SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काम, द्वंद्व और शास्त्र से – निष्काम, निर्द्वद्व और स्वानुभव की ओर 4 एक व्यक्ति मंदिर में भजन गा रहा है, और इस भजन में भी इतनी कामना है कि ईश्वर को पा लूं, तो यह भजन व्यर्थ हो गया, यह भजन योग न रहा । ईश्वर को पाने की कामना भी कामना ही है। और कामना से कभी ईश्वर पाया नहीं जाता। ईश्वर तो निष्कामना में उपलब्ध है। अगर भजन में इतनी भी कामना है कि ईश्वर को पा लूं तो भजन व्यर्थ हुआ। अगर प्रार्थना में इतनी भी मांग है कि तेरे दर्शन हो जाएं, तो प्रार्थना व्यर्थ हो गई। लेकिन प्रार्थना अनमोटिवेटेड है; नहीं किसी को पाने के लिए, वरन भीतर के भाव से जन्मी है और अपने में पूरी है, अपने में पूरी है — आगे कुछ द्वार नहीं खोज रही है - तो प्रार्थना है। और उसी क्षण में प्रार्थना सफल है, जिस क्षण प्रार्थना निष्काम है। प्रत्येक कर्म प्रार्थना बन जाता है, अगर निष्काम बन जाए। और प्रत्येक प्रार्थना बंधन बन जाती है, अगर सकाम बन जाए। लेकिन हम जैसे दुकान चलाते हैं, वैसे ही पूजा भी करते हैं। दुकान भी मोटिवेटेड होती है, पूजा भी। दुकान कुछ पाने को होता है, पूजा में भी । पाप भी करते हैं, तो भी कुछ पाने को करते हैं । | पुण्य भी करते हैं, तो कुछ पाने को करते हैं। और कृष्ण कह रहे हैं कि पाने के लिए करना ही अधर्म है। पाने की आकांक्षा के बिना जो कृत्य का फूल खिलता है - दि फ्लावरिंग आफ दि प्योर एक्ट - शुद्ध कर्म जब खिलता है बिना किसी कारण के... । इस संबंध में इमेनुअल कांट का नाम लेना जरूरी है। जर्मनी में कांट ने करीब-करीब कृष्ण से मिलती-जुलती बात कही है। उसने कहा कि अगर कर्तव्य में जरा-सी भी आकांक्षा है, तो कर्तव्य पाप हो गया । जरा-सी भी ! कर्तव्य तभी कर्तव्य है, जब बिलकुल शुद्ध है, उसमें कोई आकांक्षा नहीं है। यह हमें कठिन पड़ेगा। क्योंकि हमारी जिंदगी में ऐसा कोई कर्म नहीं है, जिससे हमारी पहचान हो, जिससे हम समझ पाएं। लेकिन ऐसे कर्म के लिए द्वार खोले जा सकते हैं। मैंने कहा, रास्ते पर एक आदमी है, उसका छाता गिर गया है। आप छाता उठाएं, दे दें, और छाता उठाकर देते समय भीतर देखते रहें कि कोई मांग तो नहीं उठती है! सिर्फ देखते रहें। छाता उठाकर दें और अपने रास्ते पर चल पड़ें और भीतर देखते रहें कि कोई मांग तो नहीं उठती धन्यवाद की भी ! उठेगी; लेकिन देखते रहें, दो-चार कृत्यों में देखते रहें और अचानक पाएंगे, क्या पागलपन है। गिर जाएगी। दिन में जो आदमी एक कृत्य भी अनमोटिवेटेड कर ले, वह कृष्ण की गीता को समझ पा सकता है। एक कृत्य भी चौबीस घंटे में अनमोटिवेटेड कर ले, जिसमें कि कुछ न हो, चेतन-अचेतन कोई मांग न हो— बस किया और हट गए और चले गए - तो कृष्ण की गीता को, और कृष्ण के कर्मयोग को समझने का मार्ग खुल जाएगा। रोज गीता न पढ़ें, चलेगा। लेकिन एक कृत्य चौबीस घंटे में ऐसा खिल जाए, जिसमें हमारी कोई भी कामना नहीं है; बस, जिसमें करना ही पर्याप्त है और हम बाहर हो गए और चल पड़े। कठिन नहीं है। अगर थोड़ी खोज-बीन करें, तो बहुत कठिन नहीं है । छोटी-छोटी, छोटी-छोटी घटनाओं में उसकी झलक मिल सकती है। और यह जो कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, वह पूरा का पूरा | प्रयोगात्मक है । होगा ही । यह कोई गुरुकुल में बैठकर, किसी वृक्ष के तले, किसी आश्रम में हुई चर्चा नहीं है। यह युद्ध के स्थल पर, जहां सघन कर्म प्रतीक्षा कर रहा है, वहां हुई चर्चा है। यह चर्चा किसी शांत वट वृक्ष के नीचे बैठकर कोई तत्व चर्चा नहीं है, यह कोरी तत्व - चर्चा नहीं है । यह सघन कर्म के बीच, ठीक युद्ध के क्षण में - युद्ध से ज्यादा सघन कृत्य और क्या होगा - वहां हुई यह | चर्चा है | और अर्जुन से कृष्ण कह रहे हैं कि अगर स्वर्ग तक की भी कामना मन में है— किसी भी विषय की तो सब व्यर्थ हो जाता है। 2 कर्मयोग का सार, कर्म ऋण कामना है। काम से कामना गई ... । हमने तो काम शब्द ही रखा हुआ है कर्म के लिए। क्योंकि काम कामना से ही बनता है। हम तो कहते हैं, काम वही है, जो कामना चलता है। 203 लेकिन कृष्ण कहते हैं, काम से अगर कामना घट जाए तो कर्मयोग। तो फिर साधारण कर्म नहीं रह जाता है वह, योग बन जाता है। और योग बन जाए, तो न पाप है, न पुण्य है; न बंधन है, न मुक्ति है— दोनों के बाहर है व्यक्ति । त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ।। ४५ ।। हे अर्जुन, सब वेद तीनों गुणों के कार्य रूप संसार को विषय करने वाले, अर्थात प्रकाश करने वाले हैं, इसलिए असंसारी, अर्थात निष्कामी और सुख-दुःखादि
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy