, पूरे जीवंत-और फिर गुरु के चरणों पर चली जा रही थी। तब वे बहुत घबड़ाईं कि अब तो गए! क्योंकि सिर रख देते हों, तो कुछ अर्थ है। अब वह सूत्र तो काम करेगा नहीं कि तपस्वी जीवनभर का उपवासा इंद्रियां मार डाली जाएं, काट डाली जाएं और आपके वश में हो | हो...। लौटकर तपस्वी से कहा, आप ही कुछ बताएं। हम तो • जाएं, तो होती नहीं हैं, सिर्फ भ्रम पैदा होता है। मरी हुई इंद्रियों को | बहुत मुश्किल में पड़ गए। हम तो नदी से यही कहकर आए थे कि क्या वश में करना! नहीं, इंद्रियां वश में हों। स्वस्थ हों, जीवंत हों, | | तपस्वी जीवनभर का उपवासा हो, तो मार्ग दे दे। नदी ने मार्ग दे लेकिन मालिक न हों। आपको न चलाती हों, आप उन्हें चलाते हों। | दिया। तपस्वी ने कहा, वही सूत्र फिर कह देना। पर उन्होंने कहा, आपको आज्ञा न देती हों, आपकी आज्ञा उन तक जाती हो। वे | अब! भरोसा तो पहले भी न आया था, अब तो कैसे आएगा? आपकी छाया की तरह चलती हों। तपस्वी ने कहा, जाओ नदी से कहना, तपस्वी जीवनभर का साक्षी व्यक्ति की इंद्रियां अपने आप छाया की भांति पीछे चलने उपवासा हो, तो राह दे दे। लगती हैं। जो अपने को कर्ता समझता है, वही इंद्रियों के वश में अब तो भरोसा करना एकदम ही मुश्किल था। लेकिन कोई होता है। जो अपने को मात्र साक्षी समझता है, वह इंद्रियों के वश | रास्ता न था, नदी के पार जाना था जरूर। नदी से कहा कि नदी राह के बाहर हो जाता है। जो इंद्रियों के वश में होता है, उसके वश में | दे दे, अगर तपस्वी जीवनभर का उपवासा हो। और नदी ने राह दे इंद्रियां कभी नहीं होतीं। और जो इंद्रियों के वश के बाहर हो जाता | | दी! भरोसा तो न आया। नदी पार की। कृष्ण से जाकर कहा कि है. सारी इंद्रियां समर्पण कर देती हैं उसके चरणों में और उसके वश | बहुत मुश्किल है। पहले तो हम तुमसे ही आकर पूछने वाले थे कि में हो जाती हैं। समर्पण का, इंद्रियों के समर्पण का सूत्र क्या है? अदभुत मंत्र दिया! काम कैसे किया? लेकिन छोड़ो उस बात को 467 Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 4 अब लौटते में और भी बड़ा चमत्कार हुआ है। पूरा भोजन कर गया तुम्हारा तपस्वी और नदी ने फिर भी राह दी है और हमने यही कहा कि उपवासा हो जीवनभर का...। कृष्ण ने कहा, तपस्वी जीवनभर का उपवासा ही है, तुम्हारे भोजन करने से कुछ बहुत फर्क नहीं पड़ता। पर वे सब पूछने लगीं कि राज क्या है इसका ? अब हमें नदी में उतनी उत्सुकता नहीं है। अब हमारी उत्सुकता तपस्वी में है। राज क्या है? उससे भी बड़ी घटना, नदी से भी बड़ी घटना तो यह है कि आप भी कहते हैं। तो 'कृष्ण ने कहा, जब वह भोजन कर रहा था, तब भी वह जानता था, मैं भोजन नहीं कर रहा हूं; वह साक्षी ही था । भोजन डाला जा रहा है, वह पीछे खड़ा देख रहा है। जब वह भूखा था, तब भी साक्षी था; जब भोजन लिया गया, तब भी साक्षी है। उसका साक्षी होने का स्वर जीवनभर से सधा है। उसको अब तक डगमगाया नहीं जा सका। उसने आज तक कुछ भी नहीं किया है; उसने आज तक कुछ भी नहीं भोगा है; जो भी हुआ है, वह देखता रहा है। वह द्रष्टा ही है। और जो व्यक्ति साक्षी के भाव को उपलब्ध हो जाता है, इंद्रियां उसके वश में हो जाती हैं। इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धियों बुद्धेः परतस्तु सः ।। ४२ ।। (इस शरीर से तो) इंद्रियों को परे (श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म) कहते हैं (और) इंद्रियों से परे मन है और मन से परे बुद्धि है और जो बुद्धि से (भी) अत्यंत परे है, वह आत्मा है। कृ ष्ण कहते हैं अर्जुन से कि और यदि तू ऐसा सोचता हो कि तेरी शक्ति के बाहर है इंद्रियों को वश में करना, तो तू गलत सोचता है, तू भूल भरी बात सोचता है। इसे थोड़ा समझ लें। हम सब भी ऐसा ही सोचते हैं, इंद्रियों को वश में करना कठिन है। लेकिन यह ऐसी ही नासमझी की बात है। कि कोई कहे, अपने हाथ को वश में करना कठिन है। हाथ मेरा है, बड़ा हूं। अंग है, मैं अंगी हूं। हाथ अंश है, मैं अंशी हूं । हाथ एक पार्ट है, मैं होल हूं। कोई भी हिस्सा अपने पूरे से बड़ा नहीं होता, कोई पार्ट होल से बड़ा नहीं होता। मेरी आंख मेरे वश हो! मैं आंख से ज्यादा हूं। आंख मेरे बिना नहीं हो सकती, लेकिन मैं आंख के बिना हो सकता हूं। जैसे हाथ मेरे बिना नहीं हो सकता। इस हाथ को काट दें, तो हाथ मेरे बिना नहीं हो सकता, मर जाएगा, लेकिन मैं हाथ के बिना हो सकता हूं। मैं हाथ से ज्यादा हूं। मैं सारी इंद्रियों से ज्यादा हूं। मैं सारी इंद्रियों के जोड़ से ज्यादा हूं। 468 कृष्ण कहते हैं, यह तेरी भूल है, अगर तू सोचता हो कि मैं कमजोर हूं और इंद्रियों पर वश न पा सकूंगा, तो तू गलत सोचता है। इंद्रियों पर तेरा वश है ही, लेकिन तूने कभी घोषणा नहीं की, तूने कभी स्मरण नहीं किया, तूने कभी समझा नहीं है। मालिक तू है ही, लेकिन तुझे पता ही नहीं है कि तू मालिक है और अपने हाथ सेतू नौकर बना हुआ है। दूसरी बात वे यह कहते हैं कि इंद्रियों के पार मन है, मन के पार बुद्धि है, और बुद्धि के पार वह है, जिसे हम परमात्मा कहें। और ध्यान रहे, जो जितना पार होता है, वह जिसके पार होता है, उससे ज्यादा शक्तिशाली होता है। एक उदाहरण से समझें । एक वृक्ष है। उसके पत्ते हमें दिखाई पड़ रहे हैं। पत्तों के पार शाखाएं हैं। शाखाएं पत्तों से ज्यादा शक्तिशाली हैं। आप पत्तों को काट दें, नए पत्ते शाखाओं में तत्काल आ जाएंगे। आप शाखा को काटें, तो नई शाखा को आने में बहुत मुश्किल हो जाएगी। शाखा पत्तों से शक्तिशाली है; वह पत्तों के पार है, पत्तों के पूर्व है, पत्तों से पहले है। पत्तों के प्राण शाखा में हैं, शाखा का प्राण पत्तों में नहीं है । शाखा को काटते ही पत्ते सब मर जाएंगे; पत्तों को काटने से शाखा नहीं मरती । पत्ते शाखा के बिना नहीं हो सकते हैं, शाखा पत्तों के बिना हो सकती है। फिर शाखा से और नीचे चलें, तो पींड है वृक्ष की। पींड | शाखाओं के पार है। पींड शाखाओं के बिना हो सकती है, लेकिन | शाखाएं बिना पींड के नहीं हो सकती हैं। और पींड के नीचे चलें, तो जड़ें हैं। जड़ें पींड के भी पार हैं। पींड को भी काट दें, तो नए अंकुर आ जाएंगे; लेकिन जड़ों को काट दें, तो फिर नए अंकुर नहीं आएंगे। पींड के बिना जड़ें हो सकती हैं, जड़ों के बिना पींड नहीं हो सकती। जो जितना पार है, वह उतना शक्तिशाली है। जो जितना आगे है, वह उतना कमजोर है। जो जितना पीछे है, वह उतना शक्तिशाली है। असल में शक्तिशाली को पीछे रखना पड़ता है, क्योंकि वह सम्हालता है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, इंद्रियों के पीछे मन है । मन शक्तिशाली है, अर्जुन, इंद्रियों से बहुत ज्यादा। इसलिए अगर मन चाहे, तो किसी भी इंद्रिय को तत्काल रोक सकता है। और जब मन सक्रिय Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + वासना की धूल, चेतना का दर्पण 4 होता है, तो कोई भी इंद्रिय तत्काल रुक जाती है। आपके घर में आग लगी है, आप रास्ते से भागे चले जा रहे हैं। रास्ते पर कोई मिलता है; कहता है, नमस्कार ! आपको दिखाई नहीं पड़ता है। आंखें पूरी ठीक हैं। नमस्कार करता है, कान दुरुस्त हैं, सुनाई नहीं पड़ता है। आप भागे जा रहे हैं। क्यों? मन कहीं और है, मन अटका है, मकान में आग लगी है। अब यह वक्त नमस्कार करने का नहीं है और न लोगों को रास्ते पर देखने का है। कल वह आदमी मिलता है और कहता है, रास्ते पर मिले थे आप | बड़े पागल जैसे मालूम पड़ते थे। देखा, फिर भी आपने देखा नहीं; सुना, फिर भी आपने जवाब नहीं दिया। बात क्या है ? नमस्कार की, आप कुछ बोले नहीं ? आप कहते हैं, न मैंने सुना, न मैंने देखा । मकान में आग लगी थी, मन वहां था । अगर मन हट जाए, तो इंद्रियां तत्काल बेकार हो जाती हैं। मन शक्तिशाली है। जहां मन है, इंद्रियां वहीं चली जाती हैं। जहां इंद्रियां हैं, वहां मन का जाना जरूरी नहीं है। आप ले जाते हैं, इसलिए जाता है। अगर आप मन कहीं ले जाएं, इंद्रियों को वहां जाना ही पड़ेगा। वे कमजोर हैं, उनकी शक्ति मन से आती है; मन की शक्ति इंद्रियों से नहीं आती। फिर कृष्ण कहते हैं, मन के पार बुद्धि है। बुद्धि जहां हो, मन को वहां जाना पड़ता है। बुद्धि जहां न हो, वहां मन को जाने की कोई जरूरत नहीं। लेकिन हमारी हालत उलटी है। मन जहां जाता है, वहीं हम बुद्धि को ले जाते हैं। मन कहता है, यह करो; हम बुद्धि से कहते हैं कि अब इसके लिए दलील दो कि क्यों और कैसे करें। मन बताता है करने के लिए और बुद्धि सिर्फ जस्टीफिकेशन खोजती है । बुद्धि से हम पूछते हैं कि चोरी करना है, तुम बताओ तर्क क्या है ? तो बुद्धि कहती है कि सब धन चोरी है। जिनके पास है, उनकी भी चोरी है। तुम भी चोरी करो, हर्ज क्या है ? हम बुद्धि से मन का समर्थन खोजते हैं। कृष्ण कहते हैं, बुद्धि मन के पार है। है ही, क्योंकि जहां मन भी नहीं रह जाता, वहां भी बुद्धि रहती है। रात जब आप गहरी प्रगाढ़ निद्रा में खो जाते हैं, तो मन नहीं रह जाता। स्वप्न नहीं रह जाते, विचार नहीं रह जाते। मन गया। मन विचारों का जोड़ है। लेकिन सुबह उठकर आप कहते हैं कि रात बड़ा आनंद रहा, बड़ी गहरी नींद आई। न स्वप्न आए, न विचार उठे। किसको पता चला फिर कि आप गहरी नींद में रहे? किसने जाना, आनंद था ? बुद्धि जाना। बुद्धि मन के भी पार है। जो समर्थ हैं, वे बुद्धि से मन को चलाते हैं, मन से इंद्रियों को चलाते हैं। जो अपने सामर्थ्य को नहीं पहचानते और अपने हाथ से असमर्थ बने हैं, उनकी इंद्रियां उनके मन को चलाती हैं, उनका मन उनकी बुद्धि को चलाता है। वे शीर्षासन में जीते हैं; उलटे खड़े रहते हैं। फिर उनको अगर सारी दुनिया उलटी दिखाई पड़ती है, तो इसमें किसी का कोई कसूर नहीं है। मैंने सुना है— पता नहीं कहां तक सच बात है, लेकिन सब सच हो सकता है— मैंने सुना है कि पंडित नेहरू एक दिन शीर्षासन कर | थे अपने बगीचे में और एक गधा उनके बंगले में घुस गया। एक तो राजनीतिज्ञों के बंगलों के आस-पास गधों के अतिरिक्त और कोई जाता नहीं। और आदमी जाता, तो संतरी रोक लेता, गधे को क्या रोकना ! लेकिन वह साधारण गधा नहीं था, वह बोलने वाला गधा था। कई गधे बोलते हैं, इसमें कोई कठिनाई भी नहीं है। वह आकर पंडितजी के पास खड़ा हो गया। वे कर रहे थे शीर्षासन, उनको गधा उलटा दिखाई पड़ा। वे बड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा, गधा, तू उलटा क्यों है? उस गधे ने कहा, पंडितजी ! मैं उलटा नहीं हूं, आप शीर्षासन कर रहे हैं। तब तो वे घबड़ाकर उठकर खड़े हो गए। उन्होंने कहा, तू बोलता भी है ! उस गधे ने कहा, मैं यही डर | रहा था कि कहीं बोलने की वजह से आप मुझे मिलने से इनकार न कर दें। नेहरूजी ने कहा, बेफिक्र रह । मेरे पास इतने गधे आते हैं बोलते हुए कि मैं सुनते-सुनते आदी हो गया हूं। तू बेफिक्री से बोल | पर नेहरू को दिखाई पड़ा कि गधा उलटा है ! हम सबको भी जगत उलटा दिखाई पड़ता है। हम एक बहुत गहरे शीर्षासन में हैं। वह गहरा शीर्षासन शरीर के शीर्षासन से भी | गहरा है, क्योंकि सब उलटा किया हुआ है। इंद्रियों की मानकर मन चल रहा है, मन की मानकर बुद्धि चल रही है और बुद्धि कोशिश करती है कि परमात्मा भी हमारी मानकर चले । पत्तों की मानकर शाखाएं चल रही हैं, शाखाओं की मानकर पींड चल रही है, पींड कोशिश कर रही है, जड़ें भी हमारी मानकर चलें। और अगर जड़ें नहीं मानती, तो हम कहते हैं, होंगी ही नहीं। अगर परमात्मा हमारी नहीं मानता, हम कहते हैं, नहीं है। एक आदमी मेरे पास आया। उसने कहा, मैं तो परमात्मा को मानने लगा। क्या हुआ, मैंने कहा। उसने कहा कि मेरे लड़के को नौकरी नहीं लगती थी, मैंने परमात्मा को सात दिन का अल्टिमेटम | दिया। सात दिन में नौकरी लग जाए तो ठीक, अन्यथा तू नहीं है। और लग गई। और अब मैं मानने लगा। मैंने कहा कि तू परमात्मा 469 Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-1 को मानने लगा या परमात्मा तेरे को मानने लगा ? उसको भी मनाने की कोशिश चल रही है। मैंने कहा, अगर कल लड़के की नौकरी छूट जाए? तो उसने कहा कि फिर मुझे भरोसा नहीं रहेगा । हम उलटे चल रहे हैं जीवन को । कृष्ण कहते हैं, इंद्रियां मानें मन की, मन माने बुद्धि की, बुद्धि परमात्मा के लिए समर्पित हो, बुद्धि माने परमात्मा की । तब व्यक्तित्व सीधा, सरल, ऋजु — और तब व्यक्तित्व धार्मिक, आध्यात्मिक हो पाता है। एक और, एक आखिरी और । एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना । जाहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ।। ४३ ।। इस प्रकार बुद्धि से परे अपने आत्मा को जानकर (और) बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो, (अपनी शक्ति को समझकर इस) दुर्जय कामरूप शत्रु को मार । अं तिम श्लोक है। कृष्ण कहते हैं, अपनी शक्ति को पहचानकर, और अपनी शक्ति परमात्मा की ही शक्ति है, और अपनी परम ऊर्जा को समझकर, और अपनी परम ऊर्जा परमात्मा की ही ऊर्जा है, इंद्रियों को वश में कर मन से, मन को वश में ला बुद्धि से और बुद्धि की बागडोर दे दे परमात्मा के हाथ में। और फिर इस दुर्जय काम के तू बाहर हो जाएगा, इस दुर्जय वासना के तू बाहर हो जाएगा। इसमें दो-तीन बातें बहुत कीमत की हैं। एक तो यह कि क्रमशः जो जितना गहरा है, उतना ही सत्यतर है; और जो जितना गहरा है, उतना ही शक्तिवान है; और जो जितना गहरा है, उतना ही भरोसे योग्य है, ट्रस्टवर्दी है । जो जितना ऊपर है, उतना भरोसे योग्य नहीं है । लहरें भरोसे योग्य नहीं हैं, सागर की गहराई में भरोसा है। ऊपर जो है, वह सिर्फ आवरण है; गहरे में जो है, वह आत्मा है। इसलिए तू ऊपर को गहरे पर मत आरोपित कर, गहरे को ही ऊपर को संचालित करने दे | और एक-एक कदम वे पीछे हटाने की बात करते हैं। कैसे ? इंद्रियों को मन से । साधारणतः इंद्रियां आदत के अनुसार चलती हैं, मन के अनुसार नहीं, क्योंकि मन के अनुसार हमने उन्हें कभी चलाया नहीं होता। इंद्रियां आदत के अनुसार चलती हैं। आपका समय हुआ, हाथ खीसे में जाएगा, सिगरेट का पैकेट निकाल लेगा, सिगरेट निकाल लेगा। अभी आपको कुछ पता नहीं कि क्या हो रहा है । हाथ कर रहा है, आटोमैटिक । हो सकता है, आपको बिलकुल खयाल ही न हो। अपनी दूसरी धुन में लगे हैं। मन कुछ और कर | रहा है, मन कुछ और सोच रहा है। हाथ सिगरेट निकाल लेगा, में दबा देगा, माचिस जला लेगा, आग लगा देगा। धुआं खींचने लगेंगे, बाहर निकालने लगेंगे; और मन अपना काम जारी रखेगा। मन को इसका पता ही नहीं है। हां, मन को तो पता तब चले, जब खीसे में हाथ डालें और पैकेट न हो। तब मन को पता चलता है, क्या बात है ? पैकेट कहां है? अन्यथा मन की कोई जरूरत ही नहीं | पड़ती। इंद्रियों से हम इतने वशीभूत होकर जीते हैं कि इंद्रियां जब अड़चन में होती हैं, तभी मन की जरूरत पड़ती है। अन्यथा मन को वे कहती हैं कि तुम आराम करो, तुमसे कोई लेना-देना नहीं है, हम अपना काम कर लेंगे। पता ही नहीं चलता! इंद्रियों ने सारा काम अपने हाथ में ले लिया है। ले लिया है, कहना ठीक नहीं, हमने दे दिया है। हमने धीरे-धीरे उन्हें आटोनामस सत्ता दे दी है, कह दिया है कि तुम सम्हालो यह काम | वे सम्हाल लेती हैं। इस स्थिति में मन को बीच में लाना पड़ेगा। अभी मन आता है बीच में, लेकिन तभी आता है, जब इंद्रियां अड़चन में होती हैं। अर्थात इंद्रियों को जब सेवा की जरूरत होती है, तभी मन बीच | में आता है। मालकियत के लिए कभी मन को बीच में नहीं बुलातीं वे | सेवा की जरूरत होती है, वे कहती हैं, पैकेट नहीं है सिगरेट | का! जाओ, बाजार से खरीदकर लाओ, इंद्रियां कहती हैं । वह बाजार जाता है, वह सिगरेट का पैकेट खरीदकर लाता है। नहीं तो सिगरेट हैं, तो वे कहती हैं, तुम अपना काम करो, तुम क्यों बीच में दखलंदाजी करते हो, हम अपना काम कर रहे हैं। हमने सारा काम अपनी इंद्रियों पर सौंप दिया है, अब वे हमें चलाती रहती हैं। मन को बीच में कब लाया जाएगा, जब हम मन को सिर्फ सेवा के लिए न लाते हों, मालकियत के लिए लाते हों। अगली बार जब खीसे में हाथ जाए, तो मन को लाएं; हाथ से मत निकालें सिगरेट, मन से निकालें । मनःपूर्वक निकालें । मनःपूर्वक सिगरेट निकालने का मतलब है, जानते हुए निकालें कि अब मैं सिगरेट पीने जा रहा हूं, सिगरेट निकाल रहा हूं। जानते हुए मुंह में लगाएं कि अब मैं सिगरेट मुंह में लगा रहा हूं। जानते हुए | आग जलाएं और जानते हुए कि अब मैं धुआं भीतर ले जाता और 470 Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासना की धूल, बाहर निकालता और मैं बड़ा बुद्धिमान आदमी हूं! परमात्मा है या नहीं, इसका विचार करता । गीता का क्या अर्थ है, इसका हिसाब लगाता। और अब मैं धुआं बाहर और भीतर करने का काम कर रहा हूं – ईडियाटिक, स्टुपिड़ । एक आदमी धुआं बाहर-भीतर करे, इससे स्टुपिड और कोई काम हो सकता है ! अब मैं यह कर रहा हूं, मैं स्टुपिड आदमी हूं, ऐसा समझकर करें। बुद्धिमान मत समझें। हालांकि हालत उलटी है। सिगरेट पीने वाले जब सिगरेट नहीं पीते, तो उतने अकड़े हुए नहीं मालूम पड़ते, जब पीते हैं तब वे ज्यादा अकड़ जाते हैं। लगता है कि बहुत बुद्धिमानी का काम कर रहे हैं। बड़ा कोई, कोई ऐसा काम कर रहे हैं प्रतिभा का, जिसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है। जरूर कहीं भूल हो रही है। थोड़ा एनालाइज करें, विश्लेषण करें कि क्या, कर क्या रहे हैं ? धुआं बाहर-भीतर कर रहे हैं! मशीन भी कर सकती है। इसमें बुद्धिमानी की कहां जरूरत आती है ? और जानते हुए कर रहे हैं कि यह धुआं क्या करता है ! भलीभांति जानते हुए कर रहे हैं। यह क्या कर रहे हैं? अगर एक आदमी अपने कमरे कुर्सी इधर से उठाकर उधर रखे, उधर से उठाकर इधर रखे, तो आप कहेंगे, पागल है। क्यों ? धुआं इधर से उधर करना पागलपन नहीं है, तो कुर्सी इधर से उधर करना पागलपन है? तो धुएं ने ऐसा कौन-सा पुण्य कर्म किया है और कुर्सी का ऐसा क्या पाप है ! नहीं, मनःपूर्वक करें, और करना मुश्किल हो जाएगा। जो भी इंद्रियां करवाती हों, उसको पूरे मनःपूर्वक, विद फुल अवेयरनेस, पूरे होशपूर्वक करें कि यह मैं कर रहा हूं। और जानते हुए करें कि मैं क्या कर रहा हूं! और आप पाएंगे कि इंद्रियों की शक्ति मन से कम होती चली जाएगी और मन की शक्ति इंद्रियों पर बढ़ती चली जाएगी। फिर ऐसा ही मन के साथ बुद्धि के द्वारा करें। मन कुछ भी करता रहता है, आप करने देते हैं। कभी बुद्धि को बीच में नहीं लाते, जब तक कि मन उलझ न जाए। आप करते रहते हैं मन में । एक आदमी बैठा हुआ है अपनी कुर्सी पर वह न मालूम क्या-क्या सोच रहा है कि इस बार अब मध्यावधि चुनाव में खड़े हो गए हैं, इलेक्शन जीत ही गए। अभी मध्यावधि हुआ नहीं, लेकिन वे जीत गए अपनी कुर्सी पर अब वे देख रहे हैं, उनका जुलूस निकल रहा है, प्रोसेशन निकल रहा है। अब यह मन कर रहा है और बुद्धि कहीं नहीं आएगी इसमें बीच में। बुद्धि को कोई मतलब ही नहीं है; मन को करने दे रहे हैं आप | बुद्धि को हम भी बीच में लाते हैं। जब मन उलझ जाता। उलझ चेतना का दर्पण 4 जाता मतलब यह कि आप जब कोई ऐसी चीज पाते हैं जो मन हल नहीं कर पाता, कोई प्राब्लम खड़ा हो जाता, मन के बाहर होता । गाड़ी चलाए चले जा रहे हैं अपनी, स्टीअरिंग हाथ में लिए हैं, सिगरेट मुंह में दबी है; चले जा रहे हैं कार चलाते हुए। और मन इलेक्शन जीत रहा है और यह सब चल रहा है। एकदम एक्सिडेंट होने की हालत आ जाती है, तो मन बंद होता है और बुद्धि आती है। कभी आपने खयाल किया, जब एकदम से ब्रेक लगता है, तो मन एकदम झटके से बंद हो जाता है। श्वास भी ठहर जाती है, विचार भी ठहर जाता है। तत्काल बुद्धि आ जाती है कि उसकी | जरूरत पड़ी; अब यह मन के हाथ में नहीं छोड़ा जा सकता इतना खतरनाक मामला, तो बुद्धि बीच में आ जाती है। तत्काल बुद्धि कुछ करती है। बुद्धि को आप तभी बुलाते हैं, जब उसकी सेवा की जरूरत होती है। अन्यथा मन अपना करता रहता है। 471 नहीं, बुद्धि को बीच में लाएं। जब मन चुनाव जीतने लगे, जब प्रोसेशन निकलने लगे, तब जरा बुद्धि को कहें कि आओ, देखो, यह मन क्या कर रहा है ! यह मैं क्या कर रहा हूं ! तो आपके कितने सपने न बिखर जाएं, और आपके मन की कितनी कामनाएं न गिर जाएं, और मन के कितने व्यर्थ के जाल न टूट जाएं। और बुद्धि बीच में आए, तो मन एकदम डर जाता है। बुद्धि बीच में आए, तो मन की हालत वैसी हो जाती है, जैसे शिक्षक कमरे में आता है, तो बच्चों की हो जाती है। वे जल्दी अपनी-अपनी जगह ठीक-ठाक बैठ गए हैं। सब काम ठीक हो गया, कोई दूसरे की जगह पर नहीं है। लेकिन बुद्धि को हम बीच में आने नहीं देते। हमारे मन की हालत ऐसी है जैसे... पुराने जमाने में तो ऐसा होता था, अब तो इससे उलटा होगा, अभी होता तो नहीं, लेकिन होगा । शिक्षक अक्सर उपद्रवी लड़कों को क्लास के बाहर कर देता था। अब आगे तो ऐसा ही होगा कि लड़के अक्सर उपद्रवी शिक्षकों को क्लास के बाहर कर देंगे, कि आप बाहर रहिए, हम भीतर अपने शांति से हैं। तो मन जो है वह शिक्षक को, बुद्धि को बाहर किए जीता है। और मन अपना करता रहता है, वह जो नासमझियां कर सकता है, करता है; क्योंकि मन पास कोई विवेक नहीं है। मन ड्रीमिंग फैकल्टी है, सिर्फ स्वप्नवान है । मन सिर्फ सपने देख सकता, कल्पना कर सकता, स्मृतियां कर सकता है। मन सोच नहीं सकता। मन के पास विचार की शक्ति | विचार की शक्ति बुद्धि के पास है। बुद्धि को बीच में लाएं और मन के कामों को बुद्धि के लिए कहें कि जागरूक होकर मन को करने दे । मन जो भी करे, बुद्धि को Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9- गीता दर्शन भाग-1-m सदा खड़ा रखें और कहें कि देख, मन क्या कर रहा है! और मन | को दे दें परम सत्ता के हाथ में। उसी तरह दीन हो जाता है, जैसे इंद्रियां मन के आने से दीन होती ___ और कृष्ण कहते हैं, हे कौन्तेय, हे अर्जुन, ऐसा जो अपने को हैं। बुद्धि के आने से मन दीन हो जाता है। संयमित कर लेता, वह व्यक्ति दुर्जय कामना के पार हो जाता है __ और यह जो बुद्धि है, इसको भी सब कुछ मत सौंप दें, क्योंकि अर्थात वह आत्मा को उपलब्ध हो जाता है। यह भी परम नहीं है। परम तो इसके पार है, जहां से यह बुद्धि भी मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत आती है। तो यह भी हो सकता है, एक आदमी बुद्धि से मन को वश | अनुगृहीत हूं और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम में कर ले, मन से इंद्रियों को वश में कर ले, लेकिन बुद्धि के वश में करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें। हो जाए, तो अहंकार से भर जाएगा। बुद्धि ईगोइस्ट हो जाएगी। बुद्धि बहुत ईगोइस्टिक है, बुद्धि बहुत अहंकारपूर्ण है। वह कहेगा, मैं जानता, सब मुझे पता है। मैंने मन को भी जीता, इंद्रियों को भी जीता, अब मैं बिलकुल ही अपना सम्राट हो गया हूं। तो यहां भी अटकाव हो जाएगा। बद्धि सोच सकती है. विचार सकती है। लेकिन जीवन का सत्य अगम है, बुद्धि की पकड़ के बाहर है। बुद्धि कितना ही सोचे, सोच-सोचकर कितना ही पाए, फिर भी जीवन एक रहस्य है, एक मिस्ट्री है; और उसके द्वार बुद्धि से नहीं खुलते। हां, बद्धि भी जब उलझती है, तब परमात्मा को याद करती है। लेकिन जब तक सुलझी रहती है, तब तक कभी याद नहीं करती। धंधा बिलकुल ठीक चल रहा है, दुकान ठीक चल रही है, पैसा ठीक आ रहा है, लाभ ठीक हो रहा है, गणित ठीक हल हो रहा है, विज्ञान की खोज ठीक चल रही है-परमात्मा की कोई याद नहीं आती। आपने खयाल किया, जब दुख में पड़ती है बुद्धि, तब परमात्मा की याद आती है। जब उलझती है, जब लगता है, अपने से अब क्या होगा। पत्नी मरती है और डाक्टर कहते हैं कि बस यहीं मेडिकल साइंस का अंत आ गया। अब हम कुछ कर नहीं सकते। जो हम कर सकते थे, वह हम कर चुके। जो हम कर सकते हैं, वह हम कर रहे हैं। लेकिन अब हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है। तब एकदम हाथ जुड़ जाते हैं कि हे भगवान! तू कहां है? लेकिन अभी तक कहां था भगवान ? यह डाक्टर की बुद्धि थक गई, अपनी बुद्धि थक गई, अब भगवान है। नहीं, इतने से नहीं चलेगा। जब बुद्धि हारती है, तब समर्पण का कोई मजा नहीं। हारे हुए समर्पण का कोई अर्थ है? जब बुद्धि जीतती है और जब सुख चरणों पर लोटता है और जब लगता है, सब सफल हो रहा है, सब ठीक हो रहा है, बिलकुल सब सही है, तब जो आदमी परमात्मा को स्मरण करता है, उसकी बुद्धि परमात्मा के लिए समर्पित होकर परमात्मा के वश में हो जाती है। इंद्रियों को दें मन के हाथ में, मन को दें बुद्धि के हाथ में, बुद्धि 1472 Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो - एक परिचय बुद्धत्व की प्रवाहमान धारा में ओशो एक नया प्रारंभ हैं, लगे। विद्यार्थियों के बीच वे 'आचार्य रजनीश' के नाम से वे अतीत की किसी भी धार्मिक परंपरा या श्रृंखला की कड़ी नहीं अतिशय लोकप्रिय थे। हैं। ओशो से एक नये युग का शुभारंभ होता है और उनके | | विश्वविद्यालय के अपने नौ सालों के अध्यापन-काल के साथ ही समय दो सुस्पष्ट खंडों में विभाजित होता है: दौरान वे पूरे भारत में भ्रमण भी करते रहे। प्रायः 60-70 हजार ओशो-पूर्व तथा ओशो-पश्चात। की संख्या में श्रोता उनकी सभाओं में उपस्थित होते। वे ओशो के आगमन से एक नये मनुष्य का, एक नये जगत आध्यात्मिक जन-जागरण की एक लहर फैला रहे थे। उनकी का, एक नये युग का सूत्रपात हुआ है, जिसकी आधारशिला वाणी में और उनकी उपस्थिति में वह जादू था, वह सुगंध थी, अतीत के किसी धर्म में नहीं है, किसी दार्शनिक विचार-पद्धति जो किसी पार के लोक से आती है। में नहीं है। ओशो सद्यःस्नात धार्मिकता के प्रथम पुरुष हैं, सन 1966 में ओशो ने विश्वविद्यालय के प्राध्यापक पद सर्वथा अनूठे संबुद्ध रहस्यदर्शी हैं। से त्यागपत्र दे दिया ताकि अस्तित्व ने जिस परम भगवत्ता का . मध्यप्रदेश के कुचवाड़ा गांव में 11 दिसंबर 1931 को खजाना उन पर लुटाया है उसे वे पूरी मानवता को बांट सकें जन्मे ओशो का बचपन का नाम रजनीश चन्द्रमोहन था। और एक नये मनुष्य को जन्म देने की प्रक्रिया में समग्रतः लग उन्होंने जीवन के प्रारंभिक काल में ही एक निर्भीक स्वतंत्र सकें। ओशो का यह नया मनुष्य 'ज़ोरबा दि बुद्धा' एक ऐसा आत्मा का परिचय दिया। खतरों से खेलना उन्हें प्रीतिकर था। मनष्य है जो जोरबा की भांति भौतिक जीवन का परा आनंद 100 फीट ऊंचे पल से कद कर बरसात में उफनती नदी को मनाना जानता है और जो गौतम बद्ध की भांति मौन होकर तैर कर पार करना उनके लिए साधारण खेल था। युवा ओशो ध्यान में उतरने में भी सक्षम है-ऐसा मनुष्य जो भौतिक और ने अपनी अलौकिक बुद्धि तथा दृढ़ता से पंडित-पुरोहितों, | आध्यात्मिक, दोनों तरह से समृद्ध है। ‘ज़ोरबा दि बुद्धा' एक मुल्ला-पादरियों, संत-महात्माओं-जो स्वानुभव के बिना ही | समग्र व अविभाजित मनुष्य है। इस नये मनुष्य के बिना पृथ्वी भीड़ के अगुवा बने बैठे थे-की मूढ़ताओं और पाखंडों का | का कोई भविष्य शेष नहीं है। पर्दाफाश किया। सन 1970 में ओशो बंबई में रहने के लिए आ गये। अब __21 मार्च 1953 को इक्कीस वर्ष की आयु में ओशो पश्चिम से सत्य के खोजी भी, जो अकेली भौतिक समृद्धि से संबोधि (परम जागरण) को उपलब्ध हुए। संबोधि के संबंध में ऊब चुके थे और जीवन के किन्हीं और गहरे रहस्यों को जानने वे कहते हैं: 'अब मैं किसी भी प्रकार की खोज में नहीं हूं। और समझने के लिए उत्सुक थे, उन तक पहुंचने लगे। ओशो अस्तित्व ने अपने समस्त द्वार मेरे लिए खोल दिये हैं।' | ने उन्हें देशना दी कि अगला कदम ध्यान है। ध्यान ही जीवन में उन दिनों वे जबलपुर के एक कालेज में दर्शनशास्त्र के | सार्थकता के फूलों के खिलने में सहयोगी सिद्ध होगा। विद्यार्थी थे। संबोधि घटित होने के पश्चात भी उन्होंने अपनी | इसी वर्ष सितंबर में, मनाली (हिमालय) में आयोजित शिक्षा जारी रखी और सन 1957 में सागर विश्वविद्यालय से | अपने एक शिविर में ओशो ने नव-संन्यास में दीक्षा देना प्रारंभ दर्शनशास्त्र में प्रथम श्रेणी में प्रथम (गोल्डमेडलिस्ट) रह कर किया। इसी समय के आसपास वे आचार्य रजनीश से भगवान एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। इसके पश्चात वे जबलपुर श्री रजनीश के रूप में जाने जाने लगे। विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक पद पर कार्य करने सन 1974 में वे अपने बहुत से संन्यासियों के साथ पूना | 473/ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 AM आ गये जहां श्री रजनीश आश्रम' की स्थापना हुई। पूना आने | | मिल-जुल कर अपने सद्गुरु के सान्निध्य में आनंद और उत्सव के बाद उनके प्रभाव का दायरा विश्वव्यापी होने लगा। के वातावरण में एक अनूठे नगर के सृजन को यथार्थ रूप दे रहे श्री रजनीश आश्रम पूना में प्रतिदिन अपने प्रवचनों में थे। शीघ्र ही यह नगर रजनीशपुरम नाम से संयुक्त राज्य ओशो ने मानव-चेतना के विकास के हर पहलू को उजागर अमरीका का एक निगमीकृत (इन्कापोरेटेड) शहर बन गया। किया। बुद्ध, महावीर, कृष्ण, शिव, शांडिल्य, नारद, जीसस के | किंतु कट्टरपंथी ईसाई धर्माधीशों के दबाव में व राजनीतिज्ञों के साथ ही साथ भारतीय अध्यात्म-आकाश के अनेक निहित स्वार्थवश प्रारंभ से ही कम्यून के इस प्रयोग को नष्ट नक्षत्रों-आदिशंकराचार्य, गोरख, कबीर, नानक, मलूकदास, करने के लिए अमरीका की संघीय, राज्य और स्थानीय सरकारें रैदास, दरियादास, मीरा आदि पर उनके हजारों प्रवचन उपलब्ध हर संभव प्रयास कर रही थीं। हैं। जीवन का ऐसा कोई भी आयाम नहीं है जो उनके प्रवचनों से | । जैसे अचानक एक दिन ओशो मौन हो गये थे वैसे ही अस्पर्शित रहा हो। योग, तंत्र, ताओ, झेन, हसीद, सूफी जैसी | | | अचानक अक्तूबर 1984 में उन्होंने पुनः प्रवचन देना प्रारंभ कर विभिन्न साधना-परंपराओं के गूढ़ रहस्यों पर उन्होंने सविस्तार दिया। जीवन-सत्यों के इतने स्पष्टवादी व मुखर विवेचनों से प्रकाश डाला है। साथ ही राजनीति, कला, विज्ञान, मनोविज्ञान, | निहित स्वार्थों की जड़ें और भी चरमराने लगी। . दर्शन, शिक्षा, परिवार, समाज, गरीबी, जनसंख्या-विस्फोट, ___ अक्तूबर 1985 में अमरीकी सरकार ने ओशो पर पर्यावरण तथा संभावित परमाणु युद्ध के व उससे भी बढ़कर | | आप्रवास-नियमों के उल्लंघन के 35 मनगढंत आरोप लगाए। एड्स महामारी के विश्व-संकट जैसे अनेक विषयों पर भी बिना किसी गिरफ्तारी-वारंट के ओशो को बंदूकों की नोक पर उनकी क्रांतिकारी जीवन-दष्टि उपलब्ध है। | हिरासत में ले लिया गया। 12 दिनों तक उनकी जमानत शिष्यों और साधकों के बीच दिए गए उनके ये प्रवचन स्वीकार नहीं की गयी और उनके हाथ-पैर में हथकड़ी व छह सौ पचास से भी अधिक पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हो । बेड़ियां डाल कर उन्हें एक जेल से दूसरी जेल में घुमाते हुए चुके हैं और तीस से अधिक भाषाओं में अनुवादित हो चुके हैं। | पोर्टलैंड (ओरेगॅन) ले जाया गया। इस प्रकार, जो यात्रा कुल वे कहते हैं. "मेरा संदेश कोई सिद्धांत. कोई चिंतन नहीं है। | पांच घंटे की है वह आठ दिन में पूरी की गयी। जेल में उनके मेरा संदेश तो रूपांतरण की एक कीमिया. एक विज्ञान है।" | शरीर के साथ बहुत दुर्व्यवहार किया गया और यहीं संघीय ___ ओशो अपने आवास से दिन में केवल दो बार बाहर | सरकार के अधिकारियों ने उन्हें 'थेलियम' नामक धीमे असर आते-प्रातः प्रवचन देने के लिए और संध्या समय सत्य की | वाला जहर दिया। यात्रा पर निकले हए साधकों को मार्गदर्शन एवं नये प्रेमियों को 14 नवंबर 1985 को अमरीका छोड़ कर ओशो भारत संन्यास-दीक्षा देने के लिए। | लौट आये। यहां की तत्कालीन सरकार ने भी उन्हें समूचे विश्व सन 1980 में कट्टरपंथी हिंदू समुदाय के एक सदस्य | से अलग-थलग कर देने का परा प्रयास किया। तब ओशो द्वारा उनकी हत्या का प्रयास भी उनके एक प्रवचन के दौरान | | नेपाल चले गये। नेपाल में भी उन्हें अधिक समय तक रुकने किया गया। की अनुमति नहीं दी गयी। ___ अचानक शारीरिक रूप से बीमार हो जाने से 1981 की | फरवरी 1986 में ओशो विश्व-भ्रमण के लिए निकले वसंत ऋतु में वे मौन में चले गये। चिकित्सकों के परामर्श पर जिसकी शुरुआत उन्होंने ग्रीस से की, लेकिन अमरीका के उसी वर्ष जन में उन्हें अमरीका ले जाया गया। उनके अमरीकी दबाव के अंतर्गत 21 देशों ने या तो उन्हें देश से निष्कासित शिष्यों ने ओरेगॅन राज्य के मध्य भाग में 64.000 एकड जमीन | किया या फिर देश में प्रवेश की अनुमति ही नहीं दी। इन खरीदी थी जहां उन्होंने ओशो को रहने के लिए आमंत्रित | | तथाकथित स्वतंत्र व लोकतांत्रिक देशों में ग्रीस, इटली, किया। धीरे-धीरे यह अर्ध-रेगिस्तानी जगह एक फूलते-फलते | | स्विट्जरलैंड, स्वीडन, ग्रेट ब्रिटेन, पश्चिम जर्मनी, हालैंड, कम्यून में परिवर्तित होती गई। वहां लगभग 5,000 प्रेमी मित्र कनाडा, जमाइका और स्पेन प्रमुख थे। 474 Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ im- ओशो-एक परिचय -m ओशो जुलाई 1986 में बम्बई और जनवरी 1987 में पूना व्हाइट रोब ब्रदरहुड" की सभा में आधे घंटे के लिये उपस्थित के अपने आश्रम में लौट आए, जो अब ओशो कम्यून | होते रहे। इंटरनेशनल के नाम से जाना जाता है। यहां वे पुनः अपनी | 17 जनवरी को वे सभा में केवल नमस्कार करके वापस क्रांतिकारी शैली में अपने प्रवचनों से पंडित-पुरोहितों और | चले गए। 18 जनवरी को “ओशो व्हाइट रोब ब्रदरहुड" की राजनेताओं के पाखंडों व मानवता के प्रति उनके षड्यंत्रों का | सांध्य-सभा में उनके निजी चिकित्सक स्वामी प्रेम अमृतो ने पर्दाफाश करने लगे। | सूचना दी कि ओशो के शरीर का दर्द इतना बढ़ गया है कि वे इसी बीच भारत सहित सारी दुनिया के बुद्धिजीवी वर्ग व | हमारे बीच नहीं आ सकते, लेकिन वे अपने कमरे में ही सात समाचार माध्यमों ने ओशो के प्रति गैर-पक्षपातपूर्ण व विधायक | बजे से हमारे साथ ध्यान में बैठेंगे। दूसरे दिन 19 जनवरी चिंतन का रुख अपनाया। छोटे-बड़े सभी प्रकार के | 1990 को सायं पांच बजे ओशो शरीर छोड़ कर महाप्रयाण कर समाचारपत्रों व पत्रिकाओं में अक्सर उनके अमृत-वचन | | गये। इसकी घोषणा सांध्य-सभा में की गयी। ओशो की इच्छा अथवा उनके संबंध में लेख व समाचार प्रकाशित होने लगे। के अनुरूप, उसी सांध्य-सभा में उनका शरीर गौतम दि बुद्धा देश के अधिकांश प्रतिष्ठित संगीतज्ञ, नर्तक, साहित्यकार, | | आडिटोरियम में दस मिनट के लिए लाकर रखा गया। दस कवि व शायर ओशो कम्यून इंटरनेशनल में अक्सर आने लगे। हजार शिष्यों और प्रेमियों ने उनकी आखिरी विदाई का उत्सव मनुष्य की चिर-आकांक्षित उटोपिया का सपना साकार देख कर | संगीत-नृत्य, भावातिरेक और मौन में मनाया। फिर उनका उन्हें अपनी ही आंखों पर विश्वास न होता। शरीर दाहक्रिया के लिए ले जाया गया। 26 दिसंबर 1988 को ओशो ने अपने नाम के आगे से | 21 जनवरी 1990 के पूर्वाह्न में उनके अस्थि-फूल का 'भगवान' संबोधन हटा दिया। 27 फरवरी 1989 को ओशो कलश महोत्सवपूर्वक कम्यून में लाकर च्यांग्त्स हॉल में निर्मित कम्यून इंटरनेशनल के बुद्ध सभागार में सांध्य-प्रवचन के संगमरमर के समाधि भवन में स्थापित किया गया। समय उनके 10,000 शिष्यों व प्रेमियों ने एकमत से अपने ओशो की समाधि पर स्वर्ण अक्षरों में अंकित है: प्यारे सद्गुरु को 'ओशो' नाम से पुकारने का निर्णय लिया। ___ अक्तूबर 1985 में जेल में अमरीका की रीगन सरकार OSHO द्वारा ओशो को थेलियम नामक धीमा असर करने वाला जहर Never Born दिये जाने एवं उनके शरीर को प्राणघातक रेडिएशन से गुजारे Never Died जाने के कारण उनका शरीर तब से निरंतर अस्वस्थ रहने लगा Only Visited this था और भीतर से क्षीण होता चला गया। इसके बावजूद वे Planet Earth between ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूना के गौतम दि बुद्धा Dec 11 1931-Jan 19 1990 आडिटोरियम में 10 अप्रैल 1989 तक प्रतिदिन संध्या दस हजार शिष्यों, खोजियों और प्रेमियों की सभा में प्रवचन देते रहे ध्यान और सृजन का यह अनूठा नव-संन्यास उपवन, और उन्हें ध्यान में डुबाते रहे। इसके बाद के अगले कई महीने | ओशो कम्यून, ओशो की विदेह-उपस्थिति में आज पूरी दुनिया उनका शारीरिक कष्ट बढ़ गया। | के लिए एक ऐसा प्रबल चुंबकीय आकर्षण-केंद्र बना हुआ है ____ 17 सितंबर 1989 से पुनः गौतम दि बुद्धा आडिटोरियम | कि यहां निरंतर नये-नये लोग आत्म-रूपांतरण के लिए आ में हर शाम केवल आधे घंटे के लिए आकर ओशो मौन रहे हैं तथा ओशो की सघन-जीवंत उपस्थिति में अवगाहन कर दर्शन-सत्संग के संगीत और मौन में सबको डुबाते रहे। इस बैठक को उन्होंने “ओशो व्हाइट रोब ब्रदरहुड" नाम दिया। ओशो 16 जनवरी 1990 तक प्रतिदिन संध्या सात बजे "ओशो हैं। 4751 Page #506 --------------------------------------------------------------------------  Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपनिषद सर्वसार उपनिषद कैवल्य उपनिषद अध्यात्म उपनिषद कठोपनिषद ईशावास्य उपनिषद निर्वाण उपनिषद आत्म-पूजा उपनिषद केनोपनिषद मेरा स्वर्णिम भारत (विविध उपनिषद-सूत्र ) कृष्ण गीता-दर्शन (आठ भागों में अठारह अध्याय) कृष्ण-स्मृति महावीर महावीर वाणी (दो भागों में) जिन सूत्र (दो भागों में) महावीर या महाविनाश महावीरः मेरी दृष्टि में ज्यों की त्यों धरि दीन् हीं चदरिया ओशो का हिन्दी साहित्य बुद्ध एस धम्मो सनंतनो (बारह भागों में) अष्टावक्र महागीता (छह भागों में ) लाओत्से ताओ उपनिषद (छह भागों में) कबीर सुनो भई साधो कहै कबीर दीवाना कहै कबीर मैं पूरा पाया न कानों सुना न आंखों देखा (कबीर व फरीद) जगजीवन नाम सुमिर मन बावरे | अरी, मैं तो नाम के रंग छकी दरिया कानों सुनी सो झूठ स अमी झरत बिगसत कंवल | सुंदरदा हरि बोलौ हरि बोल ज्योति से ज्योति जले धरमदास जस पनिहार धरे सिर गागर का सोवै दिन रैन दादू सबै सयाने एक मत पिव पिव लागी प्यास पलटू अजहूं चेत गंवार सपना यह संसार काहे होत अधीर 477 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Om गीता दर्शन भाग-1-m मलूकदास कन थोरे कांकर घने रामदुवारे जो मरे शांडिल्य अथातो भक्ति जिज्ञासा (दो भागों में) अन्य रहस्यदर्शी भक्ति -सूत्र (नारद) शिव-सूत्र (शिव) भजगोविन्दम् मूढ़मते (आदिशंकराचार्य) एक ओंकार सतनाम (नानक) जगत तरैया भोर की (दयाबाई) बिन घन परत फुहार (सहजोबाई) पद धुंघरू बांध (मीरा) नहीं सांझ नहीं भोर (चरणदास) संतो, मगन भया मन मेरा (रज्जब) कहै वाजिद पुकार (वाजिद) मरौ हे जोगी मरौ (गोरख) सहज-योग (सरहपा-तिलोपा) बिरहिनी मंदिर दियना बार (यारी) दरिया कहै सब्द निरबाना (दरियादास बिहारवाले) प्रेम-रंग-रस ओढ़ चदरिया (दूलन) हंसा तो मोती चुसें (लाल) गुरु-परताप साध की संगति (भीखा) मन ही पूजा मन ही धूप (रैदास) झरत दसहुं दिस मोती (गुलाल) जरथुस्त्रः नाचता-गाता मसीहा (जरथुस्त्र) रहिमन धागा प्रेम का उड़ियो पंख पसार सुमिरन मेरा हरि करें पिय को खोजन मैं चली | साहेब मिल साहेब भये | जो बोलैं तो हरिकथा | बहुरि न ऐसा दांव ज्यूं था त्यूं ठहराया | ज्यूं मछली बिन नीर दीपक बारा नाम का अनहद में बिसराम लगन महूरत झूठ सब सहज आसिकी नाहिं पीवत रामरस लगी खुमारी रामनाम जान्यो नहीं सांच सांच सो सांच आपुई गई हिराय बहुतेरे हैं घाट कोपलें फिर फूट आईं | फिर पत्तों की पांजेब बजी फिर अमरित की बूंद पड़ी चेति सके तो चेति | क्या सोवै तू बावरी एक एक कदम चल हंसा उस देस कहा कहूं उस देस की पंथ प्रेम को अटपटो मूलभूत मानवीय अधिकार | नया मनुष्यः भविष्य की एकमात्र आशा सत्यम् शिवम् सुंदरम् रसो वैसः सच्चिदानंद पंडित-पुरोहित और राजनेताः मानव आत्मा के शोषक ॐ मणि पद्मे हुम् ॐ शांतिः शांतिः शांतिः प्रश्नोत्तर नहिं राम बिन ठांव प्रेम-पंथ ऐसो कठिन उत्सव आमार जाति, आनंद आमार गोत्र मृत्योर्मा अमृतं गमय प्रीतम छवि नैनन बसी 478 Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam- ओशो का हिन्दी साहित्य -m हरि ॐ तत्सत् एक महान चुनौतीः मनुष्य का स्वर्णिम भविष्य मैं धार्मिकता सिखाता हूं, धर्म नहीं ध्यान, साधना, योग ध्यानयोगः प्रथम और अंतिम मुक्ति हसिबा, खेलिबा, धरिबा ध्यानम् नेति-नेति मैं कहता आंखन देखी पतंजलि योग-सूत्र (पांच भागों में) झेन, सूफी और उपनिषद की कहानियां बिन बाती बिन तेल सहज समाधि भली दीया तले अंधेरा तंत्र संभोग से समाधि की ओर तंत्र-सूत्र (पांच भागों में) साधना-शिविर साधना-पथ ध्यान-सूत्र जीवन ही है प्रभु माटी कहै कुम्हार सूं मैं मृत्यु सिखाता हूं जिन खोजा तिन पाइयां समाधि के सप्त द्वार (ब्लावट्स्की) साधना-सूत्र (मेबिल कॉलिन्स) विचार-पत्र क्रांति-बीज पथ के प्रदीप पत्र-संकलन अंतर्वीणा प्रेम की झील में अनुग्रह के फूल | राष्ट्रीय और सामाजिक समस्याएं देख कबीरा रोया स्वर्ण पाखी था जो कभी और अब है भिखारी जगत का शिक्षा में क्रांति नये समाज की खोज बोध-कथा मिट्टी के दीये 479 Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो टाइम्स... विश्व का एकमात्र शुभ समाचार-पत्र ओशो टाइम्स हिंदी संस्करण अंग्रेजी संस्करण एक वर्ष में 12 अंक एक प्रति का मूल्य 15 रुपये 48 रुपये वार्षिक शुल्क 150 रुपये 480 रुपये ओशो के संबंध में समस्त जानकारी हेतु संपर्क सूत्र: ओशो कम्यून इंटरनेशनल, 17 कोरेगांव पार्क, पुणे 411001 फोन: 0212-628562 OSHO MEST Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . और दुनिया के अनेक-अनेक ग्रंथों में अदभुत सत्य हैं, लेकिन गीता विशिष्ट है, और उसका कुल कारण इतना है कि वह धर्मशास्त्र कम, मनस- शास्त्र, साइकोलाजी ज्यादा है। उसमें कोरे स्टेटमेंट्स नहीं हैं कि ईश्वर है और आत्मा है। उसमें कोई दार्शनिक वक्तव्य नहीं हैं; कोई दार्शनिक तर्क नहीं हैं। गीता मनुष्य जाति का पहला मनोविज्ञान है; वह पहली साइकोलाजी है। इसलिए उसके मूल्य की बात ही और है। अगर मेरा वश चले, तो कृष्ण को मनोविज्ञान का पिता मैं कहना चाहूंगा। वे पहले व्यक्ति हैं, जो दुविधाग्रस्त चित्त, माइंड इन कांफ्लिक्ट, संतापग्रस्त मन, खंड-खंड टूटे हुए संकल्प को अखंड और इंटिग्रेट करने की... कहें कि वे पहले आदमी हैं, जो साइको-एनालिसिस का, मनस-विश्लेषण का उपयोग करते हैं। सिर्फ मनस-विश्लेषण का ही नहीं, बल्कि साथ ही एक और दूसरी बात का भी, मनस-संश्लेषण का भी, साइको-सिंथीसिस का भी। तो कृष्ण सिर्फ फ्रायड की तरह मनोविश्लेषक नहीं हैं; वे संश्लेषक भी हैं। वे मन की खोज ही नहीं करते कि क्या-क्या खंड हैं उसके ! वे इसकी भी खोज करते हैं कि वह कैसे अखंड, इंडिविजुएशन को उपलब्ध हो; अर्जुन कैसे अखंड हो जाए! -ओशो Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो की वाणी आज संपूर्ण संसार के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हो सकती है, सबके लिए जीवन-दर्शन प्रस्तुत कर सकती है। लेकिन कब? तब, जब हम उसे क्रियान्वित करने का साहस कर सकें। यह चिंतन व्यवहार्य है। दैनंदिन जीवन में, रोजमर्रा के जीवन में उपयोगी __ है। इसके द्वारा ही एकता, एकात्मता, शांति और सदभाव प्रकट हो सकते हैं। संसार आज इन उपदेशों को अपनाने की स्थिति में है। यह व्यवहार के द्वारा करना होगा, बातों से नहीं। यही इस युग की मांग है। यही आज की मांग है। -नानाजी देशमुख A REBEL BOOK ISBN 81-7261-062-9