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Im गीता दर्शन भाग-1 AM
अपौरुषेय है। लेकिन हम मतलब लेते हैं कि वह जो किताब है बार-बार, गहरे से गहरा जोर देते हैं। हमारे पास, वेद नाम की, वह परमात्मा की लिखी हुई है।
वेद किताब नहीं है, वेद जीवन है। लेकिन जानने को मानना बना लेना बड़ा आसान है, ज्ञान को किताब बना लेना बड़ा आसान है,
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय जानने को शास्त्र पर निर्भर कर देना बहुत आसान है। क्योंकि तब
नवानि गृहणाति नरोऽपराणि। बहत कुछ करना नहीं पड़ता, जानने की जगह केवल स्मृति की |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णाजरूरत होती है। बस, याद कर लेना काफी होता है। तो बहुत लोग न्यन्यानि संयाति नवानि देहीं ।। २२।। . गीता याद कर रहे हैं!
और यदि तू कहे कि मैं तो शरीरों के वियोग का शोक __ मैं एक गांव में गया था अभी तो वहां उन्होंने एक गीता-मंदिर करता हूं, तो यह भी उचित नहीं है; क्योंकि जैसे मनुष्य बनाया है। मैंने पूछा, एक छोटी-सी गीता के लिए इतना बड़ा पुराने वस्त्रों को त्यागकर, दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता मंदिर? तो उन्होंने कहा कि नहीं, जगह कम पड़ रही है। मैंने कहा, है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नए क्या कर रहे हैं यहां आप? उन्होंने कहा कि अब तक हम यहां एक
शरीरों को प्राप्त होता है। लाख गीता लिखवाकर हाथ से रखवा चुके हैं। अब जगह कम पड़ रही है। हिंदस्तान भर में हजारों लोग गीता लिख-लिखकर भेज रहे हैं। मैंने कहा, लेकिन यह क्या हो रहा है? इससे क्या होगा? उन्होंने वा स्त्रों की भांति, जीर्ण हो गए वस्त्रों की भांति शरीर को कहा कि कोई आदमी दस दफे लिख चुका, कोई पचास दफे लिख प छोड़ती है आत्मा, नए शरीरों को ग्रहण करती है। चुका, कोई सौ दफे लिख चुका-लिखने से ज्ञान होगा।
लेकिन वस्त्रों की भांति! हमने कभी अपने शरीर को तो मैंने उनसे कहा. छापेखाने तो परम ज्ञानी हो गए होंगे। वस्त्र की भांति अनभव किया? ऐसा जिसे हमने ओढा हो? ऐसा कंपोजिटरों के तो हमको चरण पकड़ लेना चाहिए, कंपोजिटर जहां जिसे हमने पहना हो? ऐसा जो हमारे बाहर हो? ऐसा जिसके हम मिल जाएं; क्योंकि कितनी गीताएं छाप चुके वे! अब महात्माओं | भीतर हों? कभी हमने वस्त्र की तरह शरीर को अनुभव किया? की तलाश प्रेस में करनी चाहिए, मुद्रणशाला में करनी चाहिए, अब नहीं, हमने तो अपने को शरीर की तरह ही अनुभव किया है। और कहीं नहीं करनी चाहिए।
जब भूख लगती है, तो ऐसा नहीं लगता कि भूख लगी है-ऐसा यह पागलपन क्यों पैदा होता है ? होने का कारण है। ऐसा लगता मुझे पता चल रहा है। ऐसा लगता है, मुझे भूख लगी। जब सिर में है, शास्त्र से जानना हो जाएगा। शास्त्र से सूचना मिल सकती है, दर्द होता है, तो ऐसा नहीं लगता है कि सिर में दर्द हो रहा है-ऐसा इन्फर्मेशन मिल सकती है, इशारे मिल सकते हैं, ज्ञान नहीं मिल
न नहीं मिल मुझे पता चल रहा है। सकता। जान तो जीवन के अनुभव से ही मिलेगा। और जब तक | नहीं, ऐसा लगता है, मेरे सिर में दर्द हो रहा है, मुझे दर्द हो रहा जीवन के अनुभव से यह पता न चल जाए कि हमारे भीतर कोई | | है। तादात्म्य, आइडेंटिटी गहरी है। ऐसा नहीं लगता कि मैं और. अजन्मा है, तब तक रुकना मत, तब तक कृष्ण कितना ही कहें, | | शरीर ऐसा कुछ दो हैं। ऐसा लगता है, शरीर ही मैं हूं। मान मत लेना। कृष्ण के कहने से इतना ही जानना कि जब इतने | | कभी आंख बंद करके यह देखा, शरीर की उम्र पचास वर्ष हुई, जोर से यह आदमी कह रहा है, तो खोजें, तो लगाएं पता। जब इतने मेरी कितनी उम्र है? कभी आंख बंद करके दो क्षण सोचा, शरीर आश्वासन से यह आदमी भरा है, इतने सहज आश्वासन से कह | की उम्र पचास साल हुई, मेरी कितनी उम्र है? कभी आंख बंद करके रहा है; जाना है इसने, जीया है कुछ, देखा है कुछ। हम भी देखें, | | चिंतन किया कि शरीर का तो ऐसा चेहरा है, मेरा कैसा चेहरा है? हम भी जानें, हम भी जीएं। काश! शास्त्र इशारा बन जाए और हम कभी सिर में दर्द हो रहा हो तो आंख बंद करके खोज-बीन की कि यात्रा पर निकल जाएं। लेकिन शास्त्र मंदिर बन जाता है और हम | यह दर्द मुझे हो रहा है या मुझसे कहीं दूर हो रहा है? विश्राम को उपलब्ध हो जाते हैं।
पिछले महायुद्ध में एक बहुत अदभुत घटना घटी। फ्रांस में एक इस जानने शब्द को स्मरण रखना, क्योंकि पीछे कृष्ण उस पर अस्पताल में एक आदमी भरती हआ--युद्ध में बहत आहत, चोट
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