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सत्य दिखता नहीं है वही तो खोजते हैं। जिसे उसका साक्षात्कार नहीं हुआ है, उसे ही उस रास्ते पर भटकना है। जिन्हें ज्ञान नहीं है वे ही वही-वही घोंटते रहते हैं। मनुष्य दो आंखों से देखता है इसलिए वह देख पाता है, ऐसा नहीं कह सकते। 'जिन नैनन में तव रूप बस्यो उस नैनन से अब देखना क्या'-इस मतलब की सूरदास की पंक्तियों का स्मरण हो आया। एक बार जो देख लेता है उसे देखने को कुछ बाकी नहीं रहता। कबीर की तरह ओशो भी 'देखादेखी बात' में भरोसा करते हैं। दूसरे जो ढूंढ़ रहे हैं, उन्हें कभी उलटबांसी से, तो कभी रास्ता दिखाकर मार्ग पर ले आते हैं। ___ गीता का प्रारंभ विषाद-योग से होता है। विषाद वरदान है। विषाद जगे तो कृष्ण से गीता सुनने को मिले। लेकिन यह विषाद मर्म में से जगना चाहिए। अगर यह विषाद सतह पर का ही हो तो इससे कोई परिणाम नहीं निकलता। अर्जुन का विषाद मर्म में से जगा है। युद्धभूमि पर उसे युद्ध की निरर्थकता समझ में आती है। कुरुक्षेत्र में आमने-सामने सेना सजी हो, शंखनाद हो रहा हो, तब अचानक शस्त्र नीचे रखकर, 'अब मैं युद्ध नहीं लडूंगा' ऐसे शब्द कृष्ण जैसे साथी को कहने वाले में बड़ी हिम्मत का होना जरूरी है। कृष्ण कहते हैं, तुम्हें लड़ना चाहिए, लेकिन अर्जुन उसका स्वीकार नहीं कर लेता है। कृष्ण सरीखे साथी-सारथि, गुरु जब मिल जाए तो फिर प्रश्न कैसा, ऐसा बहुतों को लग सकता है। अर्जुन को कृष्ण की महिमा का परिचय है। कृष्ण लोकोत्तर व्यक्ति हैं, यह बात अर्जुन जानता है। लेकिन मन के संदेह को प्रकट करने में उसे कोई संकोच नहीं। वह प्रश्न पूछता चला जाता है और उसमें से गीता के सात सौ श्लोक की रचना होती है।
ओशो इस कृष्णत्व को पा चुके हैं। यह ब्रह्मविद्या उनके लिए किसी प्रयास से प्राप्त करने की सिद्धि नहीं है। सहज ही वह उनमें प्रकट हुई है। 1970 की 29 नवंबर की सुबह उन्होंने अहमदाबाद में सब से प्रथम गीता ज्ञान-यज्ञ का आरंभ किया। उसके बाद के पांच साल में उन्होंने इस विषय पर दो सौ बीस प्रवचन दिए। इन सब में से साढ़े छः हजार पृष्ठों में विस्तारित 'गीता-दर्शन' प्राप्त होता है।
इसे गीता-विचार या गीता-मीमांसा नाम नहीं दिया है, 'गीता-दर्शन' शब्द का उपयोग हुआ है। गीता में ओशो का हुआ दर्शन सभी के लिए यहां प्रकट है। इसके बाद भी प्रश्न उठते हैं। प्रश्न उठने ही चाहिए। वही गति है। परंतु यहां गीता के विषय में स्थूल से लेकर सूक्ष्म तक की यात्रा की गई है। उदाहरण के तौर पर गीता के प्रथम अध्याय के दसवें श्लोक में, 'हमारी भीष्म से रक्षित सेना और उन लोगों की भीम से रक्षित सेना' ऐसे शब्दों का प्रयोग दर्योधन करता है। भीष्म के सामने भीम क्यों? अर्जन या धर्मराज क्यों नहीं? ओशो उसके जवाब में कहते हैं कि युद्ध खतम होने के बाद इस श्लोक को बोला गया होता तो भीम के स्थान पर अर्जुन को रख सकते थे। लेकिन युद्ध शुरू हुआ तब पांडवों के पक्ष में बल, युयुत्सा और विजयकामना का प्रतीक भीम था। सौ के सौ कौरवों को मारने की प्रतिज्ञा भीम की थी, अर्जुन की नहीं। अर्जुन विषाद अनुभव करता हुआ युद्धभूमि में न्यस्तशंस्त्र हो सकता है, भीम नहीं। ___ अव्यक्त की बात करते हुए वे गहनता में उतर जाते हैं। 'दि टेन्थ मैन' की बोधकथा से वे अव्यक्त को समझाते हैं। दस आदमी नदी पार उतर कर सभी सही सलामत हैं कि नहीं, वह तय करने के लिए गिनती करते हैं। सभी को नौ ही नजर आ रहे हैं। अंत में एक फकीर कहता है: मैं सभी को एक थप्पड़ मारता हूं। जिसे थप्पड़ लगे वह 'एक', 'दो' ऐसे अपनी संख्या बताए। दस थप्पड़ लगे और दसों व्यक्ति सलामत हैं, ऐसा सिद्ध हुआ। ऐसे, दो प्रकार के गणित हैं, एक गणित दूसरे से शुरू होता है। दूसरा गणित अपने से शुरू होता है। दूसरों से शुरू होने वाला गणित कभी भी अव्यक्त में नहीं ले जा पाएगा। अपने से शुरू होने वाला गणित अव्यक्त में ले जा सकता है।
अव्यक्त किस ढंग से हमारे भीतर बसा है, उस बात को ओशो अदभुत ढंग से समझाते हैं : 'हम थोड़ा भीतर झांकें तो पता लगता है कि हम जहां जी रहे हैं वहीं एक विशाल ऊर्जा का उत्तुंग शिखर है। उस शिखर को हम जानते हैं, पर उसके पार क्या है उसे नहीं जानते। उसके पीछे अव्यक्त मौजूद है। सभी अव्यक्त घटनाओं के पीछे व्यक्त मौजूद है। सभी दृश्य घटनाओं के पीछे अदृश्य मौजूद है। जरा गहरे में जाएं...।' ___ गहरे में कैसे उतरा जाए इसकी चर्चा यहां की गई है। बोध के रूप में नहीं, संवाद के रूप में। कृष्ण-अर्जुन संवाद कुरुक्षेत्र के मैदान में समाप्त नहीं होता। वह सतत चलता ही रहता है। मन के कुरुक्षेत्र में मनुष्य प्रश्न पूछता ही रहता है। परमात्मा उनके उत्तर देता है। सिर्फ इस उत्तर को सुनने की कला मनुष्य के पास नहीं है। इस उत्तर को सुनने के लिए ओशो हमें सजग करते हैं। हमारे विषाद या संताप को वर्तुलाकार गति में घूमने से रोककर, उसे आगे बढ़ाकर आनंद के सागर तक की यात्रा कैसे कराएं इसका खयाल देते हैं।