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________________ भूमिका विषाद का वसंत विषाद में से क्रांति का जन्म होता है। सृजन के मूल में विषाद है। गुमसुम होने की स्थिति, जगत को उदासीन होकर देखने की स्थिति को मनसविद बीमारी कहते हैं; लेकिन कभी-कभी यह बीमारी की स्थिति गहन मनन और ऊर्ध्व चिंतन के लिए राजमार्ग बन जाती है। इस स्थिति के प्रति जागरूक होना जरूरी है। बहुत ही प्रसन्न प्रकृति वाले डॉ. विलियम जेम्स पागलखाने की मुलाकात के बाद बड़े उदास हो गए। उनकी पत्नी को बड़ा आश्चर्य हुआ। हमेशा सबको हंसने-हंसाने वाला आदमी अचानक गंभीर हो गया। पत्नी ने कारण पूछा। विलियम ने जवाब दिया, 'मैंने इन पागलों को देखा। मुझे उनमें और मुझमें एक बात की समानता नजर आई। वे लोग जिस स्थिति में हैं, वहां मैं भी होकर आया हूं। फर्क सिर्फ इतना ही है, वे वहां से वापस नहीं आए, मैं वापस आ गया!' विषाद में से ही बड़ी क्रांति हई है, इस बात को ओशो सारगर्भित रूप में समझाते हैं. 'अर्जन का विषाद अपने विषाद में ही तप्त हो जाए, अथवा वहीं अटक जाए, तो वह विषाद अधार्मिक है। विषाद यात्रा बन जाए, गंगोत्री बने और विषाद में से निकलती गंगा आनंद के सागर तक पहंच जाए, तो वह धार्मिक बनती है। विषाद अटक जाए, वहां वह आत्मघाती बन जाता है। जहां वह निबंध बहता है, वहां आत्म-परिवर्तनकारी बन जाता है। बुद्ध को अपना विषाद उस मुकाम पर लाया था जहां आत्महत्या अथवा आत्म-परिवर्तन, ये दो रास्ते थे; महावीर का विषाद उनको उसी मुकाम पर ले आया था। वे दोनों अपने विषाद को स्वयं ऊपर उठा पाए थे। अर्जुन के विषाद की बात अलग है। अर्जुन हम सबका प्रतीक है। हम विषाद में डूबते हैं। स्वयं उससे बाहर आने की कोशिश करते हैं तब और-और ज्यादा डूबते जाते हैं। उस समय हमें किसी अरिहंत, किसी अवतारी पुरुष की जरूरत होती है। सब के नसीब में अरिहंत के साथ का योग निर्मित नहीं होता है। संवाद, विषाद में डूबे मनुष्य को ऊंचा उठा पाए, ऐसा होना चाहिए। कृष्ण-अर्जुन संवाद इस भूमिका का संवाद है। इसीलिए तो वह भारतीय संस्कृति के इतिहास में भिन्न-भिन्न मतों वालों के काम में आ सका है। जगत मिथ्या है, ऐसा कहने वाले अद्वैतवादियों को भी इस संवाद में अर्थ नजर आया। भक्ति, ज्ञान, प्रेम, विवेकबुद्धि सभी पंथ के लिए गीता उपयोगी है। गीता में यह सार्वभौमिकता का गुण है। इसीलिए तो धर्म के इस पृथक-पृथक स्वरूप को समझने वाले मनुष्य के पास गीता पहुंचती है तो चमत्कार घटता है। _____ओशो इस जगत के विषाद में से प्रकट हुई गंगा को आनंद के सागर तक ले जाने में समर्थ हुए हैं। इसीलिए उन्होंने गीता की बात कहने की शुरुआत की, तब धृतराष्ट्र के प्रश्न से शुरू हुए इस ग्रंथ की ही नहीं, तमाम धर्मग्रंथों की बातों को उसमें बुन लिया है। 'गीता-दर्शन' का प्रथम वाक्य ही इस प्रकार है : 'धृतराष्ट्र आंखों से अंधा है।' इधर ओशो धृतराष्ट्र की आंखों की कमी का उल्लेख नहीं कर रहे हैं। दुनिया के सभी मनुष्यों के भीतर यह धृतराष्ट्र है और किसी न किसी परिस्थिति में मामकाः' शब्द के साथ जाग्रत हो उठता है। धृतराष्ट्र के प्रश्न के साथ गीता का आरंभ होता है। धृतराष्ट्र संजय को पूछता है : 'धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में इकट्ठे हुए युद्ध की इच्छा रखने वाले मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया?' इस जिज्ञासा में से गीता का जन्म हुआ। ओशो यहां थोड़ी कठोर टिप्पणी करते हैं : 'इस अंधे धृतराष्ट्र ने जिज्ञासा की जिसके कारण यह धर्मग्रंथ शुरू हुआ। सारे धर्मग्रंथ अंधे मनुष्यों की जिज्ञासा के कारण ही शुरू होते हैं। जिस दिन दुनिया में अंधे मनुष्य नहीं होंगे, उस दिन धर्मग्रंथ की कोई जरूरत नहीं रहेगी।' धर्मग्रंथ मनुष्य की अंधी जिज्ञासा का परिणाम है, यह थोड़ा कठोर कथन है, लेकिन उनके सत्य का मनन करने जैसा है। जिनको
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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