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________________ मरणधर्मा शरीर और अमृत, अरूप आत्मा 4 रोज, जरा भीतर देखना, बीमारी के बाहर कोई बचा ? दुख आता है रोज, रोना, हंसना, सब आता है रोज । देखना, देखना, खोजना उसे, जो इनके बाहर बच जाता है। 7 धीरे-धीरे खोजने से वह दिखाई पड़ने लगता है। और जब एक बार दिखाई पड़ता है, तो पता चलता है कि जिसे हमने अब तक समझा था कि मैं हूं, वह सिर्फ छाया थी, सिर्फ शैडो थी । छाया को ही समझा था कि मैं हूं और उसका हमें कोई पता ही नहीं था, जिसकी छाया बन रही है। छाया के साथ ही एक होकर जीए थे। वह छाया हमारी स्मृतियों का जोड़ है, हमारे जन्म से लेकर मृत्यु तक बने हुए चित्रों का एलबम है। वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् । कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्तिकम् ।। २१ । । हे पृथापुत्र अर्जुन, जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है। जा 'नता है! कृष्ण कहते हैं, जो ऐसा जानता है-हू नोज लाइक दिस। नहीं कहते हैं कि जो ऐसा मानता है— हू “बिलीव्स लाइक दिस। कह सकते थे कि जो पुरुष ऐसा मानता है कि न जन्म है, न मृत्यु है । तब तो हम सबको भी बहुत आसानी हो जाए। मानने से ज्यादा सरल कुछ भी नहीं है, क्योंकि मानने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता। जानने से ज्यादा कठिन कुछ भी नहीं है, क्योंकि जानने के लिए तो पूरी आत्म-क्रांति से गुजर जाना पड़ता है। कृष्ण कहते हैं, जो पुरुष ऐसा जानता है। इस जानने शब्द को ठीक से पहचान लेना जरूरी है। क्योंकि सारा धर्म जानने शब्द को छोड़कर मानने शब्द के इर्द-गिर्द घूम रहा है। सारा धर्म, सारी पृथ्वी पर बहुत - बहुत नामों से जो धर्म प्रचलित है, वह सब मानने के आस-पास घूम रहा है। वह सारा धर्म कह रहा है, मानो ऐसा, मानोगे तो हो जाएगा। लेकिन कृष्ण कहते हैं, जो जानता है। अब जानने का क्या मतलब? जानना भी दो तरह से हो सकता है। शास्त्र से कोई पढ़ ले, तो भी जान लेता है। अनुभव से कोई जाने, तो भी जान लेता है। क्या ये दोनों जानना एक ही अर्थ रखते हैं ? शास्त्र से जानना तो बड़ा सरल है। लिखा है, पढ़ा और जाना। | उसके लिए सिर्फ शिक्षित होना काफी है, पठित होना काफी है। उसके लिए धार्मिक होने की कोई जरूरत नहीं है। शास्त्र से पढ़कर जो जानना है, वह जानना नहीं है, जानने का धोखा है। वह सिर्फ इन्फर्मेशन है, सूचना है। लेकिन सूचना से धोखे हो जाते हैं। पढ़ लेते हैं, अजर है, अमर है; नहीं जन्मता, नहीं मरता; पढ़ लेते हैं, दोहरा लेते हैं। बार-बार | दोहरा लेने से भूल जाते हैं कि जानते नहीं हैं, सिर्फ दोहराते हैं। बहुत बार-बार दोहराने से, बहुत बार - बार दोहराने से बात ही भूल जाती है कि जो हम कह रहे हैं, वह अपना जानना नहीं है । एक आदमी शास्त्र में पढ़ ले तैरने की कला; जान ले पूरा शास्त्र । चाहे तो तैरने पर बोल सके, बोले; लिख सके तो लिखे। चाहे तो कोई युनिवर्सिटी से पीएच. डी. ले ले। डाक्टर हो जाए तैरने के संबंध में। लेकिन फिर भी उस आदमी को भूलकर नदी में धक्का मत देना। क्योंकि उसकी पीएच.डी. तैरा न सकेगी। उसकी पीएच. डी. और जल्दी डुबा देगी, क्योंकि काफी वजनी होती है, पत्थर का काम करेगी। तैरने के संबंध में जानना, तैरना जानना नहीं है। सत्य के संबंध में जानना, सत्य जानना नहीं है। टु नो अबाउट, संबंध में जानना, इज़ इक्वीवेलेंट, बिलकुल बराबर है न जानने के । सत्य के संबंध | में जानना, सत्य को न जानने के बराबर है। लेकिन एकदम बराबर कहना ठीक नहीं है, थोड़ा खतरा है। सत्य को न जानना, ऐसा | जानना, सत्य की तरफ जाने में राह बन जाती है। लेकिन सत्य को बिना जानते हुए जान लेना कि जानते हैं, सत्य की तरफ जाने में बाधा बन जाती है। नहीं, इक्वीवेलेंट भी नहीं है। 127 कृष्ण के इस शब्द को बहुत ठीक से समझ लेना चाहिए। क्योंकि इस एक शब्द के आस-पास ही आथेंटिक रिलीजन, वास्तविक धर्म का जन्म होता है— जानने। मानने के आस-पास नान - आथेंटिक, अप्रामाणिक धर्म का जन्म होता है । जानने से जो उपलब्ध होता है, उसका नाम श्रद्धा है। और मानने से जो उपलब्ध होता है, उसका नाम विश्वास है, बिलीफ है। और जो लोग विश्वासी हैं, वे धार्मिक नहीं हैं; वे बिना जाने मान रहे हैं। यह शब्द बहुत छोटा नहीं है, बड़े से बड़ा शब्द है। लेकिन भ्रांति | इसके साथ निरंतर होती रहती है। हमारे पास एक शब्द है, वेद; वेद का अर्थ है, जानना । लेकिन हम तो वेद से मतलब लेते हैं, संहिता, वह जो किताब है। हमने कहा है, वेद अपौरुषेय है, जानना
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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