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कृष्ण की लीला और राम का चरित्र / कृष्ण कुशलतम अभिनेता हैं / फर्क कर्म में नहीं, कर्ता में कर / लोक-मंगल के लिए कर्म / अर्जुन अभी अनासक्त नहीं हुआ है, इसलिए लोक-मंगल का बहाना / ज्ञानीजन अज्ञानियों के मन में कर्म के प्रति अश्रद्धा पैदा न करें / ज्ञानी का आचरण-अज्ञानियों के लिए खतरनाक / कृष्णमूर्ति को सुनकर साधकों का भटकना / कृष्ण, क्राइस्ट, बुद्ध और महावीर में कृष्णमूर्ति के बजाय ज्यादा करुणा है / निपट सत्य का भी दुरुपयोग और असत्य का भी सदुपयोग संभव / ज्ञानी का भी-लोक-मंगल के लिए-मर्यादित होना / कच्चे पत्तों के टूटने पर पीछे घाव का छूट जाना / सब कर्म प्रकृति के गुणों से होते हैं / कर्ताभाव भ्रांति है / अहंकार अर्थात कर्ताभाव के हटते ही सुख-दुख, हार-जीत-सब खो जाते हैं।
अहंकार का भ्रम ... 403
दो दृष्टिकोण-मैं जगत का केंद्र हूं-परमात्मा केंद्र है / विराट (परमात्मा) के कारण कर्म घटित हो रहे हैं-इस बोध से अनासक्ति का जन्म / अहंकार की उत्पत्ति कैसे? / अहंकार-उपयोगिता से उत्पन्न एक भ्रम / नाम-एक कामचलाऊ शब्द है / कुछ भी मेरा' 'तेरा' नहीं-सब परमात्मा का / मोह अर्थात सम्मोहन / प्रकृति के गुणों से सम्मोहित व्यक्ति–पशु की तरह बंधा हुआ / स्तन से सम्मोहन / सम्मोहन से सपनों का, कल्पनाओं का जन्म / कृष्ण का 'मैं' 'मुझमें'-अर्थात परमात्मा में / सर्वाधिक कठिन घटना-समर्पण / ज्वर है-काम, क्रोध, लोभ / ज्वर-मुक्त व्यक्ति ही समर्पण कर सकता है / ज्वर से अहंकार की उत्पत्ति / समर्पण किया नहीं जा सकता-वह होता है-विगतज्वर होने पर / काम, लोभ, क्रोध-बीमारियां हैं / बीमारियों को हमने स्वास्थ्य समझ लिया है / मानसिक ज्वरों से शक्ति का क्षय / शक्तिशाली ही समर्पित हो सकता है । अहंकार है कमजोरी, समर्पण है बल / जितना हीनभाव उतना ही अधिक अहंकार / युद्ध से चिंता नहीं है अर्जुन को–'मेरों' से लड़ने में चिंता है । 'छोड़ सब मुझ पर'-कृष्ण की मौजूदगी-अर्जुन की प्रतीति।
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श्रद्धा है द्वार ... 421
श्रद्धा विश्वास नहीं है / श्रद्धा अविश्वास का अभाव है / श्रद्धा का अर्थ है : हृदय की समग्रता / अविश्वासी किसी दिन श्रद्धा को उपलब्ध, पर विश्वासी कभी नहीं / विश्वास मिलता है बाहर से-उधार; श्रद्धा आती है भीतर से / विश्वास और अविश्वास दोनों तर्क से जीते हैं / श्रद्धा-तर्क काफी नहीं है-इसकी अनुभूति है / जीवन अतयं है / रहस्य श्रद्धा का द्वार है / रहस्य में डूबने पर श्रद्धा अंकुरित / श्रद्धा का बीज और रहस्य की भूमि / तर्क तोड़ता है, श्रद्धा जोड़ती है / सभी बुद्ध पुरुष कहते हैं कि जो मेरी बात मानेगा, वह पहुंच जाएगा / राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, क्राइस्ट-एक ही जीवन-धारा विभिन्न झरोखों से झांकती / ज्ञानी और अज्ञानी-दोनों प्रकृति के परवश हुए कर्म करते हैं, तो दोनों में फर्क क्या है? / ज्ञानी सहज स्वीकारपूर्वक जीवन से अछूता गुजर जाता है, अज्ञानी लड़ता हुआ-पीड़ित गुजरता है । अर्जुन हठधर्मी पर उतारू-कि नहीं लडूंगा / अज्ञानी हर चीज को परेशानी बना लेता है / श्रद्धा क्या अंध-श्रद्धा नहीं हो सकती? / श्रद्धा के बदले क्या विवेक ज्यादा उचित शब्द नहीं है? / श्रद्धा है-चेतना की समग्रता-दर्शन की समग्रता / विवेक व्यक्ति निर्भर-श्रद्धा समष्टि निर्भर / श्रद्धा निर्विचार है-विवेक विचार का सारभूत निचोड़ / विवेक श्रद्धा तक पहुंचा दे–यही उसका मूल्य है / विवेकवान श्रद्धा पर पहुंच जाते हैं और विवेकहीन-अश्रद्धा पर / विवेक स्वयं समर्पण नहीं बनता / श्रद्धा की आंख तर्क जैसी नहीं—प्रेम जैसी है / श्रद्धा की आंख से धर्म का जन्म / तर्क की आंख से विज्ञान का जन्म / श्रद्धावान तर्क से गुजर चुका होता है / अध्यात्म चेतसा होकर समर्पित हो-इसका क्या अर्थ है? / मनुष्य के पास तीन चेतनाएं हैं: विज्ञान चेतना, कला चेतना और अध्यात्म