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चेतना / विज्ञान-सत्य का अन्वेषण करता, उसे उघाड़ता, कला संवारती-सृजन करती और अध्यात्म चेतना समर्पण करती और सत्य के साथ एक हो जाती है / जगत द्वंद्व निर्भर है / सारा जीवन विरोध पर खड़ा है-घृणा-प्रेम, शत्रुता-मित्रता, क्रोध-क्षमा आदि के / हम एक को छोड़ना और दूसरे को बचाना चाहते हैं / दोनों का एक साथ स्वीकार / दोनों के बाहर–साक्षी / ज्ञानी पर सुख-दुख-सब आते हैं, पर वह न सुखी होता, न दुखी / ज्ञानी दोनों को देखता और अपने को तीसरा जानता है / ऐसा अनासक्त व्यक्ति जीवन के समस्त बंधनों से मुक्त हो जाता है।
परधर्म, स्वधर्म और धर्म ... 437
स्वधर्म में जीना आनंद है-परधर्म में भटक जाना दुख है / बीज की धन्यता-फूल बन जाने में / नैवेद्य ः निजता का खिला हुआ फूल / अर्जुन, तू स्वधर्म को खोज / परमात्मा की सृजन की क्षमता असीम है-पुनरुक्ति कभी नहीं / परधर्म से सावधान रहो / परधर्म आत्मघातक है / स्वधर्म की यात्रा बड़ा दुस्साहस है / स्वधर्म की यात्रा सर्वथा अज्ञात में यात्रा है / स्वधर्म में-चलना ही मार्ग का निर्माण है / आज स्वधर्म खो गया है-इसलिए अर्थहीनता है / धर्म, समाधि, परमात्मा-सब एक हैं, तो स्वधर्म अनेक कैसे हो सकता है? / स्वधर्म के रास्ते अनेक हैं, पर मंजिल एक है / परधर्म से स्वधर्म और स्वधर्म से धर्म / दूसरे के मार्ग से पाप आता है / अधर्म, पाप, काम, भोग-इनके लिए दूसरा जरूरी / जो सरलता लाए-वही ज्ञान है / आदमी को बलात पाप कर्म कौन करवाता है? बुराई कहां से आती है? / त्रिगुण-सब का स्रोत / तमस अवरोधक शक्ति है-रजस गत्यात्मक शक्ति है और सत्व संतुलन शक्ति है / एक सीमा तक हर वृत्ति हमारे नियंत्रण में / वृत्तियां प्रकृति के नियमानुसार / न शैतान, न परमात्मा-वरन तीन गुण / तमस को बनाने के पीछे परमात्मा का क्या उद्देश्य? / कोई उद्देश्य नहीं बनाने में ही आनंद है / तमस अपने आप में बुरा नहीं है । श्रेष्ठतम स्वास्थ्य-जहां तीनों गुण संतुलित हैं / तीनों के बाहर परमात्मा का अनुभव / कृष्ण का पूरा योग-समता का योग है / पहले तम और रज के बीच संतुलन-फिर तीन के बीच संतुलन / दो के बीच संतुलन से व्यक्ति साधु होता है और तीन के बीच संतुलन से संत / प्रकृति है त्रिगुणा और परमात्मा है त्रिगुणातीत।
वासना की धूल, चेतना का दर्पण ... 453
जैसे धुएं से अग्नि और मल से दर्पण ढंका होता है, ऐसे ही काम (वासना) से ज्ञान ढंका हुआ है / अज्ञान ज्ञान का अभाव नहीं—ज्ञान का ढंका होना है | वासना गीला ईंधन है / वासना का आधार ः जो मुझे चाहिए, वह मेरे पास नहीं है / वासना-जो नहीं है, उसकी मांग है / वासना सदा भविष्य में है और आत्मा-सदा वर्तमान में / वासना पर लगा हुआ ध्यान-आत्मा से च्युत हो जाता है / वासना का स्मरण परमात्मा का विस्मरण है। वासना दुष्पर है / वासना की दौड़ में जो मिला ही हुआ है, वह भूल जाता है / अज्ञान-ज्ञान का खोना नहीं-विस्मरण है / अज्ञान धुएं की तरह नान-सब्स्टेंशियल है / ऊपर धूल होने पर भी दर्पण दर्पण ही रहता है / मल (वासना) से ढंका हुआ दर्पण / मल अर्थात दुर्गधयुक्त / परतंत्रता है दुर्गंध और स्वतंत्रता है सुवास / वासना तृप्त न हो तो, या वासना तृप्त हो जाए तो-दोनों ही स्थितियों में विषाद / वासना से चेतना धूमिल / गंदगी के आदी हो गए हैं, इसलिए उसका पता नहीं चलता / जब दुर्गंध सुगंध मालूम पड़ने लगे, तो छुटकारा और मुश्किल / दर्पण और फोटो का फर्क / दर्पण पकड़ता नहीं-अशुद्ध नहीं होता / हम दर्पण कम और फोटो की फिल्म ज्यादा हैं / दर्पण जैसा व्यक्ति ही अनासक्त हो सकता है | दर्पण पर दाग लगता ही नहीं / काम-ऊर्जा को ज्ञानियों का नित्य वैरी क्यों कहा है? / इसमें निंदा नहीं–तथ्य की सूचना है / वासना का सदुपयोग भी है और