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________________ m+ गीता दर्शन भाग-1 AM बदले बिना, केवल इंद्रियों के दबाने में लग जाता है। और उसका | | वासनाओं के लिए, जिनको छोड़ दिया था पिछले शरीर में। उसकी परिणाम क्या होगा? उसका परिणाम होगा कि वह दंभी हो जाएगा। यात्रा जारी रहेगी। वह अनंत-अनंत जन्मों तक वही खोजता रहेगा, वह दिखावा करेगा कि देखो, मैंने संयम साध लिया; देखो, मैंने जो उसका मन खोजना चाहता है। संयम पा लिया; देखो, मैं तप को उपलब्ध हुआ; देखो, ऐसा हुआ, दंभ, पाखंड, धोखा–किसको दे रहे हैं हम? दूसरे को? दूसरे ऐसा हुआ। वह बाहर से सब दिखावा करेगा और भीतर, भीतर | को दिया भी जा सके, स्वयं को कैसे देंगे? और इसलिए प्रत्येक बिलकुल उलटा और विपरीत चलेगा। उस व्यक्ति को जो धर्म की दिशा में उत्सुक होता है, ठीक से समझ अगर हम साधुओं के तथाकथित साधुओं के, सो काल्ड लेना चाहिए कि स्वयं को धोखा तो देने नहीं जा रहा है!.सेल्फ साधुओं के; और उनकी ही संख्या बड़ी है, वही हैं निन्यानबे | | डिसेप्शन, आत्मवंचना में तो नहीं पड़ रहा है! कृष्ण उसी के लिए प्रतिशत-अगर उनकी खोपड़ियों को खोल सकें और उनके हृदय | कह रहे हैं—मूढ़! के द्वार खोल सकें, तो उनके भीतर से शैतान निकलते हुए दिखाई | सोचने जैसा है, कृष्ण जैसा आदमी मूढ़ जैसे शब्द का उपयोग पड़ेंगे। अगर हम उनके मस्तिष्क के सेल्स को तोड़ सकें और उनसे | करे! अगर मैं किसी को कह दूं कि तुम मूढ़ हो, तो वह लड़ने खड़ा पूछ सकें कि तुम्हारे भीतर क्या चलता है? तो जो चलता है, वह | हो जाएगा। कृष्ण ने अर्जुन को मूढ़ कहा। उन सब को मूढ़ कहा। बहत घबड़ाने वाला है। ठीक विपरीत है। जो बाहर दिखाई पड़ता एक आगे के सत्र में तो अर्जन को महामढ कहा, कि त बिलकल है, उससे ठीक उलटा भीतर चलता चला जाता है। महामूर्ख है। फिर भी अर्जुन लड़ने खड़ा नहीं हो गया। कृष्ण जो कृष्ण इसे मूढ़ता कह रहे हैं। क्योंकि जो भीतर चलता है, वही | | कह रहे हैं, वह फैक्चुअल है, कंडेमनेटरी नहीं है। कृष्ण जो कह असली है। जो बाहर चलता है, उसका कोई मूल्य नहीं है। धर्म का रहे हैं, वह मूढ़ शब्द का उपयोग किसी की निंदा के लिए नहीं है, दिखावे से, एक्जीबिशन से कोई संबंध नहीं है। धर्म का प्रदर्शन से | | तथ्य की सूचना के लिए है। क्या संबंध है? धर्म का होने से संबंध है। हो सकता है, बाहर कुछ मूढ़ हैं जगत में; कहना पड़ेगा, उन्हें मूढ़ ही कहना पड़ेगा। अगर उलटा भी दिखाई पड़े, तो कोई फिक्र नहीं; भीतर ठीक चलना | सज्जनता और शिष्टाचार के कारण उन्हें कहा जाए कि हे चाहिए। बाहर भोजन भी चले, तो कोई फिक्र नहीं, भीतर उपवास बद्धिमानो। तो बड़ा अहित होगा। लेकिन कृष्ण जैसे हिम्मत के होना चाहिए। लेकिन होता उलटा है। बाहर उपवास चलता है, धार्मिक लोग अब नहीं रह गए। अब तो धार्मिक आदमी के पास भीतर भोजन चलता है। बाहर स्त्री भी पास में बैठी रहे तो कोई हर्ज | कोई भी जाए, तो उसको मूढ़ नहीं कह सकता। धार्मिक आदमी ही नहीं, पुरुष भी पास में बैठा रहे तो कोई हर्ज नहीं, भीतर-भीतर | नहीं रहा। स्वयं के अतिरिक्त और कोई भी नहीं होना चाहिए। लेकिन होता झेन फकीर होते हैं जापान में, तो डंडा पास में रखते हैं। जरा उलटा है। बाहर आदमी मंदिर में बैठा है, मस्जिद में बैठा है, | गलत-सलत पूछा, तो सिर पर एक डंडा भी लगाते हैं। यहां तो गुरुद्वारे में बैठा है; और भीतर उसके गुरुद्वारे में, खुद के गुरुद्वारे में | | किसी से अगर इतना भी कह दो कि गलत पूछ रहे हो, तो वह लड़ने कोई और बैठे हुए हैं; वे चल रहे हैं। को खड़ा हो जाएगा। चूंकि कोई पूछने की जिज्ञासा भी नहीं है और जिंदगी को बदलाहट देनी है, तो बाहर से नहीं दी जा सकती सैकड़ों वर्षों से उस हिम्मतवर धार्मिक आदमी का भी तिरोधान हो जिंदगी को बदलाहट देनी है, तो वह भीतर से ही दी जा सकती है। गया है, जो तथ्य जैसे थे उनको वैसा कहने की हिम्मत रखता था। और जो आदमी बाहर से देने में पड़ जाता है, वह भूल ही जाता है | तो आज किसी को मूढ़ कह दो, तो वह कहेगा कि अरे! उन्होंने मूढ़ कि असली काम भीतर है। सवाल इंद्रियों का नहीं, सवाल मन का कह दिया। तो वह आदमी ठीक नहीं है, जिसने मूढ़ कह दिया। है। सवाल वृत्ति का है; सवाल वासना का है; सवाल शरीर का जरा कृष्ण कह रहे हैं कि मूढ़ हैं वे, जो इंद्रियों को दबाते, दमन करते, भी नहीं है। | रिप्रेस करते और परिणामतः भीतर जिनका चित्त उन्हीं-उन्हीं इसलिए शरीर को कोई कितना ही दबाए और नष्ट करे, मार ही | वासनाओं में परिभ्रमण करता है, तूफान लेता है, आंधियां बन जाता डाले, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। उसकी प्रेतात्मा भटकेगी, | है; ऐसे व्यक्ति दंभ को, पाखंड को पतित हो जाते हैं। और इस उन्हीं वासनाओं में वह नए जन्म लेगा। नए शरीर ग्रहण करेगा उन्हीं जगत में अज्ञान से भी बुरी चीज पाखंड है। इसलिए उन्होंने कहा 328
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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